एक स्वर्णकार
मरणशध्या पर
था। स्वभावत:
मृत्यु से
बहुत भयभीत
क्योकि मृत्यु
के लिए कोई
तैयारी तो की
नहीं थी। कोई
भी करता नहीं।
जीवन ऐसे ही
बीत जाता है
और आखिरी घड़ी जब
करीब आती है
तब बेचैनी
होती है। उस
दूर की यात्रा
के लिए कुछ
आयोजन तो किया
नहीं था। बहुत
घबड़ाने लगा।
उसके बेटों ने
अपने पिता के
जीवन के लिए
भिक्षुसंघ के
साथ भगवान को
नियंत्रित
करके दान
दिया।
भोजनोपरांत
पुत्रों ने
कहा भंते इस
भोजन को हम
लोगों ने पिता
के जीवन के
लिए दिया है
आप उन्हें
आशीष दें। आशीष
दें कि उनकी
आयु लंबी हो।
मरता
हुआ आदमी, मरणशथ्या
पर पड़ा आदमी
अभी भी
आकांक्षा
जीवन की ही
करता है। तो
इसका अर्थ हुआ
कि जीवन से
कुछ सीखा
नहीं। इसका
अर्थ हुआ कि
जीवन की व्यर्थता
दिखायी नहीं
पड़ी। इसका
अर्थ हुआ कि जीवन
जीआ ही नहीं।
अन्यथा
व्यर्थता
दिखायी पड़ ही
जाती।
बुद्धपुरुषों
के पास जाकर
भी लोग व्यर्थ
की ही मांग
करते हैं।
आशीष भी
मांगते हैं तो
असार के लिए
मांगते हैं।
उसके
पुत्रों ने
कहा आशीष दें
भगवान कि
हमारे पिता की
आयु लंबी हो।
बुद्ध हंसे और
उन्होंने
मरणशव्या पर
पड़े वृद्ध से
कहा उपासक अब
तू जीवन का
मोह छोड़।
जीवेषणा
मूढ़ता है। अब
तो कम से कम
मूढ़ता छोड़। अब
तो कम से कम
होश सम्हाल।
अब तो जाग तू
बूढ़ा हुआ तेरा
शरीर पीले
पत्ते के समान
पक गया है और
परलोक की
यात्रा के लिए
तेरे पास कोई
पुण्य—पाथेय
नहीं है।
मांगना हो तो
उस संबंध में
कुछ मांग।
जिस
यात्रा के लिए
तू चला है, उस
यात्रा के लिए
कलेवा भी तेरे
पास नहीं है और
यात्रा लंबी
है।
पुण्य—पाथेय
तेरे पास नहीं।
तेरी गठरी
खाली है। यह
जीवन तो गया, तू पीले
पत्ते की
भांति हो गया
है, अब
गिरा, तब
गिरा, जरा
सा हवा का
झोंका
पर्याप्त
होगा और अभी
भी तू वृक्ष
से चिपटे रहना
चाहता है। अब
तैयारी कर
वृक्ष से
गिरने की। और
यह यात्रा जिस
पर तू निकलेगा
मृत्यु के बाद,
लंबी है।
देह छूट जाएगी,
देह से जो
कमाया था वह
भी छूट जाएगा।
कुछ ऐसा कमाया
है जो देह के
पार, देह
के बिना तेरे
साथ जा सकता
हो?
उसे
ही हम पुण्य
कहते हैं।
पुण्य का अर्थ
है, कुछ
ऐसी कमाई जो
मौत न छीन
सके। पुण्य का
अर्थ है, कुछ
ऐसी कमाई जो
देह की नहीं
है, देहातीत
है। ध्यान की
है, समाधि
की है। कुछ
ऐसी कमाई जो
आत्मिक है, जो आत्मा के
साथ चलेगी।
उसको
पुण्य—पाथेय
कहते हैं।
पाथेय का अर्थ
होता है, यात्रा
के लिए कलेवा।
रास्ते में
भूख लगेगी तो
कुछ पाथेय
होना चाहिए।
तो
बुद्ध ने कहा
कि परलोक की
यात्रा के लिए
तेरे पास कोई
पुण्य—पाथेय
नहीं है और अब
भी तू जीवन की
आकांक्षा
करता है! और अब
भी तू मांग
रहा है कि और
लंबा जीवन
मिले! इतने
लंबे जीवन से
क्या पाया? का काफी
का था, सौ
वर्ष का होगा।
इतने लंबे
जीवन से क्या
पाया? अब
मूढ़ता छोड़। सौ
वर्ष में नहीं
मिला तो दों—चार
वर्ष और जी
लेगा तो क्या
मिलेगा? सौ
वर्ष में
गंवाया ही, तो दो—चार
वर्ष में और
थोड़ा गंवा
लेगा, और
क्या होगा?
बुद्ध
ने कहा, अब जीवन की
नहीं, अपनी
खोज कर। अब
अपनी
प्रतिष्ठा
कर। अपना केंद्र
खोज। उसे खोज
जो अमृत है।
मौत से जूझने
का वही उपाय
है। मौत से
जूझने का उपाय
जीवन नहीं है,
क्योंकि
जीवन को तो
मौत जीत ही
लेती है, सदा
जीत लेती है।
देखा, चिकित्साशास्त्र
ने कितना
विकास कर लिया
है, आदमी
को कितनी
औषधियां
उपलब्ध हो गयी
हैं, लेकिन
मृत्यु की दर
तो सौ प्रतिशत
की सौ प्रतिशत
है। जितने
आदमी पैदा
होते हैं उतने
आदमी मरते
हैं। मृत्यु
की दर सौ
प्रतिशत ही
रहेगी। मृत्यु
की दर कभी कम
नहीं होने
वाली। चाहे
दवाएं हों, चाहे आयोजन
हों, आदमी
थोड़ा लंबा जी
लेगा, लेकिन
मौत तो आनी ही
है। ऐसा कभी
भी न हुआ कि मौत
निन्यानबे
प्रतिशत हो, कि सौ बच्चे
पैदा हों और
निन्यानबे
आदमी मरें और
एक बच जाए।
मृत्यु—दर
सुनिश्चित
है।
जीवन
में तूने पाया
क्या, बुद्ध
उससे पूछने
लगे। यह बात
बड़ी कठोर है।
मरते आदमी से ऐसी
बात पूछनी
नहीं चाहिए।
मरते आदमी को
तो हम
सांत्वना
देते हैं।
मरते आदमी को
तो हम लोरी सुनाते
हैं कि वह सो
जाए शांति से।
मरते आदमी को
हम ऐसे कठोर
शब्द नहीं
कहते। लेकिन
बुद्ध ने बड़ा
कठोर शब्द
कहा। उससे कहा,
तेरे पास
कोई
पुण्य—पाथेय
नहीं, अपनी
प्रतिष्ठा कर,
अपना
केंद्र खोज, स्व में रम, प्रज्ञावान
हो, अब और
मूर्ख मत बन, स्वप्नों से
जाग। जीवन
मात्र एक
स्वप्न है। संत
सांत्वना
नहीं देते। और
जो सांत्वना
दे, वह संत
नहीं है, इसे
समझ लेना।
हालांकि तुम
जिन्हें संत
कहते हो, वे
सांत्वना
देने का ही
काम करते हैं।
और तुम नन्हें
पूजते भी
इसीलिए हो कि
वे सांत्वना
देते हैं।
तुम्हारे
सुख—दुख में
थपकी देते
हैं। तुम्हें
भुलाए रखते
हैं, भरमाए
रखते हैं।
तुमसे कहते
चले जाते हैं,
सब ठीक है, घबडाओ न, सब
ठीक हो जाएगा।
संत
सांत्वना
देते ही नहीं, संत तो
सत्य देते
हैं। और सत्य
सदा कठोर है।
सत्य सदा कठोर
है, जब मैं
ऐसा कहता हूं
तो इसका अर्थ
ठीक से समझ लेना।
सत्य अपने आप
में कठोर नहीं
है, लेकिन
तुम इतना
असत्य में जीए
हो, इसलिए
सत्य 'कठोर मालूम
होता है।
तुमने अपना
सारा जीवन असत्य
कर लिया है, इसलिए सत्य
की चोट गहरी
पड़ती है। भिद
जाती है प्राणों
तक। सत्य को
तुम सह नहीं
पाते, क्योंकि
तुमने असत्य
को ही सहने का
अभ्यास किया है।
सत्य
तो होता है
नग्न, उस
पर कोई वस्त्र
नहीं होते। और
न सत्य कोई मुखौटे
मुगेढूता है।
और न सत्य
तुम्हारे
अनुकूल होने
की कोई चेष्टा
करता है।
तुम्हारे अनुकूल
तो जो सत्य
होगा तो असत्य
हो जाएगा। तुम
असत्य हो, तुम्हारे
अनुकूल सत्य
हुआ कि असत्य
हुआ। और सांत्वना
तुम्हें उसी
से मिलती है
जो तुम्हारे
अनुकूल हो। जो
तुम्हारे
प्रतिकूल हो,
उससे चोट
लगती है। खयाल
रखना, सत्य
में कोई चोट
नहीं है, क्योंकि
तुमने असत्य
का अभ्यास कर
रखा है, इसलिए
चोट है। सत्य
जटिल नहीं है।
सत्य तो बड़ा
सरल है। लेकिन
तुम जटिल हो।
सत्य तो सीधा,
साफ—सुथरा
है। लेकिन तुम
बड़ी उलझन और
बड़ी गांठों से
भरे हो। तो
सत्य की चोट
लगती है।
संत
चोट करते हैं।
क्योंकि चोट
ही एकमात्र आशा
है, चोट
में ही
आश्वासन है, शायद तुम जग
जाओ। इसलिए
संतों को हम
धन्यवाद भी
नहीं दे पाते।
और जब तक हम
धन्यवाद देने
को तैयार होते
हैं, तब तक
संत जा चुके
होते हैं।
जीसस को तुमने
धन्यवाद दिया '
बुद्ध को
तुमने
धन्यवाद दिया?
