ये
ज्ञानपसुता
धीरा नेक्खम्मूपसमे
रता ।
देवापि
तेसं
पिह्यंति
संबुद्धानं
सतीमतं ।।
'जो धीर
ध्यान में लगे
हैं..। '
ज्ञानी
बुद्ध उसी को
कहते हैं जो
ध्यान में लगा
है। वही है
धीरपुरुष, जो
ध्यान में लगा
है। जो जान का
अर्जन कर रहा
है, वह
जानी नहीं है,
विद्वान
होगा। जो
ध्यान का
अर्जन कर रहा
है, वही
ज्ञानी है, वही धीर है।
क्योंकि
ज्ञान तो बासा
है और उधार
है। ध्यान से
अपनी अनुभूति
संगृहीत होती
है। जो ध्यान
में लगे, वे
धीर।
'जो परम शात
निर्वाण में
रत हैं।'
और
निर्वाण का
अर्थ है, बुद्ध
की भाषा में, परम शाति की
खोज। जहा कोई
तरंग न रह
जाए। जहा चित्त
की सारी
तरंगें शात हो
जाएं, झील
मौन हो जाए।
जहा कोई लहर न
आए, न जाए।
तृष्णा न हो, वासना न हो, कामना न हो, वहीं आत्मा
है। 'ऐसे शांत
निर्वाण में
रत जो धीर हैं,
ध्यान में
जो लगे हैं, उन
स्मृतिवान
संबुद्धों की
स्पृहा देवता
भी करते हैं।'
ऐसा
जो स्वयं के
बोध को उपलब्ध, स्मृतिवान,
संबुद्ध हो
गया है, जाग
गया है, देवता
भी उसकी
स्पृहा करते
हैं। देवता भी
वैसा हो जाना
चाहते हैं।
देवताओं के मन
में भी
ईर्ष्या जगती
है।
इस
गाथा को जब
कहा,
उस
परिस्थिति को
समझ लेना
जरूरी है—
बुद्ध
ने श्रावस्ती
में तीन मास
का वर्षा— वास
पूरा किया। उस
वर्षा— वास
में वे सतत
समाधि में लीन
रहे। बाहर
निकले नहीं।
लोगों से बोले
नहीं। नियमित
रूप से जो उपदेश
देते थे वह भी
न दिया। तीन
माह अपने में
ही डूबे रहे।
बौद्ध—ग्रंथ
कहते हैं, तीन
माह वह पृथ्वी
पर न रहे। बड़ी
मीठी बात! तीन माह
वह कहीं और
रहे। किसी और
लोक में
विचरे।
कथाएं
अदभुत हैं
हमारे पास।
उनका अर्थ समझ
में आने लगे
तो उनमें से
ऐसे
मणि—माणिक्य
झरने लगते
हैं! कहा गए
बुद्ध? तीन
माह कैसे लीन
हो गए? प्रश्न
उठने
स्वाभाविक थे
भिक्षु —संघ
में। क्योंकि
बुद्ध तो
परमज्ञान को
उपलब्ध हो गए
हैं, अब
समाधि में
रहने का, आंख
बंद करके बैठे
रहने का तीन
महीने तक, बाहर
न आने का क्या
कारण होगा? हजार—हजार
प्रश्न उठे
होंगे, जिज्ञासाएं
जगी होंगी, अफवाहें उड़ी
होंगी।
जब
बुद्ध लौटे तो
उन्होंने कहा
मैं स्वर्ग गया
था। क्योंकि
देवताओं की
बड़ी आकांक्षा
थी कि उन्हें
भी उपदेश दूं।
वे मेरे पीछे
पड़े थे वे कहते
थे मनुष्यों—
मनुष्यों को
ही समझाते रहोगे? हम
पर दया कब
होगी? इस
बात पर तो
लोगों को शायद
भरोसा भी न
आता लेकिन
भरोसा करना
पड़ा। क्योंकि
तीन महीने बाद
जब वे जिस भवन
में तीन महीने
तक मौन रहे थे
उससे बाहर
उतरे तो लोग
चकित हो गए।
घटना
ऐसी घटी कि न—
मालूम कितने
देवता भी उस
दिन स्वागत
करने के लिए
खड़े थे। न—
मालूम कितने
मनुष्य और न—
मालूम कितने देवता।
देवताओं और
मनुष्यों का
अदभुत सन्निपात
हुआ।
संख्यातीत था
सन्निपात।
देवता मनुष्यों
को देखने लगे
और मनुष्य
देवताओं को
देखने लगे।
मनुष्यों को
तो बिलकुल
भरोसा ही न
आया कि ये
देवता यहां
क्या कर रहे
हैं? ये यहां
कैसे आए?
