एक
दिन कुछ उपासक
भगवान के
चरणों में
धर्म—श्रवण के
लिए आए।
उन्होंने बड़ी
प्रार्थना की
भगवान से कि
आप कुछ कहें
हम दूर से आए
हैं बुद्ध चुप
ही रहे।
उन्होंने फिर
से प्रार्थना
की तो फिर बुद्ध
बोले। जब
उन्होंने तीन
बार
प्रार्थना की
तो बुद्ध बोले
उनकी
प्रार्थना पर
अंतत: भगवान
ने उन्हें
उपदेश दिया
लेकिन वे सुने
नहीं। दूर से
तो आए थे
लेकिन दूर से
आने का कोई
सुनने का
संबंध। शायद
दूर से आए थे
तो थके— मांदे
भी थे। शायद
सुनने की क्षमता
ही नहीं थी।
उनमें से कोई
बैठे—बैठे
सोने लगा और
कोई
जम्हाइयां
लेने लगा। कोई
इधर—उधर देखने
लगा। शेष जो
सुनते से लगते
थे वे भी
सुनते से भर
ही लगते थे
उनके भीतर
हजार और विचार
चल रहे थे
पक्षपात
पूर्वाग्रह
धारणाएं उनके
पर्दे पर
पर्दे पड़े थे।
उतना ही सुनते
थे जितना उनके
अनुकूल पड़ रहा
था उतना नहीं
सुनते थे
जितना अनुकूल
नहीं पड़ रहा
था।
और
बुद्धपुरुषों
के पास सौ में
एकाध ही बात
तुम्हारे
अनुकूल पड़ती
है। बुद्ध कोई
पंडित थोड़े ही
हैं। पंडित की
सौ बातों में
से सौ बातें अनुकूल
पड़ती हैं।
क्योंकि
पंडित वही
कहता है जो
तुम्हारे
अनुकूल पड़ता
है। पंडित की
आकांक्षा
तुम्हें
प्रसन्न करने
की है।
तुम्हें रामकथा
सुननी है तो
रामकथा सुना
देता है। तुम्हें
सत्यनारायण
की कथा सुनना
है तो
सत्यनारायण
की कथा सुना
देता है। उसे
कुछ लेना—देना
नहीं—तुम्हें
क्या सुनना है? उसका
ध्यान तुम पर
है, तुम्हें
जो ठीक लगता
है, कह
देता है। उसकी
नजर तो पैसे
पर है, जो
तुम दोगे उसे
कथा कर देने
के बाद।
लेकिन
बुद्धपुरुष
तुम्हें
देखकर, तुम्हारा जो
भाव है उसे
देखकर—तुम जो
चाहते हो उसे
देखकर नहीं
बोलते।
बुद्धपुरुष, जिससे
तुम्हारा
कल्याण होगा।
बड़ा
फर्क है दोनों
में।
सत्यनारायण
की कथा से तुम्हारा
कल्याण होगा
कि नहीं होगा, इससे कुछ
लेना—देना नहीं
है पंडित को।
किसका हुआ है!
कितने तो लोग
सत्यनारायण
की कथा सुनते
रहे हैं। और
सत्यनारायण
की कथा में न
सत्य है, और
न नारायण हैं,
कुछ भी नहीं
है। बड़े मजे
की कथा है!
यह
जो पंडित है, इसने
लोगों को एक
धारणा दे दी
है कि सत्य
तुम्हारे
अनुकूल होता
है। सत्य
तुम्हारे
अनुकूल हो ही
नहीं सकता है!
