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गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--103

स्वादहीन का स्वाद लो—(प्रवचन—एकसौतीनवां) 

अध्याय 63

कठिन और सरल

निष्क्रियता को साधो। अकर्म पर अवधान दो। स्वादहीन का स्वाद लो।
चाहे वह बड़ी हो या छोटी, बहुत या थोड़ी, घृणा का प्रतिदान पुण्य से दो।
कठिन से तभी निबट लो, जब वह सरल ही हो;
बड़े से तभी निबट लो, जब वह छोटा ही हो;
संसार की कठिन समस्याएं तभी हल की जाएं, जब वे सरल ही हों;
संसार की महान समस्याएं तभी हल की जाएं, जब वे छोटी ही हों।
इसलिए संत सदा बड़ी समस्याओं से निबटे बिना ही महानता को संपन्न करते हैं।
जो फूहड़पन के साथ वचन देता है,
उसके लिए अक्सर वचन पूरा करना कठिन होगा।
जो अनेक चीजों को हलके-हलके लेता है, उसे अनेक कठिनाइयों से पाला पड़ेगा।
इसलिए संत भी चीजों को कठिन मान कर हाथ डालते हैं,
और उसी कारण से उन्हें कठिनाइयों का सामना नहीं होता।

निष्क्रियता लाओत्से का मूल स्वर है।
इसे बहुत गहरे से समझ लेना जरूरी है। कठिनाई बढ़ जाती है और भी, क्योंकि निष्क्रियता को हम अक्सर अकर्मण्यता समझ लेते हैं। शब्द निषेधात्मक है, लेकिन स्थिति निषेध की नहीं है। निष्क्रियता शब्द तो नकार का है, लेकिन स्थिति बड़ी अकारात्मक है।

निष्क्रियता का अर्थ आलस्य नहीं है, और न अकर्मण्यता है। निष्क्रियता का अर्थ है: शक्ति तो पूरी है, ऊर्जा तो भरपूर है; उपयोग नहीं है। भीतर तो ऊर्जा पूरी भरी है, लेकिन वासनाओं की दिशा में उसकी दौड़ रोक दी गई है। आलस्य में ऊर्जा का अभाव है। सुबह-सुबह तुम पड़े हो अपने बिस्तर में; उठने की ताकत ही नहीं पाते हो। अभाव है, कुछ कम है; शक्ति ही मालूम नहीं पड़ती। एक करवट और लेकर सो जाते हो। इसे तुम निष्क्रियता मत समझना। यह अकर्मण्यता है। करना तो तुम चाहते हो, करने की शक्ति नहीं है।
ठीक इससे उलटी है निष्क्रियता। करना तुम नहीं चाहते; करने की शक्ति बहुत है। चाह चली गई है, शक्ति नहीं गई। आलसी की चाह तो है, शक्ति नहीं है। ज्ञानी की चाह चली गई; चाह के जाते ही बहुत शक्ति बच गई। क्योंकि चाह में जो शक्ति नष्ट होती थी अब उसके नष्ट होने की कोई जगह न रही। सब छिद्र बंद हो गए। सब द्वार बंद हो गए।
तो ज्ञानी में और आलसी में तुम्हें कभी-कभी समानता दिखाई पड़ेगी; क्योंकि ज्ञानी भी कुछ करता नहीं, आलसी भी कुछ करता नहीं। पर दोनों के कारण अलग-अलग हैं।
और ठीक से समझ लेना, अन्यथा लाओत्से को पढ़ कर बहुत से लोग निष्क्रिय न होकर आलसी हो जाते हैं।
मेरे पास मेरे ही संन्यासी आकर कहते हैं कि आप ही तो समझाते हैं कि निष्क्रिय हो रहो। फिर आप ही कहते हैं: ध्यान करो, काम करो। तो आप तो उलटी बातें समझा रहे हैं।
आलसी होने को नहीं समझा रहा हूं। तुम आलसी होना चाहोगे। कौन नहीं होना चाहता? मैं कह रहा हूं, चाह छोड़ो। चाह को तो तुम भलीभांति पकड़े हो; उसे नहीं छोड़ते सुन कर। लेकिन निष्क्रियता जंच जाती है मन को। यह तो बड़ी अच्छी बात हुई, कुछ भी नहीं करना है; ध्यान भी नहीं करना है।
सुबह छह बजे उठ कर ध्यान के लिए आना पड़ता है। तो संन्यासी मुझसे आकर कहते हैं कि एक तरफ आप समझाते हैं कि सहज हो जाओ और सुबह तो उठने का मन होता ही नहीं। इधर समझाते हैं निष्क्रिय हो जाओ, तो निष्क्रिय हम होते हैं तो बिस्तर में ही पड़े रहते हैं। उधर कहते हैं ध्यान करने आ जाओ।
इसको तुम निष्क्रियता मत समझ लेना। यह शुद्ध आलस्य है। आलस्य जहर है, और निष्क्रियता अमृत है। इतना फासला है उनमें। जमीन-आसमान का अंतर है। और मन बहुत चालाक है। वह हमेशा ठीक को गलत से मिश्रित कर लेता है। वह बड़ा कुशल कलाकार है। वह तुमसे कहता है कि ठीक है, जब परम ज्ञानियों ने कहा है कुछ न करो, तो तुम क्यों करने में लगे हो!
परम ज्ञानियों ने कहा है कि तुम्हारे भीतर करने की जो आकांक्षा है, वह खो जाए, करने की शक्ति नहीं। करने की आकांक्षा को भी इसलिए छोड़ने को कहा है, ताकि शक्ति बचे।
तो एक तो आलसी आदमी है जो बिस्तर में पड़ा है, कुछ नहीं कर रहा।
फिर तुमने देखा है, दौड़ के लिए तत्पर प्रतियोगी। दौड़ शुरू होने को है। सीटी बजेगी, संकेत मिलेगा, अभी दौड़ शुरू नहीं हुई है। खड़ा है लकीर पर पैर को रखे। अभी कुछ भी नहीं कर रहा है। लेकिन क्या तुम उसको आलसी कहोगे? बड़ी ऊर्जा से भरा है। इधर बजी नहीं सीटी, उधर वह दौड़ा नहीं। तत्पर है, रोआं-रोआं तत्पर है। श्वास-श्वास सजग है। क्योंकि एक-एक क्षण की कीमत है। एक क्षण भी चूक गया, एक क्षण भी पीछे हो गया, तो हार निश्चित है। कुछ भी नहीं कर रहा है; अभी इस क्षण तो खड़ा है मूर्ति की तरह, पत्थर की मूर्ति की तरह। लेकिन तुम उसे आलसी न कह सकोगे। निष्क्रिय है वह अभी। अभी क्रिया नहीं कर रहा है। ऊर्जा इकट्ठी है। ऊर्जा भीतर घनीभूत हो रही है। वह ऊर्जा का एक स्तंभ हो गया है।
मगर यह प्रतियोगी कुछ भी नहीं है। जिसने परमात्मा की तरफ जाना चाहा है उसे तो बहुत-बहुत अनंत ऊर्जा चाहिए। यह दौड़ तो बड़ी छोटी है; मील, आधा मील पर पूरी हो जाएगी। परमात्मा की दौड़ तो विराट है। उससे बड़ी कोई दौड़ नहीं; उससे बड़ी कोई मंजिल नहीं।
लाओत्से कहता है, निष्क्रिय हो रहो, ताकि शक्ति बचे। निष्क्रियता संयम है। व्यर्थ मत खोओ। यहां-वहां अकारण मत दौड़े फिरो। जो-जो दौड़ छोड़ी जा सकती हो, छोड़ दो। जो-जो चाह छोड़ी जा सकती हो, छोड़ दो। न्यूनतम आवश्यकताओं पर ठहर जाओ, ताकि सारी ऊर्जा एक ही दिशा में प्रवाहित होने लगे, उसकी एक ही धारा बन जाए। निष्क्रियता का अर्थ है: इस संसार से खींच ली ऊर्जा और उस संसार की तरफ यात्रा शुरू हो गई।
आलस्य का अर्थ है: न उधर के, न इधर के। इस संसार में जाने योग्य ऊर्जा ही नहीं है; उस संसार का सवाल ही कहां उठता है। आलस्य अकर्मण्यता है। वासना मन में पूरी दौड़ती है। इच्छाएं बड़े सपने बनती हैं। पाना सब है; लेकिन पाने की मेहनत करने की शक्ति नहीं, संकल्प नहीं, भरोसा नहीं। कमजोरी है। आलस्य नपुंसकता है, अभाव है। आलस्य नकारात्मक स्थिति है।
निष्क्रियता बड़ी भावात्मक स्थिति है, बहुत पाजिटिव। शक्ति है पूरी, वासना कोई न रही। इस दुनिया में कोई दौड़ आकर्षक न रही, कोई दरवाजा बुलाता नहीं; कहीं जाने को न बचा। सब इकट्ठा हुआ जा रहा है। और जब इस दुनिया में कोई भी द्वार नहीं है और सब द्वार बंद हो गए, सब छिद्र बंद हो गए और तुम्हारे घट में शक्ति भरी जा रही है, तभी तुम्हारे घट में शक्ति ऊपर उठती है। और एक ऐसी घड़ी आती है जहां तुम्हारे घट की बढ़ती हुई ऊर्जा ही तुम्हें इस संसार के पार ले जाती है। अगर ठीक से समझो तो वही कुंडलिनी का जागरण है।
मेरे पास आते हैं बिलकुल मरे, मुर्दा लोग। उन्होंने कहा, हम फलां बाबा के पास गए और उन्होंने कुंडलिनी जगा दी। उनकी शक्ल देख कर तुम कहोगे कि तुम्हें किसी अस्पताल में होना चाहिए। तुम्हारी कुंडलिनी जग कैसे सकती है? तुमने कोई कल्पना कर ली। तुम किसी भ्रम के शिकार हुए।
कुंडलिनी जगनी कोई आसान घटना नहीं है। वह तो इतनी भरपूर ऊर्जा का परिणाम है कि घट में नीचे कोई छिद्र नहीं है; ऊर्जा इकट्ठी होती है। कहां जाएगी? उठेगी ऊपर और एक घड़ी आएगी कि घट के मुंह से ऊर्जा बहने लगेगी; ओवरफ्लो होगा। तुम्हारी खोपड़ी ही वह मुंह है जहां से ऊर्जा का ओवरफ्लो होगा। इसलिए तो हमने उसको सहस्र-दल कमल का खिलना कहा है; जैसे फूल की पंखुड़ियां खिल जाती हैं।
फूल वृक्ष का ओवरफ्लो है। वहां तक ऊर्जा आ गई है और अब आगे जाने का कोई उपाय नहीं है। आखिरी क्षण आ गया। शिखर आ गया। वहीं पंखुरियों में ऊर्जा बिखर जाती है। वहीं से सुगंध सारे लोक में फैल जाती है।
कमजोर वृक्ष जिसमें ऊर्जा न हो, उसमें फूल न खिल सकेगा। हां, यह हो सकता है कि तुम बाजार से एक फूल खरीद लाओ और वृक्ष पर लटका दो। पर उस फूल से वृक्ष का कोई लेना-देना नहीं। ऐसे ही आबा-बाबाओं के पास जो ऊर्जा उठती है, कुंडलिनी जगती है, वह ऊपर से थोपे गए फूल हैं।
तुम्हारी ऊर्जा तभी जगेगी जब इस संसार में तुम पूरे निष्क्रिय हो जाओगे; यहां तुम रत्ती भर न गंवाओगे। यहां गंवाने योग्य है ही नहीं। यहां कुछ पाने योग्य नहीं है। तुम किस खरीददारी में लगे हो? तुम सिर्फ खो रहे हो। यहां सिर्फ मरुस्थल है जो तुम्हारी ऊर्जा को पी जाएगा।
सब छिद्र रोक दो। बंद करो सब छिद्र, कहता लाओत्से। बंद करो सब द्वार, ताकि होती जाए संगठित ऊर्जा। ऊर्जा का संगठन और ऊर्जा की बढ़ती हुई मात्रा एक जगह जाकर गुणात्मक परिवर्तन हो जाती है। क्वांटिटेटिव चेंज एक जगह जाकर क्वालिटेटिव चेंज हो जाता है। मात्रा की एक सीमा है, जहां गुणात्मक रूप बदल जाता है। जैसे तुम पानी को गरम करते हो तो निन्यानबे डिग्री तक तो पानी ही रहता है; सौ डिग्री पर भाप हो जाता है। क्या हो रहा है? सिर्फ एक डिग्री गरमी और बढ़ने से कौन सी क्रांति घट जाती है? एक डिग्री का और गरम होना केवल मात्रा का भेद है, क्वांटिटी का भेद है। निन्यानबे डिग्री गरमी थी, अब सौ डिग्री गरमी है। लेकिन गुणात्मक रूपांतरण हो गया; क्वालिटी बदल गई। पानी का गुण और; पानी बहता नीचे की तरफ। भाप का गुण और; भाप उठती ऊपर की तरफ। पानी जाता गङ्ढे की तरफ; भाप जाती आकाश की तरफ। पानी अधोगामी है, भाप ऊर्ध्वगामी है। सारा गुण बदल गया। पानी दिखाई पड़ता है; भाप थोड़ी ही देर में अदृश्य हो जाती है, दिखाई नहीं पड़ती।
मात्रा को नीचे गिराओ--शून्य डिग्री से कहीं जाकर पानी बर्फ हो जाता है। तब फिर गुणात्मक परिवर्तन हो गया। तुमने सिर्फ गरमी कम की। फिर गुण बदल गया। पानी बहता था; बर्फ जमा है। पानी में तरलता थी, बहाव था; बर्फ पत्थर की तरह है। उसमें कोई तरलता नहीं, कोई बहाव नहीं। पानी को फेंक कर तुम किसी का सिर न खोल सकते थे; बर्फ को फेंक कर तुम किसी की जान ले सकते हो। बर्फ ठहर गया, जड़ हो गया; गत्यात्मकता खो गई। फर्क क्या है? सिर्फ मात्रा का फर्क है।
सारे जगत में जितने भी रूपांतरण दिखाई पड़ते हैं, सभी मात्रा के रूपांतरण हैं। तुम्हारी ऊर्जा जब एक मात्रा पर आती है--एक सौ डिग्री है तुम्हारी ऊर्जा का भी--वहीं से तत्क्षण तुम दूसरे लोक में प्रवेश कर जाते हो; भाप बन जाते हो। हमने जगत को तीन हिस्सों में तोड़ा हुआ है। बीच में संसार है मनुष्य का, मनुष्य की चेतना का; यह पानी जैसा है--तरल। ऊपर दिव्य लोक है; यह भाप जैसा है--अदृश्य, ऊर्ध्वगामी। नीचे मनुष्य से नीचे की योनियां हैं; वृक्ष हैं, पत्थर हैं, पहाड़ हैं। ये बर्फ जैसे हैं--जमे हुए। ये चेतना के तीन रूप हैं। और इनका सारा भेद ऊर्जा की मात्रा का भेद है।
आलस्य से तो तुम बर्फ बन जाओगे। निष्क्रियता से तुम भाप बनोगे। दोनों ही स्थिति में पानी तुम न रहोगे। इसलिए एक तरह की समानता है। लेकिन वह समानता बड़ी ऊपर है; भीतर बड़ा भेद है।
संत भी आलसी मालूम होने लगता है; कुछ करता नहीं दिखाई पड़ता। रमण महर्षि क्या कर रहे थे अरुणाचल में? इसलिए बहुतों को गांधी ज्यादा संत मालूम पड़ते हैं, बजाय रमण के। रमण बैठे हैं। तुमने रमण की तस्वीर देखी? सदा अपने बिस्तर पर ही बैठे हैं। बैठे भी कम हैं, लेटे ही हैं। चार-छह तकिए लगा रखे हैं। अब इनको संत कहिएगा? उठो, कुछ करो। किसी की सेवा करो। संसार को जरूरत है; कुछ काम करो। मुल्क गुलाम है; आजाद करो। लोग गरीब हैं; अमीर करो। यहां बैठे क्या कर रहे हो?
रमण बैठे ही रहे अरुणाचल पर। इसे साधारण दृष्टि न समझ पाएगी। यह आलस्य नहीं है। यह निष्क्रियता है। रंच भर भी रमण की ऊर्जा इधर-उधर नहीं फेंकी जा रही है; सब संगृहीत है, सब इकट्ठा है। और जो देख सकते हैं वे देख सकते हैं कि ऊपर की यात्रा हो रही है। और उससे बड़ी कोई सेवा नहीं है इस जगत की।
तुम्हारी ऊपर की यात्रा शुरू हो जाए, तुम जगत के लिए बड़ी भारी सेवा का कारण बन गए। तुम स्रोत बन गए एक दूसरे लोक के। तुम्हारे माध्यम से परमात्मा से फिर संसार जुड़ गया। तुम्हारे माध्यम से, तुम्हारे सेतु से पदार्थ और परमात्मा के बीच कड़ी बन गई। तुम्हारे द्वारा बहुत लोग परमात्मा तक जा सकेंगे।
और परमात्मा तक जो पहुंच जाए, वही समृद्ध होता है। उसके पहले कौन समृद्ध है? सभी दरिद्र हैं। और परमात्मा में कोई पहुंच जाए, तभी कोई स्वस्थ होता है। उसके पहले कौन स्वस्थ? सभी रुग्ण हैं। सभी उपाधिग्रस्त हैं। गरीबी-अमीरी, बीमारी-स्वास्थ्य, सफलता-असफलता, सब सपने में देखी गई बातें हैं। सत्य तो उसी दिन शुरू होता है जिस दिन ऊर्जा इतनी अपरिसीम हो जाती है कि घट का मुंह फूल की पंखुड़ियों जैसा खिल जाता है और ऊर्जा तुमसे बरसने लगती है; तुम्हारे पार जब बहने लगती है। अतिक्रमण!
निष्क्रियता में तो अतिक्रमण है, ट्रांसेंडेंस है। आलस्य में तो सिर्फ पथराव है; तुम पत्थर की तरह हो जाते हो। इसलिए तुम आलसी और निष्क्रिय व्यक्ति को गौर से देखना। आलसी के पास तुम एक तंद्रा पाओगे, एक मूर्च्छा, एक वजनीपन। तुम उसके पास भी बैठोगे तो तुमको भी नींद आने लगेगी। तुम उसके पास बैठोगे, तुमको भी लगेगा, एक गहन ऊब से मन भर गया है; तुम भी नीचे कहीं सरके जा रहे हो। तुम भी पत्थर की तरह वजनी हुए जा रहे हो। गुरुत्वाकर्षण गहन हो गया है।
जब तुम किसी निष्क्रिय आदमी के पास बैठोगे तो तुम पाओगे तुम्हें पंख लग गए हैं, तुम किसी आकाश में उड़े जाते हो; जैसे जमीन ने गुरुत्वाकर्षण खो दिया। तुममें कोई वजन नहीं है, तुम हलके हो गए। वही है सत्संग, जहां से तुम हलके होकर लौटो। जहां से तुम भारी होकर आ जाओ वहां से बचना। वहां सत्संग के नाम पर ठीक उलटा ही कुछ चलता होगा। सत्संग करेगा हलका, निर्भार, कि तुम उड़ सको। और परमात्मा का तो अर्थ है आकाश का आखिरी, आखिरी आत्यंतिक छोर। वहां तो तुम जब तक बिलकुल भार-शून्य न हो जाओगे--एब्सोल्यूटली वेटलेस--तब तक न पहुंच सकोगे।
निष्क्रियता बड़ा अदभुत फूल है। निष्क्रियता है फूल जैसी। आलस्य जड़ों जैसा--कुरूप, जमीन में दबा, सोया हुआ। निष्क्रियता है फूल जैसी--आकाश में खिली, सुगंध को, सुवास को बिखेरती, बांटती। वृक्ष अपने को लुटा रहा है वहां से, दान कर रहा है। कुछ पाने को नहीं; ज्यादा है, इसलिए दे रहा है। यह तो पहली बात।
दूसरी बात, निष्क्रियता का स्वभाव समझने की कोशिश करो। यह तो मैंने कहा कि निष्क्रियता क्या नहीं है; निष्क्रियता आलस्य नहीं है, अकर्मण्यता नहीं है। फिर निष्क्रियता क्या है?
निष्क्रियता ऊर्जा का संयम है। ज्ञानी एक भाव-भंगिमा भी व्यर्थ और अकारण नहीं करता। अगर वह हिलता भी है तो कारण से ही हिलता है; चलता भी है तो कारण से ही चलता है। ज्ञानी एक कदम भी व्यर्थ नहीं चलता। न्यूनतम है उसका जीवन।
तुम हजारों कदम व्यर्थ चलते हो। तुम चलते ही व्यर्थ हो। तुम हजार काम व्यर्थ करते हो। तुम करते ही व्यर्थ हो। तुम हजार विचार व्यर्थ सोचते हो। तुमने कभी खयाल किया कि तुम जितने विचार करते हो, उनमें से कितने काटे जा सकते हैं, जिनकी कोई भी जरूरत नहीं है।
तुम थोड़े ही सजग होओगे तो निन्यानबे प्रतिशत विचार तो तुम व्यर्थ ही पाओगे, जिनको न किया होता तो कुछ न खोते, जिनको करके तुमने बहुत कुछ खोया। क्योंकि हर विचार ऊर्जा को समाप्त कर रहा है। एक-एक विचार के लिए कीमत चुकानी पड़ रही है। तुम ऐसा मत समझना कि मुफ्त सपने देख रहे हो। मुफ्त तो इस संसार में कुछ भी नहीं है। मुफ्त तो कुछ हो ही नहीं सकता; जो भी है, उसे तुम्हें चुकाना पड़ रहा है। तुम विचार कर रहे हो; तुम्हारी ऊर्जा खो रही है। वह एक छिद्र है। तुम व्यर्थ कुछ बात कर रहे हो; ऊर्जा खो रही है। तुम व्यर्थ सुन रहो हो; ऊर्जा खो रही है। तुम व्यर्थ देख रहे हो; ऊर्जा खो रही है। एक हाथ भी तुमने हिलाया तो मुफ्त तो नहीं हिला सकते; उतनी ऊर्जा गई, उतना जीवन व्यय हुआ।
संयम का यही अर्थ है। संयम का अर्थ है: जो अपरिहार्य है उसके साथ जीना; और जो काटा जा सकता है उसे काट देना। संयम ऐसा है जैसे कोई आदमी पोस्ट आफिस जाता है तार करने, तो देखता है, कितने शब्द काटे जा सकते हैं। फिर-फिर काटता है। दस, नौ-दस शब्दों के भीतर में ले आता है। यही आदमी पत्र लिखे तो चार पन्ने लिखता है। और कभी तुमने खयाल किया, चार पन्ने जो नहीं कह सकते, वह एक तार कहता है।
ज्ञानी कम करता है, लेकिन उससे बहुत होता है। वह टेलीग्रैफिक है। वह बहुत न्यूनतम करता है, लेकिन विराटतम उससे फलित होता है। क्योंकि व्यर्थ उसने काट दिया है; सार्थक को बचा लिया है। तार की भाषा है ज्ञानी। दस शब्दों में, जो जरूरी है, जो एकदम जरूरी है, वही उसके जीवन से प्रकट होता है।
जीवन को टेलीग्रैफिक बनाओ। जितना-जितना व्यर्थ पाओ, हटा दो। तभी तुम्हारी मूर्ति निखरेगी। तभी तुम्हारे भीतर ऊर्जस्वी आत्मा का जन्म होगा। तुम आत्मवान बनोगे। तभी तुम पाओगे कि तुम शक्तिशाली हो। अन्यथा तुम हमेशा निर्बल रहोगे।
निर्बल तुम इसलिए नहीं हो कि निर्बल तुम पैदा किए गए हो; निर्बल इसलिए हो कि तुम अपनी ऊर्जा को व्यर्थ छिद्रों से खोए डाल रहे हो। और तुम भी भलीभांति जानते हो। बहुत बार तुम्हें समझ में भी आता है। बस पुरानी लत है, पुरानी आदत है; किए चले जाते हो।
बुद्ध के सामने एक आदमी बैठा था और बैठा-बैठा अपना पैर का अंगूठा हिला रहा था। बुद्ध ने पूछा कि मेरे भाई, यह क्या कर रहे हो? बीच वचन तोड़ कर बोल रहे थे, प्रवचन तोड़ कर बीच में कहा कि यह क्या कर रहे हो? यह अंगूठा क्यों हिलता है?
वह आदमी थोड़ा घबड़ा गया। और जैसे ही बुद्ध ने पूछा, अंगूठा रुक गया। क्योंकि वह हिलता था बेहोशी में, होश आ गया। कोई काम तो था नहीं अंगूठा हिलाने का। उस आदमी ने कहा कि आप भी खूब हैं! आप अपना प्रवचन दें, मेरे अंगूठे से क्या लेना-देना? और इतना महत्व क्या अंगूठे का?
बुद्ध ने कहा कि अगर तुम्हें यही पता नहीं कि तुम्हारा अंगूठा हिल रहा है, क्यों हिल रहा है, तो मैं बेकार ही प्रवचन दे रहा हूं। तुम समझोगे क्या खाक! जिसमें इतनी भी बुद्धि नहीं कि बिना कारण अंगूठा न हिलाए, वह क्या समझेगा? और फिर तुमने रोका क्यों? जब तक तुम साफ-साफ न बताओगे, मैं आगे न बढूंगा। मेरे कहते ही अंगूठा रुका क्यों? उस आदमी ने कहा, आप भी खूब हैं! मुझे पता ही नहीं था कि अंगूठा हिल रहा है; आपने कहा, तभी मुझे पता चला। बुद्ध ने कहा, यह भी खूब रही। तुम्हारा अंगूठा; हम बताएं, तब तुम्हें पता चले!
इतनी मूर्च्छा में जीओगे और फिर रोओगे कि जीवन में कुछ मिल नहीं रहा है। अपने ही हाथों से खोओगे, और तुम्हें पता भी न चलेगा कि तुमने कैसे खो दिया है। और फिर भी आदमी अपने को होश में समझता है, जागा हुआ समझता है।
तुम भी जरा गौर से देखना। हजार अंगूठे हिल रहे हैं तुम्हारे; अकारण हिल रहे हैं। जैसे-जैसे तुम समझोगे वैसे-वैसे अंगूठे हिलने बंद हो जाएंगे। धीरे-धीरे एक शांत ऊर्जा घनीभूत होगी। तुम एक बादल हो जाओगे वर्षा के, जो भरा हुआ है, जो बरसने को तत्पर है।
बड़ी विराट संभावना है। लेकिन संभावना तभी फलित होगी जब तुम द्वार बंद करो, छिद्र रोको। और ये छिद्र और द्वार रुक जाते हैं सिर्फ होश से। थोड़ा जाग कर देखो, तुम क्या कर रहे हो। और जो-जो तुम पाओ व्यर्थ है, थोड़ा सम्हल कर चलो और व्यर्थ को छोड़ते जाओ।
बहुत बड़े प्रसिद्ध मूर्तिकार रोदिन से किसी ने पूछा। रोदिन ने एक बड़ी सुंदर प्रतिमा अभी-अभी बनाई थी। कोई मित्र देखने आया था। उसने पूछा कि तुम गजब कर देते हो! तुम करते क्या हो? तुम्हारा राज क्या है? यह प्रतिमा इतनी जीवंत प्रकट कैसे हो जाती है साधारण अनगढ़ पत्थरों से?
रोदिन ने कहा, हम कुछ करते नहीं, सिर्फ पत्थर में जो-जो व्यर्थ था, उसे हम अलग कर देते हैं। मूर्ति तो छिपी ही थी। पत्थर जरा नासमझ है तो व्यर्थ को भी जोड़े हुए था। जरा-जरा, जहां-जहां हम पाते हैं, व्यर्थ पत्थर है, वहां हम छैनी चलाते हैं, व्यर्थ को हटा देते हैं। धीरे-धीरे मूर्ति प्रकट होने लगती है।
मूर्तिकार जब जाता है पहाड़ों में पत्थर खोजने, तो वह पत्थरों को देखता है कि किस पत्थर में मूर्ति छिपी है? कौन सा पत्थर मूर्ति को प्रकट कर सकेगा? तुम जाओगे, तुम्हें सभी पत्थर एक जैसे लगेंगे। मूर्तिकार को दिखाई पड़ जाती है छिपी हुई मूर्ति।
तुम जब मेरे पास आते हो तो मैं देखता हूं कि तुममें कैसी मूर्ति छिपी है; क्या-क्या व्यर्थ तुममें है, जो जरा सा काट दिया जाए कि तुम सार्थकता को उपलब्ध हो जाओगे। विराट ऊर्जा तुममें छिपी है। तुम अनगढ़ पत्थर हो, लेकिन परमात्मा की प्रतिमा को छिपाए बैठे हो।
निष्क्रियता का पहला अर्थ है, जो-जो व्यर्थ है, उसे मत करो। सौ में से नब्बे प्रतिशत कृत्य तुम्हारे अपने आप विदा हो जाएंगे। दस प्रतिशत बचेंगे। वे जीवन की अपरिहार्यताएं हैं, कि प्यास लगेगी तो तुम पानी पीओगे, कि नींद आएगी तो तुम उठ कर बिस्तर पर जाकर सो जाओगे, कि भूख लगेगी तो भोजन करोगे, भोजन को पचाओगे, कि सुबह की प्रभात-वेला में थोड़ा घूम आओगे, कि स्नान कर लोगे। बस, ऐसी जरूरत की बातें बचेंगी। तब तुम्हारे भीतर ऊर्जा का स्तंभ निर्मित होगा। उसी ऊर्जा के स्तंभ से तुम चढ़ोगे परमात्मा तक। तुम नहीं, ऊर्जा चढ़ेगी। बिना ऊर्जा के तुम कैसे जाओगे? ऊर्जा ही तो मार्ग बनेगी।
निष्क्रियता का अर्थ है, ऊर्जा का संयम।
अब हम लाओत्से को समझने की कोशिश करें।
"निष्क्रियता को साधो। अकम्पलिश डू-नथिंग। अकर्म पर अवधान दो। अटेंड टु नो-अफेयर्स। और स्वादहीन का स्वाद लो।'
निष्क्रियता को साधो। कैसे साधोगे? निष्क्रियता को कोई साध सकता है? क्योंकि साधना तो क्रिया है। यहीं भाषा की मजबूरी पता चलती है। इसलिए लाओत्से शुरू में कह देता है कि कह न सकूंगा जो मैं कहना चाहता हूं, और जो मैं कहूंगा वह सत्य न होगा। सत्य कहा नहीं जा सकता। यह है कठिनाई। लाओत्से भलीभांति जानता है। क्योंकि साधना तो क्रिया है। निष्क्रियता को साधो, यह तो विरोधाभासी वक्तव्य है। निष्क्रियता को कैसे साधोगे? निष्क्रियता तो साधी नहीं जा सकती। लेकिन फिर भी यही कहना पड़ेगा। क्योंकि तुम कुछ जानते ही नहीं। असाधे भी कुछ सधता है, इसका तुम्हें कुछ पता नहीं। तुम कर्म की भाषा ही समझते हो।
इसलिए मुझे भी कहना पड़ता है, ध्यान करो। अब ध्यान कहीं किया जा सकता है? कहना पड़ता है, प्रेम करो। प्रेम कहीं किया जा सकता है? और जो किया जाएगा वह प्रेम न होगा। प्रेम तो होता है; करोगे कैसे? ध्यान कोई क्रिया तो नहीं है, अवस्था है। तुम ध्यान में हो सकते हो; ध्यान कर नहीं सकते। करेगा कौन? कैसे करोगे? तुम प्रेम में हो सकते हो; प्रेम करोगे कैसे? तुम प्रार्थना में हो सकते हो; लेकिन प्रार्थना करोगे कैसे? तुम्हारे शोरगुल मचाने से थोड़े ही प्रार्थना होती है। मंदिर में जाकर सिर हजार दफे झुकाने से थोड़े ही प्रार्थना होती है। हाथ जोड़-जोड़ कर आकाश की तरफ आंखें उठाने से थोड़े ही प्रार्थना होती है। ये तो भाव-भंगिमाएं हैं, ऊपर-ऊपर हैं। प्रार्थना तो बड़ी दूसरी बात है। प्रार्थना तो तुम्हारे होने का ढंग है। तब तुम भाव-भंगिमा न भी करो तो भी प्रार्थना चलती है। प्रार्थना तो एक भाव-दशा है।
इसलिए जो भी प्रार्थना को समझ लेता है वह मंदिर नहीं जाता। मंदिर जाने की क्या जरूरत? जो भी ध्यान को समझ लेता है फिर वह ध्यान को करता नहीं। क्योंकि करने का कहां सवाल?
लेकिन अभी जहां तुम खड़े हो, तुम्हारी ही भाषा बोलनी पड़ेगी। तुमसे कहना पड़ेगा, ध्यान करो। जानते हुए भलीभांति कि करने से ध्यान का कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन तुम समझोगे ही नहीं, अगर पहले से ही कहा जाए ध्यान न करो। क्योंकि तब भी मुझे करने का ही प्रयोग करना पड़ेगा--चाहे न करना कहूं, चाहे करना कहूं।
निष्क्रियता को साधो का अर्थ यह है: निष्क्रियता को समझो, जीओ; निष्क्रियता को सम्हालो। जीवन जैसा है, उसे समझने की कोशिश से धीरे-धीरे तुम पाओगे कि निष्क्रियता सधती है। क्योंकि जो-जो व्यर्थ है, वह तुम करना बंद कर देते हो। सार्थक को करना थोड़े ही है; सिर्फ व्यर्थ को करना छोड़ देना है। मूर्ति बनानी थोड़े ही है; जो-जो व्यर्थ शिलाखंड जुड़े हैं, उनको काट कर अलग कर देना है।
कर्म की व्यर्थता को पहचानो। भागे चले जा रहे हो। कभी खड़े होकर सोचते भी नहीं कि किसलिए दौड़ रहे हो; किसलिए भाग रहे हो; कहां जाना चाहते हो। फिर अगर कहीं नहीं पहुंचते तो रोते क्यों हो? रोज सुबह उठे, फिर वही चक्कर शुरू कर देते हो। फिर वही दुकान; फिर वही बाजार; फिर वही कृत्य। लेकिन कभी तुमने पूछा कि इनसे तुम कहां जाना चाहते हो? क्या पा लोगे? दुकान अगर ठीक भी चल गई सत्तर साल तक तो क्या पा लोगे?
कर्म को ठीक से जो देखता है, सजग होकर समझता है, अपने एक-एक कृत्य को पहचानता है, एक-एक कृत्य को चारों तरफ से निरीक्षण करता है; देखता है कि इसे करना जरूरी है? सोचता है, विमर्श करता है; होश का प्रकाश कृत्य पर डालता है: इसे करूं? इतनी बार किया, करके क्या पाया? फिर करूंगा तो क्या पाऊंगा? और अगर इतनी बार करके कुछ न पाया और फिर भी करता रहा हूं, तो इसके करने के पीछे कोई कारण छिपा होगा, जो मुझे पता नहीं है। क्योंकि मिलने के कारण तो मैं इसे नहीं कर रहा हूं, कुछ मिला तो है नहीं। तो कुछ कारण छिपा होगा अचेतन गर्भ में; कहीं भीतर अंधकार में कोई जड़ें छिपी होंगी, जिनके कारण यह कृत्य हो रहा है।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, सिगरेट पीना छोड़ना है। मैं उनसे कहता हूं, यह फिक्र मत करो; तुम पहले यह तो समझो कि पीते क्यों हो! और जब तुम यह ही नहीं समझ पाए पी-पीकर कि पीते क्यों हो तो तुम छोड़ कैसे सकोगे? छोड़ना क्यों चाहते हो? तो वे कहते हैं, अखबार में पढ़ लिया कि कैंसर इससे होता है।
छोड़ना चाहते हो ऊपर के कारणों से कि पत्नी पीछे पड़ी है कि मत पीयो; कि मुंह से बदबू आती है; कि घर में छोटे बच्चे हैं, पीते देखेंगे तो वे भी पीएंगे। पर ये सब कारण तो ऊपर-ऊपर हैं। तुमने पीना शुरू क्यों किया? तुमने इसलिए तो पीना शुरू नहीं किया था कि इससे कैंसर नहीं होता, इसलिए पीएं। तो कैंसर होने से छोड़ोगे कैसे?
अमरीका के पार्लियामेंट ने एक कानून पास किया कि हर सिगरेट के पैकेट पर लिखा होना चाहिए कि यह स्वास्थ्य के लिए घातक है। लिख दिया गया। अमरीका में बिकने वाली हर सिगरेट के पैकेट पर लिखा हुआ है कि यह स्वास्थ्य के लिए घातक है। कोई बिक्री में फर्क नहीं है। क्योंकि लोग इसे स्वास्थ्य के लिए पी ही नहीं रहे थे। बिक्री वैसी की वैसी है। पहले तो बहुत घबड़ाए थे सिगरेट बनाने वाले निर्माता कि इसको पैकेट पर लिखना बड़े-बड़े अक्षरों में कि यह स्वास्थ्य के लिए घातक है, बुरा परिणाम लाएगा। क्योंकि लोग बार-बार पैकेट निकालेंगे, बार-बार पढ़ेंगे कि स्वास्थ्य के लिए घातक है, तो बिक्री पर असर पड़ेगा।
लेकिन जरा भी असर नहीं पड़ा। रत्ती भर असर नहीं पड़ा। बराबर बिक्री वैसी ही चल रही है। एकाध दफे लोगों ने पढ़ लिया होगा; अब वे पढ़ते भी नहीं होंगे। वह धूमिल हो गया। बार-बार पढ़ने से भूल ही गए।
स्वास्थ्य के लिए तो किसी ने सिगरेट पीनी अगर शुरू की होती, तो स्वास्थ्य के लिए यह घातक है यह जान कर वह बंद कर देता। पत्नी को पसंद पड़ेगी, इसलिए अगर किसी ने सिगरेट पीनी शुरू की होती, तो पत्नी को पसंद नहीं पड़ती तो बंद कर देता। मगर ये तो कारण ही न थे शुरू करने के। तो जिन कारणों से तुम छोड़ना चाहते हो वे तो झूठे हैं और जिस कारण से तुम पीते हो उसको तुमने कभी देखा ही नहीं।
अखबार में जाने की जरूरत नहीं, न पत्नी से पूछने की जरूरत है। अपने भीतर जाओ। अपनी सिगरेट की तलफ को पहचानो: कैसे उठती है? क्यों उठती है? कब उठती है? क्या कारण होता है तुम्हारे भीतर जब तुम अचानक सिगरेट पीना चाहते हो? कब तुम्हारा हाथ खीसे में चला जाता है, पैकेट निकल आता है, माचिस जल जाती है, तुम धुआं को बाहर-भीतर करने लगते हो? उस पूरी मनोदशा को समझो।
और सबकी अलग-अलग मनोदशाएं होंगी। हर आदमी सिगरेट एक ही कारण से नहीं पी रहा है। सबके अलग कारण होंगे। कोई इसलिए पी रहा है कि मां से स्तन जल्दी छूट गया। अभी स्तन से और पीना चाहता था, लेकिन मां ने जल्दी स्तन छुड़वा दिया। आदिवासियों में सात-आठ साल तक, नौ साल तक भी बच्चा मां का स्तन पीता है। वह स्वाभाविक मालूम पड़ता है। कोई सभ्य समाज नौ साल के बच्चे को दूध नहीं पीने देगा। क्योंकि बड़ी बेहूदी बात मालूम पड़ती है। नौ साल का बच्चा तो काफी बड़ा बच्चा है, ढाई साल, तीन साल में, और भी पहले छुड़ाने की कोशिश शुरू हो जाती है। जो बहुत सभ्य समाज हैं, अमरीका, वहां बच्चे को दूध मां देना ही पसंद नहीं करती। वह उसको पहले ही बोतल से पिलाया जाता है।
जिनका बचपन में मां ने स्तन जल्दी छुड़ा लिया है, उनके भीतर एक जरूरत रह गई है अचेतन में कि कोई गरम, कुनकुनी चीज दूध के जैसी उनके भीतर जाती रहे। अब दिन भर अगर आप दूध पीएं तो नुकसानदायक होगा। सिगरेट सुविधापूर्ण है; जब चाहो तब पी सकते हो। बोतल लिए फिरो दूध की, वह भी अच्छा नहीं लगेगा। और ठीक बोतल से पीयो, तो लोग समझेंगे पागल हो गए, कि दिमाग खराब हो गया। सिगरेट पूरा काम कर देती है। पैकेट की तरह खीसे में ले सकते हो। कोई नहीं समझता कि इसमें पागल हो गए। क्योंकि सभी पागल हैं उस तरह के, सभी पी रहे हैं। और फिर यह कोई भोजन भी नहीं है जो पेट को भर दे; सिर्फ दूध का आभास है। वह जो कुनकुनापन है, दूध की जो गरमी है, उष्णता है, और स्तन का आभास है कि मुंह में सिगरेट डाल ली तो स्तन जैसा मालूम होता है। फिर उसमें से गरम धुआं भीतर जाने लगा तो दूध भीतर जाने लगा। सौ में से पचास प्रतिशत लोग स्तन के सब्स्टीटयूट की तरह सिगरेट पी रहे हैं।
मनुष्य-जाति पागल मालूम होती है स्त्री के स्तनों के लिए। पशुओं में तुमने कभी किसी पुरुष-पशु को मादा-पशु का स्तन जांचते-परखते देखा? कि कोई तस्वीर लिए घूम रहा है, कि प्ले-बॉय की कापी रखे हुए है, कि जब मौका लगा एकांत में तो ध्यान कर रहा है? लेकिन पुरुष-जाति स्त्री के स्तन से बड़ी आकर्षित है। चित्रकार चित्र बना रहे हैं; फिल्म बनाने वाले फिल्म बना रहे हैं; कवि कविताएं लिख रहे हैं; कहानीकार कहानियां गढ़ रहे हैं; मूर्तिकार मूर्ति बना रहे हैं। जैसे स्त्री के स्तन का एक दीवानापन है। और सब तरफ स्त्री का स्तन उभर कर बैठा हुआ है। चाहे मंदिर में बैठी देवी हो, चाहे वेश्यालय में बैठी हुई वेश्या हो, स्तन उभर कर बैठा है। भक्त की भी नजर उस पर है; प्रेमी की भी नजर उस पर है; राहगीर भी उसी को देख रहा है। आखिर स्तन का ऐसा क्या मैनिया है? यह क्या पागलपन है? अगर कहीं दूसरे चांदत्तारे से कोई आदमी यहां उतरे तो बड़ा हैरान होगा कि इन आदमियों को यह स्तन का मैनिया क्यों पकड़ा हुआ है? आखिर क्यों स्तन के दीवाने हैं?
आदिवासियों में नहीं हैं लोग स्तन के दीवाने। क्योंकि बच्चा नौ साल तक मां का दूध पी लेता है, स्तन से छुटकारा हो जाता है। इसलिए आदिवासियों में कोई फिक्र नहीं करता स्तन की। स्त्रियां स्तन उघाड़े घूम रही हैं; कोई खड़े होकर भीड़ नहीं लगा कर देखता। कोई स्ट्रिप-टीज की जरूरत नहीं पड़ती। किसी का प्रयोजन ही नहीं है। जब पहली दफे जंगली जातियों का अध्ययन शुरू हुआ और वैज्ञानिक अध्ययन करने गये, तो वे बड़े हैरान हुए। स्त्रियों से पूछो कि यह क्या है? तो वे कहती हैं, बच्चों को दूध पिलाने का स्तन है। तुम उनके स्तन पर हाथ रख कर पूछो तो भी उनको कोई अड़चन नहीं है, कोई बेचैनी नहीं है; जैसे शरीर के किसी और अंग पर हाथ रख कर पूछो तो कोई बेचैनी नहीं है। लेकिन सभ्य जातियों के लिए बड़ी बेचैनी है।
पचास प्रतिशत लोग तो स्तन के परिपूरक की तरह सिगरेट पी रहे हैं। अब इनसे तुम सिगरेट छोड़ने को कहो, क्योंकि सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकर है; इसका कोई तालमेल ही नहीं है। इनके कारण से इसका कोई संबंध नहीं जुड़ता
कुछ लोग और कारणों से सिगरेट पी रहे हैं। छोटे बच्चे शुरू करते हैं सिगरेट, क्योंकि सिगरेट बड़े होने का प्रतीक है। बड़े लोग पी रहे हैं सिगरेट, अकड़ कर चल रहे हैं। जब आदमी सिगरेट पीता है तब उसकी अकड़ देखो, जैसे कोई महान कार्य कर रहा है। उसकी भाव-भंगिमा देखो, जिस ढंग से वह निकाल कर सिगरेट को बजाता है अपनी डब्बी पर। फिर उसका चेहरा देखो, कैसी गरिमा आ जाती है। अचानक उसके चारों तरफ एक आभामंडल आ जाता है। फिर वह सिगरेट को मुंह में दबाता है; उसका पूरा क्रियाकांड देखो। फिर वह माचिस या लाइटर निकालता है। फिर किस ढंग से और किस शान से सिगरेट को जलाता है। फिर किस शान से वह धुएं को बाहर-भीतर करता है। अचानक वह कोई दीन नहीं रहा।
छोटे-छोटे बच्चे देख रहे हैं। उनको लगता है कि सिगरेट जो है सिंबालिक है; यह प्रतीकात्मक है बड़े होने का, शक्तिशाली होने का। क्योंकि सिर्फ बड़े ही पीते हैं, छोटों को कोई पीने नहीं देता। लोग कहते हैं, तुम अभी बहुत छोटे हो; बड़े हो जाओ फिर पीना। सब तरफ निषेध है। तो छोटे बच्चे इसलिए पीना शुरू कर देते हैं कि बड़प्पन का इसमें भाव है।
कुछ लोग इसलिए पी रहे हैं कि उनके भीतर हीनता की ग्रंथि छिपी है अभी भी। तो जब भी उनको हीनता लगती है तभी वे सिगरेट पीकर अपनी हीनता को छिपा लेते हैं, बड़े हो जाते हैं। सस्ते में बड़े हो जाते हैं। एक सिगरेट पीने से इतना बड़प्पन मिलता है, क्या हर्ज है?
कुछ लोग इसलिए सिगरेट पी रहे हैं कि उनको खाली रहना बहुत मुश्किल है, कोई व्यस्तता चाहिए; नहीं तो उनको घबड़ाहट होने लगती है। तुम जैसे अकेले रहो दिन भर घर के भीतर तो बेचैन होने लगोगे कि जाओ क्लब, कि मंदिर, कि कहीं सत्संग करो, कि कुछ करो। खाली बैठे हो! मन खाली नहीं रहना चाहता। क्योंकि मन खाली रहा कि मिटा। मन को व्यस्तता चाहिए, आकुपेशन चाहिए। अगर कुछ भी न करने को हो तो कम से कम सिगरेट पी सकते हो हर हालत में। सिगरेट संगी-साथी है, सस्ता संगी-साथी है। खीसे में लेकर चल सकते हो, पोर्टेबल है। अकेले भी बैठे हो कमरे में, कोई कहीं क्लब-घर जाने की जरूरत नहीं; बस सिगरेट निकालो, जलाओ। चैन आ गया; आकुपेशन आ गया; काम शुरू हो गया।
सिगरेट एक तरह की व्यस्तता है कुछ लोगों के लिए। और इस तरह के और-और कारण हैं। हर आदमी को अपना कारण खोजना पड़े। और जब अपना कारण खोज ले कोई आदमी तो मुक्त होना इतना आसान है जितनी और कोई चीज नहीं। लेकिन उधार कारणों से कोई मुक्त नहीं हो सकता; दूसरों के बताने से कोई मुक्त नहीं हो सकता। और छोटी-छोटी चीज भी काफी जटिल है; क्योंकि तुम्हारी पूरी आत्मकथा उसमें छिपी है।
निष्क्रियता को साधने का अर्थ होगा कि तुम कर्म को देखो। तुम जो भी कर रहे हो उसको देखो, पहचानो। उतरो कर्म की गहनता में, क्यों कर रहे हो? और जल्दी से दूसरों के उत्तर मत मान लेना। वही तुम्हारी भूल है। बताने वाले हर जगह तैयार खड़े हैं कि हम बताए देते हैं, क्यों कर रहे हो। लेकिन हर व्यक्ति इतना पृथक और भिन्न है कि कोई भी सामान्य फार्मूला काम नहीं करता। तुम अपने ही कारण कर रहे हो। तुम्हारी आत्मकथा बस तुम्हारी है। जैसे तुम्हारे अंगूठे का निशान बस तुम्हारा है, वैसे ही तुम्हारी आत्मकथा तुम्हारी है, किसी दूसरे की नहीं।
और तुम जब अपने कृत्यों में, अपने निजी कृत्यों में अपने निजी होश से उतरोगे, तभी तुम समझ पाओगे उनकी व्यर्थता। और एक बार व्यर्थता दिख जाए तो जिस कृत्य में व्यर्थता दिख जाती है, वह गिर जाता है। उसे ढोने का उपाय ही नहीं है। यही है साधना निष्क्रियता का।
धीरे-धीरे-धीरे-धीरे व्यर्थ कृत्य गिर जाएंगे; सार्थक बचेंगे। सार्थक से कोई विरोध नहीं है। बिलकुल जरूरी बचेंगे। बिलकुल जरूरी जरूरी हैं। उनको तोड़ना भी नहीं है, हटाना भी नहीं है। सिर्फ अकारण समाप्त हो जाए; तुम शुद्ध हो जाओगे, तुम निष्कलुष हो जाओगे; तुम्हारी ऊर्जा संगृहीत होने लगेगी।
यही है निष्क्रियता को साधना। कर्मों को देखना, उनकी व्यर्थता को पहचानना। उनकी व्यर्थता की पहचान से उनका गिरना फलित हो जाता है। धीरे-धीरे काटते-काटते-काटते तुम्हारी मूर्ति निखर आती है। तब तुम बैठे हो; और तुम तब बैठ कर भी आनंदित होते हो, सिगरेट की जरूरत नहीं; क्योंकि तुमने अब खाली होने का रस पहचान लिया। अब तुम्हें व्यस्तता की कोई जरूरत नहीं; तुम अकेले में भी प्रसन्न होते हो। कोई आ जाए तो भी प्रसन्न, कोई न आए तो भी प्रसन्न। अब तुम्हारी प्रसन्नता किसी पर निर्भर नहीं है। कोई आता है तो तुम अपनी प्रसन्नता बांट देते हो; कोई नहीं आता तो तुम अपनी प्रसन्नता में मस्त रहते हो। तुम्हारी मौज अब तुम्हारे भीतर से आती है। अब किसी के द्वारा नहीं है, कि क्लब जाओ, कि मित्रों से मिलो, कि नाच-घर जाओ, यहां भागो, वहां भागो। अब कहीं भागने की कोई जरूरत नहीं। तुमने अपने जीवन का मंदिर खोज लिया; वह तुम्हारे भीतर है। निष्क्रिय जैसे-जैसे तुम होते हो, भीतर का मंदिर उठने लगता है। उसका शिखर ऊपर, और ऊपर, और ऊपर जाने लगता है।
मुसलमानों ने मस्जिदों के पास जो मीनारें बनाई हैं, वे उस ऊपर जाते हुए शिखर के प्रतीक हैं। जैसे-जैसे कोई भीतर शांत होने लगता है वैसे-वैसे शिखर आकाश की तरफ उठने लगते हैं। उस ऊपर उठते शिखर के साथ तुम्हारे जीवन की पूरी ऊर्जा नए अर्थ ग्रहण कर लेती है; नए आयाम, नया रंग, रंगों के नए-नए भेद; नया संगीत, संगीत की नई-नई भाव-भंगिमाएं। एक नए ही काव्य का उदय हो जाता है। जिन्होंने निष्क्रियता जानी उन्होंने सब जाना। और जो कर्म के ही जाल में दौड़ते-दौड़ते नष्ट हो गए वे बिना कुछ जाने मर गए।
"अकर्म पर अवधान दो। अटेंड टु नो-अफेयर्स'
और जब तुम्हारी निष्क्रियता सध जाए--क्योंकि पहले तो निष्क्रियता साधो--जब सध जाए, तो यह जो निष्क्रियता की स्थिति है, इस पर ध्यान दो। पहल कर्म पर ध्यान दो, ताकि व्यर्थ कर्म कट जाए, निष्क्रियता बचे। अब निष्क्रियता पर ध्यान दो। क्योंकि निष्क्रियता पर अगर तुमने ध्यान दिया तो तुम पाओगे...।
कर्म पर ध्यान देने से कर्ता मिट जाता है। क्योंकि धीरे-धीरे सब कर्म शांत हो जाते हैं; निष्क्रियता का उदय हो जाता है; तुम्हारे कर्ता का भाव चला जाता है कि मैं कर्ता हूं। जब कुछ कर ही नहीं रहे हो तो कर्ता कहां? तुम होते हो, कर्ता नहीं होते; साक्षी बन जाते हो। फिर निष्क्रियता पर ध्यान दो, तो तुम साक्षी भी न रह जाओगे। बस तुम बचोगे। कहने को कुछ भी न रहेगा कि तुम कौन हो--कर्ता कि साक्षी।
तो तीन स्थितियां हैं: कर्ता; अकर्ता, अकर्ता यानी साक्षी; और फिर एक तीसरी स्थिति है दोनों के पार, अतिक्रमण, ट्रांसेंडेंस
कर्म को देख कर साक्षी बनोगे। फिर अकर्म को देख कर साक्षी के भी पार हो जाओगे। वहां फिर कोई शब्द सार्थक नहीं है। फिर तुम यह न कह सकोगे मैं कौन हूं।
बोधिधर्म से पूछा चीन के सम्राट ने, तुम कौन हो? तो बोधिधर्म ने कहा, मुझे पता नहीं। चीन के सम्राट ने अपने दरबारियों से कहा, हम तो सोचते थे कि धर्म का संबंध आत्मज्ञान से है। तो यह बोधिधर्म किस तरह का ज्ञानी है? क्योंकि यह कहता है मुझे कुछ पता नहीं।
तुम भी सुनोगे तो यही समझोगे। लेकिन बोधिधर्म तुम्हारे आत्मज्ञानियों से बड़ा ज्ञानी है। वह एक कदम और ऊपर गया है।
अज्ञानी को भी पता नहीं कि मैं कौन हूं। परम ज्ञानी को भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूं। अज्ञानी को इसलिए पता नहीं कि उसे होश नहीं है। परम ज्ञानी को इसलिए पता नहीं रहता कि होश ही होश बचता है, रोशनी ही रोशनी बचती है। कुछ दिखाई नहीं पड़ता रोशनी में, कोई आब्जेक्ट नहीं बचता, कोई वस्तु नहीं बचती; सिर्फ प्रकाश रह जाता है। अनंत प्रकाश, और दिखाई कुछ भी नहीं पड़ता, तो किसको कहें कि मैं कौन हूं?
एक अज्ञान है; अंधकार के कारण दिखाई नहीं पड़ता। और ज्ञानी का भी एक परम अज्ञान है, जब रोशनी ही रोशनी रहती है, और कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
बोधिधर्म ने बड़ी अदभुत बात कही है; शायद ही किसी दूसरे ज्ञानी ने इतने हिम्मत से कही है कि मुझे कुछ भी पता नहीं। सम्राट नहीं समझ पाया, क्योंकि यह तो भाषा के पार की बात हो गई। बोधिधर्म के शिष्यों में भी थोड़े ही समझ पाये। उनको भी लगा कि यह तो बोधिधर्म ने कैसा जवाब दिया! ज्ञानी को तो कहना चाहिए कि हां, मुझे पता है कि मैं कौन हूं। ज्ञानी ने कहा कि मुझे भी पता नहीं कि मैं कौन हूं!
वह इसीलिए कहा कि जब न कर्ता बचा, न साक्षी बचा, तो अब क्या उत्तर देना है।
"अकर्म पर अवधान दो।'
फिर तीसरा सूत्र है, "स्वादहीन का स्वाद लो।'
तभी तुम्हें स्वादहीन का स्वाद मिलेगा। अभी तुमने कर्म का स्वाद लिया है। कर्म का स्वाद दो तरह का है: सुख और दुख। कर्म सफल हो जाए तो सुख का स्वाद मिलता है। कर्म असफल हो जाए तो दुख का स्वाद मिलता है। अगर तुम निष्क्रियता साध लो तो तुम्हें शांति का स्वाद मिलेगा। वहां न सुख होगा, न दुख; बस परम शांति होगी। परम चैन की बंसी बजेगी; अस्खलित चैन ही चैन मालूम होगा। एक विश्राम, विराम; सब ठहर गया; सब कर्म खो चुका। कर्ता खो चुका, तुम सिर्फ देख रहे हो। वहां कोई सुख-दुख नहीं प्रवेश कर पाता। वहां एक गहन मौन और शांति है। लेकिन लाओत्से उसे भी स्वादहीन स्वाद नहीं कहता। कहता है, अभी अनुभव करने वाला बाकी है, अनुभोक्ता साक्षी बाकी है। थोड़ा सा फासला है, अभी थोड़ी दूरी है। अभी अनुभव घटित हो रहा है।
फिर एक स्वादहीन स्वाद है। जब साक्षी भी खो गया, स्वाद लेने वाला न बचा, तब एक स्वाद है; उसी को हमने आनंद कहा है।
लाओत्से कहता है, "स्वादहीन का स्वाद लो।'
ये तीन सूत्र बड़े कीमती हैं: "निष्क्रियता को साधो। अकर्म पर अवधान दो। स्वादहीन का स्वाद लो।'
"चाहे वह बड़ी हो या छोटी, बहुत या थोड़ी, घृणा का प्रतिदान पुण्य से दो।'
निष्क्रियता को साधना हो तो तुम्हें यह खयाल रखना पड़े। कोई गाली देता है तो तुम धन्यवाद हो; कोई घृणा करता है तो तुम पुण्य से प्रतिकार करो। छोटी घृणा, बड़ी घृणा, अपमान, तिरस्कार; तुम बुरे का जवाब बुरे से मत देना। अन्यथा तुम कर्म में खींच लिए जाओगे।
जब एक आदमी गाली देता है, तब तुम्हारा मन कहेगा कि उठाओ पत्थर, फोड़ दो सिर।
यह आदमी तुम्हारा मालिक हो गया। इसने जरा सी गाली दे दी, और तुम्हें कर्म में खींच लिया। और अगर ऐसे तुम कर्म में खिंचते रहे दूसरे लोगों के द्वारा तो तुम कब निष्क्रियता को उपलब्ध होओगे? कैसे उपलब्ध होओगे? तो तुम यह मत समझना कि ज्ञानियों ने इसलिए कहा है कि दूसरे तुम्हें गाली दें तो भी तुम उन्हें आशीर्वाद दो, यह मत समझना कि इसलिए कहा है कि दूसरों पर दया करो। नहीं, इसलिए कहा है कि अपने पर दया करो; मालिक अपने बनो। ऐसा रास्ते पर चलते कोई भी कुछ कह दे, कोई हंस ही दे, तुम्हारे भीतर कर्म का जाल शुरू हो गया। किसी ने कुछ कह दिया, एक शब्द, और तुम्हारी झील में शब्द का पत्थर पड़ा और तरंगें ही तरंगें उठने लगीं और कर्म शुरू हो गया। तो तुम कैसे निष्क्रिय हो पाओगे? असंभव है। कहां भागोगे? कहां जाओगे? जंगल भाग जाओगे, कौए ऊपर बैठ कर बीट कर देंगे। गुस्सा आ जाएगा, उठा लोगे पत्थर कि यह कौआ मेरा ध्यान खराब कर रहा है। कहीं भागने का उपाय नहीं। भाग कर नहीं जा सकते। एक ही भागने का सुगम उपाय है, वह यह कि जब कोई तुम्हारे प्रति घृणा फेंके तब तुम प्रेम देना। प्रेम का मतलब यह है कि हम कर्म में उतरने को राजी नहीं, क्योंकि प्रेम कोई कर्म नहीं है। आशीर्वाद देकर तुम अपने रास्ते पर चले जाना। तुम यह कह रहे हो आशीर्वाद देकर कि आपने कोशिश की, धन्यवाद! बाकी हमारी तैयारी नहीं है। हम इस झंझट में पड़ने को उत्सुक नहीं हैं। भगवान तुम्हारा भला करे! भला करे इसलिए क्योंकि मन तुम्हारा बुरा करना चाहेगा, अगर तुमने आशीर्वाद न दिया तो मन में तुम्हारे भीतर कुछ करने की बेचैनी बनी रहेगी। कुछ करना ही है तो आशीर्वाद देकर निपटारा कर लो।
फिर इसे समझना जरूरी है कि जब भी तुम्हें कोई गाली दे, घृणा करे, अपमान करे और तुम्हारा मन भी अपमान करे, घृणा करे, तो एक अनंत शृंखला का जन्म होता है। वही तो कर्मों का जाल है। फिर वह भी गाली का जवाब गाली से देगा, क्योंकि वह कोई ज्ञानी तो है नहीं; वह भी तुम्हारे जैसा अज्ञानी है। अगर ज्ञानी ही होता तो उसने पहले ही क्यों गाली दी होती? फिर यह कहां रुकेगा? तुम गाली दोगे, वह बड़ी गाली देगा। तुम और बड़ी गाली खोजोगे। इसका अंत कहां है? तुम उसका नुकसान करोगे; वह तुम्हारा नुकसान करेगा। फिर एक शृंखला शुरू होती है अंतहीन। यह समाप्ति कहां होगी?
इसमें से किसी को आशीर्वाद देना होगा, तभी यह समाप्त होगा। तो यह मौका तुम दूसरे को क्यों देते हो? तुम ही आशीर्वाद देकर बाहर हो जाओ। तुम ही जब बाहर हो सकते हो, और अभी बाहर हो सकते हो, तो देर तक क्यों रुको? जब भी कोई घृणा करे, अगर तुम उसके लिए भी प्रेम दे सको तो बड़ी क्रांतिकारी घटना घटती है। तुम शृंखला के जाल में नहीं पड़ते; तुम्हारा कर्म-विस्तार नहीं होता; और तुम दूसरे आदमी को भी एक मौका देते हो, एक द्वार खोलते हो--समझ के लिए। उसके लिए भी एक समय मिलता है। क्योंकि जब तुम गाली नहीं देते तो वह भी अपेक्षा कर रहा था गाली लौटेगी और जब गाली नहीं लौटती और अपनी ही प्रतिध्वनि उसे सुनाई पड़ती है और गाली के विपरीत तुम्हारा आशीर्वाद लौटता है तो वह बड़ी बेचैनी में पड़ जाता है। वह सो न सकेगा अब चैन से। अब उसकी गाली उसका ही पीछा करेगी। अब उसकी घृणा उस पर ही लौट आई। अब उसे कुछ करना ही पड़ेगा। अगर तुम घृणा का उत्तर घृणा से देते तो बेचैनी नहीं थी; सीधा-सादा मामला था, गणित का मामला था। हमने गाली दी; दूसरे ने गाली दी। तुमने गाली दी और दूसरे ने फूल बरसाए; अब तुम मुश्किल में पड़े। अब जब तक तुम भी फूल बरसाने की कला न सीख लो तब तक बेचैनी जारी रहेगी।
दुनिया को बदलने का एक ही रास्ता है कि तुम सबसे बड़ी अनहोनी घटना करो। अनहोनी घटना है: घृणा के उत्तर में प्रेम, गाली के उत्तर में आशीष; कांटा कोई चुभाए, उसे फूल भेंट कर दो। इससे तुम भी बाहर होते हो और उसके लिए भी बाहर होने की सुविधा देते हो।
"चाहे हो बड़ी या छोटी, बहुत या थोड़ी, घृणा का प्रतिदान पुण्य से दो।'
तो ही निष्क्रियता सधेगी
"कठिन से तभी निबट लो जब वह सरल हो। बड़े से तभी निबट लो जब वह छोटा हो। संसार की कठिन समस्याएं तभी हल की जाएं जब वे सरल हों। महान समस्याएं तभी हल की जाएं जब वे छोटी हों।'
इस गणित को समझ लेना जरूरी है। यह तुम्हारे रोज के काम के लिए है। तुम भी कोशिश करते हो हल करने की, लेकिन जरा देर कर देते हो, समय चूक जाते हो। बीज से लड़ना आसान है, कुछ करना ही नहीं पड़ता। बीज को फेंक दो, क्या अड़चन है? लेकिन बीज को तो तुम बोते हो, पानी सींचते हो, मेहनत करते हो, सम्हालते हो। पौधा बड़ा होता है। अब पौधा ही बड़ा नहीं हो रहा है, तुम्हारा इनवेस्टमेंट भी बड़ा हो रहा है। क्योंकि तुमने इतना समय लगाया; पानी सींचा; इतनी जिंदगी पौधे को दी; इतनी मेहनत की। अब पौधा एक बड़ा वृक्ष हो गया। तुम तीस साल तक प्रतीक्षा किए। अब उसमें फल आए जो कड़वे हैं; अब उन्हें फेंकना बड़ा मुश्किल मालूम पड़ता है। कड़वे फल को भी तुम चख-चख कर समझाना चाहते हो अपने को कि मीठा है। क्योंकि तीस साल व्यर्थ गए, अगर यह कड़वा है। तुम तीस साल मूढ़ थे। और अब इस वृक्ष को तुम फेंकना भी चाहोगे तो बड़ी कठिनाई होगी। इसने बड़ी जड़ें फैला ली हैं; यह विस्तीर्ण हो गया है।
और यह तो वृक्ष बाहर है। भीतर के वृक्षों का क्या कहना? उनकी जड़ें तो तुम्हारी नसों में फैल जाती हैं; तुम्हारे हृदय को जकड़ लेती हैं; तुम्हारे मस्तिष्क में पहुंच जाती हैं। भीतर के वृक्ष तो तुमको भूमि बना लेते हैं, और तुमको सब तरफ से कस लेते हैं।
समझो! क्रोध की कई दशाएं हैं। समय रहते हल हो सकता है। और एक सीमा रेखा है, एक डेड लाइन है; उसके पार जाने पर हल करना मुश्किल हो जाता है। फिर एक सीमा है, जिसके पार जाने पर असंभव, करीब-करीब असंभव हो जाता है।
क्रोध की पहली दशा तो यह है, जो बहुत बुद्धिमान है वह क्रोध का आने के पहले उपचार करेगा। वह पूर्व-निवारण करेगा, लाओत्से कहता है। कल आएगा क्रोध, वह आज निवारण करेगा। अभी तो आया भी नहीं है, अभी किसी ने तुम्हें गाली भी नहीं दी है। लेकिन कोई न कोई तो देगा, कोई न कोई धक्का मारेगा। जिंदगी में संघर्ष है, गहन संघर्ष है; प्रतिस्पर्धा है। कल बिना ही क्रोध के निकल जाएगा, इसका उपाय नहीं है। तो बहुत बुद्धिमान तो अभी बीज भी नहीं है तभी से व्यवस्था करने लगता है। अभी घर में आग नहीं लगी है, कुआं खोदने लगता है। घर में आग लग गई, फिर कुआं खोद कर भी क्या होगा? तुम कुआं खोदोगे, घर जलता रहेगा। तुम्हारा कुआं खुद भी न पाएगा, घर राख हो जाएगा।
पूर्व-निवारण का अर्थ यह है कि कल, जीवन का संघर्ष तो कल भी रहेगा, तुम अपने भीतर शांति को बसाओ। वह पूर्व-निवारण है, वह एंटीडोट है। तुम जितने शांत हो सको, अभी किसी ने गाली नहीं दी, शांत हो जाओ। क्योंकि जब कोई गाली देगा तब तो शांत होना मुश्किल होगा। अभी बिना दिए भी शांत नहीं हो पाते; तो गाली देने पर तो तुम भूल ही जाओगे। तो ध्यान में रमो। शांत रहो। अकारण शांत बने रहो। बैठो तो सब तरफ से द्वार, छिद्र बंद कर लो। भीतर एक गहन शांति को अनुभव करो। उसका रस लो। शिथिल छोड़ दो सारे शरीर को। मन को कह दो कि तुझे जो करना हो कर, मैं शांत बैठा हूं। मन के साथ तादात्म्य मत करो--न पक्ष, न विपक्ष। जाने दो, चलने दो मन को; जैसे किसी और का है। तुम उपेक्षा में लीन रहो। तुम शांति को बसाओ। यह भूमि है। कल जब कोई क्रोध करेगा, अगर शांति तैयार रही, क्रोध का तीर तो आएगा, शांति के जल में गिर कर बुझ जाएगा। तो तुम्हें कठिनाई न होगी। तुमने निवारण कर लिया पहले ही।
तुम उलटा कर रहे हो। तुम बारूद तैयार करते हो। तुम बारूद को सुखा कर रखते हो कि जरा कोई चिनगारी फेंक दे कि हो जाए विस्फोट। इसलिए अक्सर तुमने अनुभव किया होगा, बात तो बड़ी छोटी थी, विस्फोट बड़ा भारी हो गया। बात इतनी बड़ी थी ही नहीं। बाद में तुम भी कहते हो, इतनी छोटी बात के लिए इतना बड़ा विस्फोट! छोटी-छोटी बात पर कभी-कभी हत्या हो जाती है। कभी छोटे से मजाक पर हत्या हो जाती है। कभी तुमने हंस दिया और इस पर ऐसी भयंकर दुश्मनी बन जाती है कि जिसका परिणाम भयानक हो जाता है।
पूरा महाभारत हुआ एक छोटे से मजाक पर--द्रौपदी हंस दी। कौरव धृतराष्ट्र के बेटे थे। अंधा बाप था। पांडवों ने एक महल बनाया था जिसमें उन्होंने बड़ी कारीगरी की थी। दीवारें ऐसे कांच की बनाई थीं कि दरवाजा मालूम पड़े; दरवाजा इस ढंग से बनाया था कि दीवार मालूम पड़े। बड़ी कुशलता इंजीनियरिंग की थी। फिर कौरवों को निमंत्रण दिया था इस महल को देखने के लिए। वे आए। दुर्योधन टकरा गया; समझ कर दरवाजा दीवार से निकल गया। द्रौपदी हंसी और उसने कहा, अंधे के बेटे हैं, अंधे ही हैं! सारा महाभारत इस वचन पर ठहरा हुआ है। फिर द्रौपदी के वस्त्र अकारण ही नहीं खींचे गए; यही मजाक उसके पीछे कारणभूत है। फिर पांडवों को अकारण ही नहीं सताया गया; यही छोटा सा बीज बड़ा होता गया। फिर इसमें हजार-हजार धाराएं मिल गईं। जो झरने की तरह शुरू हुआ था, वह बड़ी गंगा बन गया।
लाओत्से कहता है, या तो पूर्व-निवारण कर लो--सबसे कुशलता तो पूर्व-निवारण की है--अगर यह न हो सके, तो जब कोई गाली दे तभी सजग हो जाओ। क्योंकि बीज पड़ रहा है।
लेकिन तुम गाली पर सोचना शुरू कर देते हो। तुम भीतर गाली के साथ प्रतिशोध करना शुरू कर देते हो, प्रतिकार का विचार करने लगते हो। तुम सोचते हो कि हम विचार ही कर रहे हैं, कोई उसको मार तो डालने जा नहीं रहे हैं। लेकिन तुमने बीज को सम्हालना शुरू कर दिया, पानी सींचने लगे। अभी फेंक दो!
फिर तुम्हारे भीतर विचार गहन होने लगा। अब तुम्हारे भीतर क्रोध का धुआं उठने लगा। जब क्रोध का धुआं पहली बार उठता है तो बड़ा महीन, बारीक रेखा की तरह होता है। इतना बारीक होता है कि अगर तुम ठीक उसी वक्त उसको देखो तो पहचान ही न पाओगे कि यह क्रोध है या करुणा। सिर्फ ऊर्जा की एक धीमी रेखा उठती हुई मालूम होती है; अचेतन से एक छोटा सा बादल उठ रहा है। अभी रूप साफ नहीं है। अभी यह भी पक्का नहीं है कि यह क्या है। यह प्रेम है, क्रोध है, घृणा है, क्या है? सिर्फ भीतर एक बेचैनी उठ रही है, एक उत्तेजना उठ रही है, एक ऊर्जा उठ रही है।
अभी सम्हल जाओ। अभी बीज में अंकुर आ रहा है; अभी पक्का नहीं है कि किस तरह का वृक्ष बनेगा। अभी तैयार हो जाओ। अभी फेंक दो। हर तरह की उत्तेजना जहरीली है। उत्तेजना को फेंक दो। अभी ही अपने को शांत कर लो। अभी ही शिथिल हो जाओ। अभी ही ध्यान में लीन हो जाओ।
नहीं, तब तुम सहारा दिए जाओगे। तब तुम भीतर रस लोगे। तब धीरे-धीरे क्रोध का बादल अपना रूप स्पष्ट कर लेता है; उसकी प्रतिमा साफ हो जाती है। वह कहता है, मार डालो इस आदमी को! इसने हंसा, अपमान किया। समझता क्या है? अब तुम भीतर हत्या कर रहे हो; भीतर तलवारें उठा रहे हो। भीतर तलवारें उठाना बाहर तलवारें उठाने की पूर्वत्तैयारी है। तुम रिहर्सल कर रहे हो। अभी रिहर्सल है; रुक जाओ। अगर रिहर्सल पूरा तैयार हो गया तो फिर नाटक भी करना पड़ेगा। क्योंकि नहीं तो मन कहेगा, इतना रिहर्सल किया, ऐसा समय बेकार गंवाया; अब करके ही दिखा दो।
और जब तुम भीतर रस ले रहे हो तब क्रोध का जहर तुम्हारे रोएं-रोएं में फैल रहा है, तुम्हारे शरीर को लड़ने के लिए तैयार कर रहा है। तुम्हारी भीतर की पूरी ऊर्जा क्रोध की दिशा में रूपांतरित हो रही है। अब तुम लड़ने पहुंच गए। तुमने तलवार निकाल ली। अभी भी वक्त है, निकली तलवार म्यान में वापस जा सकती है। लेकिन वृक्ष काफी बड़ा हो गया है। तलवार बाहर निकाल ली हो तो वापस डालना बहुत मुश्किल हो जाता है। क्योंकि क्या कहेगी दुनिया अब? इतने दूर आ गए और अब तलवार निकाल ली और अब भीतर डाल रहो हो, लोग हंसेंगे! अब अहंकार दांव पर लगा जा रहा है। लेकिन तलवार भी वापस डाली जा सकती है।
लेकिन तुमने तलवार ही उठा ली और दूसरे की गर्दन पर ही पहुंच गई। और मुश्किल हुआ जा रहा है। दूसरे की गर्दन पर से तलवार लौटानी बहुत असंभव हो जाएगी। क्योंकि एक क्षण में हो जाती है घटना। उतना तुम्हें होश कहां?
लाओत्से कहता है, कठिन से तभी निबट लो जब वह सरल हो; बड़े से तभी निबट लो जब वह छोटा हो। संसार की कठिन समस्याएं हल हो सकती हैं...।
तुम्हारे जीवन की कठिनतम समस्या हल हो सकती है; लेकिन तुम सरल से निबटो। तुम सलाह लेने तब जाते हो जब मामला बिलकुल बिगड़ जाता है। जब मरीज बिलकुल मरने के करीब होता है तब तुम डाक्टर को बुलाते हो।
"संसार की महान समस्याएं तभी हल की जाएं जब वे छोटी हों। इसलिए संत सदा बड़ी समस्याओं से निबटे बिना ही महानता को संपन्न करते हैं।'
क्या मतलब? संत बड़ी समस्याओं से निबटे बिना ही महानता को संपन्न करते हैं; क्योंकि वे किसी समस्या को बड़ा होने ही नहीं देते। इसलिए कोई बड़ी समस्या से संत कभी नहीं झगड़ता; वह हमेशा छोटी-छोटी चीजों से झगड़ता है। और जितनी समझ बढ़ती जाती है उतनी झगड़े की जरूरत नहीं रह जाती; क्योंकि वह पूर्ण-निवारण करने में कुशल हो जाता है। वह दुश्मन के आने के पहले ही मैत्री स्थापित कर लेता है। वह गाली आने के पहले ही आशीर्वाद तैयार कर लेता है। तुम्हारी घृणा आए, उसके पहले ही वह द्वार पर सुस्वागतम् लिख लेता है। उसकी तैयारी पूर्व से है।
"जो फूहड़पन के साथ वचन देता है, उसके लिए अक्सर वचन पूरा करना कठिन होगा। जो अनेक चीजों को हलके-हलके लेता है, उसे अनेक कठिनाइयों से पाला पड़ेगा।'
अगर तुमने छोटी समस्याओं को छोटा समझा तो जल्दी ही वे बड़ी हो जाएंगी। उनको बड़े होने का मौका मत दो। छोटी समस्याओं को बड़ी समझो; जल्दी उनसे निबट लो। और होश में सोचो। अन्यथा तुम बहुत सी बातें कहते हो करेंगे, लेकिन बेहोशी में कहते हो। वचन देते हो करने का, लेकिन बिना समझे देते हो कि तुम क्या कह रहे हो।
जीसस ने कहा है। एक बाप के दो बेटे थे। खेत में काम था। बाप ने बड़े बेटे को कहा कि तू खेत पर जा और यह काम जरूरी है। उसने कहा कि मैं न जा सकूंगा; मैं दूसरे कामों में उलझा हूं। क्षमा करें। दूसरे बेटे से कहा कि तो तू जा; खेत पर काम जरूरी है। उसने कहा, मैं अभी जाता हूं, पिताजी। यह गया। एक मेहमान घर में बैठा था। उसने कहा, तुम्हारा बड़ा बेटा अनाज्ञाकारी है; तुम्हारा छोटा बेटा आज्ञाकारी है। उसके बाप ने कहा, सांझ पता चलेगा। सांझ को मेहमान ने पूछा कि समझा नहीं मैं, क्या मामला है? अब बताओ, क्या पता चलेगा?
बड़ा बेटा पहुंचा; छोटा नहीं पहुंचा। छोटा बेटा वचन देने में कुशल है, करने में नहीं। बड़ा बेटा वचन नहीं देता, लेकिन करने में कुशल है। जो वह नहीं कर सकता, उसको तो वह कहता है, नहीं कर सकूंगा; फिर भी कोशिश करता है करने की। छोटा बेटा, जो कर ही नहीं सकता, उसको भी कहता है, हां। अभी, यह गया। मगर वह जाने वाला नहीं है।
जीसस ने कहा है, परमात्मा के सामने तुम्हारी आस्तिकता का मूल्य नहीं है कि तुमने हां कहा, न तुम्हारी नास्तिकता का मूल्य है कि तुमने न कहा; असली बात तो इससे तय होगी कि तुमने किया या नहीं किया।
तो अपने हां कहने पर भरोसा मत करना; अपने न कहने से भयभीत भी मत होना। न कह कर भी तुम कर सकते हो, और हां कह कर भी तुम टाल सकते हो। अधिक लोग हां कहते ही इसलिए हैं, ताकि टालने में सुगमता हो जाती है।
तो लाओत्से कहता है, "जो फूहड़पन के साथ वचन देता है--मूर्च्छा में, प्रमाद में--उसके लिए अक्सर वचन पूरा करना कठिन होगा।'
ऐसा वचन मत देना जिसे पूरा करना कठिन हो। जितना कर सको उससे कम का वचन देना। जो न कर सको, स्पष्ट कहना, न कर सकेंगे। क्योंकि ये सारे गुण तुम्हारे भीतर के जीवन को रूपांतरित करने में, निखारने में काम आएंगे। अन्यथा तुम व्यर्थ की चीजों में उलझते चले जाते हो। जो तुम नहीं कर सकते हो, कहते हो, कर देंगे। अब एक उलझन ले ली। अब यह होगी नहीं तो परेशानी है। और यह हो तो सकती नहीं; इसको करने में लगोगे तो परेशानी है।
अगर बहुत ठीक से समझो तो ज्ञानी वचन देता ही नहीं। वह जो कर सकता है, करता है; जो नहीं कर सकता है, नहीं करता है। वचन नहीं देता। इसलिए तुम ज्ञानी को कभी भी वचन भंग करते न पाओगे। क्योंकि वह वचन देता ही नहीं। वचन पूरे करता है; देता कभी नहीं।
और छोटी से छोटी चीज को भी वह छोटा मान कर नहीं चलता, क्योंकि सब छोटी चीजें बड़ी हो जाती हैं। छोटा मान कर चलोगे तो तुम खतरे में रहोगे। तुम सोचते हो, छोटा है, निबट लेंगे। लेकिन जितनी देर तुम स्थगित करते हो, चीजें बड़ी हो रही हैं। समस्याएं भी बढ़ती हैं, फैलती हैं, बड़ी होती हैं।
"जो अनेक चीजों को हलके-हलके लेता है, उसे अनेक कठिनाइयों से पाला पड़ेगा। इसलिए संत भी चीजों को कठिन मान कर हाथ डालते हैं।'
संत भी! जिनके लिए सभी कुछ सरल है। वे भी चीजों को कठिन मान कर हाथ डालते हैं।
"और इसी कारण उन्हें कठिनाइयों का सामना नहीं करना होता।'
इसे खयाल रखो। बीज से निबट लो; वृक्ष से निबटना बहुत मुश्किल होगा। हर चीज समय के जाते-जाते बड़ी होती चली जाती है, इसलिए कल पर मत टालो। बुराई से पूर्व-निवारण कर लो। अगर पूर्व-निवारण न हो पाए तो जब बुराई द्वार पर दस्तक दे तभी निवारण कर लो। उसे घर में मेहमान मत बनाओ। उसे अपने भीतर जगह मत दो। क्योंकि सारा संसार तुम्हें कर्म में खींच रहा है। और तुमने अगर निष्क्रिय होना चाहा है तो तुम इस सारे संसार से एक बिलकुल ही विभिन्न आयाम में प्रवेश कर रहे हो। तुम्हें सारा रंग-ढंग बदलना पड़ेगा।
जीसस ने कहा है, जो तुम्हारा कोट छीने, उसको कमीज भी दे दो; क्योंकि कहीं लौट कर फिर कमीज लेने न आए। जीसस ने कहा है, जो तुम्हें एक मील चलने के लिए बाध्य करे कि मेरा बोझ ले चलो, तुम दो मील तक चले जाओ। क्योंकि हो सकता है, संकोचवश दो मील न कह सका हो। जो तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे, तुम दूसरा भी कर दो। कहीं एक थप्पड़ उसने बचा रखी हो, फिर लौट कर न आए। अभी निबटारा कर लो। चीजों से बीज में निबट लो। उनको वहीं शांत कर दो।
और कर्म के जाल में पूरा संसार घूम रहा है भंवर की तरह! तुम्हें अगर निष्कर्म में जाना है तो बहुत ही सावधानी चाहिए कि कोई तुम्हें कर्म में न खींच ले। सब तुम्हें कर्म में खींचने को आतुर हैं। सब चाह रहे हैं कि तुम कर्म में लीन हो जाओ। क्योंकि सबकी आकांक्षाएं, वासनाएं कर्मों की हैं। और तुमने अकर्म साधना चाहा, तुम इस जगत से किसी दूसरे जगत में प्रवेश करने को तत्पर हुए हो। इस जगत में इससे बड़ी कठिन कोई बात नहीं है। इसलिए बहुत होश चाहिए कि कोई तुम्हें खींच न ले।
जो तुम्हें गाली दे रहा है, वह खींच रहा है। जो तुम्हारी प्रशंसा कर रहा है, वह भी खींच रहा है। तुम जरा सावधान रहना। एक-एक कदम होश से उठाना, फूंक-फूंक कर रखना। तो ही तुम उस अवस्था को उपलब्ध हो पाओगे, जहां निष्क्रियता तुम्हारे जीवन की शैली हो जाती है। तब दूसरा काम करना: अकर्म पर ध्यान देना। और तब तीसरा काम अपने आप हो जाएगा: स्वादहीन का स्वाद। वही ब्रह्मानंद है। वही महासुख है। वही निर्वाण है। मुक्ति, कैवल्य, जो भी नाम तुम पसंद करो।
पर स्वादहीन का स्वाद बड़ा प्यारा शब्द है। वहां कोई स्वाद लेने वाला भी नहीं बचता; वहां कोई स्वाद भी नहीं बचता। फिर भी एक अनुभव घटित होता है; बिना अनुभोक्ता के एक घटना घटती है। वही घटना बड़े से बड़ा चमत्कार है! और जिसके जीवन में वह घट गया, फिर कुछ और घटने को नहीं रह जाता। उसके पार कुछ भी नहीं।
उस महान को खोजने में निकले हो तो बड़ी सावधानी चाहिए। तुम्हें दूसरों की तरह चलने की सुविधा नहीं है। तुम्हें दूसरों की तरह व्यवहार करने की सुविधा नहीं है। तुम्हें अनूठा होना पड़ेगा। अगर यह तुम्हें पूरी करनी है अभीप्सा तो गालियों के बदले तुम्हें धन्यवाद देना होगा और जो तुम्हारे लिए कांटे बोएं उनके लिए तुम्हें फूल बोना होगा। कबीर ने कहा है: जो तोको कांटा बुवै, बाको बो तू फूल।
तभी! तभी स्वादहीन का स्वाद संभव है।

आज इतना ही।


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