भगवान
जेतवन में
विहरते थे।
पास के किसी
गांव से आए एक
युवक ने
संन्यास की
दीक्षा ली। वह
सबकी निंदा
करता था। कारण
हो तब तो
चूकता ही नही
था, कारण
न हो तब भी
निंदा करता
था। कारण न हो
तो कारण खोज
लेता था। कारण
न मिले तो
कारण निर्मित कर
लेता था। कोई
दान नें दे तो
निंदा करता और
कोई दान दे तो
क्हता—अरे यह
भी कोई दान
है। दान देना
सीखना हो तो
मेरे परिवार
से सीखो। वह
अपने परिवार
की प्रशंसा
में लगा रहता।
शेष सारे संसार
की निंदा अपने
परिवार की
प्रशंसा यही
उसका पूरा काम
था। अपनी जाति,
अपने वर्ण
अपने कुल सभी
की अतिशय
प्रशंसा में
लगा रहता।
उसके अहंकार
का कोई अंत न
था। शायद
इसीलिए वह
सन्यस्त भी
हुआ था!
एक बार कुछ
भिक्षु उसके
गांव गए तो
पाया कि जैसे
वह व्यर्थ ही
दूसरों की
निंदा करता था
वैसे ही
व्यर्थ ही
अपने
कुल—परिवार की
प्रशंसा भी करता
था। उसके की
तो कोई स्थिति
ही न थी वह तो
अत्यंत
हीनवृत्तियों
वाले परिवार
से आया था।
भिक्षुओं
ने यह बात
भगवान को कही।
भगवान ने कहा
हीनभाव ही
श्रेष्ठता का
दावेदार बनता
है जो श्रेष्ठ
हैं उन्हें तो
अपने श्रेष्ठ
होने का पता
भी नहीं होता
है। वही श्रेष्ठता
का अनिवार्य
लक्षण भी है।
फिर यह भिक्षु
न केवल इसी
समय ऐसा करता घूमता
है,
पहले भी ऐसा
ही करता
था—और—और
जन्मो में भी
ऐसा ही करता था।
जन्म— जन्म
इसने ऐसे ही
गंवाए हैं।
जितनी शक्ति
इसने दूसरों
की निंदा और
स्वयं की
प्रशंसा में
व्यय की है
उतनी शक्ति से
तो यह कभी का
निर्वाण का अधिकारी
हो गया होता।
उतनी शक्ति से
तो न— मालूम
कितनी बार
भगवत्ता
उपलब्ध कर ले
सकता था। भिक्षुको
इससे सीख लो।
दूसरों की
निंदा दूसरों का
नहीं अपना ही
अहित करती है।
यह दूसरों के
बहाने अपनी ही
छाती मे छुरा
भोंकना है।
अपने पर दया
करो और अपने
अकल्याण से
बचो क्योकि
मनुष्य अपना
ही शत्रु और
अपना ही मित्र
है।
उस युवक ने
अत्यंत क्रोध
से पूछा कोई
दान न दे तो हम
कैसा भाव रखें?
कोई
दुतकारे तो हम
कैसा भाव रखें? और कोई
हमें तो दान न
दे और दूसरों
को दान दे तो
हम कैसा भाव
रखें? उस
दिन उसने
भगवान को
भगवान कहकर भी
संबोधित नहा किया
मनुष्य की
श्रद्धाएं भी
कितनी छिछली
हैं!
इस
पृष्ठभूमि
में भगवान ने
आज की पहली दो
गाथाएं कहीं।
'लोग अपनी
श्रद्धा—
भक्ति के
अनुसार देते
हैं। जो
दूसरों के
खान—पान को
देखकर सहन
नहीं कर सकता,
वह दिन या
रात कभी भी
समाधि को
प्राप्त नहीं
कर पाएगा।
'जिसकी
ऐसी मनोवृत्ति
उच्छिन्न हो
गयी है, समूल
नष्ट हो गयी
है, वही
दिन या रात
कभी भी समाधि
को प्राप्त
करता है।
ददाति के
यथासद्धं
यथापसादनं
जनो।
तत्थ यो
मड्कु भवति
परेसं
पानभोजने।
न सो दिवा वा
रतिं वा समाधि
अधिगच्छति।।
यस्स च तं
समुच्छिन्नं
मूलघच्चं
समूहतं।
सवे दिवा वा
रत्तिं वा
समाधिं
अधिगच्छति।।
पहले
तो इस
पृष्ठभूमि का
ठीक—ठीक
विश्लेषण समझें।
कथा छोटी, सीधी—सादी
है, पर
अत्यंत
मनोवैज्ञानिक
है।
भगवान
के पास एक
युवक ने
दीक्षा ली। और
कथा कहती है
कि शायद
इसीलिए
दीक्षा ली कि
वह युवक अत्यंत
अहंकारी था।
यह
बात पहले समझ
लेने जैसी है।
लोग धन भी
जोड़ते अहंकार
के लिए और त्याग
भी करते
अहंकार के
लिए। पहले
अकड़कर चलते हैं
कि कितना उनके
पास है, फिर अकड़कर
चलते हैं कि
कितना
उन्होंने छोड़
दिया। जितना
उनके पास है, उसे भी
बहुत—बहुत
गुना करके
बतलाते हैं।
जो छोड़ा है, उसे भी
बहुत—बहुत
गुना करके
बतलाते हैं।
लेकिन हर हालत
में आदमी अपने
अहंकार को ही
भजता है। मैं
कुछ विशिष्ट
हूं; मैं
कुछ अनूठा हूं?
अद्वितीय
हूं; मैं
कुछ अलग हूं
औरों जैसा
नहीं हूं; मैं
असाधारण हूं
सामान्य नहीं;
इसी चेष्टा
में आदमी लगा
रहता है। कभी
धन कमाकर, कभी
बड़ी दुकान
चलाकर, कभी
किसी बड़े पद
पर
प्रतिष्ठित
होकर, कभी
सबको लात
मारकर, लेकिन
सबके पीछे मूल
आधार एक ही है
कि मैं कोई साधारण
आदमी नहीं।
आदमी
साधारण से बड़ा
डरता है, सोचो, यह
भाव ही कि मैं
साधारण हूं
छाती पर पत्थर
जैसा रख जाता
है, यह
खयाल ही कि
मैं असाधारण
हूं? विशिष्ट
हूं कुछ अनूठा
हूं और
तुम्हें पंख
लग जाते हैं।
लेकिन
अगर तुम
असाधारण हो, तो सभी
कुछ असाधारण
है। पत्ते, फूल, पत्थर,
चांद—तारे,
सभी कुछ
असाधारण है।
और अगर सभी
कुछ असाधारण है,
तो फिर
साधारण—असाधारण
का भेद ही
क्या! जिन्होंने
जाना है, उन्होंने
कहा है, न
तो कोई साधारण
है, न कोई
असाधारण।
अस्तित्व एक
है, इसलिए
कौन साधारण
होगा, कौन
असाधारण
होगा।
तो
या तो कहो, सभी
साधारण हैं, तब भी सच या
कहो, सभी
असाधारण हैं,
तब भी सच, लेकिन एक को
साधारण और एक
को असाधारण
करने में भूल
हो जाती है।
कोटिया बांटी
कि भूल हो
जाती है, वर्ग
बांटे कि भूल
हो जाती है, वर्ण बनाए
कि भूल हो
जाती है। कहा
कि ब्राह्मण—शूद्र,
भूल हो गयी;
कहा कि
ऊंचा—नीचा, भूल हो गयी, कहा कि
शुभ—अशुभ, भूल
हो गयी। जहां
तक भेद है और
जहा तक
द्वंद्व है, वहां तक
संसार है।
तो
एक आदमी कहता
है कि देखो, मैं
कितना
बुद्धिमान; और एक आदमी
कहता है, देखो
मेरे पास
कितना धन, और
एक आदमी कहता
है, देखो
मेरे पुण्य, मैंने कितना
पुण्य
किया—इनमें
कोई फर्क है? इनमें कोईभी
फर्क नहीं। जब
तक आदमी कहता
है, देखो, मैं विशिष्ट,
तब तक कोई
फर्क नहीं है।
इस
जगत में जो
आदमी साधारण
होने को राजी
है, वही
असाधारण है।
जो यह कहने को
राजी है कि
मैं अति
साधारण हूं
उसकी ही
असाधारणता
सुनिश्चित
है। क्यों? क्योंकि
प्रत्येक को
असाधारण होने
का खयाल है, इसलिए
असाधारण का
भाव तो बड़ा
साहगरण है।
तुम अगर
कुत्ते से
पूछो, घोड़े
से पूछो, पशु—पक्षियों
से पूछो, अगर
वे बोल सकते
तो वे भी कहते
कि तुम हो
क्या! आदमी
मात्र!
