अध्याय
67 : खंड 1
तीन खजाने
सब
संसार कहता
है: मेरा
उपदेश (ताओ) मूढ़ता
से बहुत
मिलता-जुलता
है।
क्योंकि
यह महान है, इसलिए
यह मूढ़ता
से
मिलता-जुलता
है।
और
यदि मूढ़ता
जैसा नहीं
लगता, तो यह
कब का तुच्छ
हो गया होता।
मेरे
तीन खजाने
हैं; उन पर
पहरा दो, और
उन्हें
सुरक्षित
रखो।
पहला
है: प्रेम।
दूसरा
है: अति कभी
नहीं।
तीसरा
है: संसार में
प्रथम कभी मत
हो।
प्रेम
के जरिए आदमी
अभय को उपलब्ध
होता है।
अति
नहीं करने से
आदमी के पास
आरक्षित
शक्ति का
अतिरेक होता
है।
और
संसार में
प्रथम होने की
धृष्टता नहीं
करने से
आदमी
अपनी प्रतिभा
का विकास कर
सकता है और
उसे प्रौढ़ बना
सकता है।
आंखें
जब अंधेरे की
आदी हो जाएं
तो प्रकाश
अंधकार जैसा
मालूम होगा।
अंधेरे में ही
तुम जीए हो; तो
आज अचानक सूरज
द्वार पर आ
जाए तो उसकी
चकाचौंध में
तुम्हारी
आंखें बंद ही
हो जाएंगी। प्रकाश
को समझने के
लिए प्रकाश की
यात्रा, प्रकाश
का स्वाद, प्रकाश
का जीवन में
प्रशिक्षण
चाहिए।
परमात्मा
को खोजने बहुत
लोग निकलते
हैं,
लेकिन
परमात्मा अगर
तुम्हें राह
पर मिल जाए--और
बहुत बार
मिलता है--तो
तुम उसे पहचान
न पाओगे। तुम
उसे पहचानोगे
कैसे? तुमने
अब तक जो जाना
है उससे तो वह
बिलकुल भिन्न
है। तुम्हारा
अब तक जो भी
ज्ञान है उस
ज्ञान से तो
उस परमात्मा
को तुम बिलकुल
भी न पहचान पाओगे।
दो ही
उपाय हैं। अगर
तुमने अपना
ज्ञान पकड़ा तो
परमात्मा
सामने भी होगा
तो दिखाई न
पड़ेगा। दूसरा
उपाय है, अगर
तुमने अपना
ज्ञान छोड़
दिया तो
परमात्मा सामने
न भी हो तो भी
सब तरफ वही
दिखाई पड़ेगा।
तुम्हारी
ज्ञान की पकड़
तुम्हें अंधा
बनाए हुए है।
इसलिए
जब भी कभी
किसी
व्यक्तित्व
में परमात्मा
की ज्योति
उतरती है तो
हम उसे पहचान
नहीं पाते। अन्यथा
जीसस को सूली
पर चढ़ाने
की जरूरत क्या
थी?
और
जिन्होंने
जीसस को सूली
पर चढ़ाया
उनको भी
भ्रांति है कि
वे परमात्मा
के खोजी और
प्रेमी हैं। न
केवल यही, बल्कि
उन्हें लगता
है कि जीसस
परमात्मा का
दुश्मन है।
जीसस
को वे न पहचान
पाए,
परमात्मा
को तो कैसे पहचानेंगे!
जीसस तो एक
किरण हैं उसकी,
वह भी
पहचानी न जा
सकी, तो जब
समग्र सूर्य
तुम्हारे
सामने होगा तब
तो तुम बिलकुल
अंधे हो
जाओगे।
तुम्हें
सिवाय अंधकार
के और कुछ भी
दिखाई न
पड़ेगा।
इसलिए
ज्ञानी अक्सर
अज्ञानियों
के बीच महा अज्ञानी
मालूम पड़ता
है। ऐसा ही
समझो कि तुम
सब अंधे होओ
और एक आंख
वाला व्यक्ति
भूल-चूक से पैदा
हो जाए। तो
सारे अंधे मिल
कर या तो उसकी
आंखें फोड़
देंगे, क्योंकि
वे बरदाश्त न
कर सकेंगे। और
अंधों का तर्क
यह होगा कि
कभी तुमने
सुना है कि
आंख वाला आदमी
होता है! जरूर
प्रकृति की
कहीं कोई भूल
हो गई है।
अंधा ही होता है
आदमी; आंखों
में कहीं कुछ
भूल है।
यही
ज्ञानियों के
साथ हमारा
व्यवहार रहा
है। हम पूजते
हैं उन्हें जब
वे मर जाते
हैं,
क्योंकि
मृत्यु की
भाषा हम समझते
हैं। जीवन की
भाषा का हमें
कुछ भी पता
नहीं। जब
उन्हें कब्रों
में दफना देते
हैं तब हमारे
पूजा के फूल
बड़े मुखर हो
उठते हैं, तब
हमारे अर्चना
के दीये जलने
लगते हैं।
क्योंकि अब हम
समझ सकते हैं;
कब्र में जो
मौत है वह
हमारी समझ में
आ सकती है।
कब्र में
सिर्फ अंधेरा
है; अंधेरे
के हम आदी
हैं। हम
मृत्यु में ही
जीते रहे हैं;
जीवन को
हमने कभी जाना
नहीं। जीवन
हमारी आशाओं
में रहा है, सपनों में, लेकिन उसकी
कोई प्रतीति
हमें कभी हुई
नहीं। हम केवल
मृत्यु से
भयातुर, मृत्यु
से घिरे कंपते
हुए जीए हैं।
मृत्यु को हम
समझ सकते हैं।
इसलिए जैसे ही
कोई ज्ञानी
व्यक्ति मर
जाता है, हजारों
उसकी कब्र की
पूजा पर
संलग्न हो
जाते हैं; मंदिर-मस्जिदें
खड़ी होती हैं,
गुरुद्वारे
बनते हैं। और
जब ज्ञानी
जीवित होता है
तब सिर्फ लोग
पत्थर ही
फेंकते हैं, तब सिर्फ
लोग निंदा ही
करते हैं।
गणित
साफ है। जब
ज्ञानी जीवित
होता है तब
तुमसे उसका
कोई तालमेल
नहीं बैठता।
तुम अंधेरे के
निवासी हो; वह
रोशनी की खबर
लाया। यह शब्द
तुमने कभी
सुना नहीं।
शब्द भी सुना
हो तो इस शब्द
के रहस्य को तुमने
कभी अनुभव
नहीं किया। वह
किसी अनजान देश
से आया है; वह
कुछ अजनबी
बातें कह रहा
है। और उन
बातों पर भरोसा
करना खतरनाक
है। खतरनाक
इसलिए है कि
अगर तुम उन
बातों पर
भरोसा करोगे
तो तुम्हारी
जो सुव्यवस्थित
गुलामी है वह
खंड-खंड हो
जाएगी; जो
तुम्हारा
सुव्यवस्थित
अंधकार है...।
अंधकार में
तुमने अपना घर
बना लिया है।
अंधकार को तुमने
खूब साज-संवार
लिया है।
तुमने अंधकार
को खूब सजावट
और शृंगार से
भर लिया है।
तुम भूल ही गए
हो कि यह
अंधकार है।
तुमने अपनी जंजीरों
पर भी
हीरे-माणिक
लगा लिए हैं, और तुमने
उनको आभूषण
मान लिया है।
तुमने अपनी मृत्यु
को भी जीवन
समझ रखा है।
अगर
तुम ज्ञानी की
बात सुनोगे
तो खतरा है।
खतरा यही है
कि वह तुम्हें
अस्तव्यस्त
कर देगा। वह
तुम्हारी सारी
व्यवस्था को
तोड़ देगा।
तुम्हारी
सारी सुरक्षा
की नींवें हिल
जाएंगी। और
तुमने जो भवन बड़ी
मेहनत से
बनाया है
जन्मों-जन्मों
में,
अगर तुमने
ज्ञानी का एक
शब्द भी सुन
लिया तो तुम
पाओगे कि वह
रेत का भवन
है--अब गिरा, तब गिरा।
तुमने ताश के
पत्तों का घर
बना लिया है।
तुम उसके भीतर
बड़े प्रसन्न
हो। पता चल
जाए कि ताश का
घर है, तुम
फिर कैसे
प्रसन्न रह
पाओगे? फिर
दूसरे और असली
घर की खोज पर
निकलना होगा। और
यात्रा
दुर्गम है। और
कभी कोई
पहुंचता है; हजारों चलते
हैं, एकाध
पहुंचता है।
इसलिए
सरल यही है
तुम्हारे
अज्ञान में कि
तुम कह दो इस
ज्ञानी को कि
यह मूढ़ है, पागल
है। यह
तुम्हारे
बचने का उपाय
है। यह तुम्हारी
सुरक्षा है।
जब तुम ज्ञानी
को कह देते हो
कि मूढ़ है,
तब तुम अपनी
मूढ़ता को
बचा लेते हो।
जब तुम ज्ञानी
को कह देते हो
पागल है, तब
तुम अपने
पागलपन को बचा
लेते हो।
क्योंकि तुम
दो में से कोई
एक ही सही हो
सकता है, दोनों
नहीं। अगर
बुद्ध सही हैं,
अगर
क्राइस्ट सही
हैं, अगर
मैं सही हूं, तो तुम गलत
हो। और समझौता
यहां न चलेगा।
या तो मैं सही
हूं, या
तुम सही हो।
ज्ञानी का कोई
समझौता
अज्ञानी से
नहीं हो सकता।
क्या समझौता
करोगे? कैसे
मिलाओगे
अंधेरे और
रोशनी को? कभी
कोशिश की है?
लोग
कहते हैं, पानी
में तेल नहीं
मिलाया जा
सकता। लेकिन
यह भी हो सकता
है कि पानी
में तेल किसी
तरकीब से मिला
लिया जाए, लेकिन
अंधेरे में
रोशनी कैसे मिलाओगे? अंधेरा अभाव
है प्रकाश का।
तो अभाव को
भाव से कैसे मिलाओगे? प्रकाश होता
है तो अंधेरा
हो नहीं सकता;
अंधेरा
होता है तो
प्रकाश हो
नहीं सकता।
दोनों अलग-अलग
ही हो सकते
हैं। उनके बीच
कोई समझौता
नहीं है।
एक ही
उपाय है: अगर
तुम ज्ञानी को
सुनने को राजी
हो जाओ; एक
क्षण भी मौका
दो, जरा सा
झरोखा खोलो
अपने हृदय का।
तो तुम
मुश्किल में
पड़ोगे। क्योंकि
तुम्हारे
बनाए हुए सब
घर झूठे हो
जाएंगे, तुम्हारे
बनाए हुए सारे
इंतजाम
व्यर्थ हो जाएंगे।
तुमने जो
सजावट की है
वह सारी सजावट
तुमने कागज के
घर में कर रखी
है। वह घर
गिरेगा। वह घर
गिर ही रहा
है। उस घर में
आग लगने वाली
है। उस घर में
आग लगी ही है।
अगर तुम ज्ञानी
की सुनोगे
तो तुम्हें
अपने इन घरघूलों
को छोड़ कर
बाहर आना
होगा। वह
तुम्हें खुले
आकाश का
निमंत्रण
देता है। वह
तुम्हें
स्वतंत्रता
के लिए
पुकारता है।
परम मोक्ष की
तरफ उसका
इशारा है। डर
लगता है।
अज्ञात में
जाने में भय पकड़ता है।
जिन रास्तों
पर हम चले
नहीं, उन
पर वह बुलाता
है। जिन
मार्गों को
हमने कभी छुआ
नहीं, उन
पर निमंत्रण
देता है। और
कोई नक्शा
नहीं है उन
मार्गों का कि
तुम्हें
आश्वस्त किया
जा सके। उन
मार्गों को
कोई भी पूरा
जान नहीं पाया
है कि नक्शे
बनाए जा सकें।
परमात्मा
के नक्शे कभी
भी न बनाए जा
सकेंगे। क्योंकि
वह कोई जड़
वस्तु नहीं है; गत्यात्मक
है, प्रतिपल
रूपांतरित हो
रहा है, प्रतिपल
पूर्ण से
पूर्णतर की
तरफ जा रहा
है। तो केवल
साहसी ही आ
सकते हैं इस
अभियान में।
तो फिर तुम
क्या करोगे
अपने भय को? अपनी कायरता
को कैसे छिपाओगे?
क्योंकि यह
स्वीकार करने
से भी पीड़ा
होती है कि
मैं कायर हूं।
यह स्वीकार
करने से भी
अहंकार को बड़ी
चोट पहुंचती
है कि मैं
अज्ञानी हूं।
इसलिए
जो भी ज्ञान
का संदेश लेकर
तुम्हारे द्वार
पर दस्तक देता
है वह
तुम्हारे
अहंकार पर चोट
करता है। जो
भी तुम्हारे
पास लेकर आता
है ज्ञान
बांटने को वही
तुम्हें
दुश्मन जैसा
मालूम पड़ता
है। क्योंकि
अगर तुम ज्ञान
लेते हो तो
तुम अज्ञानी
थे। अगर तुम
उसका
निमंत्रण
स्वीकार करते
हो तो अब तक
तुमने जो
यात्राएं कीं
वे व्यर्थ ही
गईं,
उनमें कोई
भी
तीर्थयात्रा
न थी; अब तक
तुम भटके। अगर
तुम गुरु को
स्वीकार करते
हो तो उस स्वीकार
में यह छिपा
है कि
अनंत-अनंत
जन्मों तक तुमने
जो यात्रा की
वह तुम्हारी
भटकन थी, भटकाव
था। गुरु को
स्वीकार करने
का अर्थ है: जन्मों-जन्मों
के अहंकार को
छोड़ देना।
बहुत
कठिन है।
अहंकार तर्क
खोजता है।
अहंकार कहता है, यह
आदमी मूढ़
मालूम होता
है।
मैंने
सुना है, एक
सूफी कथा है
कि एक आदमी
परम गुरु की
तलाश में था।
बीस वर्षों तक
उसने खोज की।
न मालूम कितने
गुरुओं के पास
गया। लेकिन
कुछ न कुछ भूल
उसने निकाल ही
ली। गुरु में
कुछ न कुछ कमी
मालूम पड़ी।
कोई गुरु
हंसता हुआ
मिला। तो उसने
सोचा, यह
भी कोई गुरु
हो सकता है!
गुरु तो गंभीर
होते हैं।
हमारे पास
शब्द है:
गुरु-गंभीरता।
उसने कहा, यह
भी कोई गुरु
हो सकता है; संसारियों जैसा हंस
रहा है! और
गुरु मिले जो
बिलकुल उदासीन
थे, उदास
थे। उसने कहा,
यह भी कोई
गुरु है जिसके
चेहरे पर आनंद
की जरा भी झलक
नहीं! ऐसा हर
जगह उसने कुछ
न कुछ खोज लिया।
कोई गुरु
उपवास करता
था। तो उसने
सोचा, यह
तो आत्मघात
है। और कोई
गुरु ठीक से
खाता-पीता था।
तो उसने कहा, यह तो निपट
भोगी है। बीस
वर्ष अनेकों
गुरुओं के पास
गया, लेकिन
परम गुरु, परफेक्ट मास्टर, नहीं
मिल सका।
बीस
साल बाद थक
गया। मौत भी
करीब आने लगी।
इसलिए मापदंड
उसने थोड़े
शिथिल कर लिए, कि
अब तो मरने के
करीब आ रहा
हूं, अब तो
थोड़ा कमोबेश
भी मिल जाए, अठारह-उन्नीस
भी चलेगा। न
हुआ बीस, लेकिन
अब मौत करीब आ
रही है। तो जब
उसने अपने मापदंड
थोड़े शिथिल
किए, एक
गुरु मिल गया,
जो उसे लगा
कि परिपूर्ण
है। सब तरफ से
जांच-परख करके
उसने भरोसा कर
लिया।
एक दिन
सुबह जाकर
गुरु के चरणों
में उसने निवेदन
किया कि मैं
परम गुरु की
तलाश में था; बीस
साल भटका; अंततः
आप मिल गए; मेरी
यात्रा पूरी
हुई। क्या आप
परम गुरु हैं?
