दिनांक
16 सितंबर, 1974,
श्री
ओशो आश्रम, पूना।
प्रात:
काल।
सूत्र:
नर्तक:
आत्मा।
रड्गोउन्तरात्मा।
धीवशात्
सत्वसिद्धि:।
सिद्ध:
स्वतन्त्र
भाव:।
विसर्गस्वाभाव्यादबहि:
स्थितेस्तत्स्थिति।
आत्मा
नर्तक है।
अंतरात्मा
रंगमंच है।
बुद्धि के वश
में होने से
सत्व की
सिद्धि होती
है। और सिद्ध
होने से स्वातंत्र्य
फलित होता है।
स्वतंत्र स्वभाव
के कारण वह
अपने से बाहर
भी जा सकता है
और वह बाहर स्थित
रहते हुए अपने
अंदर भी रह
सकता है।
सूत्रों में
प्रवेश के
पहले कुछ
बातें समझ लें।
फ्रैड़िक
नीस्ते ने
कहीं कहा है
कि मै केवल उस परमात्मा
में विश्वास
कर सकता हूं
जो नाच सकता
हो। उदास
परमात्मा में
विश्वास करना
केवल बीमार आदमी
का लक्षण हैं।
बात
में सच्चाई है।
तुम अपने
परमात्मा को
अपनी ही
प्रतिमा में
ढालते हो। तुम
उदास
हो—तुम्हारा
परमात्मा
उदास होगा।
तुम प्रसन्न
हो—तुम्हारा
परमात्मा
प्रसन्न होगा।
तुम नाच सकते
हो तो
तुम्हारा
परमात्मा भी
नाच सकेगा।
तुम जैसे हो, वैसा ही
तुम्हें
अस्तित्व
दिखाई पड़ता है।
तुम्हारी
दृष्टि का
फैलाव ही
सृष्टि है। और
जब तक तुम
नाचते हुए परमात्मा
में भरोसा न
कर सको, तब
तक जानना कि
तुम स्वस्थ
नहीं हुए।
उदास, रोते
हुए, रुग्ण
परमात्मा की
धारणा
तुम्हारी
रुग्ण दशा की
सूचक है।
पहला
सूत्र है आज
का—आत्मा
नर्तक है।
नर्तक
के संबंध में
कुछ और बातें
समझ लें। नर्तन
अकेला ही एक
कृत्य है, जिसमें
कर्ता और कृत्य
बिलकुल एक हो
जाते हैं। कोई
आदमी चित्र
बनाये, तो
बनानेवाला
अलग और चित्र
अलग हो जाता
है। कोई आदमी
कविता बनाये,
तो कवि और
कविता अलग हो
जाती है। कोई
आदमी मूर्ति
गढ़े, तो
मूर्तिकार और
मूर्ति अलग हो
जाती है।
सिर्फ नर्तन
एक मात्र
कृत्य है, जहां
नर्तक और नृत्य
एक होता है; उन दोनों को
अलग नहीं किया
जा सकता। अगर
नर्तक चला
जाएगा—नृत्य
चला जाएगा। और,
अगर नृत्य
खो जाएगा तो
उस आदमी को, जिसका नृत्य
खो गया,नर्तक
कहने का कोई
अर्थ नहीं। वे
दोनों
संयुक्त हैं।
इसलिए
परमात्मा को
नर्तक कहना
सार्थक है। यह
सृष्टि उससे
भिन्न नहीं है।
यह उसका नृत्य
है। यह उसकी
कृति नहीं है।
यह कोई बनायी
हुई मुर्ति
नहीं है कि
परमात्मा ने
बनाया और वह
अलग हो गया।
प्रतिपल
परमात्मा
इसके भीतर
मौजूद है। वह
अलग हो जाएगा
तो नर्तन बंद
हो जाएगा। और
ध्यान रहे कि
नर्तन बंद हो
जाएगा तो परमात्मा
भी खो जाएगा; वह बच
नहीं सकता।
फूल—फूल में, पत्ते—पत्ते
में, कण—कण
में वह प्रकट
हो रहा है।
सृष्टि कभी
पीछे अतीत में
होकर समाप्त
नहीं हो गयी; प्रतिपल हो
रही है।
प्रतिपल सृजन
का कृत्य जारी
है। इसलिए सब
कुछ नया है।
परमात्मा नाच
रहा है—बाहर
भी, भीतर
भी।
आत्मा
नर्तक है—इसका
अर्थ है कि
तुमने जो भी
किया है, तुम जो भी .कर
रहे हो और
करोगे, वह
तुमसे भिन्न नहीं
है। वह
तुम्हारा ही
खेल है। अगर
तुम दुख झेल
रहे हो तो यह
तुम्हारा ही
चुनाव है। अगर
तुम आनंदमग्न
हो, यह भी
तुम्हारा
चुनाव है; कोई
और जिम्मेवार
नहीं है।
मैं एक
कालेज में
प्रोफेसर था।
नया—नया वहां
पहुंचा।
कालेज बहुत
दूर था गांव
से। और, सभी
प्रोफेसर
अपना खाना साथ
लेकर ही आते
थे और दोपहर
को एक टेबल पर
इकट्ठे होते
थे। संयोग की
ही बात थी कि
मैं जिनके पास
बैठा था, उन्होंने
अपना टिफिन
खोला, झांककर
देखा और कहा : 'फिर वही आलू
की सब्जी और
रोटी!' मुझे
लगा कि उन्हें
शायद आलू की
सब्जी और रोटी
पसंद नहीं है।
लेकिन, मैं
नया था तो मैं
कुछ बोला नहीं।
दूसरे दिन फिर
वही हुआ।
उन्होंने फिर
डब्बा खोला और
फिर कहा कि 'फिर वही आलू
की सब्जी और
रोटी!' तो
मैंने उनसे
कहा कि अगर
आलू की सब्जी
और रोटी पसंद
नहीं तो अपनी
पली को कहें कि
कुछ और बनाये।
उन्होंने कहा
: 'पत्नी!
पत्नी कहां है।
मैं खुद ही
बनाता हूं।’
यही
तुम्हारा
जीवन है। कोई
है नहीं। हंसो
तो तुम हंस
रहे हो, रोओ तो तुम
रो रहे हो; जिम्मेवार
कोई भी नहीं।
यह हो सकता है
कि बहुत दिन
रोने से
तुम्हारी रोने
की आदत बन गयी
हो और तुम
हंसना भूल गये
हो। यह भी हो
सकता है कि
तुम इतने रोये
हो कि तुमसे अब
कुछ और करते
बनता नहीं—अभ्यास
हो गया। यह भी
हो सकता है कि
तुम भूल ही
गये, इतने
जन्मों से रो
रहे हो कि
तुम्हें याद
ही नहीं कि
कभी यह मैने
चुना था—रोना।
लेकिन
तुम्हारे
भूलने से सत्य
असत्य नहीं होता
है। तुमने ही
चुना है। तुम
ही मालिक हो।
और, इसलिए
जिस क्षण तुम
तय करोगे, उसी
क्षण रोना रुक
जाएगा।
इस बोध
से भरने का
नाम ही कि 'मैं ही
मालिक हूं, 'मैं ही
सृष्टा हूं,, 'जो भी मैं कर
रहा हूं उसके
लिए मै ही
जिम्मेवार
हूं, —जीवन
में क्रांति
हो जाती है।
जब तक तुम
दूसरे को
जिम्मेवार
समझोगे, तब
तक क्रांति
असंभव है; क्योंकि
तब तक तुम
निर्भर रहोगे।
तुम सोचते हो
कि दूसरे
तुम्हें दुखी
कर रहे हैं, तो फिर तुम
कैसे सुखी हो
सकोगे? असंभव
है; क्योंकि
दूसरों को
बदलना
तुम्हारे हाथ
में नहीं।
तुम्हारे हाथ
में तो केवल
स्वयं को
बदलना
अगर
तुम सोचते हो
कि भाग्य के
कारण तुम दुखी
हो रहे हो तो
फिर तुम्हारे
हाथ के बाहर
हो गयी बात।
भाग्य को तुम
कैसे बदलोगे? भाग्य
तुमसे ऊपर है।
और, तुम
अगर सोचते हो
कि तुम्हारी विधि
में ही विधाता
ने लिख दिया
है—जो हो रहा
है, तो तुम
एक परतंत्र
यंत्र हो
जाओगे; तो
तुम आत्मवान न
रहोगे।
आत्मा
का अर्थ ही यह
है कि तुम
स्वतंत्र हो; और, चाहे
कितनी ही पीड़ा
तुम भोग रहे
हो, तुम्हारे
ही निर्णय का
फल है। और, जिस
दिन तुम
निर्णय
बदलोगे, उसी
दिन जीवन बदल
जाएगा। फिर, जीवन को
देखने के ढंग
पर सब कुछ
निर्भर करता है।
मैं
मुल्ला
नसरुद्दीन के
घर में मेहमान
था। सुबह
बगीचे में
घूमते वक्त
अचानक मेरी आंख
पड़ी, देखा
कि पत्नी ने
एक प्याली
नसरुद्दीन के
सिर की तरफ
फेंकी। लगी
नहीं सिर में,
दीवार से
टकराकर
चकनाचूर हो
गयी।
नसरुद्दीन ने
भी देख लिया
कि मैंने देख
लिया है। तो
वह बाहर आया
और उसने कहा: 'क्षमा करें!
आप कहीं कुछ
और न सोच लें!
हम बड़े सुखी
हैं। ऐसे कभी—कभार
पत्नी चीजें
फेंकती है, मगर इससे
हमारे सुख में
कोई भेद नहीं
पड़ता।’
मैं
थोड़ा हैरान
हुआ। मैने
पूछा : 'थोड़ा
विस्तार से
कहो।’ तो
उसने कहा कि' अगर उसका
निशाना लग
जाता है तो वह
खुश होती है
और अगर चूक
जाती है तो
मैं खुश होता
हूं। मगर
हमारी खुशी
में कोई भेद
नहीं पड़ता। और,
कभी—कभी
निशाना लगता
है, कभी—कभी
चूकता है। हम
दोनों खुश हैं।’
जिंदगी
को देखने के
ढंग पर निर्भर
करता है। तुम
ही बनाते हो
फिर तुम ही
देखते हो और
फिर तुम ही
व्याख्या
करते हो। तुम
बिलकुल अकेले
हो। तुम्हारे
संसार में कोई
दूसरा कभी
प्रवेश नहीं
करता। प्रवेश
कर भी नहीं
सकता। कोई
प्रवेश भी
करता है तो वह
तुमने ही
आज्ञा दी है।
इससे एक
कठिनाई है, इसलिए
तुम इसे भूले
हुए हो।
कठिनाई
यह है कि यह
अनुभव करना कि
मैं ही जिम्मेवार
हूं तब तुम
दुखी न हो
सकोगे। और अगर
दुखी होना
चाहते हो तो
शिकायत न कर
सकोगे। और, उन दोनों
में बड़ा रस है।
दुखी
होने में भी
बड़ा रस है; क्योंकि
जब तुम दुखी
होते हो, तब
तुम शहीद होते
हो। शहीदगी का
बड़ा मजा है।
जब तुम दुखी
होते हो, तब
तुम सहानुभूति
मांगते हो।
सहानुभूति
में बड़ा रस है।
इसलिए तो लोग
अपने दुख की
कथा एक—दूसरे
को बढ़ा—चढ़ा कर
सुनाते हैं।
क्या कारण
होगा कि लोग
दुख की इतनी
कथा सुनाते
रहते हैं। कोई
सुनना भी नहीं
चाहता।
कौन
उत्सुक है तुम्हारे
दुख में? और, दुख
की बातें
सुनकर दूसरा
भी उदास ही
होगा; कोई
दूसरे के जीवन
में फूल तो
नहीं खिल
जाएंगे।
लेकिन, तुम
सुनाये जा रहे
हो। और दूसरा
तभी तक सुनता
है, जब तक
उसे आशा रहती
है कि तुम भी
उसकी सुनोगे।
अन्यथा वह
फिसल जाएगा।
तुम उन्हीं
आदमियों को
कहते हो कि
उबानेवाले है,
जो तुम्हें
बोलने का मौका
ही नहीं देते।
तो एक समझौता
है—तुम हमें
उबाओ हम
तुम्हें
उबाएं। तुम
अपने दुख की
कथा कहकर हमें
परेशान करो; हम अपने दुख
की कथा कहकर
तुम्हें
परेशान करें और
बराबर हो जाएं।
क्यों
आदमी दुख की
इतनी चर्चा
करता है? क्या कारण
है?—सहानुभूति
की अपेक्षा
रखता है। दुख
की बात करेगा
तो कोई
पुचकारेगा, सहलाएगा कोई
कहेगा कि बड़े
दुखी हो।
दूसरे का
प्रेम मांग
रहे हो तुम
दुख के द्वारा।
इसलिए, दुख
में तुम्हारा
बड़ा
इन्वैस्टमेंट
है। उसमें
तुमने अपनी
बहुत संपत्ति
लगायी है।' जब भी तुम
दुखी होते हो,
तभी
तुम्हें थोड़ी—सी
आशा चारों तरफ
से मिलती है।
लोग तुम्हें
सहारा देते
मालूम पड़ते
हैं; सहानुभूति
दिखलाते हैं।
प्रेम
तुम्हें जीवन
में मिला नहीं
है और सहानुभूति
कचरा है; लेकिन
प्रेम के लिए
वही निकटतम
परिपूरक है।
जिसको असली
सोना न मिला
हो, वह फिर
नकली सोने से
काम चलाने
लगता है।
सहानुभूति
नकली प्रेम है।
आकांक्षा तो
प्रेम की थी, लेकिन
प्रेम को तो
अर्जित करना
होता है; क्योंकि
प्रेम केवल
उसी को मिलता
है जो प्रेम दे
सकता है।
प्रेम दान का
प्रतिफलन है।
तुम देने में
असमर्थ हो; तुम सिर्फ
मांग रहे हो।
तुम भिखमंगे
हो, तुम
सम्राट नहीं!
