भगवान
बुद्ध
श्रावस्ती
में ठहरे थे।
नगरवासी उपासक
सारिपुत्र और
मौदगल्लायन
के पास
धर्म—श्रवण
करके उनकी
प्रशंसा कर
रहे थे।
अपूर्व था रस उनकी
वाणी में
अपूर्व था
भगवान के उन
दो शिष्यों का
बोध: अपूर्व
थी उनकी समाधि
और उनके वचन लोगों
को जगाते थे—
सोयों को
जगाते थे मुर्दो
को जीवित करते
थे। उनके पास
बैठना अमृत में
डुबकी लगाना
था
एक भिक्षु
जिसका नाम था
लालूदाई यह सब
खड़ा हुआ बड़े
क्रोध से सुन
रहा था। उसे
बड़ा बुरा लग
रहा था। वह तो
अपने से
ज्यादा
बुद्धिमान
किसी को मानता
ही नहीं था।
भगवान के
चरणों में ऐसे
तो झुकता था
पर ऊपर ही
ऊपर। भीतर तो
वह भगवान को
भी स्वयं से
श्रेष्ठ नहीं
मानता था।
उसका अहंकार आrते
प्रज्वलित
अहंकार था। और
मौका मिलने पर
वह प्रकारांतर
से परोक्ष रूप
से भगवान की
भी आलोचना—निंदा
करने से चूकता
नहीं था। कभी
कहता आज भगवान
ने ठीक नही
कहा; कभी
कहता भगवान को
ऐसा नहीं कहना
था; कभी
कहता भगवान
होकर ऐसा नहीं
कहना चाहिए
आदि—आदि।
उस लालूदाई
ने उपासकों को
कहा क्या
व्यर्थ की बकवास
लगा रखी है ' क्या रखा
है सारिपुत्र
और
मौदगल्लायन
में?
कंकड़—पत्थरों
को हीरे समझ
बैठे हो? परख
करनी है तो
पारखियों से
पूछो।
जवाहरात पहचनवाने
हैं तो जौहरियों
से पूछो? मुझसे
पूछो। और
प्रशंसा ही
करनी है तो
मेरे धर्मोपदेश
की करो।
उसकी दबंग
आवाज उसका जोर
से ऐसा कहना
नगरवासी तो
बड़े सकते मे आ
गए। सोचा
उन्होंने कि
हो न हो लालूदाई
एक बड़ा
धर्मोपदेशक
है। उन्होंने
लालूदाई से
धर्मोपदेश की
प्रार्थना
की। लेकिन लालूदाई
बार—बार टाल
जाते। कहते, ठीक समय
पर ठीक ऋतु
में बोलूंगा।
ज्ञानी हर कभी
और हर किसी को
उपदेश नहीं
करता। प्रथम
तो सुनने वाले
में पात्रता
चाहिए। अमृत
हर पात्र में
नहीं डाला
जाता है। बात
तो पते की थी।
लोगों में
प्रभाव बढ़ता
गया।
फिर तो वह यह
भी कहने लगे
कि ज्ञानी मौन
रहता है। लिखा
नहीं है
शास्त्रों
में कि जो
बोलता है वह
जानता कहां है? जो चुप
रहता है वही
जानता है।
परमज्ञानी क्या
बोलते हैं।
नगरवासियों
में तो धाक
बढ़ती गयी। और बड़ी
उत्सुकता भी
पैदा हो गयी।
वे और—और
प्रार्थना
करने लगे। इस
बीच लालूदाई
अपना
व्याख्यान तैयार
करने में लगे
थे।
व्याख्यान
शब्द— शब्द
कंठस्थ हो गया
तो एक दिन
धर्मासन पर
आसीन हुए।
पूरा गांव
सुनने आया। तीन
बार बोलने की
चेष्टा की, पर
अटक—अटक गए।
बस संबोधन ही
निकलता—उपासको।
और वाणी अटक
जाती।
खांसते—खखारते,
लेकिन कुछ न
आता।
पसीना—पसीना
हो गए। चौथी
बार चेष्टा की
तो संबोधन भी
न निकला। सब
सूझ—बूझ खो
गयी। याद किया
कुछ याद न
आया। हाथ—पैर कांपने
लगे और घिग्घी
बंध गयी तब तो
गांव वाले
असलियत पहचान
गए
लालूदाई
मंच छोड़कर
भागे। गांव
वाले यह कहते हुए
कि यह
सारिपुत्र और
मौदगल्लायन
की प्रशंसा को
सुन नहीं सकता
और भगवान तक
की आलोचना
करने में पीछे
नहीं रहता है और
अपने से कुछ
कह नहीं रहा
है उसका पीछा
किए। लालूदाई
भागते में मल—
मूत्र के एक
गट्टे में गिर
पड़े और गंदगी
से लिपट गए।
भगवान के
पास खबर
पहुंची।
भगवान ने कहा
भिक्षुओ अभी
ही नहीं यह
लासूदाई
जन्मों—जन्मों
से ऐसी ही गंदगी
में गिरता रहा
है भिक्षुओ
अहंकार गंदगी
है, मल
है। भिक्षुओ
अल्पज्ञान
घातक है
शब्द—ज्ञान
घातक है
शास्त्र—शान
घातक है। इस
लालूदाई ने
थोड़े से शब्द
सीख रखे हैं
अनुभव के बिना
शब्द मुक्ति
नही लाते बंधन
लाते हैं। इस
लालूदाई ने
थोड़ा सा धर्म
सीख रखा है।
लेकिन उसका भी
ठीक—ठीक
स्वाध्याय
नहीं किया है।
उसे भी पचाया
नहीं है नहीं
तो आज ऐसी
दुर्गति न होती।
भिक्षुओ इससे
सीख लो आलोचना
सरल आत्मज्ञान
कठिन है।
विध्वंस सरल
सृजन कठिन है।
और आत्मसृजन
तो और भी कठिन
है। अहंकार
प्रतिस्पर्धा
जगाता है
प्रतिस्पर्धा
से ईर्ष्या
पैदा होती
ईर्ष्या से
द्वेष और
शत्रुता
निर्मित होती।
और फिर
अंतर्बोध जगे
कैसे? दूसरे
का विचार ही न
करो समय थोड़ा
है स्वयं को जगा
लो बना लो
अन्यथा
मल—मूत्र के
गड्डों मे बार—बार
गिरोगे
भिक्षुओ
तुम्हीं कहो
बार—बार गर्भ
में गिरना
मल—मूत्र के
गट्टे में
गिरना नहीं तो
और क्या है!
और
तब भगवान ने
ये गाथाएं
कहीं—
असज्झायमला
मंता
अनुट्ठानमला
घरा।
मल
वण्णस्स
कोसज्जं
पमादो रस्थतो
मलं।।
'स्वाध्याय
न करना
मंत्रों का
मैल है, झाड़—बुहार
न करना घर का
मैल है। आलस्य
सौंदर्य का
मैल है, प्रमाद
पहरेदारों का
मैल है।’
ततो मला
मलंतरं अविज्जा
परमं मलं।
एत मलं
पहत्वान
निम्मला होथ
भिक्खवे।।
'इन सब मैलों
से भी बढ़कर
अविद्या परम
मैल है। भिक्षुओं,
इस मैल को
छोड़कर निर्मल
बनो।
सुजीवं
अहिरिकेन
काकसूरेन
धंसिना।
पक्खन्दिना
पगब्भेन
संकिलिट्ठेन
जीवितं।।
'निर्लज्ज, कौवे जैसा
श्ह, लूटपाट
करने वाले, पतित, बकवादी,
पापी
मनुष्य का
जीवन सुख से
बीतता लगता
है।
हिरिमता व
द्रुज्जीवं
निच्चं
सुचिगवेसिना।
अलीनेनप्पब्भेन
सुद्धाजीवेन
पस्मता।।
'लज्जाशील, नित्य
पवित्रता के
गवेषक, सजग,
मितभाषी, शुद्ध
जीविका वाले
और ज्ञानी
मनुष्य का
जीवन कष्ट से
बीतता लगता
है।
एवं भो
पुरिस! जानाहि
पापधम्मा
असज्जता।
मा तं
लोभो अधम्मो व
चिरं दुक्खाय
रन्शयु।।
'हे पुरुष!
संयमरहित
पापकर्म ऐसे
ही होते हैं, इसे 'जानो।
(उनमें
ऊपर—ऊपर तो
सुख मालूम
होता है, भीतर
बहुत दुख है )।
तुम्हें लोभ
और अधर्म चिरकाल
तक दुख में न
डाले रहें
(इसलिए सजग हो
जाओ, जागो
)।'
इसके
पहले कि हम
सूत्रों में
प्रवेश करें, इस कथा को
ठीक—ठीक समझ
लेना जरूरी
है। कथा तो सीधी—सादी
है, जटिल
जरा भी नहीं, पर ऐसे बहुत
महत्वपूर्ण
है। सत्य होता
भी सीधा—सादा
ही है। आदमी
सत्य को जटिल
बनाता, अन्यथा
सत्य बड़ा सरल
है। इसलिए
सत्य को कहने
के लिए सदा ही
छोटी—छोटी
कथाएं सहयोगी
बनी हैं। जो
बड़े—बड़े
शास्त्र नहीं
कह पाते, दर्शन
की बड़ी—बड़ी
उलझी हुई
धारणाएं नहीं
कह पातीं, वह
छोटी—छोटी
कथाएं—जिन्हें
बच्चे भी समझ
लें—कहने में
समर्थ हो जाती
हैं।
इस
छोटी सी
सीधी—सादी कथा
को एक—एक पर्त
उघाड़कर समझो—
श्रावस्ती
नगरवासी
उपासक
सारिपुत्र और
मौदगल्लायन
के पास
धर्म—श्रवण कर
उनकी प्रशंसा
कर रहे थे।
ये
बुद्ध के दो
परम शिष्य
थे—सारिपुत्र
और मौदगल्लायन।
ये दोनों
स्वयं
महापंडित थे।
जब ये बुद्ध
के पास आए थे
तो इन दोनों
के भी
पांच—पाच सौ
शिष्य थे।
इनकी देश में
बड़ी ख्याति
थी। और जब
बुद्ध के पास
आए, तो
दोनों को
शास्त्र का
अपूर्व शान
था। लेकिन जब
बुद्ध ने कहा,
यह शान
शास्त्र का है,
सारिपुत्र,
मौदगल्लायन!
यह ज्ञान
तुम्हारा
नहीं। तो अपूर्व
हिम्मत के लोग
रहे होंगे, बुद्ध के
चरणों में सिर
ही नहीं रखा, अपना सारा
ज्ञान भी डाल
दिया। और कहा
कि अब हम
अज्ञानी होने
को राजी हैं।
तुम्हारा साथ
रहे, तो हम
अज्ञानी होने
को राजी हैं।
हम भी जानते है
अपने अनुभव से
कि इस शान से
हमने कुछ पाया
नहीं।
शिष्य
तो बहुत चौंके
थे सारिपुत्र
के और मौदगल्लायन
के, क्योंकि
वे तो सोचते
थे—महापंडित, इन जैसा
पंडित नहीं
है। वे तो इसी
आशा में आए थे
कि बुद्ध को
ये पराजित कर
देंगे और
बुद्ध को भी
रूपातरित कर
लेंगे अपने
शिष्य में।
एक
ही शब्द में
ये चरणों में
सिर रख दिए।
बड़े विवादी
थे। सारे देश
में घूमते थे
विवाद करते, न—मालूम
कितने
पंडितों को
हराया था।
लेकिन बुद्ध
के पास आकर
बात चोट कर
गयी। बुद्ध ने
कहा, यह
तुम्हारा
जाना हुआ नहीं
है। तुम जो भी
कह रहे हो, सब
उधार है। उधार
से कोई कभी
पहुंचा है? यह सब बासा
है। मैं
तुम्हें उस
तरफ ले चलता
हूं जहां
तुम्हारे
भीतर का
शास्त्र
निनादित होने
लगे। एक क्षण
में झुक गए
थे। बड़ी हिम्मत
चाहिए झुकने
के लिए। और
पंडित होने के
बाद झुकने के
लिए तो बहुत
हिम्मत
चाहिए।
क्योंकि
पंडित का मन
तो कहता है, मैं खुद ही
जानता हूं र
झुकना कैसा!
किसके सामने
झुकना है!
पांडित्य तो
अहंकार को बड़ा
मजबूत कर देता
है, दुर्ग
बना देता है
अहंकार के
चारों तरफ।
उस
झुकने में ही
क्रांति घटित
हो गयी। बुद्ध
ने कहा, पहले शान को
भूल जाओ।
ज्ञान बाधा है
ध्यान में। जो
सीखा है, उसे
अनसीखा कर दो।
स्लेट साफ कर
लो, कागज
को कोरा करना
है। क्योंकि
उस कोरे में
ही उतरता है
सत्य; यह
गुदा हुआ कागज
सत्य के काम
का नहीं है।
तुम खाली
स्लेट हो जाओ,
तुम
शून्यवत हो
जाओ, उसी
शून्य में
पूर्ण
उतरेगा।
दोनों
ने वर्षों तक
बुद्ध के
चरणों में
बैठकर ध्यान
लगाया। दोनों
परम ज्ञान को
बुद्ध के जीते—जी
उपलब्ध हो गए
थे। फिर जो
परम ज्ञान को
उपलब्ध हो जाए, उसकी
वाणी में अमृत
हो, यह
स्वाभाविक
है। उसकी वाणी
में अमृत
सिर्फ उन्हें'
नहीं
दिखायी पड़ेगा
जिन्होंने न
देखने की कसम खा
ली है। जो
थोड़े भी
पुलकित होने
को राजी हैं, जो हृदय की
खिड़की थोड़ी
खोलने को राजी
हैं, जो उस
वाणी को भीतर
जाने देने को
राजी हैं, उनके
मन तो नाच
उठेंगे। उनके
हृदयों में तो
फूल खिल
जाएंगे।
श्रावस्ती
के अनेक उपासक
दोनों का
धर्म—प्रवचन
सुनकर लौटे
होंगे, वे प्रशंसा
कर रहे थे। कह
रहे थे, अपूर्व
था रस उनकी
वाणी में।
रस
वहीं है, जहां सत्य
है। रसो वै
सः। उस
परमात्मा का
स्वभाव रसरूप
है। जहां
अनुभव नहीं है
उसका, वहा
तुम कितने ही
शब्दों का
उपयोग करो, शब्द खाली
होंगे, नपुंसक
होंगे। उनके
भीतर कुछ भी न
होगा। खाली म्यान,
जहां तलवार
है नहीं।
कितनी ही चमके,
खाली म्यान
कितनी ही
सुंदर मालूम
पड़े, वक्त
पर काम न
आएगी। शब्द
कोरे के कोरे
तो चली हुई
कारतूस जैसे
हैं, उन्हें
तुम सम्हालकर
रखे रहो, कुछ
काम के नहीं
हैं। मौके पर
रक्षा न होगी।
रक्षा तो उसी
शब्द से होती
है जिसके भीतर
सत्य का
अंगारा जलता
हो। रस होता
ही है वहां
जहां अनुभव
है। तो कह रहे
थे—अपूर्व था
रस उनकी वाणी
में, अपूर्व
था भगवान के
उन दो शिष्यों
का बोध, अपूर्व
थी उनकी
समाधि।
गांव
के सीधे—सादे
लोग, आदोलित
हो उठे थे।
गाव के
सीधे—सादे लोग,
उनकी
श्रद्धा में
अंकुरण हुआ
था। गांव के
सीधे—सादे लोग,
बुद्ध के इन
शिष्यों की
बात सुनकर
सूरज की तरफ
आखें उठाने की
कोशिश कर रहे
थे। रोशनी को
तलाश रहे थे।
लेकिन
उनके वचन पास
में ही खड़े एक
भिक्षु, जो बुद्ध का
ही शिष्य था, नाम था उसका
लालूदाई—रहा
होगा
लालबुझक्कड—उसे
बड़ी चोट लग रही
थी। वह भी
शिष्य था
बुद्ध का, उसकी
कोई प्रशंसा
नहीं करता। इस
भांति कोई कहता
नहीं कि रस
तुम्हारी
वाणी में, बोध
तुम्हारे
जीवन में, समाधि
तुम्हारे
हृदय में, ऐसा
कोई कहता नहीं
कि तुम्हारे
शब्द मुर्दों को
जगा देते हैं।
उससे न सहा
गया। उसे बड़ी
बेचैनी होने
लगी। उसके
बर्दाश्त के
बाहर हो गया।
वह
तो अपने से
बुद्धिमान
किसी को मानता
ही नहीं था।
औरों की तो
बात ही छोड़ दो, वह भगवान
को भी अपने से
ज्यादा
बुद्धिमान
नहीं मानता
था। गहरे में
तो वह यही
जानता था कि
मैं अद्वितीय
हूं मेरा कोई
मुकाबला!
ऐसे
ही तो सभी
जानते हैं।
कहो, न
कहो, कहने
से क्या फर्क
पड़ता है! न
कहने से भी
कोई फर्क नहीं
पड़ता। जो तुम
भीतर मानते हो
वही फर्क लाती
है बात। तुम
कितनी बार
चरणों में झुक
जाते हो किसी
के और फिर भी
तुम्हारा
अहंकार तो अकड़ा
खड़ा रहता है, झुकता नहीं।
तुम कितनी बार
दर्शाते हो कि
आप महान हैं, लेकिन भीतर
तुम जानते हो
कि मुझसे महान
और कौन!
अहंकार अपने
से ऊपर कभी
किसी को रखता
ही नहीं। जो
अहंकार अपने
से ऊपर किसी
को रख ले, वही
शिष्य हो गया।
जो अहंकार
अपने से ऊपर
किसी को रखता
ही नहीं है, वह कभी
शिष्य नहीं हो
सकता।
शिष्यत्व की
कला तो इतनी
सी है—अपने अहंकार
को किसी से
नीचे रख लेना।
इसी
कला के कारण
इस देश में
गुरु के चरणों
में झुकने का
मूल्य बना। वह
तो प्रतीक है।
वह तो बाह्य
प्रतीक है
भीतर की घटना
का। भीतर को
कैसे कहें? तो बाहर
के किसी
प्रतीक से
कहते हैं।
दुनिया के
किसी देश ने
पैरों में
झुकने की कला
नहीं खोजी। एक
अपूर्व संपदा
से वे वंचित
रह गए।
पश्चिम
में कोई किसी
के पैर छूने
को राजी नहीं—खयाल
भी नहीं उठता, बात ही
गलत मालूम
पड़ती है, बात
ही अपमानजनक
मालूम पड़ती
है। पश्चिम
जीता अहंकार
से, पूरब
जीता समर्पण
से। पश्चिम
जीता संघर्ष
से, पूरब
जीता
विनम्रता से।
पूरब ने एक
कला खोजी है—सीखने
की कला हमला
नहीं है, सीखने
की कला झुक
जाना है। और
जो जितना
ज्यादा झुक
जाता है, उतना
ही भर जाता
है।
तुम
नदी के किनारे
खड़े हो। नदी
बह रही है, तुम
प्यासे हो।
तुम झुकों न, अंजुली न
बनाओ, तो प्यासे
के प्यासे रह
जाओगे। नदी
तुम्हारे ओंठों
तक आने से
रही। तुम्हें
झुकना होगा, तुम्हें हाथ
की अंजुली
बनानी होगी, तुम्हें जल
भरना होगा, तो नदी
तुम्हारी
तृप्ति करने
को तैयार है।
बुद्धपुरुष
तो नदी की
भांति हैं।
तुम अगर प्यासे
हो सत्य के, तो झुको।
नहीं कि तुम्हारे
झुकने से
बुद्धपुरुषों
को कुछ मिलता
है। तुम्हारे
झुकने से क्या
मिलेगा, तुम्हारे
पास ही कुछ
नहीं है, तुमसे
मिलना क्या
है! तुम यह मत
सोचना कि तुमने
कोई आभार किया
किसी
बुद्धपुरुष
के चरणों में
झुककर नहीं, उसने
तुम्हें
झुकने दिया, उसने ही
आभार किया।
क्योंकि
झुककर
तुम्हें ही
मिलेगा।
झुककर तुम कुछ
खोने को नहीं
हो—खोने को
तुम्हारे पास
कुछ है भी नहीं।
मगर
बड़े मजे की
बात है, जिन लोगों
के पास खोने
को कुछ नहीं
है, बिलकुल
नहीं है, वे
भी झुकने में
बड़े अकड़े खड़े
रहते हैं।
लेने में, सीखने
में बड़ी चोट
मालूम पड़ती है,
दंभ को बड़ी
पीड़ा मालूम
पड़ती है।
तो
यह लालूदाई—यह
लालबुझक्कडू—बुद्ध
के चरणों में
झुक गया होगा, मगर झुका
नहीं था। और
जब तुम अधूरे
मन से किसी के
चरणों में झुक
जाते हो, तो
तुम इधर—उधर
बदला लेते हो।
बदला लेना ही
पड़ेगा, वह
मनोवैज्ञानिक
है। अगर
तुम्हारी
श्रद्धा अपने गुरु
में अधूरी है
थोथी है, छिछली
है, उथली
है, तो तुम
बदला लोगे।
तुम किसी
बहाने से गुरु
का अपमान करने
का उपाय
खोजोगे, गुरु
की निंदा
करोगे, आलोचना
करोगे—कोई
रास्ता तुम
खोज लोगे। अगर
सीधा रास्ता
खोजने में
डरोगे तो
प्रकारातर से।
अब
सारिपुत्र और
मौदगल्लायन
की आलोचना
प्रकारांतर
से बुद्ध की
ही आत्नोचना है।
क्योंकि
बुद्ध ने
घोषणा की है
कि ये दोनों समाधि
को उपलब्ध हो
गए। यह बुद्ध
की घोषणा है कि
इन दोनों ने
पा लिया, अब ये
लौटेंगे नहीं,
ये उस सीमा
के पार हो गए
जहां से आदमी
लौटता है।
इनका
पुनरागमन
समाप्त हो गया
है। ये अनागामी
हो गए। अब
नहीं आएंगे।
ये फूल आखिरी
हैं, इनकी
सुगंध आखिरी
है। जिसे पीनी
हो पी ले, जिसे
लेनी हो ले
ले। ये प्क
बार उड़ गए तो
ये पक्षी फिर
दुबारा इस
संसार में
लौटने को नहीं
हैं। इस संसार
के वृक्ष पर
अब ये दुबारा
डेरा न बनाएंगे,
ऐसी घोषणा
भगवान ने कर
दी है।
शायद
इस घोषणा के
कारण ही
लालूदाई को और
भी पीड़ा हो
रही होगी। कि
मेरे रहते और
कोई दूसरा अनागामी
हो गया!
मेरे
पास लोग आते
हैं, मेरे
पास संन्यासी
आते हैं, वे
कहते हैं, जिन
लोगों को आपके
पास ध्यान
उपलब्ध हो गया
है, आप
उनके नाम की
घोषणा क्यों
नहीं करते? मैं कहता
हूं इसीलिए
नहीं करता हूं,
क्योंकि
बड़ी जलन होगी,
बड़ी
ईर्ष्या पैदा
होगी। अगर मैं
एक के नाम की घोषणा
करूंगा कि यह
ध्यान को
उपलब्ध हो गया,
तो बाकी सब
उसके दुश्मन
हो जायेंगे, और बड़ी
राजनीति पैदा
होगी, और
बड़ी खींचातान
मच जाएगी, वह
नाहक कष्ट मे
पड़ जाएगा। ध्यान
की घोषणा उसे
बहुत उपद्रव
में डाल देगी।
और दूसरे, जो
ध्यान की
चेष्टा में
लगे थे, वे
तो चेष्टा छोड़
देंगे, वे
किसी भांति यह
सिद्ध हो जाए
कि इस आदमी को
ध्यान नहीं
मिला है, इस
चेष्टा में लग
जाएंगे।
यह
सदा हुआ। जब
भी बुद्ध ने
घोषणा की, महावीर
ने घोषणा की, जीसस ने
घोषणा की, बड़ी
राजनीति पैदा
हो गयी। इसलिए
मैंने तय किया
है कि घोषणा
करूंगा ही
नहीं। जिनको
हो जाएगा, वे
जानते हैं।
जिनको हो
जाएगा, मैं
जानता हूं।
बात मेरे और
उनके बीच हो
गयी, समाप्त
हो गयी। किसी
और को पता
चलने की कोई
जरूरत नहीं, नहीं तो
लालूदाई पैदा
होंगे। और
उनसे कुछ सार
नहीं है।
घोषणा से कुछ
बढ़ता नहीं है,
जिसको मिल
गया है मिल
गया, घोषणा
से क्या बढ़ता
है!
घोषणा
फिर बुद्ध ने
क्यों की? करने का
कारण था। अगर
लोग भले हों
तो करने में लाभ
है। शायद
जितने लोग आज
विकृत हैं
उतने विकृत
नहीं थे, इसलिए
की। शायद सौ
आदमी सुनते तो
एकाध
लालबुझक्कड़ हो
जाता था, निन्यानबे
को तो हिम्मत
बढ़ती थी।
निन्यानबे को
तो लगता था, अगर इसको हो
गया तो हमें
भी हो सकता है,
अब हम लगें
जोर से। अगर
सारिपुत्र को
हो गया, तो
हमें क्यों न
होगा!
निन्यानबे को
तो इससे प्रेरणा
मिलती थी, इसलिए
घोषणा की।
निन्यानबे को
तो बल मिलता
था, आश्वासन
बढ़ता था, श्रद्धा
बढ़ती थी कि हो
सकता है।
और
बुद्ध की बिना
घोषणा के
निन्यानबे को
पता नहीं चल
सकता था।
बुद्ध को पता
चलेगा, जो जाग गया
उसको पता
चलेगा कि
किसको हो गया।
लेकिन शेष जो
सोए हुए हैं, उन्हें कैसे
पता चलेगा? उन्हें तो
कोई जागा हुआ
घोषणा करेगा
तभी पता
चलेगा।
तो
बुद्ध ने, महावीर
ने घोषणा की, वह भी कारण
से की। सौ में
निन्यानबे
लोगों को लाभ
होता था, एकाध
को नुकसान
होता था। एकाध
कोई लालूदाई
झंझट में पड़
जाता था। मगर
एक के लिए
निन्यानबे का
नुकसान नहीं
किया जा सकता।
आज
की हालत
बिलकुल उलटी
है—आज एकाध को
लाभ होगा, निन्यानबे
लालूदाई हैं।
लाभ तो एकाध
को होगा। एकाध
को इस बात से
श्रद्धा
बढ़ेगी, निन्यानबे
के भीतर तो
ईर्ष्या की आग
जलेगी। इसलिए
मुझसे मत
पूछना आकर कि
किसको ध्यान
की उपलब्धि हो
गयी या नहीं, मैं कहने
वाला नहीं
हूं। आज की
हालत और भी
खराब है। और
तुम यह मत
सोचना कि लालूदाई
यहां नहीं
हैं। बड़ी
संख्या में
हैं। उनसे
बचना ही
मुश्किल है, उनकी संख्या
रोज बढ़ती ही
गयी दुनिया
में। तो लालूदाई
ऐसे तो चरणों
में झुका था, लेकिन सच
में नहीं झुका
था। और जो
थोड़ा—बहुत झुका
था, उसका
बदला लेता था।
तुम
समझो। जिसको
तुम प्रेम
करते हो, उसी को तुम
घृणा करते हो।
क्योंकि
तुम्हारा प्रेम
पूरा नहीं है।
तुमने कभी इस
बात को गौर से
देखा! जिसको
तुम प्रेम
करते हो, उसी
को घृणा करते
हो। और जिसको
तुम श्रद्धा
करते हो, उसी
पर तुम्हारी
भीतर— भीतर
अश्रद्धा और
संदेह भी चलते
रहते हैं। तुम
प्रतीक्षा
में रहते हो, कब मौका मिल
जाए कि इस
श्रद्धा को
फेंक दें उठाकर।
सिद्ध हो जाए
कि अश्रद्धा
सही है, तो
तुम ऐसा मौका
चूकोगे नहीं,
तुम झपटकर
ले लोगे।
तुमने
एक बात खयाल
की, सारी
दुनिया में, सारे समाजों
ने, सारी
सभ्यताओं ने
सदा से बच्चों
को यह
सिखलाया—अपने
मां—बाप का
आदर करो। इसकी
शिक्षा इतनी
पुरानी है, इसका
संस्कार इतना
गहरा है, लेकिन
फिर भी तुम
देखते हो, कौन
बच्चा अपने
मां—बाप का
आदर करता है!
शायद इसीलिए
सभी सभ्यताओं
ने तय किया कि
बच्चों को सिखाओ
कि मा—बाप का
आदर करो, अन्यथा
बच्चे तो अगर
नहीं सिखाए गए
तो शायद आदर
बिलकुल न
करेंगे।
सिखाए—सिखाए
भी आदर नहीं
करते। लाख
समझाओ आदर करो,
वे नहीं
करते। भीतर एक
अनादर की धारा
बहती रहती है।
अहंकार आदर कर
नहीं सकता।
अहंकार किसी का
सम्मान नहीं
कर सकता, क्योंकि
सम्मान में
झुकना होता
है। अहंकार सिर्फ
अपमान ही कर
सकता है।
अहंकार सिर्फ
गाली ही दे सकता
है, प्रशंसा
नहीं कर सकता।
तो
लालूदाई झुका, ऊपर—ऊपर
झुका था, भीतर—भीतर
बदले की तलाश
में था। आखिर
कैसे क्षमा
करो उस आदमी
को जिसने
तुम्हें
मजबूर कर दिया
पैरों में
झुकने को, कैसे
क्षमा करो उस
आद्रमी को!
बहुत कठिन हो
जाता है क्षमा
करना।
मैं
इधर रोज अनुभव
करता हूं। लोग
आकर पैर में झुकते
हैं, मैं
जानता हूं—एक
और झंझट बढ़ी।
क्योंकि अब यह
आदमी बदला
लेगा, यह
मुझे कभी
क्षमा नहीं
करेगा। यह पैर
में झुक तो
गया, लेकिन
अब यह बदला
किससे लेगा इस
बात का? यह
घड़ी इसके जीवन
में आयी मेरे
कारण, तो
मुझ हा से
बदला लेगा! यह
आज नहीं कल
मुझे गाली
देगा। यह मेरे
खिलाफ कुछ
खोजेगा। यह
कोई न कोई
बहाना
निकालेगा और
बदला लेगा।
तुम
अगर इतिहास से
परिचित हो, तो
महावीर का ही
एक शिष्य
गोशालक
महावीर के साथ
बदला लिया। वह
महावीर का ही
शिष्य था। वह
महावीर को ही
छोड़कर
चला गया और
महावीर के
खिलाफ जितना
काम उसने किया,
किसी और
आदमी ने नहीं
किया।
महावीर
का एक दूसरा
विरोधी उनका
ही दामाद था। वह
भी शिष्य हुआ
था, वह
भी विरोध में
चला गया, महावीर
के पांच सौ
शिष्यों को
अपने साथ लेकर
निकल गया। अब
हमारे देश में
तो ऐसा है कि
दामाद का पैर
छूते हैं। तो
जब शादी हुई
होगी, तो
महावीर ने
उसके पैर छुए
होंगे। और फिर
जब महावीर
संन्यस्त हो
गए, शान को
उपलब्ध हुए, और दामाद भी
संन्यस्त हुआ,
तो उसे
महावीर के पैर
छूने पड़े। वह
बदला लिया, वह क्षमा
नहीं कर सका।
उसने महावीर
के संघ में
पहला उपद्रव
खड़ा किया, पहली
राजनीति खड़ी
की।
बुद्ध
का चचेरा भाई
देवदत्त
बुद्ध से
दीक्षा लिया, संन्यस्त
हुआ। लेकिन यह
देखकर उसे बड़ी
पीड़ा होने
लगी—क्योंकि
वह चचेरा भाई
था, तो वह
सोचता था, बुद्ध
के बाद नंबर
दो कम से कम
मेरा होना
चाहिए, लेकिन
उसका तो कोई
नंबर ही नहीं
लग रहा था।
वहां तो और
लोग आते गए और
ज्ञान को उपलब्ध
होते गए और
देवदत्त पीछे
पड़ता गया, कतार
में दूर होने
लगा। उसको चोट
भारी लगी। वह
भिक्षुओं को
लेकर, गिरोह
को लेकर अलग
हो गया।
फिर
उसने बुद्ध को
मारने के बड़े
उपाय किए। बुद्ध
के ऊपर पागल
हाथी छोड़ा।
बुद्ध ध्यान करते
थे तो एक
चट्टान उनके
ऊपर सरकाकर
गिरायी। जब
चट्टान बुद्ध
के पास से
सरकती हुई
गयी—इंच—इंच
बचे, बाल—बाल
बचे—तो किसी
ने पूछा कि
संयोग की बात
कि आप बच गए।
युद्ध ने कहा,
संयोग की
बात नहीं, चट्टान
कोई मेरी
चचेरा भाई तो
नहीं! चट्टान
को मुझसे क्या
लेना—देना है!
जब पागल हाथी.
बुद्ध पर छोड़ा
देवदत्त ने और
पागल हाथी आकर
उनके चरणों
में झुक गया
बजाय उनके मार
डालने के, रौंद
डालने के, तब
भी किसी ने
कहा कि अपूर्व
चमत्कार!
बुद्ध ने कहा,
कुछ भी
चमत्कार नहीं,
पागल हाथी
कोई मेरा
शिष्य तो
नहीं! मुझसे
बदला लेने का
कोई कारण तो
नहीं।
बड़ी
गहरी
मनोविज्ञान
की बात है, खयाल में
रखना—जिसके
प्रति तुम
श्रद्धा करते हो,
उससे तुम
बदला लेने की
आकांक्षा
रखोगे, खोज
करोगे।
तो
लालूदाई को
बहुत बुरा
लगा। वह तो
मौका मिलने पर
प्रकारातर से, परोक्ष
रूप से भगवान
की भी आलोचना
करता था। कहता—आज
भगवान ने ठीक
नहीं कहा; भगवान
को ऐसा नहीं
कहना था; भगवान
होकर ऐसा नहीं
कहना चाहिए था;
आदि—आदि।
तुम्हें
ऐसे संन्यासी
भी यहां मिल
जाएगे, गैर—संन्यासी
भी यहौ मिल
जाएंगे, जो
ठीक यही कहते
हैं। यह कहानी
फिर दोहर रही
है। यह कहानी
सदा दोहरती
रही है। इस
संसार में नया
कुछ होता
नहीं। इस
संसार में
करीब—करीब जो
हो चुका है, वही फिर—फिर
होता है। यह
संसार बड़ी
पुनरुक्ति है।
तुम्हें कहते
हुए लोग मिल
जाएंगे कि
भगवान ने ऐसा
कहा, नहीं
कहना था, यह
गलत बात कह दी,
यह उचित
नहीं था कहना,
इस बात में
राजनीति की
झलक आ गयी, यह
आलोचना क्यों
की किसी की, यह किसी का
खंडन क्यों
किया?
एक
जैन मुझसे आकर
कहे कि और सब
तो ठीक है, आप
साईंबाबा की
आलोचना न
करें।
क्योंकि भगवान
होकर……!
तो
मैंने उनसे
पूछा, तुमने
महावीर के वचन
पढ़े? उन्होंने
कहा, निश्चित
पढ़े। फिर
तुमने गोशालक
की महावीर के द्वारा
की गयी आलोचना
पढ़ी? तब वह
जरा हैरान
हुए। मैंने
उनसे पूछा, तुमने
बौद्धों के
शास्त्र पढ़े?
बुद्ध के
द्वारा की गयी
आलोचनाएं पढ़ी?
वेलट्ठी, संजय, प्रकुद्ध,
इनकी
आलोचना पढ़ी
बुद्ध के
द्वारा की गयी?
मैं अगर
साईंबाबा के
विरोध में कुछ
कहा हूं तो
साईंबाबा का
विरोध नहीं है,
सिर्फ उनको
जगाना जरूरी
है जो गलत राह
पर जा सकते
हैं। जो इस तरह
की उलझनों में
पड़ सकते हैं, उन्हें सचेत
करना जरूरी
है।
नहीं, लेकिन वह
कहने लगे, भगवान
होकर किसी की
आलोचना! तो
मैंने कहा, तुम यह कहो न
कि मैं भगवान
नहीं हूं सीधी
बात कहो! तो
महावीर भगवान
हैं कि नहीं —
तब उन्हें
पसीना आने
लगा। क्योंकि
महावीर ने तो
बड़ी कठोर
आलोचना की है।
करनी पड़ी है।
करुणा से की है,
करनी ही
चाहिए थी।
महावीर की उस
आलोचना के कारण
बहुत लोग
गोशालक के
चक्कर में
पड़ने से बचे। अन्यथा
महावीर
जिम्मेवार
होते।
समझो
कि उन्होंने
आलोचना न की
होती, उन्होंने
कुछ न कहा
होता, मौन
साधे रखा होता,
तो जो लोग
गोशालक के
चक्कर में
पड़ते और नहीं
पड़े उनकी
आलोचना से, उनके जीवन
को भ्रष्ट
करने की
जिम्मेवारी
किसकी होती? उनके जीवन
को भ्रष्ट
करने की
जिम्मेवारी
महावीर की
होती। और
महावीर ने वह
जिम्मेवारी
नहीं लेनी
चाही। उससे
ज्यादा बेहतर
यही था कि
जैसा है वैसा
कह दिया जाए।
आलोचना में
कुछ रस नहीं
है, आलोचना
में कोई किसी
का विरोध नहीं
है, कोई
वैयक्तिक
दुश्मनी नहीं
है।
लेकिन
तुम्हें यहां
भी लोग मिल
जाएंगे, वे कहेंगे, आज भगवान ने
ठीक नहीं कहा।
दो—चार को
इकट्ठा करके,
गिरोह
बनाकर वे
समझाएंगे कि
ठीक नहीं कहा,
यह बात नहीं
कहनी थी, यह
बात उनके
योग्य नहीं
है। ये
प्रकारांतर
से बदला ले
रहे हैं। ये
झुके, इस
बात को भूल
नहीं पाते। ये
किसी न किसी
तरह से चोट
पहुंचाएंगे।
इनसे तुम
सावधान रहना,
ये लालूदाई
हैं।
उस
लालूदाई ने
उपासकों से
कहा, क्या
व्यर्थ की
बकवास लगा रखी
है? क्या
रखा है
सारिपुत्र और
मौदगल्लायन
में? कंकड़—पत्थरों
को हीरे समझ
बैठे हो! परख
करनी हो तो
पारखियों से
पूछो, मुझसे
पूछो। और
प्रशंसा करनी
है तो मेरे
धर्मोपदेश की
करो।
एक
दुनिया में
बड़ी सरल बात
है, उसे
खयाल में
रखना। कोई
आदमी कह रहा
है, गुलाब
का फूल बड़ा
सुंदर है। इसे
सिद्ध करना
बहुत कठिन है
कि गुलाब का
फूल सुंदर है।
कैसे सिद्ध
करोगे? तुम
भी राजी हो
जाते हो, यह
बात दूसरी है।
लेकिन अगर तुम
कह दो कि नहीं,
मैं राजी
नहीं होता, प्रमाण दो
कि गुलाब का
फूल सुंदर
क्यों है—क्यों
सुंदर है? किस
कारण सुंदर है?
तो वह जो कह
रहा था गुलाब
का फूल सुंदर
है, मुश्किल
में पड़ जाएगा।
तुर्गनेव
की एक बड़ी
प्रसिद्ध कथा
है। एक गांव में
एक महामूर्ख
था, लोग
उस पर बहुत
हंसते थे।
गांव का
महामूर्ख, सारा
गाव उस पर
हंसता था।
आखिर गांव में
एक फकीर आया
और उस
महामूर्ख ने
उस फकीर से
कहा कि और सब
पर तुम्हारी
कृपा हौती है,
मुझ पर भी
करो, क्या
जिंदगीभर मैं
लोगों के
हंसने का साधन
ही बना रहूंगा?
लोग मुझे
महामूर्ख
समझते हैं और
मैं हूं नहीं।
फकीर
ने कहा, एक काम कर, जहां भी कोई
किसी ऐसी चीज
की बात कर रहा हो
जिसको सिद्ध
करना कठिन हो,
तू विरोध
में हो जाना।
जैसे कोई कह
रहा हो कि
ईश्वर की कृपा,
तू फौरन पकड़
लेना शब्द कि
कहौ है ईश्वर,
कैसा ईश्वर,
सिद्ध करो!
कोई कहता हो, चांद सुंदर
है, फौरन
पकड़ लेना, जबान
पकड़ लेना कि
क्या प्रमाण
है? मैं
कहता हूं,
कहौ है
सौंदर्य? कैसा
सौंदर्य? कोई
कहता हो, गुलाब
का फूल सुंदर
है कोई कहता
हो, यह
स्त्री जा रही
है, देखो
कितनी
प्रसादपूर्ण
है, कितनी
सुंदर—पकड़
लेना जबान
उसकी, छोड़ना
मत। जहां भी
सौंदर्य की, सत्य की, शिवम्
की कोई चर्चा
हो रही हो, तू
पकड़ लेना।
क्योंकि न
सत्य सिद्ध
होता, न
सौंदर्य
सिद्ध होता, न शिवम्
सिद्ध होता, ये चीजें
सिद्ध होती ही
नहीं। इनके
लिए कोई प्रमाण
नहीं है। और
कोई जब सिद्ध
नहीं कर पाएगा,
तो तू सात
दिन में देखना,
गावभर तुझे
पंडित मानने
लगेगा।
उसने, महामूर्ख
तो था ही, वह
उसके पीछे पड़
गया लाठी
लेकर। वह गांव
में घूमने लगा,
उसने लोगों
की बोलती बंद
कर दी। उसको
लोग देखकर चुप
हो जाते कि
कुछ मत कहो।
कोई कह रहा है
कि शेक्सपियर
की किताब बड़ी
सुंदर है, वह
खड़ा हो जाता
कि किसने कहा?
कोई कहता, यह चित्र
देखते हो, चित्रकार
ने बनाया है, कितना
प्यारा! वह
कहता, इसमें
है क्या? रंग
पोत दिए हैं।
कोई मूरख पोत
दे, इसमें
रखा क्या है? इसमें
तुम्हें
दिखायी क्या
पड़ रहा है?
उसने
सारे गांव को
चौकन्ना कर
दिया। सात दिन
के भीतर गाव
में यह अफवाह
फैलने लगी कि
यह आदमी महापंडित
हो गया है।
महामूर्ख
नहीं है, यह तानी है।
हमने अब तक
इसे पहचाना
नहीं। वह वही
का वही आदमी
है। लेकिन
गांव की
दृष्टि उसके
बाबत बदल गयी।
लालूदाई
ने कहा, क्या व्यर्थ
की बकवास लगा
रखी है?
गांव
के सीधे—सादे
लोग, वे
सिद्ध भी तो
क्या करेंगे?
कि
सारिपुत्र की
वाणी में अमृत
है। कह रहे थे,
सिद्ध तो न
कर सकेंगे।
तुम
भी जितनी
बातें कहते हो, सिद्ध तो
न कर सकोगे।
छोटी—छोटी
बातें सिद्ध नहीं
हो सकतीं। तुम
कहते हो, मेरा
किसी स्त्री
से प्रेम हो
गया। और कोई
अगर पूछे, कहां
है प्रेम, दिखलाओ?
रोज होता है
प्रेम, सदा
से होता रहा
है प्रेम, लेकिन
सिद्ध तो न कर
सकोगे।
वैज्ञानिक की
टेबल पर
निकालकर तो न
रख सकोगे कि
तुम
जांच—पड़ताल कर
लो। और अगर
तुम कहो कि
मेरे हृदय में
है, वह
कहेगा, चलो,
कार्डियोग्राम
करवा देते हैं,
आएगा प्रेम
कार्डियोग्राम
में? नहीं
आया, फिर? चलो, डाक्टर
से
स्टेथोस्कोप
लगवाकर जांच
करवा देते हैं,
धड़कन में है?
तुम
मुश्किल में
पड़ जाओगे।
हृदय भी खोलकर
जांच की जाए
तो भी कुछ
प्रेम तो पाया
न जाएगा।
प्रेम कोई
वस्तु तो नहीं
है, भाव
है।
जब
उन लोगों ने
कहा कि
सारिपुत्र के
वचनों में
अमृत है, तो वे
सारिपुत्र की
कम कह रहे थे, उनके हृदय
में जो घटा था
वही कह रहे
थे। यह वचन उनके
भीतर गया, अमृत
जैसा घुल गया,
यह वचन उनके
भीतर गया और
उनके भीतर कुछ
मिठास छोड़ गया,
कोई सुगंध
छोड़ गया। यह
सुगंध
सूक्ष्म है, स्थूल के
जगत में इसके
लिए कोई
प्रमाण नहीं
है। असल में
वे सारिपुत्र
के संबंध में
थोड़े ही कह
रहे थे, वे
अपने संबंध
में कह रहे
थे।
लालूदाई
ने भी
सारिपुत्र का
वचन सुना, उसके
भीतर तो सिर्फ
जलन फैल गयी
आग फैल गयी; उसके भीतर
तो काटे ही
काटे उग गए।
और ये कहते
हैं, कमल
खिल गए हैं
हमारे भीतर!
कहां खिले हैं?
जीवन
में जो भी
श्रेष्ठ है, वह सिद्ध
नहीं होता।
इसलिए जो लोग
सिद्ध करने में
लगे हैं, उन्हें
निकृष्ट से
राजी होना
पड़ेगा। वे
श्रेष्ठ की
यात्रा पर
नहीं जा सकते।
इसलिए नास्तिक
निकृष्ट से
राजी हो जाता
है। श्रेष्ठ
सिद्ध होता
नहीं, जो
सिद्ध होता
नहीं, उसे
वह मानता
नहीं। जो
सिद्ध हो सकता
है, उसे वह
मानता है। जो
सिद्ध हो सकता
है, वह
स्थूल है।
प्रेम सिद्ध
नहीं होता, पत्थर सिद्ध
हो जाता है।
तुम पत्थर को
इनकार करो तो
तुम्हारी
खोपड़ी पर
पत्थर मारा जा
सकता है—पता
चल जाएगा कि
है या नहीं।
लेकिन तुम
प्रेमे को
इनकार करो तो
तुम्हारी
खोपड़ी पर
प्रेम तो मारा
नहीं जा सकता।
उसकी तो कोई
चोट न लगेगी।
इस
बात को खयाल
रखना, जितनी
ऊंची बात है, उतनी ही
इनकार करनी
आसान। जितनी
नीची बात है, उतनी इनकार
करनी कठिन।
यह
लालूदाई बोला, क्या
व्यर्थ की
बकवास लगा रखी
है? कैसा
अमृत—रस? कैसा
बोध? कैसी
समाधि? कहां
की बातें कर
रहे हो, होश
में हो? गांव
के सीधे—सादे
लोग, चौंक
गए होंगे। और
तब उसने कहा
कि
कंकड़—पत्थरों
को हीरे समझ
बैठे हो। परख
करनी है तो
पारखियों से
पूछो। जवाहरातों
को जंचवाना है
तो जौहरियों
से पूछो। तुम
गांव के गंवार,
खेती—बाड़ी
करते जिंदगी
बीती, ऊंची
बातों के लिए
निर्णय ले रहे
हो!
गाव
के सीधे—सादे
लोग, भौचक्के
खड़े रह गए
होंगे। क्या
कहें! और तुम खयाल
रखना, गांव
के लोग ही
भौचक्के रह
जाएंगे ऐसा
नहीं, कितना
ही सुसंस्कृत
व्यक्ति हो, श्रेष्ठ को
सिद्ध तो किया
ही नहीं जा
सकता, वह
भी चुप रह
जाएगा। जो
भगवान को
जानते हैं, उनके सामने
भी अगर तुम
तर्क करने खड़े
हो जाओगे, तो
वे भी चुप रह
जाएंगे।
इसीलिए
तो सारे संतों
ने कहा है कि
श्रेष्ठ को
जानना हो तो
श्रद्धा
द्वार है।
संदेह से तो
श्रेष्ठ के
द्वार बंद हो
जाते हैं। जहा
संदेह है फिर
तुमने तय कर
लिया कि तुम
क्षुद्र के
जगत में ही
जीओगे, तुमने विराट
का द्वार बंद
कर दिया।
मुझसे
पूछो, उसने
कहा। अरे, मेरी
सुनो! मैं हूं
भिक्षु, मैं
जानता हूं
क्या समाधि, क्या ध्यान,
क्या बोध, क्या अमृत, क्या रस; जीवन
इसमें लगाया
है। और अगर
प्रशंसा ही
करनी है तो
मेरे
धर्मोपदेश की
करो।
उसकी
बात से गांव
के लोग
प्रभावित हो
गए। उन्होंने
कहा, हो न
हो लालूदाई
छिपा हुआ हीरा
है। गुदड़ी का
लाल है। अभी
तक पता ही
नहीं था! यह तो
अच्छा हुआ कि
इसने हमें याद
दिला दी, नहीं
तो हम कभी
इसकी बात ही न
सुनते। इसकी
तो किसी को
खबर ही नहीं
है।
गांव
के लोग
प्रार्थना
करने लगे कि
धर्मोपदेश
दें हमें, समझाएं
हमें।
लालूदाई जरा
मुश्किल में
पड़े।
आलोचना
सरल थी कि
क्या बकवास
लगा रखी है!
लेकिन
धर्मोपदेश
देना तों—कभी
दिया भी नहीं
था। धर्म का कुछ
पता भी नहीं
था। धर्म हो, तो उपदेश
देना थोड़े ही
पड़ता है, उपदेश
होता है। धर्म
हो, तो
सोचना—विचारना
थोड़े ही पड़ता
है। धर्म का
अनुभव हो तो
उस अनुभव से
ही बातें बहती
है। और जो बातें
अनुभव से सहज
बहती हैं, वे
ही सच्ची होती
है।
लालूदाई
बड़ी मुश्किल
में पड़े होंगे, लेकिन
रहे तो
भिक्षुओं के
पास थे। ऊंची
बातें सुनते
थे, बुद्ध
के पास थे, बड़ी—बड़ी
बातें सुनते
थे, उंन्हीं
बड़ी—बड़ी बातों
में उन्होंने
अपना संरक्षण
खोज लिया
होगा। खयाल
रखना, आदमी
इतना बेईमान
है कि बड़ी—बड़ी
बातों में भी अपने
क्षुद्र
अहंकार के लिए
संरक्षण खोज
लेता है। तो
लालूदाई ने
क्या कहा, सुनते
हैं!
लालूदाई
ने कहा, ठीक समय पर, ठीक ऋतु में
बोलूंगा।
ज्ञानी हर कभी
और हर किसी को
उपदेश नहीं
करता। प्रथम
तो सुनने वाले
में पात्रता
चाहिए। अमृत
हर पात्र में
नहीं ढाला
जाता है।
सुने
होंगे ये शब्द, शायद
बुद्ध से सुने
होंगे, या
और ज्ञानियों
से सुने
होंगे। खूब
बढ़िया तरकीब
निकाली। उसने
कहा कि तुम
पहले पात्र तो
बनो। सुनने आ
गए! जो
तुम्हें
सुनाते हैं वे
अज्ञानी हैं।
क्योंकि तानी
तो पहले पात्र
देखेगा। अमृत
को ढालने के
लिए पात्र तो
चाहिए। यह मिट्टी
का ले आए
पात्र! इसमें
ढालूगा मैं
अमृत!
स्वर्णपात्र
तैयार करो।
खूब तरकीब निकाली!
असल में वह
व्याख्यान
तैयार कर रहे
थे। मगर तब तक
लोगों को
समझाए रखना था,
लोगों को
चुप रखना था।
तो उन्होंने
कैसे बड़े सूत्रों
का सहारा
लिया!
फिर
तो वह यह भी
कहने लगे कि
ज्ञानी मौन
रहता है।
बुद्ध
तो रोज बोल
रहे थे, सुबह—सांझ
बोल रहे थे! यह
भी बदला है।
यह भी वह प्रकारांतर
से कह रहा है
कि बुद्ध भी
बुद्ध हो नहीं
सकते।
तानी
तो चुप रहते
हैं! अरे, तुमने सुना
नहीं, शास्त्रों
में साफ—साफ
लिखा है, उपनिषद
कहते हैं कि
परमज्ञानी
बोलते नहीं।
अब
यह बड़े मजे की
बात है! अगर
उपनिषद
परमज्ञानियों
के वचन हैं, तो
परमज्ञानी
बोले। नहीं तो
उपनिषद लिखते
कैसे? अगर
परमज्ञानी
बोलते नहीं
हैं, तो
उपनिषद
जिन्होंने
लिखे वे
परमज्ञानी
नहीं थे।
साक्रेटीज
कहता है कि
बोलता नहीं ज्ञानी;
लेकिन यह तो
कम से कम
बोलना पड़ता है,
इतना तो
बोलना पड़ता है
कि ज्ञानी मौन
रहते हैं। यह
कौन बोलता है '
यह कौन कहता
है; ये
अपूर्व
उपनिषद किसने
लिखे हैं। और
उपनिषद में
लिखा है कि जो
बोलता, वह
जानता नहीं; और जो जानता,
वह बोलता
नहीं। तो हम
उपनिषद के
ऋषियों के संबंध
में क्या
सोचेंगे ये
जानते थे कि
नहीं जानते थे?
दो
ही बातें हो
सकती हैं। या
तो ये जानते
थे। अगर ये
जानते थे तो चुप
रहना था, बोलना नहीं
था, उपनिषद
होने नहीं थे।
या ये नहीं
जानते थे। और
नहीं जानने
वालों ने जो
बातें लिखी
हैं, वे सच
कैसे हो सकती
हैं : और
उन्होंने
लिखा कि जो
जानता है, वह
बोलता नहीं। न
जानने वालों
ने लिखा है कि
जो जानता है, वह बोलता
नहीं; और
जो नहीं बोलता,
वही जानता
है। तो न
जानने वालों
की बातों का कोई
मूल्य तो नहीं
हो सकता।
लेकिन
बात कुछ और ही
है। बात ऐसी
नहीं है कि जानने
वाला बोलता
नहीं। जानने
वाला बोल सकता
है। लेकिन जो
उसने जाना है, वह कभी
बोला नहीं जा
सकता। जानने
वाला खूब बोल
सकता है, लेकिन
जो उसने जाना
है, उसकी
तरफ इशारे ही
कर सकता है, जो जाना है, वह बोल नहीं
सकता। जो जाना
है, उसे
कैसे बोलोगे '
वह तो ग्ते
का गुड़ है।
लेकिन गूंगा
गुड़ की तरफ इशारा
तो कर सकता है,
इसके लिए तो
नहीं रोक
सकते।
समझो
मैं गुंगा हूं
मैंने गुड़ खा
लिया और मैं
मिठास से भरा
हूं और मस्त
हो रहा हूं।
और तुम आए और
पूछने लगे, क्या हो
रहा है? मैं
गुंगा हूं बोल
नहीं सकता, लेकिन इशारा
तो बता सकता
हूं कि यह रखा
है—यह माणिक
बाबू की दुकान,
यहां से गुड़
खरीद लो—इतना
तो कर सकता
हूं। इशारा तो
कर सकता हूं
कि गुड़ यहां
मिल जाएगा, यह जो चीज
रखी है, यह
खा लो। गुड़ तो
नहीं बोला जा
सकता, सीधी—सीधी
बात है, साफ—साफ
बात है, मेरे
बोलने से कैसे
गुड़ बोला
जाएगा! मेरे
शब्द को खाकर
थोड़े ही स्वाद
मिलेगा। गुड़
शब्द में थोड़े
ही गुड़ का रस
है—तो गुड़ को
कैसे
बोलोगे—लेकिन
गुड़ शब्द
इशारा तो कर
सकता है, गुड़
की तरफ इशारा
कर सकता है।
उपनिषद बहा को
बोलते नहीं, ब्रह्म की
तरफ इशारा
करते हैं, गुड़
की तरफ इशारा
करते हैं।
तो
ठीक कहते हैं
उपनिषद कि जो
जाना गया है, वह बोला
नहा जा सकता।
लेकिन फिर भी
जिसने जाना है,
वह बहुत
बोलता है हजार
तरह से बोलता
है, जिंदगीभर
लगा रहता है
बोलने में कि
चलो इधर से
इशारा नहीं
पहुंचा तो इधर
से पहुंच जाए
बाएं से नहीं
तो दाएं से, दाएं से
नहीं तो इधर
से, उधर से,
किसी भी तरह
से तुम्हें
पहुंचा दें
वहां तक जहा
उस अमृत का
ढेर लगा है, जहा तुम उस
स्वाद को ले
लो।
असल
में ज्ञान
जिसको हो गया
है, वह
बिना बोले
कैसे चुप
रहेगा? ऐसा
समझो
कि जिस
आदमी को जल का
स्रोत मिल गया
है और तुम प्यासे
भटक रहे
मरुस्थल में, प्यास से
तुम्हारी
आखें निकली आ
रही हैं, तुम्हारी
सांस टूटी जा
रही है, तुम्हारे
पैर डगमगा रहे
हैं, धूल—धूसरित,
धूप में, जलते मरुस्थल
में तुम भटक
रहे हो और
मुझे पता है
कि जलस्रोत
पास ही है, और
मै चुप
रहूंगा! मैं
चिल्लाऊंगा।
जीसस
ने अपने
शिष्यों से
कहा है, चढ़ जाओ घरों
की मुंडेर पर
और चिल्लाओ
वहा से। क्योंकि
तुम्हें जो
मिला है, बहुतों
को उसकी जरूरत
है; और
उन्हें उसका
कोई पता नहीं,
और इतने पास
है!
नहीं
तो उपनिषद
पैदा न होते, वेद पैदा
न होते, कुरान—बाइबिल
पैदा न होते।
यह धम्मपद
कैसे पैदा
होता? यह
मुंडेर पर कुछ
लोग चढ़ गए और
चिल्लाए। यह
जानते हुए
चिल्लाए कि
चिल्लानेभर
से तुम्हारी प्यास
नहीं बुझ
जाएगी। लेकिन
चिल्लाने से
शायद तुम्हें
पता चल जाए कि
किस दिशा में
स्रोत है जल
का। तुम शायद
चल पड़ो।
बुद्ध
ने कहा है, बुद्धपुरुष
इशारा करते
हैं, चलना
मेतुम्हें
पड़ता है, पहुंचना
तुम्हें पड़ता
है। झेन फकीर
कहते हैं, हम
अंगुली बताते
हैं चांद की
तरफ, कृपा
करके अंगुली
मत पकड़ लेना, अंगुली में
चाद नहीं है।
लेकिन अंगुली
चाद की तरफ
इशारा तो कर
सकती है—अंगुली
में चांद नहीं
है, जाना, लेकिन
अंगुली इशारा
कर सकती है।
मगर आदमी बेईमान
है, बड़ी
तरकीबें हो
सकती हैं।
एक
दफे ऐसा हुआ।
एक सज्जन मेरे
साथ यात्रा
किए। एक आदमी
के वह बड़े
भक्त थे। एक
दफे मुझे भी
खींचकर उनके
पास ले गए कि
आप देख तो लें
एक बार, वह बिलकुल
परमहंस हैं।
मैंने देखा, वह परमहंस
इत्यादि कुछ
भी न थे, उन्हें
सिर्फ मिरगी
की बीमारी थी।
मिरगी आ जाती
थी तो मुंह से
फसूकर गिरने
लगता था, लोग
कहते, समाधि
लग गयी। और
आधे शरीर में
उन्हें लकवा
लग गया था, तो
वह बोल भी
नहीं सकते थे।
बोलते थे तो
सब
अस्तव्यस्त
हो जाता था।
थोड़े—बहुत
बोलते तो वह
भी समझ में
नहीं आता था, क्या कह रहे
हैं। फिर भी
लोग उसमें से
मतलब निकाल
लेते। उसमें
से मतलब
निकालना आसान
भी था। कोई
लाटरी के
टिकिट का नंबर
निकाल लेता
उनके बोलने
से—वह जो
बोलते उसमें
कुछ साफ तो
होता ही नहीं
था, क्या
बोल रहे हैं, सब
गड्ड—बड्ड
था—कोई लाटरी
का नंबर निकाल
लेता, कोई
कुछ निकाल
लेता, कोई
कुछ निकाल
लेता, कोई
लड़के—लड़की के
विवाह की
तारीख निकाल
लेता—तुम्हारी
मौज, तुम
जो निकालना
चाहो। उसमें
तो कुछ था ही
नहीं, वह
जो कहते थे, उसमें तो
कुछ था ही
नहीं मामला, प्रलाप था।
और वह आदमी
करीब—करीब
पागल अवस्था में
थे। मगर भक्त
उनको भोजन
कराते, उनका
जूठा भोजन कर
लेते; चाय
पिलाते, आधा
कप खुद पी
लेते फिर।
यह
सज्जन भी उनके
भक्त थे।
मैंने उनसे
कहा कि यह
आदमी पागल है, इनका
इलाज
होना चाहिए, इनको तुम
नाहक अटकाए
हुए हो। इस
आदमी के पास
कुछ भी नहीं
है। इसे कुछ
हुआ भी नहीं
है। वह कहने
लगे, ऐसा
कैसे हो सकता
है! फिर इतने
लोग इनकी पूजा
कैसे करते
हैं! तो मैंने
कहा, तुम
मेरे साथ चलो।
मैं तुम्हारी
पूजा तीन दिन के
भीतर करवा दूं, फिर तो
मानोगे? वह
बोले, फिर
मान लूंगा। मेरी
कौन पूजा
करेगा? मैंने
कहा, तुम
एक काम करना, तुम चुप
रहना, बोलना
भर नहीं तीन
दिन।
उन्होंने कहा,
ठीक।
वह
मेरे साथ
कलकत्ता गए।
जिस घर में हम
ठहरे थे, वह एक बड़े
प्यारे आदमी
थे—सोहनलाल
दूगडू। अब तो
चल बसे। मैंने
उनसे कहा कि
तुम बोलना ही
मत। जैसे ही
सोहनलाल ने
मेरे साथ इनको
देखा, पूछा,
आप कौन हैं?
मैंने कहा,
आप एक बड़े
परमहंस हैं।
वह बिचारे बड़े
घबडाए, सीधे—सादे
आदमी! तो इनकी
खूबी क्या है?
मैंने कहा,
यह बोलते
नहीं, आपने
तो सुना है न
कि ज्ञानी
बोलते नहीं।
वह एकदम उनके
पैरों में गिर
पड़े, सोहनलाल
उनके पैरों
में गिर पड़े
कि गुरुदेव, अच्छे आए!
वह
तो बड़े हैरान
हुए, सज्जन
तो बड़े हैरान
हुए कि मामला
क्या है! और सीधे—सादे
आदमी हैं, छोटी—मोटी
दुकान है। और
ये सोहनलाल तो
करोड़पति थे, यह तो वह सोच
ही नहीं सकते
थे कि सोहनलाल
के घर में भी
जगह, उनको
प्रवेश
मिलेगा, इसकी
भी संभावना नहीं
थी। सोहनलाल
उनके पैरों
में गिर पड़े, सोहनलाल
उनको भोजन
कराएं, हाथ
से पंखा झले, वह बड़े
बेचैन! रात को
मुझसे बोलते
थे—जब हम दोनों
एकांत में रह
जाएं—वह कहें
कि मुझे छुड़ाओ,
यह बात ठीक
नहीं है, यह
बात उचित नहीं
हो रही है।
और
भी लोग आने
लगे। जब
सोहनलाल किसी
के चरण छूते
हों, तो
वह तो
राजस्थान के
बड़े प्रसिद्ध
आदमी थे, तो
कलकत्ते के और
मारवाड़ी आने
लगे, स्त्रियां
आने लगीं, लोग
फूल चढ़ाने
लगे। वह रात
मुझसे कहें, मुझे बचाओ।
यह बात ठीक
नहीं, यह
पाप हो रहा
है। मैंने कहा,
अभी यह तीन
दिन का मामला
है, अगर
तुम तीन साल
रह जाओ तो
पूरा कलकत्ता
तुम्हें
पूजेगा, तुम
तो चुप भर रहो!
आदमी
बड़ा नासमझ है।
आदमी की
नासमझी का कोई
अंत नहीं। तीन
दिन में तो
हालत यह हो
गयी उनकी कि भीड़
रोकना
मुश्किल हो
गयी। तीन दिन
के बाद जब हम
वापस लौटे, तो ट्रेन
पर उनको कई
लोग छोड़ने आए
थे, फूलमालाएं
पहनायी गयीं
और उनसे लोग
प्रार्थना कर
रहे
थे—गुरुदेव, आप आना।
किसी को उनके
सान्निध्य
में बड़ा लाभ हुआ,
किसी की
बीमारी चली
गयी, किसी
को कुछ हो गया,
किसी को कुछ
हो गया, किसी
की कुंडलिनी
जगी, किसी
को कुछ...। जैसे
ही ट्रेन चली,
वह मेरे पैर
पकड़ लिए, वह
बोले कि मेरी
कुंडलिनी अभी
जगी नहीं, और
इन लोगों की
जग गयी!
सौ में
निन्यानबे
तुम्हारे
संत—महात्मा
ऐसे महात्मा
हैं।
तुम्हारी
मान्यता के
हैं। और
शास्त्रों से
सभी के लिए
सहारा खोजा जा
सकता है। कोई
अड़चन नहीं है।
थोड़ा चालाक
तर्क चाहिए।
मगर उनको बड़ा
लाभ हुआ, इससे उन
सज्जन को बड़ा
लाभ हुआ। फिर
नहीं गए वह
दुबारा उन
महात्मा के पास।
जब उन्होंने
देखा कि
उन्हीं की
जूठी मिठाई
लोग खाने लगे,
तो
उन्होंने कहा,
अब कोई सार
नहीं, मैं
समझ गया, यह
हो सकता है, लोग बिलकुल
अंधे हैं।
लालूदाई
की ये बातें
सुनकर गांव के
लोग खूब प्रभावित
होने लगे।
लालूदाई ने
कहा कि हर कभी, हर मौसम
में थोड़े ही; ठीक समय की
प्रतीक्षा; अनुकूल समय
पर जरूरत हुई,
तुम पात्र
हुए, तो
कहूंगा। और इस
बीच लालूदाई
अपना
व्याख्यान
तैयार करने
में लगे थे।
व्याख्यान
शब्द—शब्द
कंठस्थ हो गया
तो फिर
उन्होंने कहा,
अब मौसम आ
गया है, ऋतु
आ गयी और अब लोग
पात्र हो गए।
वही के वही
लोग! अब ये
मिट्टी के
पात्र थे, अब
सोने के हो
गए। जब
तुम्हारे पास
बोलने को कुछ
आ गया, तो
अब कौन फिकर
करता है पात्र
इत्यादि की।
और अभी तक
कहते थे, इतनी
बोलता ही नहीं,
शानी तो चुप
रहते हैं। अब
वह बात छोड़ दी,
अब ज्ञानी
बोलने लगा। अब
ज्ञानी तैयार
था बोलने के
लिए।
खयाल
रखना, तैयारी
से तुम जो
बोलोगे, वह
झूठ होगा।
सहजता से जो
आएगा, वही
सच होगा। सत्य
सहज आविर्भाव
है। उसका कोई आयोजन
थोड़े ही करना
पड़ता। और जब
तुम आयोजन करोगे
तो मुश्किल
में पड़ोगे।
लालूदाई
अकारण मुश्किल
में नहीं पड़
गए। ऐसे तो बातचीत
कर ही लेते थे!
बोलते ही थे!
तुमने
देखा, हर
आदमी बात कर
लेता है। और
काफी मजे से
बात कर लेता
है। साधारण
आदमी भी
रसदायी बातें
करते हैं।
उनके साथ भी
बात करने में
मजा आ जाए, उनकी
बात सुनने में
मजा आ जाए।
साधारण
आदमियों में
भी बड़ी कला
होती है बोलने
की। लेकिन
उनको मंच पर
बिठा दो तो
मुश्किल खड़ी
हो जाती है।
यही मंच के
नीचे इतने मजे
से बोल रहे थे,
बात कर रहे
थे, मंच पर
बैठते ही कुछ
गड़बड़ हो जाती
है। क्या बात
हो गयी? इनके
पास जबान वही,
कंठ वही, यह आदमी वही,
जरा सी
ऊंचाई पर बैठ
गए, इससे
फर्क क्या पड़
सकता है!
फर्क
यह पड़ जाता है
कि जब तक
साधारण
बातचोत कर रहे
थे, तब
तक इन्हें इस
बात का
अहंकार—बोध
नहीं था कि मुझे
लोगों को
प्रभावित
करना है। तब
तक सीधी—सीधी
बात हो रही थी,
बातचीत हो
रही थी। अब
ऊपर मंच पर
बैठते ही से हजार
आदमी दिखायी
पड़े, दो
हजार आखें
इनकी तरफ
टकटकी लगाकर
देख रही हैं।
अब ये घबडाए, कि कहीं ऐसा
न हो कि मैं
प्रभावित न कर
पाऊं! और जैसे
ही यह खयाल
पैदा हुआ कि
कहीं ऐसा न हो
कि मैं
प्रभावित न कर
पाऊं कि अड़चन
आ जाती है, बाधा
आ जाती है।
लालूदाई
का व्याख्यान
तैयार हो गया, शब्द—शब्द
कंठस्थ हो गया,
तो आसीन हुए
धर्मासन पर।
पूरा गाव
सुनने आया।
तीन बार बोलने
की चेष्टा की,
पर अटक—अटक
गए।
बड़ी
आकांक्षा थी
प्रभावित
करने की, वही अटकाव
बन गयी। नहीं
तो लालूदाई
ऐसे तो बोलते
ही थे। तुम
खयाल रखना, तुम्हारे
जीवन में
जितने उपद्रव
खड़े होते हैं,
वे
प्रभावित
करने की
आकांक्षा से
खड़े होते हैं।
तुम अगर
प्रभावित न
करना चाहो तो
तुम प्रभावशाली
हो। तुम
प्रभावित
करने जाओ, तुम
सारा प्रभाव
खो दोगे।
तुमने
देखा है, एक स्त्री
साधारण बैठी
अपने घर में, अपने बच्चे
के साथ खेल
रही है, सुंदर
होती है। और
जब वही स्त्री
सब तरह का रंग—रोगन
इत्यादि करके,
आभूषण
लादकर और
सुंदर साड़िया
पहनकर सड़क पर
निकलती है, तो अचानक
बेहूदी हो
जाती है। वह
जो सरलता थी, वह जो
सौंदर्य था, वह गया। अब
वह प्रभावित
करने में
उत्सुक है। अब
वह साधारण
स्त्री नहीं
है, अब वह
अभिनय कर रही
है। यह सड़क, दर्शकों की
भीड़ है यहा।
यह सब सड़क जो
है, समझो
थिएटर है, जहा
सारे लोग
देखने को
उत्सुक हैं।
अब उसने खूब
रंग—रोगन कर
लिया है, चेहरे
पर पाउडर पोत
लिया है, भड़काने
वाली साड़ी पहन
ली है, चमकने
वाले गहने पहन
लिए हैं, इन
सबके बीच वह
फूहड़ हो गयी।
फूहड़ता
प्रभावित
करने की
आकांक्षा से
पैदा होती है।
और इस
प्रभावित करने
की आकांक्षा
में वह स्त्री
स्त्री न रही, वेश्या
हो गयी।
वेश्या का
मतलब क्या
होता है? इतना
ही कि दूसरे
को प्रभावित
करने की बड़ी
प्रबल
आकांक्षा है।
इस स्त्री ने
अपना सतीत्व
खो दिया, क्योंकि
अपनी सहजता खो
दी। सौंदर्य
तभी सुंदर
होता है जब
कोई बिलकुल
सहज होता है।
जैसे ही
जटिलता आयी कि
सौंदर्य में
बाधाएं पड़
जाती हैं।
लालूदाई
ऐसे तो बोलते
ही थे। इन्हीं
लोगों को प्रभावित
कर दिया था
कहकर कि क्या
बकवास लगा रखी
है? इन्हीं
को चौंका दिया
था कि क्या
रखा है सारिपुत्र
में! अरे, जवाहरात
की परख करनी
हो तो जौहरी
से पूछो, मैं
रहा जौहरी, मुझसे पूछो।
इन सबको मैं
जानता हूं कुछ
भी नहीं है
इनमें। यही
गांव
प्रभावित हुआ
था। यही गाव
इकट्ठा हो गया
सुनने। आज भीड़
के सामने खड़े
होकर मुश्किल
खड़ी हो गयी।
तीन
बार बोलने की
चेष्टा की, अटक—अटक
गए। बस संबोधन
ही निकलता, उपासको! और
वाणी अटक
जाती।
यह
कहानी पढ़कर
मुझे एक याद
आयी। ऐसी घटना
घटी। जब मैं
विश्वविद्यालय
में
विद्यार्थी
था, तो
मुझे काफी शौक
था वाद—विवाद
में जाने का।
अब भी चला गया,
ऐसा नहीं
है। तो मैं
सारे मुल्क
में कहीं भी विवाद
हो, किसी
यूनिवर्सिटी
में हो, चला
जाता। इतने
मैंने मेडल और
इतनी ट्राफी
इकट्ठी कर ली
थीं कि मेरी
मै। कहने लगी
कि इस घर में
अब जगह बचने
दोगे कि नहीं?
कि हम रहें
कहा? इकट्ठा
ही करता गया।
जहा कहीं खबर
मिलती, मैं
पहुंच जाता।
और मेरा कालेज
बहुत उत्सुक था,
क्योंकि
उनका नाम
बढ़ता।
एक
संस्कृत
महाविद्यालय
में एक
प्रतियोगिता
थी। तो मैं
गया वहा भाग
लेने।
संस्कृत
महाविद्यालय
था, तो
स्वभावत:
संस्कृत
महाविद्यालय
के विद्यार्थी
अंग्रेजी तो
ठीक से जानते
नहीं, पढ़ाई
भी नहीं जाती
थी उन्हें; थोड़ा—बहुत, ऐसा एक
औपचारिक विषय
की तरह पढ़ते
थे। और यह भी खयाल
रखना कि
संस्कृत
पढ्ने वाला
विद्यार्थी
जब किसी को
प्रभावित
करना चाहे तो
वह अंग्रेजी का
उपयोग करेगा।
तो
संस्कृत
कालेज का जो
विद्यार्थी
भाग ले रहा था
प्रतियोगिता
में, तीन—चार
शब्द तो उसने
हिंदी में
बोले और इसके बाद
उसने बट्रेंड
रसल का एक
उद्धरण
अंग्रेजी में
उद्धृत किया।
वह प्रभावित
करने के लिए
सोचा होगा कि
इससे प्रभाव
पड़ेगा, कि
हम संस्कृत के
विद्यार्थी
कोई गांव के
गंवार नहीं
हैं। हम भी
अंग्रेजी
जानते हैं और
बर्ट्रेड रसल
को भी जानते
हैं। उसी में
वह झंझट में
पड़ गया।
दो—तीन शब्द
तो बोला, चौथे
पर अटक गया।
मैं
उसके पास ही
बैठा था, उसकी
दुर्दशा
देखकर—वह इतनी
मुश्किल में
पड़ गया! अब
उसने रटा होगा
बिलकुल क्रम
से। रटने की
एकखराबी यह
होती है कि उसमें
कम नहीं बदल
सकते, क्योंकि
एक शब्द के
बाद दूसरा
शब्द, जैसा
रेलगाड़ी में
डिब्बे के बाद
डिब्बा आता है,
अब वह आए ही
नहीं। एक अटक
गया तो पूरी
अटक गयी, तो
मैंने तो उसको
सहायता देने
के लिए धीरे
से कहा कि तू
फिर से शुरू
कर, शायद आ
जाए। वह भी हइ
नासमझ था, उसने
फिर से शुरू
कर दिया, उसने
फिर कहा, भाइयो
एवं बहनो! तो
लोग बहुत
चौंके कि यह
मामला—और फिर
वही शब्द
दोहराए, फिर
वही
बर्ट्रेंड
रसल का उद्धरण,
और वह फिर
वहीं अटक गया।
अब तो वह घबड़ा
गया।
अब
तो मुझे भी
आनंद आया।
मैंने कहा, फिर से!
अटका हुआ आदमी,
मुश्किल
में पड़ा क्या
करे? कुछ
सूझे भी नहीं,
आगे कोई गति
भी नहीं, उसने
फिर शुरू कर
दिया कि भाइयो
एवं बहनो! तब तो
सारा
विद्यार्थियों
का समूह ताली
पीटने लगा, लोग नाचने
लगे कि हइ हो
गयी! वह वहां
से आगे नहीं
बढ़ा। उसके दस
मिनिट—वह भाइयो
एवं बहनो, तीन—चार
शब्द, फिर
बर्ट्रेड रसल
ने क्या कहा
उसके तीन—चार
शब्द, और
वहीं आकर बस
फुलस्टाप।
वहां आकर एकदम
गाड़ी उसकी रुक
जाए। उनका
पूरा
व्याख्यान
वही रहा।
लालूदाई
की कुछ वैसी
हालत हुई
होगी। संबोधन
निकला तीन बार, उपासको!.?
उपासको!..
उपासको!?, और
फिर अटक गए।
चौथी बार तो
संबोधन भी
नहीं निकला।
पसीना—पसीना
हो गए। सब
सूझ—बूझ खो
गयी। याद किया,
कुछ याद न
आया। हाथ—पैर
कैपने लगे और
घिग्घी बंध
गयी। तब तो
गांव वाले
असलियत पहचान
गए।
यह
भी खूब बोध
हुआ, समाधि
हुई! और यह धर्मोपदेश
करने चले थे
लालूदाई! और
सारिपुत्र और
मौदगल्लायन
को कहते थे, क्या रखा है
इनमें। और भगवान
की भी आलोचना
करने से चूकते
नहीं थे। तो
गांव के ही तौ
लोग थे, उन्होंने
कहा, हटाओ
इसको, भगाओ
इसको। वे उनके
पीछे दौड़ने
लगे। लालूदाई भागे।
गांव के लोग
चिल्लाने लगे
कि यह भी खूब
रहा, यह
आदमी
सारिपुत्र और
मौदगल्लायन
की निंदा करता,
प्रशंसा
नहीं सुन सकता,
और अपने आप
से कुछ कह ही
नहीं रहा है, कुछ निकलता
ही नहीं इससे,
यह खूब
धर्मोपदेश
हुआ!
लालूदाई
भागते हुए
मल—मूल के एक
गट्टे में गिर
पड़े और गंदगी
में लिपट गए।
आदमी अहंकार से
जीए तो गंदगी
में ही जीता।
आदमी ईर्ष्या
सै जीए तो
गंदगी में ही
जीता। तुम तभी
निर्मल होते
हो, जब न
भीतर कोई
अहंकार होता
है, न बाहर
कोई ईर्ष्या
होती है। तब
तुम स्वच्छ होते
हो—सद्य:स्नात,
अभी—अभी
नहाए हुए। तब
तुम कमल के
फूल की तरह होते
हो, सदा
नहाए हुए, तुम
पर धूल का एक
कण भी नहीं
जमता। धूल
बाहर से नहीं
आती, धूल
भीतर से आ रही
है।
भगवान
के पास खबर
पहुंची और
भगवान ने कहा, भिक्षुओ,
अभी ही नहीं,
यह लालूदाई
जन्मों—जन्मों
से ऐसे ही
गंदगी में
गिरता रहा है।
भिक्षुओ, अहंकार
गंदगी है, मल
है। भिक्षुओ,'
अल्पज्ञान
घातक है। इस
लालूदाई ने
थोड़ा सा धर्म
सीखा है, लेकिन
उसका भी
स्वाध्याय
नहीं किया, उसे भी
पचाया नहीं।
शब्द
सीख लिए हैं
इसने कुछ, लेकिन
शब्दों का
अर्थ भी नहीं
जानता।
ऊपर—ऊपर की
कुछ जानकारी
इकट्ठी कर ली
है, भीतर
का इसे कुछ
पता नहीं है।
और इसने कभी
स्वाध्याय
नहीं किया।
स्वाध्याय का
अर्थ होता
है—शब्द सुन
लिया, शब्द
में अर्थ नहीं
होता, अर्थ
तो स्वाध्याय
से आता है।
जैसे
समझो, बुद्ध
ने ध्यान के
संबंध में कुछ
समझाया, तुमने
सुन लिया कि
ध्यान की
प्रक्रिया
क्या है, विधि
क्या है; ये
तो सिर्फ शब्द
हैं। तुम
ध्यान करोगे
तो इनमें अर्थ
पड़ेगा। मैंने
प्रेम के
संबंध में कुछ
कहा, तुमने
सुन लिया; तुमने
ये शब्द लिख
लिए अपनी मन
की किताब पर, मगर इनमें
अर्थ नहीं है,
ये तो सिर्फ
शब्द हैं, तुम
प्रेम करोगे
तो जानोगे
अर्थ। अर्थ तो
तुम्हें
डालना होता
है। अर्थ
स्वाध्याय से
आता है।
स्वाध्याय का
अर्थ होता है,
जो सुना, उसे जीओ। जो
सुना, उसे
करो। जो सुना,
वैसे चलो।
थोड़ा अनुभव
में उतारों।
स्वाध्याय
शब्द बड़ा
अदभुत है।
इसके भी हमने
बड़े गलत अर्थ
कर लिए हैं।
स्वाध्याय का
लोग अर्थ
समझते हैं, अध्ययन।
अगर अध्ययन ही
कहना था तो
स्वाध्याय काहे
के लिए कहते, अध्ययन शब्द
तो उन्हें पता
था। एक आदमी
बैठ जाता है शास्त्र
खोलकर और कहता
है, स्वाध्याय
कर रहे हैं।
इसमें स्व
शब्द को देखते
हो कि नहीं? किताब का
अध्ययन होता
है, स्वाध्याय
कैसे किताब से
होगा? किताब
का अध्ययन करो
और फिर किताब
में जो पाया
है, उसे
स्वयं में
खोजो, तब
स्वाध्याय
होगा। किताब
क्या करेगी? किताब में
सब लिखा पड़ा
है। किताब में
लिखा पड़ा है, किताब मुक्त
तो नहीं हो
गयी है, किताब
को निर्वाण तो
नहीं मिल गया
है, किताब
को समाधि तो
नहीं लग गयी
है! किताब में
जो लिखा है, उसे तुम
भीतर की किताब
में लिख लो, इससे क्या
होगा? उसकी
फोटो—कापी कर
ली, ठीक—ठीक
कंठस्थ कर
लिया, वेद
दोहराने लगे,
शब्दशः
दोहराने लगे,
तो इससे
तुम्हारी
स्मृति अच्छी
है इसका तो सबूत
मिलेगा, लेकिन
इससे बोध का
कोई जन्म नहीं
होगा। स्वाध्याय
का अर्थ होता
है, जो
सुना, जो
पढ़ा, अब
उसको परखो भी।
उसको कभी जीवन
में उतारो, उस किरण के
साथ थोड़ा चलो
भी।
मैंने
तुमसे कहा कि
दो मील दूर
चलकर बाएं अगर
तुम चलते रहे, तो सागर
पर पहुंच
जाओगे। तुम
यहीं बैठे इसी
का अध्ययन
करते रहे। ऐसा
समझो कि मील
के पत्थर के
पास बैठ गए, उस पर तीर
लगा है, लिखा
है कि सागर दो
मील दूर है।
उसी पत्थर की
पूजा कर रहे
हैं, यह
अध्ययन। उस
पत्थर की मान
ली और चल पड़े
जिस तरफ तीर
था। पत्थर तो
सागर नहीं है,
पत्थर को
पीकर प्यास
थोड़े ही
बुझेगी।
पत्थर तो सागर
की तरफ ले
जाने वाला है।
अगर चल पड़े, तो
स्वाध्याय।
अगर बैठकर
गुनगुनाते
रहे शब्दों को
तो अध्ययन, अगर अध्ययन
तुम्हारा
जीवन बन गया
तो
स्वाध्याय।
तो
बुद्ध ने कहा, इसने
स्वाध्याय
नहीं किया और
पचाया नहीं।
देखो, भोजन
कर लेने से
पुष्टि नहीं
मिलती। भोजन
कर लेने मात्र
से थोड़े ही
कोई पुष्ट
होता है। भोजन
जब तक पचे न, तब तक
पुष्टि नहीं
मिलती है।
तुमने
भोजन कर लिया
और अगर पचे न, तो तुम और
कमजोर हो
जाओगे। अगर
अपच हो जाए, अगर उल्टी
हो जाए, वमन
हो जाए, तो
तुम जितने
शक्तिशाली थे
भोजन करने के
पहले, उससे
कम शक्तिशाली
रह जाओगे। तुम
और कमजोर हो जाओगे।
असली बात तो
पचना है। थोड़ा
भोजन भी हो, लेकिन पचे
तो ऊर्जा देगा,
शक्ति देगा,
पुष्टि
देगा, बल
देगा।
थोड़ा
जानो, लेकिन
पचाओ। अक्सर
ऐसा हो जाता
है कि तुम
बहुत जान लेते
हो, पचता
ही नहीं।
पांडित्य एक
तरह का अपच
है। पांडित्य
एक तरह का
अपने भीतर
बहुत भोजन ले
लेना है, जिसको
शरीर पचा नहीं
सकता।
प्रज्ञा
पचाने का नाम
है। तो बुद्ध
ने कहा, यह
लालूदाई कुछ
ज्यादा जानता
नहीं, जो
थोड़ा—बहुत
जानता है, वह
भी इसे पचा
नहीं।
भिक्षुओं, इससे
सीख लो।
आलोचना सरल।
कोई
दूसरा क्या कह
रहा है, इसे गलत
सिद्ध करना
बहुत सरल।
सत्य क्या है,
उसे सिद्ध
करना बहुत
कठिन है। सच
तो यह है, निंदक
और आलोचक वे
ही लोग बन
जाते हैं, जो
पाते हैं कि
सत्य के सृजन
करने की उनकी
क्षमता नहीं।
जो कवि कविता
करने में असफल
हो जाता है वह
आलोचक बन जाता
है। तुम जब
कुछ नहीं कर
पाते, तो
कम से कम इतना
तो कर ही सकते
हो कि दूसरे
जो कर रहे हैं,
गलत कर रहे
हैं। यह तो
बड़ा आसान है।
तुम
ध्यान करने आओ, अगर
ध्यान न कर
पाओ, तो
इतना तो तुम
कर ही सकते हो
कि ये जो लोग
कर रहे हैं, ये सब पागल
हैं। इसमें तो
कुछ अड़चन नहीं
है। यह तो बड़ी
सरलता से कह
सकते हो, इसमें
तो कुछ खर्च
भी नहीं लगता।
न रंग लगे न फिटकरी।
कुछ लगता ही
नहीं। यह तो
मजे से कह दो, इसे कहने
में क्या अड़चन
है! अधिक लोग
इसीलिए जीवन
में बांझ रह
जाते हैं, उनके
जीवन में कोई
सृजन नहीं हो
पाता। क्योंकि
उनकी ऊर्जा
व्यर्थ की
बातों की दिशा
में संलग्न हो
जाती है।
विध्वंस
सरल, सृजन
कठिन है। कुछ
बनाओ, तो
जीवन में
उल्लास होगा,
तो जीवन में
उत्सव होगा।
यह लालूदाई ने
बनाया तो कुछ
भी नहीं है, सारिपुत्र
को देखकर जलता
है, मौदगल्लायन
को देखकर जलता
है।
जिन्होंने कुछ
बनाया है, उनसे
जलता है और
खुद कुछ बनाया
नहीं।
दो
बातों का फर्क
समझना।
दुनिया में दो
तरह के लोग
हैं। पहले तरह
के लोग, जिनकी
संख्या बहुत
है, वे
अपने को तो
बड़ा नहीं करते,
दूसरे को
छोटा करने की
कोशिश में लगे
रहते हैं। वे
सोचते हैं, जब दूसरा
छोटा हो जाएगा
तो तुलना में
हम बड़े मालूम
पड़ने लगेंगे।
तर्क तो एक
अर्थ में ठीक
ही है।
।
इसीलिए तुम
किसी की
प्रशंसा नहीं
सुन पाते हो।
कोई कहे कि
फलां आदमी बड़ी
अच्छी बासुरी
बजाता है, तुम कहते
हो, क्या खाक
बासुरी
बजाएगा! उसको
मैं जानता हूं, अरे, पर—स्त्रीगामी
है!
अब
पर—स्त्रीगामी
से बांसुरी
बजाने में कौन
सी अड़चन पड़ती
है! कि चोर, वह क्या
बांसुरी
बजाएगा! अब
चोरी से
बांसुरी बजाने
में कौन सी
बाधा पड़ती है!
चोर भी
बांसुरी बजा
सकता है, इसमें
असंगति क्या
है?
तुम्हें
कोई, तुमने
खयाल किया है
कि जब कोई
किसी की
प्रशंसा करता
है तो
तुम्हारे मन
में एकदम
खुजलाहट होती
है—खंडन कर
दो। कि अरे, देख लिए सब
महात्मा! सब
पाखंड है!
कितने महात्मा
देखे तुमने'? देख लिए सब
महात्मा!
तुम
यह मान ही
नहीं सकते कि
कोई तुमसे
बेहतर हालत
में हो सकता
है। क्योंकि
अगर कोई तुमसे
बेहतर हालत में
है, तो
फिर तुम्हें
कुछ करना
पड़ेगा। फिर
तुम्हें उठना
पड़ेगा, तुम्हें
अपने को बदलना
पड़ेगा, रूपांतरण
करना होगा।
तो
दुनिया में
अधिक लोग बांझ
मर जाते हैं, उनके
जीवन में कुछ
पैदा नहीं
होता,
कोई
फूल नहीं
खिलते और कोई संगीत
पैदा नहीं
होता, कोई
सुगंध नहीं
बिखरती, कभी
दीया नहीं
जलता। और
जिम्मेवार वे
ही हैं, क्योंकि
वे दीया जलाते
ही नहीं। वे
तो दूसरे का
दीया फूंकने
में लगे रहते
हैं, कि जब
किसी का जला
हुआ नहीं
दिखायी पड़ेगा
तो अपनी ही
अड़चन क्या है!
इसलिए लोग
सुबह से उठकर
अखबार पढ़ते
हैं। और अखबार
पढ़कर बड़ी
शांति मिलती
है, गीता
पढ़ो तो शांति
नहीं मिलती।
गीता पढ़ो तो
अशांति
मिलती है।
समझ
लेना मेरी बात, क्या मैं
कह रहा हूं!
नहीं तो तुम
कहोगे, भगवान
ने गलत बात कह
दी। गीता पढ़ो
तो अशांति मिलती
है, क्योंकि
गीता पढ़ो तो
यह पता चलता
है कि तुम
कहां
कीड़े—मकोड़ों
की तरह सरक
रहे हो, उठो!
पहाड़ खड़ा हो
जाता है
सामने। इसको
चढ़ना पड़ेगा।
अर्जुन चढ़ गया,
तुम क्यों
नहीं चढ़ रहे
हो? बेचैनी
होती है, गीता
पढ़कर शांति
नहीं मिलती।
जिनको मिलती
है, उन्होंने
गीता पढ़ी
नहीं। गीता
पढ़ोगे तो अशात
हो जाओगे। तब
दुकानदारी
नहीं कर सकोगे
इतनी आसानी से
जैसी कर रहे
हो, क्योंकि
फिर अर्जुन कब
बनोगे? फिर
यह
कृष्ण—चेतना
का अनुभव कब
करोगे? फिर
यह छोटी—छोटी
बातों में
उलझे हो, इसमें
नहीं उलझे रह
सकोगे। फिर
भगवान को कब
पुकारोगे? फिर
समर्पण कब
होगा? फिर
अर्पण कब
होओगे? यह
समय बहा जा रहा
है।
गीता
तो बेचैन कर
देगी, झकझोर
देगी। गीता तो
कहेगी, उठो,
अब बहुत समय
तो बीत ही
चुका है, थोड़ा
जो बचा है, उसका
कुछ उपयोग कर
लो। एक बेचैनी,
एक दिव्य
बेचैनी, एक
दिव्य असंतोष
तुम्हारे
भीतर पैदा हो
जाएगा।
तो
मैं तुमसे
कहता हूं गीता
पढ़ोगे तो अशात
हो जाओगे। अखबार
पढ्ने से बड़ी
शांति
मिलती है। इसीलिए
लोग अखबार
पढ़ते हैं, गीता
नहीं पढ़ते।
अखबार पढ्ने
से क्या शांति मिली? पढ़ा
अखबार—फलां
आदमी फलां
आदमी की
स्त्री को ले
भागा।
तुम्हें मन
में बड़ी शांति
मिलती है कि
देखो, हम
पत्नीव्रती।
हम तो कभी
किसी की
स्त्री लेकर
नहीं भागे।
फलां आदमी ने
हत्या कर दी।
हम बेहतर। सोचते
कभी—कभी हत्या
करने की, मगर
कर थोड़े ही
देते! फलां
जगह दंगा—फसाद
हो गया, इतने
लोग मारे गए।
चित्त शात
होता है कि
चलो, अपन
तो नहीं झंझट
में पड़ते। तुम
अखबार पढ़कर एक
बात से
निश्चित हो
जाते हो कि
तुम दुनिया के
सबसे बेहतर
आदमी हो।
अखबार पढ़कर
बड़ी शांति
मिलती है।
और
जिस दिन अखबार
में बुरी
खबरें नहीं
होती हैं, उस दिन
तुम कहते हो, आज कोई खबर
ही नहीं।
क्योंकि असली
खबर तो तुम जिसकी
तलाश करते हो
वह यह कि
कितने लोग भाग
गए, कितने
लोग किनकी
स्त्रियां ले
भागे, कितनों
ने चोरी की, कितनों ने
हत्या की, कितनों
ने बुरा किया!
अखबार
में सनसनीखेज
बात कौन सी
होती है? सनसनीखेज
बात वही होती
है जिससे
तुम्हारे भीतर
यह सिद्ध होता
है कि तुम
बेहतर आदमी
हो। अरे, इन
सबसे
तो
तुम्हीं
बेहतर! इनसे
तो हम ही
बेहतर! जब भी दूसरा
छोटा हो जाता
है।
इसलिए
तुम देखना, निंदा
में रस होता
है। अगर कोई
आदमी आए और
किसी की निंदा
करने लगे, तो
तुम हजार काम
छोड़कर कहते
हो, हा भाई,
और कुछ
सुनाओ। फिर
क्या हुआ? फिर
इसके आगे क्या
हुआ? फिर
तुम्हें एक
खुजलाहट पैदा
होती है। तुम
हजार काम छोड़
देते हो। तुम
भगवान की
प्रार्थना कर
रहे थे, तुम
छोड़ देते हो।
कोई निंदक आ
गया, तुम
कहते हो छोड़ो,
प्रार्थना
फिर कर लेंगे,
ये निंदक
महाराज मिलें,
न मिलें।
इनको वैसे काम
भी काफी रहता
है, क्योंकि
जो मिल जाता
है वही इनको
घंटों रोक लेता
है कि कहो भाई,
क्या खबर?
चलते—फिरते
अखबार भी हैं, जीते—जागते
अखबार भी हैं।
और स्वभावत:
जीते—जागते
अखबार जैसी
खबरें लाते
हैं, छपे
अखबार नहीं ला
सकते। छपे
अखबारों पर
कुछ सरकारी
नियंत्रण भी
होता है। ये
जीते—जागते अखबार,
इन पर कोई
नियंत्रण
नहीं, ये
क्या बोलते, इन पर कोई
मुकदमा नहीं
चलता है, कोई
अदालत में
नहीं घसीटा
जाता, कोई
इनको प्रमाण
नहीं जुटाना
पड़ता।
एक
स्त्री एक
दूसरी स्त्री
को किसी तीसरी
स्त्री के
संबंध में
निंदा की
बातें कह रही
थी। पहली
स्त्री बड़ी
प्रसन्नता से
सुन रही थी।
जब पूरी बात
हो गयी तो
उसने कहा, अरे, कुछ
और सुनाओ!
थोड़ा कुछ और
बताओ! फिर
क्या हुआ? उस
स्त्री ने कहा,
अब छोड़ो भी,
जितना मैं
जानती थी, उससे
दुगुना तो बता
ही चुकी।
आदमी
बढ़ा—चढ़ाकर
निंदा कर रहा
है। और निंदक
तुम्हें
अच्छे लगते
हैं। कबीर ने
तो किसी और
मतलब से कहा
था, निंदक
नियरे राखिए
आगन कुटी
छवाय। तुम भी
रखते हो, लेकिन
किसी और मतलब
से। कबीर ने
तो कहा था, अपना
निंदक
आगन—कुटी
छवाकर अपने
पास ही रख लेना
चाहिए कि अपनी
निंदा करता
रहे। तुम भी
निंदक को पसंद
करते हो, अपने
को नहीं, दूसरों
का निंदक। तुम
उसके लिए
आगन—कुटी छवाकर
रख लेते हो।
तुम कहते हो, आओ हमारे घर
में ही विराजो
महाराज। यहीं
भोजन कर लेना
आज, और फिर
कुछ गपशप
होगी!
जब
कोई किसी की
निंदा करता है
तो तुम्हें
अच्छा लगता है, क्योंकि
वह सारी
दुनिया को
छोटा करके
दिखला रहा है।
उसकी तुलना
में अचानक
तुम्हारी
लकीर बड़ी हौने
लगती है। यह
दुनिया के
अधिकतम लोगों
की व्यवस्था
है बड़े होने
की। यह बडे
होने का कोई
मार्ग नहीं है।
यह थोथी बात
है।
तुम
खयाल रखना कि
जो दूसरों की
निंदा तुमसे
कर रहा है, वह उनके
पास जाकर
तुम्हारी
निंदा करता
है। करेगा ही।
तुमसे और
दूसरों से उसे
क्या लेना—देना
है! वह तो
निष्पक्ष भाव
से निंदा करता
है। वह तो
जिसके पास चला
जाता है, दूसरों
की निंदा कर
देता है, और
प्रसन्नता से
एक कप चाय पी
लेता है, सिगरेट
पी लेता है, अपना आगे बढ़
जाता है।
दूसरा
जो वर्ग है, बहुत
अल्प, छोटा
सा वर्ग है।
हजार में एक, लाख में एक।
जो
दूसरे को छोटा
करके बड़ा नहीं
होना चाहता, जो स्वयं
ही बड़ा होना
चाहता है। वही
व्यक्ति साधना
में उतरता है,
जो स्वयं ही
बड़ा होना
चाहता है।
जिसको परमात्मा
ने सीधा—सीधा
पुकारा है, जो दूसरे के
बहाने नहीं।
वह जाकर भगवान
से यह नहीं
कहेगा कि मैं
अच्छा आदमी
हूं क्योंकि
मेरे पड़ोसी
मुझसे भी
ज्यादा बुरे
आदमी थे। नहीं,
वह भगवान के
सामने कहना
चाहेगा कि
देखो मेरे भीतर,
दूसरे की
तुलना में
अच्छा—बुरा
नहीं हूं मैं
जैसा हूं यह
सामने खड़ा
हूं। तुलना से
जो बड़प्पन पैदा
होता है, वह
झूठा है।
तुम्हारे
स्वयं के
निखार से जो
बड़प्पन पैदा
होता है, वही
सच्चा है।
तो
बुद्ध ने कहा, विध्वंस
सरल, सृजन
कठिन। और
आत्मसृजन तो
और भी कठिन
है। अहंकार स्पर्धा
जगाता।
स्पर्धा में
ईर्ष्या होती,
ईर्ष्या से
द्वेष, द्वेष
से शत्रुता और
फिर तो
अंतर्बोध जगे
कैसे? सारी
शक्ति तो इसी
में व्यय हो
जाती है। इसी
मरुस्थल में
खो जाती है
नदी, सागर
तक पहुंचे
कैसे ' दूसरे
का विचार ही न
करो, समय
थोड़ा है, स्वयं
को जगा लो, बना
लो, अन्यथा
मल—मूत्र के
गड्डों में
बार—बार गिरोगे।
भिक्षुओ, तुम्हीं
कहो, बार—बार
गर्भ में गिरय
मल—मूत्र के
गड्डे में गिरना
नहीं तो और
क्या है!
यह
बात बड़ी गजब
की कही बुद्ध
ने। मां का
पेट है क्या ' मल—मूत्र
का गड्डा है।
वहां और है
क्या ' बच्चा
मल—मूत्र में
लिपटा ही पड़ा
रहता है नौ
महीने तक।
बार—बार जन्म लेना
मल—मूत्र के
गट्टे में
बार—बार गिरना
है।
बुद्धपुरुष
छोटी—छोटी
घटना से बड़े
गहरे इशारे ले
लेते हैं। अब
कहां लालूदाई
का मल—मूत्र के
गट्टे में
गिरना और कहा
बुद्ध ने
खींचा उस बात
को। किस
अपूर्व तल पर
ले गए! और उन्होंने
कहा, यह
लालूदाई
जन्म—जन्म में
गिरता रहा है।
वह इसी की बात
कर रहे हैं कि
यह बार—बार
ऐसे ही भटकता रहा।
इसने कभी अपने
को बनाया नहीं,
दूसरों की
निंदा में लगा
दी, वही
शक्ति
आत्मसृजन बन
सकती थी। उसी
शक्ति की छेनी
बनाकर अपनी
मूर्ति का
निर्माण कर
सकता था, भगवान
हो सकता था।
वह तो किया
नहीं और
बार—बार गड्डों
में गिरा।
गट्टे—गर्भ के
गड्डे।
यह
अकेला देश है
पृथ्वी पर जहा
हमने गर्भ को
मल—मूत्र का
गड्डा जाना।
बड़ी सच्ची बात
है। दुनिया
में कहीं नहीं
कही गयी यह
बात। क्योंकि
यह बात ही
घबडाती है
हमको कि
मल—मूत्र का
गड्डा मा का
पेट! लेकिन है
तो मल—मूत्र
का गड्डा; घबडाए, चाहे न
घबडाए लेकिन
सच तो सच है।
सच को झूठ तो किया
नहीं जा सकता।
दुबारा जन्म
लेने का मतलब
फिर नौ महीने
मल—मूत्र के
गड्डे में
पड़ोगे।
और
फिर जीवनभर भी
क्या है।
मल—मूत्र ही
पैदा करते हैं
अधिक लोग, और तो कुछ
पैदा करते ही
नहीं। इधर
भोजन किया, उधर
मल—मूत्र
किया। अगर
उनका पूरा काम
तुम समझो तो
ऐसा ही है
जैसे एक
नली—एक तरफ से
भोजन डालो, दूसरे तरफ
से भोजन
निकालते रहो।
कुछ और पैदा करते
हो! आत्मा
जैसी कोई चीज
पैदा होती है!
चेतना जैसी
कोई चीज पैदा
होती है!
इस
फर्क को खयाल
में लेना।
भोजन तुम भी
करते हो, भोजन
रवींद्रनाथ
भी करते हैं, भोजन
कालिदास भी
करते हैं, भोजन
महावीर भी
करते हैं, बुद्ध
भी करते हैं।
लेकिन उसी
भोजन से
रवींद्रनाथ
के जीवन में
गीत लगते हैं,
उसी भोजन से
कालिदास के
जीवन में
काव्य लगता, उसी भोजन से
महावीर के जीवन
में अहिंसा
लगती, उसी
भोजन से बुद्ध
के जीवन में
समाधि फलती, तुम्हारे
जीवन में क्या
फलता न सिर्फ
मल—मूत्र पैदा
होता है।
यह
कुछ अजीब सी
बात है। इस
ऊर्जा को
रूपांतरित
करो।
तो
बुद्ध ने ये
सूत्र कहे
'स्वाध्याय न
करना मंत्रों
का मैल है।
मंत्र
तो सीख लिया, दोहरा
दिया तोते की
तरह और उसका
स्वाध्याय न
किया, तो
मंत्र पर धूल
जम जाती है।
फिर मंत्र
मैला हो गया।
मंत्र को साफ
करो, निखारो।
मंत्र में
जरूर शक्ति
है—जैसे दर्पण
में चित्र बन
सकता
तुम्हारा, लेकिन
धूल तो हटाओ।
जैसे दर्पण पर
धूल जम जाती
है, ऐसा
बुद्ध कहते
हैं, मंत्र
पर भी धूल जम
जाती है, शास्त्र
पर भी धूल जम
जाती है, शब्द
पर भी धूल जम
जाती है, उसे
झाड़ो। झाड़ोगे
कैसे? स्वाध्याय
से। जो कहा है
शब्द ने, उसे
जीवन में
उतारो, निखारो,
पहचानो, परीक्षा
करो, प्रयोग
करो।
'झाड़—बुहार न
करना घर का
मैल है।
और
जैसे घर में
कोई झाडू—बुहारी
न लगाए, तो घर में
मैल, धूल
इकट्ठी होती
जाती है। ऐसे
ही भीतर कोई
झाडू—बुहारी न
लगाए तो भीतर
के घर में भी
धूल इकट्ठी
होती चली जाती
है। जिनको तुम
विचार कहते हो,
वे धूल के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
हैं।
एक
झेन कथा है।
एक
युवक अपने
गुरु के पास
वर्षों रहा, और गुरु
कभी उसे कुछ
कहा नहीं।
बार—बार शिष्य
पूछता कि मुझे
कुछ कहें, आदेश
दें, मैं
क्या करूं? गुरु कहता, मुझे देखो।
मैं जो करता
हूं वैसा करो।
मैं जो नहीं
करता हूं,
वह मत करो, इससे
ही समझो।
लेकिन उसने
कहा, इससे
मेरी समझ में
नहीं आता, आप
मुझे कहीं और
भेज दें।
झेन—परपरा में
ऐसा होता है
कि शिष्य मल
सकता है कि
मुझे कहीं भेज
दें, जहां
मैं सीख सकूं।
तो गुरु ने
कहा, तू जा,
पास में एक
सराय है कुछ
मील दूर, वहां
तू रुक जा, चौबीस
घंटे ठहरना और
सराय का मालिक
तुझे काफी बोध
देगा।
वह
गया। वह बड़ा
हैरान हुआ।
इतने बड़े गुरु
के पास तो बोध
नहीं हुआ और
सराय के मालिक
के पास बोध
होगा!
धर्मशाला का
रखवाला! बेमन
से गया। और वहा
जाकर तो देखी
उसकी शकल—सूरत
रखवाले की तो और
हैरान हो गया
कि इससे क्या
बोध होने वाला
है! लेकिन अब
चौबीस घंटे तो
रहना था। और
गुरु ने कहा
था कि देखते
रहना, क्योंकि
वह धर्मशाला
का मालिक शायद
कुछ कहे न कहे, मगर देखते
रहना, गौर
से जांच करना।
तो
उसने देखा कि
दिनभर वह धूल
ही झाड़ता रहा, वह
धर्मशाला का
मालिक, कोई
यात्री गया, कोई आया, नया
कमरा, पुराना,
वह धूल
झाड़ता रहा
दिनभर। शाम को
बर्तन साफ करता
रहा। रात
ग्यारह—बारह
बजे तक यह
देखता रहा, वह बतईन ही
साफ कर रहा था,
फिर यह सो
गया। सुबह जब
उठा पाच बजे, तो भागा कि
देखें वह क्या
कर रहा है; वह
फिर बर्तन साफ
कर रहा था।
साफ किए ही
बर्तन साफ कर
रहा था। रात
साफ करके रखकर
सो गया था।
इसने
पूछा कि
महाराज, और सब तो ठीक
है, और
ज्यादा ज्ञान
की मुझे आपसे
अपेक्षा भी
नहीं, इतना
तो मुझे बता
दें कि साफ
किए बर्तन अब
किसलिए साफ कर
रहे हैं? उसने
कहा, रातभर
भी बर्तन रखे
रहें तो धूल
जम जाती है। उपयोग
करने से ही
धूल नहीं जमती,
रखे रहने से
भी धूल जम
जाती है। समय
के बीतने से
धूल जग जाती
है।
यह
तो वापस चला आया।
गुरु से कहा, वहां
क्या सीखने
में रखा है, वह आदमी तो
हद पागल है।
वह तो बर्तनों
को घिसता ही
रहता है, रात
बारह बजे तक
घिसता रहा, फिर सुबह
पांच बजे
सें—और
घिसे—घिसायों
को घिसने लगा।
उसके गुरु ने
कहा, यही
तू कर, नासमझ!
इसीलिए तुझे
वहा भेजा था।
रात भी घिस, घिसते—घिसते
ही सो जा, और
सुबह उठते ही
से फिर घिस।
क्योंकि रात
भी सपनों के
कारण धूल जम
जाती है। समय
के बीतते ही धूल
जम जाती है।
विचार
और स्वभ हमारे
भीतर के मन की
धूल हैं।
तो
बुद्ध ने कहा, 'झाडू—बुहार
न करना.।’
असज्झायमला
मंता
अनुट्ठानमला
घरा।
मलं
वण्णस्स कोसज्जं
पमादो रक्सतो
मलं।।
'और आलस्य
सौंदर्य का
मैल है।’
सौंदर्य
यानी
जीवंतता।
जितने तुम
जीवंत हो, उतने तुम
सुंदर हो।
जितने तुम
जीवंत हो, उतने
तुम परमात्मा
के निकट हो, क्योंकि
जीवन की धारा
उतनी ही तुमसे
बहेगी, उतने
ही तुम सुंदर
हो।
'आलस्य
सौंदर्य का
मैल है।’
तो
बुद्ध कहते
हैं, आलसी
न बनो।
' और प्रमाद
पहरेदारी का
मैल है।’
मूर्च्छा, सो जाना,
झपकी खा
जाना, वह
पहरेदारी कर
मैल है। जागे
रहो; होश
को जगाए रहो, भीतर एक
ज्योति जलती
रहे होश की, जौ भी करो
होश से करो। 'इन
सब मैलों से
भी बढ़कर
अविद्या का
परम मैल है।’
स्वयं
को न जानने का
नाम है, अविद्या।
'भिक्षुओ, इस मैल को
छोड़कर
निर्मल बनो।’
ततो मला
मलंतरं
अविज्जा परमं
मलं।
एत मलं
पहत्वान
निम्मला होथ
भिक्सवे।।
और
कहते हैं कि
हे भिक्यूओ, हे
भिक्षुओ, जब
तुम स्वयं को
जान लोगे, तभी
वस्तुत:
निर्मल हो
पाओगे। फिर
तुम कभी भी
मल—मूत्र के
गड्डों में न
गिरोगे। फिर
तुम्हारा कोई
आवागमन न
होगा।
'निर्लज्ज, कौवे जैसे
कांव—कांव
करने में बड़े
महावीर होते
हैं।
और
किसी काम मैं
नहीं, सिर्फ
काव—काव करने
में, शोरगुल
मचाने में।
'निर्लज्ज और
कौवे जैसे श्ह,
लूटपाट
करने वाले, पतित, बकवादी,
पापी
मनुष्य का
जीवन सुख से
बीतता है।
यह
बड़ी अनूठी बात
बुद्ध ने कही।
बुद्ध ने कहा, अगर
सुविधा से
जीना हो तो
पापी आदमी का
जीवन सुविधा
से बीतता है।
सुख यानी
सुविधा।
बेईमान आदमी
का जीवन
सुविधा से
बीतता है। चोर
का जीवन
सुविधा से
बीतता है। यह
बात बड़ी अजीब
कही।
सुजीवं
अहिरिकेन
काकसूरेन
धंसिना।
पक्खन्दिना
पगब्भेन
संकिलिट्ठेन
जीवितं।।
पाखंडियों
का जीवन
सुविधा से
बीतता है।
सच्चे
आदमियों का
जीवन असुविधा
से बीतता है।
लेकिन बुद्ध
कहते हैं, वही
असुविधा परम
सुख पर ले
जाती है। इतने
लोगों ने अगर
पाखंडियों का
जीवन बिताना
तय किया है तो
अकारण नहीं
किया होगा, इसमें कुछ
सुख मालूम
होता है, सुविधा
मालूम होती
है। कौन झंझट
में पड़े! सच कहे
कि झंझट में
पड़े। यहां झूठ
का चलन है; यहां
झूठ करो, सब
ठीक चलता है; यहां बेईमान
रहो, सब
ठीक चलता है; ईमानदार हुए
कि झंझट में
पड़े।
मैं
एक
विश्वविद्यालय
में नौकर हुआ।
तो मेरे
विश्वविद्यालय
के और अध्यापक
थे, उन्होंने
दौ—चार दिन
बाद मुझसे कहा
कि आप जरा ठीक
नहीं कर रहे
हैं। मैंने
कहा, क्या
बात है? कहने
लगे कि आप
चार—चार
पीरियड रोज ले
रहे हैं! यह
सरकारी नौकरी
है, यहां
चार—चार
पीरियड रोज
लेने की जरूरत
नहीं है। और
आप चार—चार
लेंगे तो हमको
भी अड़चन होगी।
यहां तो एक ले
लिया, दो
लिया, बस
बहुत है! कभी
यह बहाना, कभी
वह बहाना! और
स्टाफ रूम में
बैठकर गपशप करना,
यह उनका
सबका काम! वे
मुझसे नाराज
थे कि यह बात ठीक
नहीं है। जैसे
हम हैं, वैसे
आप चलो। काम
कर रहे हैं, कर रहे हैं—करने
का दिखावा कर
रहे हैं; काम
करने—वरने की
कोई जरूरत
नहीं है।
अगर
तुम किसी
दफ्तर में काम
करते हो और
ईमानदारी से
काम करो, दूसरे
तुम्हें
समझाएंगे कि
भई, ऐसा
नहीं चलता!
तुम अगर
रिश्वत नहीं
लेते तो दूसरे
तुम्हें
समझाएंगे कि
भई, ऐसे
नहीं चलता, तुम अड़चन
खड़ी कर दोगे!
तुम हम सबके
बीच में झंझट
खड़ी कर रहे हो!
यहां जो चलता
है, वैसे
ही चलो। इस
संसार में झूठ
का चलन है।
इसलिए
बुद्ध कहते
हैं, निर्लज्ज
का जीवन सरल
है, सुगम
है, सुविधापूर्ण
है। उसे लज्जा
ही नहीं है।
वह जैसा मौका
देखता है वैसा
हो जाता है।
अवसरवादी का
जीवन बड़ा
सुविधापूर्ण
है। अगर
तुम्हारे
जीवन में कोई
सिद्धात है और
तुम्हारे
जीवन में अगर
कोई
साधना है, तो तुम
हमेशा अड़चन
पाओगे। हमेशा
कठिनाई पाओगे।
कोई
साधना नहीं है, कोई
सिद्धात नहीं
है, निर्लज्ज
रू जीवन है, अवसरवादी का
जीवन है, जिसने
जहा देखी जैसी
हवा बह रही है
वैसे ही चल
पड़े; जिसके
साथ जैसा लगता
है कि ठीक
चलेगा वैसा ही
चला लिया; कौवे
जैसे काव—काव
करने वाले
लोग—इशारा है
वही भिक्षु की
तरफ, लालबुझक्कड़
की तरफ, लालूदाई
की तरफ—कौवे
की तरह
काव—काव करने
वाले लोग, जिनके
जीवन में सत्य
की कोई किरण
नहीं, सिर्फ
शब्द मात्र है,
उनका जीवन
सुविधापूर्ण
है। पंडितों
का जीवन सुविधापूर्ण
है।
........लूटपाट
करने वाले, पतित, बकवादी,
पापी
मनुष्य का
जीवन सुख से
बीतता है।’
'लज्जाशील, नित्य
पवित्रता के
गवेषक, सजग,
मितभाषी, शुद्ध
जीविका वाले
और ज्ञानी
मनुष्य का
जीवन कष्ट से
बीतता है।’
हिरिमता व
दुज्जीवं
निच्चं
सुचिगवेसिना।
अलीनेनप्पगब्भेन
सुद्धाजीवेन
पस्सता।।
जितनी
शुद्धता से
जीना चाहोगे, उतनी
कठिनाई होगी।
क्योंकि पहाड़
पर चढ़ना कठिन
है। चढ़ाव सदा
कठिन होता है।
ऊंचाई पर उठना
कठिन, नीचाई
में उतरना सदा
आसान। बुरा
करना सदा आसान,
भला करना
सदा कठिन।
इसलिए
कठिनाई से मत
बचना।
क्योंकि
कठिनाई ही उठाती
है। इसलिए तो
हम साधना को
तप कहते हैं, तपश्चर्या
कहते हैं, खड्ग
की धार कहते
हैं। तलवार की
धार पर चलने जैसा
है। इसलिए
केवल साहसी ही
सत्य की
यात्रा और खोज
में निकलते
हैं, गवेषणा
में निकलते
हैं।
'हे पुरुष, संयमरहित
पापकर्म ऐसे
ही होते हैं, इसे जानो।
तुम्हें लोभ
और अधर्म
चिरकाल
तक दुख में न
डाले रहें।’
इस
रह में दोनों
सूत्रों का
सार आ गया है।
बुद्ध
ने कहा, ऊपर से जब
सुख मालूम
पड़ता है, सम्हलना,
क्योंकि
इसी सुख के
कारण तुम
जन्मों—जन्मों
तक दुख में
पड़े रहे हो और
दुख में पड़े
रहोगे। और जब
ऊपर से दुख
मालूम पड़े, कठिनाई
मालूम पड़े, हिम्मत करना,
गुजर जाना
इस बीहड़ वन से,
चढ़ जाना इस
पर्वत—शिखर पर,
आज जो कठिन
है, वही
तुम्हारे
जीवन में
सदा—सदा
शाश्वत सुख की
वर्षा का कारण
बनेगा। उन
ऊंचाइयों पर
ही रोशनी है।
उन ऊंचाइयों
पर ही प्रकाश
है। अंधेरी
घाटियों में
सरकना अभी कितना
ही
सुविधापूर्ण
मालूम पड़े।
तुमने
कभी खयाल किया, झूठ
बोलना सदा
सुविधापूर्ण
मालूम पड़ता
है। लंबे
अर्थों में, लंबे अर्से
में झंझट में
डालता है, लेकिन
बोलते वक्त
बड़ा
सुविधापूर्ण
मालूम पड़ता है,
बचाव हो
जाता है। सत्य
बोलते समय
कठिनाई में
डालता है, लेकिन
अंततः वही सुख
सिद्ध होता
है।
अंततः
सत्य जीतता है
और झूठ हारता
है। सत्यमेव
जयते। जो
जीतता है
अंततः वही
सत्य है। सत्य
की विजय
सुनिश्चित
है। लेकिन
लंबी यात्रा
है सत्य की।
झूठ
जल्दी—जल्दी
जीत जाता है।
झूठ कहता है, अभी, नगद
मैं तुम्हें
सुख देता हूं।
सत्य का सुख
लंबा है।
इसीलिए तो हम
कहते हैं, जीवन
के बाद, मोक्ष
में। बड़ा दूर
दिखता है
शिखर। कल, कभी
मिलेगा, मिलेगा
कि नहीं
मिलेगा।
बुद्ध
ने कहा है, दुख सुख
का धोखा दे
देता है। मैं
निरंतर कहता हूं
कि अगर
तुम्हें कहीं
स्वर्ग की
तख्ती लगी
मिले, तो
जल्दी मत
प्रवेश कर
जाना।
क्योंकि
शैतान बहुत
होशियार है, उसने नर्क
पर स्वर्ग की
तख्ती लगा दी
है। जल्दी मत
प्रवेश कर
जाना, नहीं
तो बहुत
दिक्कत में
पड़ोगे। अक्सर
नर्क बाहर से
देखने पर बड़ा
सुखदायी
मालूम होता है;
भीतर जाकर
झंझट खड़ी होती
है।
एक
आदमी मरा। वह
नर्क गया।
शैतान ने उसका
स्वागत किया, वह तो बड़ा
हैरान हुआ। वह
तो सोचता था
कि मार—पिटाई
होगी शुरू में,
उसका
स्वागत हुआ।
उसने कहा, भई,
हम तो कुछ
उलटी ही सुलटी
खबरें सुनते
रहे नरक के
संबंध में, और तुम ऐसा
स्वागत कर रहे
हो! गले लगाया,
फूलमालाएं
पहनायीं और
शैतान के
शिष्य नाचे और
कूदे और ढोल
बजाए। वह तो
बहुत ही खुश
हुआ, उसने
कहा, बढ़िया!
और चारों तरफ
देखा तो बड़ा
सौंदर्य भी है!
और उसने शैतान
से पूछा, अब
हमें क्या
करना पड़ेगा?
शैतान
ने कहा, तुम चुन लो।
हमारे संबंध
में बड़ी झूठी
खबरें फैलायी
गयी हैं, क्योंकि
हमें बोलने का
मौका ही नहीं
मिला। ईश्वर
के इतने अवतार
हुए, तुम्हीं
बताओ, शैतान
का कहीं कोई
अवतार हुआ!
ईश्वर तो
बोलता रहा—इकतरफा
बात चल रही
है—वही समझाता
रहा, हमारी
किसी ने सुनी
भी नहीं, मौका
भी नहीं मिला।
तुम अपनी आंख
से देख लो। उस
आदमी को भी लगा
कि बात तो ठीक
ही है, सब
सुंदर था—सब
सुंदर था, स्वर्ग
जैसा सुंदर
था। फिर अंदर
ले गया। फिर उसने
कहा, अब
तुम चुन लो, ये तीन
स्थान हैं, इसमें से
तुम्हें जो
चुनना हो।
उसने कहा, चुनाव
की भी
स्वतंत्रता
है यहा? यहां
बिलकुल
स्वतंत्रता
है, यहां
परम
स्वतंत्रता
है, तुम
चुन लो, जहां
तुम्हें रहना
हो, तीन
खंड हैं नर्क
के।
पहले
खंड में ले
गया, तो
घबड़ाया वह
आदमी। वहा
कोड़ों से बड़ी
पिटाई हो रही
थी, लहूलुहान
लोग हो रहे
थे। उसने कहा,
भई, यह
हमें न जँचेगा,
अब दूसरे
खंड में ले
चलो। दूसरे
खंड में ले गया,
तो वहां आग
में कड़ाहे जल
रहे थे—अब
असलियत प्रगट
होनी शुरू हुई,
वह जो
दिखावा और
स्वागत
इत्यादि था, सब खतम हो
गया—उन कड़ाहों
में लोग डाले
जा रहे थे, भूने
जा रहे थे, जलाए
जा रहे थे, चिल्ला
रहे थे, रो
रहे थे। उसने
कहा, नहीं
भाई, यह भी
हमें न जमेगा।
लेकिन अब वह
घबड़ाने लगा कि
पता नहीं
तीसरे में
क्या हो! और
तीन ही हैं और
तीन में से
चुनना है।
तीसरे में गया
तो उसे यह कुछ
बात जंची।
घुटंना—घुटना मल—मूत्र
भरा हुआ था और
लोग खड़े हुए
कोई चाय पी रहा,
कोई काफी पी
रहा—जिसको जो
पीना हो।
सिर्फ यह था
कि मल—मूत्र
घुटने—घुटने
तक था।
तो
उसने कहा कि
यह चलेगा। ये
सब गपशप भी कर
रहे हैं लोग, कोई चाय
पी रहे हैं, कोई काफी पी
रहा है, कोई
कोकाकोला पी
रहा है, सब,
यह ठीक है।
तकलीफ तो है
थोड़ी, घुटने—घुटने
तक मल—मूत्र
है, लेकिन
यह तो हो
जाएगा, कम
से कम आग और
कोड़ों से तो
बेहतर है।
उसको
भी एक चांस दे
दी गयी, वह भी चाय
पीने लगा, बड़ा
प्रसन्न। और
तभी एक जोर की
घंटी बजी और
एक आवाज आयी
कि अब बस, अपने—अपने
सिर के बल खड़े
हो जाओ। वह
चाय पीने के
लिए थोड़ी
छुट्टी मिली
थी। उसने कहा,
मारे गए।
सिर के बल! वह
मल—मूत्र के
गड्डे में अब
सिर के बल खड़े
होने का असली
वक्त आ गया।
बुद्ध
ने कहा है, नर्क
स्वर्ग का
धोखा देता है।
दुख सुख के
आवरण पहनकर
आते हैं। उनसे
सावधान रहना।
जो बात अभी
सुख की मालूम
पड़े, उसी
पर चुनाव मत
कर लेना।
देखना, दूरदृष्टि
होना। आज
कठिनाई भी हो
पहाड़ चढ़ने में
तो घबड़ाना मत।
सच अगर आज
मुश्किल में
भी डाले तो पड़
जाना। और सत्य
की खोज में
असुरक्षा हो,
कठिनाई हो,
काटे मिलें,
कंटकाकीर्ण
पथ मिले, गुजर
जाना; क्योंकि
एक दिन यही
कठिनाई
तुम्हें उन
शिखरों पर ले
जाएगी जहां
शाश्वत शांति
है, जहां
वस्तुत:
स्वर्ग है।
एवं भो
पुरिस ! जानाहि
पापधम्मा
असज्जता।
मा तं लोभो
अधम्मो व चिर
दुक्खाय रन्धयु
।।
'हे पुरुष, संयमरहित
पापकर्म ऐसे
ही होते हैं।’
सुख
का धोखा देते
हैं, मिलता
दुख है।
'इसे जानो।
तुम्हें लोभ
और अधर्म
चिरकाल तक दुख
में ही डाले न
रहें।
जागो!
और यह जागरण
केवल शब्दों
को सुनने से
नहीं आने वाला
है। इस जागरण
के लिए चेतना
की सारी
मूर्च्छा की
ग्रथिया
काटनी पड़े।
जहां—जहां
मूर्च्छा है, मोह है, वहा—वहा से
मुक्त अपने को
करो, निर्ग्रंथ
करो।
इन
सूत्रों पर
ध्यान करना, स्वाध्याय
करना। क्यों?
क्योंकि
स्वाध्याय न
करना मंत्रों
का मैल है।
असज्झायमला
मंता
अनुट्ठानमला
घरा।
ये
भी मंत्र हैं।
इन पर
स्वाध्याय
करना, अन्यथा
इन पर भी मैल
जम जाएगा, ये
किसी काम न आ
सकेंगे।
पंडित मत बनना
इन बातों को
सुनकर, प्रज्ञा
को जगाना, होश
को जगाना। ये
बातें
तुम्हारा
अनुभव बन जाएं,
तो ही
मुक्तिदायी
हैं।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें