अध्याय—8
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः
परमां गतिम्।
यं
प्राप्य न निवर्तन्ते
तद्धाम परमं मम।।
21।।
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि
येन सर्वमिदं ततम्।। 22।।
और
जो वह अव्यक्त
अक्षर ऐसे कहा
गया है उस ही
अक्षर नामक
अव्यक्त भाव
को परम गति
कहते हैं, तथा
जिस सनातन
अव्यक्त को
प्राप्त होकर
मनुष्य पीछे
नहीं आते हैं,
वह मेरा परम
धाम है।
और
हे पार्थ, जिस
परमात्मा के
अंतर्गत
सर्वभूत हैं
और जिस परमात्मा
से यह सब जगत
परिपूर्ण है,
वह सनातन अव्यक्त
परम पुरुष
अनन्य भक्ति
से प्राप्त होने
योग्य है।
गति
संसार का
स्वभाव है।
ठहरना नहीं और
चलते ही रहना, ऐसा
संसार का
स्वरूप है।
यहां कुछ भी
ठहरा हुआ नहीं
है; जो
ठहरा हुआ
मालूम होता है,
वह भी ठहरा
हुआ नहीं है।
जो चलता हुआ
मालूम होता है,
वह तो चलता
हुआ है ही; जो
ठहरा हुआ
मालूम होता है,
वह भी चलता
हुआ है। पत्थर
ठहरे हुए
मालूम पड़ते
हैं, मकानों
की दीवालें
ठहरी हुई
मालूम पड़ती
हैं, लेकिन
अब विज्ञान
कहता है, वे
सब भी चलती
हुई हैं। और
यह गति
बहुआयामी है,
मल्टी-डायमेंशनल
है। इसे हम
थोड़ा समझें, तो परम गति
का हमें खयाल
आ सके कि वह
क्या है।
दीवाल
दिखती है ठोस, जरा
भी चलती हुई
नहीं, लेकिन
वैज्ञानिक
कहते हैं, दीवाल
का अणु-अणु चल
रहा है। अगर
दीवाल के हम परमाणुओं
को देखें, तो
सब परमाणु
गतिमान हैं।
और प्रत्येक
परमाणु के
भीतर जो और
छोटे खंड हैं,
इलेक्ट्रांस,
वे बड़ी
तीव्र गति से
चक्कर काट रहे
हैं। हमें
दीवाल थिर
दिखाई पड़ती है,
क्योंकि
हमारी आंखें
उतनी सूक्ष्म
गति को पकड़ने
में असमर्थ
हैं। गति
जितनी तीव्र
हो जाती है, उतनी ही
हमारी आंख पकड़ने
में मुश्किल
हो जाती है।
जैसे
एक बिजली का
पंखा बहुत जोर
से चलता है, तो
आपको पता नहीं
चलता है कि
उसमें तीन पंखुड?ियां हैं, चार पंखुड़ियां
हैं या दो पंखुड़ियां
हैं। अगर पंखा
और भी तेजी से
चले, तो
आपको यह भी
पता नहीं
चलेगा कि पंखे
में पंखुड़ियां
हैं। ऐसा ही
पता चलेगा कि
गोल टीन का
घेरा ही घूम
रहा है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
पंखे की गति
इतनी बढ़ाई जा
सकती है कि आप
उसके पार हाथ
न डाल सकें, और
इतनी भी बढ़ाई
जा सकती है कि
आप उसके ऊपर
बैठे रहें और
नीचे जो पंखा
चल रहा है, वह
आपको थिर
मालूम पड़े।
इतनी तेजी से
घूम सकता है
कि दो पंखुड़ियों
के बीच की जो
खाली जगह है, जब तक आपको
उस खाली जगह
का पता चले, उसके पहले
ही दूसरी पंखुड़ी
आपके नीचे आ
जाए, तो
आपको कभी भी
पता नहीं
चलेगा। पता
चलने में समय
चाहिए। और अगर
तीव्रता से
घूमती हो गति
और हमारी पकड़ने
की क्षमता कम
पड़ती हो, तो
गति का पता
नहीं चलता।
पत्थर
भी चल रहे हैं, उनका
अणु-अणु घूम
रहा है।
दीवालें भी चल
रही हैं, उनका
अणु-अणु घूम
रहा है। उतनी
ही तेज गति से
उनका अणु घूम
रहा है, जितनी
तेज गति से
आकाश में चांदत्तारे
घूम रहे हैं।
इस जगत में
कुछ भी थिर
नहीं है।
एडिंग्टन ने
अपनी आत्मकथा
में लिखा है
कि जीवनभर
पदार्थों की
खोज करने के
बाद एक शब्द
मुझे ऐसा मिला
है मनुष्य की
भाषा में, जो
कि नितांत ही
झूठ है, और
वह शब्द है, रेस्ट, ठहराव।
कोई चीज ठहरी
हुई नहीं है।
इसलिए जब भी
हम कहते हैं
किसी चीज को
एट रेस्ट, तो
हम गलत ही
कहते हैं। कोई
चीज ठहरी हुई
नहीं है। कोई
चीज ठहरी हुई
हो नहीं सकती
है। इस जगत में
होने के लिए
चलना ही नियम
है।
मैंने
कहा,
बहुआयामी
है यह गति। आप
यहां बैठे हुए
मालूम पड़ रहे
हैं। निश्चित
ही, आप
बिलकुल बैठे
हुए हैं, चल
नहीं रहे हैं।
लेकिन जिस
पृथ्वी पर आप
बैठे हैं, वह
बड़ी तेजी से
भागी जा रही
है। उस पृथ्वी
की दोहरी गति
है। आप बैठे
हुए हैं जिस
पृथ्वी पर, वह पृथ्वी
अपनी कील पर घूम
रही है। और
अपनी कील पर
ही नहीं घूम
रही, कील
पर घूमती हुई
वह सूर्य का
चक्कर भी लगा
रही है। दोहरी
गति है उसकी।
और जिस सूर्य
का वह चक्कर
लगा रही है, वह सूर्य भी
अपनी कील पर
घूम रहा है इस
पृथ्वी को
लिए। और अपने
सब ग्रहों को
लेकर वह सूर्य
भी किसी महासूर्य
का परिभ्रमण
कर रहा है।
ऐसा
मल्टी-डायमेंशनल, गति
के भीतर गति
है, और गति
के भीतर गति
है। शायद जिस महासूर्य
का यह सूर्य
चक्कर लगा रहा
है, और
अनेक सूर्य
चक्कर लगाते
होंगे, वह
सूर्य भी अपनी
कील पर घूमकर
और किसी महान
से महान सूर्य
के चक्कर पर
निकला होगा।
परिभ्रमण, पर्तों-पर्तों
में, जीवन
का स्वभाव है।
इस
परिभ्रमणशील
जीवन में
शांति असंभव
है। इस गति से
भरे हुए, भागते
हुए जगत में
कोई विश्राम
संभव नहीं है।
और जब आप
विश्राम भी कर
रहे होते हैं
अपने बिस्तर
पर लेटकर, तब
आपका खून पूरी
गति लगा रहा
है। आपके
कण-कण शरीर के
गति कर रहे
हैं। आपका
हृदय धड़कन कर
रहा है; आपकी
श्वास गति कर
रही है; आपका
मन स्वप्नों
में परिभ्रमण
कर रहा है। जब आप
बिस्तर पर
विश्राम कर
रहे हैं, तब
भी कहीं कोई
आपके भीतर
विश्राम की
जगह नहीं है।
इस जगत में
होते हुए
विश्राम नहीं
है।
कृष्ण
अर्जुन से
कहते हैं, और
जो वह अव्यक्त
अक्षर ऐसा कहा
गया है, उस
अक्षर नामक
अव्यक्त भाव
को परम गति
कहते हैं। और
अर्जुन, अगर
तू उस परम गति
को उपलब्ध
होना चाहता है,
जहां
विश्राम
स्वभाव है...।
इस जगत
में तो श्रम
ही स्वभाव है, अशांति
ही परिणाम है।
इस जगत में
रहते हुए, इस
जगत की कील पर
घूमते हुए, न कोई
विश्राम को
उपलब्ध हो
सकता है, न
कोई
विश्रांति
को। यदि कोई
विश्रांति की
खोज में जाना
ही चाहे, तो
उसे अपनी
चेतना का तल
ही बदलना
पड़ेगा। परिधि
से हटाकर
केंद्र पर, संसार से
हटाकर ब्रह्म
पर, उसे
अपनी चेतना का
पूरा
रूपांतरण कर
लेना होगा।
वह जो अक्षर
नाम से कहा है, उस
अक्षर नामक
अव्यक्त भाव
को ही परम गति
कहते हैं।
यहां
दो बातें समझ
लेनी चाहिए।
अक्षर का अर्थ
है,
जो कभी
क्षीण नहीं
होता, क्षरता
नहीं। जैसा है,
वैसा ही है।
कणभर
जिसमें कभी
कोई रूपांतरण
नहीं होता, जो अपने
स्वभाव से जरा
भी च्युत नहीं
होता। अच्युत
है, ठहरा
हुआ है।
देखा
है रास्ते पर
चलती हुई बैलगाड़ी
को। चाक चलता
है,
लेकिन कील
ठहरी रहती है।
और बड़ा मजा तो
यह है--और इस
मजे के राज को
जान लेना, जीवन
के बड़े राज को
जान लेना
है--कि जिस कील
पर चाक घूमता
है, वह कील
जरा भी नहीं
घूमती है, वह
खड़ी ही रहती
है। चाक
हजारों मील की
यात्रा कर
लेता है, कील
अपनी जगह को
छोड़ती ही
नहीं। और मजा
इसलिए कहता
हूं कि अगर यह
कील न हो, तो
यह चाक जरा भी
घूम नहीं
सकता। इस ठहरी
हुई कील के
कारण ही, इसके
आधार पर ही
चाक घूमता है।
संसार
का अस्तित्व
असंभव है, अगर
इस संसार के
भीतर गहन में,
इसकी
गहराइयों में,
कहीं कोई
अव्यक्त, कहीं
कोई अक्षर कील
मौजूद न हो।
यह पूर्वीय मनीषा
की खोजों में
से एक गहनतम
खोज है।
क्योंकि पाया
हमने कि जहां
भी परिवर्तन
है, वहां
परिवर्तन के
आधार में कोई
अपरिवर्तित चाहिए।
और जहां भी
गति है, वहां
गति के मूल
में कोई अगति
चाहिए। और
जहां सब चीजें
चल रही हों, वहां उनके
चलने के लिए
भी कोई अचल
चाहिए। इस गत्यात्मक
जगत में
गति-शून्य कोई
कील चाहिए।
उस कील
को ही कृष्ण
अक्षर कह रहे
हैं। वे कहते हैं, वह
जो अक्षर है, अव्यक्त है,
वह भाव ही
परम गति है।
लेकिन
इस अक्षर तक
पहुंचने के
लिए हम कौन-सी
यात्रा करें? इस
अव्यक्त भाव
को, जो गहन
में छिपा है, निगूढ़ है, इस तक
हम कैसे
पहुंचें? क्योंकि
हमारे
पहुंचने का
कोई भी उपाय
अगर परिधि पर
हुआ और चाक के
सहारे हुआ, तो हम कभी भी
इस कील तक
नहीं पहुंच
पाएंगे।
ऐसा
समझें कि एक
बड़ा चाक है, उस
पर आप बैठे
हुए हैं। और
आप चाक पर
घूमते रहें, हजारों-हजारों
चक्कर लगाएं,
तो भी आप
केंद्र पर
नहीं
पहुंचेंगे।
यद्यपि चाक
केंद्र पर ही
घूमता है, कील
पर ही घूमता
है, फिर भी
आप कील पर
नहीं
पहुंचेंगे
चाक पर घूमते
हुए। आपको चाक
छोड़कर कील की
तरफ सरकना
होगा। आपको
धीरे-धीरे चाक
से हट जाना
होगा। परिधि
से हटना होगा,
केंद्र की
तरफ सरकना
होगा। और जिस
दिन आप चाक को
बिलकुल छोड़
देंगे, उसी
क्षण आप कील
को, अक्षर
को उपलब्ध हो
जाएंगे।
संसार
में हम कितनी
ही यात्राएं
करें, उस
अक्षर को हम न
खोज पाएंगे।
कोई चाहे तो
जाए हिमालय, केदार और बद्री,
और कोई चाहे
तो जाए कैलाश।
कोई चाहे तो
मक्का और
मदीना, कोई
काशी, कोई
गिरनार, जिसे
जहां जाना हो,
भटकता रहे।
संसार में
कहीं भी कोई
ऐसी जगह नहीं
है, जहां
से आप कील पर
पहुंच
जाएंगे।
संसार की कोई
भी यात्रा
तीर्थयात्रा
होने वाली
नहीं है। जहां
पहुंचने के
लिए पैरों की
जरूरत पड़ती हो,
वह परम धाम
नहीं है। और
जहां पहुंचने
के लिए शरीर
को साधन बनाना
पड़ता हो, वह
परिधि ही होगी,
वह केंद्र
नहीं होगा।
जहां जाने के
लिए बाहर ही
गति करनी पड़ती
हो, वह
अंतरतम नहीं
है। बाहर चलकर
हम बाहर ही
पहुंचेंगे।
संसार में
यात्रा करके
हम संसार में
ही खड़े
रहेंगे।
पैरों से चलकर
हम वहीं पहुंच
सकते हैं, जहां
पैर पहुंचा
सकते हैं।
उस परम
गति अक्षर को
पाने के लिए
तो हमें अपने भीतर
एक ऐसी यात्रा
करनी पड़ेगी, जिसमें
पैरों की कोई
जरूरत नहीं
पड़ती। एक ऐसी यात्रा
करनी पड़ेगी, जिसमें हमें
बाहर नहीं, भीतर की तरफ
जाना पड़ता है।
एक ऐसी यात्रा
करनी पड़ेगी, जिसमें
इंद्रियों का
उपयोग नहीं
होता, इंद्रियों
का अनुपयोग
होता है। एक
ऐसी यात्रा
करनी पड़ेगी, जहां मन का
सहारा लेना
नहीं पड़ता, मन का सहारा
छोड़ना पड़ता
है। एक ऐसी
यात्रा, जिसमें
हम चाक के
घूमते हुए रूप
को छोड़कर धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे
कील की तरफ
सरकते जाते
हैं और एक दिन
वहां पहुंच
जाते हैं, जहां
चाक नहीं है, कील ही है।
वह कील
प्रत्येक के
भीतर है, क्योंकि
प्रत्येक भी
एक छोटा घूमता
हुआ चाक है।
जैसा मैंने
कहा कि
मल्टी-डायमेंशनल
है गति।
पृथ्वी अपनी
कील पर घूम
रही है और साथ
ही सूर्य का
चक्कर भी लगा
रही है। ठीक
हममें से प्रत्येक
व्यक्ति
संसार के
चारों तरफ घूम
रहा है और
हमारे भीतर भी
कील पर हमारे
शरीर का चाक
घूम रहा है।
हमारी कील पर
हमारे मन का
चाक घूम रहा
है। हमारी कील
पर हमारी
वासनाओं का
चाक घूम रहा
है। हमारी कील
पर हमारी तृष्णा,
हमारी
कामना, हमारा
क्रोध, हमारा
लोभ, उन
सबके चाक पर्त
दर पर्त घूमते
चले जा रहे हैं।
चाक के भीतर
चाक हैं, वे
घूमते चले जा
रहे हैं। जिस
व्यक्ति को
अक्षर को पाना
है, उसे
धीरे-धीरे
एक-एक घूमते
चाक को छोड़कर
भीतर सरकना
है।
सबसे
ज्यादा
कठिनाई हमारे
भीतर सरकने
में विचार के
चक्र की है।
क्योंकि
विचार इतनी
तीव्रता से
घूम रहा है और
न मालूम
अज्ञान के किस
गहन क्षण में
हमने मान रखा
है कि हम
विचार ही हैं, तो
शरीर से अपनी
भिन्नता को
समझ लेने में
तो बहुत
कठिनाई नहीं
होती, लेकिन
विचार से अपनी
भिन्नता को
समझने में बहुत
कठिनाई होती
है।
इसलिए
अगर किसी आदमी
का शरीर बीमार
हो और हम कहें
कि तुम्हारा
शरीर बीमार है, तो
वह नाराज नहीं
होता। लेकिन
किसी आदमी का
दिमाग खराब हो
और हम कहें कि
तुम्हारा
दिमाग खराब है,
तो वह आदमी
नाराज हो जाता
है। क्योंकि
शरीर से तो एक
फासला हमको
लगता ही है। शरीर
बीमार भी हो, तो भी मैं
स्वस्थ हो
सकता हूं।
लेकिन अगर मन
बीमार हो, तो
मैं ही बीमार
हो गया।
इसलिए
बीमार तो मान
लेता है कि आप
ठीक कह रहे हैं; पागल
कभी नहीं
मानता कि आप
ठीक कह रहे
हैं। अगर पागल
से कहो कि
पागल हो, तो
पागल सब तरह
के उपाय करेगा
कि मैं पागल नहीं
हूं। बीमार
ऐसे उपाय नहीं
करता।
क्योंकि बीमार
समझता है कि
शरीर बीमार है,
मैं बीमार
नहीं हूं।
सिर्फ
ज्ञानियों से
अगर कोई कह दे
कि पागल हो, तो वे
परेशान नहीं
होते, क्योंकि
मन से भी उनकी
दूरी स्थापित
हो जाती है।
अन्यथा किसी
के भी मन को
जरा-सी चोट, शरीर को लगी
चोट से ज्यादा
गहरी मालूम
पड़ती है। किसी
का पैर काट
डालें, तो
इतनी तकलीफ
नहीं होती; किसी के एक
विचार का खंडन
कर दें, तो
पीड़ा ज्यादा
होती है।
आदमी
अपने विचार के
लिए मरने को, कुर्बान होने को
तैयार होता
है। फांसी लग
जाए, उसकी
तैयारी है; लेकिन मेरा
विचार नहीं
छोड़ सकता हूं।
क्यों? क्योंकि
विचार के साथ
हमने बहुत
गहरा तादात्म्य
बनाया है। असल
में हमें ऐसा
लगता है कि शरीर
बाहर की पर्त
है और विचार
मेरे भीतर का
केंद्र है।
यह झूठ
है। विचार भी
मेरे भीतर का
केंद्र नहीं
है,
विचार भी
बाहर की ही एक
पर्त है। मेरे
भीतर का केंद्र
तो अक्षर है।
विचार तो
अक्षर नहीं
है। विचार तो
अभी है और क्षणभर
बाद बदल जाता
है। सुबह जो
था, दोपहर
नहीं होता।
दोपहर जो था, वह सांझ
नहीं होता।
इसलिए अगर आप
विचार के लिए
थोड़ी देर रुक
जाएं, तो
हो सकता है, वह काम करने
की आपको कभी
जरूरत ही न
पड़े।
बर्नार्ड
शा कहता था कि
जब मेरी टेबल
पर बहुत
चिट्ठी-पत्रियां
इकट्ठी हो
जाती हैं, पंद्रह-पंद्रह
दिन बीत जाते
हैं और सैकड़ों
पत्र इकट्ठे
हो जाते हैं
और जवाब देना
मुश्किल होता
है, तब मैं
थोड़ी-सी शराब
पी लेता हूं
और सब काम निपट
जाता है।
तो एक
मित्र ने उससे
पूछा कि क्या
शराब पीकर फिर
तुममें इतनी
ताकत आ जाती
है कि तुम
सारे पत्रों
के उत्तर दे
देते हो? बर्नार्ड
शा ने कहा, नहीं।
शराब पीकर मैं
उस हालत में
हो जाता हूं कि
पत्रों की
फिक्र ही छूट
जाती है, उत्तर
देने की जरूरत
ही नहीं रहती।
और दो-चार दिन,
आठ दिन, दस
दिन, पंद्रह
दिन, जब
इतनी देर हो
जाती है, तो
फिर पत्र अपना
जवाब खुद ही
दे लेते हैं, फिर मुझे
उनके देने की
और जरूरत नहीं
रह जाती।
पंद्रह दिन तक
जिस पत्र का
जवाब न दिया
हो, उसका
जवाब लिखने
वाले को मिल
ही गया होता
है।
बर्नार्ड
शा को कोई
अपना एक नाटक
दिखाने ले गया
था,
कोई एक लेखक,
जिसका नाटक
प्रदर्शित हो
रहा था।
बर्नार्ड शा
पूरे नाटक में
सोया रहा।
लेखक बहुत
परेशान था!
बर्नार्ड शा
की स्तुति का
एक शब्द भी
मिल जाए, तो
वह धन्य हो
जाता, लेकिन
पूरे वक्त
बर्नार्ड शा
सोता रहा।
दो-चार दफा
उसने जगाने की
भी कोशिश की, फिर सोचा कि
कहीं जगाने से
वह और उलटा
नाराज न हो
जाए।
जब
नाटक पूरा हुआ, बर्नार्ड
शा ने कहा कि
बड़ा आनंद हुआ।
उस लेखक ने
कहा, लेकिन
मैं आशा करके
लाया था कि आप
दो शब्द मेरे
नाटक के संबंध
में कहेंगे, कोई मत
व्यक्त
करेंगे, आप
पूरे समय सोए
रहे! बर्नार्ड
शा ने कहा, सोया
रहना भी एक
प्रकार का मत
व्यक्त करना
है, ए सार्ट
आफ ओपीनियन।
और जो मैंने
कहा कि बड़ा
आनंद आया, वह
इसीलिए कहा कि
दोत्तीन
रात से मैं
बिलकुल सोया
नहीं था।
तुम्हारे नाटक
ने ऐसी गहरी
नींद ला दी कि
मन बड़ा तृप्त
हो गया!
पंद्रह
दिन अगर पत्र
का उत्तर न
दें,
तो उत्तर
नकारात्मक है,
ऐसा लिखने
वाले को मिल
ही जाता है।
बर्नार्ड शा
कहता था, पंद्रह
दिन तक हिम्मत
जुटानी पड़ती
है न देने की, फिर विचार
इतना पुराना
पड़ जाता है और
समय इतना
व्यतीत हो
जाता है कि
कोई प्रेरणा
भी नहीं रह जाती
है भीतर।
इसीलिए
ज्ञानियों ने
कहा है, अगर
बुरा विचार
उठे, तो थोड़ी
देर रुक जाना,
क्योंकि
उतनी देर
रुकने में वह
विचार ही जा
चुका होगा।
अगर हत्याएं
करने वाले लोग
दो क्षण भी
रुक जाएं, तो
हत्याएं
नहीं हों। आत्महत्याएं
करने वाले लोग
एक क्षण के
लिए ठहर जाएं,
तो
आत्महत्या न
हो। इसलिए
ज्ञानियों ने
यह भी कहा है
कि जब अच्छा
विचार उठे, तो तत्काल
उसे पूरा कर
लेना, एक
क्षण मत रुकना,
क्योंकि एक
क्षण रुकने पर
वह भी बदल
जाएगा।
विचार
इतनी तेजी से
बदल रहा है, फिर
भी हम विचार
को अपना
स्वभाव मान
लेते हैं।
स्वभाव का तो
अर्थ ही होता
है, जो
बदले नहीं।
क्या आपको पता
है, बचपन
के आपके
विचारों का
क्या हुआ? क्या
आपको पता है, आपके जवानी
के विचारों का
क्या हुआ? कहां
खो गए? किस
रास्ते पर पड़े
रह गए? आज
उनका कोई भी
पता नहीं है।
और कल जो बात
बहुत महत्वपूर्ण
मालूम होती थी,
क्या आज भी
उतनी ही
महत्वपूर्ण
मालूम होती है?
कल जिसके
लिए जान दे
सकते थे, क्या
आज भी उसके
लिए जान देना
उचित मालूम
पड़ेगा?
सब बदल
रहा है। विचार
भी इतनी तेजी
से घूम रहे हैं, जिसका
कोई हिसाब
नहीं, लेकिन
फिर भी हम
विचारों से
अपने को एक
मान लेते हैं,
क्योंकि हम
कभी विचारों
के भीतर और
प्रवेश नहीं
किए। जो विचार
के भी भीतर
प्रवेश करेगा,
निर्विचार
को पाएगा, वही
उस अक्षर को
अपने भीतर
अनुभव कर पाता
है, उस कील
को, जिस पर
विचार का चाक
घूमता है, शरीर
का चाक घूमता
है, वासना
का चाक घूमता
है; और फिर
बड़े संसार का
चाक, और
फिर और बृहत
ब्रह्मांड का
चाक।
प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर वह कील
है। उस कील को
पा लेने से
कृष्ण कहते
हैं,
परम गति
उपलब्ध होती
है। अक्षर को,
अव्यक्त को
पा लेना, परम
गति को पा
लेना है। तथा
जिस सनातन
अव्यक्त को
प्राप्त होकर
मनुष्य पीछे
नहीं आते हैं,
वही मेरा
परम धाम है।
जिस
सनातन
अव्यक्त को
प्राप्त होकर
मनुष्य पीछे
वापस नहीं
आते! एक ऐसी
जगह है चेतना
के विकास की, जिसे
हम प्वाइंट आफ
नो रिटर्न
कहें, जहां
से कोई पीछे
वापस नहीं
लौटता।
हम
पानी को गरम
करते हैं, निन्यानबे
डिग्री तक भी
पानी गरम हो
जाए, तो भी
पीछे वापस लौट
सकता है।
लेकिन सौ
डिग्री तक गरम
होकर भाप बन
जाए, तो
फिर पीछे वापस
नहीं लौट
पाएगा। सौ डिग्री
पार कर ले, तो
भाप बनकर आकाश
में उड़ जाएगा।
अब यह
बड़े मजे की
बात है! पानी
की गति नीचे
की तरफ है, भाप
की गति ऊपर की
तरफ है। अगर
पानी को बहा
दें, तो गङ्ढे
की तलाश
करेगा। अगर
भाप को छोड़
दें, तो
आकाश की खोज
करेगी, जितने
ऊपर जा सके।
और एक बिंदु
है सौ डिग्री
का, सौ
डिग्री
तापमान पर
पानी भाप बन
जाता है। उसके
स्वभाव में एक
मौलिक
परिवर्तन
होता है, गुणात्मक,
कि वह नीचे
की तरफ जाना
छोड़कर ऊपर की
तरफ जाना शुरू
कर देता है।
लेकिन अगर
निन्यानबे
डिग्री तक गरम
किया हो और
फिर पानी को
वैसी ही गरमी
पर छोड़ दें, तो पानी
वापस लौट
जाएगा--अट्ठानबे,
सत्तानबे,
नब्बे--नीचे
गिर जाएगा और
पानी पानी ही
रहेगा।
अब यह
भी मजे की बात
है कि शून्य
डिग्री पर ठंडा
पानी भी नीचे
की तरफ बहेगा, निन्यानबे
डिग्री पर गरम
पानी भी नीचे
की ही तरफ
बहेगा। लेकिन
एक डिग्री और,
सौ डिग्री,
और पानी ऊपर
की तरफ यात्रा
शुरू कर देता
है। पानी पानी
ही नहीं रह जाता,
भाप हो जाता
है; विराट
आकाश में खोने
के लिए तैयार
हो जाता है।
मनुष्य
की चेतना की
भी ऐसी एक
स्थिति है, एक
सौ डिग्री का
बिंदु है, उस
डिग्री के
पहले आदमी
कितना ही ऊंचा
चेतना को ले
जाए, बार-बार
गिरता रहता
है। आप भी कई
बार स्वर्ग के
इतने करीब
मालूम पड़ते हैं
कि एक कदम और, और भीतर
प्रवेश कर
जाएंगे।
लेकिन जब तक
आप यह सोचते
हैं, पाते
हैं कि आप
काफी दूर हट
चुके, स्वर्ग
काफी फासले पर
है।
हममें
से सभी लोग
कभी-कभी
निन्यानबे
डिग्री तक भी
पहुंच जाते
हैं। कभी किसी
प्रार्थना के
क्षण में, कभी
किसी पूजा के
भाव में, कभी
किसी प्रेम की
स्थिति में, कभी किसी
संगीत को
सुनकर, कभी
किसी सुगंध के
सहारे, कभी
किसी सौंदर्य
के निकट, कभी
हम निन्यानबे
डिग्री तक भी
पहुंच जाते हैं
और ऐसा लगता
है कि बस...।
लेकिन फिर
वापस गिर जाते
हैं।
आपने
शायद अनुभव
किया हो, कविता
पढ़ते हैं किसी
कवि की और ऐसा
लगता है कि यह
आदमी कितना
निकट नहीं
पहुंच गया
होगा सत्य के!
और फिर एक दिन
वही आदमी चाय
की दुकान में
चाय पीता और बीड़ी फूंकता
मिल जाता है।
और आप एकदम
हैरान हो जाते
हैं कि यही वह
आदमी है, जिसने
इतनी अदभुत
कविता लिखी!
क्या यही वह
आदमी है, जिससे
ऐसी
पंक्तियों का
जन्म हुआ? क्या
यही वह आदमी
है, जिसके
भाव ने इतनी
गहराई और
ऊंचाई को
स्पर्श किया?
यह आदमी
कैसे हो सकता
है!
नहीं, यह
आदमी नहीं है।
यह निन्यानबे
डिग्री पर किसी
क्षण में रहा
होगा। इसने
आकाश का खुला
रूप देखा, तारों
में झांककर
देखा, आंखें
मिलाईं
इसने बड़ी
ऊंचाइयों से,
लेकिन अब यह
वापस अपनी जगह
लौट आया है।
कूलरिज
ने,
मरने के बाद
पता चला, कि
कोई चालीस
हजार कविताएं
अधूरी छोड़ी
हैं। मित्र तो
जानते थे और
कूलरिज से
कहते थे कि इन
कविताओं को
पूरा कर दो।
इतनी कविताएं
अधूरी क्यों
कर रखी हैं? किसी कविता
में सात कड़ी
हैं, तो
आठवीं कड़ी
नहीं है। बस, एक कड़ी खाली
है। एक कड़ी
पूरी हो जाती,
तो शायद एक
महान कविता का
जन्म होता!
लेकिन
कूलरिज कहता
था,
सात कड़ी
होते-होते मैं
तो वापस लौट
गया। वह आठवीं
कड़ी आई ही
नहीं और मैं
वापस जमीन पर
लौट आया। अब
अगर मैं चाहूं,
तो आठवीं
कड़ी जोड़ सकता
हूं। लेकिन वह
कड़ी उस ऊंचाई
की न होगी, जिस
ऊंचाई की सात कड़ियां
हैं। और मैं
भलीभांति
जानता हूं कि
वही कड़ी इस
कविता की नाव
को डुबाने
वाली सिद्ध
होगी। इसलिए
मैं
प्रतीक्षा
करूंगा, किसी
दिन फिर उस
निन्यानबे
डिग्री पर
चित्त होगा, और अगर कोई
कड़ी उतर आई, तो जोड़
दूंगा, अन्यथा
मैं नहीं जोड़
पाऊंगा।
इसलिए
जगत के समस्त
महान
चित्रकार, कवि
और संगीतज्ञ
निरंतर ऐसा
अनुभव करते
हैं कि जब
उनसे काव्य का,
चित्र का
जन्म होता है,
तो वे मौजूद
नहीं होते; कोई और! कोई
और ही उनके
भीतर से बोल
जाता है, कोई
और ही उनके
भीतर से गा
जाता है, कोई
और ही उनकी
अंगुलियों
में थिरकता है
और उनके सितार
को बजा जाता
है। यह कोई और
नहीं है, यह
उनका ही एक
ऊंचा उठा हुआ
रूप है, जिसकी
उन्हें स्वयं
भी खबर नहीं।
लेकिन वापस गिर
जाते हैं।
काव्य
और धर्म में
यही अंतर है, आर्ट
और रिलीजन
में यही अंतर
है। काव्य
निन्यानबे
डिग्री के इस
पार गिर जाता
है। धर्म
सिर्फ एक
डिग्री और ऊपर
छलांग लेता है
और सौ डिग्री
के पार हो जाता
है। इसलिए
काव्य बहुत
बार धर्म के
निकट पहुंचता
है, और
धर्म से बहुत
बार महाकाव्य
का जन्म होता
है।
इसलिए
हमने पुराने
दिनों में एक
और शब्द खोजा
हुआ था, जिसका
अर्थ कवि ही
होता है, वह
शब्द है, ऋषि।
ऋषि का अर्थ
कवि ही होता
है, लेकिन
एक भिन्न गुण
के साथ। ऋषि
हम उस कवि को कहते
हैं, जो उस
जगह से गा रहा
है, जहां
से वापस लौटना
असंभव है, प्वाइंट
आफ नो रिटर्न।
वह भी गीत को
ही जन्म देता
है।
उपनिषद
महाकाव्य
हैं। गीता
स्वयं
महाकाव्य है।
लेकिन कृष्ण
उस जगह से इस
गीत को जन्म
देते
हैं--इसलिए
उसका नाम है, भगवत्गीता;
गीत भगवान
का, गीत
भागवत चैतन्य
का--उस जगह से
इस गीत को
जन्म मिलता है,
जहां से
लौटना संभव
नहीं है।
फिर भगवत्गीता
के न मालूम
कितनी भाषाओं
में रूपांतरण
हुए हैं, लेकिन
अब तक एक भी
ऋषि उपलब्ध
नहीं हुआ उसके
रूपांतरण के
लिए। कवियों
ने रूपांतरण
किए हैं।
फासला ज्यादा
नहीं है।
फासला ज्यादा
नहीं है।
कभी-कभी तो
कोई कवि
बिलकुल कृष्ण
के करीब पहुंच
जाता है। अगर
कृष्ण एक सौ
डिग्री के पार
से बोल रहे
हैं, तो
कभी-कभी कोई
कवि ठीक
निन्यानबे
डिग्री के पास
से बोलता है।
एक डिग्री का
फासला कोई बड़ा
फासला नहीं है,
लेकिन उससे
बड़ा कोई फासला
नहीं है। वहां
एक डिग्री भी
बहुत कीमती
है।
कितना
ही बड़ा कवि, कितनी
ही बड़ी कविता
को जन्म दे, वह ऋषि नहीं
हो पाता, क्योंकि
वापस-वापस गिर
जाता है। और
जब कविता को
जन्म देने
वाला ही वापस
गिर जाता हो, तो कविता
में डाले गए
जो अर्थ हैं, वे
ऊर्ध्वगामी
नहीं हो सकते;
वे नीचे की
तरफ ही बहने
वाले होते हैं,
चाहे कितनी
ही ऊंचाई की
डिग्री क्यों
न रही हो।
इसलिए
बड़े से बड़ा
काव्य भी नीचे
की तरफ ही
बहता हुआ
मालूम पड़ता
है। चाहे
कालिदास का हो, तो
भी नीचे की
तरफ ही बहता
हुआ मालूम
पड़ता है। बड़े
से बड़ा काव्य
भी मनुष्य की
कामवासना की
तरफ ही बहता
हुआ मालूम
पड़ता है।
ऋषि
हमने उसे कहा
है,
जो चेतना की
उस जगह से गीत
को जन्म देता
है या किसी भी
चीज को जन्म
देता है, जहां
से लौटना संभव
नहीं।
एक
क्रिस्टलाइजेशन
का,
एक स्वयं के
भीतर संगठित
हो जाने का एक
क्षण है, जिसके
पार गिरना
नहीं होता। इस
जिस सनातन अव्यक्त
को प्राप्त
होकर मनुष्य
पीछे नहीं आते,
वही मेरा
परम धाम है, वही मेरा घर
है। बाकी सब
रास्ते के पड़ाव
हैं, जहां
आदमी ठहरता है
क्षणभर
और आगे बढ़
जाता है, मंजिल
नहीं है।
परमात्मा की
मंजिल। और
सबके भीतर
परमात्मा
छिपा है, उसी
यात्रा पर, उसी
परमात्मा की
मंजिल के लिए।
वह मंजिल कहां
है?
कृष्ण
कहते हैं, सनातन
अव्यक्त, तो
जो सदा से
अप्रकट है, जो सदा से ही
छिपा है, इटरनली हिडेन, जिसे
कभी कोई खोल
नहीं पाया, जिसे कभी
कोई उघाड़ नहीं
पाया, जिसके
पर्दे कभी कोई
गिरा नहीं
पाया; उस
सदा से, अनादि
से, अनंत
तक के लिए
छिपे हुए को
पा लेने वाला
वापस नहीं
लौटता। वही
मेरा परम धाम
है।
इसे
जरा समझ लें।
अगर हम
ऐसा कहें कि
परमात्मा सदा
से ही छिपा हुआ
है,
तो जिन
जानने वालों
ने परमात्मा
की बात कही है,
उन्होंने
जानी कैसे?
तर्कशास्त्री
निरंतर ही
ऋषियों के
संबंध में, मिस्टिक्स के संबंध
में एक
महत्वपूर्ण
तर्क उठाते
रहे हैं।
तर्कशास्त्री
सदा से ही
कहते रहे हैं
कि ये मिस्टिक्स
जो हैं, उनके
वक्तव्य नानसेंस
हैं; उनके
वक्तव्यों
में अर्थ
बिलकुल नहीं
है। क्योंकि
एक ओर वे कहते
हैं, हम
उसके संबंध
में कहने जा
रहे हैं, जिसके
संबंध में कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता। और हम
उसकी तुम्हें
खबर देते हैं,
जिसकी खबर
किसी को कभी
नहीं मिली। और
जो सदा से
छिपा है, हम
तुम्हारे
सामने उसे प्रकट
करते हैं।
कृष्ण
ने थोड़ी देर
ही पहले
अर्जुन को कहा
है कि मैं
संक्षिप्त
में उसके
संबंध में
तुझसे कहूंगा!
और अब वे कहते
हैं,
वह है सनातन
अव्यक्त!
जो
सनातन
अव्यक्त है, सदा
से ही छिपा
हुआ, कभी
प्रकट नहीं
हुआ, कृष्ण
उसे प्रकट
कैसे करेंगे?
और कृष्ण
उसके संबंध
में अगर कुछ
भी कह रहे हैं,
तो वह प्रकट
करना हो जाता
है। यह कहना
भी कि वह सनातन
से अव्यक्त है,
व्यक्त
करने की बात
हो गई। इतना
कहना भी, उसके
संबंध में कुछ
कहना है। तर्क
निरंतर रहस्यवादियों
पर हंसता रहा
है और कहता
रहा है, तुम्हारे
वक्तव्य
पागलों के
वक्तव्य हैं।
विट्गिंस्टीन ने
अपनी बहुत
अदभुत किताब टेक्टेटस
में कहा है कि
जिस संबंध में
न कहा जा सके, उस
संबंध में न
कहना ही उचित
है। जिस संबंध
में न कहा जा
सके, उस
संबंध में न
कहना ही उचित
है, दैट
व्हिच कैन नाट
बी सेड मस्ट
नाट बी सेड। न
कहा जा सके, तो मत ही
कहो।
लेकिन
अगर इतना भी
कहा जा सकता
है कि इस
संबंध में मैं
कुछ भी न कह
सकूंगा, देन
समथिंग हैज
बीन सेड, तब
कुछ कहा ही
गया, तब
कुछ कह ही
दिया। और यह
भी कहना ही है,
प्रकट करना
ही है।
तो
रहस्यवादी
बड़ी मुश्किल
में हैं कि वे
क्या करें! या
तो वे कहना
बंद कर दें; अगर
वे सच में ही
जानते हैं कि
वह अव्यक्त है,
प्रकट नहीं
किया जा सकता,
भाषा बोल
नहीं सकती, वाणी के पार
है, तो चुप
हो जाएं।
लेकिन
अगर वे चुप हो
जाएं, तो इतना
भी नहीं कह
सकते कि वह
अव्यक्त है।
और फिर चुप हो
जाना भी तो एक
तरह का कहना
होगा, ए सार्ट
आफ सेइंग।
चुप होना भी
एक तरह का
कहना ही होगा।
वह भी खबर
होगी, सूचना
ही होगी। अगर
बर्नार्ड शा
का सो जाना एक
मत है, तो
परमात्मा के
संबंध में चुप
हो जाना एक
वक्तव्य है।
मौन हो जाना, फिर भी वाणी
का ही उपयोग
है, निषेधात्मक
रूप से, निगेटिव
ढंग से।
फिर ये
रहस्यवादी
क्या करें? चुप
हों तो
मुश्किल है, बोलें तो
मुश्किल है।
और साथ में
उन्हें यह कहना
ही है कि वह
कभी भी उघाड़ा
नहीं गया। वह
सदा से ढंका
है, और सदा
ढंका ही
रहेगा। ढंका
होना ही उसका
स्वभाव है।
अगर वह
सदा से ढंका
है,
तो कृष्ण
उसे कैसे उघाड़ते
हैं? अगर
वह सदा से
ढंका है, तो
बुद्ध उसे
कैसे जानते
हैं? यह
बड़े मजे की
बात है, इसे
थोड़ा खयाल में
ले लेना
चाहिए।
अगर
संसार में
किसी ढंकी हुई
चीज को उघाड़ना
हो,
तो उसी चीज
को उघाड़ना
पड़ता है। अगर
एक वैज्ञानिक
किसी वस्तु के
संबंध में खोज
करता है, तो
उस वस्तु को तोड़ता है, फोड़ता है, उसके भीतर
प्रवेश करता
है, उसे उघाड़ता
है। सब पर्दे
निकालकर अलग
कर देता है, भीतर प्रवेश
करता है। अगर
उसे आदमी के
शरीर में पता
लगाना है कि
क्या बीमारी
है, तो
एक्स-रे से
भीतर प्रवेश
करता है; सब
पर्दे तोड़
देता है, चीर-फाड़ करता
है; मशीनों
को भीतर ले
जाता है, भीतर
के चित्र लाता
है; भीतर
के संबंध में
सब जानकारी पकड़ता है; सब पर्दे उघाड़ता
है और भीतर की
खोज करता है।
यह पदार्थ की
खोज का ढंग
है।
परमात्मा
की भी खोज
होती है और वह
कभी उघाड़ा
नहीं जाता।
उसकी खोज बड़ी
उलटी है। जिसे
परमात्मा को
उघाड़ना हो, उसे
अपने सब पर्दे
तोड़ देने पड़ते
हैं। अपने!
उसे अपने सब
पर्दे तोड़
देने पड़ते हैं,
अपने भीतर
कोई भी छिपावट
नहीं रखनी
पड़ती, अपने
भीतर कोई राज
नहीं रखना
पड़ता, अपने
भीतर कुछ भी
अव्यक्त नहीं
रखना पड़ता, सब भांति
अपने को
अभिव्यक्त कर
देना पड़ता है,
द्वार-दरवाजे
खुले छोड़कर।
जो
व्यक्ति अपने
को बिलकुल उघाड़ा
कर लेता है...।
जैसे महावीर
नग्न खड़े हो
गए। वह नग्न
खड़ा होना
सिर्फ प्रतीक
है इस बात का
कि जिसे भी
परमात्मा को
जानना हो, जिसे
भी उस अनउघड़े
हुए को उघाड़ना
हो, उसे
अपने को
बिलकुल उघाड़कर
नग्न, वलनरेबल,
सब तरह से
खुला हुआ छोड़
देना चाहिए।
जो व्यक्ति
अपने को पूरी
तरह उघाड़कर,
सब
द्वार-दरवाजे
खोलकर, ओपन,
खुला हुआ हो
जाता है, आकाश
की भांति, परमात्मा
जो सनातन
अव्यक्त है, उसके
समक्ष--वह तो
बचता ही नहीं
इतने उघड़ेपन
में--प्रकट हो
जाता है। यह
प्रकटीकरण
बहुत और तरह
का प्रकटीकरण
है। क्योंकि
इसमें परमात्मा
को हम उघाड़ते
ही नहीं, सिर्फ
अपने को उघाड़ते
हैं।
इसे हम
ऐसा भी समझ
लें कि ढंके
हुए हम मनुष्य
हैं,
उघड़कर हम
परमात्मा हो
जाते हैं। ढंके
हुए हम मनुष्य
हैं, उघड़कर हम
परमात्मा हो
जाते हैं। कोई
हमारे सामने
नहीं आता, अचानक
हम पाते हैं उघड़ते ही
कि जिसे हम
खोजते थे, वह
तो मैं स्वयं
हूं। जिस
अक्षर की तलाश
थी, वह तो
मेरे भीतर
बैठा है। जिस
कील के लिए
हमने बैलगाड़ी
पर बैठकर इतनी
यात्रा की, उसी कील पर बैलगाड़ी
का चाक चलता
था।
मुल्ला
नसरुद्दीन
भागा जा रहा
है अपने गधे
पर बैठा हुआ
गांव से, तेजी
से। बड़ी तेजी
में है, और कोड़े चला
रहा है। बाजार
में लोग उससे
पूछते हैं कि नसरुद्दीन,
कहां भागे
जा रहे हो? वह
कहता है, मेरा
गधा खो गया।
मैं जरा तेजी
में हूं। मुझे
रोको मत। कोई
आदमी
चिल्लाता है
कि नसरुद्दीन,
लेकिन तुम
गधे पर सवार
हो। नसरुद्दीन
कहता है, तुमने
अच्छा बता
दिया। मैं
इतनी तेजी में
था कि मुझे
खयाल ही न
आता। इतनी
तेजी में था
खोज की कि
मुझे खयाल ही
न आता!
हम
जिसे खोज रहे
हैं,
जानने वाले
कहते हैं, हम
उसे कभी न खोज
पाएंगे, क्योंकि
उस पर ही हम
सवार हैं।
लेकिन तेजी
इतनी है कि हम
अनंत-अनंत
यात्रा कर
लेंगे, और
तेजी इतनी है
कि हमें स्मरण
भी न आएगा कि
जिसके ऊपर
सवार होकर हम
खोज रहे हैं, वही हमारी
खोज है, वही
हमारा गंतव्य
है। जिसे हम
पाने चले हैं,
उसे हम पाए
ही हुए हैं।
जिसके लिए हम
हाथ फैला रहे
हैं, वही
हमारे हाथों
में फैला हुआ
है। और जिसके
लिए हमने
तृष्णा के जाल
बोए, वही
हमारी
तृष्णाओं का
तंतु है। और
जिसके लिए हम
भागे चले जा
रहे हैं, दौड़
रहे हैं, परेशान
हो रहे हैं, वही है
हमारे भीतर, जिसे हम
परेशान किए दे
रहे हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
बहुत चिंतित
है। उसका
चिकित्सक
उससे कहता है, इतनी
चिंता क्या? चिंता के
कारण ही नसरुद्दीन
तुम बूढ़े हुए
जा रहे हो। नसरुद्दीन
कहता है, यह
मैं समझा। अब
मैं आपको अपनी
चिंता बता
दूं। कहीं मैं
बूढ़ा न हो
जाऊं, इसी
की मैं चिंता
में लगा हूं।
और तुम कहते
हो कि चिंता
के कारण ही
तुम बूढ़े हुए
जा रहे हो!
ऐसा ही विशियस
सर्किल है, ऐसा
ही दुष्चक्र
है। चिंता के
कारण आदमी
बूढ़ा हुआ जा
रहा है। बूढ़ा
हुए जाने के
कारण चिंता कर
रहा है। अब
इसे कहां से
तोड़ना है!
किसे
खोज रहे हैं
आप?
किसकी तलाश
है? जो
तलाश कर रहा
है, वही
उसी की तलाश
है। प्रत्येक
व्यक्ति
स्वयं को
छोड़कर और कुछ
भी नहीं खोज
रहा है। लेकिन
स्वयं को कैसे
खोज सकेगा?
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन गया है
अपने शराबघर
में और उसने
जाकर पूछा कि
मैं पूछने आया
हूं कि क्या
शेख रहमान इधर
अभी थोड़ी देर
पहले आया था? शराबघर
के मालिक ने
कहा कि हां, घड़ीभर हुई, शेख
रहमान यहां
आया था।
मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा कि चलो
इतना तो पता
चला। अब मैं
यह पूछना
चाहता हूं कि
क्या मैं भी
उसके साथ था?
काफी
पी गए हैं। वे
पता लगाने आए
हैं कि कहीं शराब
तो नहीं पी ली!
काफी पी गए
हैं,
अब पता
लगाने आए हैं
कि कहीं शराब
तो नहीं पी ली।
इतना खयाल है
कि शेख रहमान
के साथ थे।
दूसरे का खयाल
बेहोशी में
बना रहता है, अपना भूल
जाता है। शेख
रहमान साथ था,
इतना खयाल है।
तो शेख रहमान
अगर यहां आया
हो, तो मैं
भी आया
होऊंगा। और
अगर वह पीकर
गया है, तो
मैं भी पीकर
गया हूं।
दूसरे
से हम अपना
हिसाब लगा रहे
हैं। हम सब को अपना
तो कोई खयाल
नहीं है, दूसरे
का हमें खयाल
है। इसलिए हम
दूसरे की तरफ
बड़ी नजर रखते
हैं। अगर चार
आदमी आपको अच्छा
आदमी कहने
लगें, तो
आप अचानक पाते
हैं कि आप बड़े
अच्छे आदमी हो
गए। और चार
आदमी आपको
बुरा कहने
लगें, आप
अचानक पाते
हैं, सब
मिट्टी में
मिल गया; बुरे
आदमी हो गए! आप
भी कुछ हैं? या ये चार
आदमी जो कहते
हैं, वही
सब कुछ है?
इसलिए
आदमी दूसरों
से बहुत भयभीत
रहता है कि
कहीं कोई
निंदा न कर दे, कहीं
कोई बुराई न
कर दे, कहीं
कोई कुछ कह न
दे कि सब
बना-बनाया खेल
मिट जाए। आदमी
दूसरों की
प्रशंसा करता
रहता है, ताकि
दूसरे उसकी
प्रशंसा करते
रहें। सिर्फ एक
वजह से कि
दूसरे के मत
के अतिरिक्त
हमारे पास और
कोई संपदा
नहीं है। दूसरे
का ही हमें
पता है। अपना
हमें कोई भी
पता नहीं है।
मनुष्य
जिस दिन भी
अपने भीतर
प्रवेश करता
है,
उस दिन ही
पाता है कि
जिसे वह खोजता
था, वह
भीतर ही मौजूद
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के गांव में
एक आदमी हाजी
हो गया है, हज
की यात्रा
करके लौट आया
है, तीर्थयात्रा
करके लौट आया
है। सारा गांव
इकट्ठा है।
सिर्फ नसरुद्दीन
को छोड़कर सारा
गांव हाजी को
देखने गया है।
नसरुद्दीन
की पत्नी कहती
है कि नसरुद्दीन,
तुम भी अपना
यह अधर्म कब छोड़ोगे? ऐसे गांवभर
में
घूमते-फिरते
हो, धूल
खाते हो
गली-गली की, और आज हाजी
गांव में आया
है, तो तुम
घर बैठे हो, जब कि सारा
गांव जा रहा
है! नसरुद्दीन
ने कहा कि
इसमें कौन-सी
प्रशंसा की
बात है कि कोई
आदमी हज हो
आया? हां, अगर किसी
दिन किसी आदमी
के पास हज आ
जाए, तो
मुझे खबर
करना।
आदमी
तीर्थयात्रा
पर चला जाए, लौट
आए, इसमें
कौन-सी बड़ी
बात है! बहुत
लोग आए और गए।
किसी दिन
तीर्थ किसी
आदमी के पास आ
जाए, मुझे
खबर करना, मैं
हाजिर हो जाऊंगा।
वह ठीक
कह रहा है।
ऐसी घटना भी
घटती है, जब
तीर्थ आदमी के
भीतर आ जाता
है। ऐसी भी
घटना घटती है,
जब भक्त
भगवान को
खोजने नहीं
जाता और भगवान
भक्त को खोजता
आता है।
असल
में ऐसी ही
घटना घटती है।
भक्त के खोजे
भगवान कभी
नहीं मिला और
कभी मिल नहीं
सकता है। भक्त
को अगर पता ही
होता कि भगवान
कहां है, तो वह
कभी का भगवान
को खोज लिया
होता। उसे कुछ
भी पता नहीं
है। भक्त क्या
कर सकता है?
