नरोपा का स्वपन-(एस धम्मो सनंतनो)
अज्ञान ज्ञान के द्वारा नहीं मिट सकता है।
वह मिट सकता है केवल होश के द्वारा। ज्ञान तो तुम स्वप्न में भी इकट्ठा किए जा
सकते हो; लेकिन वह स्वप्न का
हिस्सा ही है, और स्वप्न हिस्सा है तुम्हारी नींद का। कोई
चाहिए जो तुम्हें झकझोर दे। कोई चाहिए जो तुम्हें धक्का दे दे। कोई चाहिए जो
तुम्हें तुम्हारी नींद से जगा दे। अन्यथा तुम तो ऐसे ही चलते चले जा सकते हो। नींद
मादक होती है। अज्ञान मादक होता है, वह एक प्रकार का नशा है।
तुम्हें उससे बाहर आना है।
मैं तुम से एक कहानी कहूंगा, जो मुझे सदा प्रीतिकर रही है। वह तिलोपा के शिष्य,
सिद्ध नरोपा के विषय में है। नरोपा के अपने गुरु तिलोपा से मिलने के
पहले की घटना है। उसके बुद्धत्व को उपलब्ध होने से पहले की घटना है। और यह बहुत
जरूरी है प्रत्येक खोजी के लिए, सब के साथ ऐसा ही होगा।
तो
सवाल यह नहीं है कि ऐसा नरोपा के साथ हुआ या नहीं, लेकिन इस
यात्रा पर ऐसा होना अनिवार्य है। जब तक ऐसा न घटे, बुद्धत्व
संभव नहीं है। इसलिए मैं नहीं जानता कि ऐतिहासिक रूप से ऐसा हुआ या नहीं, लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से मैं निश्चित हूं एकदम सुनिश्चित हूं कि ऐसा हुआ,
क्योंकि कोई भी इस अनुभव के बिना पार के जगत में गति नहीं कर सकता।
नरोपा बहुत बड़ा विद्वान था, एक बड़ा पंडित था। कहानियां हैं कि वह एक महान
उपकुलपति था एक बड़े विश्वविद्यालय का—दस हजार उसके विद्यार्थी थे। एक दिन वह बैठा
हुआ था अपने विद्यार्थियों के बीच। उसके चारों ओर हजारों शास्त्र बिखरे पड़े थे—प्राचीन,
अति प्राचीन, दुर्लभ शास्त्र। अचानक ही उसे
झपकी लग गई— थका रहा होगा—और उसे एक दृश्य दिखाई पड़ा। मैं इसे दृश्य कहता हूं
स्वप्न नहीं कहता, क्योंकि यह कोई साधारण स्वप्न नहीं है। यह
इतना अर्थपूर्ण है कि इसे स्वप्न कहना उचित न होगा; यह दर्शन
था। उसने एक बहुत की, कुरूप, भयंकर
स्त्री देखी, चुड़ैल जैसी। उसकी कुरूपता इतनी भयंकर थी कि वह
नींद में कांपने लगा। वह बहुत घबरा गया। वह भाग जाना चाहता था—लेकिन भागे कहां?
जाए कहा? वह पकड़ लिया गया, मानो कि की चुड़ैल द्वारा सम्मोहित हो गया हो। उस स्त्री का शरीर घबराने
वाला था, लेकिन उसकी आंखें चुंबकीय थीं।
उसने पूछा, 'नरोपा, तुम क्या कर रहे हो?'
और उसने कहा, 'मैं अध्ययन कर रहा हूं।’
'क्या अध्ययन कर रहे हो तुम?'
की स्त्री ने पूछा।
उसने कहा, 'दर्शन, धर्म, तत्व—मीमांसा,
भाषा, व्याकरण, तर्कशास्त्र।’
उस की स्त्री ने फिर पूछा, 'क्या तुम समझते हो इन्हें?'
नरोपा ने कहा, 'बिलकुल. ही, मैं समझता हूं
इन्हें।’
उस स्त्री ने फिर पूछा, 'तुम शब्दों को समझते हो या कि अनुभव को?'
यह बात पहली बार पूछी गई थी। नरोपा से
जीवन में हजारों प्रश्न पूछे गए थे। वह एक बड़ा शिक्षक था—हजारों विद्यार्थी सदा ही
पूछते रहे थे, जिज्ञासा करते रहे थे—लेकिन
किसी ने यह नहीं पूछा था : 'तुम शब्दों को समझते हो या कि
भाव को?' और उस स्त्री की आंखें इतनी गहरे देखने वाली थीं कि
झूठ बोलना असंभव था—वह जान जाएगी। उसकी दृष्टि के सम्मुख नरोपा ने अपने को बिलकुल
नग्न अनुभव किया, निर्वस्त्र, पारदर्शी।
वे आंखें उसके अंतस में एकदम गहरे झांक रही थीं, और झूठ
बोलना असंभव था। उसने और किसी से कह दिया होता, 'निश्चित ही
मैं समझता हूं भाव', लेकिन इस स्त्री से, इस भयंकर स्त्री से वह झूठ नहीं बोल सका; उसे सत्य
ही कहना पड़ा।
उसने कहा, 'ही, मैं शब्दों को समझता हूं।’
वह स्त्री बहुत प्रसन्न हो गई। वह नाचने
लगी और हंसने लगी।
यह सोच कर कि स्त्री इतनी खुश हो गई है—और
उसकी खुशी के कारण उसकी कुरूपता भी बदल गई थी; अब वह उतनी कुरूप न रही थी, एक सूक्ष्म सौंदर्य उसके
भीतर से बाहर झलकने लगा
था—तो यह सोच कर कि मैंने इसे इतना प्रसन्न कर
दिया है तो क्यों न इसे थोड़ा और प्रसन्न कर दूं उसने कहा, 'और ही, मैं भाव भी समझता हूं।’
उस स्त्री की हंसी रुक गई। उसका नृत्य थम
गया। वह चीखने लगी और रोने लगी, और
उसकी सारी कुरूपता लौट आई—पहले से हजार गुना ज्यादा।
नरोपा ने कहा, 'क्यों? क्यों तुम रो रही हो?
और पहले क्यों तुम हंस रही थीं और नाच रही थीं?' वह स्त्री कहने लगी, 'मैं नाच रही थी और हंस रही थी
और खुश थी, क्योंकि तुम्हारे जैसे महान विद्वान ने झूठ नहीं
बोला था। लेकिन अब मैं चीख रही हूं और रो रही हूं क्योंकि तुमने मुझसे झूठ बोला।
मैं जानती हूं—और तुम जानते हो—कि तुम भाव को नहीं समझते।’
दृश्य विलीन हो गया और नरोपा रूपांतरित हो
गया। उसने विश्वविद्यालय छोड़ दिया। उसने फिर कभी अपनी जिंदगी में कोई शास्त्र न
छुआ। वह बिलकुल अज्ञानी हो गया : वह समझ गया कि केवल शब्दों को समझ कर तुम किसे
धोखा दे रहे हो! और केवल शब्दों को समझ—समझ कर तुम बन गए हो एक कुरूप बूढ़ी चुड़ैल।
ज्ञान कुरूप होता है। और यदि तुम
विद्वानों के पास जाओ तो तुम पाओगे कि वे दुर्गंध से भरे हैं—ज्ञान की दुर्गंध से—वे
मुर्दा हैं।
एक प्रज्ञावान व्यक्ति के पास, एक बोधपूर्ण व्यक्ति के पास उसकी एक अपनी ताजगी होती
है, एक सुवासित जीवन होता है—जो कि नितांत अलग होता है पंडित
से, ज्ञान से भरे व्यक्ति से। जो भाव को समझता है वह सुंदर
हो जाता है, जो केवल शब्द को ही समझता है वह कुरूप हो जाता
है। और वह स्त्री कोई बाहर की नहीं थी : वह तो भीतर का एक प्रक्षेपण थी। वह नरोपा
का ही एक हिस्सा था जो ज्ञान के द्वारा कुरूप हो गया था। मात्र इतनी समझ कि 'मैं भाव को नहीं समझता' और सारी कुरूपता एक सुंदरता
में बदल जाने वाली थी।
नरोपा तलाश में निकल पड़ा, क्योंकि अब शास्त्र काम न देंगे। अब जरूरत है किसी
जीवंत सदगुरु की। फिर लंबी यात्राओं के बाद उसे तिलोपा मिले। तिलोपा को भी इस
व्यक्ति की तलाश थी, क्योंकि जब तुम्हारे पास कुछ होता है,
तो तुम उसे बांटना चाहते हो; एक करुणा पैदा
होती है। करुणा बौद्ध शब्दावली है। इसके लिए अंग्रेजी शब्द 'कम्पैशन'
एकदम वही भाव व्यक्त नहीं करता—कर नहीं सकता। करुणा शब्द बहुत ही
अर्थपूर्ण है। यह उसी संस्कृत मूल से आता है जिससे कि किया शब्द आता है। क्रिया और
करुणा—वे दोनों आते हैं एक ही मूल धातु 'कृ' से। बौद्ध शब्द करुणा का अर्थ है 'सक्रिय करुणा।’
और यही अंतर है सहानुभूति और करुणा के बीच, सहानुभूति में कुछ करने की कोई जरूरत नहीं होती—तुम
बस अपनी सहानुभूति प्रकट कर देते हो और बात खतम हो जाती है। करुणा सक्रिय होती है;
तुम करते हो कुछ, तुम्हें कुछ करना ही पड़ता
है। तुम मात्र सहानुभूति में कैसे जी सकते हो? सहानुभूति तो
बहुत उथली, बहुत ठंडी मालूम पड़ेगी। करुणा में ऊष्मा होती है।
करुणा का अर्थ ही है कि वह सक्रिय होती है।
जब कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो करुणा पैदा होती है। तिलोपा ज्ञान को उपलब्ध हो गए
थे। उनका साक्षात्कार हुआ था सत्य से; और अब करुणा उमग आई थी।
और वे उस व्यक्ति
की खोज में थे जो लेने को तैयार हो—क्योंकि सत्य
के अनुभव को तुम उन पर नहीं थोप सकते जो कुछ समझेंगे ही नहीं। एक संवेदनशील हृदय
की, एक स्त्रैण हृदय की जरूरत होती
है। शिष्य को स्त्री जैसा होना होता है, क्योंकि गुरु को
उंडेलना है और शिष्य को उसे स्वीकार करना है।
तो वे दोनों मिले और तिलोपा ने कहा, 'नरोपा, अब मैं वह सब कहूंगा
जिसे कहने की मैं प्रतीक्षा करता रहा हूं। मैं तुम्हें सब कुछ कहूंगा, नरोपा। तुम आ गए हो; अब मैं स्वयं को निर्भार कर
सकता हूं।’
नरोपा को जो दिखा, वह दृश्य बहुत अर्थपूर्ण है। वह दर्शन जरूरी है। जब
तक तुम अनुभव न कर लो कि ज्ञान व्यर्थ है, तब तक तुम प्रज्ञा
की तलाश कभी करोगे ही नहीं। तुम झूठे सिक्के ही लिए रहोगे यह सोच कर कि यही है
सच्चा खजाना।
तुम्हें सजग होना है कि ज्ञान नकली सिक्का
है—वह जानना नहीं है, वह बोध नहीं है। अधिक से
अधिक वह बौद्धिक है—शब्द समझ में आ गए हैं लेकिन बोध चूक गया है। एक बार तुम समझ
लेते हो, इसे तो तुम उतार फेंकोगे अपना सारा ज्ञान और तुम
निकल पड़ोगे किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में जो कि जानता है, क्योंकि
जो जानता है, केवल उसी के साथ हृदय से हृदय का, प्राणों से प्राणों का संवाद संभव होता है। लेकिन शिष्य यदि पहले से ही
ज्ञान से भरा है तो संवाद असंभव है, क्योंकि ज्ञान एक दीवार
बन जाएगा।
मैं सदा ही तुम्हारे चारों ओर एक सूक्ष्म
दीवार देखता हूं। जब तुम मेरे पास आते हो, तो मैं देखता हूं कि मैं तुम तक पहुंच सकता हूं या नहीं, तुम तक पहुंचना संभव है या नहीं। यदि मैं ज्ञान की बहुत मोटी दीवार देखता
हूं तो नितांत असंभव लगता है तुम तक पहुंचना; मुझे प्रतीक्षा
करनी होती है। यदि मुझे छोटी सी संध भी मिले तो मैं वहां से प्रवेश कर जाता हूं।
लेकिन भयभीत लोग, भय से भरे हुए लोग—वे संध तक नहीं छोड़ते;
वे पक्की दीवार बना लेते हैं। वे अपने चारों ओर एक घेरा बना लेते
हैं ज्ञान का, जानने का, धारणाओं का,
अर्थहीन शब्दों का। व्यर्थ। मात्र शोरगुल। वस्तुत: एक उपद्रव,
लेकिन तुम विश्वास करते हो उनमें।
तो यह पहली बात समझ लेने की है : ज्ञान
कोई ज्ञान नहीं है। और केवल वह ज्ञान जो कि ज्ञान नहीं बल्कि प्रज्ञा है, समझ है, बोध है, वही काट सकता है अज्ञान की जड़ों को।
याद रखना इस शब्द 'बोध'
को। जैसे सुबह धीरे— धीरे तुम जागते हो और नींद के बाहर आते हो और
नींद समाप्त हो जाती है, मिट जाती है। वैसा ही फिर घटता है :
तुम नींद से बाहर आते हो; धीरे— धीरे तुम्हारी आंखें खुलती
हैं, तुम देखने लगते हो; तुम्हारा हृदय
आंदोलित होता है, तुम्हारा अंतस खुलने लगता है, और तत्क्षण तुम वही व्यक्ति नहीं रह जाते जो तुम सोए हुए थे।
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