अध्याय
62
सज्जन
का खजाना
ताओ
संसार का
रहस्य भरा
मर्म है,
सज्जन
का खजाना, और
दुर्जन की
पनाह।
सुंदर
वचन बाजार में
बिक सकते हैं,
श्रेष्ठ
चरित्र भेंट
में दिया जा
सकता है।
यद्यपि
बुरे लोग हो
सकते हैं,
तथापि
उन्हें
अस्वीकृत
क्यों किया
जाए?
इसलिए
सम्राट के
राज्याभिषेक
पर,
तीन
मंत्रियों की
नियुक्ति पर,
मणि-माणिक्य
और चार-चार घोड़ों
के
दल भेंट में
भेजने के बजाय,
ताओ
की भेंट भेजना
श्रेयस्कर
है।
किस
बात में
पूर्व-पुरुषों
ने इस
ताओ
को मूल्य दिया
था?
क्या
उन्होंने
नहीं कहा था,
"अपराधियों
को खोजने और
उन्हें माफ कर
देने को?'
इसलिए
ताओ संसार का
खजाना है।
लाओत्से
के सूत्रों
में प्रवेश के
पूर्व कुछ प्राथमिक
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं।
पहली
बात,
लाओत्से
किसे रहस्य
कहता है?
इस
शब्द से
ज्यादा कीमती
दूसरा कोई
शब्द धर्म की
यात्रा में
नहीं है।
रहस्य को समझ
लिया तो सब
समझ लिया। वही
गहरे से गहरा
मर्म है। वही
है गुप्त से गुप्त
खजाना। रहस्य
क्या है?
रहस्य
ऐसी समझ है कि
तुम उसे समझ
भी न कह पाओगे।
रहस्य एक ऐसा
जानना है कि
तुम जान कर
ज्ञानी न बन
पाओगे, दावा
न कर सकोगे कि
जान लिया। जान
लोगे, लेकिन
दावा न कर
पाओगे। गूंगे
केरी सरकरा,
खाय और मुस्काय।
तुम्हारा
पूरा
व्यक्तित्व
कहेगा, तुम
न कह सकोगे कि
जान लिया।
तुम्हारा
रोआं-रोआं
कहेगा, लेकिन
तुम्हारा
अहंकार
निर्मित न हो
सकेगा कि जान
लिया।
जानने
वाला मिट जाए
जिस ज्ञान में
वही रहस्य है।
ज्ञान
दो तरह के
हैं। एक ज्ञान
है जिससे
जानने वाला
मजबूत होता
है। एक ज्ञान
है जिससे
जानने वाला
धीरे-धीरे
पिघलता है; अंततः
वाष्पीभूत हो
जाता है।
ज्ञान तो बच
रहता है, जानने
वाला खो जाता
है।
हेरत हेरत हे
सखी,
रह्या कबीर हेराई।
रहस्य
ऐसा ज्ञान है
जो ज्ञानी को
मार देता है।
रहस्य एक ऐसी
अनुभूति है
जिसमें जानने
वाला और जिसे
जाना है, दोनों
एक हो जाते
हैं। फासला
नहीं रह जाता,
अंतराल
नहीं बचता। तो
कौन कहे कि
जान लिया? किसको
कहे कि जान
लिया? दावा
कौन करे? किसके
संबंध में करे?
दावेदारी
खो जाती है।
ऐसा ज्ञान
रहस्य है।
रहस्य
गणित का
साफ-सुथरा
रास्ता नहीं
है;
सुगढ़, साफ, व्यवस्थित
राज-मार्ग
नहीं है।
पहाड़ों में घूमता
हुआ, वन-प्रांतों
में उलझा हुआ,
पगडंडी की
तरह है। तुम
उस पर चल सकते
हो, लेकिन
अकेले; भीड़
वहां न हो
सकेगी। तुम
उसे जान भी
सकते हो, लेकिन
अपने परम
एकांत में।
वहां दूसरा
गवाह न हो
सकेगा। तो अगर
तुम कहोगे कि
मैंने जान लिया
तो तुम गवाही
न खोज पाओगे।
क्योंकि जब भी
तुम जानोगे
अकेले जानोगे,
वहां दूसरे
न होंगे।
इसलिए रहस्य
ऐसा ज्ञान है
जो आत्यंतिक
रूप में सब्जेक्टिव
है, आत्मिक
है; आब्जेक्टिव नहीं है, विषयगत
नहीं है। यही
तो धर्म और विज्ञान
का फासला है।
विज्ञान
भी सत्य को
खोजता है, लेकिन
खोज का ढंग आब्जेक्टिव
है, बाहर
खोजता है, दूसरे
में खोजता है,
पर में
खोजता है, वस्तु
में खोजता है।
इसलिए तो
विज्ञान
सार्वभौम बन
जाता है। एक
दफा खोज लिया
तो सभी को साफ हो
जाता है।
खोजने वाले को
ही नहीं, जिन्होंने
खोजने में कोई
हिस्सा नहीं
बंटाया उनको
भी साफ हो
जाता है।
एडीसन या
आइंस्टीन वर्षों
मेहनत करके
कुछ खोजते हैं;
सारी
दुनिया जान
लेती है। हर
एक को अलग-अलग
खोजने की कोई
जरूरत नहीं।
एक ने खोज
लिया, सब
ने पा लिया।
स्कूल में
विद्यार्थी पढ़ेगा फिर,
और जान
लेगा।
विज्ञान
में खोजता एक
है,
ज्ञान सबका
हो जाता है।
धर्म में
खोजता एक है, उसका ही
ज्ञान रहता है,
दूसरे का
नहीं हो पाता।
इसलिए गवाह
नहीं जुटाए जा
सकते। तुम
कहोगे भी तो
कोई तुम्हारी
मानेगा न। लोग
हंसेंगे। लोग
पागल
समझेंगे।
क्योंकि जिस
बात के लिए
गवाह न हो और
जिसे तुम
दूसरे के
सामने प्रकट न
कर सको उसकी
मान्यता कौन
करेगा?
तुम
कहते हो, मैंने
ईश्वर को पा
लिया। लोग
कहेंगे, दिखाओ
कहां है ईश्वर?
जब तुमने पा
लिया, हमें
भी दिखा दो।
तब तुम
मुश्किल में
पड़ जाओगे। तुम
कहोगे, जान
लिया आत्मा
को। लोग
कहेंगे, थोड़ा
झलक हमें भी
दिखा दो। तब
तुम कठिनाई
में हो जाओगे।
क्योंकि
तुमने जो झलक
पाई है वह
नितांत
वैयक्तिक है।
तुमने जो जाना
है वह तुम
दूसरे को न
जना सकोगे।
तुम ज्ञान को
ऐसा दे न
सकोगे, हस्तांतरित
न कर सकोगे। ट्रांसफरेबल
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर पैदा
होता है; तुम
उससे आपूर भर
जाते हो, आकंठ
भर जाते हो।
तुम्हारा
रोआं-रोआं उसे
ध्वनित करने
लगता है; तुम्हारी
धड़कन-धड़कन में
उसका गीत होता
है। उठते हो, बैठते हो, तो उसी में; चलते हो, फिरते
हो, तो उसी
में; वही
सब कुछ हो
जाता है
तुम्हारे
जीवन का। एक अपूर्व
वातावरण की
तरह तुम्हें
घेर कर चलता
है तुम्हारा
अनुभव। लेकिन
तुम किसी को
भी भागीदार न
बना सकोगे।
निकटतम भी, तुम्हारा
प्रिय से
प्रिय
व्यक्ति भी
बाहर ही खड़ा
रहेगा, तुम्हारे
अंतःकक्ष
में प्रवेश न
पा सकेगा।
इसलिए
धर्म हर बार
खोजा जाता है, हर
बार खो जाता
है। बुद्ध खोज
लेते हैं, खो
जाता है। लाओत्से
खोज लेता है, खो जाता है।
हजार बार खोजा
जाता है, फिर-फिर
खो जाता है।
और जब भी
तुम्हें
खोजना होगा तो
तुम्हें नए
सिरे से ही
खोजना होगा।
इसलिए धर्म का
कोई विज्ञान
नहीं बन सकता;
उसे
पाठशालाओं
में पढ़ाया
नहीं जा सकता।
उसका कोई
शास्त्र नहीं
बन सकता। कोई
दूसरा
तुम्हें दे ही
नहीं सकता। यह
है उसका
रहस्य। खजाना
इतना
रहस्यपूर्ण
है कि अकेला
अपने अकेलेपन
में ही पाता
है। वह अंतरतम
का स्वाद है। पगडंडी
है एकांत की।
इसलिए
तो महावीर ने
उस परम रहस्य
को कैवल्य कहा
है। महावीर ने
बड़ा अनूठा
शब्द चुना है।
सब शब्द फीके
हैं। औरों ने
भी शब्द चुने
हैं,
लेकिन
महावीर का
शब्द निश्चित
अनूठा है। कैवल्य
का अर्थ है:
टोटल, एब्सोल्यूट लोनलीनेस।
कैवल्य का
अर्थ है:
बिलकुल अकेले;
केवल तुम, और कोई भी
नहीं। केवल
तुम्हारी
चेतना, और
कोई भी नहीं।
वह ज्ञान
कैवल्य है। वह
रहस्यपूर्ण
है। बंधे हुए
रास्तों की
तरह नहीं है
जहां भीड़ चल
सके; बड़ा
बारीक और महीन
रास्ता है।
जीसस
ने कहा है, अगर
मेरे मार्ग पर
चलना है तो
बड़ा संकीर्ण
है मार्ग, नैरो
इज़ दि
गेट। बड़ा
संकीर्ण है
द्वार।
कबीर
ने कहा है, प्रेम
गली अति सांकरी,
तामें दो न समाय।
वहां
दो भी न बन
सकेंगे, तीन का
तो सवाल ही
नहीं उठता।
तुम अकेले ही
जाओगे--नग्न, निर्वस्त्र,
धारणा-शून्य।
तुम एक विचार
भी अपने साथ न
ले जा सकोगे, व्यक्ति की
तो बात और।
तुम शास्त्र
अपने साथ न ले
जा सकोगे। तुम
अपना ज्ञान भी
अपने साथ न ले जा
सकोगे।
इसीलिए
तो ज्ञानी
कहते हैं, हो
जाओ छोटे बच्चे
की भांति
अज्ञानी।
क्योंकि
तुम्हारा ज्ञान
भी वहां साथ न
जा सकेगा।
तुमने जो भी कूड़ा-कर्कट
सम्हाला है
संसार में, बचाया है, कुछ भी तुम
वहां न ले जा
सकोगे। मंदिर
के बाहर ही सब
छोड़ देना
होगा। जाएगी
निर्वस्त्र
चेतना, नग्न,
नितांत
अकेली। केवल
तुम्हारा होश
जाएगा, और
कुछ भी नहीं
जाएगा। लौट कर
तुम गूंगे हो
जाओगे। कहना
चाहोगे, शब्द
न मिलेंगे।
बताना चाहोगे,
हाथ न
उठेगा। इसलिए
है रहस्य: जान
लिया जाए और कहा
न जा सके।
वैज्ञानिक
कहते हैं, जिसको
जान लिया उसे
कहने में अड़चन
क्या? कहते
क्यों नहीं? जब जान ही
लिया तो कह दो!
