दिनांक
17 सितंबर, 1974;
प्रात:
काल,
श्री ओशो
आश्रम,
पूना।
बीजावधानम्।
आसस्थ:
सुखं हृदे
निमजति।
स्वमात्रा
निर्माणमापादयति।
विद्याऽविनाशे
जन्मविनाश:।
ध्यान
बीज है।
आसनस्थ
अर्थात स्व—स्थित
व्यक्ति सहज
ही चिदात्म
सरोवर में निमज्जित
हो जाता है और
आत्म—निर्माण
अर्थात
द्विजत्व को
प्राप्त करता
है। विद्या का
अविनाश जन्य
का विनाश है।
जीसस से उनके
शिष्यों ने
पूछा, 'प्रभु
का राज्य
कैसा है? क्या
उसका रूप—नाम? तो जीसस ने
कहा, ‘प्रभु
का राज्य एक
बीज की भांति है?'
जीसस उसी
बीज की बात कर
रहे हैं, जिसकी
हम आज चर्चा
करेंगे।
ध्यान
है वह बीज।
बीज अपने—आप
में सार्थक
नहीं होता।
बीज तो एक
साधन है। बीज
तो वृक्ष होने
की संभावना है।
बीज कोई
स्थिति नहीं; बीज तो
यात्रा है।
जैसे बीज
वृक्ष तक
पहुंचकर सफल
हो जाता है; क्योंकि फिर
फल लग आते हैं,
फूल लग आते
हैं—वही सफलता
है; ऐसे ही
ध्यान का बीज
जब वृक्ष बन
जाता है और फल—फूल
लग जाते हैं—वही
परमात्मा है।
बीज की
स्थिति को ठीक
से समझ लेना
जरूरी है। तुम
परमात्मा के
संबंध में तो
निरंतर पूछते
हो। वह पूछ—ताछ
बेकार है; क्योंकि
वृक्ष की क्या
पूछ—ताछ करना,
जब बीज ही न
संभाला हो! और
बिना बीज को
बोये तुम
वृक्ष को देख
भी कैसे सकोगे?
परमात्मा
कोई बाह्य
घटना नहीं है
कि तुम उसे देख
लो; वह
तुम्हारी
परिष्कृत
स्थिति है; वह तुम्हारा
ही विकास है।
तुम दूसरे के
परमात्मा को न
देख सकोगे? तुम्हारे
भीतर छिपा हुआ
जब बीज टूटेगा
और वृक्ष
बनेगा, तभी
तुम उसे देख
सकोगे।
बुद्ध, महावीर, कृष्ण, शिव—वे
लाख उपाय करें,
तो भी
तुम्हें
परमात्मा को
दिखा नहीं
सकते, क्योंकि
तुम्हारा परमात्मा
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
और, अभी
बीज है, वृक्ष
नहीं बना; बीज
में कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता। जब बीज
फूटेगा, विकसित
होगा, तुम
प्रकट होओगे,
खिलोगे, तुम्हारा
दीया जलेगा—तभी
तुम जानोगे कि
परमात्मा है।
इसलिए
नास्तिक को
हराना बहुत
मुश्किल है।
वस्तुत:
नास्तिक को
कोई कभी नहीं
हरा पाया।
इसका कारण यह
नहीं कि
नास्तिक सही
है। इसका कारण
यह है कि वह
गलत ही प्रश्र
पूछ रहा है।
जो भी जवाब
दिए जाएंगे, वे व्यर्थ
होंगे। वह
पूछता है, ' ईश्वर
को दिखाओ; कहां
है ईश्वर?' ईश्वर
तुम में छिपा
है। ईश्वर
पूछनेवाले
में छिपा 'है।
और दूसरे का
ईश्वर नहीं
दिखाया जा
सकता; वह आंतरिक
घटना है। जब
तुम्हारा बीज
टूटेगा, तभी
तुम जान पाओगे।
अभी
तुम बीज की
भांति हो।
लेकिन तुम इसे
समझे नहीं; तुम बाहर
खोज रहे हो।
और जब तक तुम
बाहर खोजते
रहोगे, तुम्हारा
बीज भीतर ही
पड़ा रहेगा, अंकुरित न
होगा; क्योंकि
बीज के लिए
वैसे ही पानी
चाहिए, भूमि
चाहिए, प्रकाश
चाहिए, प्रेम
चाहिए, जैसे
कि छोटे
बच्चों को। जब
तुम भीतर आंख
मोड़ोगे, जब
तुम्हारा
ध्यान भीतर
बरसेगा, और
तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा
भीतर की तरफ
मुड़ेगी, तभी
बीज को प्राण
मिलेंगे; तभी
बीज जीवंत
होगा, अंकुरित
होगा। ध्यान
बीज है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे पूछते
हैं, अशांति
है; कैसे
शांत हो जाएं?
एक दिन
सुबह—सुबह
मुल्ला
नसरुद्दीन
आया। उसे
देखकर ही मैं
कुछ कहने को
था, लेकिन
इसके पहले में
कुछ कहूं उसके
पहले ही उसने
सवाल किया।
उसने कहा कि
अब मेरी
सहायता आपको
करनी ही पड़ेगी।
मैंने पूछा, 'क्या है
समस्या?' उसने
कहा, 'बड़ी
जटिल समस्या
है। दिन में
कोई दस—बीस—पच्चीस
बार, कभी
और भी ज्यादा,
खान करने की
बड़ी तीव्र आकांक्षा
पैदा होती है।
मैं पागल हुआ
जा रहा हूं।
बस, यही
धुन सवार रहती
है। कुछ मेरी
सहायता करो।’
तो मैंने
पूछा, 'स्नान
तुमने किया कब
से है?' उसने
कहा, ' जब तक
मुझे याद आता
है, मैं
सान की झंझट
में कभी पड़ा
ही नहीं।’
स्नान
न करोगे और
स्नान करने की
आकांक्षा पकड़ेगी, तो
समस्या स्नान
नहीं है, समस्या
तुम हो। तुम
अशांत हो; तुम्हें
पता नहीं कि
तुमने ध्यान
कभी नहीं किया।
तुम उस झंझट
में कभी पड़े
ही नहीं। और
अशांति तुम
मिटाना चाहते
हो; और
ध्यान के सान
के बिना वह
कभी नहीं
मिटेगी; वह
तलफ है।
ध्यान
भीतर का सान
है। जैसे शरीर
ताजा हो जाता
है सान के बाद, धूल, कूड़ा—करकट
शरीर से बह
जाता है, स्वच्छता
आ जाती है—ऐसे
ही ध्यान भीतर
का, अंतरात्मा
का सान है। और,
भीतर जब सब
ताजा हो जाता
है, तब
कैसी अशांति,
तब कैसा दुख,
कैसी चिंता!
तब तुम पुलकित
होते हो, प्रफुल्लित
होते हो! तुम्हारे
पैरों में अर
बंध जाते हैं!
तुम्हारा जीवन
एक नृत्य हो
जाता है! उसके
पहले तुम उदास
हो, थके हो,
परेशान हो।
और तुम सोचते
हो कि
तुम्हारी
अशांति के
कारण बाहर हैं
तो तुम भांति
में हो।
तुम्हारी
अशांति का एक
ही कारण है कि
ध्यान के बीज
को तुमने
वृक्ष नहीं
बनाया। तुम
हजार उपाय
करोगे— धन मिल
जाए तो अशांति
ठीक हो जाएगी; पुत्र हो
जाए, यश
मिल जाए, कीर्ति
मिल जाए, अच्छा
स्वास्थ्य हो,
शरीर हो, लम्बी उम्र
हो, तो सब
कुछ हो जाएगा,
लेकिन
अशांति न
मिटेगी।
वस्तुत: तो
जितनी ये
चीजें
तुम्हें मिल
जाएंगी, उतना
ही तुम पाओगे
कि अशांति और
भी सघन होकर
दिखाई पड़ने
लगी।
गरीब
आदमी कम अशांत
होता है। अमीर
ज्यादा अशांत
हो जाता है।
अमीरी से
अशांति क्यों
बढ जाती है? —बढती
नहीं। होता तो
गरीब भी अशांत
हैं; लेकिन
शरीर की ही
भूख, शरीर
की क्षुधा को
निपटाने में
इतनी ऊर्जा चली
जाती है कि
अपने भीतर की
अशांति को
देखने योग्य
शक्ति भी नहीं
बचती। अमीर की
बाहर की
जरूरतें पूरी
हो जाती हैं, तो सारी
शक्ति बचती है।
और भीतर की
जरूरत खयाल
में आ गई।
गरीब भी उतना
ही अशांत है, लेकिन
अशांति को
जानने की सुविधा
नहीं है। अमीर
को अशांति
कांटे की तरह
चुभने लगती है,
वही वही
दिखाई पड़ती है।
तुम
जिस दिन सब
जरूरतें पूरी
कर लोगे, उस दिन तुम
अचानक पाओगे
कि असली जरूरत
एक थी—वह
ध्यान है; बाकी
सब जरूरतें
शरीर की थी, तुम्हारी
नहीं।
यह
सूत्र कहता
है. ध्यान बीज
है। तुम्हारी
महत यात्रा
में, जीवन
की खोज में, सत्य के
मंदिर तक
पहुंचने में—
ध्यान बीज है।
ध्यान क्या है?
—जिसका इतना
मूल्य है; जो
कि खिल जाएगा
तो तुम
परमात्मा हो
जाओगे; जो
सड़ जाएगा तो
तुम नारकीय
जीवन व्यतीत
करोगे। ध्यान
क्या है? ध्यान
है निर्विचार
चैतन्य की
अवस्था, जहां
होश तो पूरा
हो और विचार
बिलकुल न हों;
तुम तो रहो,
लेकिन मन न
बचे। मन की
मृत्यु ध्यान
है।
अभी
तुम तो हो ही
नहीं, मन—ही—मन
है। इससे उलटा
हो जाए, तुम—ही—तुम
बचो और मन
बिलकुल न बचे।
अभी सारी
ऊर्जा मन पीये
जा रहा है।
अभी जितनी भी
तुम्हारी
जीवन की शक्ति
है, वह मन
चूस लेता है।
तुमने
अमरबेल देखी
है? —वृक्षों
को पकड़ लेती है।
वह वृक्ष
सूखने लगता है
और बेल जीने
लगती है और
बेल फैलने
लगती है। और
बेल बड़ी
मजेदार है! वह
ठीक मन जैसी
है। उसमें कोई
जड़ें भी नहीं
हैं। उसकी कोई
जड़ नहीं; क्योंकि
उसे जड की
जरूरत ही नहीं
है; वह
दूसरे के शोषण
से जीती है।
वृक्ष को
सुखाने लगती
है, खुद
जीने लगती है।
और ठीक, हिन्दुओं
ने उसे अच्छा
नाम दिया—अमरबेल!
वह मरती नहीं
है। जब तक भी
उसे शोषण
मिलता रहेगा,
वह अनंत काल
तक जी सकती है।
ऐसा ही
तुम्हारा मन
है— वह अमरबेल
है। वह मरता
नहीं; वह
अनंत काल तक
जी सकता है; जन्मों—जन्मों
तक तुम्हारा
पीछा करेगा।
और मजा यह है
कि उसकी कोई
जड़ नहीं, कोई
बीज नहीं।
उसका
अस्तित्व बे—जड़
है। मर जाना
चाहिए उसे इसी
वक्त, लेकिन
वह मरता नहीं;
वह शोषण से
जीता है।
और, तुम्हारा
मन तुम्हें
चारों तरफ से
घेरे हुए है।
तुम तो बिलकुल
दब ही गये हो
अमरबेल में।
सारी जीवन—ऊर्जा
मन ले लेता है,
कुछ बचता
नहीं। तुम दीन—दरिद्र,
तुम सूखे—सूखे
जीते हो। मन
तुम्हें उतना
ही जीने देता
है, जितना
जरूरी है मन
के लिए। बेल
भी वृक्ष को
पूरा नहीं
मारती; क्योंकि
पूरा मारेगी
तो खुद मर
जाएगी। उतना
बचाकर चलती है,
जितना
जरूरी है।
मालिक भी
गुलाम को पूरा
नहीं मार
डालता; उतना
भोजन देता है,
जितना
गुलाम के
जिंदा रहने के
लिए जरूरी हो।
तुम्हारा
मन तुम्हें बस
उतना ही देता
है, जितना
तुम बने रहो; अन्यथा
निन्यानबे
प्रतिशत पी
लेता है। एक
प्रतिशत तुम
हो, निन्यानबे
प्रतिशत मन है—यह
गैर— ध्यान की
अवस्था है।
निन्यानबे
प्रतिशत तुम
हो जाओगे, एक
प्रतिशत मन
होगा—यह ध्यान
की अवस्था है।
और अगर सौ
प्रतिशत तुम
हो गये और मन
शून्य हो गया—यह
समाधि की
अवस्था है; तुम मुक्त
हो गये; बीज
पूरा वृक्ष हो
गया; अब
कुछ पाने को न
बचा; जो भी
पाया जा सकता
था, पा
लिया; सब
संभावनाएं सत्य
हो गयीं, जो
भी छिपा था, वह प्रगट हो
गया। तब
तुम्हारी
सुगंध से
अस्तित्व भर
जाता है। तब
तुम्हारा
नर्तन दूर—दूर
कोनों तक, चांद—तारों
तक सुना जाता
है। तब तुम ही
पुलकित नहीं
होते; तुम्हारे
साथ पूरे
विश्व की
प्राण—धारा
पुलकित होती
है। तब
अस्तित्व में
एक उत्सव आ
जाता है। जब
भी कोई एक
बुद्ध पैदा
होता है, सारा
अस्तित्व
उत्सव से भर
जाता है; क्योंकि
सारा
अस्तित्व
तुम्हारे बीज
को वृक्ष
बनाने के लिए
आतुर है।
ध्यान
का अर्थ है :
जहां मन न के
बराबर रह जाए।
समाधि का अर्थ
है. जहां मन
बिलकुल शून्य
हो जाए, तुम—ही—तुम
बचो।
और, शिव का यह
सूत्र कहता है
: ध्यान बीज है।
इसलिए ध्यान
से शुरू करना
पड़ेगा।
अभी तो
होश—बेहोश, जागते—सोते,
मन ही
तुम्हें पकड़े
हुए है। रात
सपने चलते हैं,
दिन विचार
चलते हैं।
उठते—बैठते मन
का ऊहापोह
चलता रहता है।
और बड़े
आश्रर्य की
बात तो यह है
कि सार उसमें
कुछ भी नहीं।
कितना ही यह
ऊहापोह चले, मन से कुछ
मिलता नहीं।
क्या तुमने
पाया है? इतने
दिन सोचकर
कहां तुम
पहुंचे हो? इसे भी तो
सोचो। इस तरफ
भी ध्यान दो
कि इतनी
यात्रा करने
के बाद कौन—सी
मंजिल मिली है।
सोच—सोचकर
क्या पाया?
एक
दार्शनिक था—बडा
दार्शनिक—इमानुएल
कांट। सांझ घर
की तरफ आ रहा
था। एक छोटे—से
लड़के ने उसे
रास्ते पर
रोका और कहा, 'अंकल, मै आपके घर
गया था। कल हम
पिकनिक पर जा
रहे हैं। और, आपके कैमरे
को मांगने गया
था। आप तो
घूमने गये थे,
नौकर मिला।
उसने बिलकुल
मना कर दिया।
क्या यह उचित
है कि नौकर
मना कर दे?'
बच्चा
क्रोध में था।
कांट ने कहा, 'बिलकुल
अनुचित है।
मेरे रहते
नौकर मना
करनेवाला कौन
होता है! आओ मेरे
साथ।’
बहुत
प्रसन्न हुआ
पहुंचे घर। ने
बड़ी डाट—डपट
की नौकर पर और
वह बच्चा
पुलकित होता
रहा बच्चा।
कांट। कहा कि
मेरे रहते तू
मना करनेवाला
कौन होता है।
उस बच्चे से
भी कहा कि तू
बोल, मेरे
रहते नौकर मना
करनेवाला कौन
होता है। उस
बच्चे ने कहा,
'बिलकुल, नहीं, अंकल।
और इस आदमी ने
बड़ी बेहूदगी
से इनकार किया।
और, तब
इमानुएल कांट
ने उस बच्चे
से कहा कि अब
तुझे मैं
बताता हूं कि
कैमरा मेरे
पास नहीं है।
यह सारी खुशी
बच्चे की, यह
सारी पुलक, यह मिलने की
आशा, सब
शोरगुल और
आखिर में पता
चलता है कि
कैमरा उसके
पास नहीं है!
यह
तुम्हारे मन
की दशा है!
जीवन— भर
दौड़ोगे, चिल्लाओगे,
आशा
बांधोगे, श्रम
करोगे और आखिर
में मन कहेगा
कि जिसकी तुम
तलाश कर रहे
हो, वह
मेरे पास नहीं
है। मन ने सदा
यही कहा है।
उसके पास है
भी नहीं।
इसलिए मन सदा
आशा बंधाता है
और मन सदा
कहता है— 'आज
तो नहीं, कल;
कल निश्रित।’
मन से
ज्यादा
आश्वासन
देनेवाला और
कोई भी नहीं।
और तुम छू हो!
क्योंकि मन के
पास होता तो
आज ही दे देता।
वह कल की कह रह
है और तुम मान
लेते हो। और
तुम कितनी बार
मान चुके हो।
और हर बार कल
आता है और मन
फिर कल पर टाल
देता है।
लेकिन यह
तुम्हारी
बेहोश आदत हो
गयी है। तुम
कल की बात
सुनने के आदी
हो गये हो। यह
आदत इतनी गहरी
हो गयी है कि
इस पर पुन:
विचार नहीं
करते। बेहोशी
में भी, रात
के सपने में
भी, मन तुम्हें
कल पर टालता
रहता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
बीमार था।
पत्नी ने खबर
की तो मैं
उसके घर गया।
भारी बेहोशी
में था। बुखार
तेज था। लगता
था एक सौ पांच, एक सौ छह
डिग्री बुखार
होगा। बिलकुल
बेहोश पड़ा है।
आग से जल रहा
है। मैंने
पूछा कि कब से
यह दशा है।
पत्नी ने कहा
कि अभी—अभी
कोई घड़ी— भर...।
मुल्ला
नसरुद्दीन के
मुंह में, मैने
कहा, थरमामीटर
लगाकर देखो।
मुंह में
थरमामीटर
लगाया। उस
बेहोश अवस्था
में भी उसने
क्या कहा!
उसने कहा, 'माचिस
प्लीज! ' चेन
स्मोकर है। एक
सिगरेट से
दूसरी जलाकर
सदा पीता रहा।
एक सौ पांच
डिग्री बुखार
में भी और सब
तो याद नहीं, कोई सुध
नहीं है, लेकिन
मुंह में
थरमामीटर
डालते ही उसे
याद सिगरेट की
ही आती है—माचिस
प्लीज!
तुम मर
भी रहे होओगे, तो भी
तुम्हारी दशा
यह होगी—माचिस
प्लीज!
तुम्हारा मन
पुरानी आदत के
अनुसार अपनी
बेहोशी में भी
ताने—बाने
बुनता रहता है।
मरते क्षण भी
तुम मन से ही
भरे रहोगे।
तुम पूजा करो,
प्रार्थना करो,
तुम मंदिर
जाओ, तीर्थयात्रा
करो—मन
तुम्हारे साथ
है। और, जहां
भी मन
तुम्हारे साथ
है, वहा
धर्म से
तुम्हारा
संबंध न
जुड़ेगा
एक
मुसलमान फकीर
हुआ—हाजी
मोहम्मद।
साधु पुरुष था।
एक रात उसने
सपना देखा कि
वह मर गया है
और एक चौराहे
पर खड़ा है, जहां से
एक रास्ता
स्वर्ग को
जाता है, एक
नरक को; एक
रास्ता
पृथ्वी को
जाता है, एक
मोक्ष को।
चौराहे पर एक
देवदूत खड़ा है—एक
फरिश्ता, और
वह हर आदमी को
उसके कर्मों
के अनुसार
रास्ते पर भेज
रहा है।
हाजी
मोहम्मद तो
जरा भी घबडाया
नहीं; जीवनभर
साधु था। हर
दिन की नमाज
पांच बार पूरी
पढ़ी थी। साठ
बार हज की, इसलिए
हाजी मोहम्मद
उसका नाम हो
गया। अच्छूकर
जाकर द्वार पर
खड़ा हो गया
देवदूत के सामने।
देवदूत ने कहा,
'हाजी
मोहम्मद! ' देवदूत
ने इशारा किया,
'नरक की तरफ
यह रास्ता है।’
हाजी मोहम्मद
ने कहा, ' आप
समझे नहीं
शायद। कुछ भूल—चूक
हो रही है।
साठ बार हज
किये हैं।’
देवदूत
ने कहा, 'वह व्यर्थ
गयी; क्योंकि
जब भी कोई
तुमसे पूछता
तो तुम कहते, हाजी
मोहम्मद!
तुमने उसका
काफी फायदा
जमीन पर ले
लिया। तुम बड़े
अकड़ गये उसके
कारण। कुछ और
किया है?'
हाजी
मोहम्मद के
पैर थोडे
डगमगा गये। जब
साठ बार की हज
व्यर्थ हो गयी, तो अब आशा
टूटने लगी।
उसने कहा, 'ही,
रोज पांच
बार की नमाज
पूरी—पूरी
पढ़ता था।’ उस
देवदूत ने कहा,
'वह भी
व्यर्थ गयी; क्योंकि जब
कोई देखने
वाला होता था
तो तुम जरा
थोड़ी देर तक
नमाज पढ़ते थे।
जब कोई भी न
होता तो तुम
जल्दी खत्म कर
देते थे।
तुम्हारी नजर
परमात्मा पर
नहीं थी; देखने
वालों पर थी।
एक बार
तुम्हारे घर
कुछ लोग बाहर
से आये हुए थे,
तो तुम बड़ी
देर तक नमाज
पढ़ते रहे। वह
नमाज झूठी थी।
ध्यान में
परमात्मा न था,
वे लोग थे।
लोग देख रहे
है तो जरा ज्यादा
नमाज, ताकि
पता चल जाये
कि मैं
धार्मिक आदमी
हूं—हाजी
मोहम्मद; वह
बेकार गयी; कुछ और किया
है?' अब तो
हाजी मोहम्मद
घबड़ा गया और
घबड़ाहट में उसकी
नींद टूट गयी।
सपने के साथ
जिंदगी बदल
गयी। उस दिन
से उसने अपने
नाम के साथ
हाजी बोलना बंद
कर दिया। नमाज
छिपकर पढ़ने
लगा; किसी
को पता भी न हो।
गांव में खबर
भी पहुंच गयी
कि हाजी
मोहम्मद अब
धार्मिक नहीं
रहा। कहते हैं
कि नमाज तक
बंद कर दी है!
