यह
सूत्र बुद्ध
ने एक विशेष
घटना के समय
कहा था, वह
घटना भी समझ
लेने जैसी है।
बुद्ध के
शिष्यों में
एक भिक्षु थे
उनका नाम था
समंजनी।
उन्हें सफाई
का पागलपन था।
क्योंकि
बुद्ध ने कहा
स्वच्छ रहो
साफ— सुथरे
रहो। वह उनको
धुन पकड़ गयी
पागल तो पागल
वह ठीक बात में
से भी गलत बात
निकाल लेते।
उनको ऐसी धुन
पकड़ गयी कि
चौबीस घंटे वह
झाडू ही लिए
रहते। इधर जाला
दिखायी पड़ गया
उधर कचड़ा
दिखायी पड़ गया
सफाई ही सफाई।
कई
स्त्रियों को
यह रोग रहता
है,
सफाई ही
सफाई। किसके
लिए सफाई कर
रही हैं, यह
भी कुछ पक्का
नहीं।
मैं
एक घर में कुछ
दिन तक रहता
था,
बड़ा
साफ—सुथरा घर
था, ऐसा
साथ— सुथरा घर
मैंने देखा ही
नहीं। घर कहना
ही नहीं चाहिए
उसको, इतना
साफ—सुथरा था।
उसमें रहने की
सुविधा ही नहीं
थी। वह महिला
अपने पति को
भी अपने
बैठकखाने में
नहीं बैठने देती
थी,
कि तुम
उठो! अखबार
भीतर चलकर
पढ़ो! क्योंकि
इधर बैठे रहे
घंटेभर तो
उसकी गद्दी
खराब हो जाए।
मेहमानों को
वह पसंद न
करती कि कोई
घर में आएं, क्योंकि वह
सफाई! बच्चे
बैठकखाने में
प्रवेश न कर
सकते, क्योंकि
सफाई!
मैं
दो—चार दिन
देखता रहा, मैंने
उससे कहा कि
सफाई तो बड़ी
तू गजब की कर
रही है। उसको
मैंने यह कहानी
कही थी जो मैं
तुम्हें सुना
रहा हूं बुद्ध
की। मैंने कहा,
यह तो ठीक
है, मगर
किसलिए? मेहमान
आ नहीं सकते, पति बैठ
नहीं सकता, बच्चे आ
नहीं सकते, तुझे मैंने
कभी बैठा देखा
नहीं, बस
तू सफाई में
ही लगी है। वह
दिनभर लिए है
कपडा और
बाल्टी और
जगह—जगह घिस
रही है। सफाई
तो बुरी बात
नहीं, उसने
मुझसे कहा।
मैंने कहा, नहीं, सफाई
बुरी बात
नहीं। लेकिन
सफाई ही सफाई
करते रहो सफाई
का प्रयोजन
क्या है? कि
साफ—सुथरे घर
में रहो, मगर
रहने का मौका
भी चाहिए न!
रहने का अवकाश
चाहिए।
......यह
बुद्ध के
भिक्षु थे
समंजनी बुद्ध
की बात सुनकर
कि स्वच्छ रहो
उनको पकड़ गयी।
पागल रहे होंगे
दिमाग कुछ
झक्की रहा
होगा।
उन्होंने कहा
ठीक! जब बुद्ध
ने कहा तो फिर..? तो
वह झाडू लिए
रहते दिनभर और
दिनभर झाडू
लगाया करते।
कभी यहां गंदा
कभी वहां गंदा
उन्हें मौका
ही न मिलता
भीतरी सफाई का
जिसके लिए
भिक्षु हुए थे
जिसके लिए
संन्यास लिया
था।
एक
दिन एक वृद्ध
भिक्षु रेवत
ने उन्हें कहा
आमुस भिक्षु
को सदा बाहर
की सफाई ही
नहीं करते रहना
चाहिए। बाहर
की सफाई ठीक
है तो कभी
सुबह कर ली
सांझ कर ली
बाकी चौबीस
घंटे यही काम।
तो झाडू से
तुम स्वर्ग
नहीं पहुंच
जाओगे! कुछ
ध्यान भी करो
कुछ भीतर की
सफाई भी करो।
कुछ भीतर की
झाडू उठाओ।
कभी ध्यान
किया करो कभी
शांत बैठा करो
कभी विश्राम
में भीतर जाया
उसे कुछ भीतर
भी तो झांको।
उससे ही असली
सफाई होगी।
भीतर कब झाडू मारोगे?
