दिनांक
19 सितंबर, 1974;
प्रात:
काल,
श्री रजनीश
आश्रम,
पूना।
सूत्र:
कथाजप:।
दानमात्मज्ञानमू।
योऽविपस्थोज्ञाहेतुक्ष्च।
स्वशक्तिप्रचयोऽस्थविश्वमू।
स्थितिलयौ।
वे जो
भी बोलते हैं
वह जप है।
आत्मज्ञान ही
उनका दान है।
वह अंतदशक्तियों
का स्वामी है
और ज्ञान का कारण
है। स्वशक्ति
का प्रचय
अर्थात् सतत
विलास ही इसका
विश्व है। और
वह स्वेच्छ
से स्थिति और
लय करता है।
प्रार्थना, क्या
तुम कहते हो, उस पर
निर्भर नहीं
है; वरन्
क्या तुम हो, उस पर
निर्भर है।
पूजा, क्या
तुम करते हो, उससे
संबंधित नहीं
है, बल्कि
क्या तुम हो, उससे ही
संबंधित है।
धर्म का संबंध
कृत्य से नहीं
है; अस्तित्व
से है।
तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर प्रेम है, तो तुम्हारी परिधि पर प्रार्थना होगी। तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर अहर्निश शांति है, तो तुम्हारे बाहर के केंद्र पर ध्यान होगा। तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर पल-पल होश है, तो तुम्हारा पूरा जीवन तपश्चर्या होगा। इससे उलटा नहीं है।
तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर प्रेम है, तो तुम्हारी परिधि पर प्रार्थना होगी। तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर अहर्निश शांति है, तो तुम्हारे बाहर के केंद्र पर ध्यान होगा। तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर पल-पल होश है, तो तुम्हारा पूरा जीवन तपश्चर्या होगा। इससे उलटा नहीं है।
परिधि
को बदलने से
केंद्र नहीं
बदलता। केंद्र
की बदलाहट से
परिधि अपने-आप
बदल जाती है; क्योंकि
परिधि
तुम्हारी
छाया है। छाया
को बदलकर कोई
स्वयं को नहीं
बदल सकता; लेकिन
स्वयं बदल जाए
तो छाया
अपने-आप बदल
जाती है। यह
जान लेना बहुत
महत्त्वपूर्ण
है, क्योंकि
अधिक लोग
परिधि को
बदलने में ही
जीवन नष्ट कर
देते हैं।
आचरण को बदलने
में सब कुछ दांव
पर लगा देते
हैं; जब कि
आचरण बदल भी
जाये तो भी
कुछ बदलता
नहीं। तुम
आचरण को कितना
ही बदल लो, तुम
'तुम' ही
रहोगे-चोरी
करते थे, साधु
हो जाओगे; धन
इकट्ठा करते
थे, बांटने
लगोगे, लेकिन
तुम 'तुम' ही रहोगे।
और धन का
मूल्य
तुम्हारी
आंखों में वही
रहेगा; जो
चोरी करते समय
था, वही
मूल्य दान
करते समय
रहेगा। चोरी
करते समय तुम
समझते थे कि
धन बहुत कीमत
का है, दान
देते वक्त भी
तुम समझोगे कि
धन बहुत कीमत का
है। धन मिट्टी
नहीं हुआ, नहीं
तो मिट्टी को
कोई दान देता
है!
अगर
धन सच में ही
मिट्टी हो गया, तो
तुम अपने कूड़े-कर्कट
को दूसरे को
देने जाओगे? और अगर कोई
ले लेगा
तुम्हारा धन,
तो क्या तुम
समझोगे कि
तुमने उसे
अनुगृहीत किया?
क्या तुम
चाहोगे कि वह
तुम्हें
लौटकर धन्यवाद
दे, अगर धन
सच में ही
व्यर्थ हो गया,
तो जो
तुम्हारा धन
स्वीकार कर ले,
तुम ही उसके
अनुगृहीत
होओगे। तुम
सोचोगे कि धन्यभाग
मेरे, इस
आदमी ने कचरा
लिया, इनकार
न किया। लेकिन
दानी ऐसा नहीं
सोचता। एक पैसा
भी दे देता है,
तो उसका
प्रतिकार
चाहता है।
एक
मारवाड़ी
की मृत्यु
हुई। उसने
सीधा जाकर
स्वर्ग के
द्वार पर
दस्तक दी। और
उसे पका भरोसा
था कि द्वार
खुलेगा; क्योंकि
उसने दान किया
था। द्वार
खुला भी। द्वारपाल
ने उसे नीचे
से ऊपर तक
देखा; क्योंकि
स्वर्गों में
कृत्यों की
पहचान नहीं है,
व्यक्ति
सीधे देखे
जाते हैं। और
द्वारपाल ने पूछा
कि शायद भूल
से आपने यहां
दस्तक दे दी। वह जो
सामने का
दरवाजा है नरक
का, वहां
दस्तक दें।
मारवाड़ी नाराज
हुआ। उसने
कहा. 'क्या
खबर नहीं
पहुंची। कल ही
मैंने एक बूढ़ी
औरत को दो
पैसे दान दिये
हैं। और उसके
भी एक दिन
पहले एक अंधे
अखबार बेचनेवाले
लड़के को मैंने
एक पैसा दिया
है।’ जब
दान का दावा
किया गया, तो
द्वारपाल को
खाता—बही
खोलना पड़ा।
अपने सहयोगी
को उसने कहा
कि देखो। वहां
तीन पैसे उस मारवाड़ी
के नाम लिखे
थे। द्वारपाल
चिंता में पड़ा।
पूछा : 'कुछ
और कभी किया
है?' मारवाड़ी ने कहा— 'और
तो अभी इस समय
कुछ याद नहीं
आता।’ किया
होता और याद न
आता! जिसको
तीन पैसे याद
रहे, उसने
किया होता और,
याद न आता!
खाता—बही खोला
गया, बस वे
तीन पैसे ही
नाम लिखे थे।
उन्हीं तीन
पैसे के बल वह
स्वर्ग के
द्वार दस्तक
दिया था, अक्ल
के साथ।
द्वारपाल
ने अपने साथी
से पूछा : 'क्या करें
इसके साथ?' उसके
साथी ने खीसे
से तीन पैसे
निकाले और कहा
कि इसको दे दो
और कहो कि
सामने के
दरवाजे पर
दस्तक दो।
पैसों
से कहीं
स्वर्ग का
द्वार खुला
है! तुम चाहे पकड़ो
पैसा और चाहे छोड़ो, दोनों ही
हालत में
मूल्य
रूपांतरित
नहीं होता।
तुम चाहे
संसार में रहो,
चाहे भाग
जाओ, संसार
का मूल्य वही
का वही बना
रहता है। तुम
पीठ करो कि
मुंह, यात्रा
में बहुत भेद
नहीं पड़ता—जब
तक कि तुम
केंद्र से बदल
न जाओ।
आचरण
नहीं, अंतस्
की क्रांति
चाहिए। और
जैसे ही अंतस्
बदलता है, सभी
कुछ बदल जाता
है। ये सूत्र अंतस्
की क्रांति के
सूत्र है। एक—एक
सूत्र को अति
ध्यानपूर्वक
समझने की
कोशिश करें।
उनका कण भी
तुम्हारे
भीतर गिर गया,
तो वह
चिंगारी की
तरह होगा। और
अगर तुम्हारे
भीतर थोड़ी भी
सूखी बारूद है,
तो जल उठेगी।
और अगर तुमने
सारी बारूद को
गीली कर रखा
है, तो
चिंगारियां
पड़ती है और
बुझ जाती है।
तुम्हारी
कठिनाई यह
नहीं कि
तुम्हें सत्य
नहीं सुनने को
मिलता। तुम
सत्य को भी
बुझाने में
कुशल हो।
तुम्हारे
भीतर सब बारूद
गीली है।
अंगारा भी पड़
जाये, तो
अंगारा ही
बुझता है, बारूद
नहीं सुलगती।
और किस भांति
तुमने बारूद
को गीला किया
है? जितना
तुम्हारे पास
ज्ञान है, उतनी
ही तुम्हारी
बारूद गीली है।
जितना तुम
सोचते हो कि
मैं जानता हूं
उतनी ही तुम्हारी
बारूद गीली है।
वह जानने के
कारण ही ज्ञान
की चिंगारी भी
तुम बुझा देते
हो। तुम्हारा
ज्ञान, ज्ञान
की चिंगारी को
भी तुम्हारे
भीतर नहीं पहुंचने
देता; वही
द्वार पर खड़ा
है। वह बाहर
से ही इनकार
कर देता है।
तुम
अपने ज्ञान
में ही बेहोश
हो। और ध्यान
रहे, ज्ञान
से ज्यादा बड़ी
शराब खोजनी
मुश्किल है; क्योंकि
उससे ज्यादा
सूक्ष्म
अहंकार किसी और
चीज से नहीं
मिलता। धन भी
इतना अहंकार
नहीं दे सकता;
क्योंकि धन
चोरी जा सकता
है, सरकार
बदल सकती है, कम्युनिस्ट
आ सकते है, कुछ
भी हो सकता है।
धन का कोई पका
भरोसा नहीं है।
लेकिन ज्ञान
चोरी नहीं जा
सकता, कोई
छीन नहीं सकता।
तुम्हें
कारागृह में
भी डाल दिया
जाये, तो
भी तुम्हारा ज्ञान
तुम्हारे साथ
जायेगा।
इसलिए धनी में
भी वैसी अकड़
नहीं होती, जैसी पंडित
में होती है।
और वह अक्ल ही
तुम्हारे
भीतर बारूद को
गीला रखती है।
उस अक्ल को
छोड़ दो, तुम्हारी
बारूद सूख
जाएगी। तब एक
चिंगारी भी
तुम्हें
बदलने में सफल
हो जाती है; क्योंकि
बहुत आग की
जरूरत नहीं है।
बारूद जलती हो,
तो एक
चिंगारी से ही
जल जाएगी। जल
सकती हो, एक
चिंगारी काफी
है। न जल सकती
हो, तो आग
भी लग जाये तो
भी न जलेगी।
ये
सूत्र चिंगारियों
की तरह हैं।
इन्हें अपने ज्ञान
को हटाकर
समझने की
कोशिश करना; क्योंकि
ज्ञान से समझा
तो समझ ही न
पाओगे।
पहला
सूत्र है : कथा
जप:। वे जो शिवतुल्य
हो गये हैं-कल
जो हमारा
आखिरी सूत्र
था-वे जो शिवतुल्य
हो गये हैं, वे
जो भी बोलते
हैं, वही
जप है। वे
क्या बोलते है,
यह सवाल
नहीं है। वे
जो भी बोलते
हैं, वही
जप है।
क्योंकि उनके
हृदय में
संसार न रहा, वासना न रही,
अंधेरा न
रहा, उनका
ह्रदय एक
प्रकाश है-उस
हृदय से अब जो
भी आता है, वह
जप है। उससे
जप के अन्यथा
कुछ आ ही नहीं
सकता। प्रकाश से
अंधकार कैसे
आयेगा! प्रेम
से घृणा कैसे
आयेगी! करुणा
से क्रोध कैसे
आयेगा! अब
उनके भीतर से
जो भी आता है, वही जप है।
जीसस
का बहुत
प्रसिद्ध वचन
है कि तुम
क्या अपने
मुंह में
डालते हो, उससे
स्वर्ग का
राज्य नहीं
मिलेगा; क्या
तुम्हारे
मुंह से
निकलता है, उससे स्वर्ग
का राज्य
मिलेगा। क्या
तुम अपने भीतर
डालते हो, उससे
कुछ तय नहीं
होता; क्या
तुम्हारे
भीतर से बाहर
आता है, वही
खबर देता है
कि तुम कौन
हो।
शिवतुल्य जो
हो गया है, वह
जप नहीं
करेगा। जप की
कोई जरूरत
नहीं; क्योंकि
वह जो भी
करेगा, वही
जप होगा।
कबीर
ने कहा है : उठूं, बैठूं
परिक्रमा।
कबीर से किसी
ने पूछा कि 'कभी जप करते
दिखाई नहीं
पड़ते; कब
करते हो पूजा?