और, मांगते
हो तो जितने
ज्यादा दुखी
हो, उतनी
ही आसानी हो
जाती है।
भिखमंगे
को रास्ते पर
देखो! वह झूठे
घाव अपने शरीर
पर बनाये हुए
है। वे घाव
असली नहीं हैं।
वह मवाद ऊपर
से लगायी गयी
है। लेकिन जब
वह बिलकुल दुख
से भरा होता
है, तब
तुमको भी 'ना'
करना बहुत
मुश्किल हो
जाता है; ग्लानि
होती है, अहंकार
को चोट लगती
है कि इतने
दुखी आदमी को
कैसे 'ना' करो। अगर वह
स्वस्थ तगड़ा
है तो तुम भी
कहोगे कि 'मुसटंडे
हो; कुछ
करो, कुछ
कमाओ कमा सकते
हो! 'लेकिन
दुखी आदमी को
देखकर तुम बोल
नहीं पाते।
तुम्हें
सहानुभूति
दिखानी ही
पड़ती है—चाहे
झूठी ही सही।
इसलिए
तुम दुख को
पक्के हो, क्योंकि
तुम्हें
प्रेम नहीं
मिला। जिसको
प्रेम मिला है
जीवन में, वह
आनंदित होगा;
वह आनंद को
पकड़ेगा, दुख
को नहीं। दुख
पकड़ने जैसा
नहीं है। फिर
तुम्हें सुविधा
है शिकायत
करने में; क्योंकि,
जब भी तुम
कहते हो कि
दूसरे
तुम्हें दुखी
कर रहे हैं, तब
जिम्मेदारी
का बोझ हट
जाता है। और
जब मैं तुमसे
कहता हूं सारे
शास्त्र
तुमसे कहते
हैं और सारे
बुद्ध—पुरुषों
ने एक ही बात
कही है कि तुम
हा जिम्मेवार
हो, कोई और
नहीं—तब बड़ा
बोझ मालूम
पड़ता है। सबसे
बड़ा बोझ तो यह
मालूम पड़ता है
कि अब शिकायत
तुम किसी पर फेंक
नहीं सकते। और
उससे भी बड़ा
बोझ इस बात का
पड़ता है कि
अब तुम
सहानुभूति
किससे
मांगोगे, अगर
तुम ही
जिम्मेवार हो।
और भी गहरे
में यह कठिनाई
खड़ी होती है
कि अगर तुम ही
जिम्मेवार हो
तो बदलाहट की
जा सकती है।
और बदलाहट
करना एक
क्रांति है, एक रूपांतरण
से गुजरना है।
तुम्हारी
पुरानी आदतें
हैं, वे
सभी तोड़नी
होंगी।
तुम्हारा एक
पुराना ढांचा
है, वह सब
गलत है। अब तक
जो तुमने मकान
बनाया है, वह
पूरा—का—पूरा
नरक है। लेकिन
तुमने ही
बनाया है, चाहे
कितना ही बड़ा
बना लिया हो, उसे पूरा
गिराना पड़ेगा।
अतीत का सारा—का—सारा
श्रम व्यर्थ
जाता मालूम
पड़ता है।
इसलिए, तुम
इस सत्य से
बचने की कोशिश
करते हो।
लेकिन, जितने
तुम बचोगे, उतने ही तुम
भटकोगे।
पहली
बात समझ लो कि
तुम ही केंद्र
हो अपने अस्तित्व
के; कोई
जिम्मेवार
नहीं। और
कितना ही बोझ
मालूम पड़े, लेकिन तुम
ही जिम्मेवार
हो। इस सत्य
को अगर
स्वीकार कर
लोगे तो जल्दी
ही सारे दुख
खो जाएंगे।
क्योंकि, एक
बार यह साफ हो
जाए कि मैं ही
बना रहा हूं
यह अपना खेल, तो मिटाने
में कितनी देर
लगती है? तब
कोई दूसरा
नहीं है। और, फिर अगर तुम
दुख में ही रस
लेना चाहते हो
तो तुम्हारी
मर्जी! लेकिन,
फिर शिकायत
करने का कोई
कारण नहीं।
अगर तुम संसार
में ही भटकना
चाहते हो, तुम्हारी
मौज! अगर तुम
नरक ही जाना
चाहते हो, तो
तुम्हारा
चुनाव! लेकिन,
फिर शिकायत
का कोई कारण
नहीं। तब तुम
प्रसन्नता से
दुख में जीओ।
ये
सूत्र इसी
अर्थ में बड़े
कीमती है।
पहला
सूत्र है :
आत्मा नर्तक
है। तुम्हारे
कृत्य और
तुम्हारा
अस्तित्व अलग—अलग
नहीं है।
तुम्हारे
कृत्य
तुम्हारे ही
अस्तित्व से
निकलते है; जैसे
नृत्य निकलता
है नर्तक से।
और, नर्तक
अगर चिल्लाने
लगे कि मैं इस
नृत्य से परेशान
हूं मैं इसे
नहीं करना
चाहता तो तुम
क्या कहोगे? तुम कहोगे : 'रुक जाओ।
ठहर जाओ! कौन
तुमसे कहता है
कि नाचो? तुम
ही नाच रहे हो।
रुक जाओ, अगर
यह सब व्यर्थ
है और तुम्हें
रसकर और प्रीतिकर
नहीं है। और, अगर तुम्हें
दुख मिलता है
तो रुको, ठहरो!
'नृत्य खो
जाएगा!
आत्मा नर्तक
है—इसका अर्थ
यह है कि
तुमने जो भी
किया हो, तुमने ही
किया है, वह
तुमसे ही
निकला है।
जैसे वृक्षों
से पत्ते
निकलते हैं, ऐसे
तुम्हारे
अस्तित्व से
तुम्हारे
कृत्य निकलते
हैं। रुक जाओ—और
कृत्य खो
जाएंगे।
और
दूसरी बात समझ
लेनी जरूरी है—आत्मा
नर्तक है—अगर
तुम्हारे दुख
के नृत्य को, इस विषाद
और संताप से
भरे जीवन को
तुम रोक दोगे
तो नर्तन तो
नहीं रुकेगा,
नर्तन का
रूप बदलेगा।
क्योंकि
नर्तन तो रुक
ही नहीं सकता;
वह
तुम्हारे
जीवन का अंग
है। वह
तुम्हारा
स्वभाव है।
नाचते तो तुम
रहोगे ही, लेकिन
तब आंसू नहीं
होंगे, मुस्कराहट
होगी। तब
तुम्हारे
नृत्य में एक
गीत होगा, एक
पुलक होगी, एक आनंद
होगा, एक
हर्षोन्माद
होगा, एक
मस्ती होगी। अभी
तुम्हारा
नृत्य नारकीय
है, तब
स्वर्गीय
होगा।
एक
मुसलमान फकीर
हुआ—इब्राहीम।
कभी सम्राट था, फिर फकीर
हुआ। वह भारत
यात्रा पर आया
था। उसने एक
साधु को पूछा;
क्योंकि
साधु उदास
दिखता था।
अक्सर साधु
उदास होते हैं;
क्योंकि
उनकी जिंदगी
का रस उनकी
गृहस्थी में था।
कोई दूसरा रस
वे जानते नहीं।
और गृहस्थी
छोड़ बैठते हैं,
सब रस खो
जाता है। दुखी
भला न हों, लेकिन
उदास होते हैं।
दुख और
उदासी में
थोड़ा फर्क है।
दुख का अर्थ
है कि उदासी
में एक
तीव्रता है; उदासी
में भी एक
जोशखरोश है; उदासी में
एक बाढ़ है। दो
तरह की बाढ़
होती है। एक
दुख की बाढ़
होती है, एक
सुख की बाढ़
होती है। एक, जब तुम
उदासी से इतने
भर जाते हो कि आंसू
बहने लगते हैं;
एक, जब
तुम खुशी से
इतने भर जाते
हो कि आंसू
बहने लगते हैं—दोनों
बाढ़ हैं।
जब कोई
आदमी संसार को
छोड़कर भाग
जाता है, क्योंकि उसे
लगता है कि
यहां दुख है, तो जो यहां
सुख है, वह
भी छूट जाता
है। तब वह
उदास हो जाता
है; कोई
बाढ़ नहीं आती—न
सुख की, न
दुख की।
तुम
अपने साधुओं
को, संन्यासियों
को जाकर देखो।
वें मुर्दा
हैं; जैसे
जीते जी मर गए
हैं; नर्तन
जैसे बंद हो
गया है। दुख
को तो छोड़
भागे हैं, साथ
में सुख भी
छूट गया; क्योंकि
वहीं सुख भी
दिखाई पड़ता था।
उनकी आशा यह
थी कि जब वे
दुख को छोड़कर
भाग जाएंगे, तो सुख ही
सुख बचेगा।
यहीं भूल है।
संसार
में दुख है; वहां सुख
भी है। तुम
सुख को तो
बचाना चाहते
हो, दुख को
छोड़ना चाहतें
हो। दुख को छोड़कर
भागते हो, सुख
भी छूट जाता
है।
वह
साधु उदास था—साधारण
साधु रहा होगा।
क्योंकि सच
में जो साधु
है, वह
सुख—दुख दोनों
को छोड़ता है।
सुख को बचाना
नहीं चाहता; सुख—दुख
दोनों को
छोड़ता है।
जैसे ही सुख—दुख
दोनों को
छोड्ता है, उदासी खो
जाती है; क्योंकि
उदासी उन
दोनों का मध्य—बिंदु
है। जब तुमने
दोनों ही छोड
दिये, तब
मध्य—बिंदु भी
खो जाता है।
और तब एक नये
आयाम की
यात्रा शुरू
होती है, उसे
आनंद, शांति,
निर्वाण—जो
भी नाम हम
देना चाहें, दें।
आनंद
में बाढ़ नहीं
है; आनंद
ठंडी किरण है,
ठंडा
प्रकाश है; वहां बाढ़
नहीं है। आनंद
उदासी जैसा है
एक अर्थ में।
उदासी सुख और
दुख के मध्य
में है। आनंद
सुख और दुख के
पार है। उदासी
एक स्थिति है
अंधकार की, जहां सब शिथिल
हो गया—मृत्यु
की; जहां
सब आलस्य में
पड़ गया। आनंद
एक सतेज
अवस्था है
जागृति की; लेकिन, न
वहां सुख है, न दुख है। इस
संबंध में
आनंद भी उदासी
जैसा है—वहा न
सुख है, न
दुख है। वहां
प्रकाश तो है,
लेकिन
प्रकाश सुख
जैसा नहीं है;
क्योंकि, सुख के
प्रकाश में भी
तीव्रता होती
है और पसीना आ
जाता है।
सुख से
भी लोग इसलिए
थक जाते हैं।
तुम ज्यादा
देर सुखी नहीं
रह सकते। सुख
भी थकाएगा
क्योंकि, उसमें त्वरा
है, तीव्रता
है,बुखार
है। अगर
तुम्हें रोज—रोज
लाटरी मिलने
लगे, तुम
मरोगे, तुम
जिंदा न बचोगे।
बस, वह
एकाध बार मिले
तो ठीक।
क्योंकि, रोज—रोज
मिलने लगे तो
इतना ज्यादा
हो जाएगा तनाव
कि तुम सो न
सकोगे। छाती
इतनी धड़केगी
कि तुम
विश्राम न कर
सकोगे।
एक्साइटमेंट,
उत्तेजना
इतनी होगी कि
वह तुम्हारी
हत्या बन जाएगी।
इसलिए सुख
हमेशा
होमियोपैथी
की मात्रा में
झेला जा सकता
है। एलोपैथी
की मात्रा तुम
न झेल सकोगे।
बस, जरा—जरा—सी
पुड्यों में
मिलता है—काफी
दुख, थोड़ा—सा
सुख—बस उतना
ही झेला जा
सकता है।
क्योंकि वह भी
तनाव है।
उसमें भी गरमी
है, उत्ताप
है।
दुख भी
तनाव, सुख
भी तनाव।’ है।
आनंद
अनुत्तेजित
चित्त की दशा
है। वहां
प्रकाश तो है,
लेकिन ताप
नहीं है। वहां
नृत्य तो है, लेकिन
उत्तेजना
नहीं है। वहां
एक शांत मौन
नृत्य है, जहां
कोई आवाज नहीं
होती। वहां
शून्य में
नर्तन है, जिससे
कोई थकान नहीं
आती। वह शरीर
का नहीं है।
सुख और दुख
दोनों शरीर के
हैं; आना
का है आनंद।
वह एक दूसरा
ही नर्तन है।
वह
साधु साधारण
साधु था, जैसे
तुम्हें सब
जगह मिल
जाएंगे।
इब्राहीम ने
उस साधु को
उदास देखा तो
हैरान हुआ।
क्योंकि
ईब्राहीम की
धारणा थी कि
साधु को आनंदित
हो जाना चाहिए।
तो उसने पूछा
कि साधु का
लक्षण क्या है।
इब्राहीम ने
साधु को पूछा
कि साधु का
लक्षण क्या है।
उस
साधु ने कहा
कि रोटी मिल
जाए तो
स्वीकार कर ले
और न मिले तो
संतोष करे।
इब्राहीम ने
कहा : यह तो
कुत्ते का
लक्षण है।
इसमें साधुता
क्या? कुत्ता
भी यही करता
है—मिल जाए तो
ठीक, न
मिले तो
संतुष्ट है।
साधु हैरान
हुआ और उसने
कहा कि आप
साधु की क्या
परिभाषा करते
हैं। तो
इब्राहीम ने
कहा : मिल जाए
तो बांट कर
खाए और न मिले
तो नाच कर
धन्यवाद दे
परमात्मा को
कि तुमने
तपक्ष्चर्या
का एक अवसर
दिया। साधु की
परिभाषा—मिल
जाए तो बांट
कर खाये। जो
भी मिले, उसे
बांटे—वही
साधु है। उसे
पल्ड्रे और
रोके तो
गृहस्थ है।
बचाये तो
गृहस्थ है, बांटे तो
साधु है; वह
चाहे आनंद हो,
ज्ञान हो—कुछ
भी हो; चाहे
ध्यान हो। जो
भी मिल जाए ,उसे बांट दे।
एक बड़े
मजे की बात है—इस
संसार में जो
चीजें है, अगर तुम
उन्हें
बांटों, तो
वे कम हो
जायेंगी।
इसलिए आदमी
पकड़ते है। तुम
तिजोरी को बांटोगे
तो ज्यादा दिन
तिजोरी बचेगी
नहीं।
क्योंकि इस
संसार में सभी
सीमित है—बांटा
कि गया। इसलिए
संसार में
सीमित को
पकड़ना पड़ता है।
पर इस आदत को
आत्मा में ले
जाने की कोई
जरूरत नहीं; वहां सब
संपदा असीम है।
वहां जितना
बांटों उतना
बढ़ता है; जितना
उलीचो, उतना
नया आता है।
सागर है अनंत!
