एक भिक्षु थे
तिष्य।
वर्षा—वास के
पश्चात किसी ने
उन्हें एक
बहुत मोटे सूत
केला चादर भेट
किया।
बहुत
भिक्षु वर्षा
के दिनों में
रुक जाते थे, तीन—चार
महीने, और
वर्षा—वास के
बाद जब वे
यात्रा पर
पुन: निकलते
तो लोग उन्हें
भेंट देते।
भेंट भी क्या?
थोड़ी सी भेंट
लेने की
उन्हें आज्ञा
थी। तीन
वस्त्र रख सकते
थे, इससे
ज्यादा नहीं।
तो कोई चादर
भेंट कर देता,
या कोई
भिक्षापात्र
भेंट कर देता।
तो पुराना
भिक्षापात्र
छोड़ देना पड़ता,
पुरानी
चादर छोड़ देनी
पड़ती।
यह भिक्षु
तिष्य ने
वर्षा—वास
किया किसी
गांव में जब
वर्षा—वास के
बाद उन्हें एक
मोटे सूत वाला
चादर भेट किया
गया तो उन्हें
पसंद न आया। बहुत
मोटे सूत वाला
था।
भिक्षु को
आज्ञा नहीं थी
कि जो उसे
दिया जाए
उसमें वह
शिकायत करे।
या वह कहे कि
यह बहुत मोटे
सूत वाला है, यह मैं न
लूंगा।
भिक्षु को जो
दिया जाए, वह
चुपचाप
स्वीकार कर
ले। लेकिन
आदमी तो होशियार
होते हैं, कानूनी
होते हैं, तरकीब
तो निकाल ही
लेते हैं।
उसी गांव मे
तिष्य की बहन
रहती थी। जब
यह चादर भेट
की गयी तो वह
बहन भी खड़ी थी।
तो भिक्षु
तिष्य ने वह
चादर बहन के
हाथ में रख
दिया—कुछ कहा
नही। बहन को
भी बात समझ
में आ गयी कि
चादर बहुत
मोटे सूत वाला
है। वह घर
गयी। उसने उस
मोटे सूत वाले
चादर को तेज
चाकू से पतला—पतला
चीर ओखल में
कूट उसे धुनकर
पुन: पतले सूत
वाली चादर
तैयार की इस
बीच भिक्षु
तिष्य बड़ी
आतुरता से उस
वस्त्र की
प्रतीक्षा
करते थे और मन
ही मन उसके
संबंध में अनेक—अनेक
कामनाएं
बनाते थे, कि ऐसा
होगा चादर कि
वैसा होगा
चादर; कि
ओढ़कर ऐसा
चलूंगा कि
वैसा चलूंगा।
खयाल करना, आदमी को
वासना बनाने
के लिए कोई
बहुत बड़ा
सामान नहीं
चाहिए। फकीर
की लंगोटी
काफी है। उस
पर ही सारे
महल बन सकते
हैं कामना के।
कुछ ऐसा नहीं
है कि तुम्हें
बहुत बड़ा महल
चाहिए, एक
झोपडी बहुत।
आदमी की वासना
को टलने के
लिए कोई भी
खूंटी काम आ
जाती है। अब
एक चादर थी, उस पर कोई
ऐसा परेशान
होने की जरूरत
न थी, लेकिन
भिक्षु के लिए
चादर ही बहुत
है। वह खूब सोचने
लगे कि बहन
ऐसा बनाएगी, कि बहन वैसा
बनाएगी।
बड़ी आतुरता
से प्रतीक्षा
करते थे। मन
ही मन बड़ी
कामनाएं उठतो
थीं। फिर एक
दिन उनकी बहन
ने वह वस्त्र
लाकर उन्हें
भेट किया उनका
मन— मयूर नाच
उठा। ऐसा
सुंदर चीवर तो
भगवान के पास
भी नहीं है तिष्य
ने सोचा। और
अहंकार को खूब
पोषण मिला। उन्होंने
कहा कि अब कल
जब निकलूंगा
पहनकर तो भगवान
को भी पता
चलेगा कि
तुम्हारे पास
भी ऐसा सुंदर
चादर नहीं है
संघ में किसी
के पास ऐसा चादर
नहीं है।
लेकिन सांझ
हो गयी थी सो
तिष्य ने सोचा
कल पहनूंगा।
अब रात को
पहनकर निकलूंगा
तो देखेगा भी
कौन? और मजा तो
दिखाने ही का
होता है ऐसा
सोचकर बड़े जतन
और लाड़—प्यार
से उस वस्त्र
को अरगनी पर
टांग दिया। वे
रात उसकी
चिंता में ठीक
से सो भी न सके।
जिसके पास
भी कुछ है, वह चिंता
की वजह से सो
नहीं पाता।
इसलिए गरीब सो
लेता है, अमीर
नहीं सो पाता।
अमीर को सोना
चाहिए ज्यादा
शांति से, उसके
पास सब है, गरीब
के पास कुछ भी
नहीं है लेकिन
गरीब सो लेता
है, अमीर
नहीं सो पाता।
जैसे—जैसे धन
बढ़ता है, वैसे—वैसे
चिंता बढ़ती
है।
यह भिक्षु
तिष्य रोज
शांति से सो
लेते थे, आज बड़ी
बेचैनी में पड़
गए—रात कोई
चुरा ही ले! अब भिक्षु
ठहरते थे एक
ही जगह, एक
ही छप्पर के
नीचे हजारों
भिक्षु ठहरते
थे—रात कोई
उठा ही ले! तो
सुबह पता
लगाना मुश्किल
हो जाएगा। और
चादर ऐसी है
कि किसी की भी
आंख में गड़
सकती है। और
किसी ने देख
ही ली हो बहन
को लाते हुए, और कोई इसकी
प्रतीक्षा
में बैठा हो।
तो रात भय के
कारण दो—चार
बार तो
उठ—उठकर
अंधेरे में
टटोलकर
उन्होंने देख
लिया कि चादर
अपनी जगह है
या नहीं?
नीदं में उस
सुंदर वस्त्र
के संबंध में
तरह—तरह के
स्वप्त भी
चलते रहे। कब
सूबह हो और कब
पहनूं ऐसी
वासना पास—पास
मंडराती रही।
संयोग की बात
कि उसी रात
तिष्य का
देहांत हो
गया। वह चीवर
के प्रति इतनी
अति बलवती
तृष्णा थी ??इrनकी—उस
चादर चीवर के
प्रति—कि
तिष्य मरकर
चीलर हो गए और
उसी चीवर में
समा गए। मरते
ही चीलर हो गए
और चीवर में
जा बैठे
दूसरे दिन
भिक्षु उनके
मृत शरीर को
जलाकर
नियमानुसार
उस चीवर को
परस्पर बांटने
के लिए उठाए।
यह भी नियम था
जब एक भिक्षु
मर जाए तो
उसकी वस्तुएं
बांट दी जाए
जिनके पास न हों
उन्हें दे दी
जाएं। वह चीलर
तो पागल हो
उठा। वह
चीलर—अब तो
तिष्य कहां थे
अब तो चीलर हो
गए थे वह उस
चादर में छिपे
बैठे थे—वह
बिलकुल पागल
हो उठा। हमारी
वस्तु लूट रहे
हैं कह—कहकर
इधर—उधर दौड़ने
और चिल्लाने
लगा।
भगवान के
अतिरिक्त कोई
और तो उस चीलर
की आवाज सुन न
सका भगवान ने
उसकी आवाज
सुनी हंसे और
उन्होंने
आनंद से कहा
आनंद उन
भिक्षुओ से कह
दो कि तिष्य
की चीवर को
अभी वहीं की
वहीं रख दें।
सातवें दिन
बाद वह चीलर
मर गया। चीलर
की उम्र
कितनी। जब
तिष्य ही मर
गए तो चीलर की
कितनी उम्र
चीलर कितनी
देर जीएगा! तब
भगवान ने भिक्षुओं
को तिष्य के
चीवर को आपस
में बांट लेने
को कहा।
भिक्षुओं
ने स्वभावत:
भगवान से एक
सप्ताह पहले
रुक जाने और
फिर आज अचानक
बांटने की आशा
देने का कारण
पूछा।
तब भगवान ने
तिष्य के चीलर
होने और
दुबारा मरने
की बात बतायी
और कहा कामी
अनंत बार मरता
है। जितनी
कामना उतनी
मृत्यु।
क्योकि जितनी
कामना मृतने
जन्म
प्रत्येक
कामना एक जन्म
बन जाती है और
प्रत्येक
कामना एक
मृत्यु बन
जाती है?
