दिनांक 16 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्न—सार:
प्रश्न—सार:
1—जीवन
की लिप्सा, जीवेषणा
का कारण क्या
है? और यह
जीवन का आनंद
मनाने में
बाधा क्यों है?
2—पश्चिम के अस्तित्ववादी
विचारों ने
जीवन की
अर्थहीनता
जान ली है।
लेकिन वे आनंद
की खोज क्यों
नहीं करते?
3—बुद्धपुरुषों
में शारीरिक
आवश्यकता,
कामवासना क्यों
कर तिरोहित हो
जाती है?
4—फ्रायड, जुंग और
जेनोव आदि लोग
स्वयं पर
प्रयोग क्यों
नहीं करते?
पहला
प्रश्न:
पतंजलि
कहते हैं 'जीवन से
चिपको मत: और
यह बात आसान
है समझने के लिए
और अनुसरण
करने के लिए।
लेकिन वे यह
भी कहते हैं
कि 'जीवन
के प्रति
लालायित मत
होओ ' क्या
हमें वर्तमान
में आनंदित
नहीं होना है
उस सबसे जो
प्रकृति के
पास है हमें
देने को भोजन
प्रेम सौदर्य
कामवासना आदि?
और यदि यह
ऐसा है तो
क्या यह जीवन
का लोभ नहीं है?
पतंजलि कहते
हैं कि जीवन
का लोभ एक
बाधा है, जीवन का
आनंद मनाने
में एक बाधा
है, सचमुच
जीवंत रहने
में एक बाधा
है, क्योंकि
लोभ सदा
भविष्य के लिए
होता है, वह
वर्तमान के
लिए कभी नहीं
होता। वे आनंद
मनाने के
विरोध में
नहीं हैं। जब
तुम किसी चीज
से आनंदित हुए
क्षण मात्र में
उपस्थित होते
हो, तो
उसमें कोई लोभ
नहीं होता।
लोभ है भविष्य
के लिए ललकना,
और इस बात
को समझ लेना
है।
वे लोग
जो अपने जीवन
से वर्तमान
में आनंदित नहीं
होते, उन्हें
कहीं भविष्य
में जीवन के
लिए लालसा
होती है। जीवन
के लिए लालसा
सदा भविष्य
में ही होती
है। यह बात एक
स्थगन है। वे
कह रहे होते
हैं कि 'हम
आज आनंद नहीं
मना सकते, इसलिए
हम आनंद
मनाएंगे कल।’
वे कह रहे
होते हैं, 'बिलकुल
इसी क्षण हम
उत्सव नहीं
मना सकते, इसलिए
कल को आने दो
ताकि हम उत्सव
मना सकें।’ भविष्य उदित
होता है
तुम्हारे दुख
में से, तुम्हारे
उत्सव में से
नहीं। एक
सच्चे
उत्सवमय
व्यक्ति के
पास कोई
भविष्य नहीं
होता है, वह
इसी क्षण में
जीता है, वह
इसे समग्र रूप
से जीता है।
उस समग्र रूप
से जीए जाने
में से ही
उदित होता है
अगला क्षण, लेकिन ऐसा
किसी लालसा के
कारण नहीं
होता है।
निस्संदेह, जब उत्सव
में से अगला
क्षण जन्मता
है, तो
उसमें ज्यादा
क्षमता होती
है तुम्हें
आशीष देने की।
जब उत्सव में
से भविष्य
जन्मता है, तो वह और — और
ज्यादा
समृद्ध होता
जाता है। एक
घड़ी आती है जब
क्षण इतना
समग्र हो जाता
है, इतना
संपूर्ण कि
समय पूरी तरह
तिरोहित हो
जाता है।
समय
दुखी मन की
जरूरत है। समय
सर्जना है दुख
की। यदि तुम
प्रसन्न होते
हो तो कहीं
कोई समय नहीं
बचता—समय
तिरोहित हो
जाता है।
इसे
दूसरे आयाम से
देखना। क्या
तुमने ध्यान
दिया कि जब
कभी तुम दुखी
होते हो, समय बहुत
धीमी गति से
सरकता है। कोई
मर रहा होता
है, कोई
जिसे तुम
प्रेम करते हो,
कोई जिसके
लिए तुम
चाहोगे वह जीए,
और तुम पास
में बैठे हुए
होते हो। सारी
रात तुम
बिस्तर के
किनारे बैठे
रहते और रात ऐसी
जान पड़ती जैसे
कि वह कोई अनंतकाल
हो। उसका
बिलकुल कोई
अंत दिखाई ही
नहीं पड़ता, वह। यही है
जीवन के प्रति
लिप्सा का
अर्थ ज्यादा समय
के लिए लिप्सा।
बढ़ती
जाती और आगे, आगे।
दीवार पर छ.
बहुत ज्यादा
धीमी चल रहीं
जान पड़ती है,
दुख में समय
धीमे चलता है।
जब तुम
प्रसन्न होते
हो—तुम्हारी
प्रेमिका के
साथ होते हो, तुम्हारे
मित्र के साथ
तो तुम उस
क्षण को संजो
रहे होते हों—समय
तेज चलता है।
सारी रात गुजर
जाती है और
ऐसा जान पड़ता
है कि कुछ
मिनट या कुछ
पल ही बीते
हैं। ऐसा
क्यों होता है?—क्योंकि
दीवार पर लगी
घड़ी इसकी
चिंता नहीं करती
कि तुम सुखी
हो या दुखी, वह अपने से
चलती रहती है।
वह तुम्हारी
भावदशाओं के
साथ कभी तेज
नहीं चलती। वह
सदा एक ही गति
से चल रही
होती है, लेकिन
तुम्हारी
व्याख्याएं
भेद रखती हैं।
दुख में समय
ज्यादा बड़ा हो
जाता है, सुख
में समय
ज्यादा छोटा
हो जाता है।
जब कभी कोई
आनंदपूर्ण
मनोदशा में
होता है तो
समय बिलकुल
तिरोहित ही हो
जाता है।
ईसाइयत
कहती है कि जब
तुम नरक में
फेंक दिए जाते
हो, तो
नरक अनंत हो
जाता है, अंतहीन।
बर्ट्रेड रसल
ने एक किताब
लिखी है 'व्हाई
आई एम नाट ए
क्रिश्चियन'—'मैं ईसाई
क्यों नहीं
हूं।’ वह
बहुत सारे
कारण बताता है।
उनमें से एक यह
है : 'जो पाप
मैंने किए हैं,
उससे ऐसा
सोचना असंभव
है कि अनंत
सजा न्यायपूर्ण
हो सकती है।
मैंने शायद
बहुत से पाप
किए होंगे।
तुम. मुझे नरक
में फेंक देते
हो पचास वर्ष
सौ वर्ष के
लिए, पचास
जन्म, सौ
जन्म, हजार
जन्म तक, लेकिन
अनंत सजा
न्यायपूर्ण
नहीं हो सकती है।’
शाश्वत सजा
तो
अन्यायपूर्ण
ही जान पड़ती
है, और
ईसाइयत केवल
एक जन्म में
ही विश्वास
रखती है। इतने
सारे पाप कोई
व्यक्ति एक
जन्म में कैसे
कर सकता है, मात्र साठ
या सत्तर वर्ष
के जीवन में
जिससे कि वह
अनंतकाल तक
सजा पाने लायक
हो जाए! यह बात
तो एकदम
बेतुकी जान पड़ती
है। रसल कहते
हैं 'जो
कोई पाप मैंने
किए हैं और
जिन्हें मैं
करने की सोच
रहा हूं लेकिन
जिन्हें अभी
तक किया नहीं
है —यदि मैं
अपने सारे
पापों को—किए—
अनकिए, कल्पित,
स्वप्नगत
पापों को
स्वीकार कर
लूं फिर भी
कठोर से कठोर
न्यायाधीश भी
मुझे पांच
वर्षों से
ज्यादा सजा
नहीं दे सकता
है।’
और ठीक
कहता है वह
लेकिन सार की
बात चूक जाता
है वह। ईसाई
धर्मशास्त्री
उत्तर नहीं दे
पाए हैं। नरक
शाश्वत है इस
कारण नहीं कि
वह शाश्वत है, बल्कि इस
कारण ऐसा है
क्योंकि वह
सबसे बड़ा दुख
है —समय सरकता
ही नहीं है।
ऐसा जान पड़ता
है कि वह अंतहीन
है। यदि आनंद
में समय
तिरोहित हो
जाता है तो
गहनतम दुख में,
जो कि नरक
है, समय
इतना धीमे
चलता है जैसे
कि बिलकुल चल
ही न रहा हो।
नरक का एक
क्षण भी अनंत
होता है।
तुम्हें ऐसा
जान पड़ेगा कि
वह समाप्त
नहीं हो रहा, समाप्त ही
नहीं हो रहा, समाप्त हो
ही नहीं रहा।
अंतहीन
नरक का
सिद्धात
सुंदर है, बहुत
मनोवैज्ञानिक
है। यह इतना
ही दिखाता कि
समय मन पर
निर्भर करता है,
समय एक
मनोगत घटना है।
तुम दुखी होते
हो, तो समय
का अस्तित्व
होता है; तुम
सुखी होते हो
तो कोई समय
नहीं बचता।
जीवन की
लिप्सा है
ज्यादा समय की
लिप्सा। वह
दिखाती है कि
जो कुछ तुमने
पाया है, पर्याप्त
नहीं है; तुम
अभी तक
परितृप्त
नहीं हुए।’मुझे
और ज्यादा समय
दो, ताकि
मैं परितृप्त
हो सकूं। मुझे
और जीवन दो, और भविष्य, बढ़ने को और
जगह, क्योंकि
मेरी सारी आकांक्षाए
अभी अपूर्ण
हैं।’ वह
व्यक्ति जो
जीवन की
लिप्सा लिए
रहता है यही
प्रार्थना
किए जाता है :
हे ईश्वर मुझे
और समय दे दो, क्योंकि
मेरी सारी
इच्छाएं अभी
भी मौजूद हैं।
कोई चीज
तृप्तिकारक
नहीं रही मैं
संतुष्ट नहीं
मैं परितृप्त
नहीं हूं और
समय तो तेजी
से बहा जा रहा
है। मुझे और
समय दे दो। यही
है जीवन के
प्रति लिप्सा
का अर्थ :
ज्यादा समय के
लिए लिप्सा।
जीवन
सेतुम्हारा
क्या अर्थ है? जीवन का
अर्थ है:
भविष्य से
जुड़ा ज्यादा
समय। मृत्यु
से तुम्हारा
क्या अर्थ
होता है? मृत्यु
का अर्थ होता,
कहीं कोई
भविष्य नहीं।
यदि मृत्यु
बिलकुल अभी आ
जाए, तो
भविष्य
समाप्त हो
जाता है, समय
समाप्त हो
जाता है।
इसलिए तुम
भयभीत हो
मृत्यु से, क्योंकि वह
तुम्हें समय न
देगी और सारी
तुम्हारी
इच्छाएं
अपूर्ण हैं।
जीवन
के विरोध में
नहीं हैं
पतंजलि।
वस्तुत: वे
जीवन के विरोध
में नहीं हैं, इसीलिए
वे जीवन के
प्रति लिप्सा
के विरोध में हैं।
यदि तुम जीवन को
जीते हो उसकी
समग्रता सहित,
उसका आनंद
मनाते हो उसकी
गहनतम
संभावना तक, उसे घटित
होने देते हो—तब
जीवन के प्रति
कहीं कोई
लिप्सा न
बचेगी।
ज्यादा
संवेदनशील हो
जाओ, जीवंत,
सजग हो जाओ,
और तब तुम
समय के प्रति
लालायित न
होओगे।
वस्तुत: वह
व्यक्ति जो
जीवन से
परितृप्त
होता है, उसे
मृत्यु
विश्राम की
भाति दिखाई
पड़ती है, एक
बड़ी
विश्रांति की
भांति, जीवन
की समाप्ति
नहीं। वह उससे
भयभीत नहीं
रहता, वह
उसका स्वागत
करता है, एक
पूरा समृद्ध
जीवन जीया हो,
तो मृत्यु
होती है
रात्रि, रात्रि
की भांति आती।
दिन भर तुमने
काम किया, अब
तुम शय्या
सजाते और
विश्राम करने
लगते हो।
ऐसे
लोग हैं जो
रात्रि से
भयभीत होते
हैं। मैं
कलकत्ता में
ठहरा करता था
बहुत संपन्न
व्यक्ति के
पास जो रात्रि
से ऐसे भयभीत
रहता जैसे कि
लोग मृत्यु से
भयभीत रहते
हैं। वह सो न
सकता था
क्योंकि वह
सारा दिन
विश्राम कर
रहा होता था।
तो कैसे वह
आशा कर सकता
था निद्रा की? वह धनी
व्यक्ति था, उसके पास हर
चीज थी, इसलिए
कुछ नहीं करता
था वह। केवल
निर्धन लोग
पैदल चलते हैं,
केवल
निर्धन लोग
काम करते हैं!
कहीं
किसी जगह कामू
लिखता है कि
एक समय आएगा भविष्य
में जब सचमुच
लोग इतने
धनवान हो जाएंगे
कि वे प्रेम
भी न करेंगे।
वे अपने नौकर
को भेज देंगे
ऐसा करने के
लिए! वस्तुत:
एक धनी
व्यक्ति को
प्रेम करना ही
नहीं चाहिए।
सारे प्रयास
की चिंता ही
क्यों करनी?—तुम भेज
सकते हो नौकर
को। यही तो कर
रहे हैं धनी
व्यक्ति
नौकरों को भेजना
पड़ता है जीवन
जीने को, और
वे विश्राम
करते हैं।
जब तुम
सारा दिन
विश्राम करते
हो तो तुम
कैसे सो सकते
हो रात में? आवश्यकता
निर्मित नहीं
होती। एक
व्यक्ति सारा
दिन कार्य
करता है, जीता
है, और रात
होने तक वह
तैयार हो जाता
है विस्मृति में,
अंधकार में
उतरने को। ऐसा
ही घटता है
यदि तुमने एक सच्चा
जीवन जीया
होता है। यदि
तुमने उसे
सचमुच ही जीया
होता है, तो
मृत्यु
विश्राम ही है।
शाम आती, रात
उतर आती, और
तुम तैयार
होते, तुम
लेट जाते और
तुम
प्रतीक्षा
करते। जब तुम
ठीक प्रकार से
जीते हो तो
तुम और अधिक जीवन
की मांग नहीं
करते, क्योंकि
अधिकता पहले
से ही है; जितना
तुम मांग सकते
हो, उससे
ज्यादा पहले
से ही मौजूद
है; जितने
की तुम कल्पना
कर सको, उससे
ज्यादा
तुम्हें दिया
ही जा चुका है।
यदि तुम
प्रत्येक
क्षण को उसकी
संपूर्ण प्रगाढ़ता
तक जीते हो, तो तुम सदा
ही तैयार होते
हो मरने के
लिए।
यदि
बिलकुल अभी
मृत्यु आ जाती
है मेरे पास
तो मैं तैयार हूं, क्योंकि
कोई चीज अधूरी
नहीं है।
भविष्य के लिए
मैंने कुछ भी
स्थगित नहीं
किया है।
मैंने सुबह
स्नान किया और
उसका पूरा
आनंद लिया।
भविष्य की
खातिर मैंने
किसी चीज को
स्थगित नहीं
किया, इसलिए
यदि मौत आ
जाती है तो
कहीं कोई
समस्या नहीं।
मृत्यु आ सकती
है और बिलकुल
अभी ले जा
सकती है मुझे।
भविष्य की एक हल्की—सी
धारणा तक भी न
होगी क्योंकि
कुछ भी अधूरा
नहीं है।
और
तुम्हारे लिए?—हर चीज
अधूरी है।
सुबह का स्नान
तक तुम ठीक से
नहीं कर सके, क्योंकि
तुम्हें
सुनने आना था
मुझे; तुम
उसे चूक गए।
तुम बढ़ते हो
भविष्य के
अनुसार और फिर
तुम चूकते चले
जाते हो। यदि
यह चूकने की
बात एक आदत बन
जाती है, और
वह बन जाती है,
तो तुम मेरे
प्रवचन को भी
चूक जाओगे।
क्योंकि तुम
वही आदमी हो
जो चूक गया
सुबह का स्नान,
जो चूक गया
सुबह की चाय, जिसने किसी
तरह उसे
समाप्त तो किया
लेकिन अधूरा
बना रहा। वह
बात तुम्हारे
सिर के चारों
ओर मंडराती
रहती है। वह
सब जिसे कि
तुमने अधूरा
छोड़ दिया अभी
भी तुम्हारे
चारों ओर
मक्खी—सा
भिनभिना रहा
है। अब इसकी
आदत हो जाती
है। तुम
सुनोगे मुझे
लेकिन तैयार
तो तुम हो रहे
होते आफिस
जाने के लिए, या दुकान पर
जाने के लिए, या कि बाजार
जाने के लिए; तुम सरक ही
चुके' हो।
तुम केवल
शारीरिक रूप
से यहां बैठे
हुए होते हो।
तुम्हारा मन
भविष्य में
सरक चुका होता
है। तुम कहीं
न हो पाओगे। जहां
कहीं भी तुम
होते हो, तुम
कहीं किसी और
जगह सरक ही
रहे होते हो।
यह अधूरा जीवन
निर्मित कर
देता है जीवन
के प्रति लोभ।
तुम्हें बहुत
सारी चीजों को
पूरा करना
होता है।
कैसे
तुम बिलकुल
इसी क्षण मरना
सह सकते हो? मैं इसे
सह सकता हूं
मैं आनंदित हो
सकता हूं —हर
चीज पूरी है।
इसे जरा खयाल
में ले लेना, पतंजलि, बुद्ध,
जीसस—कोई भी
जीवन के विरोध
में नहीं हैं।
वे जीवन के हक
में हैं, पूरी
तरह जीवन के
हक में, लेकिन
वे जीवन के
लोभ के
विरुद्ध हैं
क्योंकि जीवन
का लोभ उस
आदमी का लक्षण
है जो कि जीवन
चूक रहा है।
दूसरा
प्रश्न:
पश्चिम
के बहुत से
अस्तित्ववादी
विचारक—
सार्त्र कामू
आदि— हताशा
निराशा और
जीवन की अर्थहीनता
को जान गए हैं
लेकिन
उन्होंने पतंजलि
की आनंदमयता
को नहीं जाना
है। क्यों? कौन— सी
बात चूक रही
है? इस बात
पर पतंजलि
क्या कहते
पश्चिम से?
हां, पश्चिम
में कुछ चीजों
का अभाव रहा
है जिनका भारत
में बुद्ध के
लिए अभाव नहीं
रहा था। बुद्ध
भी उसी स्थल
तक पहुंचे
जहां कि
सार्त्र है? अस्तित्ववादी
निराशा, व्यथा,
यह अनुभूति
कि सब व्यर्थ
है, कि
जीवन अर्थहीन
है, तो एक
नया प्रारंभ
मौजूद था भारत
में; सड़क
का अंत नहीं
थी वह बात।
वस्तुत: वह
मात्र अंत थी
एक सड़क का
लेकिन दूसरी
तो तुरंत खुल
गई थी; एक
द्वार का बंद
होना लेकिन
दूसरे का खुल
जाना। यही है
भेद
आध्यात्मिक
संस्कृति और
भौतिक संस्कृति
के बीच।
एक
भौतिकवादी
कहता है, 'यही है सब
कुछ; जीवन
में और कुछ
नहीं है।’ एक
भौतिकवादी
कहता है कि वह
सब जो तुम
देखते हो वही
है सारी
सच्चाई। यदि
वह अर्थहीन बन
जाती है, तो
कहीं कोई
द्वार खुला
नहीं है। एक
अध्यात्मवादी
कहता है, 'यही
सब नहीं है, दृश्य ही सब
कुछ नहीं, स्थूल
ही सब कुछ
नहीं। जब यह
समाप्त हो
जाता है, तो
अचानक एक नया
द्वार खुलता
है और यह भी
अंत नहीं है।
जब यह समाप्त
हो जाता है, तो दूसरे
आयाम की ओर एक'
प्रारंभ है
यह बात।
जीवन
की भौतिकवादी
अवधारणा और
जीवन की आध्यात्मिक
अवधारणा के
बीच यही
एकमात्र अंतर
होता है —विश्वदृष्टियों
का अंतर।
बुद्ध
उत्पन्न हुए
थे
आध्यात्मिक
विश्वदृष्टिकोण
के बीच। वह सब
कुछ जो हम
करते हैं उसकी
अर्थहीनता
उन्होंने भी
जान ली थी, क्योंकि
मौत आती है और
मौत खत्म कर
देती हर चीज, तो सार क्या
है कुछ करने
में या न करने
में? चाहे
तुम करते हो
या नहीं करते,
मौत आती है
और हर चीज को
समाप्त कर
देती है। चाहे
तुम प्रेम करो
या नहीं, वृद्धावस्था
आती और तुम
जर्जर हो जाते,
हड्डियों
का पिंजर बन
जाते। चाहे तो
निर्धनता का
जीवन जीयों या
कि समृद्धि का,
मृत्यु
दोनों को मिटा
देती है; वह
इसकी परवाह
नहीं करती कि
तुम कौन हो? तुम एक संत
हो सकते हो, तुम एक पापी
हो सकते हो—मृत्यु
को इससे कुछ
अंतर नहीं
पड़ता। मृत्यु
एकदम कम्युनिस्ट
है; वह हर
किसी से बराबर
का व्यवहार
करती है। संत
और पापी दोनों
मिट्टी में
मिल जाते हैं —मिट्टी
मिट्टी में
मिल जाती है।
बुद्ध इस बात
को जान गए थे, लेकिन
आध्यात्मिक
विश्वदृष्टि
मौजूद थी, वातावरण
अलग था।
मैंने
कही न तुमसे
बुद्ध की वह
कथा! वे देखते
हैं एक के
आदमी को, तो वे जान
लेते हैं कि
युवावस्था एक
अस्थायी, एक
क्षणिक घटना
है उठती और
गिरती एक तरंग
सागर की, स्थायित्व
की कोई बात
उसमें नहीं
होती; शाश्वत
का कुछ उसमें
नहीं होता; वह स्वप्न
की भाति होती
है —एक
बुदबुदा, किसी
भी क्षण फटने
को तैयार। फिर
वे देखते हैं
कि एक मृत
व्यक्ति को ले
जाया जा रहा
है। पश्चिम
में तो कथा
यहीं समाप्त
हो गयी होती का
आदमी, मरा
हुआ आदमी।
लेकिन भारतीय
कथा में, मृत
व्यक्ति के
बाद वे देखते
हैं एक
संन्यासी कों—वही
है द्वार। और
तब वे अपने
रथवाहक से
पूछते हैं, 'कौन है यह
आदमी, और
क्यों यह
गैरिक
वस्त्रों में
है? क्या
हुआ है इसे? किस तरह का
आदमी है यह?' रथवाहक कहता
है, 'इस
आदमी ने भी
जान लिया है
कि जीवन
मृत्यु की ओर
ले जाता है और
वह उस जीवन की
तलाश में है
जो मृत्युविहीन
है।’
यही था
वातावरण. जीवन
मृत्यु के साथ
ही समाप्त
नहीं हौ जाता
है। बुद्ध की
कहानी
दर्शाती है कि
मृत्यु को
देखने के बाद, जब जीवन
अर्थहीन
अनुभव होता है,
तो अचानक एक
नया आयाम उदित
होता है, एक
नयी दृष्टि—संन्यास;
जीवन के
अधिक गहरे
रहस्य में
उतरने का
प्रयास; दृश्य
में ज्यादा
गहरे उतरना
अदृश्य तक
पहुंचने के
लिए; पदार्थ
में इतने
ज्यादा गहरे
उतरना कि
पदार्थ
तिरोहित हो
जाता है और
तुम मौलिक
सत्य तक आ
पहुंचते हो, आध्यात्मिक
ऊर्जा का सत्य,
वह ब्रह्म।
सार्त्र, कामू
और हाइडेगर के
साथ तो कथा
समाप्त हो
जाती है मृत
व्यक्ति पर ही।
संन्यासी
नहीं मिलता, वही है एक
लुप्त कड़ी।
यदि
तुम मुझे समझ
सको, वही
तो कर रहा हूं
मैं : इतने
सारे
संन्यासियों
का सृजन कर
रहा हूं, उन्हें
भेज रहा हूं
सारे संसार
में, ताकि
जब कभी ऐसा
व्यक्ति हो जो
कि सार्त्र की
भांति इस समझ
तक .पहुंच जाए
कि जीवन
अर्थहीन है, तो कोई
संन्यासी
जरूर होना
चाहिए वहां
अनुसरण किये
जाने के लिए, एक नयी
दृष्टि देने
के लिए कि
जीवन मृत्यु
के साथ ही
समाप्त नहीं
हो जाता है।
एक स्थिति
समाप्त होती
है, लेकिन
स्वयं जीवन ही
समाप्त नहीं
हो जाता है।
वस्तुत:, जीवन
केवल तभी आरंभ
होता है, जब
मृत्यु आ जाती
है। क्योंकि
मृत्यु तो
केवल
तुम्हारा
शरीर ही समाप्त
करती है, तुम्हारे
अंतस्तल की
सत्ता नहीं। शरीर
का जीवन केवल
एक भाग है, एक
बड़ा सतही भाग,
बाहरी भाग।
पश्चिम
में, भौतिकवाद
एक व्यापक
दृष्टि ही बन
गया है।
पश्चिम के
तथाकथित
धार्मिक
व्यक्ति भी
पूरे भौतिकवादी
हैं। वे जाते
होंगे चर्च, वे विश्वास
रखते होंगे
ईसाइयत में, लेकिन वह
हल्का —सा
सतही विश्वास
भी नहीं है।
वह एक सामाजिक
औपचारिकता है।
उनको जाना
पड़ता है
रविवार को
चर्च में, वह
एक करने जैसी
बात होती है —दूसरों
की दृष्टि में
'ठीक
व्यक्ति' बने
रहने के लिए
कुछ करने की
ठीक बात। तुम
ठीक बातें
करने वाले ठीक
व्यक्ति होते
हो—एक सामाजिक
औपचारिकता।
लेकिन भीतर हर
कोई
भौतिकवादी हो
गया है।
भौतिकवादी
विश्वदृष्टि
कहती है कि
मृत्यु के साथ
ही हर चीज
समाप्त हो
जाती है। यदि
यह बात सच है
तब तो
रूपांतरण की
कोई संभावना
ही न रही। और
यदि हर चीज
समाप्त हो
जाती है
मृत्यु के साथ
तो फिर जीने
में कोई सार
नहीं। तब तो
आत्महत्या ही
है एक सही
उत्तर।
यह एक
मजे की बात है, सार्त्र
का जीए चला
जाना। उसे तो
बहुत—बहुत
पहले
आत्महत्या कर
लेनी चाहिए थी,
क्योंकि
उसने सचमुच ही
जान लिया था
कि जीवन अर्थहीन
है, तो फिर
बात ही क्या
बची? या तो
उसने ऐसा जान
लिया या वह अब
भी आशा रख रहा
है इसके
विरुद्ध और
इसे नहीं जान
पाया। सारी
बात को हर रोज
फिर —फिर किए
चले जाने में,
रोज बिस्तर
से उठने में
सार क्या है? यदि तुमने
सचमुच ही
अनुभव कर लिया
है कि जीवन अर्थहीन
है, तो
कैसे तुम
बिस्तर से उठ
सकते हो अगली
सुबह, किसलिए?
उसी पुरानी
नासमझी को फिर
से दोहराने के
लिए? —अर्थहीन
बात, तुम्हें
सांस ही क्यों
लेनी चाहिए?
यह
मेरी समझ है
यदि तुमने
सचमुच ही जान
लिया हो कि
जीवन अर्थहीन
है, तो
सांस तुरंत
ठहर जाएगी।
सार क्या है? तुम
दिलचस्पी खो
दोगे सांस
लेने में, तुम
कोई प्रयास न
करोगे। लेकिन
सार्त्र तो
जीए ही चला
जाता है और
लाखों चीजें
करता रहता है!
अर्थहीनता
सचमुच बहुत गहरे
में नहीं उतरी
है। वह एक
फिलासफी है, जीवन अभी भी
नहीं है, भीतर
की एक आंतरिक
घटना अभी भी
नहीं है, मात्र
एक फिलासफी ही
है। वरना, पूरब
तो खुला है; सार्त्र
क्यों न आए? पूरब कहता
है, 'ही, जीवन
अर्थहीन है, लेकिन तब
द्वार खुलता
है।’ तो
उसे आने दो
पूरब में और
द्वार का पता
लगाने की
कोशिश करने दो।
और यही नहीं
कि किसी ने
केवल ऐसा कहा
ही है; करीब
दस हजार
वर्षों से
बहुतों ने इस
बात का साक्षात्कार
किया है, और
तुम इस बारे
में स्वयं को
बहका नहीं
सकते। बुद्ध
एक भी दुखी
क्षण के बिना
आनंदमग्न जीए चालीस
वर्ष। कैसे
तुम दिखावा कर
सकते हो? कैसे
तुम चालीस
वर्ष जिंदगी
जी सकते हो
ऐसा अभिनय
करते हुए जैसे
कि तुम
आनंदमग्न हो?
और अभिनय
करने में सार
क्या है? और
केवल बुद्ध एक
नहीं —हजारों
बुद्ध उत्पन्न
हुए हैं पूरब
में, और
उन्होंने
सर्वाधिक
आनंदमय जीवन
जीए, जहां
दुख की एक लहर
न उठी।
जो
पतंजलि कह रहे
हैं, वह
कोई दर्शन
शास्त्र नहीं,
वह एक जाना
हुआ सत्य है, वह एक अनुभव
है। सार्त्र
पर्याप्त रूप
से साहसी नहीं,
अन्यथा तो
दो विकल्प
होते : या तो
आत्महत्या कर लो,
अपने दर्शन
के प्रति
सच्चे बनो, या मार्ग
खोजो जीवन का,
नए जीवन का;
दोनों ढंग
से तुम पुराने
को छोड़ देते
हो। इसीलिए
मैं जोर देता
हूं कि जब कभी
कोई आदमी आत्महत्या
की स्थिति तक
पहुंचता है, केवल तभी
द्वार खुलता
है। तब दो ही
विकल्प होते
हैं; आत्मघात
या आत्मरूपांतरण।
सार्त्र
.साहसी नहीं।
वह बात करता
है साहस की, प्रामाणिकता
की, लेकिन
इनमें से बात
है कुछ नहीं।
यदि तुम
प्रामाणिक हो,
तो फिर या
तो आत्महत्या
कर लो या कोई
रास्ता खोजो
दुख में से
निकलने का 1
यदि तुम्हारा
दुख अंतिम और
समग्र होता है,
तो फिर
क्यों तुम
जीते रहते हो?
तब तो
तुम्हारे
दर्शन के
प्रति सच्चे
बने रहना। ऐसा
जान पड़ता है
कि यह निराशा,
व्यथा, अर्थहीनता
भी शाब्दिक है,
तार्किक है,
लेकिन
अस्तित्वगत
नहीं।
मेरा
यह जानना है
कि पश्चिम का
अस्तित्ववाद
वास्तव में
अस्तित्ववादी
नहीं है, वह फिर एक
विचार ही है।
अस्तित्ववादी
होने का अर्थ
होता है कि
अनुभूति होनी
चाहिए, विचार
नहीं।
सार्त्र एक
बड़ा विचारक हो
सकता है—वह है,
लेकिन उसने
बात को अनुभव
नहीं किया, उसने जीया
नहीं है उसे।
यदि तुम जीते
हो निराशा को,
तो तुम एक
ऐसे स्थल तक
पहुंचोगे ही
जहां कुछ करना
पड़ता है, आमूल
रूप से ही कुछ
करना पड़ता है।
रूपांतरण
अत्यंत जरूरी
बात बन जाता
है, तुम्हारी
एकमात्र
दिलचस्पी बन
जाता है।
तुमने
यह भी पूछा है, 'क्या चूक
रहा है?' वही
दृष्टिकोण, आध्यात्मिक
दृष्टि का
अभाव है
पश्चिम में।
अन्यथा बहुत
सारे बुद्ध
उत्पन्न हो
सकते थे। समय
तो तैयार है —निराशा,
अर्थहीनता
अनुभव की गयी
है, वह
फिजी में घुली
है। समाज ने
उपलब्ध किया
है समृद्धि को
और पाया है
उसे
अभावयुक्त।
धन होता, शक्ति
होती और गहरे
तल पर मनुष्य
समग्र रूप से
असमर्थ अनुभव
करता है।
स्थिति पक गयी
है, लेकिन
दृष्टि का
अभाव रहा है।
पश्चिम
में जाओ और
संदेश दो। खबर
पहुंचा दो
आध्यात्मिक
दृष्टिकोण की, ताकि जो
इस जीवन में
अपनी
यात्राओं के
अंत तक पहुंच
गये हैं
उन्हें अनुभव
नहीं होना
चाहिए कि यही
है अंत—स्व
नया द्वार खुल
जाता है। जीवन
अनंत है। बहुत
बार तुम अनुभव
करते कि हर
चीज समाप्त हो
गयी और अचानक
कोई चीज फिर
शुरू हो जाती
है।
आध्यात्मिकता
की व्यापक
विश्वदृष्टि
का अभाव है।
एक बार वह
दृष्टि आ बनती
है, तो
बहुत से बढ़ने
लगेंगे उस पर।
तकलीफ
यह है कि बहुत
से तथाकथित
पूरब के शिक्षक
पश्चिम में जा
रहे हैं, और वे तुमसे
ज्यादा
भौतिकवादी
हैं। वे केवल
धन के कारण ही
जाते हैं वहां।
वे तुम्हें
आध्यात्मिकता
की विश्व —दृष्टि
नहीं दे सकते।
वे बेचने का
धंधा करते हैं।
उन्होंने खोज
लिया है बाजार,
क्योंकि
समय परिपक्व
हो चुका है।
लोग
किसी चीज के
लिए ललक रहे
हैं, न
जानते हुए कि
किसके लिए। इस
तथाकथित जीवन
से लोग ऊब
चुके हैं; हताश
हैं, किसी
अज्ञात, अभी
तक न जीयी गयी
चीज में छलांग
लगाने को तैयार
हैं। बाजार
तैयार है
लोगों का शोषण
करने को, और
पूरब के बहुत
व्यापारी
मौजूद हैं। वे
महर्षि कहला
सकते हैं, उससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता, बहुत
से व्यापारी,
विक्रेता
जा रहे हैं पश्चिम
की ओर। वे
वहां जाते हैं
बस धन के लिए।
सच्चे
सद्गुरु के
साथ तो ऐसा है
कि तुम्हें आना
होता है उस तक, तुम्हें
करने पड़ते हैं
प्रयास। एक
सच्चा
सद्गुरु नहीं
जा सकता है
पश्चिम, क्योंकि
जाने से सारी
बात ही खो
जाएगी, पश्चिम
को ही आना है
उसके पास। और
पश्चिमी लोगों
के लिए ज्यादा
सरल होगा आंतरिक
अनुशासन को, जागरण को
सीखने के लिए
पूरब तक आना, और फिर
पश्चिम में
चले जाना और
नयी हवा को
फैला देना।
पश्चिमी
लोगों के लिए
ज्यादा सरल
होगा पूरब में
सीखना, यहां
आध्यात्मिक
गुरु के
सन्निधिपूर्ण
वातावरण में
होना और फिर
वापस ले जाना
संदेश कों—क्योंकि
तुम
भौतिकवादी
नहीं होओगे
यदि तुम जाते
हो और फैला
देते हो इस
खबर को पश्चिम
में। तुम नहीं
होओगे
भौतिकवादी
क्योंकि
तुमने पर्याप्त
जीया है, तुम्हारे
लिए खत्म हो
गयी बात।
जब
पूरब के
निर्धन
व्यक्ति
पश्चिम में जाते
हैं तो
निस्संदेह वे
धन इकट्ठा
करना शुरू कर
देते हैं।
यह बात
सीधी—साफ है।
पूरब दरिद्र
है और अब पूरब
आध्यात्मिकता
के लिए ललक
नहीं रहा है।
वह ज्यादा धन
के लिए, ज्यादा
भौतिक
उपकरणों के
लिए, ज्यादा
इंजीनियरिंग
तथा अणु—विज्ञान
के लिए ललक
रहा है। यदि
बुद्ध भी
उत्पन्न हो
जाएं तो उनकी
बात कोई नहीं
करेगा पूरब
में। लेकिन एक
छोटा खिलौना,
स्मृतनिक
भारत द्वारा
छोड़ दिया जाता
है और सारा
देश पगला जाता
है और
खुशिर्या
मनाता है।
कितनी मूढ़ता
है। एक छोटा —सा
आणविक
विस्फोट और
भारत बहुत
प्रसन्नता और
गर्व अनुभव
करता है, क्योंकि
वह पांचवीं
आणविक शक्ति
बन जाता है।
पूरब
दरिद्र है और
पूरब अब
भौतिकता की
भाषा में सोच
रहा है। एक
दरिद्र मन सदा
सोचता है
भौतिकता के
बारे में और
भौतिकता जो सब
दे सकती है
उसके बारे में।
पूरब
आध्यात्मिकता
की खोज में
नहीं है।
पश्चिम धनवान
है और अब
पश्चिम तैयार
है खोजने के
लिए।
लेकिन
जब कभी
सद्गुरु
मौजूद हो तो
व्यक्ति को खोजना
पड़ता है उसे।
इसी खोजने के
द्वारा ही
बहुत —सी
बातें घटती
हैं। यदि मैं
आता हूं
तुम्हारे पास, तो तुम
नहीं समझ
पाओगे मुझे।
यदि मैं आता
हूं और
खटखटाता हूं
तुम्हारा
द्वार, तो
तुम सोचोगे
मैं तुमसे कोई
चीज मांगने
आया हू; वह
बात हो जाएगी
तुम्हारा
हृदय बंद कर
देने की। नहीं,
मैं
तुम्हारे घर
नहीं आऊंगा और
नहीं खटखटाऊंगा।
मैं तुम्हारे
आने की और
दस्तक देने की
प्रतीक्षा
करूंगा। और
केवल दस्तक ही
नहीं, मैं
तुम्हें
बाध्य भी
करूंगा
प्रतीक्षा
करो को —क्योंकि
वही है
एकमात्र
तरीका जिससे
कि तुम्हारा
हृदय खोला जा
सकता है।
मैं
नहीं जानता कि
पतंजलि ने
क्या कहा होता
पश्चिम से।
कैसे जान सकता
हूं मैं? पतंजलि
पतंजलि हैं; मैं नहीं
हूं पतंजलि।
लेकिन मैं यही
कहना चाहूंगा
पश्चिम उस जगह
आ पहुंचा है
जहां या तो
आत्मघात या
फिर
आध्यात्मिक क्रांति
घटेगी। यही दो
विकल्प हैं।
मैं ऐसा
किन्हीं
विशेष लोगों,
विशिष्ट
व्यक्तियों
के लिए नहीं
कह रहा हूं।
ऐसा सारे
पश्चिम के साथ
ही है। या तो
पश्चिम
आत्मघात कर
लेगा आणविक
युद्ध द्वारा
जिसके लिए कि
वह तैयार हो
रहा है, या
फिर
आध्यात्मिक
जागरण घटेगा।
और कोई बहुत
ज्यादा समय
बचा नहीं है।
इसी शताब्दी
में, मात्र
पच्चीस वर्ष
ही हैं और, पश्चिम
या तो आत्मघात
कर लेगा या
फिर पश्चिम जानेगा
उस सब से बड़े
आध्यात्मिक
जागरण को जो
कि कभी न घटा
होगा मानव —इतिहास
में। बहुत कुछ
लगा है दाव पर।
लोग
आते हैं मेरे
पास और वे
कहते हैं कि 'आप
संन्यास दिए
चले जाते हैं
बिना इस बात
पर ध्यान दिए
कि व्यक्ति
उसके योग्य है
या नहीं।’ मैं
कहता हू उनसे
कि समय कम है, और मैं
चिंता भी नहीं
करता इस बारे
में। यदि मैं
संन्यास देता
हूं पचास हजार
लोगों को और
केवल पचास
सच्चे
प्रमाणित
होते हैं, तो
उतने
पर्याप्त
होंगे
पश्चिम
को जरूरत है
संन्यासियों
की। वहां कथा
उस जगह तक
पहुंच गयी है, जहां मृत
व्यक्ति ढोया
जा रहा है। अब
संन्यासी को
प्रकट होना है
पश्चिम में।
और संन्यासी
को होना चाहिए
पश्चिम का, पूरब का
नहीं, क्योंकि
पूरब का
संन्यासी तो
देर— अबेर
शिकार हो
जाएगा, उस
सब का जो —जो
तुम दे सकते
हो। वह बेचने
लगेगा, वह
विक्रेता बन
जाएगा
क्योंकि वह
आया होता है भूखे
मर रहे दरिद्र
पूरब से। धन
है उसका
परमात्मा।
संन्यासी
को पश्चिम का
होना चाहिए; वह जो आया
हो पश्चिम की
भूमि से, जो
जानता हो जीवन
की अर्थहीनता;
जो
भौतिकवाद के
सारे प्रयास
की हताशा को
जानता हो; जो
मार्क्सवाद
की, साम्यवाद
की और सारे
भौतिकवादी
दर्शनों की
व्यर्थता को
जानता हो। अब
यह हताशा
पश्चिम के
आदमी के खून
में है। एकदम
हड्डियों में
धंसी है।
इसलिए
मेरी सारी
रुचि है जितना
संभव हो उतना
पश्चिमी लोगों
को संन्यासी
बनाने में और
उन्हें वापस
घर भेज देने
में। बहुत से
सार्त्र
प्रतीक्षा कर
रहे हैं वहां।
उन्होंने
देखा है
मृत्यु को। वे
प्रतीक्षा कर
रहे हैं गैरिक
वस्त्रों को देखने
की, और
गैरिक
वस्त्रों
सहित उस आनंदमयता
की जो कि पीछे —पीछे
ही चली आती है।
तीसरा
प्रश्न:
बुद्ध
जीते हैं सबसे
ऊंची
संवेदनशीलता
सहित और इससे
वे पूरी
अनुभूति पाते
है अपनी सारी
शारीरिक
आवश्यकताओं
की। क्या
कामवासना भी
एक शारीरिक
आवश्यकता
नहीं है रूप
तो फिर क्यों
वह तिरोहित हो
जाती हैं बुद्ध
में?
बहुत सारी
चीजें समझ
लेनी होंगी।
पहली
कामवासना
भोजन की भांति
कोई सामान्य
जरूरत नहीं है।
वह बहुत
असामान्य
होती है। यदि
भोजन तुम्हें
नहीं दिया
जाता है तो
तुम मर जाओगे, लेकिन
बिना
कामवासना के
तुम जी सकते
हो। यदि पानी
तुम्हें नहीं
दिया जाता है
तो शरीर मर जाएगा,
लेकिन बिना
कामवासना के
तुम जी सकते
हो। यदि वायु
तुम्हें नहीं
मिलती है तो
तुम मर जाओगे
कुछ पलों के
भीतर ही, लेकिन
बिना
कामवासना के
तुम जी सकते
हो तुम्हारी
जिंदगी भर।
यह
पहला भेद है, और क्यों
है ऐसा? क्योंकि
कामवासना
बुनियादी तौर
से व्यक्ति की
जरूरत नहीं है,
यदि
कामवासना पर
रोक लगा दी
जाए तो जाति
मर जाएगी, लेकिन
तुम तो नहीं
मरोगे। मानव
मर जाएगा, वह
व्यक्तिगत
नहीं, बल्कि
सामूहिक है।
कामवासना
जाति की
आवश्यकता है,
किसी
व्यक्ति की
नहीं। यदि हर
कोई
ब्रह्मचारी
बन जाए, तो
मनुष्यता
तिरोहित हो
जाएगी, लेकिन
तुम जीयोगे।
तुम सत्तर
वर्ष या और भी
ज्यादा
जीयोगे, क्योंकि
तुम ज्यादा
ऊर्जा बचा
लोगे। वह
व्यक्ति जिसे
सत्तर वर्ष
जीना था शायद
सौ वर्ष जी
सके बिना
कामवासना के,
क्योंकि
उसकी ऊर्जा
सुरक्षित रखी
रह जाएगी।
लेकिन
कामवासना के
बिना जाति मर
जाएगी।
यह
पहला भेद है.
भोजन की
आवश्यकता
होती है
तुम्हारे लिए, कामवासना
की आवश्यकता
होती है
दूसरों के लिए।
कामवासना की
जरूरत है
भविष्य में
आने वाली पीढ़ियों
के लिए। तुम
तो आ ही चुके
हो, इसलिए
कोई समस्या
नहीं।
तुम्हारे आने
के लिए
तुम्हारे
माता —पिता को
जरूरत थी
कामवासना की।
यदि वे ब्रह्मचारी
रहे होते, तो
तुम यहां नहीं
होते, लेकिन
वे तो जी लिए
होते हैं, उनके
लिए यह कोई
समस्या नहीं
रही होती। वे
तो ज्यादा
बेहतर ढंग से
ही जी लिए
होते, क्योंकि
तुमने बना दी
उनके लिए बहुत
सारी तकलीफ।
इसलिए
प्रकृति ने
तुम्हें
कामवासना के
लिए इतना गहरा
सम्मोहन दिया
है, वरना
मनुष्यता तो
तिरोहित हो
जाएगी।
प्रकृति ने
तुम्हें
कामवासना के
प्रति पूरी तरह
सम्मोहित कर
दिया है —वह
तुम्हें
धक्के देती है।
तुम जाल से बच
निकलने की
कोशिश करते हो,
और तुम जाल
में फंसा हुआ
अनुभव करते हो।
जो कुछ तुम
करते, जहां
कहीं भी तुम
जाते, कामवासना
तुम्हारा
पीछा करती है।
प्रकृति
तुम्हें
निकलने नहीं
दे सकती। वरना
कामवासना
स्वयं में
इतनी असुंदर
क्रिया है कि
यदि तुम्हें
स्वतंत्रता
दे दी जाए, तब
मैं नहीं
समझता कि कोई
चुनेगा उसे।
वह जबरदस्ती
लादी हुई होती
है।
क्या
तुमने कभी
स्वयं के
संभोग करने के
बारे में सोचा
है? —कितनी
असुंदर लगती
है यह बात!
इसीलिए लोग
स्वयं को छिपा
लेते हैं, जब
वे संभोग करते
हैं। वे एकांत
चाहते हैं, ताकि कोई
देखे नहीं
उनकी तरफ।
लेकिन जरा
सोचो, स्वयं
की कल्पना करो
संभोग करते
हुए। सारी बात
बेतुकी, मूढ़ता
भरी मालूम
पड़ती है। क्या
कर रहे होते
हो तुम? यदि
तुम्हारे
भीतर उसे करने
का कोई
सम्मोहन नहीं
होता तो कोई न
करता वैसा।
लेकिन
तुम्हें
प्रकृति ऐसा
नहीं करने दे
सकती, इसलिए
प्रकृति ने
इसके लिए
तुम्हें एक
गहन सम्मोहन
दे दिया है।
यह रासायनिक
होता है, यह
हार्मोनल
होता है। खून
की धारा में
खास
हार्मोन्स बह
रहे हैं, जो
तुम्हें
मजबूर कर देते
हैं।
अब
जीवशास्त्री
कहते हैं कि
यदि वे
हार्मोन्स
तुममें से
निकाले जा
सकें, तो
कामवासना
तिरोहित हो
जाएगी।
तुम्हें उन
हार्मोन्स के
इंजेक्यान
दिए जा सकते
हैं और काम—आकांक्षा
बहुत
शक्तिशाली हो
जाती है।
सत्तर या
अस्सी वर्ष के
वृद्ध
व्यक्ति में
भी, जिसका
कि शरीर अब
कामवासना में
उतरने के योग्य
भी नहीं रहा
होता, हार्मोन्स
के इंजेक्यान
दिए जा सकते
हैं और वह
किसी मूढ़ युवा
व्यक्ति की
भांति
व्यवहार करना
शुरू कर देगा।
वह पीछे पड़
जाएगा
स्त्रियों के।
वह शायद होगा व्हीलचेयर
में, लेकिन
तो भी वह पीछे
जाएगा
स्त्रियों के।
ऐसा नहीं है
कि व्यक्ति
पीछा कर रहा
होता है। वह
तो शरीर के
हार्मोन्स का
रासायनिक—तंत्र
ही वैसा कर
रहा होता है।
एक
बच्चा
उत्पन्न होता
है, हामोंन्स
तैयार नहीं
होते, वे
समय लेंगे
तैयार होने
में। करीब
चौदहवें वर्ष
में वह
कामवासना का
आवेग पाने में
सक्षम हो
जाएगा। उस समय
तक कोई समस्या
नहीं। सेक्स—
हार्मोन्स
परिपक्य हो
रहे होते हैं;
ग्रंथिया
तैयार हो रही
होती हैं।
अकस्मात
चौदहवें वर्ष
में फूट पड़ती
हैं और बच्चा
पगला जाता है।
वह नहीं समझ
सकता कि क्या
हो रहा है!
चौदहवें
और अठारहवें
के बीच की आयु
सबसे ज्यादा
नाजुक होती है।
बच्चा समझ
नहीं सकता कि
क्या हो रहा
है? किसी
चीज ने उस पर
कब्जा कर लिया
होता है। वह
एक आधिपत्य
होता है।
प्रकृति ने
अधिकार जमा
लिया होता है।
अब तुम तैयार
होते हो; अब
शरीर तैयार
होता है, अब
प्रकृति तुम्हें
बाध्य करती है
प्रजनन करने
को। कल्पनाओं
की लहरें उठ
खड़ी होतीं, स्वप्न होते,
तुम बच नहीं
सकते। जहां
कहीं तुम
देखते, यदि
तुम पुरुष हो
तो तुम केवल
स्त्री को देख
सकते हो, यदि
तुम स्त्री
होते हो, तो
केवल पुरुष को
देख सकते हो।
यह एक तरह का
पागलपन होता
है।
निस्संदेह, प्रकृति को
निर्मित करना
पड़ता है इसे, वरना कोई
प्रजनन ही न
होगा।
तुम्हारा
व्यक्तिगत
जीवन दाव पर
नहीं लगता है
यदि तुम
ब्रह्मचारी
हो जाते हो।
नहीं, कोई
चीज दाव पर
नहीं लगती।
इसके विपरीत,
तुम ज्यादा
गहन रूप से
जीयोगे, ज्यादा
आसानी से।
क्योंकि
ऊर्जा
संरक्षित
होगी।
इसलिए
पूरब के लोगों
ने इसकी खोज
की : उन्होंने
खोज लिया कि
कामवासना
मृत्यु
ज्यादा जल्दी ले
आती है। इसलिए
वे लोग जो
ज्यादा दिन
जीना चाहते थे, उनके
अपने कारणों
से, उन्होंने
कामवासना को
बिलकुल ही
गिरा दिया।
उदाहरण के लिए,
हठयोगी जो
ज्यादा जीना चाहते
हैं, क्योंकि
उनके पास बड़ी
धीमी गति से
चलने वाली
विधियां होती
हैं, बैलगाड़ी
की रफ्तार की
विधियां।
उन्हें पूरा
करने के लिए
उनको बहुत
लंबा समय चाहिए,
उन्हें
लंबा समय
चाहिए उनके
योग को पूरा
करने के लिए।
उन्होंने
कामवासना को
गिरा दिया
पूरी तरह से।
और कैसे उन्होंने
गिरा दिया उसे?
उन्होंने
निर्मित की
विशेष
मुद्राएं जो
शरीर के
हार्मोन्स के
प्रवाह को बदल
देती हैं।
उन्होंने
निर्मित किए
विशेष
शारीरिक
व्यायाम
जिसमें वीर्य
फिर से रक्त
में मिल जाता
है। उन्होंने
बड़ी अदभुत
बातें की शरीर
के विषय में; विमुक्त हुआ
वीर्य भी फिर
से समाविष्ट
किया जा सकता
था शरीर में।
उन्होंने
बहुत सारी
विधियां
निर्मित कीं
काम—ऊर्जा को
आत्मसात करने
की, क्योंकि
काम—ऊर्जा
जीवन—ऊर्जा
होती है, बच्चा
जन्मता है
इसके कारण।
यदि तुम ऊर्जा
को वापस अपने
शरीर में
समाविष्ट कर
सकते हो, तो
तुम बहुत
ज्यादा सक्षम
हो जाओगे। तुम
ज्यादा देर जी
सकते हो।
वस्तुत:
वृद्धावस्था
एकदम गिरायी
ही जा सकती है।
तुम बिलकुल
अंतिम समय तक
युवा रह सकते
हो।
भेद
अस्तित्व
रखते हैं।
भोजन एक
व्यक्तिगत
आवश्यकता है।
यदि तुम इसे
बंद करोगे तो
तुम मरोगे।
कामवासना कोई
व्यक्तिगत
जरूरत नहीं है, यह एक
आधिपत्य है।
यदि तुम रोक
दो तो तुम इस
कारण बहुत कुछ
पाओगे। लेकिन
रोकना तीन
प्रकार का हो
सकता है तुम
दमन कर सकते
हो इच्छा का; उससे मदद न
मिलेगी—तुम्हारी
काम—ऊर्जा
विकृत हो
जाएगी। इसलिए
मैं कहता हूं
कि विकृत हो
जाने से स्वाभाविक
होना बेहतर है।
जैन मुनि, बौद्ध
भिक्षु, ईसाई,
कैथेलिक
साधु, जो
सब जीए होते
हैं मात्र—पुरुष
—समाजों में, पुरुष —समूहों
में, सौ
में से नब्बे
प्रतिशत या तो
हस्तमैथुन
करने वाले
होते हैं या
फिर
होमोसेक्यूअल,
समलैंगिक।
ऐसा होगा ही, क्योंकि
कहां जाएगी
ऊर्जा? और
वे केवल दमन
करते रहे हैं,
उन्होंने
हार्मोन्स के
तंत्र को, शरीर
के रसायन को
रूपांतरित
नहीं किया। वे
नहीं जानते
क्या करना है
इसलिए वे केवल
दमन ही करते
हैं। दमन बन
जाता है एक
विकृति। मैं
पहले प्रकार
की विधियों के
विरोध में हूं
स्वाभाविक
होना बेहतर है
विकृत हो जाने
से, क्योंकि
विकार—ग्रसित
व्यक्ति गिर
रहा होता है
स्वाभाविक से
नीचे, वह
पार नहीं जा
रहा होता।
फिर एक
दूसरा प्रकार
है जिसने शरीर
के हार्मोन्स
के तरीके को
बदलने का
प्रयत्न किया
है हठयोग, योग आसन।
और शरीर के
रसायन को
बदलने के बहुत
ढंग होते हैं।
दूसरी
विधियां
बेहतर, हैं
पहले से, लेकिन
फिर भी मैं
उनके पक्ष में
नहीं हूं।
क्यों? क्योंकि
यदि तुम बदलते
हो अपने शरीर
को, तो तुम
नहीं बदलते हो।
एक नपुंसक
व्यक्ति
ब्रह्मचारी
होता है।
लेकिन यह बात
व्यर्थ है।
हठयोग की
विधियों
द्वारा तुम
नपुंसक हो
जाओगे, हार्मोन्स
वहां कार्य न
कर रहे होंगे,
या
ग्रंथियाँ
बिगड़ जाएंगी
और वे
क्रियान्वित न
हो सकेंगी, लेकिन यह
कोई
आध्यात्मिक
विकास नहीं।
तुमने एक
ढांचे को, तंत्र
को नष्ट कर
दिया होता है,
तुम उसके
पार नहीं गए
होते हो।
और यह
बात भी जीवन
की दूसरे
प्रकार की
समस्याओं की
ओर ले जा सकती
है। तुम
स्त्री से
भयभीत होओगे, क्योंकि
जिस क्षण वह
निकट आती है
तुम्हारा बदला
हुआ रसायन फिर
से धारण कर
लेगा पुराना
ढांचा, एक
प्रवाह।
स्त्री की खास
ऊर्जा होती है,
स्त्री—ऊर्जा
चुंबकीय होती
है, और बदल
देती है
तुम्हारे
शरीर की ऊर्जा
को। इसलिए
हठयोगी तो
भयभीत हो गए
स्त्रियों से।
वे भाग गए
हिमालय की तरफ
और गुफाओं की
तरफ। भय अच्छी
चीज नहीं है।
और यदि तुम
भयभीत होते हो,
तो तुम
उसमें जा पड़ते
हो। यह ऐसा है
जैसे—एक आदमी
अंधा हो जाता ताकि
वह देख नहीं
सके स्त्री को,
लेकिन कोई
ज्यादा मदद न
मिलेगी उस बात
से।
तीसरे
प्रकार की
विधि है? ज्यादा सजग
हो जाना। शरीर
को मत बदलना—जैसा
कि वह है, अच्छा
है वह। उसे
स्वाभाविक
बना रहने दो, तुम ज्यादा
सजग हो जाओ।
जो कुछ घटता
है मन में और
शरीर में तुम
सजग होओ।
स्थूल और
सूक्ष्म
पर्तों पर
ज्यादा से
ज्यादा
होशपूर्ण हो
जाओ। बस
होशपूर्ण
होने से, साक्षी
होने से, तुम
और ऊंचे और
ऊंचे और ऊंचे
उठते जाते हो —और
एक क्षण आता
है, जब
मात्र
तुम्हारी
ऊंचाई के कारण,
मात्र
तुम्हारी
शिखर चेतना के
कारण, घाटी
बनी रहती है
वहा, लेकिन
तुम अब नहीं
रहते घाटी के
हिस्से, तुम
उसका
अतिक्रमण कर
जाते हो। शरीर
कामवासनामय
बना रहता है, लेकिन तुम वहा
नहीं रहते
उसका सहयोग
देने को। शरीर
तो बिलकुल
स्वाभाविक
बना रहता है, लेकिन तुम
उसके पार जा
चुके होते हो।
वह कार्य नहीं
कर सकता है
बिना
तुम्हारे
सहयोग के। ऐसा
घटा बुद्ध को।
इस
शब्द 'बुद्ध'
का अर्थ है—वह
व्यक्ति जो कि
जागा हुआ है।
यह केवल गौतम
बुद्ध से संबंध
नहीं रखता है।
बुद्ध कोई
व्यक्तिगत
नाम नहीं है, वह चेतना की
गुणवत्ता है।
क्राइस्ट
बुद्ध हैं, कृष्ण बुद्ध
हैं, और
हजारों
बुद्धों का
अस्तित्व रहा
है। यह चेतना
की एक
गुणवत्ता है—और
यह गुणवत्ता
क्या है?—जागरूकता।
ज्यादा ऊंची,
और ज्यादा
ऊंची जाती है
जागरूकता की
लौ और एक क्षण
आ जाता है जब
शरीर मौजूद
होता है—पूरी
तरह
क्रियान्वित
और स्वाभाविक,
संवेदनशील,
सवेगवान, जीवंत, लेकिन
तुम्हारा
सहयोग वहां
नहीं होता।
तुम अब साक्षी
होते हो, कर्ता
नहीं—कामवासना
तिरोहित हो
जाती है।
भोजन
तिरोहित नहीं
हो जाएगा, बुद्ध को
भी आवश्यकता
होगी भोजन की,
क्योंकि यह
एक निजी
आवश्यकता
होती है, कोई
सामाजिक
आवश्यकता, कोई
जातिगत
आवश्यकता
नहीं। निद्रा
तिरोहित नहीं
होगी, वह
एक व्यक्तिगत
आवश्यकता है।
वह सब जो
व्यक्तिगत है,
मौजूद
रहेगा, वह
सब जो जातिगत
है, तिरोहित
हो जाएगा—और
इस तिरोभाव का
एक अपना ही
सौंदर्य होता
है।
यदि
तुम देखो किसी
हठयोगी की ओर
तो तुम देखोगे
एक अपंग
प्राणी को।
उसके चेहरे से
आ रही किसी
आभा को नहीं
देख सकते हो
तुम। उसने
नष्ट कर दिया
है अपना रसायन, वह सुंदर
नहीं है। यदि
तुम देखते हो
दमन से भरे
मुनि को, वह
तो और भी
असुंदर होता है
क्योंकि उसकी आंखों
से और चेहरे
से तुम देखोगे
सब प्रकार की
कामुकता
चारों ओर
गिरते हुए।
उसके आस—पास
कामवासनामय
वातावरण होगा—असुंदर
और गंदा।
स्वाभाविक
आदमी बेहतर
होता है, कम
से कम वह
स्वाभाविक तो
होता है।
लेकिन विकृत
आदमी बीमार
होता है और वह
बीमारी लिए
रहता है अपने
चारों ओर।
मैं
तीसरे के पक्ष
में हूं, लेकिन इस
बीच तुम
स्वाभाविक
बने रहो। दमन
करने की कोई
जरूरत नहीं, शरीर को
अपंग करने
वाली किन्हीं
विधियों को आजमाने
की जरूरत नहीं—कोई
जरूरत नहीं।
स्वाभाविक हो
जाओ और अपने
बुद्धत्व के
लिए साधना
जारी रखो।
स्वाभाविक हो
जाओ और ज्यादा
से ज्यादा
सचेत और सजग
हो जाओ। एक
क्षण आ जाएगा
जब कामवासना
बिलकुल
तिरोहित हो
जाती है। जब
वह अपने से
तिरोहित हो
जाती है, वह
अपने पीछे बड़ी
आभा, बड़ा
प्रसाद, बड़ा
सौंदर्य छोड़
जाती है।
तिरोहित होने
के लिए उसे
विवश मत करना,
वरना वह
पीछे सारे घाव
छोड़ जाएगी और
तुम सदा
उन्हीं घावों के
साथ रहते
रहोगे। उसे
स्वयं ही जाने
दो। केवल
द्रष्टा बने
रहो और जल्दी
मत करो।
स्वाभाविक
बात अच्छी
होती है : तुम
स्वाभाविक
बने रहो। जब
तक कि तुम
स्वभाव के पार
नहीं चले जाते,
लड़ना मत
प्रकृति के
साथ। उच्चतर
को आते रहने
देना।
और यही
है मेरा
दृष्टिकोण हर
चीज के प्रति :
निम्नतर के
साथ संघर्ष मत
करो, उच्चतर
के लिए
प्रार्थना
करो। उच्चतर
के लिए कार्य
करो और
निम्नतर को
अनछुआ ही छोड़
दो। यदि तुम
निम्न के साथ
लड़ना शुरू कर
देते हो तो तुम्हें
वहीं रहना
होगा निम्न के
साथ; तुम
वहां से सरक
नहीं सकते।
स्वाभाविक हो
जाओ ताकि
प्रकृति
तुम्हें अड़चन
न दे और तुम
अलग छोड़ दिए
जाओ ज्यादा
ऊंचे उठने को।
उच्चतर के लिए
प्रार्थना
करना, उच्चतर
के लिए ध्यान
करना, उच्चतर
के लिए
प्रयत्न करना
और प्रकृति को
उसी तरह छोड़
देना जैसी कि
वह होती है।
जल्दी ही पराप्रकृति
उदित होगी।
प्रकृति में
से आती
पराप्रकृति, और फिर वहां
होता है
प्रसाद, फिर
वहा होता है
सौंदर्य, तब
वहा होती है
अपार धन्यता।
तुम्हारे
लिए अच्छा
होगा एक और
दूसरे आयाम से
इसे समझना
कामवासना
संबंध रखती है
शरीर से, प्रेम
संबंधित होता
है सूक्ष्म
शरीर से, प्रार्थना
संबंध रखती है
केंद्र से, एकदम
तुम्हारी
सत्ता के मूल
से ही।
कामवासना का
संबंध होता है
परिधि से, प्रार्थना
जुड़ी होती है
केंद्र से, और केंद्र
तथा परिधि के
बीच है प्रेम।
बुद्ध
प्रार्थनामयी
करुणा हैं, वे पहुंच
चुके केंद्र
तक। इससे पहले
कि तुम केंद्र
तक पहुंचो, जब तुम
परिधि और
केंद्र के बीच
गति कर रहे हो,
तब तुम
प्रेमपूर्ण
हो —बहुत
ज्यादा गहरे
रूप से
प्रेममय।
परिधि पर तुम
कामपूर्ण
रहोगे, तुम
कामवासना युक्त
रहोगे। और यह
वही ऊर्जा
होती है।
परिधि पर
कामवासना एक
जरूरत होती है,
परिधि और
केंद्र के बीच
प्रेम होता है
एक जरूरत।
ऊर्जा वही
होती है लेकिन
तुम बदल चुके
होते हो, अत:
आवश्यकता
बदलती है।
केंद्र पर
प्रार्थना, करुणा है
आवश्यकता, ऊर्जा
वही होती है।
तो बुद्ध को
भूख नहीं
कामवासना की,
वही ऊर्जा
करुणा बन चुकी
है। प्रेम से
भरा व्यक्ति
कामवासना का
भूखा नहीं होता
है, वही
ऊर्जा प्रेम
बन चुकी होती
है। इसलिए
आवश्यकताओं
के विषय को
समझ लेना है।
आवश्यकता
अस्तित्व
रखती है शरीर
में, लेकिन
यदि तुम सरकते
हो शरीर से
ज्यादा गहरे में,
तो
आवश्यकता बदल
जाती है।
आवश्यकता
तुम्हारा ही
पीछा करती है।
यदि तुम बहुत
ज्यादा भरे
हुए होते हो
कामयुक्त
प्रतिछवियों
से, कल्पनाओं
से, तो यह
बात केवल यही
दर्शाती है कि
तुम जीते हो परिधि
पर। सरको वहां
से। तुम परिधि
पर ही कार्य
किए जाते हो!
लाखों जन्मों
से तुम वही
कार्य कर रहे
हो और
आवश्यकता पूरी
नहीं हुई है।
वह पूरी हो
नहीं सकती है।
कोई जरूरत
नहीं हो सकती
है —इस बात को
याद रखना। तुम
खाते हो, आठ
घंटे, छ:
घंटे बाद
तुम्हें फिर
भूख लगती है।
कोई जरूरत
पूरी नहीं हो
सकती है। वह
तो एक अस्थायी
परिपूर्ति
होती है। तुम
संभोग करते हो,
कुछ घंटों
बाद तुम फिर
तैयार हो जाते
हो। आवश्यकताएं
पूरी हो नहीं
सकतीं, क्योंकि
वे एक चक्र
में घूमती हैं।
तुम्हारी
आवश्यकताओं
से ज्यादा
ऊंचे सरको।
मैं नहीं कह
रहा कि
आवश्यकताओं
से लड़ो; आने दो
उन्हें; आनंदित
होओ उनसे जब
कि तुम वहां
हो। लड़ना
क्यों?—आनंद
मनाओ उसका जब
तुम उसमें हो।
यदि तुम प्रेम
करते हो, तुम
कामवासना में
उतरते हो, तो
आनंद मनाना
उसका। अपराधी
मत अनुभव करना,
और पापी मत
अनुभव करना।
ठीक से पाप कर
लेना। यदि तुम
पाप कर ही रहे
हो तो कम से कम
कुशल तो होओ।
मुझे
याद आ गई लूथर
की। पेक्का
फॉर्टीलर
नामक एक शिष्य
ने पूछा लूथर से, 'क्या
करूं? मैं
पाप करना बंद
नहीं कर सकता।’
लूथर ने कहा,
'ज्यादा
शक्तिशाली
पाप करो।’ बिलकुल
ठीक ही है बात।
मैंने लूथर के
विचारों के
साथ कभी कोई
बहुत ज्यादा
सहानुभूति
अनुभव नहीं की,
लेकिन इस
बारे में
बिलकुल उसके
साथ हूं अधिक
सशक्त, अधिक
समर्थ पाप करो।
यदि तुम रुक
नहीं सकते तो
फिर क्यों
करनी चिंता? अधिक सशक्त
पाप करो, क्योंकि
चरम पर
रूपांतरण
संभव होता है।
कुनकुने लोग
कभी
रूपांतरित
नहीं होते।
कुनकुने
मत होना।
मूढ़ता केवल
यही है जिसे
तुम किए चले
जा सकते हो।
क्योंकि जब
तुम सौ
प्रतिशत उबल
रहे होते हो केवल
तभी
वाष्पीकरण
घटता है।
कुनकुने होते
हो, तो
तुम बने रह
सकते हो
कुनकुने बहुत—बहुत
जन्मों तक और
कुछ नहीं
घटेगा। चरम की
ओर बढ़ जाना।
यदि तुम
कामवासना में
उतरते हो तो
उसमें सरक जाना
समग्र रूप से।
कोई संघर्ष मत
बना लेना, कोई
चीज रोक मत
लेना और इसी
बीच कार्य किए
जाना।
कामवासना को
वहां अपने से
मौजूद रहने दो।
तुम काम करते
जाओ जागरूकता
पर। और ज्यादा—ज्यादा
ध्यान करो और
धीरे — धीरे
तुम जानोगे कि
वही ऊर्जा बदल
रही है, रूपांतरित
हो रही है।
जब तुम
बदलते हो, तो ऊर्जा
बदलती है, क्योंकि
ऊर्जा का
संबंध तुमसे
है। जब
तुम्हारा
दृष्टिकोण
बदलता है, तो
ऊर्जा को
बदलना पड़ता
है उसका तल।
जब तुम्हारी
अंतस—सत्ता का
धरातल बदलता
है, तब
ऊर्जा को
तुम्हारा
अनुसरण करना
पड़ता है। वह
तुम्हारी
ऊर्जा है।
जब तुम
केंद्र की ओर
बढ़ते हो, धीरे — धीरे
तुम अचानक जान
लोगे कि
कामवासना
तिरोहित हो
रही है और
प्रेम शक्ति
पा रहा है।
तुम और ज्यादा
प्रेममय हो
रहे हो। अब
प्रेम कोई
कामुकता नहीं।
प्रेम अग्नि
की भांति नहीं
होता, वह
बहुत शीतल
प्रकाश होता
है। कामवासना
ज्वलंत होती
है, वह आग
होती है। वह
तपे हुए सूर्य
की भांति होती
है। प्रेम
शीतल चंद्रमा
की भांति होता
है; वह तुम्हें
प्रकाश देता
है, लेकिन
बहुत शीतल, शात। एक
शाति घेर लेती
है प्रेम को।
फिर धीरे —
धीरे
कामवासना हो
जाएगी दूर, और दूर, और
दूर और वही
ऊर्जा सरक रही
होगी प्रेम
में। तुम भूखा
अनुभव नहीं
करोगे। बल्कि,
इसके
विपरीत तुम
ज्यादा
परितृप्त
अनुभव करोगे,
क्योंकि
प्रेम ज्यादा
परितृप्त
करता है। वह
कामवासना का
उच्चतर रूप है,
और हर बार
जब तुम ज्यादा
ऊंचे जाते हो,
तुम ज्यादा
परितृप्त
अनुभव करते हो
क्योंकि उच्चतर
रूप ज्यादा
सूक्ष्म
ऊर्जाएं हैं।
वे स्थूल नहीं
होतीं, वे
ज्यादा
सूक्ष्म होती
हैं। वे
परिपूर्ति
करती हैं, वे
तुम्हें और
ज्यादा देती
हैं। तो उठते
जाना
जागरूकता में।
एक दिन आता है,
जब अचानक
तुम केंद्र
में बद्धमूल
होते हो —केंद्रस्थ।
अब प्रेम भी
नए आयाम धारण
कर लेता है; वह बन जाता
है करुणा।
भेद
क्या होता है? कामवासना
में तुम
संबंधित होते
हो स्वयं के साथ,
दूसरे से
बिलकुल ही
संबंधित नहीं
होते। तुम तो
बस उपयोग करते
हो दूसरे का।
इसीलिए
कामवासना से
जुड़े साथी
निरंतर लड़ते हैं,
क्योंकि एक
अंत—अनुभूति
वहा होती है
कि दूसरा मेरा
इस्तेमाल कर
रहा है।
कामवासनायुक्त
साथी आंतरिक
समस्वरता के
बिंदु तक नहीं
आ सकते।
उन्हें फिर—फिर
लड़ना होगा, क्योंकि
स्त्री सोचती
है कि पुरुष
उसका उपयोग कर
रहा है—और ठीक
सोचती है वह।
इसमें कुछ गलत
नहीं। और
पुरुष सोचता
है कि स्त्री
उसका उपयोग कर
रही है।
और जब
कभी कोई
तुम्हारा
उपयोग करता है
साधन की भांति, तो
तुम्हें चोट
लगती है। यह
बात शोषण जैसी
मालूम पड़ती है।
पुरुष संबंध
रखता है उसकी
अपनी
कामवासना से,
स्त्री
संबंध रखती है
उसकी अपनी
कामवासना से—दोनों
में से कोई
गतिमान नहीं
हो रहा होता
दूसरे की तरफ!
गति वहा होती
ही नहीं। वे
दो स्वार्थी
व्यक्ति होते
हैं?
स्वकेंद्रित,
एक—दूसरे का
शोषण
करनेवाले।
यदि वे बात
करते हैं प्रेम
के बारे में
और उसके गीत
गाते हैं और
काव्यात्मक
होते हैं, तो
वह बात होती
है मात्र एक
विमोह, विश्वास
पैदा करने की
कोशिश, एक
प्रलोभन—लेकिन
उन्हें दूसरे
से कुछ लेना—देना
नहीं होता है।
एक बार जब
पुरुष ने
उपयोग कर लिया
होता है स्त्री
का, वह
करवट बदल लेता
है और सो जाता
है; खत्म
हो जाती है
बात—चीज
इस्तेमाल कर
ली गई और फेंक
दी गई।
अमरीका
में उन्होंने
बनायी हैं
प्लास्टिक की
स्त्रियां और
प्लास्टिक के
पुरुष। वे खूब
संपूर्णता से
काम करते हैं।
प्लास्टिक की
स्त्री, यदि तुम छुओ
उसके स्तनों
को, तो
स्तन जीवंत हो
जाते हैं, वे
उत्तप्त हो
जाते हैं। तुम
प्रेम कर सकते
हो प्लास्टिक
की स्त्री से
और वह वैसा ही
तृप्तिदायी
होता है, जैसा
किसी स्त्री
का—कुछ ज्यादा
ही, क्योंकि
कोई लड़ाई नहीं,
कोई संघर्ष
नहीं।
समाप्ति पर
तुम फेंक सकते
हो स्त्री को
और सो सकते हो।
यही कुछ है जो
लोग कर रहे हैं।
चाहे स्त्री
प्लास्टिक की
होती है या
वास्तविक
होती है इससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता है। और
स्त्री उपयोग
किए चली जाती
है पुरुष का!
जब कभी
तुम दूसरे का
उपयोग करते हो
साधन की भांति
तो वह बात
अनैतिक होती
है। दूसरा
स्वयं में
साध्य होता है।
लेकिन दूसरा
स्वयं में साध्य
बनता है
तुम्हारे
अस्तित्व की
दूसरी अवस्था
में ही—जब तुम
प्रेम करते हो।
तब तुम प्रेम
करते दूसरे के
लिए। तब तुम
उपयोग नहीं कर
रहे होते। तब
दूसरा
महत्वपूर्ण
होता है, अर्थवान।
स्त्री हो कि
पुरुष, दूसरा
स्वयं में
साध्य होता है।
तुम अनुगृहीत
होते हो।
प्रेम में कोई
शोषण संभव
नहीं होता है,
तुम मदद
करते हो दूसरे
की। वह कोई
सौदा नहीं
होता है। तुम
आनंद मना रहे
होते हो मदद
देने में, तुम
बांटने से
आनंदित होते
हो और तुम
अनुगृहीत
होते हो कि
दूसरा
तुम्हें
बांटने का
अवसर देता है।
प्रेम
सूक्ष्म होता
है। कामवासना
वाला स्थूल
क्षेत्र छूट
जाता है।
दूसरा साध्य
बन जाता है।
लेकिन फिर भी
अभी आवश्यकता
मौजूद होती है, एक
सूक्ष्म
आवश्यकता।
क्योंकि जब
तुम प्रेम
करते हो किसी
व्यक्ति को तो
एक सूक्ष्म
अपेक्षा, चाहे
अचेतन तौर पर
हो, छिपी
रहती है कहीं
न कहीं कि
दूसरा भी
तुम्हें
प्रेम करे। यह
बात छाया की
भांति पीछे
चलती है कि
दूसरा भी
तुम्हें
प्रेम करे।
अभी भी प्रेम
पाने की
आवश्यकता
मौजूद होती है।
यह कामवासना
से बेहतर होती
है, लेकिन
फिर भी एक
अपेक्षा तो
होती है। और
वही अपेक्षा
एक कर्कश सुर
होगा प्रेम
में। वह अभी
परिशुद्ध न
हुआ।
करुणा
प्रेम की
उच्चतम
गुणवत्ता
होती है, उच्चतम
शुद्धता। अब
अपेक्षा भी
नहीं रहती वहा।
दूसरा साधन
नहीं होता, दूसरा साध्य
होता है। और
अब तुम किसी
चीज की
अपेक्षा नहीं
करते। तुम तो
बस दे देते जो
कुछ तुम दे
सकते हो।
अपेक्षा पूरी
तरह जा चुकी
होती है।
बुद्ध
संपूर्ण दाता
हैं। वे दिए
चले जाते हैं,
वे आनंदित
होते हैं देने
से। वह सहज
बाटना हुआ। अब
वह बन चुकी है
करुणा—वही
ऊर्जा और वही
आवश्यकता—अंतस
सत्ता के
विभिन्न
धरातलों पर।
इसलिए
कामवासना
तिरोहित हो
जाती है बुद्ध
में, क्योंकि
वह पुन: प्रकट
होती है करुणा
के रूप में।
चौथा
प्रश्न :
आप हा
और फ्रायड के
जीवन के बारे
में बोले और मैने
सुना है कि
जैनोव ने उसकी
अपनी विधियों
को नहीं
आजमाया है और
वह जान पड़ता
है बहुत
ज्यादा
महत्वाकांक्षी।
क्या आप उसकी
विधियों पर
चर्चा कर सकते
हैं और यह कि
उसने स्वयं को
स्वस्थ किया
भी है या नहीं?
यही है समस्या
पश्चिम के सभी
विचारकों की—उन्होंने
अपनी विधियों
को नहीं
आजमाया है।
वस्तुत:, वे उन
विधियों से
अपनी
आध्यात्मिक
खोज के किसी
अंश के रूप
में नहीं
टकराए हैं।
अपने रोगियों
पर कार्य करते
हुए वे जा
मिले उन
विधियों से।
फ्रायड
जा टकराया
मनोविश्लेषण
से, और
मैं कहता हूं
जा टकराया, क्योंकि वह
बात सांयोगिक
थी। वह तो बस
टटोल रहा था
अंधकार में।
वह कार्य कर
रहा था
रोगियों पर —वह
एक डाक्टर था
मदद करने की
कोशिश करता था।
धीरे — धीरे वह
जान गया कि
ऐसी बहुत—सी
बीमारियां
हैं जो
शारीरिक नहीं
होतीं, तो
शारीरिक रूप
से तुम उनकी
कितनी ही
चिकित्सा किए
जाओ और कुछ
होता नहीं।
फिर वह रुचि
लेने लगा
सम्मोहन में,
क्योंकि
कुछ किया जा
सकता था
सम्मोहन के
द्वारा।
सम्मोहन के
द्वारा उसने
काम करना शुरू
कर दिया। अपने
शिक्षक के साथ
काम करते हुए
और लोगों की मदद
करते हुए वह
सम्मोहनविद
बना रहा बहुत वर्षों
तक। फिर, धीरे
— धीरे वह सजग
हो गया इस
बारे में कि
वस्तुत: सम्मोहन
ने मदद नहीं
की। कोई जरूरत
न थी कि
व्यक्ति को
सम्मोहित
किया जाए। यदि
कोई व्यक्ति
पूरी तरह होश
में भी हो, उसे
बतलाने लगे जो
कुछ भी आता हो
उसके मन में, जो कुछ भी
बहता हो अचेतन
से चेतन तक, यदि वह उसे
बताता ही चला
जाए तो यह बात
एक मुक्ति
देगी। वह
कोशिश करने
लगा इस बात के
लिए। इस तरह
पैदा हुआ
मनोविश्लेषण :
विचारों का मुक्त
साहचर्य।
उसने स्वयं के
विषय में किसी
बात के लिए
कभी कोई कोशिश
न की थी। वह
वही आदमी बना
रहा, उसने
कोई
परिपक्वता
नहीं पायी।
ऐसा ही
घटा दूसरों के
साथ, और
जैनोव के साथ
भी। वह काम
करता रहा था
रोगियों पर और
जा टकराया इस
तथ्य से कि
यदि रोगी जा
सके पीछे की
ओर जन्म के
आघात तक ही, जब कि बच्चा
पैदा होता है
और वह चीख कर
रो पड़ता है
पहली बार—वह
होती है आदिम
चीख—यदि कोई
व्यक्ति जा
सके पीछे की
ओर बिलकुल उसी
बिंदु तक जब
कि वह बाहर आता
है गर्भ से और
पहली सांस
लेता है तो
बहुत सारी
चीजों का
बिलकुल
निराकरण हो
जाता है, बहुत
सारी
समस्याएं
तिरोहित हो
जाती हैं।
मात्र उन्हें
फिर से जीने
द्वारा, वे
तिरोहित हो
जाती हैं।
उसने वह बात
आजमायी नहीं
स्वयं पर। वह
स्वास्थ्य को
उपलब्ध
व्यक्ति नहीं
है।
फ्रायड
बहुत महत्वाकांक्षी
था। उसने
स्वयं को एक
पैगंबर जाना
जो कि प्रारंभ
कर रहा था
दुनिया के एक
बड़े आंदोलन का।
और वह
ईर्ष्यालु था, जैसे कि
राजनेता
ईर्ष्यालु
होते हैं सदा,
षड्यंत्रकारी।
वह जासूसी
करता अपने
शिष्यों की और
सहयोगियों की,
निरंतर
भयभीत होता कि
कोई उसके आंदोलन
को नष्ट करने
ही वाला है, आंदोलन पर
कब्जा करने ही
वाला है, नेता
होने वाला है;
फ्रायड सदा
भयभीत रहता था।
और यही
बात जुड़ी थी
जुग के साथ।
यदि तुम
झांकते हो का
की आंखों में —हा
की एक तस्वीर
ले आओ, वह
अध्ययन करने
योग्य है।
उसके चश्मे के
पीछे बहुत
चालाक आंखें
हैं, वह
चेहरा ही
अहंकारी है।
जैनोव
बहुत महत्वाकांक्षी
है और उसकी
नयी किताबें
साफ दिखा देती
हैं उसकी
महत्वाकांक्षा
को। संयोग है
कि वह जा
टकराया है एक
विधि से जो
कोई पूरी चीज
नहीं है, मात्र एक
अंश है, तो
भी अब वह
सोचता है कि
उसने एक पूरा
सत्य खोज लिया
है। अब वह
सोचता है. यह
प्राइमल—
थैरेपी ही है
वह सब कुछ
जिसकी जरूरत
है, कि यह
प्रत्येक को
ले जाएगी उस
परम निर्वाण
तक। यह मूढ़ता
है। यह है
महत्वाकांक्षा।
वे
सारे पश्चिमी
विचारक जो
वहां
प्रभावशाली बने
हैं, उनके
बारे में याद
रखने की दूसरी
बात यह है कि
वे काम करते
रहे हैं बीमार
व्यक्तियों
के साथ, रोगियों
के साथ।
उन्हें
स्वस्थ लोग
कहीं नहीं
मिले। तो जो
भी हैं उनकी
खोजें, वे
आधारित हैं
रोग — अध्ययन
पर। एक स्वस्थ
व्यक्ति
नितांत अलग
होता है अस्वस्थ
व्यक्ति से।
फ्रायड का कभी
सामना नहीं
हुआ किसी
स्वस्थ
व्यक्ति से।
इसका प्रश्न
ही नहीं उठता,
क्योंकि एक
स्वस्थ
व्यक्ति कभी
नहीं जाता वैद्य
के पास या
डाक्टर के पास।
क्यों जाएगा
कोई न: यदि तुम
मानसिक रूप से
बीमार नहीं हो,
तो क्यों
जाओगे तुम
किसी
मनोचिकित्सक
के यहां? इसकी
कोई जरूरत
नहीं होती।
तुम जाते हो
केवल इसलिए
क्योंकि तुम
बीमार होते हो।
तो केवल बीमार
मनुष्य जाते
हैं इन लोगों
के पास—फ्रायड,
का, कि
एडलर, कि
जैनोव। उन
बीमार लोगों
पर वे आधारित
करते हैं अपने
दर्शन —सिद्धात
को।
यह बात
होगी ही
असंतुलित, और केवल
असंतुलित ही
नहीं, बल्कि
एक खास ढंग से
बहुत खतरनाक
भी, क्योंकि
वे बीमार
प्राणी मानव —जाति
के वास्तविक
प्रतिनिधि
नहीं हैं। वे
बीमार हैं। यह
तो ऐसा ही है
जैसे तुम्हें
केवल अंधे
आदमी मिलते
हैं क्योंकि
तुम आंखों के
डाक्टर हो, इसलिए केवल
अंधे लोग आते
हैं तुम्हारे
पास और फिर
तुम आदमी का
विचार करते
अंधे के रूप
में ही।
मानसिक रूप से
बीमार
व्यक्ति आते
हैं तुम्हारे
पास। तब तुम
मनुष्य का
विचार करते
मानसिक रोगी
के रूप में।
यह बात गलत
होती है
क्योंकि जब तक
स्वस्थ व्यक्ति
अस्तित्व
नहीं रखते, रोग की
संभावना होती
है।
सारे
पश्चिमी
मनोविज्ञान आधारित
हैं रोग —विज्ञान
पर, और
वास्तविक
मनोविज्ञान
की जरूरत है
जो कि आधारित
होता है
स्वस्थ
व्यक्ति पर।
संपूर्ण
मनोवीशान को
आधारित होना
चाहिए बुद्ध
जैसे
व्यक्तियों
पर, मात्र
सामान्य
स्वस्थ
व्यक्तियों
पर नहीं।
तो तीन
प्रकार के
मनोविज्ञान
होते हैं। एक, रोगात्मक,
सारे
पश्चिमी
मनोविज्ञान
रोगात्मक
होते हैं।
केवल अभी — अभी
इधर कुछ
समग्रतावादी
धारणाएं
मजबूती पा रही
हैं जो कि
स्वस्थ
व्यक्ति के
बारे में सोचती
हैं, लेकिन
वे एकदम
प्रारंभ पर ही
हैं। पहले कदम
भी नहीं उठाए
गए हैं। दूसरे
प्रकार के
मनोविज्ञान
हैं, जो सोचते
हैं स्वस्थ
व्यक्ति के
विषय में, जो
आधारित हैं
स्वस्थ मन पर—वे
हैं पूरब के
मनोविज्ञान।
बौद्ध धर्म
बहुत ज्यादा
गहरे उतरने
वाला मनोविज्ञान
है; पतंजलि
का अपना
मनोविज्ञान
है। वे आधारित
हैं स्वस्थ
व्यक्तियों
पर; स्वस्थ
व्यक्ति को
स्वस्थ होने
में मदद देने के
लिए हैं; स्वस्थ
व्यक्ति को
ज्यादा
स्वास्थ्य
पाने में मदद
देने के लिए
हैं।
रोगात्मक
मनोविज्ञान
बीमार
व्यक्तियों
की मदद करते
हैं स्वस्थ
होने में।
फिर है
एक तीसरा
प्रकार। जिसे
गुरजिएफ परम
मनोविज्ञान
कहा करता था, वह अभी भी
अविकसित है।
उस प्रकार को
निर्भर करना
पड़ता है
बुद्धों पर।
वह अभी विकसित
नहीं हुआ है, क्योंकि कहां
जाओगे बुद्ध
का अध्ययन
करने को, और
कैसे करोगे
बुद्ध का
अध्ययन? और
केवल एक बुद्ध
से क्या होगा?
तुम्हें
बहुतों का
अध्ययन करना
होगा। केवल
तभी
निष्कर्षों
तक पहुंच सकते
हो। लेकिन
किसी दिन वह
मनोविज्ञान
घटेगा; उसे घटना
होगा; उसे
होना ही होगा
क्योंकि वही
तुम्हें दे
सकता है
मानवीय चेतना
का समग्र बोध।
फ्रायड, का, जैनोव
—वे सभी बीमार
बने रहते हैं।
उन्होंने
अपनी बात खुद
अपने पर कभी न
आजमायी।
अंधकार में
ठोकर खाते हुए,
अंधकार में
टटोलते हुए, वे कुछ
टुकड़ों तक
पहुंच जाते
हैं और फिर वे
सोचते हैं कि
वे टुकड़े
संपूर्ण
पद्धति हैं।
जब कभी अंश का
दावा किया
जाता है
संपूर्ण के रूप
में, तो वह
झूठ बन जाता
है। अंश तो अंश
ही होता है।
पूरब
के
मनोविज्ञान
स्वस्थ
व्यक्तियों
के लिए हैं, तुम्हें
ज्यादा संपूर्ण
होने में मदद
देने के लिए
हैं। और मेरा
प्रयास होगा
तीसरे प्रकार
के मनोविज्ञान
पर कार्य करने
का, बुद्धों
का
मनोविज्ञान, क्योंकि वह
तुम्हें
संपूर्ण
मानवीय चेतना
में एक
परिपूर्ण
प्रवेश
दिलाएगा।
रोग —
अध्ययनों पर
आधारित
मनोविज्ञान
अच्छे होते हैं, वे मदद करते
हैं बीमार
लोगों की।
लेकिन वह बात
ध्येय कभी
नहीं बन सकती।
वह अच्छी होती
है, मगर
मात्र स्वस्थ
हो जाना, 'सामान्य'
हो जाना कोई
ज्यादा बड़ी
बात नहीं।
मात्र
सामान्य होना
कोई बड़ी बात
नहीं क्योंकि
हर कोई
सामान्य है।
बीमार होना
बुरा है
क्योंकि तुम
पीड़ित होते हो।
लेकिन
सामान्य होना
भी कोई ज्यादा
अच्छा नहीं
क्योंकि
सामान्य
व्यक्ति
लाखों क्या से
पीड़ा भोग रहे
हैं। वस्तुत:
सामान्य होने
का केवल इतना
ही अर्थ है कि
समाज के साथ
अनुकूलित हो
जाना। समाज
स्वयं तो शायद
अस्वाभाविक
ही होगा, सारा
समाज शायद
स्वय ही बीमार
होगा। उसके
साथ अनुकूलित
होने का केवल
यही अर्थ होता
है कि तुम
स्वाभाविक
रूप से
अस्वाभाविक
हो, बस
इतना ही।
उससे
कुछ ज्यादा
लाभ नहीं होता।
तुम्हें
सामाजिक
सामान्यता के
पार जाना पड़ता
है। तुम्हें
पार चले जाना
होता है
सामाजिक
पागलपन के।
केवल तभी, पहली बार
तुम स्वस्थ होते
हो।
पूरब
के
मनोविज्ञान :
योग, झेन,
सूफीवाद, सभी स्वस्थ
व्यक्तियों
की मदद करते
हैं—ज्यादा
स्वस्थ और
विशुद्ध होने
में। तीसरे
प्रकार के
मनोविज्ञान
की जरूरत है, बहुत जल्दी
जरूरत है, क्योंकि
बिना उसके
तुम्हारे पास
कोई ध्येय, निश्चित अंत
का कोई बोध
नहीं है। उस
पर कार्य करना
होगा।
गुरजिएफ ने
अपनी ओर से
पूरी कोशिश की,
लेकिन सफल न
हो सका। समय
परिपक्व न था।
मैं फिर उसी
के लिए कोशिश
कर रहा हू।
कठिन है उसमें
सफल होना, लेकिन
संभावना है, उसकी ओर
प्रयत्न करते
रहना है। यदि
थोड़ा —सा और
प्रकाश भी
मानव के उस
संपूर्ण, उस
अंतिम, परम
मनोविज्ञान
पर डाला जाए, तो वह अच्छा
है, बहुत
सहायक है।
आज
इतना ही।
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