गुरु ने कहा,
अगर मैं कहूं
हूं, तो
वही कारण बन
जाएगा मेरे
परम गुरु न
होने का; अगर
मैं कहूं नहीं
हूं, तो जब
मैं खुद ही कह
रहा हूं कि
नहीं हूं तो
सवाल ही कहां
उठता है।
लेकिन अब
तुमने पूछ ही
लिया है तो
मुझे तो पता
नहीं कि मैं
परम गुरु हूं
या नहीं, लेकिन
ऐसी मेरी
ख्याति है; लोग कहते हैं।
ऐसा लोग कहते
हैं कि यह परम
गुरु है। तो उसने
कहा, ठीक, अब मैं भी थक
गया हूं
खोजते-खोजते,
और आप ने भी
मुझे डरा
दिया। लेकिन
अब बहुत हो गई
खोज, अब
मौत करीब आती
है, तो मैं
तो स्वीकार
करने को राजी
हूं। मैं परम गुरु
की तलाश में
था, आप मिल
गए, मुझे
शिष्य की तरह
स्वीकार कर
लें।
उस
गुरु ने कहा, यह
जरा मुश्किल
है।
शिष्य
ने कहा, क्यों
मुश्किल है? मैं मरने के
करीब आ गया।
तुम्हारी
मृत्यु से
मेरा क्या
लेना-देना, मैं
परम शिष्य की
तलाश में हूं।
अहंकार
के बड़े रंग
हैं,
बड़े रूप
हैं। और
अहंकार हर जगह
भूल-चूक खोज
ही लेता है।
अहंकार
भूल-चूक खोजता
है, उसका
भीतरी अचेतन
कारण है: अपने
लिए सांत्वना खोजना।
तुम डरते हो
कि अगर गुरु
मिल ही गया, तो फिर
तुम्हें
रूपांतरित
होना पड़ेगा।
और मन तो
रूपांतरित
नहीं होना
चाहता।
क्योंकि मन तो
जीता है आदतों
में, बंधी
हुई
यांत्रिकता
में। कम से कम
प्रतिरोध
उसका मार्ग
है। बदलाहट
में तो बड़ी मुसीबत
होगी, सब
बदलना पड़ेगा।
इसलिए अचेतन
रास्ता खोजता
रहता है कि
नहीं, यह
भी गुरु नहीं;
यह भी गुरु
नहीं; यह
भी गुरु नहीं;
यह भी ज्ञान
नहीं है। इस
तरह तुम अपने
को सुरक्षित
करते हो। जब
तुम कह देते
हो कि यह गुरु
नहीं है तो
असली में तुम
यह कह रहे हो
कि शिष्य होने
की झंझट से एक
बार फिर बचे।
शिष्य
होना बड़ी कठिन
बात है। इस
संसार में उससे
ज्यादा कठिन
बात कोई भी
नहीं।
क्योंकि शिष्य
होने का अर्थ
है कि हमने
किसी और का
सहारा पकड़
लिया। और हमने
सहारा बेशर्त
पकड़ा; पाने की
आशा से नहीं, प्रेम के
भरोसे में
पकड़ा। कहीं
पहुंच जाएंगे,
इस लोभ से
नहीं; किसी
ने हमारे भीतर
वीणा जगा दी, किसी ने
हमारे भीतर एक
नये संगीत को
जन्म दे दिया,
और हमारे
पैर बंधे हुए
उसके पीछे
चलने लगे। जैसे
सांप नाचने
लगता है
बांसुरी को
सुन कर ऐसा ही
गुरु को देख
कर, सदगुरु को देख कर
शिष्य अपना
भान खो देता
है। अपनी अकड़,
अपना होना
खो देता है।
दूर की
बांसुरी बजने
लगी; अज्ञात
की पुकार आ
गई। बिना
पूछे--कहां जा
रहा हूं! कहां
ले जा रहे हो!
क्योंकि
बताने का कोई
उपाय नहीं है।
पूछा, कि
बताने का कोई
उपाय नहीं है।
जाने से ही
जाना जाता है।
होने से ही
हुआ जाता है।
उस मंजिल के संबंध
में कुछ भी
कहा नहीं जा
सकता। तुम
जाओगे, जानोगे,
देखोगे,
तो ही।
श्रद्धा के
किसी गहन क्षण
में यात्रा शुरू
होती है शिष्य
की।
शिष्य
का अर्थ है जो
सीखने को
तैयार है।
सीखने को
तैयार कौन है?
सीखने
को वही तैयार
है जिसने यह
अनुभव कर लिया
कि अब तक अपने
तईं बहुत उपाय
किए,
कुछ भी सीख
न पाया। सीखने
को वही तैयार
है जिसने अपने
अज्ञान की
पीड़ा की
प्रतीति कर
ली। सीखने को
वही तैयार है
जिसने देख
लिया अपने
हृदय के गहन
अंधकार को।
सीखने को वही
तैयार है जिसने
देख लिया कि
मैं अपने जीवन
को सिर्फ उलझा
रहा हूं, सुलझा
नहीं रहा। और
जितना
सुलझाने की
कोशिश करता
हूं, बात
और उलझती चली
जाती है। ऐसे
पीड़ा के क्षण
में, ऐसी
संताप की
अवस्था में, अपनी
परिस्थिति को
पूरा-पूरा देख
कर, अपनी
यात्रा की
व्यर्थता को
समझ कर
शिष्यत्व का
जन्म होता है।
तब कोई सीखने
को तैयार होता
है।
और जो
सीखने को
तैयार है उसे
अपनी अस्मिता
और अहंकार को
छोड़ देना पड़ता
है। क्योंकि
अहंकार सीखने
न देगा।
अहंकार बदलने
न देगा।
अहंकार अपने
से ऊपर किसी
को रखने को
कभी राजी ही
नहीं है।
परमात्मा को
भी करोड़ों लोग
इनकार करते
हैं सिर्फ इसी
कारण; इसलिए
नहीं कि
उन्हें पक्का
पता है कि
परमात्मा
नहीं है। कैसे
पता हो सकता
है?
मेरे
पास कभी-कभी
नास्तिक आ
जाते हैं।
कहते हैं, कोई
परमात्मा
नहीं है। मैं
उनसे कहता हूं,
तुमने खोजा?
तुमने सब
खोज डाला? तुमने
अस्तित्व के
सब कोने-कातर
देख डाले हैं?
कुछ खोजने
को जगह नहीं
बची? अगर
सब देख डाला
हो और
परमात्मा को न
पाया हो, तब
तो बात समझ
में आती है।
लेकिन खोजा
कितना है? जब
तक तुम पूरे
अस्तित्व को
रत्ती-रत्ती
नाप न डालो
तब तक यह कहने
का हक नहीं है
कि परमात्मा
नहीं है।
क्योंकि जो
हिस्सा शेष रह
गया है, कौन
जाने वहां हो! और
शेष तो बहुत
बड़ा रह गया
है। जो जाना
है वह तो ना-कुछ
है। जो शेष है
उसका तो कोई
अंत नहीं।
इसलिए
नास्तिक
अक्सर सोचता
है कि मैं
तर्कयुक्त
हूं,
लेकिन
तर्कयुक्त
होता नहीं।
यहीं तो सारा
तर्क व्यर्थ
हो गया। बिना खोजे कहते
हो नहीं है!
अंधापन है यह
तो। खोज लो, फिर न पाओ तो
कह देना।
लेकिन
असली सवाल
नास्तिक को
खोजने का नहीं
है। वह यह कह
रहा है, कोई
परमात्मा
नहीं है। इस
कहने में
वास्तविक क्या
कह रहा है? वह
यह कह रहा है
कि मेरे ऊपर
किसी को मानने
की मुझे
सुविधा नहीं
है। और
परमात्मा है
तो मुझसे ऊपर
कुछ है।
अहंकार इनकार
करता है
परमात्मा का।
अहंकार और
परमात्मा के बीच
गहन संघर्ष
है। या तो तुम
अहंकार को बचा
लो, और या
तुम परमात्मा
को पा लो।
दोनों तुम एक
साथ न कर
सकोगे। और
वैसी करने की
कोशिश की तो
सिर्फ
विक्षिप्त हो
जाओगे, विमुक्त
नहीं।
लाओत्से
इन सूत्रों
में बड़ी गहन
बातें कह रहा
है।
पहली
गहन बात तो वह
यह कह रहा है
कि "सब संसार कहता
है कि मेरा
उपदेश (ताओ) मूढ़ता
से बहुत
मिलता-जुलता
है। क्योंकि
यह महान है, इसलिए
यह मूढ़ता
से
मिलता-जुलता
है।'
क्षुद्र
को तुम
पहचानते हो।
महान से
तुम्हारा कोई
परिचय नहीं।
क्षुद्र की ही
तुम्हारी भाषा
है। महान के
साथ तुम्हारी
भाषा एकदम
अड़चन में पड़
जाती है। या
तो तुम मौन हो
जाओ तो महान
तुम्हारे
भीतर छा जाए, थोड़ा
सा स्वाद
तुम्हारी
छाती में लगे।
अगर तुम बोलते
ही चले जाओ तो
महान की जो भी
चर्चा है वह मूढ़ता
जैसी मालूम
पड़ेगी। इसलिए
परम ज्ञानी
अक्सर पागल
मालूम हुए
हैं। और
तुम्हारी भीड़
है। अगर तुम
ही तय करने
वाले हो तो एक
ज्ञानी की कौन
सुनेगा? तुम
सब मताधिकारी
हो। तुम मत
डाल सकते हो, वोट डाल
सकते हो, और
तय कर सकते हो
कि यह आदमी
पागल है।
क्योंकि यह जो
बातें कह रहा
है वे
तुम्हारे मन
से बड़ी हैं।
या तो तुम मन
को छोड़ने को
राजी होओ तो
इन बातें को
समझ लो। अगर
तुम मन को ही पकड़ते हो
तो ये बातें
इतनी बड़ी हैं।
यह ऐसे ही है
जैसे कोई
चुल्लू में
सागर को भरने
की कोशिश कर
रहा हो, या
कोई मुट्ठी
में आकाश को पकड़ने
निकला हो, और
न पकड़ पाए तो
कहे कि आकाश
है ही नहीं।
महान
बातों की एक
कठिनाई है कि
महान बातें
विरोधाभासी
होती हैं, पैराडाक्सिकल होती हैं।
क्षुद्र
बातें
तर्कयुक्त
होती हैं।
क्षुद्र
बातों का तर्क
बिलकुल
सीधा-साफ होता
है। जितनी
विराट होने
लगती है बात
उतनी ही अतक्र्य
होने लगती है।
क्योंकि
विराट अतक्र्य
है। सामान्य
जीवन में रात
अलग है, दिन
अलग है; जन्म
अलग है, मृत्यु
अलग है। विराट
में तो दोनों
इकट्ठे हैं; जन्म भी उसी
में, मृत्यु
भी उसी में।
वहां तुम जन्म
और मृत्यु को
अलग-अलग न रख
पाओगे। वहां
तुम्हारे खंड
करने की जो
बुद्धिमत्ता
है वह व्यर्थ
हो जाएगी। वहां
तो अखंड का
निवास है।
वहां तो मृत्यु
में जन्म छिपा
है, जन्म
में मृत्यु
छिपी है। वहां
तो मृत्यु भी
जन्म का एक
चेहरा है, और
जन्म भी
मृत्यु का एक
ढंग है, वेश
है। वहां तो
सब विरोध गिर
जाते हैं। और
जहां विरोध
गिर जाते हैं
वहां मुश्किल
हो जाती है।
उपनिषद
कहते हैं, ईश्वर
पास से भी पास,
दूर से भी
दूर।
तुम
कहोगे, यह
पागलपन की बात
है। या तो पास,
या दूर, समझ
में आता है।
अगर दूर है तो
कहो दूर, अगर
पास है तो कहो
पास। लेकिन
तुम दोनों
कहते हो, पास
से भी पास, दूर
से भी दूर। तो
जो तर्कनिष्ठ
मन है वह दुविधा
में पड़ जाता
है। करो क्या?
तर्कनिष्ठ
मन कहता है, जो चीज दूर
होती है वह
दूर होती है, जो पास होती
है वह पास
होती है। और
दोनों तो कैसे
हो सकती है?
लेकिन
परमात्मा ऐसा
ही है, पास से
भी पास, दूर
से भी दूर। और
जिन्होंने
जाना है, उनकी
मजबूरी है। वे
भी चाहते हैं
कि तुम्हारी भाषा
में बोल दें, लेकिन तब जो वे
बोलते हैं वह
परमात्मा के
प्रति अन्याय
हो जाता है।
अगर तुम्हारी
भाषा में
बोलें तो परमात्मा
के प्रति
अन्याय होता
है। अगर
परमात्मा
जैसा है वैसा
ही बोलें, तुम्हारी
भाषा के कटघरे
टूट जाते हैं।
उपनिषद
ठीक ही कहते
हैं। क्योंकि
वह पास से भी
पास है। उससे
ज्यादा पास
कोई भी नहीं।
तुम भी अपने
उतने पास नहीं
जितने वह
तुम्हारे पास
है। क्योंकि
तुम्हारे हृदय
की धड़कन वही
है। कबीर ने
कहा है, सब
सांसों की
सांस में, तेरा
साईं तुज्झ
में। वह तुझमें
ही छिपा है।
अगर ठीक से
कहें तो तेरा
होना उस साईं
का ही होना
है। दूरी तो
दूर, पास
कहना भी बहुत
दूर कहना है।
पास भी कहना
ठीक नहीं है।
क्योंकि पास
में भी थोड़ी
तो दूरी होती
ही है। तुम
मेरे पास बैठे
हो, लेकिन
फासला तो है।
तुम और पास आ
जाओ, फासला
कम हो लाएगा, रहेगा तो।
तुम बिलकुल
आकर मेरे गले
से मिल जाओ, फासला न के
बराबर हो
जाएगा, लेकिन
न के बराबर भी
फासला तो है
ही। पास भी तो
दूर ही है।
परमात्मा पास
से पास है, यह
परम सत्य है।
लेकिन
फिर तुम्हें
मिल क्यों
नहीं रहा है? अगर
इतना पास है
तो मिल ही
जाना चाहिए
था। अगर इतना
पास है तो
खोने का उपाय
ही कहां था? अगर इतना
पास है तो अब
तक भटकन क्यों
है?
इसलिए
ज्ञानी कहते
हैं,
दूर से भी
दूर। अगर इसको
हम और सुलझा
कर कहना चाहें
तो यूं कह
सकते हैं कि
परमात्मा तो
तुम्हारे
बहुत पास है, तुम
परमात्मा से
बहुत दूर। मगर
वह भी अतक्र्य
है। क्योंकि
तुम कहोगे, जब परमात्मा
हमारे पास है
तो हम भी उसके
पास हैं।
परमात्मा तो तुम्हारे
पास है, तुम्हारे
भीतर है, तुम
हो; लेकिन
तुम परमात्मा
से बहुत दूर
हो। तुम परमात्मा
के भीतर नहीं
हो। तुम्हारा
फासला अनंत है।
अतक्र्य
हो जाती है
जितनी होती है
विराट बात। और
जब अतक्र्य हो
जाती है तो
तर्कनिष्ठ मन
कहता है, ये तो मूढ़ता की
बातें हैं। और
लाओत्से जैसा मूढ़ तुम न
पा सकोगे; सब
उपनिषदों को
हरा देता है
लाओत्से। उस
जैसा पैराडाक्सिकल,
उस जैसा
विरोधाभासी
कभी कोई
व्यक्ति हुआ
ही नहीं। मैं
उसे हराने की
कोशिश कर रहा
हूं, सफलता
मुश्किल है; कोई उपाय
नहीं दिखता।
लाओत्से से
ज्यादा विरोधाभासी
होने की जगह
नहीं बची है।
तुम
पूछो लाओत्से
से,
कैसे
पाएंगे
परमात्मा को?
वह कहता है,
पाने की
कोशिश की कि
खो दोगे; भूल
कर भी कोशिश
मत करना।
कोशिश में ही
तो लोग भटक गए
हैं। जो मिला
ही हुआ है, उसे
कहीं कोशिश
करके कोई पाता
है? तुम
फिर भी पूछोगे,
फिर क्या
करें? वह
कहता है, किया
कि चूके; पाने
का ढंग है न
खोजना।
लाओत्से कहता
है, पाने
का ढंग है न
खोजना; खोजना
ही नहीं।
लाओत्से कहता
है, उसकी
तरफ जाने का
ढंग है बैठ
रहना, उठता
ही मत। चले कि
भटके; चले
कि दूर निकले।
वह तो पास था।
तुम चल कर कहां
जा रहे हो? शरीर
ही न बैठ जाए, मन भी बैठ
जाए, तुम्हारे
भीतर कोई गति
ही न रह जाए--और
तुम उसे पा
लोगे। पा लोगे
कहना ठीक नहीं
है! तुम अचानक हंसोगे
और कहोगे, जिसे
सदा से पाया
हुआ था, उसे
खोया कैसे था?
यह अनहोनी
घटी कैसे? यह
चमत्कार कैसे
संभव हुआ कि
जो भीतर जाग
रहा था, जो
खोजने वाले
में छिपा था, जो खोजी का
हृदय था, उसको
हम चूक कैसे
गए?
अगर और
ठीक से समझना
चाहो तो
लाओत्से यह
कहता है कि वह
पास है इसीलिए
तुम्हें दूर
मालूम पड़ता
है। वह पास है
इसीलिए तुम
चूक गए हो।
जैसे सागर की
मछली चूक जाती
है सागर को, उसे
पता ही नहीं
चलता कि सागर
कहां है। पता
चलेगा भी कैसे?
पता चलने के
लिए थोड़ी दूरी
चाहिए। मछली
सागर में ही
पैदा होती है;
सागर में ही
जवान होती है;
सागर में ही
जीती है; सागर
में ही मर
जाती है। मछली
को पता कैसे
चलेगा कि सागर
है? कभी-कभी
ऐसा हो जाता
है कि कोई
मछुआ मछली को
पकड़ लेता है, कोई मछुआ
जाल में फांस
लेता है, कोई
मछुआ सागर से
उठा लेता है
दूर मछली को, तट पर पटक
देता है। तब
मछली को पहली
बार पता चलता
है कि सागर
क्या है! खोकर
पता चलता है
कि क्या है, होकर पता
नहीं चलता।
लेकिन
परमात्मा के
साथ और भी
अड़चन है। उसका
कोई किनारा
नहीं। और बहुत
मछुओं ने
जाल डाले हैं, मैं
भी वही कर रहा
हूं। मछलियां
फंस भी जाएं
तो भी उन्हें
किनारे पर पटकने
का कोई उपाय
नहीं। किनारा
ही नहीं है!
