अध्याय
64 : खंड 2
आरंभ
और अंत
जो
कर्म करता है, वह
बिगाड़ देता है;
जो पकड़ता है, उसकी
पकड़ से चीज
फिसल जाती है।
क्योंकि
संत कर्म नहीं
करते, इसलिए
वे बिगाड़ते
भी नहीं हैं;
क्योंकि
वे पकड़ते
नहीं हैं, इसलिए
वे छूटने भी
नहीं देते।
मनुष्य
के कारबार
अक्सर पूरे
होने के करीब
आकर बिगड़ते
हैं।
आरंभ
की तरह ही अंत
में भी सचेत
रहने से, असफलता
से बचा जाता
है।
इसलिए
संत
कामनारहित
होने की कामना
करते हैं।
और
कठिनता से
प्राप्त होने
वाली चीजों को
मूल्य नहीं
देते।
वे
वही सीखते हैं
जो अनसीखा
हो,
और
उसे वे पुनः
स्थापित करते
हैं, जिसे
समुदाय ने खो
दिया है।
यह
कि प्रकृति के
क्रम में वे
सहायक तो होते
हैं,
लेकिन
उसमें
हस्तक्षेप
करने की
धृष्टता नहीं
करते।
अनंत
की यात्रा में
जैसे प्रारंभ
में अंत छिपा है, वैसे
ही अंत में
प्रारंभ भी
छिपा है। अगर
कोई सम्हल कर
कदम उठाए तो
पहले ही कदम
में मंजिल पास
आ जाती है। और
अगर कोई जरा
सी चूक कर दे, बेहोश हो
जाए, तो
आखिरी कदम में
भी मंजिल चूक
जाती है। सवाल
होश का है।
होश से
उठाया पहला
कदम आखिरी कदम
सिद्ध होता है।
लेकिन जरा सी
बेहोशी की
छाया, और तुम
फिर वहीं के
वहीं आ जाते
हो जहां से
यात्रा शुरू
हुई थी।
बच्चों का
छोटा सा खेल
तुमने देखा
होगा: सांप और
सीढ़ी। हर कदम
पर सांप है, हर कदम पर
सीढ़ी है। सीढ़ी
पर पड़ गया पैर
तो ऊपर चढ़
जाते हो। सांप
पर पड़ गया पैर
तो नीचे उतर
आते हो।
सांप
और सीढ़ी का
खेल पूरे जीवन
का खेल है।
आखिरी मंजिल
से भी गिर
सकते हो। आखिरी
कदम से भी
वापस वहीं आ
सकते हो जहां
से शुरू किया
था। और पहले
कदम से भी
पहुंच सकते
हो।
इसलिए
जितनी
सावधानी पहले
कदम पर जरूरी
है उससे भी
ज्यादा
सावधानी
आखिरी कदम पर
जरूरी है। क्योंकि
पहले कदम पर
तो कुछ भी
खोने को नहीं
है,
इसलिए थोड़ी
सावधानी से भी
चल जाएगा।
पहले कदम पर
तो पाने ही
पाने को है, खोने को कुछ
भी नहीं है।
अगर बेहोश भी
रहे तो कुछ खोओगे
न, क्योंकि
तुम्हारे पास
कुछ है ही
नहीं। कदम पहला
है। अभी मंजिल
शुरू ही नहीं
हुई है। अभी
यात्रा का
प्रारंभ भी
नहीं हुआ। तुम
हारे ही हुए
हो। लेकिन
आखिरी कदम पर
तो बहुत होश
चाहिए, प्रगाढ़ होश चाहिए।
क्योंकि जरा
सी चूक, और
सब खो जाएगा।
जो बिलकुल
मिला ही मिला
हुआ था, पहुंचने
के ही करीब थे,
जो हाथ के
पास ही आ गया
था, जिस पर
मुट्ठी बंध ही
जाती क्षण भर
में, वह
चूक जा सकता
है।
जैसे
खतरे पहले कदम
के हैं वैसे
ही खतरे--और
उससे भी बड़े
खतरे--आखिरी
कदम के हैं।
कल
मैंने तुमसे
पहले कदम के
खतरों की बात
कही। पहला
खतरा तो यह है
कि तुम टालते
हो: कल उठाएंगे, परसों
उठाएंगे।
स्थगित करते
हो। पोस्टपोनमेंट
पहले कदम का
बड़े से बड़ा
खतरा है। आशा
भर करते हो, उठाएंगे।
धीरे-धीरे आशा
करना भी एक
आदत हो जाती
है। फिर तुम
रोज ही टालते
जाते हो।
टालना तुम्हारा
ढंग हो जाता
है। फिर पहला
कदम कभी नहीं
उठता। और
जिसका पहला ही
नहीं उठा उसके
अंतिम उठने का
तो सवाल नहीं
है।
दूसरा
खतरा है पहले
कदम का कि जब
तुम उठाते भी हो
कदम तब तुम
संघर्ष में
उतर जाते हो।
तुम यात्रा
में बहते नहीं, तैरने
लगते हो। तुम
एक तरह की
लड़ाई शुरू कर
देते हो। जैसे
कोई दुश्मनी
है, जैसे
प्रकृति
मित्र नहीं, शत्रु है।
तब तुम एक-एक
चीज से लड़ने
लगते हो। पहले
स्थगित करके
रुके थे, अब
लड़ाई के कारण
रुक जाते हो।
लड़ाई
से कोई कभी
पहुंचा नहीं।
कोई है ही
नहीं जिससे लड़ो। अपना
ही आपा है, अपना
ही विस्तार
है। लड़ना
किससे है? लड़ने
योग्य कोई
दूसरा मौजूद
होता तो ठीक
था। तो जब भी
तुम लड़ोगे,
एकांत में
अपनी ही छाया
से, परछाईं
से लड़ोगे।
तुम अपनी
शक्ति व्यय
करोगे। इस तरह
जीतोगे किसे?
वहां छाया
है; जीत भी
गए तो हाथ कुछ
न लगेगा। और
हार गए तो बुरी
होगी हार; आत्मविश्वास
खो जाएगा।
दो
खतरे हैं:
स्थगन और
संघर्ष।
दोनों से खतरे
से बचने का
उपाय है: जो
करना हो उसे
एक क्षण भी टालना
मत। यही क्षण
है वह जब उसे
कर लेना। कल
कभी आता नहीं।
बस वर्तमान
अकेला
अस्तित्व है।
और इस क्षण से
तुम क्षण भर
को भी हटे, कहीं
तुमने और आशा
बांधी कि तुम
भटके। और जब कदम
उठाओ तो
तुम्हारा कदम
अस्तित्व के
साथ सहयोग का
कदम हो, समर्पण
का। विरोध का
नहीं, संघर्ष
का नहीं।
क्योंकि
जिन्होंने भी
जाना है, उन्होंने
बह कर जाना है नदी
की धार के
साथ। तैर कर, धार के
विपरीत तैर कर
किसी ने कभी
नहीं जाना। वह
जो धार के
विपरीत तैरना
चाहता है
अहंकार, वही
तो बाधा है।
जब तुम बहते
हो तब कोई
अहंकार निर्मित
नहीं होता; क्योंकि तुम
कुछ कर ही
नहीं रहे हो।
इसलिए
लाओत्से का
बड़ा जोर
निष्क्रियता
पर है, क्योंकि
निष्क्रियता
में अहंकार के
बनने की कोई
संभावना नहीं
रह जाती। जरा
सा कर्म, और
अहंकार बनता
है। मैंने
किया, मैंने
जीता, मैंने
पाया; मेरा
चरित्र, मेरा
ज्ञान, मेरा
त्याग, मेरा
धन; सब से
मैं निर्मित
होता है। कुछ
किया ही नहीं;
न चरित्र
करके पाया, न ज्ञान
करके पाया।
निष्क्रियता
में हुआ उदभूत
चरित्र; निष्क्रियता
में फला ज्ञान,
निष्क्रियता
में फैला
प्रकाश; तुम्हारा
किया कुछ न
हुआ; अनकिए
सब हुआ। फिर
कैसा अहंकार?
समर्पण
निष्क्रियता
है; संघर्ष
कर्म है।
ये दो
खतरे हैं
प्रथम चरण के।
अंतिम चरण के
भी दो खतरे
हैं। उन्हें
भी हम समझ लें; फिर
सूत्र में
प्रवेश आसान
हो जाए।
अंतिम
चरण का पहला
खतरा तो यह है, जो
कि वे सभी लोग
जानते हैं
जिन्होंने
कभी भी पैदल
कोई यात्रा की
हो; और यह
यात्रा पैदल
यात्रा है, कोई यान
नहीं है
परमात्मा तक
जाने के लिए, तुम्हें
अपने दो छोटे
पैरों पर ही
सारा भरोसा
रखना है। अगर
तुमने कभी भी
कोई पैदल
यात्रा की
है--तुम बद्री-केदार
गए हो, तुम
कोई तीर्थ पर
गए हो, हज
गए हो, या
ऐसे ही कभी
तुम किसी पहाड़
पर सूर्योदय
का दर्शन करने
गए हो--तो
तुम्हें पता
होगा, जब
मंजिल करीब आ
जाती है तभी
थकान सबसे
ज्यादा मालूम
होती है। जब
तक दूर होती
है तब तक तो
तुम आशा के बंधे
चलते रहते हो;
अपने को
किसी तरह
खींचते रहते
हो कि बस थोड़ी
दूर और, बस
थोड़ी दूर और।
समझाए रखते हो
कि चार कदम और
चल लो, पहुंच
जाओगे। लेकिन
जब मंजिल
बिलकुल सामने
आ जाती है, तुम
मंदिर के
द्वार पर
पहुंच जाते हो,
तब तुम
सुस्ताने बैठ
जाते हो कि अब
तो कोई भय न रहा,
मंजिल आ ही
गई।
साधारण
यात्रा में तो
कोई खतरा नहीं
है,
क्योंकि
तुम सुस्ताओ
मंदिर की सीढ़ी
पर बैठ कर तो
मंदिर दूर
नहीं हो जाएगा।
लेकिन उस परम
यात्रा में
खतरा है; क्योंकि
वह कोई थिर
मंदिर नहीं
है। वह जो
मंदिर है परम
सत्य का वह
कोई जड़ वस्तु
नहीं है कि
कहीं रखी है।
वह तो
तुम्हारी भावदशाओं
पर निर्भर है
उसकी दूरी और
फासला। जब तक
तुम चलते रहते
हो, वह पास
है। जैसे ही
तुम ठहरते हो,
वह दूर हो
गया। जब तक
तुम बहते रहते
हो, वह पास
है। जैसे ही
तुम सुस्ताते
हो, वह दूर
हो गया।
तो अगर
परम मंजिल के
पास पहुंच
कर--जब
तुम्हें दिखाई
पड़ने लगा सब, तब
तुम्हारा
पूरा मन कहेगा
कि अब तो
सुस्ता लो, अब कोई
जल्दी नहीं है,
अब तो सामने
ही द्वार है, थकान मिट
जाएगी, उठेंगे,
द्वार खोल
लेंगे--अगर
तुमने तब नींद
लगा ली, सुस्ताने
लगे, आलस्य
ने पकड़ लिया, तो जब तुम
आंख खोलोगे
तुम अपने को
वहीं पाओगे जहां
से यात्रा
शुरू की थी।
मंदिर
तुम्हें दिखाई
न पड़ेगा। तुम
पाओगे, अपने
घर के द्वार
पर बैठे हो।
क्योंकि उससे
दूर होने का
एक ही रास्ता
है, वह है
आलस्य। उससे
दूर होने की
एक ही
व्यवस्था है,
वह है
प्रमाद। यह
खयाल ही, कि
पहुंच गए, खतरा
है। जैसे ही
यह खयाल आया
कि पहुंच गए, पैर ढीले
पड़ने लगते हैं,
सुस्ताने
का मन होने
लगता है। और
जब पहुंच ही गए
तो अब जल्दी
क्या है? और
जिसने भी यह
भूल की, उसकी
सारी की सारी
चेष्टा
व्यर्थ हो
जाती है, पानी
फिर जाता है।
और तुममें से
बहुतों को
मैंने बहुत
बार उस मंजिल
के करीब
पहुंचते देखा
है। और फिर यह
भी देखा है कि
तुम सुस्ताने
लगे। और फिर
यह भी देखा है
कि तुम वापस
अपने घर के
द्वार पर खड़े
हो।
आखिरी
कदम किसी भी
क्षण पहला कदम
बन सकता है, जैसे
कि पहला कदम
आखिरी बन सकता
है। जरा तुम थके,
जरा तुम्हें
आलस्य पकड़ा, जरा तुमने
कहा कि दो
क्षण आंख बंद
कर लें और विश्राम
कर लें।
विश्राम किस
बात से? विश्राम
का अर्थ इस
यात्रा में है,
थोड़ी देर
मूर्च्छित हो
जाएं। होश तो
यात्रा के कदम
हैं; बेहोशी
सुस्ताना है।
थोड़ा बेहोश हो
लें, अब
क्या डर है? जरा सी
बेहोशी, और
मंजिल उतनी ही
दूर हो जाती
है जितनी कभी
थी।
दूसरा
खतरा है--जो और
भी सूक्ष्म और
बारीक है--और
वह खतरा यह है
कि जैसे ही
मंजिल सामने
आती है, बड़े
आनंद से, बड़े
पुलक से
तन-प्राण भर
जाता है। सब
तरफ अनाहत का
नाद गूंजने
लगता है। ऐसा
आनंद तुमने
कभी जाना न
था। बिन घन
परत फुहार।
तुम भीग-भीग
जाते हो।
तुम्हारा रोआं-रोआं
सरोबोर
हो जाता है।
तुम्हारे
हृदय की
धड़कन-धड़कन में
एक नया संगीत
आ जाता है।
आंख खोलते हो
तो रहस्य; आंख
बंद करते हो
तो रहस्य; जहां
देखते हो वहां
रहस्य।
आश्चर्यचकित,
आत्मविभोर,
अवाक तुम
खड़े रह जाते
हो। इस घड़ी
में दो
संभावनाएं
हैं।
एक
संभावना तो है
कि यह आनंद
इसलिए हो रहा
है कि तुम
निकट पहुंच गए
स्वभाव के। यह
स्वाभाविक है।
और अगर यह
आनंद स्वभाव
के निकट
पहुंचने से
फलित हो रहा
है तो यह जो
उत्सव का
वाद्य बजने लगा
तुम्हारे
भीतर और ये जो
फूल खिलने
लगे,
और ये जो
हजार-हजार
राग-रागिनियां
प्रकट हो गईं,
और यह जो
धीमा, शीतल
प्रकाश
तुम्हारे
चारों तरफ
बरसने लगा, और ये जो करोड़-करोड़
दीए जल गए, यह
सब शुभ है और
इनके जलने से
तुम और करीब
आओगे, यह
द्वार पर
तुम्हारा
स्वागत है।
बहुत दिन का भटका
हुआ कोई वापस
लौट आया है घर;
सारा अस्तित्व
उसके स्वागत
में वंदनवार
सजाता है। अगर
यह उत्सव
स्वभाव के
निकट आने का
है तो
तुम्हारी जो
आखिरी
अस्मिता बची
रह गई होगी वह
भी यहां आकर
पिघल
जाएगी--इस
उत्सव की
ऊष्मा में। इस
उत्सव की
गर्मी में
तुम्हारी
आखिरी लकीर जो
थोड़ी-बहुत
मैं-भाव की
बची रही होगी,
आत्मबोध जो
थोड़ा-बहुत बचा
रहा होगा कि
मैं
हूं--कितना ही
शुद्ध, लेकिन
मैं हूं तो
अशुद्ध ही
है--वह लकीर भी
पिघल जाएगी इस
उत्सव में। इस
उत्सव में तुम
हिस्से हो
जाओगे। तरंग
खो जाएगी, सागर
बचेगा। यह तो
ठीक है।
लेकिन
खतरा भी यहीं
है। अगर कहीं
तुमने ऐसा समझा
कि मैं पहुंच
गया,
मैंने पा
लिया, कि
तुम पहले कदम
पर वापस फेंक
दिए जाओगे।
शायद पहले कदम
से भी पीछे
वापस फेंक दिए
जाओगे।
फर्क
कहां है? फर्क
बहुत बारीक
है। ज्ञानी तो
समझेगा इस क्षण
में कि
परमात्मा ने
मुझे पा लिया,
और अज्ञानी
समझेगा कि
मैंने
परमात्मा को
पा लिया। बस
इतना ही फर्क
है। ज्ञानी तो
कहेगा कि आ
गया घर, लीन
होता हूं अब, डूबता हूं
अब; अज्ञानी
समझेगा, पा
लिया आखिरी भी,
अब पाने को
कुछ न बचा; अब
मेरा अहंकार
अंतिम शिखर पर
है। ज्ञानी तो
पिघल जाएगा; क्योंकि
परमात्मा ने
मुझे पा लिया;
उसकी
अनुकंपा, उसका
प्रसाद। जैसे
छोटा बच्चा
मां की गोद
में सिर रख कर
खो जाएगा, ऐसे
ज्ञानी खो
जाएगा।
अज्ञानी अकड़
कर खड़ा हो जाएगा,
और कहेगा कि
मैंने
परमात्मा को
भी पा लिया! जो बड़े-बड़े
खोजी न पा सके,
जहां
बड़े-बड़े भटक
गए, वहां
भी मैं जीत
गया! अहंकार
अपनी आखिरी
भभक से उठेगा।
और एक क्षण
में तुम आखिरी
शिखर से उतर
आओगे आखिरी
गर्त में।
और
दोनों एक जैसे
लगते हैं। एंफेसिस, जोर
का फर्क है।
ज्ञानी कहता
है, परमात्मा
ने पा लिया
मुझे; जोर
परमात्मा पर
है। अज्ञानी
कहता है, मैंने
पा लिया
परमात्मा को;
जोर मैं पर
है। ज्ञानी इस
महोत्सव में
लीन हो जाता
है; अज्ञानी
इस महोत्सव को
भी मुट्ठी में
बांधने की
कोशिश करता
है। ज्ञानी
अपने को छोड़
देता है; अज्ञानी
इस विराट को पकड़ने की
कोशिश करता
है। एक क्षण
में सब व्यर्थ
हो जाता है, जन्मों-जन्मों
की चेष्टा पर
पानी फिर जाता
है।
ये दो
खतरे हैं अंत
के। प्रथम कदम
से लेकर अंतिम
कदम तक होश को
सम्हाले रखना
है। और
जैसे-जैसे
करीब पहुंचते
हो वैसे-वैसे
खोने की
संभावना बढ़ती
है। क्योंकि
जिसके पास है
वही खो सकता
है। अज्ञानी
के पास है ही
क्या? खोएगा भी क्या? लेकिन
जैसे-जैसे तुम
परमात्मा के,
परम निधि के
पास पहुंचते
हो, कुछ
तुम्हारे पास
होना शुरू हो
गया। खजाना
बरस रहा है।
अब और भी होश
चाहिए। अब और
भी होश चाहिए।
आखिरी द्वार
पर खड़े, इसके
पहले कि मंदिर
तुम्हें अपने
भीतर समा ले, कि मंदिर का
द्वार खुले और
तुम मंदिर के
गर्भ में लीन
हो जाओ, सबसे
बड़ा खतरा वहीं
आखिरी क्षण
में है। और
सबसे ज्यादा
होश की वहीं
जरूरत है।
तुममें
से बहुतों को
अनेक बार मैं
अनुभव करता हूं
कि जरा सी झलक
मिलती है, और
तुम वहीं से
फेंक दिए जाते
हो। तुम्हारी
झलक ही
तुम्हारा पतन
होती है। जैसे
ही झलक मिलती
है वैसे ही
अहंकार अकड़
जाता है।
तुम्हारी चाल
बदल जाती है।
तुम समझने
लगते हो, तुमने
कुछ पा लिया, तुम कुछ हो
गए, तुम
विशिष्ट हो, अब तुम कोई
साधारण नहीं।
एक
बूढ़े
संन्यासी कुछ
दिन पहले मेरे
पास आए। कुछ
भी पाने को
नहीं है अभी।
ऐसी छोटी-छोटी
मन की सूक्ष्मताओं
की झलकें मिली
हैं,
कि कभी शांत
बैठे हैं तो
प्रकाश दिखाई
पड़ गया है, कि
कभी शांत बैठे
हैं तो भीतर
ऊर्जा का उठता
हुआ स्तंभ
दिखाई पड़ गया
है, ऐसी
छोटी-छोटी
बातें हैं
जिनका कोई बड़ा
मूल्य नहीं है,
जो कि मन के
ही खेल हैं; जिनके कि
पार जाना है; जिनमें उलझे
तो कभी भी
परमात्मा तक
पहुंचा नहीं
जा सकता। बड़े
परेशान भी थे,
क्योंकि अब
आगे कैसे बढ़ें?
मैंने उनसे
कहा कि साफ सी
बात है। आगे
कैसे बढ़ें, यह बड़ा सवाल
नहीं है; जो
आपको अभी तक
हुआ है, उसको
आप पकड़े
हैं तो आगे
कैसे बढ़ेंगे?
जैसे कोई
आदमी रास्ते
के किनारे लगे
एक वृक्ष को
पकड़ ले, फिर
पूछे कि अब
आगे कैसे बढ़ें?
इसमें
क्या मामला है? इस
वृक्ष को छोड़ो!
इसको पकड़े
हो तो आगे
कैसे जाओगे? छोड़ कर ही
कोई आगे जाता
है। एक सीढ़ी छोड़ो तो
दूसरी सीढ़ी पर
पैर पड़ता है।
सीढ़ी पकड़ लो
तो आगे पैर पड़ना
बंद हो जाता
है।
अब वे
अकड़े हुए हैं।
वे कहते हैं
कि उनकी कुंडलिनी
जग गई। वह अकड़
बता रही है कि
वे जो छोटे-छोटे
अनुभव हुए, पकड़
लिए गए। कहते
हैं, उन्हें
नील-ज्योति
दिखाई पड़ रही
है। और मुझसे पूछने
आए थे कि मैं
अब कौन सी
अवस्था में
हूं?
मैंने
उनसे कहा कि
यह पूछो ही मत, क्योंकि
दो ही
अवस्थाएं हैं:
ज्ञानी की और
अज्ञानी की।
तीसरी कोई
अवस्था नहीं
है। और तीसरी अगर
बनाई तो वह
अज्ञानी का ही
उपद्रव होगा।
दो ही
अवस्थाएं हैं:
या तो उसकी जो
पहुंच गया है,
या उसकी जो
अभी नहीं
पहुंचा है। और
जो नहीं पहुंचा
है उसने अगर
कोई अवस्था
बना ली मध्य
की तो उसी
अवस्था को पकड़
लेगा। पकड़ने
के कारण
पहुंचना
मुश्किल हो
जाएगा।
अवस्था बनाओ
मत। अब इन दो
में से तय कर
लो। तुम्हीं
कहो कि इन दो
में से
तुम्हारी कौन
सी अवस्था है?
अज्ञानी
की कहने में
उनको बड़ी
कठिनाई हुई।
अगर वे कह
सकते कि
अज्ञानी की, आखिरी
मंजिल का खतरा
अलग हो जाता; यात्रा शुरू
हो जाती।
उन्होंने कहा,
कुछ-कुछ
ज्ञानी की; पूरा ज्ञानी
तो मैं नहीं
हूं।
मैंने
कहा,
कभी सुना है
अधूरा ज्ञान?
कभी सुना है
कि ज्ञान की
कोई डिग्री
होती है? कि
अभी पचास परसेंट
हो गया, अब
साठ परसेंट
हो गया, अब
सत्तर परसेंट
हो गया? कभी
सुना है कि यह
बुद्ध दस परसेंट,
यह बुद्ध
बीस परसेंट,
यह बुद्ध
सत्तर परसेंट
और यह बिलकुल
खालिस, चौबीस
कैरेट? बुद्धत्व
की कोई
अवस्थाएं
नहीं हैं।
बुद्धत्व या अबुद्धत्व।
लेकिन
मन अबुद्धत्व
पर तो राजी
नहीं होता। और
मन यह भी
जानता है कि बुद्धत्व
का तो दावा
कैसे करें।
क्योंकि अगर बुद्धत्व
का ही दावा
करना है तो
मेरे पास पूछने
क्या आए? बात
खतम हो गई।
दूसरे
तुम्हारे पास
पूछने आएंगे।
तुम क्यों
मेरे पास
पूछने आए हो? यह भी नहीं
कह सकते कि
मैं बुद्ध हो
गया हूं। वह
तो हुए भी
नहीं हैं, अन्यथा
कोई जरूरत ही
न थी कहीं
जाने की। और
यह कहने में
मन सकुचाता है
कि मैं
अज्ञानी हूं।
यही
खतरा है। जब
तक परम ज्ञान
न हो जाए तब तक
तुम अज्ञान को
ही अपनी अवस्था
समझना। और इंच
भर भी तरकीबें
मत निकालना कि
हां,
कई तरह के
अज्ञानी हैं;
कुछ मुझसे
नीचे हैं।
कोई
अज्ञानी
तुमसे नीचे
नहीं है। और
तुम किसी अज्ञानी
से ऊंचे नहीं
हो। अज्ञानी
यानी अज्ञानी।
कुछ अज्ञानी
धन में खोए
होंगे; कुछ
अज्ञानी धर्म
में खोए हैं।
किन्हीं ने तिजोरियां
भर ली हैं, किन्हीं
ने त्याग कर
लिया है।
किन्हीं के
पास सिक्के
चांदी के हैं;
किन्हीं के
पास सिक्के
त्याग के हैं।
किन्हीं ने
उपवास से
खाते-बहियों
को भर रखे हैं,
त्याग-व्रत
से, और
किन्हीं ने
कुछ और कूड़ा-कबाड़
इकट्ठा कर
लिया है। कोई
बाहर की रोशनी
के लिए दीवाने
हैं; किन्हीं
ने भीतर की
रोशनी को पकड़
रखा है। लेकिन
सब अज्ञानी
हैं; बाहर
और भीतर से
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
ज्ञान
की घड़ी के
पहले
तक--आखिरी
क्षण तक--तुम
अपने को
अज्ञानी ही
समझना। अगर
आखिरी क्षण को
आने देना हो, जब
तक कि तुम
मंदिर में
बुला ही न लिए जाओ
भीतर, तब
तक तुम
अज्ञानी ही
बने रहना, तब
तक तुम याचक
ही रहना; तब
तक तुम
भिक्षा-पात्र
को फेंक मत
देना; तब
तक तुम अपने
को विनम्र ही
रखना; तब
तक जरा भी
अहंकार को
निर्मित मत
होने देना।
अगर इस अहंकार
को तुम रास्ते
पर निर्मित
होने दिए तो
आखिरी क्षण
में यही अहंकार
तुम्हें डुबाएगा;
यही सांप है
जो तुम्हें
आखिरी क्षण से
लील जाएगा और
वापस पहुंचा
देगा जहां
उसकी पूंछ है।
इसे
तुम पहले ही
क्षण से स्मरण
रखना। धर्म को
संपदा मत
बनाना और
अनुभवों को
इकट्ठा मत
करना। कहना कि
सब राह के
किनारे की
बातें हैं; घटती
हैं, सामान्य
हैं। उन पर
ज्यादा ध्यान
मत देना। उनका
विचार भी मत
करना। उनके
साथ अकड़ को मत
जोड़ना। अगर
तुम पहले से
ही होशपूर्वक
चले और अंतिम
क्षण तक अपने
को अज्ञानी ही
जाना, तो
तुम्हें
आखिरी मंजिल
के कदम से कोई
भी वापस न भेज
सकेगा।
अब हम
लाओत्से के
सूत्र को
समझने की
कोशिश करें।
"जो
कर्म करता है,
वह बिगाड़
देता है। और
जो पकड़ता
है, उसकी
पकड़ से चीज
फिसल जाती है।'
ये बड़ी
गहन बातें
हैं। और ऐसे
ही अगर
ऊपर-ऊपर से सुनीं
तो तुम्हारी
समझ में न
आएंगी। तब ये
पहेली जैसी
लगेंगी। ये
बिलकुल
सीधी-साफ हैं; पहेली
कुछ भी नहीं
है। अगर तुम
समझने को
बुद्धि से मत जोड़ो तो ये
बिलकुल आसान
हैं। ये
सीधे-सीधे
सूत्र हैं।
अगर बुद्धि से
जोड़ो तो
कठिनाई बढ़
जाती है। कोई
भी चीज को
बुद्धि से जोड़ो,
वह पहेली हो
जाती है।
उसका
कारण है।
क्योंकि
बुद्धि
एक-आयामी है।
वह एक दिशा
में देखती है।
अगर वह दक्षिण
में देखती है तो
दक्षिण की तरफ
देखती है।
तुमने सुना
होगा शिकारियों
से कि जंगल
में एक खतरनाक
जानवर होता है, गेंडा।
वह अगर किसी
पर हमला करे
तो उससे डरने
की कोई जरूरत
नहीं। जरा सा,
जिस तरफ वह
आ रहा है, उससे
हट कर खड़े हो
जाना जरूरी
है। क्योंकि
वह एक-आयामी
है। वह सीधा
ही चला जाता
है। अगर तुम
उसके रास्ते
पर न पड़े तो वह
देख ही नहीं
सकता। उसकी
गर्दन नहीं मुड़ती, उसकी
गर्दन बड़ी
मोटी है।
बुद्धि
की गर्दन भी गेंडे
जैसी है; एक-आयामी
है। तुम जरा
ही बच कर खड़े
हो गए तो गेंडा
देख ही नहीं
सकता। उसके
लिए बस एक ही
दिशा है, जिस
तरफ वह जा रहा
है। उसकी दिशा
पर जो पड़ जाए
बस वही है; बाकी
जो उसकी दिशा
पर न पड़े वह
नहीं है।
बुद्धि
एक-आयामी है; वह
एक तरफ जाती
है। जैसे, बुद्धि
कहती है, अगर
किसी चीज को पकड़ना है
तो जोर से पकड़ो,
नहीं तो छूट
जाएगी। बात
साफ है कि अगर
किसी चीज को पकड़ना है
तो जोर से पकड़ो,
नहीं तो छूट
जाएगी। यह एक
आयाम हुआ।
इसमें एक विपरीत
आयाम भी है, वह बुद्धि
को पता नहीं, कि अगर बहुत
जोर से पकड़ोगे
तो हाथ थक
जाएगा। जितने
जोर से पकड़ोगे
उतने जल्दी थक
जाएगा। और जब
हाथ थक जाएगा
तब छोड़े बिना
कोई रास्ता न
रह जाएगा। तब
तुम्हें छोड़ना
ही पड़ेगा।
तो लाओत्से
बुद्धि से
बिलकुल भिन्न
आयाम की बात कर
रहा है। वह कह
रहा है, अगर
बहुत जोर से
पकड़ा तो छोड़ना
पड़ेगा।
क्योंकि पकड़
की एक सीमा
है।
तुम
कभी गौर करो।
मुट्ठी बांधो
जोर से, और बांधते
चले जाओ, बांधते
चले जाओ।
जितनी तुममें
ताकत हो, पूरी
लगा दो। तब
तुम एक अनूठा अनुभव
करोगे; जब
सब ताकत चुक
जाएगी, तुम
पाओगे
तुम्हारे
बिना कुछ किए
मुट्ठी खुल रही
है। तुम खोल
नहीं रहे, क्योंकि
अब तो खोलने
की भी ताकत
नहीं है। वह भी
तुमने बांधने
में ही लगा दी
थी। कभी करके
प्रयोग देखो,
कि बांधते
जाओ मुट्ठी को,
बांधते जाओ; सारी
ताकत लगा दो
मुट्ठी पर, और जरा भी
खुलने का उपाय
मत दो। थोड़े
ही क्षणों में
तुम थक जाओगे,
और तुम
पाओगे शिथिल
होती जा रही
है मुट्ठी, अंगुलियां अपने आप खुल
गई हैं। अब
तुम्हारा कोई
वश नहीं।
लाओत्से
कहता है, "जो पकड़ता है, उसकी पकड़ से
चीज फिसल जाती
है।'
यही
तुम्हारी
जिंदगी में
चौबीस घंटे हो
रहा है। लेकिन
वह बुद्धि का गेंडा
तुम्हें
सुनने नहीं
देता।
क्योंकि उसके
मार्ग पर ये
चीजें पड़ती
नहीं। उसका
तर्क सीधा-साफ
है कि जो पकड़ना
है,
जोर से पकड़ो,
नहीं छूट
जाएगा। अगर
कोई चीज छूट
जाती है तो बुद्धि
कहती है, देखो,
पहले ही कहा
था, जोर से पकड़ो, नहीं
तो छूट जाएगी।
अगर कोई चीज
बिगड़ जाती है तो
बुद्धि कहती
है, पहले
ही कहा था, ठीक
से करते, कभी
न बिगड़ती।
और
लाओत्से कहता
है कि तुम्हें
खयाल ही नहीं
है कि चीजें
अपने आप हो
रही हैं।
तुम्हारे
करने से क्या
हो रहा है? तुम
करने से बिगाड़
ही सकते हो।
और तुमने अगर
ज्यादा करने
की कोशिश की
तो ज्यादा बिगाड़
दोगे।
इसलिए
कर्मठ लोगों
से ज्यादा
उपद्रवी लोग
कहीं भी नहीं
होते। उनसे तो
आलसी भी बेहतर; कम
से कम किसी का
कुछ बिगाड़ते
तो नहीं।
कर्मठ आदमी तो
सुबह से झंडा
लेकर निकलता
है, उसको
सुधार करना है,
संसार
बदलना है। किसने
तुम्हें कहा
कि तुम संसार बदलो? किसने
तुम्हें यह
अधिकार दिया?
तुम स्वयं
अपनी
नियुक्ति कर
लिए हो संसार
बदलने के लिए,
कि क्रांति
करनी है, कि
दुनिया
भ्रष्ट हो रही
है, भ्रष्टाचार
मिटाना है।
हजारों-हजारों
साल करके भी
आदमी क्या कर
पाया? कौन
सी चीज कर
पाया है?
चीजें
अपने स्वभाव
से चल रही
हैं।
तुम्हारे किए
कुछ होता है? हां,
तुम नाहक
परेशान हो
लेते हो, बड़ा
उछलकूद मचाते
हो, पसीना-पसीना
हो जाते हो।
तुम मुफ्त ही
शहीद हो जाते
हो। और
तुम्हारे
उपद्रव के
कारण बहुत से
लोग जीवन में
अड़चन अनुभव
करते हैं। वे
अपने सीधे मार्ग
से जा रहे थे; वे जयप्रकाश
के पीछे चलने
लगते हैं, भ्रष्टाचार
मिटाना है। वे
बेचारे अपनी
दुकान करने जा
रहे थे, कि
अपनी पत्नी के
लिए दवा लेने
जा रहे थे; अब
उनको खयाल हो
गया कि
भ्रष्टाचार
मिटाना है।
अगर
दुनिया से
क्रांतिकारी
विदा हो जाएं, दुनिया
में बड़ी शांति
हो जाए। और
दुनिया से अगर
समाज-सुधारक
उठ जाएं तो
समाज अपने आप
सुधर जाए। मगर
बुद्धि कहेगी,
यह कैसे हो
सकता है? इतना
सुधार करके
सुधार नहीं हो
रहा है, और
आप उलटी बात
समझा रहे हो!
जब इतना सुधार
करके सुधार
नहीं हो रहा, तो बिना किए
कैसे होगा?
तुम्हारी
हालत वैसी है
जैसे छोटा
बच्चा एक पौधा
लगा देता है; बार-बार
निकाल कर
देखता है बीज
को कि अभी तक
अंकुर आया कि
नहीं! फिर घड़ी
भर बाद पहुंच
जाता है। अगर
किसी तरह
अंकुर निकल भी
आया, जो कि
पहले तो
मुश्किल ही है;
क्योंकि जब
बार-बार तुम
बीज निकाल कर देखोगे, अंकुर
निकलेगा कैसे?
कुछ तो मौका
दो उसको अपने
आप होने का! वह
तुम मौका ही
नहीं दे रहे।
और बच्चा तो
जल्दबाजी में होता
है। सभी
जल्दबाजी में
जो हैं, बच्चे
हैं, बचकाने हैं। अगर
किसी तरह
अंकुर निकल
आया, बच्चा
भूल-चूक गया, कहीं छुट्टी
पर चला गया, कुछ हो गया
और किसी तरह
अंकुर निकल
आया, बच्चे
के बावजूद, बच्चा रहता
तब तो निकलना
मुश्किल ही था,
तो अब बच्चा
जल्दी में है,
उसको वह
खींच कर बड़ा
करना चाहता है
कि जल्दी से
खींच कर बड़ा
कर दे, जैसे
कोई पौधे में
स्प्रिंग लगा
हो कि तुम उसे
खींच लो, वह
बड़ा हो जाए।
या जैसे कि
पौधा कोई
इलास्टिक का
धागा हो कि
तुम खींच लो
और बड़ा हो
जाए। बच्चा
खींचतान में
उसको तोड़
डालेगा; रोएगा,
चिल्लाएगा,
कि मैं कुछ
बुरा तो कर
नहीं रहा था
इसको, सिर्फ
बड़ा करने की
कोशिश कर रहा
था कि जल्दी हो
जाए, फूल
लग जाएं।
पौधा
अपने से बढ़ता
है;
नदियां अपने से
बहती हैं, तुम्हें
कोई धक्का
देने की जरूरत
थोड़े ही है।
बच्चे अपने से
बड़े होते हैं,
तुम्हें
बड़े करने की
जरूरत थोड़े ही
है। जीवन अपने
से चलता है।
तुम नहीं थे, तब भी चल रहा
था; तुम
नहीं रहोगे, तब भी चलता
रहेगा।
क्रांतिकारी
मुफ्त ही बीच में
शोरगुल मचा कर
यह एहसास कर
लेता है अपने
भीतर कि मेरे
बिना सारी
दुनिया नरक
में चली
जाएगी। कोई
कहीं नहीं जा
रहा है।
क्रांतिकारी
आते हैं और
चले जाते हैं,
संसार अपने
ढंग से चलता
रहता है।
बुराई को कोई
कभी मिटा नहीं
पाया; क्योंकि
बुराई भलाई का
अनुषांगिक
अंग है। रावण
को कोई कभी
मिटा नहीं
पाया; क्योंकि
रामलीला ही
मिट जाए। वह
रावण के साथ
चलती है।
ज्ञानी देखता
है इस सत्य को
कि चीजें अपने
से होती हैं।
कबीर ने कहा, अनकिए सब
होय। तुम करने
की व्यर्थ
झंझावात में
मत पड़ जाना।
और जो
सत्य है बाहर
के संबंध में
वही सत्य भीतर
के संबंध में
भी है। लोग
मेरे पास आते
हैं,
वे कहते हैं,
कामवासना
को कैसे विजय
करें? क्या
करें? ब्रह्मचर्य
को कैसे लाएं?
मैं उनसे
पूछता हूं, कामवासना को
तुम लाए थे? हम तो नहीं
लाए। जिसको
तुम नहीं लाए
उसको तुम मिटा
कैसे सकोगे? जिसने आते
वक्त
तुम्हारी
आज्ञा नहीं
मांगी, जिसका
प्रारंभ
तुम्हारे हाथ
में नहीं है, उसका अंत
तुम्हारे हाथ
में कैसे हो
सकेगा? कहां
से कामवासना
आई है? वे
कहते हैं, हमें
कुछ पता नहीं।
किसने
तुम्हें दी है?
वे कहते हैं,
आप भी कैसी
बातें पूछते
हैं? है।
प्रकृति से आई
है। प्रकृति
ही वापस लेगी।
जहां से चीजें
आती हैं, वहीं
वापस जाती
हैं। जिसके किए
आती हैं, उसके
किए वापस लौट
जाती हैं। तुम
क्यों बीच में
व्यर्थ ही
अपने को खड़ा
कर लेते हो?
क्रोध
मिटाना है, लोग
पूछते हैं।
तुम लाए थे? कब खरीद लाए?
खरीदा होता,
वापस भी कर
देते; बनाया
होता, मिटा
देते; तुम्हारे
हाथ से हुआ
होता, तुम्हारे
हाथ से अनहुआ
हो जाता। तुम
सीधी सी बात
क्यों नहीं
देखते? तुम
क्यों व्यर्थ
ही दाल-भात
में मूसलचंद...?
चीजें सीधी
चल रही हैं; तुम उसमें
बीच में क्यों
आते हो?
क्रोध
है। किसी के
हटाए कभी नहीं
हटा। और जब मैं
यह तुमसे कहता
हूं तो तुम
निराश मत हो
जाना। कोई कभी
क्रोध को नहीं
हटा पाया; कोई
कभी कामवासना
को नहीं हटा
पाया। लेकिन
जिस दिन तुम
यह स्वीकार कर
लेते हो और
मूसलचंद होना
बंद कर देते
हो, अचानक
तुम पाते हो
कि बहुत सी
चीजें हटनी
शुरू हो गईं।
प्रकृति
सब अपने से ही
करती रहती है।
जिस दिन तुम
इतने शांत हो
जाते हो और यह
समझ लेते हो
कि मेरा होना, मेरा
करना किसी भी
मूल्य का नहीं
है, उसी
दिन तुम्हारा
अहंकार मिट
जाता है। उसी
दिन तुम कहां
रहे जिस दिन
तुमने इस सत्य
को समझ लिया
कि सब हो रहा
है, मेरा
कुछ करने का
सवाल ही नहीं
है; मैं
खुद भी अपने
को नहीं बनाया
हूं। अचानक
तुमने पाया है
कि तुम हो।
जन्म हुआ।
अचानक एक दिन
पाओगे कि विदा
हो गए। अचानक
एक दिन पाओगे
कि सब ठाठ पड़ा
रह जाएगा जब
बांध चलेगा
बंजारा। न तो
आते वक्त
तुमसे कोई
पूछता, न
जाते वक्त
तुमसे कोई
पूछता।
तो तुम
इतनी छोटी सी
बात क्यों
नहीं समझ लेते
हो कि कर्तापन
मेरे हाथ में
नहीं है। और
यही परम धर्म
है: जिसको समझ
में आ गया कि
कर्तापन मेरे
हाथ में नहीं
है। इसी परम
धर्म को लाने
के लिए कई
प्रयोग किए गए
हैं। भाग्य का
सिद्धांत
सिर्फ एक
प्रयोग है इसी
को लाने के
लिए कि सब
भाग्य से हो
रहा है।
कृष्ण
ने अर्जुन से
यही गीता में
कहा कि तू सब कर्म
परमात्मा पर छोड़
दे,
वह जो करवाए
तू कर, तू
अपने को बीच
में मत ला।
कृष्ण की पूरी
शिक्षा यही है
कि तू मूसलचंद
मत बन। उसने
मार रखा है इन
लोगों को पहले
से ही जो आज इस
युद्ध में आकर
खड़े हुए हैं।
इनकी मरने की
घड़ी आ गई।
उसका खेल, तू
बीच में मत आ।
तू ज्यादा से
ज्यादा
निमित्त है।
वह तेरे कंधे
पर रख कर धनुष
को चला रहा है;
उसको चलाने
दे। कंधा भी
तेरा कहां है?
वह भी उसी
का बनाया हुआ
है। और तू भी
तेरा कहां है?
वह भी उसी
का है। इस तरफ
जो खड़े हैं
युद्ध के मैदान
में, वे भी
उसी के हैं; उस तरफ जो
खड़े हैं वे भी
उसी के हैं।
कथा भी उसी की
लिखी है; खेल
भी उसी का है; मंच भी उसी
का है; नाटक,
नाटक के
पात्र सब उसी
के हैं। और
उसने ही इस तरफ
एक तरह की
शक्लें बना
रखी हैं, और
उस तरफ दूसरी
तरह की शक्लें
बना रखी हैं।
तू बीच में मत
आ।
सारे
जगत के धर्म
का सार यह है
कि तुम्हें एक
बात समझ में आ
जाए कि तुम्हारे
किए कुछ नहीं
होता। और फिर
सब होना शुरू हो
जाता है। और
फिर जो कुछ भी
होता है वही
तृप्ति देता
है। क्योंकि
जब मेरे करने
का कोई सवाल
नहीं तो कैसा
विषाद, कैसी
हार, कैसी
सफलता, कैसी
असफलता? जब
वही कर रहा है
तो वही हारे, वही सफल हो, वही असफल
हो। वह जाने, हिसाब-किताब
वह रखे। अगर
सभी धागे उसी
के हैं और हम
उसके धागों
में लटकी
कठपुतलियों
की भांति हैं,
तो फिर क्या
प्रयोजन है? भूल-चूक
उसकी, प्रशंसा-निंदा
उसकी। हम अपने
को बिलकुल अलग
ही कर लेते
हैं। और
जैसे-जैसे यह
समझ गहन होती
है वैसे-वैसे
अहंकार छोटा
होता जाता है।
जिस दिन यह
बात पूरी
दिखाई पड़ जाती
है कि अपना कुछ
भी नहीं, हम
भी अपने नहीं
हैं, उसी
दिन अहंकार
विसर्जित हो
जाता है।
और
बिना अहंकार
के न काम हो
सकता है, न
क्रोध हो सकता
है। बिना
अहंकार के न
लोभ हो सकता
है, न मोह
हो सकता है।
बिना अहंकार
के न गृहस्थी
है, न साधुता
है। बिना
अहंकार के न
बुरा है, न
भला है।
विभाजन का मूल
आधार ही टूट
गया। और तब, तब तुम्हारे
लिए कुछ भी
नहीं बचा। तब
तुम साक्षी ही
रह गए। और यह
साक्षी होना
ही परम मंजिल
है। कर्ता
होना भ्रांति
है; साक्षी
होना ज्ञान
है। बाहर या
भीतर, समाज
में या
व्यक्ति में,
दूसरे में
या अपने में, तुम ज्यादा
से ज्यादा
साक्षी हो।
तुम्हारी
पत्नी क्रोध
करती है; क्या
कर सकते हो? कुछ मत करो।
किया कि
उपद्रव
बढ़ेगा। करने
से और आग में
घी पड़ेगा। तुम
कुछ मत करो।
तुम कर ही क्या
सकते हो? इस
पत्नी को
तुमने बनाया
नहीं। जिसने
बनाया है वह जाने।
यह पत्नी
तुम्हारे हाथ
में कोई वस्तु
तो नहीं है कि
तुम उसे
रंग-रोगन दे
दो, बदल
दो। इसकी अपनी
जीवन-यात्रा
है। और क्षण
भर का खेल है
कि रास्ते पर
तुम दोनों मिल
गए हो, कि
किसी पुरोहित
ने एक नाटक
रचा दिया और
सात चक्कर
लगवा दिए हैं।
राह पर मिल गए
थे; राह पर
थोड़ी देर साथ
हो; अलग हो
जाओगे।
दोस्ती क्षण
भर की है। साथ
चलना क्षण भर
का है। उसकी
अपनी यात्रा
है; तुम्हारी
अपनी यात्रा
है। अगर वह
क्रोधित होती
है तो वह
जाने। तुम
क्या कर सकते
हो? तुम
सिर्फ साक्षी
हो सकते हो।
तुम
चेष्टा मत
करना उसको
सुधारने की।
क्योंकि मैं
देखता हूं, हजारों
गृहस्थियां
इसलिए बरबाद
हो गई हैं--हो
रही हैं--कि या
तो पत्नी पति
को सुधार रही
है या पति
पत्नी को
सुधार रहा है।
और इस सुधारने
के धंधे में पत्नियां
बहुत ही कुशल
हैं; पतियों को सुधारने
में लगी हैं।
तुम न तो
दूसरे को सुधारने
की चेष्टा
करना।
क्योंकि कौन
किसको सुधार
पाया है? बाप
भी बेटे को
नहीं सुधार
सकता। छोटा सा
बेटा, अभी
कोई भी ताकत
नहीं है; लेकिन
उसको भी कोई
सुधार नहीं
सकता। सुधारा
कि तुम बिगाड़ोगे।
लाओत्से
कहता है, "जो
कर्म करता है,
वह बिगाड़
देता है।'
जिस
बाप ने सोचा
कि बेटे को
सुधारना है, उसने
बिगाड़ा।
अच्छे बाप
अनिवार्य रूप
से बुरे बेटे
के जन्मदाता
हो जाते हैं।
जिस पत्नी ने
सोचा कि सुधारना
है, कि
संबंध नष्ट
हुआ, कलह
शुरू हुई। जिस
समाज ने सोचा
कि सुधारना है;
यह करना है,
वह करना है;
जिस समाज
में भी सुधारक
और
क्रांतिकारी
पैदा हो गए
वही समाज
बरबाद हो गया।
दुनिया
अपने से चलती
है। यह नदी
अपने से बहती है।
तुम किनारे
बैठ रहो। तुम
जितना मौज ले
सको,
ले लो। और
अगर कर्ता का
भाव चला जाए, तो पत्नी जब
क्रुद्ध होगी
तब भी नाटक
देखने में तुम
मजा ले सकते
हो। क्योंकि
जब अपने हाथ
में ही कुछ
नहीं तो यह
भाव-भंगिमा भी
प्यारी है।
परमात्मा
करवा रहा है, देखो कि
भली-चंगी
स्त्री, बुद्धिमान,
बर्तन तोड़
रही है। यह
खेल देखो, कि
गीता-रामायण
का अर्थ करके
बता देती है, ज्ञान में
कमी नहीं है, विश्वविद्यालय
की उपाधि लिए
बैठी है, और
कैसा कृत्य कर
रही है! जब ऐसा
हो, ऊपर
देख कर उसको
धन्यवाद देना
कि खूब मदारी
है तू भी! भले-चंगे
लोगों से
क्या-क्या
करवा लेता है!