कब करते हो
प्रार्थना? लोग कहते है,
महा- भक्त
हो; लेकिन
भक्ति कब करते
हो? देखते
हैं तुम्हें
काम में लगा
हुआ; कपड़ा बुनते हो, बाजार बेचने
जाते हो; लेकिन
कभी तुम्हें ध्यान,
पूजा, मंदिर
में तो कभी
देखा नहीं! 'तो कबीर ने
कहा कि 'जो
भी करता हूं
वही मेरी
परिक्रमा है;
जो भी बोलता
हूं वही मेरा
जप है। मेरा
होना ही मेरा
ध्यान है।'
जब
भी तुम उत्सुक
होते हो ध्यान
में,
तो तुम क्या
करते हो? तुम
अपने कृत्यों
के जगत का एक
छोटा-सा कोना
ध्यान को दे
देते हो, जबकि
ध्यान कृत्य
नहीं है। तुम
दुकान करते हो,
बाजार जाते
हो-करना ही
पड़ेगा। काम-
धंधा, जीवन
की चर्या, बाहर
कि परिधि पर
चलती ही
रहेगी। उसी
परिधि पर एक
कोना तुम
ध्यान के लिए
भी देते हो।
तुम सोचते हो
कि चलो बाजार
जाने के पहले
दो क्षण मंदिर
हो आयें।
इस
फर्क को खयाल
में ले लेना।
तुम
जो करते हो
उसी में तुम
ध्यान को भी
जोड़ लेते हो; और
पच्चीस काम
करते हो, उसी
में एक काम
ध्यान है।
तुम्हारे
संसार में हजार
व्यस्ततायें
हैं, उसी
में ईश्वर भी
एक और
व्यस्तता है।
तब तुम ईश्वर
से वंचित रह
जाओगे। ईश्वर
परिधि पर हो
ही नहीं सकता।
जहां दुकान है,
बाजार है, काम है-वहां
से ईश्वर का
कोई संबंध
नहीं। ईश्वर
तुम्हारा
अंतस्तल है, जहां तुम
हो। काम के
जगत में नहीं
है वह। तुम्हारा
जहां सब काम
विश्राम हो
जाता है, सिर्फ
तुम्हीं बचते
हो; जहां
कोई कर्ता
नहीं बचता, जहां सिर्फ
साक्षी बचता
है-वही उसका
घर है।
ईश्वर
तुम्हारे एक
अंग को नहीं
घेरेगा वह महान
है,
विराट है, तुम पूरे ही
उससे घिरोगे
तो ही तुम्हें
घेर पाएगा।
तुमने अगर कहा
कि कुछ
थोड़ा-सा समय
तुझे भी देंगे,
तो तुम भटकोगे।
जिस दिन तुम
अपने को पूरा
ही दे दोगे...।
इसका यह अर्थ
नहीं कि तुम
कोई काम न कर
पाओगे। तुम
काम और भी भली-
भांति कर
पाओगे; लेकिन
तब तुम्हारे
प्रत्येक काम
में ईश्वर की
धुन बजने
लगेगी। तब वह
तुम्हारे
भीतर होगा-जैसे
श्वांस चल रही
है।
तुम बाजार
जाते हो तो
तुम श्वांस
लेना बंद तो नहीं
कर देते। तुम
दुकान पर
बैठते हो, तब तुम
श्वांस लेना
बंद तो नहीं
कर देते। तुम
किसी से बात
करते हो, तो
तुम श्वांस
लेना बंद तो
नहीं कर देते।
श्वांस कृत्य
का हिस्सा
नहीं है। तुम
सब करते रहते
हो, भीतर
श्वांस चलती
रहती है। ऐसे
ही, जब
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर का
हिस्सा होगा,
तुम सब करते
रहोगे और उसकी
धारा
तुम्हारे
भीतर अहर्निश
बहती रहेगी।
तुम्हारे
करने से उसकी
कोई
प्रतियोगिता
नहीं है। वह
संसार का
हिस्सा नहीं
है। करने से
संसार बनता है।
कृत्य से
संसार बनता है।
इसलिए हम कहते
हैं कि जब तक
कोई कर्म में
जुड़ा है, तब तक संसार
में बना रहेगा;
जब अकर्म को
उपलब्ध होता
है, तब
परमात्मा को
उपलब्ध होता
है।
अकर्म
का अर्थ है—तुम्हारा
अस्तित्व, जहां
करने का कोई
सवाल नहीं; जहा
तुम सिर्फ हो,
तुम्हारा
होना मात्र; वहां से तुम जुडो।
शिवतुल्य जो हो
गया है, वह जो भी
बोलता है, वही
जप है। तुम
उसे
प्रार्थना
करते न पाओगे;
क्योंकि अब
प्रार्थना को
अलग से करने
की कोई जरूरत न
रही। तुम उसे
पूजा करते हुए
न पाओगे, क्योंकि
अब पूजा 'करने'
का हिस्सा न
रही। अब वह
स्वयं पूजा है।
इसलिए वह जो
भी करता है, उसमें अगर
तुम गौर से देखोगे,
तो सब जगह
पूजा पाओगे।
वह अगर श्वांस
भी लेता है, तो भी जप है।
वह अगर हाथ भी
हिलाता है, तो पूजा है।
वह उठता है, बैठता है, तो पस्किमा
है।
शिवतुल्य जो हो
गया, उसका
सारा आचरण
साधन हो जाता
है। उसे साधना
भी नहीं पड़ता,
क्योंकि
जिसे साधना
पड़ता हो, वह
कभी सहज नहीं
होगा। और जिसे
साधना पड़ता हो,
उससे हम कभी
न कभी थक जोयेंगे।
थकेंगे
तो विश्राम
करेंगे।
विश्राम का
अर्थ होगा—विपरीत
में चले
जाएंगे।
इसलिए
अगर तुमने
अपनी साधुता
को साधा है, तो छह दिन
साधोगे, सातवें
दिन विश्राम
करना पड़ेगा।
उस दिन तुम
असाधु हो
जाओगे। इसलिए
तुम्हारे जो
साधु हैं, उनके
जीवन में
असाधुता का
क्षण होगा ही;
क्योंकि
साधुता से भी
तुम थक जाओगे।
एक दिन तो
तुम्हें
छुट्टी लेनी
ही पड़ेगी।
कृत्य को कोई
सतन नहीं कर
सकता; उससे
थकान आएगी।
इसलिए साधु भी
छुट्टी पर
होता है। और
अगर वह छुट्टी
पर न हो तो
तनाव बहुत बढ़
जाएगा।
इसलिए
साधु के जीवन
में भी
असाधुता के
क्षण होते हैं; और असाधु
के जीवन में
भी साधुता के
क्षण होते हैं।
तुम ऐसा पापी
न पा सकोगे, जिसके जीवन
में पुण्य का
क्षण न हो; क्योंकि
वह पाप से थक
जाता है, तो
विपरीत में
विश्राम लेना
पड़ता है। और
तुम ऐसा
पुण्यात्मा न
पा सकोगे, जिसके
जीवन में पाप
का क्षण न हो; क्योंकि वह
पुण्य से थक
जाता है, तो
पाप में
विश्राम लेना
पड़ता है।
हमेशा विपरीत
में जाकर
डूबना पड़ता है,
ताकि मन
हलका हो जाए।
संत हम
उसे कहते हैं, जिसकी
साधुता साधी
हुई नहीं है; जिसकी
साधुता सहज
स्वभाव है।
फिर कोई
विश्राम नहीं।
तुम सांस लेने
से तो कभी
विश्राम नहीं
लेते। तुम
होने से तो
कभी विश्राम
नहीं लेते। जब
तक तुम्हारे अंतस्
में प्रवेश न
कर जाए शिवत्व,
तब तक सब
ऊपर—ऊपर होगा।
जैसे तुमने
वस्त्र अच्छे
पहन रखे हों
और भीतर गंदगी
हो; अच्छे
वस्त्र कितनी
देर छिपायेंगे?
और जैसे
तुमने सुगंध
किक ली हो और
भीतर से बदबू
उठती हो—उस
दुर्गंध को
तुम कैसे छिपाओगे?
हो सकता है,
दूसरों से
छिपा भी लो, लेकिन खुद
से कैसे छिपाओगे?
इसलिए
तुम्हारे
साधु प्रसन्न
नहीं दिखते, आनंदित
नहीं दिखते।
दूसरों को
साधु दिखते है,
खुद को तो
वे असाधु
दिखते ही रहते
है। नृत्य
नहीं आता उनके
जीवन में।
उनके क्रोध
में कोई अंतर नहीं
पड़ता। भीतर तो
वे जलते ही
रहते है।
तुमसे छिप
जाएगा, क्योंकि
तुम वस्त्रों
को ही देख
सकोगे। लेकिन
जो आदमी खुद
छिपा रहा है, वह कैसे बच
सकेगा! उसे तो
दिखाई पड़ रहा
है। वही दिखाई
पड़ना
कांटे की तरह
चुभता रहता है।
और जब तक साधु
नाच न सके, तब
तक समझना कि
उसकी साधुता सम्हाली
हुई है।
सम्हाला हुआ
झूठा होता है;
जो सहज हो
जाए, वही
सत्य है।
इसलिए
कबीर बार—बार
कहते हैं : 'साधो, सहज
समाधि भली! 'सहज
समाधि का अर्थ
है—जिसे
सम्हालना न
पड़े। सम्हालोगे
तो थकोगे।
आज नहीं कल
बोझ हो जाएगा।
मगर कब ऐसी
घटना घटेगी, जब सहज
समाधि होगी; जब शिवत्व
भीतर अंतस् से
आएगा; जब
तुम शिवतुल्य
हो जाओगे।
और
ध्यान रहे यह
कोई भविष्य का
आदर्श नहीं है।
समझ सकी तो
इसी क्षण घट
सकता है।
कृत्य में तो
समय लगता है।
करना हो तो
समय लगेगा। यह
तो छलांग है।
यह कोई कृत्य
नहीं है। यह
तो बोध है।
इसे करने की
जरूरत नहीं, सिर्फ
देखने की
जरूरत है। यह
ऐसे ही है, जैसे
किसी आदमी के
खीसे में हीरा
पड़ा हो और उसे
पता न हो और वह
सडक पर भीख
मांग रहा हो, और तब अचानक
कोई उसे याद
दिला दे कि तू
क्यों भीख
मांग रहा है
पागल, तेरे
खीसे से तो
किरणें
निकलती मालूम
पड रही है, लगता
है खीसे में
हीरा है। और
वह खीसे में
हाथ डाले और
हीरा बाहर आ
जाए। बस, ऐसा
है।
तुम्हारे
भीतर शिवत्व
तो बैठा ही
हुआ है। वह
तुम्हारा सदा
का खजाना है।
उसे पाने के
लिए देर नहीं
करने की जरूरत
है, सिर्फ
आंख मोड़कर
देखने की
जरूरत है। अगर
वह कहीं
भविष्य में
होता, तो
फिर कठिनाई थी,
फिर समय
लगता, जन्म—जन्म
लगते, पहुंचते।
वह तुम्हारे
भीतर है।
इसलिए शिवत्व
को पाना नहीं
है, केवल
आविष्कृत
करना है; सिर्फ
उघाड़ना है—जैसे
कोई प्याज के
छिलकों को उघाड़ता
चला जाए। फिर
क्या घटता है?—एक—एक छिलका
निकलता है, दूसरा छिलका
सामने आ जाता
है। उघाड़ते ही
चले जाओ, उघाडते
ही चले जाओ, एक घड़ी आएगी,
जब सब छिलके
निकल जाएंगे,
सिर्फ
शून्य हाथ
लगेगा। ऐसे ही
आदमी के ऊपर
छिलके हैं। और
शिवत्व
तो शून्य जैसा
है। इन छिलकों
को हम थोड़ा
समझ लें, तो
उघाड़ने की
आसानी हो जाए
तो तुम्हारा
जीवन भी शिव जैसा
हो जाए और
तुम्हारा बोलना
भी जप हो जाए।
पहली
पर्त क्या है? पहली
पर्त शरीर की
है। और अधिक
लोग इस पहली
पर्त से ही
अपने को एक
मानकर जी लेते
हैं। वे ऐसे
ही है जैसे
किसी महल की
सीढ़ियों पर
बैठकर जी रहे
हों, उन
सीढ़ियों को ही
घर बना लेते
है। उन्हें
पता ही नहीं
कि सीढ़ियां