ही, फिर मर
जाने के बाद
तुम हजारों
साल तक पूजा
करते हो। यह
पश्चात्ताप
है। तुम्हारी
पूजा पश्चात्ताप
है। तुम
पश्चात्ताप
करते हो कि हंम
धन्यवाद नहीं
दे पाए, चूक
गए। और यह सदा
हुआ है।
असंतों
की तुम पूजा
करते हो। तुम
जरा अपने मन की
बात पहचानना, परखना।
तुम किसे संत
कहते हो 'जिसके
पास जाकर
तुम्हें
सांत्वना मिल
जाए।
तुम्हारा संत
सांत्वना का
नाम है। जो
तुम्हारी पीठ
थपथपा दे। जो
तुमसे कह दे, घबड़ाओ मत।
जो तुमसे कह
दे, मेरा
हाथ तुम्हारे
सिर. पर है। जो
तुमसे कह दे, मेरी आशीष
तुम्हारे साथ
है। जो तुमसे
कह दे कि
प्रार्थना कर
लो, परमात्मा
सब ठीक कर
देगा। कि यह
मंत्र जप लो, कि यह ताबीज
ले लो, इससे
सब ठीक हो
जाएगा। जो
तुम्हें
सस्ते नुस्से
दे देता है।
और सस्ते
नुस्सों में
तुम सो जाते
हो।
जो
तुम्हें
सांत्वना
देता है, वह तुम्हारा
दुश्मन है।
क्योंकि उसकी
सांत्वना के
कारण ही तुम
जागोगे नहीं।
उसकी सांत्वना
एक तरह की
शामक दवाई है,
ट्रैक्येलाइजर
है। अच्छी
लगती है, मीठी
लगती है। पर
जो मीठा लगता
है, वह सभी
अमृत थोड़े ही
होता है। सच
तो यह है कि जिसको
भी तुम्हारे
गले के भीतर
जहर उतारना हो,
उसे जहर पर
मिठास का लेप
करना पड़ता है।
सांत्वना
मीठा जहर है।
मारेगा; इससे
तुम जागोगे
नहीं।
इसलिए
बुद्धपुरुष
चोट करते हैं।
उनके वचन तीर
की तरह छिद
जाते हैं।
जिनमें
सामर्थ्य
होती है सहने
की, वे
रूपांतरित हो
जाते हैं और
जो कायर हैं, भाग खड़े
होते हैं। वे
नाराज हो जाते
हैं सदा के
लिए। वे फिर
कभी बुद्ध के
चरणों में
नहीं आते। वे
कभी उनके पास
नहीं फटकते।
वे सदा के लिए
दुखी होकर
नाराज हो जाते
हैं, वे
दुश्मन हो
जाते हैं।
तुम
जरा खयाल करना, तुम अपने
मित्रों के
दुश्मन हो
जाते हो, अपने
दुश्मनों को
अपना मित्र
समझ लेते हो
बुद्ध से कभी
किसी ने कहा
था कि आप इतनी
कठोर बातें कह
देते हैं; तो
बुद्ध ने कहा,
क्योंकि
मैं तुम्हारा
कल्याण—मित्रु
हूं—यह बड़ा
प्यारा शब्द बुद्ध
ने उपयोग किया,
कल्याण—मित्र—अन्यथा
मुझे क्या
प्रयोजन है कि
तुम्हें चोट
करूं।
तुम्हें चोट
करने में मुझे
कुछ मजा नहीं
आ रहा है।
करुणा के कारण
चोट कर रहा
हूं, कल्याण—मित्र
हूं।
जरा
सोचो यह घटना, आदमी मर
रहा है, अभी
तो उससे कहना
था, बिलकुल
न घबड़ाओ, अभी
कहां मौत! अभी
तो तुम जवान
हो, अभी तो
तुम्हारे
चेहरे पर कैसी
रौनक जवानी की,
अभी कहां
मरना है! अभी
उठ बैठोगे, सब ठीक हो
जाएगा।
बीमारी है, आयी है, चली
जाएगी, घबड़ाओ
मत। और
तुम्हारा
पुण्य तो काफी
बड़ा है। इतने
बड़े पुण्य से
तुम्हारी
रक्षा होगी
ही। परमात्मा
तुम पर प्रसन्न
है। ऐसा बुद्ध
कहे होते तो
शायद यह का प्रसन्न
होता, शायद
और दान दिया
होता। और
दों—चार बुद्ध
के लिए
निमंत्रित
किया होता।
लेकिन
बुद्ध ने तो
बड़ी अजीब बात
कही, उस
मरते हुए के
को कहा कि अब
तूर जीवन का
मोह छोड़। मूढ़ता
काफी हो चुकी।
सौ वर्ष कुछ
कम नहीं होते।
इतने दिन भटक
लिया अंधा
होकर, अब
तो आखें खोल।
इस जीवन में
धरा क्या है
जिसकी तू मांग
कर रहा है!
इससे मिला
क्या है? मिलेगा
क्या? कब
किसको क्या मिला
है? हाथ
आखिर राख से
भरे रह जाते
हैं। होश को
सम्हाल, बुद्ध
कहने लगे, 'कुछ
पुण्य—पाथेय
इकट्ठा कर ले,
तू बिलकुल
भिखारी है।
स्वर्णकार
बड़ा धनी था।
वह उस
श्रावस्ती
नगर का सबसे
बड़ा सुनार था, सबसे बड़ा
सर्राफ था।
उसके पास धन
बहुत था। लेकिन
बुद्ध उसे कह
रहे हैं, तू
भिखारी है, क्योंकि
तेरे पास
पुण्य—पाथेय
नहीं। तेरे पास
ध्यान तो बिलकुल
नहीं है, यह
धन क्या काम
पड़ेगा? यह
जरा भी काम
नही पड़ेगा। यह
धन तो यहीं
पड़ा रह कएगा, तुझे अकेला
जाना होगा।
कुछ एक ऐसी
बात सीख ले जो
तेरे साथ जा
सके, कोई
तेरे संग हो
सके—न पत्नी
होगी, न
बेटे होंगे, न धन होगा, न पद; न यह
बाहर से मिलने
वाली
प्रतिष्ठा
होगी, आत्मप्रतिष्ठा
कर ले, अपने
में ठहर जा; कुछ अपने
स्व को जगा ले,
ताकि मौत की
अंधेरी रात से
तू रोशनी लिए
गुजर जाए।
एक—एक
शब्द समझने
जैसा है।
उससे
कहा, तू
बूढ़ा हुआ, तेरा
शरीर पीले
पत्ते के समान
पक गया है और
अभी भी
तेरी वासना
जवान की?
इसे
खयाल करना।
शरीर तो का हो
जाता है, वासना जवान
ही बनी रहती
है। 'गैर वासना
अगर जवान बनी
रहती है तो
तुमने बाल धूप
में पका लिए।
फिर तुम्हारे
जीवन में कोई
प्रौढ़ता नहीं
है। तुम्हारे
जीवन में कुछ
समझ, कोई
सार जीवन का त,म्हारे हाथ
नहीं लगा। तुम
बूढ़े तो हो गए,
लेकिन
बचकाने के
बचकाने हो।
खयाल
करना, संत
बच्चों की
भांति हो जाते
हैं और असंत
बचकाने के
बचकाने रह
जाते हैं।
बचकानापन और
बच्चों की
भांति हो जाने
का फर्क खयाल
में ले लेना।
बचकानेपन का अर्थ
है, आदमी
बढ़ा ही नहीं।
और पुन:
बच्चों जैसे
हो जाने का
अर्थ है, आदमी
इतना बढ़ा, इतना
बढ़ा कि फिर सरल
हो गया। कि
जटिलता की
व्यर्थता
दिखायी पड़ गयी।
तो
बच्चों जैसा
हो जाना तो
बड़ा बहुमूल्य
है, अमूल्य
है; और
बचकाने रह
जाना बड़ा
दुर्भाग्य
है। बच्चों जैसे
हो जाना तो
सौभाग्य है और
बचकाने रह
जाना बड़ी से
बड़ी
दुर्भाग्य की
दशा है।
अब
यह आदमी सौ
वर्ष का हो
गया। यह पीले
पत्ते की तरह
है। जरा सा
हवा का झोंका, हवा के
झोंके की भी
जरूरत न पड़ेगी,
यह गिरेगा,
बिना झोंके
के भी गिर
जाएगा। यह
अपने पकने के कारण
ही गिरने वाला
है। मौत के
किनारे खड़ा।
घड़ी दो घड़ी की
बात है। इस
सीमा पर खड़े
होकर भी पीछे
देख रहा है, आगे नहीं
देख रहा है। जीवन
को जकड़ रहा है,
पकड़ रहा
है—और थोड़ी
देर रुक लूं
और थोड़ी देर
रुक लूं।
खयाल
करो, जब
आदमी और थोड़ी
देर रुकना
चाहता है तो
यह किस बात का
सबूत होता है?
यह इस बात
का सबूत होता
है कि जीवन को
जी नहीं पाया।
जीआ जरूर, ऊपर—ऊपर।
जीवन से पहचान
न हुई। जीवन
का सार इसके हाथ
न लगा। ऐसे ही
ऊपर से बह गया
जीवन। अगर ठीक
से जी लिया
होता, तो
अब जीवन को न
पकड़ता। अब तो
खुशी से छोड़ने
को राजी हो
जाता।
धन्यवाद देता
कि चलो ठीक
हुआ। एक
दुख—स्वभ
समाप्त हुआ, एक व्यर्थ
की दौड़ का अंत
आ गया। और यह
भविष्य की तरफ
देखता, यह
पीछे की तरफ
लौटकर नहीं
देखता।
जीवन
को पकड़ने वाला
आदमी सोचेगा, मेरे
बेटे, उनकी
शादी करनी है,
उनके बेटों
के बेटे, और
अब तो पोते भी
हो गए और नाती
और सब, इनका
क्या होगा ' इतना धन
कमाया, इसका
क्या होगा!
क्या करूंगा,
क्या नहीं
करूंगा? अभी
यह मौत बीच
में आ गयी, अभी
तो बहुत काम
अधूरे पड़े
हैं। वह पीछे
लौटता है, और
पीछे का फैलाव
देखता है।
स्वभावत: सौ
साल में उसने
हजारों बातें
शुरू कीं और
हजारों बातें
अधूरी रह गयीं,
कोई बात
पूरी तो कभी
होती नहीं।
क्योंकि एक में
से दूसरी निकल
आती है, दूसरी
में से तीसरी
निकल आती है
और अधूरी ही रहती
है। तो हजार
काम अधूरे रह
गए हैं। वह
चाहता है, थोड़ी
देर और रुक
जाता तो सब
पूरा कर लेता।
जैसे कि कोई
कभी पूरा कर
पाया है! वह
आगे नहीं देखता।
ऐसे रोते और
झींखते ही
मरता है।
इसलिए मृत्यु
से भी चूक
जाता है; जीवन
से तो चूका ही,
मृत्यु से
भी चूक जाता
है।
अगर
तुम जीवन को
जागकर देख लो
तो भी सत्य
उपलब्ध हो
जाए। अगर तुम
मृत्यु को
जागकर देख लो
तो भी सत्य
उपलब्ध हो
जाए। क्योंकि
सत्य तो जागकर
देखने में उपलब्ध
होता है; किस चीज के
प्रति जागे, इससे बहुत
अंतर नहीं
पड़ता।
इस
वृद्ध को ही
बुद्ध ने आज
के पाच सूत्र
कहे थे, ये पाच
गाथाएं——
पांड़लापसो‘व दानिसि
यमपुरिसापि च
तं
उपट्ठितिा।
उय्योगमुखे
च तिट्ठसि
पाथयम्पि च
ते न बिज्जति।।
'तू पीले
पत्ते के समान
हो गया, यमदूत
तेरे पास खड़े
हैं, तू
प्रयाण के लिए
तैयार है और
तेरे पास
पाथेय कुछ भी
नहीं है? अत:
तू अपने लिए
द्वीप बना, उद्योग कर, पंडित बन, मल धो डाल और
निर्दोष बन; तब तू दिव्य
आर्यभूमि को
प्राप्त
करेगा।’
सो करोहि
दीपमत्तनो
खिप्पम वायम
पंडितो भव।
निद्धन्तमलो
अनंगणो दिब्ब
अरियभुमिमेहिसि।।
'तू पीले
पत्ते के समान
हो गया।
तो
बुद्ध पहले तो
उसे यह कहते
हैं कि तेरी
मौत आ गयी, अब तू
जीवन की बात
छोड़। कल तक तो
तू टाल सकता
था, स्थगित
कर सकता था कि
आज थोड़े ही
मौत है—ऐसे ही तो
हम सब टाल रहे
हैं। हम कहते
हैं, आज तो
जिंदा हैं, कल जब आएगी
मौत तब
देखेंगे, अभी
आती कहां? अभी
तो जवान हैं, के होंगे तब
देखेंगे। का
भी सोचता है, अभी इतने के
थोड़े ही हो गए
हैं कि मर ही
जाएंगे। केभी
कोई आदमी इस
तरह तो सोचता
ही नहीं कि मर
जाऊंगा। वह
यही सोचता है
जीयूंगा, अभी
तो बहुत
जीयूंगा। अभी
क्या बिगड़ा है,
अभी तो सब
ठीक है।
बुद्ध
उससे कहने लगे
कि अब तक तो तू
टाल सकता था, आज टालने
की कोई जगह न
रही, तू
पीले पत्ते के
समान है और यमदूत
तेरी खाट के
आसपास खड़े हैं,
मैं उन्हें
देख रहा हूं
चाहे तुझे
दिखायी न पड़ते
हों। मौत आ
गयी। अब तू
जीवन के संबंध
में सोचना छोड़,
अब तू मौत
के संबंध में
सोच ले। जीवन
तो चूका ही
मरका, गया
सो गया, अब
उस पर कुछ
किया नहीं जा
सकता; तूने
मुझे बहुत देर
में सुलाया है,
बुद्ध ने
कहा होगा; मरते
वक्त बुलाया
है। मगर अभी
भी जो थोड़ी, घड़ी दो घड़ी
बची हैं, पल
दो पल बचे हैं,
इनका भी ठीक
उपयोग कर ले, तो कुछ हो
सकता है।
यमदूत तेरे
पास आ खड़े हैं,
जरा गौर से
देख। मौत आ ही
गयी है, मेरे
आशीष कुछ काम
न पड़ेंगे। और
इस तरह के आशीष
मैं देता भी
नहीं।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं इस
तरह के आशीष
मांगने। इस
देश में
असंतों की
इतनी लंबी
परंपरा है कि
लोग यही भूल
गए हैं कि किस
बात के लिए
आशीष मांगना
और किस बात के
लिए आशीष नहीं
मांगना। कोई आ
जाता है कि
अदालत में
मुकदमा है, आशीर्वाद
दे दीजिए कि
मुकदमा जीत
जाऊं। कोई आ
जाता है कि
लड़के को नौकरी
नहीं मिल रही
है, आशीष
दे दीजिए कि
लड़के को नौकरी
मिल जाए।
एक
महिला दो—चार
दिन पहले
संन्यास ली, मैंने
पूछा, कुछ
पूछना तो नहीं
है? उसने
कहा, नहीं,
और तो सब
ठीक है, मेरे
लड़के
पढ़ते—लिखते
नहीं। स्कूल
ही नहीं जाते,
और जाते भी
हैं तो कुछ
पढ़ाई—लिखाई
नहीं करते, कुछ
आशीर्वाद दे
दीजिए। इस तरह
की बातों के
आशीर्वाद मतो
जाते रहे हैं!
और देने वाले
देते रहे और
लेने वाले
लेते रहे!
इससे एक बड़ी
भ्रांति पैदा
हो गयी है।
बुद्धपुरुष
के पास जाकर
किस बात का
आशीर्वाद मांगना, इसकी भी
व्यवस्था हम
भूल गए हैं।
बुद्ध से तो
एक ही बात का
आशीर्वाद
मांगा जा सकता
है कि ज्ञान
हो, कि
ध्यान हो, कि
समाधि हो।
क्योंकि
बुद्ध के
सामने तो वही
धन है। और तो
सब व्यर्थ है।
और तो तुम
कूड़े—करकट का
आशीर्वाद मल
रहे हो।
तुम
ऐसे समझो कि
किसी
चिकित्सक को
जाकर कहो कि
कुछ आशीर्वाद
दे दो कि टी बी
हो जाए, कि आशीर्वाद
दे दो कि
कैंसर हो जाए।
तो जैसे यह
मूढ़तापूर्ण
लगेगा
चिकित्सक को,
वैसे ही
बुद्ध को भी
यह
मूढ़तापूर्ण
लगता है कि
कोई मांगता है
कि जीवन थोड़ा
लंबा हो जाए।
बुद्ध तो जीवन
को रोग की तरह
देखते हैं—दुख
और दुख और
दुख। बुद्ध कहते
हैं, जन्म
दुख, जवानी
दुख, बुढ़ापा
दुख, मृत्यु
दुख, जीवन
का सारा स्वाद
दुख का है।
इसको लंबाने
का क्या अर्थ?
तुम कैंसर
को लंबाना
चाहते हो? क्षयरोग
को लंबाना
चाहते हो?