परमात्मा तटहीन
सागर है।
इसलिए
तुम उसे जान
नहीं पा रहे, क्योंकि
वह बहुत करीब
है। तुम उसे
जान नहीं पा
रहे, क्योंकि
वह तुम में ही
छिपा है। कबीर
कहते हैं, कस्तूरी
कुंडल बसे, मृग ढूंढे
बन मांहि।
छिपी है वास
भीतर और मृग
पागल हो जाता
है। और खोजता
है जंगल में
दूर-दूर।
लहूलुहान हो
जाता है, टकराता
है, भागता
है। सुगंध
कहीं से आती
मालूम पड़ती
है। लगता है
कहीं कोई प्रगाढ़
आकर्षण खींचे
ले रहा है, कोई
चुंबकीय
शक्ति है। और
कस्तूरी भीतर
है। और
कस्तूरी मृग
की नाभि में
छिपी है। पक
गया है नाफा,
गंध बाहर आ
रही है।
तुम
परमात्मा को
खोजते फिरते
हो
जगह-जगह--काशी, कैलाश,
काबा--और
कस्तूरी
कुंडल बसे। जो
गंध तुम्हें मिल
रही है जीवन
की, वह
तुम्हारे
भीतर से आ रही
है। लेकिन
बाहर की प्रतिध्वनि
तुम्हें
सुनाई पड़ती
है।
यूनान
में एक कथा
है। एक बहुत
सुंदर युवक
हुआ,
नार्सीसस। वह इतना
सुंदर था कि
वह अपने ही
प्रेम में पड़ गया।
उसने अपनी छांह
देख ली एक
सरोवर में। तब
दर्पण न रहे
होंगे। बहुत
पुरानी कथा
है। एक सरोवर
में अपनी छांह
देख ली; इतनी
सुंदर थी!
निश्चित ही
युवक बहुत
सुंदर था। फिर
बहुत युवतियों
ने उस पर अपने
तीर फेंके, वे कारगर न
हो सकीं।
क्योंकि वह जो
छांव में उसने
देख लिया था
वैसा सुंदर
फिर उसने किसी
को पाया नहीं।
वह भटकता रहा,
वह खोजता
रहा उस
व्यक्ति को, जो उसने देख
लिया था सरोवर
के भीतर छिपा
हुआ। वह घंटों,
और दिनों, और महीनों
सरोवर के
किनारे बैठा
रहता और देखता
रहता टकटकी
लगा कर। पानी
में छलांग
लगाता, प्रतिबिंब
खो जाता; डुबकी
मारता, खोजता,
कुछ भी न
पाता। वहां
कुछ था तो
नहीं, वहां
तो बस
प्रतिफलन था,
वहां तो
सिर्फ
प्रतिछाया
थी। उसके
कूदते ही खो
जाती। कहते
हैं, नार्सीसस पागल हो
गया। सरोवर
दर्पण, प्रतिफलन,
छलांग
लगाना, खोजना;
खाना-पीना
भूल गया।
जंगल-जंगल
खोजता फिरा।
पहाड़-पहाड़
उसकी आवाज से
गूंजने लगे।
जो नार्सीसस
की कथा है, वही
तुम्हारी कथा
है। तुम जिसे
खोज रहे हो वह तुम्हारे
भीतर छिपा है।
हो
सकता है किसी
की आंख के
सरोवर में
तुम्हें
दिखाई पड़ा हो
अपना
प्रतिबिंब।
हो सकता है
किसी के चेहरे
पर तुम्हारा
प्रतिबिंब
दिखाई पड़ा हो।
हो सकता है
कभी संगीत के
माधुर्य में
झलक गई हो
बात। किसी
सुबह सूरज के
उगते क्षण में, आकाश
के मौन में, पक्षियों के
कलरव में, खिलते
हुए गुलाब के
फूल में
तुम्हें
दर्पण मिल गया
हो। लेकिन जो
तुमने देखा है,
जो तुमने
सुना है, जो
तुमने पाया है
कहीं भी बाहर,
सब खोजियों
की खोज एक है
कि वह
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
तो
लाओत्से से
पूछो, कहां
खोजें? वह
कहता है, कहीं
भी खोजा तो
मुश्किल में
पड़ोगे। खोजो
मत, रुक
जाओ। बिलकुल
रुक जाओ। और
तुम पा लोगे।
निष्क्रियता
है राज पाने
का। लाओत्से
कहता है, मिट
जाओ तो हो
जाओगे। अगर
बने रहे तो
मिटोगे, बुरी
तरह मिटोगे।
लाओत्से कहता
है, अगर
सफल होना हो
तो सफल होने
की कामना ही
छोड़ देना; अगर
तृप्ति चाहिए
हो तो तृप्त
होने की वासना
ही मत रखना।
सब कामनाएं
परिपूर्ण हो
जाती हैं जैसे
ही कामना छूट
जाती है।
निर्वासना से
भरे मन में वह
परम गुह्य उतर
आता है, उस
परम गुह्य का
नर्तन शुरू हो
जाता है। घिर
जाते हैं मेघ
आनंद के उसके
पास, जिसकी
कोई चाह नहीं।
तुम्हारी
मुसीबत यह है
कि तुम कहते
हो,
चाह नहीं!
हम तो लाओत्से
के पास भी
इसीलिए जाते
हैं कि चाह
है। लाओत्से
की बात भी तुम
इसीलिए सुनते
हो कि सोचते
हो शायद इसकी
बात सुनने से
आनंद मिल जाए।
तुम
ज्ञानियों के
पास भी अपने
लोभ के कारण
जाते हो। और
ज्ञानी यह कह
रहा है, तुम
हमारे पास आ
सकोगे तभी जब
तुम्हारे पास
कोई लोभ न हो।
बड़ी
अड़चन है। गुरु
और शिष्य के
बीच बड़ा गहन
संघर्ष है।
उससे बड़ा कोई
युद्ध संसार
में नहीं। और
अगर शिष्य जीत
जाए तो वही
उसकी हार
होगी। और
शिष्य अगर हार
जाए तो वही
उसकी जीत
होगी।
अब यह
सब विरोधाभास है।
और जब लाओत्से
ने ये सब
बातें कहीं, और
अपना ताओ तेह
किंग का पहला
वचन कहा, कि
जो कहा जा सके
वह सत्य है ही
नहीं, और
फिर कहना शुरू
किया तो अगर
लोगों ने समझा
कि इस लाओत्से
का उपदेश मूढ़ता
से बहुत
मिलता-जुलता
है, तो कुछ
हैरानी की बात
नहीं।
तुम्हीं
थे वे लोग। कुछ
बदलता नहीं, नाटक
की मंच बदल
जाती है। वही
हैं अभिनेता,
वही हैं
दर्शक; कथा
वही है। जैसे
रामलीला चलती
है, हर
गांव में चलती
है; कथा
वही है, मंच
अलग है, राम
भी अलग रूप के
हैं, सीता
भी अलग रूप की
है; कथा
वही है। सार
वही है। जो
लाओत्से के
साथ तुमने
किया वही तुम
मेरे साथ
करोगे। जो
लाओत्से
तुम्हारे साथ करना
चाहता था वही
मैं तुम्हारे
साथ करना चाहता
हूं। कथा वही
है। हर
गुरु-शिष्य के
बीच कथा वही
है। उसमें कुछ
बहुत भेद नहीं
है। रूप का भेद
है, रंग का
भेद है, नाम
का भेद है।
भीतर की धारा
एक है।
तुम्हें
मेरी बातें मूढ़ता
जैसी ही
लगेंगी। तुम
अगर मेरे
प्रेम में पड़
गए तो शायद
तुम कहो न, लेकिन
भीतर कहीं
तुम्हारा
तर्क कसमसाता
रहेगा, और
कहता रहेगा, इन बातों
में कहां पड़े
हो? मन इन
बातों को समझ
नहीं सकता।
लाओत्से
कहता है, "क्योंकि
यह महान है--यह
उपदेश--इसलिए
यह मूढ़ता
से मिलता-जुलता
है।'
यह
थोड़ा समझ लेने
जैसा है।
क्योंकि
ज्ञानी करीब-करीब
एक अर्थ में मूढ़ जैसा
हो जाता है।
वर्तुल पूरा
हो जाता है।
तुमने कभी
किसी मूढ़
व्यक्ति को
देखा है? मूर्खों
की बात नहीं
कर रहा हूं। मूढ़! मूढ़
का मतलब होता
है ईडियट, जो
सोच ही नहीं
सकता। ज्ञानी
का भी सोचना
खो जाता है।
फर्क बड़ा है; तालमेल भी
बड़ा है। अगर
तुम इतना ही
देखो तो जिसको
हम मूढ़
कहते हैं
उसमें भी
विचार की
तरंगें नहीं
होतीं। वह
बैठा रहता है
सुस्त--पत्थर
की तरह। उसके भीतर
कोई ऊहापोह
नहीं होता।
ज्ञानी भी
बैठा रहता है,
लेकिन
पत्थर की तरह
नहीं। बड़ा
गतिमान, बड़ा
प्रवाहमान; सतत धारा
बहती है
चैतन्य की; लेकिन विचार
नहीं होता।
तो अगर
तुम विचार से
ही नापने चलो
तो तुम्हें ज्ञानी
और मूढ़
समान मालूम
पड़ेंगे। अगर
तुम चैतन्य से
नापने चलो तो
वे दो विपरीत
छोर हैं। मूढ़
के पास कोई
चैतन्य नहीं
है,
ज्ञानी के
पास परम
चैतन्य है। मूढ़ विचार
से नीचे है, ज्ञानी
विचार के ऊपर
है, लेकिन
दोनों के
विचार...। मध्य
में तुम हो
जहां विचारों
का झंझावात
है। तुमसे
नीचे है मूढ़,
वहां कोई
झंझावात नहीं
है।
इसलिए मूढ़ भी
कभी-कभी बड़ा
प्रसन्न
दिखता है। मूढ़
तुमसे ज्यादा
आनंदित दिखता
है। क्योंकि न
कोई चिंता है, न
कोई विचार है।
मूढ़
जानवर जैसा
है। वह तुमसे
ज्यादा सुखी
है, इसमें
कोई शक नहीं।
क्योंकि दुखी
होने के लिए काफी
चिंतन की
जरूरत है।
दुखी होने के
लिए काफी
विचार करना
जरूरी है।
जितना
विचारशील
आदमी हो, उतना
दुख का जाल
खड़ा कर लेता
है।
संतों
ने कहा है, सब
ते भले मूढ़,
जिन्हें न व्यापै
जगत गति।
जगत
चलता रहता है, मगर
मूढ़ में व्यापती
ही नहीं कुछ
बात। उसे कुछ
मतलब ही नहीं
है; खा
लिया, पी
लिया, सो
गए। ज्ञानी भी
ऐसा ही है; खा
लिया, पी
लिया, सो
गए। लेकिन मूढ़
है अंधकार से
भरा और ज्ञानी
है प्रकाश से
भरा। मूढ़
में विचार
नहीं उठते, क्योंकि
प्रकाश की जरा
सी भी झलक
वहां नहीं है।
ज्ञानी में
विचार नहीं
उठते, क्योंकि
प्रकाश
परिपूर्ण हो
गया, अंधकार
का जरा सा भी
कोना नहीं रह
गया। मूढ़
अंधकार की
दृष्टि से
पूर्ण है, ज्ञानी
प्रकाश की दृष्टि
से पूर्ण है, तुम मध्य
में हो। इसलिए
तुम्हारी बड़ी
दुर्गति है।
मध्य
में सदा
दुर्गति
रहेगी, क्योंकि
खिंचाव रहेगा,
तनाव
रहेगा। एक तरफ
मूढ़ता
खींचती है कि
चले आओ इसी
किनारे, क्यों
परेशान हो रहे
हो? तो
कभी-कभी तुम
शराब पीकर मूढ़
हो जाते हो।
इसलिए तो
दुनिया में
नशों का इतना
प्रभाव है। वे
मूढ़ होने
के ढंग हैं। मूढ़ता
खींचती है, लौट आओ
पुराने
किनारे पर! इस
मध्य में
खड़े-खड़े तुम
बहुत परेशान,
अशांत, बेचैन
हो रहे हो।
लेकिन
कोई पीछे लौट
नहीं सकता।
जीवन में पीछे
जाने का उपाय
नहीं है।
इसलिए तुम घड़ी, दो
घड़ी के लिए
लौट जाओ, फिर
वापस लौट आना
पड़ेगा। उपाय
तो आगे जाने
का है। ज्ञानी
बुलाते हैं
आगे, कि बढ़
आओ! ज्ञानी भी
कहते हैं, मत
रुको सेतु पर।
अकबर
ने फतेहपुर
सीकरी बनाई।
नयी बस्ती थी, नयी
राजधानी थी।
बड़ी मेहनत से
बनाई गई थी।
अरबों रुपये
खर्च किए गए
थे। फिर अकबर
ने अपने पंडितों
को, अपने दरबारियों
को, अपने
नवरत्नों को
कहा कि कोई एक
वचन खोजो दुनिया
के साहित्य से
जो इस फतेहपुर
सीकरी के
दरवाजे पर
लिखा जा सके।
बड़ा बहुमूल्य
वचन लोगों ने
खोजा; वह
वचन है जीसस
का। उस वचन का
अर्थ है--जो फतेहपुर
सीकरी के
द्वार पर खुदा
है--कि यह
संसार एक सेतु
है; इससे
गुजर जाओ, इस
पर घर मत
बनाना। दिस
वर्ल्ड इज़
लाइक ए ब्रिज;
पास थ्रू
इट, गो बियांड
इट, बट डोंट
मेक योर
हाउस ऑन इट।
सेतु
का अर्थ होता
है: दो
किनारों के
मध्य में।
सेतु पर जो है
उसमें हमेशा
तनाव होगा।
तुम जिस
अवस्था में हो
वह अवस्था
नहीं है, वह एक
बीमारी है।
इसलिए तो तुम
बेचैन हो।
मनुष्य सदा
बेचैन रहेगा।
पशु बेचैन
नहीं है। परमात्मा
बेचैन नहीं
है। मनुष्य
बेचैनी है।
मनुष्य एक गहन
संताप है।
रहेगा ही।
क्योंकि दो
अतियां उसे
खींच रही हैं।
या तो गिर जाओ
और बन जाओ पशु।
कभी संभोग में,
कभी शराब
में--वही घटना
घटती है, गिर
जाते हो वापस,
थोड़ी देर के
लिए पशुओं के
जगत में लीन
हो जाते हो।
थोड़ी देर को
शांति मिलती
है।
पर वह
थोड़ी देर को
ही हो सकता
है।
क्षणभंगुर! इसलिए
तो तुम्हारे
सारे सुख
क्षणभंगुर
हैं। क्षणभंगुर
का इतना ही
मतलब है कि जब
तुम मूढ़
होते हो तभी
तुम्हें सुख
मिलता है। और मूढ़ता तुम
क्षण भर को ही
सम्हाल सकते
हो। और उसके
लिए भी
तुम्हारे
शरीर की
केमिस्ट्री
का बदला जाना
जरूरी है।
सेक्स में भी
बदल जाती है।
खूब भोजन कर
लेते हो तब भी
बदल जाती है
शरीर की रसायन।
शराब पी लेते
हो,
एल एस डी ले
लेते हो, तब
भी बदल जाती
है शरीर की
रसायन। शरीर
की रसायन बदल
जाए तो तुम
थोड़ी देर के
लिए पशु हो
पाते हो फिर
से। तब यह
अंधी, मूढ़ प्रकृति के
तुम हिस्से हो
जाते हो।
मूर्च्छित
हो जाओ तो तुम मूढ़ जैसे
हो जाते हो।
सजग हो जाओ तो
संतत्व उपलब्ध
होता है।
संतत्व में
फिर कोई विचार
नहीं है; यात्रा
समाप्त हो गई।
मूढ़ के
पास भी कोई
विचार नहीं है;
यात्रा अभी
शुरू ही नहीं
हुई। मूढ़
एक तरह की
शून्यता है, अभाव।
संतत्व एक तरह
की पूर्णता
है। दोनों की एक
खूबी है कि
दोनों पूर्ण
हैं। मूढ़
अपनी मूढ़ता
में, संत
अपनी पूर्णता
में, पर
दोनों पूर्ण
हैं। इसलिए
सांसारिक
लोगों को
अक्सर संत या
तो विक्षिप्त
मालूम पड़ते
हैं या मूढ़
मालूम पड़ते
हैं।
इस
सूत्र को खयाल
में ले लो।
या तो
तुम्हारी
चेतना पूरी
अंधकार में
डूब जाए, तुम
बिलकुल अचेतन
हो जाओ, तो
तुम्हें सुख
मिल सकेगा। या
तुम्हारी
पूरी चेतना
चैतन्य हो जाए,
सब अचेतनता
मिट जाए, सब
मूर्च्छा टूट
जाए, सब
बेहोशी गिर
जाए, तुम
एक जलती हुई
ज्योति बन जाओ
परम चैतन्य की,
तब तुम आनंद
में लीन हो
सकोगे।
और
ध्यान रखना, पीछे
लौटने का कोई
भी उपाय नहीं,
कितनी ही
कोशिश करो।
पीछे लौटना
ऐसा ही है जैसे
कोई आदमी जमीन
पर खड़े होकर
छलांग लगाए; एक क्षण को
हवा में उठ
जाता है, दूसरे
क्षण वापस
जमीन पर आ
जाता है।
तुम्हारे चित्त
की दशा से तुम
पीछे नहीं जा
सकते, प्रकृति
पीछे जाने को
मानती ही नहीं,
जानती ही
नहीं। जवान
कैसे बच्चा
होगा! बूढ़ा कैसे
जवान होगा!