इब्राहीम
ठीक कहता है :
मिले तो बांट
कर खा ले; अकेला न खाए ,बांटे; न
मिले तो नाच
कर धन्यवाद दे।
संतोष काफी
नहीं है, क्योंकि
संतोष में तो
उदासी है।
लोग
अक्सर कहते
हैं कि संतोषी
सदा सुखी है; गलती में
है। संतोषी
सुखी नहीं
होता, संतोषी
सिर्फ सुख
मानता है।
भीतर गहरे में
दुखी होता है,
लेकिन कुछ
भी नहीं कर
पाता। अवश है,
इसलिए
संतोष को धारण
कर लेता है।
संतोषी नहीं।
संतोष तो
उदासी का
हिस्सा है। सह
लिया, ज्यादा
शोरगुल न
मचाया, शिकायत
न की—यह मरे
हुए चित्त का
लक्षण हुआ।
इब्राहीम
ने कहा कि न
मिले तो नाचकर
धन्यवाद दे कि
तूने एक अवसर
दिया, तपश्चर्या
का; आज
उपवास होगा।
मिले तो
धन्यवाद, क्योंकि
बांटा, फैलाया।
न मिला तो
धन्यवाद।
साधु
के आनंद को
नष्ट नहीं
किया जा सकता, और
तुम्हारे दुख
को नष्ट भी
किया जाए तो
ज्यादा—से—ज्यादा
उदासी फलित
होती है। तुम
किसी तरह दुख
को छोड़ भी दो
तो बस उदास हो
जाते हो।
तुम्हें दुख
भी संलगन रखता
है, काम
में लगाये
रखता है।
तुमने खयाल
नहीं किया—अगर
तुम्हारे सब
दुख छिन जाएं
तो तुम
आत्महत्या कर
लोगे; क्योंकि
तुम करोगे
क्या फिर! कुछ
बचेगा नहीं करने
को।
बाप
काम में लगा
है; क्योंकि
बेटों को
पढाना है, शादी
करनी है। सबकी
शादी हो जाए, सबका काम
निपट जाए इसी
वक्त, तो
बाप क्या
करेगा? जिंदगी
बेकार मालूम
होगी। बेकार
की चीज में
तुम्हें
कारोबार मिला
हुआ है। उससे
तुम्हें लगता
है कि तुम कुछ
कर रहे हो, महत्वपूर्ण
हो, जरूरी
हो; तुम्हारे
बिना दुनिया न
चलेगी; बेटे
का क्या होगा,
पली का क्या
होगा! इससे
तुम्हारे
अहंकार को
सहारा मिलता
है कि तुम
आवश्यक हो; तुमसे ही सब
चल रहा है।
हालांकि, सब
तुम्हारे
बिना भी चलता
रहेगा। तुम
नहीं थे, तब
भी चल रहा था; तुम नहीं
होओगे, तब
भी चलेगा।
लेकिन, बीच
में थोड़ी देर
को तुम सपना
देख लेते हो—अपने
जरूरी होने का।
तो, ज्यादा—से—ज्यादा
तुम अगर दुख
को छोड़ो भी तो
तुम संतोष कर
सकते हो।
संतोष में दुख
छुपा हुआ है।
संतोष ऊपर—ऊपर
है; भीतर
दुख का घाव है।
वह मलहमपट्टी
है; वह
उपचार नहीं है।
न; साधु संतोषी
नहीं होता; साधु आनंदित
होता है।
परिस्थिति
कोई भी हो, मिलेगा
तो बांटकर
आनंदित होगा;
नहीं
मिलेगा तो न
मिलने में भी
नाचेगा और
आनंदित होगा।
आत्मा
का स्वभाव
नर्तन है, और आत्मा
दो तरह से नाच
सकती है। इस
तरह से नाच
सकती है कि
चारों तरफ दुख
का जाल पैदा
हो जाए। चारों
तरफ उदासी भर
जाए, चारों
तरफ अंधकार
पैदा हो। और,आत्मा ऐसे
भी नाच सकती
है कि चारों
तरफ किरणें
नाचने लगें और
चारों तरफ फूल
खिल जाएं।
संन्यास
आनंद का नृत्य
है और गृहस्थ
दुख का नृत्य!
नरक कहीं और
नहीं। तुम इस
आशा में मत
बैठे रहना कि
नरक कहीं और
है। नरक
तुम्हारे गलत
नाचने का ढंग
है, जिससे
दुख पैदा होता
है। स्वर्ग भी
कहीं और नहीं
है। स्वर्ग
तुम्हारे ठीक
नाचने का ढंग
है जिससे तुम
जहां भी हो, वहां स्वर्ग
पैदा हो जाता
है। स्वर्ग
तुम्हारे
नृत्य का गुण
है। नर्क भी
तुम्हारे
नृत्य का गुण
है।
तुम
नाचना नहीं
जानते; लेकिन सदा
तुम सोचते हो
कि आंगन टेढ़ा
है, इसलिए
नाच ठीक नहीं
हो रहा है। आंगन
टेढ़ा जरा भी
नहीं है और, जिसे नाचना
आता है, टेढ़ा
आंगन भी ठीक
है, कोई
फर्क नहीं
पडता। और जिसे
नाचना नहीं
आता, उसके
लिए बिलकुल
ठीक ज्यामिती
से बनाया गया
नब्बे कोण का आंगन
भी...। नाचना
नहीं आ जाएगा
इससे।
मैंने
सुना है, एक आदमी आंख
के आपरेशन के
लिए गया।
आपरेशन के
पहले डाक्टर
से उसने पूछा
कि मुझे बिलकुल
दिखाई नहीं
पड़ता; मुझे
दिखाई पड़ना
शुरू हो जाएगा?
डाक्टर ने
चिकित्सा के
पहले परीक्षा
की और कहा कि
बिलकुल! उस
आदमी ने कहा
कि क्या मैं
पढ़ भी सकूंगा?
डाक्टर ने
कहा : 'बिलकुल!'
फिर उस आदमी
की आंखें ठीक
हो गयीं, उसे
दिखाई भी पड़ने
लगा। लेकिन वह,
बड़ा नाराज,
एक दिन
डाक्टर के घर
पहुंचा और
उसने कहा कि 'तुम झूठ
बोले, पड़
तो मैं अब भी
नहीं सकता।’ उस डाक्टर
ने कहा : 'तुम्हें
सब दिखाई पड़ने
लगा; पढ़
क्यों नहीं
सकते?' उसने
कहा कि पढ़ना
तो मुझे आता
ही नहीं।
आंख भी
ठीक हो जाए और
पढ़ना न आता हो
तो पढ़ना नहीं
आ जाएगा। आंगन
कितना ही सीधा
हो जाए, नाचना न आता
हो तो नाचना आंगन
के सीधे होने
पर निर्भर
नहीं है, वह
सीखना पड़ेगा।
और ध्यान रहे,
कोई और
सिखानेवाला
नहीं है। तुम
बिलकुल अकेले
हो। इशारे
बुद्ध—पुरुष
दे सकते है, लेकिन सीखना
तुम्हीं को पड़ेगा।
कोई तुम्हें
हाथ पकड़कर
सिखा नहीं
सकता। वह जीवन
का नृत्य इतना
भीतर है, इतना
गहरा है कि
वहां बाहर के
हाथ पहुंच
नहीं सकते।
वहां
तुम्हारे
सिवाय किसी का
प्रवेश नहीं
है। वहां तुम
निपट अकेले हो।
बाकी सब बाहर
है।
आत्मा
नर्तक है। सुख
और दुख—दों
ढंग से आत्मा नाच
सकती है। अगर
तुम दुखी हो
तो तुमने गलत
ढंग सीख लिए
हैं नाचने के।
ढंग को बदलों।
किसी के ऊपर
दोष मत डालों।
कोई शिकायत मत
करो। जब तक
शिकायत करोगे, तुम गलत
ही नाचते
रहोगे; क्योंकि
तुम्हें यह
खयाल ही न
आएगा कि भूल
मेरी है...; सदा
भूल दूसरे की
है।
शिकायत
बंद करो। अपनी
तरफ देखो और
जहां—जहां
तुम्हें दुख
पैदा होता है, खोजो गौर
से, तुम्हारे
भीतर ही उसके
कारण मिलेंगे।
उन कारणों को
छोड़ दो; क्योंकि
जिनसे दुख
पैदा होता है,
उन कारणों
को किये जाने
का प्रयोजन
क्या है? जिनसे
सिर्फ जहर के
फल लगते हों, उन बीजों को
तुम क्यों
बोये. चले
जाते हो? हर
वर्ष क्यों
फसल काट लेते
हो उनकी? बेहतर
तो यह होगा कि
तुम फसल ही न
बोओ, तो भी
ठीक रहेगा।
खाली पडा रहे
खेत तो भी
बुरा नहीं है।
और अच्छा यह
होगा कि कुछ
दिन खाली ही
पड़ा रहे, ताकि
पुराने सब बीज
दग्ध हो जाए
ताकि तुम नये बीज
बो सको।
खाली
पड़े रहने से
तुम डरते
क्यों हो? ध्यान
बीच की खाली
अवस्था है।
ध्यान, जैसे
कोई किसान साल—दो—साल
के लिए खेत को
खाली छोड़ दे, कुछ भी न बोए,
ऐसा ध्यान
बीच की अवस्था
है; नरक के
बीच और स्वर्ग
के बीच खाली
स्थान है। कुछ
दिन के लिए
छोड़ दो, कुछ
मत बोओ। एक
बात ध्यान रखो—गलत
करने से न
करना बेहतर है।
कुछ देर के
लिए रुक ही
जाओ, कुछ
मत करो। जब तक
कि ठीक करना न
आ जाए, तब
तक न करना ही
बेहतर है; क्योंकि
हर कृत्य, गलत
कृत्य, गलत
कृत्यों की
शृंखला पैदा
करता है। उसको
ही हम कर्मों
का जाल कहते
है।
तुम
कुछ—न—कुछ किए
ही चले जा रहे
हो। तुम, बस खाली
नहीं बैठ सकते,
कुछ—न—कुछ
करोगे ही। तुम
खाली बैठ जाओ—वही
ध्यान है, ताकि
पुरानी आदत
छूट जाए और उस
खाली बैठने
में तुम्हें
साफ—साफ दिखाई
पड़ने लगे।
क्योंकि तुम
इतने व्यस्त
हो कि देखने
की फुर्सत और
शुविधा नहीं
है, समय
नहीं है।
ध्यान
का इतना ही
अर्थ है कि
तुम चुप एक
घंटा, दो
घंटा, तीन
घंटा—जितनी
देर तुम्हें
मिल जाए, खाली
बैठ जाओ, कुछ
मत करो। सिर्फ
देखते रही, ताकि धीरे—
धीरे
तुम्हारी आंख
पैनी और गहरी
हो जाए और
तुम्हें यह
दिखाई पड़ने
लगे कि सभी जो
हुआ मेरे जीवन
में, मैं
ही उसका कारण
था। यह
प्रतीति आते
ही व्यर्थ का
बोना बंद हो
जाएगा। तब एक
सार्थक नृत्य
पैदा होता है।
धर्म
परम आनंद है; वह त्याग
की उदासी नहीं,
वह
अस्तित्व का
भोग है। वह
महाभोग में
सम्मिलित
होना है। वह
अस्तित्व के
नृत्य के साथ
एक हो जाना है।
धर्म को तुम
त्याग और
उदासी की भाषा
में सोचना ही
मत। वह गलत
धर्म है, जो
त्याग और
उदासी की भाषा
में सोचता है।
सही धर्म
हमेशा नृत्य
है। वह आनंद
का है। सही
धर्म हमेशा
बजती हुई
बांसुरी है।
आत्मा
नर्तक है, अंतरात्मा
रंगमंच है। और,
यह जो नृत्य
हो रहा है, यह
कहीं बाहर
नहीं हो रहा
है; यह
तुम्हारे
भीतर ही चल
रहा है। यह
संसार रंगमंच
नहीं है; तुम्हारी
अंतरात्मा ही
रंगमंच है।
तुम कितना ही
सोचो कि तुम
बाहर चले गये
हो, कोई
बाहर जा नहीं
सकता जाओगे
कैसे बाहर? तुम रहोगे
अपने भीतर ही।
वहीं सब खेल
चल रहा है। सब
खेल वहां चलता
है, फिर
बाहर उसके
परिणाम दिखाई
पड़ते है। ऐसे
जैसे तुम कभी
सिनेमागृह
में जाते हो, तो पर्दे पर
सब खेल दिखाई
पड़ता है; लेकिन
खेल असल में
तुम्हारी पीठ
के पीछे प्रोजैक्टर
में चलता होता
है, पर्दे
पर सिर्फ
दिखाई पड़ता है।
पर्दा असली
रंगमंच नहीं
है; लेकिन आंखें
तुम्हारी
पर्दे पर लगी
रहती हैं और
तुम भूल ही
जाओगे— भूल ही
जाते हो कि
असली चीज पीछे
चल रही है।
सारा फिल्म का
जाल पीछे है, पर्दे पर तो
केवल उसका
प्रतिफलन है।
अंतरात्मा
रंगमंच है।
प्रोजैक्टर
भीतर है। सब
खेल के बीज
भीतर से शुरू
होते हैं, बाहर तो
सिर्फ खबरें
सुनाई पडती
हैं; प्रतिध्वनिया
सुनाई पड़ती
हैं। और अगर बाहर
दुख है तो
जानना कि भीतर
तुम गलत फिल्म
लिये बैठे हो।
और, बाहर
तुम जो भी
करते हो, गलत
हो जाता है तो
उसका अर्थ है
कि भीतर से
तुम जो भी
निकालते हो, वह सब गलत है।
पर्दें
को बदलने से
कुछ भी न होगा।
पर्दे को तुम
कितना ही लीपो—पोतो, कोई फर्क
न पड़ेगा।
तुम्हारी
फिल्म अगर गलत
भीतर से आ रही
है तो पर्दा
उसी कहानी को
दोहराता
रहेगा। और, न केवल तुम
फिल्म हो, बल्कि
की एक टूटे
हुए रिकार्ड
की भांति हो, जिसमें एक
ही लाइन
दोहरती जाती
है, पुनरुक्ति
होती जाती है।
तुमने
कभी भीतर अपनी
खोपड़ी की जांच—पड़ताल
की? —तो
तुम पाओगे कि
वहां वही—वही
चीजें दोहरती
रहती हैं—टूटा
हुआ रिकार्ड।
तुम वही—वहो
दोहराते रहते
हो। कुछ नया
वहां नहीं
घटता, और
वहां तुम जो
भी दोहराते हो,
उसके
प्रतिफलन
चारों तरफ
सुनाई पड़ते
हैं, चारों
तरफ जगत के
पर्दे पर उसका
प्रतिफलन होता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दिन फिल्म देखने
गया। पली थी, साथ में
उसका बच्चा
था... और मुल्ला
नसरुद्दीन का
बच्चा! कोई
ढंग का तो हो
नहीं सकता; क्योंकि जब
भीतर सब
बेढंगा हो तो
बाहर भी सब बेढंगा
ही आता है। तो
वह रो रहा है, चिल्ला रहा
है, शोरगुल
मचा रहा है।
मैनेजर को कम—से—कम
सात दफा आना
पड़ा कि भाई, आप अपने
पैसे वापस ले
लें और जाएं
या इस बच्चे को
चुप रखें। मगर
वह काहे को
चुप करनेवाला
है! बार—बार
मैनेजर को आना
पड़ा।
नसरुद्दीन
सुन लेता और
चुप बैठा
देखता रहा। जब
फिल्म की आखीर
बिलकुल करीब
आने लगी तो
उसने अपनी पली
से पूछा कि
क्या खयाल है,
फिल्म ठीक
कि गलत? पत्नी
ने कहा कि
बिलकुल बेकार
है। तो उसने
कहा. 'अब
देर मत कर।
जोर से चहुंटी
ले ले लड़के को,
ताकि पैसे
वापस लें और
घर जाएं।
तुम
बहुत दिन से
देख रहे हो! कई
जन्मों से देख
रहे हो कि सब
गलत है! कब
चहुंटी लोगे? खुद को ही
लेनी पड़ेगी; यहां कोई
दूसरा नहीं है।
कब तुम जागोगे
और वापस
लौटोगे? और
क्या जरूरत है
इस गलत को
देखने की, जो
तुम्हें कष्ट
से भर रहा है; जो तुम्हें
पीड़ा और बोझ
दे रहा है; सिवाय
संताप के और
दुख—स्वप्नों
के जिससे कुछ
भी पैदा नहीं
होता—इस भवन
को तुम छोड़
सकते हो। इस
भवन में तुम
अपने ही कारण
रुके हो।
क्यों देर कर
रहे हो? अभी
मन भरा नहीं? अगर मन न भरा
हो तो फिर
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, शिव,
जीसस—इनकी
बकवास में
क्यों पड़ते हो?
अगर मन न
भरा हो, तो
इनकी बातें मत
सुनो; इनसे
दूर रहो, उनसे
बचो। क्योंकि
ये केवल उनके
लिए ही सार्थक
हैं, जिनका
मन भर गया हो
और जिन्होंने
फिल्म काफी
देख ली; जो
ऊब गये अब
वहां से; जो
अब नरक से
बेचैन हो गये
हैं और एक
स्वर्गीय नृत्य
की आकांक्षा
जिनमें जग गयी
है; जिनकी
अभीप्सा पर
परमात्मा के
लिए है।
लेकिन, तुम्हारी
मनोदशा ऐसी है
कि तुम दो
नावों में सवार
होना चाहते हो।
उसी से
तुम्हारा
कष्ट और भी बढ़
जाता है। तुम
इस. संसार को
भी भोगना
चाहते हों—चाहे
कितना ही दुख
हो यहां, लेकिन
थोड़ी आशा बनी
रहती है कि
सुख होगा; बस,
अब होने के
करीब है। आशा
टिकाये रखती
है और
तुम्हारा
अनुभव तुमसे कहता
है कि होनेवाला
नहीं है; क्योंकि
कई दफा तुम यह
आशा कर चुके
हो, सदा
असफल गयी।
अनुभव तो
बुद्धों के
पक्ष में है; आशा बुद्धों
के खिलाफ है।
और तुम दोनों
से भरे हो। और,
दो नावें है।
तो आशा की नाव
पर भी तुम एक
पैर रखे रहते
हो कि शायद
थोड़ी देर और।
इस स्त्री से
सुख नहीं मिला
तो शायद दूसरी
स्त्री से
मिल जाये! इस
बेटे से सुख नहीं
मिला तो दूसरे
बेटे से मिल
जाए! इस धंधे
में सफलता
नहीं मिली तो
दूसरे धंधे
में मिल जाए!
तुम
सदा आसपास की
चीजें बदलते
रहते हो। इस
मकान में सुख
नहीं तो दूसरे
मकान में मिल
जाए। यह थोड़ी
छोटी है
तिजोरी, थोड़ी बड़ी हो
जाए तो मिलेगा।
तुम कुछ—न—कुछ
आसपास बदलते
रहते हो—पर्दें
में फर्क करते
रहते हो।
लेकिन, तुम्हारे
भीतर की कथा
वही है; वही
कथा
प्रोजैक्ट
होती है पर्दे
पर।
हर जगह
तुम्हें दुख
मिलता है।
अनुभव तो दुख
का है और आशा
सुख की है—दो
नावें है।
बुद्ध, महावीर, कृष्ण
को सुनोगे तो
वे अनुभव की
बात कह रहे है—वे
कह रहे है कि
उतर आओ आशा की
नाव से, अनुभव
की नाव पर
सवार हो जाओ।
तुम सुनते भी
हो उनकी, क्योंकि
उनको भी तुम
इनकार नहीं कर
सकते। और, उन्हें
देखकर भी
तुम्हें
भरोसा आता है
कि जो हमें
नहीं मिला है,
लगता है कि
इन्हें मिला
है; क्योंकि
उनकी दौड़
समाप्त हो गयी।
लेकिन, भरोसा
पूरा भी नहीं
आता, क्योंकि
पता नहीं धोखा
दे रहे हों!
कौन जाने, न
मिला हो, ऐसे
ही कह रहे हों!
कौन जाने
इन्हें न मिला
हो, हमें
मिल जाए! ये
कहते हैं कि
मह खट्टे है; हो सकता है
कि न पहुंच
पाए हों
गट्टों तक और
हम पहुंच
जाएं!
तो आशा
भी छूटती नहीं।
अनुभव भी एकदम
गलत है, ऐसा कहना
कठिन है। इस
तरह तुम
द्वंद्व में
हो। यह
द्वंद्व ही
तुम्हारी
विक्षिप्तता
है। और, ये
दोनों नावें
अलग—अलग
यात्रा पर है।
तुम एक पर
सवार हो जाओ।
कोई जल्दी
नहीं है—तुम
संसार की नाव
पर ही पूरे
सवार हो जाओ, जल्दी ही
तुम ऊब जाओगे।
लेकिन, यह
बुद्धों की
नाव पर
तुम्हारा जो
पैर है, वह
तुम्हें
संसार का भी
पूरा अनुभव
नहीं होने देता।
वहां भी तुम
आधे—आधे जाते
हो; क्योंकि
बुद्धों का यह
खयाल
तुम्हारी आधी
टांग को पक्के
हुए है। तो, तुम मंदिर
भी संभालते हो,
दुकान भी
संभालते हो—न
दुकान संभलती
है, न
मंदिर संभलता
है। ये दोनों
साथ—साथ संभल
नहीं सकते।
तुम पूरी तरह
दुकान पर ही
चले जाओ। भूल
जाओ कि कभी
कोई बुद्ध हुआ,
कोई महावीर,
कोई कृष्ण
हुआ है, शिव
हुए। भूलो, ये कोई
शास्त्र है? सब भूलो! बस, खाता—बही सब
कुछ है। एक
बार तुम पूरे
वहां लग जाओ, तो जल्दी ही
तुम वहां से
बाहर निकल
आओगे।
तुम्हारा
अनुभव ही
तुम्हें
कहेगा कि सब
व्यर्थ है।
वह भी
नहीं हो पाता
और बुद्धों की
नावों में तुम
पूरे सवार
नहीं हो पाते; क्योंकि
तुम्हारा मन
कहे चले जाता
है कि अभी जल्दी
मत करो, अभी
बहुत समय है, और अभी
तुम्हारी
उम्र ही क्या?
ये तो
बुढ़ापे की
बातें है। जब
बिलकुल मरने
लगो और एक पैर
कब्र में चला
जाए, तब
तुम दूसरा पैर
बुद्ध की नाव
पर सवार कर
लेना! अभी
क्या जल्दी १!
तो, लोग
सोचते है कि
धर्म बुढ़ापे
के लिए है। जब
बिलकुल मरने
लगेंगे, तब
उन्हें गंगा—जल
की जरूरत पड़ती
है। जब बिलकुल
मरने लगेंगे
तब कोई उनके
कान में नमोकार
मंत्र दोहरा
दे। मरते वक्त,
जब सब
व्यर्थ हो गया
और जब कोई
ऊर्जा न बची, कोई शक्ति न
बची यात्रा की,
तब तुम
यात्रा को
तैयार होते हो।
नहीं, तुम
फिर गिरोगे
वापस संसार
में! फिर तुम
उसी नाव पर
सवार होओगे!
ऐसा तुम अनंत
बार कर चुके
हो!
आत्मा
नर्तक है, अंतरात्मा
रंगमंच है।
ध्यान
रखो—जो भी
तुम्हें बाहर
दिखाई पड़ता है, वह तुमने
भीतर सै बाहर
डाला है। तुम
जीवन में वही
देखते हो, जो
तुम डालते हो।
और तुम्हारे
जीवन में भी
कई मौके आते
हैं।
मैने
सुना है, एक
मुसाफिरखाने
में तीन यात्री
मिले। एक बूढ़ा
था साठ साल का,
एक कोई
पैंतालीस साल
का अधेड़ आदमी
था और एक कोई
तीस साल का
जवान था।
तीनों बातचीत
में लग गये।
उस जवान आदमी
ने कहा कि कल
रात एक ऐसी सी
के साथ मैंने
बितायी कि
उससे सुंदर सी
संसार में नहीं
हो सकती, और
जो सुख मैंने
पाया वह
अवर्णनीय है।
पैंतालीस
साल के आदमी
ने कहा. 'छोड़ो बकवास!
बहुत
स्त्रियां
मैंने देखी
हैं। वे सब
अवर्णनीय जो
सुख मालूम
पड़ते हैं, कुछ
अवर्णनीय
नहीं हैं। सुख
भी नहीं है।
सुख मैंने
जाना कल रात।
राज— भोज में
आमंत्रित था।
ऐसा सुस्वादु
भोजन कभी जीवन
में जाना नहीं।’
के
आदमी ने कहा. 'यह भी
बकवास है।
असली बात
मुझसे पूछो।
आज सुबह ऐसा
दस्त हुआ, पेट
इतना साफ हुआ
कि ऐसा आनंद
मैंने कभी
जाना नहीं; अवर्णनीय है।’
बस, संसार के
सब सुख ऐसे ही
हैं। उम्र के
साथ बदल जाते
हैं; लेकिन
तुम ही भूल
जाते हो।
तीस
साल की उम्र
में कामवासना
बड़ा सुख देती
मालूम पड़ती है।
पैंतालीस साल
की उम्र में
भोजन ज्यादा
सुखद हो जाता
है। इसलिए, अक्सर
चालीस—पैंतालीस
के पास लोग
मोटे होने
लगते हैं। साठ
साल के करीब
भोजन में कोई
रस नहीं रह
जाता, सिर्फ
पेट ठीक से
साफ हो जाए..!
तो जो
समाधि—सुख
मिलता है, वह किसी
और चीज में।
तीनों ही ठीक
कह रहे हैं, क्योंकि
संसार के सुख
बस ऐसे ही हैं।
और इन सुखों
के लिए हमने
कितने जीवन
गंवाये हैं।
और ये मिल भी
जाएं तो भी
कुछ नहीं
मिलता। क्या
मिलेगा?
अंतरात्मा
रंगमंच है।
बाहर तुम वही
देखते हो जो
तुम भीतर से
डालते हो।
जवान आदमी की आंखों
से वासना बाहर
जाती है। उसका
सारा शरीर
वासना के
तत्त्वों से
भरा है। वह
जहां भी देखता
है, वहां
सी दिखाई पड़ती
है। सब तरफ
कामवासना ही
उसे पकड़ लेती
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
जवान था।
पत्नी के साथ, एक
चित्रों की
प्रदर्शनी थी,
वहां गया।
नयी—नयी शादी
थी और जगह—जगह
घूमने का खयाल
था।
प्रदर्शनी
में बड़े कीमती
चित्र थे। एक
चित्र के पास
नसरुद्दीन
रुक गया और
देर तक ठहरा
रहा। भूल ही
गया कि पत्नी
भी साथ है।
चित्र एक नग्न
स्त्री का था—
अति सुंदर; और नग्नता, बस थोड़े—से
दो—चार पत्तों
से ढकी थी।
चित्र का नाम
था—वसंत। वह
ठगा—सा खड़ा था।
आखिर पत्नी ने
उसका हाथ
झकझोरा और कहा
: 'क्या
पतझड़ की
प्रतीक्षा कर
रहे हो?
बस, ऐसा ही
आदमी का मन है।
पली ठीक ही
पहचानी।
पत्नियां
अक्सर ठीक
पहचान लेती
हैं।
तुम्हारे
भीतर जो जोर
मार रहा हो, वही
चारों तरफ का
संसार हो जाता
है; तुम
उसे रंगते हो।
हमारे पास एक
शब्द है—बडा
बहुमूल्य, दुनिया
की किसी भाषा
में वैसा शब्द
खोजना कठिन है—वह
है : राग। राग
का मतलब
आसक्ति भी
होता है, राग
का मतलब रंग
भी होता है।
तुम्हारी सब
आसक्ति, तुम्हारी
आंखों से
फेंके गये रंग
का परिणाम है।
तुम रंगते हो
चीजों को। जिन—जिन
को तुम रंग
लेते हो, वहीं
राग पकड़ जाता
है।
राग का
अर्थ है.
तुमने रंग
लिया। सी
सुंदर नहीं
होती है; तुम्हारे
भीतर
कामवासना का
रंग होता है, तो सी सुंदर
दिखाई पड़ती है।
छोटे बच्चे को
कोई फिक्र
नहीं है; अभी
कामवासना का
रंग पका नहीं।
बूढ़े का रंग
जा चुका। वह
तुम्हारी छूता
पर हंसता है; हालांकि यही
छूता उसने भी
की है। तुम भी
हंसोगे।
लेकिन, छूता
करते वक्त जो
पहचान ले और
समझ ले, वह
जाग जाता है।
मूढ़ता का रंग
जब चला जाए, तब हंसने
में कोई बहुत
अर्थ नहीं। तब
तो कोई भी
हंसता है।
लेकिन, जब
छूता पकड़े हुए
है और रंग जोर
में है, तब भी
तुम जाग जाओ
और पहचान लो
कि सब भीतर का
ही खेल बाहर
दिखाई पड़ रहा
है; बाहर
कुछ भी नहीं
है, कोरा
पर्दा है।
अंतरात्मा
ही रंगमंच है।
वही
प्रोजैक्टर
है और वहीं से
हम सारा फैलाव
कर रहे हैं।
बुद्धि
के वश में
होने से
सत्त्व की
सिद्धि होती
है।
और, यह जो खेल
चल रहा है, तब
तक चलता रहेगा
और तुम इसमें
भटकते रहोगे,
जब तक
बुद्धि वश में
न हो। बुद्धि
के वश में
होने से
सत्त्व की
सिद्धि हो
जाती है। जैसे
ही तुम्हें यह
स्मरण आ जाए
कि सारा खेल भीतर
से चल रहा है, तो फिर
संसार को वश
में करने की
तुम फिक्र छोड़
दोगे; वह
कभी किसी के वश
में नहीं हुआ।
वहां कुछ है
भी नहीं। वहां
केवल पर्दा है।
तुम
अपनी बुद्धि
को वश में कर
लो और सारा
संसार
तुम्हारे वश
में हो जाता
है। जैसे ही
तुम्हें यह
स्मरण आ जाता
है कि जिस खेल
को मैं देख
रहा हूं उसका
निर्माता मैं
हूं अभिनेता
मैं हूं कथा—लेखक
मैं हूं सभी कुछ
मैं हूं मंच
भी मैं हूं—वैसे
ही तुम बाहर
की बदलाहट में
उत्सुक नहीं रह
जाते। तब तुम
भीतर, मेरी
जो मालकियत है,
उसको पाने
में लग जाते
हो—वह है बुद्धि
की मालकियत।
तुम
अपनी बुद्धि
के मालिक नहीं
हो। तुम्हारे
विचार
तुम्हारे
गुलाम नहीं
हैं। तुम अपने
विचारों के
गुलाम हो। वे
तुम्हें जहां
ले जाते है, वहां तुम
जाते हो; तुम
उन्हें जहां
ले जाना चाहते
हो, वे
जाते नहीं। एक
छोटे—से विचार
को भी मोडने
की कोशिश करो,
वह इनकार कर
देता है। एक
छोटे—से विचार
को कहो कि
शांत हो जाओ, वह बगावत कर
देता है।
तुम कभी
इस तरफ ध्यान
ही नहीं देते; क्योंकि
इतना
पीड़ादायी है
इस तरफ ध्यान
देना कि मैं
अपना भी मालिक
नहीं हूं। और दुनिया
के मालिक होने
की तुम कोशिश
में लगे रहते
हो। और, जो
अपना ही मालिक
नहीं है, वह
कैसे किसी और
का मालिक हो
पाएगा?
अपने
मन को गौर से
पहचानो; उसका निरीक्षण
करो। तो, पहली
तो बात यह समझ
में आएगी कि
मालिक मन हो
गया है, आत्मा
नहीं, तुम
नहीं। मन कहता
है कि यह करो
और तुम्हें
करना पड़ता है।
न करो तो मन
झंझट खड़ी करता
है। न करो तो
मन उदास होता
है; उसकी
उदासी
तुम्हारी
उदासी बन जाती
है। करो तो
कहीं पहुंचते
नहीं; क्योंकि
मन अंधा है।
उसका आदेश
मानकर तुम
पहुंचोगे भी
कहां! मन तो मूर्च्छा
है; वह तो
बेहोशी है।
उसकी सुनकर
तुम कहीं
पहुंचने वाले
नहीं हो।
तुमने
सुना है कि
अंधे अगर
अंधों का
अनुगमन करें
तो खड्डों में
गिरते हैं।
लेकिन यही
प्रत्येक कर
रहा है।
तुम्हारा मन
बिलकुल अंधा
है, उसे
कुछ भी पता
नहीं है। और
तुम उसका
अनुगमन करते
हो! जैसे छाया
तुम्हारे
शरीर का
अनुगमन करती
है, तुम मन
का अनुगमन
करते हो। तुम
भूल ही गये हो
कि मालिक तुम
हो! गुलामों
के साथ बहुत
दिन तक जुडे
रहने पर ऐसा
अक्सर हो जाता
है। धीरे—धीरे
गुलाम मालिक
हो जाता है!
क्योंकि
जितना तुम
उनपर निर्भर
होने लगते हो,
उतनी ही
उनकी मालकियत
सिद्ध होती
जाती है।
सारी
साधना एक ही
बात की है कि
मन की मालकियत
तोड़ दो। क्या
करोगे मन की
मालकियत
तोड्ने के लिए?
पहली
बात—मन की
मालकियत
तोड़नी हो, तो मन के
साथ
तादात्म्य
तोड़ दो। मन
में एक विचार
उठता है—तुम
उस विचार के
साथ मत जुडो, एक मत हो जाओ।
तुम्हारे एक
होने से ही
उसको ताकत
मिलती है। तुम
दूर खड़े रहो।
तुम ऐसे देखते
रहो जैसे
रास्ते पर लोग
चल रहे हैं और
तुम किनारे पर
खड़े देख रहे
हो। तुम ऐसे
देखते रहो
जैसे आकाश में
बादल भटक रहे
हैं और तुम
दूर जमीन पर
खड़े देख रहे
हो। अपने को
जोड़ी मत विचार
से। यह मत कहो
कि यह मेरा
विचार है।
जैसे ही तुमने
कहा—मेरा, कि
तुम जुड़ गये; जुड़े कि
तुम्हारी
शक्ति विचार
में चली गयी।
और वही शक्ति
तुम्हें
गुलाम बनाती
है। वह शक्ति
भी तुम्हारी
है।
तुम
जुडो मत। जैसे—जैसे
तुम दूर हटोगे, टूटोगे, अलग होओगे, वैसे—वैसे
विचार
निर्जीव हो
जाता है, निर्वीर्य
हो जाता है।
उसको ऊर्जा ही
नहीं मिलती।
तुम्हारी
तकलीफ यह है
कि तुम दीये
की ज्योति तो
आना चाहते हो,
लेकिन तेल
तुम खुद ही
डालते हो। इधर
तुम फूंकते हो,
उधर तुम तेल
डालते हो; तेल
डालना बंद करो—पहली
बात। पुराना
तेल ज्यादा
देर नहीं
चलेगा; पहले
तेल डालना बंद
करो।
क्या
है तेल? जब भी कोई
विचार
तुम्हें पकड़ता
है—क्रोध ने
पकड़ा, तुम
तत्क्षण
क्रोध के साथ
एक हो जाते हो।
तुम कहते हो.
मैं क्रोधित
हों गया। अब
सच्चाई यह है
कि तुम क्रोध
के साथ इतने
एक हो गये हो
कि तुम्हारी
पूरी शक्ति
क्रोध को मिल
रही है। तुम
छाया हो गये, वह मालिक हो
गया! जब क्रोध
आये, तब
तुम दूर खड़े
होकर देखो।
उठने दो क्रोध
को, फैलने
दो शरीर में, धुएं की तरह तुम्हें
चारों तरफ से
घेरेगा, घेरने
दो। तुम एक
बात स्मरण रखो
कि मैं क्रोध
नहीं हूं। और,
जल्दी मत
करो कृत्य में
उतारने की
क्योंकि कृत्य
में उतार लेने
पर लौटना
मुश्किल है।
तुम
क्रोध को देखो
और एक बात पकी
कर लो कि जिसने
क्रोध पैदा
करवाया है, गाली दी
है, अपमान किया
है., उसे
अगर उत्तर भी
देना है तो
तभी देंगे, जब क्रोध जा
चुका होगा, उसके पहले
उत्तर न देंगे।
यह कठिन होगा
शुरू—शुरू में
क्योंकि बड़ी
सजगता साधनी
पड़ेगी, लेकिन
धीरे— धीरे
सरल हो जाता
है। मुंह बंद
कर लो—तभी दे
मे उत्तर, जब
क्रोध शांत हो
जाएगा। और यह
ठीक भी है; क्योंकि
शांत क्षण में
ही उत्तर समुचित
होगा। क्रोध
के क्षण में
उत्तर समुचित
कैसे होगा? वह तो ऐसा है,
जैसे कोई
नशे में उत्तर
देने चला गया।
कामवासना
मन को पकड़े, दूर से
खड़े होकर देखो।
फासला बनाओ।
तुम्हारे और
तुम्हारे
विचार के बीच
में फासला
जितना ज्यादा
होता जाए, जितना
डिस्टेंस, जितनी
दूरी हो जाए—उतनी
ही तुम्हारी
मालकियत
सिद्ध होने
लगेगी। तुम
इतने सटकर खड़े
हो गये हो कि
तुम भूल ही
गये हो कि
दोनों के भीतर
कुछ जगह 'है।
इसे आज
से ही शुरू
करो। जल्दी
नहीं परिणाम
आयेंगे; क्योंकि
जन्मों—जन्मों
की निकटता है।
एक दिन में
तोड़ी भी नहीं
जा सकती। बड़े
पुराने संबंध
हैं, तोड्ने
में वक्त
लगेगा। लेकिन,
अगर तुमने
थोड़ी—सी
चेष्टा की तो
टूट जाएगा; क्योंकि
संबंध झूठा है।
असली होता तो
टूटता नही।
झूठा है; बस
खयाल है। खयाल
ही भर है कि
मैं इसके साथ
एक हूं। एक हो
जाने का खयाल
ही झंझट खडी
कर देता है।
भूख
लगे तो ऐसा मत
कहो कि मुझे
भूख लगी है; इतना ही
कहो कि मैं
देखता हूं
शरीर को भूख
लगी है। और
सच्चाई भी यही
है। तुम
देखनेवाले हो।
भूख शरीर को
लगती है।
चेतना को कभी
कोई भूख लग भी
नहीं सकती।
शरीर में ही
भोजन जाता है।
शरीर में ही
रक्त—मांस की
जरूरत पड़ती है।
शरीर ही थकता
है, चेतना
कभी थकती नहीं।
चेतना तो ऐसा
दीया है, जो
बिना बाती और
बिना तेल के
जलता है। वहां
कोई भोजन, कोई
ईंधन, न
जरूरी है, न
कभी चाहा गया
है।
शरीर
के लिए ईंधन
चाहिए— भोजन
चाहिए, पानी चाहिए।
शरीर यंत्र है;
आत्मा कोई
यंत्र नहीं है।
भूख लगे, शरीर
को भोजन दो।
बस,इतना
स्मरण रखो कि
शरीर को भूख
लगी है, मैं
देख रहा हूं।
प्यास लगे, पानी दो।
जरूरी है देना,
यंत्र को
देना ही पडेगा।
पागल होगा, जो आदमी कहे
कि यह शरीर
मैं नहीं हूं
इसलिए पानी
नहीं दूंगा।
कार में बैठे
हो और पेट्रोल
न भरोगे तो
क्या करोगे? फिर उतर जाओ
कार से। फिर
यह चलनेवाली
नहीं है। अब
तुम बैठे रहो,
चलाने की
कौशिश करो और
कहो कि
पेट्रोल न
दूंगा। बस, इतना ही
काफी है कि
कार के साथ एक
मत हो जाओ।
मालिक रही।
कार की जरूरत
को पूरा करो।
शरीर
की जरूरत पूरी
करनी है; वह यंत्र है।
उसका उपयोग
लेना है। और
उपयोग बड़ा है;
क्योंकि
दुख में भी ले
जाने में वह
सीढ़ी है और आनंद
में ले जाने
में भी वही
सीडी है। शरीर
तो एक सीढ़ी है।
और सीडी की
खूबी होती है
कि उसका एक
छोर जमीन पर
लगा होता है, दूसरा छोर
आकाश में लगा
होता है। तुम
उसी से नीचे
उतर सकते हो, तुम उसी से
ऊपर चढ़ सकते
हो। शरीर के
ही माध्यम से
तुम नरक तक
आये हो; शरीर
के माध्यम से
ही तुम स्वर्ग
तक पहुंचोगे।
शरीर के
माध्यम से ही
तुम मोक्ष तक
भी जा सकने।
वह माध्यम है।
उसे संभाल कर
रखना है। उसकी
जरूरतें पूरी
करनी हैं।
लेकिन माध्यम
के साथ एक हो
जाने का कोई
कारण नहीं।
यंत्र को
तंत्र ही रहने
दो। फाऊन्टेन
पेन से तुम
लिखते हो, लेकिन
तुम फाऊन्टेन
पेन नहीं हो।
पैर से तुम
चलते हो, लेकिन
तुम पैर नहीं
हो।
शरीर
यंत्र है; उसको
संभालो।
कीमती यंत्र
है; उसको
खराब मत कर
डालना। दो तरह
के खराब
करनेवाले लोग
है। एक तो भोग
में उसे खराब
कर डालते है
और दूसरे त्याग
में उसे खराब
कर डालते हैं।
दोनों दुश्मन
हैं और दोनों
नासमझ है। कोई
वेश्या के घर
जाकर उसको
खराब कर डालता
है, कोई
ज्यादा खा—खा
कर खराब कर
डालता है।
दूसरे छोर के
पागल हैं; वे
उपवास क्र—करके
खराब कर डालते
हैं। या तो
तुम इतना
पेट्रोल भर
देते हो कि
भीतर बैठने की
जगह न रह जाए
और या पेट्रोल
भरते ही नहीं।
बस, दो
अतियों पर तुम
चलते हो।
जितनी जरूरत
है, उतना
दे दो। नौकर
की भी चिंता
तो करनी ही
होगी। उसकी
फिक्र रखनी
होगी। लेकिन
फिक्र से कोई
नौकर मालिक
नहीं हो जाता।
बुद्धि
के वश में
होने से
सत्त्व की
सिद्धि होती
है। और जैसे—जैसे
तुम्हारी बुद्धि
वश में आती
जाएगी; जैसे—जैसे
तुम साक्षी
होते जाओगे, वैसे—वैसे
तुम पाओगे कि
भीतर का जो
सत्त्व हें—तुम्हारी
जो आत्मा है, तुम्हारा जो
वास्तविक
अस्तित्व है,
वह सिद्ध
होने लगा।
बुद्धि के
भ्रष्ट होने
से—संसार बुद्धि
के वश में
होने से—
आत्मा।
बुद्धि मालिक
हो तो—संसार बुद्धि
गुलाम हो जाए
तो——परमात्मा।
बुद्धि
सीढ़ी है। उससे
नीचे उतरना
अनिवार्य
नहीं है; उससे तुम
ऊपर भी जा
सकते हो।
लेकिन ऊपर तो
केवल मालिक ही
जा सकता है।
गुलाम नीचे, और नीचे, और
नीचे उतरता
जाता है। और
बुद्धि की
गुलामी बड़ी
खतरनाक है; क्योंकि वह
एक की गुलामी
नहीं, बुद्धि
तो भीड़ है।
अभी कहती है, क्रोध करो; क्षण भर बाद
कहती है, पश्चाताप
करो। एक विचार
कहता है, भोगो
संसार; दूसरा
विचार कहता है,
जाओ, खोजो
मोक्ष। एक
विचार कहता है,
धन इकट्ठा
कर लो, चोरी
भी करनी पड़े
तो कोई हर्ज
नहीं। दूसरा
विचार कहता है
कि यह पाप है।
ऐसे अनंत
विचार हैं। और
उन अनंत
विचारों का
जोड़ बुद्धि है।
बुद्धि
अगर एक विचार
होती तो भी
जीवन में शांति
हो सकती थी; लेकिन वह
तो एक विचार
नहीं है; वह
तो भीड़ है, वह तो बाजार
है। बुद्धि की
हालत ऐसी है
जैसे कि कोई
स्कूल हो, क्लास
लगी हो, शिक्षक
मौजूद हो, तो
बच्चे बैठे पढ़
रहे हैं, सब
शांत है; शिक्षक
बाहर चला गया
और उपद्रव
शुरू हुआ।
मारपीट शुरू
हो गयी!
किताबें
फेंकी जा रही
हैं। सलेटें
फोडी जा रही
हैं। टेबल
उलटा दी गयी
है। तख्ते पर
कुछ—कुछ लिखा
जा रहा है।
गाली—गलौज बकी
जा रही है। ये
सब बच्चे, अब
इनका कोई
मालिक नहीं है।
इनका कोई
देखनेवाला
नहीं है।
शिक्षक भीतर
कमरे में वापस
आ जाता है—एकदम
सन्नाटा! सब
किताबें अपनी
जगह पर आ गयीं।
लड़कों की
नजरें नीचे
झुक गयीं। वे
अपने काम में
लग गये हैं।
जैसे
ही तुम्हारी
मालकियत भीतर
आती है, बुद्धि एकदम
काम में लग
जाती है। जैसे
ही तुम्हारी
मालकियत खो
जाती है—तब
बुद्धि एक
उपद्रव है, एक अराजकता
है। और इस
अराजकता को
मानकर चलना
बड़ा कठिन है; क्योंकि यह
कहीं भी नहीं
ले जा सकती।
यहां कोई एक
स्वर थोड़े ही
है, अनंत
स्वर हैं।
महावीर
का वचन है कि
मनुष्य बहुचित्तवान
है। वहां एक
चित्त नहीं है; बहुत
चित्त हैं। और
महावीर के इस
वचन को आधुनिक
मनोविज्ञान
समर्थन देता
है। आधुनिक
मनोविज्ञान
कहता है कि
मनुष्य पोली—साइकिक
है, बहुचित्तवान
है। एक मन
नहीं है
तुम्हारे
भीतर; अनंत
मन हैं। जैसे
एक नौकर हो और
अनंत मालिक
हों और सब
आशाएं दे रहे
हों, वह
नौकर पगला
जाएगा—किसकी
माने, किसकी
न माने! ऐसे ही
तुम पगला गये
हो। एक को
खोजो ताकि
शिक्षक क्लास
में वापस आ
जाए।
एक को
खोजो ताकि
गुलाम, जो बहुत हैं,
अपनी—अपनी
जगह बैठ जाएं।
एक मालिक हो
तो तुम्हारे
जीवन में दिशा
आएगी,. सत्य
की सिद्धि
होगी। तुम
अपने को जान
सकोगे। और
इससे—इस सत्व
की सिद्धि से—सहज
स्वातंत्र
फलित होता है।
अभी जब तक तुम
बुद्धि को
मालिक बनाये
हुए हो, तुम
गुलाम रहोगे।
जैसे ही सत्य
की सिद्धि
होगी, सहज
स्वातंत्य
फलित होगा। यह
समझ लेना
जरूरी है कि
सहज
स्वातंत्र्य
क्या है। सिर्फ
स्वातंत्र्य
क्यों न कहा? सहज क्यों?
थोड़ा
सूक्ष्म है।
दो तरह
की
स्वतंत्रताएं
होती हैं। एक
स्वतंत्रता
तो होती है, जो किसी
के खिलाफ होती
है। जब
स्वतंत्रता
किसी के खिलाफ
होती है तो वह
स्वच्छंदता
हो जाती है।
वह वास्तविक
स्वतंत्रता
नहीं है। तब
तुम विपरीत
चलने लगते हो।
जैसे बुद्धि
कहती है, क्रोध
करो, तो
अगर तुम उलटा
चलने लगो—कि
बुद्धि कहती,
क्रोध करो
तो हम क्रोध
तो नहीं करेंगे,
हम क्षमा
करेंगे। बुद्धि
कहती है, मार
डालो इसको; तुम कहते हो,
हम मारेंगे
तो नहीं, अपनी
गर्दन इसके
सामने रख
देंगे कि तुम
मुझे मार डालो।
बुद्धि जो कहे,
उससे
विपरीत हम
करेंगे—जैसा
कि आमतौर से
साधु करते हैं।
बुद्धि कहती
है, चलो सी
को खोजो; साधु
जंगल की तरफ भागते
हैं। बुद्धि
कहती है, चलो
धन को खोजो; साधु धन को
छूते नहीं; धन छू जाए तो
सांप—बिच्छू
मालूम पड़ता है।
बुद्धि कहती
है, आराम
करो, विश्राम
करो; साधु
धूप में खड़ा
हो जाता है, कीटों की
शैया बना लेता
है। यह सच्ची
स्वतंत्रता
नहीं है; क्योंकि
जिसके तुम
विपरीत जा रहे
हो, अभी भी
तुम उसी की
सुन रहे हो।
मालिक वह अभी
भी है।
इसे
थोड़ा समझो। यह
थोडा जटिल है; क्योंकि
तुम्हारी
लड़ाई जारी है।
अगर तुम मालिक
हो गये तो
लड़ाई खत्म हो
जाती है।
गुलाम गुलाम
है, उससे
क्या लड़ना!
तुम्हारे घर
में कोई गुलाम
है और वह
मालिक हो गया
है; वह तुमसे
कहता है कि
नीचे बैठो तो
तुम नीचे
बैठते हो। वह
तुमसे कहता है
खड़े हो जाओ तो
तुम खड़े हो
जाते हो।
तुमने तय किया
कि अब हम इस
गुलाम के
विपरीत चलेंगे,
तब भी वह
तुम्हारा
मालिक रहेगा।
अब वह कहता है,
बैठो, तो
तुम खड़े हो
जाते हो।
मानते तुम
उसकी नहीं हो,
लेकिन फिर
भी तुम उसी की
मान रहे हो; क्योंकि वही
तुम्हें
गतिमान कर रहा
है। और, गुलाम
जरा होशियार
हुआ तो जब उसे
तुम्हें बिठाना
हो, तब वह
कहेगा, खड़े
हो जाओ और तुम
बैठ जाओगे।
तुम बच नहीं
सकते।
मुल्ला
नसरुद्दीन का
बेटा बहुत
उपद्रव कर रहा
था।
नसरुद्दीन ने
उससे बहुत कहा, चुप बैठ।
तो वह और
शोरगुल मचाये।’बाहर जा' — तो
वह भीतर आये।
आखिर
नसरुद्दीन
परेशान हो गया।
घर में मेहमान
थे और
मेहमानों के
सामने बच्चे
ज्यादा
उपद्रव करते
है; क्योंकि
मेहमानों के
सामने सिद्ध
करने का सवाल
होता है कि
कौन असली
मालिक है—बाप
कि बेटा, तुम
कि हम। इसलिए
बच्चे
साधारणत:
शोरगुल न
करेंगे, अपने
काम में लगे
रहेंगे। घर
में मेहमान
आया कि
परेशानी शुरू
हुई; क्योंकि
सवाल है
संघर्ष का, अहंकार का—कौन
मालिक है! तो
मेहमानों को
देखकर बच्चा
और उपद्रव
करता है।
आखिर
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा : 'देख!
जो तेरी मर्जी
में हो, कर।
अब मैं देखूं
कि तू मेरी
आज्ञा का
उल्लंघन कैसे
करता है। जो
तेरी मर्जी
में हो वह कर।
अब मैं देखूं
कि तू मेरी
आशा का
उल्लंघन कैसे करता
है।’
बच्चा
जरूर मुश्किल
में पड़ गया
होगा।
तुम
अगर मन के
विपरीत गये तो
सहज
स्वतंत्रता फलित
न होगी। एक
स्वतंत्रता
फलित होगी, जो
स्वतंत्रता
नहीं है, बगावत
है, विद्रोह
है। लेकिन
जिससे हम
विद्रोह करते
हैं, उससे
हम बंधे रहते
हैं। जिससे हम
लड़ते हैं, उससे
हमारा संबंध
जुड़ा रहता है।
मालिक हम अभी
भी नहीं हैं।
अभी भी इशारा
वहीं से आता
है। अब हम
विपरीत करते
हैं; लेकिन
इशारा वहीं से
आता है।
तो, तुम
ब्रह्मचर्य
साधो, लेकिन
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता; क्योंकि
तुम्हारा
ब्रह्मचर्य
सिर्फ बगावत है,
वह सहज नहीं
है। कामवासना,
मन कह रहा
था; तुमने
कहा हम लड़ेंगे।
यह लड़ाई है; लड़ाई गुलाम
से कोई करता
है? और जो
लड़ाई गुलाम से
करता है, वह
गुलाम को अभी
भी मालिक मान
रहा है। लड़ाई
मालिक से होती
है। गुलाम से
क्या लड़ाई का
सवाल है!
इसलिए तुम्हारे
साधु चाहे
तुमसे विपरीत
हों, तुमसे
भिन्न नहीं
हैं।
तुम्हारे
साधु तुमसे
उलटे जा रहे
है; लेकिन
जहां तक मन की
मालकियत का
सवाल है, रत्तीभर
फर्क नहीं है।
सहज
स्वतंत्रता
बिलकुल और बात
है। सहज
स्वतंत्रता
का अर्थ ही यह
है कि मैं
मालिक हूं
इसलिए अब मन
की मानना या न
मानना दोनों सवाल
नहीं है। मन
के पक्ष में
जाना या
विपक्ष में
जाना, दोनों
सवाल नहीं हैं।
अब मैं मन को
आज्ञा देता
हूं अब मैं
आशा मानता नहीं।
आशा मानने के
दो ढंग हैं—मानूं
या विपरीत
जाऊं; लेकिन
दोनों ढंग
मानने के ही
हैं।
बुद्धि
जब मालिक हो
जाती है, तो उसकी
मालकियत दो
तरह की हो
सकती है—नकारात्मक
और विधायक।
तुम चाहो, गृहस्थ
हो सकते हो; तुम चाहो, साधु हो
सकते हों—लेकिन
फर्क न पड़ेगा।
इसलिए
तुम्हारे
साधु गृहस्थ
के उलटे रूप
हैं—शीर्षासन
करते हुए। कोई
फर्क नहीं है।
और गृहस्थ से
ज्यादा तकलीफ
में हैं; क्योंकि
पैर पर खड़े
होना ज्यादा
आसान है, सिर
पर खड़े होना
निशित ही
ज्यादा कठिन
है। नहीं तो
प्रकृति
तुम्हें सिर
पर खड़ा हुआ ही
बनाती। तुम जो
कर रहे हो, वे
उससे विपरीत
कर रहे हैं।
तुम इकट्ठा कर
रहे हो, वे
त्याग कर रहे
हैं। तुम शरीर
की सुरक्षा कर
रहे हो, वे
शरीर को
असुरक्षित
छोड रहे है।
तुम शरीर के
लिए अच्छी
शैया बना रहे
हो, वे
काटे—कंकड बीन
रहे हैं।
लेकिन तुमसे
ठीक विपरीत।
तुम भोजन .का
स्वाद ले रहे
हो, वे
उपवास कर रहे
हैं, अनशन
कर रहे हैं।
तुम अच्छे
वस्रों में
ढके बैठे हो, वे नग्र हो —गये
हैं। यह सहज
स्वातंत्र्य
नहीं है। यह
स्थिति तनाव
की है। इसमें
सहजता नहीं है।
इसलिए
यह सूत्र कहता
है कि बुद्धि
के वश में
होने से सत्य
की सिद्धि
होती है—द्यीवशात्सत्वसिद्धि:।
और इससे सहज
स्वातंत्र्य
फलित होता है।
तब तुम
स्वतंत्र हो।
तब तुम मन की
तरफ नहीं
देखते कि वह
क्या कर रहा है; अब मैं का
करूं, और
क्या न करूं।
तब तुम मन की
तरफ देखते ही
नहीं। तब
तुम्हारा
कर्तृत्व सहज
होता है। तब
तुम मन से
सचमुच मुक्त
हो गये। तब
तुम ही
निर्णायक
होते हो, मन
तुम्हारे
पीछे चलता है।
लेकिन यह तभी
घटित होगा, जब तुम
मालिक हो जाओ।
मालकियत घटित
होगी, जब
तुम साक्षी हो
जाओ।
मन से
लड़ना मत, अन्यथा सहज
स्वातंत्र्य
कभी फलित न
होगा। तुम लड़े
कि तुमने मन
को अपने बराबर
मान लिया। तुम
जिससे लड़ोगे,
उसको तुमने
समान अधिकार
दे दिया—कभी
मित्र था, अब
शत्रु हो गया;
लेकिन तुम
खड़े समान हो।
मालिक समान
नहीं होता।
मालिक आकाश
में होता है, नौकर जमीन
पर होता है।
मालकियत आ जाए
तो जो
स्वतंत्रता
आती है, वह
सहज है। और
सहज
स्वतंत्रता
बड़ी अनूठी है!
सुना
है मैंने, एक
मुसलमान फकीर—बायजीद—हज
की यात्रा को
गया। तो
उन्होंने तय
किया था कि हम
चालीस दिन का
उपवास करेंगे।
पांच दिन
उपवास के बीत
गये थे और वे
एक गांव में
पहुंचे। कोई
सौ शिष्य
बायजीद के साथ
थे। वह बड़ा
प्रतिष्ठित
ज्ञानी था।
दूर—दूर तक
उसकी ख्याति
थी। जब वे
गांव में
पहुंचे तो
गांव के बाहर
लोगों ने आकर
खबर दी कि 'बायजीद,
तुम्हारा
एक भक्त है, उसने हद कर
दी। गरीब आदमी
है। एकदम गरीब
आदमी है।
सिवाय झोपड़े
के उसके पास
कुछ न शा।
उसने झोपड़ा
बेच दिया। गाय—
भैंस थीं, वे
बेच दीं। उसके
पास जो था, उसने
सब बेच दिया
और आज पूरे
गांव को भोजन
पर बुलाया है,
तुम्हारे
स्वागत में।’
बायजीद
तो उपवासा था
और चालीस दिन
उपवास रखना था।
शिष्य भी
उपवासे थे और
चालीस दिन
उपवास रखना था।
बायजीद पर तो
कोई तनाव न
हुआ, शिष्य
बड़े तनाव से
भर गये। लेकिन
शिष्य जानते
थे कि भोजन तो
करना नहीं है।
वे पहुंचे, बायजीद तो
बैठ गया थाली
पर। शिष्यों
को बड़ी बेचैनी
हुई। अब जब
गुरु बैठ गया
तो वे भी बैठे,
लेकिन बड़ी
ग्लानी से। और
उन्होंने कहा
: 'क्या
बायजीद भूल
गया? क्या
इतने जल्दी
स्मरण खो गया?
या कि
बायजीद भोजन
के रस में आ
गया? मना
करना था। हम
चालीस दिन का
उपवास किये
हुए हैं। जब
तक हम हज की
यात्रा पर
पूरे पहुंच न
जाएं...। वहीं जाकर
भोजन लेना है।
और यह क्या
बात हुई, व्रत
लिया और पांच
दिन में टूट
गया?
लेकिन
अब भीड़ के
सामने कुछ कह
भी न सकते थे।
भोजन कर लिया, लेकिन
बड़ी ग्लानि से
किया, बडी
तकलीफ से किया।
और बायजीद की
तरफ देखें, तो बड़े
हैरान हों कि
बड़े मजे से
भोजन कर रहा
है—कोई बेचैनी
नहीं है, कोई
तकलीफ नहीं है।
रात जब
सब लोग चले
गये तो शिष्य
गुरु पर टूट
पड़े।
उन्होंने कहा.
'यह हद
हो गई! हम भोजन
नहीं कर सकते
थे; और
आपने किया, इसलिए आपके
पीछे हमको भी
करना पड़ा।’
बायजीद
ने कहा : 'इतने परेशान
क्यों होते हो?
उसने इतने
प्रेम से
बनाया था कि
उपवास तोड्ने
जैसा था। और
उसके प्रेम को
तोड्ने से
नुकसान
ज्यादा होता;
उपवास को
तोड्ने से कोई
नुकसान नहीं
हुआ। हम पांच
दिन और उपवास
कर लेंगे।
चालीस दिन
पूरे करने हैं,
चालीस दिन
नहीं, पैंतालीस
दिन कर देंगे।
उसका प्रेम
टूटता तो उसे
हम कभी न जोड़
पाते। उसके
हृदय को चोट
लगती, उसको
जोड्ने का कोई
उपाय न था।
उपवास ही करना
है न? ये
पांच दिन भूल
जाओ; आगे
चालीस दिन फिर
कर लेंगे।’
यही
फर्क है।
शिष्यों की
स्वतंत्रता
सहज नहीं है।
उनको तकलीफ जो
हो रही है, वह यह है
कि अरे, मन
की सुन ली! मन
तो कह ही रहा
था कि करो
भोजन। हम लड
रहे थे कि न
करेंगे और मन
की सुन ली!
गुलामी आ गयी!
बायजीद
मालिक है। यह
अपने हाथ में
है कि उपवास
रखना है कि
तोड़ना है।
इसमें मन की
कोई बगावत
नहीं है, मन से कोई
विरोध नहीं है,
मन का कोई
मानना नहीं है।’हम मालिक
हैं। उपवास
रखना है तो
उपवास रखेंगे;
नहीं रखना
है तो नहीं
रखेंगे।
निर्णय हमारा
होगा।’
दोनों
उपवासी थे, लेकिन
दोनों के
उपवास में बड़ा
क्रांतिकारी
फर्क है, मौलिक
फर्क है।
बायजीद की
स्वतंत्रता
सहज है। वह
महल में ठहर
सकता है, निश्रित
भाव से। वह
झोपडे में रुक
सकता है, निश्रित
भाव से। लेकिन,
बायजीद के
शिष्य, अगर
महल में रुकना
पड़े, तो
कठिनाई में पड़
जाएंगे कि यह
तो भोग हो गया।
यह बड़े मजे की
बात है कि कभी
तुमको महल में
पकड़े रखता है,
कभी झोपड़ा
पकड़ लेता है; लेकिन पकड़
नहीं जाती।
बायजीद दोनों
तरफ जा सकता
है।
स्वतंत्रता
उसकी सहज है।
उसे कोई
रोकनेवाला
नहीं है।
निर्णय उसकी
अपनी आत्मा का
होगा।
निर्णायक
आत्मा है।
सहज
स्वतंत्रता
तभी फलित होती
है, जब
सत्व की
सिद्धि होती
है। उसके पहले
सब
स्वतंत्रताएं
झूठी होंगी।
स्वतंत्र
स्वभाव के
कारण वह अपने
से बाहर भी जा
सकता है। और, वह बाहर
स्थित रहते
हुए अपने अंदर
भी रह सकता है।
यह बडा कीमती
सूत्र है :
स्वतंत्र
स्वभाव के कारण
वह अपने से
बाहर भी जा
सकता है। कबीर
कपड़ा बुनते
रहे—जुलाहे थे,
जुलाहे बने
रहे। शिष्यों
ने बहुत बार
कहा कि ' अब
यह शोभा नहीं
देता कि आप
कपड़ा बुनो, कि आप बाजार
में बेचने जाओ;
आप गृहस्थ
नहीं हो।’ कबीर
हंसते। वे कहते
: 'सब उसी का
खेल है। बाहर
और भीतर एक है।’
यह हमारी
समझ में नहीं
आ सकता, क्योंकि
हमें बाहर
पकड़े हुए है; इतने जोर से
पकडे हुए है
कि बाहर और
भीतर एक कैसे
हो सकता है?
झेन
फकीरों ने कहा
है कि संसार
और मोक्ष एक
है। हम एकदम
घबड़ा जाएंगे—ऐसा
कैसे हो सकता
है? संसार
हमें पक्के है।
संसार से हम
पीड़ित है।
मोक्ष इसके
विपरीत है—जहां
हम मुक्त हतौ,
शांत होंगे,
आनंदित
होंगे, सुखी
होंगे; जहां
कोई दुख न
होगा। हमारा
मोक्ष हमारे
संसार के
विपरीत
होनेवाला है।
लेकिन जब कोई
व्यक्ति
मुक्त होता है
तो इस जगत में
कोई चीज
विपरीत नहीं
रह जाती; सब
विपरीत
समाप्त हो
जाते हैं। जब
कोई व्यक्ति
मुक्त होता है
तो बाहर और
भीतर का फासला
खो जाता है; क्योंकि
सारा फासला
अहंकार की
दीवाल का है।
क्या बाहर और
क्या भीतर
(बीच में
अहंकार खड़ा है,
उससे दीवाल
बनी है। जैसे
कि हम एक
मिट्टी के
मटके को लेकर
पानी में चले
जाएं नदी में
पानी भर लें
तो हम कहेंगे
कि यह मटके के
भीतर पानी है,
यह मटके के
बाहर नदी है।
लेकिन फासला
क्या है? —सिर्फ
एक मिट्टी की
दीवाल—! .वह
मिट्टी की
दीवाल टूट गयी
तो बाहर क्या होगा,
भीतर क्या
होगा? जो
बाहर है, वही
भीतर है; जो
भीतर है, वही
बाहर है।
इसलिए
कबीर कहते है : 'उठना—बैठना
मेरी पूजा है।
चलना—फिरना
मेरी उपासना
है।’ अब
कबीर मंदिर
नहीं जाते; क्योंकि अब
दुकान और
मंदिर में कोई
फासला नहीं।
अब कबीर बाजार
से नहीं भागते
हिमालय; अब
बाजार और
हिमालय में
कोई फासला
नहीं है। अब
कबीर अपने घर
को भी छोड़कर
नहीं भागते; क्योंकि अब
अपने और पराये
में भी कोई
फासला नहीं।
भागकर भी कहां
जाओगे?
अहंकार
के गिरते ही
सारे फासले
गिर जाते हैं।
न कुछ बाहर है
तब, न
कुछ भीतर है।
तब न तो
पदार्थ है और
न परमात्मा है;
तब दोनों एक
है। वह है
अद्वैत—जहां
सब एक हो जाता
है; जहां
सब सीमाएं
विलीन हो जाती
हैं। लेकिन वह
तभी होता है, जब जीवन में
सहज
स्वतंत्रता
फलित हो। तो
ऐसा व्यक्ति
स्वतंत्र
स्वभाव के
कारण अपने से
बाहर भी जा
सकता है, और
वह अपने बाहर
स्थित रहते
हुए, अपने
अंदर भी रह
सकता है। उसे
कोई बाधा नहीं
है। वह महल
में रहे तो भी
संन्यासी है;
वह
संन्यासी
होकर सड़क पर
खड़ा रहे तो भी
महल में है।
उसके पास
करोड़ों
रुपयों का ढेर
लगा हो तो भी वह
अपरिग्रही है।
और, उसके
पास कुछ भी न
हो, तो भी
उससे बड़ा
परिग्रही
नहीं; क्योंकि
सारा संसार
उसका है।
पर, कठिन है
हमें पहचानना,
क्योंकि हम
एक हिस्से से
परिचित है। वह
जो घड़े के
भीतर जल है और
घड़े के बाहर, वह अलग
मालूम होता है।
तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है, वही
तुम्हारे
बाहर भी है।
तुम्हारे
भीतर जो आकाश
है, वही
आकाश बाहर भी
है। और
तुम्हारा
शरीर मिट्टी
के घड़े से
ज्यादा नहीं
है—जो थोडा—सा
फासला किये
हुए मालूम
पड़ता है।
संसार
और संन्यास दो
नहीं हैं। दो
दिखायी पड़ते
हैं, क्योंकि
तुम एक को ही
जानते हो—संसार
को, और
संन्यास को
नहीं जानते।
इसलिए तुम
संसार के आधार
पर ही संन्यास
की कल्पना भी
करते हो।
तुम्हारे
संन्यास की
धारणा भी
तुम्हारे संसार
से ही फलित
होती है। तो
तुम उसको
संन्यासी
कहते हो जो
तुमसे बिलकुल
विपरीत है।
तुम कहते हो : 'देखो, कैसे
महान
संन्यासी हैं!
बिना जूते
पैदल चलते हैं,
नग्र रहते
हैं, धूप
में खड़े हैं, वर्षा झेलते
है, घास—पात
में सोते हैं—कैसे
संन्यासी है।
तुम्हारे
संन्यास की
धारणा भी
तुम्हारे संसार
से फलित होती
है। तुम्हारे
लिए जनक
संन्यासी
नहीं हो सकते।
कैसे होंगे? — महल में
है। तुम्हारे
लिए कृष्ण
संन्यासी
नहीं हो सकते।
कैसे होंगे? —मोर—मुकुट
बांधे खड़े है;
बांसुरी
बजा रहे है।
नहीं, तुम्हारे
लिए वे
संन्यासी
नहीं हो सकते।
लेकिन
जब तुम्हारी
बुद्धि की
गुलामी
समाप्त होगी
और तुम्हारे
भीतर का सत्य
मुक्त होगा, तब तुम
जानोगे कि
मोक्ष सब जगह
है; दुकान
उसके लिए बाधा
नहीं है; मोक्ष
सब जगह है, साम्राज्य
उसके लिए बाधा
नहीं है—क्योंकि
मुक्ति
तुम्हारे
अपने अनुभव की
दशा है। तुम
मुक्त हुए कि
सब तरफ से
संसार खो जाता
है। बाहर—
भीतर सब एक है।
पूजा और दुकान
बराबर है। तब
व्यक्ति जीवन
को स्वीकार कर
लेता है, जैसा
है, उसमें
फिर रत्ती भर
भेद करने की
कोई जरूरत नहीं।
इसलिए
ऐसा भी हुआ कि
कसाई भी
ब्रह्मज्ञान
को उपलब्ध हो
गये, ऐसा
हुआ कि परम
गृहस्थ भी
ब्रह्मज्ञान
को उपलब्ध हो
गये और ऐसा भी
होता है कि सब छोड़कर
भागा हुआ
संन्यासी भी
भटकता रहता है
और ब्रह्मज्ञान
को उपलब्ध
नहीं हो पाता।
यह
सूत्र
आत्यंतिक है : 'स्वतंत्र
स्वभाव के
कारण वह अपने
से बाहर भी जा
सकता है और
बाहर स्थित
रहते हुए अपने
अंदर भी रह
सकता है।’ अब
वह मुक्त है।
अब उसकी कोई
परिभाषा नहीं
है। अब तुमने
अगर परिभाषा
की तो तुम उसे
न पहचान पाओगे।
अब वह
अपरिभाष्य है।
अब उसका कोई
लक्ष्य नहीं
है। अब बहुत
कठिन है कहना
कि तुम उसे
कहां पाओगे।
अब वह कहीं भी
हो सकता है।
ऐसा
हुआ कि एक
वर्षाकाल के
पूर्व बुद्ध
का एक भिक्षु
गांव में गया
और एक वेश्या
उस पर मोहित
हो गयी।
भिक्षु था भी
सुंदर और फिर
भिक्षु का एक
अलग ही
सौंदर्य है जो
साधारण आदमी
का नहीं हो
सकता। जिसने
सब छोड़ा है
उसके भीतर एक
आभा प्रगट होनी
शुरू हो जाती
है। जिसने
व्यर्थ को अलग
कर दिया है, उसके
भीतर सार्थक
के फूल खिल
जाते है; उसके
जीवन में एक
महिमा प्रगट
होती है, जो
साधारणतया
नहीं प्रगट
होती। उस
नाचते हुए
आनंदित
भिक्षु को
देखकर वह वेश्या
अगर मोहित हो
गयी, तो
स्वाभाविक है।
वेश्या बड़ी
सुंदर थी।
सम्राट उसके
द्वार पर
दस्तक देते थे।
सभी को उससे
मिलने का मौका
भी नहीं मिल
पाता था।
बहुमूल्य, उसके
साथ एक क्षण
का पाना था।
वह भागी हुई
स्वयं भिक्षु
के पास आयी
सड़क पर और
उसने कहा कि
इस वर्षाकाल
का मेरा
निमंत्रण स्वीकार
करें और इस
वर्षाकाल
मेरे घर रुक
जाएं।
भिक्षु
ने कहा कि पूछ
लूंगा अपने
गुरु से—जैसी
उनकी आज्ञा!
भिक्षु ने न
तो कहा 'हां' और न
कहा 'न'।
भिक्षु ने कहा,
पूछ लूंगा
अपने गुरु को।
दूसरे दिन
सुबह उसने
बुद्ध से पूछा
: 'निमंत्रण
एक वेश्या का
मिला है। मै
क्या करूं', बुद्ध ने
कहा : 'जब
वेश्या तुमसे
नहीं डरी तो
तुम वेश्या से
क्यों डरोगे?
मेरा
संन्यासी
इतना कमजोर कि
वेश्या से डर
जाए! तुम जाओ, वर्षाकाल का
निमंत्रण
मिला है, तो
रहो।’
बाकी
भिक्षुओं में
बड़ी बेचैनी हो
गयी; क्योंकि
अनेक
भिक्षुओं ने
राह से गुजरते
हुए उस वेश्या
को देखा ही था।
सुंदर थी; अनेक
के मन में
वासना भी उठी
थी। अनेक ने
चाहा होता कि
उन्हें
निमंत्रण
मिलता।
एक
भिक्षु खड़ा हो
गया और उसने
कहा कि 'यह उचित
नहीं हो रहा
है। संन्यासी
और वेश्या के
घर ठहरे! यह
बात ठीक नहीं
है। इससे
भ्रष्ट होने
का डर है।’ बुद्ध
ने कहा : ' अगर
तुम्हें
निमंत्रण
मिला होता तो
मेरी आशा न
मिलती। तुम्हारे
भ्रष्ट होने
का डर है, क्योंकि
तुम्हें अभी
बाहर— भीतर का
फर्क है। पर
जिसे मैं भेज
रहा हूं जानकर
भेज रहा हूं।
वह बाहर रहे
कि भीतर रहे, कोई फर्क
नहीं पड़ता है।’
फिर भी
भिक्षुओं का
मन न माना और
उन्होंने कहा
कि ' आप
गलती कर रहे
हैं। इससे एक
गलत नियम का
सिलसिला शुरू
होगा; मर्यादा
टूटेगी।’ बुद्ध
ने कहा कि 'तुम
रुको।
वर्षाकाल
बीतने दो, फिर
हम देखेंगे।’
रोज—रोज
भिक्षु खबरें
लाने लगे कि
वह भ्रष्ट हो
चुका है; क्योंकि
कोई खबर लाता
है कि हमने
देखा है उसे कि
वह नृत्य देख
रहा था; नाच
चल रहा था
वहां रात और
वह भी बैठा था।
कोई कहता कि
वह गद्दी पर
बैठा था मखमल
की। कोई कहता
है कि उसने
कपड़े बदल लिए
है। कोई कुछ
खबरें लाता, कोई कुछ
खबरें लाता।
कोई कहता है
कि हमने
आलिंगन में
उन्हें देखा है।
बुद्ध
कहते कि 'वर्षाकाल
बीत जाने दो, जल्दी क्या
है? तुम
अफवाहें
क्यों लाते हो?
तुम्हें
प्रयोजन क्या
है? तुम
भ्रष्ट नहीं
हो रहे हो। जो
भ्रष्ट हो रहा
है, वह
वर्षाकाल के
बाद वापस
लौटेगा।’
वर्षाकाल
के बाद भिक्षु
वापस लौटा और
उसके पीछे
वेश्या साथ
आयी और उस
वेश्या ने कहा
कि 'मुझे
भिक्षुणी बना
लें। भिक्षु
जीत गया, मैं
हार गयी।
मैंने सब उपाय
किये और उसने
किसी भी उपाय
में बाधा न
डाली।
अगर
मैंने उसका
आलिंगन भी
किया तो वह
दूर न हटा।
अगर मैंने उसे
मखमल की गद्दी
पर बिठाया तो
उसने यह न कहा
कि मैं भिक्षु
हूं मैं मखमल
की गद्दी पर
कैसे बैठ सकता
हूं। मैंने
उसे सुस्वादु
से सुस्वादु
भोजन दिये तो
भी उसने यह न
कहा कि यह
भोजन मैं न कर
सकूंगा; इससे वासना
जगेगी। मैंने
सब निमंत्रण
दिये, उसने
'न' न
कहा। जो हुआ, वह चुपचाप
बैठा रहा, जैसे
कुछ भी न हो
रहा हो। मैं
उससे आंदोलित
हो गयी हूं।
जैसा आनंद उसे
मिला, जिसमें
बाहर—भीतर खो
गया; जैसा
आनंद उसे मिला,
जिसमें कोई
भी बाधा नहीं
डाल सकता, वैसे
आनंद की
आकांक्षा
मेरी भी है।’
बुद्ध
ने भिक्षुओं
से कहा : 'देखो! जिसका
बाहर—भीतर मिट
गया हो, वह
वेश्या के पास
भी रहे तो
वेश्या ही
संन्यासिनी
बन जाती है।
तुम अगर
वेश्या के पास
जाते तो तुम
वेश्या की छाया
बन जाते।’
एक तो
शुभ है जो
अशुभ से डरा
होता है, वह कुछ बहुत
मूल्य का नहीं।
साधु असाधु से
डरा होता है।
संत असाधु से
डरा नहीं होता;
संत दोनों
के पार चला
गया है। संत
वही है, जिसे
अब कोई भी
स्थिति बदल न
सके। वह बाहर
रहकर भी भीतर
ही बना रहता
है। वह संसार
में भी रहे तो
भी संसार उसके
भीतर प्रवेश
नहीं करता।
बुद्ध
ने कहा है कि
संन्यास की
परम दशा वही
है जब तुम नदी
से गुजर जाओ, लेकिन
पानी
तुम्हारे
पैरों को न
छुए। तुम नदी
से गुजरने से
डरो, यह
कोई परम
अवस्था नहीं
है; यह तो
भय की अवस्था
है।
तीन
सूत्र याद
रखें। मन की
मालकियत
तोड़नी है—साक्षी—भाव
से टूटेगी, फासला
बनेगा। स्वयं
की मालकियत
सिद्ध करनी है,
लेकिन
विरोध में
जाने से नहीं,
ऊपर उठने से।
स्वतंत्रता
आएगी; अगर
विरोध में
जाने से आई तो
झूठी होगी। उस
स्वतंत्रता
में तनाव और
परेशानी होगी।
वह शांत नहीं
होगी। वह सहज
नहीं होगी।
ऊपर जाने से, साक्षी बनने
से, लड़ने
से नहीं; धर्म
में योद्धा की
जगह ही नहीं
है। धर्म में
सिर्फ ऊपर
उठना है। लड़ना
नहीं, क्योंकि
जिससे तुम लड़े,
तुम वहीं
रुक जाओगे, उसी के तल पर।
मन को शत्रु
नहीं बनाना है;
मन के पार
जाना 'है, अतिक्रमण
करना है।
और, मन के पार
जाने का सूत्र
है : साक्षी—भाव।
जैसे तुम ऊपर
गये, सहज
स्वतंत्रता—स्पाटेनियस
फ्रीडम—घटित
होगी, मुक्तता
घटित होगी। और
उस मुक्तता का
कोई विरोध
नहीं है किसी
से। ऐसी
मुक्ति में
तुम उस दशा
में पहुंच
जाओगे, जहां
अपने से बाहर
भी रहो, भीतर
भी रहो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता; क्योंकि
बाहर—भीतर का
फासला ही गिर
गया। संसार और
मोक्ष एक हैं।
सब द्वैत
समाप्त हो गया,
सब द्वंद्व
खो गया; अद्वंद्व
और अद्वैत की
स्थिति आ गयी!
आज इतना
ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें