भगवान
के जेतवन में
विहरते समय एक
अनागामी
स्थविर मरकर
शुद्धावास
ब्रह्मलोक में
उत्पन्न हुए।
मरते समय जब
उनके शिष्यों
ने पूछा क्या
भंते कुछ
विशेषता
प्राप्त हुई
है? तब
निर्मलचित
स्थविर ने यह
सोचकर कि यह
भी क्या कोई
उपलब्धि है या
विशेषता है
चुप्पी ही साधे
रखी। उनकी
मृत्यु के
पश्चात उनके
शिष्य रोते
हुए भगवान के
पास जाकर उनकी
गति पूछे। भगवान
ने कहा
भिक्षुओ रोओ
मत वह मरकर
शुद्धावास में
उत्पन्न हुआ
है। भिक्षुओ
देखते हो
तुम्हारा
उपाध्याय
कामों से रहित
चित्त वाला हो
गया है जाओ
खुशी मनाओ।
तब शिष्यों
ने कहा पर
उन्होंने
मरते समय चुप्पी
क्यों साधे
रखी? हमने तो
पूछा था
उन्होंने
बताया क्यों
नहीं? भगवान
ने कहा इसीलिए
भिक्षुओ
इसीलिए
क्योकि निर्मल
चित्त को
उपलब्धि का
भाव नहीं
होता।
और
तब उन्होंने
यह गाथा कही।
यह
घटना
महत्वपूर्ण
है। अनागामी
का अर्थ होता
है बौद्ध
परिभाषा में, जो
दुबारा न आएगा,
अब फिर न
आएगा, जिसका
आगमन समाप्त
हुआ। यह परम
उपलब्धि है।
संसार में फिर
न आने का अर्थ
है, पक गए।
संसार से जो
सीखना था सीख
लिया है और संसार
में जो होना
था हो गए, अब
दुबारा आने की
कोई जरूरत न
रही। अनागामी
आखिरी फल है।
स्रोतापत्ति
पहला फल है।
ध्यान की धारा
में उतरना, पहला कदम। अनागामी
हो जाना, तो
सागर में गिर
गयी सरिता, मिलन हो गया
सत्य से।
अनागामी होकर
कोई मरे तो यह
परम घटना है, यह परम
उपलब्धि है।
भगवान
के जेतवन में
विहार करते
समय एक अनागामी
स्थविर, एक वृद्ध
भिक्षु मरकर
शुद्धावास
ब्रह्मलोक में
उत्पन्न हुए।
ब्रह्म
के साथ जो एक हो
गया, वही
ब्रह्मलोक।
और जहा शुद्धि
परम हो गयी, जहां कुछ भी
अशुद्ध न रहा,
वही
शुद्धावास
है।
मरते
समय उनके
शिष्यों ने
पूछा, क्या
भंते, कुछ
विशेषता
प्राप्त हुई
है;
अब
बुद्ध के
शिष्यों में
जैसे—जैसे
शिष्य वृद्ध
हो जाते थे, योग्य हो
जाते थे, समाधिस्थ
हो जाते थे, तो बुद्ध
उनको भेजते थे
दूर—दूर औरों
तक संदेश
पहुंचाने को।
तो बुद्ध के
जीते ही बुद्ध
के बहुत से
शिष्यों के भी
शिष्य थे, क्योंकि
ये वृद्ध
समाधिस्थ
पुरुष दूर—दूर
जाकर बुद्ध की
खबर ले जाते, अनेक लोग
इनसे दीक्षित
होते। ये
उपाध्याय कहलाते
थे। ये बुद्ध
की तरफ इशारा
करते थे। ये
शिक्षण देते
थे कि कैसे
बुद्ध में लीन
हो जाओ। लेकिन
ये बीच का
सेतु बनते थे।
तो
यह जो स्थविर
वृद्ध भिक्षु
की मृत्यु हुई, उनके
शिष्यों ने
उनसे जाकर
पूछा, भंते,
कुछ
विशेषता
प्राप्त हुई
है? आप तो
जा रहे हैं, हमें बता तो
जाएं कम से कम
कि कौन सी
घटना घटी है
आपके जीवन
में। अतंर्तम
में इस समय
क्या घट रहा
है न आप क्या
पाकर जा रहे
हैं? आपकी
क्या संपदा है?
आप क्या
होंगे? कहौ
पैदा होंगे? पैदा होंगे
कि नहीं पैदा
होंगे? लौटेंगे
अब कि नहीं
लौटेंगे? हमें
कुछ कह जाएं।
बात
बड़ी मीठी है।
निर्मलचित्त
स्थविर ने यह
सोचकर कि यह
भी क्या कोई
उपलब्धि है या
विशेषता है, चुप्पी
ही साधे रखी।
उपलब्धि
तो अहंकार की
ही भाषा है।
जब तुम कहते
हो, यह
मैंने पा लिया,
तो पाने से
भी मैं ही
मजबूत होता
है। परम उपलब्धि
का तो दावा
नहीं किया जा
सकता, क्योंकि
जब तक दावेदार
है, तब तक
परम उपलब्धि
नहीं हो सकती।
मैं जब तक है, तब तक तुम
कैसे दावा
करोगे? और
मैं ही
दावेदार है।
तो
दावा तो हो ही
नहीं सकता परम
उपलब्धि का। परम
उपलब्धि के
संबंध में
तो चुप
रह जाने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं है।
चुप्पी कोई
समझ ले तो समझ
ले, न
समझे तो उसकी
वह जाने।
इस
वृद्ध स्थविर
को साफ दिखायी
पड़ रहा है कि
अब लौटूंगा
नहीं, यह
परमदशा आ गयी
है—अब तुम यह
मत सोचना कि
इसका पता कैसे
चलेगा? जब
परमदशा आती है
तो पता चलेगा
ही। जैसे
अंधेरी रात
में एकदम
उजेला हो जाए
तो पता नहीं
चलेगा! सिर
में दर्द होता
है तो पता
चलता है, दर्द
चला जाता है
तो पता चलता
है। जीवनभर
पीड़ा रही किसी
न किसी तरह की,
सारी पीड़ा
चली गयी, सब
तिरोहित हो
गयी, एकदम
परम आनंद की
वर्षा होने
लगी भीतर, तो
पता नहीं
चलेगा? अंधेरा
था
जन्मों—जन्मों
का, सब कट
गया, आखिरी
पर्तें बची
थीं वे भी टूट
गयीं, आखिरी
पर्दा भी उठ
गया, तो इस
स्थविर को साफ
दिखायी पड़ रहा
है कि क्या हो
गया। लेकिन
सोचा कि यह भी
क्या कोई
उपलब्धि है!
दो
कारणों से यह
उपलब्धि नहीं
है। पहली तो
बात, उपलब्धि
है अहंकार की
भाषा। मैंने
पा लिया, यह
बात ही उस परम
के संबंध में
नहीं कही जा
सकती। दूसरी
बात, यह
उपलब्धि नहीं
कही जा सकती, क्योंकि यह
हमारा स्वभाव
है। यह हमने
पा लिया, ऐसा
थोड़े ही, यह
तो सदा से था
ही, हम भूल
गए थे, बस
स्मरण किया
है। इसलिए भी
इसको उपलब्धि
नहीं कह सकते।
जब
बुद्ध को
ज्ञान हुआ और
किसी ने पूछा, क्या
पाया? तो
बुद्ध ने कहा,
पाया कुछ भी
नहीं, जो
मिला ही था
उसे जाना; जो
था ही, जो
सदा से था, हमने
आख न डाली थी
अपने खजाने पर,
बस इतनी ही
भूल थी, खजाना
तो था ही; इसलिए
पाया, ऐसा
कहना ठीक नहीं,
प्रत्यभिज्ञा
हुई, पहचान
हुई, पहचाना,
जाना।
इसलिए भी इस
परमस्थिति को
उपलब्धि नहीं
कहा जा सकता।
तो
वृद्ध स्थविर
चुप ही रह गए।
कुछ बोलना ठीक
न लगा। कहें
कि अनागामी हो
गया हूं अब
नहीं आऊंगा, तो यह भी
आने का एक
उपाय हो
जाएगा।
क्योंकि फिर
थोड़ा मैं अभी
शेष रह गया।
कहें कि बहुत
कुछ पा लिया, पा लिया जो
पाना था, तो
भी अज्ञान की
ही घोषणा
होगी।
उपनिषद
कहते हैं, जो कहे
मैंने जान
लिया, जानना
कि नहीं जानता
है। सुकरात ने
कहा है कि जब
मैंने जाना तो
जाना कि मैं
कुछ भी नहीं
जानता हूं।
तो
यह वृद्ध
स्थविर चुप रह
गया। लेकिन
चुप्पी को तो
बहुत कम लोग
समझ सकते हैं।
शब्दों को ही कम
लोग समझ पाते
हैं, चुप्पी
को तो कौन
समझेगा!
कहो—कहो तब
नहीं सुन पाते
हैं, तो बिना
कही बात तो
कौन सुनेगा!
भिक्षु तो बड़े
उदास हो गए।
और गुरु ऐसे
ही मर रहा है
खाली हाथ, कुछ
भी नहीं बता
रहा है कि कुछ
मिला कि नहीं
मिला, चित्त
में बड़ी तकलीफ
भी हुई होगी।
मौत की तो तकलीफ
हुई ही
हुई—गुरु मर
रहा है—साथ
में यह भी तकलीफ
हुई होगी कि
ऐसे आदमी के शिष्य
होकर हमको
क्या होगा? यह तो मर गए
और बिना कुछ
पाए मर गए और हम
इनके पीछे भटक
रहे हैं। हम
व्यर्थ ही
परेशान हो रहे
हैं।
तो
वे बुद्ध के
पास गए। उनका
रोना दो
कारणों से था।
एक तो गुरु मर
गया। लेकिन
उससे भी बड़ा
कारण यह था कि
हम भी किसके
चक्कर में पड़े
रहे! कुछ इसको
मिला ही नहीं
था!
भगवान
ने कहा, भिक्षुओं, रोओ मत, तुम्हारा
गुरु
शुद्धावास
में उत्पन्न
हुआ है।
परमशुद्धि
में जागा है।
भिक्षुओ, देखते
हो, तुम्हारा
उपाध्याय
कामों से रहित
चित्त वाला हो
गया है, अब
उसकी कोई
कामना नहीं
बची है, इसलिए
लौटेगा नहीं।
कामना लौटा
लाती है।
कामना बार—बार
खींच लेती है।
कामना नीचे
उतारती है।
कामना ही
अधोगमन है।
तुम्हारा
गुरु
ऊर्ध्वगामी
हो गया है।
वह
मुक्त हो गया
पृथ्वी से। अब
पृथ्वी में
कोई कशिश उसे
खींचने वाली
नहीं बची। अब
वह उठता ही
जाएगा
शुद्धावास
में।
जैनों
के पास इसके
लिए प्रतीक है, जैसे कि
कोई लेकड़ी के
टुकड़े को
मिट्टी से खूब
लीप—पोतकर
पानी में डाल
दे, तो
मिट्टी के वजन
के कारण लकड़ी
का टुकड़ा डूब
जाएगा। फिर
पानी की धार
आती रहेगी, जाती रहेगी,
मिट्टी
गलती रहेगी, बहती रहेगी।
एक घड़ी आएगी
कि सारी
मिट्टी बह जाएगी,
फिर लकड़ी का
टुकड़ा उठेगा,
पानी की सतह
पर आकर तैर
जाएगा। ऐसा
जैन कहते हैं,
सिद्ध
पुरुष संसार
की सतह पर उठ
जाते हैं, लोक
की आखिरी सीमा
पर पहुंच जाते
हैं जहां अलोक
शुरू होता है।
उसी स्थिति को
बौद्ध भाषा
में कहते
हैं—शुद्धावास,
ब्रह्मलोक।
मनुष्य
के पार हो गए, परमात्मा
हो गए, अब
लौटने का कोई
कारण न रहा।
मिट्टी की पकड़
न रही। जब तक तुम
समझते हो मैं
देह हूं तब तक
मिट्टी की तुम
पर पकड़ है, तब
तक तुम मिट्टी
ही हो। जिस
दिन तुमने
समझा कि मैं
देह नहीं हूं
उसी दिन
मिट्टी की पकड़
छूटी। और
धीरे—धीरे
मिट्टी बह
जाती है, तुम
शुद्ध हो जाते
हो। तुम्हारी चेतना
ऊर्ध्वगामी
हो जाती है।
ऊपर उठने लगती
है।
जाओ, खुशी
मनाओ.
तुम्हारा
उपाध्याय
कामना से मुक्त
हो गया दै, अनागामी
हो गया है, बुद्ध
ने कहा। तब
शिष्यों ने
कहा, पर
उन्होंने
मरते समय
चुप्पी क्यों
साधे रखी? हमें
बताया क्यों
नहीं?
उन्होंने
तो बताया, चुप्पी
से ही बताया।
कुछ बातें
चुप्पी से ही
कही जाती हैं।
कुछ बातें कहो
तो खराब हो
जाती हैं। कुछ
बातें बिना
कहे ही कही
जाती हैं। मगर
उसके लिए तो बड़ा
संवेदनशील
बोध चाहिए उसे
समझने को, उस
मौन को समझने
को। उस इशारे
को पहचानने के
लिए तो बड़ी
ध्यान की दशा
चाहिए।
बुद्ध
ने कहा, इसीलिए
भिक्षुओ, इसीलिए,
क्योंकि
निर्मलचित्त
को उपलब्धि का
भाव नहीं होता
है।
जहां
उपलब्धि है, वहा
उपलब्धि का
भाव नहीं है।
जहा परमात्मा
से मिलन हुआ, वहां मिलन
हो गया है, ऐसी
बात भी व्यर्थ
हो जाती है।
जहां जान लिया,
वहा क्या
कहो कि जान
लिया है! कहने
में कुछ सार न
रहा। शब्द तो
वहीं तक हैं, वहीं तक कह
पाते हैं, जहां
तक शब्दों की
सीमा है।
शब्द
तो सत्य को
कभी नहीं कह
पाते हैं।
ज्यादा से
ज्यादा सत्य
के संबंध में
कुछ तुतलाते
हैं, कह
नहीं पाते।
जैसे छोटे
बच्चे
तुतलाते हैं। कुछ
कहना चाहते
हैं, लेकिन
तुतलाते हैं।
मां को समझना
पड़ता है कि
क्या मतलब है
उनका, मतलब
लगाना पड़ता
है। ऐसे ही
शब्द हैं, सत्य
के संबंध में
तुतलाते हैं,
कुछ कह नहीं
पाते। बुद्ध
ने कहा, इसीलिए
भिक्षुओ, इसीलिए,
क्योंकि जो
उपलब्ध हो गया,
उसे
उपलब्धि का
भाव नहीं होता
है। वहां कोई
बचा ही नहीं
जिसको उपलब्धि
का भाव हो।
नहीं कोई बचा,
इसी को तो
शुद्ध अवस्था
कहते हैं।
जहां कोई मैं
नहीं रहा, वहीं
तो परम शुद्धि
है। और तब
उन्होंने यह
अपूर्व सूत्र
कहा—
छंदजातो
अनक्खातो
मनसा व फुटो
सिया।
कामेसु च
अप्पटिवद्धचित्तो
उद्धसोतो
बुच्चत्ति।।
'अनख्यात में
जिसका रस है, जिसके मन ने
उस रस को छू
लिया है—या उस
रस ने जिसके मन
को छू लिया
है—और
कामभोगों में
जिसका चित्त अब
बंधा नहीं है,
वह
ऊर्ध्वस्रोता
कहा जाता है।’
तुम्हारा
गुरु
ऊर्ध्वस्रोता
हो गया। समझो।
छंदजातो
अनक्खातो.....।
यह
बड़ा प्यारा
शब्द है। जो
नहीं कहा जा
सकता—अनख्यात है, जिसको
कहने के लिए
भाषा बनी नहीं
है, जिसको
कहने का कोई
उपाय ही नहीं
है, अनख्यात,
अनिर्वचनीय—अनक्सातो
छंदजातो; जिसे,
जो नहीं कहा
जा सकता, उसमें
रस आ गया है।
कोई उसे
परमात्मा
कहता है, कोई
उसे निर्वाण
कहता है, कोई
उसे आत्मा
कहता है, पर
ये सब शब्द
कामचलाऊ हैं।
न तो वह
परमात्मा
शब्द में
समाता है, न
आत्मा शब्द
में समाता है,
न निर्वाण
में, न
मोक्ष में, सब शब्द
छोटे पड़ जाते
हैं। क्योंकि
शब्दों की सीमा
है, वह
असीम है, विराट
है। शब्द तो
छोटे—छोटे आगन
हैं, ण्वह
तो पूरा आकाश
है।
छंदजातो
अनक्खातो........।
व
जिसे उस
अव्याख्य में
छंद हो गया, रस हो गया,
जिसका हृदय
तरंगित होने
लगा, लयबद्ध
हो गया जो उस
अनख्यात से, जो उस
अनिर्वचनीय
के साथ संगीत
में बंध गया, छंदोबद्ध हो
गया।
छंदजातो
अनक्खातो
मनसा व फुटो
सिया।
और
जिसके मन में
उस रस की
वर्षा हो गयी, उस रस ने
जिसके मन को डुबा
दिया, जो
स्नान कर लिया
उसमें, ऐसा
व्यक्ति
स्वभावत:
कामभोगों से
मुक्त हो जाता
है। क्योंकि
परमभोग जब हो
जाए तो
क्षुद्र भोगों
की कौन कामना
करता है। जिसे
परमात्मा का
भोग मिल गया, वह फिर क्या
चाहेगा और
किसी भोग को!
फिर सब भोग फीके
पड़ गए। छोड़ने
नहीं पड़ते हैं,
छूट जाते
हैं। व्यर्थ
होने के कारण
छूट जाते हैं।
जिसको सार हाथ
में आ गया, फिर
वह असार को
नहीं पकड़ता।
ऐसा
व्यक्ति
बुद्ध कहते
हैं, ऊर्ध्वस्रोता
कहा जाता है।
कामेसु व
अप्पटिवद्धचित्तो........।
जो
सदा से बंधा
था चित्त
कामवासनाओं
में, वे
सारे बंधन गिर
गए। जंजीरें
टूट गयीं, बेड़ियां
टूट गयीं। वह
चित्त मुक्त
हो गया, वह
चित्त मुक्त
होकर ऊपर उठने
लगा।
कामेसु व
अप्पटिवद्धचित्तो
उद्धसोतो ति
बुच्चति।
ऐसे
चैतन्य को
ऊर्ध्वगामी, ऊर्ध्वस्रोता
कहा जाता है।
हम सब जब तक
कामना से बंधे
हैं, अधोगामी,
नीचे की तरफ
जाने वाले।
देखा
तुमने, पानी नीचे
की तरफ जाता
है, वह है
अधोगामी। जहा
खड्डा हो उसी
की तलाश करता
है। ऊंचाई से
हटता है, ऊंचाई
में उसे रस
नहीं। पहाड़ पर
गिरेगा तो पहाड़
पर नहीं
रुकेगा, भागेगा
एकदम नीचे की
तरफ। नदी—झरने
बन जाएगा और
भागेगा, खाई—खड्ड
खोजेगा।
छोटे—मोटे
खाई—खड्डों से
भी उसका मन
नहीं भरता, भागता ही
रहेगा जब तक
कि समुद्र का
खड्डा न मिल
जाए—बड़ा खड्डा
न मिल जाए।
बड़े से बड़े
खड्ड में जाकर
रुकेगा।
लेकिन
यही पानी जब
सूर्य के
उत्ताप से
तपता है, वाष्प बनता
है, भाप
बनता है, ऊपर
की तरफ उठने
लगता है, आकाश
की तरफ, बादलों
की तरफ, ऊर्ध्वगामी
हो जाता है।
वही पानी भाप
बनकर ऊर्ध्वगामी
हो जाता है।
पानी वही है।
पानी बनकर अधोगामी
हो जाता है।
तो
चैतन्य की दो
दशाएँ हैं।
जिसको हम
चित्त कहते
हैं, वह
पानी है। और जिसको
हम आत्मा कहते
हैं, वह
भाप है। ये
चैतन्य की दो
दशाएं हैं।
जिसको हम मन
कहते हैं, चित्त
कहते हैं, वह
पानी है—वह
नीचे की तरफ
जाता है, वह
अधोगामी है।
और जिसको हम
आत्मा कहते
हैं, वह
यही पानी है
जो तपश्चर्या
से, तप से
भाप बन गया, वाष्पीभूत
हो गया, उड़ने
लगा ऊपर की
तरफ, पंख
मिल गए
जिसे—तों
ऊर्ध्वगामी।
नीचे
चलो तो संसार
है, ऊपर
चलो तो परमात्मा
है।
छंदजातो
अनक्खातो.........।
इस
अव्याख्य में
जिसको रस आ
गया, जो
नाचने लगा
मग्न होकर, वह फिर नहीं
लौटता। जो
मयूर हो गया, फिर नहीं
लौटता।
खिड़की
से उड़ आयी गंध
साथ
लिए रस—भीगे
छंद
भीत
टंगे पुष्पों
के चित्र
बिखराते
लगते मकरंद
किसी
नयी कविता की
पंक्ति
अधरों
पर हो उठी
अधीर
परस
गयी फागुनी
समीर
जैसे
फागुन आता है
न, फूल
खिल जाते हैं
न, गंध
तैरती, ऐसा
ही एक भीतर का
फागुन भी है।
खुले खिड़की भीतर
की।
खिड़की
से उड़ आयी गंध
साथ
लिए रस—भीगे
छंद
भीत
टंगे पुष्पों
के चित्र
बिखराते
लगते मकरंद
किसी
नयी कविता की
पंक्ति
अधरों
पर हो उठी
अधीर
परस
गयी फागुनी
समीर
टेसू
लहके पुरवा
मारे
रंग
भरी पिचकारी
ढोल—मृदंग
मजीरे चढ़ते
स्वर
की नयी अटारी
एक
बरस के बाद आज
मन
सुगना बहका रे
एक
बरस के बाद आज
आज
मन सुगना बहका
रे
बरस—बरस
के बाद
जन्म—जन्म
के बाद
आज
फिर फागुन
महका रे
छंदजातो
अनक्खातो.........
जिसको
उस अव्याख्य
में, निर्वाण
में छंद आ गया,
रस आ गया, जो मगन हो
गया, मस्त
हो गया, जो
नाच उठा, जो
गीत—गीत हो
गया, जो
भूल ही गया
अहंकार को, बात ही गयी, मैं का भाव
ही न रहा, वही
नाचता हुआ
चैतन्य, वही
भीतर की मदिरा
से मस्त
चैतन्य
ऊर्ध्वस्रोता
हो जाता है।
ओशो
एस
धम्मो
सनंतनो
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