पीछे लौटना
नहीं होता, आगे ही जाना
है। जीवन एक
विकास है, जीवन
एक सतत विकास
है, परमात्मा
पर
पूर्णाहुति
है।
"सब
संसार कहता है,
मेरा उपदेश मूढ़ता से
मिलता-जुलता
है। क्योंकि
यह महान है, इसलिए यह मूढ़ता
से
मिलता-जुलता
है। आल दि
वर्ल्ड सेज, माइ
टीचिंग ग्रेटली
रिजेंबल्स
फॉली। बिकाज इट इज़ ग्रेट, देयरफोर इट रिजेंबल्स
फॉली। और
यदि मूढ़ता
जैसा न लगता, तो यह कब का
तुच्छ हो गया
होता। इफ
इट डिड
नाट रिजेंबल
फॉली, इट
वुड हैव लांग
एगो बिकम
पेटी इनडीड।'
और यह
महान है और
सदा ही ऐसा
लगता रहेगा।
अगर यह महान न
होता तो कभी
का तुच्छ हो
गया होता। इसे
भी थोड़ा समझ
लो। महान शिक्षाएं
सदा ताजी
क्यों रहती
हैं?
तुम उन्हें
बासी नहीं कर
पाते। बुद्ध
को गए पच्चीस
सौ साल हो गए।
लाओत्से को गए
भी पच्चीस सौ
साल हो गए।
पच्चीस सौ साल
समय जरा सी भी
धूल उनके ऊपर
नहीं जमा पाया
है। पच्चीस सौ
साल! न मालूम
कितने सम्राट
आए और गए, कितने
युद्ध हुए, कितनी क्रांतियां
हुईं, समाज
बदला, जीवन
के ढंग, सभ्यता,
संस्कृति
बदली। आज कुछ
भी तो वैसा
नहीं है जैसा
लाओत्से के
समय में था।
लेकिन
लाओत्से बिलकुल
वैसा का वैसा,
ऐसा ताजा
जैसे सुबह की
ओस हो, अभी-अभी
खिला फूल हो, सद्यःस्नात,
अभी-अभी
स्नान करके
आया हो। समय
धूल नहीं जमा
पाता महान
सिद्धांतों
पर।
छोटे
सिद्धांत
सामयिक होते
हैं,
महान
सिद्धांत
शाश्वत होते
हैं, सनातन
होते हैं।
छोटे-छोटे
सिद्धांत आते
हैं, चले
जाते हैं।
महान
सिद्धांत न तो
आते हैं और न
जाते हैं। जो
लाओत्से कह
रहा है वह
लाओत्से के
पहले भी मौजूद
था। लाओत्से
ने फिर से उसे
वाणी दी। जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं वह सदा
से मौजूद रहा
है। मैं उसे
फिर से वाणी
दे रहा हूं। न
लाओत्से का
इसमें कुछ है,
न मेरा
इसमें कुछ है।
महान शिक्षाएं
शाश्वत हैं, सनातन
हैं। उन्हें
कोई लाया नहीं;
उन्हें कोई
ले जा नहीं
सकता। हां, इतना ही हो
सकता है, जब
कोई व्यक्ति
मौजूद होता है
जो अपने हृदय
को माध्यम बना
दे, जो
अपने प्राण को
बांसुरी बना
दे, तब वे शिक्षाएं
फिर से अनुगूंज
उठा देती हैं,
फिर से गीत
गुनगुनाने
लगती हैं। शिक्षाएं
सदा मौजूद
रहती हैं; उस
व्यक्ति की
तलाश में रहती
हैं जो अपने
को खुला छोड़
दे और शिक्षाएं
उससे बह जाएं।
धर्म
किसी की बपौती
नहीं है।
इसलिए तो मैं
कहता हूं, धर्म
न तो हिंदू है,
न मुसलमान
है, न ईसाई
है, न जैन
है, न
बौद्ध है; धर्म
तो सनातन है।
कभी क्राइस्ट
के ओंठों से बांसुरी
ने गीत गाया; इससे गीत
ईसाई नहीं हो
गया। गाने
वाला वही एक है।
कभी लाओत्से
के ओंठों पर
स्वर गूंजे;
गीत ओंठों
के कारण भिन्न
नहीं हो गया।
कभी महावीर, कभी बुद्ध, कभी कृष्ण।
रूप बदलते हैं,
अभिव्यक्ति
बदल जाती है; लेकिन सार, आत्मा वही
है।
इसे
खयाल में रखो।
क्योंकि ईसाई
बन जाना बहुत सरल
है,
धार्मिक
बनना बहुत
कठिन। हिंदू
बनना एकदम
आसान है, मुफ्त;
कुछ करना ही
नहीं पड़ता।
संयोग की बात
है हिंदू घर
में पैदा हो
गए, हिंदू
बन गए।
धार्मिक बनना
बड़ी क्रांति
है। और जो
सस्ते से राजी
हो जाता है वह
बहुमूल्य से वंचित
रह जाता है।
सस्ते से राजी
मत होना। हिंदू
होना इतना
आसान नहीं है,
न मुसलमान होना
इतना आसान है,
न ईसाई होना
इतना आसान है
जितना तुमने
समझ रखा है।
पैदा हो गए
ईसाई घर में
ईसाई हो गए।
पैदाइश से
धर्म का क्या
संबंध है? धर्म
से तो संबंध
जन्म और
मृत्यु का है
ही नहीं। धर्म
तो वही है
जिसका कोई
जन्म नहीं हुआ
और जिसकी कभी
कोई मृत्यु
नहीं होती।
तुम अपने जन्म
और मृत्यु से
धर्म को क्यों
जोड़ रहे हो?
धार्मिक
होना व्यक्ति
का बड़े सचेतन
अवस्था में
लिया गया
निर्णय है; जन्म
नहीं।
तुम्हें
खोजना होगा; तुम्हें
उठना होगा
अपनी तंद्रा
से; तुम्हें
जागना होगा।
जाग कर ही तुम
धार्मिक हो
सकोगे।
सोए-सोए तुम
हिंदू बने रहो,
मुसलमान
बने रहो, ईसाई
बने रहो; कुछ
फर्क न पड़ेगा।
मंदिर-मस्जिदों
में लोग सो
रहे हैं।
संप्रदाय एक
तरह की गहन निद्रा
है। जागना हो
तो तुम्हें
सनातन की खोज
करनी पड़ेगी।
हां, जिस
दिन तुम सनातन
को समझ लोगे
उस दिन
तुम्हें उस
सनातन की प्रतिध्वनियां
मंदिरों-मस्जिदों
में, गिरजाघरों में, गुरुद्वारों में, सब
जगह सुनाई
पड़ने लगेगी।
संप्रदाय से
कोई कभी धर्म
तक नहीं
पहुंचता, लेकिन
जो धार्मिक हो
जाता है उसकी
समझ में सब संप्रदाय
आ जाते हैं।
शास्त्र से
कोई कभी सत्य
तक नहीं
पहुंचता, लेकिन
जिसने सत्य का
जरा सा भी
स्वाद चख लिया,
सभी
शास्त्रों
में वही स्वाद
अनुभव होने
लगता है।
तुम्हें
गवाही बनना है;
धार्मिक
होकर ही तुम
गवाही बन
सकोगे।
धार्मिक होते
ही सारे
शास्त्र
तुम्हारी
गवाही पर सच होंगे,
तुम कहोगे
इसलिए सच
होंगे। एक
व्यक्ति भी
धार्मिक हो
जाए तो कृष्ण,
क्राइस्ट, बुद्ध, लाओत्से,
महावीर सभी
उस व्यक्ति के
माध्यम से फिर
पुनः अवतरित
हो जाते हैं।
क्योंकि फिर
से वह व्यक्ति
उस अज्ञात को
खींच कर
तुम्हारी
पृथ्वी के अंधकारपूर्ण
कोने में ले
आता है; फिर
से उन स्वरों
को गुंजा देता
है जो खो गए मालूम
पड़ते थे।
लाओत्से
कहता है, "और
यदि मूढ़ता
जैसा नहीं
लगता...।'
तो
महान
सिद्धांत सदा
ही मूढ़ता
जैसे लगेंगे।
और महान
सिद्धांतों
की यात्रा पर
केवल वे ही
लोग जा सकते
हैं जिन्हें मूढ़ होने
की हिम्मत है।
तुम अगर बहुत
बुद्धिमान हो
तब तो क्षुद्र
से ही तुम्हें
संतुष्ट होना
पड़ेगा। बहुत बुद्धिमानों
से मूढ़
तुम कहीं भी न
खोज सकोगे।
ज्यादा
बुद्धिमानी
मत दिखलाना, अन्यथा
बुद्धिमत्ता
से चूक जाओगे।
पहली बुद्धिमानी
तो मूढ़
होने की
हिम्मत है।
अज्ञानी होने
का साहस ज्ञान
की तरफ पहला
चरण है।
तुम
किसको धोखा दे
रहे हो?
तुमने
थोड़ा कचरा
इकट्ठा कर
लिया है; कहीं
से सुने शब्द,
बाजार में
सुनी बातें, मां-बाप के
उपदेश, स्कूल
के शिक्षकों
की चर्चा, वह
सब तुमने
इकट्ठा कर ली
है। लेकिन
उसका कोई भी
मूल्य नहीं
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक स्कूल में
शिक्षक था। और
जैसा कि स्कूल
में शिक्षकों
की आदत होती
है,
वह अखबार
लेकर आंख बंद
करके विश्राम
करता था। लड़के
उसे कई दफे
सोया हुआ पकड़
लेते थे। आखिर
लड़कों ने एक
दफे कहा कि आप
हमें तो सोने
नहीं देते और
आप खुद घुर्राटे
लेते हैं!
उसने कहा, मैं
घुर्राटे
नहीं लेता।
तुम सब काम
में लगे हो, उस बीच मैं
स्वर्ग की
यात्रा पर
जाता हूं; वहां
देवी-देवताओं
से मिलता हूं,
भगवान के
दर्शन करता
हूं; वहीं
से तो ज्ञान
लाता हूं
तुम्हारे लिए
रोज-रोज।
एक दिन
मुल्ला नसरुद्दीन
बीच में जग
गया;
एक मक्खी
उसके ऊपर
भिनभिना रही
थी। तो उसने
देखा, एक
सामने ही बैठा
लड़का घुर्राटे
ले रहा है। तो
उसने जगाया।
अब लड़के भी
कुशल हो गए
थे। लोग सीख
लेते हैं, आखिर
गुरु जब इतना
ज्ञानी तो
लड़के भी
ज्ञानी हो गए।
उस लड़के ने
कहा, आप यह
मत समझना कि
मैं कोई सो
रहा था; मैं
स्वर्ग गया
था। नसरुद्दीन
थोड़ा चिंतित
हुआ। उसने कहा
कि वहां क्या
देखा? उसने
कहा, क्या
देखा? मैंने
सब
देवी-देवताओं
से पूछा कि
मुल्ला नसरुद्दीन
इधर आते हैं? उन्होंने
कहा, हमने
तो कभी नाम ही
नहीं सुना।
न गुरु
जानते हैं, न
मां-बाप को
कुछ पता है।
कोई भी उस
स्वर्ग में गए
नहीं, कोई
उस मोक्ष को
जाना नहीं, और वे
तुम्हें सिखा
रहे हैं। हर
बच्चे को वे
सिखा रहे हैं।
मैं छोटा था
तो मुझे ले जाया
जाता था मंदिर,
कि झुको!
मैं पूछता कि
अगर आपको पता
हो पक्का तो
मैं झुकने को
राजी हूं, मुझे
आप पर भरोसा
है। लेकिन
मुझे शक है कि
आपको पता नहीं
है। मुझे लगता
है कि आपके
मां-बाप ने
आपको झुकाया,
आप मुझे
झुका रहे हैं।
अगर आपको
पक्का पता हो
तो मैं भरोसे
में झुकने को
राजी हूं।
मेरे पिता
ईमानदार आदमी
हैं।
उन्होंने
मुझे कहा, तो
फिर हम ही
झुकते हैं, तुम मत
झुको।
क्योंकि
हमारी तो आदत
हो गई, और न
झुकने से बड़ी
अड़चन होगी। अब
तुम अपना सम्हालो।
मगर इस तरह के
कठिन सवाल मत
उठाओ।
मां-बाप
से सीख लिया
है;
स्कूल में
सीख लिया है; किताबों में
लिखा है। सब
तरफ प्रचार हो
रहा है, उससे
सीख लिया है।
उसको तुम
ज्ञान समझ रहे
हो! किसको
धोखा दे रहे
हो? खुद ही
धोखा खा रहे
हो।
एक
पंडित एक गांव
की यात्रा पर
गया था। बड़ा
पंडित था। एक
छोटी सी घोड़ागाड़ी
में गांव का
किसान उसे ले
जा रहा था।
गांव में कोई
यज्ञ होने को
था। एक मक्खी
घोड़े के
आस-पास सिर के
चक्कर काटती।
और कभी-कभी
पंडित के सिर के
पास भी चक्कर
काटती। पंडित
बकवासी था, जैसे
कि पंडित होते
हैं। लंबा
रास्ता था तो
कुछ बातचीत
चलाने के लिए
उसने कहा उस
देहाती से, क्यों रे--वह
जो देहाती घोड़ागाड़ी
को हांक रहा
था--इस मक्खी
का क्या नाम
है? पंडितों
की उत्सुकता
नाम में ही
रहती है। भगवान
का क्या नाम
है? मक्खी
का क्या नाम
है?
उस
गांव के गंवार
ने कहा कि
इसका नाम घुड़-मक्खी
है। घुड़-मक्खी? घुड़-मक्खी
का क्या मतलब
होता है? उस
गांव के गंवार
ने कहा कि यह
घोड़े, खच्चर,
गधे, उनके
सिर के आस-पास
चक्कर...इसलिए
इसका नाम घुड़-मक्खी
है। उस पंडित
ने कहा, क्या
तेरा मतलब कि
मैं घोड़ा हूं?
उस ग्रामीण
ने कहा कि
नहीं, आप
घोड़ा बिलकुल
नहीं हैं, और
घोड़ा जैसे
लगते भी नहीं।
तो उस पंडित
को और थोड़ी बेचैनी
हुई; उसने
कहा, इसका
क्या मतलब? तू मुझे
खच्चर समझता
है? उसने
कहा कि नहीं, खच्चर भी आप
नहीं हैं।
आपके चेहरे से
साफ है, आप
खच्चर भी नहीं
हैं। नहीं, मेरा यह
मतलब नहीं है।
तो पंडित ने
कहा, अब तो
एक ही विकल्प
बचा, क्या
तू मुझे गधा
समझता है? उस
ग्रामीण ने पंडित
को नीचे से
ऊपर तक कई बार
देखा और कहा
कि नहीं, गधा
भी आप नहीं
हैं, और
गधे जैसे लगते
भी नहीं हैं।
लेकिन घुड़-मक्खी
को धोखा देना
मुश्किल है।
धोखा
किसको दे रहे
हो?
घुड़-मक्खी तक को
धोखा देना
मुश्किल है, तुम
परमात्मा को,
अस्तित्व
को धोखा देने
चले हो। वह
तुम्हारा
पांडित्य दो कौड़ी का है;
जितने
जल्दी कचरेघर
पर रख आओ उतना
अच्छा है।
लाओत्से
कहता है कि
अगर मूढ़ों
को ये परम
सिद्धांत मूढ़ता
जैसे न लगते
तो वे कभी के
तुच्छ हो गए
होते। उनकी
ताजगी है कि
आज भी लाओत्से
को समझने में
उतनी ही अड़चन
है जितनी कभी
पहले थी।
लाओत्से अब भी
उतना ही बेबूझ
है जितना कभी
था। और लाओत्से
सदा बेबूझ
रहेगा।
क्योंकि वह
जिस सत्य की बात
कर रहा है, सत्य
का स्वभाव
बेबूझ है।
सत्य का
स्वभाव रहस्य
है।
जिन्होंने
अपने अज्ञान
को समझ लिया
वे तो शायद
उसे समझने को
तैयार हो जाएं,
लेकिन
जिन्होंने
अपने अज्ञान को
ज्ञान समझा है,
उनके लिए वह
सदा मूढ़ता
जैसा ही
रहेगा।
लाओत्से
कहता है, "मेरे
तीन खजाने
हैं।'
यह
लाओत्से की
शिक्षाओं का
सार है, निचोड़ है, नवनीत
है।
"मेरे
तीन खजाने
हैं; उन पर
पहरा दो, और
उन्हें
सुरक्षित
रखो। पहला है
प्रेम; दूसरा
है अति कभी
नहीं; तीसरा
है संसार में
प्रथम कभी मत
हो। आई हैव
थ्री ट्रेजर्स;
गार्ड देम
एंड कीप देम
सेफ। दि
फर्स्ट इज़
लव; दि
सेकेंड इज़
नेवर टू मच; दि थर्ड इज़
नेवर बी दि
फर्स्ट इन दि
वर्ल्ड।'
समझें।
प्रेम।
लाओत्से
प्रार्थना
नहीं कहता।
क्योंकि
प्रार्थना तो
तुम अभी कर ही
न सकोगे। अभी
तो तुमने
प्रेम ही नहीं
किया। अभी तो
प्रार्थना बड़ी
दूर की बात हो
जाएगी। और अभी
तुम प्रार्थना
अगर करोगे, बिना
प्रेम किए, तो झूठी हो
जाएगी
प्रार्थना।
क्योंकि
प्रार्थना का
सारा सत्य तो
प्रेम से आता
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं,
ऐसा नहीं है
कोई उपाय कि
प्रेम को बचा
कर और हम सीधे
प्रार्थना
में चले जाएं?
तुम
प्रार्थना
में जाओगे
कैसे प्रेम को
बचा कर? प्रेम
कोई सीढ़ी होती
तो हम छलांग
भी लगा लेते।
प्रेम सीढ़ी
नहीं है, प्रार्थना
का प्राण है।
अगर प्रेम कोई
सीढ़ी होती तो
छलांग लगा कर
एक दूसरी सीढ़ी
पर सीधे चले
जाते। लेकिन
प्रेम सीढ़ी
नहीं है, प्रेम
प्रार्थना का
सारभूत प्राण
है। और जब प्रेम
से ही तुम
बचना चाहते हो
तो तुम
प्रार्थना से
भी बचना
चाहोगे।
हालांकि
प्रार्थना
में धोखा देना
आसान है, प्रेम
में धोखा देना
मुश्किल है।
इसलिए लोग पूछते
हैं कि प्रेम
से बचने का
कोई उपाय नहीं?
प्रार्थना
तुम मंदिर में
करते हो।
लेकिन तुम प्रार्थना
को सीखोगे
कहां? उसका
स्वाद
तुम्हें कहां
मिलेगा?
अगर
तुमने जीवन
में प्रेम
जाना हो तो
मंदिर के
द्वार
खुलेंगे।
क्योंकि जीवन
में जिसने प्रेम
को जाना वह आज
नहीं कल मंदिर
के द्वार पर
दस्तक देगा।
क्योंकि जब
प्रेम में
इतना रस पाया
तो प्रार्थना
में कितना रस
न मिलेगा!
प्रेम ही तो
खींचेगा। जब एक
बूंद पाकर
इतना मिल गया
तो सागर में
कितना न मिलेगा!
प्रेम अगर
बूंद है, बिंदु
है, तो
प्रार्थना
सागर है, सिंधु
है।
और
प्रेम उपलब्ध
है। और प्रेम
के लिए कोई थियोलाजी, कोई
धर्मशास्त्र
की जरूरत
नहीं। और
प्रेम के लिए किसी
गुरु की
आवश्यकता
नहीं। प्रेम
तो परमात्मा
ने तुम्हें
दिया ही है।
परमात्मा की
महान अनुकंपा
है कि उसने
तुम्हें
सारभूत दिया
है, जिसको
अगर तुम खोल
लो तो उसी से
तुम्हारा
मार्ग खुल
जाएगा।
तुम्हारे पास
उपकरण है।
जीसस
का बड़ा
प्रसिद्ध वचन
है: लव! एंड थ्रू
लव यू विल नो
गॉड। बिकाज
लव इज़
गॉड। प्रेम
करो! प्रेम से
तुम परमात्मा
को जानोगे।
क्योंकि
परमात्मा
प्रेम है।
यहां
बड़ी बारीक बात
है। जीसस ने
यह नहीं कहा, लव
गॉड सो दैट यू
कैन नो गॉड।
जीसस ने यह
नहीं कहा कि
परमात्मा को
प्रेम करो, ताकि तुम
परमात्मा को
जान सको। जीसस
ने कहा, लव!
एंड यू विल नो
गॉड। प्रेम
करो! और तुम
परमात्मा को
जान लोगे।
क्योंकि
परमात्मा
प्रेम है।
इसलिए
थोड़ी देर को
परमात्मा को
भूल जाएं, प्रेम
को ही समझ लें
कि प्रेम क्या
है। उसी समझ
में धीरे-धीरे
प्रार्थना भी प्रकट
होनी शुरू हो
जाती है।
प्रेम की प्रगाढ़ता
प्रार्थना बन
जाती है।
प्रेम
है दो
व्यक्तियों
का मिलन; प्रेम
है ऐसा क्षण
जहां दो
व्यक्ति अपने
अहंकार को अलग
हटा देते हैं;
जहां दो
व्यक्ति
अहंकार को बीच
में लेकर नहीं
मिलते, अहंकार
को हटा कर
मिलते हैं।
प्रेम है समर्पण
दो
व्यक्तियों
का, एक-दूसरे
के प्रति।
प्रेम है
भरोसा। प्रेम
है इस भांति
की चेष्टा कि
देह तो दो
होंगी, लेकिन
आत्मा एक
होगी।
और
प्रेम
प्रशिक्षण
है। अगर तुमने
प्रेम ही नहीं
किया--और
तुमने हजार
उपाय कर लिए
हैं ताकि तुम
प्रेम न कर
सको। विवाह
तुमने ईजाद कर
लिया है प्रेम
से बचने को।
जैसे
संप्रदाय ईजाद
किए हैं धर्म
से बचने को
ऐसा विवाह
ईजाद किया है
प्रेम से बचने
को। प्रेम को
काट ही दिया है।
इसीलिए तो
होशियार कौमें, चालाक
कौमें
बच्चों को
प्रेम नहीं
करने देतीं; मां-बाप तय
करते हैं।
मां-बाप के तय
करने में प्रेम
को छोड़ कर और
सभी चीजों का
विचार किया
जाता है। धन
का, कुल का,
पद का, प्रतिष्ठा
का, सब
बातों का
विचार किया
जाता है, सिर्फ
प्रेम को छोड़
कर। और इसीलिए
तो बाल-विवाह
प्रचलित रहा
है। क्योंकि
अगर युवक हो
जाएं तो फिर
तुम प्रेम को
बिना विचारे
छोड़ न पाओगे; फिर प्रेम भीतर
घुस जाएगा।
और
प्रेम सारे
अर्थशास्त्र
को बिगाड़ देता
है। प्रेम
खतरनाक सूत्र
है। क्योंकि
प्रेम जानता
नहीं कि कौन
भंगी है, कौन
ब्राह्मण है।
प्रेम जानता
नहीं कि कौन
हिंदू है, कौन
मुसलमान है।
प्रेम तो
सिर्फ प्रेम
की भाषा जानता
है। और सब, कुछ
नहीं जानता।
प्रेम
संप्रदाय
नहीं जानता।
इसलिए तो
मैंने कहा कि
विवाह और
संप्रदाय
समानांतर, साथ-साथ
हैं। प्रेम
गरीब और अमीर
को नहीं जानता।
अमीर गरीब के
प्रेम में पड़
सकता है; गरीब
सम्राट के
प्रेम में पड़
सकता है।
प्रेम बड़ा
खतरनाक है; कहां ले
जाएगा, कुछ
पता नहीं।
इसलिए
प्रेम को काट
दो। बाल-विवाह
ईजाद किया गया, ताकि
प्रेम का कोई
उपाय ही न
रहे। फिर जब
बचपन से ही एक
पुरुष और
स्त्री पास
रहते हैं, तो
उनके बीच एक
तरह का लगाव
बन जाता है जो
प्रेम नहीं
है। वह लगाव
वैसे ही है
जैसे बहन और
भाई के बीच
होता है।
साथ-साथ रहने
से पैदा होता
है। उस लगाव
में प्रेम का
न तो कोई
तूफान है, न
कोई आंधी है।
वह
लगाव औपचारिक
है,
फार्मल है। वह तो
किसी के भी
साथ बहुत दिन
तक रहो तो एक लगाव
बन जाता है, उसके साथ एक
मैत्री बन
जाती है, एक
पसंद हो जाती
है। वह न हो तो
खालीपन लगता
है; वह
मौजूद न हो तो
अड़चन मालूम
होती है।
लेकिन उसमें न
तो कोई तूफान
आता है, न
तुम्हारे
प्राणों में
कभी ऐसा
उन्मेष उठता है
कि गीत झर
जाएं; न
कभी प्राणों
में ऐसी कोई
आंधी आती है, ऐसा कोई
झंझावात, कि
सब दीवारें
कंप जाएं, आधार
कंप जाएं, तुम्हारा
घर डोलने लगे
भूकंप में।
नहीं, उसमें
कोई एक्सटैसी,
कोई समाधि
का कोई क्षण
नहीं आता। एक
सामाजिक व्यवस्था
चलती है, घर-गृहस्थी
चलती है।
प्रेम
तो बड़ा खतरनाक
है,
संन्यास
जैसा खतरनाक
है। विवाह
समाज की संस्था
है, प्रेम
परमात्मा का
आमंत्रण है।
समाज ने अपनी व्यवस्था
कर ली है, क्योंकि
प्रेम के साथ
समाज अड़चन में
पड़ेगा। प्रेम
कहां ले जाएगा,
कुछ पता
नहीं; किन
रास्तों पर
चलाएगा, कुछ
पता नहीं; कहां
भटकाएगा, कुछ
पता नहीं।
क्या परिणति
होगी आखिर में,
उसका कुछ
पता नहीं।
प्रेम का
रास्ता
नापा-जोखा
नहीं है।
प्रेम
से तुम्हें
बचा दिया गया
है। और प्रेम
से बचने के
कारण
तुम्हारे
जीवन में एक
कमी है।
क्योंकि
प्रेम के बिना
कोई भी तृप्त
नहीं हो सकता।
प्रेम के बिना
तुम जीओगे, लेकिन
मरे-मरे, जीओगे
अपने को ढोते
बोझ की तरह।
प्रेम ही तृप्त
कर सकता है।
क्योंकि जहां
दो व्यक्ति
मिलते हैं और
अहंकार छूटते
हैं, उस दो
व्यक्तियों
के मिलने के
क्षण में वहां
एक तीसरा
व्यक्ति भी
मौजूद होता है,
जिसका नाम
परमात्मा है।
क्योंकि जहां
भी अहंकार
छूटते हैं
वहीं
परमात्मा
प्रवेश कर
जाता है। वह
उसका द्वार
है।
अगर दो
व्यक्तियों
ने ठीक से
प्रेम किया
एक-दूसरे को...।
ठीक से
प्रेम करने का
अर्थ है
उन्होंने
अहंकार हटा कर
प्रेम किया, अहंकार
के माध्यम से
नहीं।
क्योंकि जब
अहंकार के
माध्यम से
प्रेम होता है
तब तुम दूसरे
को प्रेम नहीं
करते, तुम
दूसरे के
द्वारा अपने
को ही प्रेम
करते हो। तब
तुम दूसरे की
फिक्र नहीं कर
रहे हो, दूसरे
का शोषण कर
रहे हो। तब
दूसरे की
हिफाजत नहीं
है, दूसरे
का उपयोग है।
तब दूसरा एक
उपकरण है, एक
वस्तु है, व्यक्ति
नहीं।
जब
अहंकार बीच
में होता है
तो जीवंत
व्यक्तियों
को वस्तुओं
में बदल देता
है। पत्नी, पति
वस्तुओं जैसे
हो जाते हैं; एक-दूसरे का
उपयोग कर रहे
हैं। कोई पुलक
नहीं है; कहीं
कोई फूल नहीं
खिलता; कहीं
कोई सुगंध
नहीं बिखरती।
जहां भी कोई
व्यक्ति अहंकार
को बीच में ले
आता है, वहां
पजेशन, वहां
मालकियत, परिग्रह,
दूसरे पर
दावा, कलह,
संघर्ष, तरकीबें,
चालाकी, सब
राजनीति
प्रविष्ट हो
जाती है।
लेकिन
जब कोई
अहंकारों को
हटा देता है, और
दो व्यक्ति
ऐसे मिल जाते
हैं जैसे दो ज्योतियां
करीब आकर
अचानक एक हो
जाएं, उस
घड़ी में एक
संध खुलती है
इस जगत में
जहां से परमात्मा
झांकता
है। प्रेम
परमात्मा की
पहली अनुभूति
है।
लेकिन
प्रेम वंचित
कर दिया गया
है। प्रेम रोक
दिया गया है।
प्रेम के रोक
देने के कारण
तुम सदा
अतृप्त हो, बेचैन
हो, परेशान
हो। कुछ कम, कुछ कम
मालूम पड़ता है;
कुछ कमी, कोई अभाव।
यह भी साफ
नहीं कि किस
चीज का अभाव है,
क्या
चाहिए। धन भी
है, धन भी
इकट्ठा कर
लेते हो, फिर
भी अभाव। पद
भी है, प्रतिष्ठा
मिल जाती है, फिर भी
अभाव। और यह
भी तुम्हें साफ
नहीं कि अभाव
किस बात का।
जैसे एक
प्यासा आदमी
है, जिसको
प्यास किसी
तरकीब से भुला
दी गई है। वह धन
इकट्ठा कर
लेता है, फिर
भी अभाव।
क्योंकि
प्यास थी, पानी
की जरूरत थी, धन की जरूरत
न थी। फिर इस
तरह के प्यासे
लोग जिनको
अपनी प्यास
भूल गई है, और
जिन्हें
प्रेम का
सूत्र खो गया
है जिनके हाथ
से, छीन
लिया गया है, और झूठी
संस्थाएं
जिनके हाथ में
दे दी गई हैं; प्रेम के
काव्य की जगह
जिनको विवाह
का गणित पकड़ा
दिया गया है; प्रेम के
धर्म की जगह
जिनके हाथ में
प्रेम का अर्थशास्त्र,
विवाह, जो
ढो रहे हैं; ये लोग
मंदिर-मस्जिदों
में जाते हैं,
घुटने
टेकते हैं, प्रार्थना
करते हैं।
इनका
अभाव, इनको
लगता है कि
शायद
प्रार्थना से
पूरा हो जाए, शायद योग से
पूरा हो जाए, शायद ध्यान
से पूरा हो
जाए। और मैं
तुमसे एक बात
कह देना चाहता
हूं कि
धार्मिक
पंडे-पुरोहित,
मंदिर-मस्जिदों
के अधिकारी, इस सत्य को
बहुत पहले समझ
गए कि अगर
लोगों को
प्रेम से वंचित
कर दो तो ही
मंदिरों और मस्जिदों
में भीड़ रहेगी,
अन्यथा
नहीं।
क्योंकि जब
प्रेम न
मिलेगा तब वे
प्रार्थना मांगेंगे।
अगर जगत में
प्रेम अवतरित
हो जाए, मंदिर-मस्जिद,
पंडे-पुजारी
अपने आप खो
जाएं।
तुम्हारा
हृदय मंदिर हो
जाएगा।
यह
सबसे बड़ी
खतरनाक साजिश
है जो आदमी के
साथ की गई है, कि
उसका प्रेम का
सूत्र काट
दिया गया है।
तब वह बंधा
हुआ अपने आप
मंदिर आएगा
ही। आज नहीं
कल, कल
नहीं परसों, उसे मंदिर
आना ही पड़ेगा।
क्योंकि उसे
लगेगा कि कुछ
कम है जो
संसार में
पूरा नहीं
होता, तो
संसार के बाहर
कहीं खोजें।
जिस
दिन दुनिया
में प्रेम
परिपूर्ण रूप
से मुक्त होगा, कोई
प्रेम पर बाधा
और अड़चन न
होगी, और
प्रेम स्वयं
का निर्णय
होगा--मां-बाप
का नहीं, परिवार
का नहीं, समाज
का नहीं, किसी
राजनीति का
नहीं--जिस दिन
प्रेम स्वयं
का आविर्भाव
होगा, जिस
दिन भीतर का
हृदय खिलेगा,
उस दिन
मंदिर-मस्जिदों
से लोग अपने
आप विदा हो
जाएंगे।
प्रेम का मंदिर
काफी मंदिर
है। फिर कोई
और मंदिर की
जरूरत नहीं
है। और तब
प्रार्थना
उठेगी। जब
प्रेम पकता है
तो पके प्रेम
से जो गंध
उठती है वही
प्रार्थना
है।
जब दो
व्यक्ति इतने
लीन हो जाते
हैं एक-दूसरे
में कि एक हो
जाते हैं, तब
उनको पहली दफा
पता चलता है
कि जब दो के एक
हो जाने से
इतनी अपरिसीम
सुख की
संभावना पैदा
हुई है, तो
काश हम अनंत
के साथ एक हो
जाएं! पहली
दफा विचार
उठता है कि जब
एक के साथ
खोकर, दो
बूंद के मिलने
से ऐसा महा
सुख बरसा है, तो जब बूंद
सागर से मिलती
होगी, जब
सागर बूंद से
मिलता होगा, तब क्या
घटता होगा? प्रेम स्वाद
देता है; प्रार्थना
में जाने का
बल देता है; प्रार्थना
की तरफ पैर
उठने की
हिम्मत और
साहस आता है।
लेकिन
प्रेम से ही
तुम बच रहे हो, तो
तुम कायर हो
गए हो, तुममें
दुस्साहस रहा
ही नहीं।
लाओत्से
कहता है कि
तीन खजाने
हैं मेरे जो
मैं तुम्हें
देना चाहता
हूं।
"पहला
है प्रेम, दूसरा
है अति कभी
नहीं।'
लाओत्से
परमात्मा की
बात ही नहीं
करता, प्रार्थना
की बात ही
नहीं करता।
क्योंकि कहता
है, बीज दे
दिया, बाकी
घटनाएं घटती
रहेंगी। बीज
को बो दिया, अंकुर
निकलेगा अपने
आप, तुम्हें
कुछ करना
नहीं। वृक्ष
बड़ा होगा, घनी
उसकी छाया
होगी, फूल
लगेंगे, फल
आएंगे; यह
सब अपने से
होगा, तुम
बीज की सम्हाल
कर लेना।
इसलिए प्रेम
की बात की है, प्रार्थना
की नहीं, परमात्मा
की नहीं।
अनेकों
को लगता है कि
लाओत्से
नास्तिक है।
लाओत्से
महा आस्तिक
है। और
तुम्हारे
मंदिर-मस्जिदों
में जो बैठे
हैं वे सब
नास्तिक हैं।
उनकी साजिश
गहन है, षडयंत्र
खतरनाक है।
उन्होंने
तुम्हारे जीवन
को इस तरह से
अवरुद्ध कर
दिया है, इस
तरह से काट
दिया है; उन्होंने
बीज को ही
दग्ध कर दिया
है। तब तुम जो
भी करते हो सब
झूठा-झूठा।
ऐसी मेरी प्रतीति
है: जिस
व्यक्ति का
प्रेम झूठा, उसका पूरा
जीवन झूठा
होगा।
क्योंकि
प्रेम तक के
संबंध में तुम
सच्चे न हो
सके तो अब तुम
किस चीज के
संबंध में
सच्चे हो
सकोगे? जब
प्रेमी के साथ
तुम सच्चे और
प्रामाणिक न
हो सके तो ग्राहक
के साथ हो
सकोगे? बाजार
में, समाज
में? जब
निकटतम के साथ
तुम झूठे हो, जब पत्नी को
देख कर तुम
मुस्कुराते
हो क्योंकि मुस्कुराना
चाहिए, जब
तुम पिता के
पैर दबाते हो
क्योंकि
दबाना चाहिए,
जब तुम गुरु
को देख कर खड़े
हो जाते हो
क्योंकि खड़ा
होना चाहिए, तब सब खो गया।
तुम्हारे
जीवन में सब
झूठ होगा अब।
ये निकटतम
बातें थीं जो
हृदय के बहुत
करीब थीं। ये झूठी
हो गईं तो जो
बहुत दूर हैं
वे कैसे सच्ची
होंगी?
प्रेम
सच्चा हो तो
तुम्हारे
जीवन में सब
तरफ सच्चाई
आनी शुरू हो
जाएगी।
क्योंकि
प्रेम तुम्हें
बड़ा करेगा, फैलाएगा। और धीरे-धीरे
अगर तुमने एक
व्यक्ति के
प्रेम में रस
पाया तो तुम
औरों को भी
प्रेम करने
लगोगे। मनुष्यों
को प्रेम
करोगे--प्रेम
की लहर बढ़ती
जाएगी--पौधों
को प्रेम
करोगे, पत्थरों
को प्रेम
करोगे। अब
सवाल यह नहीं
है कि किसको
प्रेम करना है,
अब तुम एक
राज समझ लोगे
कि प्रेम करना
आनंद है।
किसको किया, यह सवाल
नहीं है। अब
तुम यह भूल ही
जाओगे कि प्रेमी
कौन है। नदी, झरने, पहाड़,
पर्वत, सभी
प्रेमी हो
जाएंगे।
लेकिन
जैसे झील में
कोई पत्थर
फेंकता है तो
छोटा सा
वर्तुल उठता
है लहर का, फिर
फैलता जाता, फैलता जाता,
दूर तटों तक
चला जाता है; ऐसे ही दो
व्यक्ति जब
प्रेम में
पड़ते हैं तो पहला
कंकड़
गिरता है झील
में प्रेम की,
फिर फैलता
चला जाता है।
फिर तुम
परिवार को प्रेम
करते हो, समाज
को प्रेम करते
हो, मनुष्यता
को, पशुओं
को, पौधों
को, पक्षियों
को, झरनों
को, पहाड़ों
को, फैलता
चला जाता है।
जिस दिन तुम्हारा
प्रेम समस्त
में व्याप्त
हो जाता है, अचानक तुम
पाते हो
परमात्मा के
सामने खड़े हो।
प्रेम
पकता है तब
सुवास उठती है
प्रार्थना की।
जब प्रार्थना
परिपूर्ण
होती है तो
परमात्मा
द्वार पर आ
जाता है। तुम
उसे न खोज
पाओगे। तुम
सिर्फ प्रेम
कर लो; वह खुद
चला आता है।
तुम उसे खोजने
जाओगे भी कहां?
पता-ठिकाना
भी तो मालूम
नहीं।
और डर
है कि उसे
खोजने तुम गए
तो तुम किसी
साजिश के
हिस्से न हो
जाओ। क्योंकि
काशी में, काबा
में साजिश के
अड्डे हैं।
वहां तुम उलझ
जाओगे। और
वहां बैठे लोग
तुम्हें समझाएंगे
कि प्रेम पाप
है, और छोड़ो
प्रेम और
प्रार्थना
करो। वे बड़े
कुशल लोग हैं।
वे बड़ा गहरा
खेल खेल रहे
हैं। और
उन्होंने इतने
दिन से यह जहर
तुम्हारे मन
पर फेंका है
कि तुमको भी
उनकी बात जंचेगी
कि बात तो ठीक
ही है; प्रेम
तो लगाव है, आसक्ति है।
प्रार्थना
भी लगाव है और
आसक्ति है। और
परमात्मा परम
आसक्ति है।
क्योंकि जीवन
जुड़ा है। यहां
हम अलग-थलग
नहीं हैं; यहां
हम सब संयुक्त
हैं, इकट्ठे
हैं। यहां
तुम्हारा
होना और मेरा
होना दो लहरों
की तरह है; नीचे
छिपा सागर एक
है। और एक लहर
दूसरी लहर से मिल
रही है। मिलने
की तैयारी
प्रेम है; मिल
जाने का अनुभव
तत्क्षण
प्रार्थना
में उठा देता
है। और जब
प्रार्थना पूर्ण
होती है, आंख
तुम खोलते हो,
द्वार पर
पाते हो
परमात्मा खड़ा
है। वह सदा से खड़ा
था। तुम तैयार
न थे, तुम्हारी
तैयारी
चाहिए।
तो
लाओत्से कहता
है,
पहला सूत्र
प्रेम, पहला
खजाना प्रेम।
दूसरा है अति
कभी नहीं।
यह भी
बड़ा समझ लेना
है। क्योंकि
मनुष्य का मन
अतियों में
जीता है, एक्सट्रीम्स में। या तो
तुम एक तरह की
अति करते हो
या दूसरे तरह
की।
अभी
कुछ दिन पहले
की बात है। एक
युवक
इंग्लैंड से
आया। वह उपवास
में भरोसा
करता है।
उपवास को उसने
अपनी साधना
बना रखा है।
शरीर दीनऱ्हीन
हो गया है।
ऊर्जा क्षीण
हो गई है। तो
मैं उसे समझाया
कि अगर मरना
ही हो तो बात
अलग,
मजे से करो
उपवास। लेकिन
जीवन ऐसे न
चलेगा। और
ऊर्जा अगर
इतनी क्षीण है
तो तुम ध्यान
कैसे करोगे? क्योंकि
ऊर्जा तो
चाहिए ही। और
ध्यान के लिए
तो बहुत ऊर्जा
चाहिए।
क्योंकि वह
कोई छोटी-मोटी
घटना नहीं है।
तुम इतनी बड़ी
क्रांति की तैयारी
कर रहे हो तो
बड़ा ईंधन
चाहिए। अगर
तुमने सब राख
कर डालने का
तय किया है तो
एकाध चिनगारी
से काम न
चलेगा; दावानल,
विराट
लपटें चाहिए।
ध्यान की
यात्रा पर
निकले हो; अगर
थके-मांदे तुम
यात्रा के
पहले ही हो तो
कदम कैसे
उठाओगे?
कठिन
था उसे समझना, फिर
भी उसने समझने
की कोशिश की।
तीसरे दिन वह आया
और उसने कहा, आपने मुसीबत
में डाल दिया।
मैं बहुत
ज्यादा खा
गया। अब मेरे
पेट में दर्द
है और मैं बड़ी
मुसीबत में
पड़ा हूं।
उपवासी, अगर
उपवास छुड़ाओ,
ज्यादा खा
लेगा। असल में,
ज्यादा खाने
वाले लोग ही
उपवास करते
हैं। उन दोनों
में संबंध है।
जहां-जहां
ज्यादा भोजन
उपलब्ध हो जाता
है वहां-वहां
उपवास का
संप्रदाय
प्रचलित हो
जाता है। अभी
अमरीका में
बड़े जोर से चल
रहा है, उपवास
करो! हर चीज के
लिए उपवास
कारगर है। बीमारी
है तो उपवास, किसी स्त्री
को सुंदर होना
है तो उपवास, शरीर को
सुडौल बनाना
है तो उपवास, स्वस्थ
बनाना है तो
उपवास; सबके
लिए उपवास।
अमरीका इस समय
ज्यादा भोजन की
अवस्था में
है। ऐसी दशा
भारत में भी
आई थी; उसी
वक्त जैन पैदा
हुए। आज से
पच्चीस सौ साल
पहले भारत ऐसे
ही समृद्ध था
जैसा अमरीका।
बड़ा धन-धान्य
था। बड़ा सुख
था। लोग कहते
हैं, दूध-दही
की नदियां
बहती थीं। खूब
था भोजन करने
को, और
लोगों ने खूब
भोजन किया
होगा।
तत्क्षण उपवास
महत्वपूर्ण
हो गया।
यह
तुमने कभी
खयाल किया कि
जब गरीब आदमी
का धार्मिक
दिन आता है तो
वह भोज करता
है,
और जब अमीर
आदमी का धार्मिक
दिन आता है तो
वह उपवास करता
है। बड़े मजे
की बात है!
लेकिन सीधा है,
गणित तो साफ
है। मुसलमान
गरीब हैं, साल
भर तो खींचत्तान
कर चलता है।
हिंदू गरीब
हैं, तो
किसी तरह गुजारते
हैं दिन।
लेकिन जब
उत्सव का दिन
आ जाता है, दिवाली
आ गई, तो
गरीब आदमी भी
मिष्ठान्न
खरीद लाता है।
लक्ष्मी की
पूजा का दिन आ
गया, कि
जन्माष्टमी आ
गई, कि
कृष्ण का जन्म
हो रहा है, तो
अब यह तो
उत्सव का क्षण
है: खाओ, पीओ,
मौज करो। ईद
आ गई, तो
मित्रों को भी
निमंत्रित
करो। गरीब हैं
मुसलमान, कपड़े
रोज तो बदल
नहीं सकते, पर ईद के दिन
नये कपड़े पहन
कर निकल आते
हैं। धार्मिक
दिन उत्सव का
दिन है।
लेकिन
जैन का उत्सव
का दिन आए तो
वह पर्यूषण
के व्रत रखता
है। क्योंकि
साल भर तो
उत्सव चल ही
रहा है, साल
भर तो अति
भोजन चल ही
रहा है, तो
अब धार्मिक
दिन को कुछ तो
भिन्न बनाना
चाहिए। तो वह
भूखा मरता है।
और भूखा मरने
से साल भर में
जो स्वाद खो
गया था वह फिर
लौट आता है।
तो पर्यूषण
के दिनों में
जैन भोजन तो
नहीं करते, भोजन
की कल्पना, फैंटेसी,
खूब सोचते
हैं कि दस दिन
कब पूरे हो
जाएं। बस एक
ही प्रार्थना
कि दस दिन कब
पूरे हो जाएं।
और दस दिन के
बाद क्या-क्या
करना है, क्या-क्या
खाना है, उसकी
फेहरिस्त
बनाते हैं। तो
लाभ है इससे
भी कि भोजन
में फिर स्वाद
लौट आता है।
बस इतना ही
लाभ है, और
कोई लाभ नहीं
है।
अति से
जो बच जाए वही
समझदार है। न
तो उपवास, न
अति भोजन; सम्यक
आहार। जितना
शरीर के लिए
जरूरी है, बस
उतना। न इस
तरफ ज्यादा, न उस तरफ
ज्यादा।
क्योंकि
दोनों हालतें
रुग्णता की
हैं।
स्वास्थ्य
मध्य बिंदु
है। स्वास्थ्य
संतुलन है।
या तो
लोग बहुत
सोएंगे, या
बिलकुल नहीं
सोएंगे। या तो
कोई काम
ज्यादा कर
लेंगे, पूरी
जान लगा देंगे,
और या फिर
बिलकुल छोड़ कर
बैठ जाएंगे।
नहीं, ऐसे
न चलेगा। अति
कितनी देर
खींच सकते हो
तुम? अति
कभी जीवन की
शैली नहीं बन
सकती। कैसे
बनाओगे अति को
जीवन की शैली?
अगर उपवास
करोगे, कितने
दिन जीओगे? अगर ज्यादा
खाओगे, तो
भी कितने दिन
जीओगे? भूख
भी मार डालती
है; अति
भोजन भी मार
डालता है।
अगर
जीवन का सार
समझना है तो
मध्य में कहीं, सम्यक,
संतुलित, जितना जरूरी
है बस उतना।
नींद भी जितनी
जरूरी है बस
उतनी; भोजन
भी उतना जितना
जरूरी है; श्रम
भी उतना जितना
जरूरी है; विश्राम
भी उतना जितना
जरूरी है। और
हर आदमी को खोजना
है अपना
संतुलन, क्योंकि
इसके लिए कोई
बंधी हुई कोटि
और धारणा नहीं
हो सकती।
क्योंकि लोग
अलग-अलग हैं।
अब
बूढ़े आदमी
मेरे पास आते
हैं। वे कहते
हैं,
नींद नहीं
आती। मैं
पूछता हूं कि
कितनी आती है?
वे कहते हैं,
बस मुश्किल
से तीन-चार
घंटे।
पर
बूढ़े आदमी को
तीन-चार घंटे
पर्याप्त है।
बच्चा पैदा
होता है, बीस
घंटे सोता है।
मरते वक्त भी
तुम्हें बीस घंटे
सोने का इरादा
है? जन्म
के समय जरूरत
है बीस घंटे
की। क्योंकि
बच्चे के शरीर
में इतना काम
चल रहा है कि
अगर वह जागेगा
तो काम में
बाधा पड़ेगी।
बच्चे के शरीर
में निर्माण
हो रहा है, उसे
सोया रहना
उचित है। अभी
बढ़ रहा है
बच्चा। गर्भ
में तो चौबीस
घंटे सोता है।
क्योंकि उसका
जरा सा भी जाग
जाना, और
बाधा पड़ेगी।
जब भी
तुम्हारा
शरीर थका होता
है और निर्माण
की जरूरत होती
है तब नींद
उपयोगी है।
इसलिए तो चिकित्सक
कहते हैं, अगर
बीमारी हो और नींद
न आए तो
बीमारी से भी
खतरनाक नींद
का न आना है।
पहले नींद लाओ,
बीमारी की
पीछे फिक्र
करेंगे।
क्योंकि आधी बीमारी
तो नींद में
ही ठीक हो
जाएगी। तुम जब
जागे रहते हो
तो तुम बाधा
डालते हो। और
तुम्हारी
ऊर्जा बाहर की
तरफ बहती रहती
है। जब तुम सो
जाते हो, सारी
ऊर्जा भीतर
वर्तुलाकार
घूमने लगती
है। तो निर्माण
होता है।
बूढ़ा
आदमी तो मर
रहा है।
निर्माण तो कब
का बंद हो
चुका। अब तो
चीजें टूट रही
हैं। अब तो
सेल नष्ट हो
रहे हैं। अब
तो जो भी मिट
जाता है वह
फिर नहीं
बनता। तो उसकी
नींद कम हो गई
है। स्वाभाविक
है। अब उसको
नींद की
आकांक्षा
नहीं करनी
चाहिए, कि वह
सोचे कि हम
जवान जब थे तो
आठ घंटे सोते
थे। तो तब तुम
जवान थे, तुम
नहीं सोते थे
आठ घंटे, जवानी
आठ घंटे सोती
थी। तुम बच्चे
थे, बीस
घंटे सोते थे।
तुम नहीं सोते
थे, बचपना
बीस घंटे सोता
था।
और फिर
हर व्यक्ति के
जीवन में रोज
बदलाहट होती
है। तो
व्यक्ति को
सजग होकर
संतुलन को
सम्हालना
चाहिए। जड़
नियम जो बना
लेता है वह हमेशा
असंतुलित हो
जाएगा।
क्योंकि तुम
रोज बदल रहे
हो। बचपन में
एक नियम बना
लिया; जवान हो
गए, अब
क्या करोगे? जवानी में
एक नियम बना
लिया; अब
बूढ़े हो गए, अब क्या
करोगे? नहीं,
आदमी को सजग
रह कर रोज-रोज
संतुलन खोजना
पड़ता है।
जैसे
तुमने कभी
किसी नट को
देखा हो रस्सी
पर चलते। तो
वह ऐसा थोड़े
ही कि एक दफा
सम्हाल लिया संतुलन
और चल पड़े; बस
एक दफा पहले
कदम पर सम्हाल
लिया, चल
पड़े। हर कदम
पर सम्हालना
होता है।
क्योंकि हर
कदम नया कदम
है; हर
यात्रा नयी
यात्रा है। हर
पल नया है, तुम्हारा
पुराने पल का
जो तुमने तय
किया था वह
नये पल में
काम न आएगा।
तो नट एक लकड़ी
हाथ में लिए
रहता है। अगर
बाएं जरा ही
ज्यादा झुकता
है तो तत्क्षण
दाएं लकड़ी को
झुका देता है
ताकि संतुलन
हो जाए। दाएं
जरा ही ज्यादा
झुकने लगता है
तो तत्क्षण
बाएं झुक जाता
है ताकि संतुलन
हो जाए। बाएं
और दाएं के
बीच में
प्रतिपल गत्यात्मक
रूप से संतुलन
को साधता है।
अतियों
के बीच
तुम्हें
गत्यात्मक
रूप से संतुलन
साधना होगा।
और जीवन एक नट
की ही यात्रा
है। वहां
दोनों तरफ
खड्डे और खाई
हैं। इधर गिरो
तो खाई, उधर
गिरो तो खड्ड।
ठीक मध्य में
खड्ग की धार की
तरह बारीक है
रास्ता।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
अति कभी
नहीं; नेवर
टू मच। किसी
भी चीज का
नहीं।
दूसरा
कोई तुम्हारे
लिए सिद्धांत
तय नहीं कर सकता।
अब विनोबा
उठते हैं सुबह
तीन बजे तो
उनके आश्रम
में सभी को
सुबह तीन बजे
उठना। अब यह
पागलपन है।
विनोबा बूढ़े हो
गए। और उनको
जमता रहा है
तीन बजे उठना, क्योंकि
वे आठ बजे
सोने भी चले
जाते हैं।
उनके शरीर को
रास आता है; ठीक है। वह
उनके लिए नियम
है। इसलिए
उनके आश्रम
में तुम हर
आदमी को दिन
भर जम्हाई
लेते, आंखें
बंद करे, परेशान
पाओगे।
ब्रह्ममुहूर्त
में क्या उठे,
पूरा दिन
निद्रा का
आक्रमण होता
है।
एक
आदमी मेरे पास
आया। उसने
स्वामी
शिवानंद की
किताबें पढ़
लीं। उसमें
उन्होंने
लिखा है कि चार
घंटे से
ज्यादा सोना
तामस का लक्षण
है। अब यह
आदमी अभी
मुश्किल से
बत्तीस साल का
था,
जवान था। वह
चार घंटे सोने
लगा। जब तामस
है तो तामस से
तो छुटकारा
पाना ही है।
तो जब चार
घंटे सोने लगा
तो दिन भर
तामस आने लगा।
पहले सात घंटे
सोता था तो
सात घंटे तामस
था। अब चौबीस
घंटे तामस हो
गया। जब उसने
पाया कि यह तो
तामस बढ़ता ही
जा रहा है तो
शिवानंद की
किताबें और
उसने गौर से
देखीं कि गुरु
इस संबंध में
क्या कहते हैं?
तो
उन्होंने
बताया कि अगर
तामस न मिटता
हो तो उसका
मतलब कि तुम
भोजन ज्यादा
कर रहे हो। तो
भोजन एक दफा
कर दिया। नींद
और कमजोरी--इन
दो पंखों से
वह परमात्मा
की यात्रा
करने लगे।
चौबीस घंटे
भूखे और भोजन
का चिंतन, और
चौबीस घंटे
प्यासे नींद
के और जम्हाइयां।
वे
मेरे पास आए।
मैंने उनसे
कहा कि अब
किताब खतम हो
गई कि उसमें
और कुछ लिखा
है?
कुछ और लिखा
हो जल्दी कर
लो, नहीं
तुम खतम हो
जाओगे।
शिवानंद का
शरीर देखा है?
फोटो देखी?
ये उपवासी
मालूम पड़ते
हैं? शिवानंद
को चलाने के
लिए दो
आदमियों के
हाथ कंधों पर
रख कर उनको
उठाना पड़ता
था। पहले उनकी
फोटो तो देखते,
फिर किताब
पढ़ते।
पर
लोगों को कोई
होश से जीने
की कुछ नहीं
है;
कुछ भी पकड़
लेते हैं; कुछ
भी पकड़ लेते
हैं। और
शिवानंद की
मृत्यु कैसे
हुई? मस्तिष्क
में
रक्तस्राव
से। स्टैलिन
की हुई, समझ
में आता है।
शिवानंद की
मस्तिष्क में
रक्तस्राव से
मृत्यु का
मतलब है कि
चित्त में बहुत
तनाव, अशांति।
स्टैलिन की हो,
बिलकुल
मौजूं है बात,
जमती है।
राजनीतिज्ञ
किसी और ढंग
से मरे, चमत्कार
है। लेकिन
संन्यासी ऐसे
मरे तो भी चमत्कार
है।
होश
रखो;
सुनो, समझो,
अपने जीवन
को पहचानो, और अपने
मार्ग एक-एक
कदम
आहिस्ता-आहिस्ता
उठाओ। और
ध्यान रखो कि
अति न हो जाए।
तो
मैंने उन
सज्जन को कहा
कि सात घंटे
सोना शुरू
करो।
अगर
परमात्मा को
ऐसा खयाल होता
कि तामस की
बिलकुल जरूरत
ही नहीं तो
तामस उसने
बनाया ही न होता।
विश्राम की
जरूरत है, तामस
में कुछ निंदा
योग्य नहीं
है। निंदा योग्य
तभी है जब
तामस में अति
हो जाए। अब
कोई दिन भर ही
सोने लगे तो
फिर निंदा
योग्य है।
लेकिन निंदा
तामस के कारण
नहीं है, निंदा
अति के कारण
है। अन्यथा
तामस की भी
जरूरत है, क्योंकि
तामस विश्राम
का सूत्र है।
राजस श्रम का
सूत्र है तो
तामस विश्राम
का सूत्र है। और
दोनों
संतुलित हों
तो तुम्हारे
जीवन में सत्व
की ज्योति
जलेगी।
त्रिकोण, ट्रायंगल समझ लो।
नीचे के दो
कोण तामस और
राजस, और
ऊपर का उठा
हुआ कोण सत्व।
जब दोनों
संतुलित हो
जाते हैं, तब
तुम्हारे
भीतर संतुलन
के माध्यम से
धीरे-धीरे
सत्व का स्वर
आना शुरू होता
है। सत्व का
अर्थ है परम
संतुलन, अल्टीमेट
बैलेंस।
इसलिए
लाओत्से कहता
है, संसार
में अति कभी
नहीं।
"और
तीसरा, संसार
में प्रथम कभी
मत होना।'
वही
दौड़ लोगों को
परमात्मा से
वंचित करवा
देती है।
ऐसा
हुआ कि एक
राजनीतिज्ञ
मित्र के साथ
मैं एक यात्रा
पर था। वही
कार ड्राइव कर
रहे थे। जाते
थे हम जबलपुर
से इलाहाबाद
की तरफ। बीच
में एक जगह
मुझे ऐसा लगा
कि रास्ता कुछ
गलत पकड़ लिया
है। मील के
पत्थर देखे तो
हम जा रहे थे छतरपुर की
तरफ। वह तो
अलग रास्ता
है। मैंने
उनसे कहा, क्या
कर रहे हो तुम,
भूल गए? उन्होंने
कहा, भूला
नहीं हूं। एक
आदमी कार उनके
आगे निकाल ले
गया। और वह जा
रहा है छतरपुर।
और जब तक वे
उसकी कार को
पीछे न कर दें,
अब
इलाहाबाद
नहीं जा सकते।
दो घंटे लगे।
आखिर उसको
पीछे करके
रहे। जब उसको
पीछे कर दिया
तब उन्हें
शांति मिली।
दो
घंटे में लौट
आए,
क्योंकि
इलाहाबाद
जाना एकदम
जरूरी था।
लेकिन जिंदगी
में ऐसा मामला
नहीं है।
रास्ते इतने साफ
नहीं हैं कि
तुम छतरपुर
गए कि
इलाहाबाद गए;
जिंदगी में
रास्ते बहुत
जटिल हैं। और
जिंदगी में
रास्ते ऐसे
हैं कि उन पर
वापस नहीं
लौटा जा सकता;
गए तो गए।
और तुम सब यही
करते रहे हो।
एक
आदमी के पास
तुमने देखी कि
कार है; अब
तुम्हारे पास
भी होनी
चाहिए। अब तुम
एक दौड़ में लग
गए। तुम भूल
ही गए कि कार
की तुम्हारी जरूरत
थी? या
इसके पास है
इसलिए जरूरत
पैदा हो गई! अब
तुम अपना सारा
जीवन दांव पर
लगा कर पहले
एक कार...। तब तक
कोई ने बड़ा
मकान बना
लिया। अब यह
कैसे हो सकता
है कि तुम और
छोटे मकान में
रह जाओ। अब
तुम बड़ा मकान
बनाने लगे। तब
तक कोई किसी
फिल्म
अभिनेत्री से शादी
करके आ गया।
रास्ता चलता
ही जाता है।
और लोगों को
तुम्हें पीछे
करना है।
आखिर
में तुम पाते
हो कि लोग
पीछे हुए कि
नहीं हुए, तुम
बरबाद हो गए।
जहां तुम्हें
जाना था, जो
तुम्हारी
नियति थी, वहां
तो तुम पहुंच
ही न पाए। हर
किसी ने तुम्हें
लुभा लिया। और
हर किसी ने
तुम्हारे
रास्ते में
विघ्न खड़ा कर
दिया। और हर
किसी ने
तुम्हें
धक्का दे
दिया। और हर
किसी ने
तुम्हें
रास्ता सुझा
दिया।
तुम्हारी
कोई नियति है।
तुम ऐसे ही
अर्थहीन नहीं
हो यहां, तुम
कुछ होने को
हो। तुम्हारे
जीवन से कुछ
फलित होने को
है। तुम्हारी
कोई
पूर्णाहुति
है। तुम्हारे
भीतर चेतना
किसी मार्ग पर
जा रही है। कितनी
विघ्न-बाधाएं
तुम खड़ी कर
रहे हो! तो मार्ग
तो छूट ही
जाता है; कुछ
और होने में
लग जाते हो।
लाओत्से
इसलिए तीसरा
खजाना देता
है। वह कहता है, जीवन
में कभी तुम
प्रथम होने की
चिंता मत करना।
"दि
थर्ड इज़, नेवर बी दि
फर्स्ट इन दि
वर्ल्ड।'
कोशिश
ही मत करना।
अगर तुमने इसे
जीवन की गहनतम
आस्था बना
लिया कि मैं
किसी की
प्रतिस्पर्धा
में नहीं हूं, और
किसी के साथ
मेरी
महत्वाकांक्षा
की कोई दौड़
नहीं चल रही
है, तो ही
तुम अपनी
नियति को
उपलब्ध हो
पाओगे। अन्यथा
मुश्किल है।
चार अरब आदमी
हैं चारों
तरफ। इसमें
बड़ी
धक्का-मुक्की
है। और हरेक
अपने-अपने ढंग
से अपने काम
में लगा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन मस्जिद
गया। रमजान
के दिन थे और
सारे मुसलमान
गांव के
इकट्ठे थे। जब
सब घुटने टेक
कर नमाज पढ़ने
को बैठे तो
मुल्ला नसरुद्दीन
का अंगरखा
पीछे से थोड़ा
उठा था, पाजामे
का नाड़ा
दिखाई पड़ रहा
था। तो पीछे
के आदमी ने, अच्छा नहीं
लगता, एक
झटका मार कर
उसका अंगरखा
ठीक कर दिया।
उसके आगे वाले
आदमी का अंगरखा
ठीक ही था; एक
झटका उसने
मारा। तो उस
आगे वाले आदमी
ने पूछा कि
क्यों भई, क्या
बात है? उसने
कहा, मुझसे
मत पूछो, उसने
शुरू किया है,
पीछे वाले
ने। हम तो
सिर्फ अनुकरण
कर रहे हैं।
राज क्या है, हमें पता
नहीं। मगर कुछ
न कुछ होगा; नहीं तो वह
आदमी करता ही
क्यों?
हर जगह
तुम डांवाडोल
किए जा रहे
हो। कोई भी तुम्हें
कुछ भी समझाए
जा रहा है।
चारों तरफ से
हजारों
प्रवाह
तुम्हारे मन
पर पड़ रहे
हैं। सब तुम्हें
अपनी तरफ खींच
रहे हैं। यह
बड़ा बाजार है।
कई दुकानदार
हैं। वे सब
तुम्हें बुला
रहे हैं कि
यहां आ जाओ!
तुम अगर सम्हले
न तो तुम इस
बाजार में खो
जाओगे।
अनेकों खो गए हैं।
सम्हलो!
अपनी जरूरत
पहचानो, उसे
पूरा करो।
अपनी
आवश्यकता
पहचानो, उसे
पूरा करो।
लेकिन दूसरे
की
प्रतिस्पर्धा
में नहीं, क्योंकि
दूसरे की प्रतिस्पर्धा
तुम्हें गलत
मार्ग पर ले
जाएगी। अपने
को पहचान कर, इस भरे
बाजार से अपने
को बचा कर
निकल जाना है।
और बचाने का
सूत्र एक ही
हो सकता है कि
तुम पहले होने
की आकांक्षा
छोड़ दो। तुम
अंतिम होने को
राजी हो जाओ
तो ही तुम
अपनी नियति को
पा सकोगे।
जीसस
ने कहा है, जो
प्रथम हैं इस
संसार में वे
मेरे राज्य
में अंतिम खड़े
होंगे, और
जो अंतिम हैं
वे प्रथम।
अंत
में खड़ा होना
एक बड़ा राज
है। क्योंकि
जो अंत में
खड़ा है वह
प्रतिस्पर्धा
में उत्सुक नहीं
होता। जो अंत
में खड़े होने
को राजी है, दुनिया
उसे परेशान भी
नहीं करती।
उसकी कोई टांग
नहीं खींचता।
वे पहले ही से
अंत में खड़े
हैं। और कहां गिराओगे? आखिरी जगह
बैठे हैं। अब
यहां से और
कहां भगाओगे?
कहते
हैं,
लाओत्से
कहीं भी जाता
तो सभा होती
तो वह पीछे, आखिर में, जहां जूते
उतारे जाते
हैं, वहीं
बैठता। किसी
ने उससे पूछा
कि लाओत्से, तुम यहां
क्यों बैठे हो?
उसने
कहा कि यहां
से कोई कभी
भगाता नहीं।
क्योंकि हमने
बड़ी फजीहत
होते देखी है
लोगों की जो प्रथम
बैठते हैं।
सिंहासनों पर
जो बैठते हैं, उनकी
टांग तो हमेशा
कोई न कोई
खींच ही रहा
है। सिंहासन
पर बैठे नहीं
कि टांग
खींचने वाले
तैयार हुए। वे
पहले ही से
तैयार थे। तुम
उनको
धक्का-मुक्का
देकर ही तो
वहां पहुंच गए
हो। जो तुमने
किया है वही वे
तुम्हारे साथ
करना चाह रहे
हैं।
एक ही
राज है इस जगत
में शांति से
जीने का और अपनी
नियति पूरी कर
लेने का, उस
अर्थ को
उपलब्ध हो
जाने का जिसके
लिए परमात्मा
ने तुम्हें
जन्म दिया, वह काव्य
तुमसे फूट जाए,
वह गीत तुम
गा लो, वह
नृत्य तुमसे
पूरा हो सके, एक ही
रास्ता है। और
वह तीसरा
खजाना है
लाओत्से का कि
तुम
महत्वाकांक्षा
छोड़ दो, तुम
प्रतिस्पर्धा
छोड़ दो। तुम
अपना जीवन जीओ।
तुम दूसरे के
जीवन का
अनुकरण क्यों
करते हो? दूसरे
को जाने दो
जहां जाता हो।
वह उसकी मौज
है। उसका
रास्ता होगा।
तुम उसके पीछे
क्यों हो जाते
हो?
किसी
को मकान बनाने
का राज है, बनाने
दो। तुम अगर
अपने झोपड़े
में प्रसन्न
हो तो तुम
व्यर्थ की दौड़
में क्यों पड़
जाते हो? क्योंकि
दौड़ समय लेगी,
शक्ति लेगी,
जीवन लेगी।
और जो तुम पा
लोगे उससे
तुम्हें कभी
तृप्ति न
मिलेगी, क्योंकि
वह तुम्हारी
कभी चाह ही न
थी। इसीलिए तो
इतनी अतृप्ति
है। नहीं
मिलती तो
तकलीफ है; मिल
जाए तो तुम
पाते हो कोई
सार नहीं, क्योंकि
तुम्हारी वह
चाह ही न थी।
समझ लो
कि एक आदमी
बांसुरी बजा
रहा है। बड़ी
अच्छी बजा रहा
है;
लोग
प्रशंसा कर
रहे हैं।
तुम्हें
प्रशंसा पकड़
जाती है।
तुम्हें गुदगुदी
शुरू होती है।
तुम्हारा
अहंकार कहता
है कि यह इससे
अच्छी बजा कर
बता देंगे। यह
तो ठीक है कि
शायद कोशिश
करो तो बजा भी
लोगे इससे
अच्छी। लेकिन
अगर बांसुरी
बजाना
तुम्हारे
जीवन का
हिस्सा ही न
था,
तो जिस दिन
तुम अच्छी भी
बजा लोगे उस
दिन भी तुम
पाओगे कि कुछ
पाया नहीं, समय व्यर्थ
गया।
कभी
नकल में पत पड़ो।
प्रतिस्पर्धा
नकल में ले
जाती है।
प्रतिस्पर्धा
अनुकरण में ले
जाती है। तब
तुम अपने स्वभाव
से वंचित हो
जाते हो, च्युत
हो जाते हो।
महत्वाकांक्षी
व्यक्ति
हमेशा स्वभाव
से च्युत होता
रहता है; भटकता
रहता है सब
जगह, सिर्फ
अपने को छोड़
कर। अपने घर
नहीं आता, और
सभी घरों पर
दस्तक लगाता
है। और आखिर
में पाता है
कि बिना घर
पहुंचे कब्र
करीब आ गई। तब
न लौटने की
सामर्थ्य रह
जाती है, न
समय रह जाता
है।
और जब
तक तुम अपनी
नियति पूरी न
कर लो--यह जीवन
का आधारभूत नियम
है--तुम वापस
बार-बार जन्म
और मृत्यु के
चक्कर में
फेंके जाओगे।
तुम यहां कुछ
उत्तीर्ण करने
को हो; यहां
तुम कुछ
अतिक्रमण
करने के लिए
भेजे गए हो; कुछ जानने, सीखने, कुछ
प्रौढ़ होने
को। तुम प्रौढ़
हो जाओगे तो
ही उठा लिए
जाओगे।
जीसस
ने कहा है कि
जैसे कोई मछुआ
जाल फेंकता ऐसा
परमात्मा रोज
जाल फेंकता
है। मछुआ मछलियां
पकड़ लेता है; जो
योग्य हैं
उन्हें चुन
लेता है, बाकी
को वापस सागर
में डाल देता
है। ऐसा ही परमात्मा
जाल फेंकता
है। बहुत पकड़े
जाते हैं; बहुत
कम चुने जाते
हैं। केवल वे
ही चुने जाते
हैं जिनकी
नियति पूरी हो
गई, जिन्होंने
अपने जीवन का
सौरभ पा लिया,
जिनका फूल
खिल गया।
मंदिर
में तुम फूल चढ़ाने
जाते हो; तुम्हें
पता है उसका
अर्थ क्या
होता है? ये
बाहर के फूल चढ़ाने से
उसका कोई
लेना-देना
नहीं। तुम खिल
जाओ, फूल
बन जाओ; वह
तुम्हारी
नियति की
परिपूर्णता
का प्रतीक है।
तभी तुम मंदिर
की वेदी पर
स्वीकार हो
सकोगे।
"प्रेम
के जरिए आदमी
अभय को उपलब्ध
होता है। अति
नहीं करने से
आदमी के पास
आरक्षित
शक्ति का अतिरेक
होता है। और
संसार में
प्रथम होने की
धृष्टता नहीं
करने से आदमी
अपनी प्रतिभा का
विकास कर सकता
है और उसे
प्रौढ़ बना
सकता है। थ्रू
लव वन हैज
नो फियर। थ्रू नाट डूइंग टू
मच वन हैज एंप्लीटयूड
ऑफ रिजर्व
पावर। थ्रू
नाट प्रिज्यूमिंग
टु बी दि
फर्स्ट इन दि
वर्ल्ड वन कैन
डेवलप वंस
टैलेंट एंड
लेट इट मैच्योर।'
और
प्रौढ़ होकर ही
तुम स्वीकार
किए जा सकोगे।
तुम्हारी
अर्चना का दीप
कच्चा रहा तो परमात्मा
के मंदिर में
प्रवेश न पा
सकेगा। तुम जो
होने को भेजे
गए हो तुम अगर
वही हो सके, बस,
तुम उठा लिए
जाओगे, चुन
लिए जाओगे। और
जरूरी नहीं है
कि तुम पिकासो
जैसे बड़े
चित्रकार हो
जाओ तब तुम
चुने जाओ। जरूरी
नहीं है कि
तुम कालिदास
जैसे कवि हो
जाओ, तब
चुने जाओ। यह
सवाल ही नहीं
है। तुम अगर
जूते भी सीते
हो, और अगर
जूते सीने में
भी तुमने अपना
पूरा तन-प्राण,
अपनी पूरी
ऊर्जा संलग्न
कर दी है, और
अगर जूता सीना
भी तुम्हारा
प्रेम और
प्रार्थना बन
गई है, और
जूते सीने को
भी तुमने परम
सौभाग्य की
तरह स्वीकार
कर लिया है, किसी निराशा
में नहीं...।
ऐसा
हुआ कि
अब्राहम
लिंकन जब प्रेसिडेंट
बना अमरीका का
तो लोगों को
बहुत अच्छा
नहीं लगा।
क्योंकि वह
कुलीन घर का न
था,
गरीब घर का
था। असल में, एक चमार का
लड़का था। तो
लोगों को बड़ी
बेचैनी थी कि
एक चमार और प्रेसिडेंट
हो गया! जिस
दिन पहले दिन
उसने शपथ ली
और अपना पहला
वक्तव्य दिया सिनेट में,
एक आदमी ने
खड़े होकर कहा
कि महानुभाव
लिंकन, यह
मत भूल जाना
कि तुम्हारे
बाप मेरे बाप
के जूते सीया
करते थे।
सारी सिनेट
हंसी व्यंग्य
से,
लेकिन
लिंकन ने जो
उत्तर दिया वह
बड़ा महत्वपूर्ण
था। लिंकन ने
कहा कि मैं
समझ नहीं पाता
कि इस बात को
आज क्यों
उठाया गया, लेकिन मैं
धन्यवाद देता
हूं कि यह बात
उठाई गई।
क्योंकि इस
क्षण में मैं
अपने पिता को
शायद भूल जाता,
याद न कर
पाता, तुमने
याद दिला दी।
और जहां तक
मैं समझता हूं,
मैं उतना
अच्छा प्रेसिडेंट
न हो सकूंगा, जितने अच्छे
मेरे पिता
चमार थे।
और
असली गणित तो
वही है। प्रेसिडेंट
और चमार थोड़े
ही चुने
जाएंगे।
कितने अच्छे!
कितने कुशल!
और
लिंकन ने कहा
कि जहां तक
मुझे याद है, तुम्हारे
पिता की तरफ
से मेरे पिता
के जूतों के
संबंध में कोई
शिकायत कभी
नहीं आई। वे
कुशल थे, अदभुत
थे। और
उन्होंने
चमार होने में
अपनी समग्रता
को पा लिया
था। वे आनंदित
थे। मैं इतना अच्छा
प्रेसिडेंट
न हो पाऊंगा।
आखिरी
हिसाब में, तुमने
क्या किया, यह नहीं
पूछा जाएगा। तुमने
कैसे किया!
आखिरी हिसाब
में, तुमने
बहुत धन
इकट्ठा किया,
बहुत बड़े
मकान बनाए, कि बड़े
चित्र बनाए, कि
मूर्तियां गढ़ीं, यह
नहीं पूछा
जाएगा। तुमने
जो भी किया, क्या उससे
तुम तृप्ति पा
सके? जो भी
किया, क्या
तुम संतुष्ट
लौटे हो? जो
व्यक्ति
संतुष्ट
लौटता है
परमात्मा की
तरफ वही उसके
हृदय में
विराजमान हो
जाता है। जहां
हो जैसे हो, अपनी नियति
खोजो। दूसरे
को भूल जाओ।
दूसरे से कुछ
प्रयोजन नहीं
है।
"प्रेम
से आदमी अभय
को उपलब्ध
होता है।'
और जब
तक तुम प्रेम
को उपलब्ध न
होओगे अभय भी
उपलब्ध न
होगा। प्रेम
के बिना तो
आदमी कंपता ही
रहता है भय
से। क्यों? क्योंकि
प्रेम के बिना
जीवन में
सिवाय मृत्यु
के और कुछ भी
दिखाई नहीं
पड़ता; प्रेम
के अनुभव से
ही अमृत की
पहली झलक आती
है। फिर अभय आ
जाता है।
अति न
करने से
मनुष्य के पास
शक्ति
संयोजित होती
है;
अपूर्व
शक्ति इकट्ठी
हो जाती है।
क्योंकि वह गंवाता
नहीं; न
दाईं तरफ, न
बाईं तरफ। न
वह लेफ्टिस्ट
होता है, न राइटिस्ट;
वह गंवाता
ही नहीं है।
वह अपनी शक्ति
को बचाता है।
उसके पास इतनी
ऊर्जा इकट्ठी
हो जाती है कि
ऊर्जा का परिमाणात्मक
बल गुणात्मक
क्रांति कर
देता है। जैसे
सौ डिग्री तक
पानी को गरम
करो, पानी
भाप बन जाता
है।
निन्यानबे तक
करो, नहीं
बनता; अट्ठानबे तक, नहीं।
निन्यानबे तक
भी नहीं बनता।
एक डिग्री का
फासला है, लेकिन
अभी भी नहीं
बनता। एक
डिग्री और, तत्क्षण
पानी की
यात्रा बदल
गई। पानी नीचे
बहता था, भाप
ऊपर उठने लगी।
आयाम अलग हो
गया। पानी
दिखाई पड़ता था,
भाप अदृश्य
होने लगी।
आयाम बदल गया।
एक
ऊर्जा का
संगठन चाहिए
भीतर। एक
स्रोत चाहिए, अदम्य,
भरपूर। उस
ऊर्जा के होने
मात्र से ही, उसकी बढ़ती
हुई उठता हुआ
तल, उसका
बढ़ता हुआ
संग्रह
तुम्हारे
भीतर गुणात्मक
परिवर्तन ले
आता है।
विज्ञान एक
सिद्धांत को
मानता है। और
वह सिद्धांत
यह है दैट
एवरी क्वालिटेटिव
चेंज इज़ थ्रू क्वांटिटेटिव
चेंज। सब
परिवर्तन, सब
क्रांतियां, परिमाण के
आधिक्य से
गुणात्मक
क्रांतियों में
रूपांतरित हो
जाती हैं। वही
चीज निन्यानबे
डिग्री पर
पानी थी। वही
सौ डिग्री पर
भाप बन जाती
है।
तुम
परमात्मा को पाने
चले हो; बड़ी
ऊर्जा चाहिए
होगी। बड़ी
यात्रा है।
तुम्हारे पंख
बड़े सबल
चाहिए। तुम
बीच में चुक न
जाओ। संयम!
संयम का अर्थ
है अति से बच
जाना।
तुम्हारे
तो संयमी भी
अतिवादी हैं।
तुम मेरे संयम
का अर्थ समझ
लेना। तुम तो
उनको संयमी
कहते हो जो
अतिवादी हैं।
घर छोड़ दिया, पत्नी
को छोड़ कर भाग
गए, धन
नहीं छूते, उपवास करते
हैं, सिर
के बल खड़े हैं,
कांटों पर
लेटे हैं; उनको
तुम कहते हो, कैसा संयमी
आदमी!
यह
संयमी नहीं
है। यह
तुम्हारा ही
रोग है, उलटा
खड़ा हो गया।
शीर्षासन कर
रहा है, बस।
यह तुम्हीं हो
उलटे खड़े।
संयमी आदमी तो
मध्य में होता
है। संयमी
आदमी में अति
की कठोरता
नहीं होती, मध्य का
माधुर्य होता
है। संयमी
आदमी प्रफुल्ल
होता है; न
उदास, न
विक्षिप्त
रूप से हंसता
हुआ; प्रफुल्ल,
एक सहज
प्रफुल्लता
होती है। एक
स्मित होता है
संयमी आदमी के
जीवन में, एक
मुस्कुराहट
होती है, और
एक माधुर्य
होता है।
तुम्हारे
संयमी तो बड़े
कठोर हैं।
इतनी कठोरता
मध्य में है
ही नहीं। तुम
जैसे धन के
पीछे लगे हो, वे
धन छोड़ने के
पीछे लगे हैं।
तुम जैसे
स्त्रियों के
पीछे भाग रहे
हो, वे
स्त्रियों को
छोड़ कर भाग
रहे हैं।
लेकिन दोनों
की गति समान
है। दिशा अलग
हो, अति
समान है। तुम
अगर दीवाने हो
कि कैसे
ज्यादा खा
जाएं, वे
दीवाने हैं कि
कैसे और खाने
में कमी कर
दें।
दोनों
के मध्य में
कहीं छिपा है
संयम।
अति न
करने से आदमी
के पास शक्ति
आरक्षित होती
है,
संयम
उपलब्ध होता
है। और संसार
में प्रथम न
होने की
धृष्टता से, संसार में
प्रथम होने के
पागलपन से जो
बच जाता है, वह शांत हो
जाता है।
उसकी
सब अशांति खो
जाती है। और
उस शांति में
वह चुपचाप
अपने भीतर की प्रौढ़ता
की तरफ गतिमान
होने लगता है।
बाहर की दौड़ न
रही,
तो ऊर्जा अब
भीतर की
यात्रा पर
निकल जाती है।
वह शायद दूसरी
मूर्तियां
नहीं बनाता, लेकिन खुद
की मूर्ति
निर्मित होती
है। शायद दुनिया
उसे जान भी न
पाए कि वह कब
जीया और कब
चला गया; शायद
उसकी पगध्वनि
भी न सुनाई
पड़े। सभी
बुद्ध जाने
नहीं जाते, बहुत से
बुद्ध तो
चुपचाप विदा
हो जाते हैं, पता भी नहीं
चलता।
क्योंकि तुम
उसे पहचान भी
न पाओगे। वह
इतने आखिर में
खड़ा था, इतने
अंत में खड़ा
था। उसका कोई
भी दावा न था।
जिसको झेन
फकीर कहते हैं
कि वह इतना
अति साधारण हो
गया कि उसे
कोई पहचान भी
नहीं पाता।
पहचान के लिए
भी तो पताकाएं
चाहिए, झंडे
चाहिए, शोरगुल
चाहिए। जो
व्यक्ति अंत
में होने को
राजी है, वह
दुनिया के
बाहर हो गया।
अगर
तुम मुझसे
पूछो तो इसे
मैं संन्यास
कहता हूं।
हिमालय पर
जाने से
संन्यास नहीं
होगा, क्योंकि
वहां भी
प्रतिस्पर्धा
जारी रहेगी कि
कोई शिवानंद,
कोई अखंडानंद,
कोई फलानंद,
वे अभी तक
आगे हैं; कि
फलाना
शंकराचार्य
होकर मठ पर
बैठ गया है, अभी हम वहां
तक नहीं
पहुंचे। वहां
भी राजनीति
चलेगी। शंकराचार्य
भी अदालतों
में खड़े रहते
हैं, मुकदमे
लड़ते हैं कि
असली
शंकराचार्य
कौन है।
तुम
कहीं भी भाग
जाओगे, उससे
हल न होगा।
अगर भागना ही
है तो अंतिम
होने में भाग
जाओ। तुम जैसे
हो अपने को
वैसा स्वीकार
कर लो। मत पड़ो
प्रतिस्पर्धा
में; मत
करो दूसरे के
साथ कोई दौड़।
और तब तुम
पाओगे, तुम्हारा
सहज स्वभाव
धीरे-धीरे
विकसित होने लगा।
तुम प्रौढ़ता
को, मैच्योरिटी को, सघनता
को, आंतरिक
केंद्र को
उपलब्ध हो
सकोगे। जिसने
बाहर की
प्रतिस्पर्धा
छोड़ दी उसकी
अंतर्यात्रा
शुरू हो जाती
है।
ये तीन खजाने, लाओत्से
कहता है, सम्हाल
कर रखना। इन
पर पहरा देना।
ये बचाने योग्य
हैं। और इनको
जिसने बचा
लिया उसने सब
बचा लिया।
इनको जिसने खो
दिया वह
भिखारी ही जीएगा
और भिखारी ही
मरेगा। तुमसे
मैं यही कहता
हूं, भिखारी
मत बनना; भिखारी
मत मरना; भिखारी
बन कर मत जीना।
तुम सम्राट
होने को पैदा
हुए हो। वह
तुम्हारा
स्वभावसिद्ध
अधिकार है।
आज
इतना ही।
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