यह
सूत्र भी—यह
अंतिम सूत्र
बुद्ध ने एक
परिस्थिति
में कहे थे, वह
मैं आपको
दोहरा दूं।
जंगल में
बुद्ध बैठे
हैं ध्यान
करने और एक
सर्पराज—
सर्पों का
राजा— फन
फैलाकर खड़ा हो
गया। उसने
झुककर बुद्ध
के चरणों में
प्रणाम किए।
बुद्ध ने आंख
खोली
उन्होंने कहा
महाराज—
क्योंकि देखा
उसके माथे पर
अदभुत मणि है
जो सिर्फ
नागों में
सम्राटों के
माथे पर होती
है— तो बुद्ध
ने कहा महाराज
क्या चाहते
हैं? तो उस
नाग ने कहा
मैं जन्मों—
जन्मों से भटक
रहा हूं। जो
भी किया सब
उलटा चला गया।
कब तक सरकता
रहूंगा जमीन
पर? कब तक
सरकता रहूंगा
खाई— खंदकों
में अंधेरी
गलियों में? कब तक सरकता
रहूंगा? कब
उठूंगा? कब
उड़ सकूंगा? तुम्हें
मैने उड़ते
देखा।
तुम्हारे
प्राणों की
ऊर्जा को कहीं
जाते देखा।
इसलिए पूछता
हूं मुझे कुछ
उपदेश है?
ये
जो सूत्र हैं :
'सभी पापों
का न करना, पुण्यों
का संचय करना
और अपने चित्त
का शोधन करते
रहना—यही
बुद्धों का
शासन है। '
'तितिक्षा और
क्षांति परम
तप हैं, बुद्ध
निर्वाण को
परम रहते हैं,
दूसरों का
घात करने वाला
प्रवजित नहीं
होता और
दूसरों को
सताने वाला
श्रमण नहीं
है। '
'निंदा न
करना, घात
न करना, पातिमोक्ष
में सम्बर
रखना, भोजन
में मात्रा
जानना, एकातवास
करना और चित्त
योग में
लगाना—यही
बुद्धों का
शासन है।’ ये
उस सर्पराज को
कहे गए थे।
सोचना
इसे थोड़ा। हम
भी सब जमीन पर
सरकते हुए सर्प
हैं। अभी हमने
सिर भी उठाकर
कहां आकाश की तरफ
देखा? अभी तो
अंधी
गलियो—कूचों
में, पोलों
में, कोने—कातते
में हम सरकते
फिरते हैं।
फिर
सर्प का
प्रतीक ही
क्यों चुना
होगा? क्योंकि
सर्प जन्म से
ही दूसरे को
चोट पहुंचाने
का जहर लेकर
आता है, इसलिए।
उसके जहर की
गांठ जन्म से
ही उसके भीतर
है। वह दूसरे
को मारने में
ही, दूसरे
का घात करने
में ही रस
लेता है। यही
तो गांठ हम भी
लेकर आए हुए
हैं। यह प्रतीक
प्यारा है। और
सर्प का
प्रतीक सारे
धर्मों ने
चुना है।
उसमें कुछ
कारण है।
ईसाई
कहते हैं कि
सर्प ने
भटकाया आदमी
को। ईव को
समझाया कि खा
ले यह फल जो
भगवान ने
वर्जित किया
है। ईव को
फुसलाया सर्प
ने। बुद्ध की
इस कथा में
सर्प कहता है
कि कब तक मैं
सरकता रहूंगा
जमीन पर? हिंदू
कहते हैं, कुंडलिनी
जो ऊर्जा है
मनुष्य के
भीतर, वह
सर्पाकार है।
वह सर्प जैसी
है। जब उठती
है फन उठाकर
तो उसका फन जब
चोट करता है
सहस्रार में
तो सारे कमल
खिल जाते हैं।
सर्प
का प्रतीक
आदमी के बहुत
करीब है।
उसमें कई
खूबियां हैं।
पहली बात, उसकी
खूबी है कि
सर्प बहुत
चालाक। उस
चालाकी के कारण
ईसाइयों ने
उसका प्रतीक
बनाया कि उसने
स्त्री को
भरमाया, ईव
को समझाया और
अदम को ईश्वर
की बगांवत में
जाने का
प्रोत्साहन
दिया। सर्प
बड़ा शैतान, क्योंकि बड़ा
चालाक प्राणी
है। बड़ा
चालबाज। भरोसे
का नहीं। उस
प्रतीक का उपयोग
किया।
बुद्ध
की इस कथा में
सर्प का
प्रयोग हो रहा
है इस अर्थ
में कि सबकी
दशा ऐसी है।
कि हम जन्म से ही
जहर की ग्रंथि
लेकर पैदा
हुए। दूसरे को
चोट पहुंचाने
में ही समाप्त
हुए जा रहे
हैं। दूसरे को
मार डालने में
ही हमने अपना
जीवन समझा है।
इसलिए। लेकिन
एक दिन सर्प
भी थक जाता
है। तुम कब
थकोगे? एक
दिन सर्प भी
बुद्ध से
पूछता है कि
मैं कब तक ऐसे
ही सरकता
रहूंगा! तुम
कब पूछोगे? इसलिए
प्रतीक चुना।
हिंदुओं
ने प्रतीक
चुना है कि
सर्प जब खड़ा
हो जाता है. तो
सर्प की बड़ी
खूबियां हैं, उसमें
हड्डी होती
नहीं। उसके
पास हड्डी बिलकुल
नहीं है, लेकिन
सर्प खड़ा हो
जाता है बिना
हड्डी के। होना
नहीं चाहिए
वैज्ञानिक
ढंग से, लेकिन
सर्प पूंछ के
बल खड़ा हो
जाता है, फन
उठाकर। और
उसके पास कोई
हड्डी नहीं
है। तो चमत्कार
है। ऐसा ही
चमत्कार
मनुष्य के
भीतर घटता कि
जो ऊर्जा
काम—ग्रंथि
में पड़ी है, बिना किसी
सहारे के, बेसहारे,
बिना
माध्यम खड़ी हो
जाती है, सर्प
जैसी। फन जाकर
चोट करता है
ऊपर और आखिरी 'खुल जाता
है। इसलिए
हिंदुओं ने
उसका वैसा प्रयोग
कर लिया है।
लेकिन सर्प का
प्रयोग
प्रतीकात्मक
है। ये सूत्र
बुद्ध ने सर्प
को कहे थे। सभी
सूत्र
बुद्धों ने
सर्पों को कहे
हैं। क्योंकि
मनुष्य अभी
सर्प ही है। और
इन सर्पों में
भी कुछ कम, थोड़े
से भाग्यवान
सर्प पूछते
हैं। नहीं तो
पूछते ही
नहीं। वे तो
सोचते हैं, जैसा जी रहे
हैं, वही
ठीक है।
इन
पथरीले वीरान
पहाड़ों पर
जिंदगी
थक गयी है
चढ़ते—चढ़ते
क्या
इस यात्रा का
कोई अंत नहीं
हम गिर
जाएंगे थककर
यहीं कहीं
कोई
सहयात्री साथ
न आएगा
क्या
जीवनभर कुछ
हाथ न आएगा
क्या
कभी किसी
मंजिल तक
पहुंचेंगे
या बिछ
जाएंगे पथ
गढ़ते—गढ़ते
इन
पथरीले वीरान
पहाड़ों पर
जिंदगी
थक गयी है
चढ़ते—चढ़ते
धुंधुआती
दिशाएं, अंगारे,
ये खंडित
दर्पण
टूटे
इकतारे, कहते
इस पथ में हम
ही नए नहीं
हम से
भी आगे कितने
लोग गए
पगचिह्न
यहां ये किसके
अंकित हैं
हम हार
गए इनको
पढ़ते—पढ़ते
इन
पथरीले वीरान
पहाड़ों पर
जिंदगी
थक गयी है
चढ़ते—चढ़ते
हम से
किसने कह दिया
कि चोटी पर
है एक
रोशनी का
रंगीन नगर
क्या
सच निकलेगा उसका
यही कथन
या
निगल जाएगी
हमको सिर्फ
थकन
देखें
सम्मुख घाटी
है या कि शिखर
आ गए
मोड़ पर हम
बढ़ते—बढ़ते
इन
पथरीले वीरान
पहाड़ों पर
जिंदगी
थक गयी है
चढ़ते —चढ़ते
ऐसा
जब तुम्हें
दिखायी पड़ जाए
कि
सरकते—सरकते वीरान
रास्तों पर थक
गए हो, तब तुम
किसी बुद्ध के
चरणों में सिर
झुकाकर पूछते
हो, अब
क्या करें? क्या सर्प
ही बने रहेंगे
हम, या
उठने का कोई
उपाय है?
उपाय
है। सुख मत
खोजो, दुख को
देखो, दुख
का कारण खोजो,
दुख का कारण
जानते दुख से
मुक्त होने का
उपाय मिल जाता,
उपाय मिलते
ही कौन नासमझ
होगा जो उसका
उपयोग न कर ले!
उपयोग होते ही
दुख—निरोध हो
जाता है। वही
दशा निर्वाण
की है।
ओशो
एस
धम्मो
संनतनो
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