और
यह गाथा कही—
अयसा 'व मलं
समुट्ठितं
तदुट्ठाय
तमेव खादति।
एवं
अतिधोनचारिनं
सानि कम्मानि
नयन्ति दुग्गति।।
'जैसे लोहे
का मोर्चा
उससे उत्पन्न
होकर उसी को
खाता है, वैसे
ही सदाचार का
उल्लंघन करने
वाले मनुष्य के
अपने कर्म उसे
दुर्गति को
पहुंचाते हैं।’
यह
कथा महत्वपूर्ण
है। एक तो तुम
यह मत सोचना
कि ज्यादा हो
तो ही परेशानी
होगी।
ज्यादा—कम से
कोई संबंध
नहीं है।
परेशानी लानी
हो तो किसी भी
चीज पर परेशानी
आ सकती है।
क्षुद्र सी
चीज पर परेशानी
हो सकती है।
और परेशानी न
होनी हो, न उठानी हो, न परेशानी
में जाना हो, तो विराट से
विराट चीज भी
कोई परेशानी
नहीं ला सकती।
तो कभी ऐसा भी
होता है कि
भिक्षु तिष्य
जैसा आदमी एक
चादर के पीछे
चिंतित हो
जाता है। और
कभी राजा जनक
जैसा आदमी बड़े
साम्राज्य
में रहते हुए
भी जरा भी
चिंतित नहीं
होता।
तो
एक बात खयाल
में लेना कि
चिंता बड़े और
छोटे से संबंधित
नहीं है।
चिंता समझ और
नासमझी से
संबंधित है।
अब यह आदमी
भिक्षु हो गया, सब छोड़
दिया, मगर
भीतरी वासना
बदली नहीं।
वही का वही।
कभी हो सकता
था रास्ते पर
अकड़कर चलता
रहा हो, अब
भी वही अकड़
कायम है, छिप
गयी है। रस्सी
शायद जल भी
गयी हो, तो
भी उसकी अकड़
नहीं गयी! आज
उसे एक पतली
चादर मिल गयी,
महीन चादर,
तो वह सोचता,
अहा! अब जरा
मैं पहनकर
चलूंगा।
भगवान के पास
भी ऐसी चादर
नहीं है। उसका
चित्त इससे
बड़ा प्रसन्न
हो रहा है।
यह
ईर्ष्या, यह अहंकार, यह प्रदर्शन
की भावना; यह
तो संन्यासी
का लक्षण
नहीं। इसलिए
बुद्ध कहते
हैं, यह
आचरण से पतन
है। संन्यासी
के आचरण का तो
अर्थ ही यह
होता है कि अब
उसको
प्रदर्शन की
कोई इच्छा
नहीं रही। अब
दिखावे में
उसका कोई रस
नहीं है।
संन्यासी का
तो अर्थ ही यह
होता है कि
छोटी चीज हो
कि बड़ी चीज हो,
अब उसका ऐसा
कोई मोह नहीं
कि वह पकड़े।
संन्यासी का
तो अर्थ ही यह
होता है कि
अपना भी जो है
उसे भी अपना न
माने, देह
को भी. अपना न
माने, मन
को भी अपना न
माने।
संसारी
का अर्थ होता
है कि वह तो
दूसरे की चीजों
को भी अपना
मान लेता है।
यहां तुम आए, न तो जमीन
लेकर आए, न
मकान लेकर आए।
जमीन यहा थी, तुम आए उसके
पहले थी, तुमने
उस पर झंडा
गाड़ दिया, तुम्हारी
हो गयी।
आदमी
अजीब पागल है।
जब अमरीकन
पहली दफा चांद
पर गए तो वहीं
झंडा गाड़ आए।
झंडा गाड़े
बिना चलता ही
नहीं। जैसे
चांद किसी के
बाप का हो। उस
पर झंडा गाड़
दिया। जब
हिलेरी
एवरेस्ट पर
चढ़ा तो उसने
एवरेस्ट पर
झंडा गाड़
दिया। अब
एवरेस्ट
सदियों से है, आदमी
नहीं था, तब
से है। चाद कब
से है! आदमी
रहेंगे और
समाप्त हो
जाएंगे और
चांद बना
रहेगा। किसका
है! लेकिन हम
तो दूसरे की
चीज पर भी
कब्जा कर लेते
हैं।
मैं
कल एक कहानी
पढ़ रहा था। एक
धनी यहूदी एक
भिक्षुक को हर
साल एक
निश्चित रकम
दिया करता था।
एक साल उसने
उससे आधी ही
रकम भिक्षुक
को दी। भिक्षुक
ने इस पर मुंह
बनाया तो धनी
ने उसे समझाया, भाई, इस
साल मेरे
खर्चे बहुत बढ़
गए हैं। मेरा
