श्रावस्ती का
अतुल नामक एक
व्यक्ति पांच
सौ और व्यक्तियों
के साथ भगवान
के संघ में
धर्मश्रवण के
लिए गया। वह
क्रमश: स्थविर
रेवत स्थविर
सारिपुत्र और
आयुष्मान
आनंद के पास
जा फिर भगवान
के पास पहुंचा।
ऐसी ही
व्यवस्था थी।
बुद्ध के जो
बड़े शिष्य थे, पहले लोग
उनको सुनें, समझें,
कुछ थोड़ी पकड़
आ जाए, कुछ
थोड़ा समझ आ
जाए तो फिर
भगवान को वे
जाकर
पूछ लें।
भगवान से
उसने कहा भंते
मैं इतनी
प्रबल आशा से
धर्मश्रवण के
लिए आया धा, लेकिन
रेवत स्थविर
कुछ बोले ही
नहीं चुपचाप बैठे
रहे। यह कोई
बात हुई!।
अकेला भी नहीं
पांच सौ लोगों
के साथ आया
था। हम दूर से
यात्रा करके
आए थे। बड़ा
नाम सुना था
रेवत का कि
ज्ञान को उपलब्ध
हो गए हैं
आपके बड़े
शिष्य हैं। यह
क्या बात हुई
हम बैठे रहे
और वे चुपचाप
बैठे रहे कुछ
बोले नहीं? यह तो बात
कुछ जंची
नहीं।
फिर हम
सारिपुत्र के
पास गए।
सारिपुत्र
बोले लेकिन
इतना बोले कि
सब हमारे सिर
पर से बह गया जरूरत
से ज्यादा बोल
गए। और ऐसी
सूक्ष्म— सूक्ष्म
बातें कहीं कि
हमारी पकड़ में
ही न आयीं। ऐसी
हालत आ गयी कि
बैठे—बैठे ऊब
आने लगी उबकाई
आने लगी झपकी
लग गयी कई बार
तो सो भी गए।
यह भी कोई बात
हुई? भगवाना इतना
बोलना चाहिए।
इस तरह
सूक्ष्मता की
बातें कहनी
चाहिए! हमारी
समझ में जो
पड़े वह कहो और
जितना समझ में
पड़े उतना कहो।
तुमने इतना
ज्यादा कह
दिया कि जो
थोड़ा— बहुत
समझ में पड़ता
वह भी बह गया
तुम्हारे पूर
में। यह
सारिपुत्र तो
पूर की तरह
मालूम होते
हैं बाढ़ आ
गयी। एक
चुपचाप बैठे
रहे उनसे एक
बूंद न मिली।
एक सज्जन थे
कि ऐसे बरसे
मूसलाधार कि
कुछ हाथ न लगा!
और फिर हम
उन्हें सुनने
के बाद आनंद
स्थविर के पास
गए। उन्होंने
बहुत थोड़ा
कहा। अत्यंत
सूत्ररूप जो कुछ
पकड़ में आया
नहीं। यह भी
कुछ बात हुई? भगवान! अरे कुछ
फैलाकर कहो
समझाकर कहो
कुछ दृष्टांत से
कहो कुछ
दोहराकर कहो
कि हमारी समझ
में पड़ जाए
सूत्ररूप
दोहरा दिया।
तो सूत्र तो
बड़े कठिन
हैं—बीजरूप
हमारी पकड़ में
न आए। अब हम
आपके पास आए
हैं। हम तो
उनके पास से
क्रुद्ध होकर
लौटे हैं।
भगवान ने
अतुल की बात
सुनी हैसे और
बोले अतुल यह
प्राचीन समय
से होता आ रहा
है। मौन रड़ने
वाले की भी
निंदा होती है
बहुभाषी की भी
निंदा होती है
अल्पभाषी की
भी निंदा होती
है। संसार में
निंदा नियम
है। प्रशंसा
तो लोग मजबूरी
में करते हैं।
असली रस तो
निंदा में ही
पाते हैं।
प्रशंसा भी
लोग निंदा के
आयोजन में ही
करते हैं।
पृथ्वी सूर्य
और चंद्र तक
की निंदा करते
हैं किसी की
निंदा करने से
नहीं चूकते।
मेरी ही देखो
कितनी निंदा
चलती है भगवान
ने कहा। लेकिन
मूड क्या कहते
हैं यह
विचारणीय
नहीं है। और
तब उन्होंने यह
गाथा कही—
पोराणमेतं
अतुल! नेतं
अज्जनामिव।
निन्दन्ति
तुम्हीमासीनं
निन्दन्ति
बहुमाणिनं।
मितभाणिनम्पि
निन्दन्ति
नत्थि लोके
अनिन्दितो।।
'हे अतुल, यह
पुरानी बात है,
यह कोई आज
की नहीं, कि
लोग चुप बैठे
की निंदा करते
हैं, बहुत
बोलने वाले की
निंदा करते
हैं, मितभाषी
की भी निंदा
करते हैं; लोक
में अनिदित
कोई भी नहीं
है।’
आदमी
बड़ा अजीब है।
आदमी निंदा के
रस में बड़ा डूबा
है। तुम कोई न
कोई बहाना
निंदा करने का
खोज ही लोगे।
अब कोई चुप
बैठा है तो
निंदा। क्योंकि
बोलते क्यों
नहीं? कोई
बोल रहा है तो
निंदा।
क्योंकि
ज्यादा बोल रहा
है। कोई अल्प
बोल रहा है तो
निंदा।
क्योंकि
समझाकर नहीं
बोल रहा है।
तुमने
कहानी सुनी? एक आदमी
अपनी पत्नी के
साथ अपने गधे
को लेकर कहीं
जा रहा था।
राह में कुछ
लोग मिले।
दोनों पैदल चल
रहे थे, क्योंकि
दो गधे थे नहीं,
एक गधा था।
और गधा कमजोर
था और दो को
सम्हाल नहीं
सकता था। उन
आदमियों ने
कहा, हइ के
मूरख मालूम
होते हो, गधे
को किसलिए लिए
हो, और
बैठते क्यों
नहीं! यह गधे
को काहे के
लिए चल रहे हो?
यात्रा पर
जा रहे हो, गधे
पर बैठो। तो
उस आदमी ने
कहा कि म्लू
बनने से तो
यही बेहतर है,
गधे पर बैठ
जाएं; तो
वह गधे पर बैठ
गया, पत्नी
उसकी नीचे
साथ—साथ चलने
लगी।
दूसरी
भीड़ मिली, उन्होंने
कहा, हइ हो
गयी, यह
मूरख देखो, पत्नी को
चलवा रहा है
पैदल, खुद
गधे पर बैठे
हैं! अरे मर्द
बच्चा होकर
चलता नहीं है
नीचे! स्त्री
को ऊपर बिठा!
उसने कहा, यह
बात भी ठीक
है। तो वह
नीचे चलने लगा,
स्त्री को
ऊपर बिठा
दिया।
फिर
कुछ लोग मिले, उन्होंने
कहा, यह
देखो मजा! आ
गया कलियुग, स्त्री गधे
पर बैठी है, पति नीचे चल
रहा है! अरे, पति
परमात्मा है!
तो उन्होंने
कहा, अब
क्या करना, बड़ी मुसीबत;
तो कहा, दोनों
ही बैठ जाओ।
तो दोनों गधे
पर बैठ गए।
थोड़ी देर बाद
फिर लोग मिले,
उन्होंने
कहा। देखो मार
डालोगे गधे को;
तुम गधे
मालूम होते हो,
गधे की जान
निकली जा रही
है, कमर
झुकी जा रही
है, दो—दो
चढ़े बैठे हो!
शरम नहीं आती?
आखिर पशुओं
में भी प्राण
हैं!
तो
उन्होंने कहा, अब क्या,
करना क्या!
तो उन्होंने
कहा, अब एक
ही उपाय बचा
है कि हम गधे
को लेकर चलें,
क्योंकि और
तो सब उपाय कर
देखे। तो एक
रस्सी में गधे
को बांधकर, उसकी टागों
में रस्सी
डालकर, डंडा
पिरोकर कंधे
पर रखकर दोनों
चले।
थोड़ी
दूर गए थे कि
फिर लोग मिल
गए। उन्होंने
कहा, यह
क्या कर रहे हो?
होश है? हमने
आदमी देखे गधे
पर चढ़े, मगर
गधा आदमी पर
चढ़ा नहीं देखा,
तुम कर क्या
रहे हो?
यह
पुरानी
पंचतंत्र की
कथा है। मगर
सार्थक है।
ऐसी ही दशा
है। यहां अगर
तुम लोगों की
मानकर चलते
रहो तो तुम
जीवन में कभी
भी थिर न हो
सकोगे। चुप
हुए तो लोग
निंदा करेंगे, बोले तो
निंदा
करेंगे। कुछ
भी करो, लोग
निंदा
करेंगे। इस
सूत्र का अर्थ
क्या है? इस
सूत्र का अर्थ
है कि निंदा
का रस जिसको
लेना है वह
कारण खोज
लेगा। इसलिए
तुम निंदा
करने वालों की
चिंता मत
करना।
इसलिए
बुद्ध कहते है, मूढ़ क्या
कहते हैं, इस
पर ध्यान देने
की जरूरत भी
नहीं
है।
मूढ़ तो मूढ़ता
की बातें कहते
रहेंगे। तुम तो
वही करना जो
तुम्हारी
प्रज्ञा
तुम्हें करने
को कहे।
तुम्हें अगर
चुप बैठना ठीक
लगे तो चुप
रहना, चाहे
लोग कुछ भी
कहें।
तुम्हें
बोलना ठीक लगे
तो बोलना, चाहे
लोग कुछ भी
कहें।
तुम्हें
अल्पभाषण ठीक लगे
तो अल्पभाषण
करना, और
तुम्हें धारा
बहानी हो बाहर
की तो धारा
बहाना। तुम
लोगों की
चिंता मत लेना
कि लोग क्या कहते
हैं।
तुम
अपने जीवन के
मालिक हो। तुम
अपने जीवन को अपने
ढंग से जीना।
तुम तुम हो, और तुम
इसकी फिकर मत
करना कि लोगों
का मत क्या है।
मत की फिकर की,
तो तुम्हें
वे पागल बनाकर
छोड़ेंगे।
जिसने
लोगों के मत
की फिकर की, वह दो
कौड़ी का होकर
मरता है।
लोगों के मतों
की फिकर ही मत
करना। तुम
अपने भीतर की
शांति से, अपने
भीतर के आनंद
से अपने भीतर
के बोध से जीना।
जो तुम्हें
ठीक लगता हो, उसे करना।
और उसे
रोज—रोज बदलना
भी मत।
अगर
बदलना भी कभी
पड़े तो अपने
ही भीतर के
बीध से बदलना, लोगों के
बोध के कारण
नहीं। लोग
क्या कहते हैं,
इस चिंता
में मत पड़ना।
तो ही तुम
कहीं पहुंच पाओगे।
नहीं तो तुम
कहीं भी न
पहुंच पाओगे।
तुम
दक्षिण गए, लोग
कहेंगे, कहां
जा रहे हो, दक्षिण
में क्या रखा
है? तुम
उत्तर गए, लोग
मिल जाएंगे, कहेंगे, उत्तर
में क्या रखा
है, कहां
जा रहे हो? तुम
पश्चिम जाओ तो
लोग मिल
जाएंगे, पूरब
जाओ तो लोग
मिल जाएंगे।
सब दिशाओं में
लोग हैं, और
सब दिशाओं के
पक्षपाती और
सब दिशाओं के
खिलाफ कोई न
कोई मिल
जाएगा।
तुम्हें कुछ
भी न करने
देंगे लोग।
तुम्हें
अगर जीवन में
कुछ पाना हो, कोई
सिद्धि, कोई
उपलब्धि, अगर
जीवन के रस से
तुम्हें कुछ
निचोड़ना हो, कोई सुगंध, तो तुम अपनी
धुन में रमे
रहना। एक बात
इस सूत्र से
निकलती है।
और
दूसरी बात—कि
दूसरे क्या कर
रहे हैं, इसका तुम
निर्णय मत
करना। तुम इस
निंदा में मत पड़ना
कि वे ठीक कर
रहे हैं कि
गलत कर रहे
हैं, कौन
जाने! वे
जानें, उनका
जानें। न तो
तुम दूसरों को
बाधा देने देना
अपने काम में,
और न दूसरों
के काम में
बाधा देना।
दुनिया काफी
सुंदर हौ सकती
है, अगर
लोग एक—दूसरे
के कामों में
बाधा न दें, मंतव्य न
दें, निर्णय
न दें।
प्रत्येक
व्यक्ति को
स्वयं होने का
अधिकार है। और
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपनी
जीवन—दिशा खोजने
का जन्मसिद्ध
अधिकार है।
होना चाहिए।
तुम
दोनों बातों
का स्मरण
रखना। न तो
दूसरे पर बाधा
देना कि तुम
क्या कर रहे
हो, कैसा
कर रहे हो, तुम्हें
ऐसा नहीं करना
चाहिए—तुम किसी
के नियंता
नहीं हो, मालिक
नहीं हो। उसे
अपने ढंग से
जीने दो, उसे
परमात्मा को
अपने ढंग से
खोजने दो। और
न तुम किसी को
अपना मालिक
बनाना। कोई
तुम्हारा मालिक
नहीं है।
इस
प्ररम स्वतंत्रता
में जो जीता है, वही एक दिन
अपने भीतर के दीए
को खोज
पाता
है, जला
पाता है।
उसी को
बुद्ध ने कहा
है—अप्प दीपो
भव,
अपने दीए बनो।
आज
इतना ही।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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