एक
दिन तीस खोजी
बुद्ध के पास
आए। तीसों
बुद्ध के
भिक्षु हैं
बहुत लंबा
पाटन करके आए
हैं। भिक्षु आनंद
द्वार पर पहरा
दे रहा है और
वे तीस खोजी
बुद्ध के कमरे
के भीतर बात
कर रहे हैं।
आनंद को बड़ी
देर लग रही है
कि बहुत देर
हो गयी, बहुत
देर हो गयी
बात चलती ही
जा रही है
बुद्ध को वे
सताए ही चले
जा रहे हैं, अब निकलें
भी अब निकलें
भी समय मांगा
था, उससे
दुगुना समय हो
गया ! आखिर
सीमा आ गयी
उसके धैर्य की
वह उठा उसने
दरवाजे से
झांककर देखा,
बड़ा हैरान
हुआ वहां
बुद्ध अकेले
बैठे हैं। वे
तीस आदमी वहां
हैं ही नहीं।
उसको तो—अपनी आंखें
मीड़ीं—उसको
भरोसा न आया क्योंकि
दरवाजा एक है,
वह दरवाजे
पर बैठा है वे
जा तो सकते
नहीं गए कहां?
आनंद
ने भगवान से पूछा
भंते कुछ व्यक्ति
आप से मिलने आए
थे यह क्या
चमत्कार वे
कहां हैं? बाहर
तो निकले नहीं
क्योंकि मैं
द्वार पर बैठा
हूं। निकलने
का कोई और द्वार
है भी नहीं
इसलिए जा कहीं
सकते नहीं। गए
कहां? तो
बुद्ध ने कहा,
वे गए आनंद
वे आकाश मार्ग
से चले गए।
आनंद ने कहा
आप मुझे इस
तरह की बातों
में उलझाए मत
पहेलियां न
बुझे। आप सीधा—सीधा
कहें वे गए
कहां? क्योंकि
द्वार पर मैं
बैठा हूं और मैं
पूरा सजग हूं।
तो बुद्ध ने
कहा आनंद वे
भीतर के आकाश
से समाधि में
उतर गए। इस
अंतर—आकाश में
उतरने के लिए
किसी और द्वार
से जाने की
जरूरत नहीं
है। अपने ही
भीतर कोई चला
जाए। उस समय
आकाश में हंस उड़
रहे थे। तो
बुद्ध ने कहा
देख आनंद
द्वार के बाहर
देख, जैसे
आकाश में हंस
उड़ रहे हैं
ऐसे ही वे भी उड़
गए। आनंद ने
पूछा तो क्या
वे उड़कर हंस
हो गए? गए
कहां? बुद्ध
ने कहा वे
परमहंस हो गए
हैं आनंद।
और
तब उन्होंने
यह गाथा कही—
हंसादिच्चपथे
यंति आकासे यंति
इद्धिया।
'जैसे सूर्य पथ
से जाते आकाश
में हंस……।'
नीयंति
धीरा लोकम्हा
जेत्वा मारं
सवाहिनिं।।
'ऐसे ही
धीरपुरुष
शैतान की सारी
सेना को मारकर—सेनासहित
मार को पराजित
कर—लोक से
निर्वाण को
चले जाते हैं।'
यह
कथा बड़ी अदभुत
है। झेन जैसी
है। इसका मतलब
कुल इतना है
कि वे तीस ही
व्यक्ति बुद्ध
के पास बैठे—बैठे
ध्यान में लीन
हो गए, समाधिस्थ
हो गए। वे
इतनी गहरी
समाधि में चले
गए—नहीं कि
उनके शरीर
वहां नहीं थे,
शरीर तो
आनंद को भी
दिखायी पड़ रहे
होंगे, शरीर
तो थे ही—मगर
वे चले गए थे। बस
शरीर ही थे। लाशें
रखी थीं, पक्षी
उड़ गया था। पक्षी
जैसे वहां था
ही नहीं। मूर्तिवत।
वे समाधि में
उतर गए थे। और
इस समाधि में
जो उतरता है
उसी की आंख
खुलती है।
अंतिम
सूत्र—
पथव्या
एकरज्जेन
सग्गस्स
गमनेन वा।
सब्बलोकाधिपच्चेन
सोतापत्तिफलं
वरं।।
'पृथ्वी का
अकेला राजा
होने से—चक्रवर्ती
होने से—या
स्वर्ग के गमन
से—देवता होने
से—अथवा सभी
लोकों का
अधिपति बनने
से भी स्रोतापत्ति—फल
श्रेष्ठ है।'
जो
ध्यान की
सरिता में उतर
गया,
उसको बौद्ध—
भाषा में कहते
हैं, स्रोतापन्न।
वह स्रोत की
तरफ चल पड़ा। हम
तो ऐसे लोग
हैं जो किनारे
पर खड़े हैं। नदी
में उतरते
नहीं, बस
किनारे पर खड़े
हैं। नदी बही
जा रही है, पीते
तक नहीं, क्योंकि
पीने के लिए
झुकना पड़ेगा। उतरते
नहीं, क्योंकि
डरते हैं, कहीं
गल न जाएं। क्योंकि
जो झूठ हमने
बना रखी है
अपने जीवन में,
वह निश्चित
गल जाएगी। जो
प्रतिमा हमने
अपनी मान रखी
है, वह बह
जाएगी, तो
घबड़ाहट है। और
हमें भीतर का
तो कुछ पता
नहीं है, तो
हम ध्यान की
धारा में
उतरते नहीं। ध्यान
की धारा में
जो उतरता है, उसे कहते
हैं—स्रोतापन्न।
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं। एक, जो
जीवन में
लक्ष्य की तरफ
दौड़ रहे हैं। लक्ष्य
का मतलब— धन
पाना है, पद
पाना है। स्रोतापन्न
दूसरे तरह के
लोग हैं, जो
स्रोत की तरफ
जा रहे हैं। जो
लक्ष्य की तरफ
नहीं जा रहे
हैं, जिनकी
सारी खोज यह
है कि हम आए
कहा से? उस
मूलस्रोत को
पकड़ लेना है। उसे
पकड़ लिया तो
सब पकड़ लिया। क्योंकि
जहां से हम आए,
अंततः वहीं
जाना है। गंगा
गंगोत्री में
ही लौट जाती
है। बीज वृक्ष
बनता है और
फिर बीज बन
जाता है, वर्तुल
पूरा हो जाता
है। हम जहां
से आए वहीं
लौट जाना है—स्रोत,
मूलस्रोत
की तरफ।
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