दिनांक 20 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
प्रश्नसार:
1—मुझे
अपने अहंकार
के झूठेपन का
बोध हो रहा है, इससे
मेरे सारे
बंधे—बंधाए
उत्तर और सुनंश्चित
व्यवस्थाएं
और ढांचे बिखर
रहे हैं। मैं
मार्गविहीन, दिशाविहीन
अनुभव करता
हूं। क्या
करूं?
2—पश्चिम
में जहां बहुत—सी
धार्मिक दुकानें
है, वहां आपकी बात
कहते समय व्यावसायिकता
का बोध ग्लानि
लाता है। इसके
लिए क्या करू?
3—उत्सव
क्या है? क्या
दुःख का उत्सव
मनाना संभव होता
है?
4—आप
अत्यंत विरोधाभासी
है और सतत स्वयं
का खंडन करते है।
इससे क्या समझ
सीखी जाए?
पहला
प्रश्न:
जितना
ज्यादा मैं
देखता हूं
स्वयं को उतना
ज्यादा मैं
अनुभव करता
हूं अपने
अहंकार के
झूठेपन को।
मैं स्वयं को
ही अजनबी लगने
लगा हूं अब
नहीं जानता कि
क्या झूठ है।
यह बात मुझे
एक बेचैन
अनुभूति के
बीच छोड़ देती
है कि जीवन—
मार्ग की कोई
रूपरेखाएं
नहीं हैं जो
कि मुझे लगता
था पहले मेरे
पास थीं।
ऐसा
होता है, ऐसा
होगा ही। और
ध्यान रहे कि
तुम्हें खुश
होना चाहिए कि
ऐसा हुआ है।
यह अच्छा
लक्षण है। जब
कोई चलना शुरू
करता है
अंतर्यात्रा
पर तो हर चीज
जान पड़ती है
सीधी —साफ, बद्धमूल,
क्योंकि
अहंकार
नियंत्रण में
होता है और
अहंकार के पास
सारी
रूपरेखाएं
होती हैं, अहंकार
के पास सारे नक्शो
होते हैं, अहंकार
मालिक होता है।
जब
तुम कुछ और
आगे बढ़ते हो
इस यात्रा में, तो
अहंकार
वाष्पित होने
लगता है, और
— और झूठा जान
पड़ने लगता है,
और अधिक
धोखा मालूम
पड़ने लगता है,
एक भ्रम।
तुम जागने
लगते हो
स्वप्न में से,
तब सारे नक्शे—ढांचे
खो जाते हैं।
अब वह पुराना
मालिक कोई
मालिक नहीं
रहता, और
नया मालिक अभी
तक आया नहीं
होता। एक उलझन
होती है, एक
अराजकता। यह
एक अच्छा
लक्षण होता है।
आधी
यात्रा पूरी
हुई,
लेकिन एक
बेचैन
अनुभूति तो आ
बनेगी, एक
घबड़ाहट, क्योंकि
तुम खोया हुआ
अनुभव करते हो,
स्वयं के
प्रति अजनबी,
न जानते हुए
कि तुम कौन हो।
इससे पहले, तुम जानते
थे कि तुम कौन
हो. तुम्हारा
नाम, तुम्हारा
रूप, तुम्हारा
पता, तुम्हारा
बैंक —खाता—हर
चीज निश्चित
थी, इस तरह
तुम थे।
तुम्हारा
तादात्म्य था
अहंकार के साथ।
अब अहंकार
विलीन हो रहा
है, पुराना
घर गिर रहा है
और तुम नहीं
जानते? तुम
कौन हो, तुम
कहां हो। हर
चीज अंधेरे
में घिरी होती
है, धुंधली
होती है और वह
पुरानी
सुनिश्चितता
खो जाती है।
यह
अच्छा है
क्योंकि
पुरानी
निश्चितता एक
झूठी
निश्चितता थी।
वस्तुत: वह
निश्चितता थी
ही नहीं। इसके
पीछे गहरे में
अनिश्चितता
ही थी। इसीलिए, जब
अहंकार विलीन
होता है, तुम
अनिश्चित
अनुभव करते हो।
अब तुम्हारे
अस्तित्व की ज्यादा
गहरी परतें
उदघाटित हो
जाती हैं
तुम्हारे
सामने —तुम
अजनबी अनुभव
करते हो। तुम
सदा अजनबी थे।
केवल अहंकार
ही इस अनुभूति
के धोखे में
ले गया कि तुम
जानते थे तुम
कौन हो।
स्वप्न बहुत
ज्यादा था, वह एकदम
सत्य जान पड़ता
था।
सुबह
जब तुम स्वप्न
से जाग रहे
होते हो, अचानक,
तो तुम नहीं
जानते कि तुम
कौन हो और कहां
हो। क्या
तुमने इस
अनुभूति को
अनुभव किया
किसी सुबह? —जब अचानक, तुम स्वप्न
से जागते हो
और कुछ पलों
तक तुम नहीं
जानते कि तुम
कहां हो, तुम
कौन हो और
क्या हो रहा
है? ऐसा ही
होता है जब
कोई अहंकार के
स्वप्न से
बाहर आता है।
असुविधा, बेचैनी,
उखडाव
महसूस होगा, लेकिन इससे
तो
प्रफुल्लित
होना चाहिए।
यदि तुम इससे
दुखी हो जाते
हो, तो तुम
उन्हीं
पुराने ढर्से
में जा पड़ोगे
जहां कि चीजें
निश्चित थीं,
जहां हर चीज
का नक्शा बना
था, खाका
खिंचा था, जहां
कि पहचानते थे
हर चीज, जहां
जीवन—मार्ग की
रूपरेखाएं
स्पष्ट थीं।
बेचैनी
गिरा दो। यदि
वह हो भी तो
उससे ज्यादा
प्रभावित मत
हो जाना। रहने
दो उसे, ध्यानपूर्वक
देखो और वह भी
चली जाएगी।
बेचैनी जल्दी
ही तिरोहित हो
जाएगी। वह
वहां होती है
निश्चितता की
पुरानी आदत
होने से ही।
तुम नहीं
जानते कि
अनिश्चित जगत
में कैसे जीया
जाता है। तुम
नहीं जानते कि
असुरक्षा में
कैसे जीया जाता
है। बेचैनी
होती है
पुरानी
सुरक्षा के
कारण। वह होती
है केवल
पुरानी आदत, पुराने
प्रभाव के
कारण। वह चली
जाएगी।
तुम्हें बस
प्रतीक्षा
करनी है, देखना
है, आराम
करना है, और
प्रसन्नता
अनुभव करनी है
कि कुछ घटित
हुआ है। और
मैं कहता हूं
तुमसे—यह
अच्छा लक्षण
है।
बहुत
लौट गए इस
स्थल से, केवल
फिर से
सुविधापूर्ण
होने को—आराम
में, सुख—चैन
में होने को
ही। चूक गए
हैं वे।
बिलकुल करीब आ
ही रहे थे
मंजिल के, और
उन्होंने पीठ
फेर ली। वैसा
मत करना—आगे
बढ़ना।
अनिश्चितता
अच्छी होती है,
उसमें कुछ
बुरा नहीं है।
तुम्हारा तो
केवल ताल—मेल
बैठना है, बस
इतना ही।
तुम्हारा
ताल—मेल बैठ
जाता है
अहंकार के
निश्चित
संसार के साथ, अहंकार
की सुरक्षित
दुनिया के साथ।
कितना ही झूठ
क्यों न हो
सतह पर, हर
चीज बिलकुल
ठीक जान पड़ती
है जैसा कि
उसे होना चाहिए।
जरूरत है कि
अनिश्चित
अस्तित्व के
साथ तुम्हारा
तालमेल थोड़ा
बैठ जाए।
अस्तित्व
अनिश्चित है, असुरक्षित
है, खतरनाक
है। वह एक
प्रवाह है —चीजें
सरक रही हैं, बदल रही हैं।
यह एक अपरिचित
संसार है; परिचय
पा लो उसका।
थोड़ा साहस रखो
और पीछे मत
देखो, आगे
देखो; और
जल्दी ही
अनिश्चितता
स्वयं
सौंदर्य बन जाएगी,
असुरक्षा
सुंदर हो
उठेगी।
वस्तुत:
केवल
असुरक्षा ही
सुंदर होती है, क्योंकि
असुरक्षा ही
जीवन है।
सुरक्षा
असुंदर है, वह एक
हिस्सा है
मृत्यु का—इसीलिए
वह सुरक्षित
होती है। बिना
किन्हीं
तैयार नक्शो
के जीना ही
एकमात्र ढंग
है जीने का।
जब तुम तैयार
निर्देशों के
साथ जीते हो, तो तुम जीते
हो एक झूठी
जिंदगी।
आदर्श, मार्ग—
निर्देश, अनुशासन—तुम
लाद देते हो
कोई चीज अपने
जीवन पर; तुम
सांचे में ढाल
लेते हो अपना
जीवन। तुम उसे
उस जैसा होने
नहीं देते, तुम कोशिश
करते हो उसमें
से कुछ बना
लेने की।
मार्ग
निर्देशन की
तैयार
रूपरेखाएं
आक्रामक होती
हैं, और
सारे आदर्श
असुंदर होते
हैं। उनसे तो
तुम चूक जाओगे
स्वयं को। तुम
कभी उपलब्ध न
होओगे अपने
स्वरूप को।
कुछ
हो जाना
वास्तविक
सत्ता नहीं है।
होने के सारे
ढंग,
और कुछ होने
के सारे
प्रयास, कोई
चीज लाद देंगे
तुम पर। यह एक
आक्रामक
प्रयास होता
है। तुम हो
सकते हो संत, लेकिन
तुम्हारे
संतत्व में
असौंदर्य
होगा। मैं
कहता हूं
तुमसे और मैं
जोर देता हूं
इस बात पर
बिना किन्हीं
निर्देशों के
जीवन जीना एक मात्र
संभव संतत्व
है। फिर तुम
शायद पापी हो
जाओ; पर
तुम्हारे
पापी होने में
एक पवित्रता
होगी, एक
संतत्व होगा।
जीवन
पवित्र है.
