ओशो
ओशो
द्वारा लाओत्से
के ‘ताओ तेह
किंग’ पर
दिए गए 127 अमृत
प्रवचनों में
से आखरी 21 (107 से 127)
)एक सौ सात से एकसौ सत्ताईस)
प्रवचनों का
अपूर्व
संकलन।
लाओत्से
का जन्मआज
से पच्चीस सौ
वर्ष पूर्व हुआ,
लेकिन वे एक
ऐसे विलक्षण प्रज्ञापूरूष
है कि आज उन्हें
पढ़कर ऐसा
लगता है कि
कभी भविष्य
में उन्हें
समझा जा
सकेगा। इन पच्चीस
सौ वर्षों में
उनकी अंतदृष्टि
उपलब्ध थी।
फिर भी उन्हें
आज तक समझा
नहीं गया उसका
उपयोग करना तो
बाद की बात
है। हां आज
बहुत छोटे स्तर
पर उनके
सूत्रों की चर्चा
होती है।
लेकिन वह कभी मेंन स्ट्रीम
नी बन पाती, वह मुख्य
धारा से बहुत
दूर है।
आने
वाले भविष्य
में लाओत्से
बहुत जगमगाएंगे।
इसके दो कारण
है। एक कारण
यह है, जो कि
प्रमुख कारण
है, कि आने
वाले भविष्य
मे ओशो को
सर्वाधिक
पढ़ा और सुना
जाएगा। भारत
में ही नहीं
समूचे विश्व
में। निश्चित
ही लाओत्से
भी सदियों के
कुहरे से बाहर
आएंगे, ओशो
के साहित्य
में लाओत्से
का स्थान
बहुत
अद्वितीय है।
ताओ
उपनिषद अपने
ही निकट होने
का अपनी ही
प्रकृति में
लौटने का,
स्वस्थ
होने का,
सहज होने का
निमंत्रण है।
और प्रज्ञापुरूष
ओशो के शब्दों
में यह
निमंत्रण और
भी मधुर और रसपूर्णहो
गया है। ताओ
के मधुर फलों
को रसास्वादन
करें और स्वास्थ
हों।
इसलिए मूढ़ भी
कभी-कभी बड़ा
प्रसन्न
दिखता है। मूढ़
तुमसे ज्यादा
आनंदित दिखता
है। क्योंकि न
कोई चिंता है, न
कोई विचार है।
मूढ़
जानवर जैसा
है। वह तुमसे
ज्यादा सुखी
है, इसमें
कोई शक नहीं।
क्योंकि दुखी
होने के लिए काफी
चिंतन की
जरूरत है।
दुखी होने के
लिए काफी
विचार करना
जरूरी है।
जितना
विचारशील
आदमी हो, उतना
दुख का जाल
खड़ा कर लेता
है।
संतों
ने कहा है, सब
ते भले मूढ़,
जिन्हें न व्यापै
जगत गति।
ओशो
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