सबसे बड़ा बेटा
देश की सबसे
बड़ी नर्तकी पर
फिदा हो गया
है और उस पर
पानी की तरह
पैसा बहा रहा
है। इसलिए
मुझे क्षमा
करो, इस बार
ऊगदा न दे
सकूंगा। ऐसा
सुनकर तो
भिक्षुक एकदम
खफा हो गया और
बोला, श्रीमान
जी, आपका
चिरजीव अगर
देश की सबसे
बड़ी नर्तकी को
पालना चाहता
है सौ पाले, मगर अपने
पैसों से पाले,
मेरे पैसों
से तो नहीं।
दूसरे
की चीज पर भी
अपना कब्जा हो
जाता है।
खयाल
रहे, संन्यासी
का अर्थ है, दूसरे की
चीज पर तो
कब्जे का सवाल
ही न रहा, कोई
चीज अपनी है
ऐसी धारणा भी
विदा हो जाए।
अब एक छोटी सी
चादर, वह
साम्राज्य बन
गयी। एक छोटी
सी चादर, उसी
में उसने
बेईमानी भी
निकाल ली।
मोटे धागे की
थी, कह तो
सकता नहीं था।
कह नहीं सकता
था कि इसे न लूंगा,
कि पतले
धागे की
चाहिए। मगर
कानूनी तरकीब
निकाल ली।
जहां कानूनी
तरकीबें हैं,
वहां आदमी
की सरलता खो
जाती है, पाखंड
शुरू हो जाता
है।
जैन
मुनियों में, विशेषकर
दिगंबर जैन
मुनियों में,
महावीर के
समय से चला
मृगया एक नियम
है, प्यारा
नियम है।
महावीर जब
निकलते थे
सुबह ध्यान के
बाद भिक्षा के
लिए, तो वे
एक व्रत ले
लेते थे मन
में कि अगर आज
किसी घर के
सामने दो आम
लटके होंगे, तो मैं भोजन
ले लूंगा। या
किसी घर के
सामने एक काली
गाय ,हड़ी
होगी तो भोजन
ले लूंगा। ऐसा
एक नियम ले लेते,
फिर सारे
गांव में घूम
आते। कभी—कभी
महीनों तक भी
भोजन नहीं
मिलता था, क्योंकि
अब इसका क्या
भरोसा।
एक
दफा उन्होंने
नियम ले लिया
कि एक बैल खड़ा
हो, और
बैल के सींग
में गुड़ लगा
हो। तीन महीने
तक बैल न
मिला। अब बैल
के सींग में
गुड़ लगा हुआ!
फिर जिस घर के
सामने खड़ा हो
उस घर के लोग
नियंत्रण दें,
तब न। तो कई
बातें मिलनी
चाहिए। वह मेल
नहीं खाईं तो
तीन महीने तक
वे वापस लौट
आते थे।
दिगंबर
जैन मुनि अभी
भी इसका पालन
करता है। लेकिन
उसने कानूनी
तरकीब निकाल
ली है। वह
दो—तीन चीजें
उसने तय कर
रखी हैं, बस उतने ही
लेता है नियम।
तो तुम बहुत
चकित होगे, जब दिगंबर
जैन मुनि गांव
में आता है तो
कई घरों के
ररामने तुम
देखोगे कि दो
केले लटके हैं,
दो आम लटके
हैं। बस वह
दो—तीन चीजें
खता है, तो
सभी घरों के
सामने उतनी
चीजें लटका
देते हैं। अब
यह कानूनी
तरकीब तो गयी।
अब वह एक भी
दिन बिना भोजन
किए नहीं
जाता। महावीर
को तीन महीने
तक भी एक दफा
भोजन बिना किए
जाना पड़ा था।
और अक्सर बिना
भोजन किए जाना
पड़ता था।
महावीर
के बारह साल
की साधना के
समय में, कहते हैं, कुल तीन सौ
पैंसठ दिन
उन्हें भोजन
मिला था। मतलब
ग्यारह साल
भूखे और एक
साल भोजन, ऐसा।
एक—एक दिन कभी
सात दिन के
बाद, कभी
पंद्रह दिन के
बाद, कभी
महीनेभर के
बाद। जरूर
उन्होंने कोई
कानूनी तरकीब नहीं
की होगी, नहीं
तो अपना एक ही
नियम रोज ले
लिया कि दो
केले।
धीरे—धीरे
लोगों को पता
चल ही जाएगा
कि जहां दो
केले लटके
होते हैं, वहीं
ये भोजन लेते
हैं, तो
फिर श्रावक दो
केले लटकाने
लगेंगे। दो
क्या वे दो सौ
लटका दें, तो
उससे कोई
फर्क! कितनी
अड़चन है
उसमें!
इतना
ही नहीं, दिगंबर जैन
मुनि किसी
गांव में जाए,
हो सकता है
लोगों को पता
न हो, नए
गांव में
पहुंचे, लोगों
को पता न हो कि
वह क्या नियम
लेता है, तो
एक चौका उसके
साथ चलता है।
एक श्रावक, एक श्राविका,
दो—चार
सज्जन—एक चौका
उसके साथ चलता
है। तो वह हर
गांव में जहां
जाता है, उसके
एक दिन पहले
पहुंच जाते
हैं। गांव के
लोग तो भोजन
बनाते ही हैं,
अगर वहनि
मिले तो इस
चौके वालों को
तो पक्का पता
है, अगर
गांव में न
मिल पाएं तो
लौटकर इस चौके
में भोजन मिल
जाता है, लेकिन
भोजन कभी
चूकता नहीं।
फिर जरूरत
क्या है इसको
करने की? वह
महावीर की जो
बात थी वह तो
खो गयी। आदमी
बेईमान है।
एक
बार ऐसा हुआ
कि एक बौद्ध
भिक्षु
भिक्षा मांगकर
लौट रहा था और
एक चील मांस
का टुकड़ा लेकर
जाती होगी, उसके
मुंह से छूट
गया। वह
भिक्षु के
पात्र में गिर
गया। अब बुद्ध
ने कहा था, जो
तुम्हारे
पात्र में गिर
जाए, वह
स्वीकार कर
लेना। अब उसने
सोचा कि क्या
करना? ताजा
मांस का टुकड़ा
था। पुराना
मांसाहारी था वह।
तो उसने सोचा
कि भगवान ने
खुद ही कहा है
कि जो पात्र
में गिर जाए, अब इसमें
इनकार भी कैसे
करना।
लेकिन
पास में और
भिक्षु भी थे, उन्होंने
भी देख लिया
था, उन्होंने
कहा कि ठहरो!
ऐसी स्थिति के
लिए भगवान ने
नहीं कहा है।
भगवान से
पूछना पड़ेगा।
अभी रुको।
उनको भी
ईर्ष्या
सताने लगी कि
यह तो मांस खा
जाएगा और हम!
सभी क्षत्रिय
थे। क्योंकि बुद्ध
के अनुयायी और
महावीर के
अनुयायी
अधिकतर सब
क्षत्रिय थे,
वे दोनों भी
क्षत्रिय थे।
तो क्षत्रिय
घरों से लोग
ज्यादा आए थे।
भगवान
के पास बात
गयी। बुद्ध ने
सोचा। उन्होंने
सोचा—तुम्हारी
बेईमानी के
कारण कैसी
अड़चनें खड़ी
होती
हैं—उन्होंने
सोचा कि अगर
मैं कहूं कि
तुम्हारे
पात्र में जो
गिरा है तुम
कर लो भोजन, तो यह
मांसाहार
करेगा। मगर, अगर मैं
कहूं कि नहीं,
तुम्हारे
ऊपर छोड़ता हूं
कभी ऐसी
स्थिति आ जाए कि
जो करने योग्य
नहीं है तो
छोड़ देना, तो
भी खतरा है।
क्योंकि फिर
तत्कण
भिखारी—फिर भिक्षु
जो है बौद्ध
का—वह घरों
में जाने
लगेगा, जो
उसको पसंद
नहीं है वह
उसको छोड़ने
लगेगा। वह कहेगा,
यह करने
योग्य नहीं
है। किसी ने
रूखी—सूखी रोटी
दी वह छोड़
देगा, किसी
ने पूड़ी तो वह
ले लेगा। तो
वह खतरा और
बड़ा हो जाएगा।
यह चील
इत्यादि ने तो
एक बार गिरा दिया,
यह कोई
रोज—रोज तो
गिराने वाली
नहीं है मांस।
इसलिए
उन्होंने कहा
कि ठीक है, जो
पात्र में आ
जाए वह ले
लेना।
इस
छोटी सी घटना
के कारण सारे
बौद्ध
मांसाहारी हो
गए। शाकाहार
खो ही गया।
चीन, जापान,
कोरिया, तिब्बत,
बर्मा, सब
मासाहारी हो
गए। सब बौद्ध
मुल्क
मांसाहारी
हैं, इस
छोटी सी घटना
के कारण। यह
चील ने सारा
उपद्रव कर
दिया। करोड़ों
लोग
मांसाहारी हो
गए इस एक चील
की तरकीब से।
अब वे कहते
हैं, जो
पात्र में पड़
जाए। और उनके
श्रावक जानते
हैं कि लोग
मासाहार पसंद
करते हैं तो
पात्र में
मांसाहार
डालने लगे।
उसके पहले तक
नहीं डाला था
उन्होंने।
बुद्ध
ने कहा है, कोई किसी
को मारकर न
खाए। सोचा भी
नहीं होगा कि
कोई कानूनी
आदमी इसमें से
तरकीब निकाल
लेगा। किसी
जानवर को मारकर
न खाए। तो चीन
और जापान में
तुम्हें ऐसी तख्तिया
लगी मिलेंगी
दुकानों के
सामने कि यहां
अपने आप मरे
जानवर का मांस
बेचा जाता है।
इसके लिए तो
बुद्ध ने मना
किया 'गी नहीं है।
उन्होंने कहा
था, कोई
मारकर न खाए।
तरकीब निकाल
ली।
अब
इतने जानवर
अपने आप मर भी
नहीं रहे हैं।
हजारों गाएं
काटी जा रही
हैं। कटकर
मांस आता है, होटल
वाला तख्ती
लटकाए बैठा
है। बस, मजे
से तुम कर
सकते हो, क्योंकि
साफ लिखा है।’
तुम
भी जानते हो, सारी
दुनिया जानती
है कि वह सब
मांस कटकर आ
रहा है, लेकिन
इससे तुम्हें
क्या मतलब!
लेने वाला
कहता है, यह
होटल वाला
जाने। अगर वह
कोई पाप कर
रहा है, झूठ
बोल रहा है, तो वह जाने।
होटल वाला
सोचता है, सारी
दुनिया जानती
है कि इतने
जानवर रोज
कहां से
मरेंगे, जानकर
तुम ले रहे हो,
तुम समझो।
तख्ती तो ऐसे
ही है जैसे
हमारे मुल्क
में तख्ती लगी
रहती है, यहां
शुद्ध धी
बिकता है। सभी
जानते हैं कि
जहां—जहां
शुद्ध घी लिखा
है, वहां—वहां
क्या बिकता
है। इसमें
किसी को कुछ बताने
की जरूरत नहीं
है। जब शुद्ध
घी बिकता था तो
किसी जगह
तख्ती लगी ही
नहीं होती थी
कि शुद्ध घी
बिकता है। घी
बिकता है, इतना
ही काफी था, शुद्ध क्यों
लगाना? घी
यानी शुद्ध
होता है।
शुद्ध घी
बिकता है, रसका
मतलब ही यह है
कि अशुद्ध का
भाव प्रवेश कर
गया है।
तिष्य
को कुछ बड़ी
चीज नहीं थी, एक छोटी
सी चादर थी, मगर चादर ने
बेचैन कर
दिया। खूब
अहंकार उठने लगा
मन में उसको।
और रात अंधेरा
हो गया है
इसलिए अब तो
पहनने का मौका
नहीं है, कल
सुबह, सूरज
के ऊगते ही, नहा— धोकर
पहनकर
निकलूंगा संघ
में, देखेंगे
भिक्षु, ईर्ष्या
से ठगे रह
जाएंगे, खड़े
रह जाएंगे।
भगवान के पास
भी ऐसी चादर
नहीं है, जैसी
मेरे पास है।
लेकिन संयोग
की बात, न
तो रात सो सका,
चिंता के कारण
सपने देखे और
उसी रात मर भी
गया। खयाल करना,
जब भी तुम
मरोगे तो जो
तुम्हारी
अंतिम वासना होगी,
वही
तुम्हारे नए
जन्म का
सूत्रपात
होती है। इसलिए
मरते वक्त अगर
वासना के सहित
मरे, तो
वासना ही
तुम्हारे
जीवन का ढांचा
बनेगी। आने
वाले जीवन का
ढांचा बनेगी।
मरते
वक्त उसके मन
में एक ही भाव
था, एक
ही भाव था कि
चादर पहन लूं?
चादर पहन
लूं चादर पहन
लूं। फिर मर
गया, तो
चीलर हुआ।
चीलर
का मतलब इतना
ही है—कथा तो
केवल एक बोधकथा
है—चीलर का
मतलब इतना है
कि अब और तो
कोई उपाय नहीं
था, चीलर
होकर ही चादर
में प्रवेश कर
सकता था, ओढ़
सकता था चादर
को, तो
चीलर हुआ। वह
चादर की वासना
उसे चीलर बना
दी।
तुम्हारी
वासना ही
तुम्हारी नयी
देह बनेगी। इसलिए
मरते वक्त
सोच—समझकर
मरना। मगर
मरते वक्त
सोच—समझकर मर
न सकोगे, अगर सोच—समझ
पूरे जीवन न
सम्हाला।
तुमने
कहानिया सुनी
हैं—वे
कहानियां
एकदम व्यर्थ
नहीं हैं, बड़ी
प्रतीकात्मक
है—कि कोई
आदमी मर जाता
है, वह साप
होकर 'अपने
गड़ाए हुए धन
पर बैठ जाता
है। वह
जिंदगीभर धन
की ही बात
सोचता रहा, रात—दिन एक
ही फिकर रही
कि जहां धन
गड़ाया है कोई
उसमें आ न जाए;
मरकर सांप
हो गया है।
ऐसा हो या न हो,
यह सवाल
नहीं है, मगर
यह बात सूचक
है। तुम मरकर
वही हो जाओगे
जो तुम्हारे
जीवनभर की
वासना थी। और
अंतिम घड़ी में
तुम्हारे
चित्त पर जो
बादल डोल रहे
थे उन्हीं के
इशारे पर
तुम्हारे नए
जीवन का
प्रारंभ
होगा।
वह
तिष्य चीवर
में चीलर हो
गया। और जब
उसकी चादर
उठायी गयी, तो
स्वभावत: चीलर
एकदम पागल हो
उठा। वह दौड़ने
लगा चादर के
भीतर और चिल्लाने
लगा, हमारी
वस्तु लूट रहे
हैं। मर गया, लेकिन वासना
अभी भी नहीं
मरी। मर गया, लेकिन मोह
अभी भी नहीं
मरा। मर गया, लेकिन
अहंकार अभी भी
नहीं मरा।
हमारी
वस्तु लूट रहे
हैं, कह—कहकर
इधर—उधर दौड़ने
और चिल्लाने
लगा। भगवान के
अतिरिक्त तो
किसी ने उसकी
आवाज सुनी भी
नहीं।
उतनी
सूक्ष्म आवाज
तो सिर्फ
बुद्धपुरुष
ही सुन सकें।
वे हंसे और
उन्होंने कहा
कि आनंद, उन भिक्षुओं
को कह दो कि
तिष्य के चीवर
को अभी वहीं
रख दें। सात
दिन बाद जब
चीलर मर गया, तो बुद्ध ने
कहा, अब उस
चादर को बांट
लो।
स्वभावत:, भिक्षुओं
ने पूछा।
क्योंकि
इसमें
विरोधाभास था,
सात दिन
पहले अचानक कह
दिया था कि
रुक जाओ, चादर
को वहीं छोड़
दो, अब
अचानक कहा कि
बांट लो।
तो
बुद्ध ने कहा, कामी
अनंत बार मरता
है।
उसकी
कामना तिष्य
की उसे चीलर
बना दी। अब
चीलर की तरह
वह मर गया। अब
जो कामना लेकर
मरा है, वह फिर उस
कामना से पैदा
होगा, फिर
मरेगा।
कामी
अनंत बार मरता
है। जितनी
कामना, उतनी
मृत्यु।
प्रत्येक
कामना एक जन्म
है और प्रत्येक
कामना एक
मृत्यु है। और
तब उन्होंने यह
गाथा कही—
जैसे
लोहे पर
मोर्चा लग
जाता है, जंग लग जाती
है, वह आती
तो लोहे से ही
है, लेकिन
लोहे को ही
सड़ा देती है, गला देती है,
मिटा देती
है। जैसे लोहे
पर जंग आ जाती
है, उसी से
उत्पन्न होती
और जंग फिर
उसी लोहे को खा
जाती है, ऐसे
ही तुम्हारी
वासनाएं
तुम्हीं में
उत्पन्न
होतीं और
तुम्हीं को खा
जातीं। वासना
तुम्हारी
चेतना पर जंग है।
वासना से जो
मुक्त है, वह
निर्मल है। उस
पर कोई जंग
नहीं।
'वैसे ही
सदाचार का
उल्लंघन करने
वाले मनुष्य के
अपने कर्म उसे
दुर्गति को
पहुंचाते।'
यह
तिष्य की हालत
देखो, बुद्ध
ने कहा, अपनी
ही भ्रांति, अपनी ही भूल,
कैसी
दुर्गति में
ले गयी! कहां
भिक्षु था, कहां चीलर
हुआ!
मनुष्य
इन सारी
यात्राओं पर
होकर आया है।
तुम कभी पशु
थे, कभी
पक्षी थे, कभी
पौधे थे, कभी
पहाड़ थे, अब
तुम मनुष्य
हो। इस मनुष्य
होने के
अपूर्व अवसर
का ठीक—ठीक
उपयोग कर लो।
कहीं ऐसा न हो
कि यह अवसर
ऐसे ही खो
जाए। इस अवसर
का एक ही ठीक
उपयोग है और
वह है—इस बार
इस भांति मरो
कि फिर कोई
जन्म न हो।
उसने ही जीवन
का सम्यक
उपयोग कर लिया
जो इस भांति मरा
कि फिर कोई
जन्म न हो।
लेकिन
उसके लिए
निर्वासना
में मरना
जरूरी है। शात, मौन, शून्य
भाव में मरना
जरूरी है। तो
फिर तुम्हारे
भीतर कोई दिशा
नहीं है जो
तुम्हें कहीं
ले जा सके।
जब
तुम्हारे
भीतर कहीं
जाने की कोई
कामना नहीं, कुछ होने
की कोई कामना
नहीं, तब
तुम इस पृथ्वी
के प्रभाव से
मुक्त हो जाते
हो। तब तुम
उठते हो आकाश
की उस ऊंचाई
पर, जहां
बुद्धत्व को
प्राप्त
व्यक्ति ही
उठते हैं।
एक
ऐसा जन्म है
कि फिर कोई
मृत्यु नहीं।
वह जन्म है
मोक्ष में। और
फिर ऐसे अनंत
जन्म हैं जिनमें
बार—बार
मृत्यु है, वैसे
जन्म हैं
संसार में।
चुनाव
तुम्हारा है।
सागर
बूंदों का
मेला
ईश्वर
आदमी अकेला
इस
अकेलेपन को
बुद्ध कहते
हैं, द्वीप
बन जाना।
सो करोहि
दीपमत्तनो
खिप्पम वायम
पंडितो भव।
अकेले
हो जाओ, असंग हो
जाओ। ऐसे जीओ
कि तुम अकेले
हो, कोई
संग—साथ नहीं,
कोई
संगी—साथी
नहीं है, कोई
अपना नहीं, कोई पराया
नहीं, ऐसे
द्वीप की
भांति जीओ। और
जिस दिन तुम
द्वीप की
भांति जीओगे,
उसी दिन
तुम्हारे
भीतर वह दीया
भी जलेगा जो
पांडित्य का
है।
यह
दीया
बुझा—बुझा ही
न रह जाए। इस
दीए को जलाना
ही है। तो
तुम्हारे पास पुण्य—पाथेय
होगा। और
तुम्हारा एक
घर होगा उस विराट
में, तुम
बेघर न होओगे।
संसार से तो
घर मिटाना है
और निर्वाण
में घर बनाना
है।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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