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बुधवार, 28 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-21)

इक्कीसवां समापन प्रवचन

सहजै सहजै सब गया

दिनांक 08 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

ओशो, आपने इस प्रवचनमाला का आरंभ संत कबीर के पदः सहज समाधि भली के विशद उदघाटन से शुरू किया था। इसलिए इस समापन के दिन हम आपसे प्रार्थना करेंगे कि कबीर के कुछ और पदों का अभिप्राय हमें समझाएंः
सहज सहज सब कोइ कहै, सहज न चीन्है कोइ।
जा सहजै साहब मिलै, सहज कहावै सोइ।।
सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम।
एकमेक ह्वै मिली रह्या, दास कबीरा नाम।।
जो कछु आवै सहज में, सोइ मीठा जान।
कडुवा लागै नीम-सा, जामें ऐंचातान।
सहज मिलै सो दूध सम, मांगा मिलै सो पानि।
कह कबीर वह रक्त सम, जामें ऐंचातानि।।


जिन्होंने भी जानाउन्होंने सदा निष्प्रयास से जाना, अप्रयत्न से जाना। ठीक होगा कहना कि उन्होंने खोजा नहीं, उन्हें मिला। वे परमात्मा के मंदिर तक नहीं पहुंचे, परमात्मा उनके हृदय तक आया। और तुम उस तक पहुंच भी कैसे सकोगे! उसके मंदिर का कोई अता-पता, कोई ठिकाना भी नहीं है। तुम उसे खोजोगे कहां? और तुम्हीं तो खोजोगे! और तुम अगर गलत हो, तो तुम्हारी खोज गलत हो जाएगी। यात्रा कौन करेगा? तुम यात्रा करोगे और तुम अगर भ्रांत हो, तो सभी दिशाएं जिनमें तुम जाओगे भ्रांत हो जाएंगी। उसका मंदिर भी सामने आ जाए, तो भी तुम पहचान न पाओगे। वह तुम्हें रास्ते पर भी मिल जाए, तो तुम उससे बचकर निकल जाओगे।
असली सवाल परमात्मा का नहीं है, असली सवाल तुम्हारा है। और अगर तुम्हारे पास आंखें हों, तो इंच भर भी हिलने की जरूरत नहीं, क्योंकि तुम जहां हो, तुम उसे वहीं देख लोगे। पत्ते-पत्ते में, कंकड़-पत्थर में, हवा के हर झोकें में वही मौजूद है; उसे खोजने की जरूरत क्या है! लेकिन तुम उसे देख नहीं पाते; तुम उसके स्पर्श को अनुभव नहीं कर पाते, तब तुम बड़ी ऐंचातान करते हो!
कबीर बड़ा मजेदार शब्द उपयोग कर रहे हैं। तुम बड़ी ऐंचातान करते हो, तुम बड़ा प्रयास करते हो। तुम शीर्षासन लगाते हो, नाक बंद करते हो, आंखें मूंदते हो। तुम उलटे-सीधे होते हो; तुम हजार तरह के अभ्यास और व्यायाम करते हो। तुम न मालूम कैसा-कैसा योग साधते हो! क्योंकि परमात्मा को पाना है। जैसे कि परमात्मा दूर हो और रास्ता हो बीच मेंजिस्को पार करना है! जैसे कि परमात्मा कुछ ऐसा हो कि जैसे तुम हो, उसमें मिल ही न सकेगा।
आखिर तुम में कमी क्या है? तुम्हें परमात्मा ने बनाया है; तुममें कमी हो भी कैसे सकती है। और तुम्हारी हर कमी, उसकी कमी की खबर देगी। क्योंकि जब गीत में कुछ भूल मिल जाए, तो गीत का कसूर नहीं होता है; कवि फंस जाएगा। और जब संगीत आड़ा-टेढ़ा जाने लगे, तो संगीतज्ञ फंसेगा। तुम अगर जरा भी गलत हो, तो परमात्मा का सृजन ही गलत है। तुम बिल्कुल पूरे हो। अधूरा वह बनाता ही नहीं।
तुम जैसे हो, ऐसे ही काफी होयह सहज-योग की पहली धारणा है। तुम जैसे हो, उसमें रत्ती भर भी ऐंचातान करने की जरूरत नहीं है। उलटे-सीधे होने का कोई अर्थ नहीं है। और तुम्हारी ऐंचातान, तुम्हारा प्रयत्न, तुम्हारा श्रम और उलझाएगा; सुलझाएगा नहीं।
बुद्ध एक रास्ते से गुजरते हैं, दोपहर है घनीतेज है धूप, पसीना बहता है। और उन्हें प्यास लगी है। तो आनंद को उन्होंनेएक वृक्ष के नीचे बैठकरकहा कि तू जा, पीछे हम झरना छोड़ आए हैं, वहां से तू पानी भर ला।
आनंद गया; कोई दो मील दूर था झरना। लेकिन जब पहुंचा तो पाया कि उसके जाने के ठीक पहले ही कुछ बैलगाडियां झरने से निकली हैं। उन बैलगाडियों के निकलने से उस छिछले झरने में बड़ी गंदगी ऊपर उठ आई थी। जो वर्षों से नीचे बैठा होगा कूड़ा करकट, वह सब ऊपर फैल गया। पानी गंदा हो गया; पीने योग्य न रहा। और फिर बुद्ध के लिए ऐसा गंदा पानी ले जाए आनंद, यह असंभव था।
वह वापस लौट आया। उसने बुद्ध को कहा कि वह पानी पीने योग्य नहीं रहा। जहां तक मैं समझता हूंआगे मार्ग परकोई चार मील के फासले पर एक नदी है; मैं वहां से पानी ले आऊं। बुद्ध ने कहा कि नहीं; तू वापस जा; पानी वही लाना है। पानी-पानी में क्या भेद है आनंद! बुद्ध ने कहा, तो आनंद को फिर वापस लौट जाना पड़ा।
आनंद बड़ी मुश्किल में पड़ गया। वहां गया; कचरा था; पानी गंदा था, तो सोचाः एक ही उपाय है, उसे ही शुद्ध करके ले जाऊं। तो वह उतर गया झरने में और कोशिश करने लगा कि गंदगी को हटा दे। जितनी उसने कोशिश की, पानी और गंदा हो गया। उसके प्रवेश करने से हीऔर कचरा उठ आया। जो बैठ गया होगा, वह फिर वापस ऊपर आ गया। वह तो और मुश्किल में पड़ गया। अब तो उसने और गंदा कर लिया।
वह फिर वापस लौटा। उसने बुद्ध को कहाः आप मत रोकें। वह पानी पीने योग्य नहीं है। और मैंने कोशिश की प्रवेश करके शुद्ध करने की, तो वह और अशुद्ध हो गया। बुद्ध ने कहाः पागल! जब झरना गंदा हो, तो किनारे बैठ कर चुपचाप राह देखनी चाहिए। उतरा कि और मुश्किल हो जाएगी। तू वापस जा। लेकिन आनंद ने कहाः जो कोशिश करने से भी शुद्ध नहीं हो रहा है, वह सिर्फ बैठने से कैसे शुद्ध होगा!
यही तुम सब कह रहे हो। यही सारी बुद्धि का हिसाब हैकि जो चेष्टा करने से नहीं हो पा रहा है, वह निश्चेष्टा में कैसे होगा!
 आनंद ने कहाः यह होने वाला नहीं है। लेकिन आप कहते हैं, तो मैं जाता हूं। मैं बैठूंगा। वह निराश... यह श्रम व्यर्थ ही जा रहा है आने-जाने का। फिर झरने पर वापस लौटा। अब बुद्ध ने कहा था, तो कोई उपाय भी न था।
 आनंद ने तो बुद्ध की वजह से मान भी लिया, किनारे बैठ गया। हालांकि उसकी बुद्धि इनकार करती थी! तुम वह भी मानने को तैयार नहीं हो। और शिष्य जब तक सोचता है, तब तक उसकी बुद्धिगुरु जो कहता है, उसे इनकार करेगी। अगर प्रेम जग गया होगुरु के प्रति, तो वह अपनी बुद्धि की नहीं सुनेगा। बुद्धि तो कहेगी ही कि यह होने वाला नहीं है। लेकिन प्रेम अगर जग गया हो, तो प्रेम कहेगाः कहा है गुरु ने, तो करके देख लो।
अगर गुरु के साथ तुम्हारा हृदय है, तो ही तुम्हारा बुद्धि से संबंध टूटेगा। अगर गुरु से भी तुम्हारा संबंध सिर्फ बुद्धि का है, तो गुरु से तुम्हारा कोई संबंध ही नहीं है। क्योंकि बुद्धि उस पार की बात को समझ ही नहीं सकती।
और गणित साफ है कि मेहनत से नहीं मिल रहा है, तो बिना मेहनत के कैसे मिलेगा! दौड़ कर नहीं पहुंच रहे हैं और तुम कहते होः बैठ कर पहुंच जाओगे! हम पसीने-पसीने हुए जा रहे हैं और मंजिल नहीं आ रही है। और तुम कह रहे होः विश्राम करो और मंजिल आ जाएगी! हम जन्मों से भटक रहे हैं और पहुंच नहीं पाए और तुम कहते होः बैठ जाओ यहीं मंजिल है।
यह बात ही बुद्धि के बाहर हो जाती है। लेकिन गुरु से अगर हृदय का संबंध हो जाए, तो तुम्हारी बुद्धि कहती रहती है, लेकिन तुम अनसुना करते हो।
आनंद को जंची तो नहीं बात; किसी शिष्य को कभी नहीं जंची। लेकिन उसने कहा कि जब बुद्ध ने कहा है, तो पूरा करना ही होगा। भरोसा भी नहीं आया; किसी शिष्य को कभी नहीं आया है। लेकिन भरोसा भी न आता होसंदेह भी होता होतब भी यदि हृदय का तार जुड़ा हो, तो श्रद्धा नष्ट नहीं होती।
श्रद्धा कहीं संदेह से नष्ट हो सकती है! श्रद्धा हो ही न, तो बात अलग है। अन्यथा श्रद्धा बनी रहती है, संदेह किनारे पर रहता है। संदेह गौण रहता है, श्रद्धा केंद्र पर रहती है।
आनंद ने कहाः बुद्ध कहते हैं, तो जरूर कोई मतलब होगा। वह मतलब मेरी समझ में नहीं आ रहा है। और यह भी मैं जानता हूं कि पानी अपने आप शुद्ध होने वाला नहीं है। लेकिन अब उनकी मरजी; प्यासे रहना है, तो प्यासे रहें। मैं तो दूसरी नदी पर जाने को तैयार था।
वह बैठ गया। न मालूम क्या-क्या बातें सोचने लगा होगा। यह तो बात ही सही नहीं थी कि नदी शुद्ध हो जाएगी। घड़ी दो घड़ी बीती होंगी, तब उसने चौंक कर देखा कि वह नदी शुद्ध हुई जा रही है! पत्ते बह गए हैं। गंदगी नीचे बैठ गई है। पानी ऐसा शुद्ध होता जा रहा है, जैसा कि था।
गंदगी विजातीय है; वह पानी का स्वभाव नहीं है। उठ आई थी; बाहर से आई थी; बैठ जाएगी। और जब पानी में गंदगी थी, तब पानी गंदा नहीं था। तब भी गंदगी और पानी अलग-अलग थे। उनका फासला बहुत कम था, लेकिन फासला था। वे एक ही नहीं हो गए थे। अगर पानी ही गंदा हो गया होता, तो फिर शुद्ध होने का कोई उपाय न था। अगर पानी गंदगी के साथ एक हो गया होता, तो फिर कितनी ही ऐंचातानी करते, कुछ होनेवाला नहीं था।
लेकिन बिना ऐंचातानी किए आनंद बैठा रहा। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे झरना साफ हो गया। स्वच्छ जल उभर आया। चकित हुआ। नाचता हुआ पानी लेकर वापस लौटा। नाचता हुआ क्यों? क्योंकि अब उसे ख्याल में आया कि बुद्ध का प्रयोजन क्या था। यह प्यास तो सिर्फ बहाना थी। और इस झरने पर बार-बार भेजना और नदी पर न जाने देना, एक तरकीब एक डिवाइस थी।
बुद्ध ने पूछाः आनंद, इतना प्रसन्न, इतना नाचता हुआ क्यों लौट रहा है? तो आनंद ने कहाः बात समझ में आई। मैं शुद्ध नहीं हो पा रहा हूं, क्योंकि बड़ी ऐंचातानी कर रहा हूं। मन शुद्ध नहीं हो पा रहा है, क्योंकि मैं घुस-घुस जाता हूं; शुद्ध करने की चेष्टा करता हूं। समझ गया। अब मैं मन के किनारे भी बैठ रहूंगा।
अब बहने दो मन के झरने को; और रहने दो कितनी देर गंदा रहता है। गाडियां गुजर गई हैं बहुत जन्मों की। बहुत चाक गुजर गए हैं, बहुत गंदगियां उठ गई हैं। लेकिन एक बात बिल्कुल साफ हो गई है कि मैं गंदा नहीं हूं। गंदगी कितनी ही आस-पास हो, मेरा स्वभाव गंदा नहीं। तो जो स्वभाव नहीं है, वह अपने आप चला जाएगा, उसे हटाने की कोई जरूरत नहीं है। जो स्वभाव है, वह कभी भी न जाएगा। उसे भुलाने की भी कोई जरूरत नहीं है।
क्रोध आता है; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। कोई गाड़ी गुजर गईगंदगी उठ गई; कचरा ऊपर आ गया। वासना उठती है; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। बुद्ध ने कहा हैः जो सदा न रहे, वह स्वभाव नहीं है।
कितनी देर वासना रहती है? अंततः छूट ही जाती है। कितनी देर क्रोध टिकता है? करो या न करो। क्रोध को शाश्वत तो न बना सकोगे! सदा तो क्रोधी न रह सकोगे। बड़े से बड़ा क्रोधी भी शिथिल होगा। कितनी देर कोई अपनी प्रत्यंचा को खींचे रख सकता है? हाथ थक जाएंगे। बड़े से बड़ा योद्धा भी अपनी प्रत्यंचा को ढीली करके किनारे रख देता है। तब प्रत्यंचा कातना होनास्वभाव नहीं हो सकता।
तुम तब तने हो, जब कोई गाड़ी गुजर गई, झरना गंदा हो गया। अब करोगे क्या? दो ही उपाय दिखते हैंः या तो कुछ करो और या किनारे पर बैठे रहो। सहज-योग कहता हैः किनारे बैठे रहो। सिर्फ साक्षी हो रहो। कुछ भी मत करो। बस, देखते रहो। इससे ज्यादा जरूरत नहीं है। सिर्फ तुम देखोगे, तो तुम्हारी आंखें उपद्रव खड़ा नहीं करेंगी। और तुमने कुछ भी कियाजरा-सी भी ऐंचातानी की कि तुम और उलझा लोगे।
तुम्हारी उलझन इतनी नहीं, जितनी तुम समझ रहे हो। जितनी तुम समझ रहे हो, उसमें बहुत-सी तो तुम बड़ी मेहनत से पैदा कर रहे हो। तुम्हारी अड़चन इतनी नहीं है, जितनी दिखाई पड़ती है। हजार-गुना होकर दिखाई पड़ती है; क्योंकि तुम खड़े नहीं हो; तुम सुलझाने में लगे हो। और जितनी ही सुलझाते हो, उतना ही तुम पाते हो कि उलझती जाती है बात। जिंदगी भर का अनुभव है, लेकिन फिर भी निष्कर्ष नहीं लेते हो!
तुमने क्या सुलझा लिया है जिंदगी में? जहां-जहां तुम सुलझाने गए हो, वहां-वहां बात उलझ गई है! क्या सुलझा पाए हो? कामवासना को सुलझाने लगते हो, ब्रह्मचर्य हाथ में नहीं आता; विकृति हाथ आती है परवर्शन हाथ आता है। क्रोध को सुलझाने जाते हो, करुणा हाथ नहीं आती; सिर्फ दमित क्रोध मवाद की तरह पूरी देह और मन-प्राण में भर जाता है।
तुम क्या सुलझा पाए हो? हाथ में एक भी सुलझा हुआ सूत्र नहीं है; हालांकि सुलझाने की तुम बड़ी कोशिश कर रहे हो।
कबीर कहते हैं कि तुम्हारी कोशिश ही तुम्हारी मुसीबत है। मत करो ऐंचातानी। जरा बैठो भी। सुलझाकर नहीं सुलझा पाए, तो अब बैठ कर देख लो। यह भी देख लेने जैसा है।
तुम्हारा मन कहेगा कि यह गणित जंचता नहीं है। जो इतने श्रम से नहीं हो पा रहा है, वह बिना श्रम के कैसे होगा! इसलिए धर्म गणित के भीतर नहीं है या धर्म को गणित कुछ और ही है। और वह गणित यह है कि संसार में कुछ पाना हो, तो दौड़ना पड़ेगा। वह संसार का गणित है। और परमात्मा में कुछ पाना हो, तो ठहरना पड़ेगा। उलटा है। वे यात्राएं विपरीत हैं।
संसार में कुछ पाना हो, तो मेहनत करनी पड़ेगी, श्रम करना पड़ेगा, प्रयास करना पड़ेगा। यहां बिना प्रयास के कुछ भी न मिलेगा। क्योंकि यहां भारी प्रतियोगिता है। तुम अगर खड़े रहे किनारे, तो दूसरे नहीं खड़े रहेंगे। वे छीन-झपट करके ले जाएंगे। लेकिन परमात्मा में अगर कुछ पाना हो, और तुमने छीन-झपट की कि तुम चूक जाओगे। वहां छीना-झपटी चलती ही नहीं। वहां तुम खड़े ही रहो तो हीतो ही तुम पा सकोगे।
और ध्यान रहेः जगत में प्रतियोगिता है; परमात्मा में कोई प्रतियोगिता नहीं है। अगर किसी दूसरे ने परमात्मा पा लिया, तो परमात्मा कम नहीं हो जाएगा! तुम्हारे लिए उतना ही बचेगा; जितना उसके पाने के पहले था। लेकिन संसार में अगर किसी ने पद पा लिया, तो पद अब बचा नहीं। इसलिए वहां दौड है। इसलिए वहां प्रतिस्पर्धा है, प्रतियोगिता है। वहां तुम अकेले नहीं हो। वहां तुम जो भी पाओगे, वह किसी से छीनकर पाओगे।
संसार की जीवन व्यवस्था शोषण की है। वहां शोषण किए बिना कुछ उपाय ही नहीं है। तुम्हारे पास धन है, तो कोई निर्धन हो जाएगा। तुम्हारे पास महल है, तो किसी का झोपड़ा छोटा हो जाएगा। तुम्हारा महल बड़ा होगा, तो कई मकान छोटे होंगे। इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है।
लेकिन परमात्मा में कोई प्रतियोगिता नहीं है। तुम पूरे परमात्मा को पा लो, तो भी पूरा परमात्मा बाकी रहेगा। वही उपनिषद कहते हैंः पूर्ण से पूर्ण ले लो, तो भी पूर्ण पीछे शेष रह जाता है। कुछ खर्च नहीं हो रहा है; वहां तुम्हारे लेने से, कुछ कट नहीं रहा है, बंट नहीं रहा है। कितने ही लोग परमात्मा को पा लें, परमात्मा का होना सदा उतना का उतना है।
सत्य में कोई शोषण नहीं है। संसार में बिना शोषण कोई उपाय नहीं है। दोनों रास्ते बिल्कुल विपरीत हैं। संसार में श्रम मार्ग है; और परमात्मा में विश्राम।
सहज-योग का अर्थ हैः विश्राम की दशा जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो जब तुम, बस, बैठे हो और देख रहे हो। संसार के देखे तो लगेगा यह आलस्य है। इसलिए संसार ने संन्यासी को सदा आलसी समझा हैजो कुछ भी नहीं कर रहा है। संसार उसको मूल्य भी नहीं देता। और अब तो कठिन हो गया है संन्यासी को जीना। क्योंकि, जो कुछ भी नहीं कर रहा है, उसका क्या मूल्य है? वह जीने का हकदार भी नहीं है। लेकिन पूरब ने इस रहस्य को समझा कि एक और जगत भी है, जहां बिना कुछ किए पाने की संभावना है।
और हमने संन्यासी को गृहस्थ से ज्यादा मूल्य दिया था; यह मूल्य हमारे अनुभव पर आधारित था। जो यहां कुछ भी करता हुआ दिखाई नहीं पड़ता, वह वहां बहुत कुछ पा रहा है। लेकिन वह अदृश्य लोक है, उसको तिजोड़ी में भरकर दिखाया नहीं जा सकती। वह तो उनके ही ख्याल में आएगा, जिनकी आंखें खुलेंगी। उसकी सुगंध तो उनको ही मिलेगा, जो उस लोक की तरफ दृष्टि को उठाएंगे।
सहज-योग का अर्थ है कि तुम जैसे होपूरे हो। रत्ती भर भी कमी नहीं है। और अगर कचरा कुछ उठ आया है, तो तुमने ही शोरगुल मचा दिया है; तुमने ही श्रम करके उसे उठा लिया है। तुम किनारे बैठ जाओ। चीजों को सहजता से अपनी जगह पहुंच जाने दो, स्वभाव को थिर हो जाने दो।
तुम परमात्मा हो। परमात्मा कोई उपलब्धि नहीं है। परमात्मा तुम्हारा होना हैतुम्हारे होने का ढंग है। पापी भी उतना ही परमात्मा है, जितना पुण्यात्मा। लेकिन फर्क क्या है? पुण्यात्मा बैठा है और पापी कोशिश कर रहा है। बुरा आदमी उतना ही परमात्मा है, जितना भला आदमी। बुरे आदमी ने उलझन बना ली है। और जितना सुलझा रहा है, उलझता जा रहा है। भला आदमी रुक गया है, तो उलझन अपने आप सुलझ जाती है।
याद रखना उस झरने को, जिसके किनारे बैठ कर आनंद को जीवन का सूत्र मिला। तो तुम्हें सहज-योग की परिपूर्ण प्रक्रिया ख्याल में आ जाएगी।
अब हम कबीर के सूत्र को समझें। एक-एक शब्द बहुमूल्य है। और कबीर से ज्यादा कीमती शब्द खोजना निश्चित ही कठिन है; क्योंकि कबीर जैसा आदमी खोजना कठिन है।
सहज सहज सब कोइ कहै, सहज न चीन्है कोइ। जा सहजै साहब मिलै, सहज कहावै सोइ। कबीर कहते हैः सभी लोगों ने सहज-सहज की रट लगा रखी है, लेकिन सहज कोई पहचानता नहीं।
सहज की पहचान क्या है? वृक्ष की पहचान हैः फल; और कोई पहचान नहीं है। फल ही बताएगा कि वृक्ष नीम का है, कि आम का है। सहज की पहचान क्या है? जा सहजै साहब मिलै, सहज कहावै सोइ। जिससे परमात्मा मिल जाए, जिसमें परमात्मा का फल लग जाए। साहब कबीर का शब्द है परमात्मा के लिए। जिससे साहब मिले, वही सहज है। बातचीत से कुछ न होगा, फल होना चाहिए। जहां परमात्मा दिखाई पड़े, वहीं समझना कि सहज का कोई अर्थ है। यह समझ लेने जैसी बात है।
कोई आदमी परमात्मा की चर्चा करता रह सकता है जन्मों-जन्मों तक। इससे कोई हल नहीं होता। शायद चर्चा यही बताती है कि जो नहीं मिला है, उसे आदमी शब्दों से भरने की कोशिश कर रहा है, भुलाने की कोशिश कर रहा है।
परमात्मा का सबूत शब्दों में नहीं है; परमात्मा का सबूत व्यक्तित्व में है, आंखों में है, होने के ढंग में है।
बुद्ध परमात्मा की बात नहीं करते; लेकिन पहचानने वालों ने उन्हें पहचान लिया और बुद्ध को भगवान कहा। और बुद्ध कहते हैंः कोई भगवान नहीं है; कोई परमात्मा नहीं है। बस, तुम्हीं सब कुछ हो। लेकिन बुद्ध के होने के ढंग में परमात्मा है; फल वहां लगा हुआ है। आम खुद ही चिल्ला-चिल्ला कर कहे कि आम होता नहीं, तो भी तुम देख पाओगे कि आम लगा है। तुम स्वाद भी ले सकते हो। बुद्ध के शब्द मत पकड़ लेना। वे शब्द बड़ी होशियारी से काम में लाए गए हैं।
बुद्ध कहते हैंः कोई परमात्मा नहीं है, कोई आत्मा नहीं है, कोई मोक्ष नहीं है। सब बकवास है। यह उन लोगों से छुटकारा पाने का उपाय है, जो बकवास के बड़े आदी हैं। वे लोग, जो शब्दों में ही जीते हैं, इतना सुनकर ही वापस लौट जाएंगे। जब परमात्मा ही नहीं है, तो यह आदमी नास्तिक है। और उनके द्वार ही बंद हो जाएंगे। जब इस आदमी में परमात्मा का फल लगा है, यह उन्हें दिखाई ही न पड़ेगा।
पंडित वापस लौट जाएंगे। लेकिन जिनकी प्यास सच्ची है, वे कहेंगेः यह आदमी कुछ भी कहता होहम इसकी सुनें या इसको देखें! हम इसके शब्दों को मानें या इसको मानें! और इस आदमी में मीठा फल लगा हैपरमात्मा का। जरूर इसके कहने में कोई तरकीब है। यह व्यर्थ के लोगों से बचने का उपाय है। हम तो स्वाद लेंगे। वे लोग रुक जाएंगे। उनके लिए बुद्ध ही भगवान हैं।
सभी ज्ञानियों को कुछ उपाय करने पड़ते हैं, जिससे व्यर्थ के लोगों को बाहर रोका जा सके। क्योंकि व्यर्थ का एक आदमी भी जैसे एक सड़ी मछली सभी मछलियों को सड़ा दे, वैसे ही व्यर्थ का एक आदमी शेष को भी उलझाने का कारण बन जाता है। जैसे बीमारी संक्रामक होती है, ऐसे ही व्यर्थता भी संक्रामक होती है। जैसे बीमार आदमी के पास बैठकर तुम्हारे बीमार होने का डर पैदा हो जाता है, व्यर्थ आदमी के पास बैठकर तुम्हारे जीवन में व्यर्थता बढ़ने की संभावना बढ़ जाती है।
तो बुद्ध कहे चले जाते हैं कि नहीं कोई परमात्मा, नहीं कोई आत्मा, नहीं कोई मोक्ष। फिर जो रुक जाता है, उसके लिए बुद्ध द्वार खोल देते हैं परमात्मा का, आत्मा का, मोक्ष का। लेकिन वह द्वार भी वे तभी खोलते हैं, जब वह आदमी फल को देखता है। क्योंकि फल ही सबूत है। आम क्या कहता है, इसको सुनिएगा कि आम क्या है, इसको देखिएगा?
कबीर कहते हैंः जा सहजै साहब मिलै, सहज कहावै सोइ। बस, एक ही सबूत है सहज का कि उससे साहब मिल जाए, कि साहब प्रकट हो जाए। जो सहज की बात कर रहा है, उसे सहज का कोई पता ही नहीं है। क्योंकि सहज का अर्थ है कि साहब भीतर है; खोज बंद हो गई।
रिन्झाई एक फकीर हुआजापान में। जापान के एक पर्वत परजहां एक बड़ा तीर्थ स्थान है हजारों लोग वहां यात्रा करने जाते हैं। रिंझाई उस पर्वत के नीचे रास्ते के किनारे तीस वर्षों तक रहा। कभी पर्वत के ऊपर गया नहीं; वहां से कोई चार-पांच मील का ही फासला था।
हजारों लोग पैदल यात्रा करते। रिंझाई को सैकड़ों लोग पहचानते थे। तीर्थयात्री निकलते थे, तो वे पूछते थेः रिन्झाई, ऊपर नहीं चलोगे? तो रिंझाई कहताः हम ऊपर हैं। कोई पूछताः तीर्थयात्रा न करोगे? रिन्झाई कहताः यात्रा पूरी हो गई; मंजिल आ गई। कोई पूछताः हम जा रहे हैं ऊपर। रिंझाई, अगर तुमसे चलते न बनता हो, दो डोली कर दें। या अपने कंधे पर ले लें। तो रिन्झाई कहता तुम जहां जा रहे हो, वहां मैं हूं। अब जाना कहां है!
जो देख सकता थाक भी हजार में एक में एक आदमी वह फिर तीर्थयात्रा को नहीं जाता था। वह रिंझाई के पास रुक जाता था। इसीलिए रास्ते के किनारे वहां वह बैठा रहता था। जो देख लेता था, जो समझ पाता इस आदमी को, जिसको जरा सी भी इसकी झलक पकड़ में आ जाती, वह इसके पैर पकड़ लेता। वह कहताः अब हम भी वहां न जाएंगे। अब वहां क्या रखा है! और इतने लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं और हजार साल से यह सिलसिला चलता है। लोग आते हैं, जाते हैं... !
तीर्थयात्रा तीर्थों में नहीं है; तीर्थयात्रा तो उनके पास जाने में है, जिनको साहब मिल गया हो। और रिन्झाई सिद्ध कर रहा है कबीर के इस वचन को कि जा सहजै साहब मिलै... । वह कह रहा हैः हम वहां पहुंच गए हैं। यह कहना भी ठीक नहीं है किहम वहां पहुंच गए। सच तो यही कहना ठीक है कि हम सदा वहां थे; इसकी पहचान आ गई।
धर्म एक रिकग्निशन, एक प्रत्यभिज्ञा है। इस बात का स्मरण है कि मैं वही हूं। अहं ब्रह्मास्मि, मैं वहीं हूं। फिर क्या करने को बाकी है! जब तक करने को बाकी है, तब तक तुमको लग रहा है कि साहब दूर है तुमसे अलग।
कभी तुमने सोचा कि अगर परमात्मा तुमसे अलग है अगर सच में ही अलग हैतो तुम उससे एक कैसे हो पाओगे? फिर तुम एक भी न हो पाओगे। ज्यादा से ज्यादा पास पहुंच सकते हो, लेकिन एक न हो पाओगे। लेकिन कहीं पानी के पास जाकर प्यास बुझती है? प्यास तो तभी बुझती है, जब पानी और तुम घुल-मिल जाओ, एक हो जाओ। तुम सरोवर के कितने ही पास पहुंच जाओ, इससे क्या प्यास बुझेगी?
तुम परमात्मा से हजार मील दूर हो कि हजार इंच, कि एक इंच, कि परमात्मा से तुम्हारी देह टकरा रही है लेकिन इससे क्या होगा? प्यास बुझेगी? जब तक तुम परमात्मा न हो जाओ, तब तक प्यास बुझ नहीं सकती।
इंच भर का फासला भी करोड़ मील का फासला है। सच तो यह है कि जब इंच भर का फासला रह जाता है, तब बहुत अखरता है। हजार मील के फासले पर कम से कम एक आश्वासन तो रहता है कि अभी दूरी बहुत है; यात्रा कर लेंगे, पहुंच जाएंगे। और जब इंच भर का फासला रह जाता है, चलने को जगह भी नहीं रह जाती, जाने का उपाय भी नहीं रह जाता, तब असमर्थता पूरी प्रकट होती है।
भक्त की पीड़ा उस समय आती है, जब भगवान और उसके बीच इंच भर का फासला रह जाता है; तब उसे पता चलता है कि भक्ति इससे आगे नहीं ले जा सकती है। काफी ले आई है; पर इससे आगे नहीं ले जा सकती। इससे आगे तो एक ही कदम है कि भक्त भगवान हो जाए। जा साहब मिलै... ! लेकिन अगर तुम पहले से ही फासला मानकर चल रहे हो, तो तुम एक कैसे हो सकोगे?
कबीर कहते हैं कि तुम अलग हो ही नहीं। इस बिंदु से ही यात्रा करना। तुम परमात्मा के पास नहीं जा रहे हो, वह सदा से तुम्हारे भीतर है; सिर्फ उसकी पहचान बढ़ रही है। कौन तुम्हारे भीतर छिपा है इसकी पहचान बढ़ रही है।
परमात्मा के निकट जाने की और कोई यात्रा नहीं है, सिर्फ पहचान की यात्रा है। धीरे-धीरे तुम उघाड़ते जा रहे हो अपने को। और जहां-जहां उघड़ते हो, वहां-वहां परमात्मा को पाते हो। जिस दिन तुम पूरे उघड़ जाओगे, उस दिन तुम हंसोगे कि मैं उसे ही खोज रहा था, जो सदा ही मेरे भीतर छिपा था।
और जो तुम्हारे भीतर छिपा था, उसे तुम खोजकर पाते भी कैसे? तुम जितना खोजते थे, उतनी ही मुसीबत में पड़ते थे। क्योंकि खोज तुम्हें बाहर ले जाती थी।
सब योग बाहर ले जाएगा, सब क्रिया बाहर जाने का द्वार है। सहज-योग का अर्थ हैः अक्रिया। सहज योग का द्वार हैः कुछ करना नहीं, सिर्फ चुप होकर देखना। कठिन है यह। इसे तुम सरल मत समझ लेना।
लोग सहज-योग की बात करते हैं; वे सोचते हैंः बड़ी सरल बात है। सहज शब्द से ऐसा लगता है कि सरल होगा। सहज का अर्थ सरल नहीं है। इससे ज्यादा कठिन कोई चीज नहीं है।
करना हमेशा आसान हैकितना ही कठिन हो। उसका अभ्यास किया जा सकता है। सीखा जा सकता है। समय लगाया जा सकता है। लेकिन सहज हैः न करना; उसका कोई अभ्यास नहीं; सीखने का कोई उपाय नहीं। तुम्हें तो धीरे-धीरे-धीरे बैठना ही पड़ेगा।
तो करोगे क्या? कैसे यह सहज सधेगा? तुम जो जानते हो, वह भूलना पड़ेगा। तुम जो सीख गए हो, उसे छोड़ना पड़ेगा। तुमने जो-जो अभ्यास कर लिया है, उससे मुक्त होना पड़ेगा। तुम्हारा सब योग जब खो जाएगा, सब साधना विलीन हो जाएगी, तब तुम अचानक चौंक कर जागोगे, जैसे अंधेरे में अचानक किसी ने दीया जला दिया हो। उस दिन तुम खिलखिला कर हंसोगे कि मैं भी खूब पागल था! मैं जिसे खोज रहा था, वही मैं हूं। खोज-खोज कर खो रहा था।
जा सहजै साहब मिलै, सहज कहावै सोइ। सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम।
और कबीर कह रहे हैं कि किनारे बैठे-बैठे, कुछ न करते, धीरे-धीरे सब गया।
छोड़ने से नहीं जाता। छोड़ने वाले को तो पकड़े ही रखता है। और जिस चीज को तुम छोड़ते हो, वह तुम्हें और जोर से पकड़ती मालूम पड़ती है। छोड़ने में ही कहीं भूल है।
छोड़ने का मनोविज्ञान क्या है? छोड़ने का मतलब हैः तुम जानते हो कि तुम जकड़े हो। तुम जानते हो कि तुम पत्नी के मोह में हो। तुम कहते होः कैसे छोड़ दें। और नासमझ तुम्हें मिल जाएंगेतरकीबें बतानेवाले, कि ऐसे छोड दो।
पत्नी थोड़े तुम्हें पकड़े हुए है! उसने पकड़ा होता, तो छोडने की तरकीबें काम आ जातीं। तुमने ही पकड़ा है। अब तुम तरकीबें पूछ रहे हो! तुम भाग जाओ जंगल कोई समझाएगा जंगल चले जाओ। कोई कहेगाः मंदिर में बैठ जाओ। कोई कहेगाः आश्रम में बस जाओ। न देखोगे पत्नी को, न मोह उठेगा। आंखें बंद कर लो।
लेकिन कभी तुमने किसी चीज पर आंखे बंद करके देखी हैं? जिस चीज पर आंख बंद करो, वह और भी साफ होकर दिखाई पड़ने लगती है। इतनी सुंदर तो पत्नी कभी न थी, जितनी दूर जाकर मालूम पड़ेगी। इतना शरीर तो स्वर्ण जैसा कभी न था, जितना आंख बंद करके दिखाई पड़ेगा। पत्नी सपना हो जाएगी।
भागोगे कहां? क्योंकि मन के लिए न तो कोई दूरी है, और न कोई बाधा। तुम हिमालय पर बैठे रहो। मन के लिए कोई दूरी नहीं है घर से। कुछ मन को कोई ट्रेन थोड़े ही पकड़नी पड़ेगीकि तीन दिन लगेंगे, तब वह पत्नी के पास पहुंचेगा! उसे क्षण भी नहीं लगता। उसकी यात्रा बिल्कुल स्वतंत्र है। उस पर कोई बाधा नहीं है। तुम धन को छोड़कर भाग जाओगे, लेकिन जो मनधन को पकड़े था, उस मन को तुम कैसे छोड़ोगे?
छोड़ने का मनाविज्ञान भयभीत आदमी का मनोविज्ञान है। वह डरा हुआ है। और तुम डरते उसी से हो जिसे तुम अपने से ज्यादा ताकतवर मानते हो; नहीं तो तुम डरोगे ही क्यों? इसलिए सिर्फ डरपोक भागते हैं। भगोड़ा भयभीत है।
कबीर कहते हैंः सहजै सहजै सब गया। कबीर ने न तो पत्नी छोड़ी, न बेटा छोड़ा, न धंधा छोड़ा। कबीर घर में रहे। कबीर परम गृहस्थ हैं और उनसे बड़ा संन्यासी खोजना कठिन है। पत्नी है, बेटा है, घर-द्वार है। कपड़ा बुनते हैं, बेचते हैं। जुलाहे का काम है। सब काम वैसे ही चलता है। उसमें कोई फर्क नहीं हुआ।
लेकिन वे कहते हैंः सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम। कुछ किया नहीं, ऐसे ही देखते रहे। धीरे-धीरे पाया कि देखते-देखते उलझनें खुलने लगीं। देखते-देखते क्योंकि जितनी दृष्टि साफ होती है, उतना ही मोह विलीन हो जाता है।
मोह अंधापन है। आंख साफ होती है, मोह खो जाता है। मोह सपना है। साक्षी भाव जगता है; सपना टूट जाता है। सुबह तुम जागते हो; जागते ही सपना टूट जाता है। सपने को तोड़ना तो नहीं पड़ता! जैसे-जैसे सहजता बैठती है, वैसे-वैसे, जहां-जहां राग था, मोह था, क्रोध था, लोभ थावे सब गिरने लगे।
सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम। काम तो गया ही वासना तो गई हीनिष्काम तक चला गया। राग तो गया ही वैराग्य भी चला गया। यह थोड़ा समझने का सूत्र है।
जो आदमी छोड़ कर भागेगा राग तो छोड़ेगा, वैराग्य पकड़ जाएगा। यह कुछ फर्क न हुआ बड़ा। गृहस्थी छूटी, संन्यास पकड़ गया! पहले गृहस्थी को पकड़े हुए थे, वह मोह था। अब संन्यास को पकड़े हुए हो, वह मोह है। पकड़ कायम है।
पहले एक बड़े मकान में रहते थे, उसकी पकड़ थी; तब अगर कोई कहता कि वृक्ष के नीचे रुक जाओ, तो अपमान अनुभव होता। अब वृक्ष के नीचे रुकते हैं, और अगर कोई कहे कि मकान में आ जाओ, तो असंभव मालूम पड़ता है कि हम तो विरागी है; हम कैसे मकान में आ सकते हैं!
यह तो राग की पकड़ थी, अब विराग की पकड़ हो गई। पहले काम पकड़े थे, अब निष्काम ने पकड़ लिया। लेकिन पकड़ जारी है। मुट्ठी खुली नहीं, मुट्ठी बंद है।
और ध्यान रहेः उलटे की पकड़ तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती, क्योंकि सूक्ष्म है। एक आदमी धन पकड़ता है; और एक आदमी त्याग पकड़ता है। पहले वह धन इकट्ठा करता था और रात-दिन सोचता थाः यह ढेर कैसे बड़ा हो जाए। अब वह धन इकट्ठा नहीं करता, दान करता है। अब दान का ढेर लगा रहा है! यह दिखाई नहीं पड़ता। धन का ढेर दिखाई पड़ता था; वह प्रत्यक्ष था, वह संसार का था। अब वह दान का ढेर लगा रहा है!
एक सज्जन मुझे मिलने आए; दानी हैं। उनकी पत्नी ने कहाः मेरे पति को बस, एक ही रस हैअब तक कोई एक लाख रुपया दान कर चुके हैं। पति ने पत्नी को हिलाया और कहाः एक लाख नहीं; एक लाख दस हजार। यह दान का ढेर लग रहा है। वह गिनती उसकी भी जारी है! यह आदमी पहले धन के ढेर को लगा रहा था; अब यह दान के ढेर को लगा रहा है। फर्क क्या है दोनों में? धन से हटा, धन से विराग पकड़ गया।
कबीर कहते हैंः सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम। राग भी गया, विराग भी गया। अब न तो मैं गृहस्थ हूं और न संन्यासी हूं। यही संन्यास का लक्षण है। पहले तुम गृहस्थ थे, फिर संन्यस्त हुए गृहस्थ के विपरीत तो जहां विपरीतता है, वहां द्वंद्व है। जहां द्वंद्व है, वहां द्वैत है। जहां द्वैत है, वहां परमात्मा का प्रवेश नहीं। उसका प्रवेश तो सिर्फ अद्वैत अद्वंद्व की स्थिति में होता है।
तुम्हारा संन्यास अगर गृहस्थ के विपरीत है, तो सच्चा संन्यास नहीं है। इसमें एक छूटा, दूसरा पकड़ा। तुम्हारा संन्यास अगर द्वंद्व का विसर्जन है, तो परम संन्यास है।
काशी में जहां कबीर रहते थे। बड़ी खतरनाक जगह वे रहते थे। वहां संन्यासी ही संन्यासी हैं। और वे संन्यासी कहते थेः यह कबीर! यह भी कोई संन्यासी है। यह ज्ञानी है! यह जुलाहा? पत्नी, बच्चा सब कुछ; घर द्वारसब कुछ है। यह कैसा ज्ञानी है? यह कैसा ज्ञान है! हम सब छोड़ दिए हैं।
अस्मिता त्याग की भी निर्मित होती है; अहंकार उससे भी बन जाता है। और अहंकार गार्हस्थ है और निर-अहंकार भाव संन्यास है।
कबीर के संन्यास को देखना मुश्किल है। बुद्ध का संन्यास देखना बिल्कुल आसान है। अंधा भी देख लेगा; उसमें कुछ बड़ी प्रज्ञा की जरूरत नहीं है। कबीर का संन्यास बड़ा सूक्ष्म है। उसको देखना मुश्किल है। उसको सिर्फ आंखवाला ही देख पाएगा।
महावीर के संन्यास को देखने में क्या अड़चन है? अंधों ने देख लिया। जिसने महावीर का संन्यास इसलिए समझा कि महावीर नग्न खड़े हो गए सब राज-पाट छोड़ दिया उसने संन्यास समझा ही नहीं। वह कबीर को देख कर कहेगाः यह कोई संन्यासी है? इसके सामने हम नहीं झुक सकते।
मैं नहीं देखता कि एक भी जैन कबीर के पास झुकने गया हो। असंभव। क्योंकि कबीर तो, वह कहेगा, हमारे जैसा गृहस्थ है। जैसे हम, वैसा वह। हममें और इसमें फर्क क्या है? फर्क सूक्ष्म है।
महावीर और तुममें फर्क साफ है, फर्क स्थूल है कि तुम कपड़े पहने हो, और महावीर नग्न हैं! कबीर भी कपड़ा पहने हुए हैं; अब फर्क क्या है? तुम्हारी पत्नी है; कबीर की भी पत्नी है; अब फर्क क्या है? तुम धंधा करते हो, कबीर भी धंधा करते हैं; फर्क क्या है? फर्क है। क्योंकि कबीर में काम भी गया, निष्काम भी गया; राग भी गया, विराग भी गया। कबीर वहां है जैसे एक नाटक जैसे एक अभिनय के हिस्से हैं।
सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम। कुछ किया नहीं। यह बिना किए ही हुआ। तुम्हारे भीतर कोई एक ऐसा सूत्र है, जो बिना किए भी बहुत कुछ करता है। वह क्या सूत्र है? उस सूत्र को उपनिषद साक्षित्व कहते हैं। उसी सूत्र को कबीर सुरति कहते हैं। उसी को बुद्ध ने स्मृति कहा है राइट माइंडफुलनेस कहा है। उसी को महावीर ने विवेक कहा है।
एक सूत्र है तुम्हारे भीतर देखने का। इसे थोड़ा समझो। क्योंकि इस पर सब कुछ निर्भर करेगा। यह सूत्र समझ में आया, तो सहज-योग समझ में आ जाएगा।
एक चीज तुम्हारे भीतर सतत हो रही है, जो करनी नहीं पड़ती, जो तुम्हारे करने पर निर्भर नहीं है। वह है तुम्हारा साक्षित्व वह तुम दिन भर हो।
भोजन करना पड़ता है। न करोगे, भूखे मर जाओगे। मनोवैज्ञानिक कहते हैंः श्वास भी लेनी पड़ती है। क्योंकि अगर तुम्हारे जीवन की सारी आशा छूट जाए, तो तुम श्वास भी न लोगे। एक श्वास बाहर जाएगी, तुम भीतर दूसरी क्यों लोगे! क्या प्रयोजन! क्या अर्थ! इसलिए जो आदमी निराश होता है, उसके जीवन की रेखा कम हो जाती है, उम्र कम हो जाती है। दूसरी श्वास को लेने में क्या सार! धीरे-धीरे तुम्हारी श्वास पर पकड़ खो जाएगी। तुम श्वास भी न लोगे। श्वास भी एक सूक्ष्म क्रिया है, जो तुम कर रहे हो।
भोजन न करो, मर जाओगे। श्वास न लो, जीवन चला जाएगा। लेकिन एक चीज तुम्हारे बिना किए हो रही है, जिसको तुम करो या न करो, जो होती रहती है; वह तुम्हारा स्वभाव है; वह क्रिया नहीं है, वह कृत्य नहीं है।
ध्यान रहे, जो भी कृत्य है, उससे तो विश्राम लेना पड़ेगा। अगर तुमने दो घंटे मेहनत की, तो फिर घंटे भर विश्राम करना पड़ेगा। दिन भर जागे, तो रात सोना पड़ेगा। तो जागना एक क्रिया है, थकाती है। क्रिया का लक्षण है कि वह थकाती है। और जब तुम थक जाते हो, तो विपरीत क्रिया करनी पड़ती है, ताकि थकान मिट जाए। जागते हो, सोना पड़ेगा। भूखे हो, भोजन करना पड़ेगा। गंदे हो, स्नान करना पड़ेगा। विपरीत से तुम्हें निश्चित ही अपने को फिर से भरना पड़ेगा।
तो क्रिया द्वंद्व के बाहर नहीं ले जा सकती, क्योंकि क्रिया के साथ तुम चौबीस घंटे नहीं रह सकते। क्रिया को छ.ट्टी देनी पड़ेगी। इसलिए जानने वाले कहते हैं कि अगर तुम्हारा संतत्व क्रिया से आया है, तो तुम्हारे संतत्व में भी छुट्टी के क्षण होंगे। अगर कोई आदमी साधु क्रिया से है, तो उसको असाधु भी होना पड़े गालुक-छिप कर; क्योंकि छुट्टी देनी पड़ेगी।
जो चीज क्रिया से की जाती है, उसमें तुम थकोगे; उसको कितनी देर खींचोगे? उसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। अगर तुमने ब्रह्मचर्य को क्रिया बना लिया है, अगर वह सहज-योग नहीं है, तो कितनी देर ब्रह्मचारी रहोगे! छः दिन; फिर सातवें दिन?
और जब संत छुट्टी पर जाता है, तो बड़ा खतरनाक होता है। क्योंकि असंत तो आदि होता हैवहां रहने का, परिचित होता है। और रोज चुकता रहता है। संत इकट्ठा कर लेता हैऊर्जा को। इसलिए जब वह क्रिया में उतरता है, तो उसकी क्रिया बहुत खतरनाक होती है, विक्षिप्त होती है।
क्रिया से जो भी साधा है, उसे तुम चौबीस घंटे और सदा-सदा न साध सकोगे। उसे छोड़ना पड़ेगा; विश्राम जरूरी हो जाएगा। वह इतना बोझिल हो जाएगा कि तुम क्या करोगे! फिर तुम्हारे भीतर क्या कोई एकाध सूत्र है; अगर है, तो ही सहज-योग हो सकता है। वह सूत्र साक्षी है।
तुम दिन में जगे। सुबह किसी ने गाली दी, तो क्रोध उठा; तुमने इस क्रोध को देखा। फिर उसने माफी मांग ली; तो क्षमा उठी; तुमने इस क्षमा का देखा। फिर धूप बढ़ी, गर्मी लगी, पसीना बहा। तुमने गर्मी देखी, तुम छाया में हट आए। शांति हुई, शीतलता आई; तुमने शीतलता देखी।
दिन भर जागेफिर थक गए। फिर रात सोए, तो रात तुमने सपने देखे। सुबह उठ कर तुमने कहा कि रात सपने ही सपने में बीती। कोई देखने वाला मौजूद रहा। सुबह तुमने उठ कर कहा कि रात बड़ी सुखद नींद आई। निश्चित ही तुम्हारे भीतर कोई सोया नहीं। नहीं तो पता कैसे चलता? किसको पता चलता? सुबह उठ कर जो कह रहा है कि रात बड़ी सुखद नींद आई; तुम्हारे जीवन के किसी कोने में कोई जागता रहा और रात भर देखता रहा। और यह जो देखने वाला तुम्हारे भीतर हर घड़ी काम कर रहा है, यह तुम्हारी कोई क्रिया नहीं है। इससे तुम कभी भी थकते नहीं हो; नींद में भी जब सब थक जाता है, तब भी यह जागा रहता है। दुख में, सुख में, होश में, बेहोशी तक में भी... । जब तुम बेहोशी के बाद उठते हो, तब तुम कहते हो, बड़ी देर तक बेहोशी चली। क्या हो गया था! बिल्कुल बेहोश हो गया था। बेहोशी को भी भीतर से कोई न कोई... ।
अगर कभी तुमने अनेस्थीसिया लिया हैआपरेशन के वक्त, तो डाक्टर तुम्हें अनेस्थीसिया देते वक्त कहता है कि अब तुम गिनती करो; एक, दो, तीन, चार, पांच, छः, सात कहते जाओ; क्योंकि डाक्टर देखता है कि जैसे ही अनेस्थीसिया का प्रभाव शुरू होता हैतुमने कहाः एक, दो, तीनतुम्हारी आवाज धीमी, मंदी और लथड़ाई हुई होने लगती है। चा... र तुम ऐसे कहते हो, जैसे कि बहुत समय लगा। पां... च और भीतर तुम भी सुनते हो कि आवाज लथड़ा रही है।
भीतर तुम भी सुनते हो कि अब तुम कह रहे हो, लेकिन बड़ा समय लग रहा है। पांच... छह... सात...  अब तुम सोचते हो कि आठ कहें, लेकिन आठ नहीं आ रहा हैभीतर। लेकिन कोई जागा हुआ देख रहा है कि गिनती में फर्क पड़ गया है। फिर तुम देखते हो कि सब खो गया; वह भी तुम देखते हो कि सब खो गया।
फिर तुम होश में आते हो, तब फिर यह प्रक्रिया दोहरती है। धीरे-धीरे तुम्हें दिखाई-सुनाई पड़ता है कि टांके लगाए जा रहे हैं। आवाज सुनाई पड़ती है; टांके लगने का धीमा सा बोध होता है। कैंची उठाई जा रही है; सामान रखा जा रहा है। नर्स, डाक्टर आस-पास घूम रहे हैं। उस सबका तुम्हें धीरे-धीरे बोध होना शुरू होता है। फिर तुम आंख खोलते हो।
होश से बेहोशी तक जाने मेंफिर बेहोशी मेंऔर बेहोशी से होश तक आने में कोई एक तत्व सदा ही बना रहता है; वही तुम्हारा साक्षीभाव है; वही तुम्हारी आत्मा है; वही तुम्हारी चेतना है।
तो कबीर कहते हैंः सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम। बस, देखते रहे, कुछ किया नहीं। और देखते-देखते ही सब चला गया। न बेटा अपना रहा, न पत्नी अपनी रही; न राग अपना रहा, न विराग अपना रहासब गया।
एकमेक ह्वै मिली रह्या, दास कबीरा नाम। बस, एक बचासब गया और एक बचा। सब द्वंद्व, अनेकता, द्वैत खो गया; एक बचा।
जो कछु आवै सहज में, सोइ मीठा जान। कबीर कहते हैंः जो सहज जा जाए, उसी को जानना मधुर। कडुवा लागै नीम-सा, जामें ऐंचातान। और जो खींचतान के आए, वह नीम जैसा कडुवा लगेगा।
अगर तुमने किसी तरह उलटे-सीधे खड़े होकर, नाक-आंख बंद करके परमात्मा को पा भी लिया, तो वह जहर होगा, अमृत नहीं। तुम्हारे करने से जो मिलेगा, वह जहर होगा। तुम्हारे करने से जो मिलेगा, वह मृत्यु जैसा होगा; क्योंकि जीवन बिना तुम्हारे किए मिला है।
तुमने क्या किया है जीवन को पाने के लिए? तुमने कैसे जीवन अर्जित किया? तुम होयह कैसे घटा? तुम्हारे कौन से कृत्य तुम्हें जीवन तक ले आए? तुम्हारे होने के लिए तुमने क्या कमाई की है? जीवन घटा है; तुम्हारा कोई कृत्य नहीं है। हां, मृत्यु के लिए तुम जो कुछ भी करोगे, उससे मृत्यु आएगी।
जो कुछ आवै सहज में, सोइ मीठा जान। और कबीर कहते हैंः धर्म मिठास देगाअगर सहज आए। नहीं तो धर्म भी कडुवी नीम जैसा होगाअगर साध-साध कर आए।
तुम जाओ, देखो आश्रमों में, तीर्थस्थलों में उन लोगों को, जिन्होंने कठिन श्रम करके कुछ पाया है। तुम उनके आसपास नीम से भी ज्यादा कडुवाहट पाओगे। उनकी मौजूदगी मधुर न होगी। उनका स्वाद तिक्त होगा, जहरीला होगा। इसमें उनका कसूर नहीं है। उन्होंने खींचातान की है। और जितनी खींचातान करते हो, जीवन उतना मृत हो जाता है। जितनी तोड़-मरोड़ करते हो, उतना ही जीवन का जो स्वाद है, वह खो जाता है।
 तुम अपने अनुभव में समझने की कहीं कोशिश करो। तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाएस्त्री से, पुरुष से, मित्र सेकिसी से भी, तो क्या तुमने कभी ख्याल किया है कि प्रेम सहज घटता है! घट जाता है, तब उसकी मिठास है। और फिर घटता नहीं, मांग होती हैऐंचातान होती है। तुम कहते होः तू मेरी पत्नी है, मुझे प्रेम दे। तुम मेरे पति हो, मुझे प्रेम दो। यह तुम्हारा कर्तव्य है। और एक कलह शुरू होती है। ऐंचातान शुरू होती है कि प्रेम दिया जाना चाहिए। फिर चुंबन भी नीम जैसा कडुवा हो जाता है, फिर आलिंगन भी जहरीला हो जाता है; क्योंकि कर्ता आ जाता है। और जहां कर्ता आया, वहां जहर आया। तब करते हो तुम। जैसे ही तुम करते हो, वैसे ही सब स्वाद खो जाता है।
प्रेम का तुम्हें अनुभव होगा, इसलिए उसका उदाहरण लेता हूं। प्रार्थना का तुम्हें कोई अनुभव नहीं। मगर तुम प्रेम को समझ जाओ, तो वही प्रार्थना का सूत्र है। तुम्हारी प्रार्थना भी कडुवी हो गई है; क्योंकि वह भी तुम भय के कारण करते हो। वह भी सहज नहीं है। डरते हो, नरक... ।
 मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र मर रहा था। मित्र धार्मिक था। गांव का जो मौलवी था, बाहर गया था। तो मुल्ला ही एक, गांव में पंडित जैसा आदमी था, वही बचा था; उसको बुलाया आखिरी प्रार्थना के लिए।
तो नसरुद्दीन ने उस आदमी को गौर से देखा और कहाः घड़ी तो आखिरी आ गई, इसलिए कोई भी मौका खोना ठीक नहीं। उसने जोर से कहाः हे अल्लाह! हे शैतान! उस आदमी ने कहाः क्या मतलब? उसने कहाः दोनों पार्टियों से निवेदन कर लेना ठीक है। क्या पता, तुम कहां जाओ! और यह भी पक्का नहीं है कि दोनों में कौन सा... । इसलिए यह कोई... यह अवसर ऐसा नहीं है कि दांव पर लगाओ। आखिरी वक्त है; हम दोनों से प्रार्थना किए देते हैं। जहां भी जाओगे, वहीं तुम्हारे सुख का इंतजाम रहेगा।
तुम्हारी प्रार्थनाएं भी ऐसे ही गणित पर खड़ी हैं। तुम्हारे मन में कोई प्रेम नहीं जन्मा है। परमात्मा की तरफ तुम्हारा प्रेम ऐसा नहीं जन्मा है, जैसा कभी तुम एक स्त्री के प्रेम में गिर गए थे... । ऐसी कोई घटना नहीं घटी है। यह प्रेम कोई पुकार नहीं है।
 डरे हुए हो। नरक का भय है। क्योंकि सदियों से समझाया जा रहा है कि सड़ोगे नरक में। स्वर्ग का प्रलोभन भी है मन में। कि अगर उसकी प्रार्थना कर ली; पता नहीं हो, शायद हो। तुम्हारी प्रार्थना भी शायद है! तो अपने को भी कोई थोड़ी ठीक जगह मिल जाएगी।
 इस संसार ने वैसे ही काफी कष्ट झेल लिया है। अब और आगे झेलने की हिम्मत भी नहीं है। इसलिए मार्क्स कहता है कि धर्म गरीब के लिए अफीम का नशा है, क्योंकि इस संसार में उसके पास कुछ नहीं है। तो इसी अफीम को पी रहा है कि अगले संसार में सब कुछ होगा। अपने मन को राजी कर रहा है कि जो यहां महलों में रह रहे हैंवे नरक में सड़ेंगे। और मैं तो झोपड़े में रह रहा हूं, इसलिए स्वर्ग में महल मुझे मिलने वाला है। मैं दीन, गरीब हूं; परमात्मा मुझ पर करुणा करेगा। ये दुष्टये नरक में सड़ाए जाएंगे।
तो वह प्रार्थना चाहे गरीब की हो या अमीर की होया तो लोभ पर खड़ी है। या भय पर खड़ी है।
प्रेम नहीं घटा है; फिर बड़ी ऐंचातान होती है। अगर तुम भयभीत हो, तो भी तुम चेष्टा करते हो कि किसी न किसी तरह परमात्मा को पा लें। अगर तुम लोभ से भरे हो, तो भी चेष्टा करते हो।
भयभीत और लोभ से भरा हुआ आदमी निश्चेष्ट नहीं हो सकता। निश्चेष्ठ तो वही हो सकता है, जो प्रेम से भरा है।
जब तुम किसी व्यक्ति को सच में ही प्रेम करते हो कभी-कभी ऐसी घटना घटती हैएक क्षण को भी घट जाए, तो भी जीवन का अर्थ तो समझ में आ जाता है। फिर खो भी सकता है। क्योंकि कोई ऐसी बात भी नहीं है। कभी तुम एक ऊंचाई पर होते हो चेतना की, तब प्रेम घटता है। उस ऊंचाई पर सदा नहीं रह पाते; प्रेम खो जाता है।
लेकिन अगर एक बार भी घटा है, तो जब तुम प्रेम में होते हो, तब तुम क्या करते हो? तब सब चेष्टा खो जाती है। दो प्रेमी एक दूसरे का हाथ हाथ में लिए नदी के किनारे ही बैठे रहते हैं; कुछ भी नहीं करते। तुम्हें लगेगा कि इनका दिमाग खराब है।
तुम दो पति पत्नी को पास बैठे देखो। वे कुछ न कुछ करते हुए नजर आएंगे। नहीं तो बातचीत ही करेंगे, क्योंकि एक दूसरे को बरदाश्त करना मुश्किल है। बातचीत में समय व्यतीत हो जाता है। इधर-उधर की चर्चा करेंगे।
पति पत्नी मेंजब आपस में प्रेम खो जाता है, तो वे हमेशा पसंद करते हैं कि कोई मेहमान घर आ जाए, कोई मिलने-जुलने वाला आ जाए, कोई तीसरा मौजूद हो। उस तीसरे की वजह से दोनों में रस आ जाता है। खुद दोनों में कोई भी रस नहीं रह जाता है।
परमात्मा के साथ भी तुम अकेले नहीं होते; पुजारी को बीच में बुला लेते हो; पुरोहित को खड़ा कर लेते हो। वह तीसरा है। प्रेम तो कुछ है नहीं! इस तीसरे के माध्यम से चर्चा होती है। और यह व्यवसायी है; इसका कुछ ईश्वर से लेना-देना नहीं है।
जब दो व्यक्ति प्रेम में होते हैं, तो चुपचाप बैठे रहते हैं। सिर्फ बैठना ही इतना सुखद होता है कि कुछ करके उस सुख को नष्ट करना नहीं चाहते हैं। सिर्फ पास होना ही इतना बहुमूल्य होता है कि कुछ करने सेहिलने से, वह बहुमूल्य क्षण कही छिटक न जाए हाथ से... । वह पारे की तरह है। छिटक गया, गिर गया, बिखर गयातो बात करते नहीं, चुपचाप बैठे रहते हैं।
प्रेमी बोलते तक नहीं। वे यह भी नहीं कहते कि मुझे तुमसे बहुत प्रेम है। क्योंकि यह भी बकवास है; क्योंकि जब प्रेम है, तो यह बकवास है। यह तो तभी शुरू होती है बातचीत जब प्रेम खो जाता है। तब एक दूसरे को भरोसा दिलाना पड़ता है कि बहुत प्रेम है। भरोसा हम दिलाते ही तब हैं, जब बात समाप्त हो जाती है।
जब परमात्मा का प्रेम घटित होता हैसहजता सेकिसी भय से नहीं, किसी लोभ से नहीं, किसी चेष्टा से नहीं, तो कोई आदमी जीवन को देखते-देखते-देखते दृष्टि को उपलब्ध हो जाता है। दृष्टि उसकी दर्शन बन जाती है।
सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम।
एकमेक ह्वै मिली रह्या, दास कबीरा नाम।
जो कछु आवै सहज में, सोइ मीठा जान।
 कडुवा लागे नीम-सा, जामें ऐंचातान।
प्रेम को भी तुम जहर कर लेते हो, जैसे ही तुम ऐंचातान शुरू करते हो।
जैसे ही मांग करते हो कि होना चाहिए प्रेम। तू मेरा बेटा है। बेटे का कर्तव्य हैः प्रेम करो। लेकिन कोई दुनिया में कर्तव्य से प्रेम कर सका है कभी! और कोई चेष्टा करेगा प्रेम करने की तो प्रेम झूठा ही हो जाएगा।
घृणा भी बेहतर, अगर सच्ची हो। प्रेम भी बदतर, अगर झूठा हो। सच्चे में कम से कम सचाई तो है। दुश्मन बेहतर, अगर सच्चा हो; मित्र बेहतर नहीं, अगर झूठा हो। क्योंकि सचाई से कोई कभी नहीं भटका; झूठ से ही लोग भटकते हैं।
अगस्तीन की प्रार्थनाओं में एक वचन है कि हे परमात्मा, शत्रुओं की फिकर तो मैं कर लूंगा; मेरे मित्रों की फिक्र तू करना। शत्रुओं से मैं निपट लूंगा, मित्रों से मैं न निपट पाऊंगा। उनका तू ध्यान रखना। प्रार्थना ठीक है। क्योंकि मित्रता भी हमारी एक चेष्टा है।
हमारे सभी संबंध चेष्टा से हैं। जहां चेष्टा है, वहां बुद्धि होती है। हृदय के सभी संबंध निश्चेष्ट होते हैं। इसलिए प्रेम अनहोनी घटना है। वह घटती है, तो घटती है; नहीं घटती है, तो नहीं घटती है। और घटती है, तो क्यों का कोई उत्तर नहीं है।
और तुम जो भी बातें खोजते हो, वह सब बकवास है। तुम कहते होः यह स्त्री बहुत सुंदर थी, इसीलिए प्रेम हो गया। लेकिन यह स्त्री सुंदर थी तुमसे प्रेम नहीं हुआ था, तब भी बहुतों को मिली और किसी को प्रेम नहीं हुआ। तुम कहते होः इस जैसी बुद्धिमती स्त्री नहीं है। लेकिन तुम पहले नहीं हो, जो इसकी बुद्धि का परखे हो। और भी लोग थे। किसी को इसमें बुद्धि न दिखाई पड़ी। और कुछ दिन बाद तुम्हें भी दिखाई न पड़ेगी। पर आज दिखाई पड़ रही है।
तुम जो कारण बताते हो, वे कारण नहीं है। वे सिर्फ युक्तियां हैं, जिनसे तुम प्रेम की अनहोनी घटना को समझने की कोशिश कर रहे हो। अनहोने को तुम जल्दी से तर्कयुक्त कर लेना चाहते हो।
अनहोने के साथ बड़ी तकलीफ है, क्योंकि तुम्हें लगता है कि मेरे बाहर घट रहा हैमेरे नियंत्रण के बाहर है। तुम चाहते हो नियंत्रण; नियंत्रण के भीतर लाने के लिए तुम व्याख्या करते हो। तुम कहते होः इसकी नाक ऐसी है, इसकी आंख ऐसी है, इसकी देह ऐसी है, इसलिए मैं प्रेम में पड़ गया।
तुम प्रेम के लिए कारण खोज रहे हो, वहीं तुम भूल कर रहे हो। प्रेम अकारण है। और जैसा प्रेम अकारण है, वैसे ही प्रार्थना अकारण है।
कारण का संबंध तो बुद्धि का व्यवसाय है। तुम जब बाजार में कोई चीज खरीदते हो, तो कारण होता है। प्रेम को तुम खरीद नहीं सकते; यह तुम्हारे हाथ में नहीं है। यह घटता है। यह तुमसे पार है; तुमसे कुछ बड़ा है। घट जाता है, तभी तुम्हें पता चलता है। तब रोआं-रोआं इससे भर जाता है। लेकिन तुम इसके मालिक नहीं हो।
और आदमी के अहंकार को इससे बड़ी चोट लगती है। जहां-जहां वह पाता है कि मैं मालिक नहीं हूं, वहां-वहां वह चेष्टा करता है कि मालिक मैं हूं। तो वह समझाता है। इसलिए अहंकारी व्यक्ति प्रेम नहीं कर पाते; क्योंकि अहंकारी को सदा यह डर लगा रहता है कि अपने से बड़ी घटना को कभी नहीं घटने देना है। जिसके सामने तुम छोटे हो जाओ एक तूफान बहे और तुम एक पत्ते हो जाओहिलते हुए; ऐसा कोई काम नहीं करना।
तो अहंकारी व्यक्ति तूफानों में जाता ही नहीं है, जहां उसे पता चले कि मैं एक पत्ता हूंकंपता हुआ, मेरी कोई सामर्थ्य नहीं; मैं असहाय हूं। अहंकारी व्यक्ति छिप कर रहता है। और छिपने का एक ही उपाय हैमरने के पहले मर जाना। अन्यथा जीवन सब तरफ तूफान की तरह है। वहां प्रेम भी घटता है; वहां ज्ञान भी घटता है; वहां प्रार्थना भी घटती है। वे सभी हमसे बड़े हैं। तुम्हारी चेष्टा से वे नहीं घटते। तुम्हारी चेष्टा से तो जो भी घटेगा, वह तुमसे छोटा होगा। इस गणित को सदा याद रखना।
कोई मूर्तिकार अपने से श्रेष्ठ मूर्ति नहीं बना सकता। कैसे बनाएगा? कोई चित्रकार अपने से बड़ा कोई चित्र नहीं बना सकता। पिकासो लाख उपाय करे; कितना ही बड़े से बड़ा चित्र हो; पिकासो से बड़ा नहीं हो सकता। कैसे होगा? तुम जो भी बनाओगे, वह तुमसे बड़ा न होगा।
इसलिए तुम्हारी प्रार्थना दो कौड़ी की है; उसका कोई मूल्य नहीं है। वह घटनी चाहिए। कंठस्थ करके तुम उसे ने कर सकोगे। मंदिर तुम्हारा जाना व्यर्थ है।
एक दिन तुम अचानक पाओगे, कोई खींचे लिए जा रहा है। पैर मंदिर की तरफ बढ़ रहे हैं। तुम लाख बाजार की तरफ जाना चाहो, तो नहीं जा सकते। एक तूफान ने तुम्हें पकड़ लिया है। तुम एक अंधड़ पर सवार हो गए हो। अब तुम एक कंपते हुए पत्ते हो असहाय। और विराट तुम्हारे चारों तरफ है। उस वर्तुल के बाहर तुम्हारे जाने का कोई उपाय नहीं है। तुम कुछ न कर सकोगेसिवाय बहने के।
वह जो आदमी बैठता हैसाक्षी होकर, उसे यह रहस्य पता चल जाता है किजीवन तेरे बिना बहा जा रहा है। तू व्यर्थ परेशान हो रहा है। तेरे कर्तृत्व की कोई भी जरूरत नहीं है। तेरे होने, न होने से भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तू अकारण ही कर्ता बन रहा हैजब कि जीवन में सभी चीजें घट रहीं हैं। तू सिर्फ देखता रह।
कर्ता जो बन जाता है, वह गृहस्थ है। द्रष्टा जो बन जाता है, वह संन्यासी है।
द्रष्टा सहज भाव है, उसके लिए कुछ किया नहीं जा सकता। सिर्फ देखते रहो। देखने के लिए क्या करना है? देखने के लिए कुछ भी नहीं करना है। देखना तुम्हारा स्वभाव है।
जो कछु आवै सहज में, सोइ मीठा जान। कडुवा लागे नीम-सा, जामें ऐंचातान।
किसी चीज में ऐंचातान मत करना। अगर प्रेम खो जाए, तो ऐंचातान मत करना; स्वीकार कर लेना। हमारे हाथ के बाहर घटा था, हमारे हाथ के बाहर है खो गया, खो गया।
फकीर जुन्नैद के घर बेटा पैदा हुआ। बड़ा प्यारा बेटा था। दूर-दूर के गांव तक खबर पहुंच गई। ऐसा सुंदर बच्चा कभी देखा नहीं गया था। कुछ बात ही अनूठी थी। और फिर बच्चा कुछ ही महीने का हुआ और मर गया। जब लोग जुन्नैद के पास आए थेपहली दफाबेटे की प्रशंसा लेकर, तो जुन्नैद ने ऊपर देखा था और कहाः सब उसका है। न जुन्नैद प्रसन्न दिखाई पड़ाजब बेटा हुआ था। और न उदास दिखाई पड़ा जब बेटा मर गया।
लोगों ने कहाः जुन्नैद, इतना प्यारा बेटा खोकर तुम दुखी नहीं हो रहे हो? जुन्नैद ने कहाः हमारी सामर्थ्य के बाहर था जिसका आना, उसका रुकना हमारी सामर्थ्य के भीतर नहीं। जितनी देर रुका, उसका धन्यवाद है। जिसने भेजा, उसने वापस ले लिया। हम बीच में कौन हैं? हम अकारण ही प्रसन्न और दुखी, उदास और सुखी हों, वह हमारे हाथ में है। लेकिन उसमें अर्थ नहीं है। वह सब व्यर्थ है।
जिसने दिया था, उसने वापस बुला लिया। देने में उसकी कृपा थी, तो बुलाने में भी उसकी कोई कृपा होगी। यह वही समझे; हम इस चिंता में क्यों पड़ें! तुम जब आए थे, तब भी मैंने ऊपर देखा था। अब भी मैं ऊपर देख कर ही उत्तर दे रहा हूं। मैं बीच में खड़ा नहीं हूं।
जब प्रेम खो जाए, तो स्वीकार कर लेना कि खो गया; तब खींचना मत। सारी पृथ्वी प्रेम की लाशों से भरी है। जहां कभी झलक मिली थी, वहां अब कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम कभी स्वीकार नहीं करते कि वह खो गया है। तुम खींचे चले जा रहे हो। बड़ी ऐंचातान है। नहीं हैउसको भी माने चले जा रहे हो। और चेष्टा कर-करके जमाए जाते हो।
कभी तुम नाचते हुए घर आए थे; अब पैर का नाच खो गया है। लेकिन फिर भी तुम दौड़ते हुए घर आते हो; उससे सिर्फ तुम थकते हो। नाच थकाता नहीं है, व्यक्तित्व का खिलाता है। और जब तुम जबरदस्ती चलते हुए आते हो, तो एक बोझ हो जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन को उसकी पत्नी ने अपने मायके भेजा था। कुछ जरूरी समाचार था, लेकर जल्दी ही लौटने को कहा था। दो महिने तक उसका कोई पता न चला; दो महिने बाद एक आदमी ने उसे गांव के बाहर देखा कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने जूते उतारकर हाथ में ले रहा है। जूते उसने हाथ में ले रहा है। जूते उसने हाथ में लेकर भागना शुरू किया एकदम गांव के भीतर। उस आदमी ने कहाः क्या मामला है नसरुद्दीन? नसरुद्दीन ने कहाः वैसे ही काफी देर हो गई है। अब और देर न करवाओ। पत्नी वैसे ही नाराज हो रही होगा।
गांव के बाहर से जूते हाथ में लेकर दौड़ शुरू हो जाती है। वह दौड़ झूठी है; वह सिर्फ दिखावा है। और जितना तुम दिखावा कर लोगे, उतना ही तुम दिखावा कर लोगे, उतना ही तुम बोझ से भर जाओगे।
तुम्हारे सिर पर दिखावे का वजन बढ़ता जाता है। तुम जो इतने दबे-दबे दिखाई पड़ते होतुम्हारे दिखावे के कारण। तुम हल्के हो जाओ, अगर तुम दिखावे को उतारकर रख दो और तुम स्वीकार कर लो कि जीवन के सामने तुम असमर्थ हो। प्रेम घटा था, अब नहीं है। फिर घटेगा ठीक। नहीं घटेगा तुम्हारे हाथ में नहीं है। यह प्रेम कोई बिजली का स्विच नहीं है कि तुम दबाओ आ जाए; तुम दबाओ बुझ जाए।
यह प्रेम तुमसे बड़ा है। और तुमसे बड़ा जो भी है, उसे तुम नहीं बुला सकते। इसलिए परमात्मा को बुलाने का तो कोई भी उपाय नहीं है। तुम सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हो। प्रतीक्षा ही एकमात्र प्रार्थना है। तुम बैठ कर धैर्य रख सकते हो कि जब उसे आना होगा, तब वह आ जाएगा।
नहीं, कोई ऐंचातान नहीं की जा सकती। सहज मिलै सो दूध सम, मांगा मिलै सो पानि। कह कबीर वह रक्त सम, जामें ऐंचातानि।
सहज मिलै सो दूध सम... । जो सहज मिल जाए, वही तुम्हें पुष्ट करेगा इसलिए दूध। जो सहज मिल जाए, वहीं तुम्हें भरेगा इसलिए दूध। जो सहज मिल जाएउससे ही तुम शक्तिशाली होओगे इसलिए दूध। जो सहज मिल जाए, वही तुम्हारा जीवन बनेगाइसलिए दूध।
मांगा मिलै सो पानि...  और जो मांग के मिलेमांग करनी पड़े, वह तुम्हें पुष्ट नहीं करेगा; वह तुम्हारे जीवन का भोजन नहीं बनेगा; वह तुम्हें जीवन नहीं देगा; वह सिर्फ धोखा होगा। पीओगे तुम पानी और समझोगे कि तुम दूध पी रहे हो। और वह धोखा खतरनाक है।
कह कबीर वह रक्त सम, जामें ऐंचातानि। और जो छीन-झपटकर मिले, वह तो रक्त हो गया; वह तो पीने योग्य भी न रहा; वह पानी भी न रहा। और ये तीन ही दशाएं हैं।
क्या परमात्मा से तुम ऐंचातान करके जीवन के सत्य को पा लेना चाहते हो? जैसा कि हठयोगी कर रहे हैं। वह ऐंचातान है। कबीर उसको ऐंचातान कहते हैं वह जो हठयोगी कर रहे हैं कांटे पर लेटे हैं, धूप में खड़े हैं, वर्षों से सोए नहीं हैं। वे जबरदस्ती कर रहे हैं। वे छीन-झपट कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैंः तुझे देना ही पड़ेगा।
 वह ऐसे ही है, जैसे तुम्हारे दरवाजे पर कोई आदमी खड़ा है, और वह कहता हैः हम हटेंगे न, धूप में खड़े रहेंगे, भूखे खड़े रहेंगेदेना ही पड़ेगा। तुम घर के भीतर भी चले जाओ, तो भी ऐंचातान मालूम पड़ती है कि वह आदमी खड़ा है। वह चिल्ला रहा है, वह रो रहा है, वह छाती पीट रहा है। तुम खाना भी नहीं खा सकते, विश्राम भी नहीं कर सकते। वह दरवाजे पर खड़ा ही है। उससे जब तक छुटकारा न हो, तब तक तुम शांति से नहीं जी सकते।
हठयोगी परमात्मा के दरवाजे पर यही कह रहा है। वह कह रहा हैः हम इतना उपद्रव मचाएंगे... ।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन मसजिद जा रहा था और एक भिखारी ने उससे कहाः नसरुद्दीन, मैं बड़ी तकलीफ में हूं। ऐसे मैं भिखारी हूं, मगर अब क्या करूं! लड़की बड़ी हो गई है, उसकी शादी करनी है। तीस दीनार भी मिल जाएं, तो मेरा काम हो जाए। कोई बड़ी भारी शादी भी नहीं करनी है, लेकिन इतना तो लग जाएगा। भिखारी के ही लड़के से करनी है; लेकिन फिर भी थोड़ा बैंड-बाजा वह तो करना ही पड़ेगा। और मुझे तो एक पैसे से ज्यादा कोई कभी देता नहीं है। बड़ी मुश्किल है। लड़की जवान हो गई, वह कब तक रुकेगी? और जो मिलता है, वह तो खाने-पीने में खर्च हो जाता है, जुड़ नहीं पाता है। कुछ करो। नसरुद्दीन ने कहाः तू ठहर यहीं।
और नसरुद्दीन ने मसजिद के सामने जोर-जोर से चिल्लाना-चीखना और लोटना शुरू कर दिया। तो मसजिद में जो भी लोग आए थेनमाज पढ़ने, वे सब परेशान हुए। और उन्होंने कहाः भई, यह क्या उपद्रव मचा रखा है! तुम प्रार्थना करने दोगे कि नही? नसरुद्दीन ने कहाः तीस दीनार जब तक न मिल जाएं... । और वह चिल्लाता ही रहा, चीखता ही रहा। आखिर मौलवी ने कहाः भई, इतने लोग हैंतीन सौ आदमी के करीब आए हैं, थोड़ा-थोड़ा भी पैसा दोगे, तो झंझट मिटेइस आदमी से। और यह छोड़ने वाला नहीं है। और अगर यह रोज आने लगा और अगर इसकी आदत हो गई और इसे और रस आने लगा, तो हम बहुत झंझट में पड़ जाएंगे।
तीस दीनार नसरुद्दीन को मिले। उसने उन्हें भिखारी को दिए और भिखारी से कहाः यह हठयोग है। ये लोग सहज माननेवाले नहीं है। ऐंचातान!
 परमात्मा के दरवाजे पर कुछ लोग हठयोग कर रहे हैं। कबीर उनके बड़े विरोध में हैं। मिल भी जाएगारक्त सम। न; उसमें मजा ही खो गया। जो इतने उपद्रव से मिला, उसमें कोई अर्थ ही न रहा। परमात्मा भी मिल जाएगा, तो जीवन में नृत्य न आएगा। वह आ भी जाएगा, तो भी समाधि न आएगी। वह मरा मराया होगा। वह जबरदस्ती, खींचातान की गई है। वह ऐसा ही होगा, जैसे गर्भपात हो जाए।
संन्यासी के जीवन में, साधक के जीवन में भी परमात्मा का गर्भपात हो सकता है। वह ऐंचातान होगी, वह जबरदस्ती होगी। मरी हुई लाश पैदा होगी। देखने को लगेगा कि बच्चा पैदा हुआ है, लेकिन वह मरा हुआ पैदा होगा।
फिर दूसरे वे लोग हैं, जो मांग रहे हैं। प्रार्थना कर रहे हैं, पूजा कर रहे हैं। यह दा, वह दो। वे हठयोगी नहीं हैंन कांटों पर सो रहे हैं, न लोट-पोट कर रहे हैं, न शीर्षासन कर रहे हैं, उलटे-सीधे काम भी नहीं कर रहे हैं; लेकिन मांग लगाए हुए हैं। मंदिर उनका मांग-गृह है, जहां जाकर वे अपनी सब मांगे पेश कर देते हैं। लिस्ट उनके मन में तैयार है!