असाधारण हम
हैं। तुम
पत्थर से पूछो,
अगर पत्थर
बोल सकता तो
वह भी कहता कि
तुम तो बस आदमी
हो, आज हुए,
कल गए, हम
सदा रहते हैं,
हम असाधारण
हैं। कोई न
कोई बात खोज
ही लेगा जिसके
कारण असाधारण
की घोषणा हो
सके। असाधारण
की घोषणा में
अहंकार है।
साधारण होने
के भाव में
अहंकार
विसर्जित हो
गया। और मजा
यह है कि
साधारण होते
ही तुम असाधारण
हो जाते हो।
क्योंकि
साधारण होने
की भावदशा बड़ी
असाधारण
भावदशा है।
कभी कोई बुद्ध,
कभी कोई
कृष्ण, कभी
कोई क्राइस्ट
उस दशा को
उपलब्ध होते
है।
यह
कथा कहती है, उस युवक ने
अहंकार के
कारण ही शायद
संन्यास
लिया। यदि कोई
अहंकार के
कारण ही
संन्यास ले तो
संन्यास व्यर्थ
हो गया।
अहंकार से
जागकर कोई
संन्यास ले तो
संन्यास की
सार्थकता है।
कोई यह देखकर
संन्यास ले कि
अहंकार
व्यर्थ है, दुख लाता है,
नर्क है, और अहंकार
को छोड़कर जागे, तो संन्यास
है। नहीं तो
संसार से
संन्यासी हो
गए, अहंकार
वैसा का वैसा
रहा, तो
रोग पुराना
रहा, नाम
बदल लिया।
भीतर तो
पुराना ही
कचरा रहा, ऊपर
रंग—रोगन कर
लिया। यह झूठ
चल नहीं सकता।
इस झूठ का कोई
ज्यादा अर्थ
नहीं है, यह
प्रगट हो
जाएगा।
इसलिए
युवक
संन्यासी तो
हो गया, लेकिन
पुरानी आदत न
छूटी। पुरानी
आदत थी
अपने को
विशिष्ट
मानने की। अब
अपने को विशिष्ट
मानना हो, तो दूसरे
कुछ भी नहीं
हैं, यह
सिद्ध करना
जरूरी है।
दूसरों की
निंदा जरूरी
है। अहंकार की
छाया की तरह
दूसरों की
निंदा चलती
है। दूसरे कुछ
भी नहीं हैं, यह बताना ही
पड़ेगा। यह
रोज—रोज बताना
पड़ेगा।
तो
वह युवक निंदा
करने में
संलग्न रहता।
और अब निंदा
कर भी सुविधा
से सकता था, क्योंकि
संन्यासी था।
तुम
जाओ मंदिरों
में, आश्रमों
में, तुम्हारे
तथाकथित.
साधु—संन्यासी
को सुनो, वह
निंदा कर रहा
है। वह उन
चीजों की
निंदा कर रहा
है, जिनका
तुम भोग करने
में
आतुर—उत्सुक
हो। और शायद
वह भी तुम्हें
इसीलिए
प्रभावित
करता है कि उन्हीं
बातों की
निंदा करता है,
जिनमें
तुम्हारा रस
है। तुम भी
जानते हो कि
तुम्हारा रस
है। उसका भी
रस है, नहीं
तो निंदा कभी
की खो गयी
होती। जब कोई
साधु—संन्यासी
समझाता होकि
धन मिट्टी है,
तो जानना कि
उसे धन में
अभी भी धन
दिखायी पड़ता है।
क्योंकि वह यह
तो नहीं; समझाता
कि मिट्टी
मिट्टी है। धन
मिट्टी है!
जब
कोई
साधु—संन्यासी
समझाता हो कि
स्त्री के शरीर
में क्या है
हड्डी, मांस—मज्जा,
मल—मूत्र, और कुछ भी
नर्हां है, जब वह
तुम्हें ऐसा
समझाता हो तो
जान लेना, उसे
अभी स्त्री का
रूप आकर्षित
करता है। वह
तुम्हें नहीं
समझा रहा है, तुम्हारे
बहाने अपने को
समझा रहा है।
जब वह सांसारिक
जीवन की निंदा
करता हो, तो
वह यह कह रहा
है कि देखो हम
संन्यासी
कैसे पवित्र,
कैसे पुण्य
को उपलब्ध!
कैसे साधु, कैसे सरल! और
देखो तुम अपना
पाप और अपना
नर्क! वह अपने
को ऊपर रख रहा
है। वह
तुम्हें नीचे
रख रहा है।
वस्तुत:
जब किसी
व्यक्ति के
जीवन में
साधुता का
प्रकाश होता
है, तो
वह तुम्हें
नीचे नहीं
रखता। वह तो
कहता है, तुम
भी भगवान हो, तुम भी
आत्मवान हो, तुम भी वहीं
हो जहां मैं
हूं। मुझे पता
चल गया, तुम्हें
पता नहीं चला,
इतना सा भेद
है। यह भी कोई
खास भेद है!
तुम्हारी जेब
में हजार रुपए
पड़े हैं, मेरी
जेब में हजार
रुपए पड़े हैं,
मुझे पता चल
गया, मैंने
जेब में हाथ
डाल लिया, तुमने
हाथ नहीं डाला;
यह भी कोई
बड़ा भेद है!
हजार रुपए
तुम्हारी जेब
में भी पड़े
हैं, तुम
जब हाथ डाल
लोगे, तभी
उपलब्ध हो
जाएंगे। न भी
हाथ डालो तो
भी उपलब्ध हैं
ही।
जानने
में फर्क हो
सकता है, होने में
कोई फर्क नहीं
है। बोध में
फर्क हो सकता
है, अस्तित्व
में कोई फर्क
नहीं है।
तुममें वही है
जो बुद्ध में
है, तुममें
वही है जो
कृष्ण में है,
रत्तीभर कम
नहीं; तुममें
वही है जो
मुझमें है, रत्तीभर कम
नहीं। सिर्फ
तुमने कभी
अपनी गाठ खोलकर
देखी नहीं।
तुमने कभी
अपने भीतर
टटोला नहीं।
बस टटोलने का
फर्क है, जिस
दिन टटोल लोगे
उसी दिन हो
जाएगा।
ऐसा
नहीं कि तुम
पापी हो।
परमात्मा
पापी कैसे हो
सकता है! ऐसा
नहीं कि तुम
नारकीय हो, परमात्मा
कैसे नारकीय
हो सकता है!
तुम हो तो परम
अवस्था में, लेकिन तुम
लौटकर अपनी
तरफ देखते
नहीं। तुम्हारी
आखें बाहर भटक
रही हैं। बाहर
भटकती आखें भीतर
के खजाने से
अपरिचित रह
जाती हैं, बस,
इतना ही
फर्क है। फिर
अगर साधु को
भी यह न
दिखायी पड़े कि
फर्क न के
बराबर है, न
कुछ है, तो
फिर किसको
दिखायी पड़ेगा?
बुद्ध
से किसी ने
पूछा कि जब आप
शान को उपलब्ध
हुए, फिर
क्या हुआ, बुद्ध
ने कहा, फिर
एक बात
घटी—जिस दिन
मैं ज्ञान को
उपलब्ध हुआ, उसी दिन
सारा संसार
मेरे लिए
ज्ञान को
उपलब्ध हो
गया। उस दिन
से मैंने
अज्ञानी नहीं
देखा।
बुद्ध
का सारा जीवन
लोगों को यही
समझाने में बीता
कि तुम
अज्ञानी नहीं
हो। तुम जिद्द
करते हो कि हम
अशानी हैं। और
बुद्धों का
सारा प्रयास
यही है समझाना
कि तुम नहीं
हो; तुम्हारी
भ्रांति
तोड़नी है। तुम
मालिक हो, तुमने
गुलाम समझा
हुआ है। तुम
विराट हो, तुमने
छोटे के साथ
अपना संबंध
बना लिया।
आंखें आकाश की
तरफ उठाओ, सारा
आकाश
तुम्हारा है,
तुम आखें
जमीन पंरं
गड़ाए खड़े हो।
इससे यह नहीं
होता कि आकाश
तुम्हारा
नहीं रहा, सिर्फ
तुम्हारी
आखें छोटे में
उलझ गयी हैं।
मगर आंखों की
क्षमता आकाश
को भी समा
लेने की है।
कितने ही छोटे
में उलझे रहो,
जिस दिन आंख
उठाओगे, उस
दिन पूरा आकाश
तुम्हारी
आंखों में
प्रतिबिंबित
हो उठेगा।
बुद्ध
ने कहा, जिस दिन मैं
ज्ञान को
उपलब्ध हुआ, सारा संसार
ज्ञान को
उपलब्ध हुआ।
आदमियों की तो
छोड़ ही दो, पशु—पक्षी,
पौधे, सब
आत्मज्ञान को
उपलब्ध हो गए।
आत्मशानी जब
अपने खजाने को
देखता है, उसी
क्षण उसे
दिखायी पड़
जाता है—सब
खजाना लिए चल
रहे हैं; सबके
भीतर दीप्त है
वह दीया, सबके
भीतर रोशनी जल
रही है। अजीब
है हालत कि लोग
अपनी रोशनी
नहीं देखते और
भागे चले जा
रहे हैं रोशनी
की तलाश में; भागे चले जा
रहे हैं धन की
तलाश में और
धन भीतर पड़ा
है, ऐसा धन
जिसे तुम
चुकाओ तो भी
चुके नहीं।
जिसे तुम
उलीचो तो उलीच
न पाओ। जिसे
तुम फेंकते
जाओ और बढ़ता
चला जाए, ऐसा
धन है। ऐसा
परम धन भीतर
पड़ा है।
बुद्धपुरुष
तुम्हें पापी
से
पुण्यात्मा
नहीं बनाते।
तुमने अपने को
देखा नहीं है, बस, तुम्हें
अपने को देखने
की सूझ, सीख
देते हैं।
यह
युवक सबकी
निंदा में
संलग्न रहता।
कारण हो तब तो
चूकता ही नहीं
था—तब तो चूके
ही कैसे। जिसको
निंदा करनी है, वह कारण
होगा तब तो
चूकेगा ही
नहीं। कारण
नहीं होगा तब
कारण निर्मित
करेगा। जिसको निंदा
नहीं करनी है,
वह कारण तो
निर्मित
करेगा ही नहीं,
जब कारण
होगा, तब
भी दया करेगा।
तब भी वह
कहेगा, तुम्हारी
मर्जी!
तुम्हें जैसा
जीना हो, तुम
जीओ, मैं
कौन! मैं
हस्तक्षेप
करूं, ऐसा
मैं कौन! मैं
बाधा डालूं
मैं कहूं कि
बुरा—भला, ऐसा
मैं कौन!
तुम्हारा
जीवन है, तुम
अपने जीवन के
मालिक हो, तुमने
जैसा उसे जीना
चाहा है, तुम
जीओ। निंदा
नहीं होगी।
जीसस
के पास एक
स्त्री को
लाया गया।
गांव स्त्री
के खिलाफ है, क्योंकि
स्त्री ने
व्यभिचार
किया है। और
पुरानी
बाइबिल कहती
है कि जो
स्त्री
व्यभिचार करे,
उसे
पत्थरों से
मार डालना
चाहिए। जीसस
नदी के किनारे
रेत पर बैठे
हैं। सारा गाव
इकट्ठा हो गया
है और
उन्होंने कहा,
इससे, जीसस
से पूछ लो, यह
बहुत शान की
बातें करता
है। और इससे
एक बात यह भी
पता चल जाएगी
कि पुराने
धर्म के पक्ष
में है या
विरोध में। तो
उन्होंने
पूछा कि तुम क्या
कहते हो? पुराने
पैगंबरों ने
कहा है कि जो
स्त्री अनाचार
करे, व्यभिचार
में पड़े, उसे
पत्थर मारकर
मार डालना
चाहिए; तुम
क्या कहते हो?
क्योंकि
जीसस तो हमेशा
ऐसा ही कहते
थे, पुराने
पैगंबरों ने
ऐसा कहा है, लेकिन मैं
ऐसा कहता हूं।
तो अब तुम
क्या कहते हो?
जीसस
ने कहा कि
पुराने
पैगंबरों ने
कहा है कि जो
तुम्हें ईंट
मारे, उसे
तुम पत्थर
मारना, और
जो तुम्हारी
एक आंख फोड़े, तुम उसकी
दूसरी भी फोड़
देना। लेकिन
मैं तुमसे कहता
हूंकि जो
तुम्हारे एक
गाल पर चाटा
मारे, तुम
दूसरा गाल भी
उसके सामने कर
देना और जो तुम्हारा
कोट छीन ले, कमीज भी उसे
दे देना और जो
तुमसे कहे, एक मील तक इस
बोझ को ढोओ, तुम दो मील
तक उसके साथ
चले जाना; मैं
तुमसे ऐसा
कहता हूं।
तो
उन्होंने कहा, अब तुम
क्या कहते हो?
पुराने
पैगंबर कहते
हैं, पत्थर
मारकर इसे मार
डालना।
उन्होंने एक
उपाय खोजा था
जीसस को फासने
का। या तो
जीसस कहेंगे,
पुराने
पैगंबर गलत
कहते हैं, तो
भी वे जीसस पर
नाराज होते—तो
एक तुम्हीं पैगंबर
हो! अब तक सब
नासमझ ही हुए!
या जीसस
कहेंगे, पुराने
पैगंबर ठीक
कहते हैं; तो
हम कहेंगे, फिर क्या
हुआ तुम्हारे
उस प्रेम के
सिद्धात का कि
कोई एक गाल पर
चांटा मारे तो
दूसरा सामने कर
देना। पत्थर
मारकर मार
डालने को कहते
हो? हत्या
के लिए कहते
हो? दोनों
हालत में जीसस
फंस जाएंगे।
गांव बड़ा उत्सुक
था। गांव का
जो रबाई था, जो धर्मगुरु
था, वह भी
आगे खड़ा था
आकर कि पूछो
इस युवक से, यह क्या
कहता है?
और
जीसस ने एक
क्षण सोचा और
कहा, आप
पत्थर उठा लें—नदी
का किनारा था,
पत्थर तो
पड़े ही थे, ढेर
लगे थे, लोगों
ने पत्थर उठा
लिए—और जीसस
ने कहा, अब
मैं कहता हूं,
जिस आदमी ने
कभी व्यभिचार
न किया हो, या
व्यभिचार का
विचार न किया
हो, वह
पहला पत्थर
मारे। वे जो
आगे खड़े
बड़े—बुजुर्ग
थे, धीरे—धीरे
भीड़ में पीछे
हट गए। धर्मगुरु
भी भीड़ में
भीतर सरक गया।
धीरे—धीरे भीड़
छंट गयी, जीसस
और वह स्त्री
अकेले वहां
छूट गए।
वह
स्त्री तो
उनके पैरों
में गिर पड़ी।
उसने कहा, तुमने
मुझे जीवनदान
दिया, तुमने
मुझे बचा लिया,
अन्यथा आज
वे मुझे मार
डालते। लेकिन
पाप तो मैंने
किया है। उनसे
तो मैं इनकार
भी करती रही, तुमसे मैं
इनकार भी कैसे
करूं, पाप
तो मैंने किया
है। अब तुम
मुझे जो सजा
देना चाहो, दो।
जीसस
ने कहा, मै तुझे सजा
देने वाला कौन
' यह तेरे
और तेरे
परमात्मा के
बीच की बात है,
मैं बीच में
आने वाला कौन '
अगर तुझे
त्सा गया कि
पाप है, तो
अब मत करना, और अगर तुझे
लगता हो कि
पाप नहीं है, तो तेरी
मर्जी। जो
तुइाए पाप न
लगे तो जरूर
करना। रही बात
निर्णय की, तो तेरा
परमात्मा और
तेरे बीच
निर्णय होगा,
मै कौन हूं
बीच में!
उस
स्त्री के
जीवन में
क्रांति घट
गयी। क्रांति
घट गयी इसीलिए
कि इस आदमी ने
निंदा नहीं की।
इसने कहा, मै कौन
हूं! इस आदमी
ने कोई
वक्तव्य ही न
दिया। इसने यह
भी न कहा कि यह
पाप है! इसने
कहा कि तुझे पाप
लगता हो तो
छोड़ देना। जब
तुम्हें पाप
लगता है तो
छूट ही जाता
है, छोड़ना
भी नहीं पड़ता।
दूसरे के कहने
से कोई छोड़ता
है! और निंदा
तो करना ही मत,
निर्णय त्रो
लेना ही मत।
दूसरे आदमी के
हम मालिक नहीं
हैं। उसकी
स्वतंत्रता
परम है, उसकी
गरिमा परम है।
उसके ऊपर
निंदा का एक
शब्द भी उठाना
सिर्फ अपनी
हीनता की
घोषागा है।
लेकिन
वह युवक कारण
होता तब तो
चूकता ही
कैसे—कारण को
खूब बढ़ा—चढ़ा
लेता
होगा—कारण न
हो तब भी कारण
खोज लेता था, निर्मित
कर लेता था।
कोई दान न दे
तो निंदा करता
कि देखो कृपण,
देखो कंजूस,
मरेगा पापी,
नरकों में
सडेगा, इसी
धन की ढेरी पर
साप बनकर
बैठेगा जब
मरेगा—तो
निंदा करता।
और कोई दान
देता, तो
कहता, अरे,
यह भी कोई
दान है! दान
देना सीखना हो
तो मेरे परिवार
से सीखो। यह
क्या
मुट्ठी—मुट्ठी
दे रहे हो! अगर
कोई किसी
दूसरे को दान
देता, तब
तो वह बहुत ही
निंदा करता।
उसको देता तब
भी नहीं छोड़
पाता था निंदा
करना, लेकिन
दूसरे को देता
तब तो वह बहुत
ही निंदा करता।
इसके
साथ ही साथ
उसका दूसरा
काम था, अपने परिवार
की प्रशंसा, अपनी जाति
की प्रशंसा, अपने वर्ण
की प्रशंसा।
खयाल
करना, तुम
जब अपने देश
की प्रशंसा
करते, अपनी
जाति की, अपने
वर्ण की, अपने
धर्म की, अपने
कुल—परिवार की,
तो तुम
वस्तुत: क्या
कर रहे हो? तुम
प्रकारातर से
अपनी प्रशंसा
कर रहे हो। जब तुम
कहते हो, भारत
देश धन्य है, तो तुम क्या
कह रहे हो? तुम
यह कह रहे हो
कि मैं
भारतवासी
हूं। अगर तुम
चीन में पैदा
हुए होते तो
तुम कभी न
कहते, भारत
देश धन्य है।
तुम कहते, चीन
देश धन्य है!
तुम जहा पैदा
होते, वही
देश धन्य
होता। यह देश
की प्रशंसा
नहीं है, यह
बड़ी तरकीब से
अपनी प्रशंसा
है। यह आत्म—प्रशंसा
है।
तुम
कहते हो, हिंदू—कुल
धन्य है! जैन
से पूछो। वह
कहता है, जैन—कुल
धन्य है!
बौद्ध से
पूछो। वह कहता
है, बौद्ध—कुल
धन्य है। यह
संयोग की बात
है कि तुम जैन—घर
में पैदा हो
गए, इसलिए
जैन—कुल धन्य
हो गया। यह
संयोग की बात
है कि तुम
हिंदू—घर में
पैदा हो गए, इसलिए
हिंदू--कूल धन्य
हो गया। ये
विष भरी बातें
हैं। लॉकन
इनको तुम इस
तरह दोहराते
हो कि तुमने
जैसे विचार ही
नहीं किया इन
पर।
अब
यह बड़े मजे की
बात है कि जो
लोग निर—अहकार
की शिक्षा
देते हैं, वे भी इन
बातों में पड़े
हैं।’तुम
जैन—मुनि से
जाकर पूछो तो
वह कहेगा, जैन—कुल
में पैदा होना
बड़े पुण्यों
से होता है।
बाकी आदमी कोrq
आदमी थोड़े!
बाकी आदमी तो
बस नाममात्र
के आदमी हैं।
जैन—कुल में
पैदा होना बड़े
पुण्यों से होता
है, जन्म—जन्म
के पुण्यों से
होता है। अब
राही आदमी रोज
समझाता है
निरहंकार; अहंकार
छोड़ो और बड़ी
गहराई में
अहंकार को
पोषण दे रहा
हैं।
तुम
ब्राह्मण से
पूछो, वह
कहता है, ब्राह्मण
होना कोई
साधारण बात
थोड़े! असाधारण
बात है! दम
पुरुष से पूछो,
पुरुष कहता
है, पुरुष
होने में
धन्यता है, स्त्री होने
मै दुर्भाग्य
है।
शास्त्रों में
लिखा है कि
पहले तो
मनुष्य होना
बहुत दुर्लभ
है, फिर
पुरुष होना
बहुत दुर्लभ
है। फिर
ब्राह्मण
होना और भी
दुर्लभ! फिर
इस भारत देश
में पैदा होना, यह तो
धर्म—देश है, यहां तो सदा
धर्म की धारा
बहती रही, यहां
पैदा होना और
भी दुर्लभ है!
बाकी सब तो मलेच्छ।
मगर यही हगरणा
उनकी भी है।
और तुम यह मत सोचना
कि बड़े—बड़े
मुल्कों की है,
छोटे से
छोटे मुल्क कौ
भी धारणा यही
है।
यह
धारणा मनुष्य
के अहंकार की
है। दुनिया
में तीन सौ
धर्म हैं और
सभी धर्मों के
मानने वालों
की यही धारणा
है। और टुनिया
में कितने देश
हैं! और सभी
देशों की यही
धारणा है। और
अब तो स्त्रियों
ने भी घोषणा करनी
शुरू कर दी
है—और ठीक
किया है, क्योंकि
बहुत हो
गया—उग्ब
पश्चिम में
स्त्रिया
घोषणा कर रही
हैं कि स्त्री
होना धन्यभाग
है। पुरुष
होने में क्या
रखा है!
पूरब
के देशों में
को के हाथों
से शास्त्र
लिखे गए तो के
कहते हैं, को का आदर
करौ। क्योकि
बूढ़ों ने
शास्त्र लिखे।
पश्चिम में
जवान किताबें
लिख रहे हैं, वे कहते हैं
कि तीस साल के
ऊपर के किसी
आदमी का भरोसा
ही मत करना।
मैं
एक बड़ी मजेदार
घटना कल पढ़
रहा था। जेरी
रूबिन, जिसने इस
बात का नारा
दिया अमरीका
में कि तीस
साल के ऊपर के
आदमी पर भरोसा
मत करना, तीस
साल के बाद
आदमी बेईमान
हो ही जाता है,
वह—यह भूल
ही गया यह
कहने में कि
तीस साल के
ऊपर उसको भी
एक दिन होना
पड़ेगा। जब
उसने यह कहा
था, तब वह
छब्बीस साल का
था। भूल ही
गया होगा
जोश—खरोश में।
फिर
वह बत्तीस साल
का हो गया।
अमरीका में
उसके पीछे एक
आदोलन
चला—इप्पी। और
इप्पियों ने सारे
अमरीका में
तहलका मचा
दिया कि तीस
साल के ऊपर
जितने लोग हैं, सब
बेईमान हैं।
फिर एक दिन
ऐसा आया कि वह
तीस साल के
ऊपर हो गया।
एक
दिन वह होटल
से बाहर निकला, जहां
ठहरा हुआ था, बाहर आया तो देखा
कि उसकी कार
में किसी ने
आग लगा दी। वह
बहुत हैरान
हुआ कि किसने
यह किया है! जब
पास गया तो
पता चला वहा
एक तख्ती लगी
है, उस पर
लिखा है कि
जेरी रूबिन, अब तुम तीस
साल के ऊपर के
हो गए, अब
हमारे नेता
नहीं रहे।
जिनका उसने
आदोलन खड़ा
किया था, वे
ही उसके विरोध
में हो गए, क्योंकि
वह तीस साल के
ऊपर हो गया।
तब उसको पता
चला—अभी मैं
उसकी किताब पढ़
रहा था, उसने
लिखा है कि तब
मुझे पता चला
कि तीस साल के ऊपर
एक दिन मुझे
भी होना पड़ेगा,
तब मैं ही
झंझट में
पडूगा।
पश्चिम
में युवक
किताबें लिख
रहे हैं, तो को का
सम्मान नहीं।
पूरब में को
ने किताबें
लिखीं तो
युवकों का
सम्मान नहीं।
किसी दिन अगर
बच्चे किताबें
लिखेंगे तो
जवानों का भी
सम्मान नहीं रह
जाएगा।
पुरुषों ने
किताबें
लिखीं तो स्त्रियों
का अपमान।
स्त्रिया
किताबें
लिखती हैं तो
पुरुषों का
अपमान। आदमी
किस—किस भांति
अपने अहंकार
की पूजा किए
चला जाता है।
हम
जो हैं, हम
प्रकारातर से
उसकी प्रशंसा
करते हैं। इससें
जागना। ये
अहंकार के
सूक्ष्म
सहारे हैं। मत
भूलकर कहना कि
तुम हिंदू हो
तो बड़ा कोई पुण्य
हो गया। मत
भूलकर कहना कि
तुम ईसाई हो
तो कोई बड़ा
पुण्य हो गया।
पुण्य तो उस
दिन होगा, जिस
दिन तुम न—कुछ
हो जाओगे।
उसके पहले कोई
पुण्य नहीं
हैं। न
तुम्हारा कोई
देश रहेगा, न कोई जाति
रहेगी, न
कोई कुल रहेगा,
न
स्त्री—पुरुष
का भाव रहेगा,
पुण्य तो उस
दिन होगा।
धन्यता तो उस
दिन होगी, जिस
दिन तुम्हारे
ऊपर कोई रोग न
रह जाएंगे, कोई
तादात्म्य न
रह जाएगा; तुम
यह कह ही नं
सकोगे कि मैं
हिंदू कि
मुसलमान, कि
ईसाई, कि
जैन, तभी
तुम धन्य
होओगे। उसके
पहले तो
धन्यता झूठी
है।
वह
युवक शायद
इसीलिए
संन्यस्त भी
हुआ था, ताकि वह कह
सके कि देखो
मैं संन्यस्त
हूं! सारा जगत
पापी है।
संन्यास का
मजा ही यही
है। उससे
तुम्हें बड़ी
सुगम सुविधा
मिल जाती है
सारी दुनिया
की निंदा करने
की। संन्यस्त
होते से ही तुम
एकदम शिखर पर
विराजमान हो
जाते हो। एक
क्षण पहले सड़क
पर थे, एक
क्षण बाद शिखर
पर विराजमान
हो जाते हो।
तुम
देखते हो, जब
दीक्षाएं
होती हैं, तो
कितना
शोर—शराबा, जुलूस
निकलता और बड़ा
उत्सव मनाया
जाता कि कोई सज्जन
दीक्षा ले रहे
हैं। इसमें
उत्सव की क्या
बोत है! मैं
संन्यास देता
हूं तो जरा भी
आहट नहीं होने
देता, क्योंकि
आहट की क्या
बात है! इसमें
उत्सव की क्या
बात है! उत्सव
तो अहंकार की
ही पूजा है।
उत्सव का तो
मतलब यह हुआ
कि तुमने
दीक्षा लेने वाले
का खूब अहंकार
पोषित कर दिया,
अब यह अकड़कर
चलेगा।
देखते
हैं, जैन—मुनि
हाथ जोड़कर
किसी को
नमस्कार नहीं
करता। कर नहीं
सकता, क्योंकि
वह कहता है, मुनि और
नमस्कार करे!
गृहस्थों को,
श्रावकों
को गैर—संन्यासियों
को नमस्कार
करे, मुनि!
मुनि सिर्फ
आशीर्वाद दे
सकता है, नमस्कार
नहीं कर सकता।
यह तो हद्द हो
गयी! और उनसे
जिनसे कि
निर—अहकार की
बात करते हैं,
ये हाथ
जोड़कर
नमस्कार भी
नहीं कर सकते।
इन्हें दूसरे
में सिर्फ
गृहस्थ
दिखायी पड़ रहा
है, दूसरे
में छिपा
परमात्मा
दिखायी नहीं
पड़ता। ये सब
अहंकार के ही
नए—नए रूप हैं,
नए—नए ढंग
हैं।
तो
संन्यस्त हो
गया युवक—कथा
बड़ी मीठी है, कहती है
कि शायद
इसीलिए संन्यस्त
हुआ कि यह
अहंकार में एक
और नया पंख लग जाएगा,
एक नया रंग
लग जाएगा।
एक
बार कुछ
भिक्षु उसके
गांव गए तो
पाया कि वह व्यर्थ
ही दूसरों की
निंदा करता है, और
व्यर्थ ही
अपने कुल की
प्रशंसा करता
है। उसके कुल
में तो कुछ था
ही नहीं, कुछ
खास बात ही न
थी। वे तो साधारण
लोग थे', साधारण
से भी गए—बीते
लोग थे। बड़े
हीनकुल से वह
आया था। बड़ी
हीनवृत्तियो
वाले कुल से
आया था।
भिक्षुओं ने
यह बात भगवान
से कही।
पच्चीस
सौ साल पहले
बुद्ध ने जो
वक्तव्य दिया, उस पर
फ्रायड और
जुंग को
ईर्ष्या हो!
एडलर परेशान
होता अगर इस
वक्तव्य का
उसे पता चल
जाता।
क्योंकि एडलर
ने अभी जो
मनोविज्ञान
विकसित किया
है, उसका
मौलिक आधार
इनफिरिआरिटी
काप्लेक्स है,
हीनता की
ग्रंथि। वह
कहता है, जो
लोग जितने ही
हीन होते हैं,
उतने ही
श्रेष्ठ होने
का दावा करते
हैं।
काश, उसे
बुद्ध की यह
कथा पता होती,
तो उसे यह
खयाल पैदा
नहीं होता कि
उसने कोई
अनूठी बात खोज
ली है। तुम
अगर पुराने
शास्त्रों
में गहरे उतरो
तो तुम चकित
हो जाओगे, शायद
कोई अनूठी बात
खोजने को बची
नहीं है। होना
भी ऐसा ही
चाहिए। कितने
अनंत काल से
आदमी सोचता
रहा है! सब
पहलू देख लिए
गए हैं, सब
पर्तें उलट ली
गयी हैं, सब
द्वार खोल लिए
गए हैं।
मगर
वहां भी
अहंकार का एक
खेल चलता है।
हर युग कहता
है कि जो हमने
खोजा, वह
किसी ने नहीं
खोजा। और हर
आदमी कहता है
कि जो मैं
जानता हूं,
वह कोई नहीं
जानता। मैं
मौलिक हूं। यह
सदियों से
आदमी सोचता
रहा है।
हजारों
वर्षों से
आदमी चिंतन
करता रहा है।
बड़े—बड़े मनीषी
हुए। बचा कैसे
होगा कुछ
तुम्हारे लिए
मौलिक होने
को!
जैसे
कृष्णमूर्ति
के अनुयायी
कहते हैं कि
कृष्णमूर्ति
जो कहते हैं, मौलिक
है। तो
उन्होंने
अष्टावक्र
नहीं पढ़ा। नहीं
तो वे बड़े
हैरान हो
जाएंगे।
कृष्णमूर्ति
का एक भी
वक्तव्य नहीं
है जो अष्टावक्र
के वक्तव्य से
आगे जाता हो।
खैर. कृष्णमूर्ति
तो शास्त्र
पढ़ते नही, उनकी
जिद्द है कि
वे पुराने
शास्त्र
पढ़ेंगे नहीं,
चलो, उनको
क्षमा किया जा
सकता है। मगर
उनके शिष्य, जो दावा
करते हैं, उनको
तो कम से कम
इधर—उधर देखना
चाहिए इसके पहले
कि मौलिक होने
का दावा हो।
ऐसा
एक वक्तव्य
नहीं है जो
आदमी दे सके, जो कि
पहले नहीं
दिया गया हो।
यह हो सकता है
कि समय ने
बहुत धूल जमा
दी हो, दूरी
हो गयी हो, हम
भूल भी गए
हों। लेकिन जो
भी आज है, वह
कल भी था, परसों
भी था, कल
भी होगा, परसों
भी होगा।
हमारी मूढ़ता
वैसी ही है
जैसे गुलाब का
एक फूल जो आज
खिला है, वह
खिलते ही से
कहे, ऐसा
फूल पृथ्वी पर
कभी नहीं
खिला। या सूरज
आज ऊगा है, वह
कहे कि ऐसा
सूरज पहले कभी
नहीं ऊगा। कि
रात तारे आकाश
में फैले हों
और घोषणा कर
दें कि ऐसी
तारों— भरी
रात पहले कभी
नहीं हुई।
जो
आज हो रहा है, वह सदा
होता रहा है।
आज अनूठा नहीं
है। सूरज के
तले नया कुछ
भी नहीं है।
ही, बहुत
बार बातें
खोजी जाती हैं,
फिर खो जाती
हैं। समय की
धारा में भूल
जाती हैं।
फिर—फिर खोज
ली जाती हैं।
इसलिए हर खोज
पुनखोंज है।
कोई खोज नयी
नहीं है।
बुद्ध
ने कहा, हीनभाव ही
श्रेष्ठता का
दावेदार बनता
है।
एडलर
का पूरा
मनोविज्ञान
इस वचन में आ
गया।' तुम
देखना, आदमी
के
व्यक्तित्वों
में झांकना, तो तुम
पाओगे, जहां—जहा
हीनता की
ग्रंथि होती
है वहा—वहां
श्रेष्ठ होने
का भाव पैदा
होता है।
चोर
सिद्ध करने की
कोशिश करता है
कि मैं चोर नहीं
हूं। चोर बड़ी
जोर से कोशिश
करता है कि
मैं चोर नहीं
हूं। क्योंकि
वह डरा हुआ है
भीतर से, हूं तो चोर
ही। सिद्ध तो
करूंगा, नहीं
सिद्ध कर
पाऊंगा तो पकड़
लिया जाऊंगा।
चोर अगर चुप
रहे तो उसे डर
लगता है कि
मेरी चुप्पी
कहीं मेरी
चोरी का
प्रमाण न बन
जाए।
झूठ
बोलने वाला
सिद्ध करता है
कि मैं जो कह
रहा हूं र वह
सच है। जो लोग
बहुत कसमें
खाते हैं, समझ लेना
कि वे झूठ
बोलने वाले
लोग हैं। नहीं
तो कसमें नहीं
खाएंगे। हर
बात पर कसम, कि भगवान की
कसम, कि तुम्हारी
कसम। जो आदमी
कसमें खाता है,
यह झूठ
बोलने वाला
आदमी है।
क्योंकि इसे
सच अपने आप
में काफी है, ऐसा नहीं
मालूम पड़ता।
इसे लगता है, कसम जोड़ो
साथ में, अपने
आप में तो कुछ
है नहीं; कसम
की बैसाखी लग
जाए तो शायद
झूठ थोड़ा चल
जाए। सच बोलने
वाला आदमी कसम
नहीं खाएगा।
कसम का मतलब
ही होता
है—झूठ का
तुम्हें पता
है, अब तुम
झूठ को
लीपा—पोती कर
रहे हो। अब
तुम किसी तरह
से प्रमाण
जुटा रहे हो
कि सच हो जाए।
हीनभाव
ही श्रेष्ठता
का दावेदार
बनता है।
तुमने
दुनिया में
देखा, अगर
तुम बड़े—बड़े
राजनीतिज्ञों
की जीवन—कथा
पढ़ो तो तुम
बहुत चकित हो
जाओगे। उन में
कोई न कोई हीनता
की ग्रंथि थी,
इसीलिए वे
पदों की तरफ
भागे।
नेपोलियन
की ऊंचाई कम
थी—पांच फीट
दो इंच।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, यही कारण
था। वह हमेशा
बेचैन था इस
बात से कि उसकी
ऊंचाई बहुत कम
है।
वह
दुनिया को
बताना चाहता
था, मेरी
ऊंचाई कितनी
है! वह यह
दिखाना चाहता
था कि मेरे
शरीर से मुझे
मत तौलो। शरीर
में क्या रखा
है! मेरी असली
ऊंचाई देखो, मेरे
सिंहासन से
देखो। उसने
दुनिया का
सबसे बड़ा सिंहासन
बनवाया था
ताकि उसके ऊपर
बैठकर वह दिखला
सके। वह चाहता
था, सारी
दुनिया को जीत
लूं, ताकि
मैं बता सकूं
कि मेरी ऊंचाई
कितनी है।
एक
दिन वह घड़ी
ठीक करना
चाहता था—घड़ी
जरा ऊंची लगी
थी दीवाल पर
और उसका हाथ
नहीं पहुंच
रहा था। तो
उसका जो
अंगरक्षक था, उसने कहा,
रुकिए
महानुभाव, मैं
आपसे ऊंचा हूं
मैं ठीक कर
दूंगा। उसने
कहा कि चुप, भूलकर इस
तरह का शब्द
मत प्रयोग
करना। मुझसे ऊंचा!
मुझसे लंबा है,
ऊंचा नहीं।
उसने तत्काल
सुधार करवा
दिया। लंबाई
और ऊंचाई में
फर्क होता है।
मुझसे लंबा तू
जरूर है, लेकिन
ऊंचा क्या है,
ऊंचा कैसे
होगा! मेरा
अंगरक्षक और
मुझसे ऊंचा!
नेपोलियन
ने सिद्ध करने
की कोशिश की।
कहते
हैं कि लेनिन
जब बैठता था
तो उसके पैर
बहुत छोटे
थे—ऊपर का
शरीर तो ठीक
था, पर
पैर बहुत छोटे
थे—कुर्सी से
लटक जाते थे, पैर उसके
जमीन से नहीं
लगते थे। इससे
वह बड़ा पीड़ित
था, वह
छिपाकर बैठता
था अपने पैरों
को। और मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
वह पैरों की
कमजोरी ही उसकी
दौड़ थी—कि
जमाकर बता
देगा पैर। ऐसे
जमाकर बता
देगा कि कोई
भी उखाड़ न
सके।
तुम
इसे अगर
खोजोगे तो पा
लोगे, दूसरों
में नहीं, अपने
में भी पा
लोगे। तुम
अपने में भी
पा लोगे कि
कौन सी चीज
तुम्हें
बेचैन किए जा
रही है। कौन
सी बात तुम्हें
घाव की तरह
खटक रही है।
उसी के कारण
तुम दौड़ रहे
हो। जिसके सब
घाव भर गए, उसकी
कोई
पदाकाक्षा
नहीं रह जाती,
कोई
महत्वाकाक्षा
नहीं रह जाती।
उसके जीवन से
राजनीति विसर्जित
हो जानी
चाहिए। हो ही
जाएगी।
राजनीति
का अर्थ ही
होता है, हीनग्रथियों
से पीड़ित
लोगों की दौड़।
राजनीति का
अर्थ होता है,
विक्षिप्तता।
एक तरह का
पागलपन।
धन
की दौड़ भी एक
तरह का पागलपन
है।
महत्वाकाक्षा
ही पागलपन का
सार है। सूत्र
पागलपन का
महात्वाकांक्षा
है—कुछ होकर
दिखा दूं।
क्यों? क्या तुम
नहीं हो? कुछ
बनकर बता दूं।
क्यों? क्या
तुम जैसे हो
वैसे
परिपूर्ण, पर्याप्त
नहीं हो? विन्सेंट
वानगाग—पश्चिम
का बहुत बड़ा
चित्रकार—बहुत
कुरूप था। और
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, उसकी
कुरूपता के
कारण ही वह
सौंदर्य का
आराधक हो गया।
और उसने बड़े
सुंदर चित्र
बनाए।
सुंदरतम
चित्र बनाए।
वह चित्रों से
सिद्ध करना
चाहता था कि
मेरी छोड़ो, मेरे हाथ के
सौंदर्य को
देखो। चेहरा
उसका कुरूप
था। कुरूप
आदमी सौंदर्य
में उत्सुक हो
गया।
तुमने
कभी किसी
सुंदर स्त्री
को चित्र
बनाते देखा? सुंदर
स्त्री को
कविता लिखते
देखा?
मैं
एक घर में
मेहमान था एक
बार एक गांव
में। वहां एक
कवयित्री
सम्मेलन हो
रहा था। अखिल
भारतीय
कवयित्री—सम्मेलन!
तो मेरे मित्र
ने मुझे भी
कहा, आप
भी चलिए। सारे
देश की महिला
कवयित्रिया
इकट्ठी हो रही
हैं। मैंने
कहा, तुम
जाओ, सिर्फ
एक बात मुझे
बताना, उनमें
कोई एकाध
सुंदर भी है? उन्होंने
कहा, क्यों,
आप ऐसा
प्रश्न क्यों
उठाते हैं ' मैंने कहा, तुम जाकर
फिर मुझे
बताना।
वह
जब रात बारह
बजे लौटे मैं
तो सो गया था, मुझे आकर
उठाया, उन्होंने
कहा कि मैं
रातभर रख नहीं
सकूंगा इस बात
को मुझे आपने
हैरान कर
दिया! उनमें
एक भी सुंदर
नहीं थी। मगर
आपने यह
प्रश्न क्यों
पूछा ' मैंने
कहा कि प्रश्न
मैंने इसलिए
पूछा था कि सुंदर
स्त्री कुछ और
करती नहीं, सौंदर्य
काफी है।
असुंदर
स्त्रियां
कुछ करती देखी
जाती
है—समाज—सेविकाए
बन जाएंगी, कवयित्रिया
बन जाएंगी, चित्रकार
बनेंगी, क्योंकि
सौंदर्य की
कमी है, कुछ
खटक रहा है।
जो खटक रहा है,
उसे किसी
तरह भरना
होगा। तो कुछ
करके उसे भर लिया
जा सकता है।
कुछ और पैदा
करके वह जो
कमी है, वह
पूर्ति हो
जाएगी।’'
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जो कुछ दुनिया
में आदमी ने
किया है, वह आदमी का
है, स्त्रियों
ने कुछ खास
नहीं किया। और
जिस कारण को
वे कहते हैं
कि क्यों ऐसा
हुआ, वह
कारण सुनने और
समझने जैसा
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
स्त्रिया
बच्चे पैदा कर
लेती हैं, यह इतना
बड़ा कृतित्व
है—मां
बनना—कि अब और
क्या बनाना
है! एक मूर्ति
बनाने से क्या
होगा, एक
जिंदा मूर्ति
पैदा कर दी।
एक चित्र
बनाने से क्या
होगा, एक
जिंदा तस्वीर
पैदा कर दी, एक जिंदा
चेहरा पैदा कर
दिया। जीवित
आखें, चलता—फिरता
बच्चा पैदा कर
दिया। इससे
बड़े सौंदर्य
का और क्या
जन्म होगा!
स्त्रियां
तृप्त हैं एक
बच्चे को जन्म
देकर।
पुरुष
बड़ा बेचैन है।
स्त्रियों के
सामने वह अपने
को जरा असहाय
पाता है, वह किसी चीज
को जन्म नहीं
दे सकता। तो
उसकी परिशतइr
करता है—वह
एक मूर्ति
बनाएगा, एक
चित्र बनाएगा,
कविता
लिखेगा, काव्य
रचेगा—कुछ
करके वह
सृजनात्मक
होता है, सिर्फ
इसीलिए ताकि
स्त्री के साथ
प्रतिस्पर्धा
कर सके, वह
कह सके, मैंने
भी कुछ बनाया
है। और
धीरे—धीरे
उसने इतनी
चोजें बना
डाली हैं कि
स्त्री
बेचैनी अनुभव
करती है, उसे
लगने लगा कि
मैं कुछ भी
नहीं कर रही
हूं मुझसे कुछ
नहीं हो रहा
है, पुरुष
ने इतना बना
डाला!
तुम
चकित होओगे, जिन
कामों में
स्त्रियों को
ही खोज करनी
चाहिए, उनमें
भी पुरुष ही
खोज करता है।
पाकशास्त्र
भी पुरुष लिखते
हैं, स्त्रियां
नहीं लिखतीं।
और दुनिया की
बड़ी होटलों के
जो बड़े से बड़े
भोजन बनाने
वाले लोग हैं,
रसोइए हैं,
वे पुरुष
हैं, स्त्रियां
नहीं हैं।
क्यों? स्त्री
तृप्त है।
पुरुष अतृप्त
है। कुछ बात खटक
रही है, कुछ
कम—कम है। कुछ
खाली जगह है।
तो कुछ करके
इसे पूरा कर लेना
है। कुछ भी
करने से पूरा नहीं
होता।
क्योंकि कमी
कैसे पूरी हो
सकती है! कमी
तो स्वीकार
करने से
विसर्जिक्त
होती है।
इसीलिए
जब तक कोई
व्यक्ति
धार्मिक जगत
में प्रवेश
नहीं करता, उसकी
हीनता नहीं
मिटती। वह लाख
उपाय कर ले, धन इकट्ठा
कर ले, पद
इकट्ठा कर ले,
प्रतिष्ठा
बना ले, कमी
नहीं मिटती।
तो
बुद्ध ने कहा, हीनभाव
ही श्रेष्ठता
का दावेदार
बनता है। जो श्रेष्ठ
हैं, उन्हें
तो अपने
श्रेष्ठ होने
का पता भी
नहीं होता है।
वही
श्रेष्ठता का
अनिवार्य
लक्षण भी है।
साधु को पता
चले कि मैं
साधु, कि
मैं साधु, कि
मैं साधु, तो
यह घाव है, यह
असलियत नहीं।
तुमने
कभी खयाल किया, स्वास्थ्य
का तुम्हें
कभी पता चलता
है ' बीमारी
का पता चलता
है। सिर में
दर्द है तो पता
चलता है। जब
सिर में दर्द
नहीं होता तब
सिर का पता
चलता है? अगर
दर्द बिलकुल
नहीं है तो
सिर का पता
चलेगा ही
नहीं। पैर में
काटा गड़ा तो
पैर का पता
चलता है, काटा
नहीं है तो
पैर का पता
नहीं। जब तुम
बीमार होते हो
तब देह का पता
चलता है।
इसलिए
आयुर्वेद में
स्वास्थ्य की
परिभाषा बड़ी
महत्वपूर्ण
है। एलोपैथी
के पास वैसी
कोई परिभाषा
नहीं है। अगर
तुम एलोपैथी
से पूछो कि
स्वास्थ्य की
क्या परिभाषा
है, तो
वह कहता है, बीमारी न हो
तो
स्वास्थ्य।
यह बड़ी
नकारात्मक परिभाषा
हुई। बीमारी
से स्वास्थ्य
की परिभाषा!
बीमारी न हो!
लेकिन
आयुर्वेद
कहता है, स्वास्थ्य
का अर्थ है, देह का पता न
चले, विदेह
भाव रहे। यह
बड़ी महत्वपूर्ण
बात है, देह
का पता न चले
तो
स्वास्थ्य।
क्योंकि देह का
पता बीमारी
में चलता है।
ठीक—ठीक
स्वस्थ आदमी
विदेह हो जाता
है। इसलिए
हमने जनक को
विदेह कहा है।
अगर परिपूर्ण
स्वस्थ हो गए
तो देह का बिलकुल
ही पता नहीं
चलेगा, कि
देह है भी, कि
मैं देह हूं, ऐसा भी पता नहीं
चलेगा। सिर
दर्द के कारण
सिर का पता
चलता है, कांटे
के कारण पैर
का पता चलता।
तुमने
देखा, श्वास
में तकलीफ हो
तो श्वास का
पता चलता, नहीं
तो श्वास चल
रही है वर्षों
से, उसका
पता ही नहीं
चलता। पेट में
पाचन होता है,
इतना काम
चलता है—खून
बनता, मांस—मज्जा
बनती—पता ही
नहीं चलता। ही,
जरा सी
तकलीफ हो जाए
तो पता चलता
है।
बुद्ध
कहते हैं, श्रेष्ठता
का यह
अनिवार्य
लक्षण है कि
उसका पता न
चले। साधु वही,
जिसे साधु
होने का पता न
चले। सत्य उसी
को मिला, जिसे
मिलने का भी
पता न चले।
सहज हो।
यह
भिक्षु..
बुद्ध सदा ऐसा
कहते थे, जब भी किसी
का प्रश्न
उठता था तो वह
सदा उसके अतीत
जन्मों को भी
खयाल में लाते
थे। बुद्ध की
अनिवार्य
प्रक्रियाओं
में वह भी एक
प्रक्रिया
थी। जब भी वह
किसी आदमी को
देखते, तो
गौर से उसकी श्रृंखला
को भी देखते।
क्योंकि
बुद्ध कहते, जो आज हो रहा
है, उसके
बीज कल रहे होंगे,
उक्तके बीज
परसों रहे
होंगे। फसल आज
कट रही है. तो
आज ही थोड़े
बीज बो होंगे,
बीज तो
जन्मों
—जन्मों में
बो होंगे। तो
वे कहते कि यह
भिक्षु न केवल
ऐसा करता आज
घूम रहा है, पहले भी ऐसा
ही करता था।
यह इसके
जन्मों—जन्मों
की आदत है। हर
आदत के पीछे
आदत होती है।
हर
आदत के पीछे
पुरानी आदतें
होती हैं। आदत
के पीछे आदत
का क्यू लगा
होता हैं। तो
हम जो भी कर रहे
होते हैं, वह आज ही
अचानक नहीं कर
रहे होते है, उसके पीछे
करने की बड़ी
श्रृंखला
होती है। इसलिए
तुम अगर उसे
आज ही बदलना
चाहो, छोड़ना
चाहो, तो न
छोड़ सकोगे, जब तक तुम पूरी
प्रांऋखला को
समझकर न
—छोड़ने को
राजी हो जाओ।
एक
आदमी सिगरेट
पी रहा है। हम
उससे कहते हैं, छोड़ दो।
वह भी जानता
है कि बुरा
है। और वह
कहता है, छोड़ना
भी चाहता हूं, छूटती नही।
तुम श्रृंखला
नहीं देख रहे
हो। सिगरेट
पीने के पीछे
श्रृंखला
होगी बहुत सी
और बातों की।
उन सारी बातों
का जब तक
बोधपूर्वक
विश्लेषण न हो,
जब तक यह
जागरूक न हो
जाए, तब —तक
सिगरेट न
छूटेगी।
यह
तो ऐसे ही है
जैसे कोई आदमी
फूल को काट दे
और वृक्ष तो
बना रहे। फिर
फूल आ जाएगा।
शायद पहले फूल
से बड़ा फूल आ
जाएगा, क्योंकि
वृक्ष भी जवाब
देगा। तुम
पत्ता काट दो,
पत्ते
काटने से क्या
होगा, एक
पत्ते की जगह
तीन पते आ
जाएंगे। तुम
शाखा काट दो, वृक्ष बदला
लेगा, वृक्ष
दो शाखाएँ
पैदा कर देगा।
आखिर ठंसको भी
अपने
अस्तित्व के
लिए लड़ना पड़ता
है! ऐसे जल्दी
से मान ले हर
किसी की कि एक
आदमी शाखा काट
गया और वह
चुपचाप हो जाए
और फिर शाखा' न उगाए, तो
क्या जीएगा, खाक जीएगा!
संघर्ष करना
होगा। वह दो
शाखा पैदा
करेगा कि
काटने वाले को
अब काटना हो
तो दुगुनी
मेहनत करनी
पड़ेगी। दो
काटो तो चार:
पैदा करेगा।
इसीलिए
तो माली जब
वृक्ष को घना
करना चाहता है
तो काटता है।
कलम करता है।
क्योंकि
जैसे—जैसे
काटता है, वृक्ष
घना होता जाता
है। अगर
तुम्हें बड़ा
फूल चाहिए तो
जिस वृक्ष पर
सौ फूल लगते
हैं, निन्यानबे
काट दो, एक
को छोड़ दो, तो
वृक्ष सौ ही
फूलों में जो
रस बहाता वह
एक में ही बहा
देगा। वह जवाब
देगा, वह
कहेगा कि समझा
क्या है! अगर
तुम्हारी कोई
आदत है, तो उसके
पीछे
श्रृंखला है।
उसकी जड़ें हैं,
पत्ते हैं,
डालें हैं,
वृक्ष है।
और जड़ें छिपी
हैं भूमि के
अंदर गर्भ
में। ऐसे ही
मनुष्य के
पिछले जन्मों
में मनुष्य की
जड़ें छिपी
हैं।
तो
बुद्ध सदा
कहते थे कि आज
ही ऐसा करता
है, ऐसा
नहीं, आज
ही तो कैसे
करेगा!
अकस्मात कुछ भी
नहीं होता, अनायास कुछ
भी नहीं होता।
सब चीजें सकारण
हैं। उनके
पीछे कारण की
श्रृंखला है।
पहले
भी ऐसा ही
करता था।
जन्म—जन्म
इसने ऐसे ही
गंवाए हैं।
जितनी शक्ति
इसने दूसरों
की निंदा और
स्वयं की
प्रशंसा में
व्यय की है, उतनी
शक्ति से यह
कभी का
निर्वाण का
अधिकारी हो
गया होता।
भिक्षुओ, इससे
सीख लो।
दूसरों की
निंदा, दूसरों
का नहीं, अपना
ही अहित है।
क्योंकि
दूसरों की
निंदा में तुम
जो शक्ति व्यय
कर रहे हो, उससे कुछ
भी तुम्हारा
लाभ होने वाला
नहीं। और जो
शक्ति गयी, गयी। व्यर्थ
गयी। उसका कुछ
सृजनात्मक
उपयोग करो।
जितनी बात तुम
निंदा करने
में व्यय कर
रहे हो, उतने
में भजन भी हो
सकता था। उतनी
ही शक्ति से ओंकार
का नाद भी हो
सकता था।
जितनी देर
तुमने गर्गलेयौ
दीं, उतनी
देर जप भी हो
सकता था। और
जिस हाथ की
ऊर्जा से
तुमने किसी पर
पत्थर फेंका,
वही हाथ की
ऊर्जा माला के
मनके भी फेर सकती
थी। ऊर्जा तो
वही है। ऊर्जा
में तो कोई भेद
नहीं है।
मैं
एक उल्लेख पढ़
रहा था। एक
मनोवैशानिक
एक मित्र से
मिला और मित्र
को अल्सर हो
गया था। मित्र
एक
राजनीतिज्ञ
है। अब
राजनीतिज्ञ
को अल्सर न हो
यह बड़ी कठिन
बात है! तो
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, तुम ऐसा करो,
निक्सन का
तुम्हारा जो
विरोध है, वही
इस अल्सर का
कारण है—वह
निक्सन
विरोधी था, वह निक्सन
को उखाड़ने में
लगा था—तो तुम
एक काम करो कि
तुम रोज रात
एक तकिए पर
बड़े—बड़े
अक्षरों में
निक्सन लिख लो,
फोटो लगा दो
निक्सन की, और मारो, अच्छी
पिटाई करो। जब
तुम्हारा मन
भर जाए, तब
सो गए। इससे
काफी राहत
मिलेगी। नहीं
तो तुम्हारे
भीतर घुमड़ता
रहता है, घुमड़ता
रहता है, घुमड़ता
रहता है, वही
अल्सर बन रहा
है।
वह
राजनीतिज्ञ
हंसा, 'उसने
कहा, तुमने
समझा क्या है?
यह मुझे पता
है कि तकिया
निक्सन नहीं
है। मैं तो
असली निक्सन
को जब तक न पीट
लूं, तब तक तृप्ति
नहीं हो सकती,
अल्सर रहे
कि जाए। तकिया
तकिया है, तुम
किसको धोखा दे
रहे हो? तो
उस
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, फिर
ऐसा, अगर
ऐसा ही है तो
तुम लकड़ी
काटना शुरू कर
दो।
यह
बात आयी—गयी
हो गयी। चार
महीने बाद, —संयोग की
बात, उस
राजनीतिज्ञ
ने लकूडी तो
काटी भी नहीं,
लेकिन चार
महीने बाद
किसी मित्र के
साथ पहाड़ पर विश्राम
को गया। और उस
पहाड़ी स्थान
पर जहां वे
रुके थे, न
बिजली का
इंतजाम था, न कुछ। तो
लकड़ियां
काटनी पड़ी।
लकड़ियां
काटकर ही घर
को गरम भी
करना, पानी
भी उबालना, खाना भो
बनाना, तो
उसने लकड़ियां
काटीं। वह एक
महीने पहाड़ पर
था, लकड़ियां
काटता रहा। जब
लौटकर आया और
डाक्टरों को
दिखाया तो
उन्होंने कहा,
चमत्कार!
तुम्हारे
अल्सर खो गए।
तब उसे याद आया
कि उस
मनोवैज्ञानिक
ने, मेरे
मित्र ने कहा
था कि फिर
लकड़िया काटने
लगो।
तो
लकड़ियां
काटने से
अल्सर कैसे खो
गए। ऊर्जा तो
वही है। अगर
भीतर घुमडूती
रहे तो अल्सर
बन सकती है, बाहर
निकल जाए तो
लकड़ी काट सकती
है। तुम्हारे पास
ऊर्जा एक ही
है। इससे ही
तुम गाली देते
हो, इसी से
तुम
प्रभु—स्मरण
करते हो। यही
ऊर्जा धन की
तलाश में जाती
है, यही
ऊर्जा ध्यान
की तलाश करती
है। यही ऊर्जा
संसार बनती, यही ऊर्जा निर्वाण
बन जाती।
इसलिए
बुद्ध ने कहा, इतनी
शक्ति अगर
इसने अपनी खोज
में लगायी
होती तो अब तक
भगवत्ता को
उपलब्ध हो
गया होता, भगवान
हो गया होता।
इससे
कुछ सीख लो, अपनें पर
दया करो।
बुद्ध
सदा कहते थे, अपने पर
दया करो। वह
नहीं कहते थे,
दूसरों पर
दया करो।
दूसरों पर तुम
कैसे दया
करोगे, जब
तक अपने पर ही
दया नहीं की!
जो आदमी अपने
पर ही नाराज
है, वह
पूरे संसार से
नाराज रहेगा।
औरे जो आदमी
अपने पर दया
करता है, वह
किसी पर नाराज
न रहेगा।
जिसजे अपने को
प्रेम करना
सीख लिया, वह
सारे संसार को
प्रेम करना
सीख लेगा।
मैं
भी तुमसे यही
कहता हूं कि
अपने को प्रेम
करो, अपने
पर दया करो।
तुमने अपनी
खूब हानि की
है। और अक्सर
तुम सोचते हो,
दूसरों की
हानि कर रहे
हो, तभी
तुम अपनी हानि
कर रहे होते
हो। तुमने
जो—जो पत्थर
दूसरों पर
फेंके हैं, वे तुम्हारी
छाती में ही
चुभ गए हैं।
और तुमने जो
तीर दूसरों को
मिटाने के लिए
चलाए हैं, उन्हीं
का विष
तुम्हें खाए
जा रहा है।
तुमने जो
गड्डे दूसरों
के लिए खोदे
हैं, उन्हीं
में तुम गिर
गए हो। इस जगत
में तुम जो गड्डे
दूसरों के लिए
खोदते हो, वे
अंततः
तुम्हारी ही
कब्र सिद्ध
होते हैं।
अपने
पर दया करो और
अपने अकल्याण
से बचो।
मनुष्य अपना
ही शत्रु और
अपना ही मित्र
है। अगर तुम
अपनी ऊर्जा का
सम्यक उपयोग
कर लो तो
मित्र, असम्यक
उपयोग करो तो
शत्रु।
उस
युवक ने बड़े
क्रोध से कहा, कोई दान न
दे तो हम कैसा
भाव रखें?
उसको
लगा होगा, यह क्या
फिजूल बात कर
रहे हैं! कोई
दान न दे तो हम
कैसा भाव रखें
' जैसे कि
दान देना
दूसरों का
कर्तव्य ही
है। देना ही
चाहिए।
तुमने
देखा, कभी
भिखारी
दरवाजे पर आकर
खड़ा हो जाता
है, अगर न
दो तो वह
तुम्हें पापी
समझता है। न
दो, तो वह
इस तरह जाता
है जैसे तुम
जैसा जघन्य
अपराधी उसने
कभी नहीं
देखा। जैसे कि
यह तो बड़ी कृपा
थी उसकी कि
उसने
तुम्हारे
द्वार पर
भिक्षा मांगी।
तुम पर बड़ा
अनुग्रह किया
था उसने।
धीरे—धीरे लोग
भिक्षा
मांगने तक को,
तुम पर
अनुग्रह कर
रहे. हैं, ऐसी
धारणा बना
लेते हैं।
कोई
दान न दे तो हम
कैसा भाव रखें? कोई
दुतकारे तो हम
कैसा भाव रखें?
और कोई हमें
दान न दे और
दूसरों को दे
तो हम कैसा
भाव रखें? उस
दिन उसने
भगवान को
भगवान कहकर भी
संबोधित नहीं
किया। मनुष्य
की श्रद्धाएं
भी कितनी छिछली
हैं।
जब
तुम्हारे
अनुकूल हो
तुम्हारा
गुरु तो भगवान, जब
तुम्हारे
प्रतिकूल पड़
जाए तो फिर
कैसा भगवान!
इधर मुझे रोज
ऐसे मौके आते
हैं। अगर मैं
जो कहूं वह
तुम्हारे
अनुकूल पड़ता
हो, तुम
बड़े खुश! तुम
मुझसे खुश
नहीं, तुम
इस बात से खुश
कि तुम्हारे
अहंकार के
अनुकूल पड़ गयी
कोई बात। और
निरंतर मुझे
ऐसी बातें कहनी
पड़ेगी जो
तुम्हारे
अहंकार के
अनुकूल नहीं
पड़ सकती हैं, नहीं पड़नी
चाहिए। वह तो
भूल—चूक से
कोई बात
तुम्हारे
अहंकार के
अनुकूल पड़
जाती है।
संयोग की बात
समझना। वह
प्रयोजन नहीं
था।
यहां
इतने लोग बैठे
हैं, तो
किसी के
अनुकूल पड़
जाती है। मगर
प्रयोजन तो
यही कि
तुम्हारा
अहंकार सब तरह
से भस्मीभूत हो
जाए।
धूल—धूसरित हो
जाए, खंडित
हो जाए, ऐसा
गिरे कि फिर कभी
उठ न सके।
निष्प्राण हो
जाए। तो जब भी
तुम्हें चोट
लगती है तो
नाराज हो जाते
हो। तुम्हारी
नाराजगी में
फिर कौन गुरु!
फिर कोई गुरु
नहीं।
उस
दिन उसने
भगवान को
भगवान भी नहीं
कहा। मनुष्य
की श्रद्धाएं
कितनी छिछली
हैं।
इस
पृष्ठभूमि
में बुद्ध ने
ये गाथाएं
कहीं—
'लोग अपनी
श्रद्धा—
भक्ति के
अनुसार देते
हैं।’
बुद्ध
ने कहा, तुझे देना
ही चाहिए किसी
को, ऐसा
नहीं है। उनकी
जितनी
श्रद्धा, उनकी
जितनी भक्ति,
उस हिसाब से
देते हैं।
उनके पास
कितना है, उस
हिसाब से देना
चाहिए, यह
भी सवाल नहीं
है। तू कौन है
इस तरह के
सवाल उठाने
वाला! किसी के
पास करोड़ हैं
और एक पैसा
देता है, तो
तू यह नहीं कह
सकता कि यह
कृपण है, क्योंकि
करोड़ों रुपए
हैं और एक
पैसा देता है।
एक पैसा दिया,
इतना भी
क्या कम है!
इसके लिए भी
अनुगृहीत होना
चाहिए कि उसने
एक पैसा भी
दिया। न देता,
तो कोई
कानूनी
अधिकार थोड़े
ही है उसके
ऊपर। एक पैसा
भी दिया तो
बहुत है।
बुद्ध
के जीवन में
एक उल्लेख है।
वह एक द्वार पर
भिक्षा मांग
रहे हैं और उस
द्वार का
दरवाजा खुला
और गृहिणी ने
कहा, आगे
हटो! तो वह आगे
हट गए। पास का
एक पड़ोसी ब्राह्मण
यह देख रहा
है। दूसरे दिन
फिर उसी द्वार
पर उन्होंने
भिक्षा मांगी,
और वह
स्त्री अब तो
बहुत ही
गुस्से में आ
गयी। वह कचरा
साफ करके कचरा
फेंकने जा रही
थी, उसने
सारा कचरा
बुद्ध पर फेंक
दिया और कहा
कि तुझे कुछ
बुद्धि नहीं
है! समझ नहीं
है! कल मैंने
भगाया फिर आ
गया, अब यह
ले। बुद्ध आगे
बढ़ गए।
अब उस
ब्राह्मण को
भी दया आयी इस
पर। ऐसे दया
कारण नहीं थी, आनी नहीं
थी, क्योंकि
ब्राह्मण तो
बुद्ध पर बहुत
नाराज थे। मगर
उसे दया आयी
कि बेचारा!
मगर यह है
क्या बात, कल
इसने हटा दिया,
मैंने सुना;
और आज इस पर
कचरा भी फेंक
दिया, यह
है कैसा आदमी!
और जब
उसने तीसरे
दिन फिर बुद्ध
को उस दरवाजे
पर खड़ा देखा
तो वह घबड़ाया।
उसने कहा, अब तो वह
स्त्री कहीं
अंगारा न फेंक
दे, या कोई
और तरह की चोट
न कर दे। वह
आया, उसने
कहा कि महाशय!
आपको समझ नहीं
है? मैं
तीन दिन से
देख रहा हूं।
पहले दिन उसने
इनकार करके
हटा दिया
अपमानपूर्वक.,
आप चुपचाप
चले गए, दूसरे
दिन कचरा
फेंका आज आप
फिर आ गए ' कचरा
फेंका तब आपको
कुछ समझ में
नहीं आया कि इससे
कुछ मिलने
वाला नहीं है?
बुद्ध ने
कहा, उससे
ही तो खयाल
आया कि चलो
कुछ तो दिया, कचरा दिया!
पहले दिन भी
तो कुछ दिया
था—नाराज हुई
थी, वह भी
तो कुछ देना
है। अन्यथा
नाराज होने का
भी क्या कारण
है! कुछ न कुछ
लगाव होगा।
नाराज ही सही,
जो आज नाराज
है, कल
शायद न नाराज
भी रह जाए।
आदमी बदलते
हैं।
और
वह ब्राह्मण
तो चकित रह
गया। उस
स्त्री ने दंरवॉंजा
खोला, उसने
भी चौंककर
देखा! उसने
कहा, भिक्षु,
कल कचरा
फेंका, तुम्हें
समझ नहीं आया?
बुद्ध
ने कहा, समझ में आया,
इतनी मेहनत
की कचरा
फेंकने की, तो किसी दिन
शायद कुछ मिल
ही जाए। उस
स्त्री की
आंखों में आसू
आ गए। उस दिन
वह भोजन ले
आयी।
तो
बुद्ध कहते थे, कोई कुछ न
भी दे तो भी
धन्यवाद
देना।
क्योंकि किसी
पर हमारा कोई
अधिकार तो
नहीं है। दिया
तो धन्यवाद, नहीं दिया तो
धन्यवाद। जो
दे उसका भला, जो न दे उसका
भला, ऐसी
भावदशा
चाहिए।
'लोग अपनी
श्रद्धा—
भक्ति के
अनुसार देते
हैं। जो
दूसरों के
खान—पान को
देखकर सहन
नहीं कर सकता।
और
उस युवक से
कहा कि अगर
दूसरों को
देते हैं, तो तुझे
क्या परेशानी
है? किसी
को तो दिया!
अगर तू दूसरों
का खान—पान
देखकर सहन
नहीं कर सकता
कि दूसरे को
भोजन मिल गया,
तुझे नहीं
मिला, दूसरे
को वस्त्र मिल
गए, तुझे
नहीं मिले, तो एक बात तू
पक्की समझ कि
दिन या रात
तुझे कभी भी
समाधि उपलब्ध
न हो सकेगी।
तू कभी समाधान
को उपलब्ध न
होगा, तेरे
जीवन में कभी
ध्यान की किरण
न उतरेगी।
ध्यान
की किरण उनके
जीवन में
उतरती है, जो सब
भांति
संतुष्ट हैं।
जो कहते हैं, जो है, शुभ
है। जैसा है, शुभ है। सुख
में, दुख
मैं, सफलता—असफलता
में, हार—जीत
में जो कहते
हैं, जो है,
ठीक है, शुभ
है, उनके
जीवन में
समाधि फलती
है।
'जिसकी ऐसी
मनोवृत्ति
उच्छिन्न हो
गयी है, समूल
नष्ट हो गयी
है।’
असंतोष
की
मनोवृत्ति।
'वही दिन या
रात कभी भी
समाधि को
प्राप्त करता है।’
इस
सूत्र में
बहुमूल्य बात
है। अगर तुम
ध्यान को
उपलब्ध होना
चाहते हो तो
संतोष की भूमि
तैयार करो।
ध्यान की खेती
संतोष की भूमि
में ही फलती
है, लगती
है। खूब सींचो
संतोष से
प्राणों को, ताकि असंतोष
जड़ से नष्ट हो
जाए।
यस्स च तं
सम्रुच्छिन्नं
मूलघच्चं
समूहतं।
आमूल
से उखाड़ दो
असंतोष को।
सवे दिवा वा
रतिं वा समाधि
अधिगच्छति।
फिर
दिन और रात न
देखेगी समाधि, कभी भी आ
जाएगी—कभी—कभी
आ जाएगी, हर
कभी आ जाएगी, ध्यान लगने
लगेगा। पहले
झलकें आएंगी,
फिर लहरें
आएंगी, एक
दिन तुम पाओगे,
बाढ़ आ गयी
समाधि
की—अधिगच्छति—फिर
तो आकर तुम्हें
ऊपर से पूरा
का पूरा घेर
लेगी, तुम्हें
डुबा देगी।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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