बुद्ध
ने उसे काफी
झकझोरा होगा।
उस मरते आदमी के
साथ बड़ी
कठोरता की।
उनकी करुणा
अपार रही होगी।
अन्यथा मरते
पर तो वह
सोचते कि अब
जाने भी दो।
यह जिंदगीभर
तो जागा नहीं, अब क्या
जागेगा? छोड़ो
भी। अब मरते
वक्त इसको
शांति
से मर जाने
दो। नहीं, लेकिन
बुद्ध ने उसे
मरते वक्त
झकझोरा।
क्यों? क्योंकि
सत्य कुछ ऐसी
बात है कि
कभी—कभी क्षण में
हो जाती है।
इसलिए एक क्षण
भी खोया नहीं
जा सकता। सत्य
कुछ ऐसी बात
है कि अगर चोट
लग जाए, अगर
आदमी
हिम्मतवर हो,
साहसी हो, हृदय वाला
हो और चोट खा
जाए तो एक
क्षण में भी घट
जाता है।
इसलिए आखिरी
बूंद तक जीवन
की बुद्धपुरुष
चेष्टा करते
हैं कि तुम जग
जाओ। वे अंतिम
तक तुम्हें
झकझोरे जाते
हैं।
कहा
कि तू प्रयाण
के लिए तैयार
है और तेरे
पास पाथेय कुछ
नहीं है। खूब
दुखी कर दिया
होगा उस आदमी
को। एक तो मौत, एक तो मर
रहा हूं जो था
वह छूट रहा
है—बेटे, बेटी,
परिवार, धन,
संपत्ति, जीवनभर की
कमाई सब छूटी
जा रही है—और
एक यह सज्जन आ
गए! और यह
सज्जन कह रहे
हैं कि तेरे
हाथ में कुछ
नहीं है, तू
बिलकुल खाली
जा रहा है, और
यात्रा तो
होने वाली है,
मौत आ गयी, ये यमदूत
खड़े हैं, पालकी
तैयार है, जल्दी
बिठाकर तुझे
ले जाएंगे। और
तेरे पास रास्ते
के लिए पाथेय
भी नहीं है, और तो बात
छोड़। ऐसा भी
नहीं है कि
थोड़े—बहुत पैसे
रास्ते के लिए
डाल दिए हों
तूने, वह
भी तेरे पास
नहीं हैं।
तेरे पास
ध्यान की कौड़ी
भी नहीं है।
खूब दुखी कर
दिया होगा इस
आदमी को।
मगर, समझना।
बहुत दुख में
ही शायद तुम
जाग सको। सुख
में तो आदमी
सो जाता है, दुख में जाग
सकता है। सुख
में तो नींद आ
जाती है, पीड़ा
में नींद नहीं
आती। बुद्ध ने
ऐसी चोट की है
उसके कलेजे पर
कि अगर कलेजा
होगा, तो
क्षार— क्षार
हो ही जाएगा।
तेरे पास
पाथेय कुछ भी
नहीं है, तू
भिखारी है। और
अभी भी तू
आशीष माग रहा
है व्यर्थ के
लिए। अब तो
कुछ सार्थक कर
ले, तू
अपने लिए
द्वीप बना। यह
बुद्ध का
विशिष्ट वचन
है—तू अपने
लिए द्वीप
बना।
सो करोहि
दीपमत्तनो……..।
देखते
हैं द्वीप, सागर के
बीच छोटा सा
द्वीप, सबसे
अलग—थलग, महाद्वीप
से टूटा अपने
में जीता है।
बुद्ध बार—बार
कहते
हैं—द्वीप
बनो। द्वीप का
अर्थ है, सब
संबंधों से
मुक्त हो जाओ,
जैसे सागर
में कोई छोटा द्वीप।
किसी से जुड़े
मत रहो, असंग
हो जाओ। द्वीप
का अर्थ है, असंग हो जाओ,
अकेले हो
जाओ।
उस
के से
उन्होंने कहा
कि अब तू
अकेला हो जा।
अब तू भूल ही
जा कि कोई
तेरा बेटा है, कोई तेरी
पत्नी है, कोई
तेरे पोते हैं,
कोई तेरे
नाती हैं, कुछ
तेरे पास धन
है, सब भूल
जा। यह देह भी
तेरी नहीं, इसके लिए तो
लेने यमदूत आ
गए हैं। यह मन
भी तेरा नहीं,
यह भी सब
उधार है। अब
तू सारे संबंध
छोड़ दे। अब तू
असंग हो जा।
इस मृत्यु की
आखिरी घड़ी में
तू एक काम कर
ले—अपने सब
नाते तोड़ दे, अपने सब
सेतु गिरा दे;
असंग और
अकेला, द्वीप
की भांति हो
जा। ऐसा असंग
और अकेला होकर
तू मुक्त हो
जाएगा। तो फिर
मृत्यु मोक्ष
बन जाती है।
समझना।
जो अकेला होकर
मरता है, वह मुक्त हो
जाता है। जो
संबंधों से
जुड़ा मरता है,
वह फिर पैदा
हो जाता है, फिर जीवन
में लौट आता
है। जब तक
तुम्हें
दूसरे की
जरूरत है, तब
तक तुम वापस
आते रहोगे। तब
तक वापस आना
ही पड़ेगा।
क्योंकि दूसरा
तो यहीं मिलता
है और कहीं
मिलता नहीं।
पति
मरते वक्त अगर
पत्नी की
आकांक्षा
रखता है, फिर लौट
आएगा। पत्नी
मरते वक्त पति
की आकांक्षा
करती है, फिर
लौट आएगी।
तुम्हारी
आकांक्षा
तुम्हें लौटा
लाएगी।
क्योंकि
लौटते तो केवल
वे ही नहीं
हैं जिनकी
दूसरे से कोई
आकांक्षा न
रही। अब लौटने
की कोई जरूरत
न रही।
संसार
का अर्थ है, दूसरे की
मौजूदगी; जहां
दूसरा उपलब्ध
होता है।
पत्नी मिल
सकती है, पति
मिल सकता है, मित्र मिल
सकता है, बेटे—बेटियां
मिल सकतीं, जहां दूसरा
मिल सकता है
वह स्थल है संसार।
और मोक्ष का
अर्थ है, जहां
तुम निपट
अकेले हो, कैवल्य
की दशा। जहां
तुम्हारे
अतिरिक्त कोई भी
नहीं। तुम हो
और बस तुम हो।
जहां अनंत तक
तुम ही तुम हो
और कोई दूसरा
नहीं है। जहा
तुम हेलो भी न
कह सकोगे, जयराम
जी भी न कह
सकोगे किसी
से। उस दशा
में जाने की
तैयारी तो उसी
की हो सकती है
तो जीवन से
सारे संबंध तोड़कर
गया हो। जिसने
पीछे लौटकर भी
न देखा हो। जो
पूरी विदा ले
लिया हो संसार
से। इस धारणा
को बुद्ध कहते
हैं द्वीप
बनना।
सो करोहि
दीपमत्तनो
खिपम वायम
पंडितो भव।
और
बुद्ध कहते
हैं, ऐसा
जो द्वीप बन
गया हो, ऐसा
ही व्यक्ति
पंडित है।
पंडित
का अर्थ तुम
ऐसा मत जानना
जैसा पंडित का
अब अर्थ हो
गया है। पंडित
का मौलिक अर्थ
होता है, प्रज्ञा को
उपलब्ध, जिसके
भीतर की
ज्योति जग
गयी। अब तो
पंडित का अर्थ
होता है, जिसके
पास शास्त्र
का कूड़ा—करकट
काफी है। जिसके
पास सूचनाएं
बहुत हैं। जिसके
भीतर की
ज्योति तो
बिलकुल नहीं
जली है, लेकिन
जिसने बाहर से
धुंआ काफी
इकट्ठा कर लिया
है।
और
तुमने कहावत
तो सुनी होगी
न—जहां—जहां
धुंआ
वहां—वहां आग।
तो पंडित का
अर्थ है आज, ऐसा आदमी
जिसने खूब
धुंआ इकट्ठा
कर लिया है चारों
तरफ। और
स्वभावत:, बाहर
से जो लोग देखते
हैं वे सोचते
हैं—जहां—जहा
धुंआ वहां—वहां
आग—जब इतना
धुंआ है तो आग
भी होगी।
लेकिन तुम ऐसा
इंतजाम कर
सकते हो, यह
तर्क का
पुराना नियम
काम नहीं देगा,
तुम तो धुएं
की टंकी रख
सकते हो अपनी
बनाकर और धुंआ
निकालते रहो
घर, पूरे
मुहल्ले को
धोखा देते रहो
कि आग जल रही
है और आग
बिलकुल न हो, सिर्फ धुएं
की टंकी! उधार
धुंआ लाया जा
सकता है।
पंडित, बुद्ध
कहते थे उस
आदमी को, जिसकी
भीतर की
ज्योति जग
गयी। और सच तो
यह है कि जब वह
भीतर की
ज्योति जगती
है तो धुंआ
होता ही नहीं।
तुमने
देखा, आग
के जलने से
धुंआ पैदा
नहीं होता, धुंआ पैदा
होने का कारण
दूसरा है।
लकड़ी गीली
होती है, इसलिए।
जितनी लकड़ी
सूखी होती है,
उतना ही कम
धुआ पैदा होता
है। लकड़ी अगर
पूरी—पूरी
सूखी हो तो
धुंआ पैदा
नहीं होता। तो
धूआं आग से
पैदा नहीं
होता, धुंआ
तो लकड़ी में
छिपे पानी से
पैदा होता है।
लकड़ी गीली
होती है तो धुंआ
हो जाता है।
ंजिसके
भीतर की आग सच
में जली, और जिसने
अपने को ध्यान
में सुखाया था,
और जिसके
भीतर की वासना
का सारा
गीलापन, वासना
की सारी
आर्द्रता, सारा
पानी सूख गया
था, जिसके
भीतर कोई
वासना की दौड़
न रही थी, जो
काष्ठवत हो
गया था—इसलिए
पुराना एक
शब्द है, काष्ठ
समाधि। ऐसा हो
जाता है
व्यक्ति, जैसे
सूखी लकड़ी।
काष्ठवत।
और तब
एक आग जलती
है। उस आग में
फिर कोई धुआ
नहीं होता। वह
आग अपनी होती
है, उधार
नहीं होती है,
किसी और की
नहीं होती है।
और वह आग बिना ईंधन
के जलती है।
बिन बाती बिन
तेल। न तो
उसके लिए—बाती
की जरूरत होती
है, न तेल
की जरूरत होती
है। वह अपूर्व
चमत्कार है।
एक ऐसा शान
तुम्हारे
भीतर घटता है
जो बाहर से
आया ही नहीं।
जो तुम्हारे
भीतर ही
आविर्भूत होता
है। उस दशा को
बुद्ध कहते
हैं, पंडित।
सो करोहि
दीपमत्तनो
खिप्पम वायम
पंडितो भवा।
अब
तो तू द्वीप
बन जा, अब
तो तू पंडित
बन; उद्योग
कर, मल धो
डाल और
निर्दोष बन।
अब और मल
इकट्ठा मत कर।
अब और जीवन मत
मांग। अब तो
कुछ माग ही
मत। अब तो जो
मौत द्वार पर
आ गयी है, उसे
स्वीकार कर
ले। स्वागत से
स्वीकार कर
ले। तथाता भाव
को उपलब्ध हो।
उसमें उतर जा,
अन्यथा की
कोई मल न करते
हुए।
मल
का अर्थ होता
है, मांग।
मल का अर्थ
होता है, ऐसा
हो जाए, वैसा
हो जाए। मल का
अर्थ होता है,
मैं जैसा
चाहूं वैसा हो
जाए। मल का
अर्थ होता है,
मैं की छाया,
मैं की
गंदगी। जहां
अहंकार है, वहां मल है।
अगर तुम
अहंकार से
जीते हो तो
तुम म्लेच्छ।
अगर तुम
अहंकार से मुक्त
हो गए तो
निर्दोष, निर्मल।
और जो निर्मल
हो जाता है, उसने ही
जाना।
तो
बुद्ध कहते
हैं, 'निर्दोष
बन, मल धो
डाल। और तब तू
दिव्य आर्य भूमि
को प्राप्त
करेगा।
निद्धन्तमलो
अनंगणो
दिब्बं
अरियभूमिमेहिमि।
और
श्रेष्ठ
पुरुषों को जो
उपलब्ध होता
है, श्रेष्ठतम
को जो उपलब्ध
होता है, वह
परमलोक, उसको
बुद्ध कहते
हैं—आर्यभूमि।
श्रेष्ठों का
देश। वह आकाश,
जो उन्हीं
को मिलता जो
सारे मल को धो
डाले हैं। उस
ऊंचाई पर वे
ही उठ पाते
हैं जिनका
सारा मल कट
गया है।
तू
मुझसे आशीष
मांग, बुद्ध
ने कहा, जीवन
का नहीं, मोक्ष
का। तू मुझसे
आशीष माग—क्या
इस जमीन पर
पैदा होने का
आशीष मांगता
है! आशीष मांग
कि आर्यभूमि
में तेरा जन्म
हो। खयाल रखना,
आर्यभूइम
का मतलब कोई
हिंदुस्तान
नहीं। आर्यभूमि
का अर्थ होता
है, दिव्यलोक,
परमात्मा
का लोक, भगवत्ता
का लोक। आशीष
ही मागना है, तो बुद्ध
कहते हैं, ऐसा
कुछ भाग।
उपनीतवयो च
दानिसि
सम्पयातोसि
यमस्स सान्तिके।
वासोपि च ते
नत्थि अन्तरा
पाथेय्यम्पि
च ते न विज्जति।।
तेरी
आयु हो चुकी, पागल! तू
यम के पास
पहुंच चुका।
मौत के जबड़े
में पड़ा है।
तेरा निवास
स्थल भी नहीं
है और, और
मध्यातर के
लिए तेरे पास
पाथेय भी नहीं
है। तूने कोई
घर बनाया नहीं
भगवान में। तू
यहीं जमीन पर
मिट्टी के घर
बनाता रहा, तूने चेतना
का कोई घर न
बनाया। तेरा
निवास स्थल भी
नहीं है। तू
भटकेगा
लोक—लोकातर
में, तू
आवारा हो
जाएगा। तूने
कोई घर न
बनाया, तूने
कोई शरणस्थल न
बनाया। तूने
कोई छप्पर नहीं
डाला।
हम
तो यहीं के
छप्पर डालने
में विदा हो
जाते हैं, तो उस दूर
के लोक में, उस आर्यभूमि
में मकान बन
ही नहीं पाता।
बुद्ध
अपने
भिक्षुओं को
कई नाम दिए
हैं, उनमें
एक नाम
है—अनागार।
जिसका यहां
कोई घर नहीं।
आगार का अर्थ
होता है, घर।
अनागार का
अर्थ होता है,
जिसका कोई
घर नहीं, गृहविहीन।
किसी ने बुद्ध
से पूछा है कि
आप अपने भिक्षु
को अनागार
क्यों कहते
हैं? तो
उन्होंने कहा,
इसलिए कि
यहां मेरा
भिक्षु घर
नहीं बनाता।
मेरा भिक्षु
कहीं और घर
बनाता है, अदृश्य—लोक
में। जहां
चमड़ी की आंखों
से कुछ भी
नहीं दिखायी
पड़ेगा।
तुम्हारा
दिव्य—चक्षु खुले
तो दिखायी
पड़ेगा। मेरे
भिक्षु
गृहविहीन नहीं
हैं, लेकिन
इनके घर किसी
और ही लोक में
निर्मित हुए
हैं, कोई
और आयाम में
निर्मित हुए
हैं। यहौ ये
घरविहीन हैं।
यहा इन्होंने
घर बनाना छोड़
दिया, क्योंकि
यहां तो घर सब
रेत में बनाए
सिद्ध होते
हैं। ताश के
पत्तों के घर हैं।
गिर जाते हैं।
क्या बनाने
योग्य! कुछ
ऐसा घर बनाओ
जो गिरे न! कुछ
ऐसा घर बनाओ
जो सदा—सदा रहे,
जो सदैव
रहे।
तो
बुद्ध उससे
कहने लगे :
वासोपि व ते
नत्थि.......।
'तेरा कोई घर
भी नहीं है।’
.....अन्तरा
पाथेव्यम्पि
च ते न
विज्जति।
'और न
मध्यांतर के
लिए, बीच
के मार्ग के
लिए कोई पाथेय
है।’
उपनीतवयो..........
तेरी
उम्र चुक गयी; मगर तेरी
वासना नहीं
चुकती? तो
फिर जन्मेगा,
फिर गर्भ
में पड़ेगा, फिर उतर
आएगा, फिर
आवागमन हो
जाएगा, फिर
यही चक्कर! जो
तूने किया है
बहुत बार, वही
तू फिर—फिर
करेगा।
इस
देश की जो
सबसे अनूठी
खोज है, जो
मनुष्य—जाति
के लिए इस देश
का सबसे बड़ा
दान है, वह
है आवागमन से
मुक्त होने की
धारणा।
मनुष्य—जाति
के किसी और
अंश ने कभी इस
धारणा को नहीं
उपजाया। पूरब
ने, विशेषकर
भारत ने इस
धारणा को जन्म
दिया कि हम बहुत
बार पैदा हो
चुके, और
हर बार पैदा
होकर हमने वही
किया जो हम
अभी कर रहे
हैं। और हम
फिर पैदा होना
चाहते हैं, और हम फिर
यही करेंगे।
तो हमारी
मूढ़ता हद्द की
होगी! क्योंकि
इतनी
पुनरुकिा तो
मूढ़ ही कर सकता
है। जिसमें
थोड़ी बुद्धि
है, वह
पुनरुक्ति
क्यों करेगा?
वह कहेगा, यह चाक, जिसमें
मैं बंधा हुआ
घूम रहा हूं अब
बंद होना
चाहिए।
तो
बुद्ध उससे
कहने लगे, तेरी आयु
हो चुकी, लेकिन
तेरी वासना
नहीं चुकती? यम के मुंह
में बैठा है, फिर भी जीवन
की आकांक्षा
करता है?
सो करोहि
दीपमत्तनो
खिप्पम वायम
पंडितो भव।
मैं
तुझसे फिर
कहता, बुद्ध
ने कहा, फिर—फिर
कहता हूं कि
तू अपने लिए
द्वीप बना, उद्योग कर, पंडित बन।
निद्धन्तमलो
अनंगणो न पुन
जातिजरं
उपेहिसि।
मल
धो डाल, निर्दोष बन,
मैं तुझे
आशीष देता हूं
कि अगर तू
थोड़ा उद्योग
करे तो फिर
तेरा न कोई
जन्म होगा और
न फिर तेरी कोई
मृत्यु होगी।
फिर तू जन्म
और जरा को
प्राप्त नहीं
होगा।
निद्धन्तमलो
अनंगणो न पुन
जातिजर
उपेहिसि।
यही
बुद्धों का
आशीष हो सकता
है कि फिर
तुम्हारा
जन्म न हो।
बड़ा अजीब सा
लगेगा।
क्योंकि हम तो
लोगों को इस
तरह का आशीष
देते हैं कि
तुम्हारी
लंबी आयु हो, खूब जीओ,
युग—युग
जीओ।
बुद्धपुरुष
कहते हैं कि
आशीष कि फिर
कभी न जीओ, कि
फिर कभी न
जन्मो।
क्योंकि जन्म
होगा तो फिर
मौत होगी।
जन्म होगा तो
फिर बुढापा
होगा। जन्म होगा
तो फिर
दुख—पीड़ा
होगी। जन्म
होगा तो फिर चिंता—संताप
होगा। इसलिए
जन्म ही न हो।
ऐसा
आशीष दुनियां
में कहीं और
नही दिया गया
है। सिर्फ इस
देश में ऐसा
आशीष दिया गया
है कि तुम्हारा
कभी जन्म न
हो। तुम्हारा
फिर कभी कोई
आना न हो। तुम
अनागामी हो
जाओ।
बुद्ध
ने कहा, आशीष मांगता
है, तो ऐसा
आशीष ले।
अनुपुब्बेन
मेधावी
थोकथाकं
खणे-खणे।
कम्मारो
रजतस्सेव
निद्धमे
मलमत्तनो।।
'सुनार'—सुनार
था का तो
उन्होने
उदाहरण दिया
कि—'सुनार
जैसे चांदी के
मैल को क्रमश:
थोड़ा—थोड़ा और
क्षण—क्षण जलाकर
उसे शुद्ध
करता है, वैसे
ही मेधावी
पुरुष अपने
मैल को क्रमश:
दूर कर लेता
है।
ऐसा
ही तू कर।
अनुपुब्बेन
मेधावी
थोकथाकं खणे
खणे।
कितना
ही मैल हो, धीरे—धीरे,
थोड़ा—थोड़ा
करके, क्षण—क्षण
करके कट जाता
है। सागर रीत
जाते हैं।
बूंद—बूंद
करके घड़ा खाली
हो जाता है।
अनुपुब्बेन
मेधावी' थोकथाकं खणे
खणे।
कम्मारो
रजतस्सेव
निद्धमे
मलमत्तनो।।
और
तू तो सुनार
है, तू
तो जानता कि
चाँदी में
कितनी ही
गंदगी हो, धीरे—धीरे
साफ करके
चांदी साफ हो
जाती है। ऐसा
ही तू भी
मेधावी बन, साफ हो जा, शुद्ध हो जा,
निर्मल हो
जा। जीवन का
आशीष नहीं
देता, परमजीवन
का आशीष देता
हूं। ऐसे जीवन
का आशीष देता
हूं, जहा
शाश्वत आनंद
होगा, शाश्वत
शांति होगी।
कहते
हैं, वह
स्वर्णकार
सांत्वना की
जगह यह चोट
करने वाली बात
सुन पहले तो
बहुत चौंका।
पहले
तो हतप्रभ रह
गया होगा, किंकर्तव्यविमूढ़।
पहले तो सोचा
होगा, किस
आदमी को बुला
लिया! किससे
आशीष मताने की
भूल कर ली! हम
तो इस जीवन को
बढ़ाने की बात
कर रहे हैं, यह आगे के भी
सब जीवन
समाप्त करने
का आशीर्वाद
दे रहा है!
हमने तो मांगा
कि यह जीवन
थोड़ा लंबा हो
जाए और यह कह
रहा कि कभी
तेरा जीवन ही
न हो अब कोई, अब सदा के
लिए समाप्त ही
हो जाए अब बात
ही खतम हो, जड़—मूल
से ही काट
देते हैं।
पहले तो बहुत
चौंका, जैसे
कोई भी
चौंकता।
संतों
से पहले भी
मिलना हुआ
होगा—तथाकथित
संतों से, जो
सांत्वना
देते हैं।
जिनका काम ही
यह है कि तुम्हारे
घाव पर मलहम—पट्टी
करते रहते
हैं। जो
तुम्हें सब
तरह से समझाते
रहते हैं। तुम
अगर
दीन—दरिद्र हो,
दुखी—पीड़ित
हो, वे
कहते हैं कि
पुराने
जन्मों का
कर्म है, कट
जाएगा, फिकर
न करो, सब
ठीक हुआ जाता
है। कि भगवान
कोई परीक्षा
ले रहा है। यह
परीक्षा का
क्षण है, परेशान
न होओ, निकल
जाएगा। कि रात
कितनी ही
अंधेरी हो, सुबह आने के
करीब है, घबड़ाते
क्यों हो? और
जब रात ज्यादा
अंधेरी होती
है, तो
समझो कि सुबह
करीब आ रही
है। ऐसा समझाए
चले जाते
हैं——हर हाल
में तुम टिके
रहो, बने
रहो, जहां
हो जैसे रहो।
तुम्हारी
मलहम—पट्टी
करते रहते
हैं। शायद ऐसे
संतों से इसका
मिलना जीवन
में हुआ होगा,
उसी आधार पर
तो यह बुद्ध
से भी इस तरह
का आशीष मांगने
की भूल कर
बैठा।
चौंका
होगा बहुत, निश्चित
चौंका होगा।
सांत्वना की
जगह यह चोट करने
वाली बात! यह
कठोर सत्य, यह कड्वी
बात! लेकिन
आदमी हिम्मत
का था। चोट घर
कर गयी। एक बिजली
जैसे कौंध
गयी। और इस
बिजली की कौंध
में उसके जीवन
के अंतिम क्षण
ज्योतिर्मय
हो गए। उसे
बात साफ—साफ
दिखायी पड़
गयी। दो टूक
थी बात। सीधी
थी, लाग—लगाव
कुछ भी न था, छल—कपट कुछ
भी न था, बात
में कोई बड़े
सिद्धात का
जाल नहीं था, सीधी—सीधी
थी। सुनार के
समझ में आ सके,
ऐसी थी।
इसलिए सुनार
का उल्लेख भी
बुद्ध ने किया
था। जैसे किसी
ने अंधेरे में
अचानक प्रकाश जला
दिया हो, मशाल
जला दी हो, ऐसी
उसे बात साफ
दिखायी पड़
गयी।
देखा
होगा उसने गौर
से तो उसे भी
यमदूत दिखायी
पड़ गए होंगे।
बात तो सच ही
थी। कितनी ही
कड्वी हो, सच तो थी
ही। कितना ही
नग्न हो सत्य,
झुठलाया
नहीं जा सकता
था। कायर होता,
कमजोर होता,
तो शायद
झुठला देता।
कहता अपने
बेटों से कि
किसको लिवा
लाए हो? अरे,
किसी संत को
लाओ! यह किस
तरह के आदमी
को लिवा लाए? मैं मर रहा
हूं र मैं
चाहता हूं कि
थोड़ी सी कोई शांति
मुझे दे, समझाए,
और यह आदमी
और जो कुछ
थोड़ी—बहुत
शांति है वह
भी छीने ले
रहा है। यह
मेरे पैर के
नीचे की जमीन
खिसकाए ले रहा
है, किसको
यहां ले आए हो?
लेकिन आदमी
हिम्मत का रहा
होगा। उसने
बात को हटाया
नहीं, जाने
दिया हृदय
में—काटती थी,
दुखती था, पीड़ा होती
थी, —लेकिन
बात जाने दी।
एक बिजली की
भांति उसके
अंतिम क्षण
ज्योतिर्मय
हो गए।
सांत्वना
देते भी नहीं
संत, उसे
उस क्षण
दिखायी पड़ा।
संत तो वही जो
सत्य देता है,
उसे उस क्षण
दिखायी पड़ा।
फिर चाहे
कितना भी कड़वा
क्यों न हो—और
दवाएं कड्वी
होती ही हैं।
उसे यह बात
समझ में पड़ी, दवाएं लेता
भी रहा होगा, बीमार था, वर्षों से
खाट पर लगा था,
तो उसे खयाल
में आया
होगा—दवाएं
कड्वी होती भी
हैं।
वह
स्वर्णकार
स्रोतापत्ति—फल
को पाकर मरा।
वह धन्यभागी
था।
बुद्ध
जैसा वैद्य
जीवन के अंतिम
क्षण में भी मिल
जाए तो बड़ा
धन्यभाग है।
स्रोतापत्ति—फल
को पाकर मरा।
वह ध्यान की
धारा में
प्रविष्ट हो
गया। यह एक
चौंकाने वाली
बात, यह
एक चोट तलवार
की, जैसे
उसके मोह के
जाल को काट
गयी। उसने
बुद्ध के
चरणों में सिर
रख दिया। झुक
गया, समर्पित
हो गया। उसने
धन्यवाद दिया
बुद्ध को।
उसने कहा, कोई
हर्ज नहीं।
जीवनभर भटका,
कोई हर्ज
नहीं, अगर
सुबह का भूला
सांझ भी घर आ
जाए तो भूला
तो नहीं कहलाता।
चलो सांझ ही
सही, सूरज
ढलते—ढलते सही,
घर आ गया, बात समझ में
आ गयी। उसने
पीछे लौटकर
देखना बंद कर
दिया।
जैसे
ही तुम पीछे
लौटकर देखना
बंद करते हो
और जीवन की
कामना और
वासना को छोड़
देते हो, वैसे ही
शांति
फलित हो जाती
है, वैसे
ही ध्यान लग
जाता है।
विचार अपने आप
चले जाते हैं
जब वासना चली
जाए। विचार तो
वासना की छाया
है। वासना के
जाए बिना जाते
नहीं। तुम कितना
ही विचारों को
हटाओ, जब
तक वासना घर
जमाए बैठी है,
तब तक विचार
आते ही
रहेंगे। जब तक
वासना का वृक्ष
है, तब तक
विचारों के
पक्षी उस पर
डेरा डालते ही
रहेंगे, आते
ही रहेंगे।
वासना का
वृक्ष ही कट
जाए तो फिर
पक्षी आने
अपने आप बंद
हो जाते हैं।
और यह एक क्षण
में हुआ।
यह
बुद्ध—विचार
की एक अनूठी
प्रक्रिया
है। फिर बुद्ध
से लेकर ढाई
हजार वर्षों
में अनेकों को
यह घटना घटी है।
कभी—कभी एक
क्षण में। योग
में इस तरह की
कोई व्यवस्था
नहीं है। योग
तो कहता है, जन्मों—जन्मों
चेष्टा करनी
पड़ती है तब
कुछ मिलता है।
बुद्ध ने कहा
कि अगर बोध की
क्षमता हो, अगर साहस हो,
अगर हिम्मत
हो अज्ञात में
उतरने की, तो
एक क्षण में
भी हो जाता
है। कोई अनंतकाल
तक प्रतीक्षा
करने की जरूरत
नहीं, श्रम
करने की जरूरत
नहीं। त्वरा
चाहिए, तीव्रता
चाहिए। अगर
तीव्रता हो तो
एक क्षण में
लपट पैदा हो
जाती है। और
अगर तीव्रता न
हो तो तुम
जन्म—जन्म
कोशिश करते
रहो—अधूरी—अधूरी
कोशिश, कुनकुनी—कुनकुनी
कोशिश—कुछ
परिणाम नहीं
होता। आग जलती
ही नहीं। पानी
कभी भाप बनता
ही नहीं। तुम
कभी आकाश में
उड़ते ही नहीं,
पंख
तुम्हें कभी
लगते ही नहीं।
खयाल
रखना, लोग
मुझसे कभी—कभी
आकर पूछते हैं
कि समाधि कितने
समय में फलित
होगी? मैं
उनसे कहता हूं
र तुम पर
निर्भर करता
है। समाधि का
कोई हिसाब
नहीं है कि छह
साल में, कि
बारह साल
में—महावीर को
बारह साल में
हुई, बुद्ध
को छह साल में
हुई—किसी को
अस्सी साल भी लगते
हैं, किसी
को अस्सी जन्म
भी लगते हैं, किसी को
क्षण में भी
हुई है। तुम
पर निर्भर करता
है, कितनी
त्वरा! कितनी
तीव्रता!
कितने बल से
तुम चले हो!
तुमने अपने को
पूरा दाव पर
लगाया तो एक
क्षण में भी
हुई है। और
तुमने
धीरे—धीरे दाव
पर लगाया—दाव
पर लगाया नहीं
मतलब—धीरे—धीरे
सौदा करने की
कोशिश की कि
देखें शायद
इतने से हो
जाए, कि
देखें शायद
इतने से हो
जाए, तो
काफी समय लग
जाता है।
समाधि
समयातीत है, इसलिए समय
का कोई संबंध
नहीं है। एक
क्षण में भी
हो सकती है।
यह
का
स्रोतापत्ति—फल
को उत्पन्न
होकर मरा।
स्रोतापत्ति—फल
शुरुआत है और
मोक्ष अंत है।
स्रोतापत्ति—फल
का अर्थ होता
है, स्रोत
में उतर गया, धारा में
उतर गया। और
जो धारा में
उतर गया, वह
सागर पहुंच ही
जाएगा। अब कुछ
देर की बात न
रही, पहुंचा
ही है। नाव
छोड़ दी धारा
में, धारा
तो जा ही रही
है सागर की
तरफ।
इसे
तुम समझना।
इस
जगत में ध्यान
की धारा बह
रही है। उस
ध्यान की धारा
को ही तुम
गंगा समझो, वही गंगा
है। उसी में
नहाने से तुम
पवित्र हो जाओगे।
और तो सारी
गंगाएं
व्यर्थ हैं।
एक ध्यान की
धारा इस जगत
में बह रही
है। जो उसमें
उतर जाता है, वह धारा उसे
समाधि के सागर
तक पहुंचा
देती है—ले
जाती है, खुद
ले जाती है, तुम्हें
हाथ—पैर भी
नहीं चलाना
पड़ता।
रामकृष्ण
कहते थे, तुम तो अपनी
नाव छोड़ दो, उसकी हवाएं
तुम्हारे
पालों में भर
जाएंगी और तुम्हें
गंतव्य तक ले
जाएंगी।
तुम
तो इस नदी में
उतर जाओ—बुद्ध
कहते थे—बस, यह नदी तो
जा ही रही है, यह तुम्हें
ले जाएगी। नदी
में उतरने की
घड़ी स्रोतापत्ति—फल
कहलाती है।
वह
स्वर्णकार
स्रोतापत्ति—फल
को पाकर मरा।
मर
गया, उसी
घड़ी मर गया, बुद्ध मौजूद
थे और मर गया।
धन्यभागी था।
बुद्ध के
सान्निध्य
में मृत्यु घट
जाए तो और
क्या धन्यभाग!
चाहे जीवनभर
भटका हो, लेकिन
सांझ उन चरणों
में आ गया जिन
चरणों में पहुंच
जाने से सब
मिल जाता है।
बुद्ध के
चरणों में सिर
रखे और मर
गया।
बुद्ध
के चरणों में
जिसका सिर
झुका हो और मर
जाए—शायद
तुम्हें समझ
में भी न आए कि
इसमें कैसा, क्या
धन्यभाग!
इसमें बड़ा
धन्यभाग।
स्रोतापत्ति—फल
उत्पन्न हो
गया। बुद्ध की
धारा में झुक
गया, उतर
गया। बुद्ध के
साथ भावर पाडु
लीं। बुद्ध के
साथ गठबंधन हो
गया। बुद्ध की
विराट ऊर्जा
में यह भी लीन
हो गया। इसने
जरा भी ना—नुच
न की, तर्क—विवाद
न किया—फुर्सत
भी न थी, समय
भी न था। शायद
जीवन अभी और
होता तो यह
सोचता कि कल
आऊंगा, सोचूंगा,
विचारूंगा।
शायद अभी जवान
होता तो कहता
कि अभी तो
जवान हूं
संन्यास तो
बुढ़ापे के लिए
है, समर्पण
तो बुढ़ापे के
लिए है; अभी
तो बहुत कुछ
संसार में
करना है, कर
लूं तब आऊंगा,
जरूर आऊंगा,
आपकी बात
जंचती है, मगर
अभी मेरा समय
नहीं आया।
लेकिन इसको
दिख गया होगा
कि बात तो सच
है, पत्ता
तो पीला हो
गया है
बिलकुल।
यह
झुठला रहा
होगा, दिखायी
तो खुद भी
पड़ता है।
कितना झुठलाओ
तो भी भीतर तो
दिखायी पड़ता
रहता है। कोई
अपने को कितनी
देर धोखा दे
सकता है? धोखे
के बीच में सच
उभरता है।
इसको भी लगता
तो होगा ही।
हालांकि इसके
बेटे कहते
होंगे, नहीं—नही,
अभी कहां
मरना! अभी तो
आप बिलकुल
स्वस्थ हैं।
चिकित्सक
आता होगा, वह कहता
होगा, नहीं,
सब ठीक चल
रहा है। बस
दवा लेते जाएं,
कुछ दिन में
उठ आएंगे। सब
ठीक हो जाने
वाला है, कुछ
दिन में जल्दी
ही अपने पैर
पर चलने
लगेंगे।
चिकित्सक
भी कहता होगा, बेटे भी
कहते होंगे, प्रियजन आते
होंगे, परिवार
के लोग। और
सबकी आंखों
में इसको
दिखायी पड़ता
होगा पीला
पत्ता, सबकी
आंखों में
इसको दिखायी
पड़ता होगा कि
मैं मर रहा
हूं, सबके चेहरे
कहते होंगे कि
अब भाई, बचने
की उम्मीद
नहीं है—कहते
कुछ होंगे, बतलाते कुछ
होंगे, लेकिन
छिप तो नहीं
सकता। फिर
इसको खुद भी
तो पता चलता
होगा, हाथ
हिलाना
मुश्किल हो
गया, सांस
लेना मुश्किल
हो गया, ऊर्जा
रोज—रोज डूबी
जाती है।
बुद्ध
ने सीधी—सीधी
बात कह दी। यह
बुद्ध की
ईमानदारी उसे
छू गयी। मित्र
थे, प्रियजन
थे, चिकित्सक
थे, वे
कहते थे—नहीं,
बचोगे।
बुद्ध ने कहा,
बचना— वचना
सब बकवास।
मेरा आशीष भी
कुछ काम नहीं
आएगा। और ऐसा
आशीष मैं देता
भी नहीं। और
ऐसा आशीष तू
मांग भी नहीं।
यह मौत तेरे
चारों तरफ
घेरे खडी है; यमदूत मौजूद
हैं, डोली
तैयार है, किसी
भी क्षण बैठ
जाना पड़ेगा।
अब सोच ले, भीतर
प्रतिष्ठित
हो जा, ध्यान
की किरण को
पकड़ ले, वासना
को छोड़ दे।
उसे यह बात
दिख गयी होगी
कि मौत चारों
तरफ घिरी है।
उस मौत के
घिराव को देखकर
वह बुद्ध के
चरणों में झुक
गया होगा। समय
भी न था स्थगित
करने को, पोस्टपोन
करने को कि
कहे कि कल, कि
जरा सोच लूं।
और
मैं तुमसे
कहता हूं कि
यह घटना बड़ी
अर्थपूर्ण है, ऐसी ही
दशा प्रत्येक
मनुष्य की है।
कोई ऐसा ही
थोड़े है कि जब
आदमी पीला ही
पत्ता होता है
तब मरता है, हरे पत्ते
मर जाते हैं।
मौत कुछ
बुढ़ापे में ही
थोड़े ही आती
है, जवानी
में आ जाती
है। मौत कुछ
हिसाब थोड़े ही
रखती है, मौत
कोई नियम थोड़े
ही मानती है, किसी भी घड़ी
आ सकती है।
तुम भी इसी
दशा में हो, जिस दशा में
यह स्वर्णकार
था। इससे
रत्तीभर दशा
भिन्न नहीं
है। जरूरी
नहीं है कि कल
भी तुम सभी
यहां होओगे।
कोई विदा हो
सकता है।
स्थिति तो वही
है। यमदूत ऐसा
थोड़े ही है कि
कभी आते हैं, वह तुम जब
जन्मते हो तभी
डोली लेकर साथ
आते हैं। वे
डोली लिए पास
ही बैठे रहते
हैं, कब
मौका आ जाए कि
ले जाएं। कुछ
ऐसा थोड़े ही
है कि जब
जरूरत पड़ेगी
तब आएंगे, ऐसे
में तो बहुत
देर लग जाए।
हर आदमी अपने
यमदूत अपने
साथ ही लेकर
पैदा होता है।
वह डोली तुम
साथ ही लेकर
आए हो।
तुम्हारी अर्थी
बंधी हुई रखी
है। देर—अबेर
बंध जाएगी।
इसे
तुम घटना को
ऐसा मत सोचना
कि ठीक है, उस के
आदमी को ही
ठीक है, अपने
से कुछ इसका
संबंध नहीं
है। शायद तुम
यह भी सोच रहे
होओ कि मैं
तुमसे यह
कहानी क्यों
कह रहा हूं? यह तो को को
कहनी चाहिए।
तुम
भी उसी दशा
में हो। एक
दिन का पैदा
हुआ बच्चा भी
उसी दशा में
है। जिसने
पहली सांस ली, वह बच्चा
भी उसी दशा
में है।
क्योंकि कई
बार तो पहली
सांस के बाद
ही दूसरी सांस
नहीं आती। जो
बच्चा पैदा हो
गया, उसके
पास मौत घिरी
है। कब आएगी, इसका पक्का
पता नहीं है।
लेकिन एक बात
तो पक्की है
कि आएगी। आ ही
गयी है।
तुम्हें
घेरकर बैठी
है।
फिर
तुम अगर सोचो
कि कल निर्णय
करेंगे, तो क्या पता
बीच में आ जाए,
तो निर्णय
कभी न हो पाए।
इसलिए जिस
व्यक्ति को
जीवन में
क्रांति लानी
है, उसके
लिए समय नहीं
है। उसके लिए
यही क्षण है, एक ही क्षण
है। इस क्षण
में झुक जाए
तो झुक जाए, इस क्षण में
स्रोतापत्ति—फल
पैदा हो जाए
तो हो जाए। या
तो अभी, या
कभी नहीं।
क्योंकि अभी
के अतिरिक्त
कोई समय ही
नहीं है।
झुक
गया बुद्ध के
चरणों में, चरणों
में झुके—झुके
मर गया।
अपूर्व
धन्यभागी था।
समर्पण की दशा
में मर गया!
बुद्ध की उस
चौंधती हुई
रोशनी में मर
गया। उस भाव
को समझता हुआ
मर गया। बेटे तो
रोए होंगे, परिवार तो
रोया होगा।
क्योंकि उनको
तो यह दिखायी
भी न पड़ा होगा
कि क्या हुआ।
लेकिन बुद्ध प्रसन्न
हुए होंगे, बुद्ध के
जागरूक
भिक्षु समझे
होंगे।
उन्होंने समझा
होगा कि
अपूर्व घटा!
इसीलिए तो यह
कथा धम्मपद
में सम्मिलित
कर ली गयी।
सभी कथाएं
सम्मिलित नही
कर ली गयीं, चालीस
वर्षों में
हजारों बातें
घटी हैं बुद्ध
के जीवन में, सभी नहीं
सम्मिलित कर
ली गयीं। जो
बहुत प्रतीकात्मक
हैं, बहुत
सूचक हैं। यह
बड़ी सूचक घटना
है।
तो
लड़ो मत। जीवन
के लिए मत लड़ो, मोक्ष के
लिए लड़ो। लड़ना
हो तो मोक्ष
के लिए लड़ो।
जीवन को
लंबाने की
आकांक्षा मत
करो, आकांक्षा
ही करनी हो तो
जीवन से मुका
होने की आकांक्षा
करो।
मैं
एक कविता कल
पढ़ रहा था।
दिनकर की है, जा चुके
अब तो वह। ऐसे
ही लड़ते—लड़ते
गए। मरते समय भी
स्रोतापन्न
होने का
सौभाग्य नहीं
मिला। मेरे
पास आते थे, ध्यान की
बात भी पूछते
थे, कहते
थे कभी करूंगा
भी, लेकिन
चिंता उनको
देह की ही बनी
रहती थी। डायबिटीज
थी, तो
उसकी चिंता।
भोजन से प्रेम
था और
डायबिटीज होने
के कारण भोजन
अब ठीक से जो
करने का मन
होता था वह नहीं
कर पाते थे, उसकी बड़ी
पीड़ा थी। ऐसे
ही गए। उनकी
यह कविता कल
मेरे हाथ लग
गयी—
बुढ़ापा,
तुमसे
मेरी दोस्ती
नहीं, लड़ाई
है;
तुम्हारा
आना दोस्त का
आना नहीं
दुश्मन
की चढ़ाई है।
तुम
अकेले नहीं आए
विपत्तियों
की फौज सजाकर
लाए हो,
लेकिन
मैं
आत्मसमर्पण
नहीं करूंगा
जवानी
की आखिरी
दीवाल से पीठ
लगाकर
मैं
तुमसे अंत तक
लडूंगा।
लड़ते
रहे। कविता
ठीक ही है। वह
जो कह रहे हैं, ऐसा ही
किया
उन्होंने।
लेकिन जीवन के
लिए लड़ना, इसका
एक ही अर्थ
होता है—दूसरे
जीवन की मांग।
मौत तो आती, मगर मौत से
लड़कर तुम
दूसरे जीवन के
लिए रास्ता
बना लेते हो।
पैदा हो गए
होंगे किसी
गर्भ में, क्योंकि
इतनी देर वह
रुक नहीं
सकते। इतनी
प्रबल
आकांक्षा थी
जीवन की, जीवन
को पकड़ रखने
का ऐसा भाव था
कि देर न लगी
होगी, इधर
मरे होंगे उधर
पैदा हो गए
होंगे। फिर
वही चक्कर, फिर वही
उपद्रव, फिर
मरेंगे। आशा
की जा सकती है
कि इस बार ऐसी
भूल न करेंगे,
इस बार
स्रोतापन्न
होकर मरेंगे।
स्रोतापन्न
का अर्थ है, अब
मृत्यु को
स्वीकार करके
मर रहे हैं।
क्योंकि
मृत्यु जीवन
का अपरिहार्य
अंग है।
मृत्यु ऐसे ही
अनायास
दुर्घटना
नहीं है, मृत्यु
जीवन का ही
हिस्सा है।
मृत्यु जीवन
पर छायी है, जीवन में
छिपी है।
स्वीकार करके
मर रहे हैं, क्योंकि अब
जीवन की कोई
आकांक्षा
नहीं है। देख
लिया, बहुत
देख लिया, सब
तरफ से देख
लिया और कुछ
सार नहीं पाया,
इसलिए इस
आनंदभाव से मर
रहे हैं—लड़ते
हुए नहीं।
शातभाव से डूब
रहे हैं।
जो
शांत भाव से
मर जाए, उसका फिर
जन्म नहीं
होता। जो
परिपूर्ण
शांति में मर
जाए, वह
अनागामी हो
जाता है। वह
उस लोक में
थिर हो जाता
है, जिसको
बुद्ध
आर्यभूमि
कहते हैं।
निद्धन्तमलो
अनंगणो
दिब्बं
अरियभूमिमेहिसि।
मैं
तुमसे भी यही
कहता हूं। मौत
तो आएगी, उसको स्वीकार
करना। जीवन की
व्यर्थता दिख
जाए तो ही स्वीकार
कर सकोगे। अगर
जीवन में
सार्थकता दिखती
है, तो
कैसे स्वीकार
करोगे? तो
तुम लड़ोगे।
लड़े कि तुम
चूक जाओगे।
यहां लड़ने को
कुछ है ही
नहीं। यहां
जागने को बहुत
कुछ है, लड़ने
को कुछ भी
नहीं है।
जीतने को कुछ
भी नहीं है, जागमें को
बहुत कुछ है।
और जो जाग गया,
वही जीत
गया।
इसलिए
जागे पुरुषों
को हमने जिन
कहा है। जिन यानी
जीते हुए। मगर
उनकी सारी जीत
क्या थी? उनकी सारी
जीत उनके
जागरण में थी।
जीवन
एक तरह का
भुलावा है, छलावा
है। यह आशा
बंधाता है।
अभी तो कुछ भी
ठीक नहीं
है—कभी ठीक
नहीं होता—मगर
जीवन कहता है,
कल ठीक हो
जाएगा। अभी कल
तक तो रुको, एक दिन तो और
मांग लो, कौन
जाने कल ठीक
हो ही जाए। तो
जीवन जीता आशा
से।
अभी—अभी
कोहरा चीरकर
चमकेगा सूरज
चमक
उठेंगी ठठकी
नंगी भूरी
डालें
अभी—अभी
थिरकेगी
पछिया बयार
झरने
लग जाएंगे नीम
के पीले पत्ते
अभी—अभी
खिलखिलाकर
हंस पड़ेगा
कचनार
गुदगुदा
उठेगा उसकी
अगवानी में
अमलतास
की टहनियों का
पोर—पोर
अभी—अभी
करवटें लेंगे
बूंदों के
सपने
फूलों
के अंदर, फलियों के
अंदर
अभी—अभी
कोहरा चीरकर
चमकेगा सूरज
चमक
उठेंगी ठठकी
नंगी भूरी
डालें
अभी—अभी
कुछ होगा।
जल्दी कुछ होगा।
थोड़ी देर और
टिके रहो, थोडी देर
और लड़े जाओ, कौन जाने कल,
कल ही वह
नियति का दिन
हो जब तुम पर
सौभाग्य की वर्षा
हो, छप्पर
टूटे! कौन
जाने, कल
तो और रुक लो, एक दिन तो और
देख लो। अब तक
हारे, सच
है, लेकिन
सदा थोड़े
हारते रहोगे।
ऐसा मन
समझाता। ऐसा
मन आशा की डोर
में लटकाए
रखता और आदमी
सरकता रहता।
अगर जीवन से
जागना है, तो
आशा से जागना
पड़ता है।
बुद्ध
ने बड़ा जोर
दिया है अनाशा
पर। बुद्ध आशीष
देते थे कि
भिक्षु, तेरी आशा मर
जाए। मेरा
आशीष। आशा मर
जाए! कि तू बिलकुल
ही निराश हो
जाए, ऐसा
मेरा आशीष है।
तुम तो
घबडाओगे, तुम
कहोगे, यह
तो बात बड़ी
बुरी हो
गयी—निराश हो
जाओ!
निराश
का अर्थ होता
है आस—रहित हो
जाओ। कोई आशा
न रहे। यह कोई
राखद अवस्था
नहीं है
निराशा, यह तो केवल
जागरण की
अवस्था है। अब
कोई आशा न रही,
अब भविष्य न
रहा, अब कल
की कोई बात न
रही। जब कल की
कोई बात नहीं
तो तुम्हारी
ऊर्जा भविष्य
में नहीं
दौड़ती।
भविष्य तो मरुस्थल
की तरह है, उसी
में तुम्हारी
ऊर्जा खो जाती
है, नदी खो
जाती है
मरुस्थल में।
जब भविष्य
नहीं बचता, कोई आशा
नहीं बचती, तो तुम्हारी
ऊर्जा इकट्ठी
होती है, तुम्हारी
ऊर्जा के
सरोवर बन जाती
है। उसी सरोवर
में प्रतिष्ठा
है—आत्मप्रतिष्ठा,
स्वबोध। और
वही सरोवर एक
दिन निर्वाण
सिद्ध होता
है।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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