भक्त
कहीं जाता
नहीं। भक्त
सिर्फ अपने को
खोलता, उघाड़ता और नग्न
करता है। भक्त
सिर्फ अपने को
उघाड़ता
है। और जिस
दिन भक्त पूरा
उघड़ा
होता है, नग्न
पूर्ण रूप से,
कोई वस्त्र
नहीं उसके
चित्त पर, उसकी
चेतना पर कोई
आवरण नहीं, निरावरण, उसी दिन
भगवान उपलब्ध
हो जाता है।
भक्त कभी भी
यात्रा करके
भगवान तक नहीं
पहुंचे हैं।
जब भी कोई
भक्त हो सका
है भक्त, तब
भगवान स्वयं
यात्रा करके आ
गया है।
यह जो
घटना है, यह जो
सनातन
अव्यक्त को
प्राप्त कर
लेना है, कृष्ण
कहते हैं, यही
मेरा परम धाम
है।
यह परम
धाम प्रत्येक
के भीतर है, यह
वैकुंठ
प्रत्येक के
भीतर है, यह
मोक्ष
प्रत्येक के
भीतर है। और
इसे परम धाम
इसलिए कहा है
कृष्ण ने कि
यह पड़ाव
नहीं है। इस
पर ठहरकर फिर
आगे की यात्रा
के लिए तैयारी
नहीं करनी है।
इस पर आकर
सारी यात्राएं
समाप्त हो
जाती हैं।
सुना
है मैंने, जापान
में एक
तीर्थयात्रा
के बीच के पड़ाव
पर, पहाड़
पर एक मंदिर
है। और हजारों
लोग वर्ष में
एक दिन वहां
की यात्रा
करते हैं पैदल।
वर्षों से एक
फकीर बीच पहाड़
के रास्ते पर
एक वृक्ष के
नीचे पड़ा रहता
था। हर वर्ष
यात्री आते और
जाते। कभी कोई
उस फकीर से
पूछ लेता कि
तुम इस वृक्ष
के नीचे
यात्रा पर
जाते हुए ठहरे
हो या यात्रा
से लौटते हुए
ठहरे हो? तो
वह फकीर हंसता
और वह कहता कि
न हम किसी
यात्रा पर
जाते हुए ठहरे
हैं और न किसी
यात्रा से आते
हुए ठहरे हैं।
स्वभावतः, लोग
रुक जाते और
पूछते कि
तुम्हारा
मतलब क्या है?
क्योंकि
तुम जहां बैठे
हो, यह तो
केवल यात्रा
का पड़ाव
है, मंजिल
तो आगे है!
तो वह
फकीर कहता कि
निश्चित ही, बाहर
की यात्रा, जिस पर तुम
निकले हो, उसके
लिए यह एक पड़ाव
है। लेकिन
जहां मैं भीतर
बैठा हूं, वह
वह जगह है, जहां
से न आगे जाया
जा सकता है, न जहां से
पीछे लौटा जा
सकता है। आया
तो मैं भी इसी
तीर्थ की
यात्रा के लिए
था, लेकिन
इस वृक्ष के
नीचे बड़ी तीर्थयात्रा
घटित हो गई, फिर आगे
नहीं जा सका।
इस वृक्ष के
नीचे बैठे-बैठे
वह घटित हो
गया, जिसने
मुझे अपने ही
भीतर पहुंचा
दिया। अब मंजिल
आ गई, अब
कदम यहां रखने
और कदम वहां
रखने का भी
कोई अर्थ नहीं
रह गया है। अब
मैं वहां हूं,
जहां सदा था
और जहां के
लिए सदा से दौड़ता
रहा।
परम
धाम का अर्थ
है,
जिसके आगे
अब कोई और
यात्रा की
तैयारी नहीं
करनी है। और
परम धाम का एक
अर्थ और खयाल
में ले लें, जो और भी
जरूरी है।
परम
धाम का यह
अर्थ नहीं है
कि जहां आप
बहुत-सी यात्राएं
करके पहुंच
गए। अगर आप
बहुत-सी यात्रा
करके वहां
पहुंचे हैं, तो
वह परम धाम
नहीं हो सकता,
धाम ही हो
सकता है। परम
धाम तो वह है, जहां
पहुंचकर पता
चला कि जहां
हम सदा से थे
ही! यह थोड़ी-सी
कठिन बात है।
परम धाम वह है,
जहां
पहुंचकर पता
चले कि हद हो
गई, यहां
तो हम सदा से
थे ही!
बुद्ध
को जब निर्वाण
हुआ,
बुद्ध को जब
समाधि फलित
हुई, तो
बुद्ध सात दिन
तक तो चुप
बैठे रहे। कुछ
सूझा ही
नहीं।
हिले-डुले भी
नहीं। फिर लोग
इकट्ठे होने
लगे। उनकी
कांति, उनकी
आंखों की
रोशनी, उनकी
सुगंध जल्दी
ही फैलने लगी।
जब कोई फूल खिल
जाए मनुष्य की
चेतना में, तो फिर किसी
को बुलाने
नहीं जाना
पड़ता, खबर
पहुंचनी शुरू
हो जाती है।
लोग आने लगे।
दूर-दूर तक खबर
फैल गई कि कोई
बुद्धत्व को
प्राप्त हो
गया। लोगों की
भीड़ लग गई और
लोग हाथ जोड़कर
प्रार्थना
करने लगे कि
हमें बताओ कि
तुमने क्या पा
लिया है? गौतम,
हमें कहो कि
तुमने क्या पा
लिया है?
तो
बुद्ध ने जो
पहला वचन कहा, वह
बहुत हैरानी
का है। बुद्ध
ने कहा, अगर
तुम पूछते हो
कि मैंने क्या
पा लिया, तो
तुम मुझे
मुश्किल में
डालते हो।
क्योंकि मैंने
वही पा लिया
है, जो सदा
से पाया ही
हुआ था। लोग
पूछने लगे कि
पहेलियों में
मत कहो। हम
सीधे-सादे लोग
हैं, हमें
ठीक से समझाओ।
तुम्हारी उपलब्धि
क्या है? तो
बुद्ध ने कहा,
उपलब्धि के
नाम पर कोई भी
उपलब्धि नहीं
है। मैंने
खोया तो जरूर
कुछ, पाया
कुछ भी नहीं।
लोग
बहुत हैरान
हुए।
उन्होंने कहा
कि हमने तो सदा
से सुना है कि
जब ज्ञान होता
है,
तो कुछ
मिलता है। आप
कैसी बात करते
हैं! तो बुद्ध
ने कहा, मैंने
अज्ञान तो
खोया। अब मैं
हैरान हूं कि
मैंने उस
अज्ञान को पा
कैसे लिया था!
उसे मैंने
खोया। और जो
ज्ञान मैंने
पाया है, अब
मैं तुमसे
कैसे कहूं कि
उसे मैंने
पाया है, क्योंकि
अब मैं जानता
हूं कि वह सदा
से ही मेरे
पास था।
तो
बुद्ध कहते कि
ऐसा समझो कि
किसी भिखारी के
खीसे में हीरा
पड़ा हो और वह
भीख मांगता
फिरे। फिर एक
दिन अचानक वह
खीसे में हाथ
डाले, हीरा
सामने आ जाए।
तो क्या वह
कहेगा कि
मैंने हीरा
पाया? वह
हीरा तो बहुत
दिन से उसके
साथ ही था, सदा
से उसके साथ
ही था, सिर्फ
उसे पता नहीं
था।
परम
धाम वह है, जो
अभी भी हमारे
साथ है और
हमें पता
नहीं। परम
मंजिल वह है, जिसे हम
अपने हृदय के
कोने में लिए
हुए चल रहे हैं,
खोज रहे
हैं। निरंतर
जो मौजूद है
और हमें पता नहीं।
बस, पता
नहीं है। इतना
ही फर्क पड़ेगा
पहुंचकर, जानकर,
पता हो
जाएगा; और
कोई भी फर्क
नहीं पड़ेगा।
बुद्ध
ने अपने पिछले
जन्म का स्मरण
किया है और
कहा है कि
मेरे पिछले
जन्म में, सुना
मैंने--गौतम
बुद्ध के जन्म
के पहले जन्म में,
जब वे बुद्ध
नहीं हुए
थे--तो बुद्ध
ने कहा है कि मैंने
सुना था अपने
पिछले जन्म
में कि कोई
व्यक्ति
ज्ञान को
उपलब्ध हो गया
है, तो मैं
उसके दर्शन
करने को गया
था। जब मैं
उसके चरणों
में झुका और
मैंने सिर
उसके पैरों
में रखा, और
जब मैं उठकर
खड़ा हुआ, तो
मैं चकित हो
गया, क्योंकि
अचानक उस बुद्धपुरुष
ने अपना सिर
मेरे चरणों
में रख दिया।
मैं तो
बहुत घबड़ा
गया। और मैंने
उन्हें उठाकर कहा
कि मुझे क्षमा
करें! मुझसे
कुछ भूल हो गई? आप
मेरे चरणों
में सिर रखें,
यह तो उलटा
मुझ पर पाप हो
गया। मुझसे
पाप हो गया।
अगर मुझे पता
होता, तो
मैं आपको पहले
ही रोक लेता।
मैं तो
अज्ञानी हूं।
मैंने आपके
चरणों में सिर
रखा, वह
ठीक है। पर
आपने मेरे
चरणों में
क्यों सिर रखा?
तो उस बुद्धपुरुष
ने बुद्ध को
कहा,
उस ज्ञानी
ने बुद्ध को
कहा कि मुझे
पता है मंजिल
का, वह
मुझे मिल भी
गई, मुझे
पता भी है, पर
मुझ में और
तुझ में
ज्यादा फर्क
नहीं है। मंजिल
तो उतनी की
उतनी तेरे
भीतर भी मौजूद
है, बस
तुझे जरा पता
नहीं। जो हीरा
मेरे पास है, वही हीरा
तेरे पास है।
मुझे पता है, तुझे पता
नहीं। लेकिन
हीरे के होने
में जरा फर्क
नहीं है। तो
मैं तुझे
इसलिए
नमस्कार करता
हूं, ताकि
तुझे याद रहे
कि तेरे भीतर
भी वह हीरा है कि
बुद्धपुरुष
तेरे चरणों
में सिर रखे।
और आज नहीं कल,
जब तुझे पता
चल जाएगा, तब
तू मेरी बात
समझ लेगा।
और जब
एक जन्म के
बाद बुद्ध को
ज्ञान हुआ, तब
उन्होंने जो
पहले अपने हाथ
जोड़कर
किसी के चरणों
में झुकाए,
वे वे ही
अज्ञात चरण थे,
जो अब तो खोजे
से मिल नहीं
सकते थे। वे
अज्ञात चरण, वह अज्ञात
व्यक्ति, जिसने
उनके चरणों
में सिर रख
दिया था।
जानते हुए
ज्ञानी ने
अज्ञानी के
चरण में सिर
रख दिया था, सिर्फ इस
आशा में कि आज
नहीं कल इस
अज्ञानी को भी
पता तो चल ही
जाएगा कि उसके
भीतर भी ज्ञान
का उतना ही
सागर है, रत्तीभर
भी कम नहीं।
परम
धाम का अर्थ
है,
ऐसी मंजिल,
जो हमें
मिली ही है और
फिर भी हमें
पता नहीं।
और हे
पार्थ, जिस
परमात्मा के
अंतर्गत
सर्वभूत हैं
और जिस
परमात्मा से
यह जगत परिपूर्ण
है, वह
सनातन
अव्यक्त परम
पुरुष अनन्य
भक्ति से प्राप्त
होने योग्य
है।
जिस
परमात्मा के
अंतर्गत
सर्वभूत हैं!
निश्चित
ही,
भूतों के
अंतर्गत
परमात्मा
नहीं है।
पदार्थ के
अंतर्गत
परमात्मा
नहीं है, लेकिन
परमात्मा के अंतर्गत
पदार्थ हैं।
जैसे विराट
आकाश सब पदार्थों
को घेरे हुए
है, ऐसा ही
विराट
परमात्म-चैतन्य
समस्त आकाशों
को भी घेरे
हुए है। चेतना
इस जगत में
सर्वाधिक
विस्तार है, सबसे बड़ा
विस्तार है।
इस समय
पश्चिम में एक
क्रांति चलती
है--खास कर नई पीढ़ी में, यंगर
जेनरेशन में--और
हजारों तरह के
प्रयोग
पश्चिम में
किए जा रहे
हैं।
रासायनिक
द्रव्यों को
लेकर, केमिकल
ड्रग्स को
लेकर--एल एस डी
है, मारिजुआना है, मैस्कलीन है, हशीश है, गांजा
है, भांग
है--इन सब पर
बहुत प्रयोग
चलते हैं। और
उस प्रयोग के
पीछे एक आशा
काम करती है, एक अभिलाषा
है कि किसी
भांति चेतना
विस्तीर्ण
कैसे हो जाए, एक्सपेंशन आफ
कांशसनेस।
चेतना फैल
कैसे जाए, बड़ी
कैसे हो जाए, विस्तार
कैसे हो जाए।
चाहे
रासायनिक
द्रव्यों से
वह बात न हो
सके,
लेकिन
आकांक्षा बड़ी
प्राचीन है, बड़ी प्राचीन
है। आदमी की
आकांक्षा एक
ही है कि
चेतना इतनी विस्तीर्ण
कैसे हो जाए
कि चेतना में
सब कुछ घिर
जाए और समा
जाए, चेतना
के बाहर कुछ न
रह जाए। जिस
दिन चेतना के बाहर
कुछ नहीं रह
जाता और चेतना
में सभी कुछ समा
जाता है, कांशसनेस
एक आकाश बन
जाती है, एक
स्पेस, और
सभी कुछ उसमें
समा जाता है।
उस दिन पाने
योग्य फिर कुछ
नहीं बचता; उस दिन खोने
का भी कोई डर
नहीं रह जाता;
उस दिन
मृत्यु का भय
नहीं होता; उस दिन अमृत
के झरने स्वयं
में ही फूट
पड़ते हैं। उस
दिन परिवर्तन
का कोई कारण
नहीं; उस
दिन शाश्वत तो
स्वयं का घर
बन जाता है।
इस परम
चेतना के
संबंध में ही
कृष्ण कह रहे
हैं कि वह जो
परमात्मा है, उसके
अंतर्गत
सर्वभूत हैं।
एक
जीसस का वचन
इस संबंध में
कहने जैसा है।
जीसस के पास
एक अंधेरी रात
में निकोडेमस
नाम का युवक
आया और उस
युवक से जीसस
ने कहा कि तू
मेरे पास किसलिए
आया है? क्या
तू चाहता है
कि तुझे और धन
मिल जाए मेरे शुभाशीषों
से? या तू
चाहता है कि
तेरे जीवन में
सफलता आए मेरे
संपर्क से? क्या तू
इसीलिए मेरी
प्रार्थना को
आया है, ताकि
मेरी
शुभकामनाएं
तेरे ऊपर बरस
पड़ें और तू
संसार में
उपलब्धियों
की दिशा पर
गतिमान हो सके?
निकोडेमस ने
कहा,
हे प्रभु, आपने पहचाना
कैसे? आया
मैं इसीलिए
हूं कि और
मेरा धन कैसे
बढ़े! और मेरा
राज्य कैसे
बड़ा हो! और
वस्तुओं का
मैं मालिक
कैसे हो जाऊं!
मुझे कोई एक
ऐसा सूत्र दे
दें, कोई
एक राज बता
दें, एक
गुर ऐसा मुझे
दे दें कि उसी
के सहारे मैं
जहां भी कदम
रखूं, सफल
हो जाऊं; जो
भी मेरी
महत्वाकांक्षा
हो, पूरी
हो। इधर मैं
कामना करूं कि
वहां पूर्ति
हो जाए। मुझे
कुछ ऐसा राज
बता दें, जो
कल्पवृक्ष हो
जाए।
तो
जीसस ने जो
राज बताया, निकोडेमस की तो समझ
में नहीं आया,
लेकिन
समस्त धर्मों
का सार उस
सूत्र में है।
जीसस ने कहा, सीक यी
फर्स्ट दि
किंगडम आफ गॉड,
देन आल एल्स
शैल बी एडेड
अनटु यू।
तू पहले प्रभु
को खोज ले, और
शेष सब उसके
पीछे चला
आएगा। तू पहले
प्रभु का
राज्य खोज ले,
और फिर शेष
सब उसके पीछे
अपने से चला
आएगा।
लेकिन
उस निकोडेमस
ने कहा कि
पहले तो मुझे
शेष सबको
खोजने दें। अभी
प्रभु को
खोजने की मेरी
उम्र नहीं
हुई!
कल एक
बूढ़े सज्जन
मेरे पास आए।
सत्तर से कम
तो उनकी उम्र
न होगी। वे मुझसे
पूछने आए कि
आपने युवकों
को संन्यास
कैसे दे दिया
है?
शास्त्रों
में कहा हुआ
है कि संन्यास
तो अंतिम
अवस्था में
लेना चाहिए!
अब अगर
शास्त्रों को
ही वे मानते
हों,
तो उनको
संन्यासी
होकर आना
चाहिए था।
सत्तर साल की
उम्र है।
शास्त्रों
वगैरह को वे
मानते नहीं हैं
जरा भी। नहीं
तो संन्यासी
होकर आना
चाहिए था। अभी
उन्होंने
संन्यास नहीं
लिया है।
लेकिन किसी
युवक को क्यों
संन्यास दे
दिया है, इसके
लिए वे पूछने
आए हैं, कि
इससे तो बड़ी
हानि हो
जाएगी!
परमात्मा
को खोजने के
लिए उम्र की
कोई शर्त नहीं
है। और कभी तो
बूढ़े भी नहीं
खोज पाते, और
कभी बच्चे भी
खोज लेते हैं।
और जिन्हें हम
बूढ़े और बच्चे
कहते हैं, उनमें
भी कौन बूढ़ा
है और कौन
बच्चा है, यह
इतना आसान
नहीं है तय
करना।
क्योंकि अगर
बुढ़ापे का कोई
भी अर्थ होता
हो, तो
बुद्धिमत्ता
होगी। तो बूढ़े
भी नासमझ हो
सकते हैं, बच्चे
भी समझदार हो
सकते हैं।
निकोडेमस ने
कहा कि अभी तो
मेरी उम्र भी
कहां कि मैं
परमात्मा को
खोजूं। आप भी
कैसी बात करते
हैं!
यद्यपि
उसकी उम्र
जीसस से
ज्यादा थी, जिससे
वह पूछने आया
था। जीसस की
तो सूली ही तैंतीस
वर्ष में लग
गई। जीसस ने
लेकिन उसे जो
सूत्र दिया और
कहा, सीक
यू फर्स्ट दि
किंगडम आफ गॉड
एंड देन आल एल्स
शैल बी एडेड
अनटु यू, और तब सब
तुझे अपने आप
मिल जाएगा।
अगर तू गुर की
बात पूछता है,
राज की, तो
बता देता हूं।
पहले प्रभु को
खोज ले।
लेकिन
प्रभु को
खोजने से शेष
सब कैसे मिल
जाएगा?
कृष्ण
के इस सूत्र
में है वह
अर्थ। हे
पार्थ, जिस
परमात्मा के
अंतर्गत
सर्वभूत
हैं...।
अगर
किसी ने
परमात्मा को
ही पा लिया, तो
वह सर्वभूतों
को तो पा ही
लेगा। और जो
भूतों को पाने
में लगा रहा, पदार्थों को
पाने में लगा
रहा, वह
पदार्थों को
पा नहीं सकता।
क्योंकि जब तक
पदार्थों के
मालिक को नहीं
पाया, तब
तक पदार्थों
को कैसे पाया
जा सकता है!
हमारे जीवन की
सारी पीड़ा यही
है।
सुना
है मैंने, एक
सम्राट
यात्रा पर गया
है। और जब वह
अनेक-अनेक
साम्राज्यों
की विजय करके
वापस लौटने
लगा, तो
उसने अपनी--सौ
रानियां
थीं--उन सबको
खबर भेजी कि
तुम क्या
चाहती हो कि
मैं उपहार में
तुम्हारे लिए
लाऊं?
किसी
रानी ने कहा
कि मेरे लिए
कोहनूर लेते
आना। किसी
रानी ने कहा
कि मेरे लिए
उस देश में जो
इत्र बनता है
श्रेष्ठतम, उसको
ले आना, जितना
ला सको। किसी
ने कुछ और, किसी
ने कुछ और; बड़ी
कीमती, बड़ी
बहुमूल्य
चीजें। सिर्फ
एक रानी ने
खबर भेजी कि
तुम सकुशल
वापस लौट आना,
और मुझे कुछ
भी नहीं
चाहिए।
सम्राट, जिस
रानी ने जो
बुलाया था
उसके लिए तो
उतना लाया ही,
लेकिन इस
रानी के लिए
उतना सब लाया,
जितना सब रानियों
ने इकट्ठा
बुलाया था।
लौटकर उसने
कहा कि रानी
तो सिर्फ मेरी
एक कुशल और
होशियार है, उसने मालिक
को मांग लिया;
चीजें तो
पीछे चली आती
हैं!
सच, धार्मिक
व्यक्ति इस
जगत में कुशलतम
बुद्धिमान
व्यक्ति है।
वह पदार्थों
को नहीं मांगता,
वह
पदार्थों के
मालिक को ही
मांग लेता है;
पदार्थ तो
पीछे चले आते
हैं।
जिसे
हम गृहस्थ
कहते हैं, जिसे
हम समझदार
कहते हैं, वह
सिर्फ नासमझों
की आंखों में
समझदार होगा;
उससे
ज्यादा नासमझ
कोई भी नहीं, क्योंकि वह
जो भी मांगता
है, वह
क्षुद्र
पदार्थ है। और
मालिक को बिना
मांगे हम वहम
में ही होते
हैं कि हमें
कुछ मिल गया, क्योंकि मौत
हमसे फिर सब
छीनकर मालिक को
वापस लौटा
देती है।
थोड़ी-बहुत देर
हम पहरेदारी
करते हैं। बड़े
से बड़ा हमारे
बीच जो धनपति है,
वह धन का
पहरा देता है।
जितना ज्यादा
धन, उतना
ही खर्च करना
मुश्किल हो
जाता है। खर्च
करना तो सिर्फ
फकीर ही जानते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने अपने गांव
में कभी किसी
आदमी को चाय
भी नहीं
पिलाई। मरते
समय तक बहुत
पैसा उसके पास
इकट्ठा हो
गया। लेकिन एक
दिन गांव में
खबर उड़ गई कि
मुल्ला नसरुद्दीन
पूरे नगर को
भोज दे रहा
है। किसी ने
भरोसा नहीं
किया। लोगों
ने सुना, हंसे,
और टाल
दिया।
एक
अजनबी आदमी
गांव में आया
हुआ था, वह
बड़ा हैरान हुआ
कि जब गांव
में इतने जोर
की अफवाह है, फिर भी कोई
आदमी मानता
क्यों नहीं!
उसने सोचा कि
हर्ज क्या है,
चलकर मैं नसरुद्दीन
से ही पूछ
लूं।
कुतूहलवश...।
गांव
के लोगों ने
बहुत समझाया
कि तू बिलकुल
पागल है। यह नसरुद्दीन
ने ही अफवाह उड़ाई
होगी। बाकी यह
हो नहीं सकता; यह
इंपासिबल है,
यह असंभव
है। इस नगर
में कुछ भी हो
सकता है; नसरुद्दीन भोज दे दे
पूरे नगर को, यह कभी नहीं
हो सकता। जाने
की जरूरत नहीं
है।
लेकिन
जितना लोगों
ने रोका, उसकी
उत्सुकता
बढ़ी। उसने कहा,
हर्ज क्या
है, चार
कदम चलकर जरा
मैं पूछ ही
क्यों न आऊं।
अफवाह सच भी
हो सकती है।
वह
आदमी गया। नसरुद्दीन
तो भीतर बैठा
था अपनी बैठक
में,
बाहर नौकर
उसका महमूद
था। उस आदमी
ने पूछा कि सुना
है मैंने कि
तुम्हारा
मालिक मुल्ला नसरुद्दीन
गांवभर
को भोज दे रहा
है, क्या
तुम कुछ इस
संबंध में
मुझे जानकारी
दे सकते हो? और अगर यह
भोज होने वाला
है, तो किस
तारीख और किस
दिन?
मुल्ला
का नौकर तो
अच्छी तरह
जानता था कि
यह कभी होने
वाला नहीं है।
वह हंसा और
इसलिए कि कभी
होने वाला
नहीं है, उसने
मजाक में उस
आदमी से कहा
कि अब तुम आ ही
गए हो इतनी
दूर चलकर, तो
मैं तुम्हें
दिन बताए देता
हूं। कयामत के
दिन, प्रलय
के दिन, यह
भोज होगा।
वह
आदमी तो चला
गया,
मुल्ला
अंदर से आया
और कहा कि
नालायक, अभी
से दिन तय
करने की क्या
जरूरत! फंसा
दिया मुझे।
दिन भी तय कर
दिया! अफवाह उड़ने दे, दिन तय करने
की कोई जरूरत
नहीं। कयामत
का दिन भी
आखिर दिन ही
है। तय तो हो
ही गया!
पहरे देते
हैं लोग। अपने
धन पर पहरा
देते हैं, अपने
यश पर पहरा
देते हैं और
मर जाते हैं।
और उनका धन, और उनका यश
उन पर हंसता
हुआ यहीं पड़ा
रह जाता है।
सिर्फ एक धन
है जिसे
मृत्यु नहीं
छीन पाती, और
वह परमात्मा
है। सिर्फ एक
ही यश है जिसे
मृत्यु नहीं
धूमिल कर पाती,
और वह
परमात्मा है।
और मजा
यह है कि जो
परमात्मा को
पा लेता है, वह
सब पा लेता
है। और जो
सबको पाने की
कोशिश में
रहता है, वह
सबमें से तो
कुछ पाता ही
नहीं; जिसे
पा सकता था, परमात्मा को,
उसे भी पाने
के अवसर चूकता
चला जाता है।
और जिस
परमात्मा से
यह जगत
परिपूर्ण है, वह
सनातन
अव्यक्त परम
पुरुष अनन्य
भक्ति से प्राप्त
होने योग्य
है।
और जिस
परमात्मा से
यह जगत
परिपूर्ण है!
लेकिन
हमें तो कहीं
परमात्मा
दिखाई नहीं
पड़ता। और
कृष्ण कहते
हैं कि जिस
परमात्मा से
यह जगत
परिपूर्ण है।
वह हमें कहीं
दिखाई नहीं
पड़ता। हमें सब
कुछ दिखाई
पड़ता है
परमात्मा को
छोड़कर। हमें
सब कुछ दिखाई
पड़ता है, आदमी,
वृक्ष, पत्थर,
हीरे-जवाहरात,
आकाश, चांदत्तारे,
सब दिखाई
पड़ता है, सिर्फ
परमात्मा
दिखाई नहीं
पड़ता। और ये
कृष्ण जैसे
लोग निरंतर
कहे जाते हैं
कि और सब कुछ भी
नहीं है, परमात्मा
ही है। जरूर
कहीं कोई बात
है।
पश्चिम
में एक नई
साइकोलाजी
पिछले पचास
वर्षों में
विकसित हुई
है। उस
साइकोलाजी का
नाम है, गेस्टाल्ट
साइकोलाजी, गेस्टाल्ट
मनोविज्ञान।
यह गेस्टाल्ट
शब्द ऐसा है
कि इसका
अनुवाद नहीं
हो सकता है।
इसलिए थोड़ा
मैं आपको समझा
दूं, तो
खयाल में आ
सके।
गेस्टाल्ट
जर्मन शब्द
है। और
गेस्टाल्ट का
मतलब होता है, एक
रूप-रेखा, जो
मन को पकड़ ले, तो उससे
विपरीत
रूप-रेखा
दिखाई नहीं
पड़ती।
इसे
ऐसा समझें।
कभी आपने
बच्चों की
किताबों में
ऐसी तस्वीरें
देखी होंगी।
बच्चों की
किताब में ऐसी
तस्वीर अक्सर
होती है कि दो
चेहरे आदमियों
के एक-दूसरे को
देखते हुए बने
हैं--नाक नाक
के पास, होंठ
होंठ के पास, दाढ़ी दाढ़ी के
पास। दो चेहरे
बने हैं, काले।
इस चित्र को
आप दो तरह से
देख सकते हैं।
अगर बीच की
सफेद जगह को
देखें, तो
मालूम पड़ेगा
कि कोई फूलों
का गमला रखा
है। अगर आप
काले चेहरों
पर ध्यान दें,
तो फूलों का
गमला खो जाएगा
और दो चेहरे
दिखाई पड़ेंगे
आमने-सामने।
और मजा यह है
कि जब आप काले
चेहरों को देखेंगे,
तो आपको
गमला नहीं
दिखाई पड़ेगा।
और जब आप गमले
पर ध्यान
देंगे, तो
चेहरे दिखाई
नहीं पड़ेंगे।
दोनों एक साथ
दिखाई नहीं
पड़ेंगे।
या
बच्चों की
किताब में कभी
इस तरह के चित्र
भी होते हैं
कि एक ही
चित्र में, रेखाओं
में जवान
स्त्री का
चित्र होता है
एक, और उसी
रेखाओं के बीच
छिपा हुआ एक
बूढ़ी स्त्री
का चित्र होता
है। जब आपको
जवान स्त्री
की रेखाएं
दिखाई पड़ेंगी,
तो बूढ़ी
स्त्री दिखाई
नहीं पड़ेगी।
और जब बूढ़ी स्त्री
की रेखाएं
दिखाई पड़ेंगी,
तो जवान
स्त्री दिखाई
नहीं पड़ेगी।
और ऐसा नहीं
है कि आपको
पता नहीं है
इसलिए, आपने
दोनों देख ली
हैं। एक दफा
जवान देख ली, फिर क्षणभर
बाद आपको बूढ़ी
स्त्री भी मिल
गई। अब आप
जानते हैं कि
दोनों
स्त्रियां उस
चित्र में
मौजूद हैं।
लेकिन अभी भी
जब भी आप
देखेंगे, एक
ही दिखाई
पड़ेगी, दूसरी
दिखाई नहीं
पड़ेगी।
क्योंकि एक ही
रेखाओं से
दोनों की
बनावट है। जब
आप एक रेखा का
उपयोग जवान
स्त्री के लिए
कर लेते हैं, तो बूढ़ी
स्त्री के लिए
रेखा नहीं
बचती। और जब आप
उसी रेखा का
उपयोग बूढ़ी
स्त्री के लिए
कर लेते हैं, तो जवान
स्त्री नहीं
बचती।
इसको
गेस्टाल्ट
कहते हैं। एक
चित्र में दो
चित्रों की
संभावना है, लेकिन
एक चित्र
देखें, तो
दूसरा दिखाई
नहीं पड़ता।
यह जगत
एक गेस्टाल्ट
है। इस जगत
में जब तक आपको
पदार्थ दिखाई
पड़ते हैं, तब
तक परमात्मा
नहीं दिखाई
पड़ता।
क्योंकि जहां
पदार्थ
समाप्त होते हैं,
उनकी जो
समाप्त होने
की रेखा है, वही
परमात्मा के
प्रारंभ होने
की रेखा है।
इसलिए जिस
आदमी को
पदार्थ दिखाई
पड़ता है, वह
कहता है, कहां
है परमात्मा?
कहीं नहीं
है। और जिसको
परमात्मा
दिखाई पड़ता है,
वह पूछता है,
कहां है
संसार? कहां
है पदार्थ? कहीं कोई
नहीं है।
इसलिए
शंकर जैसा
ज्ञानी कहता
है कि संसार
नहीं है।
माक्र्स जैसा
ज्ञानी कहता
है कि संसार ही
है,
परमात्मा
नहीं है।
पदार्थवादी
कहता है, पदार्थ
है। परमात्मवादी
कहता है, परमात्मा
है। और मामला
गेस्टाल्ट का
है।
उन्हीं
रेखाओं का
उपयोग हम कर
रहे हैं। जब
मैं आप पर ध्यान
देता हूं, तो
आप दिखाई पड़ते
हैं; लेकिन
आपके आस-पास
का जो फैलाव
है आकाश का, वह दिखाई
नहीं पड़ता।
परमात्मा का
खोजी धीरे-धीरे
दूसरे
गेस्टाल्ट को
देखना शुरू
करता है। जब
भी वह कोई चीज
देखता है, तो
दृष्टि चीज पर
नहीं रखता, उस चीज के
भीतर छिपे हुए
प्राण पर रखता
है। जब वह
वृक्ष के पास
खड़ा होता है, तो वृक्ष की
पदार्थ-रेखाओं
को नहीं देखता,
वृक्ष के
भीतर जो लपट
की तरह उठता
हुआ जीवन है आकाश
की ओर, उसको
देखता है।
विनसेंट वानगाग ने
वृक्षों के
शायद पृथ्वी
पर सर्वाधिक
सुंदर चित्र
चित्रित किए
हैं। लेकिन
उसके वृक्षों
को समझना बहुत
मुश्किल है।
क्योंकि उसके
वृक्ष जमीन से
उठते हैं और
ठेठ आकाश को
पार करते चले
जाते हैं, चांदत्तारे नीचे रह
जाते हैं और
वृक्ष ऊपर
निकल जाते
हैं!
वानगाग को
उसके मित्रों
ने पूछा कि
तुम पागल तो
नहीं हो गए हो!
कभी वृक्ष
देखे हैं? ये
चांदत्तारे
नीचे पड़ गए और
वृक्ष ऊपर चले
जा रहे हैं? ये जमीन से
लेकर आकाश को
छेद रहे हैं? कभी वृक्ष
देखे हैं? वानगाग
ने कहा, तुमने
जो वृक्ष देखे
हैं, वे
शायद मैंने
नहीं देखे
होंगे। मैंने
जो वृक्ष देखे
हैं, वे
शायद तुमने
नहीं देखे
हैं।
उन्होंने कहा,
मतलब
तुम्हारा!
तो वानगाग
कहता था, जब भी
मैं किसी
वृक्ष को
देखता हूं, तो थोड़ी ही
देर में उसके
पत्ते खो जाते,
उसकी
शाखाएं खो
जातीं, उसकी
जड़ें खो जातीं,
उसकी देह खो
जाती। फिर तो
मुझे पीछे ऐसा
ही लगता है कि
वृक्ष पृथ्वी
की फैली हुई आकांक्षाएं
हैं आकाश को
छूने की।
पृथ्वी की आकांक्षाएं,
आकाश को
छूने की।
वृक्ष की
रूपरेखा मुझे
खो जाती और
पृथ्वी की आकांक्षाएं
मुझे वृक्षों
में लपट की
तरह, हरी
लपटों की
तरह--ग्रीन फ्लेम्स--आकाश
की तरफ भागती
मालूम पड़ने
लगती हैं। पृथ्वी
कोशिश कर रही
है आकाश से
आलिंगन का, ऐसा ही मुझे
दिखाई पड़ा है।
लेकिन
ऐसा जिसे
दिखाई पड़ेगा, उसे
फिर वृक्ष के
पत्ते वगैरह
दिखाई नहीं
पड़ेंगे। और
जिसे वृक्ष के
पत्ते वगैरह
दिखाई पड़ेंगे,
उसे
वृक्षों के
भीतर यह जो
प्राण की
ऊर्जा है भागती
हुई, यह
दिखाई नहीं
पड़ेगी। जिसको
फूल में केवल केमिकल्स
दिखाई पड़ेंगे,
उसे
सौंदर्य नहीं
दिखाई पड़ेगा;
और जिसे सौंदर्य
दिखाई पड़ेगा,
उसे केमिकल्स
का कोई पता
नहीं होगा।
गेस्टाल्ट का
भेद है।
कृष्ण
कहते हैं, यह
जगत, इसका
सब कुछ
परमात्मा से
परिपूर्ण है,
उसी से भरा
हुआ है।
हम
चारों तरफ
देखते हैं, वह
कहीं दिखाई
नहीं पड़ता।
हमारा
गेस्टाल्ट गलत
है। या हमारा
गेस्टाल्ट
संसार को देखने
वाला है। हमें
अपना
गेस्टाल्ट
बदलना पड़ेगा।
इस
गेस्टाल्ट की
बदलाहट की
प्रक्रिया का
नाम योग है।
इस गेस्टाल्ट
की बदलाहट की
प्रक्रिया का
नाम धर्म है।
इस गेस्टाल्ट
को बदलने की चेष्टा
ही साधना है।
तब जगत
में पदार्थ
नहीं दिखाई
पड़ता, परमात्मा
ही दिखाई पड़ता
है। एक क्षण
ऐसा आता है कि
जगत में उसके
अतिरिक्त कुछ
भी दिखाई नहीं
पड़ता, वही
शेष रह जाता
है। सब रेखाएं
उसी में लीन
हो जाती हैं।
और सब नदियां
पदार्थ की उसी
के सागर में
डूब जाती हैं
और मिल जाती
हैं।
वह
सनातन
अव्यक्त परम
पुरुष अनन्य
भक्ति से प्राप्त
होने योग्य है।
और यह
जो परम सत्ता
व्याप्त है सब
जगह,
यह अनन्य
भक्ति से
प्राप्त हो
जाती है। ये
दो शब्द आखिर
में समझ लें।
अनन्य
भक्ति, ऐसी
भक्ति जो
संपूर्ण रूप
से, समग्र
रूप से, एक
निष्ठा से
परमात्मा की
तरफ हो। एक
निष्ठा से
परमात्मा की
तरफ हो।
निष्ठा जरा भी
यहां-वहां खंडित
न होती हो, भागती
न हो। बंटी
हुई निष्ठा उस
तक नहीं पहुंचा
पाएगी। बंटी
हुई निष्ठा
संसार के
गेस्टाल्ट
में ले जाती
है। एक निष्ठा
संसार के
गेस्टाल्ट से
ऊपर उठाती है।
उसके कारण
हैं।
संसार
का अर्थ है, बहुत
वस्तुएं, अनेक।
अगर अनेक के
बीच जीना है, तो आपके
भीतर अनेक आकांक्षाएं
और अनेक निष्ठाएं
होनी चाहिए।
परमात्मा का
अर्थ है, एक।
अगर एक को
पाना है, तो
एक निष्ठा, एक आकांक्षा,
एक अभीप्सा
होनी चाहिए।
एक को पाना हो,
तो आपको भी
एक होना
चाहिए। अनेक
को पाना हो, तो आप अनेक
में विभाजित
होकर जी सकते
हैं।
चूंकि
हम संसार को पाने
में लगे हैं, इसलिए
हमारे एक-एक
आदमी के भीतर
अनेक-अनेक आदमी
होते हैं। सच
तो यह है, हममें
से कोई भी एक
नहीं होता। क्राउड, एक भीड़ होती
है हर आदमी के
भीतर। आप भी
पहचान सकते
हैं कि आपके
भीतर बहुत
चेहरे होते
हैं, बहुत
आदमी होते हैं
आपके भीतर।
मनोविज्ञान कहता
है, आदमी
मल्टी-साइकिक
है, बहु-चित्तवान
है। उसके भीतर
बहुत चित्त
हैं। और एक
चेहरा दूसरे
चेहरे से भी
अपरिचित बना
रहता है।
परिचय का मौका
ही नहीं आता।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक नाव में
यात्रा कर रहा
है और नाव डूब
जाती है।
शिष्ट आदमी है, सज्जन
आदमी है, नियम
का पालन करता
है। नाव डूब
जाती है, अनेक
यात्री मर
जाते हैं, कुछ
किनारों की
तरफ तैरकर
निकलने की
कोशिश करते
हैं। मुल्ला
को एक लकड़ी का
पटिया मिल
जाता है, एक
और यात्री को
भी मिल जाता
है। एक दिनभर
बीत गया, दोनों
पटिए पर
सहारा लिए चल
रहे हैं, लेकिन
अभी कोई
बातचीत नहीं हुई।
बड़ी कठिनाई है,
कठिनाई यह
है कि दोनों
सज्जन आदमी
हैं और उनका
पहले किसी ने
परिचय कराया
नहीं और अब
कोई परिचय
कराने वाला
नहीं। वे
दोनों ही हैं।
लकड़ी के पटिए
को पकड़े
हैं और किसी
ने परिचय
कराया नहीं, तो बिना
परिचय कराए
किसी से
बोलना!
आखिर
दूसरे आदमी के
बरदाश्त के
बाहर हो जाती
है सज्जनता।
कभी-कभी सज्जनता
बड़ी बरदाश्त
के बाहर हो
जाती है। आखिर
वह कहता है कि
महाशय, हद्द
हो गई!
औपचारिकता की
भी हद्द हो
गई। आप बोल
क्यों नहीं
रहे हैं? नसरुद्दीन ने कहा कि
मैं
प्रतीक्षा कर
रहा हूं कि जो
अशिष्ट हो, वह पहले
बोले। अब तुम
बोल चुके, अब
कोई अड़चन नहीं
है। मैं कभी
नहीं बोलता उस
आदमी से, जिससे
मेरा पहले
परिचय न
करवाया गया
हो। और मेरा
किसी ने तुमसे
परिचय नहीं
करवाया।
आपके
भीतर इतने
चेहरे हैं
जिनके साथ ही
आप तैर रहे
हैं,
सागर में
डूब रहे हैं, लेकिन आपका
कोई परिचय
नहीं है।
क्योंकि आपके
खुद के चेहरों
से कोई दूसरा
तो आपका परिचय
करवाएगा नहीं,
आपको ही
परिचय करना
पड़ेगा। आप
शिष्ट आदमी
हैं, कैसे
परिचय करें!
और आपके चेहरे
को दूसरा परिचय
करवाएगा कैसे?
और अगर कोई
करवाने की
कोशिश करे, तो आप नाराज
भी हो जाते
हैं। अगर कोई
आपको बताए कि
देखो, सुबह
तुम्हारा
दूसरा चेहरा
था, अब तुम
दूसरा चेहरा
लिए हो, तो
आप एकदम नाराज
हो जाते हैं।
और आप कभी
अपने आत्म-परिचय
में लगते नहीं
हैं, नहीं
तो पाएंगे कि
भीतर एक भीड़
है।
इस भीड़
का कारण क्या
है?
इस भीड़ का
एक ही कारण है,
क्योंकि आप
बहुत-सी चीजों
को पाना चाहते
हैं। बहुत-सी
चीजों को पाने
के लिए आपको
बहुत-से हिस्से,
अपने
खंड-खंड करने
पड़ते हैं। आप
उस आदमी की तरह
हैं, जो
चौराहे पर खड़ा
है और चारों
रास्तों पर एक
साथ जाना
चाहता है! तो
थोड़ा हिस्सा
इस रास्ते पर
चला जाता है, थोड़ा हिस्सा
उस रास्ते पर
चला जाता है, थोड़ा हिस्सा
और रास्ते पर
चला जाता है।
आपके सब
हिस्से
अलग-अलग
यात्राओं पर
निकल जाते
हैं। फिर शायद
मुश्किल ही हो
जाता है उनको
इकट्ठा करना
और एक जगह लाना।
परमात्मा
को पाना हो, तो
अनन्य भक्ति
से ही वह
प्राप्त करने
योग्य है।
अनन्य का अर्थ
है, इंटीग्रेटेड;
आपके भीतर
आप इतने एक हो
जाएं कि आप
जिस तरफ आंख
उठाएं, आपके
पूरे प्राणों
की आंख उस तरफ
उठ जाए।
अभी
ऐसा नहीं
होता। अभी
आदमी मंदिर
में पूजा के
लिए भी सिर
नीचे रखता है, तो
एक आंख
परमात्मा की
तरफ लगी रहती
है कि प्रार्थना
सुनी या नहीं!
दूसरी आंख
पीछे देखती रहती
है कि लोग कोई
देख रहे हैं
कि नहीं कि
मैं कितनी
प्रार्थना कर
रहा हूं, कैसा
धार्मिक आदमी
हूं!
मुल्ला
नसरुद्दीन
गिर पड़ा है।
एक धूप से भरी
हुई दोपहर है।
सड़क पर गिर
पड़ा है। बड़ी
भीड़ लग गई।
दोनों आंखें
उसकी बंद हैं।
बेहोश हालत
है। कोई कहता
है,
इसको जूता सुंघा दो, इसे होश आ
जाएगा। कोई
कहता है, सिर
पर मालिश करो।
कोई कहता है, पानी छिड़को।
एक लड़की
चिल्लाए चली
जा रही है कि
इससे कुछ भी न
होगा, एक पावभर दूध
में आधा पाव
जलेबी डालकर
इसे खिला दो।
मुल्ला
पहले तो थोड़ी
देर तक यह सब
आयोजन सुनता
रहा। फिर एक
आदमी जूता
निकालकर ही आ
गया। तब उसने
एक आंख खोली, उसने
कहा, हटाओ भी, सब
अपनी बकवास
में लगे हैं, कोई उस
बेचारी लड़की
की भी तो
सुनो। हम इधर
बेहोशी में
मरे जा रहे
हैं और तुम
अपना जूता सुंघा
रहे हो! एक आंख
खोलकर उसने
कहा कि उस
बेचारी लड़की
की भी कोई
सुनो!
बेहोश
भी अगर हम
होते हैं, तो
आधा ही हिस्सा
बेहोश है, आधा
उस वक्त भी
हिसाब लगा रहा
है कि कोई
जूता तो नहीं सुंघा रहा
है! कोई क्या
कर रहा है!
नींद में भी
हम बिलकुल सोए
हुए नहीं हैं।
नींद में भी
कान हमारे सजग
हैं। सुन रहे
हैं, जान
रहे हैं कि
कहां क्या हो
रहा है; आस-पास
क्या चल रहा
है!
खंडित
है सब, बंटा
हुआ है सब। इस
बंटी हुई
स्थिति को
लेकर कोई
प्रभु की तरफ
नहीं जा सकता।
इसलिए शर्त है,
अनन्य। और
भक्ति का अर्थ
है, प्रेम।
और प्रेम
अनन्य ही हो
सकता है। उसकी
धारा एक ही हो
सकती है।
प्रेम में बंटाव
नहीं है, प्रेम
में कटाव भी
नहीं है।
प्रेम खंड-खंड
चित्त से हो
भी नहीं सकता;
अखंड चित्त
हो, तो ही
हो सकता है।
अखंड प्रेम के
द्वारा यह परम
सत्ता पाने
योग्य है।
पाने
योग्य है दो
अर्थों में।
एक तो इस अर्थ
में कि इतनी
मेहनत उठानी
पड़े--कितनी ही
मेहनत उठानी
पड़े स्वयं को
एक करने की, तो
भी वह कोई
मूल्य नहीं
है। वह चुका
देने जैसा है।
और मुफ्त है, क्योंकि जो
मिलता है, उसका
कोई मूल्य
नहीं आंका जा
सकता है।
इसलिए अनन्य
भक्ति से पाने
योग्य है। एक।
और
दूसरा कि यही
पाने योग्य है, और
कुछ इस जीवन
में, अस्तित्व
में पाने
योग्य नहीं
है। यह परम
धाम ही पाने
योग्य है। और
इस परम धाम को
जब तक हम न पा
लें, तब तक
हम ऐसी चीजों
को पाते चले
जाएंगे, जिन्हें
न पाया होता
तो कुछ हर्ज न
था, और पा
लिया तो कुछ
पाया नहीं।
लेकिन
आदमी खाली
नहीं बैठ
सकता। आदमी
कुछ तो पाता
ही रहेगा। कुछ
तो करता ही
रहेगा। यह
मकान बनाएगा, और
बड़ा मकान
बनाएगा। यह
दुकान खोलेगा,
और बड़ी दुकान
खोलेगा। कुछ न
कुछ करता ही
रहेगा। और सब
कुछ करके भी
पाएगा कि कुछ
पाया नहीं, तो फिर कुछ
और करने में
लग जाएगा।
हमारी
जिंदगी का
तर्क ऐसा है
कि अगर एक
मकान मैं बना
लूं और सुख न
मिले, तो मैं
सोचता हूं, इतने
छोटे-से मकान
से कहां सुख
मिलेगा! थोड़ा
बड़ा मकान
बनाना चाहिए।
वह उतना बड़ा
बना लूं, फिर
भी मेरा तर्क
कहेगा, इतने
से नहीं मिला,
साफ जाहिर
होता है कि
थोड़ा और बड़ा
मकान चाहिए।
इसी तरह मैं दौड़ता
रहूंगा। कभी
भी यह खयाल
नहीं आता कि
जब छोटे मकान
में कम से कम
थोड़ा तो सुख
मिलना चाहिए
था, तो बड़े
में थोड़ा और
ज्यादा मिल
जाता! थोड़े
में थोड़ा भी
नहीं मिला, छोटे में
छोटा सुख भी
नहीं मिला, तो बड़े में
भी नहीं मिल
सकता है। मैं
कहीं कुछ गलत
काम में लगा
हूं। मैं
सिर्फ आकुपाइड
हूं, मैं
सिर्फ व्यस्त
होने की कोशिश
में लगा हूं। खालीपन
घबड़ाता
है, तो
भरता रहता
हूं--कभी धन से,
कभी यश से, कभी पद
से--कुछ न कुछ, कुछ न कुछ
काम से अपने
को भरता रहता
हूं।
लेकिन
कितना भी भरूं
अपने को, कितने
ही कामों से, खाली ही रह जाऊंगा।
सिवाय
परमात्मा के
और कोई चीज
वस्तुतः किसी को
भर नहीं सकती।
उस भराव के
साथ ही फुलफिलमेंट
है, उस
भराव के साथ
ही भराव है।
उसके पहले हर
आदमी खाली है।
इसलिए
पश्चिम में
इधर पचास
वर्षों
में--और पश्चिम
का प्रभाव तो
सारे पूरब पर
भी छा गया
है--पचास
वर्षों में
जितने
जीवन-दर्शन
पैदा हुए हैं, वे
सभी
जीवन-दर्शन एक
बात पर खड़े
हैं कि आदमी की
जिंदगी में
भराव नहीं है,
खाली है, एंप्टी है, रिक्त है।
इनकी रिक्तता
का कारण है, क्योंकि
पिछले पचास
वर्षों में
पश्चिम और पश्चिमी
विचारधारा के
प्रभावी
लोगों ने
परमात्मा को
इस तरह इनकार
किया है, जैसा
इनकार इसके
पहले मनुष्य
के इतिहास में
कभी भी नहीं
हुआ।
जितना
हम परमात्मा
को इनकार
करेंगे, उतना
ही हम एंप्टी
और खाली अपने
को अनुभव
करेंगे। और
फिर उस खालीपन
को न एटम से भर
सकते हो, न
हाइड्रोजन बम
से भर सकते
हो। उस खालीपन
को, बड़ी से
बड़ी युनिवर्सिटियां
खड़ी करो, नहीं
भर पाओगे। उस
खालीपन को, बड़े महल खड़े
करो, सौ डेढ़
सौ मंजिल ऊंचे,
आकाश को
छूने लगें, वह खालीपन
बिलकुल नहीं
छुआ जाएगा। वह
खालीपन किसी
और चीज से कभी
भरता ही नहीं।
वह सिर्फ एक
से ही भरता है,
जिससे वह
पहले से ही
भरा हुआ है।
उसको ही जान लेने
से भरापन
उपलब्ध होता
है।
आज
इतना ही।
लेकिन
पांच मिनट
जाएंगे नहीं।
पांच मिनट अपनी
जगह पर ही
बैठे रहें।
अगर आप अपनी
जगह पर बैठे
रहें, तो
मैं
संन्यासियों
को खड़े होकर
कीर्तन करने की
आज्ञा दूं। आप
बैठे रहें, उनको खड़े
होकर कीर्तन
कर लेने दें।
आप वहीं अपनी
जगह पर बैठे
रहें।
thank you guruji
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