तुम्हें कोई
चीज उस पर
जबरदस्ती
लादने की कोई
जरूरत नहीं, तुम्हें
उसे गढ़ने की
कोई जरूरत
नहीं; कोई
जरूरत नहीं कि
तुम उसे कोई
ढांचा दो, कोई
अनुशासन दो और
कोई व्यवस्था
दो। जीवन की
अपनी
व्यवस्था है,
उसका अपना
अनुशासन है।
तुम बस उसके
साथ चलो, तुम
बहो उसके साथ,
तुम नदी को
धकेलने की
कोशिश मत करना।
नदी तो बह रही
है —तुम उसके
साथ एक हो जाओ
और नदी ले
जाती है तुम्हें
सागर तक।
यही
होता है एक
संन्यासी का
जीवन सहज होने
देने का जीवन—करने
का नहीं। तब
तुम्हारी
अंतस—सत्ता
पहुंच जाती है, धीरे
— धीरे, बादलों
से ऊपर, बादलों
और
अंतर्विरोधों
के पार। अचानक
तुम मुक्त
होते हो। जीवन
की अव्यवस्था
में, तुम
पा लेते हो एक
नयी व्यवस्था।
लेकिन
व्यवस्था की
गुणवत्ता अब
संपूर्णतया
अलग होती है।
यह कोई
तुम्हारे
द्वारा
आरोपित चीज
नहीं होती, यह स्वयं
जीवन के साथ
ही आत्मीयता
से गुंथी होती
है।
वृक्षों
में भी एक
व्यवस्था
होती है, नदियों
में भी, पर्वतों
में भी, लेकिन
ये
व्यवस्थाएं
वे नहीं जो
नैतिकतावादियों
द्वारा, प्यूरिटन्स
द्वारा, पुरोहितों
द्वारा
आरोपित होती
हैं। वे नहीं
जातीं किसी के
पास मार्ग निर्देशन
के लिए।
व्यवस्था
अंतर्निहित
होती है; वह
स्वयं जीवन
में ही होती
है। एक बार
अहंकार वहां
नहीं रहता
योजनाएं
बनाने को यहां
—वहां खींचने —
धकेलने को—कि
यह करो और वह
करो...। जब तुम
पूरी तरह
अहंकार से
मुक्त होते हो,
तो एक
अनुशासन
तुममें आ जाता
है—एक आतंरिक
अनुशासन। यह
अकारण होता है,
अहेतुक
होता है। यह
किसी चीज की
तलाश नहीं है,
यह तो बस
घटता है जैसे
कि तुम सांस
लेते हो, जैसे
कि जब तुम्हें
भूख अनुभव
होती है और तुम
कुछ खा लेते
हो, जैसे
कि जब तुम्हें
नींद आने लगती
है और तुम बिस्तर
पर चले जाते
हो। यह आंतरिक
सुव्यवस्था
होती है, एक
अंतर्निहित
सुव्यवस्था।
वह आ बनेगी जब
तुम्हारा
तालमेल बैठ
जाता है असुरक्षा
के साथ, जब
तुम्हारी
सुसंगति बन
जाती है अपने
भीतर के अजनबी
के साथ, जब
तुम अपने भीतर
की अज्ञात
सत्ता के साथ
लयबद्ध हो
जाते हो।
झेन
में उनके पास
एक कथन है, सुंदरतम
कथनों में से
एक : जब कोई
व्यक्ति रहता
है संसार में,
तो पर्वत
पर्वत होते
हैं, नदिया
नदियां होती
हैं। जब कोई
व्यक्ति
ध्यान में
उतरता है, तब
पर्वत फिर
पर्वत नहीं रहते,
नदियां
नदियां नहीं
रहती। हर चीज
एक भ्रम और एक
अव्यवस्था
होती है।
लेकिन जब कोई
व्यक्ति
उपलब्ध कर
लेता है सतोरी
को, समाधि
को, फिर
नदियां नदिया
होती हैं और
पर्वत होते
हैं पर्वत।
तीन
अवस्थाएं
होती हैं? पहली
में तुम
अहंकार के
प्रति
सुनिश्चित
होते हो, तीसरी
में तुम
निरहंकार
अवस्था में
परिपूर्ण
निश्चित होते
हो। और इन
दोनों के बीच
अराजकता की
अवस्था है, जब अहंकार
की निश्चितता
तिरोहित हो
गयी है और जीवन
की
सुनिश्चितता
अभी आयी नहीं।
यह एक बहुत
ज्यादा
संभावनापूर्ण
घड़ी होती है, बहुत गर्भित
घड़ी है १ यदि
तुम डर जाते हो
और वापस मुड़
जाते हो, तो
तुम चूक जाओगे
संभावना को।
आगे
है सच्ची
निश्चितता।
वह सच्ची
निश्चितता
अनिश्चितता
के विपरीत नहीं
है। आगे है
सच्ची
सुरक्षा, लेकिन
वह सुरक्षा
असुरक्षा के
विपरीत नहीं है।
वह सुरक्षा
इतनी विशाल
होती है कि वह
असुरक्षा को
समाए रहती है
स्वयं के भीतर
ही। वह इतनी
विशाल होती है
कि वह भयभीत
नहीं होती असुरक्षा
से। वह
असुरक्षा को
सोख लेती है
स्वयं में ही,
वह सारी
विपरीत बातों
को समाए रहती
है। इसलिए कोई
उसे कह सकता
है असुरक्षा
और कोई उसे कह
सकता है —सुरक्षा।
वस्तुत: वह
इनमें से कुछ
भी नहीं, या
फिर दोनों ही
है।
यदि
तुम अनुभव
करते हो कि
तुम स्वयं के
लिए अजनबी बन
गए हो, तो
उत्सव मनाओ
इसका, अनुगृहीत
अनुभव करो।
बहुत विरल, अनूठी होती
है यह घड़ी, आनंदित
होओ इससे।
जितना ज्यादा
तुम आनंदित
होते हो:, उतना
ज्यादा तुम
पाओगे कि
निश्चितता
तुम्हारे
ज्यादा निकट
चली आ रही है, और — और तेजी
से चली आ रही
है तुम्हारी
ओर। यदि तुम
उत्सव मना सको
तुम्हारे
अजनबीपन का, तुम्हारे
उखडाव का, तुम्हारी
गृहविहीनता
का, तो
अचानक तुम
पहुंच जाते हो
घर—तीसरी
अवस्था आ गयी
होती है।
दूसरा
प्रश्न:
आध्यात्मिक
विषयों में भी
पश्चिम बहुत
अतिरेक से पीड़ित
जान पड़ रहा है।
बहुत से
विभिन्न
मार्ग हैं यह
तो ऐसा हुआ
जैसे कि सामने
चुनने को सौ
खाद्य पदार्थ
पड़े हों और
निर्णय के लिए
कोशिश की जाए
कि उनमें से
कौन— सा
प्रकार
सर्वश्रेष्ठ
है। हम आपके
बारे में
पश्चिम को
कैसे बता सकते
हैं बिना ऐसा
प्रतीत हुए कि
जैसे आप भी बाजार
में उपलब्ध एक
और
कॉर्नफ्लेक्स
का पैकेट है?
यह
संसार एक
बाजार है, और
इसके बाजार
होने में जरा
भी बुराई नहीं
है। तुम बाजार
के इतना विरोध
में क्यों हो?
बाजार तो
सुंदर होता है।
तुम निकल सकते
हो पर्वतों की
ओर विश्राम के
लिए, लेकिन
अंततः
तुम्हें
लौटकर आना ही
पड़ता है बाजार
में। बाजार एक
वास्तविकता
है। पर्वत हो
सकते हैं
छुट्टियों के
लिए, लेकिन
छुट्टियां
उतनी
वास्तविक
नहीं होतीं जितनी
कि बाजार की
वास्तविकता।
तुमने
देखे होंगे
झेन के दस बैल
वाले चित्र।
सुंदर हैं वे।
पहले चित्र में, बैल
कहीं खो गया
है। बैल है
आत्मा का
प्रतीक, और
बैल का मालिक
खोज में है।
वह जाता है
जंगल में, वह
नहीं जान सकता
कि कहां भाग
गया बैल, कहौ
छिपा बैठा है
बैल, लेकिन
वह खोजता जाता
है। अगले
चित्रों में
वह खोज लेता
है बैल के
पदचिह्न।
तीसरे चित्र
में वह देखता
है, कहीं
बहुत दूर, केवल
बैल की पीठ ही,
वह देख सकता
है उसकी पूंछ।
चौथे चित्र
में वह देख
सकता है सारे
बैल को और वह
पकड़ लेता है
पूंछ को। पांचवें
चित्र में
उसने साध लिया
है बैल को, छठवें
में वह बैल पर
सवार हो चल
देता है घर की
ओर। इसी तरह
चलती चली जाती
है कथा। सातवें
में बैल कहीं
पार चला गया
है, नहीं
है, और
आठवें में बैल
और: बैल का
मालिक दोनों
ही खो गए हैं।
नौवें चित्र
में संसार फिर
से प्रकट हो
रहा होता है :
वृक्ष, पर्वत,
फूल, लेकिन
तुम नहीं देख
सकते बैल को
या बैल के मालिक
को। दसवें
चित्र में बैल
का मालिक फिर
आ गया है और वह
खड़ा है बाजार
में। न ही
केवल खड़ा है
बाजार में, बल्कि वह
पकड़े हुए है
मदिरा की बोतल।
पुराने
दिनों में
केवल आठ
चित्रों का
अस्तित्व था।
आठवा चित्र
खाली है; कुछ
भी नहीं है
वहां। वह
ध्यान का
उच्चतम शिखर
है, जहां
हर चीज खो
जाती है —खोजने
वाला और खोज, हर चीज खो
जाती है, होती
है केवल
शून्यता।
लेकिन फिर एक
बड़े झेन गुरु
को लगा कि यह
बात तो अधूरी
है।
वर्तुल
पूरा नहीं हुआ
आना ही होगा
वापस संसार में।
पर्वत अच्छे
होते हैं, लेकिन
वर्तुल
अपूर्ण रहता
है यदि तुम
पर्वतों में
ही रह गए होते
हो। तुम्हें
आना ही होगा
बाजार में।
उसने दो चित्र
और जोड़ दिए, और मुझे
लगता है कि
उसने बहुत ठीक
किया। अब
वर्तुल पूरा
हुआ। तुम शुरू
करते हो बाजार
से और तुम लौट
आते हो बाजार
में। बाजार
वही है, लेकिन
तुम वही न रहे।
लौट कर आना ही
होता है यहां तक।
ऐसा
ही हुआ है सदा
ही। महावीर
छोड़ गए—बारह
वर्षों तक वे
पर्वतों में, जंगलों
में रह कर मौन
में रहे। फिर
अचानक एक दिन
वे लौट आए
बाजार में।
बुद्ध चले गए
थे—छ वर्षों
तक वे रहे
एकांत में।
फिर एक दिन
अचानक वे खड़े
थे बाजार में
और लोगों को
इकट्ठा कर रहे
थे, यह समझाने
को कि उन्हें
क्या हुआ है।
जीसस पर्वतों
में रहे चालीस
दिन तक। लेकिन
कैसे तुम सदा
के लिए ही रह
सकते हो पर्वतों
में? —वर्तुल
तो अपूर्ण
रहेगा। जो कुछ
भी तुम उपलब्ध
करते हो
पर्वतों में,
वह वापस
देना होता है
बाजार में।
पहली
बात है बाजार
के प्रति
विरोध मत का
लेना। सारा
संसार एक
बाजार है।
विद्वेष, विरोध
अच्छा नहीं
होता। और
कॉर्नफ्लेक्स
का डिब्बा
होने में
बुराई क्या है?
