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शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

गीता दर्शन (भाग--4) प्रवचन--097

जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन--उत्तरायण पथ—(प्रवचन—नौवां)

अध्याय—8
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।। 23।।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।। 24।।

और हे अर्जुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात मार्ग को कहूंगा।
उन दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, और दिन है, तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण के छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
कोई ऐसे भी जी सकता है जैसे मरा हुआ रहा हो, और कोई ऐसे भी मर सकता है कि उसकी मृत्यु को हम जीवंत कहें। जीवन भी मृतवत हो सकता है, और मृत्यु भी अति जीवंत।
जिस भांति हम जीते हैं, उसे जीवन नाम-मात्र को ही कहा जा सकता है। न तो जीवन का हमें कोई पता है; न जीवन के रहस्य का द्वार खुलता है; न जीवन के आनंद की वर्षा होती है; न हम यही जान पाते हैं कि हम क्यों जी रहे हैं,
किसलिए जी रहे हैं। हमारा होना करीब-करीब न होने के बराबर होता है। कहना उचित नहीं कि हम जीते हैं, यही कहना काफी है कि हम किसी भांति बने रहते हैं, किसी भांति अस्तित्व को ढो लेते हैं, जीवित रहते हुए भी मुर्दे की भांति। लेकिन ऐसा भी होता है कि मरते क्षण में भी कोई इतना जीवंत होता है कि उसकी मृत्यु को भी हम मृत्यु नहीं कहते।
बुद्ध की मृत्यु को हम मृत्यु नहीं कह सकते हैं और हमारे जीवन को हम जीवन नहीं कह पाते हैं। कृष्ण की मृत्यु को मृत्यु कहना भूल होगी। उनकी मृत्यु को हम मुक्ति कहते हैं। उनकी मृत्यु को निर्वाण कहते हैं। उनकी मृत्यु को हम जीवन से और महाजीवन में प्रवेश कहते हैं।
उनकी मृत्यु के क्षण में कौन-सी क्रांति घटित होती है, जो हमारे जीवन के क्षण में भी घटित नहीं हो पाती! किस मार्ग से वे मरते हैं कि परम जीवन को पाते हैं! और किस मार्ग से हम जीते हैं कि जीवित रहते हुए भी हमें कोई जीवन की सुगंध का भी पता नहीं पड़ता है।
जिसे हम अपना शरीर कहें, वह हमारे लिए एक कब्र से ज्यादा नहीं है, एक चलती-फिरती कब्र! और यह लंबा विस्तार जन्म से लेकर मृत्यु तक, बस आहिस्ता-आहिस्ता मरते जाने का ही काम करता है। ऐसे हम गुजरते हैं रोज-रोज और मौत के करीब पहुंचते हैं। हमारी सारी यात्रा मरघट पर पूरी हो जाती है।
लेकिन बुद्ध भी मरते हैं, कृष्ण भी, क्राइस्ट भी, मोहम्मद भी, और उनकी मृत्यु के लिए हमें दूसरा शब्द खोजना पड़ता है। उनके जीवन के लिए भी हमें दूसरा शब्द खोजना पड़ता है। वे कुछ और ढंग से जीते हैं और वे कुछ और ढंग से मरते हैं। जीने का सब कुछ निर्भर है जीने के ढंग पर, और मरने का भी सब कुछ निर्भर है मरने के ढंग पर। हमें जीने का ढंग भी नहीं आता। बुद्ध जैसे व्यक्ति को मरने का ढंग भी आता है।
कृष्ण अर्जुन से उस क्षण, उस मार्ग, मृत्यु की उस कला की बात इन सूत्रों में करेंगे, जिस कला को जानने वाला, जिस मार्ग को पहचानने वाला, मरकर मरता नहीं, अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
कृष्ण ने कहा है, और हे अर्जुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को, उस मार्ग को मैं तुमसे कहूंगा।
इसमें दोत्तीन बातें ठीक से समझ लेनी चाहिए।
जिस काल में, जिस क्षण में!
बड़ा मूल्य है क्षण का, बड़ा मूल्य है काल का, जिस क्षण में कोई व्यक्ति मृत्यु को उपलब्ध होता है। निश्चित ही, क्षण से अर्थ, बाहर की घड़ी में घूमते हुए कांटे से जो नापा जाता है, उस क्षण से नहीं है। लेकिन भीतर भी एक घड़ी है, और भीतर भी क्षणों का एक हिसाब है। एक तो बाहर नापने की हमने यांत्रिक व्यवस्था की है समय को। वह बाहर के कामों के लिए जरूरी है, भीतर के कामों के लिए नहीं। भीतर एक और भी माप है। और उस माप में, जिस क्षण में व्यक्ति की मृत्यु होती है--भीतरी माप के जिस क्षण में, भीतरी घड़ी के जिस क्षण में--बहुत कुछ निर्भर होता है।
क्योंकि इस जगत में आकस्मिक कुछ भी नहीं है, मृत्यु भी आकस्मिक नहीं है। मृत्यु भी बहुत सुव्यवस्थित है। और मृत्यु भी बहुत कारणों से सुनिश्चित है। और हर आदमी हर कभी नहीं मरता; हर आदमी अपनी मृत्यु चुनता है; दैट इज़ ए च्वाइस; जिसे हम जिंदगीभर निर्मित करते हैं। और मृत्यु को देखकर कहा जा सकता है कि व्यक्ति कैसे जीया। भीतर, मृत्यु का क्षण निर्णायक है।
यदि भीतर की घड़ी, भीतर का समय विचार से भरा हो, वासना से भरा हो, कामना से भरा हो, तो व्यक्ति मरकर वापस लौट आता है। लेकिन भीतर का समय यदि बिलकुल शुद्ध हो, सिर्फ समय हो, कोई विचार नहीं, कोई कामना नहीं, कोई तृष्णा का सूत्र नहीं, शुद्ध क्षण हो समय का, जैसे निश्छल पानी हो, जरा भी कुछ और अशुद्धि उसमें न हो, सिर्फ समय हो, तो उस क्षण में मरा हुआ व्यक्ति संसार में लौटकर नहीं आता।
इस संबंध में कहना चाहूंगा, महावीर ने ध्यान के लिए जो नाम दिया है, वह है सामायिक। यह शब्द बहुत अदभुत है। यह समय से बना हुआ शब्द है। महावीर ने कहा है कि ध्यान मैं उसी को कहता हूं, जब तुम्हारे भीतर का समय बिलकुल शुद्ध हो। इसलिए उन्होंने ध्यान का उपयोग ही नहीं किया। ध्यान की जगह उन्होंने सामायिक शब्द का उपयोग किया है।
शुद्ध समय में ठहर जाना ध्यान है।
हमारा समय, भीतर जो हमारा समय है, वह सदा ही वासना से भरा है। थोड़ा भीतर का स्मरण करें, तो खयाल में आ जाएगा। आपने अपने भीतर वर्तमान के क्षण को कभी भी नहीं जाना होगा। भीतर या तो आप अतीत को जानते हैं, बीत गए को, जिसकी स्मृति आपका पीछा करती है छाया की भांति। जो हो चुका, उसकी जुगाली करते रहते हैं, जैसे जानवर जुगाली करते हैं। भैंस रख लेती है भोजन बहुत-सा अपने पेट में और फिर उसे निकालकर चबाती रहती है। जो बीत गया, उसकी जुगाली चलती है मन के भीतर। सोचते रहते हैं बार-बार उसको, जो हो चुका।
जो हो चुका, उसे सोचना नासमझी है। उससे अपने वर्तमान क्षण को व्यर्थ ही आप नष्ट किए दे रहे हैं। जो जा चुका वह जा चुका, अब वह कहीं भी नहीं है, लेकिन आपकी स्मृति में है। और आपकी स्मृति जुगाली करती है और वर्तमान में जो क्षण है अभी, समय जो है भीतर, उसे भर देती है। वह जो प्रेजेंट मोमेंट है, अभी इसी समय जो मौजूद क्षण है, उसे अतीत ढांक लेता है। और जब कोई वर्तमान का क्षण अतीत से ढंक जाता है, तो नष्ट हो जाता है। आप उससे अपरिचित ही गुजर जाते हैं।
या तो यह होता है और या फिर यह होता है कि वर्तमान का क्षण भविष्य की वासना से आच्छादित होता है। सोचते हैं उसके संबंध में, जो अभी नहीं है, होगा। आने वाला कल, भविष्य। क्या करना है, क्या नहीं करना है। क्या पाना है, क्या नहीं पाना है। कौन-सी दौड़ लेनी है, कौन-सी मंजिल बनानी है।
या तो अतीत डुबा देता है क्षण को, वर्तमान को, या भविष्य डुबा देता है। दोनों हालत में भीतर का समय खो जाता है। दोनों हालत में वह काल-क्षण खो जाता है, जो कि वस्तुतः था और वे चीजें आच्छादित हो जाती हैं। दोनों नहीं हैं; बीता हुआ कल भी नहीं है, आने वाला कल भी नहीं है। जो नहीं है, वह उसे घेर लेता है, जो है। यही मरे हुए जिंदा आदमी का लक्षण है।
इसीलिए हम जीते हैं बुझे-बुझे, मरे-मरे। क्योंकि जो नहीं है, वह हमारे ऊपर भारी है; और जो है, उसका कहीं पता भी नहीं चलता।
क्या कभी आपने मन में ऐसा टाइम-मोमेंट, ऐसा काल-क्षण जाना है, जब अतीत भी न हो, भविष्य भी न हो, और आप अभी हों, यहीं, अभी और यहीं, जस्ट हियर एंड नाउ। उस क्षण में यदि मृत्यु हो जाए, तो लौटकर आना नहीं होता।
लेकिन जो उस क्षण में जीया ही नहीं, वह मरेगा कैसे? जिसने जीवन में कभी उस क्षण को जाना ही नहीं, वह मरते वक्त नहीं जान लेगा अचानक। अचानक उसका अवतरण नहीं होता। जिसका जीवनभर भरा हुआ रहा है कचरे से, मरते क्षण में वह सारा कचरा इकट्ठा होकर उसके चित्त को घेर लेता है।
ध्यान रहे, जीते जी तो कुछ अतीत याद आता है, कुछ भविष्य। मरते क्षण पूरा अतीत और पूरे भविष्य की कल्पनाएं इकट्ठी खड़ी हो जाती हैं।
जिन लोगों को कभी पानी में डूबने का खयाल हो, कि ऐसी घड़ी आ गई हो कि मरने के करीब पहुंच गए, तो शायद उन्हें पता हो। बहुत-से डूबने वाले लोगों ने, जो बच गए, वक्तव्य दिए हैं। और वे वक्तव्य ये हैं कि डूबते क्षण में पानी में, जब कि लगता है कि मौत आ गई, तो एक क्षण में सारा जीवन फिल्म की भांति आंख के सामने से गुजर जाता है। एक क्षण में जैसे पूरी की पूरी जीवन की फिल्म एकबारगी आंख के सामने गुजर जाती है।
मरते वक्त सभी को ऐसा होता है। सारा अतीत आंख के सामने गिर जाता है; और सारे भविष्य के भय, वासनाएं, स्वप्न, वे भी सब इकट्ठे हो जाते हैं। मृत्यु का क्षण बड़ी भीड़ का क्षण है; टू मच क्राउडेड
इसलिए मृत्यु में आपको अपना तो पता ही नहीं चलता। भीड़ इतनी ज्यादा होती है कि पता लगाना ही मुश्किल होता है कि मैं कौन हूं। जो मर रहा है, उसका तो पता ही नहीं चलता। लेकिन पीछे और आगे हम डोलते रहते हैं।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन की शादी को तीस वर्ष हो गए हैं। और उसकी पत्नी ने एक दिन सुबह उठकर कहा कि मुल्ला याद है, आज तीस वर्ष पूरे होते हैं, आज हमारी विवाह की वर्षगांठ है, कैसे मनाएं? क्या इरादा है तुम्हारा? क्या अच्छा न हो, जो मुर्गा हम छः महीने से पाल रहे हैं, आज उसे काट लिया जाए? नसरुद्दीन ने कहा, तीस साल पहले घटी हुई दुर्घटना के लिए मुर्गे को दंड देना कहां तक उचित है! फिर मुर्गे का उसमें कोई हाथ भी नहीं है।
लेकिन तीस वर्ष क्या, तीस जन्म पहले घटी हुई घटना और दुर्घटना भी हमें घेरे रहती है। हम उसी के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। और जितना हम पीछे घूमते रहते हैं, उतना ही हम आगे की योजनाओं में डूबे रहते हैं। जितना होगा अनुपात अतीत का, उतना ही अनुपात सदा होता है भविष्य का। जितनी जड़ें आदमी की अतीत स्मृति में होती हैं, उतनी ही शाखाएं उसी अनुपात में, ठीक उसी अनुपात में भविष्य में फैल जाती हैं। और बीच का जो क्षण है--बहुत छोटा, बहुत छोटा, अति अल्प, आणविक--वह खो जाता है इस बीच।
जिस काल-क्षण की कृष्ण बात कर रहे हैं, उस काल-क्षण को ठीक से समझ लें। उस समय न अतीत हो, न भविष्य; रह जाए शुद्ध वर्तमान--परिपूर्ण निश्छल, परिपूर्ण निर्दोष, इनोसेंट, अनबर्डन, निर्बोझ, निर्भार--तो उस क्षण में जो मृत्यु होती है, उसका रूप मृत्यु का नहीं, परम जीवन के अनुभव का है। वह मोक्ष, मुक्ति बन जाती है।
मृत्यु हम तब तक कहते हैं अंत को, जब तक वापस लौटना जारी रहता है। मृत्यु उस क्षण मुक्ति बन जाती है, मोक्ष, जिस क्षण वापस लौटने का उपाय नहीं रह जाता।
वापस लौटता है आदमी मन से। मन ही धागा है जिससे हम वापस लौटते हैं। और मन है अतीत और भविष्य का जोड़। अतीत+भविष्य = मन।
वर्तमान का क्षण मन का हिस्सा नहीं है, नाट ए पार्ट आफ दि माइंड, वर्तमान मन का हिस्सा नहीं है। इसलिए जो वर्तमान में प्रवेश कर जाता है, वह मन के बाहर हो जाता है। जो अतीत और भविष्य में रहता है, वह मन में रहता है।
अब एक बहुत मजे की बात आपसे कहूं, जो कि आपको एकदम से समझ में शायद न भी पड़े, लेकिन थोड़ा समझेंगे, तो समझ में पड़ सकती है।
हम सदा कहते हैं कि समय के तीन हिस्से हैं, अतीत, वर्तमान, भविष्य; पास्ट, प्रेजेंट, फ्यूचर। इसमें भूल है। प्रेजेंट जो है, प्रेजेंट इज़ नाट ए पार्ट आफ टाइम एट आल। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है। समय तो केवल अतीत और भविष्य है। वर्तमान समय के बाहर है। जहां अतीत समाप्त होता है और जहां अभी भविष्य शुरू नहीं होता, उस बीच की संधि-रेखा में वर्तमान है। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है। कामचलाऊ है बातचीत कि वर्तमान समय का हिस्सा है। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है। वर्तमान अस्तित्व है।
और जो समय का हिस्सा नहीं है, वह मन का भी हिस्सा नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो जिसे हम बाहर के जगत में समय कहते हैं, टाइम कहते हैं, वही भीतर के जगत में मन, माइंड है। इसे ऐसा समझ लें कि जिस घटना को हम बाहर के जगत में समय कहते हैं, उसी घटना का भीतरी नाम मन है। टाइम एंड माइंड आर रियली सिनानिम्स, वे बिलकुल पर्याय हैं; उनमें कोई भेद नहीं है।
इसलिए जिसे मन के बाहर जाना हो, वह समय के बाहर चला जाए, तो मन के बाहर पहुंच जाता है। जिसे समय के बाहर जाना हो, वह मन के पार चला जाए, तो समय के बाहर पहुंच जाता है। ये दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। बाहर समय की तरह पहचाना जाता है जो, भीतर वही मन है।
वर्तमान न तो समय का हिस्सा है और न मन का। वर्तमान अस्तित्व है।
इसे ऐसा समझें कि अस्तित्व में न कुछ अतीत है और न कुछ भविष्य, अस्तित्व सदा है। अस्तित्व में न कुछ अतीत है और न कुछ भविष्य, अस्तित्व तो सदा है। ऐसा समझें कि आदमी चला जाए जमीन से, तो क्या जमीन पर कोई पास्ट, कोई अतीत होगा? आदमी न हो जमीन पर, अर्थात मन न हो जमीन पर, तो क्या कोई भविष्य होगा?
चांद तो फिर भी निकलेगा, लेकिन चांद कल भी निकला था, इसकी स्मृति चांद को नहीं है। फूल फिर भी खिलेंगे, लेकिन फूल पहले भी खिले थे, इसका कोई हिसाब फूल नहीं रखते। पक्षी फिर भी गीत गाएंगे, लेकिन यह गीत कल भी गाया गया था, इसका पक्षियों के पास कोई लेखा-जोखा नहीं है। और चांद कल भी निकलेगा, इसकी कोई योजना चांद के पास नहीं है। और फूल कल भी खिलेंगे, उस कल का, उस खिलने का, फूलों को कोई स्वप्न भी नहीं आता है।
मन हट जाए...ध्यान रहे, इसीलिए हमने आदमी को--शायद जमीन पर अकेला भारत है, जिसने ठीक-ठीक नाम दिया है--मनुष्य। मनुष्य का मतलब है, जिसके पास मन है। और मन का अर्थ है कि जिसके पास अतीत का लेखा-जोखा और भविष्य की योजना और कल्पना है। मनुष्य न हो, मन न हो, तो सब कुछ होगा, समय नहीं होगा। देअर शैल बी टाइम नो लांगर; आदमी भर न हो, तो समय नहीं होगा।
समय आदमी के मन के साथ पैदा हुई वस्तु है। आदमी के हटते ही समय खो जाता है। यदि भीतर आप किसी ऐसी स्थिति को खोज लें, जब न अतीत है, न भविष्य, तो वहां कोई विचार भी नहीं हो सकता। क्योंकि विचार या तो अतीत के होते हैं, या भविष्य के। वहां कोई तृष्णा नहीं हो सकती, क्योंकि तृष्णा अतीत से जन्मती है और भविष्य की तरफ दौड़ती है। वहां कोई वासना नहीं हो सकती। वहां होंगे सिर्फ आप, सिर्फ आपका अस्तित्व, सिर्फ होना मात्र, जस्ट बीइंग। उस क्षण में जो मृत्यु घटित हो, तो लौटकर आना नहीं है। मृत्यु मुक्ति बन जाती है।
और जिन लोगों ने मृत्यु को परम मित्र कहा है, तो आपकी मृत्यु को नहीं कहा है। जिन्होंने कहा है कि मृत्यु परम सौभाग्य है, तो आपकी मृत्यु को उन्होंने परम सौभाग्य नहीं कहा है। उस भूल में मत पड़ना। उन्होंने इस मृत्यु की बात कही है। जो मृत्यु मित्र है, वह ऐसी मृत्यु है, जो मुक्ति बन जाती है।
लेकिन काल-क्षण बहुमूल्य है। यदि भीतर ऐसा न हो, तो फिर आप नई यात्रा पर प्रारंभ कर देते हैं। अतीत को समेटे हुए, भविष्य का स्वप्न देखते हुए ही पुनर्जन्म होता है। अतीत को समेटे हुए, भविष्य की कामना करते हुए ही फिर नया गर्भ धारण हो जाता है।
लौटकर आना हो, तो भरा हुआ मन चाहिए। लौटकर न आना हो, तो रिक्त, खाली, शून्य मन चाहिए। शून्य मन का अर्थ है, अ-मन। जिसको कबीर ने अ-मनी अवस्था कहा है और जापान के झेन फकीर जिसे स्टेट आफ नो-मांइड कहते हैं, उसी की चर्चा कृष्ण कर रहे हैं।
लेकिन मृत्यु के समय--आकस्मिक, अचानक द्वार पर आ गई मृत्यु--उस क्षण आप कैसे सम्हाल पाएंगे अपने को, यदि जीवन में प्रतिपल न सम्हाला हो! तो जो ठीक से नहीं जीया, वह ठीक से मर नहीं सकेगा। गलत जीने का अंतिम परिणाम गलत मृत्यु होगी। और गलत मृत्यु का अर्थ होता है कि फिर गलत जीवन का प्रारंभ। आपने फिर बीज बो दिए।
जीवन में ही सम्हालना पड़े। जीते-जी ही सम्हालना पड़े। और यह आप तभी सम्हाल सकते हैं, जब आपको खयाल हो कि जीवन के किसी भी क्षण में मृत्यु घटित हो सकती है; अभी और यहीं घटित हो सकती है। इसलिए जो कहता है, कल सम्हाल लेंगे, वह कभी भी नहीं सम्हाल पाता है। जो कहता है, अभी और यहीं, वही सम्हाल पाता है।
एक झेन फकीर हुआ लिंची। अपने गुरु के पास जब वह गया था, तो उसके गुरु ने कहा, किसलिए आया है? तो लिंची ने कहा कि मैं संन्यासी होना चाहता हूं। उसके गुरु ने कहा, होना चाहता है या अभी होने को तैयार है? उसके गुरु ने कहा, संन्यास का भविष्य से कोई भी संबंध नहीं है; संसार का भविष्य से संबंध है।
कोई आदमी कहे, एक दुकान चलाना चाहता हूं, तो भविष्य की जरूरत पड़ेगी। दुकान एक फैलाव है, समय में। कोई आदमी कहे, धन कमाना चाहता हूं, तो आज इसी क्षण नहीं कमा सकता है। धन के लिए आयोजना करनी पड़ेगी, पंचवर्षीय, पचास वर्षीय योजनाएं बनानी पड़ेंगी। प्लानिंग करनी पड़ेगी। फिर भी मिलेगा, नहीं मिलेगा, नहीं कहा जा सकता। क्योंकि धन पर मेरा वश नहीं है। और बहुतों का वश भी है। और मैं अकेला ही धन कमाने नहीं चल पड़ा हूं। यह सारी पृथ्वी धन कमाने चल पड़ी है। भारी प्रतिस्पर्धा है। सिर्फ धर्म को छोड़कर सभी चीजों में भारी प्रतिस्पर्धा है। धन कमाना हो, यश कमाना हो, पदों की सीढ़ियां चढ़नी हों, तो भविष्य के बिना कोई उपाय नहीं। टाइम विल बी नीडेड। भविष्य चाहिए, नहीं तो कुछ भी न हो सकेगा।
लेकिन यदि संन्यास लेना हो, तो भविष्य की कोई भी जरूरत नहीं है। इसी क्षण घट सकता है, क्योंकि संन्यास निपट निजी है। उसका इस जगत में किसी से कोई संबंध नहीं है। और अगर धन मैं कमाना चाहूं, तो मेरे पास जितना धन बढ़ेगा, किसी के पास कम होगा। या किसी के पास ज्यादा हो सकता था, तो मैं छीनूंगा। कहीं न कहीं, कोई न कोई वंचित होगा। लेकिन अगर मैं संन्यास लेता हूं, दुनिया में कहीं भी कोई वंचित नहीं होता। शायद मेरे संन्यास लेने से दुनिया में बहुत कुछ समृद्धि भला आ जाए, लेकिन कहीं कोई वंचित नहीं होता है। क्योंकि संन्यास कोई कमोडिटी नहीं है, कोई वस्तु नहीं है कि कम हो जाएगी। फिर संन्यास कोई संसार का हिस्सा नहीं है कि मैं उसकी योजना करूं और कल और परसों, और वर्ष और दो वर्ष, और प्रतीक्षा करूं।
संन्यास एक घटना है, जो उस काल-क्षण में घटती है, जो अभी और यहीं है।
ठीक से समझें, तो संन्यास का अर्थ है, जो समय के बाहर घटित होता है। संसार का अर्थ है, जो समय के भीतर घटित होता है। संसार का अर्थ है, विदिन दि टाइम प्रोसेस। और संन्यास का अर्थ है, जंपिंग आउट आफ दि टाइम प्रोसेस।
इसलिए जब कोई आदमी कहता है कि कल सोचकर मैं संन्यास लूंगा, तो मैं जानता हूं कि उसे पता ही नहीं कि संन्यास का अर्थ क्या है। सोचकर जो लिया जा सकता है, वह संसार होगा। क्योंकि सोचेंगे क्या? सोचने का अर्थ है, अतीत के अनुभव से पूछूंगा, स्मृति से पूछूंगा। सोचने का क्या अर्थ है। भविष्य का हिसाब लगाऊंगा कि फायदा होगा कि नुकसान होगा। सोचने का अर्थ है, अतीत और भविष्य से पूछूंगा। और तो सोचने का कोई भी अर्थ नहीं होता। लोग क्या कहेंगे, यह भविष्य है। और अतीत में मैं कैसा आदमी रहा हूं, उसके साथ तालमेल खाएगा संन्यास, नहीं खाएगा, यह अतीत है। मुर्दों से पूछ रहे हैं, अतीत से; भविष्य से पूछने का अर्थ है, अनजन्मे से पूछ रहे हैं।
लेकिन संन्यास का सोचने से कोई संबंध नहीं। धर्म का ही सोचने से कोई संबंध नहीं है। इसी क्षण उस संधि-रेखा में, जहां अतीत नहीं और भविष्य नहीं, जो घटना घट जाती है, बिना विचारे जो छलांग है, कूद जाना है अपने से बाहर, वह संन्यास है।
उसके गुरु ने कहा, तू लेना चाहता है, या तैयार है अभी? उस युवक ने, लिंची ने आंखें बंद कर लीं, सोचने लगा। उसके गुरु ने उसे हिलाया और कहा, जरा-सा विचार, और तू चूक जाएगा। जरा-सा सोचा, कि तू गया, खोया। युवक ने कहा, मुझे सोच तो लेने दें। थोड़ा-सा तो सोच लेने दें! इतनी भी जल्दी क्या है? उसके गुरु ने कहा, काश, तुझे पता होता कि मौत किसी भी क्षण घटित हो सकती है, तो तू इस तरह की बात न कहता कि इतनी भी जल्दी क्या है! और तू सोचेगा क्या? तू ही सोचेगा न! अगर तू सोच सकता होता, तो बहुत पहले कभी का संन्यासी हो चुका होता।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही है एक दिन कि जो बुद्धिमान लोग हैं, वे शादी करके भी सुखी रह सकते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, जो बुद्धिमान हैं, वे बिना शादी किए ही सुखी रह सकते हैं।
उसके गुरु ने, लिंची के गुरु ने कहा कि तू सोच रहा है। अगर तू सोच ही सकता, तो संन्यास कभी का फलित हो गया होता। सोचकर, अगर सच में तू सोच सकता, तो कोई संसार में रह सकता है? और अगर अब तक तू नहीं सोच पाया, तो उसी मन को लेकर तू आगे भी कैसे सोचेगा? तू सोच मत।
लिंची ने अपने गुरु की तरफ देखा और कहा कि मैं संन्यासी हो गया। क्योंकि अब यह भी कहना कि हो जाऊंगा, फिर भविष्य होगा। मैं हो गया। आज्ञा दें संन्यासी को अब, अब उस आदमी को भूल जाएं, जो आया था।
कहते हैं कि उसके गुरु ने अपनी पगड़ी उसके सिर पर रख दी और कहा कि मैं उस आदमी की तलाश में था, जो उस काल-क्षण में छलांग लगा ले, जिसका नाम वर्तमान है, क्योंकि मेरी मृत्यु करीब है। अब मैं विदा लेता हूं। अब मेरा काम तू सम्हाल लेना।
उस लिंची ने कहा कि लेकिन मैं अभी-अभी संन्यासी हुआ, अभी मुझे कुछ भी पता नहीं है! उसके गुरु ने कहा, सब तुझे पता हो जाएगा। जिसे वर्तमान के क्षण में खड़े होने की जरा-सी भी क्षमता है, उसे सब ज्ञान के, रहस्य के द्वार खुल जाते हैं। अब तुझे कुछ कहने की मुझे जरूरत नहीं है।
और गुरु ऐसा बिना उपदेश दिए--ऐसी घटना बहुत कम घटती है--बिना उपदेश दिए गुरु तिरोहित हो गया। और लिंची ने दूसरे दिन सुबह से गुरु के मंच पर बैठकर बोलना शुरू कर दिया। जितने ज्ञानी उसके गुरु के द्वारा पैदा हुए थे, उससे हजारों गुना ज्ञानी लिंची के द्वारा पैदा हुए। लिंची के गुरु का नाम भी पता नहीं है, क्योंकि लिंची पूछ ही नहीं पाया और वह डिसएपियर हो गया। और जब भी कोई लिंची से पूछता था कि तुझे यह ज्ञान कैसे मिला? तो वह कहता था, गुरु ने तो मुझे कोई ज्ञान नहीं दिया, सिर्फ एक धक्का दिया था। लेकिन जिस दिन से मुझे यह राज मिल गया, अभी और यहीं होने का, उस दिन से कोई अज्ञान न रहा। अज्ञान के सब बादल छंट गए।
जीवन में जो वर्तमान के क्षण को पकड़ने की कला आ जाए, तो कृष्ण जिस मृत्यु-क्षण की बात कर रहे हैं, जिस काल-क्षण की, वह घटित हो सकता है।
जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं।
क्योंकि योगीजन भी दो प्रकार के हैं। इसमें कठिनाई होगी वाक्य को सुनकर। क्योंकि दोनों के लिए कृष्ण योगीजन का प्रयोग करते हैं। योगीजन दो प्रकार के हैं; योग भी दो प्रकार का है।
एक तो, जिसे हम परम योग कहें, दि सुप्रीम योग। वह परम योग अभ्यास, क्रिया, साधना, इसमें भरोसा नहीं करता। उस परम योग का ही पुराना नाम सांख्य है। सांख्य, जैसी यह लिंची को घटना घटी, इस तरह की घटना में भरोसा करता है, सडेन एनलाइटेनमेंट। अगर कोई आदमी राजी है अभी और यहीं, वर्तमान के क्षण में खड़े होने को, तो बिना किसी योगाभ्यास के, बिना किसी ध्यान के वह घटना घट जाएगी, जिसमें परम से मिलन हो जाता है। क्योंकि उससे हम कभी छूटे नहीं हैं, इसलिए पाने के लिए कोई भी रास्ता तय करने की जरूरत नहीं है। जिससे हम कभी अलग नहीं हुए, उस तक पहुंचने के लिए किसी भी विधि और विधान की आवश्यकता नहीं है। जिसमें हम खड़े ही हैं, अभी और सदा से, क्या उसे पाने को भी कोई यात्रा करनी पड़ेगी?
लेकिन यह बात समझ में आती नहीं। और समझ में भी आ जाए, तो कोई परिणाम नहीं होता।
कृष्णमूर्ति इस सांख्य की ही चर्चा चालीस-पचास वर्षों से कर रहे हैं। इन पचास वर्षों में एक सुनिश्चित वर्ग उन्हें निरंतर सुनता है, निरंतर पढ़ता है, फिर भी कहीं पहुंचता हुआ मालूम नहीं पड़ता। चालीस-चालीस वर्ष उन्हें सुनने वाले लोग मेरे पास आकर कहते हैं, सब समझ में आता है, फिर कुछ होता क्यों नहीं? सब समझ में आ गया है, फिर कुछ होता क्यों नहीं?
असल में उनको इतना ही समझ में नहीं आया कि अगर कुछ होने की आकांक्षा है, तो सांख्य आपका सूत्र नहीं बन सकता। अगर यह भी आप पूछ रहे हैं कि सब समझ में आ गया, कुछ होता क्यों नहीं है! यह होता क्यों नहीं है, यह तो भविष्य है। यह होता क्यों नहीं है, यह तो वासना है। अगर समझ में आ गया, तो होना बंद करो अब। अब भविष्य को छोड़ दो। अब यह कामना भी छोड़ दो कि कुछ हो। मोक्ष हो, आनंद हो, परमात्मा हो, यह कामना भी सांख्य के मार्ग में बाधा है, परम योग के मार्ग में बाधा है।
लेकिन कभी करोड़, दो करोड़ में कोई एकाध व्यक्ति कभी सदियों में घटित होता है, जो परम सांख्य को सीधा पा लेता है। लेकिन उसका सीधा पाना भी हजारों जन्मों की लंबी भटकन का ही परिणाम होता है। परम सांख्य को भी सीधा पाया नहीं जा सकता। यदि कृष्णमूर्ति जैसा व्यक्ति भी पाता हो, तो वह भी अनंत-अनंत जन्मों की प्रक्रिया का फल है।
लेकिन जब कोई वैसा पा लेता है, तो वह दूसरों से कहता है कि कुछ करने की जरूरत नहीं है। बस हो जाओ, अभी और यहीं। वह दूसरा सुन लेता है, शब्द समझ में भी आ जाते हैं। बार-बार सुनने से और जल्दी समझ में आ जाते हैं। इसलिए कृष्णमूर्ति जैसे लोगों को वे ही लोग रोज पढ़ते रहते हैं, वे ही लोग हर वर्ष सुनते रहते हैं; वे ही शक्लें! क्योंकि बार-बार पुनरुक्ति से उनको यह वहम होने लगता है कि अब सब समझ में आने लगा। क्योंकि सब शब्द समझ में आ जाते हैं। लेकिन फिर भी वे पूछते फिरते हैं कि कुछ हुआ नहीं।
अगर होने की ही वासना है, तो परम योग आपका मार्ग नहीं है, सांख्य आपका मार्ग नहीं है। और होने की वासना सभी में है। मजा तो यह है कि सांख्य में भी लोग इसीलिए उत्सुक होते हैं कि अच्छा, चलो! होना तो चाहते हैं, अगर आप कहते हो कि होने की वासना छोड़ोगे तभी हो पाओगे, तो हम होने की वासना भी छोड़ने को तैयार हैं। लेकिन उस वासना के पीछे भी कुछ होने की कामना सदा ही मौजूद है। इसलिए बहुत जाल है भीतर। इस जाल को तोड़ना हो, तो दूसरी विधि है।
उन दूसरे योगीजन को कृष्ण ने कहा है कि और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, ऐसे योगी भी हैं। जो योगी योग की साधना किसी भी वासना से कर रहे हों, चाहे वह वासना परमात्मा को पाने की वासना ही क्यों न हो, चाहे वह वासना सब वासनाओं से मुक्त हो जाने की ही वासना क्यों न हो! लेकिन जहां भी किसी तरह की डिजायरिंग, वहीं भविष्य आ गया। जहां किसी तरह की कामना, वहीं भविष्य निर्मित हो गया। और जहां भविष्य है, वहां अतीत से सहारा लेना पड़ेगा, क्योंकि भविष्य के अनजान लोक में आप प्रवेश कैसे करेंगे! अतीत का अनुभव ही आपका आधार बनेगा, अतीत का ज्ञान ही आपका सहारा होगा। अतीत का ज्ञान और भविष्य की कामना--वह क्षण चूक गया, जिस क्षण में मरता है कोई तो फिर वापस नहीं आता।
इसलिए अगर मरते क्षण में इतनी भी कामना मन में रही कि हे प्रभु, अब तो उठा लो, अब पुनर्जन्म न हो, तो पुनर्जन्म होगा, क्योंकि यह भी वासना है।
आज एक बयासी वर्ष के बूढ़े मित्र ने संन्यास लिया है, लेकिन बड़ी संसारी भावना से। वे आकर बोले कि मैं बयासी साल का हो गया, और कम से कम साठ साल से महात्माओं के दरवाजों पर चक्कर काट रहा हूं, लेकिन अब तक कोई लाभ नहीं हुआ। लाभ! मैंने उनसे पूछा, क्या लाभ चाहते थे? कहे, न मन को शांति मिली, न आनंद मिला, न प्रभु का कोई दर्शन हुआ। और धन-संपत्ति की भी सदा तकलीफ रही। शरीर से भी दुखी रहा। और अब तो थोड़े दिन बचे हैं। कहने लगे कि अब आपकी शरण में आया हूं। और अब तो कुछ ऐसा कर दें कि बस, दुबारा आगमन न हो। और अगर इतना भी न हो पाए, तो इतना ही कर दें कि कम से कम जब तक जिंदा हूं, किसी तरह का दुख न हो।
मैंने पूछा, कितना समय मुझे दे सकते हैं? क्योंकि जब वासना हो, तो समय की पहले पूछ लेना चाहिए। कितना समय, मेरे लिए कितना समय दे सकते हैं? उन्होंने कहा, ज्यादा समय तो मेरे पास है नहीं। बयासी साल का हूं। सालभर में हो जाए, छः महीने में हो जाए!
मैंने कहा, दो-चार दिन में हो जाए, तो क्या खयाल है? चित्त उनका बड़ा प्रफुल्लित हो गया। कहने लगे, फिर तो कहना ही क्या! और मैंने कहा, अगर अभी इसी क्षण हो जाए? तब उन्हें थोड़ा शक हुआ। तब थोड़ा शक हुआ, क्योंकि इसी क्षण का भरोसा तो किसी को भी नहीं है। नहीं, उन्होंने कहा, इतनी जल्दी क्या! दो-चार दिन में भी हो जाए।
इस क्षण का भरोसा तो किसी को नहीं है। और मैं आपसे कहता हूं, हो सकता है तो इस क्षण में; नहीं तो, न चार दिन, न चार वर्ष, न चार जन्म, कुछ भी काफी नहीं है। अगर यही क्षण काफी नहीं है, तो फिर सारा समय का विस्तार भी नाकाफी है।
अब ये मित्र हैं, ये अगर संन्यास भी लेना चाहते हैं, तो बड़ी वासना से प्रेरित होकर। बड़ी गहन वासना है। पर मैं कहता हूं, कोई हर्ज नहीं। वासना से ही सही, कूदो। शायद कूदने में ही खयाल आ जाए, कि कूदे जिस जगह, वह जगह अगर मंदिर भी थी, तो हम सारी गंदगी को साथ लेकर कूद पड़े। शायद उस मंदिर की पवित्रता के कारण इस गंदगी को बाहर फेंक आने की मंशा हो जाए। या शायद छलांग में स्मरण आए कि छलांग भी ली, तो बड़ी अधूरी। एक टांग बंधी हुई है पीछे; वासना के जगत से पूरी की पूरी बंधी है।
इन मित्र को कोई पूछे, वृद्धजन को, कि पक्का किए देते हैं, अगले जन्म में धन की भी कोई तकलीफ न होगी और शरीर का कोई कष्ट न आएगा, फिर क्या इरादा है? तो मेरी अपनी समझ यह है कि ये कहेंगे, तो फिर एक दफा और कोशिश कर ली जाए; रहने दें!
अगर जन्म से भी आप बचना चाहते हैं, तो किसलिए बचना चाहते हैं? इसीलिए कि दुख न हो। तो आप जन्म से नहीं बचना चाहते हैं, सिर्फ दुख से बचना चाहते हैं। और अगर कोई भरोसा दिला दे कि हम बिना दुख का जन्म दे देते हैं, तो आप पहले होंगे कतार में। और भीड़ में बड़ी जल्दी मचाएंगे कि क्यू में मुझे आगे आने दो।
नहीं, मुक्त तो वही होता है, जिसे अगर कोई वायदा करता हो कि जीवन सुख ही सुख की शय्या होगी, फूल ही फूल होंगे जीवन में, फिर भी वह कहता है, होंगे, लेकिन सुख भी नहीं चाहिए। असल में चाह ही नहीं चाहिए। ऐसे काल-क्षण में, जब कोई भी चाह नहीं है, जो शरीर से छूटता है, उसकी यात्रा परमधाम की तरफ हो जाती है।
लेकिन अगर आखिरी क्षण में धर्म की वासना, मोक्ष की वासना, पुनर्जन्म न हो, ऐसी वासना भी बनी रही, तो चाहे कितना ही योग साधा हो, कितने ही आसन किए हों, कितना ही शीर्षासन लगाया हो, कितने ही घंटे सिद्धासन में बैठे हों, चाहे कुछ भी किया हो, कितने ही लाख दफे राम-राम लिखा हो, कोई अंतर नहीं पड़ेगा। फिर वापस लौट आएंगे।
हां, इतना अंतर पड़ेगा कि शायद यह जो शुभ वासना है मोक्ष की, प्रभु-मिलन की, वासना तो वासना ही है, शुभ है। कम से कम धन पाने की नहीं; मोक्ष में ही जाने की है, कम से कम वेश्यागृह में जाने की नहीं है; शुभ है, शुक्ल है वासना, तो शायद अगले जन्म में यह भी संभावना बन जाए कि यह शुक्ल और शुभ वासना को भी छोड़ने की क्षमता आ जाए।
लेकिन ऐसा योगी वापस लौट आएगा। जिसने योग साधा हो किसी वासना से, वह वापस लौट आएगा। क्योंकि वह उस काल-क्षण को उपलब्ध नहीं होता, जहां से वापसी नहीं है।
उन दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, दिन है तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण के छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
दो मार्ग, उत्तरायण और दक्षिणायण, दो मार्गों की चर्चा कृष्ण करेंगे। इस पहले सूत्र में पहले मार्ग की चर्चा है। यह चर्चा अति सूक्ष्म है और इसमें जिन प्रतीकों का प्रयोग हुआ है, उन प्रतीकों के कारण इस सूत्र को गीता के, करीब-करीब नहीं समझा जा सका है। इस सूत्र पर प्रवेश करने के पहले दोत्तीन बातें खयाल में ले लें।
एक तो जितने ही अंतर्जगत की गहन बात हो, उतने ही हमें प्रतीक चुनने पड़ते हैं। बात सीधी नहीं कही जा सकती। बात सीधे कहने का उपाय नहीं है, क्योंकि बात कुछ ऐसी है, और ऐसी मिठास की तरह भीतरी है, और इतनी गहन अनुभव की है कि शब्द में रखते ही हमें प्रतीक चुनने पड़ते हैं। सीधा कहने का उपाय नहीं है। जैसे आपके भीतर जब पहली बार आनंद घटित होगा और आपसे कोई पूछे कि वह आनंद कैसा था, तो आपको कुछ न कुछ प्रतीक खोजने पड़ेंगे, जो बिलकुल अधूरे होंगे, छूते भी नहीं होंगे सत्य को। लेकिन फिर कोई उपाय नहीं है।
ध्यान में जो लोग गहरे उतरते हैं, यदि उन्हें संभोग का अनुभव है, जो कि बहुत कम लोगों को है। और जब मैं कहता हूं, बहुत कम लोगों को है, तो मेरा अर्थ यह है कि अधिक लोगों को केवल वीर्य-स्खलन का अनुभव है, संभोग का अनुभव नहीं है। लेकिन अगर किसी को कभी संभोग का कोई क्षणभर का भी अनुभव है, तो ध्यान में जब वह पहली दफे जाता है...। तो निरंतर मुझे लोग आकर कहते हैं, बड़ी हैरानी की बात है, आज ध्यान में भीतर गया, तो ऐसा लगा जैसे भीतर कोई गहन-गहन संभोग घटित हो रहा है--आरगाज्म
अभी एक अंग्रेज युवती मेरे पास ध्यान में प्रयोग कर रही थी। उसे जिस दिन पहली दफा ध्यान की घटना घटी, उसने मुझे आकर कहा, मैं हैरान हूं, क्योंकि मैं जीवनभर से एक ही तलाश में थी कि मुझे कोई तृप्तिदायी संभोग का क्षण मिल जाए...।
उसने न मालूम कितने पति बदले हैं, और न मालूम कितने साथी बदले हैं, और न मालूम कितने पुरुषों के साथ रही है, सिर्फ इस आशा में कि किसी दिन संभोग का ऐसा क्षण मिल जाए। इस आदमी से नहीं मिलता, दूसरे से मिल जाए, तीसरे से मिल जाए।
ध्यान के पहले अनुभव में उसने मुझे आकर कहा कि मैं हैरान हूं। जिसकी खोज मैं संभोग में कर रही थी, वह तो मुझे कभी नहीं मिला। लेकिन ध्यान में मुझे पहली दफे वह मिला है, जिसकी कोई धुंधली-सी आकांक्षा मेरे भीतर थी। मैं गहन संभोग में उतर गई।
स्वभावतः, संभोग और ध्यान के उस अनुभव में कोई ऐसा फासला है--इतना फासला--जैसे आकाश में कोई तारा निकले और उस तारे की छाया आपके घर में भरे हुए गंदे डबरे में बन जाए। उस तारे की छाया में और उस तारे में जितना फासला है, इतना ही फासला है। लेकिन फिर भी छाया तो है ही, रिफ्लेक्शन तो है ही।
तो जब भी कोई अंतर-अनुभव में उतरता है, तो उसे प्रतीक चुनने पड़ते हैं, जो प्रतीक बाहर के जगत से लिए गए हों। उन प्रतीकों के कारण बड़ी कठिनाई होती है। जैसे समस्त योग-शास्त्रों ने, योग-विधियों ने दो तरह के पथ, विशेषकर वैदिक युग ने दो तरह के पथ विभाजित किए हैं, जिनसे मनुष्य की चेतना यात्रा करती है। तो पहले तो हम उन दो पथों का विभाजन समझ लें।
सूर्य जब भूमध्य रेखा के उत्तर में होता है बढ़ता हुआ, तो एक उत्तर का पथ है; और जब सूर्य भूमध्य रेखा से दक्षिण की तरफ नीचे उतरता होता है, तो दूसरा दक्षिण का पथ है।
अगर हम आदमी को भी ठीक पृथ्वी की तरह दो हिस्सों में बांट लें, तो सेक्स सेंटर जो है आदमी का, जो कामवासना का केंद्र है, उसके नीचे का हिस्सा दक्षिण मान लें, और उस केंद्र के ऊपर का हिस्सा उत्तर मान लें, तो मनुष्य के भीतर एक अग्नि है--उसकी मैं बात करूंगा--वही मनुष्य की ऊर्जा है, बायो-एनर्जी, जिसको अब पश्चिम में जीवशास्त्री बायो-एनर्जी कहते हैं, जीव-ऊर्जा कहते हैं, उस जीव-ऊर्जा को भारत ने सदा सूर्य के प्रतीक में समझा है।
क्योंकि समस्त जीव-ऊर्जा सूर्य से ही प्राप्त होती है। अगर फूल खिलता है, पौधे बड़े होते हैं, आदमी के गर्भ का विकास होता है, आदमी बढ़ता है, तो सब सूर्य के कारण। हमारे भीतर जो जीव-ऊर्जा है, वह सूर्य से ही हमें उपलब्ध होती है। इसलिए बहुत उचित है कि उस भीतर की ऊर्जा के लिए भी सूर्य का ही प्रयोग किया जाए, ठीक वैसे ही जैसे तारे के झलकने को हम पानी के डबरे में देखें और दोनों में संबंध जोड़ लें।
आदमी की चेतना में जो भी घटनाएं घटती हैं, वे बहुत गहन रूप से सूर्य से संबंधित हैं। तो मनुष्य को भी हम दो हिस्सों में तोड़ लें; भूमध्य रेखा बना लें, मनुष्य के कामवासना के केंद्र से एक रेखा खींच दें; तो नीचे का हिस्सा दक्षिणपथ होगा, ऊपर का हिस्सा उत्तरपथ होगा।
जब जीव-ऊर्जा दक्षिण की तरफ उतरती रहती है, यानी पैरों की तरफ उतरती रहती है, तब जो मृत्यु घटित होती है, वह एक तरह की मृत्यु है। और जब जीव-ऊर्जा काम-केंद्र से ऊपर की तरफ उठती है और सिर की तरफ प्रवाहित होती है, उत्तरपथ की तरफ, उत्तरायण, तब जो मृत्यु घटित होती है, वह और ही तरह की मृत्यु है। और इन दोनों की यात्राएं अलग हो जाती हैं। जब जीव-ऊर्जा नीचे की तरफ उतरती है, जो कि हमारी समस्त वासनाओं में उतरती है...। इसलिए कामवासना हमारी सबसे केंद्रीय वासना है, क्योंकि सर्वाधिक जीव-ऊर्जा को हमारी कामवासना का केंद्र ही नीचे की तरफ, अधोगमन की तरफ भेजता है।
एक बहुत मजे की बात आपसे कहूं, जब तक आपका चित्त कामवासना से भरा रहता है, तब तक आपके पैर के तलवे सदा गरम रहेंगे। लेकिन जैसे ही आपकी काम ऊर्जा काम-केंद्र से नीचे की तरफ न बहकर, ऊपर की तरफ बहने लगेगी, ऊर्ध्वमुखी होगी, वैसे ही आपके पैर ठंडे होने शुरू हो जाएंगे। और आपका सिर गरम होना शुरू हो जाएगा। बुद्ध जैसे योगी के पैर बिलकुल ही शीतल, आइस कूल, बिलकुल शीतल, बर्फीले शीतल होते हैं।
बहुत पुराने दिनों से गुरु के चरणों में सिर रखने का बहुत महत्वपूर्ण उपयोग था। वह डायग्नोसिस थी, जैसे कि चिकित्सक नाड़ी पर किसी के हाथ रख ले। गुरु के चरणों में सिर रखकर शिष्य पहचान लेता था कि अभी उत्तरायण यह व्यक्ति हुआ या नहीं! और गुरु अपना हाथ उसके सिर पर रखकर पहचान लेता था कि दक्षिणायण कहां तक हो! यह बहुत चुपचाप हो गया निदान था। इसके लिए बातचीत भी नहीं करनी पड़ती थी, यह चुपचाप हो जाता था। और मन ही मन बात समझ ली जाती थी और हिसाब हो जाते थे कि क्या करना है, क्या नहीं करना है।
और एक दफा शिष्य ठीक से पहचान लेता था गुरु के चरणों में सिर रखकर, तो फिर वह पता नहीं लगाता फिरता था कि गुरु का चरित्र कैसा है, कैसा नहीं है। उसका कोई प्रयोजन नहीं था। वह पैरों ने सब उसे कह दिया। और एक दफा गुरु पहचान लेता था सिर पर हाथ रखकर, तो फिर वह नहीं पूछता था कि तुम क्या कर रहे हो, क्या नहीं कर रहे हो; क्योंकि वह जानता था कि तुम क्या कर रहे हो, क्या हो रहा है भीतर।
साइकोएनालिसिस करते वक्त फ्रायड, जुंग और एडलर जो वर्षों में नहीं पहचान पाते, वह भारतीय गुरु सिर्फ सिर पर हाथ रखकर पहचान लेता था। जैसे मरीज नाड़ी से पहचान लिए जाते, वैसे इस उत्तरायण और दक्षिणायण की व्यवस्था को भी बड़ी सरलता से पहचाना जा सकता है, क्योंकि ऊर्जा फौरन खबर देती है कि कहां है। जहां भी ऊर्जा प्रवाहित होती है, वहां उष्ण हो जाता है; और जहां से ऊर्जा हट जाती है, वहां शीतल हो जाता है।
इसीलिए चिकित्सक तो कहेंगे कि यह आदमी बीमार है। अगर पैर ठंडा हो, तो चिकित्सक तो कहेगा कि यह आदमी बीमार है। खतरा तो है ही! खतरा इसलिए है कि इसकी जीव-ऊर्जा अब शरीर के बाहर निकलने के करीब है, यह मर सकता है।
बायोलाजिकली, जीवशास्त्र के हिसाब से पैरों का ठंडा होना स्वास्थ्यप्रद नहीं है। वह स्वास्थ्य में खराबी का सूचक है। ठीक भी है, क्योंकि अगर शरीर को जिलाना है, तो शरीर तभी तक ठीक से जीता है, जब तक शरीर की वासना नीचे की तरफ बहती हो। जैसे ही वासना ऊपर की तरफ बहने लगती है, वैसे ही शरीर का कोई प्रयोजन नहीं रह गया।
लेकिन इससे आप यह मत समझ लेना कि अगर आपके पैर ठंडे हों, तो आपकी ऊर्जा ऊपर बह रही है। पहले तो चिकित्सक से पूछना। सौ में निन्यानबे मौके तो यह होंगे कि आप सिर्फ बीमार हैं। तो जब मैं कहता हूं कि ज्ञानी के पैर ठंडे हो जाते हैं, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जिनके ठंडे हो जाते हैं, वे ज्ञानी हैं। दि वाइस वरसा इज़ नाट राइट; विपरीत ठीक नहीं है।
और सिर्फ इस ऊर्जा को सिर की तरफ प्रवाहित करने के लिए शीर्षासन का इतना गहरा प्रयोग किया गया, और कोई प्रयोग का मूल्य नहीं है। इसलिए जो बहुत कामातुर हैं, अगर वे शीर्षासन करें, तो उन्हें थोड़ा लाभ होगा, क्योंकि उनकी थोड़ी-सी ऊर्जा सिर की तरफ बहनी शुरू हो जाती है। इसलिए कामवासना से पीड़ित व्यक्ति को शीर्षासन लाभ पहुंचा सकता है। लेकिन क्षणिक ही, क्योंकि कितनी देर सिर के बल खड़े रहिएगा! आखिर पैर के बल खड़े होंगे, ऊर्जा फिर बहनी शुरू हो जाएगी।
पहला तो विभाजन यह समझ लें कि काम-केंद्र से नीचे की तरफ बहती ऊर्जा, दक्षिणपथ है आपके भीतर के सूर्य का। और अगर मरते क्षण में भी आपकी ऊर्जा पैरों की तरफ बह रही हो काम-केंद्र से, तो फिर आप पुनर्जन्म से मुक्त नहीं हो सकते। लेकिन अगर ऊर्जा आपकी ऊपर बह रही हो, ऊर्ध्वमुखी हो, तो आप मुक्त हो सकते हैं।
इसलिए उत्तरायण के छः माह, इसका प्रतीक अर्थ आप समझ लेना। उत्तरायण के छः माह अर्थात आपके जीवन का जो आधा हिस्सा है आपकी देह का, उसकी ओर इशारा है। इसका इशारा एक और भी है कि आदमी अगर सत्तर साल जीता है या सौ साल जीता है, अगर सौ साल जीता है, तो पचास साल समय में हम रेखा खींच लें। तो पचास साल तक माना जा सकता है कि उसकी ऊर्जा नीचे की तरफ बहती रहे। लेकिन आने वाले पचास साल में भी अगर नीचे की तरफ बहे, तो वह आदमी आत्मघाती है, वह अपने जीवन को व्यर्थ कर रहा है; उत्तरायण उसके जीवन का शुरू हो जाना चाहिए।
इसलिए हमने जो आश्रम बांटे थे चार, पचास के साथ उत्तरायण शुरू होता था। पचासवें वर्ष में व्यक्ति को वानप्रस्थ हो जाना चाहिए। पच्चीस साल घर में ही रहे, लेकिन ऊर्जा को अब ऊपर ले जाने में संलग्न हो। और जिस दिन पचहत्तर साल की उम्र में वह पाए कि अब ऊर्जा ऊपर जाने में समर्थ हो गई, तब वह घर छोड़ दे और अब समग्र रूप से ऊर्ध्वगामी हो जाए, वह संन्यस्त हो जाए।
अगर आज हम ऐसा समझें कि सत्तर साल उम्र है, तो पैंतीस साल के बाद काम ऊर्जा, जीवन ऊर्जा को उत्तरायण पर जाना चाहिए। अगर पैंतीस साल में आपकी काम ऊर्जा का उत्तरायण शुरू नहीं होता, तो मरते वक्त तक आप उत्तरायण में पहुंच नहीं पाएंगे, दक्षिणायण में ही मृत्यु होगी।
यह दूसरा विभाजन समझ लें। और इसके बाद एक-एक प्रतीक को समझ लें। उन प्रतीकों से भी बड़ी भूल हुई।
उन दो प्रकार के मार्गों में, जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, दिन है, तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण का अर्ध वर्ष है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं।
अग्नि, ज्योति, दिन और शुक्ल पक्ष चार शब्दों का प्रयोग किया है। न अग्नि से मतलब है, न ज्योति से, न दिन से, न शुक्ल पक्ष से, फिर भी मतलब है, क्योंकि वे प्रतीक आपको क्रमशः कुछ समझाने में सहयोगी होंगे।
अग्नि में ईंधन भी होगा, अग्नि भी होगी, लेकिन उत्ताप भी होगा। ज्योति में ईंधन नहीं--यह प्रतीक है--ईंधन नहीं, धुआं नहीं, उत्ताप भी कम हो जाएगा। अग्नि केआटिक होती है, उसकी लपटें कहीं भी दौड़ती रहती हैं। ज्योति में लपट थिर हो जाएगी और एक बन जाएगी। अग्नि अनेक लपटों वाली होगी, ज्योति एक लपट वाली होगी और एक यात्रा पर संलग्न हो जाएगी।
दिन! दिन और भी उदार हो गया। अब लपट भी नहीं है, केवल प्रकाश है। अगर दिन को ठीक पहचानना हो, तो उस समय को दिन समझें, जब सुबह रात जा चुकी होती है और सूरज नहीं निकला होता है, तब जो आलोक फैला होता है चारों ओर, वही दिन है। फिर तो सूरज आ जाता है, तो सूरज के आने से गहन अग्नि का प्रभाव शुरू हो जाता है, उत्ताप शुरू हो जाता है। सुबह जब भोर के समय में जब रात जा चुकी और दिन, सूर्य वाला दिन अभी नहीं आया, तो बीच में जो एक संध्या का क्षण है, जब सिर्फ प्रकाश होता है, जिस प्रकाश में उत्ताप नहीं होता, वही दिवस है, वही दिन है।
ज्योति में ताप तो होगा ही, दिन में ताप भी खो जाता है। वह भी प्रकाश का ही एक रूप है, लेकिन क्रमशः प्रकाश जो है नान-वायलेंट होता चला जाता है, अहिंसक होता चला जाता है। लेकिन उसमें भी पूरी शीतलता नहीं होती, क्योंकि सूरज कहीं निकट ही छिपा होता है और जल्दी ही आने के करीब होता है। सच तो यह है कि वह होता ही इसलिए है कि सूरज आ चुका होता है क्षितिज के बिलकुल निकट; प्रकट नहीं हुआ होता, लेकिन उसकी मौजूदगी इतने निकट होती है, इसलिए प्रकाश फैल जाता है। तो कहीं थोड़ा-सा ताप तो उसमें छिपा ही होगा। वह ताप भी चला जाए, तो फिर शुक्ल पक्ष, जैसी कि चांद की रात होती है। सूरज बहुत दूर है, गर्मी का कोई सवाल नहीं। अब प्रकाश भी है और परम शीतल भी।
जो व्यक्ति अपनी ऊर्जा को काम-केंद्र से ऊपर की तरफ यात्रा पर ले जाता है, तो पहला अनुभव उसे अग्नि का होता है। जो व्यक्ति अपनी सेक्स एनर्जी को बायो-एनर्जी को ऊपर की तरफ ले जाता है, पहला अनुभव अग्नि का होता है। वह अनुभव, जस्ट लाइक फायर, बहुत उत्ताप का होता है। काम-केंद्र बिलकुल जल उठता है, लपटें भर जाती हैं। लेकिन अगर वह साहस रखे और जल्दी न करे, और इन लपटों से मुक्त न होना चाहे, क्योंकि मुक्त होने का वह एक ही रास्ता जानता है कि इनको बहिर्गमन कर दे, इनको नीचे की यात्रा पर चला जाने दे।
तो पश्चिम में जहां कामवासना के संबंध में कम से कम समझ है और ज्यादा से ज्यादा आकर्षण है, वहां वे समझते हैं कि कामवासना का उपयोग वैसा ही है, जैसे कि कोई आदमी छींक का उपयोग करता है। बस, इससे ज्यादा नहीं। समथिंग लाइक ए रिलीफ। कुछ भीतर बेचैनी है, उसको फेंक देना है बाहर, छुटकारा हो। काम ऊर्जा का कोई विधायक अर्थ भी हो सकता है, काम ऊर्जा रूपांतरित हो सकती है, या काम ऊर्जा परम अनुभव की तरफ ले जा सकती है, इसकी पश्चिम में कोई दृष्टि नहीं है।
पूरब में भी वह बात फैलती चली जाती है। लोग कामवासना को भी ऐसा ही समझते हैं कि जैसे शरीर से और मल फेंक देने हैं, वैसे ही कामवासना भी शरीर की शुद्धि का एक उपाय है। शरीर के हल्के कर लेने का, तनाव को विसर्जित कर देने का; एक रिलीफ, छींक जैसे आ जाए, बस ऐसे।
अगर जल्दी न की और काम-केंद्र पर जब शक्ति ज्यादा इकट्ठी होती है, तो अग्नि बढ़नी शुरू होती है, क्योंकि ऊर्जा जो काम-केंद्र पर इकट्ठी होती है, वह बहुत संक्षिप्त रूप में सूर्य से ही उपलब्ध हुई है। और एक छोटा-सा सूर्य सेक्स सेंटर पर निर्मित हो जाता है, एक बहुत छोटा बिंदु गहन अग्नि का। अगर जल्दी की, तो वह नीचे बिखर जाता है। अगर जल्दी न की, उसे सहने की हिम्मत रखी, और राजी रहे कि जो कुछ भी हो, लेकिन यात्रा ऊपर की ही करनी है और इस ऊर्जा को ऊपर ही ले जाना है, और ऊपर, और ऊपर, तो बहुत शीघ्र वह जो सूर्य की तरह गोल बिंदु था, एक लपट बन जाता है। वह जो अग्नि थी, वह एक लपट बन जाती है, एक ज्योति, जैसे दीए की ज्योति ऊपर की तरफ भागती हो, वैसी ज्योति बन जाती है। इस ज्योति के बनते ही परम आनंद अनुभव होता है, क्योंकि ताप कम हो जाता है। दहकता अंगारा पिघल जाता है और ज्योति बन जाता है।
लेकिन इस ज्योति में भी ताप तो है ही, इस ज्योति में भी हलन-चलन तो है ही, मूवमेंट तो है ही, चंचलता तो है ही। और कोई भी हवा का झोंका, वासना का तीव्र झोंका हो, तो इस ज्योति को भी नीचे ले जा सकता है। अगर और संयम रखा और धैर्य रखा, तो यह ज्योति दिन की तरह हो जाती है। जैसे सुबह सूरज नहीं निकला, रात जा चुकी, तारे छिप गए और आकाश में भी सूरज का कोई पता नहीं, और दिग-दिगंत सिर्फ सुबह के प्रकाश से भर गए हों, बहुत आलोक से। जरा भी उत्ताप नहीं। यह लपट बहुत शीघ्र ही जैसे और ऊपर उठती है, आलोक बन जाती है।
लेकिन अभी फिर भी इसमें लपट का थोड़ा-सा हिस्सा है। ज्योति ही बिखरकर बनती है आलोक, तो ज्योति के कण इसमें मौजूद होते हैं। इसमें थोड़ा उत्ताप अभी भी है। बहुत न्यून, लेकिन अभी भी। हम इतना ही कह सकते हैं कि इसमें उत्ताप नहीं है, निगेटिवली। अभी यह नहीं कह सकते कि यह शीतल हो गया है। अभी रूपांतरण पूरा नहीं हुआ। रूपांतरण तो तब पूरा होता है, जब हम और धैर्य रखते हैं।
और ध्यान रहे, इस तीसरे क्षण में धैर्य की सर्वाधिक जरूरत पड़ती है साधक को। अग्नि को सह लेना उतना कठिन नहीं है। इसलिए कठिन नहीं है कि पीड़ा तो बहुत होती है अग्नि में, लेकिन अग्नि से ऊब पैदा नहीं होती। उसमें बड़ी उत्तेजना है। उत्तेजना के साथ हम जी सकते हैं ज्यादा। लपट के साथ, ज्योति के साथ भी जी लेना बहुत कठिन नहीं है। उसमें भी चंचलता होगी। और चंचलता में मन ज्यादा जी लेता है, क्योंकि बदलाहट बनी रहती है। लेकिन जब दिवस होता है, तीसरी घड़ी आती है और दिन के जैसा प्रकाश रह जाता है, तो बहुत बोर्डम पैदा होती है। इसलिए इस तीसरी अवस्था में अक्सर साधक एकदम उदास हो जाता है, उदासीन हो जाता है, सब तेजस्विता खो जाती है।
अग्नि के क्षण में साधक बहुत तेजस्वी मालूम पड़ता है, अंगार जैसा मालूम पड़ता है। ज्योति के समय वह तेजस्विता कम होती, लेकिन फिर भी उत्तप्ता होती है, ज्योति होती है। लेकिन तीसरे क्षण में ज्योति भी खो जाती है और एक गहन उदासी भी पकड़ ले सकती है। ऊब भी पकड़ती है, क्योंकि कुछ बदलाहट नहीं होती, कहीं कोई कंपन भी नहीं होता, सिर्फ खाली प्रकाश रह जाता है। इस समय धैर्य की बहुत जरूरत है।
धैर्य की जरूरत सदा ही अंतिम क्षणों में ज्यादा होती है, क्योंकि मन उसी वक्त ज्यादा बेचैन करता है। अभी भी वापस लौटा जा सकता है, क्योंकि ताप अभी भी मौजूद है, जो फिर से सेक्स एनर्जी बन सकता है। जब तक ताप है, जब तक हीट है...।
इसलिए हम जानवरों को तो कहते हैं जब वे कामवासना से भरे होते हैं, तो हम कहते हैं, ऑन हीट। आदमी भी जब कामवासना में भरा होता है, तो ऑन हीट, तप्त होता है।
तो जब आप कामवासना से भरते हैं, तो पूरा शरीर तप्त हो जाता है। सारा शरीर ईंधन बन जाता है। पसीना आ जाता है, हृदय की धड़कनें बढ़ जाती हैं। श्वास गरम हो जाती है, शरीर से बदबू निकलनी शुरू हो जाती है। सब भीतर आग पर जाता है।
अभी भी, दिन से भी वापस गिरा जा सकता है, क्योंकि ताप अभी भी बिखर गया है, लेकिन मौजूद है; डिफ्यूज्ड है, लेकिन है; अभी फिर से इकट्ठा होकर वापस लौट सकता है। अगर अभी भी धैर्य रखा, शांति रखी और साधना ऊर्ध्वगमन की जारी रखी, तो अंतिम घटना घटती है। वह ऐसा हो जाता है भीतर प्रकाश, जैसा शुक्ल पक्ष में होता है।
लेकिन शुक्ल पक्ष क्यों कहा? पूर्णिमा ही कह देते। पूरे पक्ष को कहने की क्या जरूरत पड़ी?
पड़ी, क्योंकि पहले दिन एकम के चांद जैसी ही घटना घटती है। और जैसे चांद पंद्रह दिनों में पूरा होता है, ऐसे ही पंद्रह स्टेजेज में यह चौथी घटना पूरी होती है। और जिस दिन पूर्णिमा हो जाती है भीतर, पूरे चांद की रात जैसी शीतलता हो जाती है। उस क्षण में अगर मृत्यु हो जाए, तो बुद्धत्व प्राप्त होता है, तो ब्रह्म की उपलब्धि होती है।
बुद्ध के संबंध में कथा है कि उनका जन्म भी पूर्णिमा के दिन हुआ। उनको पहली महासमाधि, पहली संबोधि, पहला बुद्धत्व भी पूर्णिमा के दिन मिला। और उनका महापरिनिर्वाण, उनकी मृत्यु भी पूर्णिमा के दिन हुई। जरूरी नहीं है कि हिस्टारिकली सही हो, ऐतिहासिक रूप से जरूरी नहीं है कि सही हो। हो भी सकता है संयोग से, लेकिन इसका ऐतिहासिक मूल्य नहीं है। इसका मूल्य तो इस भीतर के शुक्ल पक्ष के लिए है। इस भीतर के शुक्ल पक्ष के लिए है।
इस चौथी अवस्था के ठीक वैसे ही पंद्रह टुकड़े किए जा सकते हैं, जैसे बढ़ते हुए चांद के होते हैं। और जब कोई व्यक्ति पूर्णिमा की स्थिति में गुजरता है, पूर्णिमा की स्थिति में विदा होता है इस पृथ्वी से, तो उसके लौटने का कोई उपाय नहीं होता। और उत्तरायण के छः माह, वे ही उत्तरायण के छः माह हैं।
इसे एक तरफ से और खयाल में ले लें, क्योंकि ये प्रतीक जटिल हैं, और बहुसूची हैं, और बहुअर्थी हैं।
मनुष्य के सात चक्र हैं। अगर हम काम-केंद्र को, सेक्स सेंटर को एक पहला चक्र मान लें, तो बाकी फिर छः चक्र और रह जाते हैं। सेक्स सेंटर को, मैंने कहा, हम भूमध्य रेखा मान लें, तो उसको चक्र गिनने की जरूरत नहीं। फिर छः चक्र रह जाते हैं, वे छः माह हैं। ठीक वैसे ही छः चक्र काम सेंटर के नीचे भी होते हैं, लेकिन उनकी चर्चा ज्ञानियों ने नहीं की, क्योंकि उनका कोई प्रयोजन नहीं है। तो अगर हम इन छः की संख्या को ध्यान में रखें, तो भी उत्तरायण के छः माह हमारे खयाल में आ जाएगा।
यदि ऐसी घटना घटे--और ऐसी घटना घटती है--जब भीतर पूर्णिमा की स्थिति आ जाती है चार अग्नि की यात्राओं को पार करके, ठीक उसी समय छः माह को पार करके सहस्रार पर, छः चक्रों को पार करके सहस्रार पर भी चेतना पहुंच जाती है।
सहस्रार पर हो चेतना और पूर्णिमा जैसा प्रकाश हो, तो ब्रह्म की उपलब्धि होती है। उस क्षण में मर जाने से ज्यादा बड़ा सौभाग्य और कोई भी नहीं है। उस क्षण में जीना भी सौभाग्य है, उस क्षण में मरना भी सौभाग्य है। उस क्षण में कुछ भी घटित हो, तो सौभाग्य है। यह भी जान लें कि वहां से वापसी नहीं है। ब्रह्म से नहीं, ब्रह्म से तो वापसी नहीं है; इस अवस्था से भी वापसी नहीं है।
बुद्ध को ज्ञान तो हुआ मृत्यु के चालीस साल पहले, महावीर को भी कोई बयालीस साल पहले हुआ।
लेकिन जिस दिन ज्ञान हुआ, उसी दिन शुक्ल पक्ष पूरा हो गया, उसी दिन उत्तरायण का सूर्य अपनी पूरी स्थिति पर पहुंच गया। उस दिन से नीचे लौटना बंद हो गया, लेकिन मृत्यु तो चालीस साल बाद घटित हुई।
इसलिए बौद्धों ने अच्छा शब्द चुना है। जिस दिन बुद्ध को बुद्धत्व मिला, मरने के चालीस साल पहले, उसे वे कहते हैं, निर्वाण। उस दिन एक अर्थ में तो मृत्यु हो गई, क्योंकि अब कोई वापसी नहीं है। फिर जिस दिन वस्तुतः मृत्यु हुई, शरीर छूटा, उसे वे कहते हैं, महापरिनिर्वाण। जहां तक भीतर का संबंध है, शरीर उसी दिन छूट गया, जहां तक बाहर का संबंध है, जगत के जानने का, वह चालीस साल बाद छूटा। लेकिन इन चालीस सालों में भीतर समय ने एक क्षण भी गति नहीं की। इन चालीस सालों में बाहर की घड़ी समय बताती रही। दिन आए, रातें आईं। समय बीता, वर्ष बीते, माह बीते। चालीस वर्ष बीते। लेकिन भीतर की घड़ी उस दिन के बाद फिर नहीं चली। भीतर फिर एक क्षण भी नहीं बीता।
बुद्ध से मरने के दिन ही कोई पूछता है--महाकाश्यप पूछता है बुद्ध से--कि आज आप खो जाएंगे मृत्यु में, हम सब का क्या होगा? बुद्ध ने कहा, मुझे खोए काफी समय हो चुका है। मैं तुम्हें जो दिखाई पड़ता था, वह छाया मात्र था। उसमें मेरा होना, न होना, बराबर था। मैं मर चुका हूं उसी दिन। जिस दिन मैंने जाना स्वयं को, उसी दिन मर चुका हूं। महाकाश्यप ने पूछा, फिर आप इतने दिन जीए कैसे? अगर वासना नहीं रही, तृष्णा नहीं रही, और आप कहते हैं, मैं मर चुका हूं, तो इतने दिन आप जीए कैसे? खाते थे, पीते थे, चलते थे। हमने अपनी आंखों देखा है! बुद्ध ने कहा, बाहर; लेकिन भीतर न मैंने खाया, न मैं चला। भीतर मैंने कुछ भी नहीं किया। महाकाश्यप पूछता है, लेकिन बाहर तो किया? बाहर भी क्यों किया अगर सब समाप्त हो गया है? तो बुद्ध कहते हैं, बाहर करने का कारण है। पिछले जन्मों में इस शरीर की जितनी उम्र मैंने लगाई थी, उस उम्र के पूर्व ही भीतर की घटना घट गई, उतनी उम्र पूरी होगी। यह शरीर तो अपनी विधि को पूरा करेगा।
यह करीब-करीब वैसे ही है, जैसे एक आदमी साइकिल चला रहा है और पैडल मारता चला जाता है। जब तक पैडल चलता है, साइकिल चलती है। पैडल रोक देता है, तब भी साइकिल एकदम नहीं रुक जाती। दस, पचास, सौ, दो सौ कदम चलती चली जाती है--मोमेंटम, त्वरा के कारण। इतनी देर तक पैरों से जो पैडल मारा है, तो हर पैडल साइकिल को चलाता ही नहीं, हर पैडल की कुछ शक्ति बच जाती है, इकट्ठी हो जाती है; और जब आप पैडल रोकते हैं, तो वह अर्जित, रिजर्वायर शक्ति, जो कुछ इकट्ठी हो गई है, वह थोड़ी दूर तक चला देती है।
एक बहुत मजे की घटना इस संबंध में आपसे कहूं।
बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो वे पैंतीस साल पार कर चुके थे। जिन लोगों को पैंतीस साल के बाद, जीवन की मध्य रेखा के बाद ज्ञान होता है, वे काफी देर तक जिंदा रह जाते हैं। क्यों? इसे ऐसा समझें कि आप साइकिल पर पैडल मार रहे हैं। अगर आप चढ़ाव पर पैडल मार रहे हैं, तो आपके पैडल रोकते ही साइकिल दो-चार कदम चल जाए, तो बहुत है, क्योंकि चढ़ाव है। अगर उतार पर पैडल मार रहे हैं, तो आपके पैडल रोक लेने पर भी साइकिल काफी चल सकती है।
इसलिए अक्सर ऐसा हुआ कि जिन लोगों को पैंतीस साल के बाद ज्ञान हुआ, वे तीस-चालीस साल और जी सके--बुद्ध या महावीर। लेकिन जिन लोगों को पैंतीस साल के पहले ज्ञान हो गया, वे ज्यादा नहीं जी सके--शंकर या क्राइस्ट या और इस तरह के लोग। जिनको भी पहले ज्ञान हो जाएगा, तो फिर साइकिल चलानी बड़ी मुश्किल बात है। चढ़ाव पर अति कठिन है। और अगर चलानी हो, तो बहुत उपाय करने पड़ेंगे।
रामकृष्ण को भी ज्ञान पैंतीस के पहले ही हो गया और बड़ी मुश्किल थी उनको। जितने दिन वे जिंदा रहे, वह बहुत मुश्किल काम था। और शायद बहुत कम लोगों ने उस तरह की चेष्टा की है। रामकृष्ण कुछ चीजों में अपना लगाव बनाए रखते थे। लगाव--जानकर, कोशिश करके। भोजन में उनका बहुत लगाव था। कोई सोच भी नहीं सकता था कि उस हैसियत का व्यक्ति, और दो-चार बार चौके में न पहुंच जाता हो और पूछता हो कि क्या बना है! शारदा, उनकी पत्नी उन्हें कहती थी कि परमहंसदेव, तुम्हारा चौके में बीच-बीच में उठकर आकर पूछना बड़ा अशोभन मालूम पड़ता है। लोग क्या सोचते होंगे! सत्संग चलता है, ब्रह्मचर्चा चलती है; अचानक रोककर कि मैं अभी आया, आप चौके में चले आते हैं! जो बैठे हैं, वे क्या नहीं सोचते होंगे?
रामकृष्ण हंसते थे और टाल देते थे, क्योंकि कुछ बातें हैं, जिनके जवाब नहीं दिए जा सकते हैं। नहीं दिए जा सकते हैं इसलिए नहीं कि नहीं दिए जा सकते। नहीं दिए जा सकते इसलिए कि जिसको दिए जाने हैं, वह उनको बिलकुल ही न समझ पाएगा।
लेकिन शारदा पीछे ही पड़ी रही। एक दिन रामकृष्ण ने कहा कि तू नहीं मानती है, तो मैं तुझे कहता हूं। मेरी नाव ने किनारे से सब तरह की रस्सियां खोल ली हैं अपनी, लेकिन एक खूंटी से मैं अपने को बांधे रखना चाहता हूं, उन लोगों के लिए जिनकी मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। मैं उनसे कह दूं, जो मैं कहना चाहता हूं; और फिर मैं अपनी नाव को खोल दूं पूरा, ताकि मैं अपनी यात्रा, मैं अपनी महायात्रा पर निकल जाऊं। तो मैं इस भोजन में इतना लगाव रखता हूं, सिर्फ इसलिए कि एक खूंटी गड़ी रहे शरीर के साथ, अन्यथा यह इसी वक्त गिर सकता है।
तो शारदा से रामकृष्ण ने कहा कि अब मैं तुझे बता देता हूं--तू नहीं मानती, इसलिए तुझे बता देता हूं--जिस दिन मैं भोजन में रस न लूं, समझ लेना कि मेरी मृत्यु निकट है और उसके तीन दिन बाद मैं मर जाऊंगा; ठीक तीन दिन बाद।
शारदा ने उस दिन तो गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन एक दिन वह घड़ी आ गई। रामकृष्ण बिस्तर पर लेटे थे और उस दिन उठकर चौके में नहीं आए थे। शारदा थोड़ी बेचैन भी हुई; क्योंकि कितना ही समझाओ, वे नहीं मानते थे। बीमार भी हों, तो उठकर आते थे। आज नहीं आए पता लगाने कि क्या बना है। शारदा थाली लेकर कमरे में आई, तो रामकृष्ण ने थाली देखकर करवट बदल ली।
शारदा के हाथ से थाली छूट पड़ी। उसे याद आया कि उन्होंने कहा था कि जिस दिन मैं भोजन में अरुचि दिखाऊं, उस दिन समझना कि बस, अब आखिरी दिन करीब है; तीन दिन और बाकी रहे। और ठीक तीन दिन बाद रामकृष्ण की मृत्यु हुई।
तो अगर चढ़ाव पर हो, तो बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन बुद्ध और महावीर दोनों उतार पर थे, इसलिए चालीस-बयालीस साल दोनों जीए, अनुभव के बाद। लेकिन वह पुराना मोमेंटम है, जन्मों-जन्मों के कदमों की ताकत है। और जब भी किसी व्यक्ति को पैंतीस साल के पहले अनुभव हो जाता है, तो बड़ी अड़चन हो जाती है। और जिनके लिए वह रुकता है, वे ही हजार अड़चनें खड़ी करते हैं कि आपने ऐसा क्यों किया, आप ऐसा क्यों करते हैं! वह कहीं किनारे पर अपनी खूंटियां गाड़कर रखना चाहता है, शायद किसी प्रतीक्षा में।
इस क्षण में दक्षिणायण उत्तरायण; और अग्नि बन गई हो पूर्णिमा का प्रकाश, जब इन दोनों का मिलन होता है, उसी क्षण पीछे लौटना असंभव है, वह प्वाइंट आफ नो रिटर्न है। वह जगह आ गई जहां से वापस नहीं हुआ जा सकता, जिसके आगे नहीं जाया जा सकता और आगे ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
आज इतना ही।


2 टिप्‍पणियां:

  1. अध्याय 8 के 23 और 24 श्लोक के ओशो का जो दिव्य दर्शन हुए हैं वह सच में दिव्यातीदिव्य हैं | उत्तरायण मार्ग या शुक्ल गति क्या हैं,उसकी देशना क्या हैं,आंतरिक अर्थ की सूक्ष्मता प्रधान हैं ना की बाह्य-स्थूल-जटिल अर्थ जो जनमानस प्रचलित हैं | सच में हम आज तक यह प्रचलित बाह्य -स्थूल-जटिल अर्थ ही समजते रहे हैं | ओं मेरे प्यारे ओशो ! आपको शत कोटि- कोटि प्रणाम |🙏🌹🙏🌹🙏

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