घर नहीं है, सिर्फ घर तक
पहुंचने का
उपाय है। वे
वहीं खाते हैं,
पीते हैं, भोजन बनाते
हैं, शादी—विवाह
करते है, बच्चे
पैदा करते है।
और उनके
बच्चों को तो
महल का पता ही
न चलेगा, क्योंकि
वे सीढ़ियों पर
ही पैदा होंगे;
वही उनका घर
होगा, वे
वहीं रहेंगे।
वे कभी लौटकर
पीछे की तरफ देखते
भी नहीं कि ये सीढ़ियां
हैं और हम
पोर्च में ही
जीवन बिता रहे
है, महल
पीछे है। वे
कभी द्वार पर
दस्तक भी नहीं
देते। और
जन्मों—जन्मों
से दस्तक नहीं
दी है। द्वार
करीब—करीब जाम
हो गया है।
शायद द्वार
दीवाल जैसा ही
लगने लगा है।
अब कुछ पता
नहीं चलता, कहां द्वार
है।
पहली
पर्त है शरीर
की और शरीर
में ही तुम जी
लेते हो। वह
एक तादात्म्य
है, जिससे
लगता है कि
मैं शरीर हूं।
शरीर मेरा है,
मैं नहीं; और 'मेरा'
कभी भी 'मैं'
नहीं हो
सकता। जो भी
मेरा है, वह
मेरे हाथ में
हो सकता है
लेकिन 'मैं'
नहीं हूं।
तुम्हारा पैर
कोई काट दे, तो भी तुम न कटोगे, पैर
ही कटेगा।
तुम्हारा
शरीर अगर होते
तुम, तो
पैर कट जाने
पर तुम्हें
लगता कि अब
मैं कुछ कम हो
गया; एक
पैर कट गया, इतना मै कम
हो गया। लेकिन
पैर कट जाए, आंखें चली
जायें, कान
खो जायें, हाथ
टूट जायें, तुम्हारे पूरेपन
में जरा भी
अंतर नहीं पड़ता।
शरीर अपंग हो
जाता है, लेकिन
तुम पूरे ही
होते हो।
इसलिए
शायद कुरूप से
कुरूप आदमी भी
भीतर अपने को
कुरूप नहीं
मान पाता; क्योंकि
भीतर तो तुम
सुंदर ही होते
हो। शायद
इसीलिए कुरूप
से कुरूप आदमी
भी राजी नहीं
हो पाता कि
मैं कुरूप हूं।
और पापी से
पापी आदमी भी राजी
नहीं हो पाता
कि मैं पापी
हूं। बुरे से
बुरा आदमी भी
एक भीतरी झलक
से भरा रहता
है कि मैं शुभ
हूं। बुरे से
बुरे आदमी को
भी तुम गौर से
देखो तो वह यही
कहता है कि हो
गयी भूल, लेकिन
मैं कोई बुरा
आदमी नहीं हूं
हो गयी गलती, लेकिन मैं
कोई बुरा आदमी
नहीं हूं। वह कृत्य
को गलत मान
सकता है, लेकिन
खुद को गलत
नहीं मान सकता
है। वह ठीक है।
उसे पता नहीं
है कि क्यों
ऐसा लगता है।
आसपास
तुम्हारे
परिवार में, पड़ोस में,
गांव में, लोग मरते
हैं; लेकिन
तुम्हें कभी
ऐसा नहीं लगता
है कि मैं मरूंगा।
जरूर कोई गहरी
बात होनी
चाहिए क्योंकि
घटना इतनी
घटती है कि यह
प्रतीति न आये
कि मैं मरूंगा
बड़ी हैरानी की
है। जब सभी मर
रहे हैं, तब
भी तुम्हें यह
चोट गहरी नहीं
बैठती मन में कि
मैं भी मरूंगा।
अगर कोई समझाये
भी तो भी तुम
सोचते हो कि
हो सकता है, लेकिन भीतर
कोई अहर्निश
ध्वनि गूंजती
रहती है कि और
दूसरे ही
मरेंगे, मैं
नहीं मरूंगा।
अन्यथा जीना
मुश्किल हो
जाए। जहां
मृत्यु इतने
जोर से घटती
हो; जहां
हर आदमी क्यू में
खड़ा हो मरने
के; जहां
तुम भी क्यू
में खड़े हो, वहां भी तुम
इस मौज से
जीते हो, जैसे
शाश्वत जीवन
है। कुछ भीतरी
कारण है। और
कारण यह है कि
भीतर जो है, वह कभी मरनेवाला
नहीं है। तुम
कितने ही शरीर
के साथ जुड़
गये हो, तो
भी तुम शरीर
नहीं हो गये
हो। वह भीतर
की सच्चाई, तुम कितनी
ही झुठलाओ, झूठ नहीं हो
सकती। कितना
ही नशा हो, तो
भी भीतर का
स्वर—सत्य का
स्वर—गूंजता
ही रहता है।
मैंने
एक दिन सुबह
मुल्ला नसरुद्दीन
को घर के बाहर
बैठे देखा।
खिलखिला कर
हंस रहा था।
बड़ा ही आनंदित, आह्लादित
है। मैने पूछा
कि क्या हुआ नसरुद्दीन,
ऐसे खुश तुम
कभी दिखाई न
पड़े? उसने
कहा 'गजब
हो गया। पर
तुम समझ न
सकोगे, जब
तक मैं पूरी
कथा न कहूं।’ मैने कहा कि
तुम पूरी कथा
ही कहो। उसने
कहा: 'हम दो
भाई थे। जुड़वां
पैदा हुए। एक—सी
शक्लें थीं।
कोई भी फर्क न
कर पाता था कि
कौन कौन है।
और जिंदगी भर
मैं नुकसान
में रहा।
स्कूल में
मेरा भाई किसी
को पत्थर मार
देता, तो
सजा मुझे
मिलती। वह
चोरी कर लेता,
पकडा मैं जाता।
घर में भी यह
हालत थी।
उपद्रव वह
करके आता, मोहल्ले
के लोग मुझे पकड़कर ले
आते। और आखिरी
उपद्रव तो तब
हुआ कि एक
लड़की से मेरा प्रेम
था, वह
उसको लेकर भाग
गया।’ तो
मैंने कहा कि
इसमें तुम
प्रसन्न
क्यों हो रहे
हो। नसरुद्दीन
ने कहा कि 'लेकिन,
सात दिन
पहले सब हिसाब—किताब
चुकता हो गया।
मैं मर गया और
लोगों ने उसको
दफना दिया।’
इतनी
बेहोशी किसी
को भी नहीं है।
तुम कितने ही जुड़वां हो
तो भी ऐसी भूल
न हो सकेगी। नसरुद्दीन
भयंकर शराब
पीये बैठा था।
तुमने
भी बड़ी शराब
पी रखी है, बहुत
जन्मों से; लेकिन फिर
भी इतनी शराब
कभी नहीं हो
पाती कि तुम्हारे
होश को पूरा डुबा दे।
तुम्हारा होश
उभर—उभरकर
बाहर आ जाता
है। कहीं तुम
जानते ही हो
भीतर कि तुम न
मरोगे। सब
तथ्य कहते हैं
कि मृत्यु
घटेगी। फिर भी
तुम भरोसा
किये जाते हो
कि मैं न
मरूंगा।
तुम
ऐसे ही जीते
हो जैसे सदा
यहां जीना है।
इसलिए बहुत—सी
भूलें होती
हैं। मजबूत
मकान बनाते हो
जैसे सदा यहां
रहना है।
तुम्हारी
भूलों में भी
कहीं न कहीं
कोई सच्चाई की
झलक होगी ही,नहीं तो
ये भूलें बंद
हो जातीं। तुम
मकान ऐसे ही
बनाते हो जैसे
सदा रहना है।
मजबूत
दीवालें
उठाते हो, पत्थर
की नींव भरते
हो, और
तुम्हें पता
नहीं कि कल मर
जाना है। और
सब मरते है, तुम भी
मरोगे, यह
सीधा—साफ गणित
है; लेकिन
फिर भी भीतर
कोई शाश्वत है,
इसलिए
तुम्हारी हर
स्थिति में उस
शाश्वत की झलक
पड़ती है।
शरीर
तुम्हारा है, तुम नहीं।
शरीर में तुम
हो, लेकिन
शरीर ही तुम
नहीं हो। शरीर
पहली पर्त है,
जिससे
तादात्म्य
हो गया है।
उसके साथ तुम
बहुत दिन तक
रहे हो, जोड़
हो गया है; जुड़वां
हो, साथ—साथ
पैदा हुए हो।
इसलिए
तुम्हें भी
भूल हो जाती
है कि कौन कौन
है; शक्ल
पहचान नहीं
पाते। और इस
भूल को साथ
मिलता है, क्योंकि
बाहर से देखने
वाले केवल
तुम्हारे शरीर
को देखते हैं,
तुम्हें
नहीं देखते।
वे तुम्हारे
शरीर के चेहरे
को तुम्हारा
चेहरा मानते
है। वे
तुम्हारे
शरीर की आकृति
को तुम्हारी
आकृति मानते
हैं। और वे
बहुत हैं, तुम
अकेले हो। वे
सभी तुम्हारे
शरीर को ही
तुम्हें
मानते हैं। उन
सब की प्रतीति
भी तुम्हें
प्रभावित
करती है। अगर
तुम्हारा
शरीर कुरूप है,
तो वे कहते
है कि तुम
कुरूप हो। अगर
शरीर सुंदर है,
तो वे कहते
हैं कि तुम
सुंदर हो। अगर
शरीर बूढ़ा है,
तो वे कहते
हैं कि तुम
बूढ़े हो। अगर
शरीर जवान है,
तो वे कहते
हैं कि तुम
जवान हो। और
इन सबकी
संख्या बड़ी है।
तुम अकेले हो।
वे बहुत हैं; उन सबकी
प्रतीति भी
तुम्हें इस
भाव को गहराती
है कि तुम
शरीर हो।
उनमें से कोई
भी तुम्हारी
आत्मा को नहीं
देखता।
बड़ी
पुरानी
उपनिषदों में
कथा है कि
सम्राट जनक ने
पंडितों की एक
बड़ी सभा
बुलायी; सभी आत्मज्ञानियों
को निमंत्रण
भेजे। और वह
चाहता था कि
परम सत्य के
संबंध में कुछ
उद्घाटन हो
सके। और जो भी
परम सत्य को
उद्घाटित
करेगा, उसको
उसने बहुत
धनधान्य भेंट
करने के लिए
आयोजन किया था।
लेकिन ये
निमंत्रण भी
उन्हीं को
पहुंचे, जो
ख्यातिनाम
थे—स्वभावत:
जिनके हजारों
शिष्य थे; जिनको
लोग जानते थे;
जिन्होंने
शाख लिखे थे; जिनके
पांडित्य की
चर्चा थी; जो
वाद—विवाद में
कुशल थे—उनको
ही निमंत्रण
पहुंचे। एक
आदमी था, उसे
निमंत्रण
नहीं मिला।
शायद जानकर ही
निमंत्रण
नहीं दिया गया।
उस आदमी का
नाम था—अष्टावक्र।
उसका शरीर आठ
जगह से टेढ़ा
था। उसे देखकर
ही अप्रीतिकर
अनुभव होता था,
विकर्षण
होता था। और
ऐसे शरीर में
कहीं
आत्मज्ञानी
हो सकता है!
अष्टावक्र के
पिता को
निमंत्रण
मिला था। कुछ
काम आ गया, तो
अष्टावक्र
अपने पिता को
बुलाने जनक के
दरबार में चला
गया। वह जब
अंदर घुसा, तो पंडितों
की बडी संख्या
इकट्ठी थी, वे सब उसे
देखकर हंसने
लगे। वह हंसने—योग्य
था। उसका शरीर
निश्चित ही
कुरूप था—आठ
जगह से टेढा।
चले तो ऐसा
लगे कि मजाक
कर रहा है।
बोले तो ऐसा
लगे कि वह कुछ
व्यंग कर रहा
है। वह
कार्टून था, आदमी नहीं
था। वह सर्कस
में जोकर हो
सकता था।
लेकिन जब सारे
लोग उसे देखकर—उसकी
चाल और ढंग को,
ऊंट जैसा
आदमी—हंसने
लगे, तो वह
भी खिलखिलाकर
हंसा। उसकी
खिलखिलाहट की
हंसी ने सभी
को चुप कर
दिया।
सभी
हैरान हुए कि
वह क्यों हंस
रहा है। और
जनक ने पूछा
कि 'ये
लोग क्यों हंस
रहे हैं, वह
तो मैं समझा, अष्टावक्र!
लेकिन तुम
क्यों हंसे?'
अष्टावक्र
ने कहा: 'मैं इसलिए
हंसा कि इन
चमारों की सभा
को तुमने पंडितों
की सभा समझा
है। ये सब
चमार हैं।
इनको शरीर ही
दिखाई पड़ता है,
चमड़ी ही
दिखाई पड़ती है।
मैं जो कि
यहां सबसे
सीधा हूं वह
इन्हें अष्टावक्र
दिखाई पड़ रहा
है। और ये सब
तिरछे हैं! और
तुम इनसे अगर
ज्ञान की आशा
रख रहे हो जनक,
तो तुम रेत
से तेल निचोड़ने
की कोशिश कर
रहे हो। ज्ञान
चाहिए हो तो
मेरे पास आ
जाना!'
और
अष्टावक्र ने
ठीक कहा।
लेकिन यह होता
है; क्योंकि
बाहर की आंख
बाहर को ही
देख सकती है।
तुम भी
बाहर की आंख
से परेशान हो, क्योंकि
सभी तरफ आंखें
ही आंखें हैं,
और वे सब
तुम्हारे
शरीर को देखती
है। शरीर
सुंदर हो तो
तुम सुंदर, शरीर कुरूप
हो तो तुम
कुरूप। और उन
सबका इतना
शोरगुल है
चारों तरफ, और उनकी
धारणा मजबूत
है; क्योंकि
बहुमत उनका है।
तुम हमेशा
अल्पमत हो, इकाई हो और
वे बहुत है।
उनसे अगर तुम
हार जाते हो
तो आश्चर्य
नहीं है। तुम
भी अपने को
मान लेते हो
कि मैं शरीर
हूं तो आश्चर्य
नहीं है। आश्चर्य
तो तब होता है
जब तुम इन
लोगों की आंखों
से बच पाते हो
और पहचान पाते
हो कि मैं
शरीर नहीं हूं।
समाज
से मुक्त होने
का यही अर्थ
है। समाज से
मुक्त होने का
अर्थ हिमालय
चले जाना नहीं
है। समाज से
मुक्त होने का
अर्थ है—चारों
तरफ से भीड़ की आंखें
जो तुमसे कहती
हैं, उनसे
मुक्त हो जाना।
यह बहुत कठिन
है। क्योंकि
जब सभी लोग एक
ही बात
दोहराते हैं,
तो निरंतर
दोहराने से
असत्य भी सत्य
जैसे भासने
लगते हैं। तुम
कितने ही
स्वस्थ होओ, अगर पूरा
गांव तय कर ले
कि वह दोहरायेगा
कि तुम बीमार
हो और जहां से
तुम निकलोगे,
लोग कहेंगे
कि तुम बीमार
हो, तुम
जल्दी ही
बीमार हो
जाओगे।
क्योंकि यह
महा मंत्र हो
जायेगा, यह
सजेशन हो
जायेगा। इतने
लोग कह रहे है
तो बचना बहुत
मुश्किल होगा।
सारी
दुनियां नया
कहती है कि
तुम शरीर हो।
आदमी ही नहीं, कंकड़, पत्थर, जमीन,
आकाश—सब
कहते है कि
तुम शरीर हो।
एक कांटा भी चुभेगा तो
आत्मा में तो चुभेगा
नहीं, शरीर
में चुभेगा।
एक पत्थर कोई
फेंककर
मारेगा तो खून
आत्मा से तो
नहीं बहेगा, शरीर से
बहेगा। कंकड़,
पत्थर, कांटे,
जमीन, आसमान—स्ब कह रहे
है कि तुम
शरीर हो। इतनी
बड़ी
पुनरुक्ति को
खंडित करना
बड़ा कठिन है!
और तुम
अकेले हो; सबके
खिलाफ तुम
अकेले हो।
क्योंकि
तुम्हीं केवल
भीतर हो, बाकी
सभी तुमसे
बाहर है। और
उनके कहने में
कुछ भूल नहीं
है; क्योंकि
उन्हें
तुम्हारा
शरीर दिखाई
पड़ता है, पर्त
दिखाई पड़ती है—तुम्हारे
पड़ोसियों
को तुम्हारे
घर की फेंसिंग
दिखाई पड़ती है;
तुम्हारे
घर का अंतःकक्ष
नहीं दिखाई
पड़ता। वे
समझते हैं कि
यह फेंसिंग
ही तुम्हारा
घर है। उनका
समझना ठीक है।
लेकिन तुम भी
इसे मान लेते
हो, वहां
भांति हो जाती
है। समाज से
मुक्त होने का
अर्थ है कि
बाहर की आंखों
का जो प्रभाव
तुम पर पड़ रहा
है, उससे
मुक्त होना।
समाज की आंखों
से जो मुक्त
हो गया, उसे
साफ दिखाई
पड़ने लगेगा कि
शरीर के भीतर
मैं हूं लेकिन
मैं शरीर नहीं
हूं।
पहली
पर्त को तोड़ना
शुरू करो।
धीरे— धीरे इस
स्मरण को प्रगाढ़
करो कि मैं
शरीर नहीं हूं।
इसे अनुभव में
उतारो।
सिर्फ
दोहराने से न
होगा। जब
कांटा चुभे, तब स्मरण
रखना कि कांटा
पैर में चुभा,
पीड़ा पैर
में होती है, मै
देखनेवाला
हूं। कांटा
मुझमें चुभ
भी नहीं सकता।
पीडा मेरे
भीतर हो भी
नहीं सकती।
मैं सिर्फ
जाननेवाला
प्रकाश हूं।
इसलिए जब तुम
अचेतन हो जाते
हो तो कांटे
की चुभन पता
नहीं चलती। और
डाक्टर को
आपरेशन करना
हो तो
अनस्थीसिया
देता है, बेहोश
कर देता है—फिर
पैर काटे, हाथ
काटे, पूरा
शरीर काट डाले,
टुकड़े—टुकड़े
कर दे, तो
भी तुम्हें
पता नहीं चलता।
अगर
तुम शरीर होते
तो तुम्हें
पता चलता? लेकिन
तुम शरीर नहीं
हो, तुम
होश हो और
डाक्टर ने होश
और शरीर का
संबंध तोड़
दिया 1 उसने
तुम्हें
बेहोश कर दिया।
अब तुम्हारे
शरीर के साथ
कुछ भी किया
जाये, तो
तुम्हें कुछ
भी पता न
चलेगा।
जिन
लोगों ने जीवन
और मृत्यु पर
गहरे प्रयोग किये
हैं, उनका
अनुभव है और
मैं भी उनके
अनुभव को
गवाही देता
हूं कि जब तुम
मर जाते हो, तो तुम्हें
दो—चार दिन तक
पका पता नहीं
चलता कि तुम
मर गये हो।
आमतौर से तीन
दिन लग जाते
हैं तुम्हें
पता चलने में
कि तुम मर गये
हो। क्योंकि
मृत्यु घटती
है बेहोशी में,
शरीर छूट
जाता है बाहर
का। लेकिन ठीक
शरीर की आकृति
का एक भीतरी
शरीर है तुम्हारा—मनोशरीर, वह तुम्हारे
साथ रहता है।
तीन
दिन लग जाते
हैं कम—से—कम, ज्यादा
भी लग जाते
हैं, तब
धीरे— धीरे
तुम्हें समझ
में आना शुरू
होता है कि तुम
मर गये हो।
अन्यथा तुम
भटकते हो अपने
घर के आसपास, अपने
मित्रों के
पास, पत्नी—बच्चों
के पास। तीन
दिन तक आत्मा
आसपास भ्रमण
करती है।
हैरान होती है
कि मामला क्या
हो गया! कोई
मुझे देखता
नहीं, कोई
पहचानता नहीं।
तुम द्वार पर खडे हो और
तुम्हारी
पत्नी रोती
निकल जाती है
और तुम्हें
पता नहीं चलता
कि हो क्या
गया; मामला
क्या हो गया? क्योंकि तुम
पूरे—के—पूरे
हो, कुछ
कमी नहीं हो
गयी। शरीर के
हटने से कुछ
भी कमी नहीं
होती—जैसे
कपड़े किसी ने
उतार कर रख
दिये। अगर
कपड़े तुम उतार
दो तो नग्र
तुम खड़े हो
जाओगे, क्या
बदल गया? तुम
तो वही रहोगे।
और फिर इससे
भी सूक्ष्म
शरीर
तुम्हारे साथ
रहता है—यही
आकार, यही
प्रतीति—समय
लग जाता है।
मरकर एकदम से
तुम्हें पता
नहीं चलेगा कि
तुम मर गये हो।
तिब्बत
में बारदो नाम
की प्रक्रियाएं
है। मरते हुए
आदमी को बौद्ध
भिक्षु बारदो
की प्रक्रिया
करवाते हैं।
जब वह मर रहा
होता है, तब वे उसे सब
सुझाव देते
हैं कि— 'देख,
अब तेरा
शरीर छूट रहा
है। अब तू
स्मरण से भर
कि तेरा शरीर
छूट रहा है।
अभी यह देह हट
जायेगी। तू
स्मरण कर। तू
होशपूर्वक मर
कि अब तेरे
साथ जो देह है,
वह देह
भौतिक देह
नहीं है, सूक्ष्म
देह है। अब
तूने शरीर छोड़
दिया। अब तेरे
सामने विकल्प
हैं कि तू किस
तरह के गर्भ
को ग्रहण करे।
ऐसे सब सुझाव
बारदो की
प्रक्रिया
में मरते हुए
आदमी को दिये
जाते हैं।
और
तिब्बत ने
जितनी गहरी
खोज मृत्यु के
संबंध में की
है, किसी
दूसरी जाति ने
नहीं की। आदमी
मर रहा है और
भिक्षु यह
सुझाव दे रहा
है। आखिरी
क्षण तक जब
शरीर छूट रहा
है तब तक वह
सुन रहा है
भिक्षु को।
यहां आदमी मर
जायेगा और
भिक्षु बोले
चला जायेगा।
तुम कहोगे कि
अब तुम किससे
बोल रहे हो; अब बंद करो, आदमी तो मर
गया। लेकिन
भिक्षु अभी
बोले चला
जायेगा; क्योंकि
अब तुम्हें मर
गया है आदमी, भिक्षु को
अभी भी नहीं
मर गया। और यह
आदमी अभी भी
सुन रहा है, क्योंकि
इससे कोई भी
फर्क नहीं पड़ता
कि शरीर छूट
गया; यह
अभी भी सुन
रहा है।
और
इसके अगले
जन्म को
प्रभावित
किया जा सकता
है कि कैसा
गर्भ ग्रहण
करे। और इसे
इस जन्म के
मोह और आसक्ति
से मुक्त किया
जा सकता है।
और इन क्षणों
में इस आदमी
को पूरी याद
दिलाई जा सकती
है कि तू शरीर
नहीं है, जो कि और
किसी क्षण में
याद दिलाना
बहुत कठिन है—क्योंकि
अब यह पायेगा
कि मैं हूं और
शरीर अलग पड़ा है।
अब भिक्षु
कहेगा कि 'देख
अब तू ऊपर है
और शरीर नीचे
पड़ा है; गौर
से देख! इसी
शरीर के साथ
तूने अपने को
एक समझ रखा था।
और अब तेरे
मित्र, प्रियजन
इस शरीर को
मरघट ले
जायेंगे और तू
पीछा कर। वहां
तू इसे जलते
देख। वहां यह
राख हो जायेगा,
फिर भी तेरे
होने में रत्तीभर
कमी नहीं पड़ती।
स्मरण रखना
इसको आगे की
यात्रा में।
दुबारा शरीर
के साथ ग्रस्त
मत होना। अगले
जन्म में पहले
ही क्षण से
स्मरण रखना कि
तू शरीर नहीं
है। सब कहेंगे
कि तू शरीर है,
लेकिन तू
अपनी स्मृति
को मत खोना।
तू अपनी
स्मृति को
उनके सुझाव से
ढकने मत देना।
काश!
तुम लोगों के
सुझाव फेंक
सको तो आत्मज्ञान
बहुत दूर नहीं
है।
पिकासो बहुत
बड़ा चित्रकार
हुआ। इस सदी
में उसका कोई
मुकाबला नहीं।
लेकिन सलाह
देनेवाले तो
उसके पास भी
पहुंच जाते थे।
सलाह देने
वालों की कोई
कमी नहीं।
क्योंकि सच तो
यह है कि बिना
मांगी सलाह
सिर्फ छू देता
है। ज्ञानी की
सलाह लेनी हो
तो बड़ी मेहनत
करनी पड़ती है, मांगनी
पड़ती है, अर्जित
करनी पड़ती है।
सिर्फ छू बिना
मांगे सलाह
देता है। और
अच्छा ही है
कि लोग एक
दूसरे की सलाहें
नहीं मानते, नहीं तो बड़ी
मुसीबत में पडे। तो दुनिया
में सबसे
ज्यादा चीज जो
दी जाती है, वह सलाह है।
और जो सबसे कम
चीज ली जाती
है, वह भी
सलाह है।
पिकासो के घर
लोग आते।
जिनको अ, ब, स भी
नहीं आता
चित्रकला का,
वे भी उसको
कहते कि जरा
इसमें रंग ऐसा
लगाया होता।
यह चित्र अगर
जरा ऐसा बनाया
होता! इसकी
पृष्ठभूमि
अगर दूसरे रंग
की होती! पिकासो
थक गया इन छो
के साथ बातचीत
करते—करते। तो
उसने क्या
किया? —वही
तुम करो। उसने
एक खूबसूरत
पेटी बनायी और
उस पर लिखा 'सजेशन—बॉक्स', 'सुझाव
की पेटी, ''सुझाव—पेटिका'
और उसके ऊपर
लिखा कि कृपा
करके आपके जो
भी हों, सुझाव
लिखकर इसमें
डाल दें। यहां
तक तो ठीक था, लेकिन उसके
नीचे कोई
तलहटी नहीं थी
और उसके नीचे
उसने कचरे की
टोकरी रखी हुई
थी। लोग बड़ी
खुशी से, कि
उनके सुझाव का
बड़ा मूल्य है,
पिकासो की पेटी में
डाल जाते
सुझाव, और
सुझाव कचरे की
टोकरी में
सीधे पहुंच
जाते। वह उनको
कभी पढ़ता भी
नहीं था। यही
तुम करना।
अगर
तुम समाज से
मुक्त होना
चाहो—और वही
संन्यास का
अर्थ है—तो
लोगों के
सुझावों से
मुक्त होना; क्योंकि
वे बाहर हैं, उनके सभी
सुझाव बाहर के
होंगे और भीतर
के ज्ञान में
बाधा बनेगी।
तुम उनकी
सुनना ही मत।
अगर तुम भीतर
के परमात्मा
की सुनना चाहो
तो तुम समाज
से बचना। अगर
भीतर की आवाज
सुननी हो तो
बाहर की आवाजों
के लिए बिलकुल
द्वार बंद कर
देना। अन्यथा
बाहर की
आवाजें इतनी
विकराल हैं और
इतनी तेज है
कि भीतर की
धीमी—मंद आवाज
खो जायेगी; वह तुम्हें
सुनायी न
पड़ेगी। वह
प्रतिपल
निनादित हो
रही है, लेकिन
तुम बाजार में
खड़े हो। वहां
बड़ा शोरगुल है।
पहली पर्त
है शरीर, और एक ही
चाबी है। इसको
कहना चाहिए
मास्टर की; इससे सभी
ताले खुल जाते
हैं क्योंकि
ताले एक ही
जैसे हैं।
चाबी है कि
शरीर के प्रति
तुम होश से
भरना। चलो तो
देखना कि शरीर
चल रहा है, मैं
नहीं। भूखे हो
जाओ तो देखना
कि शरीर को
भूख लगी है, मुझे नहीं।
प्यासे हो जाओ
तो देखना कि
प्यास शरीर
में है, मुझमें
नहीं। यह होश
कायम रखना।
तुम धीरे—धीरे
पाओगे कि यह
होश तुम्हारे
और तुम्हारे शरीर
के बीच में
खाई पैदा करने
लगा। जैसे—जैसे
यह होश सघन
होगा, फासला
बड़ा होगा—और
अनंत फासला है
तुममें और
शरीर में, अनंत
दूरी है। जैसे—जैसे
तुम्हारा होश
गहरा होगा, बीच का सेतु
टूटेगा, संबंध
विच्छिन्न
होगा और एक
दिन तुम प्रगाढ़
रूप से देख
पाओगे कि शरीर
सिर्फ खोल है;
तुम जीवन हो,
शरीर
मृत्यु है; शरीर पदार्थ
है, तुम
चैतन्य हो।
शरीर अणुओं का
खेल है, अणुओं
का जोड़ है; आज
है कल नहीं
होगा; परिवर्तनशील
है। तुम किसी
के जोड़ नहीं
हो; तुम
चैतन्य हो—
अखंड; सदा
थे, सदा
रहोगे।
जैसे
ही शरीर का
पहला प्याज का
छिलका अलग
किया कि दूसरा
छिलका ऊपर आ
जायेगा। वह
दूसरा छिलका
है—तुम्हारा
मन। वह बीमारी
और गहरी है; क्योंकि
शरीर काफी दूर
है, मन
काफी निकट है।
शरीर अगर अणुओं
का जोड़ है तो
मन विचारों का।
शरीर अगर
पदार्थ है, तो मन
सूक्ष्म
पदार्थ है।
विचार भी
सूक्ष्म
ध्वनियां है।
ध्वनि पदार्थ
है। लेकिन
विचार और भी
करीब हैं। तुम
उनसे ऐसे मसे
हो—कपड़े जैसे
नहीं; शरीर
अगर कपड़े जैसा
है, तो
विचार चमड़ी
जैसे हैं।
तुम्हारी
चमड़ी जैसे करीब
है—कपड़े से
ज्यादा करीब
है—ऐसे विचार
हैं। और उनसे
छुटकारा और भी
मुश्किल है; क्योंकि
तुम्हें सदा
यह भ्रांति
रही है कि ये विचार
तुम्हारे है।
तुम अक्सर
लड़ते हो कि यह
मेरा विचार है।
और तुम अपने
विचार को, सही
हो चाहे गलत, सही करने की
कोशिश करते हो,
सिद्ध करने
की कोशिश करते
हो; क्योंकि
तुम्हें डर
लगता है कि
अगर तुम्हारा विचार
गलत हुआ तो
तुम गलत हो
गये।
शरीर
के साथ
तुम्हारा
तादात्म्य
इतना नहीं है, जितना
विचार के साथ
है। अगर किसी
आदमी से कहो
कि तुम्हारा
शरीर रुग्ण है,
चिकित्सक
के पास चले
जाओ, तो वह
बुरा नहीं मानेगा;
लेकिन किसी
से कहो कि
तुम्हारा मन
बीमार है, किसी
मनोचिकित्सक
के पास चले
जाओ, तो वह
फौरन नाराज हो
जायेगा। किसी
को बीमार कहो
तो हर्जा नहीं,
लेकिन किसी
को पागल कहो
तो झगड़ा
हो जायेगा।
क्योंकि शरीर
से तो एक
फासला है, लेकिन
मन से हमारा
तादात्म्य
बहुत गहरा है।
जब कोई कहता
है—पागल हो, तो हमें
लगता है, 'मैं
पागल हूं, क्या
कह रहे हो? कोई
पागल मानने को
यह राजी नहीं
हो सकता कि मैं
पागल हूं। तुम
ही पागल होओगे,
क्योंकि मन
के विचार धुएं
की तरह
तुम्हें चारों
तरफ से घेरे
हुए हैं। और
जब तक ये
विचार
तुम्हें घेरे
हैं, तुम्हारी
आंखें अंधी
रहेंगी। तो
दूसरा कठिन
प्रयोग—कठिन तपश्रर्या
है—विचार के
प्रति जागना
कि कोई भी
विचार—कोई भी
विचार—वह सुखद
हो, दुखद
हो; सच हो, झूठ हो; शास्त्र
में हो, न
हो; परम्परागत
हो, गैरपरम्परागत हो—मै नहीं
हूं। विचार भी
उधार हैं। सभी
विचार उधार
हैं। वे भी
समाज ने
तुम्हें दिये
हैं। वे भी
दूसरे से
तुम्हें मिले
हैं। सीखा है
उन्हें तुमने।
तुम तो वह हो, जो अनसीखा
तुम्हारे
भीतर आया है।
तुम चैतन्य
मात्र हो, विचार
नहीं। विचार
तो तुम्हारे
ऊपर तरंगों की
भांति हैं; जैसे कूड़ा—कर्कट
नदी के ऊपर
तैर रहा हो, ऐसे विचार है।
तुम तो नदी हो।
तुम तो चैतन्य
की धारा हो।
तो फिर
धीरे— धीरे
विचारों की
पर्त को भी
उघाड़ना है।
और जब कोई
विचार
तुम्हें पकड़े
तो स्मरण रखना
कि यह मैं
नहीं हूं यह
भी बाहर की
धूल है। जैसे
दर्पण पर धूल
जम जाये, ऐसे विचार
तुम पर जम गये
हैं। और किसी
विचार को इतना
अपना मत मानना
कि उसके लिए
लड़ने को खडे
हो जाओ। अगर
लोग विचार से
अपना संबंध
तोड़ लें तो दुनिया
में सारे
युद्ध बंद हो
जायें। सारा
युद्ध और
उपद्रव, सारी
हिंसा, विचार
के साथ
तादात्म के
कारण है। कोई कश्वइनस्ट
है, कोई
समाजवादी है,
कोई जनसंघी
है, कोई
हिंदू है, कोई
मुसलमान है, कोई जैन है—सब
विचार के साथ
तादात्म कर
लिये हैं। तुम
सिर्फ
परमात्मा हो;
न तुम हिंदू
हो, न तुम
जैन हो, न
तुम बौद्ध हो,
न मुसलमान
हो। तुम्हारा
शुद्ध होना शिवत्व है।
लेकिन
तुम सस्ते में
उलझ जाते हो।
तुम्हें लगता
है, हिंदू
होना ज्यादा
कीमती है बजाय
परमात्मा
होने के; मुसलमान
होना ज्यादा
कीमती है। और
तुम्हारे
मुसलमान और
हिंदू होने से
सिर्फ मंदिर
और मस्जिद
लड़ते हैं और
यह जमीन धर्म
से खाली होती
है, भरती
नहीं। सब धर्म
लड़वाते
हैं; क्योंकि
सभी धर्म
विचार हो जाते
हैं। धर्म तो
सिर्फ एक है
और वह है—तुम्हारा
शिवत्व।
तुम स्वयं
परमात्मा हो।
बस उतना ही
धर्म है। वह
कभी नहीं लड़ायेगा।
क्योंकि जहां
विचार न होंगे,
वहां कैसी
लड़ाई? वहां
कैसा पक्षपात?
वहां कैसा
विरोध?
शरीर
ने तुम्हें
दूसरों से अलग
किया है; विचार ने
तुम्हें और भी
ज्यादा अलग
किया है। एक
बात समझ लेना—जो
बड़ी
विरोधाभासी
है—जिसने
तुम्हें
स्वयं से तोड़ा
है, उसने
ही तुम्हें
दूसरों से भी
तोड़ा है। शरीर
ने तुम्हें
स्वयं से तोड़ा
है। शरीर ने
ही तुम्हें
दूसरों से
तोड़ा है।
विचार ने
तुम्हें
स्वयं से और
भी बुरी तरह
तोड़ा है। उसने
तुम्हें
दूसरों से और
भी बुरी तरह
तोड़ा है। और
जिस दिन तुम
अपने स्वभाव
में
प्रतिष्ठित
हो जाओगे और न
शरीर न विचार,
दोनों
पर्तें उघाड़
कर फेंक दीं, तुम बिना
पर्त हो गये, कोई खोल न
रही, शुद्ध
जीवन रह गया—उस
दिन तुम पाओगे
कि तुम सबके
साथ एक हो गये;
क्योंकि
परमात्मा दो
नहीं है। उस
दिन तुम्हारे
भीतर का परमात्मा
और तुम्हारे
बाहर का
परमात्मा एक
हो गया। उस
दिन घटाकाश
और आकाश एक हो
गया—उस दिन घड़े
के भीतर छिपा
आकाश और घड़े
के बाहर फैला
आकाश एक हो
गया; बड़ा
गिर गया।
तादात्म्य
घड़ा है।
जैसे—जैसे
तुम पर्त उघाडते
जाओगे.। पर्त
का अर्थ है—तादात्म्य
(आइडेन्टिटी)
जो तुम नहीं
हो, उसके
साथ अपने को
एक मान लेना
तादात्म्य है।
और उस सबसे
तादात्म्य
तोड़ देना, जो
तुम नहीं हो—
ध्यान है। और
ध्यान कुंजी
है। धीरे—
धीरे वही बच
रहता है जो
तुम हो। सब
प्याज की
पर्तें उघड
जाती हैं, शून्य
हाथ में आता
है। यही शून्य
तुम्हारी
प्रभुता है, तुम्हारा शिवत्व है।
तुमने
देखा? शिव
की पिंडी हमने
बनायी है, वह
शून्याकार
है। वह जानकर
हमने बनायी है।
शिव का कोई
चेहरा नहीं है।
उन जैसी सुंदर
मूर्ति और
किसी की नहीं
है; क्योंकि
उसका कोई
चेहरा ही नहीं
है। वह सिर्फ
शून्य की
आकृति है। और
जिस दिन तुम
भीतर, भीतर,
भीतर उतरते
जाओगे, वैसे—वैसे
तुम पाओगे कि
वह शून्य की
आकृति
तुम्हारे
भीतर भी आनी
शुरू हो गयी; तुम शिव के
करीब होते जा
रहे हो। जिस
दिन तुम सिर्फ
प्रकाश के
शून्य मात्र
रह जाओगे—स्व
ज्योति, निराकार,
जिसका कोई
नाम नहीं, कोई
रूप नहीं,उस
दिन तुम जौ भी
बोलोगे वही जप
होगा। अभी तुम
जो भी बोलोगे,
वह धोखा है।
अभी तुम जो भी
बोलोगे, वह
धोखा है। अभी
तुम धर्म भी
करोगे तो
अधर्म है। अभी
तुम कुछ और कर
ही नहीं सकते।
तुम अभी एक
भूल से बचने
जाओगे तो हजार
भूल इकट्ठी कर
लोगे। अभी
सबसे बेहतर तो
यही होगा कि
तुम कुछ मत
करना, सिर्फ
तादात्म्य
तोड़ना, बस;
जागना, कुछ
करना मत।
अन्यथा तुम एक
भूल से बचने
जाते हो, दूसरी
पकड़ लेते हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
समुद्र के
किनारे बैठा
था। पास में
ही एक आदमी
बड़ा परेशान है।
आखिर उससे न
रहा गया और उस
आदमी ने कहा : 'भाई!' नसरुद्दीन से कहा : 'क्या
यह तुम्हारा
लडका है, जो
मेरे कपडों
पर रेत फेंक
रहा है? 'बड़ा
क्रोधित था वह
आदमी। नसरुद्दीन
ने कहा : 'नहीं भाई' बड़े प्यार
से, 'वह तो
मेरा भांजा है।
मेरा लड़का तो
तुम्हारा
छाता तोड़कर
तुम्हारे
जूते में पानी
भरने गया है।’
तुम
इधर सम्हालोगे, उधर बिगड़
जायेगा। तुम
अपनी भूलों से
बचने के लिए
जो कारण देते
हो, वे और
बड़ी भूलें हो
जाती हैं।
पुराने
सम्राट अपने—अपने
दरबारों में
एक—एक महामूर्ख
रखते थे ताकि
वह याद दिलाता
रहे कि
आदमी
की
बुद्धिमानी
बहुत बुद्धिमानी
नहीं है।
एक
सम्राट ने एक महामूर्ख
को रखा हुआ था।
एक दिन अचानक
सम्राट दर्पण
के सामने खड़ा
था, महामूर्ख आया और उसने
जोर से उचक कर
लात सम्राट की
पीठ पर मारी।
वह दर्पण पर
गिर पड़ा।
सामान टूट गया।
दर्पण भी टूट
गया।
लहूलुहान हो
गया। उस
सम्राट ने कहा
'हद हो गयी।
मूर्ख मैंने
पहले भी देखे,
लेकिन तेरे
जैसा मूर्ख
नहीं देखा। यह
तूने क्या
किया? अगर
तू, जो
तूने किया है,
इसको
समझाने के लिए,
इससे भी बड़ी
मूर्खता का
कोई कारण न
बता सका, तो
फांसी लगवा
दूंगा।’ उसने
कहा. 'हुजूर,
मैं तो समझा,
महारानी
खड़ी हैं।’ यह
उन्होंने
कारण बताया! 'मैं यह
नहीं समझा कि
आप खड़े हैं, मैं समझा कि
महारानी खड़ी
हैं।’ सम्राट
को उसे छोड़ना
पड़ा, क्योंकि
कारण उसने और
भी खतरनाक
बताया।
तुम
जहां हो, अंधेरे में खडे हो।
तुम एक भूल
करते हो, उसे
सम्हालने के
लिए, तुम
जो भी कारण
खोजते हो, दूसरी
भूल हो जाती
है। और ऐसा
भूल का एक
वर्तुल बन गया
है। दुकान से
बचने के लिए
तुम मंदिर
जाते हो; लेकिन
मंदिर पहुंच
नहीं पाते, मंदिर दुकान
हो जाता है— और
भी बड़ी दुकान!
इधर तुम बचते
हो, उधर
फंस जाते हो; क्योंकि
कारण बाहर
नहीं है, कारण
भीतर है। तुम
अंधेरे में हो;
तुम जहां भी
जाओगे, वहीं
उपद्रव खडा
होगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक बार पकड़ा
गया। जेलखाने
में पड़ा था, तो मैं
मिलने गया।
पुराना संबंध।
उसको देख आना
जरूरी है।
मैंने पूछा : 'नसरुद्दीन,
इतने
समझदार होकर
फंस कैसे गये?'
उसने कहा. 'क्या बताऊं,
चोरी में
फंस गया, लेकिन
अपनी ही भूल
के कारण।’ मैंने
पूछा. 'वह क्या
भूल है?' उसने
कहा. 'जिस सेठ के
घर में घुसे,
तीन महीने
उसके कुत्ते
से दोस्ती
बनाने में
लगाए और जब
भीतर गया तो बिल्ली
पर पैर पड़ गया।’
तुम जिंदगीभर
ऐसे ही कुत्ते
से दोस्ती
करने में
बिताते हो और
बिल्ली पर पैर
पड़ जाता है।
तुम्हारे पास आंख
नहीं है। तुम
अंधेरे में
यहां से वहां
टटोलते घूम
रहे हो। असली
सवाल यह नहीं
है कि तुम खोजो,
असली सवाल
यह है कि
प्रकाश हो।
अंधेरे में
टटोलने से तुम
कभी भी न
पहुंचोगे।
तुम, प्रकाश
हो जाये, तो
दरवाजा अभी
देख लोगे, और
निकल जाओगे।
आचरण
को बदलने में
जो लगा है, वह
अंधेरे में
टटोल रहा है।
कभी ज्यादा
खाना खाता था,
अब उपवास कर
रहा है। मगर
वह टटोल रहा
है—वही। खाने
में ही अटका
है। उपवास भी
खाने का ही एक
ढंग है। वह भी
खाने में ही
जुड़ा है।
लेकिन कुछ
फर्क नहीं पड़
रहा है। कल तक
जो कर रहा था, उससे उलटा
करने लगेगा, ज्यादा से
ज्यादा। इस
दिशा में खोज
लिया, यहां
नहीं पाया तो
उलटी दिशा में
खोजने लगेगा।
लेकिन आंख तो यहां
भी बंद थी, आंख
वहां भी बंद
रहेगी। तुम
इसलिए नहीं
भटक रहे हो कि
तुम्हारी
दिशा गलत है; तुम इसलिए
भटक रहे हो कि
तुम्हारी आंख
बंद हैं। आंख खुलनी
चाहिए। और जब आंख
कहता हूं तो
मेरा मतलब है—होश
बेहोशी टूटनी
चाहिए। होश
बढ़ना चाहिए।
सोये—सोये मत
चलो, जागो। जैसे ही
तुम जागोगे, शिवतुल्य हो जाओगे।
'और वे जो भी
बोलते हैं, वही जप है।
और आत्मज्ञान
ही उनका दान
है।’ वे धन
नहीं देते। धन
कचरा है। देने
का कोई अर्थ
भी नहीं है।
जिसको खुद ही
छोड़ा, उसे
देने का क्या
प्रयोजन! जिसे
खुद व्यर्थ
पाया, उसे
दूसरे को
बांटने में
क्या सार! वे
तुम्हारे
शरीर की सेवा
नहीं करते। वे
तुम्हें
सिर्फ एक ही
चीज दे सकते
हैं, जो
देने योग्य है,
वह आत्मज्ञान
है। वही उनका
दान है।
लेकिन
तुम देखो! तुम
हिसाब उसका
नहीं रखते।
जैनियों से
पूछो तो वे
महावीर का
हिसाब रखे हुए
हैं कि कितने
घोड़े, कितने
हाथी, कितने
रथ, कितने
हीरे—जवाहरात
उन्होंने दान
किये। और खूब
बढ़ा—चढ़ाकर
संख्या लिखी
है; उतने
उनके पास थे
भी नहीं।
क्योंकि वे एक
छोटे—से राज्य
के मालिक थे, कोई बहुत
बड़ा
साम्राज्य न
था—एक तहसील
से बड़ा नहीं।
उसमें इतने
हाथी—घोड़े हो
भी नहीं सकते,
जितनी
जैनियों ने
संख्या लिखी
है ' संख्या
से ऐसा लगता
है कि वे कोई
चक्रवर्ती सम्राट
थे, बिलकुल
भूल है।
सिक्किम के छोग्याल
जैसी हालत में,
बस उतने ही हैसियत
के आदमी थे, उससे ज्यादा
के नहीं। उस
समय
हिंदुस्तान
में दो हजार
राज्य थे। तो
तुम सोच सकते
हो डिटी—कलेक्टर
की हैसियत रही
होगी।
पर
इतनी संख्या बढ़ाकर
लिखने का क्या
कारण है? —क्योंकि
जैनियों को
लगता है कि
अगर दान छोटा
किया तो इतने
बड़े तीर्थंकर
कैसे होंगे।
संख्या बड़ी
करो, गणित
को फैलाओ, बढ़ाते
जाओ— लाखों
हाथी—घोड़े, अरबों—खरबों
के हीरे—जवाहरात—वह
इसलिए ताकि
त्याग मालूम
पड़े। लेकिन उन
अंधों को कोई
भी पता नहीं
है कि उस
त्याग से कोई
संबंध ही नहीं
है। जो असली
हीरा महावीर
ने दिया, वह
आत्मज्ञान है।
वह उसमें जोड़ा
ही नहीं गया।
तुम
वही देख सकते
हो, जहां
तुम्हारी
वासना है।
तुम्हारा रस
कहां है, वहीं
तुम्हें
दिखाई पड़ता है।
आत्मज्ञान! वह
शब्द कुछ
कीमती नहीं
दिखाई पड़ता।
अगर एक हाथ
में रखूं
आत्मज्ञान और
एक में कोहिनूर
हीरा तो तुम
पूछो अपने मन
से कि क्या
लोगे। तुम
कहोगे कि
आत्मज्ञान
फिर भी हो
जाएगा, इतनी
जल्दी क्या है।
और इतनी जल्दी
भी क्या है!
जन्म—जन्म पड़े
हैं। कोहिनूर
फिर मिला न
मिला! तुम
कोहिनूर ही
चुनोगे।
क्योंकि
तुम्हें रस ही
उसमें दिखाई
पड़ेगा, जो
व्यर्थ है।
तुम अंधे हो!
शिवतुल्य जो हो
गया है, उसका एक ही
दान है, वह
आत्मज्ञान है।
जो उसने पाया
है, वह
बांटता है। जो
उसने चखा है, वह उसका
स्वाद भी
तुम्हें देता
है। वह अपने
को ही बांटता
है। वह संपदा
नहीं बांटता,
वह स्वयं को
बांटता है। वह
तुम्हें
भागीदार
बनाता है अपनी
भीतरी संपदा
में। बाहरी
संपदा दो कौड़ी
की हो गयी है।
उसका कोई भी
मूल्य नहीं है।
तुम गरीब मरो
कि अमीर मरो, कोई बहुत
फर्क नहीं
पड़ता। तुम खा—पीकर
ठीक—से अच्छे
बिस्तर पर मरो
कि बिना खाये—पीये
सड़क पर मरो, कोई फर्क
नहीं पड़ता।
फर्क सिर्फ एक
बात से पड़ता
है कि तुम
जागते हुए जीओ
और जागते हुए
मरो। वहीं सब
चीजें टिकी
हैं। उस पर ही
तुम्हारे
सारे जीवन का
गंतव्य निर्भर
होगा। वही
निष्कर्ष तय
करेगा। बाकी
किसी बात का
कोई भी मूल्य
नहीं है।
'आत्मज्ञान
ही उसका दान
है—जो अंतस्—शक्तियों
का स्वामी है
और ज्ञान का
कारण है, क्योंकि
आत्मज्ञान ही
तुम्हें अंतस्—शक्तियों
का स्वामी बना
देगा। और
आत्मज्ञान ही
तुम्हारे
जीवन को
प्रकाश, ज्ञान,
आलोक से भर
देगा। और जिस
दिन तुम जान
सकोगे, जाग
सकोगे, उस
दिन तुम पाओगे
कि तुम सदा के
सम्राट हो।
तुमने अपने को
भिखारी कैसे
समझा, तुम हसोगे।
तुम हैरान.
होओगे कि तुम
कैसे दुख—स्वप्न
में दब गये थे।
तुमने कई बार
दुख—स्वप्न
देखे हैं—नाइटमेयर।
बस, वैसा
ही पूरा जीवन
है।
कभी—कभी
ऐसा होता है, रात तुम
सोये और छाती
पर हाथ पड़ गया।
सीधे सो जाओ
और छाती पर
हाथ पड़ जाए तो
सपना आएगा कि
कोई छाती पर
चढ़ा है। कुछ
नहीं है, तुम्हारे
ही हाथ पड़े है।
लेकिन वह तो
जागने पर पता
चलेगा। अभी
नींद में तो
लगेगा कि कोई
छाती पर चढ़ा
हुआ है।
चट्टान रख दी
छाती पर किसी
ने; कि कोई
पटक रहा है
तुम्हें पहाड़
से और तुम पसीने—पसीने
हो रहे हो, भयभीत
हो रहे हो।
उसी घबडाहट
में नींद खुल
जाएगी। तब तुम
चकित होकर
हैरान होओगे
कि अपने ही
हाथ छाती पर
पड़े हैं, न
कोई चट्टान है।
लेकिन सपने
में कितनी बढ़
जाती है बात।
सपना कैसी
अतिशयोक्ति
है! अपने ही
हाथ पहाड
और चट्टान बन
जाते हैं और
अपना ही एक
हाथ बिस्तर के
नीचे लटक गया
है तो लगता है
कि खाई में
गिर रहे हैं।
तुम
जरा प्रयोग
करके देखो।
दूसरे में
सपने जाइये जा
सकते हैं। कोई
आदमी सोया हो, उसके पैर
के पास जरा—सी
आंच ले जाओ।
जल्दी ही वह
सपना देखेगा
कि रेगिस्तान
में चल रहा है;
मरा जा रहा
है, पसीने—पसीने
हुआ जा रहा है।
या जरा—सी
बर्फ उसके पैर
में छुलाओ।
और वह समझेगा
कि पहुंच गये
एवरेस्ट पर; पैर गले जा
रहे हैं, ठंड
से मरे जा रहे
है। तकिया ही
रख दो उनकी
छाती पर—शैतान
बैठा है। उनका
ही हाथ उनकी
गर्दन में
उलझा दो—फांसी
लगी है। मगर
यह तो जागने
पर पता चलेगा।
सपना बड़ी
अतिशयोक्ति
है! जब वह जागेगा,
तो हंसेगा
कि मैं भी
कैसे परेशान
हो रहा था।
व्यर्थ ही
परेशान हो रहा
था। वहां कुछ
भी न था। एक
जरा—सा इशारा,
और मन भाग
खड़ा होता है
और न मालूम
कितनी कल्पनाएं
कर लेता है।
तुम
जिंदगी में
इतने दुख कभी
नहीं पाते, जितनी
तुम कल्पना
करते हो। वे
बीमारियां
कभी नहीं आतीं,
जिनको तुम
सोचे बैठे
रहते हो। वे
दुख भी तुम पर
कभी नहीं
गिरते, जिनसे
तुम भयभीत
रहते हो।
तुम्हारे
जीवन का नब्बे
प्रतिशत दुख
तो तुम्हारे
मन की कल्पना
है, दस
प्रतिशत सही
है। लेकिन
नब्बे
प्रतिशत
बिलकुल
कल्पना है। और
नब्बे
प्रतिशत के
कारण तुम इस
दस प्रतिशत का
हल नहीं कर
पाते। अगर वह
नब्बे
प्रतिशत
समाप्त हो जाए,
झूठ हट जाए,
तो जीवन का
जो भी दुख
वास्तविक है,
उसका
निपटारा है।
उससे छुटकारा
है। उसके बाहर
होने का उपाय
है। तुम उससे
सदा बड़े हो।
उस पर पैर
रखकर सीढ़ी बना
ले सकते हो।
लेकिन तुम
इतना बढ़ा लेते
हो कि दुख
इतना बड़ा हो
जाता है कि
तुम छोटे हो
जाते हो। तब
तुम कंपते हो,
तब तुम कुछ
भी नहीं कर
सकते। जैसे ही
भीतर के जान
की किरण जगती
है, भीतर
का दीया जलता
है, तुम
अपनी
शक्तियों के
स्वामी हो
जाते हो। और
वही तुम्हारे ज्ञान
का कारण है।
ज्ञान
अंतिम घटना है।
ज्ञान का अर्थ
है— भीतर की आंख, देखने की
क्षमता, आरपार
देखने की
क्षमता। तब
जीवन में कोई
दुख नहीं है।
तब जीवन में
सिर्फ आनंद है।
तुम्हारे
अंधेपन के
कारण दुख है।
तुम्हारी
नींद के कारण
तुम्हारा
सपना दुखद हो
गया है। होश
किसी दुख को
नहीं जानता।
होश सिर्फ
आनंद को जानता
है।
'स्वशक्ति का प्रचय
अर्थात सतत
विलास ही उसका
विश्व है।’ जो व्यक्ति ज्ञान
को उपलब्ध हो
जाता है वह
सतत अंतरविलास
में है, वह
सतत महा सुख
में है। स्वशक्ति
का प्रचय, उसके
भीतर की स्वयं
की शक्ति न
मालूम कितने
सुख को जन्म
देती रहती है।
प्रतिपल वहां
सुख घटता रहता
है। जैसे झरना
बहता रहता है
सतत, ऐसे
वहां सुख की
धारा बहती
रहती है।
तुम्हारे
भीतर प्रतिपल
अनंत स्रोत
सुख के बह रहे
हैं, लेकिन
उस तरफ
तुम्हारी पीठ
है। और ध्यान
रखना धर्म कोई
त्याग नहीं है,
धर्म परम
विलास है।
परमात्मा कोई
बैठकर रो नहीं
रहा है, नाच
रहा है। तुम
रोते
परमात्मा को
मत खोजना, वह
तुम्हें कहीं
न मिलेगा। और
जो भी मिलेंगे,
वे
तुम्हारे बीच
में से ही कोई
होंगे, जो
परमात्मा का
अभिनय कर रहे
हैं।
परमात्मा नाच
रहा है। यह
पूरा जीवन
आनंद का
महोत्सव है।
इस जीवन ने
दुख कहीं जाना
नहीं है। दुख
तुम्हारी कल्पना
है। दुख तुमने
पैदा किया है।
दुख तुम्हारा
सोचा हुआ है।
दुख तुम्हारी
उत्पत्ति है।
और अंधा आदमी
और कुछ कर भी
नहीं सकता; वह जहां
जाएगा, वहीं
टकरायेगा। पर
सोचता है वह
यह कि सारी
दुनिया मुझसे
टकराने को
तैयार खड़ी है।
कोई तुमसे
टकराने को
क्यों उत्सुक
होगा? दीवाल को
कोई मतलब है
कि दरवाजे को
कोई मतलब है? अंधा आदमी
जहां भी जाता
है तो कहीं
दीवाल टकरा
जाती, कहीं
दरवाजा टकरा
जाता और अंधा
आदमी सोचता है
कि सारी
दुनिया मुझसे
टकराने को
बैठी है। आंखवाले
से कोई नहीं
टकराता। निश्चित
ही, कोई
तुमसे टकराने
को नहीं बैठा
है। तुम ही
अंधे हो, तुम
ही टकरा जाते
हो। दोष तुम
दूसरों को
देते हो। दोषी
तुम स्वयं हो।
उत्तरदायित्व
तुम दूसरे पर
फेंकते हो और
तुम्हारे
अतिरिक्त
किसी का
उत्तरदायित्व
नहीं है।
यह वचन
समझने जैसा है—
'स्वशक्ति का प्रचय
अर्थात सतत
विलास ही उसका
विश्व है।’ ऐसी स्थिति
जब आ जाती है ज्ञान
की, तो
प्रतिपल आनंद
ही फलित होता
रहता है। वहां
सिर्फ फूल ही
लगते हैं, कांटे
नहीं। और वहां
अमृत ही बरसता
है, वहां
कोई मृत्यु
नहीं। वहां
दुख की एक
किरण भी नहीं
प्रवेश पाती।
तुम्हारे
भीतर महा सुख
का राज्य है।
उसकी ही तुम
तलाश में भी
हो। लेकिन खोज
तुम बाहर रहे
हो। खोज तो
ठीक है, दिशा गलत है।
आत्मज्ञानी
तुम्हें दिशा
देता है, वही
उसका दान है।
वह तुम्हें उस
दिशा में ले
जाता है। जहां
उसने पाया, वहीं
तुम्हें ले
जाता है।
आत्मज्ञानी
तुम्हें
समझाता नहीं,
क्योंकि
उसे समझाने का
कोई उपाय नहीं
है; तुम्हारे
हाथ को पकड़कर
उस तरफ ले
जाता है।
लेकिन तुम
इतने डरे हुए
हो कि तुम
किसी का हाथ पकड़ने से
डरते हो। तुम
समर्पण नहीं
कर सकते, श्रद्धा
नहीं कर सकते,
किसी पर
भरोसा नहीं कर
सकते।
तुम्हारे भय
ने तुम्हें
इतना
असुरक्षित कर
दिया है कि जो
तुम्हें दुख
के बाहर ले जाए,
तुम सोचते
हो शायद यह भी
किसी झंझट में
ले जाएगा। तुम
इतनी झंझटों
में पड़ते रहे
हो, तब
तुम्हें झंझटें
ही दिखाई पड़ती
हैं।
आत्मज्ञानी
के पास, अगर तुम
उसका हाथ पकड़ने
को राजी नहीं
हो, तो कोई
उपाय नहीं कि
वह तुम्हें
दान भी कैसे दे।
तुम्हें हाथ
तो फैलाने ही
होंगे।
तुम्हें दान
स्वीकार तो
करना ही होगा।
तुम अगर अपनी मुट्ठियां
बांधकर खड़े हो
और तुम दान
स्वीकार करने
को राजी नहीं,
तो
आत्मज्ञानी
भी तुम्हारे
द्वार से, तुम्हें
बिना दिए लौट
जाएगा।’स्वशक्ति का प्रचय
अर्थात सतत
विलास ही उसका
विश्व है'।
और वहां सतत
विलास चल रहा
है और तुम सतत
दुख में हो।
'और वह
स्वेच्छा से
स्थिति और लय
करता है।’ यह
बड़ा कठिन है।
समझना कठिन है;
क्योंकि
अनुभव से ही
समझ में आ
सकता है, अनुभव
नहीं है तो
समझ में नहीं
आएगा। लेकिन
फिर भी थोड़ा—सा
प्रत्यय बन
जाए तो कभी
सहयोगी होगा।
जैसे
ही कोई
व्यक्ति स्वयं
को जानने में
समर्थ हो जाता
है, वैसे
ही एक अनूठी
शक्ति, इस
जगत में सबसे
महान शक्ति—उससे
बड़ा कोई
चमत्कार नहीं—उसे
उपलब्ध होती
है। और वह
चमत्कार यह है
कि वह जब चाहे
तब हो जाए और जब
चाहे न हो जाए
जब चाहे तब
अस्तित्व में
आ जाए और जब
चाहे तब शून्य
में खो जाए। जैसे
तुम गाते हो
और सोते हो, लेकिन वह भी
स्वेच्छा से
नहीं। सुबह नींद
खुल गयी तो
फिर तुम क्या
करोगे? फिर
सो नहीं सकते।
रात नींद आती
है तो तुम जग
नहीं सकते।
जैसे तुम सोते
और गाते हो, वैसे ही आत्मज्ञानी
स्वेच्छा से
शून्य में
जाता और पूर्ण
में आता है।
वह उसकी
स्वेच्छा है।
वह उसमें
परतंत्र नहीं
है। अगर वह तय
करे कि उसे
शून्य में खो
जाना है तो वह
शून्य में खो
जाता है। अगर
वह तय करे कि
उसे पूर्ण में
रहना है तो वह
पूर्ण में
रहता है।
बुद्ध
के जीवन में
उल्लेख है कि
वे गये स्वर्ग
के द्वार पर, द्वारपाल
ने द्वार खोले,
लेकिन वे
पीठ करके खड़े
हो गये।
उन्होंने कहा
कि जब तक
अंतिम
व्यक्ति
मुक्त न हो
जाए, तब तक
मैं द्वार पर
रुला। जिस दिन
आखिरी
व्यक्ति
प्रवेश कर
जाएगा स्वर्ग
के महा सुख
में, उस
दिन उसके पीछे
मैं प्रवेश
करूंगा।
यह
कहानी बड़ी
प्रीतिकर है।
इसका मतलब यह
है कि जगत में
दो तरह के
आत्मज्ञानी
हैं। सभी
धर्मों ने उस
दो तरह के आत्मज्ञानियों
को समझा है।
एक
आत्मज्ञानी
तो वह है जो
अपने आत्मज्ञान
हो जाने के
बाद शून्य में
लीन हो जाता
है; और
एक
आत्मज्ञानी
वह है, जो
अपने
आत्मज्ञान के
बाद भी
अस्तित्व में
बना रहता है, ताकि दूसरों
की सहायता कर
सके। जैनों ने
पहले आत्मज्ञानी
को कैवल्य
ज्ञानी कहा है।
अनंत कैवल्य
ज्ञानी होते
हैं। वे शून्य
में खो जाते
हैं, उन्होंने
अपनी मंजिल पा
ली। वे प्रवेश
कर जाते हैं, द्वार पर
नहीं खड़े रहते
हैं। चौबीस को
जैनियों ने
तीर्थंकर कहा
है। तीर्थंकर
वे कैवल्य ज्ञानी
है जो द्वार
पर खड़े रहते
हैं; जो
दूसरे के लिए
रास्ता बनाते
हैं। बौद्धों
ने भी दो तरह
के
आत्मज्ञानी
माने हैं। एक
को वे
बोधिसत्व
कहते हैं और
एक को अर्हत।
बोधिसत्व वह
आत्मज्ञानी
है जो दूसरे
के लिए रुकता
है और अर्हत
वह
आत्मज्ञानी
है जो अपन' पाकर
लीन हो जाता
है।
सारे
धर्मों ने दो
तरह के
आत्मज्ञानी
माने हैं, क्योंकि
दो तरह के
व्यक्ति होते
हैं। तुम जब
पहुंचोगे उस
परम दशा में, तो या तो
तुम्हारे मन
में, तुम्हारे
प्राणों में,
एक वासना
शेष रह जाएगी।
इसको भी वासना
ही कहना पड़ेगा
कि मैं दूसरों
की सहायता
करूं और अगर यह
वासना भी शेष
न रहेगी तो
तुम खो जाओगे।
इसलिए सदगुरु,
अपने
शिष्यों में,
उन शिष्यों
को बोधिसत्व
या तीर्थंकर
बनाने की
कोशिश करते
हैं जिनमें
करुणा का तत्व
ज्यादा है। दो
तत्व हैं जो
आखिर में रहते
हैं—करुणा और
पता। पता का
अर्थ है—ज्ञान
और करुणा का
अर्थ है—दया।
और तुम्हारे
भीतर दो ही
तरह के
व्यक्ति हैं—एक
जिनके भीतर
करुणा ज्यादा
है और एक
जिनके भीतर
प्रज्ञा
ज्यादा है।
जिनके भीतर
प्रज्ञा
ज्यादा है, वे तो सीधे
शून्य में खो
जाएंगे। उनको
गुरु नहीं
बनाया जा सकता।
वे शिष्य ही
रहेंगे और जिस
दिन वे ज्ञान
को उपलब्ध
होंगे, वे
खो जाएंगे। वे
गुरु कभी नहीं
बनेंगे।
जिनके जीवन—तत्व
में करुणा का
भाव ज्यादा है,
वे गुरु बन
सकते हैं, तीर्थंकर
बन सकते हैं, बोधिसत्व बन
सकते हैं।
तो यह
गुरु पर
निर्भर करेगा
कि वह अपने
शिष्यों को
तैयार करे।
जिनके भीतर
उसे करुणा का
तत्व ज्यादा
दिखाई पड़ता है, प्रेम का,
सेवा का, उनको वह इस
भांति तैयार
करेगा कि
उनमें करुणा की
वासना आखिर तक
रह जाए। जब
उनका ज्ञान
फलित हो, तो
एक वासना उनके
भीतर शेष रह
जाए करुणा की।
जब उनकी नाव
छूटने के लिए
तैयार हो जाए,
तब एक खूंटी
से रस्सी बंधी
रह जाए। वह
खूंटी होगी
करुणा की। या
उनके भीतर
करुणा का तत्व
नहीं है, शुष्क
पता है, तो
उनकी कोई
खूंटी बचाने
की जरूरत नहीं।
उनकी नाव जैसे
ही तैयार हुई,
वे यात्रा
पर निकल
जाएंगे, महा
शून्य में खो
जाएंगे।
शिवत्व को
उपलब्ध
व्यक्ति अपनी
स्वेच्छा से
स्थिति और लय
करता है। या
तो वह ठहर
सकता है अस्तित्व
में सेवा के
लिए या खो
सकता है शून्य
में—यह उसकी
स्वेच्छा है।
और ध्यान रहे, उसी के
पास स्वेच्छा
है, तुम्हारे
पास कोई
स्वेच्छा
नहीं।
तुम्हारे पास
स्वयं का होना
नहीं तो
स्वेच्छा
कैसे होगी!
तुम भला कहते
हो कि मैं
अपनी स्वेच्छा
से ऐसा कर रहा
हूं लेकिन वह
झूठ है; तुम
किसी वासना के
दबाव में वैसा
करते हो।
स्वेच्छा
क्या है
तुम्हारे पास? स्वेच्छा
तो तब है कि
कोई गाली दे
और तुम क्रोध
न करो। यह हो
सकता है कि
क्रोध प्रगट न
करो; लेकिन
गाली देते ही
भीतर क्रोध हो
जाएगा।
स्वेच्छा तो
तब है जब कोई
गाली दे और
तुम वैसे खड़े
रहो जैसे गाली
नहीं दी गयी।
स्वेच्छा तो
तब है जब कोई
प्रशंसा करे
और तुम ऐसे
खड़े रहो जैसे
कोई प्रशंसा
नहीं की गयी; जैसे कुछ भी
नहीं हुआ, तुम
वही हो जैसे
पहले थे। कोई
रत्तीभर भी
अंतर न पडे,
तब तुम
मालिक हो अपने,
तब तुम
स्वामी हो। और
ऐसा जो
स्वामित्व है,
उसके लिए
अंतिम निर्णय
आखिरी क्षण
में होता है।
तो
बौद्धों के दो
धर्म हो गए
इसी आधार पर।
एक धर्म है—हीनयान, और एक
धर्म है—महायान
दो पंथ हो गये।
हीनयान का
अर्थ है—छोटी
नाव। उसमें एक
ही सवार हो
सकता है, ज्यादा
लोग नहीं। वह
अर्हत की नाव
है। वह बैठता
है और अपनी
यात्रा पर
निकल जाता है।
महायान का
अर्थ है—बडी
नाव। वह
बोधिसत्व की
नाव है। वह
बैठ भी जाए
नाव में तो
रुकता है ताकि
और लोग भी
सवार हो जाएं
फिर उसकी नाव
जाए। कहना
मुश्किल है कि
दोनों में कौन
ठीक है, कौन
गलत। उस
स्थिति में
ठीक और गलत का
निर्णय भी
मुश्किल है; जो जिस के
स्वभाव के
अनुकूल है.....!
जिनके
हृदय में स्त्रैणता
है, वे
बोधिसत्व हो
जाएंगे और
जिनके हृदय
में पुरुषत्व
है, वे
अर्हत हो
जाएंगे। और दो
तरह के हृदय
हैं। इसलिए
आखिरी क्षण
में भी दो तरह
के हृदय निर्णायक
होंगे। या तो
तुम्हारे पास
पुरुष का हृदय
है—शुष्क प्रज्ञा,
या सी का
हृदय है—आर्द्र
करुणा। या तो
तुम
प्रेमपूर्ण
हो या तो तुम
ज्ञानपूर्ण
हो। या तो तुम
ज्ञानी हो या
भक्त हो। ये
दो विपरीत
मिलकर संसार
बना है।
संसार
में सभी चीजें
विपरीत से बनी
हैं— अंधेरा
और प्रकाश, सी और
पुरुष, जन्म
और मृत्यु ऐसे
ही करुणा और प्रज्ञा।
आखिरी क्षण
में भी ये दो
तत्व किनारे
पर रहेंगे।
इनमें से जो
भी प्रबल होगा,
वह
निर्णायक
होगा। लेकिन
तब स्वेच्छा
का उपयोग करना
होगा। तब
स्वेच्छा है
तुम्हारी।
क्योंकि
मुक्त—पुरुष
अब किसी बंधन
में नहीं है।
यह उसकी अपनी
ही मर्जी है।
पहली दफा
मर्जी पैदा हुई
है। पहली दफा
संकल्प का
जन्म हुआ है।
आत्मज्ञानी
ही संकल्प
करता है। तुम
तो वासनाओं
में प्रवाहित
होते हो। वह
तय करेगा। और
एक ही निर्णय
की अवस्था है,
बस, इसके
पहले कोई
अवस्था
निर्णय की
नहीं है। तब
तो तुम बहते
हो, निर्णायक
नहीं हो।
गुरजियेफ से किसी
ने पूछा कि
मैं क्या करूं, मुझे
बतायें। गुरजियेफ
ने कहा 'काश!
तुम कुछ कर
सकते, तो
मैं तुम्हें
बताता।’
अभी
तुम कुछ कर ही
नहीं सकते।
अभी तो तुम
अंधे प्रवाह
में हो। अभी
तो तुम ऐसे हो
जैसे घास का
तिनका लहरों
पर डोलता रहता
है; कहीं
भी लहरें ले
जायें, वहीं
चला जाता है।
अभी तुम कहां
हो?
बुद्ध
से किसी ने
पूछा कि मैं
सेवा करना
चाहता हूं
लोगों की।
बुद्ध ने बहुत
गौर से देखा
और उससे दया
से कहा. 'अभी तुम
हो ही नहीं, सेवा कैसे
करोगे?'
निर्णय
आता है आखिरी
क्षण हाथ में।
आत्मज्ञान के
बाद निर्णायक
शक्ति
तुम्हारे पास
होती है, क्योंकि तब
तुम शिवतुल्य
हो गए तब तुम
सृष्टि न रहे,
सृष्टा हो
गए। तब तुम इस
जगत के हिस्से
नहीं हो, तुम
स्वयं
परमात्मा हो।
अब सारा खेल
तुम्हारे हाथ
में है। अब
तुम नियंता हो।
तब आखिरी
निर्णय हाथ
में आता है और
वह यह कि या तो.
तुम रुकना
चाहोगे, अपनी
नाव में और
लोगों को सवार
कर लो, तो
तुम तीर्थंकर
हो जाओगे। या
तुम चिंता न
करोगे। वह बात
ही तुम्हें
पकड़ेगी नहीं।
और तुम सोचोगे
कि हर आदमी
अपना रास्ता
खोजता है; अपने
रास्ते से
पहुंचता है; कौन किसकी
नाव में सवार
होता है! तुम
अपनी नाव को
छोड़ दोगे।
'और वह
स्वेच्छा से
स्थिति और लय
करता है।’ इसे
खयाल में रखना
उचित है, क्योंकि
इसको सुनते भी
तुम्हारे
भीतर खयाल जगने
लगेगा कि
तुम्हें अगर
निर्णय का
मौका मिले तो
तुम क्या
करोगे।
तत्क्षण जगने
लगेगा। और वह
गाना उपयोगी
है; क्योंकि
आखिरी क्षण
वही बीज बड़ा
हो जाएगा, वृक्ष
बन जाएगा।
आज
इतना ही।
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