कॉर्नफ्लेक्स
बहुत अच्छे
होते हैं।
उनमें उतनी ही
संभावना होती
है बुद्धत्व
की जितनी कि
तुममें।
मैं
कहूंगा तुमसे
कुछ दिलचस्प
कथाएं।
एक
झेन गुरु, लिंची
तौल रहा था
फ्लैक्स
(अलसी)। जब वह
तौल रहा था
फ्लैक्स तो एक
साधक आ पहुंचा
और पूछने लगा,
'मैं जल्दी
में हूं और
मैं
प्रतीक्षा
नहीं कर सकता,
लेकिन एक
बात पूछनी है
मुझे।
बुद्धत्व
क्या होता है?'
गुरु ने तो
उस साधक की ओर
देखा तक भी
नहीं, उसने
तौलना जारी
रखा और बोला, 'एक पाउंड
फ्लैक्स।’ यह
बात एक संकेत—सूत्र
ही बन गयी है
झेन में—एक
पाउंड
फ्लैक्स। तो
एक पाउंड
कॉर्नफ्लेक्स
क्यों नहीं?
फ्लैक्स
की भी संभावना
है—बुद्धत्व
की संभावना।
हर चीज पवित्र
और दिव्य है।
जब तुम निंदा
करते हो किसी
चीज की, तो
तुममें ही कुछ
गलत होता है।
एक
बार लिंची
बैठा हुआ था
एक पेडू के
नीचे और एक
व्यक्ति आकर
पूछने लगा, 'क्या
किसी कुत्ते
के लिए
संभावना होती
है बुद्ध होने
की? क्या
कोई कुत्ता
बुद्ध हो सकता
है? क्या
कोई कुत्ता
संभावना लिए
होता है
बुद्धत्व की
भी?' लिंची
ने क्या किया?
—वह कूद पड़ा
चार पांव के
बल पर और
भौंकने लगा, 'वूफ--बुफ!' वह
कुत्ता बन गया
और वह बोला, 'हा कुछ गलत
नहीं, एकदम
कुछ भी गलत
नहीं है
कुत्ता होने
में।’
यही
होता है सच्चे
धार्मिक
व्यक्ति का
दृष्टिकोण कि
सारा जीवन
दिव्य है, बिना
किसी शर्त के।
बाजार में रखा
कॉर्नफ्लेक्स
का पैकेट होने
में कुछ गलत
नहीं है।
इसलिए लोगों
को मेरे बारे
में बताने से
भयभीत मत होना।
और भयभीत मत
हो जाना बाजार
से। बाजार सदा
से मौजूद रहा
है और सदा
रहेगा। और
बाजार में कुछ
भी चलता रहता
है। गलत चीजें
भी बेची
जाएंगी; कोई
उसे रोक नहीं
सकता। लेकिन
गलत चीजों की
वजह से, जिनके
पास बाजार मै
बेचने को कोई
ठीक चीज होती
है, वे लोग
भयभीत हो जाते
हैं। वे सदा
डर जाते हैं
और वे सोचते
हैं, 'कैसे
ऐसी चीज को
बाजार में ले
आएं जहां कि
हर चीज गलत चल
रही है?' लेकिन
यह बात किसी
ढंग से मदद
नहीं बनती, बल्कि इसके
विपरीत, तुम
गलत चीज के बिकने
में मदद करते
हो।
अर्थशास्त्र
में एक नियम
है जो कहता है
कि खोटे
सिक्के असली
सिक्कों को
बाजार से बाहर
होने पर मजबूर
कर देते हैं।
यदि तुम्हारे
पास एक खोटा
सिक्का होता
है और एक असली
सिक्का होता
है तो मानव मन
की प्रवृत्ति
होती है —पहले
खोटे सिक्के
को चलाने की
कोशिश करने की।
तुम उससे
छुटकारा पाना
चाहते हो; असली
सिक्के को तो
रख लेते हो
तुम्हारी जेब
में और खोटे
सिक्के को चला
देते हो बाजार
में। इसीलिए
इतने सारे
खोटे सिक्के
चलते रहते हैं।
किसी को लाना
ही पड़ता है
असली सिक्के
को बाजार में।
और एक बार तुम
असली सिक्के
को बाजार में
ले आते हो, तो
वह असलीपन ही
काम कर जाता
है।
जरा
सोचो तो—यदि
खोटी चीजें
चलती हैं, तो
फिर सच्ची
क्यों नहीं? लेकिन जिन
लोगों के पास
सच्ची चीज
होती है वे सदा
भयभीत होते
हैं अनावश्यक
समस्याओं से।
बहुत से लोगों
को मैं जानता
हूं जो कि
मेरे बारे में
लोगों से कहते
हुए भी डरते
हैं। वे सोचते
हैं, 'जब
ठीक घड़ी आएगी—तब।’
कौन जाने कब
आएगी वह घड़ी? वे सोचते
हैं, 'कैसे
कह सकता हूं
मैं? अभी
तो मेरा अनुभव
भी कुछ ज्यादा
नहीं!' फिर
वे सोचते हैं
कि 'यदि
मेरे बारे में
कुछ कहते हैं
तो बात किसी
प्रचार जैसी
हो जाती है।’ यदि तुम टी
वी या रेडियो
द्वारा कुछ
कहते हो, या
कि तुम लेख
लिखते हो
अखबारों में,
तो ऐसा लगता
है कि तुम कुछ
बेच रहे हो।
यह बात सस्ती
मालूम पड़ती है।
लेकिन लोग जो
बेच रहे हैं
बुरी और झूठी
चीजें, वे
भयभीत नहीं
हैं, इस
बात से उन्हें
कुछ फिक्र
नहीं। उन्हें
तो इसकी भी
फिक्र नहीं कि
पैकेट के भीतर
कॉर्नफ्लेक्स
हैं भी या
नहीं। वे तो
बस बेच रहे
हैं सुंदर
पैकेट, डिब्बे,
लेकिन खाली।
उन्हें डर
नहीं है!
इसी
तरह गलत लोग
ठीक लोगों को
चलन से बाहर
कर देते हैं।
उन्हें कुछ
फिक्र नहीं
होती कि कोई
चीज सस्ती है, वे
तो बस जोर से
चिल्लाते
रहते हैं। और
निस्संदेह जब
कोई जोर से
चिल्लाता है,
तो लोग
सुनते हैं। जब
कोई बहुत जोर
से और इतने
आत्मविश्वास
से चिल्लाता
है, तो लोग
आ जाते हैं
उसकी पकड़ में।
भयभीत
मत होओ। केवल
तुम्हारे
भयभीत होने से
ही तुम गलत
चीजों को बाजार
से बाहर नहीं
ला सकते।
उन्हें बाहर
करने का
एकमात्र
तरीका है—ठीक
चीज को ले आना।
और यदि
तुम्हारे पास
ठीक चीज है, तो
पुकारों छतों
पर चढ़ कर।
फिक्र मत करो;
जितनी जोर
से तुम चिल्ला
सकते हो—चिल्लाओ।
वही है
एकमात्र ढंग
जिससे चीजें
चलती हैं संसार
में।
जीसस
ने कहा है
अपने शिष्यों
से,
'दुनिया के
दूरतम कोनों
तक जाओ।
रूपांतरण करो
लोगों का। और
घर की छतों पर
चढ़कर चिल्लाओ,
ताकि हर कोई
सुन सके। तब
हर कोई जान
सकता है कि
सत्य क्या है।’
बुद्ध ने
कहा है अपने
शिष्यों से, 'जाओ, और
एक ही स्थान
पर लंबे समय
के लिए मत ठहर
जाना, क्योंकि
यह दुनिया बड़ी
है।’ बुद्ध
के वचन हैं, 'चरैवेति, चरैवेति' —बढ़ते जाना, बढ़ते जाना!
बहुत से अभी
तक बचे हैं
सत्य को सुनने
को। ठहर मत
जाना, आराम
में मत पड़
जाना—'चरैवेति!
चरैवेति!' आगे
बढ़ते जाना, निरंतर आगे
ही, क्योंकि
पूरी पृथ्वी
संदेश की
प्रतीक्षा में
है।
भयभीत
मत होओ। यदि
तुम अनुभव
करते हो कि
तुम्हारे पास
ठीक कॉर्नफ्लेक्स
हैं लोगों के
लिए तो— चले
जाना बाजार
में। हिचकना
मत,
साहस
जुटाना, क्योंकि
केवल डिब्बे
ही बेचे जा
रहे हैं, जब
कि तुम्हारे
पास तो
कॉर्नफ्लेक्स
हैं डिब्बे
में, जो कि
एकमात्र
तरीका है
जिससे कि खाली
डिब्बे चलने
से बाहर किए
जा सकते हैं।
और कोई—तरीका
नहीं। इसमें
कुछ बुरा नहीं
है। बाजार एक
स्वतंत्र होड़
है हर चीज के
लिए।
तुम्हारे पास
उतना ही अवसर
है जीतने का
जितना कि किसी
और के पास।
ये
समस्यायें
सदा परेशान
करती हैं उन
लोगों को
जिनके पास कुछ
होता है, वे
सदा हिचकते
हैं। वे
हिचकते हैं, क्योंकि यदि
वे कुछ कहें, तो हो सकता
है लोग
अस्वीकृत कर
देंगे उन्हें।
कौन जाने? और
अच्छे लोग सदा
हिचकते हैं, बुरे लोग
सदा ही
हठधर्मी होते
हैं, अड़ियल
होते हैं।
इसीलिए संसार
को बुरे लोगों
ने जीता है—और
अच्छे लोग सदा
खड़े रहे हैं
बाजार के बाहर,
यह सोचते
हुए कि 'क्या
करें और क्या
न करें?' जब
तक कि वे
निर्णय करते
हैं, सारा
बाजार भर गया
होता है झूठी
चीजों से।
विशेष
कर पश्चिम में
ऐसा ही है, क्योंकि
अब पश्चिम में
मनुष्य से
व्यक्तिगत रूप
से संपर्क
बनाना असंभव
हो गया है।
तुम्हें सभी
संप्रेषणीय
प्रचार
साधनों का उपयोग
करना पड़ता है।
बुद्ध के समय
में बात
बिलकुल ही
दूसरी थी—बुद्ध
घूमते रहते और
लोगों से
मिलते
प्रत्यक्ष
रूप से ही।
अखबार नहीं थे,
न ही रेडियो,
न टेलीविजन।
लेकिन अब
लोगों से
व्यक्तिगत
रूप से मिलना
मुश्किल हो
गया है, विशेष
कर पश्चिम में,
जब तक कि
तुम मास
मीडिया का
प्रयोग न करो।
और जब तुम मास
मीडिया का
प्रयोग करते
हो तो निस्संदेह,
ऐसा मालूम
पड़ता है कि
ध्यान भी एक
बिकाऊ पदार्थ
है। तुम्हें
उन्हीं
शब्दावलियों
का प्रयोग करना
पड़ता है, तुम्हें
उसी भाषा का
उपयोग करना
पड़ता है, तुम्हें
उसी ढंग से
लोगों को
मनवाना पड़ता
है जैसे कि
दूसरे लोग
दूसरी चीजों
के लिए जोर दे
कर राजी करवा
रहे हैं। यदि
तुम कहते हो
कि यह ध्यान
ही सब से ऊंचा
ध्यान है, तो
यह
व्यावसायिक
मालूम पडेगा,
क्योंकि
ऐसे बहुत हैं
जो यही कर रहे
हैं। वे
साबुनों के
बारे में कह
रहे हैं कि 'यही है
साबुनों में
सबसे ऊपर, यही
है सुगंधियों
की सुगंधि!' एक्टेसी नाम
की सेंट है।
देर— अबेर कोई
न कोई नाम रख
ही देगा 'सतोरी',
'समाधि'! वही
शब्दावली, वही
भाषा उपयोग
करनी ही पड़ती
है, और कोई
उपाय नहीं है।
तुम्हें उन्हीं
विधियों का
उपयोग करना ही
पड़ता है, लेकिन
इसमें कुछ गलत
नहीं है।
मैं
रहा पर्वतों
में और मैं
लौट आया हूं
बाजार में।
क्या तुम मेरे
हाथों में
मदिरा की बोतल
नहीं देख सकते? अब
मैं बाजार में
हूं। तुम्हें
साहसी होना ही
होगा। जाओ और
उन सारे
माध्यमों का
उपयोग करो जो
कि उपलब्ध हैं
अभी। तुम इसे
बुद्ध की
भांति नहीं कर
सकते हो, तुम
इसे जीसस की
भांति नहीं कर
सकते हो—गए वे
दिन। यदि तुम
इसे उसी भांति
किए जाओ, तब
तो खबर
पहुंचने, फैलने
में लाखों
वर्ष लगेंगे।
जब तक कि खबर
लोगों तक
पहुंचे, चीज
पहले ही मर
चुकी होगी। जब
ताजे हों
कॉर्न—
फ्लेक्स, तब
जल्दी करना।
पहुंचो लोगों
तक।
तीसरा
प्रश्न:
क्या
आप हमसे थोड़ी
और बात कह
सकते हैं
उत्सव के बारे
में? क्या
दुख का उत्सव
मनाना संभव
होता है?
ऐसा
संभव है
क्योंकि
उत्सव एक
दृष्टि है।
दुख के प्रति
भी तुम उत्सव
की दृष्टि बना
सकते हो। उदाहरण
के लिए. तुम
उदास होते हो—तो
तादात्म मत
बना लेना
उदासी के साथ।
साक्षी हो जाओ
और आनंदित होओ
उदासी के क्षण
द्वारा, क्योंकि
उदासी के अपने
सौंदर्य हैं।
तुमने कभी
ध्यान नहीं
दिया। तुम
इतना ज्यादा
तादात्म्य
बना लेते हो
कि तुम उदास
क्षण के
सौंदर्य में
कभी गहरे
उतरते ही नहीं।
यदि
तुम ध्यान दो
तो तुम हैरान
होओगे इससे कि
कितने खजाने
तुम चूकते रहे।
जरा ध्यान
देना—जब तुम
प्रसन्न होते
हो तो तुम
उतनी गहराई
में कभी नहीं
होते, जितने
कि जब तुम
उदास होते हो।
उदासी की अपनी
एक गहराई होती
है; प्रसन्नता
में एक उथलापन
होता है।
जाओ
और जरा ध्यान
से देखो
प्रसन्न
व्यक्ति को।
वे तथाकथित
प्रसन्न
व्यक्ति, वे
प्लेब्बॉयज् और
प्लेगर्लज् —जिन्हें तुम
पाओगे क्लबों
में, होटलों
में, थियेटरों
में —वे सदा
मुस्कुरा रहे
होते हैं और
लबालब भरे होते
हैं
प्रसन्नता से।
तुम सदा
उन्हें पाओगे
उथला, सतही।
उनमें कोई
गहराई नहीं
होती है।
प्रसन्नता तो
मात्र सतह की
लहरों की
भांति होती है,
तुम जीते हो
एक उथला जीवन,
ऊपर —ऊपर ही।
लेकिन उदासी
की एक अपनी
गहराई होती है।
जब तुम उदास
होते हो तो यह
बात सतह की
लहरों की भांति
नहीं होती, यह बिलकुल
प्रशांत
महासागर की
गहराई जैसी
होती है :
मीलों —मीलों
तक चली गयी।
गहराई
में उतरो, ध्यान
से देखो उसे।
प्रसन्नता
बड़ी शोर भरी
होती है, उदासी
में मौन होता
है, एक
अपनी शाति
होती है।
प्रसन्नता
होगी दिन की
भाति, उदासी
होती है
रात्रि जैसी।
प्रसन्नता हो
सकती है
प्रकाश की
भाति, उदासी
होती है
अंधकार जैसी।
प्रकाश आता है
और चला जाता
है; अंधकार
बना रहता है—वह
शाश्वत है।
प्रकाश घटता
है कभी—कभी; अंधकार तो
सदा ही मौजूद
रहता है। यदि
तुम बढ़ो उदासी
में, तो ये
सारी चीजें
अनुभव में
आएंगी। अचानक
तुम सजग हो
जाओगे कि
उदासी किसी
उपस्थिति की
भांति होती है,
तुम ध्यान
दे रहे होते
हो और देख रहे
होते हो और
अचानक तुम
प्रसन्नता
अनुभव करने
लगते हो। इतनी
सौंदर्यपूर्ण
उदासी! —अंधकार
का फूल, शाश्वत
गहराई का फूल।
एक विराट अतल
शून्य की भाति,
इतना संगीत;
जरा—सा भी
शोर नहीं, कोई
अशाति नहीं।
अनंत रूप से
इसमें और— और
उतर सकते हो, और इसमें से
बाहर आ सकते
हो नितांत
ताजे और युवा
होकर। यह एक
विश्राम होता
है।
यह
निर्भर करता
है दृष्टिकोण
पर। जब तुम
उदास होते हो, तो
तुम सोचते कि
कुछ बुरा हुआ
है तुम्हारे
साथ। यह—
व्याख्या ही
होती है कि
कुछ बुरा घटित
हुआ है
तुम्हारे साथ,
और फिर तुम
उससे बचने की
कोशिश करने
लगते हो। तुम
कभी उस पर
ध्यान नहीं
करते। फिर तुम
किसी के पास
चले जाना
चाहते हो
पार्टी में, कि क्लब में,
या टी वी
चला देते हो
या कि रेडियो,
या अखबार
पढ़ने लगते हो —कुछ
न कुछ तो करते
हो ताकि भूल
सकी। यह एक गलत
दृष्टिकोण दे
दिया गया है
तुम्हें—कि
उदासी गलत है।
कुछ बुराई
नहीं है उसमें,
वह एक दूसरा
छोर है जीवन
का।
प्रसन्नता
एक ध्रुव है, उदासी
दूसरा ध्रुव
है। आनंद एक
ध्रुव है, पीड़ा
दूसरा। जीवन
दोनों से बनता
है, और
दोनों के कारण
ही जीवन
संतुलित होता
है, लयबद्ध
होता है। केवल
आनंदपूर्ण
जीवन में
विस्तार होगा,
लेकिन
गहराई न होगी।
केवल उदासी
वाले जीवन में
गहराई होगी, लेकिन उसका
विस्तार न
होगा। उदासी
और प्रसन्नता
दोनों से बना
जीवन बहु—
आयामी होता है;
वह एक साथ
सारे आयामों
में बढ़ता है।
जरा
ध्यान से
देखना बुद्ध
की प्रतिमा को
या कभी झांकना
मेरी आंखों
में और तुम
पाओगे दोनों
को साथ—साथ : एक
आनंद, एक शाति,
और एक उदासी
भी। तुम पाओगे
एक आनंदपूर्णता
जिसमें उदासी
भी होती है, क्योंकि वही
उदासी उसे एक
गहराई देती है।
देखो बुद्ध की
प्रतिमा की
तरफ—आनंदपूर्ण
हैं, लेकिन
उदास भी हैं!
यह 'उदास' शब्द ही
तुम्हें गलत
अवधारणा दे
देता है, कि
कोई चीज गलत
है, यह
तुम्हारी
अपनी
व्याख्या
होती है।
मेरे
देखे, जीवन
अपनी समग्रता
में ठीक होता
है। और जब तुम
जीवन को उसकी
समग्रता में
समझते हो, केवल
तभी तुम उत्सव
मना सकते हो
अन्यथा नहीं।
उत्सव का अर्थ
है जो कुछ
घटता है, अप्रासंगिक
है—मैं उत्सव
मनाऊंगा।
उत्सव के लिए कोई
शर्त नहीं
किन्हीं
चीजों की: 'जब
मैं प्रसन्न
होऊं तभी मैं
उत्सव
मनाऊंगा', या
कि 'जब मैं
उदास होऊंगा
तो मैं उत्सव
नहीं मनाऊंगा।’
उत्सव
बेशर्त है, मैं उत्सव
मनाता हूं
जीवन का। यह
उदासी, दुख
ले आती है—तो
ठीक, मैं
इसका उत्सव
मनाता हूं।
जीवन आनंद
लाता है —तो
ठीक, मैं
इसका उत्सव
मनाता हूं।
उत्सव मेरी
दृष्टि है, जो कुछ जीवन
ले आए उसके
प्रति एक
बेशर्त भाव।
लेकिन
समस्या उठ खड़ी
होती है
क्योंकि जब
कभी मैं
शब्दों का उपयोग
करता हूं तो
उन शब्दों के
तुम्हारे मन में
कुछ अर्थ होते
हैं। जब मैं
कहता हूं, 'उत्सव मनाओ',
तुम सोचते
हो, तुम्हें
प्रसन्न हो
जाना चाहिए।
कैसे कोई
उत्सवमय हो
सकता है जब कि
कोई उदास होता
है? मैं
नहीं कह रहा
हूं कि
प्रसन्न ही
होना पड़ता है
उत्सव मनाने
के लिए। उत्सव
तो एक अहोभाव
है उसके लिए
जो कि जीवन तुम्हें
देता है। जो
कुछ भी
परमात्मा
तुम्हें देता
है, उत्सव
उसके प्रति एक
अहोभाव है, वह एक
धन्यवाद है।
मैंने तुमसे
कहा है और मैं
फिर कहूंगा
तुमसे
एक
सूफी फकीर बड़ा
गरीब, भूखा, अस्वीकृत, यात्रा का
थका—मादा था।
वह रात को
पहुंचा एक
गांव में —और
गाव था कि उसे
स्वीकार न
करता था। गांव
था
परंपरावादी
लोगों का और
जब परंपरावादी,
रूढ़िवादी
मुसलमान हों
तो बहुत कठिन
होता है उन्हें
राजी करना।
उन्होंने तो
उसे शरण तक न
दी अपने नगर
में। सर्दी की
रात थी और उसे
भूख लगी थी, थका हुआ था, पर्याप्त
कपड़े न होने
से कांप रहा
था। वह नगर के
बाहर बैठा हुआ
था एक वृक्ष
के नीचे। उसके
शिष्य वहा
बैठे थे बहुत
उदास, निराश
थे, क्रोधित
भी थे। और तब
वह प्रार्थना
करने लगा और
वह कहने लगा परमात्मा
से, 'आप
अपूर्व हैं!
आप सदा मुझे
दे देते हैं
जो कुछ भी
चाहिए होता है।’
यह तो जरा
ज्यादती हुई
जाती थी। एक
शिष्य कह उठा,
'ठहरिए जरा,
आप तो
ज्यादा ही
कल्पनाशील हो
रहे हैं, विशेष
कर इस रात। ये
शब्द झूठे हैं।
हमें भूख लगी
है, थके
हुए हैं, वस्त्र
नहीं, और
ठंडी रात का
अंधेरा फैलता
जा रहा है।
चारों तरफ
जंगली जानवर
हैं और हमें
नगर द्वारा
अस्वीकृत
किया गया है, हमारे पास
ठहरने को जगह
नहीं। तो किस
बात के लिए आप
धन्यवाद दे
रहे हैं परमात्मा
को? इससे
आपका मतलब
क्या है जब आप
कहते कि आप
सदा मुझे दे
देते हैं जो
कुछ भी मुझे
चाहिए होता है?'
वह फकीर
कहने लगा, 'ही,
मैं फिर से
दोहरा दूं : परमात्मा
मुझे दे देता
है जो कुछ भी
मुझे चाहिए।
आज रात मुझे
अस्वीकृति
चाहिए। आज रात
मुझे जरूरत है
भूख की, खतरे
की। अन्यथा, वह क्यों
देता मुझे यह
सब? जरूरत
होगी। इसकी
जरूरत है और
मुझे
अनुगृहीत
होना ही होगा।
वह इतनी
सुंदरता से
मेरी जरूरतों
की देख— भाल
करता है। वह
सचमुच अपूर्व
है!' यही
होता है
दृष्टिकोण जो
कि संबंधित
नहीं होता
स्थिति से।
स्थिति
प्रासंगिक
नहीं होती।
उत्सव
मनाओ र जो कुछ
भी हो स्थिति।
यदि तुम उदास
होते हो, तो
उत्सव मनाओ—इसलिए
कि तुम उदास
हो। आजमाओ इसे।
जरा इसे
आजमाना और तुम
हैरान होओगे—बात
घटित हो जाती
है। तुम उदास
हो? —तो
नृत्य करना
शुरू कर देना
क्योंकि
उदासी इतनी
सुंदर है;
तुम्हारी
अंतस—सत्ता का
इतना शांत
फूल! नृत्य
करो, आनंदित
होओ, और
अचानक तुम
अनुभव करोगे
कि उदासी
तिरोहित हो
रही है, एक
दूरी निर्मित
हो गयी है।
धीरे — धीरे, तुम भूल
जाओगे उदासी
को और तुम
उत्सव मना रहे
होओगे। तुमने
ऊर्जा का
रूपांतरण कर
दिया होता है।
यही
है कीमिया :
निम्न धातुओं
को उच्चतर
स्वर्ण में
बदल देना।
उदासी, क्रोध,
ईर्ष्या—निम्न
चीजें स्वर्ण
में बदली जा
सकती हैं, क्योंकि
वे बनी होती हैं
उन्हीं
तत्वों से
जिनसे कि
स्वर्ण। सोने
और लोहे के
बीच कोई अंतर
नहीं होता है
क्योंकि
उनमें वही
तत्व होते हैं,
वही
इलेक्ट्रान्स
होते हैं।
क्या
तुमने कभी
सोचा है इसके
बारे में कि
कोयले का एक
टुकड़ा और
दुनिया का बड़े
से बड़ा हीरा
बिलकुल एक ही
हैं?
उनमें कुछ
अंतर नहीं।
वस्तुत: कोयला
ही लाखों
वर्षों तक
धरती में दब—दब
कर हीरा हो
जाता है।
मात्र दबाव का
ही अंतर होता
.है, लेकिन
वे दोनों
कार्बन ही हैं,
दोनों बनते
हैं एक जैसे
तत्वों से ही।
निम्न को बदला
जा सकता है
उच्चतर में।
निम्न चीज में
किसी चीज का
कोई अभाव नहीं।
केवल एक
पुनर्संयोजन,
पुनर्गठन
की आवश्यकता
होती है। यही
है कीमिया का
पूरा अर्थ। जब
तुम उदास हो, तो उत्सव
मनाना, और
तुम उदासी को
एक नया ही रूप
दे रहे होते
हो। तुम उदासी
में कोई चीज
पहुंचा रहे
होते हो जो कि
उसे बदल देगी।
तुम उसे
उत्सवमय बना
रहे होते हो।
क्रोधित हो?—तो सुंदर
नृत्य में डूब
जाना। शुरू
में यह
क्रोधमय होगा।
तुम शुरू
करोगे नृत्य
करना और नृत्य
क्रोधमय, आक्रामक,
हिंसात्मक
होगा। धीरे —
धीरे, वह
मधुर और शांत
होता जाएगा।
अचानक ही तुम
भूल चुके
होओगे क्रोध
को, तो
ऊर्जा बदल
जाती है नृत्य
में।
लेकिन
जब तुम क्रोध
करते हो, तो
तुम सोच ही
नहीं सकते
नृत्य की बात।
जब तुम उदास
होते हो तो
तुम नहीं सोच
सकते गाने की
बात। क्यों
नहीं अपनी
उदासी को एक
गान बना लेते
पड गाओ, बजाओ
अपनी बांसुरी।
शुरू में स्वर
उदास होंगे, लेकिन उदास
स्वर में गलत
कुछ नहीं है।
क्या तुमने
सुना है, दोपहर
में कभी जब हर
चीज तप रही
होती है, गरमी
में जल रही
होती है, चारों
ओर आग ही आग
होती है, अचानक
आम्र —कुंज
में तुम सुन
सकते हो कोयल
की कूक उठ रही
है! शुरू में, स्वर उदास
होता है। वह
बुला रही होती
है अपने प्रिय
को, अपने
प्रीतम को, इस भरी
दुपहरी में।
चारों तरफ हर
चीज आग भरी
होती है, और
वह तड़प रही
होती है प्रेम
के लिए। बहुत
उदास स्वर
होता है—लेकिन
सुंदर। धीरे —
धीरे उदास
स्वर बदलने
लगता है
प्रसन्न स्वर
में। दूसरे
उपवन से प्रिय
उत्तर देना
शुरू कर देता
है। अब तपी
हुई दोपहर न
रही हर चीज
शीतल हो रही
होती है हृदय में।
अब स्वर अलग
ही होता है।
जब प्रेमी
उत्तर देता है,
तो हर चीज
बदल जाती है।
यह एक
कीमियापूर्ण
बदलाहट होती
है।
तुम
उदास हो?—तो
गीत गाने लगना,
प्रार्थना
करना, नृत्य
करना। जो कुछ
तुम कर सकते
हो, करना
और धीरे — धीरे
निम्न पदार्थ
बदल जाता है
उच्चतर पदार्थ
में—स्वर्ण
में। एक बार
तुम जान लेते
हो कुंजी को
तो तुम्हारा जीवन
फिर वही न
रहेगा। तुम
खोल सकते हो
ताला किसी भी
द्वार का। और
यह है
कुंजियों की
कुंजी : हर चीज
का उत्सव मनाओ।
मैंने
सुना है तीन
चीनी फकीरों
के बारे में।
कोई नहीं
जानता उनके
नाम। वे जाने
जाते थे केवल 'तीन
हंसते हुए
संतों' के
रूप में, क्योंकि
उन्होंने कभी
कुछ किया ही
नहीं था, वे
केवल हंसते
रहते थे। वे
एक नगर से
दूसरे नगर की
ओर बढ़ जाते, हंसते हुए।
वे खड़े हो
जाते बाजार
में और खूब
जोर से हंसते।
सारा बाजार
उन्हें घेरे
रहता। सारे
लोग आ जाते।
दुकानें बंद
हो जातीं और
ग्राहक भूल
जाते कि वे आए
किसलिए थे। ये
तीनों आदमी
सचमुच सुंदर
थे —हंसते और
उनके पेट
हिलते जाते।
और फिर यह बात
संक्रामक बन
जाती और दूसरे
हंसना शुरू कर
देते। फिर
सारा बाजार
हंसने लगता।
उन्होंने बदल
दिया होता
बाजार की
गुणवत्ता को,
स्वरूप को
ही। और यदि
कोई कहता कि 'कुछ कहो हम
से' तो वे
कहते, 'हमारे
पास कहने को
कुछ है नहीं।
हम तो बस हंस
पड़ते हैं और
बदल देते हैं
गुणधर्म ही।’
जब कि अभी
थोड़ी देर पहले
यह एक असुंदर
जगह थी जहां
कि लोग सोच
रहे थे केवल
रुपये —पैसे
के बारे में
ही, ललक
रहे थे धन के
लिए, लोभी,
धन ही
एकमात्र
वातावरण था हर
तरफ—अचानक ये
तीनों पागल
आदमी आ
पहुंचते हैं
और वे हंसने
लगते, और
बदल देते
गुणवत्ता
सारे बाजार की
ही। अब कोई
ग्राहक न था।
अब वे भूल
चुके थे कि वे
खरीदने और
बेचने आए थे।
किसी को लोभ
की फिक्र न
रही। वे हंस
रहे थे और नाच
रहे थे इन तीन
पागल आदमियों
के आस—पास।
कुछ पलों के
लिए एक नयी
दुनिया का
द्वार खुल गया
था!
वे
घूमे सारे चीन
में,
एक जगह से
दूसरी जगह, एक गांव से
दूसरे गांव, बस लोगों की
मदद कर रहे थे
हंसने में।
उदास लोग, क्रोधित
लोग, लोभी
लोग, ईर्ष्यालु
लोग वे सभी
हंसने लगे
उनके साथ। और
बहुतों ने
अनुभव की
कुंजी—तुम
रूपांतरित हो
सकते हो।
फिर, एक
गांव में ऐसा
हुआ कि उन
तीनों में से
एक मर गया।
गांव के लोग
इकट्ठे हुए और
वे कहने लगे, 'अब तो
मुश्किल आ
पड़ेगी। अब हम
देखेंगे कि
कैसे हंसते
हैं वे। उनका मित्र
मर गया है, वे
तो जरूर रोके।’
लेकिन जब वे
आए, तो
दोनों नाच रहे
थे, हंस
रहे थे, और
उत्सव मना रहे
थे मृत्यु का।
गाव के लोगों
ने कहा, 'यह
तो बहुत
ज्यादती हुई।
यह असभ्यता है।
जब कोई
व्यक्ति मर
जाता है तो
हंसना और
नाचना अधर्म
होता है।’ वे
बोले, 'तुम
नहीं जानते कि
क्या हुआ। हम
तीनों सदा ही
सोचते रहते थे
कि सब से पहले
कौन मरेगा। यह
आदमी जीत गया
है, हम हार
गए। सारी
जिंदगी हंसते
रहे उसके साथ।
तो हम उसे
अंतिम विदाई
किसी और चीज
के साथ कैसे
दे सकते हैं? —हमें
हंसना ही है, हमें आनंदित
होना ही है, हमें उत्सव
मनाना ही है।
यही एक मात्र
विदाई संभव है
उस व्यक्ति के
लिए जो जीवन
भर हंसता रहा
है। और यदि हम
नहीं हंसते, तो वह
हंसेगा हम पर
और वह सोचेगा,
अरे
नासमझों!
तो तुम फिर जा
फंसे जाल में?
हम नहीं
समझते कि वह
मर गया है।
हंसी कैसे मर
सकती है? जीवन
कैसे मर सकता
है?'
हंसना
शाश्वत चीज है, जीवन
शाश्वत है, उत्सव चलता
ही रहता है।
अभिनय करने
वाले बदल जाते
हैं, लेकिन
नाटक जारी
रहता है।
लहरें
परिवर्तित
होती हैं, लेकिन
सागर बना रहता
है। तुम हंसते,
तुम बदलते
और कोई दूसरा
हंसने लगता, लेकिन हंसना
तो जारी रहता
है। तुम उत्सव
मनाते हो, कोई
और उत्सव
मनाता है, लेकिन
उत्सव तो चलता
ही रहता है।
अस्तित्व सतत
प्रवाह है, वह सब कुछ
समाए चलता है,
उसमें एक पल
का अंतराल
नहीं होता।
लेकिन गांव के
लोग नहीं समझ
सकते थे और वे
इस हंसी में
उस दिन तो
शामिल नहीं हो
सकते थे।
फिर
देह का अग्नि—संस्कार
करना था, और गांव
के लोग कहने
लगे, 'हम तो
इसे स्थान
कराएंगे जैसे
कि धार्मिक
कर्मकांड
नियत होते हैं।’
लेकिन वे
दोनों मित्र
बोले, 'नहीं,
हमारे
मित्र ने कहा
है कि कोई
धार्मिक
अनुष्ठान मत
करना और मेरे
कपड़े मत बदलना
और मुझे स्नान
मत कराना।
जैसा मैं हूं
तुम मुझे वैसा
ही रख देना
चिता की आग पर।
इसलिए हमें तो
उसके
निर्देशों को
मानना ही पड़ेगा।’
और
तब,
अचानक ही, एक बड़ी घटना
घटी। जब शरीर
को आग दी जाने
लगी, तो वह
बूढ़ा आदमी
आखिरी चाल चल
गया। उसने
बहुत—से पटाखे
छिपा रखे थे
कपड़ों के नीचे,
और अचानक
दीपावली
हो गयी! तब तो
सारा गांव
हंसने लगा। ये
दोनों पागल
मित्र नाच ही
रहे थे, फिर
तो सारा गांव
ही नाचने लगा।
यह कोई मृत्यु
न थी, यह
नया जीवन था।
कोई
मृत्यु
मृत्यु नहीं
होती, क्योंकि
प्रत्येक
मृत्यु खोल
देती है एक
नया द्वार—वह
एक प्रारंभ
होती है। जीवन
का कोई अंत
नहीं, सदा
एक नया
प्रारंभ होता
है, एक
पुनर्जीवन।
यदि
तुम अपनी
उदासी को बदल
देते हो उत्सव
में,
तो तुम अपनी
मृत्यु को नए
जीवन में
बदलने में भी
सक्षम हो
जाओगे। तो सीख
लो यह कला जब
कि समय अभी
बाकी है। जब
तक निचले तल
की चीजों को
उच्चतर चीजों
में बदलना न
सीख लो उसके
पहले मत आने
दो मृत्यु को।
क्योंकि अगर
तुम बदल सकते
हो उदासी को, तो तुम बदल
सकते हो
मृत्यु को।
यदि तुम
बेशर्त
उत्सवमय हो
सकते हो, तो
जब मृत्यु आये
तब तुम हंस
पाओगे, तुम
उत्सव मना
पाओगे, तुम
हो जाओगे
प्रसन्न और तब
तुम मनाए जा
सकते हो उत्सव,
मृत्यु तुम्हें
नहीं मार सकती।
बल्कि इसके
विपरीत तुमने
मार दिया होता
है मृत्यु को।
लेकिन ऐसा
करना प्रारंभ
करो, इसे
आजमाओ।
गंवाने को कुछ
है नहीं।
लेकिन लोग
इतने मूढ़ हैं
कि जब गंवाने
को कुछ न हो, तो भी वे
आजमाएंगे
नहीं। गंवाने
को है क्या?
यदि
तुम उदास हो, तो
मैं कहता हूं, 'उत्सव
मनाओ, नाचो,
गाओ।’ तुम
गंवाओगे क्या?
ज्यादा से
ज्यादा उदासी
खो जाएगी और
कुछ नहीं।
लेकिन तुम
सोचते हो, ऐसा
असंभव है। और
यह विचार ही
कि ऐसा असंभव
है, तुम्हें
उसे आजमाने न
देगा। और मैं
कहता हूं,
यह दुनिया की
सबसेज्यादा
आसान चीजों
में से एक चीज
है, क्योंकि
ऊर्जा तटस्थ
होती है। वही
ऊर्जा बन जाती
है उदासी; वही
ऊर्जा बन जाती
है क्रोध, वही
ऊर्जा बन जाती
है कामवासना,
वही ऊर्जा
बन जाती है
करुणा; वही
ऊर्जा बन जाती
है ध्यान।
ऊर्जा एक ही
है। तुम्हारे
पास बहुत तरह
की ऊर्जाएं
नहीं होती हैं।
तुम्हारे पास
ऊर्जा के बहुत
सारे अलग— अलग
खाने नहीं
होते, जहां
कि इस ऊर्जा
पर लेबल लग
जाए 'उदासी',
और उस ऊर्जा
पर लेबल लग
जाए 'प्रसन्नता'। ऊर्जाएं
खानों में
बंटी नहीं
होतीं, वे
अलग नहीं
होतीं।
तुममें कोई
बंधे —बंधाए
कोष्ठ
अस्तित्व
नहीं रखते हैं,
तुम तो बस
एक हो। यही एक
ऊर्जा उदासी
बन जाती है, यही एक
ऊर्जा क्रोध
बन जाती है।
यह तुम पर
निर्भर करता
है।
तुम्हें
रहस्य सीखना
पड़ता है, यह
कला कि कैसे
ऊर्जाओं को
रूपांतरित
करना होता है।
तुम तो केवल
निर्देश देते
हो और वही
ऊर्जा गतिमान
होने लगती है।
और जब संभावना
है क्रोध को
आनंद में बदलने
की, लोभ को
करुणा में
बदलने की, ईर्ष्या
को प्रेम में
बदलने की तो
तुम नहीं जानते
तुम क्या खो
रहे हो। तुम
नहीं जानते
तुम क्या चूक
रहे हो। तुम
यहां इस विश्व
में होने का
सारा सार ही
चूक रहे हो।
आजमाओ इसे।
चौथा
प्रश्न :
आपके
प्रवचनों को
सुनते हुए अब
दो वर्ष हो
चले हैं मेरी
समझ में आता
है कि आप अपने
दिये हुए करीब—
करीब
प्रत्येक
वक्तव्य का
खंडन कर देते
हैं क्या
सचमुच कोई कुछ
कर सकता है
सिवाय ध्यान
से देखने के
और प्रतीक्षा
करने के?
हां, मैं
खंडन करता हूं
प्रत्येक कथन
का, प्रत्येक
शब्द का जो
मैं बोलता हूं।
मेरे पास
सिखाने को कोई
दर्शन नहीं, बल्कि मेरे
पास अस्तित्व
ही है
प्रत्यक्ष दिखा
देने को। यहां
तुम्हें कोई सिद्धांत
नहीं सिखाया
जा रहा है। यहां
तुम्हें कोई
धर्म —सिद्धांत
नहीं दिया जा
रहा है। मैं
कोई दार्शनिक
नहीं हूं। मैं
उतना ही
विरोधात्मक
हूं जितना कि
स्वयं अस्तित्व।
मेरे पास कोई
चुनाव नहीं है।
अस्तित्व विरोधात्मक
है : उसमें
होते हैं रात
और दिन, गर्मी
और सर्दी, शैतान
और ईश्वर—उसमें
होता है सब 'कुछ। और मैं
अब हूं ही
नहीं। ज्यादा
से ज्यादा, मैं एक
झरोखा हूं
अस्तित्व का।
मुझे होना ही
पड़ता ते पर
रोधात्मक। और
जो मैं कहता
हूं यदि तुम
उसे सोचते ही
जाते हो, तो
तुम हर दिन और—
और उलझन में पडोगे।
जो मैं कहता
हूं उस पर
ज्यादा ध्यान
मत देना। जो
मैं हूं तुम
अपना ध्यान उस
पर दो।
मेरे
कथन
विरोधाभासी
हो सकते हैं —यदि
तुम्हें
विरोधाभास
नहीं दिखाई
पड़ते तो वह
इसी कारण कि
तुम मुझे
प्रेम करते हो।
वे
विरोधाभासी
हैं,
लेकिन मैं
नहीं हूं
विरोधाभासी। दोनों
अस्तित्व रखते
हैं मुझमें, लेकिन
मुझमें कोई
असंगति नहीं
है। इसी ओर
ध्यान देना है
तुम्हें, इसे
ही समझना है
गले। एक गहरी
सुसंगति
अस्तित्व रखती
है मुझ में, मैं किसी भी
द्वंद्व में
नहीं हूं। यदि
कोई द्वंद्व
होता तो मैं
एकदम पागल हो
गया होता।
इतने सारे
विरोधाभासों
के साथ कैसे
कोई व्यक्ति
जीए चला जा
सकता है २:
कैसे कोई
व्यक्ति जी सकता
है, सांस
ले सकता है?
वे
मुझमें कोई
विसंगति
निर्मित नहीं
करते। हर चीज
का ताल—मेल
बैठा हुआ है।
बल्कि इसके
विपरीत, वे
मदद देते हैं
सम —स्वरता को,
वे उसे
ज्यादा
समृद्ध बना
देते हैं। यदि
मैं एक ही
स्वर का
व्यक्ति होता,
बस दोहरा
रहा होता उसी
स्वर को बार—बार,
तो मैं
अविरोधी होता।
यदि तुम्हें
चाहिए
अविरोधी
व्यक्ति, एकदम
एक—स्वरीय
व्यक्ति, तो
जाओ जे
कृष्णमूर्ति
के पास। वे
बिलकुल
अविरोधी हैं।
चालीस वर्षों
से उन्होंने
एक बार भी
स्वयं का खंडन
नहीं किया।
लेकिन मैं
समझता हूं
इसीलिए बड़ी
समृद्धि खो गयी
है, बहुत —सी
संपन्नता जो
जीवन में होती
है, खो गयी
है। वे
तर्कयुक्त
हैं, मैं
अतर्क्य हूं।
वे हैं बाग—बगीचे
की भांति हर
चीज. सुसंगत
है, क्यारियों
में उगायी हुई
है, तर्कयुक्त
हैं, बौद्धिक
हैं, मैं
हूं स्वच्छंद
वन की भांति
कोई चीज उगायी
नहीं गयी है।
यदि
तुम तर्क की
फिक्र बहुत
ज्यादा करते
हो,
तो मुझसे
ज्यादा
कृष्णमूर्ति
को चुनना बेहतर
है। लेकिन यदि
स्वच्छंद के
लिए, बेतरतीब
वन के लिए
तुम्हारे पास
कोई संवेदना है,
केवल तभी
तुम्हारा ताल—मेल
बैठ पाएगा
मेरे साथ। मैं
तुम्हें खोल
देता हूं उस
सबके प्रति जो
कि जीवन के
पास है। मैं
नहीं चुनता कि
क्या कहना है,
मैं नहीं
चुनता कि क्या
—क्या सिखाना
है——मेरा कोई
चुनाव नहीं है।
मैं तो वही कह
देता हूं जो
कुछ भी घटता
है उसी क्षण
में। मैं नहीं
जानता कि अगला
वाक्य कौन—सा
होगा। जो कुछ
हो, मैं
उसे पूरी
निश्चयात्मकता
से कह दूंगा।
मेरे पास कोई
पूर्व —नियोजित
नमूना नहीं है।
मैं उतना ही
विरोधात्मक
हूं जितना कि
जीवन। और विरोधात्मक
होने, सामंजस्य—रहित
होने का सारा
सार ही यही है
कि तुम किसी सिद्धांत
से चिपको नहीं।
यदि मैं
अविरोधी हू तो
तुम चिपकोगे।
कृष्णमूर्ति
के पीछे चलने
वाले हैं, वे
चिपक जाते हैं
उनके शब्दों
से, सिद्धांत
की भांति।
मैंने देखा है
बहुतेरे
बुद्धिमान
लोगों को, बहुत
ज्यादा
बौद्धिक लोग
जो सुनते आ
रहे हैं उन्हें
तीस—चालीस
वर्षों से। वे
आते हैं मेरे
पास और वे
कहते हैं. 'कुछ हुआ
नहीं। हमने
सुना है
कृष्णमूर्ति
को, और जो
कुछ वे कहते
हैं, सच
लगता है, ठीक
मालूम पड़ता है,
बिलकुल ठीक
बात, लेकिन
तब भी कुछ
घटता नहीं।
बौद्धिक रूप
से समझते हैं
उन्हें, लेकिन
कुछ भी घटता
नहीं।’ मैं
कहता हूं उनसे,
'यदि तुम
सुनते रहे हो
उन्हें चालीस
वर्ष और
बौद्धिक रूप
से तुम अनुभव
करते हो कि वे
ठीक हैं लेकिन
कुछ घटता नहीं,
तो गिरा
देना उस
बुद्धिमानी
को और चले आना
मेरे पास।
बुद्धि के
हिसाबों से
बिलकुल पार
हुए व्यक्ति
के संग हो
लेना। यदि
बुद्धि के
द्वारा कुछ
घटित नहीं
होता है, तो
हो सकता है वह
अबुद्धि के
द्वारा घटित
हो सकता हो।’ तुरंत वे
कहते हैं, 'लेकिन
आप तो
विरोधात्मक
हैं! कभी
आप यह कहते, कभी आप वह
कहते, और
हमें पता नहीं
कि करना क्या
है।’
मैं
सचमुच नहीं
चाहता कि तुम
कुछ करो, मैं
चाहता हूं तुम
होओ। मैं
तुम्हें
बौद्धिक नहीं
बनाना चाहता।
वे बहुतेरे
हैं; संसार
भरा पड़ा है
उनसे और वे
जीते हैं बड़ी
दुखी जिंदगी।
तुम्हें
बौद्धिकों से
ज्यादा दुखी
लोग नहीं मिल
सकते। वे तो जीते
—जी आत्महत्या
करते हैं। वे
आत्मघाती, अर्थहीन
जीवन जीते हैं।
अर्थ अतर्क्य
होता है, जीवन
की सच्ची
कविता
विरोधात्मक
होती है। कुछ
नहीं किया जा
सकता इसके लिए।
यही जीवन का
स्वभाव है, यही है
अस्तित्व का
ढंग।
मैं
तुम्हें किसी
निश्चित
दृष्टिकोण
में प्रशिक्षित
करने को नहीं
हूं यहां।
इसीलिए मैं
तुम्हारे साथ
कृष्णमूर्ति
की बात कर
सकता हूं। वे
भी ठीक हैं, लेकिन
ठीक होने के
केवल एक
दृष्टिकोण से
जुड़े हैं। मैं
तुमसे बात
करता हूं
गुरजिएफ की :
वे भी ठीक हैं,
लेकिन ठीक
होने का केवल
एक दृष्टिकोण
लिए हैं। और
वे
विरोधाभासी हैं;
गुरजिएफ
विश्वास करते
हैं विधि में,
समूह में, निश्चित ढंग
में, शिक्षा
में, प्रशिक्षण
में, अनुशासन
में, बहुत
कड़े अनुशासन
में।
कृष्णमूर्ति
किसी विधि में
विश्वास नहीं
करते—न ध्यान
में, न
समूह में, न
गुरु में, न
शिष्यत्व में।
मैं कहता हूं
तुमसे कि
दोनों ठीक हैं,
लेकिन
दोनों केवल
आशिक रूप से
ही ठीक हैं।
एक साथ वे
बनते हैं
संपूर्ण।
जीवन
इतना विशाल है
कि न तो कृष्णमूर्ति
और न ही
गुरजिएफ उसे
एक व्यवस्था
में ला सकते हैं।
जीवन इतना
विशाल है कि
कोई समाप्ति
नहीं ला सकता
उसकी। सारे
दृष्टिकोण
उसमें समा
सकते हैं, विपरीत
दृष्टिकोण भी,
और वे भी
सत्य होते हैं।
लोग हैं
जिन्होंने
पाया है
विधियों
द्वारा, गुरुओं
द्वारा; और
लोग हैं
जिन्होंने
पाया है बिना
गुरुओं के, बिना
विधियों के।
ऐसे लोग हैं
जो बाधित हुए
हैं गुरुओं के
द्वारा और
विधियों के
द्वारा, और
ऐसे लोग हैं
जो बाधित हुए हैं
इस शिक्षा से
कि गुरु की
कोई जरूरत नहीं
और ध्यान की
कोई जरूरत
नहीं, किसी
विधि—विधान की
कोई जरूरत
नहीं। कई तरह
के लोग हैं, और यह अच्छा
है।
अनेकरूपता है।
तो कोई सिद्धांत
सत्य नहीं हो
सकता। बहुत
थोड़े —से
लोगों के लिए
यह बात सत्य
हो सकती है।
लेकिन दूसरे
सब लोगों के
लिए यह बात
असत्य होगी।
इसलिए इतने
सारे सिद्धांत
अस्तित्व
रखते हैं
संसार में।
बुद्ध हैं, जीसस हैं, मोहम्मद हैं
: ऐसे बिलकुल
ही अलग— अलग
लोग हैं, और
सभी सत्य हैं।
मैं
प्रयत्न कर
रहा हूं एक
नितांत नए
प्रयोग का.
तुम सभी को एक
साथ इकट्ठा कर
देने का। यह
स्वयं में एक
अनुशासन होगा
तुम्हारे लिए—ऐसा
ही है। यदि
तुम मुझे सुन
रहे हो कई
वर्षों से, तो
यह अनुशासन ही
है। यह एक
ध्यान हुआ।
मैं तुम्हें
दे देता हूं
एक दृष्टिकोण
मैं बोलूंगा
पतंजलि पर, तो मैं
तुम्हें दे
दूंगा एक
दृष्टिकोण और
मैं एक ढांचा
निर्मित कर
दूंगा तुममें।
अगले ही दिन
मैं बोलने लगूंगा
तिलोपा पर और
मैं गिरा
दूंगा वह
ढांचा।
यह
बात तुम्हारे
लिए पीड़ादायक
है क्योंकि तुम
चिपकने लगते
हो। जब तुम
बनाते हो एक
ढांचा, तो
तुम उससे
चिपकने लग
जाते हो। जिस
क्षण मैं
देखता हूं कि
तुमने सिद्धांत
के साथ चिपकना
शुरू कर दिया
है, तो
तुरंत मुझे
विपरीत को बीच
में लाना पड़ता
है उन्हें
मिटा देने को।
कई
बार तुम
बनाओगे घर, और
कई बार मैं
तोड़ दूंगा उसे।
कई बार तुम
अनुभव करोगे
कि एक
सुव्यवस्था
घट गई है, और
मैं फिर बना
दूंगा
अव्यवस्था।
इसमें अर्थ
क्या होगा? अर्थ यह है
कि एक दिन तुम
जागरूक हो
जाओगे, तुम
सुनोगे मुझे
लेकिन फिर भी
तुम कोई
सुव्यवस्था न
बनाओगे, तुम
कोई ढांचा खड़ा
न करोगे।
क्योंकि सार
ही क्या रहा
यदि मैं उसे
मिटा ही दूंगा
अगले दिन? तुम
बस सुनोगे
मुझे —शब्दों,
सिद्धांतों
या धर्म —
सिद्धांतों
से चिपके बगैर
ही। जिस दिन
तुम सुन सकते
हो मुझे
तुम्हारे
भीतर कोई
ढांचा बनाए
बिना और मैं
देखता हूं कि
तुमने मुझे
सुना है और
वहा शून्यता
है, तो
मैंने पूरी कर
दी बात।
वर्षों
तक मुझे सुनना
तुम्हें ले
आएगा इस बिंदु
तक। तुम्हें
आना ही पड़ेगा
इस तक, नहीं तो
अर्थ क्या है?
