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रविवार, 7 दिसंबर 2014

बुद्ध की तपश्‍चर्या और मार की तीन कन्‍याएं—(कथा—104)

बुद्ध की तपश्‍चर्या और मार की तीन कन्‍याएं-(एस धम्‍मो सनंतनो)


आज के सूत्र जिस कथा से संबंधित हैं, वह मैं पहले कह दूं, जिस परिस्थिति में बुद्ध ने ये सूत्र, आज के पहले दो सूत्र कहे। पहले दो सूत्र—

      यस्स जित नावजीयति जितमस्स नौ याति कोचि लोके ।
      तं बुद्धमनंतगोचर अपदं केन पदेन नेस्सथ ।।
      यस्स जालिनी विसत्तिका तन्हा नत्थि कुहिन्चि नेतवे ।
      त बुद्धमनंतगोचरं अपद केन पदेन नेस्मथ ।।

'जिसका जीता कोई अनजीता नहीं कर सकता, और जिसके जीते को कोई दूसरा नहीं पहुंच सकता, उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?'  'अपने जाल में सबको फंसाने वाली तृष्णा जिसे नहीं डिगा सकती, उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?'
ये पहले दो सूत्र एक खास स्थिति में कहे गए थे, वह स्थिति बड़ी समझने जैसी है। क्योंकि उस स्थिति से तुम्हें कभी न कभी गुजरना होगा। स्थिति यह थी—


बुद्ध ने छह वर्ष की तपश्चर्या की। जो करने योग्य था किया जो भी किया जा सकता था किया। कुछ भी अनकिया न छोडा जिसने जो कहा वही किया। जिस गुरु ने जो बताया उसको समग्र मन— भाव से किया तन— प्राण से किया। रत्तीभर भी अपने को बचाया नहीं। सब तरह अपने को दांव पर लगा दिया!
ऐसी स्थिति की अंतिम घडी में जहा संकल्प अपने शिखर पर पहुंचता है और जहा से आदमी मन से मुक्त होता है, तो मन आखिरी हमले करता है। स्वाभाविक। जिस मन के साथ हम वर्षों रहे, जन्मों रहे और जिस मन की हम पर मालकियत रही, वह मालकियत यूं ही नहीं छोड़ देता। कौन मालकियत यूं ही छोड़ देता है!
अगर तुम्हारा नौकर भी तुम छुड़ाना चाहो तो वह भी आसानी से नहीं छोड़ता, तो मालिक की तो बात ही और। नौकर नौकरी छोड़ने को आसानी से राजी नहीं होता तो मालिक मालकियत छोड़ने को कैसे राजी होगा! और अगर नौकर कहीं भूल—चूक से मालिक बन बैठा हो, तब तो फिर छोड़ने की बात ही नहीं। और यही हुआ है। मन नौकर है, बन बैठा मालिक है। तो अगर नौकर सिंहासन पर बैठ जाए तो फिर आसान नहीं है उतारना।
मैंने सुना है, एक झक्की बादशाह ने कोर्ट के मसखरे को ऐसे ही बातचीत में पूछ लिया कि बोल, तुझ पर हम बहुत प्रसन्न हैं, तू क्या चाहता है? तेरी मर्जी पूरी कर देंगे। मसखरा था अदभुत और सम्राट को हंसाया करता था और सम्राट—उसने कुछ मजाक की बात कही—खूब हंसा, लोटा—पोटा, बहुत प्रसन्न हो गया। तो उसने कहा, देख, तू जो चाहेगा। उसने कहा, कुछ ज्यादा नहीं, चौबीस घंटे के लिए सम्राट बना दो। अब यह कोई बड़ी बात न थी, सम्राट ने कहा, ठीक है, चौबीस घंटे का ही मामला है, बन जा।
चौबीस घंटे के लिए मसखरा सम्राट बन गया। लेकिन चौबीस घंटे में उसने सब तहस—नहस कर डाला। पहला काम तो उसने कहा कि सम्राट को फासी लगा दो। सम्राट ने कहा, अरे पागल, मैंने तुझे सम्राट बनाया! उसने कहा, वह मैं जानता हूं, तुम्हीं मुझे उतारोगे। फैसला! खतम करो! देर—दार की जरूरत नहीं, चौबीस घंटे का मामला है, चौबीस घंटे में सब कर लेना है। सब दरबारियों वगैरह को जेल में डाल दिया। सेनापति बदल डाले, अपने आदमी बिठा दिए। चौबीस घंटे का था मामला, लेकिन सदा के लिए बनने की योजना कर ली। चौबीस मिनट में भी यह हो सकता था।
अगर गुलाम कभी मालिक बन जाए तो बहुत खतरनाक सिद्ध होता है। क्योंकि वह जानता है कि मैं हूं तो गुलाम और यह जो थोड़ी सी घड़ियां मुझे मिल गयी हैं, अगर इनका उपयोग न कर लिया तो फिर का फिर गुलाम हो जाऊंगा। नौकर अगर मालिक जन्मों तक रहा हो, तब तो बहुत कठिन है उसे हटा देना। और वही स्थिति है मन की।
तो जब कोई साधक अपने अंतिम शिखर पर पहुंचता साधना के, तो मन आखिरी जद्दोजहद करता है, आखिरी संघर्ष होता है—कुरुक्षेत्र। अंतिम निर्णायक युद्ध होता है। उस निर्णायक युद्ध को अनेक—अनेक प्रतीकों से कहा गया है।
मुसलमान कहते हैं—शैतान हमला करता है। वह शैतान मन है। ईसाई कहते हैं —डेविल, बीलझेबब हमला करता है। वह बीलझेबब कोई और नहीं, मन है। हिंदू कहते हैं—कामदेव। और स्वभावत: हिंदुओं के पास सबसे श्रेष्ठ कथाएं हैं। क्योंकि उन्होंने खूब परिमार्जित किया है। दस हजार साल तक परिमार्जन किया है। .'गैसें की कथाएं नयी—नयी हैं, उनमें कई भूल—चूके मिल जाएंगी, लेकिन हिंदुओं ने तो खूब परिमार्जन किया है। इसके पहले कि हिंदुओं की कथाएं लिखी गयीं, हजारों साल तक वे कथाएं बुद्धिमानों के हाथ से गुजरती रहीं, उन पर परिमार्जन होता रहा।
तो हिंदुओं की कामदेव की कथा बड़ी अदभुत है, उसमें पहली तो बात यह कि वह अनंग हैं, उनकी कोई देह नहीं। यही तो मन है। मन की कोई देह थोड़े ही है। मन अदेही है। इसीलिए तो मन को कहीं भी जाने में देर नहीं लगती। तुम्हें दिल्ली जाना, समय लगे, कलकत्ता जाना, समय लगे, मन, यह गया। अदेही है, न कोई ट्रेन, न मोटर, न हवाई जहाज, किसी की कोई जरूरत नहीं। सोचा नहीं कि गया नहीं। क्षण भी बीच में टूटता नहीं—समय नहीं लगता। देह अगर मन की होती तो समय लगता।
हिंदुओं की कथा अदभुत है कि शिव को काम ने बहुत ज्यादा पीड़ित किया, परेशान किया तो वह नाराज हो गए और उन्होंने आंख अपनी, तीसरा नेत्र खोल दिया। उस तीसरे नेत्र के कारण जलकर भस्म होकर काम का जो शरीर था वह गिर गया। तब से वह अनंग है। उसके पास देह नहीं है।
यह कथा भी प्यारी है कि तीसरे नेत्र के खोलने से काम जल गया। तीसरे नेत्र के खुलने पर ही काम जलता है। तीसरे नेत्र के खुलने का अर्थ है, अंतर्दृष्टि उपलब्ध हो गयी, भीतर की आंख खुल गयी। जब तक भीतर की आंख बंद है, तभी तक काम का तुम पर प्रभाव है। भीतर की आंख खुल गयी, काम का प्रभाव समाप्त हो गया। भीतर तुम सोए हो, इसलिए काम तुम्हें फुसला लेता है, राजी कर लेता है। भीतर जाग गए, फिर तुम्हें कोई राजी न कर सकेगा।
बौद्धों में यही काम मार कहा जाता है। यह बौद्ध नाम है काम का ही। बौद्धों ने भी खूब परिष्कार किया है मार का। और यह घटना तुम्हें बताएगी कि किस तरह परिष्कार किक है।
साधना अंतिम शिखर पर पहुंच गयी उनकी। तपश्चर्या के अंतिम शिखर पर मार ने भगवान को पछाड़ने की चेष्टा की। मार सब तरफ से हमले किया।
सब द्वार—दरवाजों से हमले किया। क्षणभर भी खोने का उपाय न था, जल्दी करनी जरूरी थी, क्योंकि बुद्ध वहां जा रहे हैं जहां तीसरा नेत्र खुल जाएगा। इसके पहले कि तीसरा नेत्र खुल जाए, सब उपाय कर लेना जरूरी था।
लेकिन उसे मार खानी पड़ी। मार को मार खानी पड़ी। हार खानी पडी।
यह शब्द भी बड़ा अच्छा है। इसलिए बुद्ध इसे मार कहते हैं कि तुम घबड़ाओ मत, आखिर में तो इसको मार खानी पड़ेगी। यह मार खाएगा। बीच के ही दिन हैं इसकी विजय —यात्रा अगर होती है। अंततः तो इसे हारना है—सत्यमेव जयते। सत्य अंततः तो जीतेगा। अगर झूठ जीतता है तो बीच में ही जीतता है, इसलिए बहुत परेशान मत होना। अगर झूठ जीत भी जाए तो प्रतीक्षा करना, डांवाडोल मत हो जाना, अंततः तो सत्य ही जीतेगा। क्योंकि झूठ है ही नहीं तो जीतेगा कैसे? इसलिए मार तो खानी ही पड़ेगी। उसका स्वभाव ही ऐसा है कि वह हारेगा। तुम जागे कि हारेगा। अगर जीत रहा है तो सिर्फ इसीलिए कि तुम अभी सोए हो। तुम खुद ही झूठ हो, इसलिए झूठ जीत रहा है। जैसे ही तुम सच हुए कि सच की जीत हो जाएगी। मार अपने कारण नहीं जीत रहा है, तुम्हारे कारण जीत रहा है। तुम हारे हुए बैठे हो, इसलिए जीत रहा है। तुम जरा उठकर खड़े हो जाओ, तो मार जीत न सकेगा।
मार को हार खानी पड़ी। तब उसने अपनी तीन कन्याओं को भेजा। मार— कन्याएं नाना प्रकार के प्रयत्न कर भगवान को वश में करना चाहीं।
अब यह भी समझना। पहले मार स्वयं आया। हार गया, तो उसने अपनी तीन  ,।।न्याओं को भेजा। यह आखिरी उपाय है।
इन प्रतीकों को खयाल में लेना जरूरी है। पहली बात, जैसा मैंने तुमसे पहले ?r दन कहा कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर पुरुष है और स्त्री है। और प्रत्येक स्त्री के भीतर स्त्री है और पुरुष है। तो बुद्ध पुरुष हैं। स्वभावत:, सबसे पहले बुद्ध का जो अधिक अंशों वाला मन है—पुरुष का मन—वह हमला करेगा। स्वभावत:। क्योंकि बुद्ध के पास पुरुष का मन बड़ा है स्त्री के मन के मुकाबले। तो मन पहले तो अपनी बड़ी से बड़ी शक्ति को लगाएगा। मन के भीतर पुरुष जैसी बातें हैं, जैसे अहंकार, क्रोध, पद, मद, मत्सर, मोह, ये सब पुरुषवाची हैं। अहंकार इनका मूलस्रोत है। तुम्हारे भीतर जो जाल है, उस जाल में जो पुरुष तुम्हारे भीतर छिपा है, जो तुम्हें उलझा रहा है, वह है अहंकार।
इसलिए तुम पाओगे कि पुरुषों की सबसे बड़ी पीड़ा अहंकार है। सबसे बड़ी अड़चन उनकी अहंकार की। इसलिए पुरुष को समर्पण करना बहुत कठिन होता है। झुकना कठिन होता है। टूट जाए, झुकना नहीं चाहता। कहावतें कहती हैं—टूट जाना मगर झुकना मत। यह पुरुष की अकड़ है। अहंकार पुरुष मन का आधार है।
तो मार पहले स्वयं आया। इसका अर्थ है, पुरुष के द्वार से आया। उसने बुद्ध के अहंकार को जगाया होगा। साफ नहीं है कथा में कि उसने क्या कहा, क्योंकि बहुत अनूठी कथाएं बहुत सी बातें बिना कहे छोड़ देती हैं। क्योंकि सभी बातें कह दी जाएं तो फिर ध्यान करने योग्य उन कथाओं में कुछ भी नहीं रह जाता। और ये कथाएं ध्यान करने के लिए निर्मित की गयी हैं। इन पर ध्यान करना है। और जो खाली हिस्से हैं उनको ध्यान से भरना है।
इसलिए भारत में इतना विवेचन, इतनी व्याख्या चली। उस विवेचन और व्याख्या का कारण है, क्योंकि कथाएं अधूरी हैं। ईसाइयत के पास ऐसी व्याख्याएं नहीं हैं, न इस्लाम के पास ऐसी व्याख्याएं हैं। कुरान पर कोई अच्छी व्याख्या हुई ही नहीं। क्योंकि कुरान में कुछ खाली छोड़ा नहीं। सब कुछ कह दिया। बेकार की बातें भी कह दीं जो कि कुरान में नहीं होनी चाहिए थीं। शादी—विवाह, समाज, राजनीति, सब डाल दिया। कुछ छोड़ा ही नहीं।
इससे एक बात साफ होती है कि कुरान जिन लोगों के लिए लिखा गया, वे कोई बहुत बुद्धिमान लोग नहीं थे। उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता था, डिटेल्स में सब बातें कह देनी जरूरी थीं, अन्यथा वे गड़बड़ कर देंगे। एक—एक बात ब्योरे में कह देनी जरूरी थी कि ऐसा करना, ऐसे उठना, ऐसे बैठना। सब साफ कर दिया। इसलिए कुरान में व्याख्या की बहुत गुंजाइश नहीं है।
लेकिन उपनिषदों में व्याख्या की खूब गुंजाइश है। कुछ भी साफ नहीं किया है। इशारे हैं और इशारों के कुछ भी अर्थ बन सकते हैं। फायदा भी है, नुकसान भी है। हर फायदे में नुकसान होता है। कुरान का एक फायदा है कि मुसलमान बिलकुल निश्चित हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है। इस मामले में दुविधा नहीं है। हिंदू बिलकुल अनिश्चित हैं—क्या करना, क्या नहीं करना, एकदम दुविधा है। और तुम पूछने जाओ तो जिस आचार्य से पूछो, वह अलग व्याख्या दे रहा है। शंकराचार्य कुछ कहेंगे, रामानुजाचार्य कुछ कहेंगे, वल्लभाचार्य कुछ कहेंगे, निंबार्काचार्य कुछ कहेंगे। और तुम खोजते रहो आचार्यों को और हर आचार्य व्याख्या देगा। खतरा यह है कि लोग साफ कभी नहीं हो पाएंगे कि ठीक—ठीक क्या करना है! और फायदा यह है कि ध्यान के लिए बड़ी सुविधा है। सोच—विचार के लिए बड़ी गुंजाइश है।
इसलिए इस्लाम में बहुत विचार पैदा नहीं हो सका। मुसलमान सीधा—सादा आदमी है। जो करने योग्य है, करता है, जो नहीं करने योग्य है, नहीं करता है। जो बात उसे कही है, उसे लकीर के फकीर की तरह मानकर चलता है। लेकिन बहुत विचार का जन्म नहीं हुआ। हिंदुओं जैसा चिंतन पैदा नहीं हुआ, होने का कारण ही नहीं था। चिंतन तो वहीं पैदा होता है जहा खाली जगह छोड़ दी गयी हैं। जिन्हें तुम्हें भरना होगा।
तो भारत में जो भी कथाएं रची गयी हैं, उनमें बड़े रिक्त स्थान हैं। जैसे, पहले मार ने हमला किया, लेकिन उसने क्या किया हमले में, यह बात नहीं कही गयी। यह सोचनी पड़ेगी।
मार यानी पुरुष। पुरुष यानी अहंकार। तो उसने बुद्ध के अहंकार को गुदगुदाया होगा कि अरे, तेरे जैसा तपस्वी कोई भी नहीं। तू महातपस्वी है। तू तपस्वियों का तपस्वी। प्रसन्न हो जा। तेरे जैसा कभी न हुआ, न कभी होगा। उसने बुद्ध को खूब फुसलाया होगा। और उसने बुद्ध को खूब समझाया होगा कि धन्यभाग, कि तेरे दर्शन हो गए! मैं तेरे चरणों में झुका हूं। उसने बुद्ध के अहंकार को मक्खन लगाया होगा। यह कथा का अंश छूटा है। यह साफ नहीं है। उसने चमचागिरी की होगी। उसने इस कोने, उस कोने से बुद्ध को कहा होगा, अरे, धन्यभाग! लेकिन उसे मात खानी पड़ी। मार को मार खानी पड़ी। बुद्ध चुप रहे, बैठे रहे, कुछ भी न बोले। उसकी प्रशंसाओं का कोई परिणाम न पड़ा। उसने क्या कहा, वह जैसे बहरे कानों पर पडा। बुद्ध अडिग रहे, जरा डावाडोल न हुए।
और जब कोई आदमी ऐसी अवस्था में हो, अडोल, कि पुरुष के द्वारा, अहंकार की प्रतिष्ठा के द्वारा उसे न हिलाया जा सके, तो फिर दूसरा उपाय है कि उसको हिलाने के लिए कुछ स्त्रैण उपाय खोजे जाएं। क्योंकि जहा पुरुष हार जाता है, वहां स्त्री अक्सर जीत जाती है।
तुमने देखा, दुनिया के बड़े से बड़े पुरुष—नेपोलियन, सिकंदर—युद्ध के मैदान पर बड़े पुरुष हैं, लेकिन घर आकर एक दुबली—पतली स्त्री से हार जाते हैं।
मैंने सुना है, एक जिद्दी सम्राट ने, एक झक्की सम्राट ने यह घोषणा की अपने वजीरों से कि पता लगाओ, मेरे राज्य में जो पुरुष अपनी स्त्री की मानकर न चलता तो, उसको जो मेरा श्रेष्ठतम घोड़ा है वह भेंट किया जाए और उसका राजकीय सम्मान किया जाए। और जो—जो लोग अपनी स्त्री की मानकर चलते हों, उनको भी एक—एक भेड़ प्रतीक रूप भेंट की जाए।
तो वजीरों का एक समूह राजधानी में पता लगाने गया। जिससे भी उन्होंने पूछा कि आप अपनी पत्नी से डरते हैं, आप अपनी पत्नी की मानकर चलते हैं—और ध्‍यान रखना, अगर झूठी बात कही और राजा को पता चल गया तो घोड़ा तो मिलेगा नहीं, फांसी लगेगी। इसलिए सच—सच कह देना। तो लोगों ने कहा, भई, अब इसमें मठ क्या कहना, तुम भी जानते हो। तुम भी पति हो, हम भी पति हैं, अब इसमें छिपाना किससे है! तुम नाहक की खोज पर निकले, ऐसा पति कहां मिलेगा?
थक गए राजा के लोग खोजते—खोजते, लेकिन एक झोपड़े में एक आदमी मिल गया। एक बड़ा पहलवान अपना बैठा हुआ भांग घोंट रहा था। उसकी मसलें ऐसी थीं। कि कभी देखी भी नहीं गयीं। उसका शरीर तो बड़ा सुंदर था। लोहे का बना हो जैसे। किसी का हाथ पकड़ ले तो हड्डी चरमरा जाए। कोई होगा साढ़े छह फीट लंबा। तगड़ा जवान आदमी, लोहे की देह। उन्होंने कहा हो न हो, यह आदमी घोड़ा ले जाएगा।
तो उन्होंने उस आदमी से पूछा कि ऐसा सम्राट ने पुछवाया है। तो उसने सिर्फ अपनी मसलें उठाकर दिखायीं उनको, उनका दर्शन, कहा कि देखते हैं, स्त्री इत्यादि को हो तो ऐसा मसल दूंगा। अगर मेरे हाथ में स्त्री पड़ जाए तो बस खतम। जरा मेरा हाथ तो पकड़कर देखो, उसने कहा। और वजीर का हाथ पकड़ लिया तो वजीर को छुडाना मुश्किल हो गया। और वजीर रोने लगा, उसने कहा, मेरा हाथ छोड़ भाई।  घोड़ा तुझे मिल जाएगा, मगर तू यह क्या करता है, हाथ तो छोड़। मगर घोड़ा किस रंग का चाहिए, राजा के पास दो घोड़े हैं—काला और सफेद।
तो उसने भीतर आवाज दी कि मुन्ने की मां, काला कि सफेद? मुन्ने की मां ने कहा, सफेद। तो वजीर ने कहा, तुझे भेड़ मिलेगी। यह मुन्ने की मां से ही पूछकर तय न, कर रहा है आखिर में। और मुन्ने की मां निकली, बिलकुल दुबली—पतली. औरत, और उसने कहा, भूलकर काला मत लेना। भेड़ ही मिली पहलवान को।
जहा कठोर हार जाए, वहां कोमल के जीतने की संभावना है। कथा अर्थपूर्ण है। खुद तो हार गया मार, उसने अपनी तीन कन्याओं को भेजा। तीन क्यों? आखिर खुद अकेला आया था, एक ही कन्या काफी होती, तीन क्यों?
उसमें भी बौद्ध प्रतीक है। बौद्ध कहते हैं, स्त्री का इसीलिए तो पता नहीं लग पाता कि वह कितनी है। होती एक, लेकिन तीन। अभी कुछ, अभी कुछ, अभी कुछ; सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। पक्का भरोसा नहीं कि क्या है। त्रिवेणी है न प्रयाग में! ऐसा स्त्री भी एक अपूर्व संगम है। उसमें दो नदियां तो दिखायी पड़ती हैं, एक बिलकुल दिखायी ही नहीं पड़ती, सरस्वती का तो पता ही नहीं चलता कि है। तो तुम जो देख सकते हो, उसको ही तो तुम पहचान सकते हो, लेकिन एक है जो अदृश्य है। और जो दृश्य से जीत जाए, वह भी अदृश्य से हारने की संभावना रखता है। तो तीन। तीन प्रतीक है।
तीन का मतलब है, एक से जीते तो दूसरे से मुश्किल, दूसरे से जीते तो तीसरे से मुश्किल। और एक तरफ लड़ाई नहीं होगी, तीन तरफ से लडाई होगी।
तुमने कभी स्त्री से झगड़ा करके देखा? झगड़ा कई तरह का होगा! वह तर्क से भी लड़ेगी—हालाकि तर्क चाहे उससे करते न बनें—तर्क भी करती जाएगी, क्रोध भी करती जाएगी और रोने भी लगेगी। अब यह बहुत मुश्किल काम हो जाता है। क्योंकि यह अगर तर्क ही करना है तो बात साफ समझ में आती है। पुरुष को समझ में आता है कि तर्क कर लो, चलो निपटारा कर लें, उसमें पुरुष जीत भी सकता है। लेकिन स्त्री उसी पर भरोसा नहीं रखती। वह क्रोध भी कर रही है—हो सकता है चीजें फेंक रही हो तुम्हारे ऊपर। लेकिन उस पर भी भरोसा नहीं, क्योंकि क्रोध में तो पुरुष जीत सकता है। तो वह रो भी रही है।
अब उसने तुम्हें तीन तरफ से घेर लिया। तर्क से हारो तो ठीक, क्रोध से हारो तो ठीक, नहीं तो उसके रोने को देखकर तो हारोगे न! वह अपनी ही छाती पीटने लगी है और अपना ही सिर पटक रही है। उसका हमला तीन द्वारों से है। इसलिए कथा कहती है कि मार ने अपनी तीन कन्याओं को भेजा।
मार— कन्याएं नाना प्रकार के प्रयत्न कर भगवान को अपने वश में करना चाहीं। लेकिन बुद्ध शांत रहे। उन्होंने हां— हूं कुछ भी न किया। वह सिर्फ देखते ही रहे जो हो रहा था।

क्योंकि तुमने हां—हूं किया कि फंसे। तुम अगर इंकार भी कर दो तो गए। तुम अगर डर भी जाओ, भयभीत हो जाओ, तुम चिल्लाने लगो कि मुझे बचाओ, या भाग निकलो बाहर, तो तुम हार गए। नहीं, वह बैठे रहे जहा बैठे थे। जैसे थे वैसे ही बैठे रहे। जैसे कुछ हुआ ही न हो। जैसे यह सब उनके आसपास जो हो रहा था—तीनों तरफ से कन्याएं खींचने लगीं, सुंदर होंगी, रूपवती होंगी, सुगंध आती होगी उनके जीवन से, उनकी देह अपूर्व होगी, मगर वह बैठे रहे। उन्होंने जरा भी स्वीकार भी न किया कि कोई है चारों तरफ।
भगवान शांत रहे— शांत का यही अर्थ होता है— जैसे कोई है ही नहीं ऐसे ठाकेले रहे न मोहे न क्रोधे।
दो चीजों का खयाल रखना, दोनों में आदमी फंस जाता है। जिसको तुम संसारी कहते हो, वह मोह जाता है। जिसको तुम संन्यासी कहते हो, वह क्रोध जाता है। या पो मोहो या क्रोधो। मगर दोनों हालत में आदमी स्त्री से हार जाता है। लेकिन भगवान के संबंध में कहा कि न मोहे, न क्रोधे।
और जहां मोह नहीं, क्रोध नहीं, वहां फिर कोई परिणाम नहीं हो सकता। वहां शून्य निर्मित हो जाता है। शून्य को कैसे रिझाओगे? क्रोध किया तो अहंकार आ गया मोह किया तो भी अहंकार आ गया। तो तुम्हारे जो ऋषि—मुनि नाराज हो गए, वे भी हार गए। जो ऋषि—मुनि नाराज न हुए, प्रसन्न हो गए, वे भी हार गए।
बुद्ध शून्यवत रहे शांत रहे। उन्होंने उपेक्षा रखी।
उपेक्षा बौद्धों का अपना शब्द है। उपेक्षा का अर्थ है, उन्होंने कोई भी अपेक्षा न रखी। ये स्त्रिया यहां नहीं होनी चाहिए, यह भी अपेक्षा न रखी। क्योंकि यह भी अपेक्षा हो कि ये स्त्रियां यहां नहीं होनी चाहिए, तो फिर उपेक्षा नहीं रह जाती। फिर तुम्हारे मन में संबंध जुड़ गया। फिर तुमने एक संबंध बना लिया कि नहीं होना था। जो नहीं होना था। जो वह हुआ। तो धीरे—धीरे रोष पैदा होगा, क्रोध पैदा होगा, नाराजगी पैदा होगी कि स्त्रियां यह क्यों कर रही हैं। उपेक्षा रखी, तटस्थ रहे। जैसे कोई किनारे पर बैठा नदी के, नदी बहती है, देखता रहता है। नदी बहे, नदी से क्या लेना—देना। तुम रास्ते के किनारे खड़े, राह चलती रहती है, लोग आते—जाते—अच्छे, बुरे, सुंदर, कुरूप—तुम्हें क्या लेना—देना, तुम राह के किनारे खड़े। ऐसे बुद्ध तटस्थ रहे। उन्होंने उपेक्षा रखी।
और अंतत: उन्होंने जितनी बात कही वह इतनी सी थी उन्होंने कहा— हटो भी पागलो! क्या देखकर इतना प्रयत्न इतना श्रम कर रही हो।
बुद्ध ने अनूठी बात कही, कहा कि पागलो, हटो भी। दया की, पागल कहा। नाराज न हुए, न मोहे। अनुकंपा जतलायी। अनुकंपा के सामने कामवासना एकदम हार जाती है। अनुकंपा जतलायी, कहा, हटो पागलो, क्या देखकर इतनी मेहनत कर रही हो? यहां कुछ भी तो नहीं है। यह हड्डी, मांस, मज्जा सब सूख गयी है। यहां भीतर भी कोई नहीं है। तुम किसके लिए यह नाच—गान आयोजित कर रही हो? किसको रिझाना चाहती हो? किसको रिझाती, वह तो जा चुका। क्या तुम्हें रागरहितो से कभी तुम्हारी कोई पहचान नहीं हुई? क्या तुम्हारे जीवन में कभी ऐसा मौका नहीं आया कि तुमने कोई वीतराग देखा हो? तो तुम देख लो। वीतराग पर तुम्हारा कोई प्रयत्न काम न आएगा।
तथागत तो रागरहित हैं राग आदि प्रहीन हैं किस कारण तुम उन्हें अपने वश में करोगी? 

बचे ही नहीं हैं, तो वश में क्या करोगी? तुम्हारी मर्जी, तुम्हें उछल—कूद करनी हो, तुम अपना करती रहो। लेकिन इतना तुम्हें कह दूं कि तुम नाहक का श्रम कर रही हो, थकोगी, परेशान होओगी, अपने घर जाओ, विश्राम करो। ऐसा बुद्ध ने कहा। उस समय उन्होंने ये पहले दो पद कहे। अब तुम्हें पदों का अर्थ साफ हो जाएगा। ये गाथाएं कहीं—

      युस्स जित नावजीयति जितमस्स नो याति कोचि लोके ।
      ने बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेस्सथ ।।

'जिसका जीता कोई अनजीता नहीं कर सकता, और जिसके जीते को कोई दूसरा नहीं पहुंच सकता, उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?'
कई बातें समझने जैसी हैं।
बुद्ध कहते हैं, 'जिसका जीता कोई अनजीता नहीं कर सकता। '
जो तुमने संयम से जीता हो, उसको तो अनजीता किया जा सकता है। संयमी का संयम तोड़ा जा सकता है। लेकिन जिसने बोधपूर्वक जीता हो, उसको फिर तोड़ा नहीं जा सकता।
जिसने जबरदस्ती अपने जीवन में आचरण उठा लिया हो, बना लिया हो, आरोपित कर लिया हो, उसके आचरण को तो तोड़ा जा सकता है। क्योंकि भीतर तो अभी भी वासना मौजूद होगी। बीच में एक आचरण की पर्त है, उसमें छेद भर करने की जरूरत है। भीतर जो सोया है, दबा पड़ा है, उसे उठाया जा सकता है। लेकिन बुद्ध की तो सारी प्रक्रिया यही है कि दबाना मत, दमन मत करना, जागकर देखना, होश से देखना। और धीरे — धीरे होश में ही जल जाए वासना, तो जो शेष रह जाए उस निर्वासना में ही भरोसा है।
'जिसका जीता कोई अनजीता नहीं कर सकता। '
फिर उसको जैसे अनजीता करोगे? जिसकी वासना दग्ध हो गयी बोध से, होश से, ध्यान से, उसको कैसे अनजीता करोगे?

      यस्स जित नावजीयति जितमस्स नो याति कोचि लोके ।

'और जिसके जीते को कोई दूसरा पहुंच ही नहीं सकता। '
बोध के उस शिखर पर तो केवल बुद्ध ही पहुंच सकते हैं। तो ये स्त्रियां जो इनके आसपास नाच रही हैं, ये तो वहां पहुंच न सकेंगी उस शिखर पूर। जहा तुम पहुंच नहीं सकते, वहां से किसी को डिगाओगे कैसे? कोई बुद्ध ही पहुंच सकता है उस शिखर पर। और बुद्ध तो किसी बुद्ध को क्यों डिगाना चाहेगा! बुद्ध वहां पहुंच नहीं सकते। तो तुम खाई—खंदक में शोरगुल मचाते रहो, उससे कुछ फर्क न पड़ेगा। 
'उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?'
और उन्होंने कहा कि पागलो, यह भी समझो कि तुम अगर मुझे ले जाना चाहो वासना में, संसार में, मेरे पैर टूट गए हैं—अपद हो गया हूं।
कभी तुमने खयाल किया, तुम्हारी वासना ही तुम्हें चला रही है, वही तुम्हारा पैर है। इसीलिए तो परसों मैंने अंगुलीमाल की कथा में कहा कि बुद्ध ने कहा, पागल, मेरा चलना तो बहुत पहले रुक गया। तू ही चल रहा है, तू रुक। और अंगुलीमाल बैठा हुआ धार दे रहा था, चल नहीं रहा था, और बुद्ध चल रहे थे।

      तं बुद्धमनंतगोचरं अपदं केन पदेन नेस्मथ ।

तो बुद्ध ने जब यह कहा कि मुझ न चलते हुए को तू सोचता है कि चल रहा हूं और तू अपने को बैठा हुआ मान रहा है जो कि तू चल ही रहा है, तो उनका अर्थ है—वासना में ही पैर हैं तुम्हारे। आत्मा तो कहीं जाती ही नहीं। आत्मा तो अपने घर में ही है सदा। भीतर ही विराजी है। उसके कोई पैर ही नहीं कि कहीं चली जाए। वासना जाती है। और वासना कभी घर नहीं आती। वासना आवारा है। वह घूमती ही रहती है, चक्कर ही मारती रहती है, वह कभी घर नहीं लौटती। और आत्मा सदा भर में विराजमान है, वह कभी घर से बाहर जाती नहीं।
तो जब तक तुम वासना के प्रभाव में रहोगे, तुम्हें भीतर जो पड़ा है, उसका पता न चलेगा। तुम वासना के कंधों पर बैठकर भटकते रहोगे। वासना में ही तुम्हारे पैर है। बुद्ध तो अपद कहते अपने को कि मेरे तो पैर टूट गए, पागलो, जरा देखो भी तो। अब तो मुझे ले जाना भी चाहो तो कैसे? अब चलने वाला बचा नहीं है। अब चलने की वृत्ति ही जा चुकी है। अब मुझे न कुछ पाना है, न खोजना है। तो मुझे तुम प्रलोभित कैसे करोगे?
' अपने जाल में सबको फंसाने वाली तृष्णा जिसे नहीं डिगा सकती, उस अनंतद्रष्टा और अपद बुद्ध को किस पथ से ले जाओगे?'
तृष्णा का जाल था, तब तक तुम अगर आयी होतीं तो जरूर मैं प्रभावित होता। लेकिन अब तो तृष्णा का जाल न रहा, अब तो मैंने भरी आंखों  देख लिया कि संसार में कुछ भी नहीं है। अब तो संसार में कुछ भी नहीं है, यह मेरी दृष्टि हो गयी है। इसलिए वे कहते हैं, उस अनंतद्रष्टा को। अब तो मैं अनतरूपेण दृष्टि को उपलब्ध हुआ हूं, अब तो मेरी आंखें समग्र को देख रही हैं, आर—पार देख रही हैं, अब मेरा रोध पारदर्शी हुआ है।

      तं बुद्धमनतगोचरं....... ।

और जो सबको देखने लगा है, और जिसकी आंख में अब जरा भी तिनका नहीं रहा मूर्च्छा और प्रमाद का, जिसकी सारी सीमाएं गिर गयी हैं देखने की, असीम जिसकी देखने की क्षमता हो गयी है, मुझ देखने वाले को तुम कहां ले जाओगे? अंधों को तुम ले जाती रही हो, अंधों को तुम्हारी जरूरत है, क्योंकि वे चाहते हैं किसी का सहारा मिल जाए। मेरी आंख खुल गयी, अब तुम मुझे न ले जा सकोगी। अब तुम्हें उछल—कूद करनी हो, तुम करो। ऐसी परिस्थिति में बुद्ध ने ये गाथाएं कही थीं। 
'जो धीर ध्यान में लगे हैं, परम शांत निर्वाण में रत हैं, उन स्मृतिवान संबुद्धों की स्पृहा देवता भी करते हैं।'
ओशो
आज इतना ही।






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