प्रश्न-सार
01-क्या
प्रत्येक
व्यक्ति का मज्झिम
निकाय अलग है?
02-छोटी
सी भूल के
चलते बड़ा पतन
कैसे संभव है?
03-क्या
संत लोगों को
बदलना नहीं
चाहते?
पहला
प्रश्न:
महावीर, बुद्ध,
लाओत्से, आप, आप
सबके मध्य
अलग-अलग प्रतीत
होते हैं।
क्या हम
सामान्य जनों
के भी मध्य
अलग-अलग होंगे?
मज्झिम निकाय की इस
बात को हमें
समझा दें।
इस बात
को जितनी
गहराई से समझ
लें उतना
साधना में
सहायता
मिलेगी। तब
नकल का तो कोई
उपाय नहीं है।
तब दूसरे का
अनुसरण करना
संभव नहीं है; अनुयायी
बनने की
सुविधा ही
नहीं है। तुम
बस तुम जैसे
हो, और
तुम्हें अपना
रास्ता खुद ही
खोजना होगा। सहारे
मिल सकते हैं,
सुझाव मिल
सकते हैं, आदेश
नहीं। दूसरे
की समझ के
प्रकाश से तुम
अपनी समझ को
जगा सकते हो, लेकिन दूसरे
के जीवन को
ढांचा मान कर
अपने को ढाला
कि मुक्ति तो
दूर, जीवित
भी तुम न रह
जाओगे। तब तुम
एक मुर्दे की भांति
होओगे; एक
अनुकृति, जिसकी
आत्मा खो गई
है।
आत्मा
का अर्थ है
व्यक्तित्व; आत्मा
का अर्थ है
तुम्हारा
अनूठापन; आत्मा
का अर्थ है
तुम्हारी
अद्वितीयता।
इसमें कुछ
अहंकार मत
समझना।
क्योंकि जैसे
तुम अद्वितीय
हो वैसे ही
सभी अद्वितीय
हैं।
अद्वितीयता
सामान्य घटना
है। यह कोई
विशेष बात
नहीं। यह
समझना मत अपने
मन में कि मैं बेजोड़
हूं। तुम ही बेजोड़
नहीं हो, सभी
बेजोड़
हैं। राह के
किनारे पड़ा एक
छोटा सा कंकड़
भी बेजोड़
है। वृक्षों
में लगे
करोड़ों पत्ते
हैं; एक-एक
पत्ता बेजोड़
है। तुम उस
जैसा पत्ता
दूसरा न खोज
सकोगे।
बेजोड़ता
अस्तित्व का
ढंग है। यहां
सभी कुछ अनूठा
है। होना ही
चाहिए।
क्योंकि यहां
पत्ते-पत्ते
पर परमात्मा
का हस्ताक्षर
है। उसका
बनाया हुआ बेजोड़
होगा ही।
तुम्हें भी
वही बनाता।
बुद्ध, कृष्ण,
लाओत्से को
भी वही बनाता।
कंकड़-पत्थरों
को भी वही
बनाता। सभी पर
उसी के निशान
हैं। और जो
उसके हाथ में
पड़ गया वह नकल
थोड़े ही हो
सकता है। जो
उस मूल स्रोत
से आता है वह
उस मूल स्रोत
की
अद्वितीयता
को अपने साथ
लाता है। तुम
अद्वितीय हो,
क्योंकि
परमात्मा
अद्वितीय है।
तुम उससे ही आते
हो। तुम उससे
भिन्न नहीं हो
सकते।
और
तुम्हें अगर
कुछ होना है
तो बस अपने ही
जैसा होना है।
कोई दूसरा न
तो आदर्श है, न
कोई दूसरा
तुम्हारे लिए
नियम है, न
तो कोई दूसरा
तुम्हारा
अनुशासन है।
तुम्हारा बोध,
तुम्हारी
समझ, तुम्हारे
अपने जीवन की
भीतर की
ज्योति को ही
बढ़ाना है।
सहारा लो, साथ
लो; जो
पहुंच गए हैं
उनसे स्वाद लो;
जो पहुंच गए
हैं उनको गौर
से देखो, पहचानो;
पर नकल मत
करो, अनुसरण
मत करो।
अनुयायी
भूल कर मत
बनना।
अनुयायियों
से ही तो संप्रदाय
निर्मित हो गए
हैं। अगर तुम
अनुयायी न बने
तो ही तुम
धार्मिक हो
सकोगे।
अनुयायी बनने
का अर्थ यह है
कि तुमने समझ
को तो ताक पर
रख दिया, अब
तुम अंधे की
तरह पीछे चल
पड़े। अब तुमने
किसी और के
जीवन को अपने
ऊपर ओढ़ लिया।
अब तुमने अपनी
आत्मा को तो
दबाया, और
किसी और के
होने के ढंग को
अपने ऊपर बिठा
लिया
जबरदस्ती।
जबरदस्ती
जरूरी है, क्योंकि
दूसरे का ढंग
दूसरे का ढंग
है। तुम्हें
पता है, अगर
दूसरे का खून
भी तुम्हें
दिया जाए तो
वह भी
तुम्हारे
टाइप का ही
होना चाहिए।
नहीं तो शरीर
उसे भी फेंक
देता है।
तुम्हें पता
है कि अगर
तुम्हारे पैर
पर घाव हो जाए
और चमड़ी लगानी
हो तो
तुम्हारे ही
हाथ की या
शरीर की चमड़ी
निकालनी पड़ती
है। किसी दूसरे
की चमड़ी तुम
लगा दो, वह
लगेगी नहीं।
शरीर उसे
इनकार कर
देगा। जब शरीर
तक इतना चुनाव
करता है तो
आत्मा का तो
कहना ही क्या!
जब शरीर तक
पहचान रखता है
कि जो अपने जैसा
है, जो
मेरा ही है, उसी को
स्वीकार
करूंगा, अंगीकार
करूंगा, तो
आत्मा की तो
अपेक्षा बहुत
बड़ी है, आत्यंतिक
है।
तुम
समझना, सीखना,
देखना, स्वाद
लेना। उसी
स्वाद, समझ
और सीखने से
तुम्हारी
अपनी
अंतर्ज्योति जगने
लगेगी। उस
अंतर्ज्योति
के प्रकाश में
ही तुम पहुंच
सकोगे। दूसरे
का प्रकाश न
कभी किसी को
ले गया है, न
ले जा सकता
है। वह दूसरे
का है। वह
कितना ही प्रकाशित
मालूम पड़े, उससे अंधकार
नहीं मिटेगा।
यह बात समझ
में आ जाए तो
फिर मैं जो
बहुत सी बातें
कह रहा हूं वे
तुम्हारे
सामने साफ हो
जाएंगी।
हालांकि
तुमने बहुत
चाहा होगा कि
कोई सुगमता से
सूत्र दे दे, बता
दे कि यह करो।
तुम इतने
काहिल, सुस्त,
आलसी हो कि
तुम जीने के
संबंध में भी
किसी दूसरे की
लीक पर चलना
पसंद करोगे।
कौन झंझट में
पड़े सोचने के?
विचार का
उपद्रव कौन ले?
इतना भी
बुद्धि को कौन
लगाए? कोई
बता दे मार्ग,
हम चल पड़ें।
तुम यह
मत समझना कि
यह तुम्हारी
श्रद्धा से हो
रहा है। नहीं, यह
तुम्हारे
प्रमाद और
आलस्य से हो
रहा है। तुम
चाहते हो, कोई
हमें झंझट से
बचा दे--सोचने
की, विचारने
की, साधना
की, ध्यान
की। कोई कह दे
सीधा-साधा, यह करो, और
हम कर लें।
जिम्मेवारी
छूट जाए।
तुम
अंधे होने को उत्सुक
हो;
क्योंकि
आंखें खोलने
में पीड़ा होती
है, और समझ
को बढ़ाने में
श्रम लगता है।
समझ मुफ्त नहीं
मिलती। और
सत्य की खोज
पूरे जीवन को
एक क्रांति से
गुजारना है, एक अग्नि से
गुजारना है।
तुम
चाहोगे दूसरे
की बुझी राख
में लोटना।
तुमने देखे
हैं,
अनेक भभूत
लगाए बैठे हुए
हैं सारे
मुल्क में। वे
सब दूसरों की
राख में लोट
कर भभूत लगा
रहे हैं।
दूसरे के द्वारा
लिया गया
आदर्श बुझी
हुई अंगार
जैसा है, राख
है। कभी वहां
अंगार रही
होगी; वह
जा चुकी है।
और जिसके लिए
थी उसके लिए
थी; तुम्हारे
लिए वह अंगार
राख है।
तुम्हें अपने ही
अंगार जलाने
होंगे; अपनी
ही सजानी
पड़ेगी
यज्ञशाला; अपने
ही जीवन का
घृत डालना
होगा।
वह
मंहगा सौदा
लगता है; तुम
सस्ते में
निबटना चाहते
हो। तुम चाहते
हो, हमें
झंझट न करनी
पड़े; कोई
सीधा बता दे
कि ऐसा करो, ऐसा उठो, ऐसे
खाओ, ऐसे
पीओ, ऐसे
चलो। निबटारा
हो जाए; जिम्मेवारी
दूसरे की हो
जाए।
जिम्मेवारी
दूसरे पर मत
टालना, क्योंकि
अंततः
तुम्हीं पूछे
जाओगे। तुमसे
ही पूछा जाएगा;
और कोई
उत्तरदायी
नहीं है।
परमात्मा अगर
पूछेगा तो
तुमसे पूछेगा
कि कहां गंवाए
जीवन? कहां
खोया सारा
अवसर? तब
तुम यह न कह
सकोगे कि हम
दूसरे जैसे
बनने की कोशिश
में लगते रहे।
एक
यहूदी फकीर मर
रहा था, हिलेल। बहुत
अदभुत आदमी
हुआ। मरते
वक्त, मरने
के ठीक एक
क्षण पहले
उसके शिष्यों
ने देखा कि वह
मुस्कुरा रहा
है। एक शिष्य
ने पूछा कि क्यों
मुस्कुरा रहे
हो? उसने
कहा, इसलिए
मुस्कुरा रहा
हूं कि आज
मुझे समझ में
आई बात, अब
जब मरने के
करीब हूं, सारे
जीवन का
लेखा-जोखा कर
रहा हूं, क्योंकि
जल्दी ही जवाब
देना होगा, तो अब मुझे
समझ में आई
बात कि
परमात्मा
मुझसे यह न
पूछेगा कि तुम
मूसा जैसे
क्यों नहीं हो?
क्योंकि
मूसा
यहूदियों का
परम पुरुष, जैसे महावीर,
बुद्ध, कृष्ण,
लाओत्से। हिलेल ने
कहा, परमात्मा
मुझसे यह
पूछेगा ही
नहीं कि तुम
मूसा जैसे
क्यों नहीं हो,
क्योंकि यह
तो वह खुद ही
जानता है कि
उसने मुझे
मूसा जैसा
नहीं बनाया।
इसलिए मूसा
जैसा होने का
सवाल ही नहीं
है। वह मुझसे
पूछेगा, कहां
गंवाए
दिन? कहां गंवाईं
रातें? हिलेल जैसे क्यों
नहीं हुए? हिलेल
उसका खुद का
नाम था। इसलिए
मैं मुस्कुरा
रहा हूं कि यह
तो बड़ा मजा
रहा। हम
जिंदगी भर
मूसा होने की
कोशिश करते
रहे; आखिर
में परीक्षा हिलेल की
होगी।
वह
अपने शिष्यों
को सूचन दे
रहा था। उसने
कहा,
याद रखना, तुमसे भी
परमात्मा यह न
पूछेगा कि तुम
हिलेल
जैसे क्यों
नहीं हो, जब
मुझसे ही नहीं
पूछेगा कि
मूसा जैसे
नहीं। तुमसे
भी पूछेगा कि
तुम जैसे तुम
क्यों नहीं हो।
उत्तरदायित्व
तुम्हारा है,
आत्यंतिक
रूप से
तुम्हारा है।
तब
जटिल हो जाती
है बात थोड़ी।
जटिल इसलिए हो
जाती है कि
तुम कदम भी
नहीं उठाना
चाहते, और
मंजिल घर आ
जाए ऐसा चाहते
हो। अगर तुम
कदम उठाने को
तैयार हो तो
जरा भी जटिल
नहीं, बिलकुल
सरल है।
तुम्हें
अपना ही मध्य
खोजना होगा।
मेरा मध्य मेरा
मध्य है; बुद्ध
का मध्य बुद्ध
का मध्य है।
ऐसा समझो कि रस्सी
लगी है, दो
खाइयों के बीच
रस्सी बंधी है,
और रस्सी पर
से तुम्हें
गुजरना पड़ता
है। हर आदमी
का मध्य
अलग-अलग होगा।
क्योंकि हर
आदमी का वजन
अलग-अलग है।
अगर एक मोटा
आदमी चलेगा उस
रस्सी पर तो
उसे अपने मध्य
को साधना
होगा--अपने वजन
के अनुसार। एक
दुबला आदमी
चलेगा तो उसे
अपना मध्य साधना
होगा--अपने
वजन के
अनुसार। तुम
दूसरे को देख
कर मध्य मत
साधना, अन्यथा
गिरोगे।
क्योंकि
तुम्हें अपने
वजन का ध्यान
रखना है। अपने
को पहचानो।
अपनी अतियों
को देखो।
क्योंकि जो
दूसरे के लिए
अति है, वह
हो सकता है
तुम्हारे लिए
अति हो ही
नहीं। जो
दूसरे के लिए
समस्या है, हो सकता है
वह तुम्हारे
लिए समस्या हो
ही नहीं।
गुरजिएफ
के पास जब भी
कोई शिष्य
जाता था तो गुरजिएफ
कहता था, तू
अपनी सबसे बड़ी
कमजोरी खोज कर
मुझे बता, क्योंकि
उसी पर सब
निर्भर होगा।
जैसे
समझो, एक आदमी
कामी है, कामवासना
से भरा हुआ है;
और एक आदमी
लोभी है। अब
यह समझने जैसी
बात है कि
लोभी अक्सर
कामवासना पर
आसानी से विजय
पा लेता है, बहुत आसानी
से। लोभी के
लिए कामवासना
बहुत बड़ी
कठिनाई नहीं
है, क्योंकि
उसकी सारी
ऊर्जा लोभ में
लग जाती है।
इसलिए
लोभी को न
पत्नी की
फिक्र है, न
बच्चों की
फिक्र है; लोभी
को तो सिर्फ
तिजोरी की
फिक्र है।
पत्नी चली जाए
तो चिंता नहीं
है, बच्चे
न बचें तो
चिंता नहीं है,
घर-द्वार
रहे न रहे, लेकिन
तिजोरी बचे।
चौबीस घंटे
लोभी अपने लोभ
में लगा रहता
है। इसलिए
अक्सर तुम
पाओगे कि लोभी
समाजों में
कामवासना
इतनी क्षीण हो
जाती है कि
बच्चे गोद
लेना पड़ते
हैं। मारवाड़ी
अक्सर बच्चों
को गोद लेंगे।
लोभ खास गहराई
है। तो
कामवासना
क्षीण हो जाती
है। क्योंकि
ऊर्जा तो उतनी
ही है; उस
ऊर्जा को चाहे
लोभ की तरफ
लगा दो, चाहे
काम की तरफ
लगा दो।
अब अगर
कोई लोभी
ब्रह्मचर्य
की बात सुने
तो उसे बिलकुल
सरल है, उसे
कोई कठिनाई ही
नहीं है। वह
कहेगा, हम
पहले से हैं
ही। और ध्यान
रखना, कृपण
को
ब्रह्मचर्य जंचता भी
है, क्योंकि
ब्रह्मचर्य
भी अपनी ऊर्जा
को रोकने की
कृपणता है।
कृपण वैसे ही
जानता है कैसे
चीजों को
रोकना, धन
को कैसे
रोकना। उसे
वीर्य की
ऊर्जा भी धन जैसी
ही लगती है।
कहीं खतम न हो
जाए, कहीं
चुक न जाए, कहीं
नष्ट न हो जाए;
रोक लो, बचा
लो।
चिकित्सक
जानते हैं कि
कृपण आदमी हर
चीज को रोकता
है। कृपण
कब्जियत से भर
जाता है; वह
मल-मूत्र तक
को भी छोड़ता
नहीं। यह बड़ी
हैरानी का
अनुसंधान है
कि
मनोवैज्ञानिक
इस नतीजे पर
पहुंचे हैं कि
जो आदमी भी
कब्जियत का
परेशान हो, उसमें नब्बे
मौकों पर
वह लोभ से
पीड़ित आदमी
होगा। लोभी की
वृत्ति पकड़ने
की हो जाती
है। यह सवाल
ही नहीं कि
क्या पकड़ना
है। छोड़ नहीं
सकता; मल
को भी नहीं
छोड़ सकता।
शरीर उसको भी
भीतर जकड़े
रहता है। उसके
पूरे शरीर की
संरचना पकड़ने
की हो जाती है।
वह वीर्य को
भी पकड़ लेता
है। वह
ब्रह्मचर्य
को आसानी से
उपलब्ध हो
सकता है।
इसलिए
तुम अपने
मंदिर-मस्जिदों
में ऐसे अनेक
लोगों को बैठे
पाओगे, जो
ब्रह्मचर्य
जिनके लिए
आसान है। और
उसका कुल कारण
इतना है कि वे
परम लोभी हैं।
लेकिन
लोभ उनका सवाल
है। उन्हें जो
मध्य साधना है
वह लोभ में
साधना है, काम
में नहीं
साधना है।
कामवासना
से भरा हुआ
आदमी अक्सर
लोभी नहीं होता।
अक्सर
कामवासना से
भरे आदमी के
लिए कृपणता
नहीं पकड़ती।
इसलिए अगर तुम
उससे कहो लोभ
छोड़ने को, वह
बिलकुल तैयार
है। वह छोड़े
ही बैठा है; छोड़ने को
कुछ है ही
नहीं। वह वैसे
ही फेंक रहा
है अपने जीवन
में जो भी है
उसके पास।
व्यर्थ
फेंकने में वह
कुशल है। तुम
उसे इधर दो, उधर वह फेंक
देगा। इधर
पैसे आए, उधर
गए। इधर शक्ति
आई उधर गई।
उसका हाथ खुला
हुआ है। उससे
अगर तुम कहो, ब्रह्मचर्य
साधो, तो
बहुत कठिन।
अगर तुम कहो, अलोभ साधो, अपरिग्रह
साधो, बिलकुल
सरल।
जो
आदमी क्रोधी
है उससे तुम
दया साधने को
कहो तो बहुत
कठिन; उससे
तुम कहो करुणा
करो तो बहुत
कठिन। लेकिन जो
आदमी डरपोक है,
भयभीत है, भयातुर है, वह जल्दी ही
दया साधने को
राजी हो
जाएगा।
इसलिए
तुम जान कर
हैरान होओगे
कि महावीर ने
अहिंसा का
उपदेश दिया, दया
का, करुणा
का, और
सिर्फ बनियों
ने उसे पकड़ा।
क्या कारण
होगा? क्योंकि
बनिया डरपोक
है। उसे यह
बात जंची। उसे
यह बात जंची
कि न हम किसी
से झगड़ा
करेंगे, न
कोई हमसे झगड़ा
करेगा। उसको
दया की बात
जंची कि तुम
दूसरे पर दया
करो, दूसरा
तुम पर दया करेगा,
झंझट पैदा न
होगी। बनिया
झगड़ने से डरता
है। लड़ाई-झगड़ा
खड़ा न हो, इसलिए
बनिया क्रोध
को साध लेता
है। भय को
नहीं साध पाता;
जरा सी चीज
उसे भयभीत
करती है।
अब
सवाल यह है कि
तुम्हें अपना
व्यक्तित्व
खोजना पड़ेगा
कि तुम्हारा
व्यक्तित्व
कैसा है। और
तुम्हारे
व्यक्तित्व
को खोज कर ही
तुम्हें मध्य
खोजना पड़ेगा कि
तुम्हारे
व्यक्तित्व
की क्या
अतियां हैं, उनके
बीच में मज्झिम
निकाय क्या
है। अगर तुमने
अपने
व्यक्तित्व को
न खोजा और तुम
किसी के
अनुयायी बन
गए...।
समझो
कि तुम्हारा
मन तो लोभ का
है और तुमने
पतंजलि का
शास्त्र पढ़ लिया
कि
ब्रह्मचर्य
साधो, तुम्हें
बिलकुल
जंचेगा। तुम
साध भी लोगे।
लेकिन तुम
कहीं न
पहुंचोगे; क्योंकि
वह तुम्हारी
बीमारी न थी।
यह तो ऐसे हुआ
कि बीमारी कुछ
और थी, दवा
कुछ और ले ली।
माना कि दवा
स्वादिष्ट
लगी, इससे
भी क्या होता
है? माना
कि दवा
तुम्हें रास
आई, इससे
भी क्या होता
है? असली
सवाल यह है कि
बीमारी क्या
है।
ठीक-ठीक
निदान
व्यक्ति को
अपनी बीमारी
का कर लेना
जरूरी
है--बीमारी
क्या है? और
बीमारी का
निदान करके
तुम्हें अपनी
अतियां देखनी
हैं कि तुम
किन अतियों के
बीच में भटकते
हो। समझो, एक
आदमी है; वह
या तो ज्यादा खाना
खाता है; दो,
तीन, चार
महीने खूब खाएगा।
ऐसे मित्रों
को मैं जानता
हूं जो
तीन-चार महीने
बिलकुल
खाएंगे कुछ भी;
सब भूल
जाएंगे
नियम-व्यवस्था।
फिर उनका वजन
बढ़ जाएगा। फिर
भारी देह हो
जाएगी। फिर
हृदय पर धड़कन
बढ़ने लगेगी।
फिर कमर में
दर्द होगा।
फिर वे उठ न
सकेंगे। फिर
ये तकलीफें
आएंगी। तब
तत्क्षण वे
दूसरी अति पर
चले जाएंगे:
तब वे उपवास
करने लगेंगे।
या तो तुम
उन्हें ओबेराय
होटल में
पाओगे और या
उरली कांचन
में। पूना में
वे कभी न रुकेंगे।
इसलिए तो
मैंने पूना
बीच में चुना।
मध्य! तुम
उन्हें यहां न
पाओगे। वे
उनकी अतियां
हैं।
और इस
व्यक्ति को
मध्य खोजना है
तो इसे मध्य अपना
समझना
पड़ेगा--सम्यक
आहार! न तो
ज्यादा खाना
उचित है और न
कम खाना उचित
है। ज्यादा
खाना उतनी ही
बड़ी बीमारी है
जितना कम
खाना।
क्योंकि दोनों
ही हालत में
तुम शरीर को
नुकसान
पहुंचाते हो।
सम्यक आहार!
जितना जरूरी
है बस उतना। न
कम,
न ज्यादा; ठीक बीच में
रुक जाना।
अब यह
कौन तुम्हें
बताएगा? क्योंकि
आहार भी लोगों
के
भिन्न-भिन्न
हैं। एक आदमी
श्रम करता है
दिन भर, उसका
आहार
स्वभावतः
ज्यादा होगा।
तुम दिन भर श्रम
नहीं करते, तुम अपनी
कुर्सी पर बैठ
कर काम करते
हो, तुम्हारा
आहार कम होगा।
इसलिए
कोई बंधे नियम
नहीं हो सकते।
तुम्हें ही चल
कर,
सम्हल कर, दोनों
अतियों को
जांच-परख करके,
क्या
तुम्हें रास
आता है, उस
मध्य बिंदु को
खोज लेना
पड़ेगा। कौन सी
जगह है जहां
तुम्हारा पेट
न तो ज्यादा
भरा होता और न
कम भरा होता, यह कौन
तुम्हें बताएगा?
क्योंकि
पेट-पेट अलग
हैं; पेटों
की जरूरतें
अलग हैं।
फिर ये
भी जरूरतें
सदा के लिए एक
सी नहीं हैं। ये
भी रोज बदलती
जाती हैं।
इसलिए तुम यह
भी मत सोचना
कि आज
तुम्हारा जो
मध्य था वह कल
भी मध्य होगा।
जिंदगी सतत
जागरूकता
मांगती है। एक
दफा नियम बना
लिया और फिर जरूरत
न रही, ऐसा मत
सोचना।
क्योंकि
बच्चे की
जरूरत अलग है,
जवान की
जरूरत अलग है,
बूढ़े की
जरूरत अलग है।
तुम्हारे ही
बचपन में तुम्हें
ज्यादा भोजन
की जरूरत थी।
फिर तुम्हारी
जवानी आई। फिर
तुम्हारा बुढ़ापा
आएगा। रोज
जरूरत
बदलेगी।
इसलिए
एक बड़ी समझने
की बात है, लोगों
की मोटाई और
शरीर का वजन
बढ़ना शुरू
होता है कोई
पैंतीस साल की
उम्र के करीब।
कारण क्या है?
कारण सीधा
है। पैंतीस
साल के पहले
तक आदमी शिखर
की तरफ जा रहा
था जवानी के।
उसे ज्यादा से
ज्यादा भोजन
की जरूरत थी।
पैंतीस साल तक
उसने जिस तरह
भोजन किया वह
उसकी आदत बन गई।
अब पैंतीस साल
के बाद जीवन
की गाड़ी तो
उतरने लगी
पहाड़ से नीचे,
उतार शुरू
हो गया। मौत
करीब आने लगी,
बुढ़ापा शुरू हो
गया। और आदत
खाने की उसने
पुरानी जारी
रखी। अब उतना
खाना पचता
नहीं। अब उतने
खाने की शरीर
को जरूरत ही
नहीं, क्योंकि
शरीर अब मरने
की तैयारी कर
रहा है। जब
शरीर जीने की
तैयारी कर रहा
था तब ज्यादा
भोजन की जरूरत
थी। अब तो
मरने की
तैयारी कर रहा
है। अब तो
शरीर को
धीरे-धीरे-धीरे
भोजन को छोड़ने
की तैयारी
करनी है। भोजन
रोज कम होता जाएगा।
इसलिए
पैंतीस और
चालीस साल के
बीच लोगों के
जीवन में
असुविधा आती
है। खाने की
आदत पुरानी है; वे
आदत को जारी
रखते हैं।
जितना खाते थे
उतना ही खाते
हैं। वे कहते
हैं, इतना
हम सदा से
खाते रहे हैं,
और कभी गड़बड़
न हुई; आज
क्यों गड़बड़ हो
रही है? आज
तुम बदल गए
हो। तुम जो
सदा से थे वह
अब तुम नहीं
हो। अब जीवन
उतर रहा है।
अब घाट से
नीचे जा रहे
हो। अब जरूरत
नहीं है इतनी।
इसलिए हार्ट अटैक कोई
चालीस साल के
करीब घटता है।
हृदय पर दौरे पड़ने
शुरू हो जाते
हैं। क्योंकि
तुम इतना बोझ चरबी
का बढ़ा रहे हो
हृदय पर जितना
वह नहीं झेल सकता।
पैंतीस साल के
साथ, तुम्हें
अगर थोड़ी भी
सम्यक
जागरूकता हो,
तो तुम खुद
ही अपने भोजन
को कम करते
जाओगे।
बच्चा
पैदा होता है; बीस
घंटे सोता है।
मां के पेट
में चौबीस
घंटे सोता है।
उसकी जरूरत
उतनी है।
क्योंकि जब
शरीर निर्मित
हो रहा है तो
जागने से
नुकसान होगा।
नींद में शरीर
को निर्मित
होने में
सुविधा होती
है। तुम्हारे
होश के कारण
बाधा पड़ती है।
इसलिए
तो चिकित्सक
कहता है जब
कोई बीमारी हो
तो नींद बहुत
जरूरी है। जब
तक तुम जागे
रहोगे, बीमारी
दूर न हो
सकेगी।
क्योंकि
तुम्हारे जागने
के कारण तुम
शरीर को मौका
नहीं देते कि
वह शांत होकर
अपने को
सुधारने का
काम कर ले।
इसलिए
चिकित्सक
कहता है पहली चीज
कि तुम सो
जाओ। क्योंकि
नींद में ही
शरीर सुधरता
है। क्यों? क्योंकि
जागे में तुम
कुछ न कुछ
खटर-पटर करोगे
ही। वही तो
लाओत्से कहता
है कि करने
वाले बिगाड़
देते हैं, न
करने से सब
सुधर जाता है।
नींद में सब
ठीक हो जाता
है। सुबह तुम
ताजे उठते हो।
क्या है नींद
का मतलब? कि
तुम मौजूद न
थे, खटर-पटर
न कर सके, कुछ
सुधार की
कोशिश न कर
सके, कोई
चिंता न कर
सके। तुम थे
ही नहीं। शरीर
ने अपने को
ठीक जमा लिया।
शरीर तुमसे
छुट्टी चाहता
है थोड़ी देर
को, इसलिए
नींद की जरूरत
है।
बच्चा
चौबीस घंटे
सोएगा मां के
पेट में; पूरा
शरीर बन रहा
है। जवान
सात-आठ घंटे
पर आ जाएगा।
बूढ़ा तीन-चार
घंटे पर रुक
जाएगा, दो
घंटे पर रुक
जाएगा। मेरे
पास बूढ़े आते
हैं। कुछ दिन
पहले कोई
अस्सी साल के
एक आदमी ने
आकर कहा कि और
कुछ भी हो, मुझे
नींद नहीं आती;
नींद की वजह
से मैं परेशान
हूं। पूछा, कितनी देर
सोते हो? उन्होंने
कहा, मुश्किल
से दोत्तीन
घंटे ही सो
पाता हूं। अब
तुम बूढ़े हुए,
अस्सी साल
तुम्हारी उमर
होने को आ रही
है; अब दोत्तीन
घंटे जरूरत से
ज्यादा नींद
है। अब तुम
अगर बच्चे की
तरह बीस घंटे
सोना चाहो, संभव नहीं
है। तुम बच्चे
नहीं हो। अब
तुम जवान की
तरह सात-आठ घंटे
सोना चाहो, संभव नहीं।
लेकिन
बूढ़े की तकलीफ
क्या है? यह
अभी भी सोच
रहा है कि
सात-आठ घंटे
जीवन भर सोता
था, अब
केवल तीन घंटे
सोता हूं; पांच
घंटे कम हो गए,
मुश्किल
बात है! यह यह
देख ही नहीं
रहा है कि तुम
उतार पर आ गए; अब जाने का
वक्त आ रहा
है। अब इतनी
नींद की कोई
जरूरत न रही।
अब तुम्हारे
शरीर में चीजें
टूटती हैं, बनती नहीं
हैं। अब
तुम्हारे
शरीर के सेल
बाहर जा रहे
हैं, निर्मित
नहीं होते। अब
जो भी
तुम्हारे
भीतर टूट जाता
है वह फिर से
नहीं बनता। जब
बनने का काम
ही बंद हो गया
तो नींद की
जरूरत न रही।
अब तो टूटने का
काम शुरू है।
तुम जागे रहो
रात भर तो भी
कोई हर्जा
नहीं है। आदत
लेकिन पुरानी
है कि मैं पांच-सात
घंटे, आठ
घंटे सोता था!
और अब दो घंटे
सोता हूं; बड़ा
बुरा हो रहा
है।
न केवल
तुम दूसरे का
अनुसरण नहीं
कर सकते हो, तुम
अपने भी बनाए
नियम को सदा
के लिए नहीं
बना सकते।
जीवन रोज-रोज
तौलना पड़ता
है। रोज स्थिति
बदल जाती है।
कभी तुम
स्वस्थ हो, तब तुम
ज्यादा श्रम
करते हो। कभी
तुम बीमार हो,
तब तुम
ज्यादा
विश्राम करते
हो। तुम्हें
चौबीस घंटे
अपनी नब्ज पर
हाथ रखे रहना
पड़ेगा। तभी
तुम सम्यक हो
पाओगे। नब्ज
पर हाथ रखे
रहने की इस
कला का नाम ही
जागरूकता है।
जैसी स्थिति
हो उस स्थिति
के अनुकूल
तुम्हारी
प्रतिसंवेदना
हो, रिस्पांस हो। कोई
बंधी हुई लकीर
पर चलने से
कभी लाभ नहीं
होता; क्योंकि
लकीर तो बंधी
हो सकती है, लेकिन तुम
रोज बदल रहे
हो।
यह तो
ऐसे हुआ कि एक
छोटे बच्चे के
लिए कपड़े बनाए
थे और जिंदगी
भर पहनाए।
अब वह छोटा सा
पैंट पहने फिर
रहा है; बेहूदा
लग रहा है। चल
भी नहीं सकता,
क्योंकि
पैंट छोटा है,
शरीर बड़ा
है। तुम रोज
कपड़े बनाओगे,
रोज बदलने
पड़ेंगे। बंधी
लकीरों से
नहीं। लकीर के
फकीर मत बनना।
बोध ही
तुम्हारा
नियंता हो।
इसलिए दूसरा
तो तुम्हारे
लिए तय कर ही
नहीं सकता, तुम खुद भी
अपने लिए
सदा-सदा के
लिए तय नहीं
कर सकते।
तो मैं
तुम्हें एक ही
अनुशासन देता
हूं;
वह अनुशासन
होश का है।
मैं तुम्हें
एक ही नियम
देता हूं कि
तुम जाग कर
जीना। बस काफी
है। जब जैसी
जरूरत हो तब
तुम वैसे हो
जाना, ढल
जाना। तुम
लड़ना मत
परिस्थिति से;
तुम
परिस्थिति के
अनुसार बह
जाना। बुढ़ापे
में जवान होने
की कोशिश मत
करना; जवानी
में बूढ़े होने
की कोशिश मत
करना। बचपन में
बच्चे रहना; स्वास्थ्य
जब हो तब
स्वास्थ्य के
अनुसार चलना।
सिर्फ
आदमी को छोड़
कर सभी पशु
प्रतिपल अपनी
संवेदना को
सम्हालते
हैं। अगर
तुम्हारा
कुत्ता भी
बीमार है, खाने
से इनकार कर
देगा। लेकिन
बीमारी में भी
तुम खाए चले
जाते हो।
तुम्हें इतना
भी बोध नहीं
है जितना
तुम्हारे
कुत्ते को है।
अगर कुत्ता बीमार
अनुभव कर रहा
है, फौरन
जाकर घास खाकर
वमन कर देगा, उलटी कर
देगा। क्यों?
क्योंकि जब
शरीर रुग्ण है
तब जरा सा भी
भोजन शरीर में
घातक है। जब
शरीर रुग्ण है
तो सारी शरीर
की ऊर्जा शरीर
को ठीक करने
में लगनी
चाहिए, भोजन
के पचाने में
नहीं।
क्योंकि यह
इमरजेंसी है,
यह घटना
संकटकालीन
है। भोजन अभी
नहीं दिया जा सकता,
क्योंकि
भोजन को पचाने
में बड़ी शक्ति
लगती है।
इसीलिए
तो जब तुम
भोजन करते हो
तो तत्क्षण
नींद आने लगती
है भोजन के
बाद। क्योंकि
मस्तिष्क जिस
शक्ति से काम
करता था वह
शक्ति भी पेट
ने वापस बुला
ली। पेट ने
कहा कि अभी
पचाना जरूरी है।
सब चीजें
गैर-जरूरी हो
जाती हैं, क्योंकि
भोजन इतनी बड़ी
जरूरत है, उससे
जीवन चलता है।
पेट सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
है। जब पेट को
जरूरत न हो तब
वह शक्ति देता
है, कहीं
भी उसका उपयोग
कर लो। लेकिन
जब पेट को जरूरत
है तब सब तरफ
से शक्ति को
खींच लेता है।
इसीलिए तो
भोजन करने के
बाद मन होता
है कि थोड़ा लेट
जाएं। क्यों
ऐसा मन होता
है? क्योंकि
पेट ने सब
शक्ति खींच ली;
हाथ-पैर
ढीले हो गए।
खाने के बाद
तुम ठीक से सोच
नहीं सकते; नींद आती
है।
विद्यार्थी
जानते हैं
परीक्षा के
दिनों में कि
अगर पढ़ना
हो तो खाना मत
खाओ। चाय पी
लो, कुछ भी
और कर लो, लेकिन
भोजन मत डालो
शरीर में
ज्यादा। तो ही
पढ़ पाओगे।
क्योंकि
मस्तिष्क को
तभी शक्ति
मिलती है जब
शरीर का पचाने
का काम बंद
रहता है।
बीमारी
में कोई जानवर
खाना नहीं
खाता, सिर्फ
आदमी को छोड़
कर। बीमारी
में सभी जानवर
उपवास करते
हैं, सिर्फ
आदमी को छोड़
कर। और स्वस्थ
दशा में कोई जानवर
कभी उपवास
नहीं करता, सिर्फ आदमी
को छोड़ कर।
तुम आदमी से
ज्यादा पागल
जानवर न खोज
सकोगे।
स्वस्थ हालत
में उपवास
उतना ही गलत
है जितना
अस्वस्थ हालत
में भोजन। जब
तुम स्वस्थ हो
तब तो भोजन की
जरूरत है; तब
अगर तुम शरीर
को तड़पाओगे
तो नुकसान कर
रहे हो। जब
तुम अस्वस्थ
हो तब भोजन की
जरूरत नहीं है।
लेकिन
लोग नियम से
चलते हैं। जैन
हैं;
उनका पर्यूषण
आ गया। अब ये पर्यूषण
तो बंधे हुए
दिन हैं; हर
वर्ष भादों
में आ जाते
हैं। अब दस
दिन का उपवास
चलेगा। हो
सकता है, लाख
आदमी उपवास
करें तो
दो-चार को
शायद ये दिन ठीक
पड़ें, संयोगवशात
इन दिनों में
ही उनकी हालत
उपवास के
योग्य हो।
लेकिन बाकी जो
लाख करेंगे, वे तो कष्ट
में पड़ेंगे।
अपना पर्यूषण
तुम्हें
खोजना पड़ेगा।
साल में कभी
जब तुम्हारी
स्थिति उपवास
के योग्य हो
तब तुम्हारा पर्यूषण
है। कोई दिन
बांधे नहीं हो
सकते। और हर
आदमी के लिए
एक ही नियम
नहीं हो सकता।
छोटे-छोटे
बच्चे तक जोश
में आ जाते
हैं,
पर्यूषण के दिन में
उपवास कर लेते
हैं। क्योंकि
उनको बड़ी
प्रशंसा
मिलती है। सब
कहते हैं, कितना
गजब का बच्चा
है, अभी
इतनी उम्र और
उपवास कर रहा
है! बड़े-बड़े
नहीं कर पा
रहे, और यह
कर रहा है! इसी
बकवास में
बच्चा बुद्धू
बन जाता है; अकड़ में कर
जाता है।
अब
बच्चे को
उपवास की
बिलकुल जरूरत
नहीं है; बूढ़ों
को जरूरत हो
सकती है।
बच्चे को
उपवास तो घातक
हो सकता है।
दस दिन भोजन न
देने का मतलब
बच्चे के
मस्तिष्क में
कुछ तंतु सदा
के लिए टूट
सकते हैं, जिनको
वह फिर कभी
पूरा नहीं कर
पाएगा। लेकिन
उनका हिसाब कौन
रखे? और
कौन समझाए नासमझों
को कि तुम
क्या कर रहे
हो? बच्चे
को तो बिलकुल
उपवास की
जरूरत नहीं
है। बूढ़े कर
लें, चलेगा।
जीवन
को प्रतिपल
जीना है। तुम
मुझसे अगर कुछ
सीखो तो इतना
ही सीखना कि
जीवन को
प्रतिपल जीना
है और प्रतिपल
देखना है। और
उसी पल से
तुम्हारे जीवन
का अनुशासन
निकले। और वह
अनुशासन उसी
पल के लिए हो; अगले
पल के लिए तुम
कसम मत खाना।
क्योंकि कौन जानता
है कल क्या
होगा? कल
के लिए उपवास
आज मत लेना।
कल परिस्थिति
हो, तब
देखेंगे। कसम
खाकर बंधना
मत। अगर आज
सुबह तुम्हें
ऐसा लगता हो
कि भोजन नहीं
करना है, तो
मत करना।
लेकिन सांझ तक
लगने लगे कि
करना है, तो
करना। आधी रात
तक लगने लगे
कि करना है, तो करना।
नियम का कोई
सवाल नहीं है।
शरीर
की स्थिति, मन
की स्थिति, जीवन की
स्थिति, इनको
देखते-देखते-देखते
तुम एक चीज पा
लोगे, वह
कसौटी है जिस
पर सब सोना
कसा जाता है।
वह कसौटी होश
की है।
तो मैं
तुम्हें नहीं
बता सकता कि
तुम्हारा मध्य
क्या है। मैं
तुम्हें बता
सकता हूं कि
मध्य को कैसे
खोजो। मैं
तुम्हें बता
सकता हूं कि यह
कसौटी है, इस
पर कस लेना।
मध्य की
अवस्था बड़ी
शांत, आनंद,
प्रफुल्लता
की अवस्था है।
वहां कोई तनाव
नहीं होता।
शरीर को जितनी
जरूरत होती है
उतना तुम दे
देते हो; शरीर
तृप्त हो जाता
है। ज्यादा भर
देते हो, अशांति
हो जाती है।
कम देते हो, पीड़ा बनी
रहती है। भोजन
करते वक्त वह
बिंदु देखना
जहां--वह
बिंदु बारीक
है; अगर
बहुत होश
रखोगे तो
तुम्हें मिल
जाएगा--जहां
तुम पाओगे, शरीर न तो भर
गया ज्यादा और
न खाली है, जहां
तुम पाओगे कि
तृप्ति का
बिंदु आ गया, वहीं रुक
जाना। रोज-रोज
यह बिंदु
अलग-अलग होगा,
क्योंकि
रोज स्थिति
अलग होगी।
तो मैं
तुम्हें
बताता हूं कि
बिंदु की
परिभाषा क्या
है। और यही
मैं तुमसे
पूरे जीवन के
लिए कहता हूं।
आज हो सकता है
ध्यान की घंटे
भर जरूरत हो, कल
दो घंटा जरूरत
हो। आज हो
सकता है ध्यान
की सुबह जरूरत
हो, कल
सांझ जरूरत
हो। तुम जरूरत
से जीना। बंधी
लकीरों की
क्या जरूरत है?
क्योंकि
लोगों ने तय
कर लिया है कि
रोज सुबह ध्यान
करना है एक
घंटा।
अब यह
भी हो सकता है
कि सुबह जब तुम
उठे तब चित्त
इतना प्रसन्न
है,
इतना
आनंदित है कि
ध्यान करने की
प्रक्रिया में
ही यह आनंद और
चित्त की
प्रसन्नता खो
जाएगी। जब
चित्त आनंदित
ही है तो
ध्यान क्यों
करना? ध्यान
तो हो ही रहा
है। इस क्षण
उत्सव कर लो।
इस क्षण नाच
लो बाहर जाकर
सूरज की खुली
रोशनी में।
पक्षियों के
साथ गीत गा लो,
गुनगुना
लो। वृक्षों
से थोड़ा
तालमेल कर लो।
मन इतना
आनंदित है, अब यह ध्यान
करने किसलिए
बैठे हो? ध्यान
तो इलाज है; जब मन अशांत
हो तब बैठना।
जब मन रुग्ण
हो तब औषधि को
खोजना। लेकिन
तुमने कसम खा
ली कि ध्यान रोज
करेंगे। और
गुरु हैं पूरे
मुल्क में
बैठे जगह-जगह
जो कहते हैं, नियम से एक
ही समय रोज
ध्यान करना।
ध्यान कोई नियम
है? ध्यान
तो संतुलन
जमाने की
प्रक्रिया
है। जब चित्त
असंतुलित हो,
तब जमाना; जब चित्त
क्रोधित हो, अशांत हो, तनाव से भरा
हो, तब
हजार काम छोड़
कर द्वार बंद
करके ध्यान
करना। क्योंकि
इस समय इलाज
की जरूरत है।
ध्यान औषधि है।
प्यास जब लगे
तब पानी पीना।
नियम से क्यों
पानी पी रहे
हो? प्यास
लगी नहीं है, लेकिन नियम
है कि पानी
पीना है तो पी
रहे हैं। ध्यान
भी जब तुम्हें
प्यास लगे--जब
चित्त अशांत
है तो प्यास
की खबर आ रही
है--तब तुम
ध्यान करना।
और कभी
यह होगा कि
घड़ी भर में
ध्यान हो
जाएगा, कभी
दो घड़ी में
होगा, कभी
तीन घड़ी लग
जाएंगी।
निर्भर होगा
कि बीमारी
कितनी गहरी है,
उतनी देर तक
औषधि का उपयोग
करना पड़ेगा।
कभी संतुलन
क्षण में
सम्हल जाता है;
कभी तुम
बैठते नहीं हो
ध्यान में और
क्षण में ज्योति
जग जाती है; कभी घड़ी लग
जाती है।
लेकिन अगर
तुमने नियम
बना लिया कि
बस इतनी देर
करना है तो
तुम व्यर्थ ही
चूकोगे।
कभी संयोग से
ठीक पड़ेगा, अन्यथा
अधिकतर तुम खोओगे।
निन्यानबे
दिन बेकार
जाएंगे; कभी
एक दिन
संयोगवशात
ठीक होगा।
तो मैं
तुम्हें कोई
बंधी लकीर
नहीं देता; मैं
तुम्हें
सिर्फ बोध
देता हूं कि
तुम देखना कब
जरूरत है। जब
जरूरत हो तब
हजार काम छोड़
देना। ध्यान
सबसे बड़ी चीज
है, सबसे
बड़ा भोजन है।
एक बार शरीर
भूखा रह जाए, कोई हर्ज
नहीं; आत्मा
को भूखा मत
रखना। ध्यान
आत्मा का भोजन
है। लेकिन जब
भूख लगी हो, तभी भोजन का
मजा है।
अब यही
तकलीफ है।
जिन्होंने
ध्यान किया है
सच में, वे
कहते हैं, बड़ा
आनंद आता है।
जिन्होंने
भूख लगने पर
खाना खाया है,
उनके स्वाद
का मजा और। अब
तुम ऐसे ही
भरे जाते हो।
तुमने शरीर को
थैली समझा है
कि उसमें डालते
जाओ। तुम्हें
स्वाद नहीं
आता। जब तुम
सुनते हो किसी
की बात कि
भोजन में
अदभुत स्वाद
है, तुम्हें
भरोसा नहीं
आता। जब कोई
ऋषि कहता है, अन्न ब्रह्म
है, तुम्हें
क्या खाक
भरोसा आएगा? क्योंकि
तुमने कभी भूख
ही नहीं जानी।
जिसने भूख
नहीं जानी
उसने स्वाद के
ब्रह्म को
नहीं जाना।
क्योंकि भूख
से ही स्वाद
आता है। मरुस्थल
में मजा है
पानी पीने का।
तब कंठ पर पड़ती
एक-एक ठंडी
बूंद ऐसी
तृप्ति दे
जाती है कि तुम
सोच ही नहीं
सकते थे कि
पानी से और
ऐसी तृप्ति
मिल सकती है।
ठीक
संयोग की बात
है। जब प्यास
गहन हो तब
पीना पानी; जब
भूख गहन हो तब
लेना स्वाद; और जब मन
अशांत हो, अतृप्त
हो, बेचैन
हो, तब
उतरना ध्यान
में। देर
लगेगी उतरने
में, क्योंकि
अशांति बाधा
डालेगी।
लेकिन उसी वक्त
उतरने का मजा
है; उसी
वक्त उतरने की
जरूरत है।
और जब
चित्त आनंदित
ही हो तब
ध्यान की झंझट
में मत पड़ना।
नहीं तो वह
आनंद जो आया
वह खो जाएगा।
चित्त तो
नाचना चाहता था, तुम
पालथी लगा कर
सिद्धासन में
बैठ गए। चित्त
तो बांसुरी
बजाना चाहता
था, तुम
आंखें बंद
करके राम-राम
राम-राम जपने
लगे। चित्त तो
चाहता था कि
निकल जाए
प्रकृति में,
खुले आकाश
के साथ हो, थोड़ा
वृक्षों से बतियाए, थोड़ा
पक्षियों से
गुनगुनाए, थोड़ा
घास पर लेटे, कि नदी में तैरे, चित्त
तो अभी किसी
उत्सव में
जाना चाहता था;
तुम
जबरदस्ती उसे
बिठा रहे हो
सिद्धासन
में। नहीं, सहज होना।
सहजता ही
एकमात्र
साधना है। और
सहज का मतलब
यह है: जो होना
चाहता हो
तुम्हारे अस्तित्व
में उसे होने
देना, विपरीत
खींचने की
कोशिश मत
करना।
निश्चित
ही,
मेरे साथ
काम करना कठिन
मालूम पड़ता
है। मैं तुम्हारी
जिम्मेवारी
बढ़ाता हूं, क्योंकि
पल-पल तुम्हें
जागना होगा।
मैं तुम्हें
बंधी लकीर दे
देता, तुम्हें
आसानी होती।
लेकिन वह तुम
मुझसे न पा सकोगे।
बहुत से लोग
मेरे पास आकर
इसीलिए दूर चले
जाते हैं, क्योंकि
वे आए थे कुछ
अंधी लकीरें
पाने; मैं
जो उन्हें
देना चाहता था,
वह उनके
सामर्थ्य के
बाहर था लेना।
वे आए थे अनुयायी
बनने, मैं
चाहता था कि
वे प्रबुद्ध
बनें। वे
छोटे-मोटे से
राजी होने को
आए थे, कूड़ा-कर्कट
बटोरने आए थे;
मैं उन्हें
जगत की सारी
संपदा देना
चाहता था।
उनको न जंची।
उनको दिखाई ही
न पड़ी। उनकी
आंखों ने वैसी
संपदा देखी ही
नहीं थी।
उन्होंने सोचा,
यहां तो कुछ
भी नहीं है।
क्योंकि उनको
जो कचरा चाहिए
था वह नहीं
मिला।
सब
आदेश कचरा हैं; इसलिए
मैं तुम्हें
कोई आदेश नहीं
देता। उपदेश
और आदेश का
यही तो फर्क
है। आदेश का
मतलब है यह
कहना कि
ऐसा-ऐसा करो, सीधा-सीधा, साफ। उपदेश
का अर्थ है
परोक्ष; सिर्फ
हवा हम पैदा
करते हैं; उस
हवा में तुम
खोज लेना कि
क्या करने
योग्य है। हम
तुम्हें
सिर्फ झलक
देते हैं; रास्ता
तुम बना लेना।
हम सिर्फ दिखा
देते हैं; जैसे
बिजली कौंध
जाती है, सब
साफ हो जाता
है; अब तुम
अपना रास्ता
बना लेना।
मैं
तुम्हें
आंखें देना
चाहता हूं, अंधे
की लकड़ी नहीं
कि जिससे तुम
टटोल कर और रास्ता
खोज लो। मैं
तुम्हें कोई
नक्शा नहीं
देना चाहता, क्योंकि सभी
नक्शे
परतंत्रताएं
हैं। मैं तुमसे
यह नहीं कहता
कि तुम ऐसे ही
चलो तो ही
अच्छे रहोगे।
न, मैं तो
तुम्हारे
अस्तित्व का
एक गुण जगाना
चाहता हूं कि
तुम होश से
चलना, कहीं
भी चलना, किसी
रास्ते पर
चलना। कोई
नक्शा
तुम्हारे पास
हो--हिंदू का
हो, मुसलमान
का, ईसाई
का, जैन का,
बौद्ध का--नक्शों से
तुम सुलझो।
मैं तो
तुम्हें
सिर्फ होश
देना चाहता
हूं। और अगर
तुम्हारे पास
होश है तो हर
नक्शा
तुम्हें
मोक्ष तक
पहुंचा देगा।
और अगर तुम्हारे
पास होश नहीं
है तो सभी
शास्त्र
तुम्हारी गर्दनों
में बंधे हुए
पत्थर हैं, डुबाएंगे और तुम्हें
नष्ट कर
देंगे।
दूसरा
प्रश्न:
यह
तो घबड़ाने
वाली बात हुई
कि कोई साधक
ठीक मंजिल के
पास पहुंच कर
भी जरा सी चूक
के कारण इतना
पीछे फेंक दिया
जा सकता है कि
उसे फिर आरंभ
से ही आरंभ
करना पड़े। तो
क्या इतना
सारा श्रम
रत्ती भर चूक
के लिए व्यर्थ
हो गया?
पहली
बात,
चूक जरा सी
चूक नहीं है; चूक बड़ी से
बड़ी चूक है।
क्योंकि पूरे
रास्ते पर जिस
होश को साधा उसको
अंत में खो
दिया! साधा ही
न होगा ठीक से;
रास्ता ऐसे
ही गुजर गया।
तुम
धक्के-मुक्के
में आ गए
होओगे।
किन्हीं और
कारणों से आ
गए होओगे; होश
के कारण नहीं
आए हो मंजिल
के करीब।
बहुत
बार ऐसा होता
है। अगर तुम
किसी गुरु की
श्रद्धा में
पड़ जाओ तो
उसके झोंके
में ही पहुंच
जाते हो मंजिल
के करीब, लेकिन
मंजिल के भीतर
नहीं घुस
सकते। उसकी
लहर में तुम
चले जाते हो; तुम सोचते
हो कि तुम जा
रहे हो। उसका
पक्का पता तो
मंजिल पर
चलेगा।
क्योंकि गुरु
भी द्वार तक
ले जा सकता है;
गुरु को भी
आखिरी मंजिल
के द्वार पर
विदा दे देनी
पड़ती है। क्योंकि
उसके भीतर तो
अकेले का ही
प्रवेश है। वहां
दुई को जगह
नहीं। ता में
दो न समाय,
प्रेम गली
अति सांकरी।
बड़ी संकरी गली
है, वहां
गुरु भी साथ
नहीं हो सकता।
द्वार पर उससे
भी विदा ले
लेनी होती है।
तभी तो पता
चलता है कि अब
तुम भीतर जा
सकते कि नहीं।
अगर तुम अपने ही
होश से आए हो
द्वार तक तो
ही जा सकोगे, अन्यथा गहरी
नींद पकड़
लेगी। गुरु
विदा हो गया; तुम्हारा
होश भी विदा
हो गया।
गुरु
के पास रहते
बहुत बार
तुम्हें ऐसा
लगने लगेगा कि
तुम भी जाग गए
हो। क्योंकि
जागे आदमी के
पास की हवा का
कण-कण जागने
के लिए आभास
देता है। गुरु
के दर्पण में
अपने चेहरे को
देख कर तुम
समझोगे कि तुम
आत्मवान हो गए
हो। लेकिन वह
खूबी दर्पण की
हो सकती है।
असली पता तो
आखिरी वक्त ही
पता चलेगा जब
कि गुरु का
दर्पण भी छूट
जाएगा। तब
तुम्हें अपना
चेहरा दिखाई
पड़ता है या
नहीं? तब
महिमा, जो
तुमने आज तक
जानी थी, वह
तुम्हारे साथ
रही कि नहीं? ऐसा निरंतर
हुआ है कि
गुरु की लहर
में बहुत से लोग
आखिरी किनारे
तक पहुंच गए।
बस किनारे लगते-लगते
चूक गए।
छोटी
सी चूक नहीं
है। वह तो
परीक्षा है
आखिरी। वह तो
ऐसे है जैसे
कि रात भर
तुमने रामकथा
देखी और सुबह
पूछने लगे कि
सीता राम की
कौन?
वह कोई छोटी
चूक है? रात
भर राम की कथा
देखी; सारी
कथा सीता राम
की कौन, इसी
के आस-पास चल
रही थी, और
सुबह पूछने
लगे कि सीता
राम की कौन? तुम्हारा
प्रश्न छोटी
सी चूक नहीं
है। परीक्षा
हो गई। तुम
सोए रहे।
रामलीला तुम
देखे ही नहीं;
झपकी खाते
रहे। मूल ही
चूक गया। और
तुम कहते हो, छोटी सी
चूक। यह छोटा
ही सा तो सवाल
पूछ रहे हैं।
अगर
मंजिल पर
पहुंच कर होश
न रहा, झपकी लग
गई, छोटी
चूक नहीं; बड़ी
से बड़ी चूक
है। परीक्षा
में असफल हो
गए। जो
व्यक्ति होश
को साध कर आया
है, मंजिल
को पास देख कर
तो दौड़ने
लगेगा, चलेगा
नहीं। बैठना
तो असंभव।
जन्मों-जन्मों
से जिसकी
प्रतीक्षा थी
वह घर आ गया।
लाखों-लाखों
स्वप्नों में
जिसे संजोया
था; कितने-कितने
रूपों में
जिसे चाहा था;
कहां-कहां
मृग-मरीचिकाओं
में भी उसे ही
खोजा था; भटके
भी थे तो उसी के
लिए भटके थे; जहां-जहां
भटके थे वह भी
इसी के कोई
आभास के रंग
को देख कर भटक
गए थे; इतने-इतने
यात्रा-पथों
के बाद आज घर
करीब आया--तुम
थके हुए अनुभव
करोगे? तुम
सोचोगे कि
थोड़ा विश्राम
कर लें? तुम्हें
याद भी रहेगी
विश्राम की? प्रेमी
सामने खड़ा हो,
तुम दौड़ कर
गले लग जाना
चाहोगे, मिट
जाना चाहोगे,
डूब जाना
चाहोगे या
थोड़ा विश्राम
करना चाहोगे?
अब तक तुम
चलते रहे; अब
तुम दौड़ोगे।
अब तक तुम थे; अब तो तुम
रहोगे ही न, सिर्फ एक
चाह मिलन की
रह जाएगी। तुम
तो मिट जाओगे।
तुम तो एक आंधीत्तूफान
की तरह इस भवन
में प्रवेश
करोगे। एक क्षण
भी अब और देर
नहीं हो सकती।
बहुत देर वैसे
ही हो गई।
बहुत भटकाव हो
गया।
नहीं, असंभव
है कि तुम
द्वार पर बैठ
कर विश्राम
करो। संभव हो
सकता है तभी
जब कि तुम
किसी और के
धक्के में आ
गए होओ।
इसीलिए तो बड़े
गुरुओं ने कहा
है, गुरुओं
से सावधान
रहना। छोटे
गुरु भर कहते
हैं कि गुरु
को कभी मत
छोड़ना। छोटे
गुरु यानि जो
गुरु हैं ही
नहीं।
क्योंकि गुरु
और छोटा कैसे
हो सकता है? गुरु का
मतलब ही होता
है गुरु, बड़ा,
गुरुत्व, भारी। सभी
बड़े गुरुओं ने
यही कहा है।
जरथुस्त्र
जब विदा होने
लगा अपने
शिष्यों से तो
उसने कहा: अब
आखिरी संदेश, बीवेयर
ऑफ जरथुस्त्र!
अब आखिरी बात
सुन लो, जरथुस्त्र
से सावधान!
शिष्यों ने
कहा, यह भी
कोई बात हुई? तुमसे और
सावधान? जिसके
लिए हमारी
सारी श्रद्धा
और प्रेम है
उससे क्या
सावधान? जरथुस्त्र
ने कहा, इसीलिए
कहता हूं, इसे
याद रखना; नहीं
तो यही
तुम्हें चुकाएगा।
गुरु
के पास होना, गुरु
के निकटतम
होना, गुरु
को जितनी
श्रद्धा दे
सको देना, जितना
प्रेम दे सको
देना, लेकिन
फिर भी
सावधान।
क्योंकि
आखिरी क्षण में
गुरु भी छूट
जाना है। कहीं
यह मोह भारी न
हो जाए, कहीं
श्रद्धा मोह न
बन जाए, कहीं
निकटता राग न
बन जाए, कहीं
यह स्वाद
परतंत्रता की बेड़ियां न
बन जाए!
क्योंकि
आखिरी क्षण
इसे भी छोड़
देना है।
द्वार पर विदा
हो जाएगा गुरु
भी। यहीं तक उसकी
जरूरत थी।
अगर
तुम गुरु के
धक्के में आ
गए हो तो
तुम्हें लगेगा, छोटी
सी चूक।
अन्यथा छोटी
सी चूक नहीं
है, बड़ी से
बड़ी चूक है।
दूसरी
बात समझ लेनी
जरूरी है कि
जितने ही तुम
बढ़ते हो उतना
ही तुम्हारा
दायित्व बढ़ता
है;
जितने ही
तुम विकसित
होते हो उतनी
ही तुम्हारी
जिम्मेवारी
बढ़ती है और
अस्तित्व
तुमसे ज्यादा
से ज्यादा
मांगता है।
तुम्हें
एक छोटी कहानी
कहूं।
वास्तविक
घटना है।
बंगाल
में एक बहुत
बड़े कलाकार
हुए अवनींद्रनाथ
ठाकुर।
रवींद्रनाथ
के चाचा थे।
उन जैसा चित्रकार
भारत में इधर
पीछे सौ
वर्षों में
नहीं हुआ। और
उनका शिष्य, उनका
बड़े से बड़ा
शिष्य था
नंदलाल। उस
जैसा भी चित्रकार
फिर खोजना
मुश्किल है।
एक दिन ऐसा हुआ
कि
रवींद्रनाथ
बैठे हैं और अवनींद्रनाथ
बैठे हैं, और
नंदलाल कृष्ण
की एक छबि बना
कर लाया, एक
चित्र बना कर
लाया।
रवींद्रनाथ
ने अपने संस्मरणों
में लिखा है, मैंने इससे
प्यारा कृष्ण
का चित्र कभी
देखा ही नहीं;
अनूठा था।
और मुझे शक है
कि अवनींद्रनाथ
भी उसे बना
सकते थे या
नहीं। लेकिन
मेरा तो कोई सवाल
नहीं था, रवींद्रनाथ
ने लिखा है, बीच में
बोलने का। अवनींद्रनाथ
ने चित्र देखा
और बाहर फेंक
दिया सड़क पर, और नंदलाल
से कहा, तुझसे
अच्छा तो
बंगाल के पटिए
बना लेते हैं।
बंगाल
में पटिए
होते हैं, गरीब
चित्रकार, जो
कृष्णाष्टमी
के समय कृष्ण
के चित्र बना
कर बेचते हैं
दो-दो पैसे
में। वह आखिरी
दर्जे का चित्रकार
है। अब उससे
और नीचे क्या
होता है! दो-दो
पैसे में
कृष्ण के
चित्र बना कर
बेचता है।
अवनींद्रनाथ ने
कहा कि तुझसे
अच्छा तो
बंगाल के पटिए
बना लेते हैं।
जा,
उनसे सीख!
रवींद्रनाथ
को लगा, मुझे
बहुत चोट
पहुंची। यह तो
बहुत हद हो
गई। चित्र ऐसा
अदभुत था कि
मैंने अवनींद्रनाथ
के भी चित्र
देखे हैं
कृष्ण के, लेकिन
इतने अदभुत
नहीं। और इतना
दर्ुव्यवहार?
नंदलाल
ने पैर छुए, विदा
हो गया। और
तीन साल तक
उसका कोई पता
न चला। उसके
द्वार पर
छात्रावास
में ताला पड़ा
रहा। तीन साल
बाद वह लौटा; उसे पहचानना
ही मुश्किल
था। वह बिलकुल
पटिया ही हो
गया था।
क्योंकि एक
पैसा पास नहीं
था; गांव-गांव
पटियों को
खोजता रहा।
क्योंकि गुरु
ने कहा, जा
पटियों से
सीख!
गांव-गांव
सीखता रहा।
तीन साल बाद
लौटा, अवनींद्रनाथ के चरणों पर
सिर रखा। उसने
कहा, आपने
ठीक कहा था।
रवींद्रनाथ
ने लिखा है कि
मैंने पूछा, यह
क्या पागलपन
है? अवनींद्रनाथ से कहा कि यह
तो हद ज्यादती
है। लेकिन अवनींद्रनाथ
ने कहा कि यह
मेरा
श्रेष्ठतम
शिष्य है, और
यह मैं भी
जानता हूं कि
मैं भी शायद
उस चित्र को
नहीं बना सकता
था। इससे मुझे
बड़ी अपेक्षाएं
हैं। इसलिए
इसे सस्ते में
नहीं छोड़ा जा
सकता। यह कोई
साधारण
चित्रकार
होता तो मैं
प्रशंसा करके
इसे विदा कर
देता। लेकिन
मेरी प्रशंसा
का तो अर्थ
होगा अंत, बात
खतम हो गई।
इसे अभी और
खींचा जा सकता
है; अभी
इसे और उठाया
जा सकता है।
अभी इसकी
संभावनाएं और
शेष थीं। इसे
मैं जल्दी
नहीं छोड़
सकता। इससे
मेरी बड़ी आशा
है। छोटा
चित्रकार
होता तो कह
देता कि ठीक, बहुत। लेकिन
इसकी संभावना
इसके कृत्य से
बड़ी है।
इसे
समझ लो ठीक
से। जितनी बड़ी
तुम्हारी
संभावना होगी
उतने ही तुम
कसे जाओगे।
जितनी छोटी संभावना
होगी उतने
जल्दी छूट
जाओगे। जैसे-जैसे
घड़ी करीब आती
है परमात्मा
के पहुंचने के
पास,
उतनी ही कसान
बढ़ती है, उतने
ही तुम ज्यादा
कसे जाते हो।
क्योंकि अब तुम
अपनी अंतिम
संभावना के
निकट पहुंच
रहे हो। अब सब
परीक्षाएं हो
जानी जरूरी
हैं। अब तुम
वहां पहुंच
रहे हो जिसके
आगे फिर और
कोई जाना नहीं।
अब तुम वहां
पहुंच रहे हो
जिसके आगे फिर
और कोई विकास
नहीं। अब तुम
वहां पहुंच
रहे हो जो चरम
उत्कर्ष है, जो कैलाश का
शिखर है। अब
तुम्हारी सब
परीक्षा हो
जानी जरूरी
है। अब
तुम्हारा
रोआं-रोआं कस
लिया जाना
जरूरी है। अब
तुम खालिस
सोना बचो। तुममें
कुछ भी तंद्रा
न रह जाए; तुम
शुद्ध-बुद्ध
बचो। तुममें
कुछ भी कूड़ा-कर्कट
न रह जाए। अब
तुम्हें
आखिरी आग में
फेंक देना
जरूरी है।
इसलिए
आखिरी मंजिल
से अगर तुम
जरा भी चूके
तो ठीक पहले
कदम पर फेंक
दिए जाते हो।
क्योंकि तुम
बड़े संभावना
के व्यक्ति हो; आखिरी
तक आ गए थे।
तुम्हारा
होना है तो
बहुमूल्य कि
तुम द्वार तक
किसी तरह
पहुंच गए थे, जो कि कभी
करोड़ों में एक
को संभव हो
पाता है और करोड़ों
जन्मों दौड़ कर
कभी संभव हो
पाता है। तुम्हें
वापस पहले कदम
पर फेंक दिया
जाए, यही
उचित है। यही
उचित है, इसे
तुम अन्याय मत
समझना।
क्योंकि
तुम्हारी जितनी
बड़ी संभावना
है उतनी ही
बड़ी तुमसे
अपेक्षा है।
तुम
थोड़े ही उन
कठिनाइयों
में से गुजर
रहे हो जिनमें
से कोई बुद्ध
और लाओत्से
गुजरता है। जिस
दिन गुजरो
उस दिन
सौभाग्य
समझना।
तुम्हें पता
ही नहीं--क्योंकि
उस कथा को कोई
कहेगा भी नहीं, कहने
का कोई उपाय
भी नहीं है--कि
आखिरी क्षणों
में बुद्ध किस
कसौटी से
गुजरते हैं; कितनी बार
फेंके जाते
हैं; कितनी
बार अपने को
पहले कदम पर
पाते हैं।
पुनः-पुनः। यह
जरूरी है।
क्योंकि एक
बार तुम इस आखिरी
मंदिर में
प्रविष्ट हो
गए कुछ कचरा
लेकर, तो
फिर वह तुमसे
कभी न छूट
सकेगा। फिर
कोई उपाय न
रहा। इसलिए इस
मंदिर का
द्वार खुलता
ही तब है जब तुम
बिलकुल खालिस
होकर पहुंचते
हो।
तुम्हें
पता हो, जितना
कीमती हीरा हो
उतना ही जरा
सी भी लकीर उसकी
कीमत को करोड़
गुना नीचे
गिरा देती है।
जरा सी लकीर!
वही लकीर
साधारण हीरे
में कोई देखता
भी नहीं।
लेकिन कोहिनूर
में छोटी सी
लकीर की भी
कीमत है
करोड़ों
रुपया। उस लकीर
के होने पर
दाम कुछ हो
जाएगा, न
होने पर दाम
कुछ का कुछ हो
जाएगा। जरा सी
लकीर। तुम
कहोगे, जरा
सी लकीर!
लेकिन
कोहिनूर से
बड़ी अपेक्षा
है।
और जब
तुम परमात्मा
के द्वार पर
हो तो जिस आत्मा
को तुमने अब
तक कंकड़-पत्थर
समझा था वह
कोहिनूर की
स्थिति में
पहुंच रही है।
अब उसे आखिरी
नूर उपलब्ध हो
रहा है, आखिरी
प्रकाश
उपलब्ध हो रहा
है। इस परम
प्रकाश में
छोटी सी भी
कमी और खामी
दिखाई पड़ेगी।
आखिरी जौहरी
के सामने जा
रहा है अब
तुम्हारा हीरा।
यहां बचने का,
धोखे का कोई
भी उपाय नहीं
है। और जितना
बड़ा हीरा है
उतने ही दूर
फेंक दिया जाएगा;
क्योंकि
उतने ही शुद्ध
होने की जरूरत
और अपेक्षा
है।
तो
पहली तो बात, इसे
जरा सी चूक मत
कहना।
क्योंकि अगर
तुमने अपने मन
में अभी से यह
समझ लिया कि
यह जरा सी चूक
है तो
तुम्हारे
करने की
संभावना बढ़
जाती है। तुम
इस चूक को कर गुजरोगे।
जिस चीज को भी
हम जरा सा
कहते हैं उसका
खतरा है।
इसीलिए
तो लाओत्से
कहता है कि
संत किसी भी
चीज को छोटा
नहीं मानते, छोटी
से छोटी चीज
को बड़ा मानते
हैं। इसलिए
उनको किसी बड़ी
कठिनाई का
सामना नहीं
करना पड़ता।
तुम
इसे छोटा मत
कहना। और यह
भी मत सोचना
कि क्या इतना
सारा श्रम
रत्ती भर चूक के
लिए व्यर्थ हो
गया! इसे भी
थोड़ा समझ लो।
क्योंकि
साधना को अगर
तुमने श्रम
समझा तो तुम
कभी उस मंदिर
में न पहुंच
पाओगे। उस
मंदिर में तो वे
ही पहुंचते
हैं
जिन्होंने
साधना को
प्रेम समझा।
प्रेम
और श्रम में
बड़ा फर्क है।
श्रम तो वह है
जो तुम बेमन
से करते हो।
श्रम तो वह है
जो तुम करते
हो,
क्योंकि
करना पड़ रहा
है। श्रम तो
वह है जिससे तुम
बच सकते तो बच
जाते। श्रम तो
मजबूरी है, परवशता है।
प्रेम? प्रेम
वह है जो तुम
करना चाहते
हो। प्रेम वह
है कि तुम
बचना भी संभव
होता तो बचना
न चाहते।
प्रेम वह है
जो तुम्हारी
परवशता नहीं है,
तुम्हारी
स्वतंत्रता
है। प्रेम वह
है जो तुम बार-बार
करना चाहोगे
और थकोगे
न। तुमसे हजार
बार करने को
कहा जाए तो
तुम एक हजार
एक बार करोगे।
मुझे
बचपन में
व्यायाम से
बड़ा प्रेम था।
और जब मैं
पहली दफा
स्कूल में
भरती हुआ तो
जो मुझे
शिक्षक मिले, वे
दिखता है
व्यायाम के
बड़े दुश्मन
थे। वे सजा ही
देते थे
दंड-बैठक
लगाने की। अगर
कुछ भूल-चूक
हो जाए, देर
से आऊं या कुछ
हो, तो वे
कहते, लगाओ
पच्चीस बैठक।
तो मैं पच्चीस
की जगह पचास लगाता।
तो वे
कहते, तेरा
दिमाग खराब है?
हम दंड दे रहे
हैं!
मैं
उनको कहता कि
मुझे लगाव है; आप
दंड दे रहे
हैं; हम
व्यायाम कर
रहे हैं। और
जब आप मुझे
दें तो मुक्तहस्त
दिया करें, इसमें आप
संकोच न करें
कि पच्चीस।
वे
अपना सिर ठोंक
लेते कि अब
इसको क्या दंड
देना।
श्रम
का अर्थ है, जो
तुम मजबूरी से
कर रहे हो; प्रेम
का अर्थ है, जो तुम अपने
आनंद और
अहोभाव से कर
रहे हो। तब दंड
भी दंड नहीं
रह जाएगा। और
अगर तुमने
श्रम की भांति
किया साधना को
तो जो
पुरस्कार था
वह पुरस्कार
की भांति न रह
जाएगा।
पुरस्कार दंड
में
परिवर्तित हो
सकता है; दंड
पुरस्कार बन
सकता है।
एक
अफ्रीकी संन्यासी--हिंदू
संन्यासी--यात्रा
पर भारत आया।
वह हिमालय
यात्रा पर
गया। पहाड़ चढ़
रहा था, भरी
दुपहरी, पसीना
चू रहा
था। पोटली
अपने कंधे पर
बांध रखी है।
वजन भारी लगता
है। जैसे-जैसे
पहाड़ चढ़ता,
उतना वजनी
मालूम पड़ता
है। और उसके
सामने ही एक
लड़की अपने भाई
को कंधे पर
बिठा कर चढ़
रही है। दयावश,
प्रेमवश उसने उस
लड़की से कहा, बेटी, बड़ा
वजन लग रहा
होगा। वह बेटी
बड़ी क्रुद्ध
हो गई। उसने
कहा, वजन
आप लिए हैं
स्वामी जी, यह मेरा
छोटा भाई है!
छोटे
भाई में भी
वजन होता है, तराजू
पर तौलोगे
तो वजन बताएगा;
लेकिन हृदय
पर तौलोगे
तो वजन खो
जाता है। उस
लड़की ने ठीक
ही कहा। और उस
संन्यासी ने
अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि मुझे उस
दिन पहली बार
पता चला कि
वजन भी प्रेम
में तिरोहित
हो जाता है, निर्भार हो
जाता है।
श्रम
मत समझना
साधना को।
साधना प्रेम
है। तुम इसे
आनंद-भाव से
करना। तुम ऐसे
मत चलना कि
चलना पड़ रहा
है मजबूरी में, और
किसी तरह चल
रहे हैं; क्योंकि
क्या करें, बिना चले
नहीं पहुंच
सकेंगे। अगर
कोई शार्टकट
होता तो उससे
गुजर जाते, अगर कोई
रिश्वत चलती
होती तो
रिश्वत देकर
मंदिर में
प्रवेश कर
जाते
परमात्मा के,
कोई
चोर-दरवाजा
होता तो हम
वहीं से घुस जाते।
लेकिन यह इतनी
यात्रा करनी
पड़ रही है।
इसे
अगर तुमने
श्रम की तरह
लिया तो याद
रखो,
जिसको तुम
चूक कह रहे हो
जरा सी, वह
होकर रहेगी।
क्योंकि श्रम
करने वाला जब
मंजिल के करीब
जाता है तो थक
जाता है, वह
विश्राम करने
लगता है। वह
आंख बंद करके
सोचता है, अब
तो आ गई मंजिल,
अब तो कोई
जाने की जल्दी
भी नहीं है।
अब तो थोड़ा
आराम कर लो।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
बहुत से लोग
करीब पहुंच कर
भटक जाते हैं;
आखिरी क्षण
में, जब कि
द्वार खुलने
को ही था, तभी
चूक जाते हैं।
तुम
प्रेम की तरह
करना यात्रा।
यह प्रेम-यात्रा
है,
श्रम-यात्रा
नहीं। तुम
एक-एक कदम
इतने प्रेम से
चलना कि जैसे
एक-एक कदम
मंजिल हो। तुम
मंजिल की
फिक्र ही छोड़
देना। तुम
चलने में इतने
आनंदित होना
कि चलना ही
जैसे मंजिल बन
जाए। साधन अगर
साध्य जैसा हो
जाए तो तुम
आखिरी क्षण
में कभी भी
चूक न कर
पाओगे।
क्योंकि
तुमने
प्रत्येक चरण
को मंजिल समझा
था, मंजिल
को सामने देख
कर थकने
का क्या सवाल
है? तुम तो
हर कदम पर ही
मंजिल से गुजर
रहे थे। तुम प्रेम
बनाना अपनी
साधना को।
इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
हमारे पास
योग-भ्रष्ट
जैसा शब्द तो
है,
लेकिन
भक्ति-भ्रष्ट
जैसा शब्द
नहीं है। क्योंकि
योगी आखिरी
मंजिल से भी
भटक सकता है।
क्योंकि योगी
श्रम जैसा कर
रहा है, बड़ी
मेहनत उठा रहा
है; जैसे
परमात्मा पर
कोई एहसान कर
रहा है। क्योंकि
तुम शीर्षासन
लगा रहे, जैसे
कि तुम
अस्तित्व पर
कोई एहसान कर
रहे हो, जैसे
तुम अस्तित्व
को कर्जदार
बना रहे हो कि
देखो, मैंने
कितना किया!
योगी इसी भाव
से खड़ा है कि
देखो, मैंने
कितना किया, और अभी तक
नहीं मिला! एक
शिकायत है।
प्रेमी
की कोई शिकायत
नहीं है।
इसलिए भक्ति से
कभी कोई
भ्रष्ट नहीं
होता। हो ही
नहीं सकता; क्योंकि
प्रेम से कभी
कोई कैसे
भ्रष्ट हो सकता
है? प्रेम
की कोई शिकायत
ही नहीं है।
प्रेम का तो
सिर्फ
धन्यवाद है।
प्रेम तो कहता
है कि मुझ
जैसा आदमी और
इतने जल्दी
मंजिल के करीब
आ गया! कुछ भी न
करना पड़ा और
मंजिल आ गई!
तेरी अपरंपार
कृपा है। चले
भी नहीं और तेरा
द्वार सामने आ
गया! चलना भी
कोई चलना था? चार कदम चले,
वह कोई चलना
था? वह कोई
बात कहने की
है?
प्रेमी
सदा परमात्मा
के द्वार पर
कहता है कि मैंने
कुछ भी न किया
और तेरे
प्रसाद की
वर्षा हो गई।
तेरी अनुकंपा
अपार है। योगी
ऐसे जाता है
जैसे कि
दावेदार है।
प्रेमी ऐसे
जाता है कि हमारा
दावा क्या? अगर
जन्मों-जन्मों
तक न मिलता तो
भी शिकायत
क्या थी? शिकायत
उठती है
अहंकार से; शिकायत उठती
है श्रम से; शिकायत उठती
है तप से।
प्रेम की कोई
शिकायत नहीं।
और
ध्यान रखना, अगर
परमात्मा से
ही मिलना है
तो प्रेम के
अतिरिक्त सभी
कुछ साधारण
है। तुम प्रेम
से ही जाना।
तुम साधन को
साध्य की तरह
समझ लेना, एक-एक
कदम उसी की
मंजिल पर
पहुंच रहा है।
और तुम अनुग्रह-भाव
से जाना। तुम
किसी को
कर्जदार नहीं
बना रहे हो।
और जिस
दिन तुम पाओगे, याद
रखना, जिन्होंने
भी पाया है उन
सभी ने यह कहा
है कि प्रसाद
है, ग्रेस है। क्यों? क्योंकि
हमने जो किया
वह कुछ भी
नहीं सिद्ध होता
है आखिर में; वह कुछ भी
नहीं था। क्या
कर रहे हो तुम?
क्या कर
सकते हो? उपवास
कर लिया, कि
सिर के बल खड़े
हो गए, कि
नंगे खड़े हो
गए, कि धूप
में खड़े हो
गए। इससे क्या
लेना-देना है उसके
मिलने का? यह
तुम क्या कर
रहे हो? जिस
दिन वह मिलेगा
और जिस दिन
वर्षा होगी
तुम्हारे ऊपर
उसके अमृत की,
उस दिन क्या
तुम सोचोगे जो
हमने किया
उससे मूल्य
चुका दिया, हम पाने के
अधिकारी होकर
आए? उस दिन
पहली दफे तुम
पाओगे कि
तुम्हारा तो
कोई अधिकार ही
नहीं बना था।
यह मिला है
उसके प्रसाद
से, यह
उसकी अनुकंपा
से।
तुम
अधिकारी की
तरह कभी उस
मंदिर में प्रवेश
न कर पाओगे।
तुम जब भी
प्रवेश करोगे
तब एक विनम्र
याचक की भांति, एक
विनम्र
प्रेमी की
भांति।
अहोभाव से तुम
प्रवेश कर
पाओगे।
इसलिए
तो मैं कहता
हूं,
यह यात्रा
तुम नाच कर
पूरी करना। इस
यात्रा पर
तुम्हारे
पसीने के
चिह्न न छूटें,
तुम्हारे
गीतों की छाप
छूटे। तुम्हारे
हर पद-चिह्न
पर तुम्हारा
अहोभाव छूटे।
तुम्हारे
अधिकारी का
भाव न बढ़े, तुम्हारी
विनम्रता गहन
होती जाए, तुम
निरहंकार
होते जाओ।
मंजिल आते-आते
वह घड़ी आ जाए
कि तुम मिट ही
चुके हो--एक
धुएं की रेखा,
जो खो चुकी।
अगर
नाच कर पूरी
हो सकती हो
यात्रा तो ही
पूरी होगी। जो
भी मिले हैं
उस आखिरी सत्य
को वे नाच कर
ही मिले हैं।
हंसते हुए
जाना, नाचते
हुए जाना, गीत
गाते जाना, मस्ती में
जाना। श्रम की
बात ही मत
उठाओ। श्रम की
बात ही बेतुकी
है। प्रेम की
चर्चा करो। प्रेम
को गुनगुनाओ।
और तब तुम
पाओगे कि हर
कदम मंजिल है।
और अगर इस
प्रेम में तुम
डूब भी गए
मझधार में तो
तुम पाओगे, मझधार ही
किनारा है।
आखिरी
सवाल:
लाओत्से
ने कहा कि संत
किसी में कोई
सुधार नहीं
करता। लेकिन
कृष्ण के वचन
हैं कि वे
जन्म ही बुराई
को कम करने और
भलाई को बढ़ाने
के लिए लेते
हैं। और हमारा
अनुभव भी है
कि जो भी आपके
निकट आया है
उसमें आमूल
परिवर्तन
शुरू हुआ।
लगता है, आपकी
करुणा इसलिए
बरसती है कि
हरेक के जीवन
में संपूर्ण
परिवर्तन हो।
तो लगता है, संत ही पूरा
सुधार करता
है।
दोनों
ही बातें एक
हैं। संत ही
सुधार करता है, लाओत्से
को इससे कोई
विरोध नहीं।
लेकिन संत सुधार
करना नहीं
चाहता। जो
नहीं करना
चाहता उसी से
सुधार फलित
होता है। जो
करना चाहता है
वही नहीं कर
पाता।
लाओत्से
इतना ही कह
रहा है कि अगर
तुमने किसी का
सुधार करना
चाहा तो इसका
क्या अर्थ
होता है? इसका
पहला तो अर्थ
होता है कि
तुमने अपने को
ऊपर रख लिया।
मैं सुधार
करने वाला!
अकड़ छा गई।
संत में कहीं
कोई अकड़ नहीं।
संत अपने को
ऊपर रख ही
नहीं सकता।
संत है ही
नहीं, रखेगा
कहां? और
जब तुमने कहा,
मैं सुधार
करना चाहता
हूं, तब
तुमने दूसरे
को नीचे रख
दिया--निंदित,
पापी, गलत,
बुरा। संत
कहीं किसी की
निंदा कर सकता
है? संत के
मन में कभी
किसी को नीचे
रखने का सवाल
उठ सकता है?
और
जहां निंदा है
वहां संतत्व
के होने का
कोई उपाय
नहीं। और जिस
क्षण तुमने
दूसरे को नीचे
रखा और दूसरे
की निंदा की, उसी
क्षण तुमने
दूसरे को
बदलने के सब
द्वार बंद कर
दिए। अब तो
संभावना यह है
कि तुमने
जितना नीचे उस
आदमी को रखा
है वह उससे और
भी नीचे गिर
जाए, और
तुमने जितनी
उसकी निंदा की
है वह उससे भी
ज्यादा
निंदित होने
के योग्य हो
जाए। क्यों? क्योंकि हम
जो भाव किसी
दूसरे
व्यक्ति की
तरफ बनाते हैं
वह भाव उसे
चारों तरफ से
घेरने लगता
है।
अगर एक
व्यक्ति को
सारे लोग बुरा
मानते हों तो
वे उसके बुरे
होने में
सहयोगी हो रहे
हैं। क्योंकि
वे उसके चारों
तरफ बुरी तरंगों
को निर्मित कर
रहे हैं। वे
उस व्यक्ति को
निकलने न
देंगे उन
तरंगों के
बाहर। अगर वह
व्यक्ति कुछ
अच्छा भी
करेगा तो भी
वे कहेंगे कि
अभी पूरी बात
पता चल जाने
दो,
यह अच्छा कर
ही नहीं सकता।
इसका मतलब
जरूर कुछ बुरा
रहा होगा। या
यह भी हो सकता
है कि यह करना
तो बुरा चाहता
रहा हो, अच्छा
हो गया हो। यह
दुर्घटना
मालूम होती
है। तुम जिस
आदमी को बुरा
मानते हो
उसमें से तुम
अच्छा देख ही
नहीं सकते।
अगर
तुम किसी बुरे
आदमी को बुरा
न मानो, तभी
सुधार का
रास्ता खुलता
है। इसलिए संत
बुराई को तो
मिटाता है, लेकिन बिना
बुरे को बुरा
माने। इसलिए
मिटाना कोई
कृत्य नहीं है
उसका। वह बुरे
को भी स्वीकार
करता है, अंगीकार
करता है। उसके
अंगीकार करने
में ही बुरे
को पहली दफा
अपने आत्मभाव
का स्मरण होता
है।
एक चोर
संत के पास
आता है; संत
उसे अंगीकार
कर लेता है।
चोर को पहली
दफा यह बोध
आता है कि मैं
भी इस योग्य
हो सकता हूं क्या?
क्या मेरी
यह भी पात्रता
है? और चोर
को यह भी बोध
आता है कि जब
संत ने इतने
सरल भाव से
स्वीकार कर
लिया है तो अब
चोरी करनी बहुत
मुश्किल है।
अब यह जो
आस्था संत ने
दी है उसे, यह
आस्था ही उसके
लिए चोरी से
विपरीत जाने
के लिए सब से
बड़ा सबल आधार
हो जाएगा। यह
जो सहज स्वीकार
किया है संत
ने, इस
स्वीकार में
ही रूपांतरण
है।
संत
निंदा नहीं
करता और बदलता
है। संत बुरा
नहीं कहता और
बदलता है। संत
बदलता नहीं और
बदलता है। संत
के होने में
कीमिया है; उसकी
सारी अल्केमी
उसके
अस्तित्व में
है। वह आश्वस्त
करता है कि
तुम बुरे नहीं
हो। कौन कहता
है कि तुम
बुरे हो? किसने
कहा कि तुम
बुरे हो?
उसका
यह आश्वासन
तुम्हें
उठाता है
तुम्हारे गर्त
से ऊपर।
तुम्हें पहली
दफा तुम्हारी
प्रतिष्ठा
मिलती है।
पहली बार
तुम्हें अपनी
आत्मा का
भाव-बोध उठता
है कि मैं
बुरा नहीं
हूं। और एक
ऐसे सरल
व्यक्ति ने
स्वीकार कर
लिया है कि
मैं बुरा नहीं
हूं,
अब बुरा
होना बहुत
मुश्किल हो
गया। तुमने
कितनी दफे
जीवन में चाहा
था कि लोग
तुम्हें बुरा न
समझें, लेकिन
लोग तुम्हें
बुरा समझते
रहे। आज पहली
दफे एक आदमी
मिला है जिसने
तुम्हें बुरा
नहीं समझा।
तुम्हें पहली
दफे तुम्हारी
गरिमा मिली है,
गौरव मिला
है। और जब संत
से गरिमा
मिलती है तो उसका
मुकाबला
नहीं। सारी
दुनिया एक तरफ,
सारी
दुनिया की
प्रशंसा-निंदा
एक तरफ, संत
की एक नजर, उसके
स्वीकार की एक
भाव-भंगिमा
अकेली काफी है।
तुम पहली दफे
खींच लिए जाते
हो तुम्हारे
कुएं से, तुम्हारे
गर्त से, तुम्हारे
अंधकार से।
संत तुम्हें
छाती से लगा
लेता है। उसी
क्षण तुम
बदलने शुरू हो
गए।
एक
मित्र ने पूछा
है कि आप हर
किसी को
संन्यास दे
देते हैं?
उनके
हर किसी शब्द
में ही निंदा
छिपी है। वे यह
कह रहे हैं, हर
किसी को! कौन
है हर किसी? उनका मतलब
है, ऐरे गैरे
नत्थू-खैरे, कोई भी!
लेकिन इस
अस्तित्व में
कोई भी ऐरा
गैरा
नत्थू-खैरा है?
तुमने ऐसा
आदमी जाना जो
ऐरा गैरा
नत्थू-खैरा है?
तुमने यहां
कहीं क्षुद्र
को देखा? और
अगर तुमने
क्षुद्र को
देखा तो वह
तुम्हारी क्षुद्रता
की दृष्टि में
है, वह
तुम्हारी आंख
पर पड़ा हुआ
पर्दा है।
यहां तो सभी
परमात्मा
हैं। यहां हर
किसी शब्द का
तो उपयोग ही
मत करना। यहां
तो तुम
तुम्हारी
आखिरी गरिमा
में स्वीकार
हो। तुम्हारे
इतिहास से मुझे
क्या
लेना-देना? तुमने क्या
किया है, उससे
क्या प्रयोजन?
तुम्हारी
क्या अंतिम
संभावना है, उस पर ही
मेरी आंख है।
तुम जो हो
सकते हो, उसी
पर मेरी आंख
है। तुम जो हो,
उससे मुझे
कोई प्रयोजन
नहीं। तुम जो
रहे हो, उससे
मुझे क्या
हिसाब-किताब
रखना है? तुम
जो हो जाओगे, अंततः तुम
जो हो जाओगे, एक दिन, किसी
पल, किसी
घड़ी जो सूर्य
तुम्हारे
भीतर प्रकट
होगा, वह
तुम्हें पता न
हो, मुझे
तो अभी दिखाई
पड़ रहा है।
तो जब
संत किसी
व्यक्ति में
उसे देख लेता
है जो उसकी
आखिरी चरमता
है। तो संत के
माध्यम से वह
व्यक्ति भी उस
आखिरी चरमता
के प्रति पहली
दफा सजग होता
है। और यही
सजगता रूपांतरण
है।
कृष्ण
गलत नहीं कहते, वे
ठीक कहते हैं
कि मैं आऊंगा।
वे ठीक कहते
हैं कि मैं
बुराई को
बदलूंगा, मैं
भलाई को प्रकट
करूंगा।
लेकिन वह ढंग
भी वही है, करने
का उपाय तो
वही है जो
लाओत्से कहता
है।
संत
बदलता है, लेकिन
बदलने में वह
कर्ता नहीं
है। संत तुम्हें
बदलता है एक
बड़े अनूठे
उपाय से। वह
उपाय है तुम्हारा
स्वीकार, वह
उपाय है
तुम्हारे
होने की आखिरी
चरम शिखर की
प्रतीति
तुम्हें दिला
देना।
बुद्ध
ने कहा है कि
मैं अपने
पिछले जन्म
में एक बुद्ध
पुरुष के पास
गया था। तब
मैं अज्ञानी
था। उस बुद्ध
पुरुष का नाम
था विरोचन।
मैं बिलकुल
अज्ञानी था।
और जब मैंने
जाकर विरोचन
के पैर छुए, मैं
उठ भी न पाया, और मैं चकित
रह गया और मैं
रोक भी न पाया,
मैं अवाक रह
गया, मैं
हतप्रभ हो गया,
क्योंकि
मैंने देखा, विरोचन मेरे
चरण छू रहे
हैं! मैंने
उनसे कहा, यह
आप क्या करते
हैं? मेरे
चरण छूकर आप
मुझे और पाप
में डालते
हैं। मैं बहुत
गया-बीता हूं;
मुझसे बुरा
आदमी नहीं है।
मैं बिलकुल
अंधेरे में
हूं। मैं आपके
चरण छुऊं, यह
समझ में आता
है। आप मेरे
चरण किसलिए
छूते हैं?
विरोचन
ने कहा, मुझे
पता नहीं कि
तुम कौन हो, मुझे तो
सिर्फ उसी का
पता है जो तुम
हो सकते हो।
एक दिन तुम
बुद्ध पुरुष
हो जाओगे। मैं
उसके लिए ही
तुम्हारे चरण
छूता हूं।
और
बुद्ध ने कहा
है,
उसी दिन
मेरे भीतर
क्रांति घट
गई। उसी दिन
मेरा संबंध
उससे टूट गया
जो मैं था, और
मेरा संबंध
उससे हो गया
जो मैं हो
सकता हूं।
विरोचन ने पैर
छुए हैं! अब
विरोचन ने जो
इतनी आस्था दी
है इसको तोड़ा
भी तो नहीं जा
सकता। और
विरोचन ने जो
इतना भरोसा
किया है इस
भरोसे को पूरा
करना ही
पड़ेगा। बुद्ध
ने कहा है, मेरे
भीतर विरोचन
ने एक दीया
जला दिया। अब
कुछ भी हो, विरोचन
के वचन को सिद्ध
करना ही होगा।
विरोचन ने पैर
छू लिए हैं। दीया
झुका है, अंधेरे
के पैर छू लिए
हैं। अब
अंधेरा कितनी
देर अंधेरा रह
सकता है?
संत
बदलता है।
उसके बदलने के
ढंग बड़े अनूठे
हैं। विरोचन
ने जन्म दे
दिया बुद्ध को
उसी दिन। पैर
छूकर विरोचन
ने सोए आदमी
को जगा दिया।
बुद्ध की पूरी
जीवन-यात्रा
में इससे बड़ी
कोई घटना नहीं
है। सब बाकी
साधारण है। यह
विरोचन है
क्रांति का
सूत्र। इस
विरोचन ने
बुद्ध को
तत्काल क्षण
भर में कुछ का
कुछ कर
दिया--सिर्फ
पैर छूकर। जरा
सा स्पर्श, मिट्टी
सोना हो गई।
संत
स्पर्श से ही
मिट्टी को
सोना बना देते
हैं। और जब
सूई से काम चल
जाए तो तलवार
नासमझ उठाते
हैं। जब बिना
किए ही हो
जाता हो तो
करने की बात
ही पागलपन है।
आज
इतना ही।
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