अगर तुम्हारे
अनुकूल होता
तो कभी का
तुम्हें मिल
गया होता। तुम
सत्य के
प्रतिकूल हो।
इसीलिए तो
सत्य मिला नहीं
है। और जब
सत्य आएगा तो
छुरे की धार
की तरह
तुम्हें
काटेगा। पीड़ा
होगी।
तो
जो सुन रहे थे, वे भी बस
सुनते से लगते
थे। उनकी हजार
धारणाएं थीं।
वे अपनी
धारणाओं के
हिसाब से
सुनने आए थे।
उनके
अनुकूल—पड़ती
है बात कि नहीं
पड़ती। यह
बुद्ध जो कहता
है, इससे
इनके सिद्धात
सिद्ध होते कि
नहीं सिद्ध होते।
अर्थात वहा
कोई भी नहीं
सुन रहा था।
कोई शरीर से
ही बस वहा
मौजूद था, मन
कहीं और
था—दुकान में,
बाजार में,
हजार काम
में।
यहां
भी मैं देखता
हूं, कुछ
मित्र आ जाते
हैं, जम्हाई
ले रहे हैं, कोई झपकी भी
खा जाता है।
मैं कभी—कभी
चकित होता हूं, आते क्यों
हैं, कोई
बीच से उठ
जाता है।
कभी—कभी
हैरानी होती है
कि इतनी तकलीफ
क्यों की।
इतनी दूर
अकारण आए क्यों? लेकिन कारण
है।
लोगों
की पूरी
जिंदगी ऐसे ही
जम्हाई लेते
बीत रही है।
उसी तरह की
जिंदगी को वे
लेकर यहां आते
हैं, नयी
जिंदगी लाएं
भी कहा से! ऐसे
ही सोते—सोते,
झपकी
खाते—खाते
जिंदगी जा रही
है। उसी
जिंदगी में वे
यहां भी सुनने
आते हैं। वे
नयी जिंदगी लाएं
भी कहौ से! कोई
काम कभी
जिंदगी में
पूरा नहीं
किया है, सब
अधूरा छूटता
रहा है, बीच
में यहां से
भी उठ जाते
हैं, पूरी
बात सुनने का
बल कहां! इतनी
देर घिर होकर बैठना
भी मुश्किल
है। डेढ़ घंटा
भारी लगता है।
हजार तरह की
अड़चनें आने
लगती हैं।
हजार तरह के
खयाल आने लगते
हैं कि बाजार
ही चले गए
होते, इतनी
देर में इतना
कमा लिया होता,
फलां आदमी
से मिल लिए
होते, वकील
से मिल आए
होते, अदालत
में परसों
मुकदमा है, ऐसा है, वैसा
है; हजार
बात भीतर उठती
रहती है।
लेकिन कुछ
आश्चर्य की
बात नहीं है, यही तो
चौबीस घंटे
उनके भीतर चल
रहा है। यहौ अचानक
आकर वे इसे
एकदम छोड़ भी
नहीं दे सकते
हैं।
आनंद
ने यह दशा
देखी।
बुद्ध
के भिक्षु
आनंद ने यह
दशा देखी कि
पहले तो इन
लोगों ने तीन
बार
प्रार्थना की, भगवान
टालते रहे, टालते रहे, फिर बोले।
अब इनमें से
कोई सुन नहीं
रहा है। आनंद
को बड़ी हैरानी
हुई उसने कहा
भगवान आप किससे
बोल रहे हैं?
यहां
सुनने वाला तो
कोई है ही
नहीं? भगवान
ने कहा मैं
संभावनाओं से
बोल रहा हूं।
जो हो सकता है
जो हो सकते
हैं उनसे बोल
रहा हूं। मैं
बीज से बोल
रहा हूं और
मैं बोल रहा
हूं इसलिए भी
कि मैं नही
बोला ऐसा दोष
मेरे ऊपर न
लगे रही सुनने
वालों की बातू,
सो ये जानें
सुन ले इनकी
मर्जी न सुनें
इनकी मर्जी? फिर
जबर्दस्ती
कोई बात
सुनायी भी
कैसे जा सकती
है।
बुद्ध
ने कहा, मैं
संभावनाओं से
बोल रहा हूं।
बुद्ध
का एक बड़ा
शिष्य
बोधिधर्म चीन
गया तो नौ साल
तक दीवाल की
तरफ मुंह करके
बैठा रहा। वह
लोगों की तरफ
मुंह नहीं करता
था। अगर कोई
कुछ पूछता भी
तो दीवाल की
तरफ ही मुंह
रखता और वहीं
से जवाब दे
देता। लोग कहते
कि महाराज, बहुत
भिक्षु देखे,
भारत से और
भी भिक्षु आए
हैं, मगर
आप कुछ अनूठे
हैं। यह कोई
बैठक का ढंग
है! कि हम जब भी
आते हैं, तब
आप दीवाल की
तरफ मुंह किए
रहते हैं। शायद
बोधिधर्म ने
पाठ सीख लिया
होगा। उसने
कहा है कि
इसीलिए कि मैं
तुम्हारा
अपमान नहीं
करना चाहता।
क्योंकि जब
मैं तुम्हारी
आंखों में देखता
हूं? मुझे
दीवाल दिखायी
पड़ती है। उससे
कहीं मैं कुछ
कह न बैठूं सो
मैं दीवाल की
तरफ देखता
रहता हूं।
वह
आदमी जरा
तेज—तर्रार था।
उसने कहा कि
जब कोई आदमी
आएगा, जिसकी
आंखों में मै
देख सकूं और
मैं पाऊं कि दीवाल
नहीं है, तब
मैं देखूंगा।
उसके पहले
नहीं।
नौ साल
बैठा रहा। तब
उसका एक पहला
शिष्य आया—हुईकोजो।
और हुईकोजो
पीछे खड़ा
रहा—चौबीस
घंटे खड़ा रहा, हुईकोजो
कुछ बोला ही
नहीं। बर्फ
गिर रही थी, उसके
हाथ—पैर पर
बर्फ जम गयी, वह ठंड में
सिकुड़ रहा है,
वह खड़ा ही
रहा, वह
बोला ही नहीं।
चौबीस घंटे
बीत गए और
बोधिधर्म
बैठा रहा, दीवाल
की तरफ देखता
ही रहा, देखता
ही रहा। आखिर
बोधिधर्म को
ही पूछना पड़ा कि
महानुभाव, मामला
क्या है? क्यों
खड़े हैं? क्या
मुझे लौटना
पड़ेगा? क्या
मुझे लौटकर
तुम्हारी तरफ
देखना पड़ेगा?
तो हुईकोजो
ने कहा, जल्दी
करो, नहीं
तो पछताओगे।
और हुईकोजो ने
अपना एक हाथ काटकर
उसको भेंट कर
दिया। यह एक
सबूत, कि
मैं कुछ कर
सकता हूं। और
दूसरा सबूत
मेरी गर्दन
है।
कहते
हैं, बोधिधर्म
तत्कण घूम
गया। उसने कहा,
तो तुम आ
गए। तुम्हारी
मैं
प्रतीक्षा
करता था।
तुम्हारे लिए
ही दीवाल को
देख रहा था।
ऐसा
अनुभव मुझे
रोज होता है।
आनंद की बात
ठीक ही लगती
है कि भगवान
आप किससे बोल
रहे हैं! यहां
सुनने वाला तो
कोई है ही
नहीं। मैं भी
संभावनाओं से
बोल रहा हूं।
जो हो सकता है, उससे बोल
रहा हूं। जो
हो गया है, उससे
तो बोलने की
जरूरत भी
नहीं। वह तो
बिन बोले भी
समझ लेगा। वह
तो चुप्पी को
भी समझ लेगा। वह
तो मौन से भी
अर्थ निकाल
लेगा। जो नहीं
हुआ है अभी, उसी के लिए
काफी
चिल्लाने की,
मकानों के
मुंडेर पर
चढ़कर
चिल्लाने की
जरूरत है। उसे
सब तरफ से
हिलाने की
जरूरत है, शायद
जग जाए। सौ
में से कभी
कोई एकाध
जगेगा, लेकिन
वह भी बहुत
है। क्योंकि
एक जग जाए तो
फिर एक और
किसी एक को
जगा देगा। ऐसे
ज्योति से ज्योति
जले। ऐसे दीए
से दीए जलते
जाते हैं। और
बोधि की
परंपरा संसार
में चलती रहती
है।
और
बुद्ध ने ठीक
कहा कि इसलिए
भी बोल रहा
हूं कि नहीं
बोला, ऐसा
दोष मुझ पर न
लगे। नहीं
सुना, यह
तुम्हारी बात
रही, यह
तुम जानो, मैं
नहीं बोला, ऐसा दोष न
लगे।
तब
आनंद ने पूछा
भंते आपके
इतने सुंदर
उपदेश को भी
ये सुन क्यों
नहीं रहे हैं?
सुंदर
उपदेश या
असुंदर उपदेश
तो सुनने वाले
की दृष्टि है।
आनंद को लग
रहा है सुंदर, उसके
हृदय—कमल खिल
रहे। यह बुद्ध
की मधुरव्राणी,
ये उनके
शब्द, उसके
भीतर वर्षा हो
रही है, अमृत
की वर्षा हो
रही है। वह
चकित है कि
इतना सुंदर
उपदेश और ये
क् बैठे हैं, कोई झपकी खा
रहा है, कोई
जम्हाई ले रहा
है, किसी
का मन कहीं
भाग गया है, किसी का मन
सोच रहा है कि
यह ठीक है कि
नहीं है, गलत
है कि सही है, शास्त्र में
लिखा है उसके
अनुकूल है या
नहीं, कोई
विवाद में पड़ा
है! एक भी सुन
नहीं रहा है।
इतना सुंदर
उपदेश! ये सुन
क्यों नहीं
रहे हैं? भगवान
ने कहा आनंद
श्रवण सरल
नहीं। श्रवण
बड़ी कला है।
आते— आते ही
आती है। राग, द्वेष मोह
और तृष्णा के
कारण
धर्म—श्रवण
नही हो पाता
पूर्वाग्रहों
के कारण
धर्म—श्रवण
नहीं हो पाता
भय के कारण
धर्म—श्रवण
नहीं हो पाता।
पुरानी आदतों
के कारण धर्म—
श्रवण नही हो
पाता लेकिन
सबके मूल में
राग है राग की
आग के समान आग
नहीं है।
इसमें ही
संसार जल रहा
है। इसमें ही
मनुष्य का बोध
जल रहा है
उसके कारण ही लोग
बहरे हैं अंधे
हैं लूले हैं
लंगड़े हैं
और
तब उन्होंने
ये गाथाएं
कहीं—
नत्थि
रागसमो अग्गि
नत्थि
दोससमो गहो।
नत्थि
मोहसमं जालं
नत्थि
तण्हासमा
नदी।।
सुदस्सं
वज्जमज्जेमं
अत्तनोपन
दुदृशं।
परेसं हि सो
वज्जानि
ओपुणात
यथाभुसं।।
अत्तनोपन
छादेति कलि 'व कितवा
सठो।
परवज्जानुपस्सिस्स
निच्चं
उब्लानसज्जिनो।
आसवातस्स
बड्ढ़न्ति
आरा सो
आसवक्खया।।
'राग के समान
आग नहीं, द्वेष
के समान ग्रह
नहीं, मोह
के समान जाल
नहीं और
तृष्णा के समान
नदी नहीं।
'राग के समान
आग नहीं।
क्योंकि
राग मनुष्य को
जलाती है।
तीक्ष्या अग्नि
की लपटों की
भाति जलाती
है। तो इसमें
से कोई तो राग
में जल रहा
है—कोई अपनी
पत्नी की सोच
रहा है, कोई अपने धन
की सोच रहा है,
कोई दुकान
की सोच रहा
है—इनमें से
कुछ तो आग की लपटों
में जल रहे
हैं, राग
की लपटों में
जल रहे हैं।
'द्वेष के
समान ग्रह
(पिशाच, भूत—प्रेत
) नहीं।
कुछ
के पीछे द्वेष
लगा है, जैसे किसी
के पीछे भूत
लग जाता है।
तो द्वेष फिर
सोने नहीं
देता, बैठने
नहीं देता।
यहां कुछ हैं
जो किसी की
हानि की सोच
रहे हैं। यहां
मैं उनके
कल्याण की बात
कर रहा हूं, उसमें उनकी
कोई उत्सुकता
नहीं। कोई सोच
रहा है कि
दुश्मन को मार
डालें। कोई
सोच रहा, उसके
खलिहान में आग
लगवा दें। कोई
कहता है, मुकदमे
में ऐसी चाल
चलें कि सदा
के लिए सजा हो जाए।
यहां कोई
द्वेष के
पिशाच से
परेशान हो रहा
है।
'मोह के समान
जाल नहीं। '
कोई
मोह में पड़ा
है। किसी को
अपने बेटे की
याद आ रही है, किसी को
अपनी बेटी की
याद आ रही है, किसी की आंख
में आंसू झलक
आए हैं किसी
की याद में
किसी की पत्नी
मर गयी, वह
उसके खयाल में
बैठा है। कोई
किसी नयी
स्त्री के
प्रेम में पड़
गया है, वह
उसका विचार कर
रहा है। तो
कोई मोह के
जाल में उलझा
है। और तृणा
के समान नदी
नहीं। '
और कुछ
हो जाऊं, कुछ पा लक्ष
कहीं पहुंच
जाऊं, ऐसी
जो वासना है, वह तो नदी की
तरह बाढ़ है।
कोई उसमें बहा
जा रहा है।
इनके कारण ये
नहीं सुन पा
रहे हैं।
श्रवण बड़ी कला
है, बुद्ध
ने कहा। आते—आते
ही आती है।
तो
इन पर नाराज
मत हो जाना, आनंद।
क्यों? क्योंकि
दूसरों का दोष
देखना आसान है,
अपना दोष
देखना कठिन
है। तुझे इनका
दोष दिखायी पड़
रहा है, तुझे
अपने दोष
दिखायी नहीं
पड़ेंगे। इनको
अपना दोष
दिखायी नहीं
पड़ रहा है।
इनको दूसरों
के, सारी
दुनिया के दोष
दिखायी पडते
हैं। दूसरों
का दोष देखना
आसान है, अपना
दोष देखना
कठिन है। यह
बड़ी अदभुत बात
आनंद से कही।
बुद्धपुरुष
को मौका मिले
कुछ खींच लेने
का तुम्हारे
पैर के नीचे
से, तो
वह चूकते
नहीं। अब आनंद
तो उनके लिए
पूछ रहा था, फंस गया बीच
में! वह तो
शायद यह भी
सोच रहा होगा
कि देखो, कितनी
बढ़िया बात कह
रहा हूं कि
इनमें कोई
नहीं सुन रहा
और आप नाहक
सुना रहे हैं।
मगर उसे यह खयाल
नहीं था कि
दूसरे का दोष
मैं देख रहा
हूं।
अब
यहां तुम खयाल
करना, आनंद
भी नहीं सुन
रहा है, वह
इनको देख रहा
है। जिन सज्जन
की मैंने
परसों तुमसे
बात कही, जो
कलकत्ता मेरे
साथ गए और जिनको
मैंने कहा कि
तीन दिन के
लिए परमहंस हो
जाओ और वे चुप
होकर बैठ गए
और उनकी बड़ी
पूजा हुई और
लोग आए और पैर
छुए, वह
मेरे साथ कई
दफे यात्राओं
पर जाते थे।
उन्होंने
मुझे कभी नहीं
सुना।
क्योंकि उनको
सुनने की
फुर्सत कहां!
वह यह देख रहे
कि लोगों में
कौन सुन रहा
है, कौन
नहीं सुन रहा
है। अगर लोग
सुनते मालूम
पड़ते तो वह
बड़े प्रभावित
होते। अगर लोग
सुनते न मालूम
पड़ते तो वह
कहते कि आज
क्या हुआ, लोग
सुन नहीं रहे
हैं! मैंने
उनसे एक दिन
पूछा कि तुम
कब सुनोगे ' अगर लोग
प्रभावित
होते तो वह
प्रभावित होते,
वह मेरी बात
सुनकर
प्रभावित
नहीं होते। वह
यही कहते कि
लोग बिलकुल
सकते में आ गए
हैं, सुन
रहे हैं, बिलकुल
सुई भी गिर
जाए तो सुनायी
पड़ेगी। वह बड़े
खुश होते। वह
ऐसी जगह बैठते
जहां से उनको
सब दिखायी
पड़ते रहें।
ताकि वह देख
लें कि सब सुन रहे
हैं? वह
दुनिया के
कल्याण में
बड़े उत्सुक
थे।
उनको
अपनी कोई फिकर
नहीं। मैंने
उनसे कहा, तुम कब्र
सुनोगे? कौन
सुनता है, नहीं
सुनता है, इससे
क्या
लेना—देना है!
जहा तक मैं
जानता हूं,
तुमने सबसे
ज्यादा मुझे
सुना और सबसे
कम सुना।
वर्षों तुम
मेरे साथ रहे,
जगह—जगह तुम
गए, मगर
तुमने मुझे
सुना नहीं है।
तुम्हारी
बेचैनी उन पर
अटक गयी
है—कोई सुन
रहा है कि
नहीं सुन रहा
है ' जैसे
उनके सुन लेने
से तुम्हें
कुछ लाभ हो
जाएगा।
अब
आनंद बुद्ध के
निकटतम
शिष्यों में
था, लेकिन
बुद्ध के मरने
के बाद समाधि
को उपलब्ध हुआ,
जीते जी
समाधि को
उपलब्ध नहीं
हुआ। अनेक
शिष्य आए और
समाधिस्थ हो
गए, अर्हत्व
को पा लिया, अरिहंत हो
गए—पीछे आए।
आनंद सबसे
पहले आया था, वह बुद्ध का
चचेरा भाई था।
बयालीस साल
बुद्ध के साथ
छाया की तरह
रहा, एक
क्षण को साथ
नहीं छोड़ा।
रात उसी कमरे
में सोता था, जहा बुद्ध
सोते थे, दिनभर
छाया की तरह लगा
रहता था।
जब
उसने दीक्षा
ली थी बुद्ध
से तो उसने एक
शर्त करवा ली
थी, वह
शर्त यह थी कि
तुम मुझे कभी
भी आज्ञा मत
देना—वह बड़ा
भाई था, चचेरा
भाई था, तो
दीक्षा के
पहले उसने कहा
कि सुनो, अभी
तुम मेरे छोटे
भाई हो, दीक्षा
के बाद तो मैं
शिष्य हो
जाऊंगा, फिर
तो तुम जो
कहोगे मुझे
करना ही पड़ेगा,
इसलिए
दीक्षा के
पहले कुछ
शर्तें रख
लेता हूं बड़े
भाई के लिए
इतना करो—एक, कि तुम मुझे
कभी भी, किसी
भी स्थिति में
यह नहीं कह
सकोगे कि आनंद,
तू कहीं और
जाकर विहर।
मैं आपकी छाया
की तरह लगा
रहूंगा। दिन
हो कि रात, मैं
आपके साथ ही
रहूंगा। यह एक
वचन आप दे
दें। दूसरा
वचन कि मैं किसी
को आधी रात भी
ले आऊंगा कि
इसकी कोई
जिज्ञासा है,
तो आपको हल
करनी पड़ेगी।
आप ऐसा नहीं
कह सकेंगे कि
अभी मैं सो
रहा हूं। ऐसी
उसने शर्तें
ले ली थीं।
तो
वह बयालीस साल
छाया की तरह
बुद्ध के साथ
रहा, लेकिन
ज्ञान को उपलब्ध
नहीं हुआ। तो
बुद्ध ठीक ही
कहते हैं कि दूसरे
का दोष देखना
आसान।
सुदस्सं
वज्जमज्जेसं
अत्तनोपन
द्रुदृशं।
पर
अपना दोष
देखना बड़ा
कठिन, आनंद।
तू यह तो देख
रहा है कि ये
कोई नहीं सुन
रहे हैं, लेकिन
तूने सुना?
और
जब बुद्ध की
मृत्यु हुई तो
आनंद छाती
पीट—पीटकर
रोया।
क्योंकि उसने
सुना ही नहीं।
उसने भी
जिंदगी ऐसे ही
बिता दी, कौन सुन रहा
है कि नहीं
सुन रहा है, इसकी फिकर
में बिता दी।
'वह मनुष्य
दूसरों के
दोषों को भूसे
की भांति उड़ाता
फिरता है, लेकिन
अपने दोषों को
वैसे ही
छिपाता है
जैसे जुआरी
हार के पासे
को छिपाता है।
बुद्ध
ने कहा, मनुष्य ऐसा
है। दूसरों के
दोषों को तो
उड़ाता है भूसे
की भांति कि
सबकी आंखों
में पड़ जाए और
सबको दिखायी
पड जाए, और
अपने दोषों को
ऐसे छिपाता है
जैसे जुआरी हार
के पासे को
छिपाता है।
'दूसरों का
दोष देखने
वाले तथा
दूसरों की
टीका—टिप्पणी
करने वाले के
आसव बढ़ते हैं,
आनंद! उससे
उसके बंधन
बढ़ते हैं, कटते
नहीं। वह
आसवों के
विनाश से दूर
ही रहता है।
उसके
आस्त्रव
विनष्ट नहीं
होते। उसके
बंधन के मूल
कारण टूटते
नहीं। उसका
संसार चलता
रहता है, आनंद। तो
ठीक, ये
नहीं सुन रहे
हैं, यह तो
ठीक, मगर
तू मत इस फिकर
में पड़। तू
सुन!
यहां
तुमसे भी मै
यह कहना
चाहूंगा, जब मैं कह
रहा था कि कोई
यहां जम्हाई
लेता कभी, कोई
झपकी खा जाता,
कोई इधर—उधर
देखता, तो
तुम जल्दी से
सोचने मत लगना
कि मैं किसके
संबंध में बात
कर रहा हूं।
तुम जल्दी से
दूसरों की तरफ
मत देखने लगना
कि पड़ोस में
कोई जम्हाई ले
रहा हो, तुम
कहो कि देखो, यह बेचारा!
दूसरों के दोष
देखने बहुत
आसान। उसको
लेने दो
जम्हाई, वह
उसकी मर्जी!
अगर उसने
जम्हाई ही
लेने का तय किया
है तो हम कौन
बाधा देने
वाले! ले, चलो
यही क्या कम
है कि उसने
ऐसी जगह आकर
जम्हाई ली।
वेश्याघर में
बैठकर भी ले
सकता था। यहां
कुछ होने की
संभावना तो है
ही। कहीं न
कहीं से चोट
शायद कभी पड़
जाए, जम्हाई
लेते—लेते ही
शायद कोई चीज
भीतर सरक जाए—शायद
मुंह खुला हो
जम्हाई में और
कुछ गटक जाए।
झपकी खा रहा
हो, झपकी
में ही कोई
चीज सरक जाए।
चलो, ठीक
जगह आकर
जम्हाई ली।
ठीक जगह आकर
झपकी खायी।
मुझसे
कभी पूछता
कोई—उसको नींद
आ जाती है सदा—वह
कहता है, बड़ी हैरानी
की बात है, बस
आपको सुना कि
नींद आयी! ऐसे
चाहे रातभर
नींद न आए, बस
आपको सुना कि
नींद आयी। आप
क्या मंत्र कर
देते हैं! तो
मै कहता हूं
चलो, कोई
बात नहीं; यहां
आकर सोओ, यह
भी ठीक। शायद
नींद में ही
मेरी बात कभी
उतर जाए, कोई
सपना बन जाए।
शायद नींद भी
कभी द्वार बन
जाए। चलो, कोई
हर्ज नहीं।
सत्संग अगर
नींद में भी
हो, तो भी
ठीक।
दुष्ट—संग तो
जागकर हो, तो
भी ठीक नहीं।
ओशो
एस धम्मो
संनतनो
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