अध्याय
64 : खंड 1
आरंभ
और अंत
जो
शांत पड़ा है, उसे
नियंत्रण में
रखना आसान है;
जो
अभी प्रकट
नहीं हुआ है, उसका
निवारण आसान
है;
जो
बर्फ की तरह
तुनुक है, वह
आसानी से
पिघलता है;
जो
अत्यंत लघु है, वह
आसानी से
बिखरता है।
किसी
चीज के
अस्तित्व में
आने से पहले
उससे निपट लो;
परिपक्व
होने के पहले
ही उपद्रव को
रोक दो।
जिसका
तना भरा-पूरा
है,
वह वृक्ष
नन्हे से
अंकुर से शुरू
होता है;
नौ
मंजिल वाला
छज्जा मुट्ठी
भर मिट्टी से
शुरू होता है;
हजार
कोसों वाली
यात्रा
यात्री के पैर
से शुरू होती
है।
जीवन
की सारी
समस्या इस एक
बात में ही
छिपी है कि जब
तुम हल कर
सकते हो तब
तुम हल नहीं
करते। जब बात
को रोक देना
आसान था
तब
तुम बढ़ाए
चले जाते हो।
और जब बात
सीमा के बाहर
निकल जाती है
तब तुम्हें
होश आता है।
जब कुछ भी
नहीं किया जा
सकता तब तुम
जागते हो। जब
कुछ किया जा
सकता था तब
तुम आलस्य में
पड़े विश्राम
करते रहे।
तब
हजार
समस्याएं
इकट्ठी होती
चली जाती हैं, उन
समस्याओं में
दबे तुम
खंड-खंड, छितर-बितर
जाते हो। फिर
तुम्हारे
जीवन-सूत्र का
जो संबंध है, तुम्हारे
भीतर की
अंतरात्मा से
जो तुम्हारी कड़ी
है, उसका
ओर-छोर खो
जाता है। तब
तो तुम छोटी
सी समस्या भी
हल करने में
असमर्थ हो
जाते हो।
क्योंकि
तुम्हारा मन
एक विभ्रम हो
जाता है, एक
कनफ्यूजन।
वहां इतनी
समस्याओं का
ढेर लगा पड़ा
होता है। उन
समस्याओं से
दबे तुम सारी
सामर्थ्य खो
देते हो।
तुम्हारा
आत्मविश्वास
भी तिरोहित हो
जाता है। जो
कुछ भी हल न कर
पाया, वह
कुछ हल कर
सकेगा, यह
भरोसा भी टूट
जाता है। तुम
समझने लगते हो
कि अपने से हल
होने वाला है
ही नहीं। और
एक बार ऐसी
दीनता आ गई कि
तुम्हारे पैर
के नीचे की
जमीन गई। फिर
तो तुम उसे भी
हल न कर पाओगे
जिसे बच्चे हल
कर लेते हैं।
हल करने का
भरोसा और
श्रद्धा ही
नष्ट हो गई।
इसलिए
लाओत्से के इस
सूत्र को बहुत
गौर से समझना।
यह ठीक
तुम्हारे लिए
है। इसके
विपरीत ही तुम
करते रहे हो।
पहली
दफा मुझे, जब
कि लाओत्से का
कोई पता भी न
था, एक
अजीब से आदमी
से इस सूत्र
की समझ मिली
थी। मैं जब
विश्वविद्यालय
में
विद्यार्थी
था तो एक आदमी
था गांव में
जिसको लोग
बन्नू पागल
कहते थे। मैं
उसमें
आकर्षित हो
गया था।
क्योंकि मुझे
वह पागल जैसा
नहीं मालूम
पड़ता था।
भिन्न था; पागल
जरा भी नहीं
था। लोगों से
उलटा था; पागल
जरा भी नहीं
था। लोगों को
भला मैं पागल
कह सकता, उस
आदमी को पागल
कहना मुश्किल
था। क्योंकि
उस जैसी
प्रसन्नता!
उसे कभी मैंने
रोते, उदास
नहीं देखा।
उसकी चाल और
उसकी मस्ती, सब खबर देती
थीं कि कहीं
भीतर वह आदमी
गहरे में जड़ें
जमा लिया है।
धीरे-धीरे, वह साधारणतः
किसी से बोलता
नहीं था, बाद
में जब मेरी
उससे निकटता
बढ़ गई और उसने
मुझसे बोलना
भी शुरू कर
दिया और वह जब
मेरी
प्रतीक्षा भी
करने लगा और
जब हम दोनों
सांझ-सुबह
घूमने भी जाने
लगे, तब
मैंने उससे
कहा कि लोगों
से बोलते
क्यों नहीं हो?
तो उसने
मुझे कहा, न
बोलने में
सुविधा है; बोले कि
फंसे। बोलने
में उपद्रव
है।
एक दिन
सांझ घूमते
वक्त वह अचानक
रुक कर खड़ा हो
गया और उसने
एक चांटा अपने
गाल पर मार
लिया। तो मैंने
उससे पूछा कि
यह क्या किया? यह
क्या हुआ? उसने
कहा, जब
बात रुक सकती
हो तभी रोक
देना ठीक है।
मुझे किसी के
प्रति क्रोध आ
रहा था। अब
मैंने बांके
बिहारीलाल
जी को ठीक कर
दिया।
वह
अपने को सदा
सम्मान से ही
पुकारता था: बांके बिहारीलाल
जी। लोग उसको
बन्नू पागल
कहते थे। वह
मुस्कुराया
और उसने कहा, कहो
बांके बिहारीलाल
जी, रास्ते
पर आ गए? जरा
सी रेखा उठी
थी क्रोध की
भीतर, वहीं
उसने चांटा
मार कर
निबटारा कर
लिया। उसने
कहा, बजाय
इसके कि दूसरे
चांटा मारें,
खुद ही मार
लेना बेहतर
है। और इसके
पहले कि बात
आगे बढ़ जाए, उसे रोक
देना उचित है।
उसने
मुझे कहा था
कि आग जब
शुरू-शुरू में
सुलगती है, जरा
से पानी से
बुझ जाती है।
और हवा का यह
नियम है कि
छोटे दीए को
तो बुझा देता
है, बड़ी
लपटों को
बढ़ाता है। उस
पागल ने मुझे
यह कहा कि
शुरू में मिटा
दो तो मिट
जाता है, बाद
में तो मिटाने
से भी लपटें
बढ़ती हैं। वह
लाओत्से ने भी
नहीं कहा है
इस सूत्र में।
तुमने भी देखा
होगा, हवा
का झोंका आता
है, छोटा
दीया बुझ जाता
है; और घर
में आग लगी हो,
उस वक्त अगर
हवा चल जाए तो मारे
गए, फिर
बुझना
मुश्किल है।
लपटों को हवा
भी बढ़ाती है।
बढ़े हुए को सब
तरफ से बढ़ने
की सुविधा मिल
जाती है। छोटे
में मिटा दो
तो हवा भी
मिटाती है।
यह जो
पागल आदमी था, यह
पागल आदमी
नहीं था, यह
समझ-बूझ कर
पागल हो रहा
था। इसने
पागलपन का एक
आवरण अपने
चारों तरफ खड़ा
कर लिया था।
यह बचाव था।
पागल समझ कर
लोग न उसकी
तरफ ध्यान
देते थे, न
उसकी चिंता
लेते थे। समाज
में रहते हुए
वह समाज से
बिलकुल दूर हो
गया था। उसने
अपने चारों
तरफ एक छोटी
सी गुफा बना
ली थी पागलपन
की। वह पागलपन
बचाव था।
समाज
कितना पागल
होना चाहिए, जहां
कि बचाव के
लिए भी आदमी
को पागल होना
पड़ता हो। बहुत
से फकीर
दुनिया में
पागलपन को
आरोपित कर लिए
हैं, ताकि
लोग उन्हें
भूल जाएं, ताकि
लोग उन पर
ध्यान न दें, ताकि वे
क्या कर रहे
हैं, लोग
उनको अकेला
छोड़ दें, ताकि
वे अपना जो
करना चाहें
करते रहें, कोई उनकी
चिंता न ले। जब
लोग एक दफा
मान लेते हैं
कि पागल है तो
सब क्षमा कर
देते हैं।
यह
लाओत्से का
सूत्र और
तुम्हारा ठीक
इससे विपरीत
होना, इन
दोनों को
साथ-साथ समझने
की कोशिश करो।
जब कोई समस्या
उठती है तब
तुम क्या करते
हो?
पहले
तो तुम उस पर
ध्यान ही नहीं
देते। तुम ऐसा
रुख रखते हो
कि अपने आप
चली जाएगी, कोई
खास बड़ी बात
नहीं है। ऐसे
ही
सर्दी-जुकाम है,
मिट जाएगा।
क्या
चिकित्सक से
पूछना है!
क्या उपचार
करना है! तुम
छोटा करके
देखते हो। तुम
पहले तो
उपेक्षा करते
हो, टालते
हो। तुम पहले
पूरी चेष्टा
यह करते हो कि
अपने आप ही हल
हो जाए।
कहीं
दुनिया में
कोई चीज अपने
आप हल हुई है? उलझाओ
तुम और अपने
आप हल हो जाए, यह होगा
कैसे? बनाओ
तुम, अपने
आप हल हो जाए; यह होगा
कैसे? समस्या
तुम खड़ी कर
रहे हो; अपने
आप हल न होगी।
लेकिन यह
मनुष्य का
पहला रवैया
है। सोचता है,
शायद कोई
चमत्कार घट
जाएगा, कोई
घटना बदल
जाएगी, संयोग
बदल जाएंगे।
चीज अपने आप
हो जाएगी; क्यों
झंझट में पड़ना!
आदमी नजरअंदाज
करना चाहता है;
कहीं और
देखने लगता
है। यह पहली
प्रक्रिया है,
कि तुम अपने
मन को कहीं और
लगाते हो, ताकि
समस्या दिखाई
न पड़े। और
यहीं खतरा
शुरू होता है।
क्योंकि जिस
समस्या को तुमने
देखना बंद
किया वह
तुम्हारे
अचेतन में गिरने
लगती है, वह
तुम्हारे
अंधकार कुएं
में गिरने
लगती है, वह
तुम्हारी
जमीन के भीतर
उतर जाती है, वह
अंडरग्राउंड
हो जाती है।
और एक
बार कोई
समस्या जमीन
के नीचे उतर
गई,
अंधेरे में
उतर गई, तुमने
देखा नहीं, नजर न दी, ध्यान
न किया, वह
बीज की तरह जड़
जमा लेगी। जो
समस्या सचेतन
में हो, उसे
हल करना आसान
है। क्योंकि
वहां तक तुम
मालिक हो। एक
बार अचेतन में
उतर गई, फिर
हल करना
मुश्किल है।
क्योंकि फिर
तुम मालिक रहे
ही नहीं।
तुम्हारी
मालकियत मन के
ऊपर की सतह पर
ही है। अगर मन
को हम दस
खंडों में
बांटें तो
पहले खंड में
तुम्हारी मालकियत
थोड़ी-बहुत
चलती है; नौ
खंडों में
तुम्हारी
मालकियत का
कोई...नौ खंडों
का तुमसे कोई
संबंध ही नहीं
रहा है। एक बार
कोई समस्या
अचेतन में, अनकांशस में
चली गई तो बीज
जमीन में चला
गया। जमीन के
ऊपर से
झाड़-बुहार
देना बड़ा आसान
था; जमीन
के नीचे बहुत
कठिनाई है। और
खोदने में डर
है। क्योंकि खोदोगे एक,
हजार निकल
आएंगे। इसलिए
कोई अचेतन को
खोदता नहीं, छूता नहीं।
भय लगता है।
क्योंकि एक
बीज नहीं दबा
है, वहां
तुम
जन्मों-जन्मों
से दबाए हुए
पड़े हो। अचेतन
तुम्हारा कबाड़खाना
है, जिसमें
तुमने सब कूड़ा-कर्कट
भर दिया है।
वहां जाने में
भय लगता है कि
वहां गए और सब
चीजें एकदम से
टूट पड़ीं तो
क्या होगा?
इसलिए
एक बार कोई
चीज अचेतन में
उतर गई तो तुम जटिलता
में पड़ जाओगे।
पर मन
पहले टालता
है। जब मन
टालता हो तब
तुम जाग जाना।
उस क्षण को
खोना उचित नहीं
है। हजार काम
छोड़ कर पहले
इसे निबटा
लेना; बड़े काम
छोड़ कर इस
छोटे को निबटा
लेना। क्योंकि
जो आज छोटा है,
कल बड़ा हो
जाएगा। अभी हल
हो सकता है, कल हल होना
मुश्किल हो
जाएगा।
क्योंकि
अकेली नहीं
आती समस्या, अपने साथ
हजार
समस्याएं
लाती है।
तुमने
सुनी है कहावत, बीमारी
अकेली नहीं
आती, एक
बीमारी अपने
साथ हजार
बीमारियां
लाती है। सब
के संगी-साथी
हैं।
समस्याओं के
भी संगी-साथी
हैं। अगर एक
समस्या ने जड़
जमा ली तो उसी
तरह की हजार
समस्याएं भी
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देने
लगेंगी--हमको
भी जगह दो! और
जब तुमने एक
को जगह दी है तो
तुम्हारे
भीतर छिद्र हो
गया। उसी
छिद्र से हजार
समस्याएं
भीतर प्रवेश
पा जाएंगी।
अगर
तुमने क्रोध
को जगह दी तो
तुम हिंसा से
कितनी देर तक
दूर रह सकोगे? अगर
तुमने क्रोध
को जगह दी तो
तुम काम से
कितनी देर दूर
रह सकोगे? क्योंकि
वे सब जुड़े
हैं। वे सब एक
ही घटना के
ताने-बाने
हैं।
इसलिए
ज्ञानियों ने
कहा है, अगर
एक समस्या भी
कोई व्यक्ति
हल कर ले, उसकी
सारी
समस्याएं हल
हो जाती हैं।
क्योंकि एक
समस्या को हल
करने में तुम
पाओगे, सभी
समस्याएं
समाविष्ट
हैं।
अगर
तुम कामवासना
से मुक्त हो
जाओ तो तुम
क्रोध न कर
सकोगे।
क्योंकि कामवासना
ही,
जब कोई
तुम्हारी
कामवासना में
बाधा डालता है,
तो क्रोध बन
जाती है। तुम
कुछ पाना
चाहते थे, और
किसी ने अड़चन
डाल दी। तुम
कहीं जाना
चाहते थे, कोई
बीच में आ
गया। तुम जाना
चाहते थे, और
एक पत्थर की
दीवार किसी ने
खड़ी कर दी। जो
भी तुम्हारे
मार्ग में
अवरोध खड़ा
करेगा उस पर
क्रोध आता है।
लेकिन अगर तुम
कहीं जाना ही
न चाहते थे, अगर
तुम्हारी कोई
कामना ही न थी,
कोई वासना
ही न थी, तुम
कुछ पाना ही न
चाहते थे, तो
कौन तुम्हारे
मार्ग में
अवरोध खड़ा
करेगा? कैसे
तुम्हें
क्रोध आएगा?
जिसकी
कामवासना
नहीं है उसको
लोभ कैसा? लोभ
कामवासना का
अनुषंग है।
क्योंकि कामी
लोभी होगा ही।
लोभ का मतलब
यह है कि कल की
वासना के लिए
मैं आज इंतजाम
कर रहा हूं, परसों की
वासना के लिए
आज इंतजाम कर
रहा हूं। बुढ़ापे
के लिए तिजोरी
भर रहा हूं।
भविष्य के लिए
आज तैयारी
करनी पड़ेगी।
तो लोभ का
मतलब है: इकट्ठा
कर रहा हूं, ताकि कल भोग
सकूं। जिसकी
कामवासना
नहीं है उसका
लोभ कैसा?
जिसकी
कामवासना
नहीं है उसका
कल ही न रहा; उसका
भविष्य ही
समाप्त हो
गया। उसका समय
रुक गया। उसकी
घड़ी बंद हो
गई। वह यहीं
है, आज है।
और आज
पर्याप्त है।
आज से ज्यादा
की कोई मांग
नहीं है। जो छोटा
सा मिल रहा है,
वह काफी है।
आज के लिए
काफी से
ज्यादा है।
अगर तुम कल को
बीच में न लाओ
तो जो तुम्हें
मिला है काफी
है। तुम
समृद्ध हो।
अगर तुम कल को
बीच में ले आओ
तो बड़े से बड़े
सम्राट भी
भिखारी हैं। क्योंकि
कल को कोई भी
नहीं भर सकता।
कल दुष्पूर
है।
एक
वासना को बदलो, तुम
पाओगे, और
वासनाओं में
बदलाहट होने
लगी। एक
समस्या को हल
कर लो, सब
समस्याएं हल
हो जाती हैं।
पहला
तो मन कहता है, टालो;
कल देखेंगे,
परसों
देखेंगे। ऐसा
टालते जाते
हो। लेकिन जितना
तुम टाल रहे
हो उतना समय
बीज को मिल
रहा है--फूटने
को, अंकुरित
होने को। फिर
मन की दूसरी
वृत्ति है, जब टालना
मुश्किल ही हो
जाए, समस्या
सामने ही खड़ी
हो जाए, तो
तुम समस्या से
लड़ना शुरू
करते हो।
पहले
टालते हो, वह
भी गलत। फिर
लड़ते हो; दीवार
खड़ी है, उसके
साथ सिर फोड़ते
हो। वह भी
गलत। क्योंकि
समस्या को कोई
लड़ कर हल नहीं
कर सकता। तुम
लड़े कि समस्या
को हल करना
असंभव ही हो
जाएगा।
क्योंकि हल
करने के लिए
तो शांत चित्त
चाहिए; लड़ने
वाली वृत्ति
तो अशांत है।
तो पहले तो
क्रोध को
पनपते देते
हो। फिर जब
क्रोध
मुश्किल में
डाल देता है, सब तरफ जीवन
को उलझा देता
है, सब तरफ
कांटे बो देता
है, कहीं
भी चलने की
जगह नहीं रह
जाती, जहां
देखो वहां
दुश्मनी
दिखाई पड़ने
लगती है, सारा
संसार विरोध
में मालूम
पड़ता है, जैसे
सब तरफ
तुम्हारे तरफ
कोई षडयंत्र
चल रहा है, सभी
लोग तुम्हारी
दुश्मनी में
खड़े हैं; तब
तुम जागते हो।
तब तुम दूसरी
भूल करते हो
कि तुम लड़ने
की कोशिश करते
हो कि दबा दो
क्रोध को, मिटा
दो क्रोध को।
लेकिन कभी कोई
किसी समस्या से
लड़ कर जीता है?
समझ लो
कि तुम धागे
साफ कर रहे थे
और धागे उलझ गए।
इनसे लड़ोगे? लड़
कर धागे सुलझ
जाएंगे? लड़
कर तो और उलझ
जाएंगे, टूट
जाएंगे। एक
बार धागे उलझ
गए हों तो फिर
तो बड़ी ही
शांति चाहिए,
फिर तो बड़ा
मैत्री भाव
चाहिए। फिर तो
बड़ी सरलता और
धीरज से एक-एक
धागे को निकालोगे
तो ही निकल
पाएंगे। अगर
जरा भी जोर से
खींच दिया तो
और उलझाव बढ़
जाएगा।
धैर्य
बिलकुल नहीं
है। पहले तुम
टालते हो; उसे
तुम धैर्य मत
समझना। वह
धैर्य नहीं है,
वह आलस्य
है। कहते हो, कल कर लेंगे,
परसों कर
लेंगे। अभी
जल्दी क्या है?
पहले तुम
टालते हो; वह
धैर्य नहीं
है। कई लोग
उसे धीरज
समझते हैं कि
हम धैर्यवान
हैं; कभी
भी कर लेंगे, जल्दी क्या
है? वह
आलस्य है। वह
प्रमाद है। वह
केवल अपने को
धोखा देना है।
धैर्य की
कसौटी तो उस
दिन आएगी जिस
दिन उलझाव खड़ा
हो जाएगा। और
तुम अब क्या
करते हो? धैर्य
से सुलझाते हो
या लड़ते हो? तुम लड़ोगे।
छोटी चीजों से
लड़ोगे, मुश्किल में
पड़ जाओगे।
मैंने
सुना है, ऐसा
हुआ, जापान
में एक बहुत
बड़ा योद्धा
था। और योद्धा
प्रासंगिक है
यहां। उसकी
तलवार चलाने
की कला का कोई
मुकाबला न था।
जापान में
उसकी धाक थी।
उसके नाम से
लोग कांपते
थे। बड़े-बड़े
तलवार चलाने
वाले उसके
सामने क्षणों
में
धूल-धूसरित हो
गए थे। उसके
जीवन की एक
कहानी है। वह
कहानी झेन
फकीर बड़ा
उपयोग करते
हैं, क्योंकि
वह बड़ी
विचारपूर्ण
है, और
तुम्हारे
जीवन से जुड़ी
है।
एक रात
ऐसा हुआ कि
योद्धा घर
लौटा, अपनी
तलवार उसने टांगी
खूंटी पर, तभी
उसने देखा कि
एक चूहा उसके
बिस्तर पर
बैठा है। वह
बहुत नाराज हो
गया। योद्धा
आदमी! उसने गुस्से
में तलवार
निकाल ली, क्योंकि
गुस्से में वह
और कुछ करना
जानता ही न
था। न केवल
चूहा बैठा रहा
तलवार को
देखता, बल्कि
चूहे ने इस
ढंग से देखा
कि योद्धा
अपने आपे के
बाहर हो गया।
चूहा और यह
हिम्मत? और
चूहे ने ऐसे
देखा कि जा जा,
तलवार
निकालने से
क्या होता है?
मैं कोई
आदमी थोड़े ही
हूं जो डर
जाऊं? उसने
क्रोध में उठा
कर तलवार चला
दी। चूहा छलांग
लगा कर बच
गया। बिस्तर
कट गया। अब तो
क्रोध की कोई
सीमा न रही।
अब तो
अंधाधुंध
चलाने लगा
तलवार वह जहां
चूहा दिखाई
पड़े। और चूहा
भी गजब का था।
वह उचके
और बचे।
पसीना-पसीना
हो गया योद्धा
और तलवार टूट
कर
टुकड़े-टुकड़े
हो गई। और
चूहा फिर भी
बैठा था। वह
तो घबड़ा गया; समझ गया कि
यह कोई चूहा
साधारण नहीं
है, कोई
प्रेत, कोई
भूत। क्योंकि
मुझसे बड़े-बड़े
योद्धा हार चुके
हैं और एक
चूहा नहीं हार
रहा!
अब
योद्धा एक बात
है और चूहा
बिलकुल दूसरी
बात है। वह
घबड़ा कर बाहर
आ गया। उसने
जाकर अपने मित्रों
को पूछा कि
क्या करूं? उन्होंने
कहा, तुम
भी पागल हो! चूहे
से कोई तलवार
से लड़ता है? अरे, एक
बिल्ली ले जाओ,
निबटा
देगी। हर चीज
की औषधि है।
और जहां सूई से
काम चलता हो
वहां तलवार
चलाओगे, मुश्किल
में पड़ जाओगे।
बिल्ली ले
जाओ।
लेकिन
योद्धा की
परेशानी और
चूहे की
तेजस्विता की
कथा गांव भर
में फैल चुकी।
बिल्लियों को
भी पता चल गई।
बिल्लियां भी डरीं।
क्योंकि उनका
भी
आत्मविश्वास
खो गया। इतना बड़ा
योद्धा हार
गया जिस चूहे
से! पकड़-पकड़ कर
बिल्लियों को
लाया जाए।
बिल्लियां
बड़ा मुश्किल
से;
दरवाजे के
बाहर ही अपने
को खींचने
लगें; बामुश्किल
उनको भीतर
करें कि वे
भीतर चूहे को देख
कर बाहर आ
जाएं। एक-दो
बिल्लियों ने झपटने की
भी कोशिश की, लेकिन
उन्होंने
पाया कि चूहा
झपट्टा उन पर
मारता है। यह
चूहा अजीब था,
क्योंकि
चूहा कभी
बिल्ली पर
झपट्टा नहीं
मारता जब तक
कि उसको एल एस
डी न पिला
दिया गया हो, या कोई शराब
न पिला दी गई
हो, जब तक
वह होश के
बाहर न हो
जाए। और चूहा
अगर बिल्ली पर
झपटे तो बिल्ली
का
आत्मविश्वास
खो जाता है।
तो
सारी
बिल्लियां
इकट्ठी हो
गईं।
उन्होंने कहा, हमारी
इज्जत का भी
सवाल है।
योद्धा तो एक
तरफ रहा, हारे
न हारे, हमें
कुछ लेना-देना
नहीं; ऐसे
भी हमारा कोई
मित्र न था; चूहे ने ठीक
ही किया। मगर
अब हमारी
इज्जत दांव पर
लगी है; अब
हम क्या करें?
अगर हम हार
गए एक दफा और
गांव के दूसरे
चूहों को पता
चल गया, तो
यह सब
प्रतिष्ठा तो
प्रतिष्ठा की
ही बात होती
है। एक दफा
पोल खुल जाए
तो बहुत
मुश्किल हो जाती
है। अगर दूसरे
चूहे भी हमला
करने लगे तो हम
तो गए, कहीं
के न रहे। इस
योद्धा ने तो डुबा
दिया।
तो उन
सब ने राजा के
महल में एक
मास्टर कैट
थी--एक
बिल्लियों की
गुरु--उससे
प्रार्थना की कि
अब तुम्हीं
कुछ करो। उसने
कहा,
तुम भी पागल
हो। इसमें
करने जैसा
क्या है? मैं
अभी आई। वह
बिल्ली आई; वह भीतर गई; उसने चूहे
को पकड़ा और
बाहर ले आई।
बिल्लियों ने
पूछा कि तुमने
किया क्या? उसने कहा, कुछ करने की
जरूरत है? मैं
बिल्ली हूं, वह चूहा है; बात खतम।
इसमें तुमने
करने का सोचा
कि तुम मुश्किल
में पड़ोगे।
क्योंकि करने
का मतलब हुआ
कि डर समा
गया। उसका
स्वभाव चूहे
का है और मेरा
स्वभाव बिल्ली
का है; बात
खतम। हमारा
काम पकड़ना
है और उसका
काम पकड़ा जाना
है। यह तो
स्वाभाविक
है। इसमें कुछ
लेना-देना
नहीं है।
इसमें कुछ
करना नहीं है।
न इसमें हम
जीत रहे हैं, न इसमें वह
हार रहा है।
इसमें हार-जीत
कहां? यह
उसका स्वभाव
है; यह
हमारा स्वभाव
है। दोनों का
स्वभाव मेल
खाता है; चूहा
पकड़ा जाता है।
तुमने स्वभाव
के अतिरिक्त
कुछ करने की
कोशिश की। और
चूहे से कहीं
कोई लड़ कर
जीता है? और
बिल्ली जिस
दिन लड़े, समझना
कि हार गई।
लड़ने की
शुरुआत ही हार
की शुरुआत है।
समस्याओं
से लड़ना मत।
झेन फकीर कहते
हैं,
समस्याओं
के साथ वही व्यवहार
करना जो
बिल्ली ने
चूहे के साथ
किया। चेतना
का स्वभाव
पर्याप्त है,
होश काफी
है। होश के
मुंह में
समस्या वैसे
ही चली आती है
जैसे बिल्ली
के मुंह में
चूहा चला आता
है; इसमें
कुछ करना नहीं
पड़ता।
लेकिन
तुम योद्धा बन
कर तलवार लेकर
खड़े हो जाते
हो। दो कौड़ी
की समस्या है; सूई
की भी जरूरत न
थी, तुम
तलवार से लड़ने
लगते हो।
हारोगे।
ध्यान रखना, मरीज हो
सर्दी-जुकाम
का और कैंसर
का इलाज करोगे
तो मारोगे।
सर्दी-जुकाम
तो एक तरफ
रहेगा, मरीज
मरेगा।
सम्यक
विधि का इतना
ही अर्थ है:
क्या मौजू
है,
क्या
स्वाभाविक
है। लड़ने का
सवाल क्या है?
किससे लड़
रहे हो तुम? तुम्हारे
भीतर जब कोई
समस्या है, उससे लड़ने
का मतलब ही यह
है कि तुमने
आत्मविश्वास
खो दिया।
अन्यथा
तुम्हारा होश,
जागृति, तुम्हारा
ध्यान काफी
है। तुम्हारे
ध्यान की रोशनी
पड़ेगी, समस्या
विसर्जित हो
जाएगी।
तो
पहली तो भूल
करते हो कि टालते
हो। फिर दूसरी
भूल करते हो
कि अधैर्यपूर्वक
लड़ते हो।
अब
तुम्हें हंसी
आएगी; तुम
कहोगे, योद्धा
पागल था।
लेकिन तुम
अपनी तरफ
सोचो। कहानी
को अपने जीवन
में जरा खोजने
की कोशिश करो।
मेरे
पास कोई आता
है,
वह कहता है
कि पान खाना
नहीं छूटता।
बीस साल से लड़
रहे हैं। अब
यह चूहा से
कोई बड़ी बात
हुई पान खाना?
चूहा फिर भी
बड़ा है। कोई
कहता है, सिगरेट
नहीं छूटती।
तुम बात क्या
कर रहे हो? तुम्हारे
भीतर आत्मा है
या नहीं? तुम
किस भांति की
बिल्ली हो कि
चूहे को देख
कर भाग रहे हो
और विचार कर
रहे हो कि
क्या करें क्या
न करें? सिगरेट
पीने जैसी बात,
और बीस साल
हो गए और
तुमसे छूटती
नहीं! और तुम कई
बार छोड़ चुके,
और फिर-फिर
हार गए और
फिर-फिर शुरू
कर दी! तुम हो कौन?
कुछ भी नहीं
हो मालूम होता
है। तुम्हारे
पास ध्यान की
कोई भी ऊर्जा
नहीं है।
तुम्हारे पास
आत्मविश्वास
नहीं है।
अन्यथा
सिगरेट पीने
से लड़ना पड़े?
ऐसा
हुआ कि आज से
कोई चालीस साल
पहले उत्तरी ध्रुव
पर मनुष्य
पहली दफा
पहुंचा था। और
जो यात्री
उत्तरी ध्रुव
पर होकर लौट
कर आए थे
उन्होंने जब
अपनी कहानी
कही तो
अखबारों
में--सारे जगत
के अखबारों
में--बड़ी
सुर्खियों से
छपी। और उनकी
कहानी बड़ी
करुणा की भी
थी। क्योंकि
उनका भोजन चुक
गया और उन्हें
मछलियां
मार कर या
भालू मार कर
किसी तरह अपना
जीवन चलाना
पड़ा। पर सबसे
बड़ी हैरानी की
बात यह थी कि
जो यात्री-दल
का प्रधान था
उसने कहा, हमें
भोजन के चुकने
से उतनी तकलीफ
न हुई; लोग
भूखे रहने को
राजी थे, लोग
पानी पीकर रह
लेते थे; लेकिन
सिगरेट चुक गई
तो हम बड़ी
मुश्किल में
पड़ गए। लोग
जहाज की रस्सियां
काट-काट कर
पीने लगे। और
उनको लाख
समझाया कि ये रस्सियां
अगर कट गईं तो
हम पहुंचेंगे
कैसे वापस!
इन्हीं
रस्सियों पर
सारा पाल टिका
है! लेकिन कोई
सुनने को राजी
नहीं।
पहुंचने की
उतनी फिक्र
नहीं; मर
जाएं यहीं, इसकी भी
चिंता नहीं; लेकिन लोग
कहते कि जब
तलफ लगती है, तो फिर हम
रुक नहीं
सकते। और उन
पर पहरा देना
मुश्किल था।
क्योंकि
करीब-करीब
नब्बे प्रतिशत
साथी उस दल के
सिगरेट पीने
वाले थे। उन
पर पहरा कौन
दे? रात को रस्सियां
कट जाएं।
कप्तान इसलिए
परेशान था कि
अगर यह चला और
लोग रस्सियां
ही पी गए तो
हमारे
पहुंचने का
कोई उपाय
नहीं।
एक
वैज्ञानिक
इसको अखबार
में पढ़ रहा
था। वह भी
सिगरेट का चेन
स्मोकर था।
उसके हाथ में
उस वक्त भी
सिगरेट थी जब
वह पढ़ रहा था।
उसे खयाल आया कि
यह तो बड़ी
बेहूदी बात
है। अगर मैं
भी उस
यात्री-दल का
हिस्सा होता
तो मैंने भी
क्या रस्सियां
पी
होतीं--गंदी रस्सियां? उनको
मैं धुएं की
तरह पी गया
होता? हाथ
में सिगरेट थी,
उसने
सिगरेट की तरफ
देखा, अपनी
तरफ देखा, सिगरेट
उसने ऐश-ट्रे
में रख दी, वैसी
की वैसी अधजली,
और उसने कहा,
अब मैं उस
दिन की
प्रतीक्षा
करूंगा जब
मुझे इसे फिर
उठाना पड़े। उस
दिन मैं
समझूंगा कि
मुझमें कोई
आत्मा नहीं
है। सिगरेट
बड़ी है, आत्मा
छोटी है। बीड़ी
बड़ी है, ब्रह्म
छोटा।
फिर
तीस साल गुजर
गए और वह
सिगरेट को
हमेशा अपनी
ऐश-ट्रे पर
वैसी ही आधी
की आधी रखे
रहा--उस क्षण
की प्रतीक्षा
में जब उसे
फिर सिगरेट
उठानी पड़े। वह
क्षण नहीं
आया।
बस
इतना ही
चाहिए। आत्मभाव
चाहिए। जरा सा
होश। जिन
समस्याओं से
तुम लड़ रहे हो
वे तुम्हारी
छायाएं हैं।
उनसे लड़ोगे
तो हारोगे।
क्योंकि लड़ने
में तुमने
नासमझी दिखला
दी। तुम लड़े, इसका
मतलब ही यह है
कि तुम्हें यह
पता ही नहीं
है कि तुम
अपनी छाया से
लड़ रहे हो। आदत
तुम्हारी है।
समस्या
तुम्हारी है।
तुम इतने नीचे
उतर रहे हो कि
उससे लड़ने
जाओगे! समस्याएं
बोध से मिटती
हैं, संघर्ष
से नहीं, कसम
खाने से नहीं,
व्रत लेने
से नहीं।
व्रत
तो कमजोर लेते
हैं। कसमें
कमजोर खाते हैं।
क्योंकि कसम
का मतलब ही यह
है कि तुम
अपने को बांध
रहे हो, ताकि
भविष्य
में--तुम्हें
भरोसा नहीं है
अपना। तो तुम
कह रहे हो कि
मैं
ब्रह्मचर्य
की कसम लेता
हूं। तुम्हें
भरोसा नहीं है
भविष्य का। कसम
लेते हो समाज
के सामने, ताकि
लोग भी ध्यान
रखें। कसम
लेते हो
दूसरों के
सामने, ताकि
दूसरे के
सामने
प्रतिबद्ध हो
जाने के कारण
अहंकार का
सवाल अड़ जाए।
फिर तुम्हारा
अहंकार ही
रोकेगा कि
इतने लोगों के
सामने कसम ली,
अब तोड़ें
कैसे?
तुम
अहंकार के
माध्यम से
अपनी आदतों को
बदलना चाहते
हो! और अहंकार
तो सबसे बुरी
और बड़ी से बड़ी
खतरनाक आदत
है। सिगरेट
पीते हुए शायद
तुम मोक्ष में
चले भी जाओ, क्योंकि
मैंने कभी
नहीं सुना कि
कोई सिगरेट पीने
पर मोक्ष के
द्वार पर कोई
बाधा हो, कि
धूम्रपान
वर्जित है ऐसा
लिखा हो।
लेकिन अहंकार
लेकर तुम
मोक्ष में कभी
भी न जा
सकोगे। जब तुम
अहंकार को लड़ाते
हो आदत के खिलाफ
तभी तुम भूल
कर रहे हो। तब
तुम योद्धा की
भूल कर रहे
हो। अहंकार तो
और भी खतरनाक
आदत है। तब तो
तुम बीमारी का
इलाज जो कर
रहे हो, वह
बीमारी से भी
ज्यादा
खतरनाक है।
उससे तो बीमारी
बेहतर थी; इतनी
बुरी न थी।
बीमारी से बच
भी जाते, औषधि
से न बच
सकोगे।
आत्मा
को जगाओ।
अहंकार को खड़ा
मत करो।
समस्याओं को
हल करना हो तो
कसमें खाकर
नहीं, बोध को
जगा कर। कसमें
खाना भी लड़ने
की ही तरकीब
है। लड़ कर कभी
कोई नहीं
जीता। जान कर
लोग जीते हैं।
और जो ज्ञान
से ही हो जाता
हो उसके लिए लड़ने
की, जद्दोजहद
की, व्यर्थ
के संघर्ष की
क्यों आयोजना
करते हो?
तो
पहली तो भूल
होती है टालने
की। फिर दूसरी
भूल होती है
लड़ने की। लड़ने
का परिणाम
इतना ही हो
सकता है कि
अगर तुम बहुत
जिद्दी हो तो
जो आदत तुम्हारे
ऊपर थी उसे
तुम अचेतन में
दबा दो; जो
क्रोध बाहर
निकलता था उसे
तुम भीतर पी
जाओ।
क्रोध
बाहर निकल
जाता तो
तुम्हारा
संयंत्र
मुक्त हो जाता
उससे, हलके हो
जाते। भीतर ले
जाकर तो जहर
इकट्ठा होता
जाएगा। तुम
मवाद इकट्ठी
कर रहे हो।
तुम फोड़े को
मिटा नहीं रहे
हो, ऊपर से पट्टियां
बांध कर फूल
लगा रहे हो।
तुम भीतर
विस्फोटक होते
जाओगे। तुम एक
ज्वालामुखी
हो जाओगे, जो
कभी भी फूट
सकता है। और
तुम्हारे हर
कृत्य में, तुमने जो-जो
दबाया है, उसकी
छाप पड़ने
लगेगी। तुम
उठोगे तो
क्रोध से, बैठोगे
क्रोध से, चलोगे
क्रोध से, बोलोगे
क्रोध से।
अकारण ही तुम
क्रोधित होने लगोगे।
यही तो
पागलपन है:
कोई ऐसा काम
करना जो अकारण
था,
जिसकी कोई
जरूरत ही न थी,
जिसके लिए
बाहर कोई भी
कारण मौजूद न
थे। ऐसा कोई
काम करना ही
तो पागलपन है।
होश और पागलपन
में फर्क क्या
है? होश और
पागलपन में
फर्क यह है कि
तुम्हें किसी
ने पुकारा तो
तुम बोले, अगर
पुकारने वाला
है तब तो होश, और पुकारने
वाला है ही
नहीं, पुकार
तुमने ही सुनी,
तो पागलपन।
तब तुम बिना
कारण बाहर के खोजे अपने
भीतर के ही
कारणों से
जीने लगते हो।
बाहर किसी ने
गाली दी तब तो
ठीक कि तुम
क्रोधित हो जाओ।
लेकिन कोई
गाली दिया ही
नहीं है और
तुम क्रोधित
हो जाते हो, जैसे तुम
प्रतीक्षा कर
रहे थे कि कोई
गाली दे, तो
तुम व्याख्या
कर लेते हो कि
जरूर गाली दी
गई है। गाली न
भी दी गई हो तो
तुम समझ लेते
हो कि
भाव-भंगिमा से
पता चलती थी
कि गाली वह
आदमी देना
चाहता था, कि
वह छिपा रहा
था, कि वह
धोखा दे रहा
था, लेकिन
गाली वह देना
चाहता था, कि
उसके ओंठों
में लिखी थी, कि उसकी आंख
कह रही थी, कि
वह आदमी ही
ऐसा है, हम
उसे जानते हैं,
उसके देने
की जरूरत ही
नहीं है, बिना
दिए हम
पहचानते हैं
कि वह गाली
देने ही आया
था। तुम
व्याख्या
करने लगोगे।
भीतर के क्रोध
को निकालने के
लिए कोई न कोई
उपाय खोजने पड़ेंगे।
और
जितना तुम दबाओगे
उतने तुम
रुग्ण होते
जाओगे। जितने
तुम रुग्ण
होओगे उतने ही
जीवन के इस
महा उत्सव में
तुम्हारा
सम्मिलित
होना असंभव हो
जाएगा। और
तुम्हारे
अधिक साधु यही
कर रहे हैं। वे
दबा रहे हैं, और
दबा कर सोचते
हैं परमात्मा
से मिल
सकेंगे। और
जिसने जितने
रोग दबा लिए
उतना ही
परमात्मा से
दूर हो जाता
है।
परमात्मा
के निकट तो
वही होता है
जिसका दमित
कुछ भी नहीं
है,
जो भीतर
बिलकुल खाली
है, जिसके
अचेतन में कोई
रोग नहीं पड़े
हैं। वही इस महाविराट
उत्सव में
सम्मिलित हो
पाता है। वही
नाच सकता है।
उसके ही घूंघर
बज सकते हैं।
उसके ही ओंठों
पर बांसुरी आ
जाती है
अस्तित्व की।
उसके ही जीवन
में गीत प्रकट
होता है।
तुम तो डरोगे
बांसुरी रखते
अपने ओंठों पर, क्योंकि
तुम जानते हो,
भीतर जहर
भरा है, वही
निकलेगा; तुम
गा न सकोगे।
तुम गाली ही
दे सकते हो।
गीत तुमसे
निकलेगा कैसे?
गीत की
स्थिति नहीं
है भीतर
निकलने की।
तुम प्रेम
कैसे करोगे? तुम सिर्फ
घृणा ही कर
सकते हो। तुम
वही कर सकते हो
जो तुम्हारे
भीतर दबा है।
तो
तुम्हारा
साधु
परमात्मा से
दूर होता जाता
है। जितना दूर
होता है उतना
वह सोचता है, और
जोर से दमन
करना है। तब
वह अपने भीतर
एक नरक को बना
लेता है।
मैं
साधुओं को
जानता हूं।
उन्हें निकट
से जान कर ही
मुझे यह खयाल
आया कि दुनिया
को नए संन्यासी
की जरूरत है।
पुराना
संन्यास सड़
चुका है। उसको
महा रोग लग
गया है दमन
का। और पुराना
संन्यासी
आनंदमग्न
नहीं है। भला
वह मुस्कुराता
भी हो तो भी
उसकी
मुस्कुराहट
झूठी है।
क्योंकि
एकांत में जब
वह मुझे मिला
है तो उसने
अपना दुख रोया
है। सभा में
जब उसे मैंने
देखा है तो वह
मुस्कुराता
बैठा है।
एकांत में वह
दुखी है। और
एकांत में वह
अस्तव्यस्त
है,
अराजक है।
और एकांत में
वह समझ नहीं
पाता कि क्या
हो रहा है। और
एकांत में
उसकी वही पीड़ाएं
हैं जो
तुम्हारी
हैं। और तुमसे
हजार गुनी हैं;
क्योंकि
तुमने दबाया
नहीं है, उसने
दबाया है। वह
तुमसे बड़ा
गृहस्थ है।
तुमसे ज्यादा
स्त्रियों की
आकांक्षा है।
तुमसे ज्यादा
धन की लोलुपता
है। तुमसे
ज्यादा उसकी पकड़
है भोग पर।
लेकिन उसने
दबाया है; वह
उसे प्रकट
नहीं होने
देता। तुमने
प्रकट किया
है। तुम थोड़े
हलके हो। तुम
उतने भारी
नहीं। तुम
शायद परमात्मा
के पास पहुंच
भी जाओ; तुम्हारा
स्वामी, तुम्हारा
गुरु, मुश्किल
है।
इसलिए
मुझे लगा कि
एक बिलकुल नए
संन्यासी के अवतरण
की जरूरत है, जो
जीवन को दमन
के मार्ग से
नहीं, वरन
होश के मार्ग
से रूपांतरित
करे।
ये जो
सूत्र हैं, अब
तुम समझने की
कोशिश करो। ये
होश के सूत्र
हैं। क्योंकि
बड़ा होश चाहिए,
तभी तुम
जीवन की
समस्याओं के
पैदा होने के
पहले उनका
निवारण कर
पाओगे।
"जो
शांत पड़ा है, उसे
नियंत्रण में
रखना आसान है।
जो अभी प्रकट नहीं
हुआ है, उसका
निवारण आसान
है।'
निवारण
तुम कर ही तब
पाओगे जब तुम
उसको देखने
लगो जो होने वाला
है,
अभी हुआ भी
नहीं है; नहीं
तो निवारण न
कर पाओगे। जो
होने वाला है,
जो अभी
अस्तित्व में
आया नहीं है।
भीतर
को तुम समझने
की कोशिश करो।
तुम अगर भीतर
का थोड़ा
अध्ययन करो तो
चीजें बड़ी साफ
होने लगें।
थोड़ा स्वाध्याय
जरूरी है।
क्योंकि जो भी
मैं कह रहा
हूं वह कोई
सिद्धांत
नहीं है, वह
तुम्हारे
स्वाध्याय के
लिए सूचनाएं
हैं। तुम भीतर
देखने की
कोशिश करो, किस तरह
घटना घटती है,
एक विचार
कैसे निर्मित
होता है। खाली
बैठ जाओ, देखो
कि विचार कैसे
निर्मित होता
है, कहां
से आता है।
तो
पहले तुम
पाओगे कि
विचार नहीं
होता, भाव
होता है।
सिर्फ भाव।
भाव बड़ा धूमिल
होता है; साफ
नहीं। कोई चीज
जैसे होने
वाली है; कोई
अंकुर फूटने
वाला है; लेकिन
साफ
नहीं--कहां है,
कहां से फूट
रहा है, क्या
हो रहा है।
अभी हृदय में
है। अभी फीलिंग,
भाव के तल
पर है। थोड़ी
ही देर में
भाव के तल से
उठेगा और
विचार के तल
पर आएगा। तब
तुम ज्यादा
आसानी से
पहचान पाओगे
कि क्या है, क्या हो रहा
है भीतर। फिर
जैसे ही विचार
के तल पर आ गया,
तब वह जिद्द
करेगा कृत्य
के तल पर जाने
की। ये तीन तल
हैं: भाव, विचार,
कृत्य।
क्रोध
पहले भाव में रहेगा; तुम्हें
भी साफ नहीं
है कि क्या
है। फिर विचार
बनेगा; तब
तुम्हें
धीरे-धीरे साफ
होगा कि क्या
है। अभी दूसरे
को बिलकुल साफ
नहीं है। फिर
वह कृत्य बनेगा।
तब दूसरे को
पता चलेगा कि
क्या है।
अगर
तुम भाव के
पहले पकड़ लो
तो निवारण कर
पाओगे--पूर्व-निवारण।
तब तो बड़ा
मुश्किल है।
अभी तुम्हारा
होश तो विचार
पर भी नहीं
है। अभी तो
विचार भी
बेहोशी में चल
रहे हैं।
तुमसे कोई
अचानक पूछ ले, क्या
सोच रहे हो? तो तुम एकदम
से जवाब नहीं
दे पाते। लोग
कहते हैं, कुछ
नहीं। उसका
कारण क्या है?
अगर कोई
बैठा है, उससे
पूछो, क्या
सोच रहे हो? वह पहले ही
उसका उत्तर
होता है, कुछ
भी नहीं सोच
रहे, ऐसे
ही बैठे हैं।
ऐसे ही
कोई बैठ सकता
है?
सिर्फ
बुद्ध बैठते
हैं। इतने
बुद्ध नहीं हो
सकते दुनिया
में जितने कुछ
नहीं जवाब
देने वाले
हैं।
नहीं, वह
सोच रहा है।
उसे पता नहीं
है। विचार चल
रहे हैं, लेकिन
उसे कुछ पता
नहीं है। सब
अंधेरे में हो
रहा है। उससे
कहो कि नहीं, जरा आंख बंद
करके ठीक से
कहो, कुछ
तो सोच ही रहे
होओगे! तब वह
शायद थोड़ी
कोशिश करे तो
हैरान हो, कुछ
नहीं, काफी
सोच रहा है।
विचार ही
विचार चल रहे
हैं--अनर्गल, असंगत, बेतुके,
किसी
शृंखला में
नहीं; कुछ कारण
नहीं दिखाई
पड़ता कि क्यों
चल रहे हैं।
जैसे आस-पास मक्खियां
भिनभिना रही
हों, ऐसे
तुम्हारे
चारों तरफ
विचार
भिनभिना रहे हैं।
उनकी
भिनभिनाहट
इतनी ज्यादा
है कि तुम धीरे-धीरे
उसके आदी हो
गए हो, वैसे
ही जैसे बाजार
में बैठा हुआ
आदमी बाजार की
भिनभिनाहट का
आदी हो जाता
है। उसे पता
ही नहीं चलता
कि चारों तरफ कुछ
हो रहा है।
पता तो तब चले
जब अचानक पूरा
बाजार एक
सेकेंड के लिए
चुप हो जाए।
तब उसको एकदम
से चौकन्नापन
मालूम पड़े कि
क्या हो गया!