प्रार्थना तो सिर्फ स्तुति है, खुशामद है; वह ब्राइबरी है; वह तो तरकीब है। जिस तरकीब को संसार में उन्होंने सीखा है, उसी तरकीब का उपयोग वे परमात्मा के लिए कर रहे हैं। वे कह रहे हैंः तू परम है। तू महान है। तू पतित-पावन है, हम पापी हैं। जैसे कि उस पर वे बड़ी कृपा कर रहे हैं! कि जैसे आपका बड़ा अनुग्रह है कि आप पापी हैं! और अब यह उसका कर्तव्य है कि आप पर कृपा करे। और नहीं तो फिर राम, रहीम नहीं; फिर वह रहमान नहीं, फिर वह महा करुणावान नहीं, फिर वह दो कौड़ी का है। आप एक मौका दे रहे हैं उसका ेसिद्ध करने का कि तू रहीम है, रहमान है, करुणावान है, तू दयालू है सिद्ध कर। यह हम पाप करके आ गए हैं, अब तू दया करके सिद्ध कर। यह एक मांगने वाला है; भिखारी है।
तुम्हारी प्रार्थना भिखारी की प्रार्थना न हो। क्योंकि मिल भी जाएगा, तो वह पानी होगा; वह तुम्हें पुष्ट न करेगा; क्षुद्र ही होगा। भिखारी मांग भी क्षुद्र ही करता है।
मांगोगे भी क्या तुम? तुम्हारी क्षुद्रता से ही तुम्हारी मांग आएगी। कोई धन मांगेगा। कोई मकान मांगेगा। कोई बेटा मांगेगा। कोई अदालत में मुकदमा जीत जाऊंयह मांगेगा। तुम मांगोगे क्या? और यह मिल भी जाएगा, तो इससे क्या जीवन पुष्ट होने वाला है? तुम प्रार्थना को भी दो कौड़ी में बेच दोगे।
कहा जाता है कि जीसस को जुदास ने तीस रुपए में बेचा। बड़ी कठिन बात है। क्योंकि ज्यादा पैसे मिल सकते थे! जीसस जैसे आदमी को बेचना और तीस रुपये? सस्ते में बेच दिया।
सदा से ईसाइयत के सामने सवाल रहा है कि यह बात सच है कि कपोल-कल्पित है। क्योंकि जीसस के तो बहुत पैसे मिल सकते थे!
एक ईसाई साधक मुझसे मिलने आया था और उसने कहा कि यह बात समझ में नहीं आती कि जुदास वर्षों तक जीसस के पास रहाउनके अनुयायियों में एक खास अनुयायी था। और सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा था। बाकी जितने ग्यारह और उनके विशेष अनुयायी थे, सब बेपढ़े-लिखे गंवार थे। जुदास ही उनमें सबसे ज्यादा पंडित और कुशल था। और इस आदमी ने सिर्फ तीस रुपए में बेच दिया तीस चांदी के टुकड़े?
 तो मैंने उनको कहा कि यह हम रोज ही कर रहे हैं। वह कहानी तो केवल प्रतीक है। जिस प्रार्थना से परमात्मा मिल सकता है, उसको हम तीस रुपये में बेच रहे हैं!
मांगनेवाला ज्यादा मांग ही क्या सकता है? उसकी बुद्धि कितनी है? मांग ही क्षुद्रता से उठती है। और फिर जुदास पंडित था। और पंडित से बुद्धू आदमी धर्म के जगत में खोजना मुश्किल है। क्योंकि वह शब्दों से जी रहा है। वह समझ ही नहीं पाता। उसने तो यही सोचा होगा कि तीस रुपये भी मिले, तो काफी मिले। कौन देता है आजकल आदमी के तीस रुपये! हम भी वही कर रहे हैं।
जो आदमी मांगता हुआ खड़ा है परमात्मा के द्वार पर, वह पानी पा लेगा; जहां से दूध मिल सकता था, वहां से वह पानी लेकर लौट आएगा। उसने खुद ही खो दिया अवसर। सहज मिलै सो दूध सम, मांगा मिलै सो पानि। वह कबीर वह रक्त सम, जामें ऐंचातानि।
और ये तीन ही तरह के लोग हैंउस द्वार पर; एकजो मांगता नहीं है, जिससे परमात्मा ही पूछता हैजो प्रतीक्षा करता है। और एकजो मांगता है। वह क्षुद्र को मांग लेता है। जल्दबाजी कर लेता है। और एकजो उपद्रव मचाता है, अराजकता खड़ी करता है, जो खींचतान करता है।
बस, ये तीन तरह के लोग हैं। तुम इसमें पहले तरह के आदमी बनना। तुम मांगना मत अन्यथा तुम क्षुद्र लेकर वापस लौट आओगे। तुम तीस रुपयों में बेच दोगे जीसस को। जिस प्रार्थना से परमात्मा मिलता है, तुम किसी दफ्तर मेंउसी प्रार्थना से क्लर्क हो जाओगे। जिस परमात्मा से आत्मा भर जाती है, तुम अपने पेट को भर लोगेजो कि फिर खाली हो जाएगा।
बेचना मत; मांगना मत और उपद्रव मत मचाना। क्योंकि तुम्हारे उपद्रव से तुम पर अगर दया भी हो, तो वह दया विषाक्त हो जाती है तुम्हारे उपद्रव के कारण।
जब कोई रास्ते पर भिखारी तुम्हें पकड़ लेता है और उपद्रव मचाने लगता है, तो तुम दो पैसे दे देते हो। लेकिन तुम्हारे भीतर क्या दशा होती है? तुम क्रोध से देते हो, तुम नाराजगी से देते हो, तुम सिर्फ छुटकारा पाने के लिए देते हो।
तुम परमात्मा के सामने ऐसी स्थिति मत कर देना कि वह तुमसे छुटकारा पाना चाहे।
तुम सहज को साधना। और सहज की साधना बड़ी सीधी और साफ हैकि तुम द्रष्टा बनना, साक्षी-भाव को जगाना; तब तुम्हें दूध मिलेगा, तब तुम्हारे जीवन में अमृत की वर्षा होगी।
कहीं जाने की जरूरत नहीं है। कुछ करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ एक होने का शांत ढंग पकड़ना है; एक होने का ढंग जिसमें प्रतीक्षा है, धैर्य है; एक होने का ढंगजो प्रार्थनापूर्ण, प्रेमपूर्ण है; एक होने का ढंग जिसका केंद्र दृष्टि है, देखना है, अवेयरनेस है।
तुम कुछ भी करना, बिना देखे मत करना। बस, इतना ही सहज-योग है। तुम देखते हुए करना। देखना सधता जाए। क्रोध करना तो भी देखते हुए करना कि मैं क्रोध कर रहा हूं। जरूरत नहीं है कि तुम क्रोध मत करना; क्योंकि उसमें ऐंचातानि कर लोगे तुम। उलटा-सीधा हो जाएगा। क्रोध आ रहा है, तो करना। वह आता है, तो तुम क्या करोगे!
आकाश में बादल आते हैं, बिजली कड़कती है; क्या करेगा आकाश। तुम क्या करोगे क्रोध आता है, तो करना; फल भोगना। लेकिन देखते हुए करना। बिना देखे मत करना।
देखना कि क्रोध उठ रहा है। देखना कि क्रोध पकड़ रहा है। देखना कि क्रोध बेहोश कर रहा है। देखते जाना। आखिरी एक दो तीन... अनेस्थीसिया दिया जा रहा है। तुम गिनती करते जाना भीतर कि कब सात पर तुम खो जाते हो। अगर तुम बिल्कुल न खोओ क्रोध आए, चला जाए और तुम्हारी गिनती भीतर जारी रहे, तो तुम समझना कि सहज-योग का तुम्हें सूत्र हाथ में आ गया।
अब वासना पकड़े फिक्र न करना। तुम क्या करोगे? तुम वासना को पकड़ने नहीं गए। वासना आती है, तुम क्या करोगे? तुम भीतर द्रष्टा बने रहना। भोग से गुजरना, लेकिन देखते हुए गुजरना। जल्दी ही तुम पाओगेजो कबीर कहते हैंः सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम। सब चला जाता है देखते-देखते-देखते; सिर्फ द्रष्टा रह जाता है; एक बचता है।
और जिस दिन एक बच गया साहब मिल गया। साहब मिल गया कहना ठीक नहीं, तुम साहब हो गए। इसलिए कबीर कहते हैंः एकमेक ह्वै मिली रह्या, दास कबीरा नाम। और जो मिला है, उसका नाम कबीरदास है; वह तुम्हीं हो।
जो मिलेगा, वह कोई और नहीं है। जब एक बचेगा, वह तुम्हीं बचे। तब तुम्हीं इन वृक्षों में हरे हो; तुम्हीं इन पक्षियों में उड़े हो; तुम्हीं इन चांद-तारों में चले हो। तो तब तुम्हीं हो। तब तुम्हीं सब तरफ सांस ले रहे हो। सब तुम्हीं हो। उस दिन एक ही बचता है तुम्हीं बचते हो। दास कबीरा नाम।
तुम सहज को सहज के सूत्र को धीरे-धीरे पकड़ना।
आकर्षण बड़ा होगा कि हठयोग पकड़ लो। क्योंकि उसमें अहंकार को बचने की बड़ी सुविधा है। हठयोगी और निर-अहंकारी तुम न पा सकोगे। जितना हठयोग सधेगा, जितनी शक्ति आएगी, सिद्धि आएगी, ऋद्धि आएगी, उतना ही अहंकार बढ़ता जाएगा।
सरल लगता हैमांग लेना। अन्यथा दुनिया में इतने भिखारी क्यों हों! और जितने भिखारी दिखते हैं, उतने नहीं हैं, बाकि जो दिखते नहीं हैं, वे भी भिखारी हैं। ढंग अलग-अलग हैं, पर सब मांगने वाले हैं; क्योंकि जब तक मांग है, तब तक तुम मांगने वाले हो।
जब तक तुम्हारे भीतर आकांक्षा हैः यह मिल जाए, वह मिल जाएढंग अलग-अलग हैं मांगने केः कोई दुकान करके मांग रहा है, कोई प्रार्थना करके मांग रहा है, कोई सड़क पर उपद्रव करके मांग रहा है। लेकिन लोग मांग रहे हैं। सिर्फ जब मांग खो जाती है, तभी तुम्हारे भिखारी का अंत होता है।
न तो तुम अहंकारी बनना ऐंचातान करके। मत बदल देना जीवन की पुष्टता को रक्त में कि वह पीने योग्य भी न रह जाए। न तुम भीख मांगना; क्योंकि उस पर परम सम्राट से मिलना हो, तो सम्राट जैसा ही होना चाहिए।
उससे भिखारी होकर मिलने का क्या रस! उपाय ही नहीं है। उसके दरवाजे पर तुम भिखमंगे की तरह जाओगे, तो तुम स्वीकार न किए जाओगे। उसके दरवाजे पर तुम्हारा सम्राट की तरह जाना ही ठीक होगा। सम्राट ही सम्राट से मिल सकता है; समान ही समान से मिल सकता है।
सहज-योग सम्राट होने की कला है। तुम न खोजने जाते; न तुम चिल्लाते, न तुम पुकारते। जिंदगी ने दिया है, तुम उसी को देखते चले जाते हो। धीरे-धीरे जीवन की नदी का कचरा बैठ जाता है। चेतना शुद्ध हो जाती है। स्वभाव बचता है; विभाव खो जाता है। एक बच रहता है। वह एक तुम ही हो।

आज इतना ही।  

समाप्त 

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