उस बूढे फकीर
ने पूछा। या
कि जीवनभर ऐसा
ही बिता देना
है!
बात
चोट खा गयी।
समंजनी को बोध
हुआ। होश आया
बात तो उसे
हासगस्पद लगी
कि मैं क्या
करता रहा! कोई
दस साल हो गए
बुद्ध के पास
यही काम ताम
करते जैसे
नीदं टूटी।
तंद्रा की
जैसे एक पर्त
आंखों
से गिर गयी।
बाहर नहीं
जैसे भीतर की आंख
अचानक खुल
गयी। जैसे
सुबह कोई रात
का सोया हुआ
जागे और सपने
खो जाएं।
दूसरे
दिन उसे झाडू
न लगाते देखकर
अन्य भिक्षु
हैरान हुए यह
तो बात ही
भरोसे की न थी
कि समजनी और
झाडू न लगाएं।
और दूसरे दिन
देखा कि झाडू बगैरह
उनके हाथ में
भी नहीं है तो
उनको तो भरोसा
ही नहीं आए
क्योंकि वह तो
झाडू वाले ही
भिक्षु की तरह
प्रसिद्ध थे।
झाडू वाले
बाबा!
उन्होंने
पूछा आवुस समंजनी
स्थविर, आज
झाडू कहां? यह आपके
स्वभाव में
परिवर्तन
कैसा? आप
होश में तो
हैं तबीयत तो
ठीक है न? कुछ
बीमार
इत्यादि तो
नहीं हो गए यह
कैसा पतन! यह
कैसा चरित्र
का हास! देखो
इस जगह कूड़ा
इकट्ठा हो गया
है उस जगह
मकड़ी का जाला
लगा है लोग
मजाक करने लगे।
समंजनी
हंसे और बोले
भंते सोते समय
मैं ऐसा करता
था। सोते समय
मैं ऐसा करता
था लेकिन अब
जाग गया हूं।
मेरा प्रमाद
गया और
अप्रमाद का
मुझमें उदय
हुआ है।
सुबह—सांझ
झाडू लगा
दूंगा उतना पर्याप्त
है शेष समय
भीतर की सफाई।
और ऐसा कहकर
वह फिर ध्यान
में लीन हो गए।
भिक्षुओं
ने यह बात
जाकर बुद्ध को
कही। बुद्ध ने
कहा हां
भिक्षुओ मेरा
वह पुत्र
प्रमाद के समय
ऐसा करता था।
लेकिन अब जाग
गया है और उस
व्यर्थ के
विक्षिप्त
व्यवहार से
मुक्त हो गया
है। तब बुद्ध
ने यह गाथा
कही।
यही
गाथा आज का
पहला सूत्र
है:—
यो व
पुब्बे
पमज्जित्वा
पच्छा सो
नप्पमज्जति।
सो ' मं
लोकं पभासेति
अछभा मुतो व
चदिमा ।।
'जो पहले
प्रमाद करके
पीछे प्रमाद
नहीं करता, वह मेघ से
मुक्त
चंद्रमा की
भांति इस लोक
को प्रकाशित
करता है।'
बुद्ध
ने कहा, मेरा
यह पुत्र।
सच्चा पिता तो
गुरु ही है।
क्योंकि उससे
आत्मा को जन्म
मिलता है।
बुद्ध ने कहा,
मेरा यह
पुत्र अब जाग
गया है। बेहोश
था, तब ऐसा
मूर्च्छित
व्यवहांर
चलता था।
पागलपन का
व्यवहांर था
वह। अब यह होश
में आ गया है।
तुम जाओ उसके
पास बैठो। उसे
गौर से देखो, यह वही आदमी
नहीं है। यह
चांद है जो
मेघों से मुक्त
हो गया है।
इसका प्रमाद
गया।
दूसरा
सूत्र—
यस्स
पापं कतं
कम्मं कुसलेन
पिथीयती।
सो
' मं लोकं
पभासेति
अब्भा मुतो व
चंदिमा।।
'जिसका किया
हुआ पाप उसी
के बाद में
किए हुए पुण्य
से ढंक जाता
है, वह मेघ
से मुक्त
चंद्रमा की
भांति इस लोक
को प्रकाशित
करता है।'
पापों
की चिंता मत
करो। मेरे पास
लोग आते हैं, वे
कहते हैं, हमने
पाप किए बहुत,
उनको कैसे
काटें?
अब
पीछे तो लौटना
संभव नहीं। जो
गया सो गया, जो
हुआ सो हुआ।
अब तो तुम कुछ
ऐसा करो, कुछ
ऐसी दिशा में
अपनी
जीवन—ऊर्जा को
बहाओ कि
संतुलन आ जाए।
जैसे तुमने
चोरी की, तो
दान कर दो।
पुण्य का और
क्या अर्थ
होता है? तुमने
कभी पुण्य का
ऐसा सोचा अर्थ?
पुण्यात्मा
होकर तुम
अहंकारी मत बन
जाना। क्योंकि
पुण्यात्मा
तो सिर्फ
पश्चात्ताप
है। उसमें
गौरव का कुछ
भी नहीं है।
जैसे
एक आदमी बीमार
हुआ। ज्यादा
भोजन करता था, रात
देर तक जागता
था, कामाचारी
था, बीमार
हुआ। तो अब
दवा लेनी पड़ती,
पथ्य पर
जीना पड़ता, ठीक समय
सोना पड़ता, सुबह
व्यायाम करना
पड़ता। तो ऐसा
आदमी सड़क पर जाकर
अपनी दवाइयों
की बोतल
दिखाकर लोगों
को तो नहीं
कहता कि देखो,
मैं कैसा
पुण्यात्मा, कैसी—कैसी
दवाइयां पीता
हूं, पथ्य
से जीता हूं।
नहीं, ऐसा
कुछ भी नहीं
कहता।
क्योंकि जो वह
कर रहा है, वह
तो जो पहले
किया है, उसको
अनकिया करने
के लिए कर रहा
है। अब इसका कोई
मूल्य थोड़े ही
है। किया था
पाप, तो
पुण्य। चोरी
की, तो
दान। क्रोध
किया था, तो
करुणा। लोभ किया
था, तो
सेवा।
कुछ
करो। जो हो
गया,
उसको तो
अनकिया नहीं
किया जा सकता,
वह तो गया।
वह तो समय गया,
वह हाथ के
बाहर हो गयी
बात। लेकिन
तुम अभी अपनी
ऊर्जा को ठीक
दूसरी दिशा
में झुका सकते
हो। तो संतुलन
आ जाएगा। जैसे
आदमी तराजू
तोलता है। एक
पलड़े पर तुम
चीजें रखते गए,
रखते गए, रखते गए, वह पलड़ा
जमीन से लग
गया और दूसरा
उठ गया ऊपर, अब— क्या करो?
समय का
पलड़ा है कि
जो पलड़ा जमीन
से लग गया वह तो
तुम्हारे हाथ
के बाहर हो
गया था, वह
तो अतीत हो
गया, अब
उसमें से
चीजें निकाल
नहीं सकते। जो
कर लिया, कर
लिया। अब कैसे
घटाओगे? तो
पुण्य की
प्रक्रिया का
अर्थ इतना ही
है कि वह तो तुम्हारे
हाथ के बाहर
हो गया, अतीत
का पलड़ा तो
तुम्हारे हाथ
के बाहर हो
गया, लेकिन
भविष्य का
पलड़ा
तुम्हारे हाथ
के भीतर है, इस पर पुण्य
चढ़ाओ। धीरे—
धीरे यह पलडा
भारी होकर
नीचे उतरेगा
और पुराने
पलड़े को बराबर
ले आएगा, संतुलन
हो जाएगा। और
जहां तराजू
मध्य में ठहर
जाएगा, जहां
तराजू का काटा
बताने लगेगा
दोनों बराबर
हो गए, उसी
क्षण मुक्ति
है।
मुक्ति, जहा
कांटा मध्य
में आ जाता
है। जहां न
तुम पापी रहे,
न
पुण्यात्मा।
जहां न शभ रहे,
न अशुभ। न
अच्छे, न
बुरे। न सज्जन,
न दुर्जन।
उसी क्षण तुम
पार हो जाते
हो। उस अवस्था
को बौद्धों ने
कहा है, सम्यकत्व।
समता आ गयी।
ओशो
एस धम्मो
संनतनो
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