अध्याय
61
बड़े
और छोटे देश
बड़े
देश को नदीमुख
नीची भूमि की
तरह होना
चाहिए,
क्योंकि
वह संसार का
संगम है, और
संसार का
स्त्रैण गुण
है।
स्त्री
पुरुष को मौन
से जीत लेती
है,
और मौन से
वह नीचा स्थान
प्राप्त करती
है।
इसलिए
यदि एक बड़ा
देश अपने को
छोटे देश के
नीचे रखता है,
तो
वह छोटे देश
को आत्मसात कर
लेता है।
और
यदि छोटा देश
अपने को बड़े
देश के नीचे
रखता है,
तो
वह बड़े देश को
आत्मसात कर
लेता है।
इसलिए
कुछ दूसरों को
आत्मसात करने
के लिए अपने
को नीचे रखते
हैं;
कुछ
स्वभावतः ही
नीचे होते हैं
और दूसरों को
आत्मसात करते
हैं।
बड़ा
देश यही तो
चाहता है कि
दूसरों को शरण
दे,
और
छोटा देश
चाहता है कि
वह प्रवेश पा
सके और शरण
पाए।
इस
प्रकार यह
विचार कर कि
वे दोनों वह
पा सकें जो वे
चाहते हैं,
बड़े
देश को अपने
को नीचे रखना
चाहिए।
वर्षा
होती है तो
बड़े-बड़े पहाड़
खाली के खाली
रह जाते हैं; झील,
गङ्ढे,
घाटियां पानी से भर
जाती हैं, भरपूर
हो जाती हैं।
पहाड़ खाली रह
जाते हैं, क्योंकि
पहले से ही
भरे हुए हैं, अपने से ही
भरे हुए हैं; गङ्ढे, घाटियां,
झीलें भर
जाती हैं, क्योंकि
वे खाली हैं।
वहां जगह है, अवकाश है, दूसरे को
आत्मसात कर
लेने की
सुविधा है।
परमात्मा
भी प्रतिपल
बरस रहा है।
अगर तुम पहाड़ों
की तरह
हो--अपने ही
अहंकार से भरे
हुए--तो खाली
रह जाओगे। अगर
तुम झील, घाटियों
की तरह
हो--शून्य, रिक्त--तो
तुम भर जाओगे।
खाली रहना हो
अगर तो अहंकार
से भरे रहना।
भरना हो अगर
तो अहंकार से
खाली हो जाना।
जो शून्य की
भांति हो जाता
है वह पूर्ण
से भर जाता
है। और जो
अपने को सोचता
है कि मैं
पूर्ण ही हूं
वह खाली ही मर
जाता है। यह
बड़ा विरोधाभास
है। लेकिन
समझो तो
सीधा-साफ है।
जीसस
ने कहा है, अपने
को बचाना चाहो
तो मिट जाना, और अपने को
मिटाने पर ही
तुले हो तो
फिर अपने को
बचाए रखना। जो
मिटेगा वह पा
लेगा; और
जो अपने को बचाएगा
वह अपने बचाने
की कोशिश में
ही खो देता
है।
इस राज
को ठीक से समझ
लो। यह
व्यक्ति के
संबंध में भी
लागू है, समाज
के संबंध में
भी, राज्य
के संबंध में
भी, देशों-राष्ट्रों
के संबंध में
भी। नियम तो
एक ही है। फिर
उस नियम की
अनेक
अभिव्यक्तियां
हैं। नियम यह
है कि तुम
खाली होना
सीखो। पहली
बात, इस
सूत्र को
समझने के पहले,
खाली होने
की कला।
गुरु
के पास शिष्य
बैठता है। अगर
वह भरा हो, कुछ
भी न सीख
पाएगा। तुम
अगर मेरे पास
भरे हुए आए हो,
अपने ही
ज्ञान, अपने
ही शास्त्र से,
तो तुम खाली
ही लौट जाओगे।
मैं लाख उपाय
करूं, मैं
लाख तुम्हारे
चारों तरफ हवा
निर्मित करूं,
कुछ भी न
होगा। तुम अगर
खाली ही नहीं
हो तो तुममें
द्वार कहां? जगह कहां है
जहां से मैं
प्रवेश कर
सकूं? तुम्हारे
सिंहासन पर
तुम स्वयं ही
बैठे हो; वहां
और किसी को
बिठाने का अब
कोई उपाय
नहीं।
गुरु
के पास शिष्य
अगर ज्ञान से
भरा हुआ आए तो व्यर्थ
ही समय गंवाता
है। गुरु के
पास शिष्य
खाली होकर आए
तो भरा हुआ
लौटता है।
इसीलिए
तो बहुत
प्राचीन समय
से शिष्य को
गुरु के पास
आने की कला सीखनी
होती थी। कला
का पहला सूत्र
है कि तुम जो
भी जानते हो
वह द्वार के
बाहर ही छोड़
आना। तुम ऐसे
आना जैसे तुम
अज्ञानी हो, जैसे
तुम्हें कुछ
भी पता नहीं
है। क्योंकि
अगर तुम्हें
कुछ भी पता है
तो वह पता ही
तो दीवार बन
जाएगा। अगर
तुम कुछ भी
जानते हो तो
वह जानने की
अकड़ रुकावट हो
जाएगी।
तुम्हारी लोच
समाप्त हो
जाएगी।
तुम्हारे
द्वार बंद हो
जाएंगे। फिर
तुम्हारे
भीतर, मैं
लाख उपाय करूं,
तुम मुझे
घुसने ही न
दोगे। तुम
अपनी रक्षा
करते रहोगे।
गुरु
से शिष्य
रक्षा करता
रहे तो क्या
सीख पाएगा? या
कि तुम गुरु
से तर्क करते
रहोगे। तर्क
भी रक्षा है।
तर्क भी तलवार
की तरह है जिससे
तुम अपना बचाव
करते रहते हो।
ताकि वही प्रवेश
पा सके तुममें
जिसे तुमने
पहले से ही जान
रखा है। ताकि
तुम्हारी ही
बढ़ती हो, तुम
मिटो न, बढ़ो, तुममें
से कुछ बाहर न
निकल जाए, भीतर
ही आए! तर्क
कंजूस की तरह
है जो अपनी
तिजोरी के
सामने रक्षा
करता है।
कहानियां कहती
हैं कि कंजूस
मर भी जाए तो
सर्प होकर
तिजोरी पर
कुंडल मार कर
बैठ जाता है।
वह रक्षा करता
है कि जो भीतर
है वह बाहर न
चला जाए।
पंडित
भी अपने ज्ञान
की रक्षा करता
है। इसलिए पंडित
अज्ञानी ही
मरता है। अगर
तुम्हें पंडित
होकर मरना
हो--सही-सही
अर्थों में
पंडित होकर मरना
हो--तो तुम
अज्ञानी होने
को राजी हो
जाना। अज्ञान
यानी खाली।
कबीर
कहते हैं, पढ़-पढ़
जग मुवा
पंडित भया न
कोय।
पढ़-पढ़
कर लोग मर गए
और पंडित न
हुए।
ढाई
आखर प्रेम का
पढ़ा सो पंडित
होए।
लेकिन
जिसने छोटा सा
प्रेम का शब्द
सीख लिया, वह
पंडित हो गया।
क्या
है प्रेम का
राज?
प्रेम का
राज है: निरहंकारिता,
खाली होना।
जिस दिन तुम
खाली हो उसी
दिन सारे जगत
की ऊर्जा
तुम्हारी तरफ
बहनी शुरू हो
जाती है। गङ्ढा
बन कर देखो; तुम पाओगे, सब तरफ से
दौड़ने लगा
परमात्मा
तुम्हें भरने
को। गङ्ढा
बनना हो तो
दूसरी बात
खयाल रखनी
जरूरी है: नीचे
होना सीखो!
नदी
गिरती है
समुद्र में, क्योंकि
समुद्र नदी से
नीचा है।
समुद्र इतना विराट
है कि नदी से
ऊपर होता अगर
जरा सी भी अकड़ होती।
विराट सागर
नीचे है, छोटी-छोटी
नदियां
ऊपर हैं।
लेकिन सभी
नदियों को
सागर में
पहुंच जाना
पड़ता है। सागर
की कला क्या
है? क्योंकि
उसने अपने को
नीचा बना कर
बिठा लिया है।
जितना नीचा
सागर, उतना
बड़ा सागर।
प्रशांत
महासागर बड़े
से बड़ा सागर
है, क्योंकि
पांच मील गहरा
खड्डा है। कोई
बच कैसे सकेगा
इस गङ्ढे
से? सारे
जल को इसी तरफ
भाग जाना
पड़ेगा। सारी
दुनिया की नदियां
इसी तरफ दौड़ती
रहेंगी।
इसीलिए तो इस
सागर को प्रशांत
महासागर कहते
हैं। बड़ा शांत
है! इतना नीचा
जो है, वह
अशांत कैसे
होगा?
अशांति
तो तुम्हारे
ऊपर होने की
आकांक्षा से आती
है। अशांति तो
तुम जितने
सिंहासन पर चढ़ने की
कोशिश करते हो
उतनी ही बढ़ती
जाती है। जब
तुम नीचे से
नीचे हो जाते
हो तब कैसी
अशांति? वहां
से तो तुम्हें
कोई भी हटा न
सकेगा। और नीचे
जाने का तो
कोई उपाय न
रहा। वहां से
तो तुम्हारा
कभी कोई अपमान
न कर सकेगा।
तुमने आखिरी से
आखिरी जगह चुन
ली। अब पीछे
हटने की जगह
ही नहीं है।
अब तुम हारोगे
कैसे? अब
तुम्हें कोई हराएगा
कैसे? अब
तुम परम विजय
में सुदृढ़
हो गए। अब
तुमने जिनत्व
पा लिया। अब
तुम्हारी जीत
आखिरी है। अब
तुम अपराजेय
हो। अब
तुम्हें कोई
भी नहीं हरा
सकता। तुम उस
जगह खुद ही
पहुंच गए जहां
हराने वाले तुम्हें
पहुंचाना
चाहते हैं। और
मजा यह है कि
उस जगह
पहुंचते ही
सारी दुनिया
की सभी नदियां
तुम्हारी तरफ दौड़नी
शुरू हो जाती
हैं; ज्ञान
की, प्रेम
की, प्रकाश
की, परमात्मा
की सभी नदियां
तुम्हारी तरफ दौड़नी
शुरू हो जाती
हैं।
यह
स्वाभाविक है
कि जो जितना
नीचा है, उतना
धनी हो जाता
है। जो जितना
अकड़ता है, ऊपर
चढ़ता है, उतना निर्धन
हो जाता है।
इसीलिए
तो महावीर और
बुद्ध
राज-सिंहासन
से उतर आए; सड़क
पर भिखारी बन
कर खड़े हो गए।
क्या पागल थे?
कुछ बात समझ
में आ गई--कि
जितने तुम ऊपर
चढ़ोगे
उतनी ही
तुम्हारी तरफ
जीवन की
धाराएं बहनी
बंद हो जाती
हैं, जितने
तुम नीचे
उतरते हो उतने
ही तुम पात्र
होते चले जाते
हो। जिस दिन
तुम गङ्ढे
की भांति हो
जाते हो, सबसे
नीचे, उस
दिन तुम्हारी
पात्रता
विराट है। उस
दिन परमात्मा
तुम्हें
भरेगा--सब
द्वारों से, सब दिशाओं
से, सब
आयामों से।
तो अगर गङ्ढा
बनना हो तो
नीचे से नीचे
हो रहना। मगर
मन उलटा ही
समझता है। मन
उलटा ही मार्ग
दिखाता है। और
मन तुमसे
जो-जो करने को
कहता है वह
इतना
तर्कयुक्त है
कि उसमें छिपा
हुआ भ्रांति
का,
भूल का, अज्ञान
का मूल स्वर
दिखाई नहीं
पड़ता। और मन
का गणित
विरोधाभासी
नहीं है। मन
कहता है, ऊपर
होना हो तो
ऊपर चढ़ो।
ऊपर होना हो
तो नीचे जाना,
यह कौन सी
बुद्धिमानी
है? ऊपर
जाना हो, सीढ़ी
लगाओ। धन पाना
हो; राजमहलों में है।
यश-कीर्ति
पानी हो; पदों
में, प्रतिष्ठा
में है।
और मन
का गणित
बिलकुल सीधा
साफ-सुथरा है।
बात जंचती
है। धन पाना
हो तो धन पाओ, यश
पाना हो तो यश
पाओ, बचना
हो तो बचाओ।
ये जीसस, ये
बुद्ध, ये
लाओत्से, इन
सबकी खोपड़ी
कुछ उलटी
मालूम होती
है। मन कहता
है, इनकी
बातों में
फंसे कि उलझ
जाओगे, मुश्किल
में पड़ जाओगे।
ये क्या समझा
रहे हैं? ये
तो बिलकुल
अतक्र्य
बातें कर रहे
हैं। ये कह
रहे हैं, ऊपर
जाना हो तो
नीचे जाओ। ये
कह रहे हैं, बड़ा होना हो
तो छोटे हो
जाओ। ये कहते
हैं, धन
पाना हो तो
भिखारी हो
जाओ। ये कहते
हैं, भिक्षा-पात्र
में छिपा है
सिंहासन, और
सिंहासनों
में सिवा
भिक्षा-पात्रों
के कुछ भी
नहीं।
साफ है
कि हम मन की
मान लेते हैं, क्योंकि
मन का गणित
बहुत साफ
मालूम पड़ता
है। काश, मन
का जो गणित है
वही जीवन का
भी गणित होता
तो तुम हारे
हुए न होते, तो तुम्हारे
जीवन में कोई
पराजय न होती,
तो
तुम्हारी
आंखों में
हताशा न होती।
तो तुम जीत
चुके होते।
लेकिन
जीवन मन के
गणित से
बिलकुल भिन्न
है। मन का
गणित मनुष्य
का गणित है; कितना
ही साफ-सुथरा
हो, मनुष्य-निर्मित
है। जीवन का
गणित बिलकुल
उलटा है। और
जीसस, बुद्ध
और लाओत्से
ठीक कहते हैं,
क्योंकि वे
जीवन के गणित
को पहचान लिए
हैं। वे कहते
हैं कि बड़े
होना है, अगर
सच में ही बड़े
होना है, नीचे
हो जाओ। ऐसा
उन्होंने
जाना है होकर।
और हम भी उनकी
महिमा को
देखते हैं; उनसे महिमावान
कोई भी नहीं
दिखाई पड़ता।
सम्राट उनके
सामने फीके
दिखाई पड़ते
हैं। बड़े से
बड़े
साम्राज्य भी
उनके चरण की
धूल मालूम
पड़ते हैं। यह
भी समझ में आता
है। इसलिए बिगूचन
और बढ़ जाती है,
उलझन और बढ़
जाती है। क्या
करें?
मन
भीतर एक गणित
सुझाता है; जीवन
का गणित
बिलकुल अलग
है। मन के
गणित को छोड़
देना संन्यास
है। जीवन के
गणित को पकड़
लेना संन्यास
है। मन के
गणित से जाग जाना
होश है। जीवन
के गणित को
पहचान लेना
बुद्धत्व है।
और जीवन का
गणित बिलकुल
विरोधाभासी है,
पैराडाक्सिकल है। और
तुम्हें भी
अपने जीवन में
कभी-कभी उसकी
झलक मिलती है,
क्योंकि
तुम भी जीवन
से जुड़े हो।
मन कुछ भी कहे,
तुम भी जीवन
में कभी-कभी
झलक पाते हो।
लेकिन चूंकि
मन के गणित को
तुमने इतने
जोर से पकड़
लिया है, उन
झलकों को तुम
हटा देते हो; कभी तुम उन
पर सोचते
नहीं।
कभी
तुमने खयाल
किया कि जब
तुम दूसरे के
सामने झुकते
हो तो अचानक
दूसरा
तुम्हारे
सामने झुक
जाता है। ऐसा
अनुभव तुम्हें
बिलकुल नहीं
आया?
जरूर
आया होगा। जब
तुम किसी के
सामने बिलकुल
छोटे हो जाते
हो,
तभी तुम
अचानक पाते हो
कि दूसरे के
हृदय में तुम्हारे
लिए अति
सम्मान पैदा
हो गया। तुमने
जब भी
थोड़ी-बहुत
अपनी महिमा का
स्वर सुना होगा
वह विनम्रता
में सुना
होगा। जब तुम
किसी को कुछ
देते हो तब
तुम्हारे
भीतर के धन की
कोई सीमा है!
और जब भी तुम
किसी से कुछ
छीन लेते हो
तब तुमने खयाल
किया कि भीतर
तुम कैसे
दरिद्र हो जाते
हो! यह
तुम्हें
अनुभव में भी
आता है, लेकिन
इस अनुभव को
तुम कभी विचार
नहीं करते।
कभी
कुछ देकर देखो
किसी को। चीज
तो जाती है हाथ
से,
धन जाता है;
लेकिन कुछ
और, जो सभी धनों से
बड़ा धन है, अचानक
तुम्हें भर
देता है। दान
का वही तो मजा है।
इसलिए तो लोग
इतना रस लेते
हैं कुछ भेंट
देने में।
मित्र को, प्रिय
को, परिजन
को तुम कुछ
भेंट देते हो।
उस भेंट देने
में तुमने जो
स्वर सुना है,
उसको थोड़ा
समझो। वह जीवन
का स्वर है।
देकर तुम पाते
हो; देने
में कुछ मिलता
है।
और जब
तुम किसी चीज
को पकड़ लेते
हो,
तभी तुम खो
देते हो। कृपण
के पास धन
होता ही नहीं,
दिखाई पड़ता
है। क्योंकि
दान तो उसने
सीखा नहीं; देना तो उसने
जाना नहीं; तो धन को
देकर जो मिल
सकता था, वह
वंचित रह गया
है। वह पकड़ना
जानता है; वह
धन का भोग
करना नहीं
जानता। धन का
एक ही भोग है
कि तुम उसे
दो। जब तुम
देते हो तो
तुम किसी परम
धन को पाने के
अधिकारी हो
जाते हो।
बांटो, तब
तुम पाते हो
कि तुम बढ़ते
हो। बचाओ, और
तुम पाते हो
कि तुम सिकुड़ते
हो।
यह ऐसे
ही है कि अगर
तुम्हें गहरी
श्वास लेनी हो
तो उतनी ही
गहरी श्वास
बाहर फेंकनी
पड़ती है। तुम
जितने जोर से
बाहर श्वास
फेंकते हो
उतनी ही
तीव्रता से नई
हवाएं
तुम्हारे अंतःकक्ष
को भर देती
हैं। तुम अगर
भीतर की श्वास
को पकड़ लो
कृपण की तरह, बाहर
न जाने दो--कि
श्वास तो जीवन
है, इसको बचाएं, भीतर
रोकें, सम्हालें। तो तुम जिस
श्वास को रोक
रहे हो वह मरी
हुई श्वास है;
उससे
आक्सीजन तो
विदा हो चुकी,
अब तो वह
सिर्फ कार्बन डाय
आक्साइड है।
उससे
तुम्हारी मौत
होगी। उससे तुम
जीवन को न पा
सकोगे। और
जितनी श्वास
तुम भीतर रोके
रखोगे उतनी ही
नई श्वास को
जाने की जगह न
रह जाएगी।
और
ध्यान रखना कि
यही तुम कर
रहे हो। फेफड़े
में कोई छह
हजार छिद्र
हैं। लेकिन
अच्छी से अच्छी
श्वास लेने
वाला आदमी भी
दो हजार
छिद्रों तक ही
आक्सीजन को
पहुंचा पाता
है। चार हजार
छिद्र जहर से
भरे रह जाते
हैं।
तुम्हारा
पूरा फेफड़ा
कभी नई हवा को
नहीं ले
पाता--तुम ऐसे
कृपण हो! यह
तुम्हारे
पूरे जीवन का
ढंग है, इसलिए
तुम्हारी हर
वृत्ति में
छिपा हुआ है।
तुम श्वास
लेने में भी
डर रहे हो।
तुम भीतर की श्वास
को छोड़ने में
भी डरते हो।
लेकिन जिस श्वास
को तुमने भीतर
पकड़ लिया, वह
श्वास जहर है।
उसे बाहर
फेंकना जरूरी
था।
इसलिए
तो सारे योगी
प्राणायाम पर
इतना जोर देते
हैं।
प्राणायाम का
अर्थ क्या है?
प्राण +
आयाम, दो शब्द
हैं
प्राणायाम
में।
प्राणायाम का
अर्थ है:
प्राण को
विस्तीर्ण
करो, उसके
आयाम को बड़ा करो,
फैलाओ।
श्वास को भीतर
मत रोको, बाहर
फेंको। जितने
जोर से तुम
फेंकोगे, भीतर
गङ्ढा
निर्मित होता
है, जगह
खाली हो जाती
है, प्यास
पैदा होती है,
रोआं-रोआं
मांगता है।
तत्क्षण नई हवाएं, ताजी
हवाएं
गंदी हवाओं को
बाहर फेंकने
के बाद भीतर
भर जाती हैं।
जीवन आ रहा
है। श्वास
प्राण है। तुम
जितना फेंक
सकोगे, उलीच
सकोगे श्वास
को, उतनी
ही ताजी श्वास
तुम पा सकोगे।
और यही
सूत्र जीवन की
सभी
प्रक्रियाओं
में है--उलीचो
बेशर्त। जो
तुम्हारे पास
है उसे दो। बांट
दो। प्रेम को
बांटो। हृदय
को बांटो।
अपने बोध, अपनी
समझ को बांटो।
जो बांट सको, बांटो।
कंजूसी मत
करो। जीवन तो
तुम्हारे हाथ से
ऐसे ही निकल
जाएगा। अगर
तुमने इसे
बांट लिया तो
तुम महा जीवन
को पा लोगे।
और यह
जीवन तो ऐसे
ही निकल
जाएगा--बांटो
या न बांटो।
मरते वक्त तुम
पाओगे, जिसे
बचाया वह जा
रहा है। यह
जीवन तो ऐसे
ही चला जाएगा,
तुम बचाते
रहो तो भी। और
बिना उपयोग
किए चला
जाएगा। मौत की
घड़ी में तुम
पाओगे कि
तुमने जो-जो
बचाया वह सब
जा रहा है।
काश, तुम
इसका उपयोग कर
लेते और इसे
बांट देते और
उसे पा लेते
जो कि कभी
नहीं जाता है।
जीवन
का अवसर
बांटने के लिए
है,
ताकि तुम
उसे पा लो जो
कभी भी नहीं खोता
है, ताकि
शाश्वत
तुम्हारा हो
जाए। लेकिन
तुम क्षुद्र
को पकड़ लेते
हो; शाश्वत
से वंचित रह
जाते हो। और
क्षुद्र तो छीन
ही लिया
जाएगा।
यह बड़े
मजे की बात
है। जो छिन ही
जाना है उसे
देने में क्या
कृपणता कर रहे
हो?
जो चला ही
जाएगा अपने आप,
जिसका जाना
सुनिश्चित है,
तुम मालिक
क्यों नहीं हो
जाते और उसका
दान ही क्यों
नहीं कर देते
हो? तुम
मुफ्त में ही
कुछ पा लोगे।
जो जा ही रहा
था, वह
जाता ही; तुमने
कुछ दिया
नहीं। लेकिन
देने की
भाव-दशा में
तुम गङ्ढे
हो जाते हो; और उस गङ्ढे
में वह भर
जाता है जो
कभी नहीं
जाता।
अगर
अमृत को पाना
हो तो मरणधर्मा
को बांटो। अगर
शाश्वत को
पाना हो तो
क्षणभंगुर को
पकड़ो मत, जाने
दो, और
जाते क्षण
आनंद-उत्सव से
जाने दो।
क्योंकि अगर
तुमने दिया भी
और देने में
उत्सव न रहा, तो भी देना
व्यर्थ हो
जाएगा। अगर
बेमन से दिया,
तो तुम दे
भी दोगे, लेकिन
तुम जो मिलता
देने से वह न
मिल पाएगा।
बेमन से दिया,
दिया ही
नहीं। देना
ऊपर-ऊपर रहा, भीतर गङ्ढा
न बना।
लाओत्से
कहता है, पहला
सूत्र है कि
तुम खाली हो
जाओ। दूसरा
सूत्र है कि
खाली होने के
लिए तुम
समुद्र की तरह
नीचे हो जाओ, जहां सारी नदियां
आकर गिर जाती
हैं।
तुमने
समुद्र का कभी
विचार किया? सबसे
बड़ा, सबसे
नीचे! यही बड़े
होने का राज
है, यही
बड़े होने का
मार्ग है। और
तुमने कभी
खयाल किया? समुद्र में
इतनी नदियां
गिरती हैं, बाढ़ नहीं
आती; इतने
बादल जाते हैं,
समुद्र
सूखता नहीं।
क्या राज है? इतनी नदियां
गिरती हैं, बाढ़ नहीं
आती। गङ्ढा
बड़ा विराट है।
तुम इसमें बाढ़
न ला सकोगे।
बाढ़ तो केवल
चाय की प्यालियों
में आती है। गङ्ढा
बहुत छोटा है,
न के बराबर
है; जरा से
में भर जाता
है। समुद्र
में कहीं कोई
बाढ़ आती है? गङ्ढा इतना विराट
है कि डालते
जाओ संसार की
सारी नदियों
को, सागर
पीता चला जाता
है, कोई
बाढ़ नहीं आती।
सागर
उत्तेजित
नहीं होता।
जिस
दिन तुम्हारा गङ्ढा भी
अनंत होगा उस
दिन महा सुख
की वर्षा होती
रहेगी, और
तुम उत्तेजित
न होओगे।
अभी तो
क्षुद्र सुख
भी तुम्हें
ऐसा उत्तेजित कर
देता है, दीवाना
कर देता है।
तुम चाय की
प्याली हो।
उसमें बड़े
जल्दी तूफान आ
जाते हैं। और
अभी तो जरा सा
भी छलक जाए तो
तुम खाली हो
जाते हो।
सागर
से इतने विराट
बादल उठते
रहते हैं, कहीं
कुछ पता भी
नहीं चलता।
जिसे लेने का
पता न चला उसे
देने का पता
भी नहीं
चलेगा। जो
लेते वक्त
शांत रहा वह
देते वक्त भी
शांत रहेगा।
सागर अपने में
रमा रहता है; जैसा है
वैसा बना रहता
है। सागर में
उतार-चढ़ाव
नहीं हैं, बाढ़
नहीं आती, गङ्ढा
नहीं बनता।
सागर
करीब-करीब
अपने को अपने
स्वभाव में
लीन रखता है।
जिस दिन तुम गङ्ढे हो
जाओगे, तुम्हारी
लीनता भी ऐसी
ही होगी। न तो
तुम पागल हो
जाओगे सुख से
और न पागल हो
जाओगे दुख से।
अभी
दोनों
तुम्हें पागल
करते हैं। और
जब तक सुख-दुख
तुम्हें पागल
कर सकते हैं, तब
तक तुम जानना
कि तुम्हें
अभी उसका
स्वाद नहीं
मिला जिसको
बुद्धत्व
कहते हैं, जिसको
लाओत्से ताओ
की प्रतीति
कहता है। उस
स्वाद के
मिलते ही सब
सुख फीके हैं,
सब दुख झूठे
हैं, आना-जाना
भ्रांति है।
तुम उससे जुड़
गए जिसका न
कोई आना है, न कोई जाना
है। जिसका कोई
आवागमन नहीं,
जो सदा एकरस
है। उसे ही
हमने ब्रह्म
कहा है।
एक बात
और,
फिर हम
सूत्र में
प्रवेश करें।
लाओत्से
की अनूठी से
अनूठी खोज है:
स्त्रैण का
सिद्धांत।
लाओत्से कहता
है कि जीवन-सत्य
की खोज में
तुम स्त्रैण
सिद्धांत का
अनुसरण करो।
तो पहले हम
समझ लें कि
स्त्रैण
सिद्धांत है
क्या।
साधारणतः
तो तुम समझते
हो कि पुरुष
शक्तिशाली
है। लेकिन तुम
बड़ी भ्रांति
में हो। अब तो बायोलाजिस्ट्स, जीव-वैज्ञानिक
भी राजी हैं
कि स्त्री ही
ज्यादा
शक्तिशाली है।
और यह केवल
पुरुष का
अहंकार है, सदियों से
पोसा गया, कि
पुरुष यह
मानता है कि
वह शक्तिशाली
है।
थोड़ा
सोचो!
स्त्रियां
पुरुषों से
ज्यादा जीती
हैं--पांच साल
औसत उम्र
ज्यादा।
पुरुष पचहत्तर
साल जीएगा
तो स्त्री
अस्सी साल जीएगी।
क्यों
स्त्रियां
पुरुष से
ज्यादा जीती
हैं अगर पुरुष
शक्तिशाली है? स्त्रियां
कम बीमार पड़ती
हैं। और
स्त्रियां दुख
को सहने में
बड़ी
क्षमताशाली
हैं। पुरुष छोटे-छोटे
दुख से
उद्विग्न हो
जाता है।
तुम
थोड़ा सोचो कि
पुरुष हो और
अगर तुम्हें
गर्भ नौ महीने
तक खींचना
पड़े! तो मैं
नहीं सोचता कि
एक पुरुष भी नौ
महीने तक
जिंदा रह
सकेगा। एक रात
के लिए पत्नी
बाहर चली गई
हो और बच्चे
को तुम्हारे
पास छोड़ गई हो, तब
तुम्हें पता
चल जाता है कि
बच्चा कितने
उपद्रव मचा
रहा है! कि
तबीयत होने
लगती है कि
गर्दन दबा दो!
अपनी दबा लो
या इसकी दबा
दो!
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक बगीचे
के पास अपने
बच्चे को लेकर
टहल रहा था।
छोटी सी गाड़ी
में बच्चे को
बिठाए हुए था
और बार-बार
कहता जा रहा
था,
नसरुद्दीन,
शांत रहो। नसरुद्दीन,
शांत रहो।
कोई बात नहीं नसरुद्दीन।
एक
बूढ़ी महिला यह
सुन रही थी।
उसने कहा, बड़ा
प्यारा बच्चा
है!
और
बच्चा चीख रहा
है,
चिल्ला रहा
है, रो रहा
है, हाथ-पैर
फेंक रहा है।
तो वह बुढ़िया
पास आई और
उसने बच्चे को
कहा कि बेटा नसरुद्दीन,
शांत हो
जाओ।
नसरुद्दीन ने
कहा,
उसका नाम
नहीं है नसरुद्दीन;
नसरुद्दीन मेरा नाम
है। मैं अपने
को शांत रख
रहा हूं किसी
तरह; नहीं
तो या तो इसकी
गर्दन दबा
दूंगा या अपनी
दबा लूंगा।
स्त्री
नौ महीने तक
पेट में गर्भ
को झेलती है, प्रजनन
की पीड़ा को
झेलती है। फिर
बच्चे को बड़ा
करना छोटा काम
नहीं। पुरुष
तो यह समझते
हैं कि
स्त्रियों के
पास काम ही
क्या है!
क्योंकि वे
दुकान चला रहे
हैं।
स्त्रियां कर
ही क्या रही
हैं! भ्रांति
में हैं।
दुकान चलाना
जरा भी कठिन
नहीं। हजार ग्राहक
आसान हैं; यह
एक बच्चा
उपद्रव
ज्यादा है।
फिर इसे बड़ा
करती हैं। बड़ा
करने में इसका
लगाव, इसका
प्रेम। फिर एक
दिन यह विदा
हो जाता है; यह किसी
दूसरी स्त्री
के प्रेम में
पड़ जाता है।
उस घाव को भी
झेलती हैं।
स्त्रियों
की सहनशक्ति
पुरुषों से कई
गुनी ज्यादा है।
पुरुष की
सहनशक्ति न के
बराबर है।
लेकिन पुरुष
एक ही शक्ति
का हिसाब
लगाता रहा है, वह
है मसल्स
की। क्योंकि
वह बड़ा पत्थर
उठा लेता है, इसलिए वह
सोचता रहा है
कि मैं
शक्तिशाली
हूं। लेकिन
बड़ा पत्थर
उठाना अकेला
आयाम अगर
शक्ति का होता
तो ठीक है; सहनशीलता
भी बड़ी शक्ति
है--जीवन के
दुखों को झेल
जाना।
स्त्रियां
देर तक जवान
रहती हैं, अगर
उन्हें
दस-पंद्रह
बच्चे पैदा न
करना पड़ें। तो
पुरुष जल्दी
बूढ़े हो जाते
हैं; स्त्रियां
देर तक युवा
और ताजी रहती
हैं।
जब
बच्चे पैदा
होते हैं तो प्रकृति
को भी, परमात्मा
को भी पता है, सौ लड़कियां
पैदा करता है,
एक सौ
पंद्रह लड़के
पैदा करता है।
क्योंकि चौदह
साल के
होते-होते
पंद्रह लड़के
मर जाएंगे; तब संख्या
बराबर हो
जाएगी। लड़के
ज्यादा पैदा होते
हैं, लड़कियां कम पैदा
होती हैं।
क्योंकि
विवाह की उम्र
आते-आते पंद्रह
प्रतिशत लड़के
तो समाप्त हो
चुके होंगे।
लड़कियां
पहले बोलना
शुरू करती
हैं।
बुद्धिमत्ता
लड़कियों में
पहले प्रकट
होती है। लड़कियां
ज्यादा सतेज
होती हैं, ज्यादा
शांत होती
हैं।
विश्वविद्यालयों
में भी
प्रतिस्पर्धा
में लड़कियां
आगे होती हैं।
ऐसा
होना भी
चाहिए। क्योंकि
पुरुष
अपरिहार्य
नहीं है।
पुरुष के बिना
काम चल सकता
है;
स्त्री के
बिना काम नहीं
चल सकता।
स्त्री अपरिहार्य
है। इसमें कोई
अड़चन नहीं है।
अब तो आर्टिफीशियल
इनसेमिनेशन
संभव है, पुरुष
को बिलकुल
विदा किया जा
सकता है।
लेकिन स्त्री
को विदा नहीं
किया जा सकता।
इस पर
बड़े प्रयोग
चलते हैं।
पुरुष का
उपयोग प्रकृति
के सृजन में
कितना है?
पुरुष
संभोग के क्षण
में क्षण भर
में तो चुक जाता
है;
उसका काम
पूर्ण हो गया।
जो काम पुरुष
के लिए क्षण
भर में पूरा
हो गया है, वह
स्त्री के लिए
कोई बीस वर्ष
लगेंगे। वह
उसके पूरे
जीवन का ढांचा
हो जाएगा। एक
बच्चा पैदा
होगा; बड़ा
होगा; उसका
विवाह होगा।
पिता
प्राकृतिक
नहीं है, सामाजिक
है; क्योंकि
पशुओं में कोई
पिता नहीं है,
लेकिन माता
है। आदिम
युगों में
मनुष्यों में भी
कोई पिता नहीं
था, मां ही
थी। पिता तो
सामाजिक
व्यवस्था है।
और इसीलिए तो
पुरुष को रोक
रखना एक
स्त्री के पास
बड़ा कठिन काम है।
पुलिस लगी है,
अदालतें
लगी हैं, कानून
लगा है, सब
भांति कि
पुरुष एक
स्त्री के पास
रुका रहे।
लेकिन स्त्री
एक पुरुष के
पास रुकना
चाहती है; कोई
कानून को
लगाने की
जरूरत नहीं
है। क्योंकि
पिता बिलकुल
ही
अप्राकृतिक है,
कृत्रिम है;
उसको
जोर-जबरदस्ती
से रोका गया
है।
नसरुद्दीन का
बेटा अपने बाप
से पूछ रहा था
कि मैं कानून
की किताब पढ़
रहा हूं। आखिर
दो शादी करने
पर इतनी मनाही
क्यों है? यह
जुर्म क्यों
है?
तो नसरुद्दीन
ने कहा, बेटा,
तुझे पता
नहीं; जो
अपनी रक्षा
नहीं कर सकते,
उनकी कानून
को रक्षा करनी
पड़ती है। अगर
कानून रक्षा न
करे तो दो पर
भी नहीं
रुकेगा
पुरुष। फिर
मुसीबत में
पड़ेगा।
पुरुष, पिता,
सामाजिक
संस्कार है।
असली नाता तो
बच्चे का मां
से है। और
पिता का काम
बड़ा थोड़ा सा
है; वह काम
इंजेक्शन भी
कर सकता है।
लेकिन मां का काम
कोई व्यवस्था
नहीं कर सकती।
इस पर
प्रयोग चले
हैं कि क्या
मां के गर्भ
को भी हम
यंत्र में, यांत्रिक
गर्भ में भी
बच्चे को रख
कर बड़ा कर सकते
हैं? बच्चा
बड़ा हो जाता
है--पशुओं के
बच्चों पर प्रयोग
किए गए
हैं--लेकिन वह
पागल ही बड़ा
होता है। विक्षिप्त
हो जाता है
पहले ही से।
क्योंकि मां
का गर्भ सिर्फ
यंत्र नहीं है;
एक बड़े गहन
प्रेम की छाया
भी भीतर है जो
यंत्र नहीं दे
सकता। यंत्र
गर्मी दे देगा,
प्रेम नहीं
दे सकता।
गर्मी तो
बिजली से भी
मिल सकती है।
लेकिन मां से
जो गर्मी
मिलती है, उसमें
जो प्रेम का
तत्व जुड़ा है,
वह बिजली से
नहीं मिल
सकती।
बंदरों
पर एक
वैज्ञानिक
प्रयोग कर रहा
था हार्वर्ड
में। तो उसने
दो
बंदर-माताएं
बनाई थीं। एक
बंदर-माता; बिजली
का ही सब
इंतजाम, उसके
स्तन, दूध
की सब
व्यवस्था, और
कंबल से लपेटी
हुई थी उसे।
और दूसरी माता
सिर्फ तारों
से बनी थी; उसमें
भी सब दूध का
सब इंतजाम, गर्मी का
इंतजाम।
लेकिन बंदर उस
मां से दूध पीना
पसंद करते थे
जिसमें थोड़ा
कंबल लिपटा
हुआ था।
क्योंकि थोड़ा
सा मां के
शरीर का एहसास,
थोड़ा सा मां
की चमड़ी का
स्पर्श, ऐसी
कुछ प्रतीति
उसमें थी।
अलग-अलग
बंदर पाले गए।
जो बंदर मां
के पास पाले
गए वे, जो कंबल
से लिपटी मां
के यंत्र से
पाले गए वे, और जो तारों
से लिपटी मां
से पाले गए--उन
तीनों में
बुनियादी
फर्क थे। पहले
बच्चे बिलकुल
स्वस्थ थे।
दूसरे बच्चे
शरीर से
बिलकुल
स्वस्थ थे, लेकिन मन से
कुछ-कुछ
विक्षिप्त
थे। और तीसरे
बच्चे शरीर से
बिलकुल
स्वस्थ थे, लेकिन मन से
बिलकुल
विक्षिप्त
थे।
मां
कुछ और भी दे
रही है। पिता
तो केवल
जीवाणु दे रहा
है,
जो कि
इंजेक्शन से
भी दिया जा
सकता है; मां
कुछ और भी दे
रही है। शरीर
ही नहीं, उसके
जीवन की ऊर्जा,
उसके भीतर
छिपे हुए
प्राण बच्चे
को सब तरफ से सम्हाल
रहे हैं। यह
संभव नहीं है कि
यंत्र से किया
जा सके। इसलिए
वैज्ञानिक कहते
हैं, पुरुष
को कभी हम
विदा भी कर
सकते हैं, लेकिन
स्त्री को
विदा नहीं
किया जा सकता।
वह ज्यादा
मौलिक है, ज्यादा
आधारभूत है।
लाओत्से
कहता है कि
स्त्रैण तत्व
सृष्टि का मूल
है। पुरुष
सहयोगी है, आधार
नहीं।
और
स्त्रैण तत्व
क्या है? स्त्रैण
तत्व है, पहली
बात समझ लेनी,
गङ्ढे की भांति।
स्त्री क्या
है? स्त्री
एक गर्भ, एक
गङ्ढा
है। एक रिसेप्टिविटी,
एक
ग्राहकता है।
स्त्री में
जगह है, स्पेस
है। तभी तो
उसमें बच्चा
बड़ा हो सकता
है। एक दूसरे
जीवन को भीतर
लेने की
संभावना है।
लाओत्से
कहता है कि
तुम भी
स्त्रैण बनो, ताकि
तुम भीतर ले
सको।
परमात्मा भी
तुम्हारे भीतर
तभी प्रवेश कर
सकेगा जब तुम
गर्भ की भांति
हो जाओगे। जगह
बनाओ, गङ्ढा करो, स्थान
बनाओ। और
परमात्मा को
भी तुम तभी
सम्हाल सकोगे
जब तुम्हारे
भीतर स्त्रैण
प्रेम--समर्पण
होगा। नहीं तो
तुम न सम्हाल
सकोगे। क्योंकि
परमात्मा को
सम्हालना एक
महानतम गर्भ है,
उससे बड़ा
कोई गर्भ
नहीं।
क्योंकि उससे
तुम्हारा ही
पुनर्जन्म
होगा, नया
जन्म होगा।
तुम अपने ही
भीतर को पुनः
नए रूप, नए
आयाम में उदघाटित
करोगे। तुम ही
तो जन्मोगे
अपने भीतर से।
स्त्रैण
का अर्थ है:
भीतर जो खाली
है और जिसमें
ग्राहकता है।
स्त्री लेती
है;
पुरुष देता
है। तुम लेने
वाले बनो, गङ्ढे
की भांति।
क्योंकि
परमात्मा तो
दे ही रहा है; उसकी वर्षा
तो हो ही रही
है।
पुरुष
आक्रामक है।
कोई स्त्री
इतना भी आक्रमण
नहीं करती
पुरुष पर कि
उससे कहे कि
मैं तुझसे
प्रेम करती
हूं। स्त्री
प्रतीक्षा है; पुरुष
की प्रतीक्षा
करेगी कि वह
कहे कि मैं तुझे
प्रेम करता
हूं। वह
स्वीकार
करेगी, अस्वीकार
करेगी; लेकिन
आक्रमण नहीं
करेगी। वह राह
देखेगी।
जो
सत्य की खोज
में चले हैं, उन्हें
आक्रामक नहीं
होना चाहिए।
अन्यथा वे न
पहुंच
सकेंगे।
पुरुष की तरह
परमात्मा तक न
पहुंचा जा
सकेगा--अकड़ से
भरे हुए। विनम्र,
प्रतीक्षा
से, राह जोहते,
जैसे एक
प्रेयसी राह
देख रही हो
बैठे घर के द्वार
पर अपने
प्रेमी के आने
की, सब तरह
से आकुल, फिर
भी आक्रामक
नहीं।
अनाक्रामक
आकुलता भक्ति
है।
व्याकुलता
पूरी है, लेकिन
व्याकुलता
में आक्रमण
नहीं है कि उठ
पड़े, कि
हमला कर दे।
जो भी
स्त्री
आक्रामक होती
है वह आकर्षक
नहीं होती।
अगर कोई
स्त्री
तुम्हारे
पीछे पड़ जाए और
प्रेम का
निवेदन करने
लगे तो तुम
घबड़ा जाओगे।
तुम भागोगे।
क्योंकि वह
स्त्री पुरुष
जैसा व्यवहार
कर रही है, स्त्रैण
नहीं है।
स्त्री का
स्त्रैण होना,
उसका
माधुर्य इसी
में है कि वह
सिर्फ
प्रतीक्षा
करती है। वह
तुम्हें
उकसाती है, लेकिन
आक्रमण नहीं
करती। वह
तुम्हें
बुलाती है, लेकिन
चिल्लाती
नहीं। उसका
बुलाना भी बड़ा
मौन है। वह
तुम्हें सब
तरफ से घेर
लेती है, लेकिन
तुम्हें पता
भी नहीं चलता।
उसकी जंजीरें
बड़ी सूक्ष्म
हैं; वे
दिखाई भी नहीं
पड़तीं।
वह बड़े पतले
धागों से, सूक्ष्म
धागों से
तुम्हें सब
तरफ से बांध
लेती है; लेकिन
उसका बंधन
कहीं दिखाई भी
नहीं पड़ता। पुरुष
के बंधन बड़े
पार्थिव हैं,
दिखाई पड़ने
वाले हैं।
स्त्री के
बंधन बड़े
अदृश्य हैं, बड़े आत्मिक
हैं, अपार्थिव
हैं; दिखाई
नहीं पड़ते।
सत्य
या परमात्मा
की तरफ तुम
स्त्री की
भांति जाना।
कृष्ण
के आस-पास जो
परम धारणाओं
का जाल रचा गया, वह
यही है। कृष्ण
यानी
परमात्मा।
कृष्ण शब्द का
अर्थ होता है,
जो आकृष्ट
करे, जो
खींचे। और
सारा जगत उस
परमात्मा की
प्रेयसी है, गोपी है।
धारणा यही है
कि परमात्मा
को पाना हो तो
परमात्मा
पुरुष और तुम
स्त्री बन
जाना। और तुम
जो ताना-बाना बुनो, वह
प्रेम का और
प्रार्थना का
हो। उसमें
अगाध समर्पण
हो, अगाध
श्रद्धा हो; पर कोई भी
चीज आक्रमण का
रंग न ले पाए।
स्त्री
अपने को नीचे
रखती है। लोग
गलत सोचते हैं
कि पुरुषों ने
स्त्रियों को
दासी बना लिया।
नहीं, स्त्री
दासी बनने की
कला है। मगर
तुम्हें पता नहीं,
उसकी कला
बड़ी
महत्वपूर्ण
है। और
लाओत्से उसी कला
का उदघाटन कर
रहा है। कोई
पुरुष किसी
स्त्री को
दासी नहीं
बनाता।
दुनिया के
किसी भी कोने
में जब भी कोई
स्त्री किसी
पुरुष के
प्रेम में
पड़ती है, तत्क्षण
अपने को दासी
बना लेती है।
क्योंकि दासी
होना ही गहरी
मालकियत है।
वह जीवन का
राज समझती है।
मालिक
बनने का अर्थ
अकड़ है। और जो
अकड़ा हुआ है वह
मालिक न हो
पाएगा। वह टूटेगा।
स्त्री अपने
को नीचे रखती
है;
चरणों में
रखती है। और
तुमने देखा है
कि जब भी कोई
स्त्री अपने
को तुम्हारे
चरणों में रख
देती है तब
अचानक
तुम्हारे सिर
पर ताज की तरह
बैठ जाती है।
रखती चरणों
में है, पहुंच
जाती है बहुत
गहरे, बहुत
ऊपर। तुम
चौबीस घंटे
उसी का चिंतन
करने लगते हो।
छोड़ देती है
अपने को तुम्हारे
चरणों में, तुम्हारी
छाया बन जाती
है। और
तुम्हें पता
भी नहीं चलता
कि छाया
तुम्हें
चलाने लगती है;
छाया के
इशारे से तुम
चलने लगते हो।
स्त्री कभी यह
भी नहीं कहती
सीधा कि यह
करो, लेकिन
वह जो चाहती
है करवा लेती
है। वह कभी
नहीं कहती कि
यह ऐसा ही हो, लेकिन वह
जैसा चाहती है
वैसा करवा
लेती है।
लाओत्से
यह कह रहा है
कि उसकी शक्ति
बड़ी है। और
शक्ति उसकी
क्या है? क्योंकि
वह दासी है।
शक्ति उसकी यह
है कि वह छाया
हो गई है। बड़े
से बड़े
शक्तिशाली
पुरुष किसी के
प्रेम में पड़
जाते हैं, और
एकदम अशक्त हो
जाते हैं।
चाहे
नेपोलियन हो,
तो अपनी
प्रेयसी
जोसेफाइन के
सामने वह
बिलकुल
साधारण बच्चा
है। लाखों
सैनिकों को
आज्ञा देता
है। आल्प्स
पर्वत को कह
देता है कि
मेरी आज्ञा है,
पार होना ही
होगा; इससे
हम पार होकर
ही रहेंगे।
इसके पहले कभी
पार नहीं किया
था किसी सेना
ने। आल्प्स
को पार कर
लेता है।
युद्ध के
मैदान पर उसका
कोई मुकाबला
नहीं है।
लेकिन
जोसेफाइन के
सामने वह छोटा
बच्चा हो जाता
है। भयंकर
युद्ध चलता हो
तो भी रोज एक
पत्र वह रात, आधी रात को
भी मौका मिले
उसे, रोज
एक पत्र
जोसेफाइन को
जरूर लिखता
है। और
जोसेफाइन
छाया की तरह
है। और कभी
उसने उसे चलाना
नहीं चाहा; कोई आतुरता
नहीं है कि
नेपोलियन को
वह चलाए। लेकिन
नेपोलियन
चलता है। क्या
हो गया है?
लाओत्से
कहता है, स्त्रैण
शक्ति की बड़ी
खूबी है। वह
खूबी यही है
जो कि
अस्तित्व की
खूबी है। तो
अगर तुम्हें अस्तित्व
को समझना है
तो स्त्रैण
चित्त की
धारणा को ठीक-ठीक
समझ लेना।
अस्तित्व भी
ऐसे ही चल रहा
है। स्त्री अब
भी अस्तित्व
के पास है।
पुरुष अपने
विचार में
बहुत दूर खो
गया है।
नीचे
हो जाना; तब
तुम ऊंचे हो
जाओगे। छाया
बन जाना; तब
तुम्हीं
मार्गदर्शक
हो जाओगे।
अपने को मिटा
देना, रेखा
भी मत बचाना; तब तुम्हारी
विजय की कोई
सीमा नहीं है।
अभी
तुम बिलकुल
हारे हुए हो।
अभी तुम
बिलकुल खंडहर
हो,
टूटे हुए
हो। अभी
तुम्हारी
आंखों में
सिवाय पराजय
के, हारेपन के, सर्वहारा
भाव के, कुछ
भी नहीं है।
तुमने अपनी
अकड़ से जीकर
बहुत देख
लिया। अगर
तुम्हारे पास
कान हों और
मेरी बात
तुम्हें सुनाई
पड़े तो तुम अब
बिना अकड़ के
जीना शुरू कर
दो। पुरुष की
भांति दंभ से
भरे हुए बहुत
जी लिए जन्मों-जन्मों।
यहां
एक बड़ी मजेदार
बात है।
महावीर के
अनुयायी
मानते हैं कि
जब तक कोई
व्यक्ति
पुरुष की पर्याय
में न आ जाए तब
तक मुक्त नहीं
हो सकता। अगर
ठीक उसके
सामने तुम्हें
लाओत्से को
समझना हो तो
लाओत्से कहता
है,
जब तक कोई
स्त्री
पर्याय में न
आ जाए तब तक
मुक्त नहीं हो
सकता।
महावीर
और लाओत्से
ठीक विरोधी
छोर हैं। और
मैं तुमसे
कहता हूं कि
सौ में
निन्यानबे
लोग लाओत्से
के मार्ग से पहुंच
सकेंगे; सौ
में से एक ही
महावीर के
मार्ग से
पहुंच सकता
है। क्योंकि
महावीर का
मार्ग संघर्ष
का है, समर्पण
का नहीं। झगड़े
का है; वह
प्रकृति से झगड़ा है, संघर्ष है।
उसमें कभी कोई
एकाध ही सफल
हो पाता है।
लेकिन
लाओत्से के
मार्ग से सौ
में से निन्यानबे
लोग पहुंच
सकते हैं।
क्योंकि वह
संघर्ष का
नहीं है, वह
समर्पण का है।
वह परमात्मा
को जीतने की
कोशिश नहीं है;
वह
परमात्मा के
सामने हार
जाने की कोशिश
है। अब जो
हारने को राजी
है, उसको
तुम कैसे हराओगे?
जो जीतना ही
नहीं चाहा, उसकी जीत को
तुम कैसे
मिटाओगे?
यही
पुरुष और स्त्री
का भाव है।
पुरुष जब भी
स्त्री के
संबंध में
सोचता है तो
जीत के भाव से
सोचता है कि
कैसे इस
स्त्री को
जीतूं! स्त्री
जब भी किसी
पुरुष के
संबंध में
अपने गहन भाव
में सोचती है
तो वह यही
सोचती है, कैसे
इस पुरुष से
हारूं! कब वह
महत क्षण आएगा
जब मैं इस
पुरुष से हार
जाऊंगी!
लाओत्से
कहता है, हारने
की कला ही
जीतने की कला
है--स्त्रैण
भाव में। और
मैं भी तुमसे
कहता हूं कि
सौ में निन्यानबे
मौके
तुम्हारे लिए
भी लाओत्से के
मार्ग से ही
खुलेंगे। नदी
की धार के
विपरीत तैर कर
कोई एकाध आदमी
शायद पहुंच
जाए; वह भी
संदिग्ध
मालूम पड़ता
है। क्योंकि
नदी से लड़ोगे
तो टूटोगे।
नदी की धार
में बह कर सभी
पहुंच सकते
हैं--कमजोर भी,
शक्तिशाली
भी। किसी को
बाधा नहीं है;
क्योंकि
बहना ही है
धार के साथ।
रामकृष्ण
कहते थे, एक
ढंग तो है
पतवार चलाने
का; वह नदी
से लड़ना है।
उससे थकान
आएगी ही। और
एक रास्ता है
प्रतीक्षा
करने का कि जब
हवा दूसरे
किनारे की तरफ
बह रही हो तब
पाल तान देना।
पतवार की कोई जरूरत
नहीं, हवा
का ही उपयोग
कर लेना। हवा
दूसरे किनारे
की तरफ जा रही
है, पाल
खोल देना। हवा
के साथ ही नाव
चली जाती है। प्रतीक्षा
करना ठीक समय
की और समर्पण
कर देना। फिर तुम्हें
पतवार नहीं
चलानी पड़ती।
और
पतवार चला कर
शायद ही कभी
कोई थोड़े से
लोग पहुंचे
हैं। उनको
अंगुलियों पर
गिना जा सकता
है। इसलिए तो
जैन धर्म बहुत
प्रभावी नहीं
हुआ;
जगत में
उसकी दूर-दूर
तक खबर नहीं
पहुंच सकी; करोड़ों-करोड़ों
लोग उस मार्ग
पर चल नहीं
सके। जो थोड़े
से इने-गिने
अनुयायी हैं,
वे भी चलते
नहीं, नाम-मात्र
को जैन हैं।
जैन शब्द आता
है जिन शब्द
से। जिन का
अर्थ है:
जीतने वाला; जिसने जीता,
जिसने जीत
कर दिखला
दिया।
लाओत्से
कहता है कि
हार जाओ, सर्वहारा
हो जाओ, स्त्रैण
हो जाओ। तो
तुम पहुंच
जाओगे।
स्त्रैण होने का
अर्थ है: नदी
में पतवार मत
उठाओ, पाल
तान दो।
अब हम
लाओत्से के
सूत्र को
समझें।
"बड़े
देश को नदीमुख
नीची भूमि की
तरह होना
चाहिए।'
जहां
नदी गिरती है
सागर में, वैसा
होना चाहिए।
"क्योंकि
वह संसार का
संगम है, और
संसार का
स्त्रैण गुण
है। स्त्री
पुरुष को मौन
से जीत लेती
है, और मौन
से वह नीचा
स्थान
प्राप्त करती
है।'
नीचे
रखती है
स्त्री अपने
को,
पीछे रखती
है स्त्री
अपने को, और
सदा आगे रहती
है। और सदा
ऊपर रहती है।
कहानी
है,
सुनी होगी
तुमने, कि
अकबर ने बीरबल
को कहा कि
मेरे इस दरबार
में क्या ऐसे
लोग भी हैं जो
अपनी स्त्री
से डरते न हों?
बीरबल ने कहा, बड़ा
जटिल है पता
लगाना।
क्योंकि उनके अंतःकक्षों
में कौन
प्रवेश करे? लेकिन कोई
तरकीब
निकालेंगे।
कुछ लोग जरूर
होंगे।
तरकीब
निकाली गई।
सारे दरबारी
बुला लिए गए।
और अकबर ने
कहा कि ईमान
से,
धोखा मत
देना, यह
तुम्हारी
सच्चाई की कसौटी
है कि जो भी
लोग
स्त्रियों से
डरते हों, अपनी
स्त्रियों से,
वे एक कतार
में खड़े हो
जाएं। सारे
लोग खड़े हो गए,
सिर्फ एक
आदमी को छोड़
कर। अकबर भी
हैरान हुआ, इतने लोग
स्त्रियों से
डरते हैं! फिर
इससे भी हैरान
हुआ कि कम से
कम एक आदमी तो
है, और इस
आदमी को वह
हमेशा दब्बू
समझता था। यह
आदमी कोई बड़ी
अकड़ का आदमी न
था। फिर भी
उसने कहा कि
धन्य है मेरा
भाग्य; कम
से कम मेरे
दरबार में एक
आदमी है। तुम
अपनी स्त्री
से नहीं डरते?
उसने
कहा,
आप मुझे गलत
मत समझें। घर
से जब निकलने
लगा, मेरी
पत्नी ने कहा,
जहां भी
भीड़-भाड़ हो
वहां खड़े मत
होना। अब उधर
सब खड़े हैं, तो मैं उधर
भीड़-भाड़ में
खड़ा नहीं हो
सकता।
ऐसा
पुरुष खोजना
कठिन है जो
अपनी स्त्री
की नहीं मान
कर चलता।
इसमें कुछ
बुरा भी नहीं
है। यह बिलकुल
स्वाभाविक
है। लाओत्से
यही समझा रहा
है। लाओत्से
यही कह रहा है
कि यह
स्वाभाविक है।
अगर प्रेम है
पुरुष का
स्त्री से तो
वह मान कर
चलता ही है।
जैसे
तुम्हारे
भीतर
मस्तिष्क है
और हृदय है; मस्तिष्क
पुरुष है और
हृदय स्त्री
है। अगर तुम
प्रेमपूर्ण
हो तो तुम
हृदय की मान
कर चलोगे, मस्तिष्क
की मान कर
नहीं। वैसे ही
दो व्यक्ति जब
प्रेम में पड़
जाते हैं तो
स्त्री हृदय
है और पुरुष
मस्तिष्क है।
तब भी हृदय की
ही मान कर
चलोगे जब तुम
प्रेम में पड़
जाते हो।
हां, प्रेम
न हो तब बात
अलग। प्रेम हो
तो स्त्री हमेशा
जीतती है। नदी
ही न हो तो बात
अलग। तो गिरेगा
क्या? लेकिन
अगर नदी हो
प्रेम की तो
स्त्री हमेशा
जीतती है।
क्योंकि वह
नीचे रखती है
अपने को; तुम्हारी
नदी को उसमें
गिरना ही
पड़ेगा। इसमें
कोई उपाय नहीं
है।
और
स्त्री मौन से
जीतती है, वह
बोलती नहीं।
वह कहती भी
नहीं, यद्यपि
उसका पूरा
व्यक्तित्व
कह देता है।
अगर स्त्री को
कहीं नहीं
जाना है और
चाहते हो तुम
कि जाए तो
उसके पूरे व्यक्तित्व
से भनक पड़ने
लगती है कि वह
जाना नहीं चाहती।
कहेगी नहीं।
जो स्त्री कह
दे वह ठीक-ठीक
स्त्री नहीं
है। क्योंकि
जो बिना कहे
हो जाए उसे कह
कर क्या
करवाना? जो
मौन से हो
जाता हो उसे
बोल कर
कहलवाना बिलकुल
व्यर्थ है। और
बात का रस ही
खो जाता है।
स्त्री पूरे
व्यक्तित्व
से कहती है।
स्त्री
ज्यादा टोटल
है, समग्र
है।
अक्सर
ऐसा होता
है--मनोवैज्ञानिक
इस खोज पर बड़े
हैरान हुए
हैं--अक्सर
ऐसा होता है
कि पति है, पत्नी
है, छोटा
बच्चा है। पति
चाहता है कि
क्लब जाना, या कहीं
मंदिर जाना, सिनेमा जाना;
पत्नी नहीं
जाना चाहती।
वह कहेगी नहीं;
अगर प्रेम
है तो वह
बिलकुल नहीं
कहेगी। क्योंकि
प्रेम का मतलब
ही यह है कि वह
छाया है; पति
जहां जाए वह
जाए। वह नहीं
कहेगी। लेकिन
वह जाना नहीं
चाहती। उसके
सारे
व्यक्तित्व
से तरंगें
उठती हैं न
जाने की।
बच्चा फौरन
इनकार करने
लगेगा।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
बच्चा माध्यम
हो जाता है
तत्क्षण। वह
खांसने लगेगा
कि मेरी तबीयत
खराब है, यह
है, वह है।
और वह बच्चा
बाधा खड़ी
करेगा। इस पर
बहुत से
अध्ययन किए गए
हैं कि यह
मामला क्या है?
यह बच्चा
कैसे पहचान
लेता है?
बच्चा
अभी ज्यादा
सरल है। अभी
बच्चा हृदय ही
हृदय है। अभी
बच्चा स्त्री
के ज्यादा
करीब है, पुरुष
के उतने करीब
नहीं है।
इसलिए मां के
भीतर जो भी
घटित होता है
उसकी तरंगें
बच्चे को पहले
लग जाती हैं।
पति को देर
लगेगी तरंगें
पहुंचने में;
वह काफी
फासले पर है।
और बच्चा फौरन
घोषणा कर देगा
कि उसकी तबीयत
खराब है, या
उसे बुखार
मालूम हो रहा
है, या वह
नहीं जाना
चाहता। और मां
ने एक शब्द
नहीं कहा है
बच्चे को।
लेकिन उसकी
भाव-भंगिमा, उसके होने
का ढंग--और
बच्चा पकड़
लेता है।
अगर
पुरुष बहुत
प्रेम करता है
तो वह भी पकड़
लेता है।
क्योंकि जो
पुरुष प्रेम
करता है अपनी
पत्नी को वह
अपनी पत्नी के
पास बच्चे
जैसा ही हो
जाता है।
पत्नी का स्वभाव
बहुत गहरे में
मां का स्वभाव
है। स्त्री का
स्वभाव मां का
स्वभाव है, और
पुरुष का
स्वभाव बहुत
गहरे में बेटे
का स्वभाव है।
इसलिए
हिंदू ऋषिओं
ने तो
आशीर्वाद
दिया है कि
वही विवाह सफल
है जिसमें अंत
में पति बेटे
की तरह हो
जाए। हिंदू
ऋषि आशीर्वाद
देते थे नव वर-वधू
को तो वे कहते
थे कि दस
तुम्हारे
बेटे हों और
ग्यारहवां
पति तुम्हारा
बेटा हो जाए।
अंतिम
सफलता प्रेम
की वहां है
जहां पत्नी
मां हो गई और
पति बेटा हो
गया। उसका
अर्थ इतना ही
हुआ कि अब पति
भी इतने करीब
आ गया, जैसे कि
स्त्री के
गर्भ में समा
गया। इतनी
निकटता आ गई
कि अब स्त्री
का मौन भी उसे
समझ में आता है।
स्त्री अपने
मुंह से "नहीं'
कहे, वह
शोभा नहीं
देता, लेकिन
उसकी तरंगें
कह दें और पति
समझ ले, वही
शोभा देता है।
छाया
की तरह स्त्री
रहेगी और चलाएगी।
मौन रहेगी और
उसका मौन भी
बड़ा वाचाल है।
वह मौन से कह
देगी। और जहां
प्रेम है वहां
यह अंतरंग
वार्ता समझ
में आ जाती
है।
प्रेमी
बहुत ज्यादा
बोलते नहीं।
पति-पत्नी बोलते
हैं,
क्योंकि
वहां प्रेम
ज्यादा होता
नहीं। प्रेमी
ज्यादातर चुप
बैठते हैं।
क्योंकि मौन
इतना सुखद है
कि बोलना क्या!
पति-पत्नी
बोलते हैं कि
न बोलें तो न
मालूम कोई झगड़ा-कलह
न खड़ा हो जाए।
तो कुछ न कुछ
बातचीत चलाते
हैं। पति
सोच-सोच कर
कुछ बात
निकालता है कि
ऐसा हो गया
दफ्तर में, वैसा हो
गया। पत्नी
कुछ बात चलाती
है। बातचीत से
भरते हैं
दोनों के बीच
की खाली जगह
को। क्योंकि वहां
खाली है; और
बातचीत न रही
तो खालीपन
एकदम दिखाई
पड़ेगा। बातचीत
न रही तो
फासला साफ हो
जाएगा।
बातचीत ही
जोड़े हुए है।
लेकिन
प्रेमी
चुपचाप बैठे
रहते हैं; एक-दूसरे
से सटे बैठे
हैं नदी के तट
पर, न कुछ
बोलते हैं।
बोलने की कोई
जरूरत नहीं।
जो बिन बोले
हो जाए उसे बोल
कर क्या कहना?
जो ऐसे ही
हो जाए मौन
में संवाद, उसके लिए
शब्द का क्या
उपयोग करना?
और यही
घटना
धीरे-धीरे
गुरु और शिष्य
के बीच घटनी
शुरू होती है।
बोलना तभी तक
पड़ता है जब तक बिन
बोले तुम न
समझ सको। जब
तुम बिन बोले
समझने लगोगे
तब बोलने की
कोई जरूरत न
रह जाएगी। तब
तुम आओगे
चुपचाप मेरे
पास,
बैठोगे, समझ
लोगे, और
चले जाओगे।
जैसे-जैसे
करीब हम होने
लगते हैं
वैसे-वैसे
बोलना न बोलने
जैसा होने
लगता है।
अभी भी
जो मेरे करीब
आ गए हैं, वह
मैं जो बोलता
हूं उससे उनका
बहुत प्रयोजन
नहीं है। मेरे
दो शब्दों के
बीच में जो
खाली जगह है, उससे ही
उनका ज्यादा
प्रयोजन है।
अब वे लकीरों
के बीच पढ़ने
लगे हैं और
शब्दों के बीच
सुनने लगे
हैं। अब शब्द
तो केवल बहाना
है।
लेकिन
जो नए होंगे
उनके लिए शब्द
ही सेतु होंगे।
दूर को
जोड़ना हो, शब्द
चाहिए। पास को
जोड़ना हो, मौन
काफी है।
लाओत्से
कहता है, बड़े
देश को भी
स्त्री जैसा
होना चाहिए, और छोटे
देशों के नीचे
रख लेना
चाहिए। यह बड़ी
महत्व की बात
है। काश, कभी
यह हो सके तो
दुनिया में
युद्ध बंद हो
जाएं।
लाओत्से की
बात सुनी जाए
तो ही दुनिया
से युद्ध
समाप्त हो
सकते हैं, अन्यथा
नहीं।
क्योंकि
लाओत्से यह कह
रहा है कि बड़ा
देश अपने को
नीचे रख ले।
तुम इतने बड़े
हो कि ऊपर
रखने की बात
ही बेहूदी
मालूम पड़ती है।
जो बड़ा है वह
विनम्र हो
जाता है।
रहीम
ने कहा है, जब
वृक्ष फलों से
लद जाता है तो
डालियां झुक जाती
हैं। जो जितना
भर जाता है, जितना बड़ा
हो जाता है, उतना झुक
जाता है। जमीन
छूने लगती हैं
उसकी
डालियां। ये
तो बिना फल के
वृक्ष हैं जो
अकड़े खड़े रहते
हैं।
छोटा
आदमी अकड़ा
रहता है, क्योंकि
उसे डर है कि
अगर झुका तो
लोग समझ लेंगे
छोटा है। बड़े
को क्या डर है?
बड़ा झुक
सकता है।
क्योंकि
कितना ही झुके,
बड़प्पन तो
खोता नहीं, बल्कि झुकने
से बढ़ता है।
जिसके भीतर
हीनता की
ग्रंथि छिपी
है, वह
डरता है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। मैं उनको
देखता हूं। उनमें
जिनमें भी
थोड़ा सा भी
बड़प्पन है, वे
सरलता से झुक
जाते हैं।
उनमें जो बहुत
क्षुद्र हैं
और बहुत हीनता
की ग्रंथि से
भरे हैं, वे
अकड़े खड़े रह
जाते हैं।
उनका झुकना
मुश्किल है।
क्योंकि उनको
डर है, अगर
वे झुके, उन्हें
पता है कि वे
हीन हैं, दूसरों
को भी पता चल
जाएगा कि हीन
हैं।
जो झुक
सकता है सरलता
से,
जिसे झुकने
में जरा भी
अड़चन नहीं आती,
जिसे झुकना
सहज बात है, उसका अर्थ
है कि उसके
भीतर कोई
हीनता का बोध
नहीं, कोई इनफीरियारिटी
कांप्लेक्स
नहीं है।
छोटे
डरते हैं
झुकने से; बड़े
अवसर खोजते
हैं झुकने का।
क्षुद्र
भयभीत रहता है
कि कहीं कोई
ऐसा मौका न आ
जाए कि झुकना पड़े।
जो क्षुद्र
नहीं है उसका
भय क्या? इसलिए
जितनी
श्रेष्ठता
होती है उतनी
विनम्र होती
है। और जितनी
क्षुद्रता
होती है उतनी
ही अहंकारपूर्ण
होती है।
लाओत्से
कहता है, बड़े
हो--चाहे
व्यक्ति, चाहे
देश--तो झुक
रहो। नदीमुख
नीची भूमि की
तरह हो जाओ।
क्योंकि तुम
संसार के संगम
हो। झुकोगे
तो ही संगम बन
पाओगे। संगम
की भूमि तो
नीची होनी
चाहिए, तभी
तो नदियां
वहां गिरेंगी।
अकड़े, ऊपर
उठे, तो
संगम न बन
पाओगे। और
संगम संसार का
स्त्रैण गुण
है। वहीं तो
मिलन होता है।
हम इस
देश में संगम
को तीर्थ
मानते रहे
हैं। क्यों
मानते रहे हैं
तीर्थ? तीर्थ
बड़ा विनम्र
है। वहां बहुत
सी नदियां
आकर गिरी हैं।
तीर्थ गङ्ढा
है। वह
स्त्रैण गुण
है। तुम भी
तीर्थ में
जाकर झुक जाना;
स्त्रैण
गुण से भर
जाना; खाली
हो जाना। तो
भरे हुए
लौटोगे।
लेकिन
होता उलटा है।
लोग तीर्थ
जाते हैं, और
अकड़ कर लौटते
हैं कि हम
तीर्थयात्री
हैं, हम हज
होकर आए, हाजी
हैं। अब उनकी
अकड़ ही अलग
है। अब उनके
पैर जमीन पर
नहीं पड़ते।
तीर्थ
यानी संगम। संगम
यानी झुका हुआ, जहां
नदियां
गिर रही हैं।
वहां जाकर तुम
भी देख लेना।
इसलिए
तीर्थयात्रा
उपयोगी है कि
वहां देखना, जो झुका हुआ
स्थल है, वहां
तीन नदियां
गिर रही हैं।
ऐसे ही तुम
झुक जाना, तो
तुम भी बहुत
सी नदियों के
गिरने के
स्वाभाविक
स्थल बन
जाओगे। कुछ
करना न पड़ेगा।
संगम में कुछ
किया थोड़े ही
है। नदियों को
न बुलावा दिया
है, न खींच
कर नदियों को
लाया गया है।
ये नदियां
कोई नहरें तो
नहीं हैं। ये
अपने से आई
हैं। कोई इनको
ले नहीं आया
है। ये क्यों
आई हैं? ये
किसकी तलाश
करती आई हैं? ये एक गङ्ढे
को खोज रही
थीं जहां समा जाएं;
कोई गर्भ
खोज रही थीं
जहां लीन हो
जाएं; कोई
पात्र की तलाश
थी जिसको भर
दें।
"स्त्री
पुरुष को मौन
से जीत लेती
है, और मौन
से वह नीचा
स्थान
प्राप्त करती
है।'
कहती
है दासी अपने
को,
हो जाती है
मालकिन। कहती
है दासी, बन
जाती है रानी।
अगर परमात्मा
के हृदय में
भी तुम्हें
ऊंचा स्थान
पाना हो तो
तुम आखिरी से
भी आखिरी हो
रहना।
"इसलिए
यदि एक बड़ा
देश अपने को
छोटे देश के
नीचे रखता है,
तो वह छोटे
देश को
आत्मसात कर
लेता है।'
कर ही
लेगा। यही तो
पूरा का पूरा
उपाय है गुरु को
आत्मसात कर
लेने का कि
तुम गुरु के
नीचे अपने को
रख देना। तुम गङ्ढा बन
कर बैठ जाना
वहां; गुरु की
नदी तुममें
गिर जाएगी, तुम भर
जाओगे। जिसे
भी आत्मसात
करना हो, उसके
नीचे गङ्ढे
बन कर बैठ
जाना, उसके
चरण पकड़ लेना।
लाओत्से
कहता है, अगर
बड़ा देश छोटे
देश के नीचे
अपने को रख दे,
तत्क्षण
छोटे देश को
पी जाएगा। और
यह पीना बड़ा
प्रेम का
होगा। यह कोई
युद्ध से दबाया
हुआ नहीं होगा,
यह कोई
तलवार के बल
पर नहीं हुआ
होगा। यह संगम
होगा। यह
स्त्रैण गुण
से होगा।
इसलिए
तो भारत ने
कभी किसी पर
हमला नहीं
किया; कभी
चाहा नहीं
हमला करना।
कारण था। हमला
करने की बात
ही बेहूदी है।
यह देश इतना
बड़ा है। और
इसने बहुतों
को आत्मसात कर
लिया। जो भी
विदेशी आया, जिसने भी इस
पर हमला किया,
जो भी इसका
मालिक बन कर
बैठा, उसको
यह पी गया, उसको
आत्मसात कर
लिया। इसका
आत्मसात करना
बड़ा सूक्ष्म
है! जो कुछ
लाओत्से कह
रहा है वह भारत
का पूरा
इतिहास है।
इसने इंच भर भी
अपने से बाहर
जाकर फैलाव
नहीं करना
चाहा। छोटी-छोटी
कौमें
आईं; बड़ी
छोटी कौमें
थीं। इस मुल्क
के सामने उनका
कोई इतिहास न
था, कोई
गौरव न था।
हूण आए, यवन
आए, तुर्क
आए, मुगल
आए; उनका
कोई इतिहास न
था। भटकते
कबीले थे, खानाबदोश
थे; कोई
संस्कृति न
थी। इस मुल्क
में उन्होंने
शासन किया। वे
इस भ्रांति
में रहे कि वे
शासन कर रहे
हैं। वे अब
कहां हैं? उन
सबको भारत पी
गया। इसने
उनके नीचे रख
लिया। यह
चुपचाप उनको
आत्मसात कर
गया।
और अब
पश्चिम में
पता चलना शुरू
हो रहा है। और भविष्य
बताएगा इस
घटना को।
क्योंकि ये तो
बहुत सूक्ष्म
रास्ते हैं।
अंग्रेजों ने
इतने दिन तक
इस मुल्क में
हुकूमत की। वह
हुकूमत तो
क्षणभंगुर थी; आई-गई
हो गई। लेकिन
उनके माध्यम
से भारत का हृदय
पश्चिम में
प्रविष्ट हो
गया। सारी
दुनिया भारत
की तरफ दौड़
रही है। यह एक
दूसरी ही
विजय-यात्रा
है, जिसको
मिटाने का कोई
उपाय नहीं है।
पश्चिम
भारत पर
हुकूमत करता
रहा दोत्तीन
सौ वर्ष। भारत
ने उसकी बहुत
फिक्र न की।
शासक ही फिर
भारत के
उपनिषद, वेद, गीता के
अनुवादक बन
गए। शासक ही
फिर भारत के साधुओं-संन्यासियों
के सत्संग में
पहुंच गए। पश्चिम
की हुकूमत के
द्वारा ही
भारत ने पश्चिम
पर अपनी
हुकूमत का जाल
फैला दिया।
लंबा
समय लगेगा, तब
जाहिर होगा कि
कौन जीता, कौन
हारा। भारत को
हराना
मुश्किल है, एकदम असंभव
है। वह नदी को
उलटी धार
बहाना है। आज
पश्चिम के
कोने-कोने में
भारत का
संन्यासी है।
पश्चिम के
कोने-कोने में
भारत के मंदिर
उठ रहे हैं।
पश्चिम के
कोने-कोने में
ध्यान करने
वाले लोग हैं,
प्रार्थना
करने वाले लोग
हैं।
पर यह
बड़ा धीमा है, बड़ा
सूक्ष्म
है--स्त्रैण
है। इसलिए तुम
इसकी अखबारों
में खबर न पढ़
पाओगे। यह
इतने चुपचाप
हो रहा है, इतने
मौन हो रहा
है।
मैं
यहां बैठा
हूं। मैं तो
उन गुरुओं को
भी थोड़ा आक्रामक
मानता हूं जो
पश्चिम जाते
हैं। क्योंकि
उतना भी क्या
जाना? उसमें
भी थोड़ा
पुरुष-गुण हो
गया। मैं
चुपचाप यहां
बैठा रहता
हूं। जिसको
आना है वह आ ही
जाएगा। अगर गङ्ढा
पूरा है तो
कितनी देर तक
नदी यहां-वहां
भटकेगी? उसे आना ही
पड़ेगा।
एक गङ्ढा
होकर बैठ जाओ।
तो दूर-दूर
देशों से, देश-देशांतर
से नदियां
बहती चली आती
हैं।
लाओत्से
कहता है कि
बड़ा देश अपने
को छोटे देश के
नीचे रख ले तो
वह छोटे को
आत्मसात कर
लेता है। और
यदि छोटा देश
भी होशियार और
कुशल हो और बड़े
देश के नीचे
अपने को रख ले
तो वह बड़े देश
को आत्मसात कर
लेता है।
छोटे-बड़े
का सवाल नहीं
है;
जो नीचे
रखता है वही
अंततः बड़ा हो
जाता है।
"इसलिए
कुछ दूसरों को
आत्मसात करने
के लिए अपने
को नीचे रखते
हैं; कुछ
स्वभावतः ही
नीचे होते हैं
और दूसरों को
आत्मसात करते
हैं।'
पर
सूत्र वही है, नियम
वही है। चाहे
तुम
होशपूर्वक
करो, चाहे
तुम बिन जाने
करो; लेकिन
जो नीचे है, आखिर में
वही जीत जाता
है। बीच में
कितना ही शोरगुल
मचे, और
नदी कितने ही
उफान ले और
बाढ़ आए, और
नदी कितने ही
मनसूबे बांधे,
लेकिन वे
मनसूबे बीच के
हैं। आखिर में
गङ्ढा
नदी को
आत्मसात कर
लेता है।
"फिर
बड़ा देश भी
यही चाहता है
कि दूसरों को
शरण दे, और
छोटा देश भी
यही चाहता है
कि प्रवेश पा
सके और शरण
पाए। इस
प्रकार यह
विचार कर कि
वे दोनों वह
पा सकें जो वे
चाहते हैं, बड़े देश को
अपने आप को
नीचे रख लेना
चाहिए।'
क्योंकि
छोटे देश को
नीचे रखने में
वही अड़चन होगी
जो छोटे आदमी
को नीचे रखने
में होती है।
उसका अहंकार, हीनता
का बोध कि मैं
छोटा हूं, अड़चन
देगा। बड़े को
तो कोई हीनता
नहीं है; वह
नीचे रख सकता
है।
यह जो
सूत्र है, राष्ट्र,
समाज, व्यक्ति,
सबके लिए
लागू है।
क्योंकि नियम
एक है। जीतना हो,
हारने को
मार्ग बनाओ।
पाना हो, खोने
की विधि सीखो।
अमृत हो जाना
हो, मर जाओ,
मिट जाओ
अपने हाथ से।
अगर सब पाना
हो, सब छोड़
दो। और तुम
अपराजेय हो
जाओगे। मैं
इसे ही जिनत्व
कहूंगा। और जो
बिना लड़े
मिलता हो उसको
लड़ कर लेने
वाला नासमझ
है।
कबीर
ने कहा है कि
जो काम सुई से
हो जाता हो, तलवार
क्यों उठाते
हो? और सच
तो यह है कि यह
काम बिना सुई
उठाए हो जाता
है। फिर तलवार
क्यों उठाते
हो?
इसे
अपने जीवन का
ढंग बनाओ। यह
तुम्हारे
रोएं-रोएं में, श्वास-श्वास
में, धड़कन-धड़कन
में समा जाए।
जल्दी ही तुम
एक महासुख
के द्वार पर
अपने को खड़ा
हुआ पाओगे।
जिससे तुम अब
तक वंचित रहे
हो, लगेगा
आ गया क्षण
मिलने का।
जिसको अब तक
तुमने अपनी नासमझी
से गंवाया है,
सोचते थे
कमा रहे हो और
गंवाते थे, उसे तुम
पहली दफा कमा
लोगे।
तुम ही
हो कारण अपनी
असफलता के, क्योंकि
तुम सफल होने
की कोशिश कर
रहे हो। तुम
ही आधार बन
जाओगे परम
सफलता के। एक
बार असफल होकर
देखो। एक बार हारो। सीख
लो स्त्री का
गुण।
स्त्रैण
गुण इस जगत
में सबसे
प्रबल शक्ति
है। उससे बड़ी
कोई शक्ति
नहीं।
आज
इतना ही।
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