बुढ़ापे में सठिया
गया है। लेकिन
उसने इसका कोई
खंडन न किया।
वह चोरी छिपे
नमाज पढ़ता। वह
नमाज सार्थक
होने लगी।
कहते है, मरकर
हाजी मोहम्मद
स्वर्ग गया।
तुम्हारा
मन प्रार्थना
भी करेगा, तो भी
प्रार्थना न
होने देगा।
तुम्हारा मन
प्रार्थना से
भी अहंकार को
भरने लगेगा।
अपने ध्यान की
चर्चा मत करना,
उसे छिपाना।
उसे संभालना,
जैसे कोई
बहुमूल्य
हीरा मिल गया
हो और उसे तुम
छिपाते हो, उछालते नहीं
फिरते हो।
संपदा को तुम
गड़ा देते हो—ऐसे
ही तुम ध्यान
को गडा देना।
उसकी तुम
चर्चा मत करना।
उससे तुम
अहंकार मत
भरने लगना।
अन्यथा मन की
बेल वहां भी
पहुंच गयी और
वह चूस लेगी।
और जहां मन
पहुंच जाता है,
वहां धर्म
नहीं है। और
जहां मन नहीं
पहुंचता, वहां
धर्म है। मन
बाहतृखा है।
उसका ध्यान
दूसरे पर होता
है, अपने
पर नहीं होता।
ध्यान
अंतर्मुखता
है।
ध्यान
का अर्थ है—अपने
पर ध्यान है, दूसरे पर
नहीं। मन का
अर्थ है—दूसरे
पर ध्यान।
ध्यान करो, तुम अगर दो
पैसे गरीब को
देते भी हो, तो तुम
देखते हो कि
लोग देखते है
या नहीं। तुम
मंदिर बनाते
हो, तो बड़ा
पत्थर लगाते
हो अपने नाम
का; तुम
दान करते हो
तो अखबार में
खबर छपवाते हो।
सब व्यर्थ हो
जाता है। हाजी
मोहम्मद होकर
तुम पहुंच न
पाओगे। तुमने
कितने उपवास
किये, कितने
व्रत किये, इस सब की
फेहरिश्त
संभाल कर मत
रखना।
परमात्मा की दुनिया
दुकानदार की
दुनिया नहीं
है; वहाँ
हिसाब काम
नहीं आता।
वहां तुम
हिसाब लेकर
गये कि वहां
तुम हारोगे।
हिसाब संसार
में काम आता
है।'
लेकिन
तुम देखो। जैन
मुनि हर वर्ष
छपवाते हैं कि
इस बार उन्होंने
कितने उपवास
किये; इस
वर्षाकाल में
कितने दिन
भूखे रहे; कितने
व्रत, नियम
लिये। वे
हिसाब रख रहे
हैं। ये
दुकानदार ही
हैं। जो
मंदिरों में
बैठ गए हैं।
इनकी बद्धि का
गणित से
छुटकारा नहीं
हुआ। और, इनका
ध्यान, इनका
उपवास—सब
व्यर्थ जा रहा
है। ये हाजी
मोहम्मद हुए
जा रहे हैं।
नहीं
तुम बाहर की
चिंता मत करना
कि दूसरे लोग तुम्हें
धार्मिक समझते
हैं या नहीं।
दूसरे लोग
क्या कहते हैं, यह बात
विचारणीय ही
नहीं है; क्योंकि
दूसरे लोगों
से तुम्हारे
मन का संबंध
है, तुम्हारा
जरा भी नहीं।
जिस दिन मन
समाप्त हो
जाएगा, उस
दिन तुम असंग
हो जाओगे। मन
ही दूसरों से
तुम्हें जोड़े
हुए है। और जब
तक मन तुम्हें
संसार से जोड़े
हुये है, तब
तक तुम परमात्मा
से टूटे रहोगे।
जिस दिन तुम
संसार से टूट
जाओगे, मन
खो जाएगा—उसी
दिन तुम
परमात्मा से
जुड़ जाओगे।
इधर हुए असंग,
वहां हुआ
संग। यहां
टूटा नाता, वहां जुड़ा
नाता। यहां से
हुई आंख बंद, वहां खुली।
ध्यान
बीज है और
ध्यान का अर्थ
है :
निर्विचार
चैतन्य।
दूसरा
सूत्र :
आसनस्थ व्यक्ति
सहज ही चिदात्म
सरोवर में
निमज्जित हो
जाता है। यह
सूत्र बड़ा
क्रांतिकारी
है; सरल
भी, कठिन
भी। आसनस्थ
हुआ व्यक्ति
चिदात्म
सरोवर में
निमज्जित हो
जाता है, डूब
जाता है।
जापान
में झेन
फकीरों की
परम्परा है।
उनसे तुम पूछो
कि ध्यान के
लिए क्या करें
तो वे कहते हैं
कि कुछ न करो, बस बैठ
जाओ। ध्यान
रखना, जब
वे कहते हैं
कि कुछ न करो
तो इसका मतलब
है : कुछ भी न
करना, बस
बैठ जाना। बस
इतना ही करना
कि बैठ गये और
कुछ भी मत
करना; क्योंकि
तुमने कुछ
किया कि मन
आया। बात सरल
लगती है, पर
बड़ी कठिन है।
यही तो मुसीबत
है कि बैठना मुश्किल
है। आंख बंद
की, काम
शुरू हुआ, दौड़
शुरू हुई।
शरीर बैठा हुआ
दिखायी पड़ता
है; मन जाग
रहा है।
अगर
तुम सिर्फ बैठ
जाओ और कुछ भी
न करो, तो
ध्यान...। अगर
तुम आसनस्थ हो
जाओ, जस्ट
सिटिंग, बस
बैठे हैं, न
राम—नाम का जप
चल रहा है, न
कृष्ण की सूइत
चल रही है, कुछ
भी नहीं कर रह
हैं, न कोई
विचार की तरंग
है, क्योंकि
वह भी कृत्य
है। अगर तुम
कुछ भी न करो, विचार को
रोकने की
कोशिश भी नहीं
चल रही हो; क्योंकि
वह भी कृत्य
है, वह भी
दूसरा विचार
है। न तुम
परमात्मा का
स्मरण कर रहे
हो, न
संसार का; क्योंकि
वे सब विचार
हैं। न तुम
भीतर दोहरा
रहे हो कि 'मैं
आत्मा हूं, 'अहं
ब्रह्मास्मि',
'मैं ब्रह्म
हूं, —यह सब
बकवास है।
इसके दोहराने
से कुछ भी न
होगा, ये
सब विचार हैं—तुम
कुछ भी न कर
रहे होओ, बस
तुम बैठ गये, जैसे तुम एक
चट्टान हो, जिसके भीतर
कुछ भी नहीं
हो रहा, बाहर
कुछ भी नहीं
हो रहा—इस दशा
का नाम आसनस्थ
है। जापान में
इस अवस्था को
झाझेन कहते है—बस,
सिर्फ बैठ
जाना। और, झेन
फकीर इस विधि
का उपयोग करते
हैं। कभी—कभी
बीस साल लग
जाते हैं, तीस
साल लग जाते
हैं, तब
कहीं आदमी इस
अवस्था में
पहुंच पाता है
कि सिर्फ बैठा
हुआ है।
सरल
दिखता है, सूत्र
बड़ा कठिन है।
इस दुनिया में
सरलतम चीजें
ही सर्वाधिक
कठिन होती हैं।
तुमसे कोई करने
को कहे तो तुम
हिमालय चढ जाओ।
उसमें इतनी
अड़चन नहीं है।
पसीना आएगा, थकान होगी।
मगर चढ़ जाओगे।
तुमसे कोई कहे
कि न करो, तो
बस मुसीबत आ गयी;
हालांकि वह
सिर्फ तुमसे
इतना ही कह
रहा है कि तुम
बैठो, कुछ
मत करो।
अगर
तुम चुपचाप
बैठे रहो, क्या
होगा? पहले
तो जैसे ही
तुम बैठोगे, तुम पाओगे, शरीर में
अनेक स्थानों
मे गति शुरु
होती है। कहीं
पैर में लगता
है कि क्या
चुभ रही है।
कहीं शरीर के
किसी कोने में
लगता है कि
खुजलाहट आ रही
है। कहीं लगता
है कि कमर में
दर्द हो रहा
है। कहीं लगता
है कि गर्दन
में पीड़ा हो
रही है। और एक
क्षण पहले तक
यह कुछ भी न हो
रहा था, तुम
बिलकुल ठीक थे।
अचानक सब तरफ
से शरीर बगावत
कर रहा है। वह
कह रहा है कि
कुछ करो; न
कुछ बने तो
खुजलाओ, लेकिन
कुछ करो। कुछ
नहीं तो शरीर
की करवट बदल
लो। पैर ऐसे
रखे हैं, ऐसे
रख लो। लेट
जाओ। कुछ करो।
क्योंकि
जीवन इस संसार
में कृत्य के
बल से टिका है।
जैसे ही तुम
कृत्य से
शून्य हुए कि
यह संसार खोया।
जैसे ही तुम
शांत बैठना
चाहते हो, शरीर
कहता है कि
कुछ करो।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, 'वैसे
हमें कभी पता
नहीं चलता कि
कहां दर्द है,
कहां क्या
है; लेकिन
जब भी ध्यान
करने बैठते है,
बस तभी
मुसीबत शुरू
होती है।
खांसी आयेगी,
ऐसे बिलकुल
तुम ठीक बैठे
हो, कभी
खांसी न आयी
थी। बस बैठे
तुम खाली कि
शरीर कृत्य
शुरू करता है।
इस पर ध्यान
रखना। शरीर की
बात को मत
सुनना। मालिक
तुम हो और अगर
तुमने न सुना,
शरीर थोड़े
दिनों में चुप
हो जाएगा; क्योंकि
यह कितनी देर
तक चिल्लाका।
तुम ध्यान
देते हो, तुम
पोषण देते हो;
तुम कह देना
कि कुछ भी हो, इस एक घंटे
में मैं कुछ
करनेवाला
नहीं।
खुजलाहट ही
चलेगी न, क्या
बिगड़ जाएगा?
कभी
तुमने यह खयाल
किया कि अगर
तुम दो—चार
मिनट हिम्मत
जुटा लो तो
खुजलाहट अपने—आप
चली जाती है।
और खुजलाने से
कभी कोई
खुजलाहट गयी
है? बढ़ती
है! अगर तुमने
पका ही खयाल
कर लिया कि
शरीर गुलाम है
और मेरी आज्ञा
मानेगा, मैं
नहीं मानता, तुम अचानक
पाओगे कि गला
ठीक हो गया, खांसी खो
गयी। तुम्हें
थोड़े दिन
मालकियत
घोषणा करनी
पड़ेगी।
क्योंकि इस
गुलाम को
तुमने बहुत
दिन तक मालिक
बनाया है, इसलिए
उसकी मालकियत
छिनती है तो
वह बाधा डालता
है। वह
तुम्हें
बुलाता है कि
यह नहीं चलने
देंगे; सिंहासन
पर मैं हूं!
एक
घंटे अगर
तुमने खाली
बैठने का तय
किया है तो का
हर्जा हो
जाएगा? पैर खुजलाता
है, खुजलाने
दो। कोई प्राण
नहीं निकले
जाते हैं, खुजलाहट
ही चल रही है
और तुम थोड़ी
देर में ही पाओगे
कि जैसे ही
तुमने संयम
रखा, वैसे
ही पैर जिद्द
छोड़ देगा। वह
जिद्द तो
सिर्फ तरकीब
थी, तुम्हें
झुकाने के लिए
थी। तुम सुनते
तो दूसरी जगह
खुजलाहट चलती;
तुम नहीं
सुनोगे, जहां
खुजलाहट चलती
थी, वहां
शांत हो जाएगी।
खाली घर हो तो
भिखमंगा थोड़ी
देर चिल्लाकर
चला जाता है।
लेकिन अगर
तुमने इतना भी
कहा कि दूसरे
घर जा, यहां
कोई नहीं है, तो फिर वह
खड़ा रहता है।
तुमने
प्रतिक्रिया
की, तुमने
प्रत्युत्तर
दिया, फिर
वह कुछ—न—कुछ
कहेगा।
एक
भिखमंगा मण
रहा था
मारवाड़ी के
द्वार पर—गलत
जगह पहुंच गया।
उसने कहा, ' दो रोटी
मिल जाएं।’ मारवाड़ी ने
कहा, 'रोटी!
यहां कोई रोटी—वोटी
नहीं है। आगे
जा!' तो
उसने कहा, 'दो
पैसे मिल जाएं।’
मारवाडी ने
कहा, 'यहां
कोई पैसे
वगैरह नहीं
हैं। यहां हम
कुछ लेते—देते
नहीं।’ तो
उसने कहा, 'कुछ
भी मिल जाए।
कपडे का टुकड़ा
ही मिल जाए।’ मारवाडी ने
कहा, 'कहा
नहीं कि यहां
कुछ भी नहीं
है?' तो
उसने कहा, 'फिर
तुम हमारे साथ
क्यों नहीं आ
जाते? यहां
बैठे—बैठे
क्या कर रहे
हो? न कपड़ा
है, न रोटी
है, न पैसे
हैं तो हम साथ—ही—साथ
मांगेंगे।’
तुमने
उत्तर दिया कि
तुम फंसे।
तुमने उत्तर
दिया, उसका
मतलब है, तुम
हो और तुम
राजी हो। कम—से—कम
प्रतिक्रिया
ऊर रहे हो, यह
पर्याप्त है।
शरीर में
खुजलाहट उठे,
तुम देखते
रहना, कोई
उत्तर मत देना।
तुम थोड़ी देर
में हैरान
होओगे कि
खुजलाहट गयी।
दर्द उठे, देखते
रहना; दर्द
भी चला जाएगा।
कोई छह महीने
लगते हैं शरीर
को आसनस्थ
करने में। कोई
भी आसन चुन
लेना, जो
सुख—आसन हो, जिसमें तुम
देर तक बैठ
सकी। कोई उलटा—सीधा
आसन मत चुन
लेना, जिसकी
वजह से अकारण
अड़चन हो, इसलिए
सुखासन। आराम
से बैठ सको।
कोई शरीर को
कष्ट नहीं
देना है जानकर;
कि कंकड़—पत्थर
रखकर उस पर
बैठ जाना; कि
कांटे बिछा
लेगा। शरीर
वैसे ही काफी
तकलीफ देगा, और नयी
तकलीफ जुटाने
की कोई जरूरत
नहीं है।
सुखासन
से बैठ जाना।
लेकिन बैठ गये
और एक घंटा
बैठने का तय
किया तो फिर
एक घंटा शरीर
की मत सुनना।
तुम चकित
होओगे, थोड़े ही दिन
में—तीन
सप्ताह के
भीतर, तुम
चकित होओगे—आर
तुमने हिम्मत
रखी और तुम न
झुके, शरीर
आवाज देना बंद
कर देगा। और
जब शरीर आवाज
देना बंद कर
दे, तब तुम
मन की तरफ
ध्यान देना।
मन की तरफ
ध्यान ही मत
देना। अभी मन
के साथ उलझना
ठीक नहीं है।
पहले शरीर को
साथ हो जाने
देना। जिस दिन
पाओ कि अब
शरीर कोई
उपद्रव खड़ा
नहीं करता, वह बैठने को
राजी हो गया
है आधी यात्रा
पूरी हो गयी; आधी से भी
ज्यादा पूरी
हो गयी।
क्योंकि मन भी
शरीर का ही
हिस्सा है।
अगर पूरा शरीर
बैठने को राजी
हो गया तो अब
यह हिस्सा
ज्यादा देर
बगावत नहीं कर
सकता। यह सबसे
ज्यादा
बगावती है; लेकिन फिर
भी शरीर का ही
हिस्सा है। और
जब पूरा शरीर
आसन में आ गया
तो यह ज्यादा
देर यहां वहां
नहीं भटक
पाएगा। यह भी
बैठ जाएगा।
शरीर
को आसनस्थ कर
लेने का अर्थ
है कि शरीर का सब
उपद्रव शांत
हो गया। अब
तुम ऐसे बैठते
हो जैसे
अशरीरी हो; जैसे
शरीर है ही
नहीं, शरीर
का पता ही
नहीं चलता; बस तुम बैठे
हो। अब तुम मन
पर ध्यान देना।
और, मन की
भी प्रक्रिया
वही है कि मन
कुछ भी कहे, सुनना मत।
कोई
प्रतिक्रिया
मत करना। मन
में विचार चले
तो वैसे देखना
जैसे तुम तटस्थ
हो; जैसे
तुम्हारा कोई
लेना—देना
नहीं है; जैसे
ये विचार किसी
और के मन में
चल रह हैं, बहुत
दूर हैं तुमसे;
जैसे
रास्ते पर
शोरगुल चल रहा
है या जैसे
आकाश में बादल
चल रहे हैं, कुछ
तुम्हारा लेना—देना
नहीं।
उपेक्षा से
तुम देखते
रहना।
पहले
शरीर को शांत
हो जाने देना, फिर धीरे—
धीरे, शरीर
कोई तीन
सप्ताह लेगा;
मन कोई
अन्दाजन तीन
महीने लेगा।
कम—ज्यादा हो
सकता है। कैसी
प्रगाढ़ता है
तुम्हारी, उस
पर निर्भर
होगा। लेकिन
करीब छह महीने
के भीतर तुम
पाओगे कि आसनस्थ
दशा आ गयी। अब
न शरीर कोई
क्रिया करता
है, न मन
कोई क्रिया
करता है।
मन से
लड़ना मत।
दबाने की
कोशिश मत करना
कि नहीं, विचार मत
करो; क्योंकि
ध्यान रखना यह
भी विचार है, इतना विचार
भी तुमने अगर
सहारा दिया तो
मन जारी रहेगा।
मन न मालूम
कितने उपद्रव
खड़े करेगा।
तुम लड़ना भी
मत; क्योंकि
लड़ने का मतलब
है कि तुम
राजी हो गये प्रतिक्रिया
करने को, तुम
उपेक्षा न कर
पाए। उपेक्षा
सूत्र है। तुम
देखते रहना।
तुम कुछ कहना
ही मत।
मुश्किल होगी,
क्योंकि
पुरानी आदतें
हैं। सदा की आदतें
हैं—उसके साथ
प्रतिक्रिया
करने की, बातचीत
करने की, उत्तर
देने की। धीरे—
धीरे, तुम
सिर्फ देखते,
देखते
देखते उस बड़ी
में आ जाओगे, जब तुम
सिर्फ बैठे हो,
कुछ भी नहीं
हो रहा है। न
शरीर में कोई
गति है, न
मन में कोई
गति है। जिस
दिन शरीर और
मन दोनों की
गति शांत हो
जाए, उस
अवस्था का नाम
आसनस्थ है।
आसन का
अर्थ कोई बड़े
योगासन साधने
का नहीं है।
लेकिन अगर तुम
योगासन करते
हो तो तुम्हें
सहायता
मिलेगी; क्योंकि
बैठने में, उतनी देर तक
बैठने की
क्षमता बढ़ेगी।
लेकिन कोई
जरूरत नहीं है,
कोई
अनिवार्यता
नहीं है। तुम
अगर सिर्फ
बैठना ही शुरू
कर दो और
सिर्फ बैठना
ही सीख जाओ तो
परम आसन वही
है। कोई जरूरत
नहीं कि तुम
जमीन पर ही
बैठो; तुम
कुर्सी पर बैठ
सकते हो। एक
ही बात ध्यान
रखना कि जिस
अवस्था में
बैठो, बस
फिर उसी
अवस्था में ही
बैठे रहना।
सुख से
बैठ जाओ ताकि
शरीर को यह भी
कहने को न बचे
कि तुम नाहक
मुझे दुख दे
रहे हो। सुख
से बैठ जाओ।
सब तरफ से
व्यवस्था कर
लो सुख की।
ठंड है तो
कंबल डाल लो।
गरमी है तो
पंखा लगा दो।
सब सुख की
व्यवस्था कर
लो। शरीर को
अकारण कष्ट
देने में रस
मत लेना; क्योंकि वह
दुष्टता है।
वह चाहे तुम
अपने शरीर को
सताओ या दूसरे
के शरीर को
सताओ, वह
दोनों हिंसा
है। और, हिंसा
से कभी कोई
परमात्मा तक
नहीं पहुंचता।
यह शरीर भी
उसी का है।
इसे भी कष्ट
देने की कोई
जरूरत नहीं है।
सब तरह से सुख
की व्यवस्था
कर लेना। फिर
लेकिन एक बार
बैठ गये, फिर
शरीर कुछ भी
कहे तो मत
सुनना; फिर
बैठे रहना। और
मन के साथ
उपेक्षा करना।
पहले मन बड़ा
ऊहापोह
मचाएगा, बड़ा
शोरगुल
मचाएगा, जैसा
उसने कभी नहीं
मचाया था।
लोग
मेरे पास आते
है। वे कहते
है कि जब
ध्यान नहीं
करते थे तब
ऐसी मन में
अशांति कभी न
थी, अब
और बढ़ गयी; अब
तो बड़ा तुमुल
नाद चलता है।
तुमुल नाद
पहले भी चलता
था, तुम्हें
पता नहीं था, क्योंकि
तुमने कभी
ध्यान नहीं
दिया था। तुम
उलझे थे बाहर,
भीतर
अराजकता यही
थी; क्योंकि
तुम्हारे
शांत बैठने से
अराजकता के बढ़ने
का कोई भी
संबंध नहीं है।
वह घट सकती है;
बढ़ेगी कैसे?
लेकिन तुम
इतने उलझे थे
बाहर, सारा
ध्यान
बहिर्मुखी था—बाजार,
दुकान, धन
वहां चल रहा
था—तुम्हें
मौका नहीं
मिला भीतर
देखने का कि
वहा क्या उपद्रव
चल रहा है। अब
तुमने बाहर से
आंख बंद की तो
सारा ध्यान, सारा फोकस, सारा प्रकाश
भीतर पड रहा
है। इस भीतर
प्रकाश पड़ने
पर पहली दफा
तुम्हें पता
चलता है कि
भीतर कैसी
अराजकता मची
है।
मगर
उपेक्षा! एक
ही ध्यान रखना
कि मन से सब
अपेक्षा छोड़
दो। अपेक्षा
रखी तो
उपेक्षा न कर
सकोगे।
अपेक्षा छोड़
दो, कोई
आशा मत रखो और
उपेक्षा में
बैठ जाओ, तटस्थ
हो जाओ। कितना
ही कठिन हो, सरल हो
जाएगा, अगर
तुम बैठते ही
रहे। आज न
होगा, कल
होगा, परसों
होगा—तुम इसकी
चिंता मत करना
कि कब होगा; क्योंकि तुम
जितनी जल्दी
करोगे, उतनी
देर हो जाएगी।
जल्दी मन का
स्वभाव है।
अगर तुमने
जल्दी की तो
मन तुम्हें
हरा देगा। अगर
तुमने धैर्य
रखा और
प्रतीक्षा
करने को राजी
रहे कि कोई
जल्दी नहीं—कभी
होगा, इसकी
हमें फिक्र
नहीं, हम
बैठते रहेंगे—तुम
पाओगे कि छह
महीने के करीब
मन भी शांत हो
गया।
आसनस्थ
दशा का अर्थ
है, शरीर
में कोई
क्रिया नहीं,
मन में कोई
विचार नहीं।
और शिव का यह
सूत्र बड़ा
क्रांतिकारी
है। यह कहता
है कि तुम
आसनस्थ हुए कि
सहज ही चिदात्म
सरोवर में
निमज्जित हो
जाते हो। वह
सरोवर भीतर है।
जब
शरीर पर सब
गति बंद होती
है, जो
ऊर्जा बाहर
नहीं जा सकती।
जब मन की सारी
गति बंद होती
है तो ऊर्जा
के बाहर जाने
के सारे छिद्र
बंद हो गये; तुम्हारी
बालटी पहली
दफा अछिद्र
हुई—सब छिद्र
बंद हो गए; बाहर
जानेवाला कोई
भी न बचा। अब सारी
जीवन—ऊर्जा
भीतर जाती है।
और भीतर
महासरोवर है।
इस भीतर गिरती
ऊर्जा का उस
महा सरोवर से
मिलन हो जाता
है। तुम, तुम्हारी
बूंद, भीतर
के सागर में
डूबने लगती है।
चिदात्म
सरोवर में सहज
ही निमज्जन हो
जाता है—वही
परमात्मा है।
बाहर
जाते हुए, तुम भटके
हो; भीतर जाते
हुए मंजिल
उपलब्ध हो
जाएगी। तुम
उसे बाहर खोज
रहे हो, जो
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
तुम उसी को
खोज रहे हो जो
तुम हो; इसलिए
खोज नहीं पा
रहे हो। तुम
जिसकी तलाश कर
रहे हो, वह
सदा से
तुम्हारे
भीतर मौजूद है।
यही तो कठिनाई
है। यही
जटिलता है। और,
वहां तुम
देखते नहीं; और जहां तुम
देखते हो, वहां
वह है नहीं।
इसलिए तुम
भटकते जाते हो,
भटकते जाते
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन अपने घर
के बाहर, सांझ दीया
जलाकर कुछ खोज
रहा था। दूसरे
लोग भी आ गये।
उन्होंने कहा,
'क्या खोजते
है?' उसने
कहा कि मेरी
सुई खो गयी है।
वे भी साथ
देने लगे। फिर
थोड़ी देर बाद
उनमें से एक
ने पूछा कि 'रास्ता बहुत
बड़ा है; सुई
खोयी कहां है?
क्योंकि
सुई छोटी—सी
चीज है...।’नसरुद्दीन
ने कहा, 'वह
पूछो ही मत।
वह घाव छूओ ही
मत।’ वे सब
चौक गये।
उन्होंने कहा,
'तुम्हारा
मतलब?' नसरुद्दीन
ने कहा, 'सुई
तो घर के भीतर
खोयी है; लेकिन
वहां, प्रकाश
नहीं है।
अंधेरा है, भयंकर
अंधेरा है और
वहां जाने से
मैं डरता भी हूं।
रात तो मैं
बाहर ही
गुजारता हूं।
दिन में कभी—कभी
चला भी जाऊं, रात तो भीतर
कभी नहीं जाता।
अब रात हो गयी
तो अब मैं
बाहर खोज रहा
हूं।’
लोगों
ने कहा, 'तू पागल है, नसरुद्दीन!