अगर
तुम कार चलाते
हो तो इंजन की
आवाज तुम्हें
पता नहीं चलती, जब
तक कि कुछ
अंतर न पड़
जाए। अगर आवाज
एकदम बंद हो
जाए तो
तुम्हें पता
चलती है, या
कोई नई आवाज
सम्मिलित हो
जाए तो
तुम्हें पता
चलता है।
अन्यथा
तुम्हें कुछ
पता नहीं चलता।
आदी हो जाते
हो। विचार के
तुम आदी हो।
इसलिए कोई
अचानक पूछ ले,
तुम कहते हो,
कुछ नहीं।
वह उत्तर ठीक
नहीं है। भीतर
थोड़ा देखना
शुरू करो।
पहले विचार के
साक्षी बनो।
पहचानना शुरू
करो कि जो भी
चलता है वह
जानकारी में
चले। बहुत बार
चूकोगे।
क्योंकि होश
को रखना एक
सेकेंड से
ज्यादा मुश्किल
होगा। होश बड़ी
कीमती चीज है;
इतनी आसानी
से नहीं
मिलता। आंख
खुले होने का
नाम होश नहीं
है। भीतर क्या
चल रहा है, वह
दिखाई पड़े, तब होश है।
बाहर क्या
दिखाई पड़ रहा
है, वह होश
नहीं है। तो
आंख बंद करके
अपने विचारों
को देखना शुरू
करो।
बड़ा
अदभुत है
विचार का खेल
भी,
और अगर तुम
देख पाओ तो
बड़ा मनोरंजक
है। भीतर तुम
एक बड़ा ड्रामा
चला रहे हो; और जिसको
तुम्हीं देख
सकते हो, कोई
दूसरा नहीं
देख सकता। बड़ी
प्रतिमाएं
उठती हैं; बड़ी
कहानियां
खेली जाती हैं,
बड़े नाटक
चलते हैं। तुम
जरा देखने का
अभ्यास बनाओ।
और लड़ो
मत। नहीं तो
देख न पाओगे।
तुम ऐसे ही
देखो जैसे
फिल्म देखते
हो फिल्मगृह
में बैठ कर।
बस देखो। रस
लो एक बात में
कि कोई भी चीज
बिन देखी न
निकल जाए, अनदेखी
न निकल जाए, चूक न जाए।
जैसे कभी कोई
बहुत सेंसेशनल
फिल्म तुम
देखने जाते हो
तब तुम बिलकुल
सीधे बैठते हो,
कुर्सी पर
टिक कर भी
नहीं बैठते, कि टिक कर
बैठे कहीं कोई
चीज चूक न
जाए। तब तुम
बिलकुल आगे
झुके रहते हो,
तत्पर, कि
हर चीज पकड़
में आ जाए; एक
शब्द न छूट
जाए। या जब
तुम कोई ऐसी
बात सुनते हो
जो बहुत
रसपूर्ण है तो
तुम ऐसे तत्पर
होकर सुनते हो
कि एक शब्द भी
चूक गया तो
शृंखला पकड़ना
मुश्किल हो
जाएगी, हाथ
से धागा निकल
जाएगा। ऐसी ही
तत्परता से भीतर
के विचारों को
देखो।
और यह
बड़ा ही उपादेय
है। इससे बड़े
लाभ की कोई
घटना जगत में
नहीं है। कुछ
और देख कर तुम
इतनी कीमती
चीज न पा
सकोगे जो
विचार देख कर
पा सकोगे।
क्योंकि
विचार देखने
से तुम्हारा
होश प्रगाढ़
होगा, तुम्हारा
साक्षी-भाव
सघन होगा, तुम्हारा
ध्यान ठहरेगा।
तुम एक
प्रज्ञा की
ज्योति भीतर
बन जाओगे, जिसमें
सब दिखाई
पड़ेगा। रोशनी
धीरे-धीरे बढ़ेगी
और एक-एक
विचार
पारदर्शी हो
जाएगा।
जब
विचार
पारदर्शी
होने लगे और
तुम हर विचार
को देखने लगो, तब
तुम्हें
धीरे-धीरे
विचार के नीचे
छिपे हुए भावों
की झलक मिलनी
शुरू होगी। हर
विचार के नीचे
भाव छिपा है, जैसे हर
वृक्ष के नीचे
जड़ें छिपी
हैं। वे भूमि
के नीचे हैं।
जब तुम विचार
को ठीक पहचान
लोगे तो तुमको
भाव मालूम
पड़ेगा कि वह
पीछे भाव छिपा
है।
और जब
भाव दिखाई
पड़ने लगेगा तब
तुम बड़े गहरे
लोक में
प्रविष्ट
हुए। अब
तुम्हारी
प्रज्ञा निश्चित
ही अकंप होने
लगी,
उसका कंपन
मिटने लगा, थिर होने
लगी। जिस दिन
तुम विचार को
भी देखने के
बाद भाव को भी
देख लोगे...।
भाव का अर्थ
है: सिर्फ फीलिंग
की दशा; कोई
विचार नहीं
बना है, सिर्फ
एहसास हो रहा
है। अभी क्रोध
नहीं आया है, सिर्फ एक
बेचैनी है, जो प्रकट नहीं
है, जो
तुम्हें कुछ
करने के लिए
उकसा रही है।
लेकिन अभी साफ
नहीं है, कहां
जाना है। अभी
काम का विचार
नहीं उठा है, लेकिन
कामवासना
शरीर में बह
रही है, शरीर
को धक्के दे
रही है कि
विचार को
बनाओ। वह विचार
के तल पर आना
चाहती है।
ऐसे ही
जैसे पानी में
बबूला उठता है।
तो देखो तुम, बबूला
नीचे से उठता
है। छिपा था, पानी के
नीचे पड़ी
मिट्टी में
पड़ा था। वहां
से उठता है।
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
जैसे-जैसे ऊपर
आता है, बड़ा
होने लगता है,
क्योंकि
पानी का दबाव
कम होने लगता
है। दबाव कम
होता है, बबूला
बड़ा होता है।
फिर आ जाता है
बिलकुल सतह
पर। जब बिलकुल
सतह पर आने
लगता है तब
तुम्हें
दिखाई पड़ता
है। और जब
बिलकुल सतह पर
आकर बबूला बैठ
जाता है तब
तुम्हें ठीक
से दिखाई पड़ता
है।
यह जो
बिलकुल सतह पर
आ जाना है यह
कृत्य है, एक्ट।
मध्य में होना
विचार है।
वहां पानी में
जमीन की पर्त
के नीचे छिपा
होना भाव है।
और जिस दिन
तुम भाव को
देख लोगे उस
दिन एक अनूठी
घटना घटती
है--तुम अपने
संबंध में भविष्यद्रष्टा
हो जाओगे।
क्योंकि भाव
के आने के
पहले तुम्हारे
भीतर बीज आता
है। वह बीज
सदा बाहर से
आता है।
क्योंकि पानी
के नीचे बबूला
छिपा था; उसके
पहले हवा आनी
चाहिए जमीन
में, अन्यथा
कहां से बबूला
छिपेगा? तो भाव को
जागने के बाद
तुम फिर देख
सकते हो कि कौन
सा भाव आने
वाला है। वह
सबसे सूक्ष्म
दशा है मन की, अति सूक्ष्म,
जहां तुम भविष्यद्रष्टा
हो जाते हो, जहां तुम
अपने बाबत
भविष्यवाणी
कर सकते हो कि अब
यह होने वाला
है, कि आज सांझ
मैं क्रोध
करूंगा, कि
क्रोध का भाव
दोपहर
होते-होते घना
होगा, बीज
पड़ गया है।
और जिस
दिन तुम इतने
सूक्ष्मदर्शी
हो जाते हो कि
तुम भविष्य को
देख लो कि कल
क्या होने
वाला है, उसी
दिन लाओत्से
का सूत्र
तुम्हारे काम
का होगा।
निवारण हो
सकता है भाव
बनने के पहले।
क्योंकि भाव
है जड़। और भाव
के जो पूर्व
है, जिसके
लिए हमारे पास
कोई शब्द नहीं;
क्योंकि
कोई उतना
सूक्ष्म
दर्शन नहीं
करता; या
जो करते हैं
वे कभी इतने
अकेले होते
हैं करने वाले
कि किसी को
बताने का उपाय
नहीं, दूसरा
उनको समझता भी
नहीं। जो प्रि-फीलिंग
स्टेट है, भाव-पूर्व
दशा है, वह
बीज है। और वह
बीज सदा बाहर
से आता है।
विचार बाहर से
आते हैं; भाव
बाहर से आते
हैं; बीज
बाहर से आता
है। सब बाहर
से आता है। और
उस बाहर से आए
में तुम
ग्रसित हो
जाते हो। जिस
दिन तुम यह सब
देख लोगे और
तुम्हारा
द्रष्टा परिपूर्ण
हो जाएगा, उस
दिन निवारण।
उस दिन तुम
आने के पहले
ही द्वार बंद
कर दोगे। उस
दिन तुम्हारे
जीवन में कोई
उत्पात न रह
जाएगा।
"जो
शांत पड़ा है, उसे
नियंत्रण में
रखना आसान है।
जो अभी प्रकट नहीं
हुआ है, उसका
निवारण आसान
है। दैट व्हिच
लाइज
स्टिल, इज़ इजी टु
होल्ड। दैट
व्हिच इज़
नाट यट मैनीफेस्ट,
इज़ इजी टु फोरस्टाल।'
यट
नाट मेनीफेस्ट, जो
अभी तक प्रकट
नहीं हुआ, उसे
बदल देना
बिलकुल हाथ की
बात है। इस
संबंध में
तुम्हें मैं
कुछ कहूं, कोई
समानांतर
दृष्टांत, जिससे
तुम्हें समझ
में आ जाए।
रूस
में किर्लियान
ने एक नए
किस्म की
फोटोग्राफी
विकसित की है।
और वह है
बीमारी को
अप्रकट
अवस्था में पकड़ने के
लिए। एक आदमी
आज से छह
महीने बाद
कैंसर का मरीज
होगा, तो कोई
भी चिकित्सक
अभी नहीं पकड़
सकता। क्योंकि
शरीर में अभी
कहीं भी कोई
छाप नहीं पड़ी
है। मनोवैज्ञानिक
भी नहीं पकड़
सकता, क्योंकि
अभी मन में भी
कोई छाप नहीं
पड़ी है। किर्लियान
पकड़ लेता है।
उसने
इतनी सूक्ष्म फोटोग्राफिक
प्लेटें
तैयार की हैं, इतनी
संवेदनशील, कि वह शरीर
और मन से भी जो
गहरा है, जिसको
आध्यात्मिक
लोग ऑरा कहते
रहे हैं, शरीर
का आभामंडल, शरीर का
इलेक्ट्रिक
फील्ड, उसमें
पकड़ता है
वह। जैसे अगर
यह मेरे हाथ की
अंगुली छह
महीने बाद
बीमार होने
वाली है तो इस
अंगुली के
आस-पास
विद्युत का एक
क्षेत्र है जो
अभी बीमार हो
गया है। पहले
विद्युत के
क्षेत्र में
बीमारी
प्रवेश करती
है; फिर उस
क्षेत्र के
माध्यम से वह
मन में आती है।
फिर मन के
माध्यम से वह
शरीर तक आती
है। भाव, विचार,
कृत्य; विद्युत-क्षेत्र,
मन, शरीर।
छह महीने
पूर्व किर्लियान
पकड़ लेता है।
और वह कहता है,
अभी इलाज कर
लिया जाए तो
यह बीमारी कभी
न आएगी। और
अभी इलाज
बिलकुल आसान
है, क्योंकि
अभी कुछ नहीं
करना है। अभी
इस व्यक्ति के
विद्युत-क्षेत्र
को ठीक करना
है, जो कि
कई साधनों से
किया जाता रहा
है। चीन में एक्युपंचर
के द्वारा
किया जाता रहा
है।
किर्लियान की
फोटोग्राफी
ने पांच हजार
साल पुराने एक्युपंचर
को बड़ी महिमा
दे दी। लोग
समझते थे, यह
तो सिर्फ
पूर्वीय
लोगों की
कल्पना है। एक्युपंचर
बड़ा
वैज्ञानिक
सिद्ध हुआ। और
पांच हजार साल
पुराना है। और
एक्युपंचर
का जन्म तभी
हुआ जब ताओ की
विचारधारा
गहन हो रही
थी। वह ताओ का
ही अंग है। एक्युपंचर
ताओ का अंग है,
जैसे भारत
में आयुर्वेद
योग का अंग
है। ताओ की जो
साधना-पद्धति
है उसी
साधना-पद्धति
का हिस्सा है एक्युपंचर।
लाओत्से के ये
वचन ही उसका
आधार हैं कि
पूर्व-निवारण
कर लो। इस
विचार का ही नियोजन
शरीर की
बीमारी के लिए
है--कि बीमारी
जब आ जाए तब
लड़ना बहुत
मुश्किल, और
जब शरीर तक आ
जाए तो हटाना
बहुत कठिन और
असाध्य, लेकिन
अगर प्राथमिक
चरण में ही
मुक्त कर ली
जाए बीमारी...।
तो एक्युपंचर
क्या करता है? एक्युपंचर सिर्फ शरीर
का जो
विद्युत-क्षेत्र
है, जो
इलेक्ट्रिक
फील्ड है, उसको
बदलता है। एक्युपंचर
ने सात सौ
बिंदु खोजे
हैं शरीर में
जहां से
बदलाहट की जा
सकती है। और
उन बिंदुओं पर
एक्युपंचर
सिर्फ सूई को चुभा देता
है, जरा सी
गर्म की हुई
सूई चुभा
दी जाती है।
उस गर्म सूई
के कारण उस
स्थान पर जहां
कि छेद पड़ रहा
था विद्युत के
फील्ड में, विद्युत के
क्षेत्र में,
उस सूई के
कारण विद्युत
की धारा बदल
जाती है। उस
धारा के
परिवर्तन से,
जो बीमारी
होने वाली थी,
वह ठीक हो
जाती है।
अब यह
बात काल्पनिक
रहेगी।
काल्पनिक
इसलिए रहेगी, क्योंकि
यह बीमारी
अप्रकट थी।
अभी तो बीमार
को भी पता
नहीं था; अभी
तो चिकित्सक
भी मानने को
राजी नहीं था
कि इसको कोई
बीमारी है।
सिर्फ एक्युपंचरिस्ट,
जिनकी कि
सारी की सारी
दीक्षा बड़ी
सूक्ष्म आंखों
को जन्माने
की है, जो
कि शरीर के
पास विद्युत
को देखने की
कोशिश करते
हैं। इसलिए एक्युपंचर
की ट्रेनिंग
बड़ी
दुस्साध्य
है। दस-बीस
साल, पच्चीस
साल, फिर
भी पक्का
नहीं।
क्योंकि आपकी
आंखों और ध्यान
की गति पर
निर्भर करेगी
कि आप शरीर के
आस-पास
विद्युत को
देखना शुरू कर
दें। यह जो किर्लियान
है, इसने
काम आसान कर
दिया। कैमरा
पकड़ कर बता
देता है।
कैमरे में
फोटो आ जाता
है पूरे शरीर
का; शरीर
के आस-पास
विद्युत की
रेखाएं आ जाती
हैं। और
जहां-जहां
रेखाएं
छिन्न-भिन्न
हैं, टूटी-फूटी
हैं, वहीं
कोई बीमारी
प्रकट होने
वाली है। उस
विद्युत-क्षेत्र
को ठीक कर
दिया जाए, बीमारी
कभी प्रकट न
होगी।
अब
इसमें एक अड़चन
है। अगर
बीमारी प्रकट
न हो तो क्या पक्का
कि होने वाली
थी या नहीं? अगर
प्रकट हो तो
साफ है कि एक्युपंचर
वाले लोग गलत
बातें कह रहे
थे। अगर वे
सफल हो जाएं
तो साफ है कि
बकवास है, क्योंकि
बीमारी हुई
नहीं। होने
वाली थी, इसका
क्या पक्का?
लेकिन किर्लियान
की
फोटोग्राफी
से बड़ी चीजें
साफ हो गईं।
अब तो प्लेट
को वैसे ही
देखा जा सकता
है जैसे कि
एक्स-रे की
प्लेट को
चिकित्सक
देखता है।
जैसे एक्स-रे
की प्लेट हर
बड़े अस्पताल
में जरूरी हो
गई,
आने वाले दस
वर्षों में किर्लियान
के यंत्र हर
अस्पताल में
जरूरी हो
जाएंगे। तब उचित
यह होगा कि
बजाय बीमार
पड़ने के, पहले
ही आप चले
जाएं, हर
महीने चेक-अप
करवा लें कि
कहीं कोई गड़बड़
की शुरुआत तो
नहीं है।
और
उसको वहीं ठीक
किया जा सकता
है बड़ी आसानी
से। क्योंकि
मूल में चीजें
बड़ी छोटी होती
हैं। गंगोत्री
बड़ी छोटी है, गौमुख
से गिरती है, जरा सा झरना
है। बूंद-बूंद
पानी रिसता
है। वहां कोई
भी बदलाहट
करनी हो, आसान
है। हरिद्वार
में कठिनाई
होगी। प्रयाग में
बहुत
मुश्किल।
बनारस तो
असंभव। बनारस
में तो असाध्य
हो गया रोग
आकर। अब कुछ
नहीं किया जा
सकता। अब करने
का कोई उपाय न
रहा। तुम क्यों
बनारस के लिए
रुके हो जब कि
गंगोत्री में
ही चिकित्सा
हो सकती है?
जैसा
शरीर के संबंध
में सत्य है
वैसा ही आत्मा
के संबंध में
भी सत्य है।
तुम अपने भीतर
अंतस-जीवन को
उसी समय हल कर
लेना जब कि
चीजें होने वाली
थीं,
हुई नहीं
थीं; आने
वाली थीं, आई
नहीं थीं। तुम
भविष्य का
निवारण आज ही
कर लेना। पर
इस निवारण के
लिए तुम्हारा
बहुत प्रगाढ़
होशपूर्ण, जागरूक
होना जरूरी
है।
"जो
बर्फ की तरह
तुनुक है, वह
आसानी से
पिघलता है। जो
अत्यंत लघु है,
वह आसानी से
बिखरता है।'
किसी
चीज के
अस्तित्व में
आने से पहले
उससे निपट लो।
परिपक्व होने
के पहले ही
उपद्रव को रोक
दो।
"जिसका
तना भरा-पूरा
है, वह
वृक्ष नन्हे
से अंकुर से
शुरू होता है।
नौ मंजिल वाला
छज्जा मुट्ठी
भर मिट्टी से
शुरू होता है।
हजार कोसों
वाली यात्रा
यात्री के पैर
से शुरू होती
है।'
बहुत
चल लेने के
बाद बदलना
मुश्किल हो
जाता है। चलने
के पहले बहुत
सोच कर चलना, ताकि
पहले कदम पर
ही चीजें ठीक
रखी जा सकें।
मकान बनाने के
पहले ही ठीक
से सोच लेना, ताकि नींव
ठीक से भरी जा
सके। वहां रह
गई भूल सदा
पीछा करेगी।
लौट कर
सुधारना बहुत
कठिन हो जाता
है। कुछ चीजें
तो लौट कर सुधारी
ही नहीं जा
सकतीं। और
तुम्हारे
जीवन की यही
विपदा है कि
तुम हजार-हजार
यात्राएं चल
लिए हो। पहले
कदम पर बेहोशी
में चले, अब
सुधारने की
इच्छा होती
है। डरते हो
तुम खुद ही, कैसे सुधरेगा?
सुधर
सकता है।
कितना ही कठिन
हो,
असंभव नहीं
है। अभी भी
कुछ बिगड़ा
नहीं है। अभी
भी ज्यादा देर
नहीं हो गई
है। समय हाथ
में है। और
अभी भी अगर
जाग जाओ तो
कुछ भी खोया
नहीं है। जब
जाग गए तभी
भोर, जब
जाग गए तभी
सुबह।
लेकिन
अब एक-एक
सूत्र को
ठीक-ठीक से
समझ कर कदम रखना
है। आज से एक
बात का खयाल
रखो: टालो मत।
जो समस्या आए
उसे निबटाने
की कोशिश करो।
मत कहो, कल
निबटा लेंगे।
अगर पत्नी पर
क्रोध आया है
तो बैठ कर
उससे अभी बात
कर लो। अभी
गंगोत्री में
है। अभी चीजें
बड़ी सरल हैं।
अभी क्रोध में
दंश नहीं है, जहर नहीं
है। अभी क्रोध
सिर्फ एक
भाव-दशा है। उससे
कह दो कि मैं
क्रोधित
अनुभव कर रहा
हूं। कारण बता
दो। बीच
बातचीत कर लो।
अभी तुम इतने क्रोधित
नहीं हो; बातचीत
हो सकती है।
क्रोध में
कहीं बातचीत
होती है? फिर
तो झगड़ा
ही होता है।
फिर तो विवाद
हो सकता है; चर्चा तो
नहीं हो सकती।
अभी क्रोध की
पहली झलक आई
है, पहला
धुआं उठा है।
अभी बैठ जाओ।
हजार जरूरी काम
हों, छोड़
दो। इससे
ज्यादा जरूरी
कुछ भी नहीं
है। बैठ कर
बात कर लो। मत
कहो कि सांझ
को कर लेंगे, कि कल कर
लेंगे, और
कौन जानता है,
आई हवा है, चली जाए, बिना
ही किए निकल
जाए। बिना किए
कुछ भी नहीं निकलता।
सब अटका रह
जाता है।
अगर
तुम गंगोत्री
में पकड़ने
में कुशल हो
जाओ,
तुम पाओगे,
चीजें इतनी
सरल हो गईं, इतनी हलकी हो
गईं कि समस्या
बनती नहीं।
अगर मन में
लोभ जगा है तो
उसे पड़ा मत
रहने दो, आंख
बंद करके बैठ
जाओ, अपने
लोभ को पूरा
उठा कर देख
लो। जो
धीरे-धीरे अपने
आप उठेगा उसे
तुम खुद ही
खींच कर निकाल
लो बाहर, अप्रकट
से प्रकट में
ले आओ। जो
वृक्ष वर्षों
में बड़ा होगा,
तुम जादू का
काम कर सकते
हो।
तुमने
जादूगर देखे? आम
की गुठली को
छिपा देते हैं
टोकरी के नीचे;
जंतर-मंतर
पढ़ते हैं; टोकरी
उठाते
हैं--पौधा हो
गया। फिर
टोकरी रख दी; फिर
जंतर-मंतर पढ़ा;
फिर थोड़ा
डमरू बजाया, फिर टोकरी
उठाई--झाड़ बड़ा
हो रहा है।
फिर टोकरी ढांकी;
फिर
जंतर-मंतर पढ़ा;
फिर डमरू
बजाया; फिर
उठाया--झाड़
में फल लग गए
हैं। फिर
टोकरी रखी; फिर जादू
किया; टोकरी
उठाई--फल पक गए
हैं। फल तोड़
कर वे तुम्हें
दे देते हैं।
यह तो सब हाथ
की सफाई है।
लेकिन तुम
अपने भीतर यह
बिलकुल कर
सकते हो। यह
जंतर-मंतर
करो।
लोभ
उठता हो, टालो
मत। बैठे जाओ;
अंधेरा कर
लो कमरा; दरवाजे-द्वार
बंद कर दो; टोकरी
में ढंक जाओ; फेंको
जंतर-मंतर, कहो कि बड़ा
हो! और भीतर
कोई दिक्कत
नहीं है; कहो
कि बड़ा हो, बड़ा
हो जाता है।
कहो कि क्रोध
बड़ा हो, लोभ
बड़ा हो, तुझे
मैं पूरा देख
लेना चाहता
हूं। कल तू
अपने आप बढ़ेगा,
अभी बढ़ जा!
क्या-क्या
चाहता है? महल
चाहता है? साम्राज्य
चाहता है? क्या
चाहता है? अभी
बोल दे सब! अभी
खोल दे सब! कल
के लिए क्या
रुकना? क्रोध
को पूरा उठा
लो। क्रोध बड़ी
प्रसन्नता से
बढ़ेगा; झाड़
बड़ा होगा; जल्दी
फल लग जाएंगे;
पक जाएंगे।
तुम सिकंदर हो
गए। सारी
दुनिया का राज्य
तुम्हारा है।
इसको देख लो।
इसको पूरा उठा
लो। इसको पूरा
पहचान लो। और
पूरे वक्त होश
रखो कि कैसा
खेल मन खेल
रहा है!
जो
असफलता
सिकंदर को
जीवन के बाद
में दिखाई पड़ी
वह तुम्हें
घड़ी भर में
दिखाई पड़
जाएगी कि पा भी
लिया दुनिया
का राज्य तो
क्या होगा? मिल
गई सारी संपदा,
क्या होगा?
क्या करोगे?
खाओगे
संपदा को? पीओगे
संपदा को? और
इसे पाने में
पूरा जीवन
नष्ट हो
जाएगा। सिकंदर
को मरते वक्त
लगा कि मेरे
हाथ खाली हैं।
तुम घड़ी भर
ध्यान करके
लोभ को पूरा
बढ़ा लो, फल
तक पहुंचा दो;
सिकंदर हो
जाओ; जीत
लो सारी
दुनिया। न कोई
हत्या करनी
पड़ती, न
कोई हिंसा
करनी पड़ती, न कहीं जाना
पड़ता। सिर्फ
जादू का एक
खेल करना है।
जो सिकंदर को
आखिरी वक्त
जीवन गंवा कर
लगा कि मेरे
हाथ खाली हैं,
वह तुम्हें
इस छोटे से
खेल में ही लग
जाएगा कि हाथ
खाली हैं। हाथ
खाली हैं; यह
दौड़ व्यर्थ
है। और यह दौड़
व्यर्थ हो जाए
तो तुमने आने
वाले को रोक
दिया, तुमने
होने वाले को
बदल दिया।
कुछ भी
हो भीतर की
समस्या, देर
मत करो। बीज
मत बनाओ। समय
मत दो। बढ़ने
का मौका मत
दो। अभी बढ़ा
लो, देख
लो। इसी को
आत्म-निरीक्षण
कहते हैं। और
आत्म-निरीक्षण
करने में
तुम्हारी
दोहरी क्षमता बढ़ेगी। एक
तरफ लोभ की
व्यर्थता
सिद्ध हो
जाएगी, निरीक्षण
करते-करते
तुम्हारा होश
भी सिद्ध होगा।
ये दोहरे
फायदे होंगे।
हर समस्या को
तुम सीढ़ी बना
सकते हो। अगर
देर न करो, तो
हर समस्या
तुम्हें जीवन
में
परिपक्वता लाने
का साधन बन
सकती है।
समस्या है ही
इसीलिए कि तुम
उसे सुलझाओ।
क्योंकि
सुलझाने से
तुम बढ़ोगे,
प्रौढ़
होओगे।
सुलझाने से
तुम मजबूत
होओगे। समस्या
को टालो मत।
पलायन मत करो।
एक बात।
पिछली
समस्याओं को, जिनको
टाल दिया है, पलायन करते
रहे हो, उनसे
लड़ो मत।
उनको भी मन
में फैलने का
मौका दो। तुम
बैठ जाओ नदी
के किनारे और
बहने दो तुम्हारी
समस्याओं की
धार को। तुम
साक्षी, उपेक्षा
से भरे, उदासीन,
देखते रहो।
न इस तरफ, न
उस तरफ; न
पक्ष में, न
विपक्ष में।
कामवासना की
धारा बहती है,
बहने दो।
तुम किनारे पर
बैठे हो; कुछ
लेना-देना
नहीं है। न
तुम पक्ष में
हो, न तुम
विपक्ष में
हो। न तुम
संसारी हो और
न तुम साधु
हो। यही मेरे
संन्यास का
अर्थ है कि न
तुम संसारी हो
और न तुम साधु
हो। न तुम भोगी
हो, न तुम
त्यागी हो।
तुम दोनों
पक्ष में नहीं
हो।
कबीर
कहते हैं, पखापखी
के पेखने
सब जगत
भुलाना।
पक्ष-विपक्ष
के उपद्रव में
सारा जगत भूला
है।
तुम न
पक्ष में, न
विपक्ष में।
तुम बैठ गए।
तुम देख रहे
हो। तुम कहो कि
आओ, जो जो
है। बनने दो
रूप। घबड़ाओ
मत। मन अगर
सुंदर
स्त्रियों को
भोगने लगे, भोगने दो।
तुम इतना ही
खयाल रखो कि
तुम पार बैठे
देख रहे हो।
तुम कुछ भी मत
करो। कृत्य
किया कि भूल
हुई, कि
तुमने तलवार
उठा ली, कि
तुमने कहा मैं
ब्रह्मचर्य
का व्रत लिए
बैठा हूं, यह
क्या हो रहा
है। कृत्य
किया कि भूल
हुई। लड़े कि
चूके। लड़े कि
हार की
बुनियाद रखी।
तुम तलवार मत
उठाना। तुम बस
दोनों हाथ
बांध कर बैठ जाना।
इसीलिए तो
बुद्ध, महावीर,
सब दोनों
हाथ बांधे
बैठे हैं।
नहीं तो भूल
से हाथ उठ जाए।
तुम दोनों हाथ
बांध कर बैठ
जाना। शरीर को
हिलाना-डुलाना
नहीं। भीतर
कृत्य को
हिलाना-डुलाना
नहीं। और जो
भी मन चाहता
हो वह उसे
करने देना।
भोगने देना
स्वर्ग की अप्सराओं
को; कुछ
हर्जा नहीं है,
भोग लेने
दो। कुछ बिगड़
भी नहीं रहा; नाटक है, हो
लेने दो।
तुम्हारा क्या
लेना-देना है?
शरीर
में छिपे
वासना के कण
हैं;
मन में छिपी
वासना की
आकांक्षा है;
शरीर और मन
का खेल है।
शरीर की मंच
है; मन के
अभिनेता हैं।
तुम तो केवल
साक्षी हो, तुम तो केवल
दर्शक हो।
तुम्हें उठ कर
मंच पर जाने
की जरूरत नहीं
है। तुम्हें
सम्मिलित होने
की कोई जरूरत
नहीं है। तुम
तो बैठे रहो।
थोड़ी देर में
खेल बंद होगा,
तुम अपने घर
चले जाओगे। यह
तुम्हारा घर
नहीं है। न
तुम अभिनेता
हो और न तुम
मंच हो। शरीर
मंच है। शरीर
में छिपी हुई
बायोलाजी की
भूख है, जो
काम बनती है, क्रोध बनती
है, लोभ
बनती है। फिर
मन इस सारी
शरीर में छिपी
हुई भूख को
रूप देता है, विचार देता
है, रंग
देता है, ढंग
देता है, कहानी
को लिखता है।
स्क्रिप्ट मन
की है; मन
अभिनेता देता
है। तुम नाहक
ही बीच में आ
जाते हो।
तुम
बीच में मत
आओ। तुम दूरी
कायम रखो और
देखते रहो। और
तब तुम बड़े
प्रसन्न
होओगे। मन में
जैसा नाटक
चलता है ऐसा
नाटक कहीं भी
नहीं चलता।
मनोरम है, मनोरंजक
है। और मुफ्त
है। कहीं जाना
नहीं। किसी
टिकट-घर के
सामने कतार
लगा कर खड़े
होना नहीं। जब
आंख बंद की तब
खेल चल ही रहा
है। और तुम जितने
शांत होकर
बैठोगे, खेल
उतना रंगीन हो
जाएगा। पहले
हो सकता है, शुरू-शुरू
में नाटक
ब्लैक एंड
व्हाइट में हो,
पुराने
किस्म की
फिल्म चले।
जल्दी ही मल्टीकलर,
अनेक रंग, बहुविध रंग
प्रकट
होंगे--अगर
तुम बैठे रहो।
पहले
सांसारिक खेल
चलेगा। अगर
तुम बैठे रहे,
जल्दी ही
सांसारिक खेल
गिर जाएंगे और
जिनको आध्यात्मिक
खेल कहते हैं,
वे चलने शुरू
होंगे।
कुंडलिनी जग
रही है; प्रकाश
दिखाई पड़ रहा
है; राम
खड़े हैं धनुष
लिए; कृष्ण
बांसुरी बजा
रहे हैं; जीसस
सूली पर लटके
हैं--ये
आध्यात्मिक
नाटक हैं। ये
भी नाटक ही
हैं। इनका भी
सारा का सारा
खेल मन का ही
है। और इनकी
मंच भी शरीर
है। तुम इनको
भी देखते रहो।
जैसे संसार
बीत गया, ऐसे
यह खेल भी बीत
जाएगा। तुम
देखते ही रहो।
तुम दर्शक से
ज्यादा इंच भर
कुछ और मत
बनना।
बड़ा
कठिन है। कई
बार एकदम दिल
हो जाएगा, अरे
कूद पड़ो
बीच में। कई
बार तुम पाओगे
कि भूल ही गए
और कूद पड़े।
जैसे ही पाओ
कि कूद पड़े, फिर वापस
अपनी कुर्सी
पर लौट आना और
बैठ जाना। कई
बार यह भूल
होगी। पुरानी आदत
है। इसमें भी
कुछ परेशान
होने की जरूरत
नहीं। जब भूल
गए, भूल गए;
अब क्या
करना। जब याद
आ गई, वापस
लौट कर फिर
बैठ कर देखने
लगे। पहले
संसार
गुजरेगा, फिर
अध्यात्म
गुजरेगा।
संसार
से तो बच जाना
बहुत आसान है, अध्यात्म
से बचना बहुत
कठिन है।
क्योंकि वह और
भी मनोरंजक
है। बहुरंग है;
उसके रंग
संसार में
दिखाई ही नहीं
पड़ते। तुमने
नीला रंग देखा
है, लेकिन
वह कुछ भी
नहीं है। जिस
दिन तुम्हारे
भीतर नील तारा
दिखाई पड़ेगा,
जब तुम अपने
ही तीसरे
नेत्र में देखोगे
कि नील तारा
प्रकट हो रहा
है, वह
नीलिमा
अलौकिक है।
उसमें तुम तरोबोर
हो जाओगे, उसमें
तुम डूब जाओगे,
उसमें तुम
भूल जाओगे कि
तुम दर्शक हो,
अपनी
कुर्सी पर
बैठे रहो। तुम
भोगी बन
जाओगे। क्योंकि
कुछ भी नहीं
है अप्सराओं
में, और
कुछ भी नहीं
है धन-तिजोरी
में, जब
भीतर के
सूक्ष्म रंग
प्रकट होते
हैं। और वे
उसी के सामने
प्रकट होते
हैं जो संसार
को बिता दे।
संसार में जो
उलझ गया उसके
सामने वे
प्रकट होने का
मौका ही नहीं
आता। जिसने
सांसारिक
चित्रों को
बीत जाने दिया
उसके सामने
आध्यात्मिक
चित्र आने
शुरू होते हैं।
वह
अच्छा लक्षण
है। वह बताता
है कि तुम
थोड़े शांत हुए
हो,
तुम थोड़ी
देर कुर्सी
में बैठे रहे
हो, तुम
थोड़ी देर
उछल-उछल कर
मंच पर नहीं
पहुंचे हो।
इसलिए अब ये
रंग आने शुरू
हुए। और जब
तुम पाओगे
भीतर के
रंग--बड़े
अनूठे। हर चीज
अलौकिक हो जाती
है। ध्वनियां
सुनाई पड़ती
हैं, जो कि
बड़े-बड़े
संगीतज्ञ
पैदा नहीं कर
सकते। बड़े से
बड़ा संगीतज्ञ
जो कर सकता है
वह भी उन
ध्वनियों की
प्रतिध्वनि
मालूम होगी। चांदत्तारे
हजार-हजार, सूरज
करोड़ों! बड़ा
अनूठा लोक
प्रकट होता
है।
तुम
जैसे-जैसे
शांत होते हो, वैसे-वैसे
बड़े अनूठे
रूप-रंग की
दुनिया प्रकट होती
है। और वह
इतनी
वास्तविक मालूम
होती है कि यह
संसार माया
मालूम पड़ेगा। जिसने
भीतर का नील
तारा देख लिया
उसे सब जगत के
नीले रंग बस जस्ट
फीके-फीके
मालूम पड़ेंगे,
उसकी ही कुछ
छाप, वह भी धुंधली-धुंधली,
कार्बन
कापी। जिसने
भीतर की सुंदर
अप्सरा देख ली,
उसे बाहर की
सब स्त्रियां
फीकी-फीकी
मालूम पड़ेंगी,
उजड़ी-उजड़ी,
खंडहर।
जिसने भीतर के
धन की झलक पा
ली, सब तिजोरियां
खाली मालूम
पड़ेंगी।
लेकिन
ध्यान रखना कि
वह भी अभी
बाहर है; सब
दृश्य बाहर
हैं। भीतर तो
केवल द्रष्टा
है। तो इनको
भी गुजर जाने
देना। बहुत से
संसार में
उलझे हैं; बहुत
से अध्यात्म
में उलझ जाते
हैं। मेरे पास
वे अध्यात्म
में उलझे वाले
लोग आते हैं।
वे मुझसे
चाहते हैं, मैं उनकी
गवाही दूं।
अब
मेरी बड़ी
मुश्किल है।
अगर मैं उनको
कहूं कि हां, बड़ा
गजब का काम हो
रहा है, तो
उसमें उलझते
हैं और। अगर
उनको कहूं कि
इसकी फिक्र न
करो, तो वे
उदास होते
हैं। वे कहते
हैं कि मैं
सहायता नहीं
दे रहा, उलटा
उनको उदास कर
रहा हूं। हम
बड़ी आशा से आए
थे। अगर मैं
उनको कहूं कि
ये नील तारे, ये सूरज
हजार-हजार, ये सब भी
कल्पनाएं हैं;
यह
तुम्हारे
कृष्ण बंसी
बजाते हुए, यह भी
तुम्हारे मन
का खेल है; ये
तुम्हारे
बुद्ध, महावीर,
ये तुम्हीं
बना रहे हो, यह आखिरी मन
का भुलावा है;
तो उनको
पीड़ा होती है
कि उनके कृष्ण
को मैं कह रहा
हूं कि यह मन
की कल्पना है।
और वे बड़ी
मुश्किल से पा
सके हैं इसको,
और मैं उनसे
यह भी छीने ले
रहा हूं। तो
या तो वे भाग
ही खड़े होते
हैं; फिर
दोबारा लौट कर
नहीं आते; कि
ऐसे आदमी के
पास क्या
जाना! वे तो उन
आदमियों की तलाश
करते हैं जो
कहते हैं, गजब
हो गया! तुम तो
सिद्ध पुरुष
हो गए; तुमने
तो पा लिया।
यही तो असली
रहस्य है। यही
तो अध्यात्म
है।
नहीं, न
तो यह असली
रहस्य है और न
असली
अध्यात्म है। यह
भी मन का ही
खेल है। मन जब
देखता है कि
तुम संसार में
नहीं उलझाए
जा रहे जो मन
नई लालच
फेंकता है। मन
कहता, पुराना
लोभ गया, कोई
फिक्र नहीं।
तुमने मदारी
की ट्रिक पकड़
ली, मदारी
कहता है, रुको,
हम दूसरी
दिखाते हैं; इससे भी
बढ़िया। यह तो
कुछ भी नहीं, यह तो हमने
ऐसे ही दिखा
दी थी। मन
मदारी है। और
मन आखिरी तक दिखाएगा।
और होश को
तुम्हें
सम्हाले जाना
है।
एक ऐसी
घड़ी आती है कि
तुम नहीं थकते
होश से और मन
दिखाने से थक
जाता है। बस
उसी घड़ी
क्रांति घटित
होती है। फिर
मन का मदारी
अपनी टोकरी, अपना
सामान और अपने
जमूरे को
लेकर कहता है,
चल बेटा! वह
चल पड़ा। वह तुम्हें
छोड़ गया। नाटक
बंद हुआ। मंच
खो गई। तुम अकेले
रह गए अपनी
कुर्सी पर।
उसी को
महावीर ने सिद्धशिला
कहा है; कुछ
भी न बचा, अकेले
बैठे रह गए।
वही बैठक
सिद्धि है। अब
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। अब
बस देखने वाला
है। अब कोई आब्जेक्ट
न रहा, सिर्फ
सब्जेक्टिविटी
है। अब सिर्फ
आत्मा बची, अनुभव न
बचा।
इसलिए
तो कबीर कहते
हैं: शून्य
मरे,
अजपा मरे, अनहद हू मरि
जाए।
शून्य
भी मर जाता
है। क्योंकि
शून्य भी
अनुभव है। अगर
तुम कहते हो
कि मुझे शून्य
का अनुभव हो
रहा है, यह भी
मन का ही नाटक
है। अनुभव
मात्र मन का
है। एक्सपीरिएंस
ऐज सच इज़
ऑफ दि माइंड।
जब सब अनुभव
चला जाता है।
शून्य मरे, अजपा मरे, अनहद हू मरि
जाए।
कुछ भी
नहीं बचता, वही
वास्तविक
शून्य है।
जहां कोई
अनुभव नहीं बचता,
वही
वास्तविक
शून्य है।
जहां तुम यह
भी नहीं कह
सकते कि मुझे
शून्य का
अनुभव हो रहा
है। कुछ बचा
ही नहीं; अनुभव
किसका? सिर्फ
अनुभोक्ता रह
गया--अपनी परम
महिमा में, अपनी परम
ऊर्जा में
प्रतिष्ठित।
सब खो गया। नाटक
बंद हुआ। तुम
अपने घर आ गए।
यह घर लौट आना
मोक्ष है।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
"किसी चीज
के अस्तित्व
में आने से
पहले उससे निपट
लो।'
यही
निपटना है। मन
में सब सूक्ष्म
बीज छिपे हैं।
तुम उनसे निपट
लो। उनको
प्रकट हो जाने
दो मन में; कृत्य
मत बनाओ
उन्हें।
कृत्य बनते ही
कर्म का जाल
शुरू होता है।
मन में प्रकट
होने दो। तुम उन्हें
देखो और
साक्षी बन
जाओ।
"परिपक्व
होने के पहले
उपद्रव को रोक
दो। जिसका तना
भरा-पूरा है, वह वृक्ष नन्हे
से अंकुर से
शुरू होता है।'
मिटाना
हो तो नन्हे
अंकुर को मिटा
दो। बड़े वृक्ष
को मिटाना
मुश्किल हो
जाएगा। फिर
जिसे मिटाना
ही है उसे बड़ा
क्यों करना? फिर
जिससे पार ही
होना है उसे
सींचना क्यों?
फिर जिससे
दूर ही जाना
है उससे लगाव
क्यों बनाना?
फिर जिससे
मुक्त ही होना
है उससे किसी
तरह का मोह
क्यों बसाना?
जब इस जगह
से हट ही जाना
है, तो इसे
धर्मशाला ही
समझो, घर
क्या बना लेना?
पड़ाव को मंजिल मत
बनाओ। इसके
पहले कि पड़ाव
मंजिल बने, हट जाओ।
इसके पहले कि
कोई चीज
तुम्हें पकड़
ले, इसके
पहले कि तुम
जकड़ जाओ, तभी
सावधान हो जाओ।
"नौ
मंजिल वाला
छज्जा मुट्ठी
भर मिट्टी से
शुरू होता है।
हजार कोसों
वाली यात्रा
यात्री के पैर
से शुरू होती
है। ए जर्नी
ऑफ ए थाउजैंड
ली बिगिन्स
एट वंस
फीट।'
लाओत्से
के प्रसिद्धतम
वचनों में से
एक यह है।
कथा
है--पुरानी
चीनी कथा
है--कि एक आदमी
बहुत वर्षों से
सोचता था कि
पास के पहाड़
पर एक तीर्थ
स्थान था, उसकी
यात्रा को
जाना है।
लेकिन दूरी
थी। कोई बीस
मील दूर था।
तो सुबह लोग
बड़ी जल्दी
जाते थे; दो
बजे रात निकल
जाते थे, ताकि
ठंडे-ठंडे
पहुंच जाएं।
पैदल जाना ही
एकमात्र उपाय
था उस पहाड़
पर। वह टालता
रहा था बहुत
दिन तक।
दूर-दूर से
यात्री उसके
गांव से
गुजरते थे।
आखिर उससे न
रहा गया। एक
दिन उसने तय
ही कर लिया।
उसने पुराने
यात्रियों से
पूछा कि साज-सामान
क्या ले जाना
पड़ेगा? उन्होंने
और सब सामान
भी बताया और
कहा कि एक लालटेन
भी ले जाना।
क्योंकि रात
दो बजे अंधेरा
होता है। रास्ता
बीहड़ है।
रोशनी के बिना
चलना खतरनाक
है। अनेक लोग गिर
गए हैं और मर
गए हैं।
तो वह
आदमी रात दो
बजे उठा। उसने
लालटेन जलाई।
वह गांव के
बाहर आया। वह
बड़ा गणितज्ञ
रहा होगा। बड़े
हिसाब-किताब
का आदमी था।
उसने गांव के बाहर
आकर देखा
लालटेन को, कितनी
दूर तक रोशनी पड़ती
है? मुश्किल
से कोई दस कदम
रोशनी पड़ती
थी। उसने कहा,
दस कदम
रोशनी पड़ती है
और बीस मील का
रास्ता है।
मारे गए।
अंधेरा बहुत,
रोशनी कम।
गणित साफ है।
दस कदम रोशनी
पड़ती है; बीस
मील का रास्ता
है। कैसे पार
होगा? वह
वहीं बैठ गया,
कि क्या
करना? लौटना
भी शोभा नहीं देता,
बामुश्किल
तो निकले घर
से। कई वर्षों
से सोचा, चर्चा
की, आखिर
घर के लोग भी
ऊब गए थे उससे
कि जाना हो तो
जाओ भी, बातचीत
क्या लगा रखी
है! तो वह बैठ
गया। एक फकीर
और यात्रा पर
आ रहा था।
उसके पास और
भी छोटी लालटेन
थी। उसने उस
फकीर को रोका
कि रुको, झंझट
में पड़ोगे।
हम पर बड़ी
लालटेन है; दस कदम तक
रोशनी पड़ती
है। तुम ऐसी
लालटेन लिए हो
कि मुश्किल से
चार कदम दिखाई
पड़ रहा है। कैसे
पहुंचोगे? बीस
मील की यात्रा
है!
वह
फकीर खिलखिला
कर हंसा। उसने
कहा,
पागल, अगर
एक कदम रोशनी
पड़ जाए तो
काफी है।
क्योंकि एक
कदम से ज्यादा
कोई चलता कहां
है! और एक कदम
रोशनी से तो
लोग हजारों
मील की यात्रा
पूरी कर लेते
हैं। बस उतनी
रोशनी काफी है,
एक कदम दिख
जाए। तुम एक
कदम चल लिए, फिर एक कदम
और दिखने लगा,
तुम एक कदम
और चल लिए। दो
कदम तो कोई भी
एक साथ चल
नहीं सकता।
उस
गणितज्ञ ने
कहा,
तुम मुझे
समझाने की
कोशिश मत करो।
गणित में मैं
निष्णात हूं।
साफ बात है कि
दस मील में दस
कदम का भाग
दो। इस तरह
तुम मुझे धोखा
न दे सकोगे।
और मैं कोई
श्रद्धालु
आदमी नहीं हूं,
तर्कनिष्ठ
आदमी हूं।
लाओत्से
कहता है कि वह
आदमी कभी भी
यात्रा पर न
जा पाएगा। एक
कदम से हजार
मील की यात्रा
शुरू होती है; एक
कदम से ही
पूरी भी हो
जाती है।
इसलिए तो लाओत्से
इसको कहता है,
आरंभ और
अंत। बिगनिंग
एंड एंड। पहले
कदम पर ही
यात्रा की
शुरुआत है और
पहले कदम पर
ही यात्रा का
अंत है।
पहला
कदम क्या है? कि
तुम समस्याओं
को उनके आने
के पहले
निवारण कर लो;
यही प्रथम,
यही अंतिम
है। इतना
तुमने कर लिया,
सब हो गया।
इतना तुमने
साध लिया, सब
सध गया। एक
कदम तुम साध
लो--गंगोत्री
का, प्रथम
चरण का--फिर
कुछ उलझता
नहीं। चीजें
सुलझती चली
जाती हैं। और
एक कदम
सुलझाना तुम
जानते हो। एक
कदम से ज्यादा
कोई कभी उठाता
ही नहीं। जब भी
एक कदम उठाओगे,
सुलझा
लोगे। आज
सुलझा लिया, कल भी सुलझा
लोगे, परसों
भी सुलझा
लोगे। एक कदम
उठता रहेगा, सुलझता
रहेगा; एक
कदम रोशनी
पड़ती रहेगी।
फिर तीर्थ
कितने ही दूर
हो, किसको
चिंता है? पहला
कदम जिसका उठ
गया ठीक, सुलझा
हुआ, उसकी
मंजिल आ गई
करीब।
इसलिए
लाओत्से कहता
है,
यही अंत, यही
प्रारंभ। और
जो प्रारंभ
में ही भटक
जाए वह कभी
अंत तक नहीं
पहुंचता। वह
एक ऐसी नदी की
तरह है जो
मरुस्थल में
खो जाती है, जो सागर तक
नहीं पहुंच
पाती।
तुम्हें अगर
सागर तक
पहुंचना हो तो
नजर सागर पर
मत रखो, नजर
एक कदम पर
रखो। एक कदम
काफी है। उसको
सुलझाया हुआ
उठा लो बस। इस
क्षण सुलझे
रहो। सभी क्षण
इसी क्षण से
निकलेंगे।
सभी कदम इसी
कदम से
निकलेंगे। एक
सुलझ गया, दूसरा
उस सुलझाव से
ही तो
निकलेगा।
इसलिए उसकी
चिंता मत करो।
कल की फिक्र
मत करो।
भविष्य का
विचार मत करो।
मंजिल मिलेगी
या न मिलेगी, इस चिंता
में मत पड़ो।
तुम एक कदम को
सुलझा लो।
जिन्होंने एक
सुलझा लिया, उन्होंने
सदा ही मंजिल
पा ली है।
क्योंकि वही प्रारंभ
है और वही अंत
है।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें