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शनिवार, 24 नवंबर 2018

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

आनंद का सृजन

प्रश्न:

एक मित्र पूछ रहे हैं कि जिंदगी ऐसे ही बीती चली जाती है। अब थकान लगने लगी, कुछ मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता है। तो ऐसी जिंदगी से क्या फायदा है?

पहली बात तो यह समझनी चाहिए कि जो हमें मिल गया है, उसका हमें पता नहीं चलता। जिंदगी खुद इतनी बड़ी चीज है जो हमें मुफ्त मिल गई है। लेकिन उसके लिए हमारे मन में कोई धन्यवाद ही नहीं है। हम कहते हैं, और कुछ मिलना चाहिए। अगर और कुछ भी मिल जाएगा तो उसके लिए हमारे मन में धन्यवाद बंद हो जाएगा। हम कहेंगे, और कुछ मिलना चाहिए।

जिंदगी इतनी बड़ी चीज है जो हमें मिली है। और जिंदगी इतनी असंभव चीज है जो हमें मिली है। कोई दो अरब सूरज हैं। दो अरब सूरजों पर इतनी ही अरब पृथ्वियां हैं उन सूरजों पर। और इस एक छोटी सी पृथ्वी पर अभी जीवन है। यह न होता तब तो बड़ा सहज था मामला। यह है, यह बहुत ही आश्चर्यजनक है। इस पृथ्वी पर भी करोड़ों प्रकार की योनियां हैं। उनमें भी अकेले मनुष्य को थोड़ा सा बोध है। बोधपूर्ण जीवन अकेले मनुष्य के पास है। यह इतनी बड़ी घटना हैः जीवन का होना और चेतना का होना। लेकिन हम कहते हैं कि जीवन बेकार मालूम पड़ता है, क्योंकि कुछ और मिलता नहीं।


इसमें पहली भूल तो यह हो रही है कि हम, जीवन इतनी बड़ी घटना है, इसको ही नहीं देखते हैं। जीवन मिल गया है, इससे ज्यादा और मिलने को हो भी क्या सकता है? होना भी इतनी बड़ी बात है कि जिसकी हम कोई कीमत नहीं आंक सकते। क्योंकि अगर हम न हों तो किससे शिकायत करेंगे? और अगर हम न हों तो हम कैसे रोक सकते हैं न होने को? लेकिन हम हो सके हैं, इतना अदभुत मिरेकल घट गया है, लेकिन उस पर हमारी कोई नजर ही नहीं है।
तुम कुत्ता नहीं हो, बिल्ली नहीं हो, चूहा नहीं हो--आदमी हो। पत्थर नहीं हो। और तुम्हारे भीतर चेतना है। लेकिन ये दो कौड़ी की बातें हैं हमारे लिए। हम कहते हैं कि यह जीवन बेकार है, क्योंकि हमें कुछ और चाहिए।
क्या चाहिए तुम्हें? इतनी बड़ी चीज जब तुम्हें बेकार लग रही है, तो तुम्हें कुछ भी मिल जाए तो बेकार लगेगा। यानी तुम्हारे सोचने का मापदंड, करने का ढंग ही गलत है। तुम्हें कुछ भी मिल जाए, तुम कहोगे यह बेकार है।
तो पहली तो बात यह है कि जीवन की धन्यता को अनुभव करना जरूरी है, अगर आनंदित होना हो। जो मिल गया है, वह क्या है, इसे पहचानना जरूरी है।
लेकिन मनुष्य के मन की बुनियादी भूल यह है कि जो है वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। एक अंधे आदमी को पता चलता है कि आंख होती तो कितना आनंद होता, आंख वाले को कभी पता नहीं चलता कि क्या आनंद है। अंधे आदमी से पूछो! तो वह कहेगा, सब खोने को तैयार हूं, आंख मिल जाए। आंख वाले से पूछो! वह कहेगा, आंख! आंख का कोई सवाल ही नहीं उठता। जो हमारे पास है वह हमें दिखाई नहीं पड़ता।
मेरे एक मित्र हैं, वे मुझे मिलने आते थे, वर्षों से आते थे। जब भी मुझे मिलने आते थे तो वे खुद ही इतनी बात करते थे कि मुझे सिर्फ हां और न करनी पड़ती थी। इससे ज्यादा मैंने कभी उनसे बात नहीं की। इधर वे बहरे हो गए। इस बार आए तो बहुत रोने लगे, कहने लगे कि मैं बहरा हो गया।
तो मैंने कहा, इसमें रोने की क्या बात है? तुम सदा से बहरे थे, तुमने कब किसको सुना था! तुम तो बोलते थे, तो बोल तो अब भी सकते हो। रह गई हां-न की बात, तो मुझे कभी-कभी हां-न कहना था, तो अब वह मैं लिख कर हां और न बता दूंगा। तो मुझे तो सुनने का कोई सवाल न था।
उन्होंने कहा, अब मुझे लगता है कि मैं चूक गया आपको सुनने से।
तो मैंने कहा, तुम्हारे पास कान होते तो तुम्हें कभी भी न लगता।
जो हमारे पास है वह हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है। जो हमारे पास नहीं है उसका हम हिसाब लगाए बैठे हैं। और जो हमारे पास है वह इतना है कि जो हमारे पास नहीं है उसका हिसाब लगाना ही नासमझी है, उसका कोई मूल्य ही नहीं है। कठिनाई यह है कि जो मिला हुआ है वह टेकेन फॉर ग्रांटेड हो जाता है। वह है ही, उसकी कोई बात ही नहीं करनी है हमें।
लेकिन हमारा कोई दावा है इस दुनिया पर कि हमें यह मिलना ही चाहिए? अगर मेरी आंखें कल चली जाएं तो मैं किससे शिकायत करूंगा? और जब तक मेरे पास आंख थी तब तक मैंने कुछ भी नहीं किया उन आंखों से--न मैंने फूल देखे, न मैंने चांदनी देखी, न मैंने कोई सुंदर चेहरा देखा--मैंने इन आंखों से कुछ भी नहीं किया। जब तक मेरे पास कान हैं तब तक न मैंने सितार सुनी, न मैंने पक्षियों के गीत सुने, न मैंने कोई सुनने योग्य बात सुनी। जब कान खो गए तब मैं बैठ कर रोऊंगा, जब आंख चली जाएगी तब मैं रोऊंगा। और जिंदगी जब तक है तब तक कर क्या रहे हैं हम? जिंदगी का क्या कर रहे हैं हम?
तो इसमें पहली बात तो यह समझ लेना कि अगर तुमने यह कहा कि जिंदगी बेकार चली जा रही है, और कुछ की मांग अगर तुमने बना ली, तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे, पहली बात। दूसरी बात यह ध्यान में रखना जरूरी है कि जिंदगी कोई ऐसी चीज नहीं है कि वहां कोई बना-बनाया आनंद कहीं रखा है कि तुम जाओगे और तुम्हें मिल जाएगा। ये सारे दुनिया के धर्मों ने गलतफहमी आदमी को पैदा की है। उन्होंने एक रेडीमेड मोक्ष और एक बना हुआ आनंद--जैसे कहीं रखा हुआ है; कोई सत्य, हम किसी दरवाजे की चाबी खोलेंगे और भीतर खजाना मिल जाएगा; कि आनंद कहीं है जहां से हम चूक रहे हैं, रास्ता मिल जाए तो हम अभी जाकर आनंद को पा लें।
यह बिल्कुल ही भ्रांत बात है। आनंद, मुक्ति, रहस्य, सत्य--कुछ भी--कहीं तैयार रखा हुआ नहीं है। तुम कैसे जीते हो, उस जीने से ही वह सृजित होता है, उसी से वह निर्मित होता है। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है कि एकदम मैं अचानक पाऊंगा और एक जगह पहुंच जाऊंगा जहां आनंद का मंदिर है, दरवाजा खुलेगा और आनंद मुझे मिल जाएगा। न, आनंद तो कदम-कदम पर है, श्वास-श्वास पर है कि मैं कैसे जी रहा हूं। और अगर मैं प्रत्येक पल आनंद में जीता चला गया तो एक दिन मैं पाऊंगा कि इतना इकट्ठा हो गया है कि अब सिवाय अनुग्रह के और कुछ भी शेष नहीं है; किसको धन्यवाद दूं उसको खोजना पड़ेगा। ...
लेकिन हम किसी गुरु के पास जा रहे हैं, कोई चाबी बता दे, कोई मेथड बता दे, कोई रास्ता बता दे जिससे हम गुजर जाएं और बस आनंद पर पहुंच जाएं। और मजा यह है कि प्रतिपल चूकते चले जा रहे हैं। आनंद का मतलब हैः आनंदपूर्ण ढंग से जीना। आनंद जो है वह डायनेमिक बात है, स्टेटिक नहीं है। वह निरंतर गति है। जैसे एक आदमी साइकिल चला रहा है। वह जितनी देर चला रहा है, साइकिल चल रही है। अब वह आदमी बैठ जाए उतर कर और फिर कहे कि मुझे साइकिल चलाना खोजना है! कहां है साइकिल चलाना? कहां मिलेगा मुझे जहां कि यह साइकिल चलाना मैं पा लूं?
हम उससे कहेंगे, तुम पागल हो। चलाओ, तो साइकिल चलेगी। मत चलाओ, बैठे रहो, तो कहीं भी नहीं है साइकिल चलाना। कहीं रखा हुआ नहीं है किसी पैकेट में बंद, जहां तुम जाओगे और खरीद लाओगे। तुम चलाओ!
आनंद जो है वह कहीं रखा हुआ नहीं है। लेकिन सारे धर्मों ने, सब गुरुओं ने एक बड़ी भ्रांत धारणा हमारे मन में बैठा दी है कि कहीं रखा हुआ है। किसी को मिल गया और किसी को नहीं मिला है। मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि पल-पल आनंद से जीओ! और पल-पल आनंद से जीने का ख्याल आ जाए तो जरूर एक दिन इतना आनंद तुम्हारे भीतर इकट्ठा होता चला जाएगा कि उसका हिसाब लगाना मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन पल-पल तो हम दुख से जीएंगे, यह भी एक दुख पालेंगे कि हमको अभी आनंद नहीं मिला हुआ है, यह भी एक दुख पालते चले जाएंगे। पल-पल हम दुख से जीएंगे, और दुखी होने की आदत बन जाएगी, और फिर हम आनंद खोजेंगे। आनंद कहां मिलने वाला है! उलटा काम कर रहे हैं।
कौन सी चीज में सुख ले रही हो? सुख लेने के लिए बहुत चीजें हैं। हम किसी चीज में सुख नहीं ले पाते। बल्कि जिस चीज में भी सुख मिल सकता, उसमें भी दुख ले लेते हैं। अगर एक सुंदर आंख मुझे दिखाई पड़ती है, एक सुंदर चेहरा दिखाई पड़ता है, एक सुंदर फूल दिखाई पड़ता है--सुंदर फूल को देख कर मैं यह दुख ले लेता हूं कि मेरी बगिया में नहीं खिला हुआ है। यह बड़े मजे की बात है! फूल खिला था और उससे मैं आनंदित हो सकता था और दो श्वासें मेरी फूल की सुगंध से सुगंधित हो सकती थीं। लेकिन वह फूल जिससे मैं सुख ले सकता था, सिर्फ दुख दिया मुझे। और मैं यह भाव लेकर गया कि अपने पास कोई बगिया नहीं। कब अपने पास बगिया होगी, कब अपना फूल खिलेगा! सबकी बगिया में फूल खिल गए हैं, हम मरे जा रहे हैं। वह फूल जिसमें कि तुम्हें कोई दुख देने का कारण न था, वह तुम दुख लेकर चले आए।
हम चौबीस घंटे हर चीज से दुख इकट्ठा कर रहे हैं। फिर हम चिल्लाते हैं कि हम बड़े दुखी हो गए हैं, जीवन से थक गए हैं। कोई जिम्मेवार नहीं है। जिम्मेवार हम हैं। अगर थक गए हो तो गलत ढंग से चल रहे हो; अगर ऊब गए हो तो गलत ढंग से जी रहे हो; अगर दुखी हो गए हो तो दुख इकट्ठा कर रहे हो। सो दुख इकट्ठा करते ही चले जाओ और फिर आनंद की मांग करते रहो, तो ये दोनों छोर कभी नहीं मिलेंगे।
तो जिंदगी में सुख लेना पड़ेगा हमें। और जिंदगी के प्रतिपल पर सुख लेना पड़ेगा, क्षुद्रतम से सुख लेना पड़ेगा। क्योंकि जिंदगी में न कुछ क्षुद्र है, न कुछ विराट है। और जो क्षुद्र का सुख नहीं ले सकता वह विराट के सुख को कभी उपलब्ध नहीं होगा। जिंदगी छोटी-छोटी चीजों का जोड़ है। छोटे-छोटे अणुओं से मिल कर सारी इतनी बड़ी पृथ्वी है। बहुत छोटी-छोटी चीजों का जोड़ है। ये छोटी-छोटी बूंद से मिल कर इतना बड़ा सागर है।
लेकिन कोई कहेः बूंदों से हमें कोई मतलब नहीं, हमें सागर चाहिए! बस यह फंस गया दिक्कत में, इसने गलत रास्ता पकड़ लिया। क्योंकि बूंद-बूंद इकट्ठी होती तो सागर होने वाला था। बूंद तो इसे चाहिए नहीं।
जब तुम भोजन कर रहे हो तब तुम आनंद से कर रहे हो; जब तुम कपड़े पहन रहे हो तब आनंद से पहन रहे हो; जब तुम मित्र से मिल रहे हो तब तुम आनंद से मिल रहे हो; जब तुम किसी को प्रेम कर रहे हो तब आनंद से कर रहे हो; जब तुमने चांद की तरफ देखा है तो तुमने कोई आनंद लिया; जब फूल मिला है तो तुमने कुछ आनंद लिया; जब दो घड़ी तुम्हें शांति की मिली, कोई काम न रहा, तो तुम अपने सोफे पर आंख बंद करके विश्राम किए हो। नहीं, वह कुछ भी नहीं किया है। और तब हम थक गए हैं। थक हम जाएंगे।
जिंदगी बहुत मौके दे रही है, हम सब मौके चूक जाते हैं। और हर चीज में हमने तरकीबें बना रखी हैं। अगर मुझे एक सुंदर चेहरा दिखाई पड़ा तो उस सुंदर चेहरे से मुझे जो सुख मिल सकता था वह मैं नहीं लूंगा; उससे दुख ले लूंगा--कि वह किसी और की पत्नी है, किसी और का पति है, वह किसी और का बेटा है। तो मैं चूक गया। और वह जिसका बेटा है, जिसकी पत्नी है, जिसका पति है, वह किसी और का चेहरा देख कर परेशान हुआ जा रहा है। वह अलग दुखी हो रहा है, हम अलग दुखी हो रहे हैं। सारी दुनिया दुखी हो रही है। दुख हमारा चुनाव है। तुम दुख चुन रहे हो तो दुख इकट्ठा होता चला जाता है। और फिर दब जाओगे उसके नीचे, फिर परेशान हो जाओगे। दुख को चुनो मत। कौन तुमसे कहता है दुख को चुनो? सुख को चुनो।
लेकिन हमारा पूरा चिंतन सुख-विरोधी है। हम उस आदमी को अच्छा कहते हैं जो दुख चुनता है। अब हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। जो आदमी दुख चुनता है वह बहुत अच्छा आदमी है; जो आदमी सुख चुनता है वह अच्छा आदमी है ही नहीं। हमें वह आदमी जंचता ही नहीं कि इसमें कुछ खूबी की बात है, जो सुख चुन लेता है।
पर दुनिया को जाने दो तुम, अपनी फिकर करो और सुख चुनने की फिकर करो। चौबीस घंटे ऐसे जीओ कि हम हर चीज से सुख निकालेंगे। और देखो चौबीस घंटे के बाद कहां दुख है। सिर्फ चौबीस घंटे यह तय करके कि आज इस मिनट से लेकर चौबीस घंटे, जो भी होगी जिंदगी में घटना, उससे हम सुख निकालने की कोशिश करेंगे, हम उससे सुख खींचेंगे। चौबीस घंटे बाद तुम पाओगे कि सुख की एक हवा तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठी हो गई है।
मैं कल्पना ही नहीं कर सकता कि किसी आदमी को दुखी होने की जरूरत है, जब तक कि वह होना ही न चाहे; और कोई आदमी सुखी नहीं हो सकता, जब तक कि वह होना ही न चाहे। तो हम होना तो चाहते हैं सुखी और जो व्यवस्था करते हैं वह सब दुख की है, इसलिए कंट्राडिक्शन दिनों-दिन पैदा हो जाता है। फिर हम पूछते फिरते हैं।
इधर तुम दुख इकट्ठा करोगी और मुझे फंसा दोगी पीछे। मुझसे पूछोगी कि सुख कहां है? और अगर मेरे पास सुख नहीं मिला, तो वह आदमी ठीक नहीं है, उससे सुख नहीं मिला। फिर तुम किसी और के पास जाओगी। वहां भी सुख न मिलेगा। तुम दोषी दुनिया को ठहरा दोगी।
तुम मेरे पास आकर भी दुख चुन लोगे। यानी मैं इतना हैरान हूं कि मेरे पास कोई आएगा तो मैं जानता हूं कि यह आदमी मुझसे दुख चुनेगा कि सुख। वह भी मुझे पता चलना शुरू हो जाता है। लेकिन मैं भी कुछ नहीं कर सकता। मैं जानता हूं कि यह दुख चुन रहा है। वह मुझसे भी दुख इकट्ठा करके ले जाएगा। कोई वजह न थी। मुझसे दुख चुनने की क्या वजह थी? मुझसे अगर कोई सुख मिल सकता था, ठीक था। नहीं तो यह आदमी ठीक नहीं, अपने रास्ते पर चले गए। इस आदमी से दुख चुनने की क्या जरूरत? लेकिन इससे दुख चुन लिया जाएगा। और जिससे तुम दुख चुन लोगी वह तुम्हें दुश्मन मालूम पड़ने लगेगा। और जिससे तुम सुख चुन लोगी वह तुम्हें मित्र मालूम पड़ने लगेगा।
उस आदमी के ही इस जगत में मित्र हो सकते हैं जो सुख चुनने की कला जानता है। वह आदमी दुनिया में दुश्मन ही दुश्मन देखने लगेगा जो दुख चुनने की कला सीख गया। और हम तो दुख चुनने की कला सीख गए हैं।
अब अभी दो दिन पहले एक सज्जन मिलने आए। तो वे मुझसे पूछने आए हैं कि शांति कैसे मिले? बड़ा मन अशांत है। शांति खोजने आए हैं मेरे पास, मन बड़ा अशांत है, शांति कैसे मिले? और उनकी पत्नी ने शाम आकर कहा कि वह आपकी चप्पल उन्होंने देखी कि मखमल की है, तो वे बहुत वो हो गए कि किस...
तो मैंने कहा कि अब जो आदमी... मेरी मखमल की चप्पल से उसको क्या प्रयोजन है? मेरे पास चप्पल न भी हो तो भी उसे कोई मतलब नहीं है और हो भी और मखमल की हो तो भी उसे कोई मतलब नहीं है। तो मैंने कहा कि वह आदमी अब दुख चुनने को, अशांति चुनने को ही तैयार है तो कोई भी क्या कर सकता है? यानी मेरी चप्पल से उसको क्या लेना-देना था? न मैं उससे चप्पल मांगने गया था कि मेरे लिए कोई चप्पल दे दे। अभी मैं उसकी चप्पल भी छीनता तब भी कोई बात थी। उससे कोई संबंध ही न था। लेकिन अब वह आदमी... अब यह जो आदमी है न, अब इससे जो मैंने बातें कीं वे इसको दिखाई ही नहीं पड़ीं। यह चप्पल ही देख कर गया है।
उसने अपनी पत्नी से कहा कि भई, वहां मुझे नहीं जमता। क्योंकि वह चप्पल तो, क्या जरूरत साधु को ऐसी चप्पल पहनने की?
मैंने उसको कहा कि मैं साधु हूं या असाधु, यह मेरे जानने की बात है। इसका कुछ भी निर्णय करना है तो मुझे करना है। नरक-स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचूंगा तो मैं पहुंचूंगा। जवाब-सवाल भगवान से कुछ करने होंगे तो मैं कर लूंगा। इस चप्पल के लिए कुछ बातचीत चलेगी तो मैं उत्तर दूंगा। तुमसे तो कहीं गवाही भी नहीं लूंगा। तुम क्यों बीच में पड़ते हो? तुम्हें क्या मतलब है? तुम आए थे अपनी शांति खोजने। लेकिन तुम यहां से भी अशांति खोज कर गए।
हमारा जो दिमाग है वह पूरे वक्त कैसे काम कर रहा है इसको समझने की कोशिश करो। क्या वह अशांति चुनने के रास्ते खोज रहा है? दुख चुन रहा है? जहां भी जा रहा है वहां से कांटे चुन रहा है? तो वह चुनता चला जाएगा। फिर बहुत मुश्किल है, फिर बहुत कठिन है। और चौबीस घंटे तुम्हारा चुनाव ही तुम्हारा व्यक्तित्व बनेगा। तुम क्या चुन लोगी वही तुम हो जाओगी। अगर तुम दुखी हो तो तुम्हारी दुख चुनने की आदत है। इस आदत को तोड़ना पड़ेगा। और कोई नहीं तोड़ सकता, इसको तुम्हें ही तोड़ना पड़ेगा। और तुम्हें देखना पड़ेगा कि पूरे वक्त मैं क्या चुनाव कर रही हूं।
एक चौबीस घंटे का तय कर लें कि चौबीस घंटे मैं सुख चुनने की फिकर करूं। इस कमरे में आओ तो सुख चुन सकती हो। किसी व्यक्ति से मिलो तो सुख चुन सकती हो। सुख के बहुत द्वार हैं। जितने द्वार सुख के हैं उतने ही द्वार दुख के हैं। अब हम किस तरफ खोलते हैं, यह हम पर निर्भर है सदा। और जब तुम जिंदगी में सुख के ही द्वार खोलने में समर्थ हो जाते हो कि हर जगह सुख का द्वार खोल लेते हो--हर जगह--तो अंत में जीवन के यह जो इतना-इतना सुख तुम पर बरस पड़ता है, यह सारे सुख की वर्षा ही तुम्हें अंततः जिसको तुम आनंद कहो, मोक्ष कहो, उसमें तुम्हें ले जाती है।
उमर खय्याम ने मजाक में एक बात कही है। उसने तो सब कुछ मजाक में कहा है। और दुनिया में जो बहुत गंभीर लोग हुए हैं उन्होंने सारी बातें मजाक में कही हैं। ...
गांव के मौलवी ने उसे कहा कि बंद कर दो यह शराब पीना! और अगर बंद नहीं की तो स्वर्ग चूक जाओगे। और तुम्हें शायद पता नहीं कि स्वर्ग में शराब के चश्मे बहते हैं, झरने बहते हैं। तो उमर खय्याम ने कहा कि बस, बहुत ही अच्छा हुआ तुमने यह और बता दिया। मैं उसी का अभ्यास कर रहा हूं। और तुम्हें ध्यान रहे, जब हम दोनों स्वर्ग के चश्मे पर पहुंचेंगे, तो मेरा तो शराब पीने का अभ्यास रहेगा, तुम्हारा बिल्कुल नहीं रह जाएगा। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम पीओगे कैसे? जिसने कुल्हड़ में नहीं पीया वह झरने में कैसे पीएगा? तो उमर खय्याम ने कहा, मैं तो कुल्हड़ में पीता रहूंगा, ताकि अभ्यास बना रहे। अभ्यास बढ़ाता चला जाऊंगा, ताकि जब पूरी नदी सामने आए तो ऐसा न हो कि नदी पर खड़े रह गए हैं और पीने की सामर्थ्य ही न रहे।
अब वह बात बिल्कुल ठीक ही कह रहा है, जिसने कुल्हड़ में सुख नहीं जाना वह विराट आनंद को कैसे जानेगा? जिसने क्षण में सुख नहीं जाना वह शाश्वत सुख को कैसे जानेगा? लेकिन अब तक हमें जो लॉजिक सिखाया गया है वह उलटा है। वह यह कहता हैः क्षण के सुख को छोड़ो, यह क्षणभंगुर सुख है। इसको छोड़ोगे तो तुमको स्थायी सुख मिलेगा।
यह तर्क ठीक मालूम पड़ता है, लेकिन बिल्कुल ही गलत है। जिसने क्षणभंगुर का भी सुख नहीं जाना वह स्थायी सुख को कैसे जान सकेगा? यानी कुल्हड़ में शराब पीना जिसने सीखी है वह किसी दिन झरने की शराब में भी डूब सकता है। वह जो क्षण से सुख आ रहा है उसको लो। प्रत्येक क्षण में आने वाले सुख को लेते-लेते-लेते तुम्हारी वह क्षमता हो जाएगी कि तुम पूरे सागर में भी डूब सको।
इसलिए मेरी दृष्टि अगर तुम्हें समझनी हो तो मैं क्षणवादी हूं, क्योंकि मैं मानता हूं कि क्षणवादी ही शाश्वत को उपलब्ध हो सकता है। मैं सुखवादी हूं, क्योंकि मैं मानता हूं सुखवादी ही आनंद को उपलब्ध हो सकता है। और जिंदगी में कुछ भी त्याज्य नहीं है सिवाय दुख चुनने की प्रवृत्ति के। कुछ भी त्याज्य नहीं है। और जो लोग त्याग करते फिरते हैं वे उलटे लोग हैं, वे दुख को ही चुनते फिरते हैं। वे दुख को चुनते फिरते हैं।
तो दुख को चुनो मत। और अगर चुनना है तो फिर पूरे मन से चुनो, फिर उसके लिए रोओ मत। फिर यह मान लो कि हमारा दुख ही चुनाव है। तब फिर इसमें भी एक रस आएगा। फिर इसकी फिकर ही छोड़ दो। फिर यह मत कहो कि हम थक गए, हम हार गए। हारोगे, थकोगे, क्योंकि दुख कैसे प्रफुल्लित रख सकता है?
एक चौबीस घंटे के लिए तय करो ऐसा जीने का--कि हम चौबीस घंटे में जहां भी जो भी होगा उसमें से सुख चुनने की कोशिश करेंगे। यह जो ख्याल में आ जाए, तो फिर आनंद कहीं रखा नहीं है जहां तुम पहुंचोगे आखिर में और वह तुम्हें मिल जाएगा, वह जब तुम चल रही हो तभी तुम आनंद को निर्मित करती जा रही हो। वह तुम्हारे भीतर घनीभूत होता जा रहा है, घनीभूत होता जा रहा है।
मैं शायद पीछे कह रहा था एक जगह, अमेजान नदी के बाबत मैं पढ़ रहा था, तो वह इतनी बड़ी नदी, सारी दुनिया की सबसे बड़ी नदी, जहां से निकलती है वहां एक-एक बूंद टपकती है। और एक-एक बूंद भी बीस-बीस सेकेंड के बाद टपकती है। दुनिया की सबसे बड़ी नदी एक-एक बूंद के टपकने की जगह से पैदा होती है। और वह एक-एक बूंद भी बीस सेकेंड के गैप से टपकती है। बीस सेकेंड में बन पाती है तब एक बूंद टपकती है।
बस, जीवन का राज भी यही है। यहां अगर बीस-बीस सेकेंड में एक-एक बूंद सुख भी मिल जाए तो अमेजान का आनंद उपलब्ध हो जाए। लेकिन तुम अगर बूंद के खिलाफ हो, तो तुम जानो, फिर तुम्हें कभी आनंद उपलब्ध होने वाला नहीं है। कोई आदमी हो सकता है वह कहे कि क्या यह बूंद का टपकना लगा रखा है? कहीं बूंद टपकाने से नदी बनने वाली है? बंद करो यह सब! क्षणिक सुख बंद करो, शाश्वत की चाह करो!
तर्क ठीक है, लेकिन सभी तर्क ठीक जो मालूम पड़ते हैं वस्तुतः ठीक नहीं होते। क्षण के पूरे सुख को भोगो। क्षण को इतना पी जाओ, इतना निचोड़ लो कि उसमें से कुछ शेष ही न रह जाए। उसको निचोड़ कर फेंक दो, उसमें कुछ बचे ही न। ताकि पीछे लौट कर देखना ही न पड़े कभी कि कोई छोर अधूरा रह गया जिसमें से और चूसना था, नहीं चूस पाए। पूरा पी जाओ उसे। और तब तुम्हारा व्यक्तित्व ऐसा बनता जाएगा कि वह आनंद को सब जगह से घेर लेगा, खींच लेगा आखिर तक।
अगर तुमने ऐसा सोचा कि कहीं मिल जाएगा कुछ और... तब तो फिर तुम्हें कहीं नहीं मिलेगा, फिर मिलना असंभव है। जीवन एक कला है। और कला बहुत साफ है। इसलिए ऐसा मत सोचना कभी कि अभी हम कैसे ही जीएं, कोई तरकीब हाथ लग जाएगी और आनंद मिल जाएगा। नहीं मिलेगा। क्योंकि इस बीच तुम जी रही हो और तुम्हारी आदत मजबूत होती चली जा रही है।
मैं कई दफे इतना हैरान होता हूं कि आदमी क्यों दुख चुनता है? हम किसी के साथ चौबीस घंटे रहें तो हम सब तरह से दुख चुन लेंगे उससे। और हम इतने सेंसिटिव हो गए हैं दुख के लिए कि बस वह जगह-जगह हमको--जैसे कभी घाव लग जाए न, चोट लग जाए शरीर में, तो दिन भर फिर उसी पर चोट लगती रहती है। फिर ऐसा लगता है कि पता नहीं क्या बात है कि आज इस अंगूठे में ही बार-बार क्यों लग रहा है!
वह रोज लगता है, लेकिन रोज पता नहीं चलता था। वह आज पता चल रहा है, क्योंकि वहां चोट है। तो हम दुख का एक घाव बनाए हुए हैं अपने भीतर। सुख का हमने कोई स्थान नहीं बनाया है, बस दुख का घाव बनाया हुआ है। बस वह चौबीस घंटे सजग है। जरा सा धक्का कि बस हम सजग हुए, चोट फिर खा गए, घाव और बड़ा हो गया। फिर वह बढ़ता जाता है, फिर बढ़ता जाता है। और जो समझाने वाले हैं, हमें समझाते रहे हैं सदा से, वे यही कहते हैं कि ये-ये-ये सब ठीक है। यह आनंद और स्थान पर है, वहां पहुंचना पड़ेगा। वे हमको भ्रांति देते हैं।
कहीं आनंद नहीं है। तुम जहां हो वहीं! तुम्हारे चुनाव पर निर्भर है तुम क्या चुन लेते हो। अगर इसको ऐसा देख सको तो बदलाहट हो सकती है।

प्रश्नः लेकिन कभी-कभी आउटर...

वह कभी ज्यादा नहीं होता। यह कहती हैः कभी-कभी बाहर का जो दबाव है वह हमारी क्षमता से ज्यादा हो जाता है।
वह कभी नहीं होता। जिस दिन वह क्षमता से ज्यादा हो जाएगा, तुम समाप्त हो जाओगे उसी वक्त, तुम बच नहीं सकते। वह सदा क्षमता के भीतर है। असल में हमें अपनी क्षमता का भी कोई पता नहीं होता। लोग कहते हैं असहनीय दुख! कोई दुख असहनीय हो तो तुम खतम हो जाओगे, तुम बचोगे कैसे? सब दुख सहनीय हैं। नहीं तो तुम मिट ही जाओगे न! बचोगे कैसे? असहनीय दुख जैसी कोई चीज होती ही नहीं। कहते हैं लोग कि बड़ा असहनीय दुख है, अब सह न सकेंगे इसको। लेकिन वे यह कह कर भी सहे चले जा रहे हैं। यह भी सहने की तरकीब है। यह भी वे इंतजाम कर रहे हैं सहने का। यह कह-कह कर वे अपने मन को राजी कर रहे हैं सहने के लिए।
आदमी की क्षमता बहुत अदभुत है, बड़ी विराट है। बाहर का कोई दबाव अगर असहनीय होगा तो तुम टूट ही जाओगे, तुम पूछने को भी नहीं बचोगे। इसलिए वह तो सवाल के बाहर है। यानी वैसा आदमी तो पूछने आएगा ही नहीं, उसकी तो बात ही खतम हो गई। बाहर का दबाव कभी इतना ज्यादा नहीं है कि तुम टूट जाओ, सब दबाव को झेल कर तुम बच जाते हो।
तो वह दबाव जितना बड़ा तुम देख रही हो उतना बड़ा नहीं है, तुम उससे सदा बड़े हो। और वह दबाव जितना बड़ा हम देख रहे हैं वह भी हमारी कल्पना है। वह भी हमारी दुख चुनने की आदत है जिसकी वजह से हम दबाव देख रहे हैं।
और जिंदगी के सदा दो पहलू हैं। किस चीज को दबाव कहते हो?
जमीन पर तुम चलते हो। जमीन पूरे वक्त खींच रही है तुमको। हवा पूरे वक्त दबा रही है तुमको। पूरा दबाव हवा डाल रही है तुम पर; जमीन इधर से तुमको खींच रही है। अब तुम चाहो तो टिक कर बैठ जाओ कि कैसे चलें? इतना बड़ा दबाव हम सहेंगे कैसे? यह तो मर जाएंगे। जमीन पूरे वक्त खींच रही है तुमको और हवा पूरे वक्त दबा रही है। इतनी हवा का भार है, दो सौ मील हवा की परतें हैं, वे पूरे वक्त दबा रही हैं। इधर यह जमीन का ग्रेविटेशन पूरे वक्त खींच रहा है।
और मजा यह है कि तुम सोचते होओ कि इसकी वजह से चलने में बाधा पड़ रही है, तो गलती है। इसी की वजह से चलना हो पा रहा है। अगर पृथ्वी न खींचे और हवा न दबाए, तुम अनंत में खो जाओ, तुम्हारा कहीं पता न चले। पृथ्वी खींचती है इसलिए जमीन पर हम हैं। हवा दबाती है इसलिए जमीन पर हम चल पाते हैं। एक छोटी सी कीड़ी पर भी इतना ही दबाव है। वह भी चल रही है। अगर सारा दबाव हट जाए तो वह कीड़ी और हम और सारा जगत अनंत में खो जाए, इसी वक्त विदा हो जाएं हम।
वह जो हमारे चारों तरफ दबाव है वह हमारी जिंदगी का हिस्सा है, उसके साथ ही हमको जीना है। अगर वह बिल्कुल हट जाए तो तुम पागल हो जाओ, तुम बच न सको एक मिनट। इसलिए उससे घबड़ाने की जरूरत नहीं, उस दबाव का भी उपयोग करने की जरूरत है। उस दबाव का भी उपयोग करने की जरूरत है।
उसी का तो हम उपयोग कर रहे हैं। बाहर से चौबीस घंटे दबाव होंगे, उन दबावों का उपयोग करो। उन दबावों से भी सुख लो।
अब हम, क्या मजा है, दबाव वही होते हैं, हमारी नजर बदल जाती है। एक दुश्मन को मैं जोर से पकड़ कर गले से लगा लूं, दबाव वही का वही है। और एक प्रियजन आ जाए, उसको गले से लगा लूं, दबाव वही का वही है। दुश्मन छुरी निकाल लेता है कि मेरी जान लिए ले रहे हो! मित्र बहुत धन्यवाद देता है कि तुमने गले लगाया। दबाव बिल्कुल वही का वही है। नजर अलग-अलग है उनकी, दबाव में क्या फर्क पड़ने वाला है! अगर कोई मेजरमेंट हमारे पास हो दबाव नापने का, तो वह न बता सकेगा कि मित्र ने दबाव डाला था कि दुश्मन ने दबाव डाला था। अगर मैं किसी को छाती से लगाऊं और जोर से छाती से दबा लूं, तो कोई मशीन यह नहीं बता सकती कि दबाव मित्र पर डाला जा रहा है कि दुश्मन पर डाला जा रहा है। मशीन इतना बता देगी कि इतना दबाव डाला जा रहा है।
तो दबाव तो तटस्थ है, हम कैसे लेते हैं उसको, उस पर सब कुछ निर्भर करता है। दृष्टि बदलने की जरूरत है। चारों तरफ दबाव भी रहेंगे, उनको चुनना पड़ेगा।
और फिर मजा यह है कि हम अपने हाथ से भी लोगों को दबाने के लिए निमंत्रण देते हैं। अगर मैं फिकर करने लगूं कि आप मेरे बाबत क्या सोचते हैं, आप मेरे बाबत क्या सोचते हैं, तो आपको मैं निमंत्रण दे रहा हूं कि आप मुझे दबा सकते हैं। मैं फिकर ही नहीं करता कि आप मेरे बाबत क्या सोचते हैं, तो मैंने निमंत्रण लौटा लिया। अब मैं यह कह रहा हूं कि आपके दबाने का कोई मतलब नहीं रहा। आप दबा कर नाहक मेहनत करोगे। आपके दबाने से कोई दबाव नहीं पड़ेगा।
हम चौबीस घंटे निमंत्रण दे रहे हैं दबाव के लिए। हम कह रहे हैं, फलां आदमी मेरे बाबत क्या सोचता है, हम इसका पता लगाते फिर रहे हैं। अब जब पता लग जाएगा तो दबाव पड़ना शुरू हो जाएगा।
क्या जरूरत है कि हम फिकर करें कि कौन आदमी तुम्हारे बाबत क्या सोचता है? इतना ही काफी है कि मैं अपने बाबत क्या सोचता हूं। तुम्हें भी क्या जरूरत है कि तुम दूसरे के बाबत सोचो? क्योंकि जब तुम दूसरे के बाबत सोचना शुरू करते हो, तब भी तुमने दबाव डालना शुरू कर दिया, फिर दबाव की प्रतिक्रिया भी होगी। हम अपना ही जाल खड़ा करते हैं। हम पूरे समय जाल खड़ा करते हैं। इस सब जाल में, जीने का जो रस है, वह खो जाता है।
जीने के रस को प्राथमिकता दो। और बाकी सब चीजों को जीने के रस का साधन बनाओ, सब चीजों को। मित्र को भी साधन बनाओ और शत्रु को भी बनाओ। अब यह ध्यान रहे कि जिस आदमी को ठीक से जीना है उसके लिए शत्रु भी जरूरी है। क्योंकि शत्रु भी जिंदगी में एक रस लाता है, जो कि शत्रु के मर जाने पर बिल्कुल खाली हो जाता है। वह भी जिंदगी को एक कंट्रास्ट देता है। बस इतनी ही बात है कि होशियार आदमी होशियार शत्रु बनाएगा, बुद्धिमान आदमी बुद्धिमान शत्रु बनाएगा, बड़ा आदमी बड़े शत्रु बनाएगा। लेकिन शत्रु भी जरूरी है, वह चारों तरफ से गति देता है।
जैसे तुम कल्पना नहीं कर सकते, अगर ब्रिटिश साम्राज्य न हो तो गांधी को पैदा नहीं किया जा सकता। गांधी को पैदा करने का कोई उपाय नहीं है। गांधी के पैदा होने में गांधी के मां-बाप का जितना हाथ है उससे ज्यादा ब्रिटिश हुकूमत का हाथ है। असली पिता और मां वह है। उसी दबाव में वे पैदा हुए।
अगर जीसस को सूली पर न लटकाया गया होता तो क्रिश्चिएनिटी दुनिया में होती ही नहीं। क्रिश्चिएनिटी के जन्मदाता जीसस नहीं हैं; क्रिश्चिएनिटी की जन्मदात्री तो वह व्यवस्था है जिसने जीसस को सूली पर लटका दिया। वह सूली पर लटकाने का जो दबाव था उससे एक मूवमेंट पैदा हुआ। सारी चीजें बड़ा वर्तुल बना कर फैलती चली गईं।
इसलिए जीसस के मुकाबले हिंदुस्तान का कोई तीर्थंकर और कोई अवतार जीत नहीं सकता। उसका कारण है कि हिंदुस्तान के किसी तीर्थंकर, किसी अवतार पर इतना दबाव नहीं पड़ा, कोई सूली पर लटका नहीं। इसलिए उनसे बड़े वर्तुल पैदा नहीं हो सके। क्रिश्चिएनिटी जो विश्व-धर्म बन सकी उसका कारण यह है कि एक आदमी मर गया, उसने सब दांव पर लगा दिया।
लेकिन दांव पर लगाने वाले लोग अगर थोड़े और तरह के होते, समझ लें कि बहुत बुद्धिमान लोग होते, जैसा कि भविष्य में हो सकते हैं। भविष्य में जीसस का पैदा होना मुश्किल हो जाएगा। अगर उन्होंने सूली पर न लटकाया होता और जीसस की बातों को गंभीरता से न लिया होता और कहते कि ठीक है कहो, मजे से कहो जो तुम्हें कहना है। जीसस इस बुरी तरह खो जाते कि पता लगाना मुश्किल हो जाता।
जो बहुत बुद्धिमान हैं वे तो यह भी कहते हैं, जो जानते हैं इस सीक्रेट को वे तो यह भी कहते हैं, इस सारे खेल में जीसस का भी हाथ था। यानी जीसस को सूली पर लटकाया जाए, इसमें जीसस का हाथ था। यह कांस्पिरेसी जीसस की तरफ से प्रेरित थी। उन्होंने पूरा ड्रामा तैयार किया हुआ था। और जिस जुदास ने जीसस को बेचा, उनका ही शिष्य था और सबसे प्यारा शिष्य था। और इस बात की बहुत संभावना है कि वह जीसस की ही प्रेरणा से उसने दुश्मनों को जाकर उभाड़ा और जीसस को बेचा।
अब जीसस चाहते थे कि वे सूली पर लटका दिए जाएं। क्योंकि जैसे ही वे सूली पर लटक जाते हैं, उन्होंने जो कहा है वह सदा के लिए मनुष्य के मन पर अंकित हो जाता है। सूली जो है उसे सदा-सदा के लिए मनुष्य की चेतना पर इतना प्रगाढ़ गाड़ देगी कि वह फिर कभी हट नहीं सकता। तो जीसस अपनी मृत्यु का भी उपयोग कर रहे हैं। वे जो कहना चाहते हैं, उसको, अनंतकाल तक उसके वाइब्रेशंस पैदा होते रहें, इसलिए वे अपने को सूली पर लटका देना चाहते हैं। इसमें कोई बहुत आश्चर्य नहीं है, यह संभव है। जीसस जैसे समझदार आदमी के लिए यह संभव है कि उसने अपनी सूली का भी इंतजाम करवा लिया हो। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है।
जो बाहर का दबाव है, जो हमें लगता है कि विपरीत है, उसका उपयोग करो। उस सबका उपयोग हो सकता है। उससे डरो मत, उससे भागो मत, उसको दुख मान कर मत चलो, उसका भी उपयोग करो। जिंदगी एक उपयोग है। जिसमें हम कैसा उपयोग करते हैं, सब कुछ निर्भर करता है। और निमंत्रण क्यों देना? हम दुख को निमंत्रण दिए चले जाते हैं। सुख को निमंत्रण दो! जो निमंत्रण तुम दोगे वही आ जाता है द्वार पर। मगर तुमने कभी सुख को इनविटेशन भेजे ही नहीं। तुमने सदा दुख को ही भेजे हैं। वे आ गए हैं, बार-बार चले आते हैं रोज। जिन मेहमानों को तुमने बुलाया वे घर आ जाते हैं। जिनको तुमने नहीं बुलाया वे नहीं आते। फिर तुम रोती हो कि इन मेहमानों से कैसे छुटकारा हो? पर तुम रोज उनको आज भी सुबह-शाम उनको निमंत्रण-पत्र भेजे चली जा रही हो।
अपने निमंत्रण-पत्र भेजना बंद कर दो दुख के लिए। सुख को बुलाओ। वह भी उतना ही आने को तत्पर है। और प्रतीक्षा मत करो कि कहीं अपने आप आ जाएगा, कि हम कहीं पहुंच जाएंगे और मिल जाएगा। नहीं; रोज-रोज जीना पड़ेगा ऐसे कि हम प्रतिपल उसको पैदा करते रहें। वह प्रतिपल पैदा होता है।  

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