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मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--3) प्रवचन--45

योग के आठ अंग(प्रवचनपांचवां)

दिनांंक  5 जूलाई 1975 ओशो आश्रम पूना।
योग—सूत्र'
(साधनपाद)

 योगाड्गानुष्‍ठानात् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्‍तिरा विवेकख्‍याते:।। 28।।

योग के विभिन्‍न अंगों के अभ्‍यास द्वारा
अशुद्धि के क्षय होने से आत्‍मिक प्रकाश का अविर्भाव होता है,
जो कि सत्‍य का बोध बन जाता है।

यमनियमासनप्राणायामप्रत्‍याहारधारणाध्‍यानसमाधयोउष्‍टावाड्गानि।। 29।।

यम, नियम,आसन,प्राणायन, प्रत्‍याहार, धारणा, ध्‍यान और समाधि।

जिस प्रकाश को तुम खोज रहे हो वह तुम्हारे भीतर ही है। इसलिए खोज होगी भीतर की ओर। यह यात्रा किसी बाहरी मंजिल की नहीं है, यह अंतस की यात्रा है। तुम्हें अपने केंद्र पर पहुंचना है। जिसे तुम खोज रहे हो, वह पहले से ही तुम्हारे भीतर है। तुम्हें तो बस प्याज के छिलके उतारने हैं : पर्त दर पर्त अज्ञान है वहा। हीरा छिपा हुआ है कीचड़ में; हीरे को निर्मित नहीं करना है। हीरा तो मौजूद ही है—केवल कीचड़ की पर्तें हटा देनी हैं।
यह एकदम मूलभूत बात है समझ लेने की : खजाना पहले से ही मौजूद है। शायद तुम्हारे पास चाबी नहीं है। चाबी को खोजना है—खजाने को नहीं। यह पहली बात है, एकदम मूलभूत, क्योंकि सारी प्रक्रिया निर्भर करेगी इसी समझ पर। यदि खजाने को निर्मित करना हो, तब तो यह बड़ी लंबी प्रक्रिया होगी; और कोई निश्चित भी नहीं हो सकता कि इसे निर्मित किया भी जा सकता है या नहीं। लेकिन केवल चाबी को खोज लेना है। खजाना तो मौजूद है, एकदम निकट ही है। अवरोधों की कुछ पर्तें हटा देनी हैं।
इसीलिए सत्य की खोज नकारात्मक है। यह कोई विधायक खोज नहीं है। तुम्हें कुछ जोड़ना नहीं है अपने में, बल्कि तुम्हें कुछ हटाना है। तुम्हें कुछ कांटना है स्वयं से। सत्य की खोज एक शल्य—क्रिया है। वह कोई औषधि—चिकित्सा नहीं है; वह शल्य—क्रिया है। कुछ जोड़ना नहीं है तुम में : बल्कि उलटे कुछ हटाना है तुम से, झाडू देना है।
इसीलिए उपनिषदों की विधि है. 'नेति—नेति।नेति—नेति का अर्थ है : तब तक निषेध किए जाओ जब तक कि तुम निषेध करने वाले तक ही न पहुंच जाओ; तब तक निषेध किए जाओ जब तक निषेध करने की कोई संभावना ही न रह जाए, केवल तुम्हीं बचो—तुम तुम्हारे केंद्र में, तुम्हारी चेतना में जिसे कि हटाया ही नहीं जा सकता—क्योंकि कौन हटाएगा उसे? तो निषेध करते ही जाओ 'मैं न यह हूं और न वह हूं।इसी तरह बढ़ते जाओ। यह भी नहीं, यह भी नहीं—नेति—नेति। फिर एक ऐसी जगह आ जाती है जब केवल तुम ही रह जाते हो—इनकार करने वाला; और इनकार करने को कुछ भी नहीं बचता, शल्य—क्रिया पूरी हो जाती है; तुम पहुंच जाते हो खजाने तक।
यदि इसे ठीक से समझ लो, तो यात्रा बोझिल नहीं रह जाती; यात्रा बड़ी सरल हो जाती है। तुम सरलता से बढ़ सकते हो मार्ग पर, हर पल भलीभांति जानते हुए कि खजाना भूल सकता है, लेकिन खो नहीं सकता है। तुम शायद भूल गए हो कि ठीक—ठीक कहां है वह, लेकिन वह है तुम्हारे भीतर ही। तुम पूरी तरह से आश्वस्त हो सकते हो; इस विषय में कोई अनिश्चितता नहीं है। असल में यदि तुम इसे खोना भी चाहो तो तुम इसे खो नहीं सकते, क्योंकि यह तुम्हारी निजता ही है। यह कोई तुमसे बाहर की बात नहीं; यह अंतर्निहित बात है।
लोग आते हैं मेरे पास और कहते हैं, 'हम परमात्मा को खोज रहे हैं।मैं पूछता हूं उनसे, 'तुमने उसे खोया कहां है? क्यों खोज रहे हो तुम? क्या तुमने उसे कहीं खोया है गुम यदि तुमने उसे कहीं खोया है, तो बताओ मुझे कि कहां खोया है तुमने उसे, क्योंकि केवल वहीं तुम खोज पाओगे उसे।वे कहते हैं, 'नहीं, हमने खोया नहीं है उसे।
तो क्यों तुम खोज रहे हो? तब तो अपनी आंखें बंद करो और भीतर देखो। शायद इस खोज के कारण ही तुम चूक रहे हो उसे। शायद तुम खोज में बहुत व्यस्त हो; तुमने अपने भीतर देखा ही नहीं है कि सम्राटों का सम्राट तो पहले से ही वहां बैठा हुआ है, प्रतीक्षा कर रहा है कि तुम घर आ जाओ। और तुम ठहरे बड़े खाँजी, तो तुम जा रहे हो मक्का, मदीना, काशी और कैलाश! तुम एक महान खोजी हो। तुम भाग रहे हो संसार भर में, सिवाय एक जगह के—जहां कि तुम हो। खोजने वाला ही है मजिल—जब वह मौन और शांत हो जाता है।
कुछ नया नहीं पा लिया जाता, बस तुम समझ जाते हो कि बाहर देखने में ही सारी बात चूक रही थी। भीतर देखते हो, वह वहा मौजूद है। वह सदा से ही वहा मौजूद है, एक क्षण को भी कभी ऐसा नहीं होता जब कि वह नहीं था—और न ही ऐसा क्षण आगे कभी होगा—क्योंकि परमात्मा कहीं बाहर नहीं है, सत्य कहीं बाहर नहीं है तुमसे. वह तुम्हीं हो अपनी आत्यंतिक महिमा में, वह तुम्हीं हो अपनी परम विशुद्धता में। यदि तुम समझ लो इसे, तो पतंजलि के ये सूत्र बहुत आसान हो जाएंगे।

 योग के विभिन अंगों के अभ्यास द्वारा अशुद्धि के क्षय होने से आत्मिक प्रकाश का आविर्भाव होता है जो कि सत्य का बोध बन जाता है।

 वे नहीं कह रहे हैं कि कुछ निर्मित करना है; वे कह रहे हैं कि कुछ हटाना है। तुम कुछ ज्यादा ही हो अपनी स्व सत्ता से—यही है समस्या। तुमने अपने आस—पास बहुत कुछ इकट्ठा कर लिया है, हीरे पर बहुत कीचड़ जम गया है। कीचड़ को धो देना है। और अचानक, हीरा प्रकट हो जाता है।
'योग के विभिन्न अंगों के अभ्यास द्वारा अशुद्धि के क्षय होने से......।
यह कोई शुद्धता या पावनता या दिव्यता को निर्मित करने की बात नहीं है, यह केवल अशुद्धि को हटाने की बात है। शुद्ध तो तुम हो ही। पावन तो तुम हो ही। तो पूरी बात ही बदल जाती है। तो बस कुछ चीजें कांट देनी हैं और गिरा देनी हैं; कुछ चीजें अलग कर देनी हैं।
गहरे में यही अर्थ है संन्यास का, त्याग का। यह घर को छोड़ देना नहीं है, परिवार को छोड़ देना नहीं है, बच्चों को छोड़ देना नहीं है—वह तो बहुत कठोर मालूम पड़ता है। और करुणावान व्यक्ति ऐसा कैसे कर सकता है? तो पत्नी को नहीं छोड़ देना है, क्योंकि वह कोई समस्या नहीं है। पत्नी परमात्मा के मार्ग में बाधा नहीं है; न तो बच्चे बाधा हैं और न घर। नहीं, यदि तुम उन्हें छोड़ देते हो तो तुम समझे ही नहीं। कुछ और छोड़ना है, जिसे तुम अपने भीतर इकट्ठा करते रहे हो।
यदि तुम घर छोडना चाहते हो तो असली घर छोड़ना, जो शरीर है, जिसमें तुम रहते हो और निवास करते हो। और छोड़ने से मेरा यह अर्थ नहीं है कि जाओ और आत्महत्या कर लो, क्योंकि वह तो कोई छोड़ना न होगा। इतना ही जान लेना कि तुम शरीर नहीं हो, पर्याप्त है। शरीर के प्रति कठोर होने की कोई जरूरत नहीं है। तुम शरीर नहीं हो, लेकिन शरीर भी तो परमात्मा का ही है। तुम नहीं हो शरीर, लेकिन शरीर का भी अपना जीवन है, वह भी हिस्सा है जीवन का, वह भी अंग है इस समग्रता का। तो कठोर मत होओ उसके प्रति, हिंसक मत होओ उसके प्रति। स्व—पीड़क मत होओ।
धार्मिक व्यक्ति करीब—करीब सदा ही स्व—पीड़क हो जाते हैं। या वे पहले से ही होते हैं—धर्म एक आडू बन जाता है और वे स्वयं को सताना शुरू कर देते हैं। स्व—पीड़क मत बनो। दो तरह के सताने वाले और हिंसक लोग होते हैं : एक तो होते हैं सैडिस्ट, पर—पीड़क, जो दूसरों को सताते हैं—राजनीतिज्ञ, एडोल्फ हिटलर आदि; और फिर होते हैं स्व—पीड़क—तथाकथित धार्मिक व्यक्ति, संत—महात्मा, जो सताते हैं स्वयं को—वे मैसोचिस्ट होते हैं। दोनों एक ही हैं. हिंसा वही है। चाहे तुम किसी दूसरे के शरीर को सताओ या अपने शरीर को, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता—तुम हिंसा तो कर ही रहे हो।
त्याग कोई अपने को सताना नहीं है। यदि वह अपने को सताना हो जाता है तो वह सिर के बल खड़ी राजनीति ही है। शायद तुम इतने कायर हो कि तुम दूसरों को नहीं सता सकते। तथाकथित सौ धार्मिक व्यक्तियों में से निन्यानबे तो स्व—पीड़क ही होते हैं, कायर होते हैं। वे दूसरों को सताना चाहते थे, लेकिन भय था और खतरा था, और वे वैसा न कर सके। तो उन्होंने बड़ा निर्दोष, असुरक्षित, अवश शिकार खोज लिया. उनका अपना ही शरीर। और वे लाखों ढंग से उसे सताते हैं।
नहीं, त्याग का तो अर्थ है जानना; त्याग का तो अर्थ है सजगता, त्याग का अर्थ है साक्षात्कार—इस तथ्य का साक्षात्कार कि तुम शरीर नहीं हो। तो खत्म हो जाती है बात। तुम रहते हो उसमें भली— भांति जानते हुए कि तुम वह नहीं हो। तादात्म्य न हो, तो शरीर सुंदर है। और अस्तित्व के बड़े से बड़े रहस्यों में एक है। यही है वह मंदिर जहां सम्राटों का सम्राट छिपा है।
जब तुम समझ लेते हो कि त्याग क्या है, तब तुम समझ लेते हो कि यह नेति—नेति है। तुम कहते हो, 'मैं शरीर नहीं हूं क्योंकि मैं सजग हूं शरीर के प्रति; वह सजगता ही मुझे पृथक और भिन्न बना देती है।और गहरे उतरो, प्याज के छिलकों को छीलते जाओ : 'मैं विचार नहीं हूं क्योंकि वे तो आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन मैं रहता हूं। मैं भावनाएं नहीं हूं.....।वे आती हैं, और कई बार तो बड़ी शक्तिशाली होती हैं, और तुम उनमें स्वयं को पूरी तरह भूल जाते हो, लेकिन वे भी चली जाती हैं। एक समय था वे नहीं थीं, तुम थे, एक समय था वे थीं, और तुम ढंक गए थे उनमें; अब फिर ऐसा समय है जब वे जा चुकी हैं और तुम बैठे हुए हो वहीं। तुम वे भावनाएं नहीं हो सकते। तुम अलग हो।
छीलते जाओ प्याज को : नहीं, शरीर नहीं हो तुम; विचार नहीं हो तुम; भाव नहीं हो तुम। और यदि तुम जान लेते हो कि तुम इन पर्तों में से कुछ भी नहीं हो, तो तुम्हारा अहंकार बिलकुल तिरोहित हो जाता है, पीछे कोई निशान भी नहीं छूटता—क्योंकि तुम्हारा अहंकार इन तीन पर्तों के साथ तादात्म्य के सिवाय कुछ भी नहीं है। फिर तुम होते हो, लेकिन तुम 'मैं' नहीं कह सकते। यह शब्द अर्थ खो देता है। अहंकार नहीं रहा; तुम घर लौट आए।
यही संन्यास का अर्थ है : उस सब को इनकार कर देना जो कि तुम नहीं हो, लेकिन जिसके साथ तादात्म्य बनाए हुए हो। यही है शल्य—क्रिया। यही है कांटना।
'योग के विभिन्न अंगों के अभ्यास द्वारा अशुद्धि के क्षय होने से..
और यही है अशुद्धि : जो तुम नहीं हो, वही अपने को मान लेना अशुद्धि है। मेरी बात का गलत अर्थ मत लगा लेना, क्योंकि संभावना सदा यही है कि तुम इसे गलत समझ लो कि शरीर अशुद्धि है। मैं यह नहीं कह रहा हूं। तुम्हारे पास एक बर्तन में शुद्ध पानी है और दूसरे में शुद्ध दूध है। दोनों को मिला दो : अब पानी मिला दूध दुगना शुद्ध नहीं हो जाता। दोनों शुद्ध थे : पानी शुद्ध था, एकदम गंगा का पानी, और दूध शुद्ध था। अब तुम दो शुद्धताएं मिलाते हो और एक अशुद्धता पैदा हो जाती है। ऐसा नहीं होता कि शुद्धता दोहरी हो गई। क्या हुआ? तुम पानी और दूध के इस मिश्रण को अशुद्ध क्यों कहते हो?
अशुद्धता का अर्थ है किसी विजातीय, बाहरी तत्व का प्रवेश, उसका प्रवेश जो कि इससे संबंध नहीं रखता, जो इसके लिए स्वाभाविक नहीं, जो आरोपित है, जिसने इसके क्षेत्र में अनुचित प्रवेश किया है। केवल ऐसा ही नहीं है कि दूध अशुद्ध हो गया है, पानी भी अशुद्ध हो गया है। दो शुद्धताएं मिलती हैं और दोनों अशुद्ध हो जाती हैं।
तो जब मैं कहता हूं अशुद्धता छोड़ो, तो मेरा यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा शरीर अशुद्ध है, मेरा यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा मन अशुद्ध है, मेरा यह भी अर्थ नहीं है कि तुम्हारे भाव अशुद्ध हैं। कुछ अशुद्ध नहीं है—लेकिन जब तुम तादात्म्य कर लेते हो, तो उस तादात्म्य में अशुद्धि है। हर चीज शुद्ध है। तुम्हारा शरीर शुद्ध है यदि वह अपने से ही क्रियाशील हो और तुम उसमें कोई हस्तक्षेप न करो। तुम्हारी चेतना शुद्ध है यदि वह अपने से ही गतिशील हो और शरीर कोई दखल न दे। यदि तुम अतादात्म्य की भाव—दशा में जीते हो तो तुम शुद्ध हो। हर चीज शुद्ध है। मैं शरीर की निंदा नहीं कर रहा हूं। मैं कभी निंदा नहीं करता किसी चीज की। इसे सदा स्मरण रखो. मैं कोई निंदा करने वाला व्यक्ति नहीं हूं। हर चीज सुंदर है जैसी वह है। लेकिन तादात्म्य अशुद्धि निर्मित कर देता है।
जब तुम सोचने लगते हो कि तुम शरीर हो, तो तुमने हस्तक्षेप किया शरीर में। और जब तुम हस्तक्षेप करते हो शरीर में, तो शरीर तुरंत प्रतिक्रिया करता है और अनुचित हस्तक्षेप करता है तुम में। इस तरह अशुद्धि प्रवेश करती है।
पतंजलि कहते हैं, 'योग के विभिन्न अंगों के अभ्यास द्वारा अशुद्धि के क्षय होने से...।
एकरूपता के मिटने से, तादात्म्य के मिटने से, उस गड्ड—मड्ड अवस्था के मिटने से जिसमें कि तुम पड़े हुए हो—एक अराजकता, जहां हर चीज कुछ और ही चीज बन गई है। कोई चीज स्पष्ट नहीं है। कोई केंद्र अपने से गतिमान नहीं है। तुम एक भीड़ हो गए हो। हर चीज हस्तक्षेप कर रही है एक—दूसरे के स्वभाव में। यही है अशुद्धता।
'……अशुद्धि के क्षय होने से आत्मिक प्रकाश का आविर्भाव होता है।
और जब अशुद्धि मिट जाती है, तो अचानक प्रकाश का उदय होता है। वह कहीं बाहर से नहीं आता; वह तुम्हारी अंतरतम सत्ता ही है अपनी शुद्धता में, अपनी निर्दोषता में, अपने कुंआरेपन में। एक आलोक का तुम में आविर्भाव होता है। हर चीज स्पष्ट हो जाती है : उलझाव भरी भीड़ खो जाती
है; बोध की स्पष्टता होती है। अब तुम हर चीज को वैसा ही देखते हो जैसी कि वह है : कहीं कोई प्रक्षेपण नहीं होते, कहीं कोई कल्पना नहीं होती, कहीं कोई विकृति नहीं होती सत्य की। तुम चीजों को वैसी ही देखते हो जैसी कि वे हैं। तुम्हारी आंखें निर्मल होती हैं और तुम्हारा अंतस अस्तित्व मौन होता है। अब तुम्हारे भीतर कुछ नहीं होता, अत: तुम प्रक्षेपण नहीं कर सकते। तुम शांत—मौन द्रष्टा हो जाते हो, एक साक्षी—और वही है स्व—सत्ता की शुद्धता।
'... आत्मिक प्रकाश का आविर्भाव होता है, जो कि सत्य का बोध बन जाता है।
फिर आते हैं योग के आठ चरण। बहुत धीरे— धीरे मेरी बात को समझना, क्योंकि यह पतंजलि की प्रमुख देशना है

 यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि।

योग के आठ अंग हैं : यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि।

 योग के आठ चरण। यह है योग का संपूर्ण विज्ञान एक वाक्य में, एक बीज में। बहुत सी बातों की ओर संकेत है। पहले योग के प्रत्येक चरण का ठीक—ठीक अर्थ समझ लें। और खयाल रहे, पतंजलि उन्हें चरण और अंग दोनों ही कहते हैं। वे दोनों ही हैं। वे चरण हैं क्योंकि एक चला आता है दूसरे के पीछे; विकास का एक अनुक्रम है। लेकिन वे चरण ही नहीं हैं, वे योग की देह के अंग भी हैं। उनका एक आंतरिक जुड़ाव है, उनका एक जीवंत अंतर्संबंध है, यही है अंग का अर्थ।
