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रविवार, 7 दिसंबर 2014

अनाथपिंडक का दान और काल—(कथा—103)

 अनाथपिंडक का दान और काल-(एस धम्‍मो सनंतनो)


यह गाथा बुद्ध ने एक विशेष अवसर पर कही।  
ये सारे अवसर बड़े प्यारे हैं, इसलिए मैं कह रहा हूं।

क बड़ा दानी था उसका नाम था, अनाथपिंडक। वह अनाथों का बड़ा सहारा था। देता लोगों को दिल खोलकर देता। उसके घर काल नाम का एक पुत्र था। उानाथपिंडक बुद्ध को सुनने जाता लेकिन काल कभी बुद्ध को सुनने न जाता था। काल शब्द भी बड़ा अच्छा! अनाथपिडक का मतलब होता है, देने वाला, दान दे ने वाला, अनाथों को सनाथ कर दे जो। और काल का अर्थ होता है, समय, या मौत। न तो समय बुद्ध को सुनने जाना चाहता है और न मौत, क्योंकि दोनों बुद्ध से डरते हैं।

समय तो क्षणभंगुर है, शाश्वत के पास जाने में घबड़ाता है। और मौत भी जीवन के सामने जाने में घबड़ाती है। तुम तो मौत के सामने जाने में घबड़ाते हो, बुद्धपुरुष के सामने मौत आने में घबड़ाती है। ये तो प्रतीक हुए नाम के।
बाप लेकिन चाहता था कि बेटा जाए बुद्ध को सुने। लेकिन बेटा सुनता नहीं था। तो बाप ने कहा ऐसा कर मैं तुझे सौ स्वर्णमुद्राएं दूंगा अगर तू बुद्ध के वचन सुनने जाए। इस लोभ में वह गया।
तुम खयाल रखना, पहली दफे जब तुम धर्म की तरफ आते हो तो तुम लोभ में ही आते हो। लोभ किसी तरह का हो, कि चलो मन को थोड़ी शांति मिलेगी, अशांति से छुटकारा होगा, कि थोड़ा आत्मविश्वास बढ़ेगा, कि जीवन में सफलता शायद इस तरह से मिल जाए, कि दुकान तो चलती नहीं शायद ध्यान करने से चल जाए, क्योंकि लोग कहते हैं कि ध्यान करने से तो परमधन मिलता है, तो यह तो छोटा—मोटा धन है, यह तो मिल ही जाएगा, ऐसे ही हजार—कि बीमार रहती है तबियत शायद ध्यान करने से ठीक हो जाए; कि पति—पत्नी की बनती नहीं तो सोचते हैं, चलो ध्यान कर लें शायद बनने लगे, कुछ ऐसे लोभ से आदमी आता है।
तो गया बेटा बुद्ध को सुना लौटकर आया आते ही उसने कहा कि सौ स्वर्णमुद्राएं? पीछे भोजन करूंगा क्योंकि मुझे भरोसा किसी का नहीं। पहले स्वर्णमुद्राएं गिनवा ली तब भोजन किया। वह तो गया ही उसके लिए था। उसको बुद्ध को सुनने से मतलब थोड़े ही था! वह तो जब बुद्ध को सुन रहा होगा तब भी मुद्राएं गिन रहा होगा। सोच रहा होगा कि बाप देगा कि नहीं देगा कि चालबाजी की है कि ऐसे ही बहाना कर दिया है कि इसी बहाने भेज दिया।
दूसरे दिन बाप ने कहा कि अब हजार स्वर्णमुद्राएं दूंगा लेकिन शर्त एक है कि सुनना काफी नहीं जो सुनो उसे याद भी रखना और मेरे सामने आकर दोहराना हजार स्वर्णमुद्राएं। तो बेटा गया। लेकिन वहां जाकर डुबकी खा गया।
वह याद रखने में गड़बड़ हो गयी। गौर से सुनना पड़ा, याद रखना था। ध्यान से सुनना पड़ा, गुन—गुनकर सुनना पड़ा कि एक भी बात चूक न जाए, नहीं तो बाप भी पक्का बाप है, वह एक हजार स्वर्णमुद्राओं में काट लेगा—इतना याद नहीं रहा। इतने गौर से सुना, ध्यान से सुना— भूल ही गया स्वर्णमुद्राओं को उस भाव में—डुबकी खा गया।
आया ही नहीं घर सांझ हो गयी बाप भागा आया कि मामला क्या है? वह आंख बंद किए बैठा था अरे बाप ने कहा घर चल। उसने कहा सुन लिया अब कहां आना और कहां जाना? बाप ने कहा हजार स्वर्णमुद्राएं तेरी प्रतीक्षा कर रही हैं उसने कहा वह अब आप ही सम्हालकर रख लो और ये सौ भी जो कल दी थीं वापस ले जाओ!
बाप तो बड़ा हैरान हुआ क्योंकि बुद्ध को बहुत सुनता था उनकी बात मानकर दान भी करता था लेकिन ऐसा नहीं सुना था जैसा इस बेटे ने सुन लिया।
अक्सर ऐसा होता है कि जवानी जो सुन सकती है, बुढ़ापा नहीं सुन सकता। युवा मन जो सुन सकता है, का मन नहीं सुन सकता। थक गया होता है। या, जानकारी की इतनी पर्तें इकट्ठी हो गयी होती हैं! ताजा मन जो सुन सकता है..। बाप ने बहुत समझाया लेकिन उसने कहा अब छोड़ो पिंड तुम यही तो चाहते थे हो गया। बाप ने कहा यह जरा ज्यादा हो गया। मैने इतना चाहा था कि सुन लेगा लौट आएगा थोड़ा समझदार हो जाएगा धार्मिक हो जाएगा प्रतिष्ठित हो जाएगा मगर यह जरा ज्यादा हो गया तेरा क्या इरादा है? उसने कहा अब क्या इरादा है बात खतम हो गयी। अब हम बुद्ध के हैं। बात उतर गयी
बाप ने बुद्ध को कहा कि यह मामला क्या है? मैं जन्म से सुन रहा हूं और इस आदमी ने दो ही बार सुना है और यह भी किसी और कारण से सुना है पैसा पाने के लिए बुद्ध ने कहा तुम्हारा बेटा अब तुम्हारा नहीं मेरा हो गया। जिसने मुझे सुन लिया मेरा हो गया। अब यह बेटा मेरा है अब यह तुम दावा जाने दो। अब उसे तुम चक्रवर्ती की संपत्ति भी दो तो भी लौटने वाला नहीं तुम उसे देवलोक का सम्राट बना दो इंद्र बना दो तो भी लौटने वाला नहीं। तुम तीनों लोकों की सारी संपदा उसके चरणों में रख दो तो भी लौटने वाला नहीं तो बाप ने कहा इसे हो क्या गया है? तो बुद्ध ने कहा यह स्रोतापन्न हो गया। यह ध्यान की सरिता में उतर गया है।
इस घड़ी बुद्ध ने यह गाथा कही—

पथव्या एकरज्जेन सग्गस्स गमनेन वा।
सब्बलोकाधिपच्चेन सोतापत्तिफलं वरं।।

'पृथ्वी का अकेला राजा होने से, या स्वर्ग के गमन से, अथवा सभी लोकों का अधिपति बनने से भी स्रोतापत्ति—फल श्रेष्ठ है।'

ध्यान आंख है इस स्रोतापन्न हो जाने को ही मैं संन्यास कहता हूं। तुममें से जिसने सुना हो, वह खयाल रखें इस घटना को। सुना, तो मेरे हुए। अगर सुनकर चले गए बिना मेरे हुए, तो सुना ही नहीं। स्मरण रखना। और जब तक तुम स्रोतापन्न न हो जाओ, जब तक तुम ध्यान की सरिता में डूबने न लगो, डुबकी न खाने लगो, तब तक सुना या न सुना सब बराबर।

ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो

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