जब पति शराब पीकर
घर आ जाए, ऊधम
करने लगे, तब
पत्नी को कहना
चाहिए कि ऐसा
बुद्धिमान
आदमी है, जिसको
कोई नहीं चला
सकता, जिसको
कोई धोखा नहीं
दे सकता, वह
खुद को अपने
को धोखा देता
है। ऊपर देख
कर परमात्मा
को धन्यवाद
देना कि खूब
खेल दिखाया!
जरूर तेरा कोई
राज होगा। और
हम क्या कर
सकते हैं? तूने
ही पिलाई है, अन्यथा यह
घटता ही क्यों?
जैसे-जैसे
समझ बढ़ती है
वैसे-वैसे
लगता है, वही
एक कर्ता है।
और तब सब
अहंकार लीन हो
जाते हैं। और
इस
अहंकार-लीनता
का ही यह सारा
उपाय है
अलग-अलग
दिशाओं से। ज्ञानी
बस एक ही
चेष्टा कर रहे
हैं कि
तुम्हारा अहंकार
कैसे गल जाए, तुम कैसे
मिट जाओ। तब
फिर सब
स्वीकार
है--बाहर भी, भीतर भी।
ऐसा भी
नहीं कि तुम
बाहर ही
स्वीकार
करोगे। यहीं
तो लाओत्से की
कीमिया बड़ी
अदभुत है।
लाओत्से कोई
साधारण साधु
नहीं है।
लाओत्से कोई
साधारण
चरित्रवान
नैतिक पुरुष
नहीं है; कोई
पंडित-पुरोहित
नहीं है कि
लोगों को
चरित्र सिखा
रहा है।
लाओत्से तो
लोगों को जीवन
की परम दिशा
दे रहा है, जहां
चरित्र-दुश्चरित्र
किसी चीज का
कोई मूल्य
नहीं है।
लाओत्से कहता
है, न तो
दूसरे के साथ छेड़खान
करना; दूसरे
को छोड़ दो उस
पर, बीच
में बाधा मत डालो। और
यही लाओत्से
अपने लिए भी
कहता है कि
अपने साथ भी
बहुत छेड़खान
मत करो।
क्रोध
है;
इसको हटाना
है। कौन हो
तुम हटाने
वाले? कि
कामवासना है,
इसे मिटाना
है। कौन हो
तुम मिटाने
वाले? कामवासना
से ही पैदा
हुए हो; रोएं-रोएं
में कामवासना
भरी है। कौन
हो तुम मिटाने
वाले? कैसे
तुम
ब्रह्मचर्य
को लाओगे? क्या
करोगे?
नहीं, अड़चन
में पड़ जाओगे।
व्यर्थ ही
अपने साथ लड़ने
लगोगे। और
जीवन के जो
क्षण उत्सव के
हो सकते थे वे
अपने ही साथ
कलह में बीत
जाएंगे।
स्वीकार कर
लो। और यह
स्वीकार
आत्यंतिक और
परम है। न निंदा
करो, न
प्रशंसा करो।
जैसे हो राजी
रहो। और दूसरे
के लिए भी।
जैसा हो होने
का मौका दो
दूसरे को। उसे
कहो, तू
तेरी यात्रा
पर है; जो
तुझे ठीक लगे,
तू कर। जो
मुझे ठीक लग
रहा है, वह
मुझसे हो रहा
है। और ठीक और
गैर-ठीक लगने
का भी क्या
सवाल है? जो
हो रहा है, वह
हो रहा है। जो
नहीं हो रहा, वह नहीं हो
रहा। तब कैसी
अशांति होगी?
जब जो हो
रहा है, वह
हो रहा है, ऐसा
भाव बैठ गया, तथाता आ गई, तब फिर कैसी
अशांति? कैसी
बेचैनी?
और यह
भी सब अहंकार
का खेल है।
अहंकार कहता
है कि अच्छे
कपड़े पहन कर
जाओ,
अच्छा
चरित्र पहन कर
रहो। अहंकार
कहता है, तुम
इतने बड़े कुल
में पैदा हुए,
और शराब
पीते हो? अहंकार
कहता है, तुम्हें
यह शोभा नहीं
देता, तुम
तो मंदिर में
ही जंचते
हो। कि तुम
ऐसे बड़े घर
में पैदा हुए,
और
कामवासना से
लिप्त हो? तुम्हें
तो
ब्रह्मचर्य शोभा
देता है। ये
सब अहंकार की
ही बातें हैं।
इन सबको हटाओ।
हटाने का मतलब?
कुछ हटाने
के लिए करने
की जरूरत नहीं
है। क्योंकि
ये सब
भ्रांतियां
हैं। इनको
हटाने के लिए धक्का
देने की भी
जरूरत नहीं
है। सिर्फ
समझने की
कोशिश करो।
जीवन
की धारा अपने
आप बह रही है।
वृक्ष बड़े हो
रहे हैं। फूल
लग रहे हैं।
आदमी में वासनाएं
लग रही हैं।
आकाश में तारे
चल रहे हैं। सब
अपने से हो
रहा है। तुम
नियंता नहीं
हो,
निमित्त
हो। विराट
तुमसे कुछ करा
रहा है, तुम
करो। क्रोध
करा रहा है, क्रोध करो।
वासना में डाल
रहा है, वासना
में गिरो। जिस
दिन उठाएगा, उठ आना। न
गिरना
तुम्हारा है,
न उठना
तुम्हारा है।
न तो गिरने
में दीन बनो, और न उठने
में अकड़ लेना।
इसे
समझ लेना।
क्योंकि अगर
तुमने समझा कि
गिरने में
दीनता है तो
फिर जब तुम
उठोगे तो अकड़
से भर जाओगे।
तो जो-जो
वासना में
दीनता समझेगा, ब्रह्मचर्य
होकर अकड़ से
भर जाएगा। फिर
उसकी चाल ही
और हो जाएगी।
उसके दंभ का
कोई ठिकाना
नहीं। सभी कुछ
उसका है। बुरा-भला
सभी उसी को दे
दो।
"जो
कर्म करता है,
वह बिगाड़
देता है।'
तुम
बैठ रहो अपने
भीतर की अंतरगुहा
में,
तुम सिर्फ
साक्षी रहो।
"जो पकड़ता है, उसकी पकड़ से
चीज फिसल जाती
है।'
इसलिए
निरंतर यह
होता
है--लेकिन तुम
देखते नहीं, खयाल
में नहीं
लेते--कि जो
कामवासना से
लड़ता है वह
अक्सर
कामवासना में
फिसल जाता है।
जो क्रोध से
भरता है और
क्रोध से लड़ता
है और क्रोध
को दबाता है
वह महाक्रोधी
हो जाता है।
नहीं तो
दुर्वासा ऋषि
कैसे पैदा हों?
जो चरित्र
की बहुत पकड़
रखता है, कभी
उसके हाथ
शिथिल हो जाते
हैं। आखिर
पकड़-पकड़ कर
कोई चीज कितनी
देर पकड़े
रखोगे? कभी
तो हाथ को
विश्राम देना
पड़ेगा। तो संत
को भी छुट्टी
लेनी पड़ती है
संतत्व से।
कभी तो उसको
भी विश्राम
करना पड़ेगा।
कब तक लड़ते
रहोगे? चौबीस
घंटे तो कोई
भी नहीं लड़
सकता। बड़े से
बड़ा योद्धा भी
थकेगा; थकेगा तो विश्राम
में जाएगा। तो
संत
ब्रह्मचर्य
से लड़ेगा बारह
घंटे, और
बारह घंटे
कामवासना में
चित्त घूमता
रहेगा। बारह
घंटे भोजन न
करेगा, उपवास
करेगा, तो
बारह घंटे
भोजन का चिंतन
करेगा, सपने
देखेगा।
"जो पकड़ता है, उसकी पकड़ से
चीज फिसल जाती
है।'
लाओत्से
कहता है, हम
तुम्हें ऐसी
कला सिखाते
हैं कि
तुम्हारी पकड़
से कोई चीज
फिसल ही न
पाए। और वह
कला यह है कि तुम
पकड़ना ही
मत। फिर कोई
चीज फिसलेगी
कैसे? तुम
परिग्रह मत
करना। तो कोई
तुमसे छीन
कैसे सकेगा? किसी को तुम
जबरदस्ती
अपने पास रखने
की कोशिश मत
करना। नहीं तो
जिसको तुम
जबरदस्ती पास
रखना चाहोगे
वह दूर चला जाएगा।
तुम पकड़ना
ही मत अपने
पास रखने के
लिए। फिर
तुमसे कोई दूर
न जा सकेगा।
संत का
जीवन बड़ा
अतक्र्य है।
वह बुद्धि के गेंडे की
चाल नहीं है।
संत बहुआयामी
है। वह जीवन
के गहनतम
को देखता है।
और देखता है
कि बड़ी अजीब
घटनाएं घटती
हैं।
अगर
तुमने अपने
प्रेम को पकड़
बनाया, तुम्हारा
प्रेम नष्ट हो
जाएगा। तुमने
जिसे प्रेम
दिया, उसे
अगर तुमने
स्वतंत्रता
भी दी, दूर
जाने की
सुविधा भी दी,
वह तुमसे
कभी दूर न जा
सकेगा। उससे
हम दूर जाना
ही नहीं चाहते
जो हमें दूर
जाने की
सुविधा देता
है। दूर तो हम
उससे ही जाना
चाहते हैं जो
हमें पकड़ कर
पास रख लेना
चाहता है, खूंटे
में बांध देना
चाहता है।
क्योंकि
हमारी चेतना
स्वतंत्रता
चाहती है। जो बांधता है
उससे हम मुक्त
होना चाहते
हैं। जो हमें
मुक्त ही रखता
है उससे मुक्त
होने का क्या
उपाय है? उसने
हमें किसी ऐसी
जंजीर से बांध
लिया है, ऐसी
सूक्ष्म और
अदृश्य जंजीर
से, जिससे
छूटने का कोई
उपाय नहीं।
उसने हमें स्वतंत्रता
से बांध लिया।
इसलिए
अगर तुम सच
में ही प्रेम
करते हो तो
स्वतंत्रता
देना। नहीं तो
जिसको तुम
प्रेम करोगे
वही तुमसे दूर
जाएगा।
तुम्हारे पास
अगर सच में ही
कोई चीज हो तो
तुम उसे दे
देना, ताकि
कोई तुमसे उसे
छीन न सके। तब
तुम पहली दफा
उसके धनी, मालिक
हो जाओगे।
लाओत्से कहता
था कि जब तक
तुम कुछ देते
नहीं तब तक
तुम उसके
मालिक नहीं
हो। तुम्हारी
पकड़ ही बताती
है कि तुम चोर
हो। नहीं तो पकड़ोगे
क्यों? जो
अपनी ही है
उसको पकड़ने
की क्या जरूरत?
देकर ही
पहली दफे
तुम्हारी
मालकियत पता
चलती है।
ये बड़ी
उलटी बातें
लगती हैं
बुद्धि को, लेकिन
तुम्हारा
हृदय समझ सकता
है। और तुम्हारे
जीवन के अनुभव
में भी इसकी
छाप जगह-जगह
है। अगर तुम
थोड़ा विमर्श
करो, विचार
करो, निरीक्षण
करो, तुम
जीवन में भी
पाओगे: जिसको
भी तुमने पकड़
रखना चाहा वह
तुमसे दूर जा
चुका है।
बुद्धि कहती
है कि जरा जोर
से पकड़ना
था; इसलिए
दूर चला गया।
अगर ठीक से
कारागृह
बनाया होता और
कोई भी
रंध्र-द्वार न
छोड़ा होता
बाहर निकलने
का, तो
कैसे जाता? और अगर
तुमने और जोर
से पकड़ा होता
तो वह और जल्दी
चला गया होता।
क्योंकि
कारागृह में
कौन रहना
चाहता है?
जिब्रान
ने कहा है, अपने
बच्चों को
प्रेम देना, लेकिन अपने
सिद्धांत
नहीं; प्रेम
देना, लेकिन
अपना अनुभव
नहीं; प्रेम
देना, लेकिन
बांधना नहीं,
मुक्त
करना। बच्चे
तुमसे आते हैं,
लेकिन
तुम्हारे
नहीं हैं। हैं
तो वे भी
विराट के।
इसलिए तुम कौन
हो कि उनके
ऊपर आचरण का, चरित्र का
ढांचा बिठाओ?
तुम कौन हो
उन्हें
कारागृह में
डालने वाले? और जितना
बड़ा तुम
कारागृह
बनाओगे, उतने
ही जल्दी वे
छूट कर बाहर
हो जाएंगे। और
उचित है कि वे
बाहर हो जाएं;
नहीं तो वे
मर जाएंगे। यह
उनकी
जीवन-रक्षा के
लिए जरूरी है
कि वे हट
जाएं।
तुमने
कभी गौर किया? जीवन
में तुमने
जो-जो चीज
साधनी चाही
वही टूट गई।
फिर भी तुम
जागते नहीं।
क्योंकि
बुद्धि का गेंडा
एक ही बात कहे
चला जाता है, वह कहता है, और ठीक से
साधनी थी।
जो-जो चीज
तुमने बचानी
चाही वही-वही
छूट गई।
जिस-जिस को
तुमने सदा के
लिए सम्हालना
चाहा था, वह
सदा के लिए खो
गई। फिर भी
तुम जागते
नहीं।
और अगर
तुम बुद्धि की
सुनते जाओगे
तो वह तुम्हें
जागने न देगी।
क्योंकि उसके
पास एक निश्चित
तर्क है। उससे
विपरीत उसे
समझ में नहीं
आता। और जीवन
एकांगी नहीं
है। जीवन
अनेकांत है।
जीवन
बहुआयामी है।
लाओत्से
वही बहुआयाम
प्रकट कर रहा
है। वह कह रहा
है कि विरोध
नहीं है यहां।
यहां जीवन का
सीधा सूत्र
समझ लो।
"जो
कर्म करता है,
वह बिगाड़
देता है। जो पकड़ता है, उसकी पकड़ से
चीज फिसल जाती
है। क्योंकि
संत कर्म नहीं
करते, इसलिए
वे बिगाड़ते
भी नहीं हैं।
क्योंकि वे पकड़ते
नहीं हैं, इसलिए
वे छूटने भी
नहीं देते।'
संत की
पकड़ से तुम न
छूट पाओगे।
तुम लाख उपाय
करो,
वहां छूटने
का उपाय ही
नहीं है।
क्योंकि पहले स्थान
में वहां पकड़
ही नहीं है।
तुम भागोगे
कहां? तुम
जाओगे कहां? संत वही है
जिसके विपरीत
जाने का
तुम्हारे पास
उपाय ही न हो।
क्योंकि वह
कोई सीमा ही
नहीं बनाता।
वह कहता ही
नहीं कि इस
सीमा के बाहर
मत जाना। वह
तुम्हारे
आस-पास कोई
लक्ष्मण-रेखा
नहीं खींचता
कि इसके बाहर
मत निकलना। और
जो भी
लक्ष्मण-रेखा
खींचता हो, समझ लेना, मित्र नहीं
है, शत्रु
है। क्योंकि
अंततः संत
तुम्हें
स्वतंत्र
करना चाहेगा।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
ही परम लक्ष्य
है। तो वह
तुम्हें इस
तरह का प्रेम देगा
जिसमें पकड़ न
हो। तुम दूर
जाना चाहोगे
तो तुम्हें
साथ देगा कि
जाओ। तुम्हें
पूरा सहयोग
देगा दूर जाने
में भी।
और तब
तुम उससे दूर
न जा सकोगे।
कैसे जाओगे दूर? कहां
जाओगे? ऐसी
कोई भी दूरी
नहीं है, जहां
तुम उसे साथ न
पाओगे।
क्योंकि वह
दूर जाने में
तुम्हें साथ
देगा।
अगर
मां और बाप इस
राज को समझ
लें कि बेटे
को दूर जाने
देने में साथ
दें तो सदा
बेटा पास
रहेगा।
क्योंकि जहां
भी रहेगा पास
रहेगा। लेकिन
मां-बाप
बुद्धि को सुनते
हैं,
लक्ष्मण-रेखा
खींचते हैं, हर जगह
निषेध खड़ा
करते हैं, बागुड़
लगाते हैं कि
कहीं बाहर मत
चले जाना। और
तब एक दिन वे
अचानक पाते
हैं कि घोंसला
खाली पड़ा है; पक्षी उड़ चुके
हैं। तब वे
रोते हैं।
मैं
अनेक लोगों को
उनकी
वृद्धावस्था
में एक ही रोग
से पीड़ित
देखता हूं; वह
रोग है कि
उनके बच्चों
ने उन्हें छोड़
दिया।
तुमने
पकड़ा क्यों? नहीं
तो वे तुम्हें
छोड़ते कैसे? तुमने पकड़ा,
इसलिए ही
छोड़ दिया।
लेकिन
बुद्धि कहती
है,
पकड़ में कमी
रह गई। और ठीक
से पकड़ना
था। पहले ही
कहा था कि
अच्छी तरह पकड़ो,
नहीं तो छूट
जाएंगे। तब
तुम पछताते हो
और रोते हो।
और यह बुद्धि
का जाल
जन्मों-जन्मों
से चल रहा है।
और इसके
दुष्ट-चक्र के
तुम बाहर नहीं
आ पाते।
"संत
कर्म नहीं
करते, इसलिए
वे बिगाड़ते
भी नहीं हैं।'
संत
बिगाड़ ही नहीं
सकता, क्योंकि
संत सुधारता
नहीं।
तुम्हारी सभी
धारणाएं
लाओत्से के
संत को समझने
में बाधा बनेंगी।
क्योंकि तुम
सोचते हो, संत
वही है जो
सुधारता है; संत वही है
जो सारे संसार
के उद्धार के
लिए पैदा हुआ
है। इससे
ज्यादा झूठी
कोई बात नहीं
है। संत किसी
का उद्धार
नहीं करना
चाहता।
उद्धार करने
वाले ही तो
उपद्रव खड़ा कर
देते हैं। संत
तो तुम जो भी
होना चाहते हो
उसमें
तुम्हें साथ
देता है।
ऐसा
हुआ। कोई दो
सप्ताह पहले
एक वृद्ध सांझ
को मुझे मिलने
आए थे। और एक
युवक ने पूछा
कि मैं शादी
करना चाहता
हूं,
आप क्या कहते
हैं? मैंने
कहा, जरूर
करो। और मैंने
उसे कैसे वह
लड़की चुने, क्या करे, सब बताया।
वे वृद्ध तो
बड़े बेचैन हो
गए। उन्होंने
कहा कि मेरी
समझ के बाहर
है। संत तो
मनुष्यों को
वासना से
उठाने के लिए
है। और इस
युवक को आप
क्यों भटका
रहे हैं? इसको
सचेत करें कि
शादी करना ठीक
नहीं। और जब
वह पूछने आपसे
आया है और
निर्णय आप पर
छोड़ रहा है तो
आप उसे ऐसी
बात क्यों कह रहे
हैं?
मैंने
कहा,
वह मुझसे
पूछने ही
इसलिए आया है,
क्योंकि
अगर वह शादी न
करना चाहता तो
मुझसे पूछने
का कोई सवाल
ही न था। वह
पूछने ही
इसलिए आया है।
और अगर मैं
कहूं मत कर, तो मैं उसे
करने के लिए
और भी आकर्षित
करूंगा। और
अगर वह मेरी
मान ले और न
करे तो जीवन
भर पीड़ित और
परेशान
रहेगा।
क्योंकि
विवाह एक
अनुभव है
जिससे गुजरना
जरूरी है। आग
से भरा है, फफोले
पड़ते हैं; लेकिन
उनके बिना कोई
प्रौढ़ता
भी नहीं आती।
दूसरे से
गुजरना जरूरी
है, ताकि
तुम अपने पर आ
सको। बहुत से
दरवाजे खटखटाने
पड़ते हैं, तभी
अपना घर मिलता
है। और यह अभी
बूढ़ा नहीं है;
आप बूढ़े
हैं। आप उस
अनुभव से गुजर
चुके हैं। आपको
उसकी जलन याद
है। आप दूध के
जले हैं; अब
छाछ भी
फूंक-फूंक कर
पी रहे हैं।
इसको भी जलने
दें। तो मेरा
कुल काम इतना
है कि मैं
इसको वह सब
कहूं जिससे इतना
न जल जाए कि
लौटने का उपाय
न रहे। जले, अनुभव से
गुजरे;
लेकिन जीता
हुआ वापस लौट
आए; नष्ट न
हो जाए उस
अनुभव में। बस
इतना ही मेरा
काम है। यह जो
भी करना चाहता
है, उसमें
मैं इसे सहयोग
दूं।
अगर
चोर भी मुझसे
पूछने आए कि
मैं कैसे चोरी
करूं? तो मैं
उसे सम्यक
चोरी का
रास्ता
बताऊंगा। ऐसी
चोरी का
रास्ता कि वह
करे भी और खो
भी न जाए; और
एक दिन चोरी
कर-कर के ही अचोर
हो जाए; और
एक दिन चोरी
के अनुभव से
ही ऊपर उठे।
कमल कीचड़ से
ऊपर उठता है। अचौर्य
चोरी से ऊपर
उठता है।
ब्रह्मचर्य
का फूल
कामवासना के
कीचड़ में ही
खिलता है। और जो
कीचड़ से ही
वंचित हो गया,
उसमें फिर
फूल कभी न खिल
सकेगा। और मैं
कौन हूं इसको
रोकने वाला? जो जहां
जाना चाहता है,
मैं तो उसे
दीया दे दूंगा
बेशर्त कि
जहां भी जाए
दीए की रोशनी
पड़ती रहे।
चोरी करने जाए
तो दीया दे दूंगा
कि चोरी पर
रोशनी पड़े, रास्ता
अंधेरा न हो; कामवासना
में जाए तो
दीया दे दूंगा,
रोशनी रहे
रास्ते पर।
क्योंकि असली
सवाल यही है
कि तुम जो भी
करो अगर होश
और रोशनी से
करो तो तुम्हें
कुछ भी बांध न
सकेगा। एक न
एक दिन रोशनी
तुम्हें सब नरकों के
बाहर ले आएगी।
इसलिए सवाल यह
नहीं है कि
तुम क्या मत
करो, सवाल
यह है कि बस
होशपूर्वक
करो।
संत
सुधारते नहीं, इसलिए
वे बिगाड़ते
भी नहीं। और
जो सुधारने की
कोशिश में लगे
हैं, वे
बिगाड़ने के
मूल आधार हैं।
और जितना ही
तुम्हारे
तथाकथित साधु,
जो संत नहीं
हैं, जो
खुद भी किसी
दूसरे के द्वारा
सुधारे गए हैं,
यानी गहरे
में बिगाड़े
गए हैं, जो
खुद अपने
अनुभव से तिरे
नहीं हैं और
फूल नहीं बने
हैं, जो
उधार हैं, जो
किसी सुधारक
के चक्कर में
पड़ गए हैं और
किसी ने
जिन्हें
सुधार कर रख
दिया है, बस
ऊपर-ऊपर उनका सुधारापन
है, भीतर-भीतर
सब कचरा
इकट्ठा है; ये लोग
दूसरों को
सुधारने में
लगे हैं।
एक बात
ध्यान रखना, जिस
बीमारी से तुम
परेशान होते
हो तुम उसे
फैलाने में
लगते हो।
संक्रामक हो
जाती है।
इन्होंने
कामवासना को
दबा लिया, इन्होंने
ब्रह्मचर्य
की कसम ले ली, ये पूंछ कटा
बैठे हैं, अब
यह तुम्हारी
पूंछ पर इनकी
नजर है। और जब
तक तुम्हारी न
काट दें तब तक
इनको चैन नहीं
है। क्योंकि
तुम्हारी भी
पूंछ कट जाए तो
तुम भी इन्हीं
के पूंछ-कटे
समाज के
हिस्से हो
जाते हो। फिर
तुम भी दूसरों
की काटने में
लग जाओगे।
तुमने
उस लोमड़ी
की कहानी पढ़ी
न जो पूंछ कटा
बैठी थी। किसी
गुरु के चक्कर
में पड़ गई।
गुरु तो सभी
जगह हैं।
मनुष्यों में
भी हैं, लोमड़ियों में भी हैं।
वह किसी और
गुरु से कटा
चुके थे। तो
उसने कहा कि
जब तक पूंछ न कटाओ तब तक
ज्ञान उपलब्ध
नहीं होता। और
कष्ट से तो गुजरना
ही पड़ता है, तपश्चर्या
करनी ही पड़ती
है। बिना
त्याग किए कहीं
कुछ मिला है? और पूंछ को छोड़ो। और
पूंछ में है
भी क्या!
व्यर्थ ही
लटकी है; किसी
काम की भी
नहीं है। और
हम देखो इसी
को कटा कर
ज्ञान को
उपलब्ध हुए
हैं। हमारे
गुरु भी इसी
को कटा कर
ज्ञान को
उपलब्ध हुए
थे। और ऐसा सदा
से चला आया
है।
बातों
में पड़ गई लोमड़ी, पूंछ
कटा बैठी।
कटते ही उसे
समझ में आया
मिला तो कुछ
नहीं, पूंछ
भर कट गई। अब
दो ही उपाय
रहे: या तो वह
साफ-साफ कह दे
और लोमड़ियों
को कि मत
कटाना! लेकिन
तब अपने
अहंकार को
बचाने का कोई
उपाय न रहा।
लोग हंसेंगे,
लोमड़ियां हंसेंगी,
और कहेंगी,
यह पूंछ कटा
बैठी। गुरु से
उसने कहा, मिला
तो कुछ नहीं।
गुरु
ने कहा, हमको
क्या कुछ मिला
है? मगर अब
किसी से कहने
में कोई सार
नहीं। अब तुम भी
लोगों को
समझाओ कि कटाओ
पूंछ। मिला
किसको है? मिला
किसी को भी
नहीं है। यह
सदा से ऐसे ही
चला आया है।
लेकिन जब हम
फंस गए तो एक
ही रास्ता है अपनी
प्रतिष्ठा बचाने
का कि अब तुम
इसको छिपा लो,
अपने दर्द
को भीतर रखो, मुस्कुराओ,
लोमड?ियों को समझाओ कि कटाओ
पूंछ। जब तक
हर लोमड़ी
की पूंछ न कट
जाए तब तक
अपनी कोई
सुरक्षा नहीं,
प्रतिष्ठा
नहीं। हम मारे
गए।
सब जगह
यही चल रहा
है। तुम जाते
हो एक साधु के
पास;
उसने संसार
छोड़ दिया है।
वह देख कर ही
तुम्हें कहता
है, छोड़ो संसार।
पत्नी, घर,
बच्चे, यही
तो जंजाल है।
बात भी जंचती
है। क्योंकि
तुम भी तो
मुसीबत झेल
रहे हो, जंजाल
तो है। और यह
आदमी शांत
बैठा है। अब
तुम्हें पता
नहीं कि इनकी
पूंछ कट गई
है। और यह आदमी
भीतर बड़ा
परेशान है।
इसके मन में
गृहस्थी के ही
विचार उठते
हैं। यह
बार-बार
स्त्री के
संबंध में
सोचता है।
बार-बार अपने
को समझाता है
कि अब ठीक
नहीं, प्रतिष्ठा
के विपरीत है
पीछे लौटना।
लोग हंसेंगे;
जगहंसाई होगी। लोग
कहेंगे, भ्रष्ट
हो गया। तुम
मौका भी नहीं
देते कि कोई आदमी
की पूंछ कट
जाए और वह
वापस आए तो
तुम उसे
स्वीकार भी न
करोगे।
एक जैन
साधु मुझसे
पूछने आए थे।
तो मैंने उनसे
यही कहा कि जो
सत्य है उसको
छिपाने की कोई
जरूरत नहीं।
अगर तुम्हें
कुछ भी नहीं
मिला इस सब उपवास, त्याग,
ढोंग, उपद्रव
से, छोड़
दो। उन्होंने
कहा, छोड़
तो दें, लेकिन
अभी जो लोग
मेरे पैर छूते
हैं वे ही
मुझे जूते
मारेंगे। वे
कहेंगे, यह
भ्रष्ट हो
गया।
बड़ी
मजेदार
दुनिया है।
यानी इस
ईमानदार आदमी को, अगर
यह कह दे कि
मुझे कुछ नहीं
मिला, तो
लोग कहेंगे, तुम्हें
नहीं मिला, क्योंकि तुम
पापी हो, तुमने
ठीक से प्रयास
नहीं किया।
कहीं ऐसा हो
सकता है कि
इतने दिन से, और इतने
पूंछ कटे लोग,
और किसी को
न मिला हो? सदा
से जो चली आ
रही है, सनातन
जो धर्म है, उसमें
तुम्हीं एक
ज्ञानी पैदा
हुए! तुम्हारे
पाप कर्मों की
बाधा पड़ रही
है। तुम्हीं
गड़बड़ हो। लोग
यह कहेंगे।
तो
मैंने कहा, तुम
करते क्या हो?
उन्होंने
कहा, मैं
भी वही समझा
रहा हूं लोगों
को जिसमें
मुझे कुछ नहीं
मिला। रोज दिन
भर समझाता हूं,
रात भर सिर
ठोकता हूं कि
यह क्या मामला
हो गया! और यह
भी मैं जानता
हूं कि इनको
समझा कर मैं
ज्यादा से
ज्यादा यही
करवा सकता हूं
जो मैंने किया
है। भीतर डर
भी लगता है कि यह
पाप भी है।
लेकिन मैं
पढ़ा-लिखा भी
नहीं हूं। अगर
मैं छोड़ भी
दूं--अभी मैं
सब तरह की
प्रतिष्ठा का
पात्र
हूं--अगर मैं
छोड़ दूं तो
मुझे कोई पचास
रुपए की नौकरी
यही भक्त नहीं
दे सकेंगे जो
अभी मेरे पैर
छूते हैं और
लाखों रुपए
लाकर रखते
हैं। फिर भी
मैंने कहा कि
तुम आदमी
ईमानदार अगर
हो तो यह कष्ट
से भी गुजर जाओ;
छोड़ दो।
देखें, क्या
होता है?
सच में
ही उसने छोड़
दिया। और वही
हुआ जो उसने कहा
था। सारे जैनी
उसके पीछे पड़
गए कि वह
भ्रष्ट हो गया; पापी
है; संसार
में वापस लौट
आया।
एक सभा
में हैदराबाद
में मैं बोल
रहा था तो वह भ्रष्ट--जैनियों
की नजरों में, पूंछ
कटा आदमी--वह
भी मौजूद था।
वह मेरे साथ
ही सभा-मंडप
तक आया और
मेरे साथ ही
मंच पर जाकर
बैठ गया। वह
जैनियों का
मंदिर था।
वहां उपद्रव मच
गया। वे मेरी
वजह से कुछ कह
भी न सके, लेकिन
खुसर-पुसर
शुरू हो गई कि
यह आदमी मंच
पर नहीं होना
चाहिए। आखिर
मेरे पास एक
चिट्ठी आई कि
और सब ठीक है, इस आदमी को
यहां से हटाइए;
यह आदमी
भ्रष्ट है।
मैंने
उनको बहुत
समझाया कि यह
आदमी भ्रष्ट
नहीं है, बहुत
ईमानदार है।
और असली त्याग
इसने अब किया है
कि यह हिम्मत
इसने जुटाई।
क्योंकि मैं
तुम्हारे
दूसरे साधुओं
को भी जानता
हूं। उनसे भी
मेरी अंतरंग
बातें हुई
हैं। और उनको
भी मैंने इसी
हालत में पाया
है। लेकिन यह
आदमी ईमानदार
है। उन्होंने
कहा, यह आप
भ्रष्टाचार फैलवा रहे
हैं; इसको
नीचे उतारो।
आखिर
उन्होंने
इतना उपद्रव
मचाया कि वे
चढ़ बैठे मंच
पर और उस आदमी
को खींच लिया नीचे;
उसकी
मार-पीट कर
दी। और वह
आदमी सच में
ईमानदार है।
जब नहीं मिला
कुछ तो वह कह
रहा है कि भई
मुझे नहीं
मिला। लेकिन
ईमानदारी की
थोड़े ही पूजा
है! बेईमान
पूजे जाते
हैं।
यह
कटी-पूंछ वाली
लोमड़ी
अगर लोगों से
जाकर कहेगी कि
हम फिजूल कट
गए,
तुम मत
कटवाना, तो
लोमड़ियां
ही इस पर हंसेंगी
कि ऐसा कहीं
होता है? सनातन
से पूंछ कटे
हुए लोग ज्ञान
को उपलब्ध होते
रहे हैं।
बड़ा
दुष्ट जाल है।
तुम भी जानते
हो कि तुमने भी
बहुत उपाय
करके देख लिए
हैं,
वे व्यर्थ
जाते हैं, फिर
भी तुम किसी
को कहते नहीं
कि वे व्यर्थ
जाते हैं। तुम
भी अपने मन को
समझा लेते हो
कि चुप ही
रहो। क्योंकि लोग
यही कहेंगे कि
उपाय तो गलत
हो ही नहीं
सकते, तुम
ही गलत होओगे।
अपने को ढांके
हुए हो।
लाओत्से
उसी को संत
कहता है जो न
तो किसी को सुधारने
में उत्सुक है
और इसलिए किसी
को बिगाड़ने का
कारण नहीं
बनता। संत की
तो भाव-दशा यह
है कि जो हो
रहा है उसे वह
और सुगमता से
होने के लिए
तुम्हें
मार्ग दे। और
तुम्हें सहयोग
दे कि ठीक है, तुम
पश्चिम जा रहे
हो, जाओ; मेरे
आशीर्वाद। और
पश्चिम में
मैं भी गया
हूं; उस
रास्ते पर
ये-ये
कठिनाइयां
हैं, बच
सको तो ठीक।
और उससे लौटने
के उपाय हैं, खयाल में
रखना। कभी
जरूरत पड़े तो
लौट आना। लेकिन
जहां जा रहे
हो, जाओ।
क्योंकि
दूसरे की
नियति में जरा
भी अड़चन डालनी
पाप है। दूसरे
के अपने
यात्रा-पथ में
जबरदस्ती
करनी उपद्रव
है। और जो भी
जबरदस्ती करते
हैं वे इसीलिए
करते हैं कि
वे खुद अपने
साथ जबरदस्ती
कर रहे हैं, और वही वे
दूसरों के साथ
करना
चाहेंगे।
इसे
तुम नियम समझ
लो कि जिस
आदमी ने अपने
साथ जबरदस्ती
की है वह
दूसरों के साथ
जबरदस्ती करेगा।
क्योंकि हम जो
अपने साथ करते
हैं वही हम दूसरों
के साथ करते
हैं। और जिस
आदमी ने अपने
साथ कोई
जबरदस्ती
नहीं की, जिसने
स्वाभाविक
रूप से, सरलता
से सत्य की
प्रतीति की है,
जो सहज
समाधि को
उपलब्ध हुआ है,
वह किसी के
साथ जबरदस्ती
नहीं करता। और
असहज कहीं कोई
समाधि होती है?
सहज ही
समाधि है।
संत
तुम्हारे साथ
कोई जबरदस्ती
नहीं करता। यह
बड़ा कठिन है
हमें समझना।
क्योंकि संत
की हमारी
धारणा यही है
कि वह हमें
सुधारता है।
उसके पास जाओ
तो वह सुधारेगा।
जब सुधरना हो
तो उसके पास
जाओ। वह जैसे
कोई चिकित्सक
है,
जब तुम
बीमार हुए तब
जाओ; वह
तुम्हारा
इलाज करेगा।
नहीं, संत
का होना सिर्फ
एक ही अर्थ
रखता है और वह
अर्थ यह है कि
जैसा सरल वह
हो गया है
वैसा ही सरल
होने की
तुम्हें भी वह
सुविधा जुटा
दे। सरलता का
अर्थ है: कर्म
नहीं, साक्षी;
कर्ता नहीं,
द्रष्टा।
"मनुष्य
के कारबार
अक्सर पूरे
होने के करीब
आकर बिगड़ते
हैं। आरंभ की
तरह ही अंत
में भी सचेत
रहने से असफलता
से बचा जा
सकता है।'
इसलिए
संत सिर्फ एक
ही सूत्र देते
हैं,
एक दीया
देते हैं, कि
तुम सचेत रहो;
तुम जहां भी
जाओ, तुम
जो भी करो, सचेत
रहो। बुरा
करने का मन है,
करो।
क्योंकि तुम
कर क्या सकते
हो अब? इस
मन को दबाओगे
तो बुराई
इकट्ठी होगी;
आज नहीं कल
फूटेगी। तुम
करो। लेकिन
सचेत होकर करो।
और बड़ी अदभुत
कीमिया है
सचेत होने की।
क्योंकि जैसे
ही तुम सचेत
होते हो, बुराई
अपने आप कम
होती जाती है।
सचेत रह कर कभी
कोई बुरा कर
सका है? सब
बुराई बेहोशी
में होती है।
सब बुराई एक
तरह का पागलपन
है। सब बुराई
तुम जब होश खो
देते हो तभी
संभव है।
इसलिए
एक ही सदगुण
संत देते हैं
कि तुम जागे रहो; तुम
होशपूर्वक
करो, तुम
जो भी करो।
कामवासना में
जाओ तो
होशपूर्वक
जाओ; उसे
भी ध्यान
बनाओ। जल्दी
ही तुम उसके
पार हो जाओगे।
और वह पार
होना अलग
होगा। वह दमन
न होगा, वह
अनुभव से पार
होना होगा। वह
अतिक्रमण
अदभुत है। उस
अतिक्रमण में
कोई दंश न
होगा। वह अतिक्रमण
ऐसा ही सहज है
जैसे फूल लगते
हैं। कोई
लगाता थोड़े ही
है! जैसे घास
बढ़ती है अपने
आप। झेन फकीर
कहते हैं, दि
ग्रास ग्रोज
बाई इटसेल्फ।
कुछ करना थोड़े
ही होता है, घास अपने से
बढ़ती है। ऐसे
ही
ब्रह्मचर्य
अपने से बढ़ता
है, होश हो
तो करुणा अपने
से बढ़ती है, होश हो तो
अहिंसा अपने
आप आती है।
कोई व्रत-नियम
थोड़े ही लेने
पड़ते हैं, कोई
ठोंक-पीट कर
थोड़े ही
अहिंसक हो
सकता है। कोई
जबरदस्ती
अपने को
दबा-दबा कर
कभी प्रेम से भरा
है! घृणा से
भला भर जाए, प्रेम से
भरने का यह
रास्ता नहीं।
संत तो
एक ही बात
कहते हैं, "कामनारहित
होने की कामना
करते हैं।'
ये भी
सब कामनाएं
हैं कि मैं
क्रोध से
मुक्त हो जाऊं, कि
मैं मोक्ष पा
लूं, कि
ब्रह्मचर्य
मेरे जीवन में
फलित हो जाए।
ये भी सब
कामनाएं हैं;
ये भी सब
वासनाएं हैं;
ये भी सब
इच्छाएं हैं।
संत तो एक ही
कामना करते
हैं--कामनारहित
होने की। और
कामनारहित होना
होश की छाया
से फलित होता
है। क्योंकि
जितना-जितना
तुम
होशपूर्वक
कामना में
उतरते हो उतना
ही उतना तुम
पाते हो, कैसा
पागलपन! यह
तुम क्या कर
रहे हो! करने
योग्य ही नहीं
मालूम होता।
भीतर से रस ही
खो जाता है।
भीतर से दौड़
नहीं उठती; वासना के
बीज दग्ध हो
जाते हैं। होश
की अग्नि में
वासना के बीज
दग्ध हो जाते
हैं।
और जिस
दिन तुम
कामनारहित हो
उस दिन कोई
ईश्वर की
कामना थोड़े ही
करनी पड़ती है!
कि मोक्ष की
कामना करनी
पड़ती है!
कामनारहित
होना मुक्ति
है,
कामनारहित
हो जाना मोक्ष
है।
कामनारहित हो
जाना ईश्वर हो
जाना है।
इसलिए ईश्वर
की कामना शब्द
गलत है, मोक्ष
की कामना शब्द
गलत है।
अब तुम
फर्क समझ
लोगे।
तुम्हारा
साधु मोक्ष की
कामना कर रहा
है। पहले
संसार की
कामना कर रहा
था,
अब किसी ने
उसकी पूंछ काट
दी, अब वह
मोक्ष की
कामना कर रहा
है। लेकिन
कामना नहीं
कटी, कामना
बदल गई। आब्जेक्ट
बदल गया, कामना
का विषय बदल
गया। कल धन
चाहते थे, अब
आत्मा चाहते
हैं। कल यश
चाहते थे, अब
परमात्मा
चाहते हैं। कल
साम्राज्य
चाहते थे, अब
मोक्ष चाहते
हैं। लेकिन
चाह जारी है।
यही असली साधु
और नकली साधु
का फर्क है।
चाह
जारी है।
धार्मिक रंग
हो गया चाह पर, लेकिन
चाह जारी है।
यह झूठा साधु
है। यह जीवन
से साधुता को
उपलब्ध नहीं
हुआ, यह
किसी का उपदेश
सुन कर साधु
हो गया है।
किसी ने इसका
सिर मूंड़
दिया। यह अपने
अनुभव से नहीं
आया है। यह
किसी की बात
में पड़ गया, यह किसी
सेल्समैन के
चक्कर में आ
गया। किसी ने
पाठ पढ़ा दिया
इसको। और सब
तरफ जैसे
बाजार में
सेल्समैन हैं
जो चीजें
बेचने की कला
जानते हैं, वैसे ही
मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों
में भी
सेल्समैन
बैठे हैं।
उनका नाम
पुरोहित, पंडित,
पुजारी; तुम
जो चाहो कहो।
वे भी वहां
धर्म बेच रहे
हैं। दुकानें
हैं जहां
संसार बिकता
है; दुकानें
हैं जहां धर्म
बिकता है। और
तुम संसार की
दुकानों में
भी लूटे जाते
हो और धर्म की
दुकानों में भी
लूटे जाते हो।
मैंने
सुना है कि दो
सेल्समैन आपस
में बात कर रहे
थे। एक ने कहा, आज
मैंने गजब कर
दिया। एक आदमी
को जमीन बेची
थी, और
जमीन कोई आठ
फीट गङ्ढे
में थी। मगर
मैंने वह
बातें कीं
उसको कि जंचा
दी; पढ़ा
दिया पाठ।
जमीन तो उसने
खरीद ली।
लेकिन दो दिन
बाद, संयोग
की बात, वर्षा
हो गई; और
वह पूरा गङ्ढा
पानी से भर
गया। वह मेरे
पास
चिल्लाता-चीखता
आया कि इस
जमीन का क्या
करेंगे? इसमें
तो आठ फीट
पानी भर आया, यह तो झील हो
गई। इसमें कोई
मकान बन सकता
है? कि खेतीबाड़ी
हो सकती है? कि कुछ भी हो
सकता है? तो
मैंने उसे एक
मोटर बोट भी
बेच दी।
दूसरे
ने कहा, यह
कुछ भी नहीं।
इससे भी बड़ी
घटना आज मेरे
जीवन में घटी
है। एक औरत आई,
उसका पति मर
गया है। तो
मरते वक्त
ड्रेस पहनानी
पड़ती है एक
खास तरह की। मैंने
उसको दो जोड़ी
ड्रेस बेच दीं
कि कभी-कभी बदलाहट
के लिए भी ठीक
रहेगा। वह
आदमी मर चुका
है। उसको मरघट
पहुंचाने के
लिए एक पोशाक
की जरूरत है।
मैंने दो बेच
दीं। और उसको
जंच गई बात कि
यह तो बात ठीक
ही है कि एक ही
ड्रेस सदा
पहने रहना। तो
दूसरी ड्रेस
भी ताबूत में
साथ रख दी।
बाजार
में लूट है; वहां
दुकानदार
तुम्हें
चीजें बेच रहे
हैं। मंदिरों
में लूट है; वहां भी
दुकानदार
तुम्हें
परलोक की
चीजें बेच रहे
हैं।
संत
तुम्हारी
वासना को एक
दिशा से दूसरी
दिशा में नहीं
लगाता। संत तो
कहता है कि
सभी वासनाएं
एक सी हैं, वासना
का स्वभाव एक
सा है। चाहे
तुम धन चाहो, चाहे पुण्य
चाहो, वासना
की प्रकृति
में कोई फर्क
नहीं पड़ता। कामना
का एक सा ही
जाल है। कामना
का अर्थ है कि
तुम जो हो
उससे तृप्त
नहीं, कुछ
और चाहते हो।
संत तो
तुम्हें तुम
जो हो उससे
तृप्त होना
सिखाते हैं।
वह परितोष, वह कंटेंटमेंट
कि तुम जो हो
ठीक हो; तुम
अपने होने से
राजी हो। ऐसा
ही क्षण
कामनारहित
क्षण है। और
उसी कामनारहितता
में मोक्ष का
फूल खिलता है।
उसी कामनारहितता
में तुम अपने
ईश्वरत्व को
अनुभव करते
हो। उसी कामनारहितता
में जीवन की
आखिरी घटना घट
जाती है। जो न
घटे तो तुम
रोते रहोगे।
दुकानें
बदलोगे, मंदिर
बदलोगे, इस
चर्च से उस
चर्च में
जाओगे, यह
सब फैलाव
व्यापार का
है।
"संत
कामनारहित
होने की कामना
करते हैं। और
कठिनता से
प्राप्त होने
वाली चीजों को
मूल्य नहीं
देते।'
लेकिन
तुम जिन
साधुओं को
जानते हो वे
सब कठिनता से
प्राप्त होने
वाली चीजों को
मूल्य देते
हैं। वे कहते
हैं,
तप करो, तपश्चर्या
करो, यह
बड़ी कठिन है; उपवास करो, भूखे मरो, यह बड़ी कठिन
है। क्योंकि
कोई मोक्ष
सस्ता थोड़े ही
है? बहुत
मंहगी चीज है;
अपना सब कुछ
नष्ट करो तब
मिलेगा।
संत
कठिनता से
प्राप्त होने
वाली चीजों को
मूल्य ही नहीं
देते, क्योंकि
वे कहते हैं, कठिनता से
जो भी चीज
प्राप्त होती
है वह अहंकार
का आभूषण है।
अहंकार कठिन
से आकर्षित
होता है।
जितना कठिन हो
उतनी
आकांक्षा
पैदा होती है पाने
की।
कोहिनूर
की कीमत है, क्योंकि
वह अकेला है।
उसको पाना
कठिन है। कोहिनूर
अगर सब तरफ
पड़े हों कंकड़-पत्थरों
की तरह
गांव-गांव, राह-राह, कौन
फिक्र करेगा?
सरल को कोई
फिक्र ही नहीं
करता, कठिन
की लोग फिक्र
करते हैं।
कोहिनूर की
कीमत यही है
कि वह न्यून
है, न के
बराबर है।
संन्यास
सरल होना
चाहिए, कठिन
नहीं। नहीं तो
वह कोहिनूर बन
जाएगा। इसलिए
तो मैं संन्यास
ऐसे बांटता
हूं। उसमें
कठिनता रखने
की जरूरत ही
नहीं। क्या
उत्सव मनाना?
कोई
संन्यास लेता
है तो बड़ा
उत्सव मनाया
जाता है, बैंड-बाजे
बजाए जाते हैं,
जुलूस, शोभा-यात्रा
निकलती है; जैसे कोई
खास बात हो
रही है। तुम
संन्यास को भी
बाजार में ला
देते हो। और
ध्यान रखना, जो
बैंड-बाजे बजा
कर तुम्हें
संन्यास
दिलवा रहे हैं,
अगर तुम
संन्यास से
हटे तो जूते
भी मारेंगे। क्योंकि
इनके
बैंड-बाजे
तुमने बेकार
कर दिए। फिर
तुमको मंच पर
न बैठने
देंगे। फिर
कहेंगे, यह
आदमी पापी है।
क्योंकि यह तो
ठीक है, यह
तो सीधा-साफ
सौदा है। गणित
में कोई अड़चन
नहीं है। इनसे
सावधान रहना
जो बैंड-बाजे
बजाएं, ये
बड़े खतरनाक
हैं। ये पूंछ
भी काटे ले
रहे हैं और
पीछे लौटने का
रास्ता भी बंद
किए दे रहे हैं।
संन्यास
तो सरल बात है; भाव-दशा
है। इसमें कोई
बैंड-बाजे की
जरूरत है? लोग
मुझसे पूछते
हैं, आप
ऐसे ही दीक्षा
दे देते हैं? कोई समारोह
नहीं! समारोह
में जो दीक्षा
मिलती है वह
अहंकार की है।
यह तो चुपचाप
का नाता है, इसमें क्या
समारोह? किसको
बताना है? यह
तुम्हारी बात
है। इसका कोई
बाजार से
लेना-देना
नहीं है।
चुपचाप।
सरल का
मूल्य है संत
के सामने; साधुओं
के सामने कठिन
का मूल्य है।
साधु को तुम
ऊपर क्यों
बिठाते हो? तुम पैर
क्यों छूते हो?
क्योंकि
साधु ने कुछ
ऐसी कठिन
चीजें कर
दिखाई हैं जो
तुम नहीं कर
सकते। बस और
तो कोई कारण
नहीं है। साधु
कांटे पर लेटा
है। चाहे जड़बुद्धि
हो, लेकिन
कांटे पर लेटा
है। तुम नहीं
लेट सकते। और
ध्यान रखना, जड़बुद्धि आसानी से
लेट सकते हैं,
क्योंकि
उनकी
संवेदनशीलता
कम होती है।
उनमें बुद्धि
ही नहीं जिसको
पता चले कि
कांटा चुभ
रहा है। मोटी
चमड़ी के लोग
हैं। तुम
दर्शन करके
कृतकृत्य हो
जाते हो कि धन्यभाग,
जो हम नहीं
कर सकते।
लेकिन
बड़े आश्चर्य
की बात यह है
कि सिर्फ कठिन
होने से कोई
चीज मूल्यवान
हो जाती है? माना
कि यह कठिन है
कांटों पर
लेटना, लेकिन
कठिन होने से
मूल्य क्या है?
सिर के बल
खड़े होना कठिन
है। तो जो
आदमी सिर के बल
खड़ा है मान लो
तीन घंटे, चार
घंटे, तुम
चमत्कृत हो
जाते हो, चरण
छूने पहुंच
जाते हो कि
तुमने गजब कर
दिया।
क्योंकि तुम
पांच मिनट भी
नहीं खड़े रह
सकते।
उलटा-सीधा
करना कठिन तो
है, लेकिन
उससे स्वभाव
का क्या
लेना-देना है?
एक आदमी तीस
दिन का उपवास
कर लेता है; बस बड़ी
महत्व की बात
हो गई। माना
कि भूखा मरना कठिन
है, लेकिन
कठिन होने का
मूल्य क्या है?
ईसाई
फकीर हुए हैं
जो कि पैर में
कांटे, जूतों
में खीलें ठोंके
रहते थे अंदर।
जरा सा जूता
काटता हो तो
कितनी तकलीफ
होती है! वे
दस-पंद्रह
खीलें अंदर
लगाए रखते थे।
उनके पैरों
में घाव हो
जाते थे, और
उन्हीं जूतों
पर वे चलते
थे। लोग उनके
चरणों पर
गिरते थे कि
बड़ा कठिन कार्य
कर रहे हैं।
मगर जूतों पर
खीलें ठोंकने
से कोई मोक्ष
का लेना-देना
है? कभी तो
थोड़ा सोचो कि
इससे
लेना-देना
क्या है? तुम
सिर्फ
बुद्धिहीन हो,
यह तो पता
चलता है। तुम
जड़ हो, यह
भी पता चलता
है। तुम्हारी
संवेदनशीलता
को तुम मार
रहे हो, यह
भी पता चलता
है। लेकिन
इससे तुम
मोक्ष जा रहे
हो, यह तो
पता नहीं
चलता।
बहुत
से फकीर हुए
हैं दुनिया
में जो कोड़े
मारते हैं
अपने को। आज
भी उनके
संप्रदाय
हैं। तो जो
फकीर जितने
ज्यादा कोड़े
मारता है उतना
ही बड़ा फकीर
समझा जाता है।
लोग गिनती
रखते हैं, कौन
सौ मारता है
सुबह, कौन डेढ़ सौ
मारता है।
चमड़ी उधड़
जाती है। और
लोग देखने
पहुंचते हैं।
ये लोग भी
हद्द नालायक
हैं! ये लोग तो मूढ़ हैं ही
जो मार रहे
हैं; लेकिन
जो देखने
पहुंचते हैं
ये भी बड़ी
दुष्ट प्रकृति
के लोग हैं।
मेरा
अपना अनुभव यह
है कि
जहां-जहां कोई
अपने को सता
रहा है, किसी
भी रूप
में--उपवास से,
कोड़े मार कर, खीलों
पर सोकर, कांटों पर
लेट
कर--जहां-जहां
कोई अपने को
सता रहा है, और जो लोग
उनको पूज रहे
हैं, ये
पूजने वाले
लोग दुष्ट हैं,
ये भयंकर
हिंसात्मक
लोग हैं, इन्होंने
बड़ी तरकीब
निकाल ली है:
ये पूजा देकर
इन नासमझों
को आत्महिंसा
करने के लिए
उकसा रहे हैं।
दो तरह
के लोग हैं
दुनिया में।
तीसरे तरह के
लोग नहीं पाए
जाते, क्योंकि
वे संत हैं।
एक तरह के लोग
हैं जिनको मनोवैज्ञानिक
मैसोचिस्ट
कहते हैं, जो
अपने को सताने
में मजा लेते
हैं। यह भयंकर
हिंसात्मक...यह
रोग है। और
दूसरे तरह के
लोग हैं, जिनको
मनोवैज्ञानिक
सैडिस्ट
कहते हैं; ये
दूसरों को सताने
में मजा लेते
हैं। यह भी
रोग है। और
तीसरे तरह का
आदमी संत है--न
तो खुद को
सताता, न
किसी दूसरे को
सताता। सताने
में उसका कोई
रस ही नहीं
है। सताना भी
कोई बात है? जो सीधा-सरल
है।
जैन
मुनियों को
मैं देखता हूं
तो पाता हूं, ये
मैसोचिस्ट
हैं। अगर ये
पश्चिम में
हों तो इनका
इलाज हो। पूरब
में इनको पूजा
मिल रही है।
ये दुष्ट हैं,
ये अपने को
सता रहे हैं।
और इनके
आस-पास जो लोग,
कतार देखता
हूं मैं
बैंड-बाजे
बजाने वालों
की, ये भी
दुष्ट हैं। ये
इनके सताए
जाने में मजा
ले रहे हैं।
ये रस ले रहे
हैं कि धन्यभाग
कि आपने तीस
दिन का उपवास
किया!
इसमें धन्यभाग
क्या है? इस
आदमी ने अपने
को सताया। इस
आदमी ने शरीर
के साथ
दुष्टता की।
इसने शरीर के
रोएं-रोएं को तड़फाया।
और यह तड़फाना
आसान हो जाता
है अगर पूजा
मिल रही हो।
आदमी का अहंकार
ऐसा है कि तुम
उससे कोई भी मूढ़ता
करवा सकते हो
अगर पूजा
मिले। अगर तुम
पूजने लगो उस
आदमी को जो
नाक कटाएगा,
तुम पाओगे
कई नाक कटाने
वाले तैयार हो
गए। क्योंकि
पूजा मिलती हो
नाक कटाने
से...।
तुम
पूजा देने को
राजी हो जाओ, और
कोई न कोई
तत्क्षण वही
काम करने को
राजी हो जाएगा
जिसको तुम
पूजा देते हो।
क्योंकि इतनी
सस्ती पूजा
मिलती हो, सिर्फ
नाक कटाने से,
तो कटा लो; एक दफा कटाई,
सदा के लिए
पूजा मिल गई।
संत न
तो सताता है
अपने को, न
दूसरे को। संत
कठिनता से
प्राप्त होने
वाली चीजों को
मूल्य ही नहीं
देता।
क्योंकि
कठिनता का
सारा मूल्य
अहंकार में
है।
एवरेस्ट
पर चढ़ने
का मजा यही है
कि कोई दूसरा
नहीं चढ़ पाया
और मैं चढ? कर
बता दिया। हिलेरी
को कौन सा मजा
मिला? यही
मजा मिला कि
मनुष्य-जाति
में मैं पहला
हूं जो
एवरेस्ट पर चढ़
गया। एक
अहंकार की
तृप्ति हुई।
किसी ने हिलेरी
से पूछा कि
आखिर एवरेस्ट
पर चढ़ने
का इतना
आकर्षण क्या
है? फायदा
क्या है? वहां
पहुंच कर होगा
क्या? हिलेरी भी कुछ किया
नहीं, पहुंच
कर वापस लौट
आया। करने को
वहां कुछ है भी
नहीं। हिलेरी
ने कहा, यह
सवाल ही नहीं
है। जब तक
एवरेस्ट है, तब तक
मनुष्य को
चुनौती थी; उसे पार
करना ही होगा।
पार
करना ही होगा!
क्यों? चांद
पर पहुंचना ही
होगा! क्यों? मंगल पर
पहुंचना ही
होगा! क्यों? क्योंकि
मंगल है, और
चुनौती है। यह
तर्क उतना ही
बचकाना है कि
एक छोटे बच्चे
की मां उससे
पूछ रही थी कि
तूने स्कूल
में उस लड़की
के मुंह में
मिट्टी क्यों
फेंकी? तुझसे
ऐसी आशा नहीं
है। उसने कहा,
मैं क्या
करूं, उसका
मुंह खुला था।
तुम्हारे
एवरेस्ट और
चांद पर
पहुंचने वाले
लोग बस इतनी
ही बुद्धि के
हैं। चांद है, इसलिए
पहुंचना
पड़ेगा। अब
इसमें कोई वश
ही नहीं है।
एक अदम्य
आकर्षण है--जो
किसी ने नहीं
किया वह मैं
करके दिखा
दूं। कठिन में
अहंकार को तृप्ति
है। सरल में
अहंकार कभी
उत्सुक नहीं
होता।
झेन
फकीर बोकोजू
ने कहा है।
कोई ने पूछा
कि क्या हुआ
तुम्हारे
निर्वाण से? तो
उसने कहा, क्या
हुआ? लकड़ी
काटता हूं, आश्रम में
लाता हूं; पानी
भरता हूं कुएं
से, रोटी
बनाता हूं। और
तो कुछ भी
नहीं हुआ।
इसमें
क्या तुम्हें
आकर्षण होगा!
लकड़ी काटना, पानी
भरना, ऐसी
सरल बात
निर्वाण में?
बस यही हुआ?
लेकिन
तुम चूक
जाओगे। यह
बोकोजू संत है
जिसकी चर्चा
लाओत्से कर
रहा है। यह कह
रहा है, जीवन
सरल हो गया।
भूख लगती है, रोटी बनाते
हैं; ठंड
लगती है, जंगल
से लकड़ी काट
लाते हैं; प्यास
लगती है, कुएं
से पानी भरते
हैं। ऐसा सरल
हो गया। अब कोई
जटिलता न रही।
लेकिन
कुएं से पानी
भरने में कौन
पूजा देगा? सभी
लोग भर रहे
हैं। तुम
कहोगे, इसमें
क्या सार है!
लकड़ी सभी काट
रहे हैं। इसमें
क्या सार है!
फिर संसारी और
इस बोकोजू में
फर्क क्या है?
फर्क
बड़ा गहरा है।
संसार के लोग
इन साधारण
चीजों को बेमन
से कर रहे हैं, क्योंकि
उनका रस तो
असाधारण को
करने में है।
तुम बाजार
जाते हो; दुकान
पर बैठ कर
अच्छा नहीं
लगता। तुम यह
मत सोचना कि
तुम दुकान से
मुक्त हो गए
हो। तुम कोई बड़ी
दुकान चाहते
हो। ये
छोटे-मोटे काम
तुम जैसे बड़े आदमी
को शोभा नहीं
देते। बैठे
हैं, कपड़ा सी रहे हैं, या कपड़ा
बुन रहे हैं।
तुम जैसा बड़ा
आदमी और ऐसे
छोटे-छोटे काम
में लगा है; लकड़ी काटे, पानी भरे, तुम्हें
शोभा नहीं
देते।
तुम्हें तो
शोभा देता है,
बनारस में
कांटों की सेज
पर लेटे हैं।
तुम्हें कुछ
विशिष्ट होना
तुम्हारा
आकर्षण है।
एक
दूसरे झेन
फकीर दोजो
से किसी ने
पूछा कि तुम
करते क्या हो
अब जब कि तुम
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए? उसने
कहा, जब
नींद आती है, सो जाते हैं;
जब प्यास
लगती है, पानी
पी लेते हैं।
और तो कुछ
करने को है
नहीं।
इन
संतों को तुम
न समझ पाओगे।
क्योंकि ये
तुम्हारे
करने के जगत
में,
जहां असंभव
को आकर्षण
माना जाता है,
जहां कठिन
की पूजा होती
है, उसके
बिलकुल बाहर
हैं। ये किसी
दूसरे ही मूल्य
के इंद्रधनुष
पर जीते हैं।
तुम्हारे
मूल्य के
इंद्रधनुष से
इनका कोई
संबंध नहीं।
तुम्हारे
मूल्य की पटरी
से इनका कोई
लेना-देना
नहीं। तुम
इनको पहचान ही
न पाओगे।
सच्चा संत तुम्हें
रास्ते पर
मिले तो पहले
तो तुम्हें दिखाई
ही न पड़ेगा।
दिखाई भी पड़
जाए तो तुम
पहचान न
सकोगे। कोई
तुम्हें कह भी
दे तो तुम
भरोसा न ला
सकोगे।
क्योंकि
इसमें कुछ खास
तो दिखाई नहीं
पड़ता। खास का
संतत्व से कुछ
संबंध नहीं
है। अति
साधारण हो
रहने में ही
संतत्व की
असाधारणता
है।
"कठिनता
से प्राप्त
होने वाली
चीजों को संत
मूल्य नहीं
देते। वे वही
सीखते हैं जो अनसीखा
हो।'
तुम्हारे
भीतर अनसीखा
क्या है? वही
सीखने योग्य
है। तुम्हारे
भीतर अनसीखा
वही है जो तुम
लेकर आए:
स्वभाव। शेष
सब तो तुम्हें
सिखाया है
समाज ने, परिवार
ने, माता-पिता
ने, गुरुजनों ने। तुम, जो-जो
तुम्हें
सिखाया गया है,
उसे हटाओ।
और जो-जो
तुम्हारे
भीतर अनसीखा
है, जो तुम
लाए थे जन्म
के साथ, उसे
उघाड़ो।
वह अनसीखा
ही सीखने
योग्य है।
क्योंकि वही
तुम्हारी आत्मा
है, वही
तुम्हारा
स्वभाव है।
"वे
वही सीखते हैं
जो अनसीखा
हो।'
वे
स्वभाव को
सीखते हैं।
संस्कृति से
उनका कोई
लेना-देना
नहीं।
संस्कृति
दूसरों की
सिखाई हुई है।
नैतिकता से
उनका कोई
लेना-देना
नहीं; दूसरों
की सिखाई हुई
है।
अच्छे-बुरे से
उनका कोई
लेना-देना
नहीं; दूसरों
के सिखाए हुए
हैं। वे तो
उसी को सीखने
की कोशिश करते
हैं जिसे वे
लेकर आए थे, जो परमात्मा
का दिया हुआ
है, जो
प्रकृति का
दान है, जो
उनका होना है,
बीइंग है।
वह सब हटा
देते हैं
जो-जो सिखाया
गया है। वह सब
कचरा है। वह
सब कंडीशनिंग
है, वह
संस्कार है।
उन संस्कार से
संस्कृति
पैदा होती है।
वह बासा है, उधार है; दूसरों
की आज्ञाओं का
पालन है। वह
दूसरों के द्वारा
चलाए जाना है।
नहीं, वे
अपने स्वभाव
में जीना
चाहते हैं; स्वभाव को
पहचानते हैं
और उसी में
डूब रहते हैं।
उसी स्वभाव
में वे उठते
हैं, बैठते
हैं। उसी
स्वभाव में वे
चलते हैं, उसी
स्वभाव में
बोलते हैं, मौन होते
हैं। लेकिन एक
चीज से वे
जुड़े रहते हैं--जो
उनके भीतर अनसीखा
है, अनलर्न्ड,
जिसको किसी
ने उन्हें
सिखाया नहीं।
सिखाए
से बचना। वही
तुम्हारा
ज्ञान बन गया
है। असली
ज्ञान अनसिखाए
में छिपा है।
और जिस दिन उस अनसिखाए
का उदभव
होता है उस
दिन तुम सरलतम
हो जाते हो।
तुम फिर से पुनः
एक बालक की
भांति हो जाते
हो।
"और वे
उसे ही पुनः
स्थापित करते
हैं जिसे समुदाय
ने खो दिया
है।'
समाज
के हिस्से
होकर ही तो
तुम भटक गए
हो। भीड़ के
साथ तुम एक हो
गए हो। लोग जो
कहते हैं वह
तुम करते हो।
लोग जो बताते हैं
वह तुम मानते
हो। लोग जो
समझाते हैं
वही तुम्हारी
समझ है। तुमने
अपना चेहरा खो
दिया है।
तुमने अपना
स्वभाव, स्वरूप
खो दिया है।
तुम समाज की
भीड़ में दब गए हो।
जो
समुदाय ने खो
दिया है उसे
पाने की
चेष्टा ही
धर्म है।
इसलिए धर्म
कोई सामाजिक
घटना नहीं है।
लोग धर्म
को भी सामाजिक
घटना बना लिए
हैं। लोग चर्च
जाते हैं
रविवार को, क्योंकि
सामाजिक बात
है। न जाएं तो
समाज में चर्चा
होती है। एक
औपचारिकता है,
निभाना है;
चले जाते
हैं। लोग
मंदिर चले
जाते हैं, पूजा
कर लेते हैं; क्योंकि
समाज को ध्यान
में रखना है।
धर्म भी समाज
से जोड़ कर रखा
है तुमने? तो
तुम्हारा
धर्म भी झूठा
है। इसलिए
तुम्हारा
धर्म जैन है, हिंदू है, मुसलमान है,
ईसाई है, बौद्ध है।
यह सब झूठ है।
वास्तविक
धर्म का कोई
नाम नहीं है।
और वास्तविक
धर्म एक ही है,
वह है अपने
स्वभाव में
जीना। धर्म का
अर्थ ही स्वभाव
है। इसलिए धर्म
संस्कृति का
अतिक्रमण कर
जाता है। वह
पार है।
"वे
उसे ही पुनः
स्थापित करते
हैं जिसे
समुदाय ने खो
दिया है।'
वे
अपने बालपन को
पुनः पाने की
कोशिश करते
हैं जिसे समाज
ने छिपा दिया
है,
ढांक दिया है। वे
फिर से
निर्दोष
बच्चे की
भांति होने के
प्रयास में
संलग्न हो
जाते हैं।
एक
बच्चे को
देखो। अभी
उसके लिए कोई
आदर्श नहीं
है। अभी वह
हंसता है तो
हंसता है, रोता
है तो रोता
है। न रोने
में उसे कोई
बुराई दिखती
है, न
हंसने में कोई
भलाई दिखती
है।
प्रेमपूर्ण हो
तो बड़ा सदय हो
जाता है, क्रोध
से भरा हो तो
बड़ा निर्दय हो
जाता है। अभी
उसे कोई नीति
नहीं, अभी
कोई नियम
नहीं। अभी
समाज
प्रविष्ट
नहीं हुआ। अभी
वह स्वभाव में
है। इसलिए तो
सारे बच्चे
प्यारे और
सुंदर होते
हैं। स्वभाव
का सौंदर्य
अनुपम है।
लेकिन
बच्चे भी फीके
हैं एक संत के
सामने। क्योंकि
बच्चों का
स्वभाव
टूटेगा।
संस्कृति आएगी, समाज
हावी होगा।
बच्चे अज्ञान
में निर्दोष हैं।
उनका अज्ञान
ज्यादा देर न
टिकेगा।
ज्ञान चारों
तरफ से भेजा
जा रहा है। और
उसकी भी जरूरत
है। नहीं तो
बच्चा कभी
समाज का अंग न
हो सकेगा।
बच्चा फिर कुछ
सीख ही न
सकेगा। फिर
समाज के अनुभव
से वंचित रह
जाएगा, जो
कि जरूरी है।
अपने को खोना
जरूरी है, ताकि
तुम जब पुनः
अपने को पाओ
तब तुम समझ
पाओ कि अपने
होने में क्या
राज है। खोए
बिना पता नहीं
चलता। अगर तुम
सदा ही स्वस्थ
रहो, बीमार
न हो, तुम्हें
स्वास्थ्य का
पता ही न
चलेगा कि स्वास्थ्य
क्या है।
बीमार हो जाओ
तब पहली दफा
पता चलता है
स्वास्थ्य की
गरिमा, अहोभाव।
खोना जरूरी है
पाने के लिए।
वह पाने की
प्रक्रिया
है।
लेकिन
बहुत से लोग
खोकर ही मर
जाते
हैं--बिना पुनः
पाए। बच्चे की
तरह पैदा होओ, संत
की तरह मरो।
तुम्हारा
जीवन-वर्तुल
पूरा हो गया।
बच्चे की तरह
पैदा होओ, संत
की तरह मरो।
इसका अर्थ हुआ
कि बच्चे में
जो निर्दोषता
थी अज्ञान में,
उसे तुम
ज्ञानपूर्वक,
अनुभवपूर्वक,
जीवन की
सारी
स्थितियों से
गुजर कर, प्रौढ़ता को पाकर
पुनः उपलब्ध
कर लो, फिर
से तुम बच्चे
हो जाओ।
और जब
कभी कोई बूढ़ा
पुनः बच्चे की
तरह निर्दोष
हो जाता है तब
उसके सौंदर्य
का क्या कहना? तब
उससे
परमात्मा इस
जगत में उतरता
हुआ मालूम होता
है। तब उसकी
हवा में भनक आ
जाती है परलोक
की। तब उसके
चारों तरफ एक
वातावरण
निर्मित हो जाता
है अलौकिक। वह
अपने साथ
तरंगों का एक
जाल लेकर चलने
लगता है। वे
किसी दूसरे ही
लोक की खबर
देते हैं, वे
होने के किसी
नए ढंग की खबर
देते हैं। वह
ढंग अनसीखा,
वह ढंग
स्वभाव का।
"यह कि
प्रकृति के
क्रम में वे
सहायक तो होते
हैं, लेकिन
उसमें
हस्तक्षेप
करने की
धृष्टता नहीं
करते।'
संत
सहायक होते
हैं प्रकृति
के क्रम में।
तुम जो होना
चाहते हो, तुम
जहां जाना
चाहते हो, तुम्हारी
नियति
तुम्हें जहां
खींचे लिए
जाती है, संत
उसमें साथ
देते हैं, सहारा
देते हैं, सहयोग
देते हैं। वे
तुम्हारे
होने में
सहयोग देते
हैं। वे अपनी
कोई आकांक्षा
तुम पर आरोपित
नहीं करते कि
तुम ऐसे हो
जाओ।
यहीं
फर्क समझ
लेना। साधु
वही है जो
चेष्टा करेगा
कि तुम मेरी प्रतिकृति
हो जाओ, तुम
मेरी कार्बन
कापी बन जाओ।
जैसा मैं हूं
वही तुम्हारे
जीवन का आदर्श
हो। जो मैं खाऊं
वही तुम खाओ; जब मैं उठूं
तभी तुम उठो; जब मैं सोऊं
तभी तुम सोओ।
मेरा जीवन ही
तुम्हारा
ब्लू-प्रिंट
हो। अब तुमको
इसी के अनुसार
अपने को ढाल
लेना है।
इससे
बड़ी कोई हिंसा
इस संसार में
नहीं है।
दूसरे व्यक्ति
को अपने
अनुसार ढालने
की कोशिश सबसे
बड़ी हिंसा है।
तुम कौन हो? दूसरा
स्वयं होने को
पैदा हुआ है।
उसकी अपनी नियति
है। उसकी अपनी
यात्रा का पथ
है। जन्मों-जन्मों
से वह अपने को
ही खोज रहा
है। तुम कौन
हो बीच में
अपने आपको
उसके ऊपर थोप
देने को आतुर?
यह
आतुरता आती है, क्योंकि
बड़ा रस आता है
अहंकार को जब
वह देखता है
कि मेरे ही
जैसे कई लोग
पूंछ कटाए
खड़े हैं, ठीक
मेरी प्रतिकृतियां।
इसलिए गुरु
जीता है
अनुयायियों
की भीड़ पर। जितने
ज्यादा
अनुयायी उतना
गुरु को लगता
है वह महत्वपूर्ण
है। जरूर
उसमें कुछ
होना चाहिए, तभी तो इतने
लोग उस जैसे
होने की कोशिश
कर रहे हैं।
वह जो करता है,
वह जो कहता
है, वही
शाश्वत नियम
है।
नहीं, यह
संतत्व का
लक्षण नहीं।
संतत्व का
लक्षण है: तुम
ही तुम्हारे
शाश्वत नियम
हो। वह
तुम्हें सहयोग
दे सकता है, लेकिन तुम्हें
ढांचा न देगा।
वह तुम्हें
आदर्श न देगा;
वह तुम्हें
प्रेम देगा, मैत्री
देगा। वह
तुम्हें
अनुशासन न
देगा; वह
तुम्हें
बांधेगा नहीं
किसी
डिसिप्लिन में,
किसी
अनुशासन में।
वह तुम्हें
मुक्त करेगा।
सहारा
एक बात है। एक
हम वृक्ष
लगाते हैं नीम
का,
एक वृक्ष हम
लगाते हैं आम
का। सहारा हम
देंगे। नीम कड़वी होगी;
वह उसके
होने की नियति
है। उसके कड़वेपन
का अपना राज
है। उसके कड़वेपन
की अपनी खूबी
है। वह हवा को
शुद्ध करेगी।
नीम से ज्यादा
शुद्ध कोई
वनस्पति नहीं
है। उसकी मौजूदगी
शुद्ध करती
है। उसकी कड़वाहट
में भी बड़ी
गहरी मिठास है।
लेकिन संत नीम
को आम बनाने
की कोशिश नहीं
करेगा। वह
साधु की कोशिश
है। आम अपने
आम होने में
रसपूर्ण है।
उसका अपना
माधुर्य है।
नीम का अपना
व्यक्तित्व
है।
संत
दोनों को, वे
जो होना चाहते
हैं, जो हो
सकते हैं, जो
उनके भीतर
छिपा है, उसे
प्रकट करेगा,
सहयोग देगा,
ताकि उनका
बीज टूटे, अंकुरित
हो, वृक्ष
बने। लेकिन जो
भी फूल उनके
हों वही आएं, अंततः वे
अपनी मंजिल पर
पहुंच जाएं, उनके
व्यक्तित्व
में कोई बाधा
न पड़े। वह
व्यर्थ को हटा
देगा, सार्थक
को सहयोग देगा;
लेकिन अपने
ढांचे में
किसी को भी ढालेगा
नहीं।
और जब
भी कोई किसी
व्यक्ति को
ढांचे में
ढालता है, मार
डालता है।
उसकी आत्मा मर
जाती है।
आत्मा जीती है
स्वातंत्र्य
में। उसे खुला
आकाश चाहिए।
संत तुम्हें
सहयोग देगा और
सहयोग का खुला
आकाश देगा; गंतव्य नहीं
देगा। पंख
तुम्हारे
शक्तिशाली कर
देगा। उड़ो
तुम। यात्रा
तुम्हारी है;
मंजिल
तुम्हारी है;
दिशा
तुम्हारी है।
शक्ति
तुम्हें देगा
कि तुम उड़
सको। खुला
आकाश तुम्हें
देगा, ताकि
तुम मुक्ति से
उड़ सको।
संत और
साधु में बड़ा
बारीक, नाजुक
भेद है। उसको
अगर तुम न
समझे तो साधु
के चक्कर में
पड़ जाना सदा
आसान है। और
संत को पहचानना
सदा कठिन है।
क्योंकि वह
इतना सरल है।
तुम असाधारण
को देखते हो।
साधारण कहीं
दिखाई पड़ता है?
विशिष्ट
दिखाई पड़ता
है। सामान्य
कहीं दिखाई पड़ता
है? वह
तुम्हारी आंख
में आता ही
नहीं, पकड़
में ही नहीं
आता। इसलिए
साधु और संत
की ठीक-ठीक
प्रकृति
तुम्हें समझ
में आ जाए तो
तुम्हारे
जीवन में बड़ा
सहयोग मिल
सकता है। न
समझ में आए तो
तुम्हें बहुत
से सुधारने
वाले मिलेंगे
जो तुम्हें बिगाड़
कर छोड़
जाएंगे।
आज
इतना ही।
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