तुम लाने
लगते हो एक
सुव्यवस्था, एक अनुशासन,
जब तक कि वह
तैयार होता है,
तो मैं आ
पहुंचता हूं
और मिटा देता
हूं उसे।
एक
तिब्बती कथा
है मारपा के
विषय में।
उसके गुरु ने
उससे घर बनाने
को कहा, अकेले
ही, बिना
किसी की मदद
के। गांव से
ईंटों और
पत्थरों को मठ
तक लाना कठिन
था। चार या
पांच मील की
दूरी थी।
मारपा ने हर
चीज अकेले ही
ढोई, ऐसा
करना ही था।
और बनाना था
तिमजला मकान,
तिब्बत में
उन दिनों जो
बड़े से बड़ा
बनाया जा सकता
था। उसने दिन—रात
कड़ी मेहनत की।
अकेले ही करनी
थी उसे हर चीज।
वर्षों बीत गए,
घर तैयार हो
गया, और
मारपा लौट आया
खुशी—खुशी।
उसने गुरु के
चरणों में झुक
कर प्रणाम
किया और बोला,
'घर तैयार
है।’ गुरु
ने कहा, 'अब
आग लगा दो
उसमें।’ मारपा
गया और जला
दिया वह घर।
सारी रात और
सारे अगले दिन
घर जलता रहा।
सांझ तक कुछ न
बचा था। मारपा
गया, झुका,
प्रणाम
किया और बोला,
'जैसा किं
आपने आदेश
दिया था, घर
जला दिया गया
है।’ गुरु
ने देखा उसकी
तरफ और बोला, 'कल सुबह फिर
से शुरू कर दो।
एक नया घर
बनाना होगा।’
और कहा जाता
है कि ऐसा सात
बार घटित हुआ।
मारपा का हो
चला, वही
बात फिर—फिर
करते हुए ही।
वह बना देता
घर— और वह बहुत
ज्यादा कुशल
हो गया धीरे —
धीरे। वह
ज्यादा जल्दी
घर बनाने लगा,
कम समय में
ही। हर बार जब
घर तैयार हो
जाता, गुरु
कह देता, जला
दो उसे। जब घर
सातवीं बार जल
गया, तो
गुरु ने कहा, ' अब कोई
जरूरत नहीं।’
यह
एक कथा है।
शायद ऐसा न भी
हुआ हो, लेकिन
यही तो मैं कर
रहा हूं तुम्हारे
साथ। जिस क्षण
तुम सुनते हो
मुझे तो तुम
भीतर एक 'घर'
बनाना शुरू
कर देते हो
सिद्धातों का
ढांचा, एक
सुसंगत जोड़, जीने का एक
दर्शन, अनुसरण
करने का एक सिद्धांत,
एक नक्शा
जिस क्षण मैं
देखता हूं कि
घर तैयार है
तो मैं गिराने
लगता हूं उसे।
और ऐसा मैं
करूंगा सात
बार, और
यदि जरूरत हुई,
तो सत्तर
बार। मैं
प्रतीक्षा कर
रहा हूं उस
क्षण की जब
तुम सुनोगे और
तुम इकट्ठा न
करोगे शब्दों
को। तुम
सुनोगे, पर
तुम सुनोगे
मुझे, उसे
नहीं जो कि
मैं कहता हूं।
तुम सुनोगे
सार—तत्व को, उसे धारण
करने वाले
पात्र को नहीं;
शब्दों को
नहीं बल्कि
शब्दविहीन
संदेश को।
धीरे — धीरे
ऐसा होगा ही।
कितनी देर तक
तुम मकान बनाए
जा सकते हो, यह खूब
जानते हुए कि
उसे गिराना ही
होगा? यही
अर्थ है मेरी
सारी विरोधी
बातों का।
कृष्णमूर्ति
ने भी, जो कि
कहते हैं किसी
सिद्धांत की
जरूरत नहीं, लोगों में
एक सिद्धांत
निर्मित कर
दिया है, क्योंकि
वे
विरोधात्मक
नहीं हैं।
उन्होंने
लोगों में
उतार दिया है
बड़े गहरे में सिद्धांत।
मैंने बहुत
तरह
के लोग देखे
हैं,
लेकिन
कृष्णमूर्ति के
अनुयायियों
जैसे नहीं
देखे। वे चिपक
जाते हैं, बिलकुल
चिपक ही गए हैं
वे, क्योंकि
वह आदमी बड़ा
अविरोधी है।
चालीस वर्षों
से वह कह रहा
है वही बात, बार —बार कह
रहा है।
अनुयायियों
ने बना ली हैं
गगनचुंबी
इमारतें।
चालीस वर्ष
में निरंतर
इसी में बढ़ते,
उनकी इमारत
बढ़ती ही जाती
है, और— और
आगे ही आगे
बढ़ती जाती है।
मैं
तुम्हें ऐसा
नहीं करने
दूंगा। मैं
चाहता हूं,
तुम शब्दों से
संपूर्णतया
खाली हो जाओ।
मेरा सारा
प्रयोजन ही
यही है तुमसे
बात करने का।
एक दिन तुम
जान जाओगे कि
मैं बोल रहा
हूं और तुम
ढांचा नहीं
बना रहे हो।
यह भली— भांति
जानते हुए कि
मैं खंडन कर
दूंगा उसका जो
कुछ भी मैं कह
रहा हूं तुम
चिपकते नहीं
हो फिर। यदि
तुम नहीं
चिपकते, यदि
तुम शून्य ही
हुए रहते हो, तो तुम मुझे
सुन पाओगे, न कि उसे जो
कि मैं कहता
हूं। और
संपूर्णतया
अलग ही बात है
उस सत्ता को
सुनना जो कि
मैं हूं उस
अस्तित्व को
सुनना जो कि बिलकुल
अभी घट रहा है,
इसी क्षण घट
रहा है।
मैं
तो केवल एक
झरोखा हूं तुम
देख सकते हो
मुझसे और उस
पार का कुछ
खुल जाता है।
झरोखे की ओर
मत देखो, उसमें
से देखो। मत
देखना झरोखे
की चौखट की ओर।
मेरे सारे
शब्द झरोखे की
चौखट हैं
उनमें से उनके
पार देखना।
भूल जाना
शब्दों को और
चौखट के ढांचे
को—और
शब्दातीत, कालातीत
कुछ मौजूद
होता है, आकाश
मौजूद होता है।
यदि तुम चिपक
जाते हो चौखट
से, तो
कैसे, कैसे
पाओगे तुम पंख?
इसीलिए मैं
शब्दों को
गिराता जाता
हूं ताकि तुम
चिपको नहीं ढांचे
से। तुम्हें
पंख पाने ही
हैं। तुम्हें
गुजरना होगा
मुझसे, लेकिन
तुम्हें जाना
होगा मुझसे दूर।
तुम्हें
गुजरना होगा
मुझमें से, लेकिन
तुम्हें भूल
जाना होगा
मुझे पूरी तरह
से। तुम्हें
गुजर जाना है
मुझमें से, लेकिन पीछे
देखने की कोई
जरूरत नहीं।
एक विशाल आकाश
मौजूद है। जब
मैं विपरीत
बात करता हूं
तो मैं
तुम्हें दे
देता हूं एक
स्वाद उस
विशालता का।
बहुत
आसान होता
तुम्हारे लिए, यदि
मैं एक ही बात
को बार—बार
कहता हुआ, तुम्हें
एक ही सिद्धांत
से फिर —फिर
अनुकूलित
करता हुआ एक
स्वर का आदमी
होता। तुम
ज्यादा
प्रसन्न हो गए
होते, लेकिन
वह प्रसन्नता
नासमझी भरी
होती, क्योंकि
तब तुम कभी
तैयार न हुए
होते आकाश में
उड़ान भरने को।
मैं
तुम्हें नहीं
चिपकने दूंगा
ढांचे से, मैं
गिराता
जाऊंगा ढांचे
को, इसी
तरह मैं
तुम्हें धकेल
देता हूं
अज्ञात की ओर।
सारे शब्द
ज्ञात से आते
हैं। और सारे सिद्धांत
ज्ञात से आते
हैं। सत्य
अज्ञात होता
है, और
सत्य को कहा
नहीं जा सकता
है। और जो कुछ
कहा जा सकता
है, वह
सत्य नहीं हो
सकता।
आज
इतना ही।
ओशो—
एक परिचय
सत्य
की व्यक्तिगत
खोज से लेकर
ज्वलंत
सामाजिक व
राजनैतिक
प्रश्नों पर
ओशो की दृष्टि
उनको हर
श्रेणी से अलग
अपनी कोटि आप
बना देती है।
वे आंतरिक
रूपांतरण के
विज्ञान में
क्रांतिकारी
देशना के
पर्याय हैं और
ध्यान की ऐसी
विधियों के
प्रस्तोता
हैं जो आज के
गतिशील जीवन
को ध्यान में
रख कर बनाई गई
हैं।
अनूठे
ओशो सक्रिय
ध्यान इस तरह
बनाए गए हैं
कि शरीर और मन
में इकट्ठे
तनावों का
रेचन हो सके, जिससे
सहज स्थिरता
आए व ध्यान की
विचार रहित दशा
का अनुभव हो।
ओशो
की देशना एक
नये मनुष्य के
जन्म के लिए
है,
जिसे
उन्होंने 'ज़ोरबा
दि बुद्धा ' कहा है—
जिसके पैर
जमीन पर हों, मगर जिसके
हाथ सितारों
को, छू
सकें। ओशो के
हर आयाम में
एक धारा की
तरह बहता हुआ
वह जीवन—दर्शन
है जो पूर्व
की समयातीत
प्रज्ञा और
पश्चिम के
विज्ञान और
तकनीक की
उच्चतम
संभावनाओं को
समाहित करता
है। ओशो के
दर्शन को यदि
समझा जाए और
अपने जीवन में
उतारा जाए तो
मनुष्य—जाति
में एक
क्रांति की
संभावना है।
ओशो
की पुस्तकें
लिखी हुई नहीं
हैं बल्कि पैंतीस
साल से भी
अधिक समय तक
उनके द्वारा
दिए गए तात्कालिक
प्रवचनों की
रिकार्डिंग
से अभिलिखित
हैं।
लंदन
के 'संडे टाइम्स'
ने ओशो को 'बीसवीं सदी
के एक हजार
निर्माताओं '
में से एक
बताया है और
भारत के 'संडे
मिड—डे' ने
उन्हें गांधी।
नेहरू और
बुद्ध के साथ
उन दस लोगों
में रखा है, जिन्होंने
भारत का भाग्य
बदल दिया।
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