जो चीज भीतर
खोयी है, वह
बाहर तू कैसे
खोजेगा?' नसरुद्दीन
खिलखिलाकर
हंसने लगा और
उसने कहा कि
सभी यही कर
रहे हैं, जो
मैं कर रहा
हूं। जो चीज
भीतर खोयी है,
उसे लोग
बाहर खोज रहे
है। और उनमें
से कोई भी
पागल नहीं, बस मै ही
पागल हूं।
क्या
खोज रहे हो
तुम? खोज
तो जरूर रहे
हो। क्या खोज
रहे हो? अगर
तुम्हारी
सारी खोज का
सार—निचोड़
निकाला जाए तो
तुम आनंद खोज
रहे हो। कोई
धन खोज रहा
होगा; लेकिन
उससे भी आनंद
खोज रहा है।
कोई प्रेम खोज
रहा होगा; लेकिन
उससे भी आनंद
खोज रहा है।
कोई यश, कीर्ति
खोज रहा होगा;
लेकिन उससे
आनंद ही खोज
रहा है।
तुम्हारी खोज
के नाम कितने
ही अलग—अलग
हों, भीतर
छिपा हुआ एक
ही सूत्र है—वह
आनंद है। तुम
भीतर छिपे हुए
आनंद को खोज
रहे हो।
शराबघर जाता
हुआ आदमी भी
और मंदिर जाता
हुआ आदमी भी, दोनों की
खोज एक है—दोनों
आनंद खोज रहे
है। पुण्य
करता हुआ आदमी,
और पाप करता
हुआ आदमी
दोनों की खोज
एक है—दोनों
आनंद खोज रहे
है। बुरा और
भला, दोनों
एक ही चीज की
खोज में लगे
हैं। पर तुमने
कभी पूछा, तुमने
आनंद को खोया
कहां है? जहां
खोया है, वहीं
खोजो। खोज रहे
हो वहां, जहां
तुमने खोया
नहीं है। बाहर
तो तुमने
निश्रित ही
नहीं खोया है।
कहीं भीतर ही
कोई स्वाद था,
और वह स्वाद
भी तुम्हें
पता है?
मनोवैज्ञानिक
एक बहुत
महत्वपूर्ण
बात कहते है
और वह यह है कि
बच्चा अपनी
मां के गर्भ
में परम आनंद
की अवस्था में
होता है। होना
भी चाहिए, क्योंकि
न कोई चिंता, न कोई
दायित्व, न
भोजन की फिक्र,
न सर्दी—गरमी
की फिक्र, एक—सा
टेम्प्रेचर
मां के पेट
में बना रहता
है। बाहर
वर्षा हो कि
ठंड हो कि
गरमी हो, बच्चे
के लिए कोई
फर्क नहीं पड़ता।
मां के पेट
में बच्चे की
एक—सी गरमी
बनी रहती है, रत्तीभर
फर्क नहीं
पड़ता। कोई
मौसम की बदलाहट
से कोई तकलीफ
नहीं आती। मां
पसीने से तरबतर
हो रही हो, लेकिन
बच्चे के लिए
कोई गरमी नहीं
है, कोई
ठंड नहीं है, कोई वर्षा
नहीं है। मां
भूखी हो तो भी
बच्चा कभी
भूखा नहीं
होता। मां पर
क्या गुजर रही
है, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। बच्चा
पूरा
सुरक्षित
होता है। और
बच्चा तैरता
रहता है।
तुमने
क्षीर सागर
में विष्णु को
तैरते हुए
देखा है? वह बच्चे की
दशा है—हर
बच्चे की दशा
है मां के पेट
में। क्षीर
सागर पर जैसे
विष्णु सुख
में लेटे हैं,
ऐसा हर
बच्चा लेटा
हुआ है। वह
विष्णु का
चित्र वस्तुत:
गर्भ में
बच्चे का
चित्र है।
जैसे उसकी
नाभि से फूल
खिला हुआ है, ऐसे ही
बच्चा नाभि से
अपनी मां के
साथ जुड़ा हुआ
है। वहीं से
जीवन का सारा
स्रोत है। और,
सागर में
जैसा जल है, ठीक वैसा ही
जल मां के पेट
में होता है।
ठीक उसी
अनुपात में
नमक होता है
मां के पेट में
जिस अनुपात
में सागर में
होता है।
इसलिए मां को
एव बच्चा होता
है, तब वह
नमकीन चीजें
खाने को बहुत
उत्सुक हो
जाती है, क्योंकि
शरीर का सारा
नमक पेट खींच
लेता है।
इसलिए मिट्टी
तक खाने लगती
है, अगर
उसमें जरा भी
नमक का स्वाद
आ रहा हो।
उसके सारे
शरीर का नमक
गर्भ में चला
गया।
ठीक
वही अनुपात
होता है, वैज्ञानिक
कहते हैं, जो
सागर में नमक
का है, वही
अनुपात मां के
पेट में जल का
होता है। और
उस जल में
बच्चा तैरता
रहता है—ताप
स्व—सुख से
तैरता रहता है।
कोई चिंता
नहीं, कोई
दायित्व नहीं,
रोने की
जरूरत नहीं है।
भूख लगी है, इसके पहले
भोजन मिल जाता
है। श्वास भी
बच्चा खुद
नहीं लेता, वह भी मां की
श्वास से ही धड़कता
है। बच्चा
जुड़ा है, अभी
अलग नहीं है।
अभी बच्चे को
अहंकार भी
नहीं है कि
मैं हूं। अभी
इतना भी पता
नहीं है। वैसे
वह अभी है, लेकिन
अस्तित्व में
निमज्जित है।
इन क्षणों में
वह जो आनंद
जानता है, उसी
की खोज जीवनभर
चलती है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जीवन की खोज
वस्तुत: गर्भ
की खोज है।
फिर हम लाख
उपाय करते हैं।
अगर तुम गौर
करो तो वे
उपाय वही है।
अच्छा बिस्तर
चाहते हो तुम
सोने के लिए।
वह तभी अच्छा
होता है, जब करीब—करीब
उसका तापमान
वही होता है
जो मां के
गर्भ का। तुम
जब बिस्तर पर
सोते हो तुम
करीब—करीब
वैसे ही
सिकुड़कर सो
जाते हो, जैसे
मां के पेट
में बच्चा। जो
भी अच्छे
सोनेवाले है,
वे करीब—करीब
बच्चे की तरह
सिकुङ्कर
सोते हैं—फिर
से वे पुन:
बच्चे हो गये।
तुम्हारी
सारी चेष्टा
यही है कि कोई
दायित्व न रह
जाए, कोई
चिंता न रहे।
इसलिए तुम धन
को खोजते हो
कि धन होगा
पास में तो कोई
चिंता न होगी,
कल की फिक्र
न होगी। तुम
मित्र खोजते
हो चारों तरफ,
प्रेम
खोजते हो ताकि
उन सब का गर्भ
बन जाए और तुम
उन सबके बीच
में सुरक्षित
हो जाओ। अकेले
में तुम्हें
डर लगता है, क्योंकि
चारों तरफ
अनजान—अपरिचित
शत्रु हैं।
मित्रों के
बीच तुम्हें
अच्छा लगता है।
अपना एक तुम
घर बना लेते
हो। घर में एक दुनिया
बना लेते हो।
अगर उसको बहुत
गौर—से देखो
तो वह तुमने
फिर से गर्भ
निर्मित कर लिया,
जिसमें
अपने चारों
तरफ दीवाल बना
रहे हो। तुम
उसके भीतर
सुरक्षित हो।
बच्चा
आनंद की कोई
अनुभूति बचपन
में ले लेता है
मां के पेट
में—हर बच्चा!
और फिर जीवनभर
उसी को खोजता
है। इसलिए जब
भी तुम्हें
फिर कभी वैसा
क्षण मिल जाता
है, थोड़ी—सी
भी झलक मिल
जाती है, तब
तुम खुश होते
हो। तुम्हारी
सब खुशियां
उसी की झलक
हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
मोक्ष की खोज
वस्तुत: गर्भ
की खोज है।
जिस दिन यह
सारा अस्तित्व
तुम्हारे लिए
गर्भ जैसा हो
जाएगा; तुम
उसमें फिर
निमज्जित हो
जाओगे; तुम्हारा
अहंकार विलीन
हो जाएगा; न
तुम्हारी कोई
चिंता होगी, न कोई फिक्र
होगी, तब
तुम पुन: आनंद
को उपलब्ध
होओगे। वह
आनंद
तुम्हारे
भीतर ही है और
तुमने उसे खो दिया
है। बाहर तुम
खोज रहे हो, इसलिए वह
मिल नहीं पाता।
आसनस्थ
अवस्था में, ध्यान की
अवस्था में, तुम्हारा
शरीर ही
तुम्हारे लिए
गर्भ बन जाता है।
आसनस्थ
अवस्था में जब
सब क्रिया
शांत हो जाती
है, सब
विचार खो जाते
हैं तो
तुम्हारा
शरीर और मन दोनों
परिधि बन जाते
हैं। उनके बीच
तुम पुन: गर्भ
में प्रविष्ट
हो गये। इसलिए
हम ध्यानी
व्यक्ति को
द्विज कहते
हैं, उसका
फिर से जन्म
हुआ। उसका नया
जन्म हुआ। वह
अपने गर्भ से
गुजरा। एक
जन्म है जो
मां और पिता
से मिलता है; एक जन्म है
जो तुम्हें
स्वयं अपने को
देना होगा।
वही जन्म
द्विज
बनायेगा।
आसनस्थ
अर्थात स्व—स्थित
व्यक्ति सहज
ही चिदात्म
सरोवर में निमज्जित
हो जाता है।
और फिर चेतना
का सागर है।
जब शरीर के
सागर में इतना
रस है तो
चेतना के सागर
में कितना रस
होगा! तुम
उसका गणित भी
नहीं बिठा
सकते। वह अनंत—अनंत
गुणा है। उसकी
कोई सीमा नहीं
है। तुमने मां
के शरीर में
जो रस थोड़ा—सा
जाना था गर्भ
का, वह
तो शरीर में
निमज्जित
होने का था।
जिस दिन तुम
आत्मा में
निमज्जित
होओगे, उस
दिन तुम जो रस
जानोगे, वही
आनंद है। वही
परम रस है।
उसे हिंदुओं
ने ब्रह्म कहा
है। उस जैसा
कोई स्वाद
नहीं। वह
सच्चिदानंद
है।
'और
आत्म—निर्माण
अर्थात, द्विजत्व
को प्राप्त
करता है, जैसे
ही निमज्जित
हुआ भीतर के
सागर में, वैसे
ही द्विज हो
जाता है और
पहली दफा
आत्मा का जन्म
होता है। अभी
तुम्हारी
आत्मा बीज में
छिपी है—मौजूद
है और मौजूद
नहीं है, मौजूद
भी है और नहीं
भी। मौजूद है
बीज की तरह, वृक्ष की
तरह नहीं। अभी
तुम सिर्फ
संभावना हो—होने
की एक आशा हो।
अभी तुम हो
नहीं गये हो।
यही तुम्हारी
तकलीफ है। यही
तुम्हारी
पीड़ा है। इसी
से तुम कैप
रहे हो, परेशान
हो।
यह
सारी पीड़ा अगर
ठीक से समझो
तो जन्म की
पीड़ा है। जब
तक तुम्हारा
दूसरा जन्म न
हो जाए, यह पीड़ा
जारी रहेगी।
और जिसका
दूसरा जन्म हो
गया, उसका
पहला जन्म बंद
हो जाता है; क्योंकि
उसकी कोई
जरूरत न रही।
अन्यथा तुम
फिर—फिर
जन्मोगे, शरीर
में फिर—फिर
वापस आओगे।
अगर तुम द्विज
हो गये तो फिर
तुम्हारे आने
की कोई जरूरत
नहीं है।
हम
ब्राह्मण को
द्विज कहते
हैं। अच्छा हो
कि हम द्विज
को ब्राह्मण
कहें; क्योंकि
सभी ब्राह्मण
द्विज नहीं
हैं, लेकिन
सभी द्विज
ब्राह्मण है।
ब्राह्मण के
घर में पैदा
होने से कोई
ब्राह्मण
नहीं होता; जब तक
ब्रह्म से
पैदा न हो तब
तक कोई
ब्राह्मण नहीं
होता; जब
तक निमज्जित न
हो जाए ब्रह्म
में, तब तक
कोई ब्राह्मण
नहीं होता।
हिंदुओं
का एक बहुत
अनूठा
सिद्धांत है।
वे कहते हैं
कि पैदा तो
सभी शूद्र
होते हैं, उनमें से
कुछ
ब्राह्मणत्व
को उपलब्ध हो
जाते हैं।
पैदा सभी
शूद्र होते
हैं, चाहे
कोई ब्राह्मण
के घर में
पैदा हो, चाहे
शूद्र के।
जन्म से सभी
शूद्र होते
हैं। इसलिए
ब्राह्मण के
बच्चों को हम
यज्ञोपवीत
करते हैं; वह
सिर्फ
औपचारिक है।
वह इस बात की
खबर है कि अब
तू शूद्र न
रहा, अब तू
ब्राह्मण हुआ।
पैदा तो तू
शूद्र ही हुआ
था, अब
तेरे गले में
हमने जनेऊ डाल
दिया, अब
तू ब्राह्मण
हुआ। इतना
सस्ता नहीं है
ब्राह्मण
होना कि गले
में आपने एक
धागा डाल दिया
और कोई
ब्राह्मण हो
गया।
ब्राह्मण
होना इस जगत
में सबसे कठिन
प्रक्रिया है;
वह आत्म—निमज्जन
से घटित होती
है।
स्वयं
को जन्म जो दे
देता है, वह द्विज है,
वह ट्वाइस —बार्न
है, उसका
पुनर्जन्म
हुआ। और अब
स्वयं ही अपना
पिता है और
स्वयं ही अपनी
माता है; अब
दूसरे से पैदा
नहीं हुआ। अब
संसार से उसका
संबंध टूट गया।
अब ब्रह्म से
उसका संबंध
जुड़ गया।
यह
सूत्र कहता
है. ध्यान बीज
है। आसनस्थ जो
हुआ, ध्यानस्थ
जो हुआ, वह
आत्म—निमज्जित
हो जाता है।
इस निमज्जन से
आत्मा का जन्म
होता है, द्विजत्व
को प्राप्त
करता है।
सस्ती
बातों में मत
पड़ना।
यज्ञोपवीत को
पकड़कर मत
बैठे रहना।
काश, इतना
सस्ता और आसान
होता
ब्राह्मण हो
जाना! लेकिन
हम हमेशा
सस्ती
तरकीबें
निकाल लेते
हैं और मन को
समझाने की
कोशिश करते
हैं। कब तक
समझाओगे मन को?
समझाने से
सत्य नहीं
मिलेगा। सब
झूठी आशाएं
छोड़ो। सब जनेऊ,
यज्ञोपवीत
तोड़ो। इनसे
कुछ भी न होगा।
असली जन्म
चाहिए। असली
जन्म पैदा
होगा जब तुम
स्वयं अपने
लिए गर्भ बन
जाओ। आसनस्थ
शरीर और
ध्यानस्थ मन
गर्भ—निर्माण
करता है।
जीसस
से निकोडैमस
ने पूछा कि कब
मैं तुम्हारे प्रभु
के राज्य को
उपलब्ध होऊंगा, तो जीसस
ने कहा कि जब
तुम मरो और
फिर से जन्मों।
तुम जैसे हो, ऐसे तो मिट
जाओ और तुम
जैसे हो सकते
हो, वैसे
फिर से पैदा
हो जाओ, तभी
तुम मेरे
प्रभु के
राज्यमें
प्रवेश कर सकोगे।
बिलकुल साफ है—बीज
की भांति मिट
जाओ और वृक्ष
की भांति हो
जाओ।
जैसे
तुम अभी हो—सिर्फ
एक सपना और एक
आशा; एक
संभावना कि
कभी परमात्मा
तुम में फलित
हो सकता है, लेकिन हुआ
नहीं है—इस
संभावना को
दबा दो, बीज
की तरह जमीन
में गडा दो।
डर क्या है? डर यही है कि
बीज को डर
लगता है कि
मैं मिट जाऊंगा,
और, बीज
की तकलीफ समझ
में आती है।
उसे कोई भी
पता नहीं कि
वृक्ष होगा कि
नहीं होगा। और
बीज कभी वृक्ष
को देख भी न
पायेगा; क्योंकि
जब वह मिट
जाएगा, तभी
वृक्ष होगा।
बीज का कभी
मिलन भी नहीं
होगा वृक्ष से,
कभी हुआ भी
नहीं। तो बीज
कैसे पका
भरोसा करे कि
मैं मिटूगा तो
विराट का जन्म
होगा। बीज को
तो यही दिखायी
पड़ता है कि जो
भी मैं हूं यह
भी खो जाएगा।
क्या पका कि
विराट होगा कि
नहीं! यही
तुम्हारी भी
पीड़ा है।
बुद्धों, महावीरों,
शिवों के
पास पहुंचकर,
तुम्हारी
भी पीड़ा यही
है। तुम भी
यही पूछते हो
कि जो भी पास
में है, यह
भी कहीं खो
जाए। और जो आप
कहते हैं, वह
अगर न हो तो
फिर!
डर
स्वाभाविक है।
इसलिए सदगुरु
के पास
पहुंचकर डर
लगता है। और
जिस गुरु के
पास पहुंचकर
डर न लगे, वह दो कौड़ी
का है। वहां
से तो भाग ही
खड़े होना; क्योंकि
सदगुरु के पास
ही डर लगेगा।
वही तुम्हें
भयभीत करेगा;
क्योंकि वह
मृत्यु जैसा
मालूम पड़ेगा।
वह तुम्हें
मिटायेगा और
जैसे ही तुम
मिटने लगो कि
मन कहेगा भागो
यहां से। जहां
से मन कहे, भागो,
वहां से
भागना मत। और
जहां मन कहे
कि रुको, कैसा
प्यारा
सत्संग चल रहा
है, वहां
से भाग खड़े
होना। जहां मन
भयभीत हो, वहां
समझना कि कुछ
घटनेवाला है;
क्योंकि
बीज वहीं डरता
है, जहां
मिटने की नौबत
आती है, उसके
पहले वह नहीं
डरता है।
इसलिए
पुरोहित से
तुम्हें कोई
भय नहीं है।
मंदिर से
तुम्हें कोई
डर नहीं है।
काशी में
तुम्हें कोई
भय नहीं है, मजे से
निर्भय घूम
सकते हो।
बोधगया में
तुम्हें
मिटानेवाला
अब कोई नहीं है,
न गिरनार
में, न
शिखरजी में, न काबा में, न जेरुसेलम
में—वहां तुम
मजे से जा
सकते हो।
तुम्हारे
सब तीर्थ मर
गये हैं; मर ही जाते
हैं, क्योंकि
तीर्थों में
थोड़े ही प्राण
होते हैं, तीर्थंकरों
में प्राण
होते हैं।
तीर्थंकर खो
गया, फिर
तुम तीर्थ बना
लेते हो। वह
मरा हुआ तीर्थ
लाश है। वह
तुम्हें मिटा
नहीं सकता।
कोई मरा हुआ
गुरु तुम्हें
मिटा नहीं
सकता। इसलिए
मरे हुए
गुरुओं की मन
खूब पूजा करता
है। महावीर की
पूजा करने मे
तुम्हें बहुत
रस आता है; क्योंकि
तुम भलीभांति
जानते हो कि
पत्थर की मूर्ति
क्या बिगाड़
लेगी। आपने ही
खरीदी है; अपने
बस में है, जिस
दिन चाहे
उखाड़कर फेंक
दें।
हिंदू
बड़े होशियार
हैं। वे बना
भी लेते हैं।
इसलिए वे
मिट्टी की
बनाते हैं; क्योंकि
दो सप्ताह, तीन सप्ताह
में जाकर नदी
में समाप्त भी
कर आते हैं।
एक बात पकी है
कि हम ही
बनानेवाले और
हम ही समाप्त
करनेवाले हैं।
तुम हमारा
क्या बिगाड
लोगे? पूजा
भी करते हैं
तो हमारी मौज
है। खेल तुम
हमारे हो।
प्ले—स्त्री
से ज्यादा
तुम्हारा
मूल्य नहीं है,
है भी नहीं।
महावीर, राम, कृष्ण
जब नहीं रह
जाते, तब
उनकी पूजा
चलती है। जब
कोई व्यक्ति
जिंदा होता है,
तब तुम उससे
डरते हो।
तीर्थंकर से
भय लगता है; तीर्थ जाने
की बड़ी आशा
बनी रहती है, बड़ा आनंद
आता है। देखो
तुम! कुंभ के
मेले में
करोड़ों लोग
इकट्ठे हो
जाते हैं। कभी
महावीर और
बुद्ध और
कृष्ण के पास
करोड़ों लोग
इकट्ठे हुए? कभी नहीं।
कुंभ
तुम्हारे घर
नहीं आता, तुम
कुंभ पहुंच
जाते हो। बुद्ध
और महावीर
तुम्हारे
घरों पर भी
दस्तक देते
हैं, तब
दरवाजे बंद
पाते हैं।
उनसे डर लगता
है, क्योंकि
यह आदमी
खतरनाक है। यह
कहता है कि
बीज की तरह
मिटो ताकि
वृक्ष की तरह
हो जाओ।
इसलिए, आस्था और
श्रद्धा का
मूल्य है। अगर
तुम तर्क से
चले तो तर्क
यही कहेगा कि
पहले तुम जो
हो सकते हो, उसका पका
आश्वासन और
गारंटी कर लो।
ठीक भी कहता
है तर्क, पहले
उसकी पकी
गारंटी हो जाए
कि तुम जो हो
सकते हो, तभी
तुम उसको
छोड़ना जो तुम
हो। कहीं ऐसा
न हो, कि
हाथ की असली
चीज नकली आशा
में छूट जाए।
कहीं ऐसा न हो
तर्क सदा कहता
है कि हाथ की
आधी रोटी भी
आशा की पूरी
रोटी से बेहतर
है। कम से कम
आधी है, यह
माना; लेकिन
है तो। और तुम
इस आधी को तभी
छोड़ना जब पूरी
तुम्हें मिल
जाए। अगर तुम
तर्क की मानकर
चले... और तर्क
बिलकुल ठीक
कहता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
तैरना सीखना
चाहता था।
उसने गांव के
एक गुरु को
पकडा। उसने
कहा, 'मुझे
तैरना सिखा दो।’
तो उसने कहा,
'आओ मैं अभी
नदी पर ही जा
रहा हूं।’ लेकिन
संयोग की बात,
पैर फिसल
गया मुल्ला का
सीढ़ियों पर।
दो—चार गोते
खा गया। बाहर
निकलकर भागा।
गुरु पीछे
भागा कि कहां
जा रहे हो, सीखने
आये थे? नसरुद्दीन
ने कहा, 'पहले
तैरना सिखा दो,
फिर पानी
में पैर
रखूंगा। जब तक
तैरना न सीख
लूं तब तक
पानी में मैं
पैर रखनेवाला
नहीं हूं।’ गुरु ने कहा,
'तब बड़ी
मुश्किल है कि
बिना पैर रखे
तुम सीखोगे
कैसे?' नसरुद्दीन
ने कहा कि अब
नहीं। भूल एक
दफा हो गयी, अब इस जीवन
में दुबारा
नहीं।
तुम भी
जब तर्क करते हो, तब तर्क
यही कह रहा है
और तर्क
बिलकुल ठीक कह
रहा है। और, नसरुद्दीन
भी ठीक कह रहा
है कि अब पानी
में तभी
उतरूंगा, जब
तैरना सीख लूं;
क्योंकि यह
खतरनाक है।
गोते खा गये
और बच गये—संयोग
की बात, न
बचते..। तो अब
तैरना ठीक से
सीख लें, तब।
मैंने
देखा, एक
दिन नसरुद्दीन
रास्ते के
किनारे खड़ा है।
उसका पत्नी
कार में बैठी
है। वह पली को
कार चलाना
सिखा रहा था।
थोड़ी देर मैं
देखता रहा।
किनारे—किनारे
दौड़ता है और
कहता है, 'बाएं!
क्लिच को
दबाना जब गेयर
बदलना।’ मैंने
कहा, 'नसरुद्दीन,
बहुतों को
गाड़ी चलाते और
सिखातेदेखा, लेकिन बाहर
से किसी को भी
चलाते नहीं
देखा।’ उसने
कहा, 'गाड़ी
का तो
इंशोरेन्स है,
मेरा नहीं
है। इसलिए मैं
भीतर
जानेवाला
नहीं हूं।’ तर्क हमेशा
इंशोरेन्स
मांगता है। वह
मांगता है
गारंटी। बीज
भी गारंटी
मांगता है कि
क्या गारंटी
है कि वृक्ष
होगा। बीज को
कैसे भरोसा
दिलाया जाए!
इसलिए
श्रद्धा का
मूल्य है।
भरोसा दिलाने
का कोई उपाय
नहीं है।
श्रद्धा
अंधेरे में
छलांग है।
इसलिए
श्रद्धालु
पहुंच जाते
हैं, तर्कनिष्ठ
कभी नहीं
पहुंच पाते
हैं। बुद्धि
भटका देती है,
ह्रदय
पहुंचा देता
है। जब तुम
प्रेम करते हो,
तब तुम
बुद्धि की
नहीं सुनते।
जब तुम
प्रार्थना
करोगे, तब
भी तुम बुद्धि
की नहीं
सुनोगे तो ही
कर पाओगे।
तुमने बुद्धि
की सुनी तो
बात बिलकुल
ठीक लगती है, शत—प्रतिशत
ठीक लगती है; क्योंकि
बुद्धि हमेशा
तर्क से चलती
है। लेकिन
अंतिम परिणाम
में सब व्यर्थ
हो जाता है।
तो बीज बीज ही
रहेगा और सड़ता
रहेगा।
तुम एक
बात पर ध्यान
रखना कि जो
तुम्हारे पास है, वस्तुत:
है कुछ? बीज
के पास है
क्या? तुम
यह मत पूछो कि
वृक्ष होगा या
नहीं, तुम
यह पूछो कि
बीज के पास है
क्या, जिसे
तुम खोने में
डर रहे हो।
तुम्हारे पास
है क्या, जिसे
तुम खोने से
डरते हो? यह
पूछो।
श्रद्धा
हमेशा यही
पूछती है।
श्रद्धा यही
पूछती है कि
मेरे पास क्या
है, जिसको
खोने में डर
है? है कुछ
तुम्हारे पास?
जो खो जाएगा,
कुछ खोया
हुआ लगेगा? कुछ भी नहीं
है। चिंता
होगी, दुख
होगा, संताप
होगा, उदासी
होगी—मगर इनके
खोने में क्या
डर है? कोई
आनंद है
तुम्हारे पास?
कोई ऐसा
नृत्य जाना है,
जिसे खोने
में तुम वंचित
हो जाओगे? दीख
हो जाओगे? तुम्हारे
पास कुछ भी
नहीं है। तुम
उस नंगे आदमी
की तरह हो, जो
खान नहीं करता
था, क्योंकि
वह कहता था कि
कपड़े धो लूंगा
तो सुखाउंगा
कहां? कपड़े
थे नहीं। धोने
का कोई सवाल न
था, लेकिन
सुखाने की
चिंता मन को
घेरती थी।
तुम्हारे
पास खोने को
कुछ भी नहीं
है और पाने को
सब कुछ है। यह
श्रद्धा है।
श्रद्धा
हमेशा देखती
है कि मेरे
पास क्या है।
और तर्क हमेशा
देखता है कि
क्या होगा
भविष्य में।
तर्क
भविष्योसुख
है। श्रद्धा
वर्तमान में देखती
है कि क्या है
मेरे पास।
मेरे
पास लोग आते
हैं। उनसे मैं
कहता हूं 'लो छलांग
संन्यास में! ''एक साल और'—जैसे कि मै
उनसे कुछ छीन
रहा हूं जैसे
कि वे एक साल
हिम्मत
जुटाएंगे। वे
कहते हैं कि
थोड़ी देर रुके,
अभी कठिन है;
जैसे कि मैं
उनसे कुछ
त्याग करने को
कह रहा हूं।
उनके पास कुछ
भी नहीं है—रत्तीभर
भी नहीं है।
संपदा के नाम
पर कोई संपदा
नहीं है; सिवाय
दीनता और
दरिद्रता के
कुछ भी नहीं
है। मैं
उन्हें
संन्यास की
महिमा देना
चाहता हूं।
मैं उनसे कुछ
छीन नहीं रहा
हूं; उन्हें
कुछ दे रहा
हूं—क्योंकि
संन्यास को
मैं त्याग नहीं
कहता; परम
भोग का द्वार
कहता हूं।
संन्यासी
होकर तुम पहली
दफा सम्राट
बनोगे; लेकिन
तुम अपने
भिखारीपन को
संपदा समझ रहे
हो।
जब भी
मै किसी से
कहता हूं लो
छलांग
संन्यास में।
वह ऐसा देखता
है मेरी तरफ
जैसे कि मैं
कुछ छीने ले
रहा हूं। मैं
चकित होता हूं
कि काश! तुम्हारे
पास कुछ होता
तो बात भी ठीक
थी। कुछ भी
तुम्हारे पास
नहीं है। कूड़ा—करकट
भी तुम्हारे
पास नहीं है।
जो भी
तुम्हारे पास
है, सांप—बिच्छू
है; कूडा—करकट
भी नहीं।
सिवाय दुख, चिंता और
पीड़ा के
तुम्हारे पास
कुछ भी नहीं
है। उसे भी
तुम छोड़ते
नहीं हो; उसे
भी तुम पकड़ते
हो। कारण क्या
है? न, तुम
उस तरफ देखते
ही नहीं; तुम
यह देखते हो
कि क्या
मिलेगा?
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि ध्यान
करने से क्या
मिलेगा? बस, तब
भूल हो गयी।
मैं उनसे
चाहता हूं कि
वे पूछें कि
ध्यान न करने
से क्या मिला
है। क्या
मिलेगा, इसका
तो भरोसा नहीं
किया जा सकता;
क्योंकि
भविष्य
अज्ञात है और
बीज का मिलन
वृक्ष से कभी
नहीं होता।
बीज बीज ही
रहेगा। अब बीज
को हम उसके
भविष्य से
कैसे मिला
सकते हैं! बीज
मिटेगा तो
वृक्ष होगा।
जब तक वृक्ष
हो जाएगा तो
तब बीज न
रहेगा। हम उसे
दिखा भी न
पाएंगे कि यह
मिला। यह बड़ी
मुसीबत है।
कैसे तुम बीज
को दिखा पाओगे
कि यह मिला? जब तक तुम
बीज हो, तब
तक तुम बीज हो;
जब तुम
वृक्ष होओगे
तो वृक्ष
होओगे। इन दो
का तो मिलना
कभी होगा नहीं।
अभी
तुम मांगते हो
भविष्य की
गारंटी।
किसको दी जाए? यह बीज तो
बचेगा नहीं—तुम
तो बचोगे नहीं।
नहीं, श्रद्धालु
पुरुष पूछता
है कि क्या है
मेरे पास।
देखता है, पाता
है कि कुछ भी
नहीं हैं; नंगा
हूं निचोड़ने
से डर रहा हूं।
यह बोध ही आ
जाए कि मेरे
पास कुछ नहीं
है तो फिर तुम अज्ञात
की यात्रा पर
निकलने को तत्पर
हो गये, खोने
का कोई डर न
रहा। कुछ
मिलेगा तो ठीक,
कुछ न
मिलेगा तो भी
ठीक; खोने
का तो कोई भी
डर नही है।
तुम जैसे हो, इससे बदतर
तो हो ही नहीं
सकते; या
कि तुम सोचते
हो कि हो सकते
हो? लोग
हैं, जो
हमेशा इसी डर
में रहते हैं
कि कहीं इससे
भी बदतर हालत
न हो जाए।
मुल्ला
नसरुद्दीन का
एक तकियाकलाम
था कि— 'इससे
बुरा भी हो
सकता था।’ वह
जब भी कोई बात
करता था, कोई
कुछ कहता तो
वह यही कहता
कि इससे बुरा
भी हो सकता था।
लोग थक गये थे।
ऐसी कोई बात
ही नहीं थी
जिसमें वह यह
न कहे कि इससे
भी बुरा हो
सकता था। आखिर,
एक दिन ऐसी
घटना घट गयी
मोहल्ले में
कि लोगों ने
कहा कि अब
इसको फंसा दो।
अब यह न कह पाएगा
तकियाकलाम।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन का
पड़ोसी बाहर गया
था और दो दिन
पहले लौट आया।
अचानक घर
पहुंच गया, पाया कि
घर में एक
अजनबी आदमी है,
पली उसके
प्रेम में है।
उसने उठायी
बंदूक और
दोनों की
हत्या कर दी।
मुल्ला
नसरुद्दीन
सुबह निकला था
घर से, पड़ोस
के लोगों ने
घेर लिया और
उससे कहा, 'नसरुद्दीन,
सुनो, अब
तुम्हारे
तकियेकलाम का
कोई उपाय न
रहा। दोनों मर
गये।’ मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, 'इससे
भी बुरा हो
सकता था।’ लोग
चकित हुए।
उन्होंने कहा
कि इससे भी
बुरा और क्या
हो सकता था? नसरुद्दीन
ने कहा कि अगर
वह एक दिन
पहले लौट आया
होता तो मैं
मरा होता।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं इससे
बुरा नहीं हो
सकता। तुम यह
तकियाकलाम
छोड़ो। तुम
जैसे हो, यह बुरी से
बुरी दशा है; और क्या
बुरा हो सकता
है?
श्रद्धा
सदा सोचती है
कि क्या मेरे
पास है। बीज
के पास क्या
है? एक
खोल है बीज।
बीज के पास
कुछ भी नहीं
है। हो सकता
है कुछ; लेकिन
वह होगा, जब
खोल टूट जाएगी।
तुम एक खोल हो;
खोल को टूट
जाने दो। तब
सब कुछ संभव
हो जाता है।
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर संभव हो
जाता है।
इसलिए
शिव कहते हैं :
ध्यान बीज है।
और, जब
बीज मिटता है,
तब तुम
द्विजत्व को
उपलब्ध होओगे।’विद्या का
अविनाश, जन्म
का विनाश है।’
और, जिस दिन
तुम्हारे
भीतर द्विजता
फलित होगी, नया जन्म
होगा, फिर
तुम्हारे
भीतर विद्या
का कभी विनाश
न होगा; ज्ञान
सतत बहता
रहेगा; ज्ञान
की धारा हो
जाओगे तुम; तुम्हारा सब
कुछ शान बन
जाएगा, चैतन्य
हो जाएगा।
ध्यान का बीज
जब टूटेगा, तब तुम्हारे
भीतर चेतना—ही—चेतना
रह जाएगी। तुम
एक होश, एक
साक्षी—भाव
में
रूपांतरित हो
जाओगे।
और, विद्या
का जहां
अविनाश है, जहां विद्या
नष्ट नहीं
होती...। अभी
तुम्हारी
चेतना न के
बराबर है, है
ही नहीं। तुम
ऐसे जीते हो, जैसे सोये
हुए हो। अभी
तुम जो करते
हो, उसे भी
तुम
होशपूर्वक
नहीं करते हो।
बुद्ध
के सामने कोई
बैठा था। वह
बैठकर अपने
पैर का अंगूठा
हिला रहा था।
बुद्ध ने कहा, 'मेरे भाई,
यह पैर का
अंगूठा क्यों
हिलता है?' जैसे
ही बुद्ध ने
कहा, वह
रुक गया। उसने
कहा कि 'मुझे
खुद पता नहीं।
आपने पूछकर
मुश्किल में
डाल दिया। मैं
कोई जानकर तो
हिला नहीं रहा
था; बस, हिला
रहा था।’ बुद्ध
ने कहा, 'पूरी
जिंदगी
तुम्हारी ऐसी
है।’
तुमने
जानकर क्या
किया है? जानकर क्रोध
किया? जानकर
प्रेम किया? जानकर लोभ
किया? जानकर
मोह किया? क्या
तुमने जानकर
किया है? बस,
बेहोशी में
पैर का अंगूठा
हिल रहा है—तुम्हारी
पूरी जिंदगी
ऐसी है। घर भी
बसा लिया, परिवार
भी है, बच्चे
भी पैदा हो
गये हैं; जानकर
तुमने क्या
किया है? सब
हो रहा है।
तुम एक
यंत्रवत उस
होने में फंसे
हो।
होशपूर्वक
तुमने क्या
किया है
जिंदगी में? कोई एक
कृत्य है, जो
तुमने
होशपूर्वक
किया हो; जो
तुम्हारी
चेतना से
निकला हो? नहीं,
एक भी कृत्य
तुम न बता
सकोगे, जो
तुमने
होशपूर्वक
किया है।
प्रेम
किसी से हो
गया, हो
गया; तुमने
किया नहीं।
झगड़ा किसी से
हो गया, हो
गया; तुमने
किया नहीं।
आदमियों को
तुम देखते हो,
देखते से ही
तुम निर्णय कर
लेते हो—कोई
अच्छा लगता है,
कोई बुरा
लगता है; लेकिन
होशपूर्वक
कौन अच्छा है,
कौन बुरा
है!