उदाहरण के लिए मेरे हाथ, मेरे पैर, मेरा हृदय—वे अलग— अलग काम नहीं करते। वे एक—दूसरे से अलग नहीं हैं, वे जुड़े हुए हैं। यदि हृदय रुक जाए तो फिर हाथ नहीं चलेगा। हर चीज जुड़ी हुई है। वे सीढ़ी के सोपानों की भांति नहीं हैं, क्योंकि सीढ़ी का तो हर डंडा अलग होता है। यदि एक डंडा टूट जाए तो पूरी सीढ़ी नहीं टूट जाती। इसलिए पतंजलि कहते हैं कि वे चरण हैं, क्योंकि उनका एक सुनिश्चित विकास है—लेकिन वे अंग भी हैं, शरीर के जीवंत अंग हैं। तुम उन में से किसी एक को छोड़ नहीं सकते हो। सोपान छोड़े जा सकते हैं; अंग नहीं छोड़े जा सकते। तुम दो चरण कूद सकते हो एक ही छलांग में, तुम एक चरण छोड़ सकते हो; लेकिन अंग नहीं छोड़े जा सकते हैं, वे कोई यांत्रिक हिस्से नहीं हैं। तुम उन्हें हटा नहीं सकते। वे तुम्हें निर्मित करते हैं। वे समग्र के साथ संबंधित हैं, वे पृथक नहीं हैं। समग्रता उनके द्वारा एक इकाई की भांति काम करती है।
तो योग के ये आठ अंग, चरण और अंग दोनों हैं। चरण हैं इस अर्थ में कि प्रत्येक अनुगामी है दूसरे का, और वे एक गहन संबद्धता में जुड़े हुए हैं। दूसरा पहले के पूर्व नहीं आ सकता—पहले को पहला होना है और दूसरे को दूसरा होना है। और आठवां चरण आठवां ही होगा, वह चौथा नहीं हो सकता है, वह पहला नहीं हो सकता है। तो वे चरण भी हैं और जीवंत इकाई भी हैं।
'यम' का अर्थ अंग्रेजी में होता है सेल्फ—रेस्ट्रेट। अंग्रेजी में शब्द थोड़ा अलग हो जाता है। असल में थोड़ा अलग नहीं, 'यम' का सारा अर्थ ही खो जाता है। क्योंकि सेल्फ—रेस्ट्रेंट निषेध जैसा, दमन जैसा मालूम पड़ता है। और ये दो शब्द दमन और निषेध, फ्रायड के बाद बड़े भद्दे शब्द हो गए हैं, कुरूप हो गए हैं। यम दमन नहीं है। उन दिनों जब पतंजलि ने 'यम' शब्द का प्रयोग किया, तो उसका बिलकुल अलग ही अर्थ था। शब्द बदलते रहते हैं। अब भारत में भी संयम शब्द, जो कि 'यम' से आता है, उसका अर्थ नियंत्रण, दमन हो गया है। अब मूल अर्थ खो गया है।
तुमने शायद एक घटना सुनी होगी। इंगलैंड के सम्राट जार्ज प्रथम के विषय में ऐसा कहा जाता है कि जब सेंट जॉन कैथेड्रल बन कर पूरा हुआ तो वह उसे देखने गया। वह एक उत्कृष्ट कलाकृति थी। उसका निर्माता, उसका रचनाकार, कलाकार वहा मौजूद था; उसका नाम था क्रिस्टोफर रेन। सम्राट उससे मिला और उसे बधाई दी। उसने तीन शब्द कहे; उसने कहा, 'यह अम्यूजिंग है। यह ऑफुल है। यह आर्टिफीशियल है।क्रिस्टोफर रेन बहुत खुश हुआ प्रशंसा पाकर...।
लेकिन तुम्हें तो आश्चर्य ही होगा। उन शब्दों का अब वही अर्थ नहीं रह गया है। उन दिनों, तीन सौ साल पहले अम्प्रइजंग का अर्थ होता था अमेजिंग—आश्चर्यजनक, ऑफुल का अर्थ होता था ऑव—इन्सपायरिग—विस्मयकारी, और आर्टिफीशियल का अर्थ होता था आर्टिस्टिक—कलात्मक। प्रत्येक शब्द की एक जीवन—कथा होती है, और वह बहुत बार बदलती है। जैसे—जैसे जीवन बदलता है, हर चीज बदलती है : शब्द नया रंग ले लेते हैं। और असल में जिनमें बदलने की क्षमता होती है, केवल वे ही जीवित रहते हैं, अन्यथा वे मर जाते हैं। रूढ़िवादी शब्द, जो बदलने के लिए राजी नहीं होते, वे मर जाते हैं। जीवंत शब्द जिनमें कि अपने आस—पास नए अर्थों को संजो लेने की क्षमता होती है, केवल वे ही जीते हैं; और वे सदियों तक जीते हैं कई—कई अर्थों में।
'यम' एक सुंदर शब्द था पतंजलि के समय में, सुंदरतम शब्दों में से एक था। फ्रायड के बाद यह शब्द कुरूप हो गया—न केवल अर्थ बदल गया है, बल्कि सारा रंग—रूप, शब्द का सारा स्वाद भी बदल गया है। पतंजलि के लिए आत्म—संयम का अर्थ स्वयं का दमन नहीं है। इसका अर्थ है स्वयं के जीवन को दिशा देना—ऊर्जाओं का दमन नहीं, बल्कि निर्देशन; उन्हें सम्यक दिशा देना। क्योंकि तुम ऐसा जीवन जी सकते हो, जो विपरीत दिशाओं में गति करता हो, बहुत सी दिशाओं में जाता हो—तब तुम कभी भी कहीं नहीं पहुंचोगे।
यह उस कार की भांति है, जिसका ड्राइवर कुछ मील उत्तर की ओर जाता है, फिर बदल लेता है मन; फिर कुछ मील पश्चिम की ओर जाता है, फिर बदल लेता है मन, और इसी भांति चलता रहता है। वह वहीं मरेगा जहां वह पैदा हुआ था। वह कभी कहीं नहीं पहुंचेगा। वह कभी तृप्ति की अनुभूति नहीं पाएगा। तुम बहुत से रास्तों पर चल सकते हो, लेकिन जब तक तुम्हारे पास दिशा नहीं है, तुम व्यर्थ ही चल रहे हो। तुम केवल और—और निराशा अनुभव करोगे, और कुछ भी नहीं।
आत्म—संयम का अर्थ है, पहली बात, तुम्हारी जीवन—ऊर्जा को सम्यक दिशा देना। जीवन—ऊर्जा सीमित है। यदि तुम उसका उपयोग नासमझी और दिशा—हीन ढंग से करते हो, तो तुम कहीं भी नहीं पहुंचोगे। देर—अबेर तुम्हारी ऊर्जा चुक जाएगी—और वह खालीपन बुद्ध का शून्य न होगा; वह बिलकुल नकारात्मक खालीपन होगा— भीतर कुछ भी नहीं, एक खोखला रिक्त पात्र। तुम मरने के पहले ही मर जाओगे।
लेकिन ये सीमित ऊर्जाएं जो तुम्हें मिली हैं प्रकृति से, अस्तित्व से, परमात्मा से—या जो भी कहना चाहो उसे—ये सीमित ऊर्जाएं इस ढंग से प्रयोग की जा सकती हैं कि वे असीम के लिए द्वार बन सकती हैं। यदि तुम ठीक ढंग से बढ़ते हो, यदि तुम होशपूर्वक बढ़ते हो, यदि तुम बोधपूर्वक बढ़ते हो, अपनी सारी ऊर्जाओं को इकट्ठा कर लेते हो और एक ही दिशा में बढ़ते हो, तो तुम भीड़ नहीं रहते बल्कि एक व्यक्ति हो जाते हो—यही है यम का अर्थ।
साधारणतया तुम एक भीड़ हो; बहुत सी आवाजें हैं तुम्हारे भीतर। एक कहती है, 'इस दिशा में जाओ।दूसरी कहती है, 'यह तो बेकार है। उधर जाओ।एक कहती है, 'मंदिर जाओ।दूसरी कहती है, 'थिएटर जाना बेहतर होगा।और तुम्हें कभी कहीं चैन नहीं मिलता, क्योंकि तुम कहीं भी जाओ, तुम पछताओगे। यदि तुम थिएटर जाते हो तो जो आवाज मंदिर जाने के लिए कह रही थी वह तुम्हारे लिए बेचैनी पैदा करेगी : 'तुम यहां क्या कर रहे हो? अपना समय बरबाद कर रहे हो? तुम्हें तो मंदिर में होना चाहिए था! और प्रार्थना सुंदर बात है। और कौन जाने, वहां क्या हो रहा हो! और कौन जाने, यही अवसर हो तुम्हारे बुद्धत्व के लिए और तुम फिर चूक गए।
यदि तुम मंदिर जाओ, तो भी यही होगा—वह आवाज जो थिएटर जाने के लिए कह रही थी, वह कहने लगेगी. 'यहां क्या कर रहे हो तुम? एक मूढ़ की भांति तुम यहां बैठे हो। और तुमने पहले भी प्रार्थनाएं की हैं और कुछ भी नहीं हुआ। क्यों तुम अपना समय व्यर्थ गंवा रहे हो?' और अपने चारों ओर तुम देखोगे—मूढ़ लोगों को बैठे हुए और व्यर्थ की चीजें करते हुए—कुछ भी नहीं हो रहा। कौन जाने थिएटर में कैसा मजा मिलता, कितना आनंद होता। तुम चूक रहे हो.।
यदि तुम आत्मवान नहीं हो, अखंड नहीं हो, तो जहां कहीं भी तुम होगे तुम सदा चूकते ही रहोगे। तुम कभी कहीं चैन से नहीं रहने पाओगे। तुम सदा ही कहीं न कहीं जा रहे होओगे और कभी कहीं पहुंचोगे नहीं। तुम पागल हो जाओगे। वह जीवन जो 'यम' के विपरीत है, विक्षिप्त हो जाएगा।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पश्चिम में पूर्व की अपेक्षा ज्यादा लोग पागल होते हैं। पूर्व में—जाने, अनजाने—अभी भी थोड़े आत्म—संयम का जीवन जीया जाता है। पश्चिम में आत्म—संयम की बात गुलामी जैसी मालूम पड़ती है; आत्म—संयम के विरुद्ध होना ऐसे मालूम पड़ता है जैसे कि तुम मुक्त हो, स्वतंत्र हो। लेकिन जब तक तुम आत्मवान न हो जाओ, तुम मुक्त नहीं हो सकते हो। तुम्हारी स्वतंत्रता एक प्रवंचना होगी; वह आत्महत्या के सिवाय और कुछ न होगी। तुम मार डालोगे स्वयं को, नष्ट कर दोगे अपनी संभावनाओं को, अपनी ऊर्जाओं को; और एक दिन तुम अनुभव करोगे कि जीवन भर तुमने इतनी कोशिश की, लेकिन पाया कुछ भी नहीं, उससे कोई विकास नहीं हुआ।
आत्म—संयम का अर्थ है, पहला अर्थ : जीवन को एक दिशा देना। आत्म—संयम का अर्थ है, केंद्र में थोड़ा और प्रतिष्ठित होना। कैसे तुम और केंद्रित हो सकते हो? जब तुम अपने जीवन को दिशा देते हो, तो तुरंत तुम्हारे भीतर एक केंद्र बनना शुरू हो जाता है। दिशा से निर्मित होता है केंद्र; फिर केंद्र देता है दिशा। और वे परस्पर एक—दूसरे को बढ़ाते हैं। जब तक तुम आत्म—संयमी नहीं होते, दूसरी बात की संभावना नहीं है। इसीलिए पतंजलि उसे पहला चरण कहते हैं।
दूसरा चरण है 'नियम'। एक सुनिश्चित नियमन : वह जीवन जिसमें कि अनुशासन है, वह जीवन जिसमें कि नियमितता है, वह जीवन जो कि बहुत ही अनुशासित ढंग से जीया जाता है, अव्यवस्थित नहीं। एक नियमितता है। लेकिन वह भी तुम्हें गुलामी जैस लगेगा। पतंजलि के समय के सारे सुंदर शब्द अब कुरूप हो गए हैं।
लेकिन मैं कहता हूं तुमसे कि जब तक तुम में और तुम्हारे जीवन में नियमितता नहीं आती, अनुशासन नहीं आता, तब तक तुम गुलाम ही रहोगे अपनी वृत्तियों के—और तुम सोच सकते हो कि यही स्वतंत्रता है, लेकिन तुम गुलाम रहोगे अपने आवारा विचारों के। यह स्वतंत्रता नहीं है। भले ही तुम्हारा कोई प्रकट मालिक न हो, लेकिन तुम्हारे बहुत से अप्रकट मालिक होंगे तुम्हारे भीतर; और वे तुम पर शासन करते रहेंगे। केवल वही आदमी जिसके पास नियमितता होती है, किसी दिन मालिक हो सकता है।
वह भी बहुत दूर है अभी, क्योंकि असली मालिक का केवल तभी आविर्भाव होता है जब आठवां चरण पा लिया जाता है—जो कि लक्ष्य है। तब व्यक्ति हो जाता है जिन, जिसने जीता। तब व्यक्ति हो जाता है बुद्ध, जो जाग गया। तब व्यक्ति हो जाता है क्राइस्ट, मुक्तिदाता—क्योंकि यदि तुम मुक्ति पा गए हो, तो अचानक तुम दूसरों के लिए मुक्ति देने वाले हो जाते हो। ऐसा नहीं है कि तुम उन्हें मुक्ति देने की कोशिश करते हो : बस तुम्हारी उपस्थिति ही एक मुक्तिदायी प्रभाव बन जाती है। तो दूसरा है 'नियम'—एक सुनिश्चित नियमन।
फिर तीसरा है 'आसन'। और प्रत्येक चरण पहले आने वाले चरण से आता है : जब तुम्हारे जीवन में नियमितता होती है, केवल तभी तुम्हें आसन उपलब्ध होता है।
कभी आसन के लिए प्रयोग करके देखना; बस प्रयास करना मौन बैठ जाने का। तुम नहीं बैठ सकते—शरीर तुम्हारे खिलाफ विद्रोह करने की कोशिश करता है। अचानक तुम यहां—वहां दर्द अनुभव करने लगते हो! टांगें मुर्दा होने लगती हैं। अचानक तुम शरीर के बहुत से हिस्सों में एक बेचैनी अनुभव करते हो। तुमने पहले कभी ऐसा महसूस नहीं किया था। ऐसा क्यों होता है कि मौन बैठने से ही ये सब समस्याएं उठ खड़ी होती हैं? तुम अनुभव करते हो कि चींटियां रेंग रही हैं। आंख खोल कर देखो, और तुम पाओगे कि कहीं कोई चींटियां नहीं हैं, शरीर तुम्हें धोखा दे रहा है। शरीर राजी नहीं है अनुशासित होने के लिए। शरीर बिगड़ चुका है। शरीर तुम्हारी नहीं सुनना चाहता। वह स्वयं अपना मालिक बन गया है। और तुम सदा उसका अनुसरण करते रहे हो। अब कुछ देर के लिए शांत बैठना करीब—करीब असंभव हो गया है।
यदि तुम केवल शांत बैठने को कह दो तो लोग बहुत परेशान हो जाते हैं। यदि मैं किसी से शांत बैठने के लिए कहता हूं तो वह कहता है, 'बस शांत बैठना है, कुछ करना नहीं है?' जैसे कि 'करना' एक विक्षिप्तता हो गई है। कोई कहता है, 'कम से कम कोई मंत्र ही दे दें जिसे मैं भीतर जपता रहूं।तुम्हें कोई व्यस्तता चाहिए। केवल मौन होकर बैठना कठिन मालूम पड़ता है। और वही है सुंदरतम संभावना जो कि किसी मनुष्य को घट सकती है. बस बिना कुछ किए मौन बैठना।
आसन का अर्थ है एक विश्रांत मुद्रा। तुम इतने हल्के हो जाते हो, तुम इतने आराम में होते हो कि शरीर को हिलाने—डुलाने की कोई जरूरत नहीं रहती। उस विश्राम के क्षण में, अचानक, तुम शरीर का अतिक्रमण कर जाते हो।
शरीर तुम्हें नीचे लाने की कोशिश कर रहा होता है जब शरीर कहता है कि 'जरा देखो, बहुत सारी चींटियां रेंग रही हैं।या तुम अचानक खुजलाने की एक जबरदस्त उत्तेजना अनुभव करते हो, बेचैन होने लगते हो। शरीर कह रहा होता है, 'इतने आगे मत जाओ। लौट आओ पीछे। कहां जा रहे
हो तुम?' क्योंकि चेतना ऊर्ध्वगामी हो रही होती है, शरीर के तल से बहुत दूर जा रही होती है; शरीर विद्रोह करने लगता है। ऐसा पहले तुमने कभी किया नहीं। शरीर तुम्हारे लिए समस्याएं खड़ी करता है, क्योंकि एक बार समस्या खडी हो जाए, तो तुम्हें लौटना ही पड़ेगा। शरीर तुम्हारा ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहा है : 'मेरी तरफ ध्यान दो।वह पीड़ा निर्मित कर देगा। वह खुजलाहट निर्मित कर देगा; तुम्हें लगेगा कि खुजलाना जरूरी है। अचानक शरीर कोई साधारण चीज नहीं रह जाता; शरीर विद्रोह कर देता है। यह शरीर की राजनीति है। तुम्हें वापस बुलाया जा रहा है : 'इतने दूर मत जाओ, उलझे रहो। यहीं रहो। बंधे रहो शरीर से और धरती से।तुम आकाश की ओर बढ़ रहे हो, और शरीर भयभीत होने लगता है।
आसन केवल उसी व्यक्ति को घटित होता है, जो संयम का जीवन जीता है, नियमितता का जीवन जीता है; केवल तभी आसन संभव होता है। तब तुम शांत बैठ सकते हो, क्योंकि शरीर जानता है कि तुम अनुशासन में जीने वाले व्यक्ति हो। यदि तुम बैठना चाहते हो, तो तुम बैठोगे ही—तुम्हारे विरुद्ध कुछ भी नहीं किया जा सकता। शरीर कुछ—कुछ कहे जा सकता है.....। धीरे—धीरे वह शांत हो जाता है। कोई है नहीं सुनने के लिए।
तो यह कोई दमन नहीं है; तुम शरीर का दमन नहीं कर रहे हो; उलटे शरीर कोशिश कर रहा है तुम्हारा दमन करने की! यह कोई दमन नहीं है। तुम शरीर को कुछ करने के लिए नहीं कह रहे हो; तुम बस विश्राम कर रहे हो। लेकिन शरीर का किसी विश्राम से परिचय नहीं है, क्योंकि तुमने कभी उसे विश्राम दिया नहीं है। तुम सदा बेचैन रहे हो।आसन' शब्द का ही अर्थ है विश्राम, एक गहन विश्राम; और यदि तुम ऐसा कर सको, तो और बहुत सी बातें तुम्हारे लिए संभव हो जाएंगी।
यदि शरीर शांत हो, तो तुम अपनी श्वास को नियमित कर सकते हो। अब तुम और ज्यादा गहरे उतर रहे हो, क्योंकि श्वास शरीर और आत्मा के बीच, शरीर और मन के बीच एक सेतु है। यदि तुम श्वास को नियमित कर सको—यही है प्राणायाम—तो अपने मन पर तुम्हारी मालकियत हो जाती है।
क्या तुमने कभी ध्यान दिया है कि जब भी मन बदलता है, तो श्वास की लय तुरंत बदल जाती है? यदि तुम इसका उलटा करो—यदि तुम श्वास की लय बदल दो—तो मन को तुरंत ही बदलना पड़ता है। जब तुम क्रोधित होते हो तो तुम धीमी श्वास नहीं ले सकते; वरना तो क्रोध खो जाएगा। प्रयोग करके देखना। जब तुम क्रोधित अनुभव करते हो, तो तुम्हारी श्वास अराजक हो जाती है, अनियमित हो जाती है, वह सारी लय खो देती है, उद्विग्न, बेचैन हो जाती है। फिर वह एक समस्वरता नहीं रहती। अराजक हो जाती है; लय खो जाती है।
एक काम करना. जब भी तुम्हें क्रोध आ रहा हो तो बस शांत हो जाना और श्वास को लय में चलने देना। अचानक तुम पाओगे कि क्रोध तिरोहित हो गया है। तुम्हारे शरीर की एक विशेष प्रकार की श्वास के बिना क्रोध नहीं हो सकता।
जब तुम संभोग कर रहे होते हो तो श्वास बदल जाती है—बहुत अराजक हो जाती है। जब तुम कामवासना से भरे होते हो, तो श्वास बदल जाती है, बहुत अराजक हो जाती है। कामवासना में थोड़ी हिंसा है। कई बार प्रेमी एक—दूसरे को कांट लेते हैं और एक—दूसरे को चोट पहुंचा देते हैं! और यदि तुम दो व्यक्तियों को संभोग करते हुए देखो, तो तुम्हें लगेगा कि किसी प्रकार का युद्ध चल रहा है। उसमें थोड़ी—बहुत हिंसा होती है। और दोनों अराजक श्वास ले रहे होते हैं; उनकी श्वास लयपूर्ण नहीं होती, समस्वरता में नहीं होती।
तंत्र में, जहां कामवासना के विषय में और कामवासना के रूपांतरण के विषय में बहुत काम हुआ है, वहां उन्होंने श्वास की लय पर बहुत खोज की है। यदि दो प्रेमी संभोग के दौरान श्वास को लयबद्ध रख सकें, समस्वर रख सकें, दोनों की लय वही बनी रहे, तो कोई स्खलन नहीं होगा। वे घंटों संभोग कर सकते हैं। क्योंकि स्खलन केवल तभी होता है, जब श्वास लयबद्ध नहीं होती; केवल तभी शरीर ऊर्जा बाहर फेंक सकता है। यदि श्वास लयपूर्ण है, तो शरीर ऊर्जा को आत्मसात कर लेता है; वह उसे बाहर नहीं फेंकता।
तंत्र ने बहुत सी विधियां विकसित की हैं श्वास की लय बदलने की। तब तुम घंटों संभोग कर सकते हो और तुम ऊर्जा खोते नहीं हो। बल्कि उलटे तुम्हें ऊर्जा प्राप्त होती है, क्योंकि अगर कोई स्त्री किसी पुरुष से प्रेम करती है और कोई पुरुष किसी स्त्री से प्रेम करता है, तो वे एक—दूसरे की मदद करते हैं ऊर्जावान होने में—क्योंकि वे विपरीत ऊर्जाएं हैं। जब विपरीत ऊर्जाएं मिलती हैं और एक विद्युत— धारा निर्मित करती हैं, तो वे एक दूसरे को उद्दीप्त करती हैं; वरना तो ऊर्जा खो जाती है और संभोग के बाद तुम हारा— थका, दीन—हीन अनुभव करते हो। इतनी आशा—और हाथ कुछ नहीं लगता, हाथ खाली के खाली रह जाते हैं।
आसन के बाद बारी आती है प्राणायाम की। थोड़े दिन गौर करना और इस पर ध्यान देना : जब तुम क्रोधित होते हो तो तुम्हारी श्वास की लय क्या होती है—उच्छवास ज्यादा देर होता है या अंतःश्वसन ज्यादा देर होता है या वे बराबर होते हैं? या श्वास का भीतर लेना थोड़ी देर होता है और श्वास का बाहर निकाला जाना ज्यादा देर होता है, या उच्छवास बहुत कम होता है और अंत—श्वसन ज्यादा होता है? जरा ध्यान देना श्वास लेने और श्वास छोड़ने के अनुपात पर। जब तुम कामवासना से भरे होते हो, तो ध्यान देना, खयाल में लेना।
जब कभी मौन बैठे होते हो और रात देख रहे होते हो आकाश को, चारों तरफ मौन है, तो ध्यान देना कि तुम्हारी श्वास कैसी चल रही है। जब तुम करुणा अनुभव कर रहे होते हो, तो ध्यान देना, खयाल में लेना। जब तुम लड़ने—झगड़ने की भाव—दशा में हो, तब ध्यान देना, नोट करना श्वास की गति को। जरा एक चार्ट बनाओ अपनी श्वास का, और तुम्हें बहुत सी बातें खयाल में आएंगी। और प्राणायाम कोई ऐसी बात नहीं है जो तुम्हें सिखाई जा सके। तुम्हें उसे खोजना पड़ता है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य की श्वास की लय अलग—अलग होती है। हर व्यक्ति की श्वास और उसकी लय उतनी ही भिन्न होती है जितनी कि अंगूठे की छाप। श्वास एक वैयक्तिक घटना है, इसलिए मैं उसे कभी सिखाता नहीं। तुम्हें स्वयं खोजनी होती है अपनी लय। तुम्हारी लय किसी दूसरे की लय नहीं हो सकती। या हो सकता है किसी दूसरे के लिए वह हानिकारक भी हो। तुम्हारी लय तुम्हें ही खोजनी है।
और कठिन नहीं है यह बात। किसी विशेषज्ञ से पूछने की भी जरूरत नहीं है। बस, एक चार्ट बना लेना महीने भर की अपनी सारी भाव—दशाओं और अवस्थाओं का। और तुम्हें पता चलता है कि
कौन न सी लय में तुम सर्वाधिक आराम अनुभव करते हो, शांत अनुभव करते हो, एक गहन निर्मुक्ति में बहते हो; कौन सी लय है जिसमें तुम मौन अनुभव करते हो—शांत, सुव्यवस्थित, थिर अनुभव करते हो; कौन सी लय है जब अनायास ही तुम आनंदित अनुभव करते हो, किसी अज्ञात आनंद से भर जाते हो, कुछ उमड़ कर बहने लगता है—तुम इतने ज्यादा भरे होते हो उस क्षण कि तुम सारे संसार को बांट सकते हो और वह समाप्त न होगा।
उस क्षण का अनुभव लो और उस पर ध्यान दो जब तुम्हें लगता है कि तुम संपूर्ण अस्तित्व के साथ एक हो, जब तुम्हें लगता है कि अब कोई पृथकता न रही, एक अखंडता है। जब तुम वृक्षों और पक्षियों के साथ, नदियों और चट्टानों के साथ, सागर और रेत के साथ एक अनुभव करते हो—तब ध्यान देना। तुम पाओगे कि तुम्हारे श्वास की बहुत सी लय हैं, उनका सतरंगा विस्तार है : अति हिंसक, असुंदर, दारुण, नारकीय रूप से लेकर अति मौन, स्वर्ग जैसे रूप तक।
और फिर जब तुम अपनी लय खोज लो, तो अभ्यास करना उसका—उसे अपने जीवन का एक हिस्सा बना लेना। धीरे— धीरे यह सहज हो जाती है, फिर तुम उसी लय में श्वास लेते हो। और उस लय के साथ तुम्हारा जीवन एक योगी का जीवन हो जाएगा : तुम क्रोधित न होओगे, तुम इतनी कामवासना अनुभव न करोगे, तुम स्वयं को इतना घृणा से भरा हुआ न पाओगे। अचानक ही तुम अनुभव करोगे कि एक रूपांतरण घट रहा है तुम में।
प्राणायाम मानव चेतना की महानतम खोजों में एक है। प्राणायाम की तुलना में चांद तक पहुंच जाना भी कुछ नहीं है। बात बड़ी रोमांचक लगती है, लेकिन है उसमें कुछ भी नहीं। क्योंकि तुम चांद पर पहुंच भी जाओ, तो तुम करोगे क्या वहां? यदि तुम पहुंच भी जाओ चांद पर तो भी तुम रहोगे तो वही के वही। तुम जारी रखोगे वही मूढ़ताएं जो तुम यहां कर रहे हो।
प्राणायाम एक अंतर्यात्रा है। और प्राणायाम चौथा चरण है—और कुल आठ चरण हैं। आधी यात्रा पूरी हो जाती है प्राणायाम पर। वह आदमी जिसने प्राणायाम सीख लिया है—किसी शिक्षक से नहीं, क्योंकि वह तो झूठी बात है, मैं उसके पक्ष में नहीं—लेकिन जिस व्यक्ति ने अपनी खोज और अपने होश द्वारा प्राणायाम सीखा है, जिसने अपनी अस्तित्वगत लय को सीख लिया है, उसने आधी मंजिल तो पा ही ली है। प्राणायाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण खोजों में से एक है।
और प्राणायाम के बाद है 'प्रत्याहार'। प्रत्याहार वही है जिसकी मैं तुम से बात कर रहा था कल। ईसाइयों का शब्द 'रिपेंट' वस्तुत: हिलू में 'रिटर्न' है—पश्चात्ताप नहीं, बल्कि प्रतिक्रमण, पीछे लौट आना। मुसलमानों की 'तोबा' भी रिपेंट नहीं है; वह पछतावा नहीं है। उस पर भी थोड़ा रंग चढ़ गया है पश्चात्ताप वाले अर्थ का; तोबा भी पीछे लौट आना है। और प्रत्याहार भी पीछे लौट आना है, वापस आना है— भीतर आना, भीतर की ओर मुड़ना, घर लौटना।
प्राणायाम के पश्चात संभावना होती है प्रत्याहार की; क्योंकि प्राणायाम तुम्हें लय दे देगा। अब तुम जानते हो सारे विस्तार को : तुम जानते हो कि किस लय में तुम निकटतम होते हो घर के और किस लय में तुम सर्वाधिक दूर होते हो स्वयं से। हिंसक, कामोन्मत्त, क्रोधित, ईर्ष्याग्रस्त, तुम पाओगे। कि तुम बहुत दूर हो गए हो अपने से; करुणा में, प्रेम में, प्रार्थना में, अनुग्रह में, तुम स्वयं को घर के 'गदा निकट पाओगे।
प्राणायाम के पश्चात प्रत्याहार, वापस लौटना संभव होता है। अब तुम्हें मालूम है मार्ग —तो तुम पहले से ही जानते हो कि कैसे कदम वापस लौटाने हैं।
फिर है धारणा। प्रत्याहार के बाद, जब तुमने घर लौटना आरंभ कर दिया होता है, जब तुम अपने अंतरतम केंद्र के निकट आने लगते हो, तो तुम अपने अस्तित्व के द्वार पर ही होते हो। प्रत्याहार तुम्हें द्वार के निकट ले आता है। प्राणायाम बाहर से भीतर के लिए एक सेतु है। प्रत्याहार द्वार है, और तब संभावना होती है धारणा की, एकाग्रता की। अब तुम अपने मन को एक ही लक्ष्य पर एकाग्र कर सकते हो।
पहले तुमने अपने शरीर को दिशा दी, पहले तुमने अपनी जीवन—ऊर्जा को दिशा दी—अब तुम अपनी चेतना को दिशा दो। अब चेतना को यूं ही कहीं भी और हर कहीं नहीं भटकने दिया जा सकता। अब उसे एक लक्ष्य पर लगाना होता है। यह लक्ष्य है एकाग्रता, ' धारणा' : तुम अपनी चेतना को एक ही बिंदु पर लगा देते हो।
जब चेतना एक ही बिंदु पर एकाग्र हो जाती है तो विचार खो जाते हैं, क्योंकि विचार केवल तभी संभव हैं जब तुम्हारी चेतना निरंतर उछल—कूद कर रही होती है किसी बंदर की भांति; तब बहुत विचार चलते रहते हैं और तुम्हारा पूरा मन भर जाता है भीड़ से—एक बाजार होता है। अब संभावना है—प्रत्याहार, प्राणायाम के बाद संभावना है कि तुम एक ही बिंदु पर एकाग्र हो सकते हो।
और जब तुम एक बिंदु पर एकाग्र हो सकते हो, तब संभावना है ध्यान की। धारणा में तुम अपने मन को एक बिंदु पर एकाग्र करते हो। ध्यान में तुम उस बिंदु को भी छोड़ देते हो। अब तुम पूरी तरह केंद्रित हो जाते हो, कहीं गति नहीं करते। क्योंकि गति करने का अर्थ है बाहर की ओर गति करना। ध्यान के दौरान आया एक विचार भी तुमसे बाहर ही है—कोई विषय मौजूद है; तुम अकेले नहीं हो; दो हैं। धारणा तक दो होते हैं—विषय और तुम। धारणा के बाद उस विषय को भी गिरा देना पड़ता है।
सारे मंदिर तुम्हें केवल धारणा तक ही ले जाते हैं। वे तुम्हें इसके पार नहीं ले जा सकते, क्योंकि सारे मंदिरों में ध्यान के लिए विषय होता है उनमें ध्यान के लिए ईश्वर की मूर्ति होती है। सारे मंदिर तुम्हें केवल धारणा तक ले जाते हैं। इसीलिए जितना कोई धर्म ऊंचा उठता है, मंदिर और मूर्ति तिरोहित हो जाते हैं। उन्हें हो ही जाना चाहिए तिरोहित। मी दर को नितांत शून्य होना चाहिए, ताकि केवल तुम्हीं हो वहां—और कोई नहीं, और कोई भी नहीं, कोई विषय नहीं—विशुद्ध आत्म—बोध। ध्यान है विशुद्ध आत्म—बोध, आत्मरमण। किसी चीज का ध्यान नहीं करना है, क्योंकि यदि तुम किसी विषय पर ध्यान कर रहे हो तो वह धारणा है। धारणा का अर्थ है कि किसी विषय पर एकाग्रता करनी है। ध्यान है मेडिटेशन, वहां कोई विषय नहीं रहता, हर चीज छूट जाती है, लेकिन तुम जागे हुए हो। विषय छूट चुके हैं, लेकिन तुम सो नहीं गए हो। तब एक गहन बोध होगा, कोई विषय नहीं होगा, तुम स्वयं में केंद्रित होओगे।
लेकिन अभी भी 'मैं' की अनुभूति बची रहेगी। वह छाया की भांति मौजूद रहेगी। विषय गिर चुका, लेकिन विषयी अभी भी मौजूद है। तुम अब भी अनुभव करते हो कि तुम हो। यह अहंकार नहीं है। संस्कृत में हमारे पास दो शब्द हैं : 'अहंकार' और 'अस्मिता'। अहंकार का अर्थ है 'मैं हूं।और
अस्मिता का अर्थ है 'हूं, मात्र हूं—पन—कोई अहंकार न रहा, मात्र एक छाया बची है। तुम अब भी किसी न किसी तरह अनुभव करते हो कि तुम हो। यह कोई विचार नहीं होता, क्योंकि अगर यह विचार हो, कि मैं हूं तब तो यह अहंकार है।
ध्यान में अहंकार पूरी तरह खो जाता है, लेकिन एक 'हूं —पन', एक छाया जैसी घटना, मात्र एक अनुभूति, तुम्हारे चारों ओर छाई रहती है—सुबह की धुंध की तरह तुम्हारे आस—पास छाई रहती है। ध्यान अर्थात सुबह; सूर्य अभी उगा नहीं, धुंधलका है; अस्मिता, हूं —पन अब भी मौजूद है।
तुम अभी भी पीछे लौट सकते हो। एक हलकी सी अशांति—कोई बात कर रहा है और तुम सुनते हो—ध्यान खो गया; तुम वापस आ गए धारणा तक। यदि तुम केवल सुनते ही नहीं बल्कि तुमने उसके विषय में सोचना भी शुरू कर दिया है, तो धारणा भी खो चुकी है, तुम लौट आए हो प्रत्याहार तक। और यदि तुम न केवल सोचते हो, बल्कि तुमने तादात्म्य भी बना लिया है सोच—विचार के साथ, तो प्रत्याहार भी खो चुका है, तुम उतर आए हो प्राणायाम तक। और यदि विचार इतना हावी हो गया है कि तुम्हारी श्वास की लय गड़बड़ा जाती है, तो प्राणायाम भी खो गया; तुम आ गए हो आसन पर। और यदि विचार और श्वास इतनी ज्यादा अस्तव्यस्त हैं कि शरीर कैपने लगता है, बेचैन हो जाता है, तो आसन भी खो गया। वे सब आपस में जुड़े हुए हैं।
तो कोई ध्यान तक पहुंच कर भी गिर सकता है। ध्यान सर्वाधिक खतरनाक बिंदु है संसार का, क्योंकि वह उच्चतम तल है जहां से कि तुम गिर सकते हो, और बहुत बुरी तरह से गिर सकते हो। भारत में हमारे पास एक शब्द है, योग— भ्रष्ट. जो व्यक्ति योग से गिर गया। यह शब्द बहुत ही अदभुत है। यह एक साथ समादर भी करता है और निंदा भी करता है। जब हम कहते हैं कि कोई योगी है तो वह बहुत बड़ा आदर है। जब हम कहते हैं कि कर्म योग— भ्रष्ट है, तो वह एक निंदा भी है—योग से गिरा हुआ। यह व्यक्ति अपने किसी पिछले जन्म में ध्यान तक पहुंच गया था, और फिर गिर गया! ध्यान में संभावना है अभी भी संसार में वापस लौट जाने की—अस्मिता के कारण, उस 'हूं —पन' के कारण। बीज अभी भी जिंदा है। वह किसी भी क्षण प्रस्फुटित हो सकता है; इसलिए यात्रा अभी समाप्त नहीं हुई है। जब अस्मिता भी तिरोहित हो जाती है, जब तुम्हें यह भी ध्यान नहीं रहता कि तुम हो—निश्चित ही तुम हो, लेकिन वहां कोई तरंग नहीं बचती कि 'मैं हूं? या 'हूं'—तब समाधि घटित होती है। समाधि है अतिक्रमण; वहां से कोई वापस नहीं आता। समाधि बिंदु है न लौटने का। वहा से कोई नहीं गिरता। समाधिस्थ व्यक्ति भगवान होता है।
इसीलिए हम बुद्ध को भगवान कहते हैं, महावीर को भगवान कहते हैं। समाधि को उपलब्ध व्यक्ति फिर इस संसार का नहीं रहता। वह इस संसार में भले ही रहता हो, लेकिन वह इस संसार का नहीं होता। वह यहां का नहीं रहता, वह परदेशी हो जाता है। वह यहां रह सकता है, लेकिन उसका घर कहीं और है। वह चलता है इसी पृथ्वी पर, लेकिन अब उसके चरण पृथ्वी पर नहीं पड़ते। ऐसा कहा गया है समाधिस्थ व्यक्ति के संबंध में कि वह संसार में रहता है लेकिन संसार उसमें नहीं रहता। तो ये आठ चरण हैं योग के और आठ अंग भी हैं। अंग हैं क्योंकि वे इतने जुड़े हुए हैं और बहुत जीवंत रूप से संबंधित हैं। चरण हैं क्योंकि तुम्हें उनसे गुजरना है एक—एक करके, तुम ऐसे ही 'कहीं से भी शुरू नहीं कर सकते; तुम्हें शुरू करना पड़ेगा 'यम' से।
अब कुछ और बातें समझ लें, क्योंकि यह इतनी मूलभूत बात है पतंजलि के लिए कि तुम्हें कुछ और बातें समझ लेनी हैं। यम एक सेतु है तुम्हारे और दूसरों के बीच, आत्म—संयम यानी अपने आचरण का नियमन। यम तुम्हारे और दूसरों के बीच, तुम्हारे और समाज के बीच घटने वाली घटना है। यह ज्यादा सजग व्यवहार है; तुम अचेतन रूप से प्रतिक्रिया नहीं करते, तुम यंत्रवत प्रतिक्रिया नहीं करते, तुम मशीन की तरह व्यवहार नहीं करते। तुम ज्यादा होशपूर्ण हो जाते हो; तुम ज्यादा सजग हो जाते हो। तुम केवल तभी प्रतिक्रिया करते हो जब बहुत जरूरी होता है; तब भी तुम्हारी कोशिश यही होती है कि प्रतिक्रिया प्रतिक्रिया न होकर प्रतिसंवेदन हो।
प्रतिसंवेदन बिलकुल अलग बात है प्रतिक्रिया से। पहला अंतर यह है कि प्रतिक्रिया यंत्रवत होती है; प्रतिसंवेदन होशपूर्ण होता है। कोई तुम्हारा अपमान कर देता है; तुम तुरंत प्रतिक्रिया करते हो—तुम उसका अपमान कर देते हो। एक क्षण का भी अंतराल नहीं होता समझने के लिए : यह एक प्रतिक्रिया है। आत्म—संयमी व्यक्ति प्रतीक्षा करेगा, अपने अपमान पर थोड़ा विचार करेगा, उस पर सोचेगा।
गुरजिएफ कहा करता था कि उसके दादा की एक बात से उसका पूरा जीवन बदल गया। क्योंकि जब उसके दादा मर रहे थे, गुरजिएफ उस समय केवल नौ वर्ष का था, तो उन्होंने उसे बुलाया और उससे कहा, 'मैं एक गरीब आदमी हूं और मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है, लेकिन मैं कुछ देना चाहूंगा। यही एकमात्र चीज है जिसे मैं किसी खजाने की भांति सम्हालता आया हूं; इसे मैंने अपने पिता से सीखा है...। तुम बहुत छोटे हो, लेकिन स्मरण कर लो इसे। किसी दिन तुम समझ भी पाओगे—अभी तो बस तुम ध्यान में रख लो इसे। कभी किसी दिन तुम समझ पाओगे। अभी तो मुझे आशा नहीं कि तुम समझ सको, लेकिन यदि तुम भूले नहीं, तो किसी दिन तुम समझ जाओगे।और यह बात उसने कही गुरजिएफ से : 'यदि कोई तुम्हारा अपमान करे तो चौबीस घंटे बाद उसे उत्तर देना।
यह बात एक रूपांतरण बन गई, क्योंकि कैसे तुम प्रतिक्रिया कर सकते हो चौबीस घंटे बाद? प्रतिक्रिया को तात्कालिकता चाहिए। गुरजिएफ कहता था, 'कोई मेरा अपमान करे या कोई कुछ गलत कह दे, तो मैं कहता, मैं कल आऊंगा। केवल चौबीस घंटे बाद ही मैं उत्तर दे सकता हूं—और मैंने वचन दिया है अपने दादा को और वे मर चुके हैं और वचन तोड़ा नहीं जा सकता। लेकिन मैं आऊंगा।वह आदमी तो चकित होता। वह नहीं समझ पाता कि बात क्या है।
और फिर गुरजिएफ सोचेगा इस विषय में। जितना ज्यादा सोचेगा वह, उतनी ही ज्यादा व्यर्थ लगेगी बात। कई बार तो यही लगेगा कि वह आदमी ठीक ही कहता है। जो कुछ भी उसने कहा, ठीक ही है। तो गुरजिएफ जाता और धन्यवाद करता उस व्यक्ति का, 'तुमने वह प्रकट कर दिया जिसका कि मुझे भी पता नहीं था।और कभी वह पाता कि वह व्यक्ति बिलकुल ही गलत कह रहा है। और जब कोई बिलकुल गलत कह रहा है, तो क्यों फिक्र करनी? कोई आदमी झूठी बातों के लिए चिंता नहीं करता। जब तुम्हें चोट लगती है, तो जरूर कुछ न कुछ सच्चाई होती है बात में; अन्यथा तो तुम चोट अनुभव नहीं करते। तब भी कोई सार नहीं होता जाने में।
और उसने कहा, 'ऐसा हुआ कि बहुत बार मैंने अपने दादा की इस सलाह का उपयोग किया,
और धीरे— धीरे क्रोध तिरोहित हो गया।और केवल क्रोध ही नहीं धीरे— धीरे वह जान गया कि यही विधि दूसरे आवेगों के साथ भी प्रयोग की जा सकती है। और हर चीज तिरोहित हो जाती है। गुरजिएफ इस युग के उच्चतम शिखरों में से एक था—एक बुद्ध पुरुष। और वह महायात्रा आरंभ हुई एक छोटे से चरण से, मृत्यु—शय्या पर पड़े वृद्ध को दिए गए एक वचन से। इस बात ने उसकी पूरी जिंदगी बदल दी।
तो यम एक सेतु है तुम्हारे और दूसरों के बीच—होशपूर्वक जीओ; लोगों के साथ होशपूर्वक संबंध रखो। फिर दूसरे दो हैं, नियम और आसन—उनका संबंध है तुम्हारे शरीर से। तीसरा प्राणायाम, वह भी एक सेतु है। पहला 'यम' सेतु है तुम्हारे और दूसरों के बीच। अगले दोनों चरण एक तैयारी हैं एक दूसरे सेतु के लिए—तुम्हारा शरीर तैयार किया जाता है नियम और आसन के द्वारा—फिर प्राणायाम का सेतु है शरीर और मन के बीच। फिर प्रत्याहार और धारणा, ये तैयारी हैं मन की। फिर ध्यान एक सेतु है—मन और आत्मा के बीच। और समाधि है परम उपलब्धि। वे अंतर्संबंधित हैं, एक श्रृंखला है; और यही है तुम्हारा पूरा जीवन।
दूसरों के साथ तुम्हारे संबंध को बदलना है। दूसरों के साथ तुम जिस तरह संबंधित होते हो, उस ढंग को रूपांतरित करना है। यदि तुम दूसरों के साथ उसी ढंग से संबंध बनाए रखते हो जैसा कि तुम सदा से करते आए हो, तो रूपांतरण की कोई संभावना नहीं है। तुम्हें अपने संबंध बदलने हैं।
थोड़ा ध्यान देना कि तुम अपनी पत्नी के साथ या अपने मित्र के साथ या अपने बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करते हो! बदलो उसे। हजारों बातें बदलनी होंगी तुम्हारे संबंधों में। यह है यम—संयम। लेकिन ध्यान रहे, यम संयम है—दमन नहीं। समझ से संयम आता है। अज्ञान में व्यक्ति जबरदस्ती करता है और दमन करता है। जो भी करो समझ से करो, तो तुम कभी भी स्वयं की या किसी दूसरे की हानि नहीं करोगे।
यम है तुम्हारे आस—पास एक अनुकूल वातावरण का निर्माण करना। यदि तुम हर किसी के प्रति दुश्मनी रखते हो, लड़ते हो, घृणा करते हो, क्रोधित होते हो—तो कैसे तुम भीतर मुड़ सकोगे? ये बातें तुम्हें भीतर न जाने देंगी। तुम इतने ज्यादा अस्तव्यस्त हो जाओगे परिधि पर कि अंतर्यात्रा संभव ही न होगी। तुम्हारे आस—पास एक अनुकूल, एक मैत्रीपूर्ण वातावरण का निर्माण करना यम है।
जब तुम दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से, होशपूर्वक संबंधित होते हो, तो वे तुम्हारे लिए कोई अड़चन नहीं खड़ी करते तुम्हारी अंतर्यात्रा में। वे सहयोगी बन जाते हैं; वे तुम्हारे लिए रुकावट नहीं बनते। यदि तुम अपने बच्चे से प्यार करते हो, तो जब तुष ध्यान कर रहे हो तो वह तुम्हारे ध्यान में बाधा नहीं डालेगा। बल्कि वह दूसरों से भी कहेगा, 'शांत रहें, पिताजी ध्यान कर रहे हैं।लेकिन यदि तुम अपने बच्चे को प्रेम नहीं करते, तुम क्रोधित ही रहते हो, तो जब तुम ध्यान कर रहे हो तो वह हर तरह की अड़चन खड़ी करेगा। वह बदला लेना चाहता है—अचेतन रूप से। यदि तुम अपनी .पत्नी को गहन रूप से प्रेम करते हो, तो वह सहायक होगी; अन्यथा वह तुम्हें प्रार्थना न करने देगी, वह तुम्हें ध्यान न करने देगी—क्योंकि तुम उसकी पकड़ के बाहर हो रहे हो।
यही मैं रोध देखता हूं. पति संन्यास ले लेता है तो पत्नी चली आती है रोती हुई—'आपने हमारे परिवार के साथ यह क्या किया? आपने हमें बर्बाद कर दिया।मैं जानता हूं कि पति ने प्रेम नहीं
नहीं किया पत्नी को; वरना तो वह प्रसन्न होती। वह उत्सव मनाती कि उसका पति ध्यानी हो गया है। लेकिन उसने प्रेम किया नहीं उसे। अब न केवल यह कि उसने प्रेम नहीं किया, वह बढ़ रहा है भीतर की ओर। इसलिए भविष्य में भी कोई संभावना नहीं है उससे प्रेम पाने की।
यदि तुम प्रेम करते हो किसी व्यक्ति को, तो वह व्यक्ति सदा सहायक होता है तुम्हारे विकास में, क्योंकि वह जानता है—या स्त्री हो तो वह जानती है—कि जितने ज्यादा तुम विकसित होते हो, उतने ज्यादा तुम सक्षम हो जाते हो प्रेम में। वह जानती है प्रेम का स्वाद। और सारे ध्यान तुम्हें मदद देंगे ज्यादा प्रेममय होने में; हर तरह से ज्यादा सौंदर्यपूर्ण होने में।
लेकिन यही रोज होता है। यही हुआ शीला की बहन के साथ। वह एक शिविर में थी और वह संन्यास लेना चाहती थी, लेकिन पति की इच्छा न थी। पति बहुत सुशिक्षित हैं। अमरीका में कहीं किसी रिसर्च इंस्टीटधूट के डायरेक्टर हैं। फिर वह घर चली गई। निरंतर संघर्ष बना रहा। वह संन्यास लेना चाहती थी, वह दीक्षित होना चाहती थी, लेकिन वह इजाजत न देते थे। फिर वह आए मुझे देखने कि कौन है यह आदमी जो हमारी जिंदगी गड़बड़ किए दे रहा है! और उन्होंने संन्यास ले लिया। अब पत्नी खड़ी कर रही है मुसीबत! अब पत्नी एकदम खिलाफ है। और वे बहुत सीधे —सरल आदमी हैं, सचमुच सुंदर। और वे मुझे लिखते हैं : 'मैं क्या करूं? क्योंकि मैं प्रेम करता हूं उसे, लेकिन जब से उसने सुना है कि मैंने संन्यास ले लिया है, वह तो बिलकुल बदल गई है।
इसी भांति चीजें चलती हैं। हर कोई प्रयत्न. कर रहा है दूसरे पर नियंत्रण करने का।
यम को साधने वाला व्यक्ति स्वयं को साधता है, दूसरों को नहीं। दूसरों को तो वह स्वतंत्रता देता है। तुम दूसरों पर नियंत्रण करने की कोशिश करते हो, लेकिन स्वयं पर कभी नहीं। यम का व्यक्ति स्वयं को संयमित करता है और दूसरों को स्वतंत्रता देता है। वह इतना ज्यादा प्रेम करता है दूसरों को कि उनको स्वतंत्रता दे सकता है। और वह इतना ज्यादा प्रेम करता है स्वयं को कि अपने को संयमित करता है। इसे समझ लेना है : वह स्वयं को इतना ज्यादा प्रेम करता है कि वह अपनी ऊर्जाओं को बिखरा नहीं सकता, उसे एक दिशा देनी होती है।
फिर शरीर के लिए हैं नियम और आसन। नियमित जीवन बहुत स्वास्थ्यप्रद होता है शरीर के लिए, क्योंकि शरीर एक यंत्र है। यदि तुम अनियमित जीवन जीते हो तो तुम शरीर को उलझन में डाल देते हो। आज तुमने भोजन किया एक बजे, कल तुम करते हो ग्यारह बजे; परसों तुम करते हो दस बजे—तुम उलझन में डाल देते हो शरीर को! शरीर की एक आंतरिक जैविक घड़ी होती है; वह एक नियम में चलती है। यदि तुम रोज उसी समय पर भोजन करते हो तो शरीर सदा ऐसी स्थिति में होता है जहां कि वह समझता है कि क्या हो रहा है, और वह तैयार होता है उसके लिए—रस प्रवाहित हो रहे होते हैं पेट में बिलकुल ठीक समय पर। अन्यथा जब भी तुम भोजन करना चाहो, तुम कर सकते हो, लेकिन रस प्रवाहित न हो रहे होंगे। और यदि तुम भोजन करते हो और रस नहीं प्रवाहित हो रहे होते हैं, तो भोजन ठंडा हो जाता है; फिर उसे पचाना कठिन होता है।
रसों को वहा तैयार होना चाहिए भोजन को पचाने के लिए। जब भोजन गरम होता है, तब तुरंत पाचन आरंभ हो जाता। भोजन का छह घंटे में पाचन हो सकता है यदि रस तैयार हों, प्रतीक्षा कर रहे हों। यदि रस तैयार नहीं हैं तो बारह या अठारह घंटे लग जाते हैं। तब तुम बोझिलता अनुभव करते हो, आलस्य लगता है। तब भोजन तुम्हें जीवन तो देता है, लेकिन तुम्हें विशुद्ध जीवन नहीं देता है। वह तुम्हारी छाती पर पड़े किसी बोझ जैसा लगता है; तुम किसी तरह उसे ढोते रहते हो, खींचते रहते हो। और भोजन बड़ी विशुद्ध ऊर्जा बन सकता है—लेकिन तब एक नियमित जीवन की जरूरत है। तुम रोज दस बजे सो जाते हो. शरीर को पता है—ठीक दस बजे शरीर तुम्हें खबर कर देता है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इसी से जकडू जाओ, कि जब तुम्हारी मां मर रही हो तब भी तुम दस बजे सो जाओ। मैं यह नहीं कह रहा हूं। क्योंकि लोग किसी भी पागलपन में पड़ सकते हैं।
इमेनुएल कांट के विषय में बहुत सी कहानियां प्रचलित हैं। वह नियमितता को लेकर पागल था; वह बात एक पागलपन हो गई थी। किसी भी बात को सनक मत बना लेना। उसकी तो एक नियत दिनचर्या थी, इतनी निश्चित, एक—एक पल निश्चित, कि यदि कोई व्यक्ति, कोई मेहमान आया हो, तो वह देखेगा घड़ी की तरफ और जैसे ही सोने का समय हुआ, वह मेहमान से कोई बात भी न करेगा, क्योंकि उस बात—चीत में समय लगेगा—वह घुस जाएगा बिस्तर में, कंबल ओढ़ लेगा, और वह तो सो गया और मेहमान वहां बैठा ही हुआ है! उसका नौकर आएगा और मेहमान से कहेगा, 'अब आप जाएं, क्योंकि उनके सोने का समय हो गया।
नौकर का इतना अभ्यास हो गया था कांट के साथ कि कोई जरूरत न थी कहने की कि ' आपका भोजन तैयार है', और कोई जरूरत न थी कहने की कि 'अब आप जाकर सोए।केवल समय बताना पड़ता। नौकर आएगा कमरे में और कहेगा, 'मालिक, ग्यारह बजे हैं।वह तुरंत समझ जाएगा, क्योंकि कुछ और कहने की कोई जरूरत न थी।
वह इतना नियम से चलता था कि नौकर धौंस जमाने लगा—क्योंकि वह हमेशा उसे धमकी देता रहता, 'मैं चला जाऊंगा। मेरी तनख्वाह बढ़ाओ।फौरन तनख्वाह बढ़ानी पड़ती, क्योंकि दूसरा नौकर, कोई नया आदमी तो सब गड़बड़ कर देगा। एक बार उसने नौकर बदल कर भी देखा. एक नया आदमी रखा, लेकिन वह संभव न था, क्योंकि कांट तो पल—पल के हिसाब से जीता था।
वह यूनिवर्सिटी जाता; वह बहुत प्रसिद्ध शिक्षक और महान दार्शनिक था। एक दिन सड़क कीचड़ से भरी थी और बारिश हो रही थी, और उसका एक जूता कीचड़ में धंस गया—तो उसने उसे वहीं छोड़ दिया। वरना उसे देर हो जाए! तो वह चला एक जूता पहने हुए। कोनिग्सबर्ग के विश्वविद्यालय क्षेत्र में ऐसा कहा जाता था कि लोग उसे देख कर अपनी घड़ियां मिला लेते हैं, क्योंकि उसकी हर बात बिलकुल घड़ी के अनुसार होती थी।
एक नए पड़ोसी ने कांट के घर के साथ वाला घर खरीद लिया और उसने नए वृक्ष लगाने शुरू कर दिए। शाम को रोज ठीक पांच बजे, कांट घर के उस ओर आया करता था और खिड़की के पास बेठ जाता था और देखता रहता था आकाश की तरफ। अब वृक्षों ने ढांक दिया खिड़की को और वह श्राकाश नहीं देख सकता था। वह बीमार पड़ गया। वह इतना बीमार पड़ गया... और डाक्टर कोई बीमारी भी नहीं ढूंढ पा रहे थे उसमें, क्योंकि वह इतना नियमित आदमी था! वह असल में बहुत स्‍वस्‍थ व्यक्ति था। डाक्टर कुछ पता न लगा सके; वे रोग का निदान न कर सके। तब उस नौकर ने कहां ता, ' आप परेशान न हों। मैं जानता हूं कारण। वे पेडू उनकी नियमितता में बाधा दे रहे हैं। अब वेद खिड़की पर बैठ कर आकाश को नहीं देख पाते हैं। आकाश की ओर देखना अब संभव नहीं रहा है।
आखिर पड़ोसी को राजी करना पड़ा। पेड कांट दिए गए, और वह बिलकुल ठीक हो गया; बीमारी दूर हो गई।
लेकिन यह तो आदत से जकड़ जाना है। ऐसा जकड़ जाने की कोई जरूरत नहीं; हर बात समझ के साथ करनी होती है।
तो नियम और आसन हैं शरीर के लिए। संयमित शरीर एक सुंदर घटना है—एक संयमित ऊर्जा, ज्योतिर्मय, और सदा अतिरिक्त ऊर्जा से भरपूर और जीवंत, और कभी भी दीन—हीन और मुर्दा नहीं। तब शरीर का भी अपना बोध है, शरीर का भी अपना विवेक है, शरीर एक नई सजगता से ज्योतिर्मय हो उठता है। फिर प्राणायाम एक सेतु है मन और शरीर के बीच। तुम शरीर को बदल सकते हो श्वास के द्वारा, तुम मन को बदल सकते हो श्वास के द्वारा। उसके बाद प्रत्याहार और धारणा—घर लौटना और एकाग्रता—संबंधित हैं मन के रूपांतरण के साथ। फिर ध्यान एक और सेतु है मन और आत्मा के बीच या मन और अनात्मा के बीच—जो भी तुम कहना चाहो उसे, वह दोनों ही है। ध्यान सेतु है समाधि का।
तुम्हारे चारों तरफ समाज है; समाज से तुम तक एक सेतु है — यम। तुम्हारा शरीर है; शरीर के लिए हैं नियम और आसन। फिर एक सेतु है—प्राणायाम, क्योंकि मन का आयाम शरीर से भिन्न है। फिर है मन की तैयारी : प्रत्याहार और धारणा—घर लौट आना और एकाग्र होना। फिर एक सेतु है, यह है अंतिम सेतु—ध्यान। और फिर तुम पहुंच जाते हो मंजिल तक : समाधि।
समाधि बहुत सुंदर शब्द है। इसका अर्थ है. अब हर बात का समाधान हुआ। इसका अर्थ ही है समाधान : सब मिल गया। अब कोई आकांक्षा न रही; कुछ पाने को न रहा; कहीं जाने को न रहा; तुम घर आ गए।

 आज इतना ही।





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