पश्चिम के एक
बहुत बड़े
विचारक और
बहुत योग्य प्रतिभा-संपन्न
व्यक्ति
लुडविग विटगिंस्टीन
ने कहा है कि
जो तुम न कह
सको, फिर
यह भी मत कहो
कि नहीं कह
सकते हैं, फिर
बिलकुल ही चुप
रहो। यह इतना
और क्यों कहते
हो कि कह नहीं
सकते हैं? अगर
इतना ही कहते
हो तो बाकी और
भी कह दो।
विटगिंस्टीन भी
ठीक कह रहा है, कि
क्यों
परेशानी में
डालते हो? तुम
परेशानी में
खुद हो और
दूसरों को
डालते हो।
नहीं कह सकते
तो चुप ही
रहो। दैट
व्हिच कैन नाट
बी सेड शुड
नाट बी सेड।
मत कहो जो
नहीं कहा जा
सकता। लेकिन
इतना तो तुम
कहते हो कि
नहीं कहा जा
सकता, और
फिर चुप हो
जाते हो।
रहस्य
का अर्थ यही
है। कहा भी
नहीं जा सकता; बिन
कहे भी नहीं
रहा जा सकता।
कहो तो मौत, न कहो तो
मौत। कहो तो
उलझन, न
कहो तो उलझन।
पहेली ऐसी कि
सुलझाई भी
नहीं जा सकती
और बिना सुलझाए
रहा भी नहीं
जा सकता। और
मजा तो यह है
कि कहीं भीतर
गहरे में सुलझ
भी जाती है।
लेकिन जब तुम
बाहर सुलझाने
की कोशिश करते
हो तो तुम
पाते हो, बाहर
सुलझाना
असंभव है।
रहस्य
का यह भी अर्थ
है कि तुम पा
तो लोगे, लेकिन
जान न पाओगे।
तुम एक हो
जाओगे सत्य के
साथ, तुम
सत्य हो जाओगे,
लेकिन जान न
पाओगे।
क्योंकि तुम
उसके ही हिस्से
हो।
एक
ऊर्मि उठती है
सागर के तट पर, एक
लहर उठती है।
वह लहर सागर
है, लेकिन
सागर को जान न
पाएगी। सागर
से उठी है, सागर
में गिरेगी, वापस लीन
होगी, सागर
ही है, रंच
मात्र भी
फासला नहीं, फिर भी लहर
सागर को जान न
पाएगी।
क्योंकि सागर
बहुत बड़ा, लहर
बहुत छोटी।
तुम
परमात्मा में
हो। लेकिन तुम
लहर की भांति हो, परमात्मा
सागर की भांति
है। तुम रत्ती
भर भी उससे
दूर नहीं। रंच
भर भी फासला
नहीं। दूर
होने का उपाय
ही नहीं है।
अभिन्न हो।
लेकिन फिर भी तुम
जान न पाओगे।
जी सकते हो
परमात्मा को,
जान नहीं
सकते।
क्योंकि जीने
में कोई
असुविधा नहीं
है, जानने
में असुविधा
है। क्योंकि
जानने का स्वभाव
है कि तुम उसे
ही जान सकते
हो जो तुमसे
अलग है, जो
तुमसे भिन्न
है। जानने के
लिए थोड़ी दूरी
चाहिए, फासला
चाहिए, थोड़ा
अंतराल
चाहिए। नहीं
तो
परिप्रेक्ष्य
बनेगा नहीं। पर्सपेक्टिव
चाहिए।
परमात्मा
को जानने में
बड़ी से बड़ी
कठिनाई यही है
कि उसके और
तुम्हारे बीच
इंच भर की भी
दूरी नहीं है।
कहां से खड़े
होकर देखो उसे? कौन
देखे दूर खड़े
होकर? दूर
हुआ नहीं जा
सकता। तुम
उससे ही जुड़े
हो। तुम एक
हो। दूरी होती
तो हम पार कर
लेते। हमने जेट
ईजाद कर लिया,
हम और बड़े
महा जेट बना
लेते; दूरी
होती हम पार
कर लेते। चांद
पर हम पहुंच गए,
कभी
परमात्मा पर
भी पहुंच
जाते।
सोवियत
रूस का
अंतरिक्ष यान
जब पहली बार
मंगल के पास
पहुंचा और
मंगल का
परिभ्रमण
किया, तो वहां
से अंतरिक्ष
यात्रियों ने
जो सूचना दी
वह बड़ी
विचारणीय है।
उन्होंने सूचना
दी कि यहां तक
परमात्मा का
हमें कोई पता
नहीं चला; अभी
तक हमें ईश्वर
नहीं मिला।
इतनी दूर आ गए
हैं, अभी
तक ईश्वर नहीं
मिला। इसलिए
निश्चित ही ईश्वर
नहीं है।
अगर
परमात्मा दूर
होता तो हम
जरूर पहुंच
जाते।
परमात्मा को
खोजने मंगल
जाने की थोड़े
ही जरूरत है!
बुद्ध को गया
के पास एक
छोटे से वृक्ष
के नीचे बैठ
कर मिल गया।
लाओत्से को
अपने गांव में
बैठे-बैठे मिल
गया। कोई
चांद-मंगलत्तारों
पर जाने की
जरूरत है? दूर
है ही नहीं।
तुम कहीं गए
कि भटके। तुम
अपने में ही
रहे तो पा
लिया। अपने
में ही बसे तो
मिल गया। जरा
भी यहां-वहां सरके, हिले-डुले
कि मुश्किल
में पड़े।
खोया
है खोजने के
कारण। खोज रुक
जाए तो तुम अभी
उसे पा लो।
परमात्मा को
खोजना नहीं है, अपने
को विश्राम
में ले आना
है। दौड़ शून्य
हो जाए।
क्योंकि दौड़
उसके लिए जो
दूर हो। और जो
पास हो उसके
लिए दौड़ का
क्या प्रयोजन
है? दौड़-दौड़
कर और दूर
निकल जाओगे।
रुक जाओ, ठहर
जाओ। वह मिला
ही हुआ है। वह
प्राप्त ही है।
वह सदा से
तुम्हारे
भीतर रमा ही
हुआ है। इसलिए
रहस्य!
जीवन
के सारे गणित
को तोड़ देता
है। गणित तो
साफ है कि जो
नहीं मिल रहा
हो,
दौड़ो! खोजो! यह
गणित से
बिलकुल उलटी
बात है--रुको, ठहरो, कहीं
मत जाओ। घर
में ही छिपा
है इसलिए
खजाना। तुम
जहां खड़े हो
वहीं खड़ा है।
तुम जहां हो
वहीं बैठा है।
तुम जो हो वही
है। रहस्य
इसलिए भी!
एक तो
तर्कनिष्ठ
वक्तव्य होता
है जिसमें सब
रेखाएं साफ
होती हैं, जिसकी
परिभाषा
सुनिश्चित
होती है। एक
काव्य का
वक्तव्य होता
है जिसकी सब
रेखाएं धूमिल
होती हैं; परिभाषा
सुस्पष्ट
नहीं होती।
लगता है कुछ
कहा जा रहा है,
लेकिन
जितना ही तुम
गौर करो, विचार
करो, उतनी
ही पकड़ छूटती
जाती है।
संत
अगस्तीन ने
कहा है, लोग
मुझसे पूछते
हैं, परमात्मा
क्या है? और
मेरी दशा वैसी
हो जाती है
जैसे लोग कभी
पूछ लेते हैं
कि समय क्या
है? व्हाट इज़ टाइम? जब मुझसे
कोई नहीं
पूछता, तब
मैं भलीभांति
जानता हूं कि
समय क्या है।
जैसे ही किसी
ने पूछा कि
मैं मुश्किल
में पड़ जाता
हूं।
तुम भी
जानते हो कि
समय क्या है।
कहते हो, सुबह
छह बजे उठना
है। क्या मतलब
है? कहते
हो कि आठ बजे
यहां पहुंचे।
क्या मतलब है
तुम्हारा? कहते
हो, फलां
आदमी कल सांझ
मर गया। क्या
कह रहे हो? कहते
हो, तीस
साल गुजर गए
जिंदगी के।
क्या है
तुम्हारा अर्थ?
समय का तुम
चौबीस घंटे
उपयोग कर रहे
हो। लेकिन अगर
कोई पूछ ले कि
समय है क्या? तो अब तक कोई
भी जवाब नहीं
दे पाया है।
बड़े-बड़े
वैज्ञानिक
सिर फोड़ते रहे
हैं कि किसी
तरह समय की
कोई परिभाषा
बना लें। कोई
परिभाषा बनती
नहीं। समय में
जीते हो, समय
में
उठते-बैठते
हो।
महावीर
ने तो यह देख
कर कि समय की
परिभाषा नहीं
की जा सकती और
आत्मा की भी
परिभाषा नहीं
की जा सकती, आत्मा
का नाम ही समय
रख दिया।
इसलिए जैन
ध्यान को
सामायिक कहते
हैं। सामायिक
का अर्थ है, समय में
प्रवेश, आत्मा
में प्रवेश।
महावीर ने तो
कहा कि स्वभाव
ही आत्मा का
समय जैसा है।
तुम
जानते नहीं
क्या है, फिर
भी जीते तो
बड़े मजे से
हो। समय का
उपयोग भी करते
हो। जवान होते
हो, बूढ़े
होते हो; आते
हो, जाते
हो; समय का
ठीक-ठीक उपयोग
करते हो।
लेकिन कोई
परिभाषा नहीं
बनती। जैसे ही
परिभाषा बांधते
हो वैसे ही, पारे पर
जैसे कोई
मुट्ठी बांधे,
समय बिखर
जाता है।
तर्क
की परिभाषाएं
सुस्पष्ट
रेखाएं हैं; विभाजन
साफ है। रहस्य
का अर्थ है कि
परम सत्य गणित
और तर्क जैसा
नहीं, काव्यात्मक
है, पोएटिक है, धूमिल
है। पकी
दुपहरी की तरह
नहीं, जब
सब रोशनी में
साफ-साफ होता
है, हर चीज
अलग-अलग होती
है। सुबह की
भांति है, धुंध
में दबी
कुंआरी सुबह
की भांति है, जहां कुछ भी
साफ नहीं
होता। शीतकाल
की सुबह, सब
धुआं-धुआं, सब रेखाएं
धूमिल, एक
चीज दूसरे में
मिलती, खोती,
लीन। सब
इकट्ठा-इकट्ठा;
खंड-खंड कुछ
भी नहीं, सब
अखंड। दिन की
तरह नहीं है
वह रहस्य, अंधेरी
रात की तरह
है। अमावस की
रात। बस--चांद भी
नहीं--तारों
की
टिमटिमाहट।
बस इतनी ही
रोशनी कि
अंधेरा साफ हो,
मिटे न।
इतनी ही रोशनी
कि अंधेरे का
पता चले, और
अंधेरा गहन
होकर मालूम
पड़े।
बुद्ध
को पूर्णिमा
की रात ज्ञान
हुआ। पता नहीं, ऐसा
हुआ या केवल
काव्य है यह।
पूर्णिमा की
रात चांद तो
होता है, लेकिन
चांद की बड़ी
से बड़ी खूबी
यही है कि वह
चीजों को
धूमिल करता
है। पूरे चांद
की रात रोशनी
तो होती है, लेकिन
रेखाएं साफ
नहीं होतीं।
रोशनी का एक
सागर होता है,
लेकिन बड़ा
धुआं-धुआं, रहस्यपूर्ण।
चांद चीजों को
एक रहस्य दे
देता है।
इसलिए
तो कवि प्रेम
करते हैं, प्रेमी
प्रेम करते
हैं। चांद
चीजों को ऐसा
सौंदर्य दे
देता है जो
दिन की दुपहरी
में छिन जाता
है। वही वृक्ष
रात देखो, वही
फूल रात चांद
की रोशनी में
देखो; वही
चेहरा रात
चांद की रोशनी
में देखो, वही
चेहरा दिन की
दुपहरी में।
बड़ा
जमीन-आसमान का
अंतर है। चांद
बहुत कुछ छिपा
लेता है, बहुत
कुछ प्रकट
करता है। उसका
संयोजन अलग
है।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ
पूर्णिमा की
रात;
सब आकाश बड़े
रहस्य से भरा
था। महावीर को
ज्ञान हुआ
अमावस की रात;
सारा
अस्तित्व
सिर्फ तारों
की टिमटिमाहट
से भरा था। और
यह जान कर मैं
हैरान हुआ हूं
कि अब तक दिन
की दुपहरी में
किसी को ज्ञान
नहीं हुआ; कोई
निर्वाण को
उपलब्ध नहीं
हुआ। कोई भी, जब भी यह
घटना घटी है, रात में घटी
है। सांयोगिक
नहीं हो सकती,
रात से कुछ
गहरा संबंध
है। रात में
कुछ बात है जो
दिन में नहीं
है। रात में
कुछ गीत है जो
दिन में नहीं
है। दिन बहुत
साफ-सुथरा है।
और वह परम
रहस्य इतना
साफ-सुथरा
नहीं है। दिन
में चीजें
अलग-अलग हैं, पृथक-पृथक
हैं। और वह सत्य
अपृथक है, अभिन्न
है। एक चीज से
दूसरे से मिला
है। रात की निबिड़ता
में कुछ बात
है जो निर्वाण
के, परम
मुक्ति के
ज्यादा
अनुकूल और
निकट है।
ध्यान
रखना, रहस्य
का अर्थ है वह
एक काव्य है।
कविता को पीना,
स्वाद लेना;
समझने की भर
कोशिश मत
करना। किसी ने
पिकासो
को पूछा कि
तुम्हारे इन
चित्रों का
मतलब क्या है?
तो पिकासो
ने कहा, चांदत्तारों से क्यों
नहीं पूछते कि
तुम्हारा
मतलब क्या है?
फूलों और
वृक्षों से
क्यों नहीं
पूछते कि तुम्हारा
मतलब क्या है?
पक्षियों
से, पशुओं
से क्यों नहीं
पूछते कि
तुम्हारा
मतलब क्या है?
मुझसे ही
क्यों पूछते
हो?
मेरे
बचपन में एक कबाड़ी की
दुकान से मैं
एक कैमरा खरीद
लाया। पांच रुपए
में उसने
दिया। अब पांच
रुपए में कोई
कैमरा मिलता
है?
खाली
डिब्बा ही था।
किसी ने कूड़े-कबाड़े
में फेंक दिया
होगा। पर मुझे
उसके चित्र
बहुत पसंद आए।
उससे जो चित्र
आते थे वे बड़े
रहस्यपूर्ण
थे। उनमें
पक्का पता
लगाना ही कठिन
था कि क्या
है। वृक्ष
उतारो, आदमी
की शक्ल है, नदी है, पहाड़
है; कुछ
पता न चलता।
बारह चित्रों
में आठ तो आते
ही नहीं; चार
ही आते। उनमें
भी पक्का
लगाना
मुश्किल था।
मैं ही जानता
था कि यह क्या
है; क्योंकि
मैंने ही लिया
था। बाकी
दूसरा तो कोई
पहचान ही नहीं
सकता था।
मेरी
नानी थीं, वह
मेरे कैमरे पर
बहुत नाराज
थीं। वह जब भी
मुझे कैमरा
लटकाए देखतीं,
वह कहतीं,
फेंको इस
ठीकरे को! कभी
इससे कुछ आया
है? क्यों
इसको लटकाए
फिरते हो
फिजूल? मेरे
गांव में एक
छोटा सा ही
फोटोग्राफर
है। वह भी
अपना दिमाग
ठोंक लेता था,
जब मैं उसके
पास अपने
चित्र डेवलप
करवाने ले
जाता। वह कहता,
क्यों
मेहनत करवाते
हैं? और
क्यों पैसा
खराब करते हैं?
मेरी समझ
में ही नहीं
आता कि यह है
क्या!
लेंस
खराब था।
लेकिन चीजें
बड़ी
रहस्यपूर्ण हो
जाती थीं।
पक्का पता
लगाना ही मुश्किल
था कि क्या क्या
है। एक
धूमिलता आ
जाती थी। लो
आदमी की
तस्वीर, वृक्ष
की मालूम पड़े।
लो वृक्ष की
तस्वीर, आदमी
समझ में आए।
जैसे कभी-कभी
आकाश में
बादलों को देख
कर होता है कि
बादल बनते-बिगड़ते
रहते हैं और
तुम
रूप-आकृतियां
बनाते रहते
हो। वे
आकृतियां भी
तुम्हें
कल्पित करनी
पड़ती हैं।
परमात्मा
का अर्थ है: यह
सारा विराट
वहां संयुक्त
है। वहां चांदत्तारे
बन रहे हैं एक
कोने पर; एक
कोने पर चांदत्तारे
मिट रहे हैं।
एक तरफ पृथ्वियां
बस रही हैं, दूसरी तरफ
विनष्ट हो रही
हैं। एक तरफ
सूरज जनम रहा
है, दूसरी
तरफ सूरज अस्त
हो रहा है। एक
तरफ प्रकाश है,
एक तरफ
अंधकार है। सब
इकट्ठा है।
उस
इकट्ठे को हम
झेल न पाएंगे, इसलिए
हमने छोटे
साफ-सुथरे
कोने बना लिए
हैं जिंदगी
में। अपना
आंगन
साफ-सुथरा कर
लिया है; उसके
भीतर हम रहते
हैं। हमारी
बुद्धि हमारा
आंगन है। उसके
बाहर फैला है
विराट।
एक बार
मैं गांव के
बाहर गया।
मेरे घर के
लोगों ने वह
कैमरा कहीं
फेंक दिया, और
मेरे सब चित्र
भी उठा कर
फेंक दिए।
क्योंकि वे
मानने को राजी
ही नहीं थे कि
ये चित्र हैं,
या यह कोई
कैमरा है।
जब तुम
परमात्मा की
तरफ जाओगे तब
तुम्हारी ये आंखें, जो
साफ-सुथरे को
देखने की ही
आदी हो गई हैं,
काम न
आएंगी।
तुम्हें जरा
धूमिल आंखें
चाहिए, जिनमें
चांद का
प्रकाश हो या
अमावस के
तारों की
टिमटिमाहट
हो। इतनी
रोशनी जितने
में तुम रहने
के आदी हो गए
हो उचित नहीं
है। यह रोशनी
चीजों को
खंड-खंड कर
रही है।
हम
यहां बैठे
हैं। सांझ हो
जाए,
सूरज डूब
जाए, धीरे-धीरे
अंधकार उतरने
लगे और
तुम्हारे बीच की
जो जगह है वह
अंधकार से
भरने लगे, तो
एक सेतु बनता
है। फिर गहन
अंधकार हो जाए,
फिर
तुम्हारे
पृथक भेद सब
समाप्त हो गए।
कौन है गरीब, कौन है अमीर;
कौन है
ज्ञानी, कौन
है अज्ञानी; कौन है पापी,
कौन है
पुण्यात्मा; सब खो गया।
अंधकार ने सब
को लील लिया।
तब जो एक चेतना
बच रह जाती है,
सब भेदों के
पार कंपित
होती, सब
लहरें जहां सो
गईं और केवल
सागर रह गया, वही है
रहस्य।
रहस्य
को गा सकते हो, कह
नहीं सकते।
इसलिए संत
गाते रहे।
रहस्य को नाच
सकते हो, कह
नहीं सकते।
इसलिए मीरा और
चैतन्य नाचे।
रहस्य को कह
नहीं सकते, मौन में
दर्शा सकते
हो। इसलिए
बहुत ज्ञानी
चुप बैठे रहे;
मौन में
दर्शाया।
सारी बात एक
तरफ इशारा
करती है कि
रहस्य इतना
बड़ा है, इतना
अपरिसीम है, इतना
अनंत-अनादि है
कि हमारे शब्द,
हमारी
परिभाषाएं, हमारी
धारणाएं, प्रत्यय,
सभी व्यर्थ
हो जाते हैं।
जी सकते हो
सत्य को, कह
नहीं सकते।
अंतिम
अर्थों में भी
रहस्य को समझ
लेना चाहिए।
विज्ञान
संसार
को--संसार के
यथार्थ को--दो
हिस्सों में
बांटता है। एक
को वह कहता है
ज्ञात; जो
जान लिया। और
एक को वह कहता
है अज्ञात; जो जाना
जाएगा। दि नोन
एक को कहता है,
जो जान
लिया। दि
अननोन, जिसे
हम कल
जानेंगे।
धर्म कहता है,
एक तीसरी
बात तुम छोड़े
दे रहे हो: दि अननोएबल, अज्ञेय, जिसे
तुम कभी भी न जानोगे।
ज्ञात
अतीत है हमारा; अज्ञात
भविष्य में
ज्ञात बन
जाएगा। अगर
विज्ञान की
बात सच है तो
एक दिन ऐसी
घड़ी आ जाएगी कि
जानने को कुछ
न बचेगा। सब
अतीत हो जाएगा,
सब जान लिया
जाएगा। उस दिन
एक ही कोटि
रहेगी: ज्ञात।
अज्ञात की
कोटि समाप्त
हो जाएगी।
धर्म
कहता है, ऐसा
कभी नहीं होगा;
कुछ जानने
को सदा ही शेष
रहेगा--तुम
कितना ही जानो।
और कुछ ऐसा भी
है जिसे तुम
जान ही न
सकोगे। इसलिए नहीं
कि तुम्हारी
क्षमता कम है,
क्योंकि
क्षमता कम हो
तो बढ़ाई जा
सकती है। यंत्र-संयंत्र
कम हों, बड़े
किए जा सकते
हैं। विज्ञान
रोज बढ़ता जाता
है। नहीं, यह
सवाल नहीं है।
कुछ ऐसा भी है
इस अस्तित्व में
जिसका स्वभाव
ही उसकी
अज्ञेयता है,
अननोएबिलिटी है। इसलिए
तुम्हारे
जानने के
यंत्रों, प्रयोगशालाओं,
तुम्हारी
बुद्धि, प्रतिभा,
गणित के
विकास से उसका
कोई लेना-देना
नहीं। उसका
होना ही ऐसा
है। वह उसका
गुण है। जैसे
आग ठंडी नहीं
हो सकती। ठंडी
हो तो आग नहीं
है। सूरज बिना
रोशनी के नहीं
हो सकता। हो
तो सूरज नहीं है।
वह उसका स्वभाव
है।
लाओत्से
कहता है, जीवन
के आत्यंतिक,
गहनतम सत्य का
स्वभाव उसकी
अज्ञेयता है।
इसलिए तुम कुछ
भी करो, तुम
उसे जान न
सकोगे। वह सदा
ही दूर
क्षितिज पर
अज्ञेय की तरह
बना रहेगा।
उससे अगर नाता
जुड़ाना
हो, तो
ज्ञान का नाता
नहीं। उससे वह
नाता बनता ही नहीं।
वह उसका स्वभाव
नहीं है। उससे
तो सिर्फ
प्रेम का नाता
बनता है; जानने
का नाता नहीं,
बुद्धि का
नाता नहीं।
उससे तो हृदय
का रास्ता जोड़ता
है।
हृदय
जानने की
चिंता ही नहीं
करता। हृदय
जानने न जानने
का विचार ही
नहीं करता।
हृदय तो आनंदित, प्रफुल्लित
होता है उसमें,
खिलता है उसमें,
तिरता है, तैरता
है, नाचता
है उसमें; जानने
की चिंता ही
नहीं करता।
हृदय कहता है,
जानने का
प्रयोजन क्या
है? होना
वास्तविक बात
है। जान कर
क्या करेंगे?
जब होने का
रास्ता खुला
हो तो मूढ़
जानने की
कोशिश
करेंगे।
जब
प्यास लगी हो
तो तुम जल को
जानना चाहते
हो या पीना
चाहते हो? क्या
होगा जान कर
कि एच-टू-ओ से
जल बना हुआ है,
कि इसमें
इतने परमाणु
आक्सीजन के, इतने
हाइड्रोजन के?
क्या होगा?
एच-टू-ओ के
फार्मूला को
तुम अगर कंठ
में भी ले जाओगे
तो प्यास
मिटेगी नहीं,
कंठ
अवरुद्ध हो
जाएगा। पानी
चाहिए, ज्ञान
नहीं। कंठ पर
पानी की
शीतलता चाहिए,
पानी के
संबंध में
जानकारी
नहीं।
बुद्धि
जानने में लगी
है;
हृदय जीना
चाहता है।
रहस्य
का अर्थ है:
जिसे जाना कभी
न जा सके, लेकिन
जीया जा सके।
अगर जानने की
कोशिश तुमने की
तो तुम दूर
होते जाओगे।
क्योंकि उसका
स्वभाव ही
जानने में
नहीं आता। अगर
तुमने जीने की
कोशिश की तो
तुम उसमें डूब
जाओगे, तुम
उसके साथ एक
हो जाओगे। वही
एकमात्र
जानना है।
प्रेम
ही एकमात्र
जानना है
परमात्मा का।
और ध्यान ही
एकमात्र
ज्ञान है
परमात्मा का।
और समाधि ही
एकमात्र
शास्त्र है
परमात्मा का।
इससे नीचे
तुमने अगर कुछ
भी कोशिश की, इससे
भिन्न अगर कोई
भी कोशिश की, तो तुम
व्यर्थ ही
अड़चन में पड़ोगे
और भटकोगे।
यह है
रहस्य भरा
ताओ।
अब हम
समझने की
कोशिश करें।
"ताओ
संसार का
रहस्य भरा
मर्म है। ताओ इज़ दि
मिस्टीरियस
सीक्रेट ऑफ दि
यूनिवर्स।'
रहस्य
है,
छिपा हुआ
रहस्य है। उघाड़ो,
कितना ही उघाड़ो, तुम
उसके घूंघट को
न उठा पाओगे।
क्योंकि
घूंघट उसके
स्वभाव का अंग
है। घूंघट ऊपर
से डाला हुआ
होता तो उठ
जाता। घूंघट
उसके होने की
व्यवस्था है;
उसके जीवन
की शैली है।
एक तो घूंघट
है वस्त्रों
का; उसे
तुम उठा सकते
हो। क्योंकि
वह बाहर से
डाला गया है।
एक घूंघट
लज्जा का भी
होता है; तुम
उसे न उठा
सकोगे। तुम
उसे कैसे
उठाओगे? नग्न
स्त्री भी तुम
कर दो, लेकिन
लज्जा का
घूंघट तो पड़ा
ही रहेगा। और
गहन हो जाएगा।
कपड़े उतारे जा
सकते हैं। और
अगर तुमने
कपड़ों को ही
घूंघट समझा है
और तुमने समझा
है कि कपड़े
उतारने से ही
तुम स्त्री के
मर्म को समझ
लोगे, तो
तुम गलती में
हो। देह दिखाई
पड़ जाएगी, चेतना
अपरिचित रह
जाएगी।
विज्ञान
वही तो कर रहा
है;
घूंघट को
उघाड़ रहा है, वस्त्र उघाड़
कर फेंक रहा
है। उससे
परमात्मा का
शरीर तो पता
चल रहा
है--पदार्थ--लेकिन
परमात्मा की
कोई खबर नहीं
मिल रही।
प्रयोगशाला
में उसकी
पग-ध्वनि सुनी
ही नहीं जा
रही। इसलिए तो
वैज्ञानिक
बेचारा कहता
है कि हम कहीं
नहीं पाते।
इतना खोजते
हैं, नहीं
पाते। और हम
कैसे भरोसा
करें कि तुम
झाड़ के नीचे
बैठे-बैठे पा
गए? शक
होता है। हम
इतनी चेष्टा
कर रहे हैं और
नहीं पा रहे
हैं।
उसकी
हालत वैसी ही
है जैसे कोई
एक सुंदर
स्त्री राह से
गुजरती हो, कुछ
गुंडे उस पर
हमला कर दें, उसके वस्त्र
निकाल कर फेंक
दें, बलात्कार
कर दें। तो भी
वे बाहर ही
बाहर रहे, स्त्री
के मर्म को न
पहचान पाए।
क्योंकि यह ढंग
ही न था मर्म
को पहचानने
का।
विज्ञान
प्रकृति के
साथ एक तरह का
बलात्कार है, जबरदस्ती
है, हिंसा
है, आक्रमण
है।
फिर इस
स्त्री का
प्रेमी हो।
समझो कि
स्त्री लैला
थी,
मजनू हो। और
मजनू इस
स्त्री के गीत
गाए। और ये गुंडे
कहें कि हम उस
स्त्री का सब
कुछ जान चुके
हैं, तुम
व्यर्थ की
बकवास मत करो।
यह वहां कुछ
है ही नहीं।
हमने उस स्त्री
को नग्न देख
लिया है। न
केवल नग्न देख
लिया है, हमने
उस स्त्री का
उपभोग कर लिया
है। तुम यह बकवास
छोड़ो। ये
जो गीत तुम गा
रहे हो, ये
हमने उसमें
कभी पाए नहीं।
तो वे
गुंडे भी ठीक
ही कह रहे हैं, लेकिन
फिर भी गलत
हैं। क्योंकि
स्त्री का मर्म
तो खुला नहीं;
वह तो प्रेम
में ही खुलता
है। उसकी
लज्जा का अवगुंठन
तो तभी मिटता
है जब तुम
उसमें इतने
डूब जाते हो
कि उसे पता ही
नहीं रहता कि
दूसरा मौजूद
है। तभी वह
घूंघट उठता है
जो उसकी आत्मा
पर पड़ा है।
लेकिन तब तुम
रहते नहीं।
तुम जब मिट जाते
हो तभी वह
पूर्ण रूप में
प्रकट हो पाती
है।
परमात्मा
ऐसी ही दुलहन
है,
जिस पर
घूंघट आंतरिक
है।
लाओत्से
कहता है, यह
उसका, ताओ
का रहस्य भरा
मर्म है। इस
मर्म को अगर
पहचानना हो तो
तुम तीन जगह
इसे पा सकोगे:
सज्जन के खजाने
में, दुर्जन
की पनाह में, संत के
स्वभाव में।
इस सूत्र में
संत के स्वभाव
की बात नहीं
की है, क्योंकि
उसी की बात
लाओत्से पीछे प्रगाढ़ता
से कर लिया
है।
सज्जन
का खजाना है
यह स्वभाव। खजाने का
अर्थ होता है:
सज्जन ने अभी
इसे बाहर-बाहर
से ही जाना है, अभी
यह सज्जन का
स्वभाव नहीं
बना। अभी उसने
तिजोरी में भर
लिए हैं पुण्य,
अच्छे
कृत्य; सत्कर्म,
दान, दया,
सब उसने
तिजोरी में भर
लिए हैं।
सज्जन का खजाना
है।
लेकिन
सज्जन भी अभी
पूरी तरह
परिचित नहीं
है;
अभी दूरी
कायम है।
खजाना लुट
सकता है।
चोर-डाकू खजाने
को ले जा सकते
हैं। और सज्जन
को हमेशा
चोर-डाकुओं का
डर बना रहता
है। सज्जन
शैतान से बहुत
डरता है।
सज्जन ऐसी जगह
जाने से डरता
है जहां उसके खजाने पर
कोई चोट न पड़
जाए।
विवेकानंद
ने लिखा है कि
मुझे पता नहीं
था कि मैं
क्या कर रहा
हूं,
लेकिन मैं
कलकत्ते में
उन गलियों से
निकलता ही
नहीं था जहां
वेश्याओं का
निवास था। यह
तो मुझे बहुत
बाद में पता
चला कि वह मेरा
भय था।
सज्जन
डरता है कि
कहीं
वेश्याओं के
निकट से न गुजरना
हो जाए।
क्योंकि
सज्जनता अभी
खजाना है, छीनी जा
सकती है।
वेश्या हमला
कर सकती है।
सज्जन
धर्म को भी धन
की तरह ले रहा
है। सज्जन धर्म
को भी कृत्य
की तरह ले रहा
है। वह सोचता
है,
धार्मिक
कृत्य! मेरे
पास कुछ सज्जन
आते हैं, तो
वे पूछते हैं
कि हम क्या
करें जिससे हम
धार्मिक हो
जाएं? उनका
जोर करने पर
है। वे यह
नहीं पूछते कि
हम क्या हो
जाएं। वे
पूछते हैं, व्हाट टु डू,
नाट व्हाट
टु बी। वही
फर्क है।
सज्जन पूछता
है, क्या
करूं? वह
सोचता है, करने
की बात है।
कुछ कृत्य करो,
धार्मिक हो
जाओगे।
संत
पूछता है, मैं
क्या हो जाऊं?
करने का
क्या सवाल है!
करना तो होने
से निकलता है।
अगर मैं हो
गया तो करना
तो अपने आप
ठीक हो जाएगा।
लेकिन
उलटा सही नहीं
है। तुम अपने
सारे कृत्यों
को धार्मिक कर
लो तो भी
जरूरी नहीं है
कि तुम
धार्मिक हो जाओ।
हो सकता है, यह
सब ऊपर-ऊपर
पाखंड हो।
कृत्य आत्मा
को नहीं बदलते,
आत्मा
कृत्यों को
बदलती है।
बाहर भीतर को
नहीं बदलता, भीतर बाहर
को बदलता है।
आचरण नहीं
बदलता अंतस को,
अंतस आचरण
को बदलता है।
अगर बिना अंतस
को बदले तुमने
आचरण बदला तो
ऊपर की सजावट
होगी, शृंगार
होगा। वह
ओंठों पर लगा लिपिस्टिक
होगा, भीतर
से खून की
लाली नहीं।
दुनिया
तुम्हें पूजेगी,
क्योंकि
दुनिया खजाने
को पूजती है।
तुम्हारा धन
दिखाई पड़ेगा।
तुम्हारे पास
बड़ी संपदा
मालूम होगी।
लेकिन फिर भी यह
आखिरी घड़ी
नहीं आई है।
लाओत्से
कहता है, वह
रहस्य है
सज्जन का
खजाना। रहस्य
को सज्जन
खजाना बना
लेता है। दुर्जन
की पनाह है।
और वही दुर्जन
के लिए शरण-स्थल
है।
इसे
तुम सोचो।
सज्जन हमेशा
अकड़ा रहता है
कि मैंने यह
किया, यह किया,
यह किया।
इतने दान दिए,
इतने
भिक्षुओं को
भोजन दिया, इतनी धर्मशालाएं
बनाईं, इतने
मंदिर-मस्जिद खड़े
किए। क्या
किया, उसको
वह जोड़ता है, हिसाब रखता
है, खाते-बही
में लिखता है।
इन्हीं
सज्जनों ने
कथाएं गढ़ी
हैं कि वहां
आकाश में, स्वर्ग
के द्वार पर
भी, खाते-बही
में सब लिखा
जा रहा है।
तुमने क्या किया,
वह सब अंकित
किया जा रहा
है। एक-एक चीज
के लिए चुकतारा
होगा, आखिर
में जवाब देना
पड़ेगा। इसलिए
बुरा मत करो।
बुरा मत करो, इसलिए नहीं
कि बुरे में
कोई बुराई है;
बुरा मत करो,
क्योंकि
उसके लिए जवाब
देना पड़ेगा।
अगर जवाब न
देना पड़े तो
फिर कोई बुराई
नहीं है।
सज्जन
बुराई के
विपरीत नहीं
है,
बुराई से
डरा हुआ है।
सज्जन भलाई के
पक्ष में नहीं
है, लेकिन
भलाई उसके
अहंकार को
सुरक्षा देती
है। तो भलाई
का खजाना
बनाता है।
भलाई यहां भी बचाएगी, आगे भी बचाएगी।
दुर्जन
के लिए पनाह
है,
शरण-स्थल
है। बुरा आदमी
हमेशा सोचता
रहता है: भला
करना है। चोर
सोचता है, चोरी
छोड़नी
है। कामी
सोचता है, ब्रह्मचर्य
का व्रत लेना
है। झूठा
सोचता है, सच
बोलना है।
अभ्यास करना
है, यद्यपि
कल करना है।
आज तो जा ही
चुका है; आज
चोरी और कर लो,
कल अचौर्य
का व्रत ले
लेना है। यह
पनाह है
दुर्जन की। इस
तरकीब से वह
दुर्जन बना
रहता है; कल
पर टालता रहता
है अच्छे को।
वह उसका
शरण-स्थल है।
उसके सहारे वह
बुरा है।
यह बड़े
मजे की बात
है--लोग भलाई
के सहारे बुरे
होते हैं।
बुरा होना
इतना बुरा है
कि बिना भलाई
के सहारे तुम
बुरे भी नहीं
हो सकते; तुम
किसी भलाई में
रास्ता खोजते
हो बुरे होने का।
तुम यह कहते
हो कि अगर मैं
झूठ भी बोल
रहा हूं तो
इसलिए बोल रहा
हूं कि उस
आदमी को बचाना
है; नहीं
तो उसकी हत्या
हो जाएगी। तुम
कहते हो, मैं
झूठ बोल रहा
हूं इसलिए कि
बच्चों को
पालना है, नहीं
तो मर जाएंगे।
तुम झूठ बोलने
के लिए भी या
तो प्रेम की
शरण लेते हो, या दान की
शरण लेते हो, या सत्य की
शरण लेते हो।
पर तुम शरण लेते
हो। और तब तुम
अपने झूठ में
भी
प्रफुल्लित
हो। तब कोई डर
न रहा।
क्योंकि तुम
झूठ भी सच के लिए
बोल रहे हो।
तुम बुरा भी
भले के लिए कर
रहे हो।
स्टैलिन
ने लाखों
लोगों की
हत्या की, लेकिन
उसके मन पर
जरा भी दंश
नहीं पड़ा।
क्योंकि ये
बुरे लोग हैं,
और इनको वह
समाज के
भविष्य के लिए
नष्ट कर रहा
है। माओ ने
हजारों-लाखों
लोगों को गोली
मार दी है, जिनका
कोई हिसाब भी
रखना कठिन है।
लेकिन माओ के
मन पर कोई दंश
नहीं है, नींद
में कोई खलल
नहीं पड़ती।
क्योंकि
समाजवाद लाने
के लिए, भविष्य
का एक उटोपिया
है, एक
कल्पना है, उसको पूरा
करने के लिए, एक महान
कार्य के लिए
यह सब होगा
ही। यह बलिदान
जरूरी है।
इसे
तुम छोटे से
लेकर बड़े तक
पहचान लोगे।
हिंदू
पुरोहित
सदियों से
जानवरों की
बलि देता रहा है।
कथाएं तो यह
भी हैं कि
उसने आदमियों
की बलि भी दी
है। अश्वमेध
यज्ञ तो होते
ही थे जिनमें घोड़ों की बलि
दी जाती, नरमेध
यज्ञ भी होते
थे। लेकिन
ब्राह्मण को,
पुरोहित को
कभी इससे पीड़ा
नहीं हुई।
क्योंकि बलि
तो परमात्मा
के लिए दी जा
रही है।
परमात्मा का
सहारा है।
आज भी
कलकत्ता के
काली के मंदिर
में सैकड़ों
पशुओं की बलि
दी जाती है।
लेकिन
पुरोहित को कोई
कष्ट नहीं है, क्योंकि
यह तो
परमात्मा के
चरणों में चढ़ाया
जा रहा है।
ताओ का
यह उपयोग
शरण-स्थल की
तरह हो रहा
है। काट रहे
हो पशुओं को, हिंसा
कर रहे हो
स्पष्ट, पाप
सीधा-साफ है।
लेकिन पुण्य
की आड़ में
हो रहा है; प्रार्थना
के लिए किया
जा रहा है; पूजा
का हिस्सा है।
दुनिया
में जो बड़े से
बड़े बेईमान
लोग हैं, वे भी
अपनी बेईमानी
को किसी
प्रार्थना और
पूजा का
हिस्सा बना
लेते हैं। फिर
दंश मिट जाता
है। फिर दिल
खोल कर पाप
करो।
सज्जन
अहंकार
निर्मित करता
है अपने
कृत्यों से और
दुर्जन सत्य
के नाम पर
असत्य की
प्रक्रियाओं
में गुजरता
रहता है। करता
है बेईमानी, लेकिन
बहाना
ईमानदारी का
लेता है। अपने
को धोखा देता
है।
"सज्जन
का खजाना और
दुर्जन की
पनाह।'
एक और
अर्थ में भी
यह सच है। बात
तो एक ही है, सत्य
तो एक ही है, तुम चाहो तो
उसका खजाना
बना लो और तुम
चाहो तो उसकी
पनाह बना लो।
तुम पर सब
निर्भर है। और
तीसरी बात मैं
जोड़ देना
चाहता हूं जो
इस सूत्र में
नहीं है, लेकिन
लाओत्से का
मूल स्वर है, संत का
स्वभाव। संत
के लिए न तो यह
कृत्य है और न
पनाह है। संत
तो इसे अपने
स्वभाव की तरह
पहचान लेता
है। और जब यह
स्वभाव हो
जाता है, तभी
कोई तुम्हें
लूट नहीं
सकता। और जब
यह स्वभाव हो
जाता है, तभी
भय समाप्त
हुआ। अब यह
कभी तुमसे
छीना न जा सकेगा।
संत आश्वस्त
हो जाता है।
इसलिए तो तुम संत
को इतना शांत
पाते हो, क्योंकि
उसे आश्वासन
मिल गया, अब
उससे कुछ छीना
नहीं जा सकता।
और उसने जो पा लिया
है उसका अब
कोई अंत नहीं
है। अब वापस लौटने
का उपाय न
रहा। अब वह
मंजिल के साथ
एक हो गया।
तब तक
मत रुकना।
खजाना बना कर
मत अपने को
समझा लेना। वह
काफी नहीं है।
अच्छा है, काफी
नहीं है। कुछ
न कर सको तो
ठीक है, लेकिन
अंत नहीं है।
मार्ग हो सकता
है, मंजिल
नहीं है। उससे
भी आगे जाना
है। उसे अगर पड़ाव बनाओ
तो चल जाएगा, लेकिन आखिरी
विश्राम मत
बना लेना। वह
घर नहीं है, राह की
धर्मशाला हो
सकती है। वहां
सदा के लिए नहीं
रुक जाना है।
वहां एक रात
विश्राम करके
आगे बढ़ जाना
है।
"और
दुर्जन की
पनाह।'
अगर
ताओ को पनाह
बनाओ, परमात्मा
को पनाह बनाओ,
तो भी जितने
जल्दी हो उतनी
जल्दी करना।
कहीं यह पनाह
बनाना सिर्फ पोस्टपोन
करने का, स्थगन
करने का उपाय
न हो जाए।
लोग
मेरे पास आते
हैं,
वे हमेशा
कहते हैं, कल
करेंगे, संन्यास
कल लेना है।
कल बीतते चले
जाते हैं। वे
जब भी आते हैं,
वे फिर कहते
हैं, कल
लेंगे। कुछ तो
ऐसे लोग हैं
जो पांच साल
से मेरे पास
आते होंगे। जब
भी आते हैं, वे कहते हैं,
बस तैयारी
कर रहा हूं; थोड़े दिन की
बात है। पांच
साल गुजार दिए
उन्होंने, वे
पचास साल भी
गुजार देंगे।
उन्हें अपने
धोखे का पता
नहीं चल रहा
है।
जो
करना हो उसे
कर लेना; उसे
तत्क्षण कर
लेना। कल का
क्या भरोसा है?
कल कभी आता
है? कल कभी
आया है? कभी
सुना कि कल
आया हो? जो
आता ही नहीं, उस पर टालना
मत। टालना ही
हो तो साफ कह
देना कि यह
मेरे लिए करना
ही नहीं है।
बात साफ हो
गई। लेकिन टाल
कर धोखा मत
देना।
क्योंकि
टालने में एक
तरकीब है। तुम
अपने को यह भी
समझाए रहते हो
कि यह करना तो
है, कल
करना है।
इसलिए मन
अहंकार से भी
भरा रहता है
कि करना तो
जरूर है, सिर्फ
समय की बात
है। स्थिति
साफ नहीं हो
पाती कि तुम
कहां खड़े हो।
दुर्जन
की पनाह है
धर्म। तुम उसे
पनाह मत बनाना; बचना।
खजाना बनाना।
और खजाने
को भी
पर्याप्त मत
समझना।
स्वभाव तक ले
जाना है
यात्रा को। जब
तक स्वभाव न
हो जाए तब तक
भटकने के उपाय
कायम हैं।
खजाना भी खो
जाएगा। पनाह
में तो मिला
ही नहीं है, खोया ही हुआ
है।
"सुंदर
वचन बाजार में
बिक सकते हैं,
श्रेष्ठ
चरित्र भेंट
में दिया जा
सकता है।'
लेकिन
होगा यह सब
ऊपर-ऊपर। ऐसे
ही तो तुम
ज्ञानी बने हो
कि सुंदर वचन
तुमने बाजार
से खरीद लिए
हैं। लेकिन
लाओत्से कहता
है,
कुछ खरीदना
ही हो तो
सुंदर वचन ही
खरीदना, क्योंकि
वहां और कचरा
चीजें भी बिक
रही हैं। सुंदर
वचन भी अंततः
कचरा हैं, लेकिन
कम से कम
उनमें
तुम्हारी
प्यास की थोड़ी
झलक तो मिलती
है। खरीदना ही
हो तो कुछ और न
खरीद कर आचरण
खरीदना; हालांकि
वह आचरण बहुत
गहरा नहीं
होगा। लेकिन कम
से कम कुछ तो
होगा। खजाना
ही बनाना हो
तो इस संसार
के सिक्कों का
मत बनाना; जब
उस संसार के
सिक्कों का
खजाना बनने की
सुविधा है तो
उसको ही
बनाना। धन ही
इकट्ठा करना
हो तो पुण्य
का करना।
लाओत्से
यह नहीं कह
रहा है कि
यहां रुक
जाना।
"सुंदर
वचन बाजार में
बिक सकते हैं।'
बिक
रहे हैं।
बाइबिल खरीद
सकते हो। गीता
खरीद सकते हो।
वेद खरीद सकते
हो। सब खरीदा
जा सकता है।
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, क्राइस्ट,
सब के वचन
बाजार में बिक
रहे हैं। अगर
कुछ खरीदना ही
हो तो वचन
खरीदना।
कभी-कभी ऐसा
होता है कि
किसी क्षण में
कोई वचन
तुम्हारे भीतर
इतना गहरा बैठ
जाता है कि
उससे क्रांति
घटित हो सकती
है। क्योंकि
प्रत्येक वचन
विस्फोटक है।
सिर्फ वचन को
इकट्ठा कर
लेने से कुछ होने
वाला नहीं है,
लेकिन कभी
किसी क्षण में,
किसी नाजुक
क्षण में कोई
वचन बहुत गहरे
बैठ सकता है; किसी ऐसे
क्षण में जब
तुम्हारे मन
के द्वार खुले
हैं।
इसलिए
तो हिंदुओं ने
एक व्यवस्था
की है। वे कहते
हैं,
गीता तुम
रोज पढ़ो, उसे पाठ
बनाओ। पश्चिम
के लोग बड़े
हैरान होते हैं
कि रोज पढ़ने
से क्या होगा?
एक दफा
किताब पढ़ ली, खतम हो गई
बात। अब रोज
क्या पढ़ना
है? समझ
लिया, बात
खतम हो गई। न
समझे होओ, दुबारा
पढ़ लो, तिबारा
पढ़ लो। मगर
रोज पढ़ रहे हो?
हिंदुओं
का कारण है।
रोज इसलिए
पढ़ने को वे कह रहे
हैं कि
तुम्हें अपने
मन का कोई पता
नहीं। कभी-कभी
तुम्हारे मन
का झरोखा खुला
होता
है--संयोगवशात।
किसी रात तुम
गहरी नींद सोए, क्योंकि
उसके पहले दिन
तुमने काफी
श्रम किया।
किसी रात
तुम्हारा मन
शांत रहा, बहुत
सपने न आए, क्योंकि
उसके पहले दिन
बहुत वासनाओं
की दौड़ न हुई।
सुबह तुमने
गीता पढ़ी। ये
शब्द बहुत
गहरे चले
जाएंगे। किसी
दिन तुम क्रोध
से भरे हो; वासनाएं
मन को घेरे
हुए हैं; उद्विग्न
हो, अशांत,
बेचैन हो।
गीता पढ़ी। ये
शब्द भीतर
नहीं जाएंगे।
तुम पढ़ते
रहना। कभी तो
संयोग
मिलेगा। कभी तो
ऐसा होगा कि
तुम किसी ठीक
क्षण में गीता
पढ़ लोगे। तुम
रोज ही पढ़ते
जाना।
मैं
रोज बोले जाता
हूं। कारण
इतना ही है कि
तुम्हारा
भरोसा नहीं
है। नहीं तो
एक दफा बोल
दूं,
बात खतम। जो
मैं कह रहा
हूं रोज वह एक
दिन में भी कह
सकता हूं। जो
मैं कह रहा
हूं वह एक
पोस्टकार्ड
पर लिखा जा
सकता है। उसके
लिए कुछ बहुत
इतना कहने की
जरूरत नहीं
है। तुम्हारा
भरोसा नहीं
है। मैं तो
पोस्टकार्ड
पर लिख दूं, लेकिन तुम
वहां मौजूद न
हुए! मैं तो एक
दिन कह दूं, पांच वचनों
में सारी बात
खतम हो जाए।
लेकिन तुम? सवाल
तुम्हारा है।
इसलिए रोज कहे
जाता हूं। किसी
दिन तो तालमेल
बैठेगा। किसी
दिन तो तुम्हें
घर पाऊंगा।
किसी दिन तो
ऐसा होगा कि
तुम घर के
भीतर होओगे और
मैं दस्तक
दूंगा। तो मैं
दस्तक देता
रहूंगा। किसी
दिन यह संयोग
बैठ जाएगा।
उसी क्षण तालमेल
बैठ जाएगा।
उसी क्षण
अंधेरा टूट
जाता है, प्रकाश
फैल जाता है।
उस क्षण में, उस संधि में
तुम देख लेते
हो। एक दफा
तुमने देख
लिया, नाता
जुड़ गया। अब
तुम्हारे
जीवन में एक दूसरी
यात्रा शुरू
हो गई।
इसलिए
सत्संग का
इतना महत्व
है। वचन ही तो सुनोगे
सत्संग में, लेकिन
क्या मूल्य है?
मूल्य यह है
कि कभी यह हो
सकता है
संयोगवशात कि
ऐसी घड़ी हो
तुम्हारे
भीतर सुख की, शांति की, प्रफुल्लता
की, कि
तालमेल बैठ
जाए। बैठ जाए
एक बार तो फिर
बार-बार बैठने
लगेगा।
क्योंकि जो एक
बार हो गया
उसके बार-बार
होने की
संभावना हो
गई। और जिसका
स्वाद तुमने
एक बार ले
लिया, अब
तुम बार-बार
उसके स्वाद के
लिए आतुर
रहोगे। और
धीरे-धीरे
तुम्हारी समझ
में आ जाएगा
कि क्यों इस
घड़ी में यह
हुआ। तो जिस
कारण इस घड़ी
में हुआ है उन-उन
कारणों को
सम्हालने
लगो। इतनी ही
तो साधना है।
अगर
किसी दिन रात
गहरी नींद आई, और
तुमने सुबह
मुझे सुना और
तुम्हारे
हृदय में
झनकार पहुंच
गई, उसका
मतलब है, गहरी
नींद रोज सोना
जरूरी है; तो
फिर इस तरह जीयो
कि गहरी नींद
आ सके। तो
तुमने पाया कि
अगर दिन में
तुम ठीक
शारीरिक श्रम
करते हो तो
गहरी नींद हो
जाती है। तो
इसका अर्थ हुआ
कि ठीक
शारीरिक श्रम करते
ही रहो; उससे
बचो मत। कि
तुमने पाया कि
तुम क्रोध
नहीं किए दो
दिन तक, इसलिए
तुम्हारे मन
में एक शांत
आभा थी; तुम
सुन सके। या
तुमने पाया कि
तुम कामवासना
में नहीं उतरे
एक सप्ताह तक,
इसलिए
तुम्हारे
भीतर एक ऊर्जा
थी, एक
शक्ति थी; उस
शक्ति के कारण
तालमेल बैठ
गया। तो फिर
तुम जमाने
लगोगे। फिर
तुम्हारे
जीवन में
दृष्टि आ गई।
और कोई पतंजलि
के शास्त्र से
तुम्हें नहीं
मिलेगा ज्ञान;
अपने ही
जीवन के स्वाद
से तुम पहचानोगे,
क्या करना है।
कैसे यह हुआ, इसकी पहचान
तुम बढ़ाते
जाओगे।
तुम्हारे
जीवन में साधक
का जन्म हो
जाएगा।
साधक
हो जाओ, सिद्ध
होना बहुत दूर
नहीं है।
गैर-साधक से
साधक की दूरी
बहुत बड़ी है; साधक और
सिद्ध की दूरी
बहुत बड़ी नहीं
है। जो चल पड़ा
वह पहुंच ही
जाएगा। जो
नहीं चला है, वह कैसे
चलेगा, यह
कठिनाई है।
बैठे हुए और
चलने वाले के
बीच फासला
बहुत बड़ा है।
जो चल पड़ा और
जो पहुंच गया,
उसके बीच
फासला बहुत
बड़ा नहीं है।
जो चल ही पड़ा
वह पहुंच ही
जाएगा।
महावीर
कहते थे, चल गए
कि आधे पहुंच
गए। आधी
यात्रा तो हो
ही गई, जिस
क्षण पहला कदम
उठा।
लेकिन वह
पहला कदम बहुत
समय लेता है।
लाओत्से
कहता है, "सुंदर
वचन बाजार में
बिक सकते हैं,
श्रेष्ठ
चरित्र भेंट
दिया जा सकता
है।'
यह बड़ा
कठिन लगेगा कि
श्रेष्ठ
चरित्र भेंट
दिया जा सकता
है। निश्चित
ही। हम सब कुछ
न कुछ तो भेंट
देते ही हैं।
अश्रेष्ठ तो
हम भेंट देते
ही हैं। तुम
बैठे हो अपने
घर में, उदास
बैठे हो।
तुम्हारा
बच्चा
तुम्हें उदास देख
रहा है, तुम
कुछ भेंट दे
रहे हो। तुम
उसे उदास
बैठना सिखा
रहे हो। तुम
प्रफुल्लित
हो; तुम
आनंदित हो।
तुम्हारा
बच्चा
तुम्हारे पास
बैठा है। वह
तुम्हारी
प्रफुल्लता
को पी रहा है।
तुम उसे श्रेष्ठ
चरित्र भेंट
दे रहे हो।
और
ध्यान रखना, बच्चे
तुम्हारे
शब्दों की
फिक्र नहीं
करते; तुम
क्या हो, उसकी
फिक्र करते
हैं। तुम क्या
कहते हो, उसको
वे बहुत
ज्यादा ध्यान
नहीं देते।
क्योंकि वे
जानते हैं, तुम्हारे
कहने और
तुम्हारे
होने में बड़ा
फर्क है। तुम
कहते कुछ हो, तुम करते
कुछ हो। वे
तुम्हें
देखते हैं। वे
तुम्हें पीते
हैं। अगर
बच्चा बिगड़
जाए तो तुम समझना
कि तुमने उसे
अश्रेष्ठ
चरित्र भेंट
दिया। तुम ही
जिम्मेवार
हो। तुम सिर
मत ठोंकना कि यह
दुर्जन हमारे
घर में कैसे
पैदा हो गया!
यह अकारण नहीं
है। यह
तुम्हारे घर में
ही पैदा हो
सकता था, इसीलिए
तुम्हारे घर
में पैदा हुआ।
यह तुम्हारा
फूल है। इसे
तुमने सींचा-संवारा।
यही तुमने इसे
दिया। अब जब
इसमें फल आने
लगे तब तुम घबड़ाते
हो। धोखा मत
देना बच्चे के
सामने, अन्यथा
वह धोखे को पी
जाता है।
अब वह
देखता रहता
है। बच्चे बड़े
आब्जर्वर्स
हैं। क्योंकि
अभी सोच-विचार
तो ज्यादा
नहीं है, निरीक्षण
करते हैं। तुम
सोच-विचार के
कारण निरीक्षण
नहीं कर पाते;
उनकी सारी
ऊर्जा
निरीक्षण कर
रही है। वे
देखते हैं कि
मां और बाप लड़
रहे थे, झगड़ रहे थे, और
कोई मेहमान आ
गया और वे
दोनों
मुस्कुराने लगे
और ऐसा
व्यवहार करने
लगे जैसे कि
जैसा प्रेम
इनके जीवन में
है ऐसा तो
कहीं है ही
नहीं। अब
बच्चा देख रहा
है। वह देख
रहा है कि
धोखा चल रहा
है। अभी ये लड़
रहे थे, अभी
एक-दूसरे की
गर्दन दबाने
को तैयार थे, अब मुस्कुरा
रहे हैं।
पाखंड चल रहा
है। बच्चा देख
रहा है। वह पी
रहा है। तुम
भेंट दे रहे
हो।
उठते-बैठते, जाने-बिनजाने
तुम जिनसे भी
मिल रहे हो
तुम उनको कुछ
भेंट दे रहे
हो। यह सारा
जीवन एक शेयरिंग
है। हम बांट
रहे हैं। तुम
जिससे भी
मिलते हो, कुछ
तुम्हें वह दे
रहा है, तुम
उसे कुछ दे
रहे हो।
जीवन-ऊर्जा का
आदान-प्रदान
चल रहा है।
इसलिए
उन लोगों से
दूर रहना
जिनसे गलत मिल
सकता है, और उन
लोगों के करीब
रहना जिनसे
शुभ मिल सकता है।
बचाव करना
अपना।
क्योंकि अभी
तुम इस योग्य
नहीं हो कि
गलत कोई दे और
तुम न लो। अभी
तुम्हारी
इतनी हिम्मत
नहीं है कि
तुम कह दो कि
नहीं, मैं
वैसे ही आकंठ
भरा हूं, कृपा
करो। वह
तुम्हारी
हिम्मत नहीं
है। कोई देगा
तो तुम ले ही
लोगे। कचरा
इकट्ठा करने
की तुम्हें
ऐसी सहज
सुगमता हो गई
है कि तुम्हें
इनकार करना
आता ही नहीं।
तुम्हारे
द्वार खुले ही
हैं, कोई
भी कचरा फेंक
जाए।
रास्ते
पर एक आदमी
मिल जाता है, वह
तुम्हें कुछ
भी अफवाह
सुनाने लगता
है। तुम आतुर
कानों से सुनने
लगते हो। तुम
बिना सोचे कि
यह अफवाह को
भीतर ले जाने
का क्या
परिणाम होगा?
क्यों सुन
रहे हो? क्यों
नहीं उससे
कहते कि माफ
करें, इसमें
मुझे कोई
प्रयोजन नहीं
है? कौन
आदमी ने चोरी
की, किसने
हत्या की, कौन
किसकी स्त्री
को भगा ले गया,
इससे मुझे
क्या प्रयोजन
है? आप
क्षमा करें, अपना समय
नष्ट न करें।
और क्यों कचरा
मेरे कान में
डाल रहे हैं? तुम्हारे घर
में अगर कोई
कचरे की टोकरी
डाल जाए तो
तुम झगड़े को
तैयार हो जाते
हो। लेकिन तुम्हारी
आत्मा में लोग
कचरा डालते
रहते हैं; तुम
इनकार भी नहीं
करते।
यह जो
तुम सुन रहे
हो,
परिणाम
लाएगा।
क्योंकि अगर
तुम रोज-रोज
सुनते
हो--फलां आदमी
फलां की
स्त्री भगा ले
गया, फलां
आदमी ने चोरी
की, फलां
आदमी ने ब्लैक
मार्केट किया,
फलां आदमी
तस्करी कर रहा
है, फलाने ने इतना कमा
लिया--ये सब
बीज हैं। इन
सबका एक इकट्ठा
परिणाम यह
होगा कि तुम
पाओगे, जो
तुमने इन
बीजों में
इकट्ठा कर
लिया वह तुम्हारे
आचरण में आना
शुरू हो गया।
ये सब आकर्षण हैं,
क्योंकि
तुम देखते हो
कि तस्कर बड़ा
मकान बना लिया।
गांव
में एक
पुरोहित आया।
और उसने शराब
की बड़ी निंदा
की। और निंदा
करने के लिए
उसने कहा कि
देखो, गांव
में सबसे बड़ा
भवन, सबसे
बड़ा मकान
किसके पास है?
शराब बेचने
वाले के पास!
तुम्हारा खून
उसकी ईंटों
में लगा है।
सबसे बड़ी कार
किसके पास है?
शराब बेचने
वाले के पास!
तुम बरबाद हो
रहे हो; उसकी
संपत्ति बन
रही है। ऐसा
उसने वर्णन
किया।
मुल्ला
नसरुद्दीन
भी सुन रहा
था। पीछे वह
धन्यवाद देने
गया। उसने कहा
कि आपने मेरा
जीवन बदल दिया, धन्यवाद।
ऐसा प्रवचन
मैंने कभी
सुना नहीं, मेरी आत्मा
बदल गई। अब
मैं एक दूसरा
ही आदमी हूं।
पुरोहित बड़ा
प्रसन्न हुआ।
उसने कहा कि
बड़ी सुख की
बात है; क्या
आपने तय कर
लिया शराब नहीं
पीएंगे? उसने
कहा कि नहीं, मैंने शराब
की दुकान
खोलने का तय
कर लिया। निर्णय
ही ले लिया।
आपकी बात ने
ऐसा प्रभाव
किया।
तुम जो
भी सुन रहे हो, वे
प्रभाव हैं, इम्प्रेशंस हैं। वे
संस्कार हैं।
हम एक-दूसरे
को दे रहे हैं।
लाओत्से
कहता है, "श्रेष्ठ
चरित्र भेंट
में दिया जा
सकता है।'
भेंट
ही देनी हो तो
चरित्र की
भेंट देना।
"यद्यपि
बुरे लोग हो
सकते हैं, हैं,
तथापि
उन्हें
अस्वीकृत
क्यों किया
जाए?'
अस्वीकृत
करने की कोई
जरूरत नहीं
है। उनको भी चरित्र
की भेंट दी जा
सकती है।
बुरों को भला
बनाया जा सकता
है।
"इसलिए
सम्राट के
राज्याभिषेक
पर, मंत्रियों
की नियुक्ति
पर, मणि-माणिक्य
और चार-चार घोड़ों
के दल भेजने
की बजाय ताओ
की भेंट भेजना
श्रेयस्कर
है।'
लाओत्से
यह कह रहा है, देने
योग्य तो बस
एक है, वह
धर्म है।
बांटने योग्य
तो बस एक है, वह धर्म है।
साझा करने
योग्य तो बस
एक है, वह
धर्म है।
जितना बन सके,
उसे दो।
लेकिन
बड़ी कठिनाई
है। तुम वही
दे सकते हो जो
तुम्हारे पास
है। तुम कैसे
दोगे चरित्र
अगर तुम्हारे
पास न हो? दुश्चरित्र
बाप भी बेटे
को सच्चरित्र
बनाना चाहता
है। पर कैसे
देगा? बुरा
आदमी भी अपने
बच्चों को
बुरा नहीं
देखना चाहता।
चोर भी अपने
बच्चों को
ईमानदार
बनाना चाहता
है। मगर कैसे
करेगा यह? तुम
वही तो दोगे
जो तुम्हारे
पास है।
अगर
तुम्हें देना
हो चरित्र
दूसरों को तो
चरित्र
निर्मित करना
होगा। और अगर
तुम्हें स्वभाव
की तरफ लोगों
को ले जाना हो
तो तुम्हें
स्वभाव में
आरूढ़ हो जाना
होगा। तुम वही
दे सकोगे जो
तुम्हारे पास
है। और अगर
लोग तुम्हारी
न सुनते हों, तुम
देते कुछ हो, उनके पास
कुछ और
पहुंचता हो, तो तुम
लोगों पर
नाराज मत
होना। मत कहना
कि लोग बुरे
हैं। तुम अपना
ही विचार
करना। तुम जो
देने की
चेष्टा कर रहे
हो, वह जो
भाव-भंगिमा है,
वह थोथी है।
उसमें भीतर
कुछ है नहीं।
तुम खाली हाथ
लोगों के हाथ
में उंडेल रहे
हो। तुम्हारे
हाथ में कुछ
है नहीं।
इतने
धर्मगुरु हैं, इतने
मस्जिद-मंदिर,
इतने चर्च,
इतने
गुरुद्वारे, सारी पृथ्वी
पटी पड़ी है।
सब तरफ चरित्र
दिया जा रहा
है। और चरित्र
मिल किसी को
भी नहीं रहा है।
सब तरफ ज्ञान
बांटा जा रहा
है। और ज्ञान
किसी के पल्ले
नहीं पड़ रहा
है। इतनी
वर्षा हो रही
है ज्ञान की
सब तरफ; किसी
को ज्ञान
पल्ले नहीं आ
रहा। बात क्या
है?
शायद
देने वालों के
पास वह नहीं
है जो वे देना चाह
रहे हैं। उनकी
भाव-भंगिमा
थोथी और
नपुंसक है--इंपोटेंट
गेस्चर। वे
कोशिश पूरी कर
रहे हैं देने
की,
मगर देने
योग्य कुछ है
नहीं। वे
सिर्फ भाव-भंगिमा
दिखला रहे
हैं। किसी के
हाथ कुछ पड़ता
नहीं। पड़ नहीं
सकता।
इसे
याद रखना। यह
तुम्हारे
जीवन में
क्रांति बन
जाएगी।
लाओत्से
यह कह रहा है
कि अगर भेंट
ही देनी हो तो
उन वचनों की
देना जिनमें
अमृत की थोड़ी
झलक है; उस
चरित्र की
देना जिसमें
ताओ के खजाने
का धन है; या
उस स्वभाव की
देना जिसको
संतों ने जाना
और जीया है।
"किस
बात में
पूर्व-पुरुषों
ने इस ताओ को
मूल्य दिया था? क्या
उन्होंने
नहीं कहा था, अपराधियों
को खोजने और
उन्हें माफ कर
देने को? इसलिए
ताओ संसार का
खजाना है।'
लोग
बुरे हैं, तुम
उन्हें माफ कर
देना। उनके
बुरे होने से
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। अगर
उन्हें बहुत
लोग माफ करने
वाले मिल जाएं,
उनका बुरा
होना समाप्त
हो जाए। लोग
बुरे हैं, क्योंकि
माफ करने को
कोई भी राजी
नहीं है। लोग
बुरे हैं, क्योंकि
चारों तरफ
उनकी बुराई को
और भी बुराई बना
देने के लिए
आतुर बैठे हुए
लोग हैं। लोग
बुरे हैं, क्योंकि
जो लोग भले
हैं वे उनको
बुरे देखना चाहते
हैं और उन्हें
बुरे रखना
चाहते हैं।
नहीं तो उनकी
भलाई थोथी हो
जाएगी। लोग
बुरे हैं, क्योंकि
सारा समाज
उन्हें बुरे
की भेंट दे
रहा है। कोई
उन्हें माफ
नहीं करना
चाहता।
जीसस
ने एक कहानी
कही है। जीसस
से एक आदमी ने
पूछा कि मैंने
बहुत पाप किए
हैं,
और मुझे
भरोसा नहीं
आता कि
परमात्मा
मुझे क्षमा कर
देगा।
और
जीसस की तो
सारी
प्रक्रिया
क्षमा की है।
जैसे महावीर
की सारी
प्रक्रिया
अहिंसा की है, और
बुद्ध की सारी
प्रक्रिया
करुणा की है, जीसस की
सारी
प्रक्रिया
क्षमा की है।
जीसस
ने कहा कि तुम
परमात्मा की
फिक्र मत करो, तुम्हारे
प्रति जिन
लोगों ने
अपराध किए हों,
तुम उन्हें
क्षमा कर दो; बाकी मैं
देख लूंगा, मैं गवाह
रहूंगा। और जब
परमात्मा
तुम्हारे
पापों की बात
उठाएगा तो मैं
गवाह रहूंगा
कि इस आदमी ने
क्षमा किया था
हृदयपूर्वक।
और जिसने
क्षमा किया है
वह क्षमा पाने
का अधिकारी हो
गया।
और
जीसस ने उसे
एक कहानी कही।
कहा कि एक
सम्राट ने
अपने वजीर को
कई करोड़
रुपए उधार दिए
थे। उसने सब
बरबाद कर दिए, एक
कौड़ी
वापस न लौटाई।
आखिर सम्राट
ने उसे बुलाया
और कहा कि अब
यह बहुत हो
गया। तुम धन
वापस लौटाते हो?
उलटे तुम और
मांगे चले जा
रहे हो।
लौटाते तो नहीं,
मांगते हो।
वह आदमी
सम्राट के
चरणों पर गिर
पड़ा। और उसने
कहा, मुझे
माफ कर दें।
वह सब तो
बरबाद हो गया,
मेरे पास
लौटाने को है
भी नहीं; आपकी
कृपा का
भिखारी हूं।
उस सम्राट को
दया आई।
पुराना सेवक
था। हो गई
भूल। सम्राट
ने कहा, ठीक,
मैंने तुझे
माफ किया। बात
भूल जा, जैसे
मैंने तुझे
कभी दिए ही
नहीं। अपने मन
से बोझ हटा
दे।
उस
वजीर ने
उन्हीं
रुपयों में से, जो
सम्राट के वह
पा गया था, कई
लोगों को कर्ज
दिया था। और
वह बहुत सख्त
आदमी था। और
दूसरे ही दिन
ऐसा हुआ कि
उसके ही एक नौकर
को जिसे उसने
कुछ सौ रुपए
दिए थे, उसने
कोड़ों से पिटवाया, क्योंकि वह
वापस नहीं
लौटा पा रहा
था। सम्राट को
खबर लगी।
सम्राट ने
वजीर को
बुलाया और
उसने कहा कि तू
क्षमा के
योग्य नहीं
है। जब मैंने
तुझे क्षमा कर
दिया तो भी तू
क्षमा नहीं कर
पा रहा है। और वे
वे ही
रुपए हैं
जिनके लिए
मैंने तुझे
क्षमा कर दिया
है। और तूने
नौकर को कोड़े
लगवाए!
जीसस
कहते हैं, सम्राट
ने उस आदमी को कोड़े लगवाए
और कहा कि वह
क्षमा वापस ले
ली गई।
अस्तित्व
तुम्हें
कितना क्षमा
किए चला जाता है।
तुम बार-बार
वही भूल करते
हो तो भी
तुम्हारा
जीवन वापस
नहीं ले लिया
जाता। तुम
बार-बार वही
उपद्रव खड़ा
करते हो तो भी
अस्तित्व
तुम्हें माफ
किए चला जाता
है। इससे अगर
तुम इतना भी न
सीख पाए कि
तुम दूसरों को
माफ कर दो तो
तुम कुछ भी न
सीख पाए। और
अगर तुम
दूसरों को माफ
कर दो तो तुम
पाओगे, जिसको
भी तुम माफ
करते हो उसके
जीवन में तुम
सुधरने का
मार्ग खोल
देते हो।
जितना तुम दंड
देते हो बुरों
को उतने ही वे
बुरे होते
जाते हैं।
जितना दंड
देते हो उतने
निष्णात बुरे
हो जाते हैं।
जितना दंड
देते हो उतना
ही मजबूती से
बुरे हो जाते
हैं। क्योंकि
तुम्हारे दंड
का बदला भी वे
फिर लेना
चाहेंगे।
जब तुम
एक बच्चे को
मारते हो, या
एक अपराधी को,
तो कई बातें
घट रही हैं।
एक बच्चे ने
झूठ बोला, तुमने
एक चांटा
मारा। बच्चे
ने क्रोध किया,
तुमने एक
छड़ी मारी। और
तुम चाहते हो
कि बच्चा इससे
सीख ले, अब
झूठ न बोले।
लेकिन अब
बच्चा इससे कई
बातें सीखेगा।
एक बात तो यह
कि झूठ बोलने
पर दंड मिलता
है। लेकिन झूठ
बोलने के कई
फायदे भी हैं।
अगर झूठ सफल
हो जाए तो
तुम्हें
पुरस्कार भी
मिलते हैं।
झूठ का पता न
लगे, पकड़ा
न जाए, तो
लाभ भी होता
है। और ऐसे भी
झूठ बोलने का
एक मजा है। और
वह मजा यह है
कि तुम दूसरे
को धोखा दे रहे
हो; तुम
होशियार हो।
एक अहंता है
झूठ बोलने की
कि तुमने बाप
को धोखा दे
दिया। और बाप
बड़े बुद्धिमान
बने बैठे हैं
और पकड़ न पाए।
तो बच्चा यह
सीखता है कि
अब झूठ तो
बोलना, लेकिन
इस तरह बोलना
कि इतनी आसानी
से पकड़े न
जाओ।
और
बच्चा यह भी
सीखता है कि
बाप कितना ही
कहे कि झूठ मत
बोलना, लेकिन
बाप खुद झूठ
बोलता है। बाप
खुद ही बेटे को
कहता है कि
अगर कोई बाहर
आए तो कह देना
कि वे घर में
नहीं हैं, बाहर
गए हैं।
बाप
कहता है, क्रोध
मत करो, अपने
से छोटों को
मत मारो। और
बाप खुद बेटे
को मारता है।
और बेटा सोचता
है, यह
कैसा हिसाब है?
मैं अपने
छोटे भाई को न मारूं यह
तो मुझे
समझाया जाता
है, और बाप
मुझसे इतना
बड़ा है, मैं
इतना छोटा हूं,
मुझे पीटा
जा रहा है। तो
बच्चा समझ
लेता है कि छोटे
पीटे तो जा
सकते हैं, लेकिन
निरंकुश
सत्ता चाहिए।
बाप मुझे पीट
रहा है; कोई
बाप के ऊपर
नहीं है, इसलिए
पीट रहा है।
जिस दिन मेरे
ऊपर भी कोई नहीं
होगा उस दिन
मैं भी पीट
सकूंगा।
इसलिए पूरी
कोशिश यह है
कि मैं सबके
ऊपर हो जाऊं, मेरे ऊपर
कोई न रहे।
अपराध मारने
में नहीं है, न पीटने में,
न क्रोध
करने में; ऊपर
होने में कोई
अपराध नहीं
है। नीचे हो
तो अपराधी हो।
यह बच्चा सब
सीख रहा है।
यही अपराधी
सीख रहा है।
लाओत्से
कहता है, क्षमा
कर दो। उन्हें
भेंट दो अमृत
वचनों की। और
उन्हें
चरित्र का दान
दो। और अगर
संभव हो सके
तो जैसा
स्वभाव तुम्हारे
पास है उस
स्वभाव की
थोड़ी सी झलक
और स्वाद दो।
अगर
तुम्हें यह
बात समझ में आ
जाए कि बांटना
है,
देना है, भेंट करनी
है, तो तुम
अपने को बदलने
में लग जाओगे।
क्योंकि वही
दिया जा सकता
है जो
तुम्हारे पास
है। मेरी अपनी
समझ यह है और
मैं तुमसे
कहता हूं, क्योंकि
यह तुम्हारे
काम पड़ेगी।
बहुत
से संन्यासी
मुझसे आकर
पूछते हैं कि
अभी हम तो
पूरे नहीं हुए, हम
दूसरों को
बदलने की क्या
कोशिश करें!
अभी हमने तो
पूरा जाना
नहीं, तो
हम किसको जनाएं!
उनको
मैं कहता हूं
कि तुम जाओ और
दूसरों को जनाओ, तुम
जाओ और दूसरों
को बताओ और
तुम दूसरों को
बदलने की
फिक्र करो।
क्योंकि उनको बदलने
की फिक्र में
ही तुम पाओगे
कि तुमने अपने
को बदलने का
और भी तीव्रता
से आयोजन शुरू
कर दिया है।
क्योंकि जब भी
तुम किसी
दूसरे व्यक्ति
को सुधारने
में लग जाते
हो तो तुम्हें
साफ दिखाई पड?ने लगता है
कि उसे
सुधारने के
पहले खुद को
सुधार लेना
जरूरी है। अगर
तुम किसी को
सुधारने में
नहीं लगते तो
खुद को सुधारने
की जरूरत का
भी एहसास नहीं
होता है।
अगर हर
व्यक्ति एक
बुरे आदमी को
सुधारने में लग
जाए,
भला वह बुरा
आदमी सुधरे
या न सुधरे,
लेकिन आखिर
में वह
व्यक्ति
पाएगा कि उसकी
सुधारने की
कोशिश में मैं
सुधर गया हूं।
एक छोटा बच्चा
पूरे परिवार
को बदल सकता
है। क्योंकि बाप
को मुश्किल हो
जाता है--कैसे
सिगरेट पीए इस
बच्चे के
सामने? अगर
बाप को बच्चे
से प्रेम है
तो सिगरेट
फेंक देगा।
अगर बाप को
बच्चे से
प्रेम है तो
झूठ बोलना बंद
कर देगा। अगर
तुम किसी एक
आदमी के भी
जीवन को
रूपांतरित करने
के खयाल से भर
जाओ तो
अनिवार्य हो
जाएगा कि तुम
अपने को बदल
लो। अन्यथा
तुम बदलोगे
कैसे? दूसरे
को बदलने की
कोशिश अपने को
बदलने की बड़ी
खूबसूरत
कीमिया है।
दूसरे को
बदलने की
चेष्टा स्वयं
के लिए बड़ी से
बड़ी साधना है।
इसलिए
इसकी फिक्र मत
करो कि कब तुम
पूरे होओगे, कब
तुम्हारा
रूपांतरण
पूरा होगा।
तुम्हारे पास
जो भी
छोटा-मोटा है
तुम उसी को
बांटना शुरू
कर दो। अगर
कुछ न हो तो जो
अमृत वचन
तुमने मुझसे
सुने हैं, वही
तुम लोगों को
कहो। अगर
तुमने कुछ
थोड़ा सा आचरण
का खजाना
निर्मित किया
है, उसमें
से बांटो। अगर
स्वभाव की
तुम्हें कोई झलक
मिली है तो
उसमें लोगों
को भागीदार
बनाओ। और तुम
पाओगे, जितना
तुम बांटते हो
उतना बढ़ता है।
और जितना तुम
दूसरों को
बदलने में
लगते हो, उतना
तुम्हारी
क्रांति होती
चली जाती है।
तुम परोक्ष
में बदलते
जाते हो।
दुनिया
में कोई भी
व्यक्ति अपने
को सीधा बदलना
बहुत कठिन
पाता है।
तुम्हारी
अपनी सब पहचान
दूसरे के
द्वारा है।
तुम्हें लोग
सुंदर कहते हैं
तो तुम अपने
को सुंदर
समझते हो।
तुम्हें लोग
भला कहते हैं
तो तुम भला
समझते हो।
तुम्हारी
पहचान के लिए
दूसरे का
दर्पण जरूरी है।
अकेले में तुम
कुछ भी न समझ
पाओगे कि तुम
कौन हो, क्या
हो।
पश्चिम
में एक बहुत
बड़ा यहूदी
विचारक हुआ, मार्टिन
बूवर। वह
कहता है कि
तुम्हारे
संबंधों में
ही तुम्हारे
जीवन की सारी
क्रांति फलित
होगी। कृष्णमूर्ति
का जोर भी
अंतर-संबंधों
पर है। वे
कहते हैं कि
जितना ही तुम
अपने संबंधों
को
समझोगे--पति-पत्नी
के संबंध को, मां-बेटे के
संबंध को, बेटे-बाप
के संबंध को, मित्र-मित्र
के संबंध
को--और जितने
ही तुम प्रेम
से भरोगे,
और जितना ही
तुम दूसरे के
जीवन में शुभ
का पदार्पण
चाहोगे, चाहोगे
कि इसके जीवन
में मंगल की
वर्षा हो जाए,
तुम अचानक
पाओगे कि तुम
तो दूसरे के
जीवन में मंगल
की वर्षा कर
रहे थे, लेकिन
तुम्हारे
आंगन में
वर्षा हो
चुकी। जिसने
दूसरों के लिए
फूल बरसाने
चाहे, उसे
पता ही नहीं
चलता कि कब
आकाश खुल जाता
है और उसके
जीवन में फूल
ही फूल बरस
जाते हैं।
आज
इतना ही।
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