तुम जो
भी जिंदगी में
बन गये हो, यह
सांयोगिक
दुर्घटना
मालूम होती है।
तुम
होशपूर्वक
नहीं चले हो।
घटनाएं घट रही
हैं, तुम
मूर्च्छित
बहे जा रहे हो।
तुम नदी में
बहते एक तिनके
की भांति हो; लहरें जहां
ले जाती है, तुम चले
जाते हो।
हालांकि
तिनका भी
सोचता होगा कि
मैं यात्रा कर
रहा हूं। ऐसे
ही तुम भी
सोचते हो कि
तुम कुछ कर
रहे हो। कर्ता
हो ही कैसे
सकता है, जब
होश नहीं है?
यह
सूत्र कह रहा
है : विद्या का
अविनाश तो तभी
होता है जब
ध्यान का बीज
टूट जाता है
और तुम्हारे
भीतर सतत
स्कुरणा
चेतना की बनी
रहती है। सोते—जागते, तुम कभी
नहीं सोते।
उठते—बैठते, तुम कभी
नहीं सोते।
तुम्हारे
भीतर होश बना
रहता है। तुम
प्रेम करो, वह भी
होशपूर्वक।
तुम भोजन करो
तो भी होश
पूर्वक होगा।
तुम उठोगे—हिलोगे
तो भी होश
पूर्वक होगा।
तुम्हारा
सारा जीवन होश
का विस्तार हो
जायेगा। इसको
हम बुद्धत्व
कहते हैं।
बुद्धत्व का
अर्थ है. जो
आदमी जागा हुआ
जी रहा है।
'विद्या
का अविनाश'—अब विद्या
विनष्ट नहीं
होती। अब
ज्ञान कभी
फीका नहीं
पड़ता। अब भीतर
की ज्योति कभी
मंद नहीं होती।
जलती रहती है
सतत, एक—सी,
अकंप। जब
ऐसा घटित हो
जाता है—
ध्यान का बीज
टूटकर जब
अविनाशी
विद्या बन जाती
है, सतत
चैतन्य
तुम्हारे
भीतर चलने
लगता है—तब
जन्म का विनाश
हो जाता है।
फिर तुम्हारा
कोई जन्म नहीं
है। फिर तुम
शरीर में वापस
न आओगे।
शरीर
में तुम
मूर्च्छा की
तरह ही वापस
आते हो। तुम
सोये हो, इसलिए बार
बार शरीर में
उतरते हो।
शरीर में
उतरना
तुम्हारी
बेहोशी के
कारण है। जिस
दिन तुम्हारा
होश सतत हो
जायेगा, शरीर
की यात्रा बंद
हो जायेगी। तब
तुम इस
संकीर्ण शरीर
में न उतरोगे
क्योंकि यह एक
कारागृह है।
होशपूर्वक
कोई भी इसमें
नहीं उतर सकता।
यह एक बंधन है।
ये जंजीरें
हैं, जो
तुमने खुद
अपने हाथ के
चारों तरफ
बांध ली हैं।
यह कैद है, गुलामी
है; इसमें तुम
जानकर क्यों
उतरना चाहोगे!
बे—जानकर
तुम उतरे हो।
अंधेरे में
भटक गये हो।
जिस दिन
तुम्हारी आंखें
ज्योतिपूर्ण
हो जायेंगी, शरीर में
उतरना बंद हो
जायेगा। फिर
तुम कहां
होओगे? फिर
तुम विराट
अशरीर के
हिस्से हो
जाओगे। उसे हम
'ब्रह्म' कहते हैं; कोई 'परमात्मा'
कहता है, कोई 'निर्वाण',
कोई 'मोक्ष'। शब्द कोई
भी दें, कोई
अंतर नहीं
पड़ता। धर्मों
में शब्दों से
ज्यादा और
किसी चीज का भेद
नहीं है। और
सभी शब्द सही
हैं, क्योंकि
सभी शब्द कोई
एक गुण उस परम
स्थिति का
बताते है।
'निर्वाण'
शब्द का
अर्थ है: दीये
का बुझ जाना।
बुद्ध को यह
शब्द प्रिय था।
वे कहते थे कि
जैसे दीया बुझ
जाता है, तो
तुम पूछो कि
उसकी ज्योति
कहां गयी; क्या
कहोगे, कहां
गयी? अब
तुम ज्योति को
कहीं भी इशारा
करके न बता
सकोगे। होगी
तो कहीं; क्योंकि
इस अस्तित्व
में जो कुछ भी
है नष्ट नहीं
हो सकता। जो
है, वह है; जो नहीं है, वह नहीं है।
जो नहीं है, उसके होने
का उपाय नहीं
है; जो है, उसके मिटने
का उपाय नहीं
है। वह कहीं न
कहीं तो
ज्योति होगी।
तुमने दीया
फूंककर बुझा
दिया, ज्योति
खो थोड़ी
जायेगी; जायेगी
कहां खोकर? विराट में
एक हो गयी! अब
तक उसका रूप
था, अब
अरूप हो गयी!
दीये से
छुटकारा हो
गया है। इसका
यह मतलब नहीं
कि खो गयी।
मिट्टी
का दीया था; ज्योति
तो बिलकुल अलग
थी! मिट्टी से
ज्योति क्या
लेना—देना!
मिट्टी और
ज्योति का
क्या संबंध!
दीये के कारण
तो ज्योति न
थी; दीया
तो ज्योति न
बना था। दीया
तो केवल शरीर
था। तुमने
दीये से फूंक
दिया, संबंध
टूट गया ईंधन
से; ज्योति
विराट में खो
गयी, महाप्रकाश
का हिस्सा हो
गयी।
इसलिए
बुद्ध उस परम
स्थिति को 'निर्वाण'
कहते हैं—जैसे
दीया यहां बुझ
गया और परम
सूर्य में लीन
हो गया।
महावीर उसे
कैवल्य कहते
हैं; क्योंकि
वे कहते हैं
कि जैसे ही
तुम्हारा मोह टूटा,
अंधकार गया,
अविद्या
मिटी, अज्ञान
छूटा, वैसे
ही बस, तुम
ही तुम हो, और
कोई भी नहीं।
बस केवल चेतना
ही बची, जिस
का कोई
पारावार नहीं
है।
महावीर
परमात्मा की
बात नहीं करते।
वे कहते हैं—आत्मा
ही परमात्मा
हो जाती है।
एक ही बात है।
या तो तुम कहो
कि बूंद सागर
में खो गयी, या कहो कि
सागर बूंद में
खो गया; क्या
फर्क पड़ता है—बूंद
सागर में गिरी
है। हिंदू
कहते हैं कि
बूंद सागर में
खो गयी; महावीर
कहते हैं कि
सागर बूंद में
खो गया—स्व ही
बात है; कहने
का ढंग है।
महावीर को जो
प्रिय है, वे
कहते हैं—कैवल्य;
बस, तुम
ही तुम बचे, कोई और न बचा;
सिर्फ
शुद्ध चैतन्य
बचा, केवल
चेतना बची।
हिंदू
इसे 'मोक्ष'
कहते हैं, क्योंकि
शरीर कारागृह
है; तुम
मुक्त हो गये।
जीसस ने इसे 'प्रभु का
राज्य' कहा
है; क्योंकि
तुम दीन—दरिद्र
न रहे; तुम
सम्राट हो गये।
शब्दों का भेद
है, लेकिन
मूल बात एक है—बीज
टूटे, तो
तुम वृक्ष हो
जाओगे।
हिम्मत
जुटाओ! बड़ी
हिम्मत की
जरूरत है!
इससे बड़ी दुनिया
में कोई
हिम्मत नहीं
है। धर्म से
बड़ा कोई
दुस्साहस
नहीं है।
इसलिए तुम ऐसा
मत सोचना कि
कमजोर
धार्मिक होते
हैं। कमजोर
धार्मिक हो ही
नहीं सकता; सिर्फ
महाशक्तिशाली
धार्मिक होते
हैं। और जहां
तुम्हें
कमजोर दिखते
हैं धार्मिक
होते हुए, वहां
धर्म नहीं है।
मंदिरों में,
मस्जिदों
में घुटने
टेके जिन्हें
तुम देख रहे
हो वें धार्मिक
नहीं हैं। वे
कमजोरी में
घुटने टिके
हैं। वे
सांसारिक ही हैं।
बडे से बड़ा
दुस्साहस
धर्म है।
क्या
है दुस्साहस—बीज
की छलांग, खुद को
मिटाने की
तैयारी, सिर्फ
इस आशा में, बिना किसी
गारंटी के कि
वृक्ष होगा; ज्ञात का
विसर्जन, अज्ञात
के लिए जो
जाना—माना है
उसका छोड़ना, उसके लिए जो
अनजाना और
अपरिचित है; जो रास्ता
पहचाना हुआ था
सदा का, उसे
छोड़कर विराट
वन में भटक
जाना, पगडंडी
को चुन लेना, जिसकी कोई
पहचान नहीं, जिसका कोई
नक्शा नहीं;
संसार को छोड़कर,
ब्रह्म की
खोज पर जाना; नक्शे की दुनिया
को छोड़कर
नक्शारहित
दुनिया में
प्रवेश है।
वहां
कोई नक्शा नहीं, जिसे तुम
ले जा सको; कोई
गाईड नहीं।
कोई छपी हुई
किताब काम न
देगी। सब
किताबें इसी
संसार में छूट
जायेंगी; क्योंकि
सभी किताबें
इसी संसार के
हिस्से हैं।
गुरु भी वहा
साथ न जायेगा।
गुरु भी
तुम्हें
धक्का दे देगा
और किनारे पर खड़ा
रहेगा। आखिर
जब कोई किसी
को तैरना
सिखाता है, तो क्या
सिखाता है? धक्का दे
देता है! तुम
समझते हो कि
गुरु खड़ा है, इसलिए
निर्भय होकर
कूद जाते हो।
तैरना
तुम्हारे
भीतर है। पहले
दिन तुम हाथ—पैर
तड़फड़ाते हो, वह भी तैरना
है—अकुशल। दो—चार
दिन में तुम
समझ जाते हो
कि हाथ—पैर
कैसे फेंकना
है। वह
तुम्हारे
भीतर ही था।
अगर हिम्मत
होती तो तुम
अकेले भी कूद
सकते थे; मगर
अकेले में जरा
डर रहता है।
कोई किनारे पर
खड़ा है, भरोसा
है कि अगर
डूबे, अगर
कुछ खतरा हुआ
तो कोई किनारे
पर खड़ा है। बस,
गुरु
किनारे पर खड़ा
है भरोसे के
लिए कुछ करेगा
नहीं; कुछ
करने को है
नहीं। सब कुछ
तुम्हारे
भीतर छिपा है
और तुम्हारे
भीतर प्रकट
होना है। पर
गुरु की
मौजूदगी
भरोसा देती है
कि कोई खतरा
नहीं है। कोई
तो मौजूद है, पुकारेंगे,
चिल्लायेगे
तो कोई सुन
लेगा। और वह
कहता है कि
मैं मौजूद हूं
तुम बेफिक्री से
कूद जाओ।
एक दफा
तुम कूद गये
कि तुमने हाथ—पैर
फेंके; पहले तो तुम
घबड़ाहट में ही
हाथ—पैर
फेंकोगे, फिर
वही तैरना बन
जायेगा।
तैरने में और
हाथ—पैर
फेंकने में
फर्क क्या है?
बस, जरा—से
अनुभव का फर्क
है। दो—चार
दिन फेंकोगे,
अनुभव से
समझ में आ
जायेगा। गलत
फेंकना बंद कर
दोगे, सम्यक
फेंकना शुरू
कर दोगे और
जैसे—जैसे हाथ—पैर
फेंकने में
सफलता मिलेगी,
वैसे—वैसे
आत्म—विश्वास
बढ़ जायेगा। दो—चार
दिन बाद गुरु
कहेगा कि अब
मेरे यहां
किनारे पर खड़े
रहने की कोई
जरूरत नहीं है।
अब तुम चाहो
तो दूसरे को
भी सिखा सकते
हो। ध्यान में
गुरु यही कर
रहा है; तुम्हें
धक्का दे रहा
है। और अगर
तुम्हारी
श्रद्धा हो, तो तुम्हारे
भीतर बीज टूट
जायेगा और
वृक्ष का जन्म
हो जायेगा।
तर्क से तुम
भरे रहे, तो
तुम व्यर्थ ही
भटकते रहोगे।
श्रद्धा
द्वार है।
आज इतना ही।
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