बुद्ध
की बात पर तो
वे शायद भरोसा
भी न करते, लेकिन
जब ये अनंत—
अनंत देवता
स्वागत के लिए
खड़े थे, तो
उन्हें मानना
ही पड़ा कि
बुद्ध कहते
हैं वे तीन
माह तक स्वर्ग
में रहे, वहां
देवताओं को
समझाया, जरूर
समझाया होगा,
इतने भक्त
हो गए पैदा! वे
सब खड़े हैं द्वार
पर स्वागत
करने के लिए।
उस
दिन भगवान की
शोभा
अवर्णनीय थी।
जैसे उनके चारों
ओर इंद्रधनुष
घिरा था। सातो
रंग उनकी देह
से फूट रहे
थे। सभी रंगों
की
अभिव्यक्ति
हो रही थी।
भगवान के
प्रमुख शिष्य
सारिपुत्र ने उनका
स्वागत करते
हुए कहा भगवान
न तो ऐसा कभी देखा
था और न सुना
था। उसे बहुत
दिन हो गए
भगवान के साथ रहते
लेकिन ऐसा कभी
उसने सुना भी
नहीं था देखा
भी नहीं था कि
देवता और
भगवान के लिए
आतुर होकर खड़े
हैं स्वागत
में! भंते 1
मनुष्य ही
नहीं देवता भी
आपको चाहते
हैं। ऐसी उसने
जिज्ञासा की।
तब
भगवान ने कहा
संबोधि परम
घटना है। उसके
पार कुछ भी
नहीं है।
स्वभावत: देवता
भी उसके लिए
तरसते हैं
लालायित होते
हैं।
और
तब उन्होंने
यह गाथा कही—
ये
ज्ञानपसुत्ती
धीरा नेक्खम्मूपसमे
रता ।
देवापि
तेसं
पिह्यंति
संबुद्धानं
सतीमतं ।।
'जो धीर
ध्यान में लगे
हैं, परम
शांत निर्वाण
में रत हैं, उन
स्मृतिवान
संबुद्धों की
स्पृहा देवता
भी करते हैं। '
अब
इस कथा को
समझने की
कोशिश करें।
देवता
शब्द से बहुत
परेशान मत हो
जाना। अकेला भारत
ऐसा देश है, जिसने
ध्यान की गहरी
गहराइयों में
प्रवेश किया
है। या ध्यान
की ऊंची
ऊंचाइयों में
गया है। अकेला
भारत ऐसा देश
है, जिसको
यह बात साफ हो
गयी है कि
आदमी सबसे ऊपर
नहीं है।
मनुष्य से ऊपर
भी चैतन्य की
दशाएं हैं, देवता का
इतना ही अर्थ
होता है। जैसे
मनुष्य के
नीचे
पशु—पक्षी हैं,
ऐसे मनुष्य
के ऊपर देवता
हैं, देवताओं
की कोटियां
हैं।
और
यह बात
तर्कयुक्त
मालूम पड़ती है, क्योंकि
मनुष्य अंत हो
भी क्यों? आखिर
मनुष्य पर
सारा विकास
रुके भी क्यों?
मनुष्य
मध्य में है।
पीछे बड़ी
यात्रा है और
आगे बड़ी
यात्रा है।
स्वभावत: जो
पीछे हो गया, वह तो हमें
दिखायी पड़ता
है, क्योंकि
वह हो चुका।
जो अभी आगे
होने को है, वह हमें
दिखायी नहीं
पड़ता; क्योंकि
अभी हुआ नहीं
है तो दिखायी
कैसे पड़े? इसलिए
देवता दिखायी
नहीं पड़ते
हैं।
देवता
का अर्थ है, हमारी
संभावनाएं।
देवता का अर्थ
है, हमारे
चित्त की ऊंची
तरंगें। हम
जिस तरंग पर जी
रहे हैं, इससे
भी ऊंची
तरंगें चित्त
की हैं।
कभी—कभी ऐसा
होता है, कभी—कभी
किसी आदमी में
देवत्व के
लक्षण होते
हैं। कभी किसी
आदमी को देखकर
तुम्हें लगता
है कि मन कह
उठता है, देवता
है। क्यों कह
उठता है मन? क्योंकि
आदमी जैसा
आदमी है, हड्डी—मास—मज्जा
है! लेकिन फिर
भी लगता है, चेतना किसी
और तल पर है।
कहीं और है।
देवता
का अर्थ समझ
लेना। देवता
का अर्थ होता
है,
मनुष्य से
ऊपर शुद्ध
चैतन्य की और
तरंगें।
लेकिन
एक और अनूठी
बात भारत को
खोज में आयी
है। और वह
अनूठी बात यह
है कि देवता
भी अंतिम अवस्था
नहीं है।
अंतिम अवस्था
बुद्धत्व है।
और बुद्धत्व
को पाने के
लिए मनुष्य
चौराहा है। मनुष्य
के नीचे
पशु—पक्षी हैं, उनको
भी अगर बुद्ध
होना हो तो
मनुष्य तक आना
पड़ेगा।
मनुष्य
चौराहा है। और
मनुष्य के ऊपर
देवता हैं, देवताओं की
अनेक कोटियां
हैं। लेकिन
उनको भी अगर
बुद्ध होना हो,
उनको भी
मनुष्य तक आना
पड़ेगा।
ऐसा
ही समझो कि जब
भी तुम्हें
राह बदलनी हो
तो चौराहे पर
आना पड़ता है।
तुम चले गए
स्टेशन की तरफ, तुम
आगे निकल गए
चौराहे से।
लेकिन अब
तुम्हें राह
बदलनी है, तुम्हें
नदी की तरफ
जाना है, तो
तुम वापस
चौराहे पर
लौटते हो, क्योंकि
चौराहे ही से
रास्ता नदी की
तरफ जाता है।
मनुष्य
चौराहा है। इस
सारे
अस्तित्व का
चौराहा है
मनुष्य। उससे
पीछे की तरफ
भी रास्ते
जाते हैं, आगे
की तरफ भी
रास्ते जाते
हैं। और
अतिक्रमण की
तरफ भी रास्ते
जाते हैं।
सबसे ऊपर तो
अतिक्रमण की
दशा
है—बुद्धत्व।
बुद्धत्व
का अर्थ है, मन
समाप्त ही हो
गया। देवता का
अर्थ है, मन
की तरंगें और
सुंदर और
प्रीतिकर हो
गयीं। मनुष्य
की तरंगें
उतनी सुंदर
नहीं, उतनी
प्रीतिकर
नहीं। देवता
की तरंगें
प्रीतिकर हैं,
सुंदर हैं।
नारकीय का
अर्थ है, मनुष्य
से भी नीचे
गिर गयीं
तरंगें और दुख
हो गया। इसलिए
हम कहते हैं, नरक में दुख
है, स्वर्ग
में सुख है।
सुख का मतलब
इतना ही होता है
कि तुम्हारी
तरंगें सुख को
पकड़ने में ज्यादा
समर्थ हो
गयीं। दुख का
अर्थ इतना ही
होता है कि
तुम्हारी
तरंगें दुख को
पकड़ने में
ज्यादा समर्थ
हो गयीं।
तुमने
कभी खयाल किया, दो
आदमी एक ही
जगह बैठे हों,
एक सुखी हो
सकता है, एक
दुखी हो सकता
है। दो आदमी
एक ही अवस्था
में हों, एक
सुखी हो सकता
है, एक
दुखी हो सकता
है। क्या कारण
होगा? तुम्हारा
चित्त क्या
पकड़ता है, इस
पर सब निर्भर
है।
अल्डुअस
हक्सले
पश्चिम का एक
बड़ा विचारक
था। उसने
जीवनभर बड़ी
अनूठी
किताबें
इकट्ठी कीं। बडा
संग्रह था
उसके पास
किताबों का।
और अनूठे—
अनूठे ग्रंथ इकट्ठे
किए थे। और एक
दिन अचानक आग
लग गयी। वह
जीवनभर
उन्हीं को दृ
कट्टा करता
रहा था।
उसकी
पत्नी लारा
हक्सले ने तो
समझा कि वह
एकदम गिर ही
पडेगा, उसका
हार्ट फेल हो
जाएगा। यह तो
उसका प्राण था।
किताब पर दीमक
न लग जाए, किताब
पर सीलन न आ
जाए, ऐसी
फिकर करता था।
चौबीस घंटे
किताबों में
ही रत था।
उसकी सारी की
सारी संपदा
जीवन की जलकर राख
हो गयी। पत्नी
तो धबडायी।
पत्नी को
किताबों में
कुछ लेना—देना
भी नहीं था, मगर यह पति
को क्या ओ।
जाएगा, कहा
नहीं जा 'सकता!
वह उसके बगल
में ही खड़ी
है। और लपटें
उठती गयी, बहुत
बुझाने की
कोशिश की गयी,
लेकिन सब
मकान राख हो
गया।
लेकिन
लारा बहुत
चौंकी, क्योंकि
हक्सले
चुपचाप खड़ा
देख रहा है।
दुखी भी नहीं
मालूम होता, बेचैन भी
नहीं मालूम
होता, बल्कि
एक तरह की
प्रसन्नता
उसके गहरे पर
झलक रही है।
उसने कहा कि
मेरी कुछ समझ
में नहीं आ रहा,
आप और
प्रसन्न !
कभी कोई एक
किताब बच्चा
फाड़ दे, या
लकीर खींच
देता था तो आप
ऐसे नाराज हो
जाते थे। अगर
एक किताब खो
जाती थी तो आप
दीवाने हो जाते
थे, रात सो
नहीं सकते थे।
अगर कोई मित्र
किताब मांगता
था तो आप देते
नहीं थे, डरते
थे कि कहीं
लौटाए, न
लौटाए।
मित्रता चाहे
खो जाए, किताब
देने को राजी
न थे। और आज सब
जलकर राख हो
गया है, आप
प्रसन्नता से
खड़े हैं?
हक्सले
ने कहा, मैं
भी चौंककर देख
रहा हूं और
बड़े आश्चर्य
की बात है——तुम्हीं
चकित नहीं हो,
मैं भी चकित
हूं —ऐसा लग
रहा है कि मन
से एक बोझ उतर
गया। हल्का हो
गया। इतना
हल्का मैं कभी
भी नहीं था।
प्रभु की कृपा!
यह बोझ
गया। यह बोझ
उतर गया। यह
मेरा मोह था, यह भी गया।
अच्छा ही हुआ।
यह अचानक लगी
आग सौभाग्य
है।
इसको
कहेंगे, देवता।
इसके मन की
तरंग दुख में
से भी सुख को पकड़
लेती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन को
लाटरी मिल गयी।
लाख रुपए मिल
गए। भागा हुआ
घर आया। और
पत्नी को कहा,
खुशी मनाओ,
नाचो—गाओ।
पास—पड़ोस की
स्त्रियों से
बैठी पत्नी
उसी की निंदा
कर रही थी।
पत्नियां और
करें भी क्या!
और यह बीच में
आ गया और उसने
लाकर लाख रुपए
एकदम बीच में
रख दिए और कहा,
देखो, लाटरी
मिल गयी!
पत्नी ने कहा,
लाटरी छोड़ो,
पहले यह
बताओ कि तुमने
जो टिकिट
खरीदी, वह
रुपया कहां से
पाया? क्योंकि
वह सब नगद
रखवा लेती है
तनख्वाह पर। यह
रुपया आया
कहां से?
यह
एक नारकीय
चित्त है। लाख
रुपए आ गए, उसकी
खुशी नहीं है।
उसने कहा, यह
छोड़ो
लाटरी—माटरी,
पहले यह साफ
करो कि रुपया
तुमने पाया
कहां से जिससे
टिकिट खरीदी?
आदमी
आदमी में फर्क
हैं। तुम भी
अपने भीतर
जांचना। और ऐसा
भी नहीं है कि
तुम सदा एक ही
अवस्था में होते
हो। कभी—कभी
तुम नारकीय
अवस्था में
होते हो, कभी—कभी
स्वर्गीय
अवस्था में
होते हो।
किन्हीं—किन्हीं
क्षणों में
तुम भी बड़े
उदार होते हो,
कि सब दे
डालो। और
किन्हीं
क्षणों में
बड़े कृपण हो
जाते हो।
किन्हीं—किन्हीं
क्षणों में
तुम भी जीवन
में प्रकाश
देख पाते हो, किन्हीं—किन्हीं
क्षणों में सब
अंधेरी रात हो
जाती है। तुम
भी नकारात्मक
और विधायक में
डोलते रहते
हो। कभी सुबह
अचानक तुम
पाते हो, कितना
सब हल्का! और
किसी दिन
अचानक पाते हो,
सब बोझ, भारी।
मर ही जाते तो
अच्छा था, क्या
सार! कभी असार
में सार दिखता
है और कभी सार
में भी सार
नहीं दिखता।
तो
ऐसा मत सोचना
कि देवता कहीं
आकाश में रहते
हैं और नारकीय
कहीं दूर
पाताल में
रहते हैं। तुम
भी कभी—कभी
देवता हो जाते
हो और कभी—कभी
नारकीय हो
जाते हो।
कभी—कभी पशु
हो जाते हो और
कभी—कभी
परमात्मा हो
जाते हो।
क्षणभर को कभी
तुम भी झलक
जाते हो
प्रकाश से।
तुम भी भर
जाते हो रस
से। उन्हीं
क्षणों में
तुम प्यारे
आदमी हो जाते
हो। उन्हीं
क्षणों में
लोग तुम्हें
प्रेम करने
लगते हैं।
उन्हीं
क्षणों में
लोग तुम्हारे मित्र
हो जाते हैं।
लेकिन वे क्षण
टिकते नहीं, खो—खो
जाते हैं।
देवता का अर्थ
है, जिसने
उन ऊंचाइयों
पर रहना थिर
कर लिया।
लेकिन
देवता भी
आखिरी अवस्था
नहीं है।
देवता को सुख
तो ज्यादा है, लेकिन
जहा सुख है, वहां दुख की
संभावना सदा
मौजूद रहती
है। जहां दिन
है, वहा रात
होगी। विपरीत
बना रहेगा।
बुद्धत्व का
अर्थ है, न
दिन रहा, न
रात। बुद्ध की
अवस्था दोनों
के पार है, द्वंद्व
के पार है।
इसलिए
जब कभी कोई
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है,
तो उसमें
सभी उत्सुक होते
हैं। उसमें
पशु —पक्षी भी
उत्सुक हो
जाते हैं, उसमें
देवता भी
उत्सुक हो
जाते हैं, उसमें
मनुष्य भी
उत्सुक हो
जाते हैं।
उसमें बुरे से
बुरे आदमी भी
उत्सुक होते
हैं, उसमें
भले से भले
आदमी भी
उत्सुक होते
हैं। जिसमें
भले ही भले
आदमी उत्सुक
हों, वह
महात्मा है।
जिसमें बुरे
ही बुरे आदमी
उत्सुक हों, वह असंत। और
जिसमें भले और
बुरे दोनों
तरह के आदमी
उत्सुक हो
जाएं, वह
बुद्धत्व को
उपलब्ध
व्यक्ति।
क्योंकि बुरे
को भी उसमें
से द्वार
दिखायी पड़ता
है, भले को
भी द्वार
दिखायी पड़ता
है। इसलिए जब
भी कहीं कोई
बुद्धत्व को
उपलब्ध
व्यक्ति होगा,
तुम उसके
पास बूरे से
बुरे आदमी
पाओगे, भले
से भले आदमी
पाओगे। उसके
पास एक समागम
होगा।
मनुष्यों का,
पशुओं का, देवताओं का
एक सन्निपात
होगा।
अगर
तुम कहीं जाओ
और
अच्छे—अच्छे
आदमी पाओ तो समझना
कि महात्मा
है। अगर बुरे
ही बुरे आदमी
पाओ तो समझना
कि कोई
अपराधी। जहां
तुम्हें दोनों
तरह के लोग
मिल जाएं, वहा
तुम समझना कि
कोई बुद्धत्व
को उपलब्ध हुआ
है। क्योंकि
वहा दोनों की
आतुरता है।
बुरा भी पार
होना चाहता है
और भला भी पार
होना चाहता
है। बुरा बुरे
से थक गया है, भला भले से
थक गया है।
बुरा दुख से
थक गया है, भला
सुख से थक गया
है। वहां गरीब
को भी पा लोगे,
अमीर को भी
पा लोगे। वहा
अपढ़ को भी पा
लोगे, पढ़े
हुए को भी पा
लोगे। वहां
तुम सब तरह के
द्वंद्व एक
साथ पा लोगे।
जहा सब
द्वंद्व एक
साथ उत्सुक हो
जाते हैं, उसका
अर्थ है, वहा
से कोई
संक्रमण है।
वहां से कोई
संक्रांति घट
सकती है।
यह
कथा मीठी है।
इस घड़ी में
बुद्ध ने ये
सूत्र कहे—
'जो धीर ध्यान
में लगे हैं, परम शांति
में रत हैं, उन
स्मृतिवान
संबुद्धों की
स्पृहा देवता
भी करते हैं। '
'मनुष्य का
जन्म पाना
दुर्लभ है; मनुष्य का
जीवित रहना
दुर्लभ है; सद्धर्म का
श्रवण करना
दुर्लभ है, और बुद्धों
का उत्पन्न
होना दुर्लभ
है। '
किच्छो
मनुस्सपटिलाभो
किच्छ मच्चान
जीवितं ।
किच्छं
सद्धम्मसवणं
किच्छो
बुद्धानं
उप्पादो ।।
बुद्ध
कहते हैं, पहले
तो मनुष्य का
जन्म पाना
दुर्लभ है।
क्योंकि
मनुष्य तो
बहुत थोड़े हैं,
पशु—पक्षी,
पत्थर
कितने हैं!
अनंत! तो पहले
तो इतनी सारी
योनियों को
खोजते —खोजते
कोई आदमी
मनुष्य हो पाता
है।
'मनुष्य का
जन्म पाना
दुर्लभ है। '
और
जन्म भी पाकर
क्या होता है, मनुष्य
की तरह जीवित
रहना और भी
मुश्किल है। बहुत
से लोग मनुष्य
की तरह जन्म
पा लिए हैं, लेकिन
मनुष्य हैं
नहीं। शकल
—सूरत से
मनुष्य हैं, रंग—ढंग से
मनुष्य हैं, भीतर अभी भी
पशुता भरी
है।
भीतर
अभी भी पशु के
ढंग से ही जी
रहे हैं। भीतर
अभी भी पाशविक
आकांक्षाएं
भरी हैं।
तो
पहले तो
मनुष्य का
जन्म पाना
दुर्लभ, फिर
मनुष्य होकर
जीना और
दुर्लभ है।
फिर अगर मनुष्य
होकर जीना भी
आ जाए, तो
सद्धर्म का
श्रवण करना
दुर्लभ है।
क्योंकि जिन
लोगों को थोड़ी
सी मनुष्यता
का रस आ जाता
है, उन्हें
बड़ा अहंकार
जगता है। वे
अपने को कुछ
समझने लगते
हैं। कोई कहता
है, मैं
ज्ञानी हूं; कोई कहता है,
मैं त्यागी
हूं; कोई
कहता है, मैं
यह हूं; कोई
कहता है, मैं
वह हूं; देखो
मैंने कितना
शुभ किया, कितनी
सेवा की। तो
अहंकार पकड़ता
है। और जब अहंकार
पकड़ता है, तो श्रवण
मुश्किल हो
जाता है।
फिर
किसी के चरणों
में जाना, सद्धर्म
को सुनना, बहुत
मुश्किल हो
जाता है। तो
फिर सद्धर्म
का श्रवण करना
दुर्लभ है। और
अगर श्रवण की
क्षमता भी हो,
तैयारी भी
हो, तो
बुद्धपुरुष
को पाना बहुत
मुश्किल है, कि जिसको
सुनकर कुछ हो
जाए। जिसको
मात्र सुनने
से कुछ हो
जाए।
श्रवणमात्रेण।
'और बुद्धों
का उत्पन्न
होना अति
दुर्लभ है। '
'सभी पापों
का न करना, पुण्यों
का संचय करना
और अपने चित्त
का शोधन करते
रहना—यही
बुद्धों का
शासन है।'
सबपापस्स
अकरण
कुसत्नस्स
उपसंपदा ।
सच्चित्तपरियोदपन
एतं बुद्धान
सासने ।।
बुद्ध
ने कहा, 'पाप
का न करना, पुण्य
का करना और
अपने चित्त का
शोधन करते रहना—ये
तीन बातें—यही
बुद्धों का
शासन है।'
जो
तुम्हें बुरा
लगे,
उस तरफ न
जाना। जो
तुम्हें ठीक
लगे, उस
तरफ जीवन की
धारा को
बहाना। और
इतने पर ही रुक
नहीं जाना, चित्त को
रोज—रोज शोधन
करते
रहना—ध्यान
से। क्योंकि
आज जो बुरा लग
रहा है और आज
जो भला लग रहा
है, इस पर
ही अंत नहीं
है।
चित्त—शोधन
होता जाए तो तुम
चकित होओगे—कल
जो भला लगा था,
वह भी बुरा
लगने लगा। और
नए भले के
दर्शन हुए। चित्त
का शोधन होता
जाए तो तुम
रोज—रोज पाओगे
कि जिसको
तुमने कल
मंजिल समझ
लिया था, वह
भी पड़ाव था, क्योंकि और
आगे के शिखर
दिखायी पड़ने
लगे। चित्त
साफ होने लगता
है, तो
रोज—रोज गति
होने लगती है।
तो
बुद्ध कहते
हैं,
बुरे को मत
करना। जो
तुम्हें साफ
लग जाए कि बुरा
है, उसे मत
करना।
क्योंकि बहुत
ऐसे लोग हैं, उन्हें लगता
भी है कि बुरा
है, फिर भी
किसी अंधी
आदतवश किए चले
जाते हैं। आलस्य
के कारण, पुराने
अभ्यास के
कारण किए चले
जाते हैं। वह
मत करना। आदत
को तोड़ना। और,
जो ठीक लगे,
वह करना।
बहुत ऐसे लोग
हैं, जानते
हैं, ठीक
क्या है, एहसास
होता है कि
ठीक क्या है, कभी—कभी साफ
झलक मिल जाती
है कि ठीक
क्या है, फिर
भी नहीं करते।
क्योंकि कभी
किया नहीं, इसलिए
अभ्यास नहीं
है। तो यह
बुरे और भले
के बीच खयाल।
और जो सबसे
महत्वपूर्ण
बात है, अपने
चित्त का
शोधन—
सच्चित्तपरियोदपनं……।
अपने
चित्त को रोज
शोधते रहना।
क्योंकि इसी चित्त
से तुम्हें
पता चलेगा कि
और भला क्या
है,
और भला क्या
है। यहां शिखर
के ऊपर शिखर
हैं, द्वार
के बाद द्वार
हैं, रहस्यों
के बाद रहस्य
हैं।
तुम्हारे पास
जितना शुद्ध
चित्त होगा, उतनी ही
तुम्हारी
दृष्टि साफ
होती जाएगी, और उसी
दृष्टि को
बुद्ध ने कहा
कि मेरा शासन
मानना। यही
मेरा उपदेश
है।
'तितिक्षा और
क्षांति परम
तप हैं। बुद्ध
निर्वाण को
परम कहते हैं।
दूसरों का घात
करने वाला
प्रवजित नहीं
होता है और
दूसरों को
सताने वाला
श्रमण नहीं
होता है। '
खंती
परमं तपो
तितिक्सा
निब्बानं
परमं बदति बुद्धा
।
नहि
पब्बजितो
परूपघाती समणो
होति परं
विहेठयतो ।।
'तितिक्षा और
क्षाति परम तप
हैं। '
जो
हो,
उसे तथाता
भाव से
स्वीकार कर
लेना। करने की
बात पहले
बतायी. बुरे
को करना मत, भले को करना
और चित्त का
शोधन करना। अब
कहते हैं, जो
तुम पर
हों—क्योंकि
इतने से ही तो
खतम नहीं होता।
तुमने क्रोध
नहीं किया यह
तो ठीक है, लेकिन
कोई आदमी ने
तुम पर क्रोध
किया, फिर
क्या करोगे? तो कोई तुम
क्रोध करे, कोई तुम्हें
गाली
दे—तितिक्षा
और क्षांति, तो सहज भाव
से स्वीकार कर
लेना कि उसके
भीतर क्रोध
उठा, इसलिए
उसने गाली दी।
बेचारा! नाहक
उसने कष्ट पाया।
स्वीकार कर
लेना। इसको
तुम अपने भीतर
काटा मत बनने
देना। ऐसा धैर्य,
ऐसी
क्षांति और
ऐसी
तितिक्षा।
'बुद्ध
निर्वाण को
परम कहते हैं।
'
बुद्ध
कहते हैं, होने
योग्य तो एक
ही चीज है, निर्वाण।
बाकी जो होता
है, उसको
तो स्वीकार कर
लेना—किसी ने
गाली दी, किसी
ने प्रशंसा की,
किसी ने कहा
आप बड़े सुंदर,
किसी ने कहा
आप बड़े
कुरूप—यह सब
कुछ होने जैसा
नहीं, इसका
कोई मूल्य भी
नहीं है। इसको
चुपचाप स्वीकार
कर लेना कि
ठीक, जैसी
आपकी मर्जी; भले लगते, भले; बुरे
लगते, बुरे।
इस सब पर जरा
भी श्रम मत
लगाना और इस
सब पर जरा भी
दृष्टि मत
देना।
क्योंकि जो
होने जैसा है,
जो होना
चाहिए, वह
तो
निर्वाण है।
उसकी दिशा में
अपनी सारी
शक्ति को लगा
देना।
'दूसरों का
घात करने वाला
प्रवजित नहीं
होता है।'
और
अक्सर लोग
दूसरों का घात
करने में अपनी
शक्ति लगा रहे
हैं। कोई किसी
को मार डालना
चाहता है, कोई
किसी को हराना
चाहता है, कोई
किसी को पद से
गिराना चाहता
है, कोई
किसी को पीछे
कर देना चाहता
है—दूसरों में
उत्सुक है।
अपने में उनकी
कोई उत्सुकता
ही नहीं है।
'दूसरे का
घात करने वाला
प्रवजित नहीं
होता। '
प्रवज्या
का अर्थ है, संन्यास।
संन्यासी वही
है, जो
कहता है, मैं
अपने निर्वाण
की खोज कर रहा
हूं। मेरे
निर्वाण का
किसी दूसरे से
कोई लेना—देना
नहीं है, कोई
प्रतिस्पर्धा
नहीं है। तुम
जिस पद पर हो, मजे से रहो; तुम्हारे
पास जो है, तुम
मजे से भोगो; तुम जैसे हो,
ठीक। यह तुम
जानो। इसमें
मेरा कुछ लेना
—देना नहीं
है। संन्यासी
का अर्थ है, जिसकी दूसरे
से
प्रतिस्पर्धा
नहीं। जो किसी
तरह की ईर्ष्या
में नहीं है।
लेकिन
अक्सर हमारी
हालतें उलटी
हैं। हम दूसरे
को मिटाने में
अगर खुद भी
मिट जाएं तो
कोई फिकर
नहीं।
मैंने
सुना है, एक
आदमी ने बड़े
दिन भक्ति की,
परमात्मा
प्रसन्न हुए
और उन्होंने
कहा, मांग
ले, क्या
मांगता है? लेकिन एक
बात खयाल रखना,
जो तुझे
मिलेगा, तेरे
पड़ोसियों को
दुगुना
मिलेगा। उस
आदमी की छाती
बैठ गयी। उसने
कहा, यह भी
कोई वरदान
हुआ! अरे, अभिशाप
कहो इसको! तो
फिर मैं
मांगता कैसे?
भगवान ने
कहा, वह तू
जान। लेकिन
इतनी तेरी
क्षमता होनी
ही चाहिए, तो
ही तू धार्मिक
है। अन्यथा
धार्मिक ही
नहीं। यह मेरा
वरदान कि जो
तू मांगेगा, मिलेगा तुझे,
दुगुना
पड़ोसी को।
उसने
किसी वकील से
सलाह ली होगी
कि करना क्या, इसमें
से निकलना
कैसे बाहर? वकील ने कहा,
इसमें क्या
रखा है! अरे, यह तो बाएं
हाथ का खेल
है। तू ऐसा कर,
पहले देख तो
कि यह होता भी
कि नहीं। तू
मांग कि सात
मंजिल मकान बन
जाए। मांगा, बन गया उसका
सात मंजिल, लेकिन दोनों
तरफ चौदह—चौदह
मंजिल मकान
पड़ोसियों के
खड़े हो गए।
पूरा गांव
चौदह मंजिल का
हो गया। एक
वही गरीब रह
गया—सात मंजिल
का।
तो
वकील ने कहा, अब
ठीक। अब मांग
कि मेरे घर के सामने
एक कुआ खुद
जाए बड़ा कुआ।
उसके घर के
सामने एक कुआ
खुद गया, पड़ोसियों
के घर के
सामने दो —दो
कुएं खुद गए।
उसने कहा कि
अब मांग कि
मेरी एक आंख
फूट जाए। उसकी
एक आंख फूट
गयी, पड़ोसियों
की दोनों
आंखें फूट
गयीं। वकील
बड़ा होशियार
रहा होगा!
सुप्रीम
कोर्ट का वकील
रहा होगा।
बिचारे
पड़ोसी अब
गिरने लगे
कुओं में, क्योंकि
दो—दो कुएं
सामने और
दोनों आंखें
फूट गयीं। और
चौदह—चौदह
मंजिल के
मकान! कोई
मंजिल से गिर
पड़ा, कोई
सीढ़ियों से
गिर पड़ा—लिफ्ट
उस समय थी
नहीं। और
लिफ्ट भी होती
तो क्या सार
था, क्योंकि
लिफ्ट चलाने
वाले भी अंधे हो
जाते। एक
अकेला वही बचा
एक आंख वाला, उसकी
प्रसन्नता का
अंत नहीं। वह
सम्राट की तरह
घूमने लगा
गांव में एक
वही था जो देख
सकता था।
हालांकि आधा
ही देख सकता
था अब, लेकिन
उसका दुख नहीं
था कि कनवा हो
गया, एक
आंख का हो गया,
मजा यह था
कि सबकी गयी।
खयाल करना, ऐसा व्यक्ति
संन्यासी
नहीं हो सकता।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं,
'दूसरों का
घात करने वाला
प्रवजित नहीं
होता है और
दूसरी को
सताने वाला
श्रमण नहीं
होता है। '
ये
दो बातें छोड़
देना। तो तुम
संन्यासी
होते हो।
'निंदा न
करना, घात
न करना, पातिमोक्ष
में सम्बर
रखना, भोजन
में मात्रा
जानना, एकांतवास
करना और चित्त
योग में
लगाना—यही बुद्धों
का शासन है।'
अनूपवादो
अनूपघातो
पातिमोक्खे च
संवरो ।
मतज्जुता
वे भत्तस्मिं
पंतज्च
सयनासनं ।।
अधिचिते
व आयोगो एतं
बुद्धान
सासनं ।।
'निंदा न
करना।'
क्योंकि
निंदा का अर्थ
है,
तुम अभी
दूसरे में उत्सुक
हो, दूसरे
को छोटा करने
में उत्सुक
हो। निंदा का
मतलब ही इतना।
इसीलिए तो इतना
निंदा में रस
है। हम कैसी
निंदा
बढ़ा—चढ़ाकर
करते हैं।
क्योंकि
हमारे पास एक
ही तरकीब है
कि अगर हम
सिद्ध कर दें
कि दूसरा बुरा
है, तो
तुलना में हम
भले मालूम
पड़ेंगे। हम
सिद्ध कर दें
कि सब चोर हैं,
तो तुलना
में हम साधु
मालूम
पड़ेंगे।
इसलिए हम निंदा
में इतना रस
लेते हैं।
निंदा का एक
ही प्रयोजन है,
दूसरों की
बुराई इतनी
फैला—बढ़ाकर
करना कि धीरे —
धीरे तुम भले
मालूम होने
लगो। यही
दूसरे तुम्हारे
साथ कर रहे
हैं। तो एक
निंदा का
व्यवसाय चलता
पूरे समाज
में।
'निंदा न
करना।'
क्योंकि
संन्यस्त, प्रवजित,
भिक्षु जो
हो गया, अब
उसकी
आकांक्षा
अपने को उठाने
की है, दूसरे
को गिराने की
नहीं है।
'घात न करना। '
किसी
को हानि न
पहुंचाना।
क्योंकि
जितनी ऊर्जा
दूसरे को घात
करने में
लगेगी, उतनी
ऊर्जा तो
ध्यान बन जाती,
परम संपदा
बन जाती, निर्वाण
बन जाती।
'पातिमोक्ष
में सम्बर
रखना। '
पातिमोक्ष
का अर्थ होता
है,
बुद्ध ने जो
कहा है। बुद्ध
अर्थात जागे
हुए पुरुषों
ने जो कहा है।
उसको मानना, उसको
स्वीकारना।
क्योंकि बहुत
बातें ऐसी भी उन्होंने
कही हैं, जो
तुम्हें आज
समझ में शायद
न भी आएं।
प्रयोग से समझ
में आएं, अनुभव
से समझ में
आएं। उन पर
प्रयोग करके
देखना।
प्रयोग बिना
किए निर्णय न
लेना। ही या न
कुछ भी नहीं।
जिसको
वैज्ञानिक
हाइपोथीसिस
कहते हैं, कि
कोई चीज की
परिकल्पना।
किसी ने कहा
कि कमरे में
कुर्सी रखी है,
हमने कहा कि
ठीक है, खोजने
की दृष्टि से
मान लेते हैं।
मान नहीं लिया
कि कुर्सी है,
लेकिन
खोजने की
दृष्टि से मान
लेते
है—हाइपोथीसिस।
अब हम कमरे
में जाकर
देखेंगे। अगर
पाया कि
कुर्सी है, तो जो
परिकल्पना
मानी थी, वह
सत्य हो गयी।
अगर पाया कि
कुर्सी नहीं
है, तो जो
परिकल्पना
मानी थी, वह
असत्य हो गयी।
लेकिन इसका
नाम विश्वास
नहीं है।
हाइपोथीसिस
का इतना ही
मतलब है, प्रयोगार्थ
स्वीकार कर
लेते हैं कि
ठीक है।
तो
जो
बुद्धपुरुषों
ने कहा
है—पातिमोक्स—जो—जो
उन्होंने कहा
है,
उसमें सभी
तुम्हारी समझ
में आएगा भी
नहीं। क्योंकि
तुम्हारी समझ
सारी चीजों के
अनुभव से भरी
भी नहीं है, तो विश्वास
की जरूरत नहीं
है, प्रयोगार्थ
स्वीकार कर
लेना।
'
भोजन में
मात्रा
जानना। '
बुद्ध
को यह बात
बार—बार कहनी
पड़ी,
' भोजन में
मात्रा
जानना।’
उस
समय यह बड़ा
भारी सवाल था।
एक तरफ लोग थे
जो खूब खाए जा
रहे थे, जो
सदा से हैं।
और उस समय एक
और पागलपन
पैदा हुआ
था—दूसरी तरफ
लोग थे जो
उपवास किए जा
रहे थे। इन
दोनों ने आदमी
को विक्षिप्त
कर रखा था। या
तो ज्यादा खाने
वाले लोग, या
न खाने वाले
लोग। ज्यादा
खाने वाले लोग
शरीर को मिटाए
ले रहे थे और
शरीर के साथ
मूर्च्छित
हुए जा रहे
थे। न खाने
वाले लोग शरीर
की हत्या किए
दे रहे थे और ऊर्जा
इतनी क्षीण
हुई जा रही थी
कि ध्यान का
कोई उपाय न
था।
तो
बुद्ध हर चीज
में मात्रा के
लिए कहते हैं
कि मात्रा
जानना, मध्य
में रुक जाना,
अति मत
करना—अतिसर्वत्र
वर्जयेत्।
'एकांतवास
करना। '
और
जहां मौका
मिले, जैसी सुविधा
बने, वहा
अकेलेपन को
खोजना।
क्योंकि
तुम्हारे भीतर
जो पडा है, जब
तुम अकेले
होओगे तभी उसे
देख पाओगे।
दूसरे की
मौजूदगी
तुम्हें बाहर
ले जाती है।
भीड़ में भी
रहो तो भी
अकेले रहना, यह बुद्ध का
उपदेश है।
'
और चित्त
योग में
लगाना।'
अभी
चित्त संसार
में लगा है, भोग
में। धीरे—
धीरे इसकी
ऊर्जा को
हटाना वहा से।
धीरे—धीरे
रत्ती कर—करके,
बूंद
कर—करके इसे
ध्यान में, योग में, मोक्ष
में लगाना।
'यही बुद्धों
का शासन है।’
ओशो
एस
धम्मो
सनंतनो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें