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सोमवार, 8 दिसंबर 2014

महावीर वाणी--(भाग--2) प्रवचन--23

कल्याण-पथ पर खड़ा है भिक्षु—(प्रवचन—तेईसवां)

दिनांक 7 सितम्बर, 1973;
तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर हाल, बम्बई

भिक्षु-सूत्र : 4
     
परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणंकुप्पेज्ज न तं वएज्जा
जाणिय पत्तेयं पुण्ण-पावं, अत्ताणंसमुक्कसे जे स भिक्खू।।
जाइमत्ते न य रूवमत्ते, लाभमत्तेसुएण मत्ते
मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्झाणरए जे स भिक्ख।।
पवेयए अज्जपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि
निक्खम्म वज्जेज्ज कुसीललिंगं, न यावि हासंकुहए जे स भिक्ख।।
तं देहवासं असुइं असासयं, सया चए निच्चहियट्ठियप्पा
छिंदित्तु जाईमरणस्स बंधणं, उवेइभिक्खू अपुणागमं गइ।।

जो दूसरों को "यह दुराचारी है' ऐसा नहीं कहता, जो कटु वचन—जिससे सुननेवाला क्षुब्ध हो—नहीं बोलता, "सब जीव अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख भोगते हैं।’—ऐसा जानकर जो दूसरों की निन्द्य चेष्टाओं पर लक्ष्य न देकर अपने सुधार की चिंता करता है, जो अपने-आपको उग्र तप और त्याग आदि के गर्व से उद्धत नहीं बनाता, वही भिक्षु है।

जो जाति का, रूप का, लाभ का, श्रुत (पांडित्य) का अभिमान नहीं करता; जो सभी प्रकार के अभिमानों का परित्याग कर केवल धर्म-ध्यान में ही रत रहता है, वही भिक्षु है।
जो महामुनि आर्य पद (सद्धर्म) का उपदेश करता है; जो स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को भी धर्म में स्थित रखता है; जो घर-गृहस्थीके प्रपंच से निकलकर सदा के लिए कुशील लिंग (निन्द्यवेश) को छोड़ देता है; जो किसी के साथ हंसी-ठट्ठा नहीं करता, वही भिक्षु है।
इस भांति अपने को सदैव कल्याण-पथ पर खड़ा रखनेवाला भिक्षु अपवित्र और क्षणभंगुर शरीर में निवास करना हमेशा के लिए छोड़ देता है तथा जन्म-मरण के बंधनों को सर्वथा काटकर अ-पुनरागम-गति (मोक्ष) को प्राप्त होता है।

जीवन को बदलने वाले तीन सूत्र समझ लेने जरूरी हैं।  एकः एक भी सदगुण व्यक्ति में हो, तो शेष सारे सदगुण अपने-आप आनाफ्/१५शुरू हो जाते हैं।  एक भी दुर्गुण व्यक्ति में हो, तो शेष सारे दुर्गुण आना शुरू हो जाते हैं।  एक सदगुण या एक दुर्गुण काफी है अपने सजातीय सभी बंधुओं को आपके जीवन में बुला लेने के लिए।  सदगुणों में या दुर्गुणों में एक पारिवारिक संबंध है।
एक सदस्य आ जाता है, तो शेष आना शुरू हो जाते हैं।  किसी को जीवन में दुर्गुण साधने हों, तो सभी को साधना जरूरी नहीं है।  एक को साध लेना काफी है।  शेष अपने से सध जाते हैं।  और यही सदगुणों के संबंध में भी सच है।  एक सदगुण जीवन में आधार ले ले, उसकी जड़ें जम जायें, तो शेष सारे सदगुण छाया की तरह अपने आप चले आते हैं।  बहुत को साधनेवाला भटक जाता है; एक को साधनेवाला सभी को साध लेता है।  उपनिषदों ने कहा है; महावीर ने भी कहा है; एक के सध जाने से सब सध जाता है।  यह जीवन-रूपांतरण का एक आधारभूत नियम है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन पर एक मुकदमा है; और जज उससे पूछता है, "नसरुद्दीन, तुम शराब पीते हो?'
नसरुद्दीन कहता है, "नहीं, कभी नहीं।
"तुमने कभी चोरी की है?'
नसरुद्दीन कहता है, "नहीं, कभी नहीं।
"तुम कभी परायी स्त्री के साथ संबंधित हुए हो? व्यभिचार किया है?'
नसरुद्दीन कहता है, "भूल कर भी नहीं।  सोचा भी नहीं।
"किसी को धोखा दिया है? बेईमानी की है?'
नसरुद्दीन इनकार करता चला जाता है।  आखिर में जज पूछता है, "क्या नसरुद्दीन, तुम्हारे जीवन में एक भी दुर्गुण नहीं?'
तो नसरुद्दीन कहता है, "श्योर, देअर इज वन, आइ जस्ट टेल लाइज—सिर्फ झूठ बोलना!'
और वह जो उसने सदगुणों की सारी व्याख्या की है, वह सब मिट्टी में मिल जाती है।
एक सभी को डुबा देता है; एक सभी को उबार भी लेता है।  इसलिए व्यक्ति को बहुत की चिंता नहीं करनी चाहिए।  और प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर अपना आधारभूत दुर्गुण खोज लेना चाहिए।
गुरजियेफ अपने शिष्यों से कहता था, तुम्हारे जीवन की जो सबसे बड़ी कमजोरी है, उसे तुम पकड़ लो, क्योंकि वही सीढ़ी बन जायेगी।  जो सबसे बड़ी कमजोरी है, उसे पकड़ लो और उस कमजोरी को मिटाने में लग जाओ।  या वह कमजोरी जिससे मिट जायेगी, उस गुण को साधने में लग जाओ—तुम्हारा पूरा जीवन रूपांतरित हो जायेगा।
हमें इस सूत्र का पता नहीं है चेतन रूप से, लेकिन अचेतन रूप से भलीभांति पता है।  और हम इसका एक उपयोग करते हैं, जो आत्मघाती है।  वह उपयोग हम यह करते हैं कि व्यक्ति अपनी मौलिक कमजोरी से नहीं लड़ता अपनी क्षुद्र कमजोरियों से लड़ता रहता है।
उनके बदलने से कुछ बदलाहट न होगी।  जब तक आप अपनी आधारभूत कमजोरी से लड़ना नहीं शुरू कर देंगे, तब तक जीवन नहीं बदलेगा।  आप क्षुद्र कमजोरियों को बदल सकते हैं, उनसे कोई अंतर नहीं पड़ता।  एक आदमी शराब पीना छोड़ सकता है; सिगरेट पीना छोड़ सकता है; मांसाहार छोड़ सकता है; ब्रह्ममुहूर्त में उठ सकता है; प्रार्थना-पूजा कर सकता है, लेकिन अगर उसकी मौलिक कमजोरियों के साथ इनका कोई संबंध नहीं है, तो उसका जीवन बिलकुल बदलेगा नहीं।
कितने लोग हैं जो शराब नहीं पीते हैं।  लेकिन शराब न पीने से कोई मोक्ष उपलब्ध नहीं हो गया है।  अगर आप भी नहीं पीयेंगे, तो उनसे कुछ बेहतर हालत में तो नहीं पहुंच जायेंगे, जो नहीं पीते हैं।  कितने लोग हैं जो मांसाहार नहीं करते।  लेकिन मांसाहार न कर लेने से उन्हें कोई आत्मा का ज्ञान नहीं हो गया है।  आप भी छोड़ देंगे, तो भी क्या होगा?
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप मत छोड़ना।  मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि आप शराब पीये जायें और मांसाहार करते जायें।  मैं यह कह रहा हूं कि आप अपने जीवन में मौलिक को पकड़ें, जिससे क्रांति होगी।  अगर मौलिक को, मूल को नहीं पकड़ा और पत्तों को काटते रहे, और जड़ नहीं काटी, तो एक पत्ता काटने से चार पत्ते पैदा हो जाते हैं।  तो एक दुर्गुण आदमी काटता है, अगर वह आधारभूत नहीं है, जड़ में नहीं है, तो दस नये दुर्गुण पैदा हो जाते हैं।  और आप पत्तों से लड़ते रहें जीवनभर, समय खो जायेगा।  जीवन में जड़ को खोजना जरूरी है।
और दूसरा सूत्र खयाल में ले लेना जरूरी है कि हर व्यक्ति की कमजोरी अलग है; दुर्गुण अलग है; इसलिए किसी की नकल करने से कुछ भी न होगा।  हर व्यक्ति की कमजोरी मौलिक रूप से भिन्न है।  वही उसका व्यक्तित्व है।  और इसलिए हर व्यक्ति को कुछ भिन्न गुण साधना पड़ेगा, जो उसकी मौलिक कमजोरी को काट दे और जीवन को बदल दे।  इसलिए किसी का अनुकरण, अंधानुकरण काम का नहीं है।  जीवन का सचेत विश्लेषण चाहिए।
कोई आदमी है, क्रोध जिसकी मौलिक कमजोरी है।  जिसकी मौलिक कमजोरी क्रोध है, वह दान देता रहे, लोभ न करे, ब्रह्मचर्य साध ले—कोई अंतर न पड़ेगा।  बल्कि बड़े मजे की बात है कि क्रोधी आदमी ब्रह्मचर्य आसानी से साध लेगा।  क्रोधी आदमी लोभ को छोड़ सकता है।  क्रोधी आदमी क्रोध के पीछे अपना जीवन छोड़ सकता है, लोभ क्या है! वह क्रोध के पीछे खुद सब कुछ नष्ट कर सकता है; दान दे सकता है; संन्यास ले सकता है; साधु हो सकता है; नग्न खड़ा हो सकता है—सब त्याग कर सकता है।  लेकिन उसका त्याग बाहर-बाहर हो जायेगा, जब तक कि उसका क्रोध नहीं चला जाता।
लोभी आदमी सब छोड़ सकता है—लोभ को छोड़कर।  और सब छोड़ने में भी लोभ बच जायेगा।  और त्याग के द्वारा भी वह भविष्य में, अगले जन्म में, मोक्ष में, स्वर्ग में कुछ कमाने की आकांक्षा रखेगा।  छोड़ने में भी लोभ बच रहेगा।
अहंकारी व्यक्ति सब छोड़ सकता है।  इसीलिए छोड़ेगा ताकि अहंकार मजबूत होता चला जाये; सघन होता चला जाये।  अहंकारी आदमी तो धन, आप उससे कहें, छोड़ सकता है, अगर अहंकार बढ़ता हो।  पद कहें, छोड़ सकता है, अगर अहंकार बढ़ता हो।  सिंहासन पर लात मार सकता है, अगर लात मारने से अहंकार बढ़ता हो।  लेकिन अहंकार को जरा-सी चोट पहुंचती हो, तो कठिनाई हो जायेगी।
मैंने सुना है कि हालीवुड में ऐसा हुआ, एक बड़ी फिल्म अभिनेत्री विवाह करने के तीन घंटे के भीतर अपने वकील के पास पहुंच गयी।  और जाकर उसने कहा कि तलाक का इंतजाम कर दो।  वह वकील बोला कि हालीवुड के इतिहास में भी ऐसा पहले नहीं हुआ! तीन घंटे! अभी जो मेहमान तुम्हारे विवाह में शरीक हुए थे, वे घर भी नहीं पहुंच पाये हैं।  चर्च में जो दीये जले थे विवाह की खुशी में, वे अभी जल रहे हैं, अभी बुझे नहीं।  इतनी जल्दी क्या है? इतनी जल्दी ऐसा कौन-सा उपद्रव हो गया तीन घंटे के भीतर?
उस स्त्री ने कहा, "इन द चर्च ही साइंड हिज नेम इन बिगर लेटर दैन माइन!'
पति ने मुझसे बड़े अक्षरों में हस्ताक्षर किये हैं।  यह उपद्रव शुरू हो गया।  इस आदमी के साथ बन नहीं सकता।  अहंकार बड़े अक्षर भी बर्दाश्त नहीं कर सकता है।  सिंहासन छोड़ सकता है।  अगर अहंकार तृप्त होता हो, तो सब कुछ छोड़ सकता है।  लेकिन अगर अहंकार टूटता हो, तो रत्तीभर का फर्क असंभव है।
साधक को पहले यह खोज लेना चाहिए, उसकी मौलिक कमजोरी क्या है; उसकी बीमारी क्या है।  यह निदान आवश्यक है।  क्योंकि अगर ठीक बीमारी का पता ही न हो, तो ठीक औषधि कभी नहीं मिल सकती।  निदान आधी चिकित्सा है।  ठीक डायग्नोसिस आधा इलाज है।  अगर आपको ठीक से पकड़ में आ जाये कि आपकी कमजोरी क्या है, आपकी पीड़ा, आपका दुर्गुण क्या है, तो उसी दुर्गुण के आसपास सारे दुर्गुण इकट्ठे हैं।  और जब तक उस दुर्गुण से ऊपर उठने की व्यवस्था न बने, तब तक सदगुणों का आगमन शुरू न होगा।  और बीच में आप जन्मों-जन्मों तक चेष्टा कर सकते हैं।  वह चेष्टा वैसे ही है जैसे कोई टी बी से बीमार है, उसका कैन्सर का इलाज चल रहा है; कि कोई कैन्सर से बीमार है, और उसका कुछ और इलाज चल रहा है।  जब तक चिकित्सा-विधि, औषधि बीमारी से संयुक्त न होती हो, तब तक कुछ भी करना खतरनाक है।  तब तक बेहतर कुछ न करना है।  क्योंकि बीमारी तो बीमारी ही रहेगी, गलत औषधि और बड़ी बीमारी हो जायेगी।
मैं साधुओं को देखता हूं; साधकों को देखता हूं; उन्हें अपनी बीमारी का कोई बोध ही नहीं है।  और वे लड़े चले जा रहे हैं; औषधि लिये चले जा रहे हैं; साधना किये चले जा रहे हैं।  उन्हें यह पता नहीं है कि क्या मिटाना है।  और उन्हें यह भी पक्का नहीं है, कि क्या प्रगट करना है।  इसलिए बहुत कोशिश के बाद भी कोई परिणाम नहीं होता।
तीसरी बात समझ लेनी जरूरी है, और वह यह है कि आपके भीतर जो बुनियादी रोग होगा, वही आपको दूसरे लोगों में दिखाई पड़ेगा; खुद में दिखाई नहीं पड़ेगा।  बीमारी बच ही सकती है, जब तक छिपी रहे।  प्रगट हो जाये, तो मिटनी शुरू हो जाती है।  जैसे जड़ें तभी तक सक्रिय होती हैं, जब तक जमीन में दबी रहें; जैसे ही जमीन के बाहर आयीं कि मरनी शुरू हो गयीं।
जड़ को जमीन के बाहर निकाल लेना उसकी मौत का आयोजन है।  आपके भीतर भी जो बीमारियां हैं वे तभी तक चल सकती हैं, जब तक अचेतन के गर्भ में अनकांशस में दबी रहें; आपको उनका पता न हो।  जैसे ही आपके बोध में जड़ें आनी शुरू हुइ, कि उनकी मृत्यु शुरू हो गयी।  इसलिए कुछ साधनाएं तो यह कहती हैं कि बीमारी को मिटाने के लिए कुछ भी नहीं करना है; सिर्फ बीमारी के प्रति परिपूर्ण होश से भर जाना है।
कृष्णमूर्ति की पूरी साधना, जो भीतर रोग है, उसके प्रति पूरी अवेअरनेस, पूरा साक्षात बोध—इतना काफी है।  बुद्ध ने भी कहा है कि अपनी बीमारी का पूर्ण स्मरण उससे छुटकारा है।  ज्ञान मुक्ति है।  क्योंकि जड़ जैसे ही बाहर आती है जमीन के, तभी दिखाई पड़ती है।  जब आपके अचेतन के गर्भ से जड़ें बाहर आती हैं, तो दिखाई पड़ती हैं।  दिखाई पड़ते ही कुम्हलानी शुरू हो जाती हैं।  इधर जड़ें कुम्हलाइ, उधर उनके पत्तों का फैलाव, शाखाओं का फैलाव, फूलों का फैलाव, सब मरने लगा।
इसलिए एक तीसरी बात खयाल में ले लेनी चाहिएः आपको अपनी बीमारी स्वयं में दिखाई नहीं पड़ सकती।  इसीलिए तो वह है।  लेकिन जो बीमारी है, उसका कहीं न कहीं प्रतिफलन होगा।  दूसरे लोग दर्पण का काम करते हैं।  आपको अपनी बीमारी दूसरे लोगों में जायेगी।  जो सबसे बड़ी कमजोरी है, उसे पकड़ लो और उस कमजोरी को मिटाने में लग जाओ।  या वह कमजोरी जिससे मिट जायेगी, उस गुण को साधने में लग जाओ—तुम्हारा पूरा जीवन रूपांतरित हो जायेगा।
हमें इस सूत्र का पता नहीं है चेतन रूप से, लेकिन अचेतन रूप से भलीभांति पता है।  और हम इसका एक उपयोग करते हैं, जो आत्मघाती है।  वह उपयोग हम यह करते हैं कि व्यक्ति अपनी मौलिक कमजोरी से नहीं लड़ता अपनी क्षुद्र कमजोरियों से लड़ता रहता है।
उनके बदलने से कुछ बदलाहट न होगी।  जब तक आप अपनी आधारभूत कमजोरी से लड़ना नहीं शुरू कर देंगे, तब तक जीवन नहीं बदलेगा।  आप क्षुद्र कमजोरियों को बदल सकते हैं, उनसे कोई अंतर नहीं पड़ता।  एक आदमी शराब पीना छोड़ सकता है; सिगरेट पीना छोड़ सकता है; मांसाहार छोड़ सकता है; ब्रह्ममुहूर्त में उठ सकता है; प्रार्थना-पूजा कर सकता है, लेकिन अगर उसकी मौलिक कमजोरियों के साथ इनका कोई संबंध नहीं है, तो उसका जीवन बिलकुल बदलेगा नहीं।
कितने लोग हैं जो शराब नहीं पीते हैं।  लेकिन शराब न पीने से कोई मोक्ष उपलब्ध नहीं हो गया है।  अगर आप भी नहीं पीयेंगे, तो उनसे कुछ बेहतर हालत में तो नहीं पहुंच जायेंगे, जो नहीं पीते हैं।  कितने लोग हैं जो मांसाहार नहीं करते।  लेकिन मांसाहार न कर लेने से उन्हें कोई आत्मा का ज्ञान नहीं हो गया है।  आप भी छोड़ देंगे, तो भी क्या होगा?
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप मत छोड़ना।  मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि आप शराब पीये जायें और मांसाहार करते जायें।  मैं यह कह रहा हूं कि आप अपने जीवन में मौलिक को पकड़ें, जिससे क्रांति होगी।  अगर मौलिक को, मूल को नहीं पकड़ा और पत्तों को काटते रहे, और जड़ नहीं काटी, तो एक पत्ता काटने से चार पत्ते पैदा हो जाते हैं।  तो एक दुर्गुण आदमी काटता है, अगर वह आधारभूत नहीं है, जड़ में नहीं है, तो दस नये दुर्गुण पैदा हो जाते हैं।  और आप पत्तों से लड़ते रहें जीवनभर, समय खो जायेगा।  जीवन में जड़ को खोजना जरूरी है।
और दूसरा सूत्र खयाल में ले लेना जरूरी है कि हर व्यक्ति की कमजोरी अलग है; दुर्गुण अलग है; इसलिए किसी की नकल करने से कुछ भी न होगा।  हर व्यक्ति की कमजोरी मौलिक रूप से भिन्न है।  वही उसका व्यक्तित्व है।  और इसलिए हर व्यक्ति को कुछ भिन्न गुण साधना पड़ेगा, जो उसकी मौलिक कमजोरी को काट दे और जीवन को बदल दे।  इसलिए किसी का अनुकरण, अंधानुकरण काम का नहीं है।  जीवन का सचेत विश्लेषण चाहिए।
कोई आदमी है, क्रोध जिसकी मौलिक कमजोरी है।  जिसकी मौलिक कमजोरी क्रोध है, वह दान देता रहे, लोभ न करे, ब्रह्मचर्य साध ले—कोई अंतर न पड़ेगा।  बल्कि बड़े मजे की बात है कि क्रोधी आदमी ब्रह्मचर्य आसानी से साध लेगा।  क्रोधी आदमी लोभ को छोड़ सकता है।  क्रोधी आदमी क्रोध के पीछे अपना जीवन छोड़ सकता है, लोभ क्या है! वह क्रोध के पीछे खुद सब कुछ नष्ट कर सकता है; दान दे सकता है; संन्यास ले सकता है; साधु हो सकता है; नग्न खड़ा हो सकता है—सब त्याग कर सकता है।  लेकिन उसका त्याग बाहर-बाहर हो जायेगा, जब तक कि उसका क्रोध नहीं चला जाता।
लोभी आदमी सब छोड़ सकता है—लोभ को छोड़कर।  और सब छोड़ने में भी लोभ बच जायेगा।  और त्याग के द्वारा भी वह भविष्य में, अगले जन्म में, मोक्ष में, स्वर्ग में कुछ कमाने की आकांक्षा रखेगा।  छोड़ने में भी लोभ बच रहेगा।
अहंकारी व्यक्ति सब छोड़ सकता है।  इसीलिए छोड़ेगा ताकि अहंकार मजबूत होता चला जाये; सघन होता चला जाये।  अहंकारी आदमी तो धन, आप उससे कहें, छोड़ सकता है, अगर अहंकार बढ़ता हो।  पद कहें, छोड़ सकता है, अगर अहंकार बढ़ता हो।  सिंहासन पर लात मार सकता है, अगर लात मारने से अहंकार बढ़ता हो।  लेकिन अहंकार को जरा-सी चोट पहुंचती हो, तो कठिनाई हो जायेगी।
मैंने सुना है कि हालीवुड में ऐसा हुआ, एक बड़ी फिल्म अभिनेत्री विवाह करने के तीन घंटे के भीतर अपने वकील के पास पहुंच गयी।  और जाकर उसने कहा कि तलाक का इंतजाम कर दो।  वह वकील बोला कि हालीवुड के इतिहास में भी ऐसा पहले नहीं हुआ! तीन घंटे! अभी जो मेहमान तुम्हारे विवाह में शरीक हुए थे, वे घर भी नहीं पहुंच पाये हैं।  चर्च में जो दीये जले थे विवाह की खुशी में, वे अभी जल रहे हैं, अभी बुझे नहीं।  इतनी जल्दी क्या है? इतनी जल्दी ऐसा कौन-सा उपद्रव हो गया तीन घंटे के भीतर?
उस स्त्री ने कहा, "इन द चर्च ही साइंड हिज नेम इन बिगर लेटर दैन माइन!'
पति ने मुझसे बड़े अक्षरों में हस्ताक्षर किये हैं।  यह उपद्रव शुरू हो गया।  इस आदमी के साथ बन नहीं सकता।  अहंकार बड़े अक्षर भी बर्दाश्त नहीं कर सकता है।  सिंहासन छोड़ सकता है।  अगर अहंकार तृप्त होता हो, तो सब कुछ छोड़ सकता है।  लेकिन अगर अहंकार टूटता हो, तो रत्तीभर का फर्क असंभव है।
साधक को पहले यह खोज लेना चाहिए, उसकी मौलिक कमजोरी क्या है; उसकी बीमारी क्या है।  यह निदान आवश्यक है।  क्योंकि अगर ठीक बीमारी का पता ही न हो, तो ठीक औषधि कभी नहीं मिल सकती।  निदान आधी चिकित्सा है।  ठीक डायग्नोसिस आधा इलाज है।  अगर आपको ठीक से पकड़ में आ जाये कि आपकी कमजोरी क्या है, आपकी पीड़ा, आपका दुर्गुण क्या है, तो उसी दुर्गुण के आसपास सारे दुर्गुण इकट्ठे हैं।  और जब तक उस दुर्गुण से ऊपर उठने की व्यवस्था न बने, तब तक सदगुणों का आगमन शुरू न होगा।  और बीच में आप जन्मों-जन्मों तक चेष्टा कर सकते हैं।  वह चेष्टा वैसे ही है जैसे कोई टी्र बी्र से बीमार है, उसका कैन्सर का इलाज चल रहा है; कि कोई कैन्सर से बीमार है, और उसका कुछ और इलाज चल रहा है।  जब तक चिकित्सा-विधि, औषधि बीमारी से संयुक्त न होती हो, तब तक कुछ भी करना खतरनाक है।  तब तक बेहतर कुछ न करना है।  क्योंकि बीमारी तो बीमारी ही रहेगी, गलत औषधि और बड़ी बीमारी हो जायेगी।
मैं साधुओं को देखता हूं; साधकों को देखता हूं; उन्हें अपनी बीमारी का कोई बोध ही नहीं है।  और वे लड़े चले जा रहे हैं; औषधि लिये चले जा रहे हैं; साधना किये चले जा रहे हैं।  उन्हें यह पता नहीं है कि क्या मिटाना है।  और उन्हें यह भी पक्का नहीं है, कि क्या प्रगट करना है।  इसलिए बहुत कोशिश के बाद भी कोई परिणाम नहीं होता।
तीसरी बात समझ लेनी जरूरी है, और वह यह है कि आपके भीतर जो बुनियादी रोग होगा, वही आपको दूसरे लोगों में दिखाई पड़ेगा; खुद में दिखाई नहीं पड़ेगा।  बीमारी बच ही सकती है, जब तक छिपी रहे।  प्रगट हो जाये, तो मिटनी शुरू हो जाती है।  जैसे जड़ें तभी तक सक्रिय होती हैं, जब तक जमीन में दबी रहें; जैसे ही जमीन के बाहर आयीं कि मरनी शुरू हो गयीं।
जड़ को जमीन के बाहर निकाल लेना उसकी मौत का आयोजन है।  आपके भीतर भी जो बीमारियां हैं वे तभी तक चल सकती हैं, जब तक अचेतन के गर्भ में अनकांशस में दबी रहें; आपको उनका पता न हो।  जैसे ही आपके बोध में जड़ें आनी शुरू हुइ, कि उनकी मृत्यु शुरू हो गयी।  इसलिए कुछ साधनाएं तो यह कहती हैं कि बीमारी को मिटाने के लिए कुछ भी नहीं करना है; सिर्फ बीमारी के प्रति परिपूर्ण होश से भर जाना है।
कृष्णमूर्ति की पूरी साधना, जो भीतर रोग है, उसके प्रति पूरी अवेअरनेस, पूरा साक्षात बोध—इतना काफी है।  बुद्ध ने भी कहा है कि अपनी बीमारी का पूर्ण स्मरण उससे छुटकारा है।  ज्ञान मुक्ति है।  क्योंकि जड़ जैसे ही बाहर आती है जमीन के, तभी दिखाई पड़ती है।  जब आपके अचेतन के गर्भ से जड़ें बाहर आती हैं, तो दिखाई पड़ती हैं।  दिखाई पड़ते ही कुम्हलानी शुरू हो जाती हैं।  इधर जड़ें कुम्हलाइ, उधर उनके पत्तों का फैलाव, शाखाओं का फैलाव, फूलों का फैलाव, सब मरने लगा।
इसलिए एक तीसरी बात खयाल में ले लेनी चाहिएः आपको अपनी बीमारी स्वयं में दिखाई नहीं पड़ सकती।  इसीलिए तो वह है।  लेकिन जो बीमारी है, उसका कहीं न कहीं प्रतिफलन होगा।  दूसरे लोग दर्पण का काम करते हैं।  आपको अपनी बीमारी दूसरे लोगों में दिखाई पड़ती है।  अहंकारी व्यक्ति को सारे लोग अहंकारी मालूम पड़ेंगे।  और हरेक लगेगा कि अपनी अकड़ में जा रहा है।  और उसको हरेक की अकड़ चोट पहुंचायेगी
यह बड़े मजे की बात है कि आप, जो आदमी विनम्र होता है, हम्बल होता है, निरहंकारी होता है, उसका इतना आदर क्यों करते हैं? आपने कभी सोचा? सब समाज दुनिया के विनम्र आदमी का आदर करते हैं; और कहते हैं: "बड़ा श्रेष्ठ आदमी है, उसको अहंभाव बिलकुल भी नहीं।लेकिन क्यों दुनिया के सभी लोग निरहंकारी का आदर करते हैं?
निरहंकारी के आदर का बुनियादी कारण आपका अहंकार है।  क्योंकि निरहंकारी आपको चोट नहीं पहुंचाता।  और आप उसको कितनी ही चोट पहुंचायें, तो भी प्रत्युत्तर नहीं देता।  अहंकारी आपको अखरता है।  अखरने का कुल कारण इतना है कि आपके भीतर के अहंकार को चोट लगती है।
यह अभिनेत्री जो अपने पति के बड़े हस्ताक्षर देखकर तलाक देने को तैयार हो गयी, जरूर इसके मन में पति से बड़े हस्ताक्षर करने की वासना छिपी रही होगी।  उसी को चोट पहुंची।  अन्यथा दिखाई भी नहीं पड़ सकता था।  यह खयाल में भी न आता कि किसने बड़े हस्ताक्षर किये हैं।
जो दिखाई पड़ता है, वह कहीं भीतर छिपा है।  जब आपको आसपास के लोग पापी दिखाई पड़ते हैं, तो उनके पाप का जो भी ढंग हो, समझना कि वह आपकी बीमारी का निदान है।  इस जगत में हर दूसरा व्यक्ति दर्पण है।  और अगर हम ठीक से उसमें अपनी छवि देखें, तो हमें अपनी साधना का मार्ग स्पष्ट हो सकता है।
इसे थोड़ा सोचना आप कि आपको क्या-क्या खामियां दूसरे लोगों में दिखाई पड़ती हैं; क्यों दिखाई पड़ती हैं; और कौन-कौन सी चीजें चोट की तरह आपके भीतर घाव बनाती हैं; जरा-सी चोट, और आपका घाव भीतर कंपित और दुख से भर जाता है।  कौन-सी चीजें हैं? तो वही, जिनमें आप भीतर से रस ले रहे हैं।  लेकिन वह रस अचेतन है।
जीवन के निदान में यह तीसरा सूत्र बहुत जरूरी है कि जो आपको दूसरों में दिखाई पड़ता हो, दूसरों की फिक्र छोड़कर उसे अपने में खोजने लग जाना।  ये तीन बातें खयाल में लें; फिर हम महावीर के सूत्र में प्रवेश करें।  महावीर कहते हैं—
""जो दूसरों को "यह दुराचारी है' ऐसा नहीं कहता, जो कटु वचन—जिससे सुननेवाला क्षुब्ध हो—नहीं बोलता, "सब जीव अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख भोगते हैं'—ऐसा जानकर जो दूसरों की निंद्य चेष्टाओं पर लक्ष्य न देकर अपने सुधार की चिंता करता है, जो अपने-आपको उग्र तप और त्याग आदि के गर्व से उद्धत नहीं बनाता, वही भिक्षु है।’'
बहुत-सी बातें हैं।  एकः जो दूसरों को "यह दुराचारी है' ऐसा नहीं कहता।  कहने का ही सवाल नहीं है, जो अपने भीतर भी ऐसा भाव निर्मित नहीं करता कि दूसरा दुराचारी है।  क्योंकि कहने से क्या फर्क पड़ेगा? जो अपने भीतर भी ऐसा अनुभव नहीं करता, यह दुराचारी है।
लेकिन साधुओं के पास जायें।  साधुओं की आंखों में आपकी निंदा के सिवाय और कुछ भी नहीं।  साधुओं को जितना मजा आता है आपकी निंदा करने में, उतना किसी और बात में नहीं आता।  साधु देखकर ही आपको आनंद अनुभव करता है कि पापियों के सामने वह पुण्यात्मा मालूम पड़ता है—कि तुम भोगी, कि तुम नारकीय, कि तुम नरक की योजना बना रहे हो, कि तुम कामी, कि तुम शरीर की वासना में डूबे हुए हो, कि तुम संसार में भटक रहे हो, अज्ञानी।  साधु की आंखों में निंदा का स्वर है।  और शायद आप भी उसके पास इसीलिए जाते हैं, शायद आप भी उसको इसीलिए आदर देते हैं कि अपनी निंदा का स्वर आप वहां पाते हैं।
यह बड़े मजे की बात है।  इस जगत में हर व्यक्ति अपने विपरीत से आकर्षित होता है।  जैसे स्त्री पुरुष से आकर्षित होती है; पुरुष स्त्री से आकर्षित होता है।  यह आकर्षण जीवन के सभी आयामों में फैला हुआ है।  आप अपने विपरीत से आकर्षित होते हैं।  भोगी त्यागी से आकर्षित होता है।  पापी पुण्यात्मा से आकर्षित होता है।  पापी जाता है पुण्यात्मा के पास, लेकिन अगर पुण्यात्मा उसको यह बोध ही न दे कि तू पापी है, तो उसके जाने का मजा समाप्त हो जाये।  एक खुजली है, जिसको वह खुजलाता है।
तो जब आप साधु के पास जाते हैं, और साधु आपकी निंदा करता है, तो चाहे ऊपर से आपको बुरा भी लगता हो, लेकिन भीतर से अच्छा लगता है।  यह भीतर से अच्छा लगना एक रोग है—आपका भी और साधु का भी।  आप उस साधु के पास शायद जाना पसंद ही नहीं करेंगे, जिसके मन में आपके प्रति कोई निंदा नहीं है।  क्योंकि आपको उसके प्रति कोई आदर ही मालूम नहीं होगा।  आपको आदर उसी के प्रति मालूम हो सकता है, जिसके द्वारा आपके प्रति अनादर बहता है।  जो आपसे ऊंचा मालूम होता है, उसी के प्रति आदर मालूम होता है।
इसलिए अकसर ऐसा होता है कि परम साधुओं को लोग पहचान ही नहीं पाते; सिर्फ उनको पहचान पाते हैं, जो साधु नहीं है।  तो साधु के धंधे की एक व्यवस्था है कि वह आपकी जितनी निंदा करे, उतना
आप उसके निकट जायेंगे।
जाकर साधुओं के प्रवचन सुनें।  वे जितनी आपको गालियां दें और आपकी निंदा करें, आप उतने ही मुस्कुराते हैं, और आप कहते हैं कि बात तो बिलकुल ठीक है।  सच में तो यह है कि आप भी अपने को कभी भी इस हालत में नहीं मानते कि ऐसी कोई बुराई है, जो आपने नहीं की है।  और जब कोई आपकी निंदा करता है, तो आपको भी लगता है कि सत्य कह रहा है—आप भला उसके सत्य को मान न पाते हों।  जीवन की असुविधाएं हैं, कठिनाइयां हैं—आप पूरा न कर पाते हों; लेकिन उसकी निंदा से आप भी राजी हैं।
सच में, आप खुद ही आत्मनिंदा से, सेल्फ कंडेम्नेशन से इतने भरे हैं कि जो भी आपकी निंदा करता है, उससे आप राजी हो जाते हैं।  लेकिन महावीर साधु की व्याख्या में पहली बात यह कहते हैं कि जो, दूसरा दुराचारी है, न तो ऐसा कहता है, न ऐसा मानता है; न ऐसा सोचता है, न ऐसा भाव करता है; दूसरे के संबंध में बुराई की धारणा छोड़ देता है, ऐसा व्यक्ति साधु है।
लेकिन ऐसा साधु आपको बहुत अपील नहीं करेगा।  जो आपको अपराधी सिद्ध न करे, वह आपको सच ही मालूम न पड़ेगा।  अगर कोई साधु आपको समभाव से ले—नीचे-ऊंचे का भाव न करे; आपके कंधे पर हाथ रख दे; मित्र की तरह आपसे बात करे—आप उस साधु के पास जाना बंद कर देंगे।
आप तलाश कर रहे हैं किसी की, जो आपकी निंदा करे।  क्योंकि आप अपनी ही निंदा में लीन हैं।  लेकिन महावीर कहते हैं, साधु का पहला लक्षण यह है।  अगर यह लक्षण साधु का है, तो सौ में से निन्यानबे साधु, साधु सिद्ध नहीं होंगे।  वे आपकी बीमारी का हिस्सा हैं।  आप जो चाहते हैं, वे कर रहे हैं।
जगत में स्वयं को दुख देनेवाले लोगों की बड़ी कतार है।  और जहां भी उनको दुख मिलता है, वहां उनको रस आता है।  साधु आपको एक तरह से दुख दे रहा है।  क्योंकि वह कह रहा है कि आप निंदित हैं, पापी हैं।  नर्क और नर्क की जलती हुई लपटें जिन्होंने विकसित की हैं, जिन्होंने धारणाएं बनायी हैं ये, महावीर उन्हें साधु नहीं कह सकते।  क्योंकि जब दूसरे को दुराचारी ही नहीं विचार करना है, तो दूसरे को नर्क में डालने का खयाल ही क्या!
बर्ट्रेंड रसेल ने एक किताब लिखी है बड़ी अनूठीः "व्हाइ आइ ऐम नाट ए क्रिश्चियन—मैं ईसाई क्यों नहीं हूं' और जो दलीलें दी हैंऔर दलीलें तो ठीक हैं, लेकिन एक दलील सच में बहुत महत्वपूर्ण है।  महावीर भी उससे राजी होते।  और वह दलील यह है कि जीसस के मुंह से इस तरह के वचन कहलवाये गये हैं बाइबिल में, जिनसे ऐसा लगता है कि जीसस लोगों को नर्क में डालने में रस ले रहे हैं—कि तुम सताये जाओगे; कि तुम छेदे जाओगे; कि कीड़े-मकोड़े तुम्हारे शरीर से गुजरेंगे; कि अग्नि में तुम पटके जाओगे; कि उबलते हुए तेल में तुम्हें उबाला जायेगा।  तुम प्यासे होओगे।  आग बरसती होगी।  पानी पास होगा।  लेकिन तुम्हें पानी पीने को नहीं दिया जायेगा।
रसेल यह कहता है कि जीसस के ये जो वचन हैं, अगर जीसस ने ही कहे हैं, तो जीसस साधु होने का गुण ही खो देते हैं।  क्योंकि साधु दूसरे को ऐसा कष्ट देने की कल्पना भी करे, वह कल्पना भी बताती है कि दूसरे को कष्ट देने में रस है; हिंसा है।  दूसरे को बुरा कहना हिंसा है।  दूसरे को बुरा मानना हिंसा है।  निश्चित ही, जीसस ने ये वचन कहे नहीं हैं—पीछे जोड़े गये हैं।  क्योंकि जीसस के मर जाने के डेढ़ सौ वर्ष बाद बाइबिल का संकलन शुरू हुआ।  जिन लोगों ने संकलन किया, उनकी धारणाएं हैं ये।
मैं यहां बोल रहा हूं; आप इतने लोग यहां बैठे हैं; अगर बाहर आपसे जाकर पूछा जाये कि मैंने क्या कहा—अभी, डेढ़ सौ वर्ष बाद नहीं—तो जितने यहां लोग हैं, उतने वक्तव्य होंगे।  और मुश्किल हो जायेगा यह तय करना कि मैंने क्या कहा।  क्योंकि आप वही नहीं सुनते, जो मैं कह रहा हूं।  आप वही सुनते हैं, जो आप सुनना चाहते हैं।  आप उसी को चुन लेते हैं; उसी को बड़ा कर लेते हैं; कुछ छोड़ देते हैं, कुछ बचा लेते हैं।
जीसस के आठ शिष्यों ने बाइबिल के आठ वक्तव्य दिये हैं।  वे सब भिन्न-भिन्न हैं; अपना-अपना वक्तव्य हैं असल में।  डेढ़ सौ साल बाद जो लिखा गया है, वह उन लोगों का है जिन्होंने डेढ़ सौ साल बाद लिखा।  ये वे लोग थे जो चाहते थे कि ईसाई होने से स्वर्ग; और जो ईसाई नहीं होता, उसे नर्क।  लेकिन रसेल का तर्क सही है।  अगर जीसस ने ही ये वचन कहे हैं, तो जीसस सारा गुण खो देते हैं।  जिन्होंने नर्क सोचा है, उन्होंने सोचकर ही बता दिया कि उनके मन में भीतर गहरी हिंसा छिपी है।  लेकिन साधु इसमें रस लेता है।  लेकिन रस का कारण भी समझ लें।
आप भोग रहे हैं—स्त्री को, धन को, महल को।  साधु ने स्त्री छोड़ी, धन छोड़ा, महल छोड़ा—भूखा है, प्यासा है, नग्न है, सड़क पर पैदल चल रहा है।  आप सब तरह का सुख भोग रहे हैं; वह सब तरह का दुख भोग रहा है।  गणित साफ है।  अगर वह कहीं आगे भविष्य में आपके लिए दुख का आयोजन न कर ले, तो उसे खुद का दुख भोगना मुश्किल हो जायेगा।  गणित को साफ कर लेगा वहः अपने लिए भविष्य में सुख का आयोजन; आपके लिए भविष्य में दुख का आयोजन।  बात साफ हो गयी।  और यह भी पक्का कर लेगा कि तुम जो सुख भोग रहे हो, वह क्षणिक है; और मैं जो सुख भोगूंगा स्वर्ग में, मोक्ष में, वह शाश्वत है।  और तुम जो सुख भोग रहे हो, वह तो क्षणिक है; लेकिन तुम जो दुख भोगोगे नर्क में, वह अनंतकालीन है।
यह बड़े मजे की बात है।  क्षणिक सुख के लिए अनंतकालीन दुख कैसे मिल सकता है? बर्ट्रेंड रसेल ने वह भी तर्क उठाया है।  ईसाइयत मानती है कि नर्क जो है, वह इटरनल है; उसका कभी अंत नहीं होगा।  जो एक दफे नर्क में पड़ गया, वह पड़ गया।  उससे निकलने की कोई जगह नहीं है।  शाश्वत नर्क!
अब यह बड़े मजे की बात है कि क्षणिक सुख, उसके बदले में शाश्वत नर्क! कहीं साथ नहीं बैठता।  रसेल ने कहा है कि मुझ पर अगर कोई ठीक न्यायोचित व्यवस्था की जाये मेरे पापों की, तो जो मैंने पाप किये हैं वे और जो मैंने सोचे हैं, अगर वे भी जोड़ लिये जायें—तो भी मुझे सख्त अदालत चार साल, और चार साल से ज्यादा की सजा
नहीं दे सकती।  तो अनंत! इसमें जरूर देनेवालों का कुछ हाथ है।  अनंत नर्क, जिसका फिर कोई अंत नहीं होगा!
उलटी बात भी समझ लेने जैसी है।  क्षणिक सुख छोड़नेवाले लोग शाश्वत सुख पायेंगे।  क्षणिक को छोड़कर शाश्वत कैसे पाया जा सकता है? आखिर गणित कुछ तो साफ होना चाहिए।  सिर्फ क्षणिक सुख भोगनेवाले लोग शाश्वत नर्क पायें  क्षणिक सुख छोड़नेवाले शाश्वत सुख पायें  इसमें देनेवालों का, हिसाब लगानेवालों का हाथ है।
जगत में वही मिल सकता है, जो छोड़ा जाता है।  सब चीजों के मूल्य अंततः समान हो जाते हैं।  अगर क्षणिक सुख ही छोड़ा है, तो महावीर कहते हैं, स्वर्ग मिल सकता है।  लेकिन वह स्वर्ग भी क्षणिक होगा।  अगर मोक्ष चाहिए, तो क्षणिक सुख को छोड़ने से नहीं मिलने वाला है; शाश्वत आत्मा को जानने से मिलनेवाला है।  उसका त्याग से कोई संबंध नहीं।  उसका भोग से कोई संबंध नहीं।  उसका आत्मबोध से संबंध है।  शाश्वत जो मेरे भीतर छिपा है, उसको जानने से मेरा शाश्वत से संबंध जुड़ जायेगा।  क्षणिक जो मेरी देह है, उसके माध्यम से जितने भी संबंध मैं जोड़ता हूं, वे भी क्षणिक ही होंगे।
साधु का आधारभूत लक्षण है कि दूसरे में उसे बुरा दिखाई न पड़े।  लेकिन क्यों? यह तभी हो सकता है, जब स्वयं के भीतर से बुरा गिर जाये।  क्योंकि हमें वही दिखाई पड़ता है दूसरे में, जो हमारे भीतर होता है—मैगनिफाइ होकर दिखाई पड़ता है; खूब बड़ा होकर दिखाई पड़ता है।  हमारे चारों तरफ दर्पण घूम रहे हैं।  सारा जगत दर्पण है, जिसमें हम ही लौट-लौट कर गूंजते हैं और दिखाई पड़ते हैं।  जिस दिन कोई व्यक्ति भीतर से दुर्गुणों से शून्य हो जाता है, इन दर्पणों में भी दिखाई पड़ना बंद हो जाता है।
लेकिन आप उस तरह के लोग हैं कि अगर दर्पण में आपका कुरूप चेहरा दिखाई पड़े, तो आपको खयाल आता है कि दर्पण में जरूर कोई भूल है।  मेरा चेहरा और कुरूप कैसे हो सकता है! तो आप दर्पण तोड़ देने को तैयार हो सकते हैं, चेहरा बदलने को नहीं।  हम यही कर रहे हैं।  चारों तरफ हर संबंध, जीवन का हर संबंध प्रतिफलन कर रहा है।
जब आप पाते हैं कि आपको एक बुरी पत्नी मिल गयी, तो आपके खयाल में नहीं आता कि यह बुरे पति का परिणाम है; यह होने ही वाला है।  आप पत्नी बदल सकते हैं; दर्पण बदल सकते हैं, लेकिन हर पत्नी बुरी सिद्ध होगी।  वह तो अच्छा है, जिन मुल्कों में पत्नी बदलने की बहुत सुविधा नहीं, तो यह दुख अनुभव नहीं हो पाता कि हर पत्नी बुरी सिद्ध होती है।  यह आशा बनी ही रहती है कि यह एक भूल हो गयी है; बाकी इतनी स्त्रियां थीं, जो अच्छी पत्नी हो सकती थीं।  लेकिन जिन मुल्कों में सुविधा हो गयी तलाक की, वहां जीवन बड़ी उदासी से भर गया है।  हर बार उसी तरह की पत्नी आदमी खोज लेता है, जैसी उसने पहले खोजी थी।  क्योंकि खोजनेवाला तो बदलता नहीं।  तो खोजी जानेवाली चीज भी बदलनेवाली नहीं है।
आप कितना ही कुछ भी करें, दर्पण के बदलने से आप बदलनेवाले नहीं हैं।  हर दर्पण आपका ही प्रतिफलन देगा।  और आप इतने ज्यादा अंधेरे से भरे हैं कि दर्पण से रोशनी आने का कोई उपाय नहीं है।  जब आपको कोई भी दुख चारों तरफ से मिलता है, तो ध्यान रखना—लोग बुरे हैं, इसलिए दुख मिल रहा है—यह धारणा सामान्य आदमी की है।  मैं बुरा हूं, इसलिए दुख पा रहा हूं—यह धारणा साधु की है।  और यही क्रांति साधारण व्यक्ति को साधु बनाती है।  दूसरों को बदल दूं, यह चेष्टा साधारण चेष्टा है।  अपने को बदल लूं, यह साधु का संकल्प है।  लेकिन अपने को बदलने का खयाल ही तब आयेगा, जब हर परिस्थिति में मैं देख पाऊं अपने को ही; खोज पाऊं अपने को ही। "जो दूसरों को "यह दुराचारी है' ऐसा नहीं कहता, ऐसा अनुभव भी नहीं करता; जो कटु वचन—जिससे सुननेवाला क्षुब्ध हो—नहीं बोलता!'
ध्यान रहे, जब भी आप कटु वचन बोलते हैं, तो आप किसी को क्षुब्ध करना चाहते हैं—चेतन या अचेतन; होशपूर्वक या अनजाने।  लेकिन आप किसी को क्षुब्ध करना चाहते हैं।  एक बड़े मजे की बात है, आप कटु वचन बोलें और दूसरा क्षुब्ध न हो, तो आप क्षुब्ध हो जायेंगे।  आप किसी को गाली दें, और वह मुस्कुराता रहे, गाली लौट आयी।  उस आदमी ने स्वीकार नहीं की।  वह गाली आपकी ही छाती में तीर बनकर चुभ जायेगी।  अगर आप क्षुब्ध करना चाहें, और कोई क्षुब्ध न हो, तो आप बड़ी बेचैनी और बड़ी मुश्किल में पड़ जायेंगे।  और अगर कोई क्षुब्ध हो जाये, तो आप कहते हैं कि क्षुब्ध होनेवाले की भूल है, मैंने तो ऐसा कुछ कहा नहीं; और अगर वचन तीखा भी था, तो सत्य था।
हम सत्य भी बोलते हैं तभी, तो जब हिंसा उससे हो सकती है।  सत्य भी हम तभी बोलते हैं, जब उसका उपयोग हम छुरी की तरह कर सकें; किसी को काट सकें, चोट पहुंचा सकें।  हमारे सत्य भी असत्यों से बदतर होते हैं।  लेकिन साधु की सदा कोशिश यह होगी कि वह जो भी बोल रहा है, जो भी कर रहा है।  वह क्यों कर रहा है; क्यों बोल रहा है? उसका मूल भीतर क्या है? किसी को मैं क्षुब्ध क्यों करना चाहता हूं? किसी को क्षुब्ध करने की वृत्ति क्यों है?
जब तक आप किसी को क्षुब्ध न कर सकें, तब तक आपको अपनी मालकियत नहीं मालूम पड़ती।  जिसको आप क्षुब्ध कर लेते हैं, उसके आप मालिक हो जाते हैं।
मनसविद कहते हैं कि अगर हिटलर को बचपन में प्रेम मिला होता, तो शायद हिटलर पैदा नहीं होता।  उसे कोई प्रेम नहीं मिला, तो उसने एक ही कला सीखी दूसरे पर मालकियत की—वह थी हिंसा, घृणा, दूसरे को नष्ट करना।
जब आप किसी को नष्ट करते हैं तो आपको लगता है, आप मालिक हैं।
ध्यान रहे, दो तरह की मालकियत अनुभव की जा सकती है।  या तो आप कुछ सृजन करें, कुछ क्रियेट करें।  एक चित्रकार एक पेंटिंग बनाता है।  पेंटिंग बनाकर प्रसन्न होता है, क्योंकि उसने कुछ बनाया; और बनाने के माध्यम से वह ईश्वर का हिस्सेदार हो गया।  किसी अर्थ में ईश्वर हो गया।  ईश्वर ने बनायी होगी यह सारी दुनिया; उसने भी एक छोटी दुनिया बनायी है।  एक मूर्तिकार एक मूर्ति बनाता है।  एक संगीतज्ञ एक धुन खोजता है; एक लय बिठाता है।  एक नर्तक एक नृत्य को जन्म देता है।  वे प्रसन्न होते हैं; वे आनंदित होते हैं—उन्होंने कुछ बनाया।  और जिसको वे बना लेते हैं, उसके मालिक हो जाते हैं।
वह जो क्रियेटर है, वह जो स्रष्टा है किसी चीज का, वह उसका मालिक है।  यह एक उपाय है मालिक होने का।  दूसरा उपाय यह है कि किसी चीज को आप तोड़ दें, मिटा दें, नष्ट कर दें—तब भी आप मालिक हो जाते हैं।  न हुए ब्रह्मा, हो गये शिव—लेकिन ईश्वर के हिस्सेदार हो गये।  कुछ मिटाया।  मिटा सकते हैं आप।
और ध्यान रहे, बनाना बहुत कठिन है, मिटाना बहुत आसान है।  एक जीवन को जन्म देना बहुत कठिन है।  एक जीवन को नष्ट करने में क्या लगता है! हिटलर ने लाखों लोगों को मिटा दिया।  जितने लोग मिटते गये, उसे लगता गया, वह कुछ है।  ईश्वर होने का अनुभव उसे होने लगा होगा।  अगर सारी दुनिया को मिटाने की ताकत उसके हाथ में आ जाती, जिसकी वह कोशिश कर रहा था, तो उसे लगता कि अब मेरे सिवा और कोई परमात्मा नहीं है।  मैं मिटा सकता हूं।
धर्म और अधर्म इसी जगह से भिन्न होते हैं।  अधर्म है मिटाकर मालिक बनने की कोशिश, और धर्म है सृजन करके मालिक बनने की कोशिश।  दोनों मालकियत हैं।  लेकिन सृजन प्रेम है, विध्वंस हिंसा है।  आप तलवार से ही मिटाते हैं, ऐसा नहीं है; एक छोटा-सा शब्द भी किसी के प्राणों को मिटा सकता है।  आंख का एक इशारा, आपके चलने का ढंग; किसी को तोड़ सकता है, नष्टकर सकता है।
महावीर कहते हैं, साधु वह है जो वचन भी कठोर नहीं बोलता, इतना भी नहीं कि कोई जरा-सा क्षुब्ध हो जाये।  और जब भी कोई क्षुब्ध होता है, तब वह अनुभव करता है कि मैंने कुछ किया है,जिससे क्षोभ पैदा हुआ है।  और वह अपने द्वारा पैदा किये क्षोभ को हर तरह से मिटाने की कोशिश करता है।  ऐसा व्यक्ति अपने चारों तरफ फूल खिलाने लगता है।  विनाश की शक्ति सृजन बननी शुरू हो जाती है।
बुद्ध के संबंध में कहा जाता है कि वे जहां से गुजरते, वहां वृक्षों में असमय फूल आ जाते।  यह तो कहानी है, लेकिन बड़ी सूचक है।  बुद्ध जैसा व्यक्ति, जिसकी सारी ऊर्जा विध्वंस से हटकर सृजन बन गयी , उसका प्रतीक है यह।  असमय भी वृक्षों में फूल आ जायें, तो कुछ असंभव नहीं।  इतना ही मतलब है।  जहां भी यह व्यक्ति जायेगा, वहां कुछ खिलेगा बजाये मुरझाने के।  इसके होने का ढंग ऐसा हो गया है कि चीजें नाचेंगी, हंसेंगी, प्रसन्न होंगी, प्रफुल्लित होंगी।
महावीर इसी को अहिंसा कहते हैं।  आप हो सकता है मांसाहार न करें, पानी छान कर पीयें, रात भोजन न करें, आप सब तरह से हिंसा को भोजन से बचा लें; लेकिन तब हिंसा आपके दूसरे पहलुओं में प्रवेश कर जाये।  आप कठोर वचन बोलने लगें; कटु वचन बोलने लगें; साधुओं के वचन देखें, अति कठोर मालूम होंगे।  उनकी कठोरता भी हमें लगती है कि शायद उनकी अनासक्ति का प्रतीक है; शायद उनकी कटुता उनके सत्य होने का प्रतीक है।  यह बात गलत है।  इन्हीं कारणों से हमने एक कहावत बना रखी है कि सत्य कटु होता है।  यह बात गलत है।  क्योंकि जो सत्य कटु हो जाता है, वह कटु होने के कारण ही असत्य हो जाता है।
सत्य से मधुर और कुछ भी नहीं हो सकता।  लेकिन बोलने का हकदार वही है, जिसके भीतर माधुर्य का जन्म हो गया है; नहीं तो वह जो सत्य बोलेगा, वह जहर होगा।  आप जहर से भरे हैं—आपके भीतर से सत्य निकलेगा, वह जहर बुझा हो जायेगा।  आपसे सत्य भी निकल जाये, तो आपसे बच नहीं सकता।  वह जहर से बुझा तीर हो जायेगा; और जहां जायेगा,वहीं अहित करेगा।
नीत्शे ने तो कहीं व्यंग में कहा है कि असत्य भी मधुर हो, तो हितकर है उस सत्य की बजाय जो कटु है।  यह बात समझ में आने जैसी है।  मेरी अपनी धारणा यह है कि असत्य भी अगर पूर्ण माधुर्य से निकले, तो सत्य हो जाता है।  और सत्य भी अगर कटुता से निकले, तो असत्य हो जाता है।  आंतरिक माधुर्य ही कसौटी है सत्य और असत्य की।  और कोई कसौटी नहीं है।  आंतरिक माधुर्य उसे ही प्राप्त होता है, जो विध्वंस की सारी क्षमता से शून्य हो गया है।  उसकी आत्मा
से मधु बहने लगता है।  उससे फिर जो भी निकले, वह सत्य है।  उससे फिर जो भी निकले, वह प्रेम है।  महावीर कहते हैं—
""जो कटु वचन—जिससे सुननेवाला क्षुब्ध हो—नहीं बोलता, "सब जीव अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख भोगते हैं'—ऐसा जानकर जो दूसरों की निंद्य चेष्टाओं पर लक्ष्य न देकर अपने सुधार की चिंता करता है।
इस सूत्र को ठीक से समझ लेना चाहिए।  क्योंकि महावीर की आधारभूत शिक्षाओं में यह एक है कि प्रत्येक व्यक्ति जो भी अनुभव कर रहा है, जो भी कर रहा है, वह उसकी अपनी आंतरिक कर्मों की शृंखला का हिस्सा है।  आप अगर गाली देते हैं, तो यह गाली आपके अतीत से संबंधित है; जिसको आप गाली देते हैं, उससे संबंधित नहीं है।  वह सिर्फ निमित्त है।  अगर आप प्रेम करते हैं, तो यह भी आपके अतीत-अनुभवों की सार शृंखला है।  उससे इसका कोई संबंध नहीं है, जिसको आप प्रेम करते हैं।  वह सिर्फ निमित्त है।  प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर से जी रहा है, और बाहर केवल निमित्त हैं।
जीवन की धारा भीतर से आती है; बाहर तो केवल अवसर है।  लेकिन हम उलटा सोचते हैं।  हम सोचते हैं: भीतर से क्या आता है, सब कुछ बाहर है; सब कुछ बाहर से हो रहा है।  एक आदमी आपको गाली देता है, थोड़ा सोचें।  आपका मिजाज खराब हो तो गाली बहुत गाली मालूम पड़ेगी।  मिजाज अच्छा हो तो गाली बहुत छोटी गाली मालूम पड़ेगी।  अगर आप सच में ही आनंदित हों, ध्यान में मग्न हों, तो गाली गाली मालूम ही नहीं पड़ेगी।  और अगर आप नर्क में बैठें हों, दुख और पीड़ा से भरे हों, तो गाली आपके लिए पूरे जीवन को बदलने का आधार हो जायेगी।  हिंसा, हत्या में आप उतर जायेंगे।
गाली में क्या है।  गाली सिर्फ निमित्त है।  जो है, वह आपके भीतर है।  जैसे हम कुएं में बाल्टी डालते हैं, कुआं सूखा हो तो बाल्टी खाली लौट आती है।  वैसे ही गाली एक बाल्टी की तरह आप में जाती है।  आप खाली हों तो खाली लौट आती है।  आप माधुर्य से भरे हों तो गाली की बाल्टी भी माधुर्य ही लेकर लौटती है और आप नर्क की अग्नि से भरे हों, तो लपटें उबलती हुई उस बाल्टी में बाहर आ जाती हैं।  बाल्टी जो लेकर लौटती है, वह बाल्टी का नहीं है; जो लेकर लौटती है, वह आपका है।
महावीर कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति अपने जगत में जी रहा है, जो उसके भीतर है।  बाहर से मौके मिलते हैं, उन मौकों को मूल्य मत दो, ध्यान दो भीतर।  और अगर कोई आदमी सुख भोग रहा है; कोई आदमी दुख भोग रहा है; कोई आदमी पाप कर रहा है; और कोई आदमी पुण्य कर रहा है, तो इससे परेशान मत हो जाओ।  वे सभी लोग अपने-अपने कर्मों के अनुसार चल रहे हैं।
इसमें एक बात और बड़ी सोच लेने जैसी है।  क्योंकि वह विचारणीय हो गयी है इस सदी में—ईसाइयत के कारण।  ईसाइयत ने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि दूसरे को, जो दुखी है, उसकी सेवा करो।  उसके दुख को मिटाओ  उसके दुख को कम करो।  दूसरे का सुख बढ़ाओ  ऐसी सेवा की धारणा ही धर्म है।
ईसाइयत के प्रभाव में राजा राममोहनराय, केशवचंद्र, विवेकानंद, गांधी, ये सारे लोग ईसाइयत के भारी प्रभाव में थे—कहना चाहिए, बहुत गहरे अर्थों में ईसाई थे।  इन सारे लोगों ने कहा कि सेवा धर्म है।  और इन सारे लोगों ने कहा कि अगर कोई दुखी है, तो उसके दुख को मिटाने की कोशिश करो।  महावीर कहते हैं कि कोई दुखी है, तो वह अपने कारण से दुखी है।  तुम उसका दुख मिटा नहीं सकते।  तुम्हारे दुख मिटाने का कोई उपाय कारगर नहीं हो सकता।
इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम दुख मिटाने की कोशिश मत करो।  यह बहुत सोचने जैसा सूक्ष्म बिंदु है।  महावीर कहते हैं कि तुम दूसरे का दुख तो मिटा नहीं सकते—इसका यह मतलब नहीं है कि तुम दूसरे का दुख मिटाने की कोशिश मत करो।  तुम अगर दूसरे का दुख मिटाने की कोशिश कर रहे हो, तो इससे तुम्हारा अपना दुख मिट सकता है।  यह चेष्टा कि तुम दूसरे को सुखी करने का उपाय कर रहे हो, इससे कोई दूसरा सुखी नहीं हो सकता—लेकिन यह भाव कि दूसरा सुखी हो, तुम्हें सुख की तरफ ले जायेगा।  और यह भाव ही कि दूसरा दुखी न हो, तुम्हारे अपने दुखों से तुम्हें छुटकारा
दिलायेगा  दूसरे से इसका कोई संबंध नहीं है, संबंध तुमसे ही है।  लेकिन बड़ी भूल हुई।
एक तरफ तो यह हुआ कि जैनों में एक संप्रदाय पैदा हुआ तेरापंथ, जो कहता है, दूसरे के दुख को मिटाने की कोशिश ही मत करना, क्योंकि महावीर कहते हैं, वह अपना दुख भोग रहा है।  इसलिए तेरापंथ ने बड़ी बेहूदी धारणाएं विकसित कीं, बेहूदी से बेहूदी, जो धर्म के इतिहास में पैदा हो सकती हैं।  अगर कोई आदमी भूखा मर रहा है, तो तुम उसमें बाधा मत डालना।  वह अपन कर्मों का फल भोग रहा है।  कोई आदमी बीमार है; कोढ़ से सड़ रहा है, तुम सेवा में मत पड़ना  क्योंकि तुम क्या कर सकते हो! वह अपना कर्म-फल भोग रहा है।
बात बिलकुल सच है।  वह अपना कर्म-फल भोग रहा है।  तुम क्या कर सकते हो! और यह भी संभावना है कि तुम उसके कर्म-फल के बीच में व्यवधान बन जाओ और उसको ठीक से कर्म-फल न भोगने दो; तो जो वह अभी भोग लेता, वह उसे कल भोगना पड़े जब तुम हट जाओगे।  इसलिए तुम चुपचाप अपने रास्ते पर चलना।  प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर से जी रहा है, तुम बीच में बाधा मत डालना।
इसलिए तेरापंथ ने अहिंसा के नाम पर एक बड़ा हिंसक रुख पैदा किया।  बात तो बिलकुल तर्कयुक्त है कि अगर हर व्यक्ति अपने ही कर्म भोग रहा है, तो आप कौन हैं? और आप क्या कर सकते है? तो करने की फिजूल झंझट में क्यों पड़ते हैं? इतनी शक्ति और श्रम अपनी ही साधना में लगायें; दूसरे की तरफ उन्मुख मत हों।
तो तेरापंथ में सेवा का कोई उपाय नहीं है।  और सेवा करने वाला अज्ञानी है—पापी भी हो सकता है; क्योंकि दूसरे में दखलंदाजी करनी, दूसरे को बाधा डालनी एक तरह का पाप है।
महावीर के तर्क से यह बात निकली है।  दूसरी तरफ ईसाइयत का तर्क है, जो कहती है दूसरे की सेवा करो और दूसरे को सुखी करने की कोशिश करो।  तुम सुखी कर सकते हो। वह भी गलत है।  आज तक दुनिया में कोई किसी को सुखी नहीं कर पाया।  अकसर तो यह भी हो जाता है कि सुखी करने की कोशिश में आप किसी को और दुखी कर देते हैं।  और कोई किसी का दुख भी नहीं छीन सकता, क्योंकि दुख आते हैं भीतरी कारणों से।  बाहर कोई उपाय नहीं है।
लेकिन ध्यान रहे, ईसाइयत की इस धारणा में एक खतरा और भी छिपा है।  और वह यह कि अगर मुझे यह खयाल आ जाये कि मैं अपने कर्मों से किसी को सुखी कर सकता हूं और किसी को दुखी कर सकता हूं, तो इसी का अनुसांगिक तर्क भी है कि दूसरे अपने कर्मों से मुझे सुखी और दुखी कर सकते हैं।  तब सारी बात अस्त-व्यस्त हो जायेगी।  क्योंकि अगर दूसरे मुझे सुखी और दुखी कर सकते हैं, तो मेरे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है।  अगर मोक्ष में भी आप पहुंच जायें और मुझे दुखी करने लगें, तो मैं क्या करूंगा? और मोक्ष में भी तो कुछ लोग होंगे ही, जो सेवा भी करना चाहेंगे।  क्या करूंगा मैं?
महावीर का तर्क बहुत शुद्ध है।  महावीर कहते हैं, दूसरा कुछ भी नहीं कर सकता, यह तुम्हारी मुक्ति का आधार है।  तो ही आत्मा मुक्त हो सकती है, अगर दूसरा बिलकुल असमर्थ है कुछ करने में।  नहीं तो आत्मा के मुक्त होने का कोई उपाय नहीं।  इसलिए महावीर ने ईश्वर को भी अलग हटा दिया अपनी धारणा से और कहा कि अगर ईश्वर है तो मुक्ति का कोई उपाय नहीं है।
लोग सोचते हैं कि ईश्वर के बिना मुक्ति कैसे होगी! और महावीर कहते हैं कि अगर ईश्वर है तो मुक्ति का कोई उपाय नहीं है।  क्योंकि वह गड़बड़ कर सकता है।  वह परम शक्तिशाली है।  उसी ने तुम्हें बनाया, वह तुम्हें मिटा सकता है।  वह तुम्हें गुलाम कर सकता है।  वह तुम्हें मुक्त कर सकता है।  उसकी प्रार्थना-पूजा से तुम मुक्त हो सकते हो, तो फिर मुक्ति का कोई अर्थ नहीं।  जो मोक्ष प्रार्थना से मिल सकता है, वह मोक्ष नहीं है—हो नहीं सकता।  क्योंकि कोई दूसरा जिसे दे रहा है, वह मेरी मुक्ति नहीं है।  और जब दूसरा दे सकता है, तो दूसरा वापस भी ले सकता है।
इसलिए महावीर ने कहा, जब तक ईश्वर की धारणा है, तब तक जगत में मोक्ष का कोई उपाय नहीं है।  इसलिए ईश्वर को अलग कर दिया बिलकुल, और प्रत्येक व्यक्ति को आंतरिक रूप से नियंता घोषित किया कि तुम जो भी कर रहे हो, जो भी भोग रहे हो, जो भी पा रहे हो, नहीं पा रहे हो—तुम ही कारण हो।
व्यक्ति मूल कारण है अपने जीवन का, बाकी सब निमित्त हैं।  लेकिन इसका यह अर्थ नहीं जैसा तेरापंथ ने लिया है।  जिन्होंने तेरापंथ की धारणा विकसित की, वे जरूर वे ही लोग होंगे, जो महावीर को ठीक से नहीं समझ पा रहे हैं।
दूसरे की सेवा करने का भाव, दूसरे को सुख में ले जाएगा ऐसा नहीं है; लेकिन तुम्हारा श्रम तुम्हें सुख में ले जायेगा।  दूसरे को दुखी करने से दूसरा दुखी होगा—ऐसा नहीं, लेकिन दूसरे को दुखी करने की वासना स्वयं का दुख निर्मित करती है।
कृष्ण ने गीता में कहा है कि आत्मा मरती नहीं।  तो अर्जुन को कहा है कि तू मार बेफिक्री से, क्योंकि कोई आत्मा मरती नहीं।  इसलिए अहिंसा का और हिंसा का कोई सवाल ही नहीं उठता।  महावीर भी कहते हैं, आत्मा मरती नहीं; कोई मार सकता नहीं।  पर महावीर हिंसा-अहिंसा का बड़ा सवाल उठाते हैं।
कृष्ण की दलील समझने जैसी है।  कृष्ण कहते हैं, जब कोई मारा ही नहीं जा सकता, तो लोगों को यह समझाना कि मत मारो, मूढ़तापूर्ण है।  जब मारने का कोई उपाय ही नहीं है, तो यह कहने का क्या अर्थ है कि मत मारो! और अगर कोई नहीं भी मार रहा है तो कौन-सा गुण उपलब्ध कर रहा है।  क्योंकि मार सकता कहां है? जब हम एक आदमी को काटते हैं, तो शरीर ही कटता है।  वह मरा ही हुआ है।  उसको मारने का कोई उपाय नहीं है।  आत्मा कटती नहीं।
कृष्ण कहते हैं: न हन्यमाने शरीरे—काटो कितना ही, तो भी कटती नहीं।  छेदो तो छिदती नहीं।  जलाओ तो जलती नहीं।  तर्क कृष्ण का बहुत साफ है कि जब कोई मारने से मरता ही नहीं, मारा नहीं जाता, तो अर्जुन, तू फिजूल की बकवास में क्यों पड़ा है कि लोग मर जायेंगे? यह अज्ञान है।
बड़ा कठिन है।  महावीर भी जानते हैं कि आत्मा मरती नहीं; आत्मा मिट नहीं सकती।  सच तो यह है कि कृष्ण से भी ज्यादा महावीर का मानना है कि आत्मा को मिटाने का कोई उपाय नहीं है।  क्योंकि कृष्ण तो कहते हैं, परमात्मा की लीला है कि वह बनाता है और चाहे तो मिटा सकता है।  महावीर के लिए तो कोई मिटानेवाला भी नहीं है।  परमात्मा भी नहीं है।  आदमी की तो सामर्थ्य नहीं है।
आत्मा को न कोई पैदा करता है, और न कोई मिटा सकता है।  आत्मा शाश्वत है; अमृतत्व उसका गुण है।  फिर भी महावीर कहते हैं—हिंसा और अहिंसा।  तो समझ लें इस संदर्भ में।
महावीर कहते हैं कि जब तुम हिंसा करते हो, तो तुम दूसरे को नहीं मारते, लेकिन हिंसा के भाव से खुद के लिए दुख पैदा करते हो।  तुम मारने की धारणा बनाते हो, उस धारणा से ही तुम पीड़ित होते हो।  दूसरे के मरने से पाप नहीं होगा।  क्योंकि दूसरा मर नहीं सकता।  लेकिन तुमने पाप करना चाहा।  तुम पाप के विचार से भरे।  तुमने दूसरे को नुकसान पहुंचाना चाहा; उसका जीवन छीन लेना चाहा।  तुम नहीं छीन पाते।  यह तुम्हारे हाथ की बात नहीं है।  यह जगत का नियम है।  लेकिन तुमने अपनी पूरी कोशिश की।  उस कोशिश, उस विचार, उस भावना, उस वासना, उस दुष्ट वासना के कारण तुम अपने लिए दुख पैदा करोगे।  हिंसा दुख लायेगी—दूसरे के लिए मृत्यु नहीं, तुम्हारे लिए दुख।  अहिंसा दूसरे को बचायेगी नहीं, क्योंकि दूसरा बचा हुआ है अपने आंतरिक जीवन से।  कोई उसे बचा नहीं सकता।  लेकिन दूसरे को बचाने की धारणा तुम्हारे जीवन में सुख के फूल खिलायेगी
महावीर कहते हैं, तुम जो भी करते हो, वह तुम्हीं को हो रहा है; और निरंतर तुम्हीं को होता चला जाता है।  तो दूसरे कैसे हैं—अच्छे या बुरे—इसका विचार नहीं करना।  अच्छे हैं तो अपने कारण; बुरे हैं तो अपने कारण।  यह उनकी निजी बात है।  इससे दूसरों को कोई लेना-देना नहीं है।  वे नर्क जायेंगे कि स्वर्ग जायेंगे, यह उनकी चिंता है।  इसमें दूसरों को चिंता लेने का कोई कारण नहीं है।
जो दूसरों की चिंता छोड़कर अपने सुधार की चिंता करता है।
हम सारे लोग बड़े सुधारक हैं।  हम जैसा सुधारक खोजना मुश्किल है।  हम सारे जगत को भी सुधारने में लगे रहते हैं—सिर्फ अपने को छोड़कर।  और अपने को सुधारने का कोई सवाल ही नहीं है।  क्योंकि वहां हम सोचते हैं, सुधरे ही हुए हैं।  सारा जगत बिगड़ा हुआ मालूम पड़ता है।  इसलिए सुधारो  इसलिए सुधार करनेवाले लोग जितना मिसचीफ पैदा करते हैं दुनिया में, कोई दूसरा पैदा नहीं करता।  ये असली उपद्रवी हैं।  ये किसी को चैन से नहीं रहने देते।  ये सभी को बदलने में लगे हैं।  ये हर हालत में बदल के रहेंगे।  इनका रस सचमुच बदलने में नहीं है कि कोई अच्छी दुनिया पैदा हो।  इनका रस बदलने की प्रक्रिया में है।  क्योंकि जब ये बदलते हैं किसी को, तो तोड़ते हैं; मिटाते हैं; नया करते हैं।  दूसरा खिलौना हो जाता है, ये मालिक हो जाते हैं।
असल में दूसरों को बदलने के लिए जो बहुत आतुर हैं, वे हिंसक हैं।  जो अपने को बदलने को आतुर हैं, वे साधु हैं।  और बड़े मजे की बात यह है कि जो अपने को बदल लेता है, उसके पास बहुत-से लोग बदलना शुरू हो जाते हैं।  और जो दूसरे को बदलना चाहता है, उसके पास कोई नहीं बदलता।  साधुओं के आश्रम में जाकर देखें, जहां बदलने की भयंकर चेष्टा चलती है।  वहां कोई बदलता दिखाई नहीं पड़ता।
गांधी जी अपने आश्रम में ब्रह्मचर्य को बड़े जोर से थोपते थे।  लेकिन रोज उपद्रव खड़ा होता था।  ब्रह्मचर्य कभी फलित नहीं हुआ।  खुद उनके निजी, प्राइवेट सेक्रेटरी प्यारेलाल उलझ गये।  ब्रह्मचर्य मुश्किल था।  और गांधी की चेष्टा भारी थी।  जितने जोर से थोपा जा सके ब्रह्मचर्य, उतना थोप देना।  लेकिन वह हुआ नहीं।  और गांधी ने जो-जो थोपना चाहा अपने शिष्यों पर, शिष्य ठीक उसके विपरीत चले गये।  इधर पिछले तीस साल का इतिहास कहता है।  जो-जो उन्होंने चाहा था, शिष्य उसके उलटे गये—सादगी चाही थी, तो भोग पैदा हुआ; चाहा था दीन-दरिद्र, संन्यस्त की तरह रहें, वह नहीं को सका।  ब्रह्मचर्य का तो कोई सवाल ही नहीं है।
कहां भूल है?
दूसरे को बदला नहीं जा सकता।  असल में जब हम बदलने की बहुत कोशिश करते हैं, तो दूसरे के अहंकार में प्रतिरोध पैदा होता है, रेजिस्टेन्स पैदा होता है।
मनसविद कहते हैं कि दुनिया में अच्छे बच्चे पैदा हो सकते हैं, अगर मां-बाप अच्छा बनाने की थोड़ी कोशिश कम करें।  वे इतना अच्छा बनाने की कोशिश करते हैं, कि बच्चों को बिगाड़ देते हैं।  इसलिए अच्छे बाप का अच्छा बेटा पाना बड़ा मुश्किल है—कभी बुरे बाप का अच्छा बेटा हो भी जाये।
एक शराबी का बेटा साधु हो जाये, यह हो सकता है।  साधु का बेटा शराबी न हो, यह जरा मुश्किल है।  बहुत मुश्किल है।  खुद महात्मा गांधी का बेटा, हरिदास, ठीक उलटा गया।  और हरिदास कीमती आदमी था; और कीमती था इसलिए उलटा गया।  बाकी मिट्टी के थे।  मिट्टी के पुतलों को आप कैसा भी बना दें, ढाल दें, वे कुछ इनकार न करेंगे।  लेकिन जिंदगी इनकार करेगी; लड़ेगी, क्योंकि जिंदगी का लक्षण प्रतिरोध है।
हरिदास ने इनकार किया।  तो हरिदास मुसलमान हो गये; शराब पीने लगे।  अपना नाम उन्होंने रख लिया, अब्दुल्ला गांधी।  वह गांधी के विपरीत जा रहा है।  और जाने का कारण गांधी की चेष्टा में है।  गांधी की पूरी चेष्टा है।  गांधी कहते हैं, हिंदू-मुसलमान सब एक हैं।  तो हरिदास हो गया मुसलमान।  और जब उसे पता चला कि गांधी पीड़ित हुए, तो उसने कहा कि पीड़ित होने की क्या बात है? हिंदू-मुसलमान सब एक, तो पीड़ित होने की क्या बात है? और हरिदास शराब पीने लगा।  और गांधी पीड़ित हुए।  बाप पीड़ित होगा ही।  और बाप की बड़ी इच्छा थी कि अच्छा बना ले।  भली इच्छा है।  इच्छा में कुछ बुराई भी नहीं है।  लेकिन विज्ञान का बोध नहीं है। तो हरिदास ने कहा, जब प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है, तो मैं क्या करता हूं, क्या नहीं करता हूं, यह मेरी बात है।  इससे किसी को क्या लेना-देना? और इतनी आसक्ति क्यों रखते हैं मुझ पर वे कि मेरा बेटा है? यह भी ममत्व है।  मेरा बेटा बुरा न हो जाये, इसमें भी अहंकार है।  मेरा बेटा अच्छा हो, इसमें भी अहंकार है।
हरिदास लड़ रहा है एक भले बाप से।  सभी हरिदास लड़ते हैं।  भले बाप खतरनाक होते हैं।  क्योंकि वे भला करने की इतनी चेष्टा करते हैं कि प्रतिरोध पैदाकर देते हैं।
 महावीर कहते हैं, साधु दूसरे को बदलने की चिंता में नहीं पड़ता।  इसका यह मतलब नहीं कि उसकी शुभाकांक्षा नहीं है।  लेकिन महावीर गणित को जानते हैं जीवन के।  शुभाकांक्षा तभी कारगर हो सकती है, जब आक्रमक न हो।  और जब मैं दूसरे को बदलना चाहता हूं, तो मैं आक्रमक हूं; हिंसक हूं।  आखिर दूसरा दूसरा है।  उसकी अपनी निजी जीवन की धारा है।  अगर मुझे कुछ ठीक लगता है तो वैसा मैं हो जाऊं।  अगर मेरे होने से वह आंदोलित और प्रभावित हो तो ठीक, और न हो तो मेरे वश के बाहर है।  फिर मैं हूं कौन? फिर मैं कौन हूं कि किसी को ठीक करने का जिम्मा अपने सिर लूं।  यह अहंकार ही हो सकता है, अच्छे आदमी का अहंकार—कि दूसरे को भी मैं मेरे जैसा बना लूं।  लेकिन क्यों? मेरी अपनी आत्मा है, उसकी अपनी आत्मा है।  और दोनों की अपनी परम सत्ता है। महावीर कहते हैं कि जो अपने को बदलने की फिक्र करता है; जो दूसरों की निंद्य चेष्टा भी हो, उसे लगता भी हो कि बिलकुल गलत हो रहा है, तो भी उसकी निंदा में नहीं पड़ता।
एक ही उपाय है साधु के पास—अनाक्रमक जीवन।  उसके जीवन की ज्योति ऐसी होनी चाहिए कि कोई प्रभावित हो, तो हो जाये। चले गये।  इधर पिछले तीस साल का इतिहास कहता है।  जो-जो उन्होंने चाहा था, शिष्य उसके उलटे गये—सादगी चाही थी, तो भोग पैदा हुआ; चाहा था दीन-दरिद्र, संन्यस्त की तरह रहें, वह नहीं को सका।  ब्रह्मचर्य का तो कोई सवाल ही नहीं है।
कहां भूल है?
दूसरे को बदला नहीं जा सकता।  असल में जब हम बदलने की बहुत कोशिश करते हैं, तो दूसरे के अहंकार में प्रतिरोध पैदा होता है, रेजिस्टेन्स पैदा होता है।
मनसविद कहते हैं कि दुनिया में अच्छे बच्चे पैदा हो सकते हैं, अगर मां-बाप अच्छा बनाने की थोड़ी कोशिश कम करें।  वे इतना अच्छा बनाने की कोशिश करते हैं, कि बच्चों को बिगाड़ देते हैं।  इसलिए अच्छे बाप का अच्छा बेटा पाना बड़ा मुश्किल है—कभी बुरे बाप का अच्छा बेटा हो भी जाये।
एक शराबी का बेटा साधु हो जाये, यह हो सकता है।  साधु का बेटा शराबी न हो, यह जरा मुश्किल है।  बहुत मुश्किल है।  खुद महात्मा गांधी का बेटा, हरिदास, ठीक उलटा गया।  और हरिदास कीमती आदमी था; और कीमती था इसलिए उलटा गया।  बाकी मिट्टी के थे।  मिट्टी के पुतलों को आप कैसा भी बना दें, ढाल दें, वे कुछ इनकार न करेंगे।  लेकिन जिंदगी इनकार करेगी; लड़ेगी, क्योंकि जिंदगी का लक्षण प्रतिरोध है।
हरिदास ने इनकार किया।  तो हरिदास मुसलमान हो गये; शराब पीने लगे।  अपना नाम उन्होंने रख लिया, अब्दुल्ला गांधी।  वह गांधी के विपरीत जा रहा है।  और जाने का कारण गांधी की चेष्टा में है।  गांधी की पूरी चेष्टा है।  गांधी कहते हैं, हिंदू-मुसलमान सब एक हैं।  तो हरिदास हो गया मुसलमान।  और जब उसे पता चला कि गांधी पीड़ित हुए, तो उसने कहा कि पीड़ित होने की क्या बात है? हिंदू-मुसलमान सब एक, तो पीड़ित होने की क्या बात है? और हरिदास शराब पीने लगा।  और गांधी पीड़ित हुए।  बाप पीड़ित होगा ही।  और बाप की बड़ी इच्छा थी कि अच्छा बना ले।  भली इच्छा है।  इच्छा में कुछ बुराई भी नहीं है।  लेकिन विज्ञान का बोध नहीं है। तो हरिदास ने कहा, जब प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है, तो मैं क्या करता हूं, क्या नहीं करता हूं, यह मेरी बात है।  इससे किसी को क्या लेना-देना? और इतनी आसक्ति क्यों रखते हैं मुझ पर वे कि मेरा बेटा है? यह भी ममत्व है।  मेरा बेटा बुरा न हो जाये, इसमें भी अहंकार है।  मेरा बेटा अच्छा हो, इसमें भी अहंकार है।
हरिदास लड़ रहा है एक भले बाप से।  सभी हरिदास लड़ते हैं।  भले बाप खतरनाक होते हैं।  क्योंकि वे भला करने की इतनी चेष्टा करते हैं कि प्रतिरोध पैदाकर देते हैं।
 महावीर कहते हैं, साधु दूसरे को बदलने की चिंता में नहीं पड़ता।  इसका यह मतलब नहीं कि उसकी शुभाकांक्षा नहीं है।  लेकिन महावीर गणित को जानते हैं जीवन के।  शुभाकांक्षा तभी कारगर हो सकती है, जब आक्रमक न हो।  और जब मैं दूसरे को बदलना चाहता हूं, तो मैं आक्रमक हूं; हिंसक हूं।  आखिर दूसरा दूसरा है।  उसकी अपनी निजी जीवन की धारा है।  अगर मुझे कुछ ठीक लगता है तो वैसा मैं हो जाऊं।  अगर मेरे होने से वह आंदोलित और प्रभावित हो तो ठीक, और न हो तो मेरे वश के बाहर है।  फिर मैं हूं कौन? फिर मैं कौन हूं कि किसी को ठीक करने का जिम्मा अपने सिर लूं।  यह अहंकार ही हो सकता है, अच्छे आदमी का अहंकार—कि दूसरे को भी मैं मेरे जैसा बना लूं।  लेकिन क्यों? मेरी अपनी आत्मा है, उसकी अपनी आत्मा है।  और दोनों की अपनी परम सत्ता है। महावीर कहते हैं कि जो अपने को बदलने की फिक्र करता है; जो दूसरों की निंद्य चेष्टा भी हो, उसे लगता भी हो कि बिलकुल गलत हो रहा है, तो भी उसकी निंदा में नहीं पड़ता।
एक ही उपाय है साधु के पास—अनाक्रमक जीवन।  उसके जीवन की ज्योति ऐसी होनी चाहिए कि कोई प्रभावित हो, तो हो जाये।
और कोई पतंगे होंगे ज्योति के तो चले आयेंगे ज्योति की तरफ।  और कोई ज्योति फिरे पतंगों के पीछे उनको पकड़ने को, तो पतंगे कोई आते भी होंगे, फिर दुबारा नहीं आयेंगे।  क्योंकि ऐसी ज्योति भरोसे की नहीं है, जो पतंगों का पीछा कर रही है कि आओ।  ज्योति का मतलब ही यह है कि वह है तो पतंगे आ जायेंगे।
ज्योति की तरह अनाक्रमक, अनाग्रह से जीता हुआ, अपने को बदलता हुआ, अपने को रूपांतरित करता हुआ व्यक्ति साधु है।
"जो अपने आपको उग्र तप और त्याग आदि के गर्व से उद्धत नहीं बनाता, वही भिक्षु है।
यह शर्त ध्यान रखना जरूरी है, क्योंकि गर्व सब तरह से उद्धत होना चाहता है; कई उपाय खोजता है।  मैं त्यागी हूं; मैं भोगी नहीं हूं; मैं ध्यानी हूं; मैं समाधिस्थ हो गया—ये सारे जाल हैं जो अहंकार भीतर की तरफ फैलाता है।  बाहर की संपदा छोड़ दी, तो अब भीतर की संपदा पैदा हो रही है।  बाहर के खजाने छोड़ दिये, तो अब भीतर के खजाने पैदा हो रहे हैं।
साधकों के पास जायें, तो वे सब फिक्र रखते हैं कि कौन किस चक्र तक जाग गया।  किसकी कुंडलिनी कितनी जागृत हुई—सहस्रार तक पहुंची या नहीं पहुंची।  वे सब हिसाब रखते हैं।  एक दूसरे से सर्टिफिकेट मांग रहे हैं कि मैं कहां तक पहुंच गया।  सिद्ध हो गया कि नहीं हो गया? क्या प्रयोजन है?
अस्मिता को निर्मित करना ही असाधुता है।  वह किस कारण निर्मित होती है, यह सवाल नहीं है।  उसे निर्मित होने देना कि मैं कुछ हूं, दूसरों से खास, दूसरों से ऊपर।
बस, मेरा खास होना ही रोग है।  और यह रोग सूक्ष्म है।  यह दिखाई नहीं पड़ता, और बढ़ता चला जाता है।  और जैसे-जैसे दूसरे लोग आदर देने लगते हैं, वैसे-वैसे पक्का होने लगता है कि बात ठीक ही है, तभी तो लोग आदर दे रहे हैं।  लोग चरणों पर सिर रख रहे हैं—कुछ हो गया है तभी तो।  जरूरी नहीं है।  कई लोगों की जरूरत है कि वे चरणों पर सिर रखे।  उन्हें बिना रखे चैन नहीं है।  कुछ लोग हैं जिन्हें झुकने में रस है।  उन्हें बिना झुके आनंद नहीं आता।  आप इसकी फिकर मत करें कि वे आपके लिए झुक रहे हैं।  आप यही जानें कि उनको झुकने में कुछ रस होगा; कोई व्यायाम होगा।  वे अपने लिए झुक रहे हैं।  यह उनकी अपनी निजी बात है, मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है।
लेकिन वहम पैदा होता है।  वहम पैदा हो जाता है, क्योंकि चारों तरफ हजार तरह की बीमारियों से भरे हुए लोग हैं।  वे साधु को उद्धत कर देते हैं।  और एक दफा अहंकार निर्मित होने लगे, तो फिर उसकी कोई सीमा नहीं है।  फिर बढ़ता चला जाता है।  जैसे-जैसे भरोसा बढ़ने लगता है कि लोग झुक रहे हैं, लोग आदर दे रहे हैं, जरूर मैं कुछ हूं, वैसे-वैसे कठिनाई शुरू हो जाती है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक यात्री के साथ ट्रेन में बैठा हुआ था।  कुछ बात चलाने के सिलसिले में उसने पूछा कि जरा आपका हाथ देखूं।  आदमी उत्सुक हो गया।
हाथ दिखाने को सभी उत्सुक हैं।  ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो भविष्य में उत्सुक न हो।  भविष्य में वही उत्सुक नहीं होगा, जिसकी कोई वासना नहीं है।  जिसकी वासना है, वह भविष्य में उत्सुक होगा ही।  इसलिए हाथ देखने से सुविधापूर्ण मित्रता का उपाय और नहीं है।
मुल्ला ने हाथ गौर से देखा और उस आदमी का चेहरा देखा, और कहा कि मालूम होता है, यू आर ए बैचलर—आप ब्रह्मचारी हैं।
वह आदमी चकित हुआ।  उसने कहा, "अमेजिंग! यह सच है कि मैं अभी तक ब्रह्मचारी हूं।  तुमने कैसे पता लगाया?'
नसरुद्दीन की हिम्मत बढ़ी।  उसने कहा कि पता? मनुष्य-स्वभाव का मुझे अनुभव है।  और यहीं तक नहीं, आइ कैन सी इवन फरदर, योर फादर वाज आल्सोबैचलर—यह कुछ नहीं है, आगे तक देख सकता हूं कि तुम्हारा बाप भी ब्रह्मचारी था।
जरा-सी हिम्मत बढ़ी कि आदमी ने उपद्रव शुरू किया।  और चारों तरफ लोग हैं, जो आपकी हिम्मत बढ़ाने को तैयार हैं।  आप उनसे सावधान रहना।  महावीर यही कह रहे हैं।  वे यह कह रहे हैं: साधु, सावधान रहना दूसरे लोगों से, क्योंकि वे अपनी बीमारियों से पीड़ित हैं।
कोई झुकना चाहता है।  ढेर लोग हैं, जो इनफिरियारिटी काम्प्लेक्स से पीड़ित हैं—जिनको हीनता की ग्रंथि है।  जो सीधे खड़े हो ही नहीं सकते।  जिनको सीधा खड़ा होने में डर लगता है।  तो उन्होंने एक डिफेंस मेजर, एक सुरक्षा का उपाय बना लिया है—झुको।  झुकने से दूसरा आदमी आक्रमण नहीं करता।  क्योंकि जैसे ही कोई आदमी झुक गया, दूसरे को आक्रमण करने का मजा ही चला गया।
तो कुछ लोग झुके हुए ही जी रहे हैं।  उनका झुका हुआ होना उनकी बीमारी है।  साधु-संन्यासियों को वे मिल जाते हैं।  जगह-जगह वे मौजूद हैं।  एकदम झुक जाते हैं।  फिर कुछ लोगों में अपराध का भाव है, गिल्ट काम्प्लेक्स है, जो अपने को अपराधी मानते हैं।  अकारण भी नहीं, जीवन में बहुत अपराध हैं।  आदमी अपराधों से भरा हुआ है।
तो अपराधी आदमी हमेशा अपने को झुकाना चाहता है।  झुकना एक तरह का कन्फेशन है, एक तरह की स्वीकृति है कि मैं अपराधी हूं; पापी हूं।  लेकिन दूसरा आदमी इससे गौरवांवित समझता है।  वह समझता है कि जो आदमी झुक रहा है, वह यह कह रहा है कि तुम ऊपर हो, इसलिए मैं झुक रहा हूं।
यह आदमी झाड़ के नीचे झुकता है।  यह आदमी पत्थर के सामने झुकता है।  यह आदमी नदी के सामने झुकता है।  इसका भरोसा मत करना।  इसे कुछ प्रयोजन आपसे नहीं है।  यह झुकने के बहाने, निमित्त खोजता है।  यह किसी को आदर देना चाहता है, क्योंकि यह अपने को आदर नहीं दे पाता।  और आदर की एक भूख रह जाती है।  किसी को सम्मान देना चाहता है, क्योंकि अपने प्रति सम्मानित नहीं है।
साधु अपना त्याग, अपनी साधना, तप, इनके कारण उद्धत न हो जाये; अहंकार पोषित न करे; विनम्र बना रहे।  विनम्र का मतलब, न-कुछ बना रहे।  कुछ भी उसके चारों तरफ होता रहे, वह कभी भी अपने को किसी से श्रेष्ठता की स्थिति में न रखे।
"जो जाति का, रूप का, लाभ का, श्रुत (पांडित्य) का अभिमान नहीं करता; जो सभी प्रकार के अभिमानों का परित्याग कर केवल धर्म में, ध्यान में रत रहता है, वही भिक्षु है।
"जो महामुनि सद्धर्म का उपदेश करता है; जो स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को भी धर्म में स्थित करता है; जो घर-गृहस्थी के प्रपंच से निकलकर सदा के लिए कुशील लिंग (निन्द्यवेश) को छोड़ देता है; जो किसी के साथ हंसी-ठट्ठा नहीं करता, वही भिक्षु है।
यहां कुछ बड़ी कीमती और सूक्ष्म बातें हैं।  जो व्यक्ति अहंकार से भरा है, वह ध्यान न कर पायेगा।  उसकी चिंतना सदा अहंकार के आस-पास ही घूमती रहेगी।  वह सोचेगा और सिंहासनों के लिए, और पदों के लिए, और प्रतिष्ठा के लिए।  उसका चित्त अहंकार की ही बढ़तीअहंकार की ही सीढ़ियां गिनने में लगा रहेगा।  ध्यान में तो वही व्यक्ति प्रविष्ट हो सकता है, जिसने अहंकार की सीढ़ियां तोड़ दी हैं; जिसको अब अहंकार की यात्रा नहीं है; जिसका अहंकार का पथ बंद हो गया, और जिसने कहा, इस ओर जाना नहीं है।
अहंकार में जाने का अर्थ है बाहर जाना।  क्योंकि अहंकार की तृप्ति दूसरे कर सकते हैं।
ध्यान रहे, अगर आप जंगल में अकेले हैं, तो अहंकार की तृप्ति नहीं हो सकती।  अहंकार की तृप्ति के लिए दूसरा चाहिए।  इसलिए अहंकार बंधन है।  क्योंकि दूसरे के बिना हो ही नहीं सकता।  अहंकार गुलामी है, क्योंकि दूसरे पर निर्भर होना पड़ता है—दूसरे की आंख, दूसरे का इशारा, दूसरे का ढंग, दूसरे की बात।  इसलिए साधु चिंतित रहता है—जिसको हम साधु कहते हैं।  महावीर उसे साधु नहीं कहते।  जिसको हम साधु कहते हैं, वह चिंतित रहता है कि आपको उसकी किसी बात में गलती तो नहीं लग रही है, कुछ पता तो नहीं चल रहा है; आप ऐसा तो नहीं सोचेंगे, वैसा तो नहीं सोचेंगे।
एक तेरापंथी साधु मेरे पास ध्यान करने आये।  तो मैंने उनसे कहा कि श्वास काफी तेज लेनी होगी, आप यह मुंह-पट्टी निकालकर ध्यान करें।  तो उन्होंने कहा, निकाल तो लूंगा लेकिन आप किसी को बताना मत।  मुंह-पट्टी तो उन्होंने मजे से निकाल दी।  उन्हें कोई अड़चन भी नहीं हुई निकालने में।  खुद भी अड़चन हो, तो मेरी समझ में आती है बात।  उन्होंने कहा, मेरी निजी अनुभूति यह है कि मुंह-पट्टी निकालनी मुझे सहायता दे रही है, लेकिन चिंता सिर्फ इतनी है कि किसी को पता न चले।
किसी को पता न चले, यह असाधु की चिंता है।  साधु को दूसरे से प्रयोजन नहीं है।  दूसरा निंदा ही करेगा।  दूसरा सम्मान नहीं देगा।  दूसरा सिर नहीं झुकायेगा  पर उसे झुकाने की जरूरत ही कहां है? प्रयोजन ही नहीं है।  साधु की चिंता नहीं है कि दूसरा क्या कहेगा।  पब्लिक ओपिनियन असाधु की चिंता है।  राजनैतिक नेता चिंता करे कि दूसरे क्या कहेंगे—समझ में आता है।  क्योंकि सारी जिंदगी दूसरे पर निर्भर है; उसके वोट पर सारी आत्मा टिकी है।  लेकिन साधु को दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है।  लेकिन हम देखते हैं, जिसे हम साधु कहते हैं, उसे भी दूसरे से प्रयोजन है।  वह भी राजनीति का ही हिस्सा है।  धर्म से उसका कोई लेना-देना नहीं रहा है।
महावीर कहते हैं, जो अभिमान, अहंकार, दूसरों की धारणा को छोड़ देता
है, वही ध्यान की तरफ लीन हो सकता है।  क्योंकि अहंकार ले जाता है बाहर, दूसरे के पास; ध्यान ले जाता है भीतर, अपने पास।  साधु वही है, जो ध्यान में लीन है।  असाधु वही है, जो अभिमान में लीन है।  ध्यान और अभिमान विपरीत आयाम हैं।
"जो महामुनि आर्यपद का उपदेश करता है, सद्धर्म का उपदेश करता है।
और महावीर सद्धर्म किसे कहते हैं? महावीर सद्धर्म उसे कहते हैं, जो स्वयं अनुभूत है।  अन्यथा पांडित्य है।  अन्यथा उधार है, बासा है।
सत्य बासा नहीं हो सकता।  सत्य उधार नहीं हो सकता।  और अगर उधार है, तो सत्य नहीं होगा।  आप गीता कंठस्थ कर ले सकते हैं, लेकिन आप गीता को कंठस्थ करके जो लोगों को उपदेश देंगे, वह सद्धर्म नहीं होगा—जब तक आप कृष्ण न हो जायें।  जब तक गीता आपसे सहज-स्फूर्त न होने लगे, तब सद्धर्म होगा।  सदगुरु जहां नहीं है, वहां सद्धर्म नहीं हो सकता।
तो साधु का लक्षण है कि उधार को न समझाये; बासे को न समझाये; पिटे-पिटाये को न समझाये; कचरे को न समझाये  वह कचरा कभी बहुमूल्य रहा होगा—कभी, जब पहली दफे जन्मा था।  लेकिन हमारी हालतें ऐसी हैं
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन हर सर्दियों में वहीं कोट पहनता है।  ऐसा लोग पचास साल से देख रहे हैं।  वह कोट इतना गंदा गया है, उससे ऐसी बास आती है।  थेगड़े निकल गये हैं।  बिलकुल खंडहर है कोट के नाम पर।  आखिर एक दिन एक मित्र ने कहा कि नसरुद्दीन, तुम्हारे बाप को भी हमने देखा है।  क्या शानदार आदमी थे! क्या कपड़े पहनते थे! दूर-दूर से कपड़े मंगवाते थे! और तुम यह कोट ही पहन रहे हो?
नसरुद्दीन ने कहा कि लो, यह वही कोट तो है जो मेरे बाप पहनते थे!
महावीर जब कुछ कहते हैं तो वह जीवित है।  जब जैन पंडित दोहराता है, तो मुर्दा है—वही कोट है, माना।
महावीर कहते हैं, सद्धर्म का उपदेश करता है साधु।  सद्धर्म से अर्थ है—जिसे जाना हो, जीया हो; जो जीवंत हो गया हो; जो सत्य बन गया स्वयं के लिए।  जो स्वयं के लिए सत्य नहीं है, वह दूसरे के लिए सत्य कैसे हो सकता है? जो मेरे लिए बासा है, वह आपके लिए और भी बासा हो गया।  एक हाथ और चल गया।  लोग दूसरे के जूते में पैर डालना पसंद नहीं करते! उधार जूता कौन पहनना पसंद करेगा? लेकिन लोग दूसरे की आत्माएं पहन लेते हैं।  जूते तक से डरते हैं, लेकिन आत्माएं पहन लेने में उन्हें कठिनाई नहीं होती।
साधु नहीं पहनेगा।  साधु खोज करेगा।  और निश्चित ही जब कोई अपने भीतर धर्म की लकीर की खोज कर लेता है, वह वही होगी जो महावीर की है, बुद्ध की है, कृष्ण की है।  उसमें कोई भेद नहीं होनेवाला है।  लेकिन वह खोज अपनी होनी चाहिए।
हम सब ऐसे हैं, जैसे छोटे बच्चे हों।  उनकी गणित की किताब होती है, पीछे उत्तर लिखे होते हैं—जल्दी से किताब उलटाकर पीछे देख लेते हैं।  उत्तर तो हाथ में आ जाता है, लेकिन विधि हाथ में नहीं आने से उत्तर का क्या मूल्य! और बच्चे उत्तर के हिसाब से विधि भी बनाकर लिख देते हैं।  मगर वह हमेशा गलत होती है—होगी ही।  विधि की खोज जरूरी है, उत्तर तो अपने आप आ जाता है।
सद्धर्म का अर्थ हैः जिसने विधिपूर्वक स्वयं की साधना से जाना है; जो उसका ही उपदेश करता है, जो उसने जाना है।
ध्यान रहे, जगत में अधर्म कम हो जाये, अगर वे लोग उपदेश करना बंद कर दें जिन्होंने स्वयं नहीं जाना है।  उनके कारण बड़ा उपद्रव है।  दुनिया में अधर्म अधार्मिक लोगों के कारण नहीं है, मरे-मराये धार्मिक लोगों के कारण है।  जिनके पास कोई जीवन की ज्योति नहीं है; जो भीतर अंधेरे से भरे हैं और जिनकी चर्चा में प्रकाश के शब्द तैरते रहते हैं; जिनके भीतर मृत्यु है और अमृत की बात करते हैं, उनसे अधर्म चलता है—अधार्मिक लोगों से नहीं चलता, झूठे धार्मिक लोगों से चलता है।
जो स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थित करता है—वह शर्त है, "जो घर-गृहस्थी के प्रपंच से निकलकर सदा के लिए कुशील लिंग को छोड़ देता है' यह कुशील लिंग महावीर की समझने-जैसी बात है।  महावीर कहते हैं कि तुम जो भी पहनते हो वेश-भूषा, वह अकारण नहीं है।  तुम्हारा प्रयोजन है; भीतर वासना है उससे।
एक वेश्या निकलती है सड़क पर, उसके कपड़े आमंत्रण देते हुए हैं।  वह अपने शरीर को बेचने निकली है; शरीर को ढांकती नहीं कपड़ों से, उघाड़ती है।  उसके कपड़े ढांकने का काम नहीं करते, प्रगट करने का काम करते हैं; शरीर को उछालते हैं।  वेश्या वैसे चले, समझ में आता है।  लेकिन एक स्त्री जो कहती है, मैं अपने पति के लिए ही हूं और सिवा मेरे पति के मेरे मन में कोई भी नहीं, वह भी वेश्या की तरह शरीर को उभार कर सड़क पर चलती है, तो समझने में अड़चन मालूम होती है।
क्योंकि वेश्या बाजार में खड़ी है, उसे ग्राहक को आमंत्रित करना है।  यह गृहिणी क्यों बाजार में वेश्या की तरह खड़ी है? कहीं अनजाने में, अचेतन में यह भी वेश्या है।  इसका पति के साथ, एक के साथ संबंध ऊपरी है; ऊपर-ऊपर है; चेतन में है, अचेतन में नहीं है अचेतन में ये अभी भी दूसरे पुरुषों में उत्सुक है।  दूसरे पुरुष आकर्षित हों तो इसे अच्छा लगता है।  इसकी चाल तेज हो जाती है।  कोई इसमें आकर्षित न हो तो यह धीमी हो जाती है।  दूसरों का निमंत्रण इसके भीतर कहीं छिपा है।
महावीर कहते हैं, हम जो भी पहनते हैं, जिस ढंग से उठते-बैठते हैं, उस सब में हमारी वासना भीतर काम करती है।  तो महावीर उस वेश को कुशील लिंग कहते हैं।  जिससे शील पैदा न होता हो।
तो वस्त्र भी ऐसे हों, जो न तो खुद में वासना जगाते हों और न दूसरे में वासना जगाते हों।  उठना-बैठना भी ऐसा हो, जो शरीर को उभारता न हो; आत्मा को प्रगट करता हो।  लेकिन वासना से भरा हुआ चित्त जानता भी नहीं—अनजाने सब चलता है।
फ्रायड ने काफी विश्लेषण किया है।  फ्रायड तो कहता है, हमारी कारें, लंबी कारें; फैलिक हैं।  जननेंद्रिय के प्रतीक हैं—कि जब कोई लंबी कार, जो जननेंद्रिय की तरह लंबी है, उसमें तेजी से चलता है, तो वह वही आनंद अनुभव करता है, जो पुरुष स्त्री से संभोग में करता है।
यह बड़े मजे की बात है कि नपुंसक लोग गाड़ियां बड़ी तेजी से चलाना
पसंद करते हैं।  फ्रायड के जीवनभर के अनुभवों का सार यह है कि चूंकि नपुंसक के पास अपनी कामेंद्रिय नहीं है, वह किसी प्रतीक कामेंद्रिय के साथ जीना शुरू कर देता है।  तो पश्चिम में कारें इतनी ज्यादा महत्वपूर्ण होती चली जाती हैं कि आदमी अपनी स्त्री की उतनी फिक्र नहीं करता, जितनी अपनी कार की देखभाल करता है।  एक दफा स्त्री खो भी जाये, तो दूसरी पा लेना बहुत आसान मालूम होता है।  कार से मनुष्य का ज्यादा निजी संबंध हो गया है।  पशुओं से संबंध हो जाते हैं, वस्तुओं से संबंध हो जाते हैं।  लेकिन हमारी वासना हमारी हर चीज में चलती है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने मनसचिकित्सक के पास गया है, बेचैन है।    और चिकित्सक पूछता है, "तुम्हारी परेशानी क्या है?' नसरुद्दीन कहता है कि क्षमा करें, आप बुरा तो नहीं मानेंगे? और मेरी बहुत निंदा तो नहीं करेंगे? मैं एक घोड़े के प्रेम में पड़ गया हूं।  चिकित्सक ने कहा कि इसमें चिंता की कोई ऐसी बात नहीं है।  बहुत लोग पशुओं से स्नेह-भाव रखते हैं।  मैं खुद ही अपने कुत्ते को बहुत प्रेम करता हूं।  नसरुद्दीन ने कहा, "आप समझे नहीं, आइ लव माइ हार्स वेरी रोमांटिकली, जस्ट लाइक वन वुड लव ए वुमन—मैं ऐसे ही प्रेम करता हूं रोमांस से भरा हुआ, जैसे कोई किसी स्त्री को प्रेम करे।
चिकित्सक थोड़ा-सा चिंतित हुआ।  फिर भी उसने अपना प्रोफेशनल, व्यावसायिक थिर स्थिति बनाये रखी।  और उसने कहा, "यह जो घोड़ा है, नर है या मादा?'
नसरुद्दीन ने कहा, "फीमेल आफकोर्स! व्हाट डू यू थिंक, ऐम आइ फूल?—क्या मैं कोई मूर्ख हूं? मादा ही है!'
घोड़े को प्रेम करने में उसे मूर्खता नहीं मालूम पड़ रही है, लेकिन नर घोड़े को प्रेम करने में मूर्खता मालूम पड़ रही है।
गहरा अचेतन कामवासना को, सारे जगत को, दो हिस्सों में बांट देता है—स्त्री और पुरुष—सारे जगत को।  जिन चीजों से आप प्रभावित होते हैं, उनमें कुछ स्त्रैण होता है अगर आप पुरुष हैं।  अगर आप स्त्री हैं, तो उनमें कुछ पुरुषत्तत्व होता है तब आप प्रभावित होते हैं।  पुरुष और स्त्री की पसन्दगियों में विपरीत मौजूद होता है।  हर चीज में मौजूद होता है।  इसलिए पुरुष एक जीप को उतना पसंद नहीं करता, जितना एक सुकोमल, ठीक से ढाली हुई कार को पसंद करता है।  जीप पुरुष जैसी मालूम पड़ती है।  ठीक से ढाली हुई गाड़ी, जिसके अंग गोल हैं, स्त्रैण मालूम पड़ती है।
महावीर कहते हैं कि हमारा प्रत्येक कृत्य हमारी वासनाओं से प्रभावित होता है।  साधु वही है, जो सब भांति कुशील लिंग छोड़ देता है।  जो सब भांति अपने व्यवहार—वस्त्र, उठने-बैठने, भोजन, अपनी पसंदगी, नापसंदगी—हर चीज में से कामवासना के तत्व को अलग कर लेता है; शील के तत्व को स्थापित करता है।
"जो किसी का हंसी-मजाक नहीं करता।
यह थोड़ा समझने जैसा है, क्योंकि फ्रायड ने इस पर बड़ा काम किया।  फ्रायड की खोज यह है कि हम किसी का हंसी-मजाक तभी करते हैं, जब हम परोक्ष रूप से उसे नुकसान पहुंचाना चाहते हैं।  हमारा हंसी-मजाक भी हमारी हिंसा का हिस्सा है।  जो बात आप सीधे नहीं कर सकते किसी से, वह आप मजाक में कहते हैं।  मजाक में क्षमा कर दी जायेगी।  क्योंकि आप कह सकते हैं, "सिर्फ मजाक था, ऐसी कोई बात नहीं थी।  सिर्फ मजाक कर रहा था' क्षम्य हो जायेगा।  अगर सीधा आप कहते हैं तो अक्षम्य हो सकता है; उपद्रव हो सकता है।
हमारा मजाक भी अकारण नहीं होता, उसके पीछे मानसिक कारण होते हैं।  कल ही मुझसे कोई पूछ रहा था कि यूरोप में यहूदियों के संबंध में सबसे ज्यादा मजाक प्रचलित हैं, जैसे भारत में सरदारों के संबंध में ज्यादा प्रचलित हैं।  उस मित्र ने मुझसे पूछा कि ऐसा क्यों है? यहूदियों के संबंध में इतने मजाक क्यों प्रचलित हैं यूरोप में? तो मैंने कहा, उसका कारण है।  यहूदियों में कई क्षमताएं हैं।  और उसने ईष्या पैदा होती है।  और उस ईष्या का बदला मजाक से लिया जाता है।  यहूदी से अगर आप धन में प्रतिस्पर्धा करें—आप जीत न पायेंगे।  अगर यहूदी से आप चालाकी में प्रतिस्पर्धा करें—आप हारेंगे।
पिछले सौ वर्षों में यहूदियों ने सर्वाधिक नोबल प्राइज जीते हैं।  इस सदी के तीन बड़े मस्तिष्क,जो किसी भी सदी के बड़े मस्तिष्क हो सकते हैं—आइनसटीन, फ्रायड और माक्र्स तीनों यहूदी हैं।  यहूदी से ईष्या पैदा होती है। ईष्या का बदला लेने का सीधा कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता।  मजाक से बदला लिया जाता है।
मजाक एक बदला है।  उससे यहूदियों के संबंध में कुछ पता नहीं चलता, जो मजाक कर रहे हैं, उनके संबंध में पता चलता है।  सरदारों से भी कई लोगों को कई तरह की पीड़ा है।  ज्यादा शक्तिशाली भी मालूम पड़ता है।  ज्यादा पुरुषोचित भी मालूम पड़ता है।  जीतने का उपाय भी कम दिखाई पड़ता है।  गुजराती के संबंध में तो कोई मजाक करे! कोई कारण नहीं है।  कारण होने चाहिए।
मजाक हमारा बदला है।  वह हम उससे लेते हैं, जिसके पीछे कोई पीड़ा सरक रही है।  और उस पीड़ा को सीधा हल करने का उपाय नहीं होता, तो हम व्यंग निर्मित करते हैं।
लेकिन साधु, महावीर कहते हैं किसी का हंसी-ठट्ठा नहीं करे।  उसका प्रयोजन क्या है? उसका प्रयोजन यह है कि उसकी किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं है; प्रतियोगिता नहीं है।  इसलिए कोई छिपा हुआ बदला लेने का सवाल भी कहां है! यह महावीर की बड़ी अंतर्दृष्टि है, जो फ्रायड के पहले कोई भी ठीक से पकड़ नहीं पाया।
दुनिया के किसी भी धर्मशास्त्र ने, साधु हंसी-मजाक न करे किसी का, ऐसा नियम नहीं बनाया।  सिर्फ महावीर ने कहा कि साधु किसी से।
जरूर महावीर को बड़ी गहरी प्रतीति है कि आदमी किसी के प्रति जब व्यंग करे तो, करने का कारण भीतर छिपी हुई कोई हिंसा होती है।  आप अपनी ही देखना, जब आप किसी का मजाक करने लगें, तो आप क्या
चाह रहे हैं भीतर? आप उसको किसी तरह नीचे दिखाना चाहते हैं।  और नीचे दिखाने का कोई सीधा रास्ता नहीं पा रहे हैं, इसलिए उलटा रास्ता पकड़ रहे हैं।
साधु अपनी हंसी-मजाक कर सकता है; अपने प्रति व्यंग कर सकता है।  महावीर ने जरूर बर्नार्ड शा को साधु कहा होता।  बर्नार्ड शा एक दिन थियेटर में खड़ा है।  उसका नाटक पूरा हुआ है।  नाटक अदभुत था और सिर्फ एक आदमी को छोड़कर पूरा हाल तालियां बजाया और प्रशंसा के स्वर से स्वागत किया।  तभी वह आदमी खड़ा हुआ
और उसने कहा, "शा, योर प्ले स्टिंग्ससड़ा हुआ है तुम्हारा नाटक, और बदबू आती है।  एक क्षण को सन्नाटा हो गया।  लोग भी चौंक गये कि अब क्या होगा।
शा ने कहा, "आइ कमप्लीटली एग्री विद यू, बट व्हाट वी टू कैन डू अगेंस्ट दिस ग्रेट मेजार्टी—मैं राजी तुमसे पूरी तरह हूं, लेकिन हम दो करेंगे भी क्या इतने लोगों के खिलाफ?'
यह आदमी अपने पर हंस सकता है।  अपने पर वही हंस सकता है, जो इतना आश्वस्त है अपने प्रति।  दूसरे पर हंसने की चेष्टा, दूसरे को किसी तरह व्यंग के माध्यम से गिराने की चेष्टा, क्षुद्र मन का लक्षण है।
"इस भांति अपने को सदैव कल्याण-पथ पर खड़ा रखनेवाला भिक्षु अपवित्र और क्षणभंगुर शरीर में निवास करना हमेशा के लिए छोड़ देता है तथा जन्म-मरण के बंधनों को सर्वथा काटकर अ-पुनरागमन-गति (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है।
जहां से वापिस नहीं लौटा जा सकता—प्वाइंट आफ नो रिटर्न—उस स्थिति को उपलब्ध हो जाता है, जहां से वापिस गिरना नहीं है।  ऐसी जीवन-चर्या में जीने वाला व्यक्ति धीरे-धीरे शरीर से भिन्न होने लगता है।  उसे स्पष्ट होने लगता है कि मैं शरीर नहीं हूं, और चैतन्य के साथ तादात्मय जोड़ने लगता है।  धीरे-धीरे दीये की खोल छूट जाती है, और सिर्फ ज्योति का स्मरण रह जाता है।  इस ज्योति के साथ जब पूरी एकता सध जाती है, तो शरीर को पुनः ग्रहण करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।  मुक्त ज्योति—शरीर से मुक्त ज्योति का नाम मुक्ति है।
महावीर कहते हैं, ऐसी ज्योतियां लोक के अंतिम स्तल पर शाश्वत आनंद में लीन रहती हैं—आखिरी सीमा लोक की।  महावीर जगत को दो हिस्सों में बाटते हैं: लोक और अलोक।  लोक—जिसे हम जानते हैं; जिसका विज्ञान अध्ययन कर सकता है।  और अलोक— जिसमें प्रवेश का कोई उपाय नहीं है।
इस संबंध में भी महावीर बड़े अदभुत हैं।  क्योंकि अभी-अभी वैज्ञानिकों ने खोज की है कि इस जगत के ठीक विपरीत एंटि-यूनिवर्स होना चाहिए।  क्योंकि जगत में विपरीत के बिना कोई भी चीज नहीं हो सकती।  तो हमारा यह जो जगत है, यह जो ब्रह्मांड है—सूर्य, चंद्र, तारों का—इससे ठीक विपरीत प्रक्रिया वाला कोई लोक होना चाहिए, जो इसके ठीक बगल में होगा।  लेकिन जिसमें हम प्रवेश नहीं कर सकते।  क्योंकि हमारे प्रवेश का सारा ढंग लोक में ही होगा।
महावीर ने पच्चीस सौ साल पहले दो बातें कही हैं कि एक तो यह लोक है, जिसे हम जानते हैं; और एक अलोक है, जिसे हम कभी नहीं जान सकते।  लेकिन उसका होना इसलिए जरूरी है कि जगत द्वंद्व के बिना नहीं होता।  यह जो मुक्त आत्मा है, जो शरीर से छूट जाती है, यह लोक और अलोक के मध्य में, सीमांत पर ठहर जाती है।  लोक से इसका छुटकारा हो जाता है।  यह पदार्थ और शून्य के बीच में अशरीरी चैतन्य सदा आनंद में लीन रह जाता है।
यह जो आनंद की शाश्वत धारा है, यह उन्हें ही उपलब्ध होती है जो क्रमशः अपने को क्षुद्र शरीर से, क्षणभंगुर शरीर से मुक्त करने की चेष्टा में रत रहते हैं।  ऐसी चेष्टा में लगा हुआ व्यक्ति साधु है; और ऐसी चेष्टा की पूर्णता को पा लिया व्यक्ति सिद्ध है।
आज इतना ही।


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