प्रवचन-सातवां
संबंधों का रहस्य
( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)
पहला प्रश्नः
ओशो! अपने जीवन साथियों जैसे पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका के बारे में कब तक हमें धैर्य के संग उसका साथ निभाते हुए, संबंध में दृढ़ता से बने रहना चाहिए और कब हमें उस संबंध को निराश अथवा विध्वंसात्मक मानकर छोड़ देना चाहिए? क्या हमारे संबंध हमारे पिछले जन्मों से भी प्रभावित होते हैं?संबंध अनेक रहस्यों में से एक हैं और क्योंकि वे दो व्यक्तियों के मध्य होते हैं, इसलिए वह दोनों पर निर्भर करते हैं। जब भी दो व्यक्ति मिलते हैं, एक नया संसार सृजित होता है। केवल उनके मिलन के द्वारा ही एक नवीन तथ्य सृजित हो जाता है, जो पहले वहां नहीं था, जो कभी भी अस्तित्व में नहीं था। और इस नई घटना के द्वारा दोनों व्यक्ति बदलकर, रूपांतरित हो जाते हैं।
किसी से संबंधित न होने पर तुम एक भिन्न व्यक्तित्व होते हो और किसी से संबंधित हो जाने पर तुम अचानक ही कुछ और हो जाते हो, जैसे कुछ नयापन घटित होता है। एक स्त्री जब प्रेमिका बनती है तो वह वही पहले वाली स्त्री नहीं रह जाती है।
एक पुरुष, जब एक पिता बनता है, तो वह पहले जैसा पुरूष नहीं रहता है। एक बच्चा जब जन्म लेता है, तब हम एक महत्त्वपूर्ण बिंदु को बिल्कुल भूल जाते हैं कि जिस क्षण बच्चा जन्म लेता है उसी क्षण में एक मां का भी तो जन्म होता है। वह पहले केवल एक साधारण स्त्री थी, लेकिन वह मां कभी भी नहीं थी। मां बनते ही वह स्त्री पूर्णतः बदल जाती है, वह पूरी तरह से एक नई स्त्री होती है।
संबंध तुम्हारे द्वारा सृजित होते हैं परंतु बाद में, उन्हीं संबंधों के द्वारा तुम्हारा सृजन होता है। दो व्यक्ति मिलते हैं, इसका अर्थ है कि दो संसार मिलते हैं। यह कोई सरल चीज़ नहीं है, बल्कि बहुत ही जटिल, यहां तक कि अत्याधिक जटिल चीज़ है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में एक अवर्णित संसार होता है, उसके पास एक लंबे अतीत और एक शाश्वत भविष्य का जटिल रहस्य होता है।
प्रारंभ में केवल परिधियां अथवा बाह्य भाग ही मिलते हैं, लेकिन यदि कोई संबंध आत्मीयता में विकसित हो, उसमें निकटता घनिष्ठ हो जाए, वह संबंध गहरा होने लगे तो धीरे-धीरे उनके केंद्र भी मिलना शुरू हो जाते हैं। जब केंद्र मिलते हैं तो उसे प्रेम कहा जाता है। जब परिधियां मिलती हैं तो वह जान-पहचान होती है। जब तुम केवल बाहर से, औपचारिक रूप से, केवल बाहरी सीमा से किसी व्यक्ति के साथ परिचित होते हो, तब वह जान-पहचान होती है। कई बार तुम इसी जान-पहचान को प्रेम कहने लग जाते हो। तब तुम एक भ्रम में हो। बाहरी जान-पहचान, प्रेम नहीं है।
प्रेम बहुत दुर्लभ है। एक व्यक्ति से उसके केंद्र पर पंहुचकर मिलना, स्वयं को एक क्रांति से गुज़ारने जैसा है, क्योंकि यदि तुम एक व्यक्ति को उसके केंद्र पर मिलना चाहते हो, तो तुम्हें भी उस व्यक्ति को अपने केंद्र तक पहुंचने की अनुमति देनी होगी। तुम्हें आघात सहने योग्य बनना होगा, तुम्हें अति संवेदनशील होना होगा, तुम्हें उसके लिए पूर्ण रूप से खुले रहना होगा। यह जोखिम उठाने जैसा है। किसी व्यक्ति को अपने केंद्र तक पहुंचने की अनुमति देना बहुत खतरनाक है, यह खतरा मोल लेने जैसा है, क्योंकि तुम यह भी नहीं जानते हो कि वह व्यक्ति तुम्हारे साथ क्या करेगा? और यदि एक बार तुम्हारे सभी गुप्त रहस्य जान लिए जाएं, एक बार तुम्हारा छुपा हुआ व्यक्तित्व अनावृत हो जाए, यदि एक बार तुम पूरी तरह अनाश्रित कर दिए जाओ तो तुम नहीं जानते कि अब दूसरा व्यक्ति तुम्हारे साथ क्या व्यवहार करेगा? वहां एक भय बना रहता है और इसी कारण हम कभी भी किसी के साथ पूर्ण रूप से नहीं खुलते हैं।
केवल एक ऊपरी जान-पहचान हो गई और हम सोचते हैं कि प्रेम घटित हो गया। केवल परिधियां मिलती हैं और हम सोचते हैं कि हमारा मिलन हो गया। तुम केवल अपनी परिधि मात्र ही नहीं हो। वास्तव में परिधि तो तुम्हारा वह घेरा है, जहां तुम्हारा अंत होता है। परिधि तो केवल तुम्हारे चारों ओर की घेराबंदी है, वह बाड़ा है। वह तुम नहीं हो। परिधि वह स्थान है जहां तुम्हारा अंत होता है और संसार शुरू होता है। यहां तक कि अनेक वर्षों तक एक साथ रहने वाले पति-पत्नी के मध्य भी केवल जान-पहचान ही हो सकती है। हो सकता है कि वे केंद्र के तल पर एक-दूसरे को न जानते हों। तुम किसी व्यक्ति के साथ जितना अधिक रहते हो, तुम उतना ही यह भूल जाते हो कि तुम्हारे केंद्र एक-दूसरे से अनजाने हैं।
इसलिए समझ लेने जैसी पहली बात यह है कि जान-पहचान को प्रेम की भांति मत लो। हो सकता है कि तुम आपस में प्रेम कर रहे हो, हो सकता है तुम्हारे बीच शारीरिक संबंध भी हों, लेकिन सेक्स भी केवल परिधि पर है। जब तक केंद्रों का मिलन नहीं होता, तब तक सेक्स भी केवल दो शरीरों का ही मिलन है। और दो शरीरों का मिलन तुम्हारा वास्तविक मिलन नहीं है। सेक्स भी मात्र एक भौतिक और शारीरिक जान-पहचान ही है। तुम किसी व्यक्ति को अपने केंद्र में प्रवेश करने की केवल तभी अनुमति दे सकते हो, जब तुम्हें कोई डर न हो, जब तुम भयभीत न हो।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि दो तरह के संबंध होते हैं। एक भयोन्मुख और दूसरा प्रेमोन्मुख। भयोन्मुखी जीवन शैली, कभी भी तुम्हें किसी गहन संबंध में नहीं ले जा सकती है। तुम सदा भयभीत बने रहोगे और तुम्हारा भय दूसरे को केंद्र तक पंहुचने की अनुमति नहीं दे पाएगा। तुम दूसरे को अपने गहनतम और प्रामाणिक केंद्र में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दे सकोगे। तुम किसी एक विशिष्ट सीमा तक ही दूसरे को प्रवेश करने की अनुमति देते हो और उसके बाद दीवार आ जाती है... सब कुछ वहीं रूक जाता है।
प्रेम की ओर उन्मुख व्यक्ति धार्मिक व्यक्ति होता है। प्रेमोन्मुख व्यक्ति का अर्थ है कि जो भविष्य के प्रति भयभीत नहीं है, जो प्रभाव और परिणाम के बारे में न डरते हुए यहीं और अभी में जीता हो।
यही बात भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं : ‘परिणाम की चिंता मत करो’। मत सोचो कि कल क्या परिणाम होगा? केवल यहीं बने रहो और अभी इस क्षण में समग्रता से अपना कर्म करो। जोड़-तोड़ मत करो। भयोन्मुखी व्यक्ति हमेशा गणना, जोड़-तोड़, हिसाब-किताब कर रहा है, वह योजना बना रहा है, वह सुरक्षित होने की पूरी व्यवस्था कर रहा है। इस तरह से उसका पूरा जीवन नष्ट हो जाता है।
मैंने एक वृद्ध झेन फकीर के बारे में सुना है। वह मृत्यु शैया पर पड़ा हुआ था। उसकी अंतिम श्वासें चल रही थीं। उसने घोषणा कर दी थी कि शाम तक वह नहीं रहेगा। इसलिए उसके शिष्यों, मित्रों, प्रेमियों और कई चाहने वालों का आना-जाना शुरू हो गया। दूर-दूर से अनेक लोग एकत्रित हो गए।
उसके पुराने शिष्यों में से एक ने जब यह सुना कि सदगुरु की मृत्यु होने जा रही है, तो वह बाजार की ओर दौड़ा। किसी ने उससे पूछा : ‘सदगुरु तो अपनी झोपड़ी में हैं, फिर तुम बाजार क्यों जा रहे हो’
उस शिष्य ने उत्तर दिया- ‘मेरे सदगुरु एक विशेष तरह के केक को बहुत पसंद करते हैं, इसलिए मैं वही केक खरीदने जा रहा हूं।’
उस केक को खोज पाना बहुत कठिन था, क्योंकि अब वह चलन से बाहर हो गया था, कहीं भी आसानी से मिलता नहीं था। लेकिन किसी प्रकार उसने शाम तक उस केक की व्यवस्था कर ली। वह केक लेकर दौड़ता हुआ आया। प्रत्येक व्यक्ति चिंतित था, ऐसा लग रहा था जैसे मानो सदगुरु किसी व्यक्ति के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वे अपनी आंखें खोलकर देखते थे और फिर आंखें बंद कर लेते थे। जब उनका यह शिष्य आया तो उन्होंने कहा : ‘तो तू आ ही गया। केक कहां है’
शिष्य ने केक प्रस्तुत कर दिया और वह बहुत प्रसन्न था कि सदगुरु ने केक के लिए पूछा। मरते हुए सदगुरु ने केक अपने हाथों में लिया, लेकिन उनके हाथ बिल्कुल भी नहीं कांप रहे थे। वे बहुत वृद्ध थे, लेकिन फिर भी उनका हाथ नहीं कांप रहा था। इसलिए किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा : ‘आप इतने अधिक वृद्ध हैं और मृत्यु की कगार पर खड़े हैं। आपकी आखिरी सांस बस छूटने ही वाली है, लेकिन आपका हाथ नहीं कांप रहा है’
सदगुरु ने कहा : ‘क्योंकि मैं कभी भी नहीं कांपा, चूंकि मुझे कभी कोई भय नहीं रहा। मेरा शरीर बूढ़ा हो गया है, लेकिन मैं अभी भी युवा हूं और मैं तब तक युवा बना रहूंगा, जब तक यह शरीर न मर जाए।’
तब गुरु ने केक का एक टुकड़ा खाना शुरू कर दिया। किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा : ‘प्यारे सदगुरु! आपका अंतिम संदेश क्या है? आप शीघ्र ही हमसे विदा ले लेंगे। आप हमसे क्या चाहते हैं जिसका हम स्मरण रखें।’
सदगुरु मुस्कराए और कहा : ‘ओह! यह केक कितना अधिक स्वादिष्ट है’
यह एक ऐसा व्यक्ति है, जो यहीं और अभी में जीता है : ‘यह केक बहुत स्वादिष्ट है।’ मृत्यु भी उसके लिए असंगत है। अगला क्षण अर्थहीन है। इस क्षण में तो बस... यह केक बहुत अधिक स्वादिष्ट है।
यदि तुम इस क्षण में, वर्तमान क्षण में, उस क्षण की उपस्थिति में प्रचुर समृद्धि के साथ बने रह सकते हो, केवल तभी तुम प्रेम कर सकते हो। प्रेम एक दुर्लभ खिलावट है और वह केवल कभी-कभी ही घटती है। लाखों-करोड़ों लोग इस झूठी दृष्टि के साथ जीते हैं कि वे प्रेमी हैं। वे विश्वास करते हैं कि वे प्रेम करते हैं, लेकिन यह केवल उनका विश्वास है।
प्रेम का होना एक दुर्लभ खिलावट है। यह कभी-कभी ही घटती है। यह दुर्लभ इसलिए है, क्योंकि यह केवल तभी घटित हो सकती है जब कोई भय न हो और पहले भी कभी न रहा हो। इसका अर्थ है कि प्रेम केवल उन्हीं लोगों को घटित हो सकता है, जो बहुत गहराई तक आध्यात्मिक और धार्मिक हों। सेक्स सभी के लिए संभव है, सभी के लिए जान-पहचान भी संभव है, पर प्रेम नहीं।
जब तुम भयभीत नहीं हो, तब वहां छिपाने को कुछ भी नहीं होता है, तब तुम एक खुली किताब की तरह हो सकते हो, तब तुम सभी दीवारों और सीमाओं को हटा सकते हो और ऐसे में तुम दूसरे को अपने भीतर के प्रामाणिक केंद्र तक प्रविष्ट होने के लिए आमंत्रित कर सकते हो। स्मरण रहे : यदि तुम किसी व्यक्ति को अपने गहराई में प्रवेश करने की अनुमति देते हो तो दूसरा व्यक्ति भी तुम्हें स्वयं के अंदर प्रवेश करने की अनुमति देगा, क्योंकि जब तुम किसी व्यक्ति को अपने अंदर प्रवेश करने की अनुमति दे देते हो तो एक आस्था और एक विश्वास निर्मित होता है। जब तुम भयभीत नहीं हो तो दूसरा भी निर्भय हो जाता है।
साधारणतः तुम्हारे प्रेम में, हमेशा भय बना रहता है। पति, पत्नी से भयभीत है और पत्नी पति से भयभीत है। प्रेमी हमेशा भयभीत रहते हैं। तब यह प्रेम नहीं है, यह केवल दो भयभीत व्यक्तियों के मध्य एक व्यवस्था है, जिसमें दोनों ही एक-दूसरे पर आश्रित हैं, इस सुविधाजनक व्यवस्था में वे लड़ रहे हैं, एक-दूसरे का शोषण कर रहे हैं, एक-दूसरे को नियंत्रित कर रहे है, जोड़-तोड़ कर रहे हैं, प्रभुत्व और अधिकार स्थापित कर रहे हैं, लेकिन यह प्रेम नहीं है।
यदि तुम प्रेम को घटित होने की अनुमति दे सकते हो तो प्रार्थना और ध्यान की भी कोई आवश्यकता नहीं है और न ही मंदिर अथवा चर्च जाने की कोई आवश्यकता है। यदि तुम सही मायने में प्रेम कर सको तो तुम परमात्मा को भी पूर्णतः भुला सकते हो, क्योंकि प्रेम के द्वारा तुम्हें वह सब कुछ स्वतः ही घटित होगा- ध्यान, प्रार्थना और परमात्मा सहज ही घटित होंगे। यह सब कुछ तुम्हें मिलेगा ही। जीसस जब कहते हैं कि प्रेम ही परमात्मा है... तो इस कथन से उनका यही आशय है कि प्रेम के द्वारा ही परमात्मा मिलेगा।
लेकिन ऐसा दिव्य प्रेम कर पाना कठिन है। समस्त भय को छोड़ना होगा। यह बड़ी अजीब सी बात है कि तुम अत्याधिक भयभीत हो और तुम्हारे पास खो देने लायक भी कुछ नहीं है।
कबीर ने कहा है : ‘मैं लोगों के अंदर देखता हूं कि वे इतने अधिक भयभीत हैं, लेकिन मैं समझ नहीं पाता हूं कि आखिर क्यों, क्योंकि उनके पास खोने के लिए तो कुछ भी नहीं है।’ कबीर कहते हैं कि लोग उस नग्न व्यक्ति के समान हैं, जो कभी भी नदी में नहाने के लिए नहीं जाता है, क्योंकि वह डरता है कि वह अपने कपड़े कहां सुखाएगा? यही तुम्हारी स्थिति है, तुम नग्न हो, कपड़े हैं ही नहीं, लेकिन फिर भी हमेशा कपड़ों के लिए भयभीत बने रहते हो।
तुम्हारे पास खोने के लिए है क्या? कुछ भी तो नहीं। यह शरीर एक दिन मृत्यु का ग्रास बन जाएगा। इससे पहले कि मृत्यु इस शरीर को ले जाए, इसे प्रेम को समर्पित कर दो। जो कुछ भी तुम्हारे पास है, वह तुमसे ले ही लिया जाएगा। इससे पहले कि वह तुमसे छिन जाए, तुम उसे बांटते क्यों नहीं? तुम्हारा भय केवल परिग्रह करने का एक ढंग है। यदि तुम उसे दे सकते हो, बांट सकते हो तो तुम स्वामी हो जाते हो, मालिक बन जाते हो। एक दिन सब कुछ तुमसे ले लिया जाएगा। ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे तुम सदैव अपने पास रख सको। मृत्यु प्रत्येक चीज़ को नष्ट कर देगी।
इसलिए यदि तुम मुझे ठीक से समझ पा रहे हो तो मृत्यु और प्रेम के बीच में एक संघर्ष है। यदि तुम दे सकते हो तो तब कोई मृत्यु नहीं होगी। इससे पहले कि कोई भी चीज़ तुमसे छीनी जा सके तुम उसे दे देना होगा। तुम्हें उसे एक उपहार बना देना होगा।
तब कोई मृत्यु नहीं हो सकती है। एक प्रेमी के लिए कोई मृत्यु नहीं है। प्रेम न करने वाले के लिए प्रत्येक क्षण ही एक मृत्यु है क्योंकि प्रत्येक क्षण जैसे उससे कुछ छीना जा रहा है। शरीर मिट रहा है, वह प्रत्येक क्षण उसे खो रहा है और तब एक दिन मृत्यु होगी तथा प्रत्येक चीज़ नष्ट हो जाएगी।
भय क्या है? तुम इतने अधिक भयभीत क्यों हो? यदि तुम्हारे संदर्भ में प्रत्येक चीज़ ज्ञात है और तुम एक खुली हुई किताब के समान हो, तो फिर भयभीत क्यों हो? कोई कैसे तुम्हारी हानि कर सकता है? यह सब केवल झूठी धारणाएं हैं, मिथ्या सोच है और समाज के द्वारा दी गई एक कंडीशनिंग हैं, कि तुम्हें स्वयं को छिपाना है, तुम्हें स्वयं अपनी सुरक्षा करनी है और इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारा शत्रु है, प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारा विरोधी है, तुम्हें मानसिक रूप से निरंतर इन शत्रुओं से जूझते रहना है। वास्तव में, कोई भी तुम्हारा विरोधी नहीं है। यहां तक कि जब तुम सोचते हो कि कोई तुम्हारे विरोध में है तो तब भी वह विरोधी नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं के प्रति ही चिंतित है, उसे तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए भयभीत होने लायक कुछ भी नहीं है। संबंध निर्मित करने से पहले यह बात अनुभव कर लेनी होगी। तब फिर कोई भय नहीं रहता है।
इस बात पर ध्यान करो और तब किसी अन्य को अपने अंदर प्रवेश की अनुमति दो, तब ही किसी अन्य को भीतर आमंत्रित करो। कहीं भी कोई अवरोध पैदा मत करो, सदैव एक सुगम और सहज मार्ग की भांति दूसरे को अपने पर से गुज़रने दो, कहीं कोई ताला न हो, यहां तक कि कोई दरवाज़ा न हो, सदैव स्वागत भाव से बांहे फैलाए रहो, तुम तक आने को कोई भी द्वार बंद न हो... केवल तभी प्रेम संभव है।
जब दो केंद्रों का मिलन होता है, तभी प्रेम घटित होता है। प्रेम एक रसायनिक प्रक्रिया के जैसा है, जैसे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिलने पर, रसायनिक क्रिया द्वारा, पानी जैसी एक नई चीज़ निर्मित होती है, वैसा ही प्रेम है। तुम्हारे पास ऑक्सीजन हो सकती है, तुम्हारे पास हाइड्रोजन हो सकती है, लेकिन यदि तुम प्यासे हो तो यह दोनों ही रसायन व्यर्थ हैं। तुम्हारे पास पर्याप्त मात्रा में या जितनी तुम चाहते हो उतनी ही हाइड्रोजन और ऑक्सीजन हो सकती है, परंतु उससे प्यास नहीं बुझेगी।
जब दो केंद्र मिलते हैं तो एक नवीनता का जन्म होता है। वह नवीनता प्रेम है, यह ठीक पानी के समान होता है, उससे अनेक जन्मों की प्यास तृप्त हो जाती है। अचानक तुम संतुष्ट हो जाते हो। यह प्रेम का एक प्रत्यक्ष संकेत है कि तुम संतोष से भर जाते हो, जैसे तुम्हें सबकुछ मिल गया हो और अब प्राप्त करने लायक कुछ भी न बचा हो। जैसे तुम अपने लक्ष्य तक पहुंच गए हो, मंज़िल मिल गई है और अब कोई अन्य लक्ष्य बाकी नहीं है। बीज अंकुरित हो गया है तथा विकसित होकर पुष्प भी बन गया है... जैसे बीज अपनी संपूर्ण और संभव खिलावट तक पंहुच गया है।
गहन संतोष ही प्रेम का दृश्यमान चिन्ह है। जब एक व्यक्ति प्रेम में होता है तो वह गहन संतोष में होता है। प्रेम को देखा नहीं जा सकता है लेकिन उससे उत्पन्न गहन संतोष को अनुभव किया जा सकता है। उस व्यक्ति के चारों ओर, उसकी प्रत्येक श्वास में, उसकी प्रत्येक गतिविधि में और उसके पूरे अस्तित्व में वह संतृप्ति दिखाई देती है।
तुम्हें अत्यंत आश्चर्य होगा, जब मैं कहता हूं कि प्रेम तुम्हें कामना मुक्त बनाता है। कामना के साथ असंतोष होता है। तुम कामना करते हो क्योंकि तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, तुम कामना करते हो और सोचते हो कि यदि तुमने कुछ पा लिया तो तुम्हें संतोष मिलेगा। असंतोष से ही कामना उत्पन्न होती है। जब प्रेम होता है और दो केंद्र मिलते हैं तो घुलकर एक-दूसरे में विलय हो जाते हैं और एक नए रासायनिक गुण का जन्म होता है, तभी वहां संतोष होता है। ऐसा लगता है जैसे मानो पूरा अस्तित्व रुक गया है और कोई भी गतिविधि नहीं हो रही है। तब वर्तमान का वह क्षण मात्र ही वहां होता है। तब तुम कह सकते हो- ‘ओह! यह केक बहुत स्वादिष्ट है।’ जो प्रेम में है, उस व्यक्ति के लिए मृत्यु भी कोई अर्थ नहीं रखती है।
इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं कि प्रेम तुम्हें कामना विहीन बनाएगा। निर्भीक बनो, सभी डरों को छोड़ दो और मुक्त हो जाओ। किसी अन्य केंद्र को अनुमति दो कि वह तुम्हारे अंदर के केंद्र से मिल सके और उसके द्वारा तुम्हारा पुनर्जन्म होगा तथा तुम्हारी आत्मा में नए गुण और लक्षण उत्पन्न होंगे। तब यह नए गुण कहते हैं कि यही परमात्मा है। परमात्मा तर्क-वितर्क नहीं है, परमात्मा तो एक पूर्णता है, वह पूर्णता का एक अनुभव है। तुमने अवश्य ही यह निरीक्षण किया होगा कि जब कभी भी तुम असंतुष्ट होते हो तो तुम परमात्मा से इंकार करना चाहते हो। जब कभी तुम असंतुष्ट होते हो तो तुम्हारा पूरा अस्तित्व यह कहना चाहता है कि कोई परमात्मा नहीं है।
यह नास्तिकता, तर्क-वितर्क के कारण नहीं है, यह असंतोष के कारण है। यह और बात है कि तुम अपनी बात को प्रमाण सहित सिद्ध कर सकते हो। तुम यह नहीं कह सकते हो कि तुम अपनी असंतुष्टता के कारण नास्तिक हो। तुम शायद यही कहोगे कि कोई भी परमात्मा नहीं है और मेरे पास उसके प्रमाण हैं। लेकिन यह सत्य नहीं है। यदि तुम पूर्णतः संतुष्ट हो तो अचानक तुम्हारा पूरा अस्तित्व कहता है : ‘हां! परमात्मा है।’ अचानक तुम उसे अनुभव करने लगते हो। पूरा अस्तित्व दिव्य बन जाता है। यदि वास्तव में प्रेम है तो पहली बार तुम यह अनुभव करोगे कि यह अस्तित्व दिव्य और आलौकिक है और सृष्टि की प्रत्येक चीज़ एक वरदान है। ऐसा अनुभव करने के लिए तुम्हें बहुत कुछ करना होगा। ऐसा घटित हो सके, उससे पहले तुम्हें बहुत कुछ नष्ट करना होगा। तुम्हें वह सभी कुछ नष्ट करना होगा जो तुम्हारे अंदर अवरोध उत्पन्न करता है।
प्रेम को एक साधना बना लो, प्रेम को एक आंतरिक अनुशासन बना लो। प्रेम को बेहूदा, हल्का और असार बनने की अनुमति मत दो। प्रेम को केवल मन के बहलावे की वस्तु मत बनने दो। प्रेम को केवल शारीरिक संतुष्टि का साधन बनने की अनुमति मत दो। प्रेम को एक आंतरिक खोज बनाओ और दूसरे व्यक्ति को एक सहायक अथवा एक मित्र की भांति लो।
यदि तुमने तंत्र के बारे में सुना है तो तुम्हें मालूम होगा, तंत्र कहता है कि यदि तुम एक सहगामी, एक मित्र, एक स्त्री अथवा एक ऐसा पुरुष खोज सको, जो तुम्हारे साथ तुम्हारे आंतरिक केंद्र तक जाने को तैयार हो, जो तुम्हारे साथ संबंध के सर्वोच्च शिखर तक गतिशील होने के लिए तैयार हो, तब यह संबंध ध्यानपूर्ण बन जाएगा। तब इस संबंध के द्वारा तुम परम-संबंध को प्राप्त कर लोगे। तब यह दूसरा व्यक्ति केवल एक द्वार बन जाता है।
मुझे यह बात और स्पष्ट करने दो। यदि तुम एक व्यक्ति से प्रेम करते हो तो धीरे-धीरे उस व्यक्ति की परिधि विलुप्त होती है अर्थात उस व्यक्ति की रूप और आकृति मिटती है। तब तुम उस आकारहीन के, उस अरूप के, घनिष्ठतम संपर्क में आते हो। रूप और आकार धीरे-धीरे धुंधले होते हुए, विलुप्त हो जाते हैं। यदि तुम और अधिक गहराई में जाते हो तो यह अरूप व्यक्तित्व भी पिघलने लगता है, मिटने लगता है, और तब उस पार का झरोखा खुलता है। तब वह विशिष्ट व्यक्ति जो केवल एक द्वार था, एक सुअवसर बन जाता है और अपने प्रेमी के द्वारा तुम उस आलौकिक को खोज लेते हो।
क्योंकि हम प्रेम नहीं कर सकते, इसलिए हमें अनेक धार्मिक कर्म-कांडों और आडम्बरों की आवश्यकता होती है। वे केवल प्रतिस्थापन हैं, विकल्प हैं और वे बहुत ही क्षुद्र विकल्प हैं। मीरा को मंदिर में जाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है, पूरा अस्तित्व ही उसका मंदिर है। वह एक वृक्ष के सामने भी नृत्य कर सकती है और वृक्ष ही उसके लिए कृष्ण बन जाता है। वह एक पक्षी के सामने भी गीत गा सकती है और वह पक्षी ही उसके लिए कृष्ण बन जाता है। वह प्रत्येक स्थान पर, अपने चारों ओर अपने कृष्ण को सृजित कर लेती है। उसका प्रेम ऐसा प्रगाढ़ है कि वह जहां कहीं भी देखती है वहां से ही द्वार खुल जाता है और कृश्ण प्रकट हो जाते हैं। परम प्रेमी कृष्ण प्रकट हो जाता है।
लेकिन इस प्रेम की पहली झलक हमेशा एक व्यक्ति के द्वारा ही आएगी। पूरे ब्रह्माण्ड के साथ, सार्वजनिक रूप से संपर्क साधना बहुत कठिन है। ब्रह्माण्ड इतना अधिक बड़ा है, इतना अधिक विराट है, उसका न आरंभ है और न ही कोई अंत है, वह अगम है। उसके साथ संबंध कहां से प्रारंभ किया जाए? कहां से उसके भीतर गतिशील हुआ जाए! तब एक व्यक्ति ही द्वार है। उस एक के साथ प्रेम में डूबो।
इस प्रेम को संघर्ष मत बनाओ। इसे दूसरे के लिए एक आमंत्रण की भांति बनने दो, उसे एक गहन स्वीकृति का आधार बनने दो। दूसरे को अपने अंदर प्रवेश करने की बेशर्त अनुमति दो और अचानक दूसरा विलुप्त हो जाता है तथा वहां परमात्मा ही बचता है। यदि तुम्हारा प्रेमी अथवा प्रेमिका आलौकिक नहीं बन सकते तो इस संसार में कुछ भी दिव्य अथवा अलौकिक नहीं बन सकता है। तब तुम्हारी सारी धार्मिक बातचीत निरर्थक है, ढोंग है, पाखण्ड है। यह एक बच्चे के साथ भी घट सकता है। यह एक पशु के साथ भी घट सकता है। यदि अपने पालतू कुत्ते के साथ तुम एक गहरा संबंध बना सकते हो तो यह उसके माध्यम से भी हो सकता है, वह कुत्ता भी आलौकिक बन सकता है। अतः यह स्त्री अथवा पुरूष का प्रश्न नहीं है। कोई भी उस दिव्यता के मूल स्रोत तक पंहुचने का मार्ग बन सकता है। यह माध्यम तुम्हें सहजता से, प्राकृतिक ढंग से स्रोत तक पंहुचा देता है। यह कहीं से भी, किसी के द्वारा भी घटित हो सकता है। आधारभूत कुंजी यही है कि तुम्हें दूसरे को अपने भीतर के गहनतम केंद्र तक, तुम्हारे अस्तित्व के मूल आधार तक प्रवेश करने की अनुमति देनी चाहिए।
लेकिन हम स्वयं को धोखा दिए चले जाते हैं। हम सोचते हैं कि हम प्रेम करते हैं और यदि तुम सोचते हो कि तुम भी प्रेम कर पाते हो, तब तो वहां तनिक भी संभावना नहीं है। क्योंकि यदि यह प्रेम है तो प्रत्येक चीज़ समाप्त ही हो जाती है। पुनः नए प्रयास करो। दूसरे व्यक्ति के भीतर छुपी हुई प्रामाणिक आत्मा को खोजने का प्रयास करो। किसी भी व्यक्ति को हल्के में मत लो। प्रत्येक व्यक्ति एक रहस्य है, यदि तुम उसके अंदर गहरे उतरते जाओगे तो पाओगे कि वह अंतहीन है।
लेकिन हम दूसरे व्यक्ति के साथ जल्दी ही ऊब जाते हैं, क्योंकि हम केवल परिधि पर देखते हैं और हमेशा परिधि पर ही घूमते रहते हैं।
मैं एक कहानी पढ़ रहा था...
एक व्यक्ति बहुत बीमार था और उसने सभी तरह के उपचारों और पद्धितयों का प्रयोग कर लिया था। परंतु उन सब से उसे कोई सहायता नहीं मिली। तब वह एक सम्मोहनकर्ता के पास गया और उस सम्मोहनकर्ता ने उसे एक मंत्र दिया तथा उस मंत्र को निरंतर दोहराने का सुझाव भी दिया कि मैं रुग्ण नहीं हूं। उसने कहा कि प्रत्येक सुबह पंद्रह मिनट और प्रत्येक शाम पंद्रह मिनट तक यही दोहराना है कि मैं बीमार नहीं हूं, मैं बिल्कुल स्वस्थ हूं। दिन में भी जब कभी याद आ जाए तो यह दोहराते रहो। कुछ ही दिनों में वह व्यक्ति सच में ठीक होना शुरू हो गया और कुछ सप्ताह में तो वह पूरी तरह से स्वस्थ हो गया। तब उसने अपनी पत्नी से कहा : ‘यह तो चमत्कार हो गया। क्या मुझे उस सम्मोहनकर्ता के पास किसी दूसरे चमत्कार के लिए जाना चाहिए? क्योंकि पिछले कुछ समय से मैं अपने भीतर कामवासना की उत्तेजना का अनुभव नहीं कर रहा हूं और हमारे संबंध लगभग समाप्त हो गए है। कोई इच्छा ही नहीं बची है।’
पत्नी बहुत खुश हुई और उसने कहा : ‘आप अवश्य जाइए’, क्योंकि वह भी बहुत निराशा का अनुभव कर रही थी।
वह व्यक्ति सम्मोहनकर्ता के पास गया। जब वह वहां से वापस लौटा तो उसकी पत्नी ने उससे पूछा : ‘अब उन्होंने कौन सा मंत्र दिया है’ उस व्यक्ति ने कुछ नहीं बताया, लेकिन कुछ ही सप्ताह के अंदर उसकी कामवासना पुनः लौट आई। पत्नी बहुत अधिक उलझन में थी, परेशान थी। वह उस मंत्र को जानने का निरंतर आग्रह करती थी, लेकिन वह व्यक्ति हंसकर टाल देता था। एक दिन सुबह जब वह बाथरूम में पंद्रह मिनट मंत्र का जाप कर रहा था तो पत्नी ने उसे सुनने का प्रयास किया कि वह क्या कह रहा है?
वह कह रहा था- ‘वह मेरी पत्नी नहीं है, वह मेरी पत्नी नहीं है, वह मेरी पत्नी नहीं है।’
हम अपने संबंधों को बहुत हल्के में ले लेते हैं। कोई स्त्री तुम्हारी पत्नी है और बस संबंध समाप्त हो जाता है। कोई व्यक्ति तुम्हारा पति है और बस प्रेम समाप्त हो जाता है। अब वहां कोई रोमांच नहीं है, कोई नयापन नहीं है। अब दूसरा व्यक्ति एक वस्तु बन गया है, वह उपयोग की सामग्री बन जाता है। अब उस दूसरे व्यक्ति में कोई भी रहस्य नहीं है, जिसे खोजा जाए, क्योंकि वह अब तुम्हारे लिए नया नहीं है।
स्मरण रहे, बढ़ती आयु के साथ प्रत्येक चीज़ मृत बन जाती है। परिधि हमेशा पुरानी ही होती है परंतु भीतर का केंद्र हमेशा नूतन रहता है। बाहर की परिधि नूतन नहीं बनी रह सकती, क्योंकि प्रत्येक क्षण वह पुरानी हो रही है, बासी हो रही है, मुरझा रही है। केंद्र हमेशा नूतन और युवा बना रहता है। तुम्हारी आत्मा न तो एक बच्चा है, न ही एक युवा है और न ही वह वृद्ध है। तुम्हारी आत्मा तो पूरी तरह से निर्लेप है, वह शाश्वत है, वह नित-नूतन है। आत्मा की कोई आयु नहीं है। तुम एक प्रयोग कर सकते हो। तुम एक युवा हो और हो सकता है कि तुम वृद्ध हो, केवल अपनी आंखें बंद करो और अपने भीतर खोजने का प्रयास करो कि तुम्हारा अंतरतम, तुम्हारी आत्मा, तुम्हारा केंद्र्र कैसा है? वह वृद्ध है अथवा युवा? तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारा केंद्र इनमें से कुछ भी नहीं है। वह तो हमेशा ही नूतन और ताजा है। वह कभी भी पुराना नहीं होता। क्यों? क्योंकि केंद्र समय में बंधा हुआ नहीं है, वह समय से पार है, समयातीत है।
समय की प्रक्रिया में, समय के बंधन में प्रत्येक चीज़ पुरानी हो जाती है। एक मनुष्य जन्म लेता है और उसी क्षण से पुराना होना शुरू हो जाता है। जब हम कहते हैं कि बच्चा एक सप्ताह का हो गया है तो इसका अर्थ है कि बुढ़ापे का एक सप्ताह बच्चे के अंदर प्रविष्ट कर गया है। बच्चे ने मृत्यु की ओर, अपने पहले सात दिन की यात्रा कर ली है, उसने मृत्यु की प्रक्रिया के सात दिन पूरे कर लिए हैं। वह धीरे-धीरे मृत्यु की ओर गतिशील हो रहा है और एक न एक दिन मर ही जाएगा।
समय की प्रक्रिया में जो कुछ भी आता है, वह पुराना हो जाता है। जैसे ही कोई समय में प्रवेश करता है, वह उसी क्षण से पुराना होना शुरू हो जाता है। तुम्हारा शरीर पुराना है और तुम्हारी बाह्य परिधि भी पुरानी है। तुम इसके साथ शाश्वत रूप से प्रेम में नहीं रह सकते, लेकिन तुम्हारा केंद्र तो हमेशा नूतन है, वह शाश्वत है, चिर-युवा है। एक बार तुम इस केंद्र के साथ संपर्क में आते हो तो प्रत्येक क्षण में प्रेम एक गहरी खोज बन जाता है और तब मधु-यामिनी का, प्रेमालाप का कभी भी अंत नहीं होता है। यदि उसका अंत हो जाता है तो वह किसी भी प्रकार से प्रेम था ही नहीं, वह केवल एक बाहरी जान-पहचान थी।
और अंतिम बात, जो हमेशा याद रखने की है कि प्रेम के संबंध में, यदि कोई चीज़ गलत हो जाती है तो तुम सदैव दूसरे को दोष देते हो। यदि सब कुछ वैसा नहीं चल रहा है जैसा कि चलना चाहिए तो दूसरा ही उसके लिए जिम्मेदार है। यह बात भविष्य के विकास की पूरी संभावना को नष्ट कर देगी। स्मरण रहे- हमेशा तुम ही जिम्मेदार होते हो, तुम स्वयं को बदलो। उन लक्षणों को छोड़ दो, जो समस्या उत्पन्न करते हैं। प्रेम को एक आत्म रूपांतरण बनाओ। जैसा कि कुशल विक्रेता के प्रशिक्षण में सिखाया जाता है कि ग्राहक हमेशा ठीक होता है। वैसे ही मैं तुमसे कहना चाहूंगा कि प्रेम और संबंधों के संसार में भी दूसरा सदा ठीक होता है, तुम ही हमेशा गलत होते हो। और प्रेमी बिल्कुल ऐसा ही अनुभव करते हैं। यदि प्रेम है और चीज़ें ठीक नहीं चल पा रही हैं, जैसा कि उन्हें चलना चाहिए तो वास्तविक प्रेमी हमेशा यही अनुभव करते हैं कि मुझ से कुछ गलत हो रहा है। दोनों ही समान रूप से यह अनुभव करते हैं। तब चीज़ें विकसित होती हैं, तब सीमाएं विलीन होती हैं और केंद्र खुलते हैं।
परंतु यदि तुम सोचते हो कि दूसरा गलत है, तो तुम स्वयं और दूसरे को, दोनों को ही बंद कर रहे हो। दूसरा भी यही सोचता है कि तुम गलत हो। विचार छूत की बीमारी की तरह होते हैं। यदि तुम सोचते हो कि दूसरा गलत है, भले ही तुमने ऐसा कहा नहीं है और यदि तुम मुस्कराते हुए यह प्रदर्शित भी कर रहे हो कि तुम ऐसा नहीं सोचते हो तो भी दूसरा तुम्हारे चेहरे के द्वारा, तुम्हारी मुद्राओं के द्वारा, तुम्हारे हाव-भाव के द्वारा और तुम्हारी आंखों के द्वारा संकेत पा लेता है। यदि तुम एक महान अभिनेता हो और तुमने अथक अभ्यास द्वारा स्वयं को साध लिया है तो भी तुम्हारा अचेतन निरंतर संकेत भेज रहा है कि दूसरा गलत है। जब तुम यह कहते हो कि दूसरा गलत है तो दूसरा भी यह महसूस करने लगता है कि तुम गलत हो।
इस सही-गलत की चट्टान से टकराकर संबंध नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं और तब दोनों लोग अपने द्वार बंद कर लेते हैं। यदि तुम कहते हो कि कोई व्यक्ति गलत है, तो वह अपनी सुरक्षा और बचाव करना शुरू कर देता है। इसी प्रहार और बचाव के संघर्ष में सब समाप्त हो जाता है।
सदा स्मरण रहे, प्रेम में हमेशा तुम ही गलत होते हो और तब यह संभावना बनती है कि दूसरा भी ठीक इसी ढंग से सोचेगा और अनुभव करेगा। दूसरे के अंदर हम ही विचारों और भावों का सृजन करते हैं। जब प्रेमी एक-दूसरे के निकट होते हैं, तो उनके विचार निरंतर बदलते रहते हैं। यदि वे कोई बात नहीं कर रहे हैं और बिल्कुल खामोश हैं, तो भी वे मौन संवाद करते रहते हैं। जो लोग प्रेम में नहीं हैं, जो प्रेमी नहीं हैं, उनके लिए भाषा का उपयोग होता है। प्रेमियों के लिए तो मौन ही पर्याप्त भाषा है। बिना कुछ कहे-सुने भी वे परस्पर संवाद कर लेते हैं।
यदि तुम प्रेम को एक साधना की भांति लेते हो तब कभी यह मत कहो कि दूसरा गलत है। केवल यह खोजने का प्रयास करो कि तुम्हारे भीतर कहीं पर क्या गलत चल रहा है? उस गलत को छोड़ दो। यह बहुत कठिन लगेगा और यह एक मुसीबत बन जाएगी, क्योंकि कुछ तुम्हारे अहंकार के विरूद्ध खड़ा हो रहा है। बहुत कठिनाई मालूम होगी क्योंकि तुम्हारे गौरव को ठेस पंहुचेगी। बहुत खतरा मालूम पड़ेगा क्योंकि तुम प्रभुत्व नहीं जमा पाओगे और अधिकार नहीं रख सकोगे। दूसरों पर अधिकार जमा कर तुम अधिक शक्तिशाली कभी नहीं बन पाओगे। इन सभी कारणों से, वह गलत बात छोड़ना, तुम्हारे लिए कठिन होने जा रहा है क्योंकि उसे छोड़ना यानि तुम्हारे अहंकार का आमूल रूप से नष्ट हो जाना... इसीलिए वह बहुत दुष्कर मालूम होगी।
लेकिन अहंकार का नष्ट होना ही मुख्य बात है, मुख्य प्रयोजन है। तुम जहां कहीं से भी अपने अंतर जगत में प्रवेश करना शुरू करो, चाहे प्रेम से, चाहे ध्यान से, चाहे योग से अथवा प्रार्थना से, तुम कोई भी मार्ग चुनो पर लक्ष्य समान है और वह है : अहंकार को नष्ट करना और अहंकार को दूर फेंक देना।
प्रेम के द्वारा यह बहुत सरलता से किया जा सकता है और यह स्वाभाविक हो जाता है। प्रेम एक नैसर्गिक धर्म है, प्रेम प्राकृतिक है, अन्य कोई भी चीज़ इतनी नैसर्गिक नहीं हो सकती, वह अप्राकृतिक हो जाएगी। यदि तुम प्रेम के द्वारा अपने भीतर कार्य नहीं कर सकते हो तो अन्य किसी भी साधन से तुम्हारे लिए, अपने भीतर उतरना बहुत कठिन होगा।
अपने पिछले जन्मों के बारे में और भविष्य के बारे में बहुत अधिक मत सोचो। वर्तमान ही पर्याप्त है। यह मत सोचो कि संबंध अतीत से आ रहा है। निश्चित ही वह अतीत से आ रहा है, लेकिन उसके बारे में ज्यादा सोचो मत क्योंकि तब तुम और अधिक उलझन में पड़ जाओगे। चीज़ों को सरल और सहज बनाओ।
तुम्हारे पिछले जन्मों की ही श्रंखला आज चल रही है, इसलिए मैं इस तथ्य से इंकार नहीं करता लेकिन उसे एक बोझ मत बनाओ और यही श्रंखला भविष्य में भी जारी रहेगी, लेकिन इसके बारे में ज्यादा सोचो मत। वर्तमान का यह एक क्षण पर्याप्त से भी कहीं ज्यादा है। केवल ‘केक’ को चबाओ और कहो- ‘यह केक बहुत स्वादिष्ट है।’
अतीत के बारे में मत सोचो और न ही भविष्य के बारे में सोचो। वे अपनी परवाह स्वयं करेंगे। सबकुछ जुड़ा हुआ है, कुछ भी अलग नहीं है। तुम अतीत में किन्हीं संबंधों के साथ रहे हो। तुमने प्रेम किया है, तुमने घृणा की है, तुमने मित्र बनाए हैं, तुमने शत्रु बनाए हैं और जाने-अनजाने में यह क्रम निरंतर चलता आ रहा है। ऐसा हमेशा से ही हो रहा है। लेकिन यदि तुम उसके बारे में चिंतन करना शुरू कर दोगे तो तुम वर्तमान क्षण से चूक जाओगे।
इसलिए इस भांति सोचो, जैसे कोई भी अतीत नहीं है और कोई भी भविष्य नहीं है। यह क्षण ही सब कुछ है जो तुम्हें दिया गया है। इस क्षण पर कार्य करो... जैसे यह क्षण ही सब कुछ है। इस तरह व्यवहार करो, जैसे यह क्षण ही जीवन-मृत्यु का प्रश्न है। वर्तमान के इसी वास्तविक क्षण में यह प्रयास करो कि कैसे तुम अपनी ऊर्जा को प्रेमपूर्ण बना सकते हो? कैसे इसी क्षण में इसे रूपांतरित कर सकते हो?
लोग मेरे पास आते हैं और वे अपने पूर्वजन्मों के बारे में जानना चाहते हैं। उनके पूर्वजन्म थे, लेकिन अब वह असंगत है। यह जांच-पड़ताल क्यों? तुम अपने अतीत के बारे में जानकर क्या करोगे? अब कुछ भी नहीं किया जा सकता है? अतीत, अतीत है और उसमें अब बदलाव नहीं हो सकता है। तुम किसी भी कीमत पर पीछे वापस नहीं लौट सकते हो। इसी कारण प्रकृति और इसकी प्रज्ञा तुम्हें पूर्वजन्मों को याद रखने की अनुमति नहीं देती है, अन्यथा तुम पागल हो जाते।
हो सकता है कि तुम एक लड़की के प्रेम में हो और अचानक तुम्हें पता लगता है कि पूर्वजन्म में यह लड़की तुम्हारी मां थी, तो चीज़ें बहुत अधिक जटिल बन जाएंगी। तब करोगे क्या? वह लड़की पूर्वजन्म में तुम्हारी मां रही है और अब उसी के साथ प्रेम करना, तुम्हारे भीतर एक अपराध बोध पैदा होगा। उससे प्रेम न करना या उसे छोड़ देना भी पीड़ादायक होगा, क्योंकि आज तुम उससे प्रेम करते हो।
इसी कारण मैं कहता हूं कि प्रकृति की अपनी प्रज्ञा है कि वह तुम्हें पूर्वजन्म का स्मरण रखने की अनुमति नहीं देती है, जब तक कि तुम उस स्थिति तक, उस बिंदु तक नहीं पंहुच जाते हो जहां उसकी अनुमति दी जा सके। जब तुम इतने अधिक ध्यानपूर्ण हो जाते हो कि तुम्हें कुछ भी परेशान नहीं कर सकता है, तभी वह द्वार खुलते हैं और तुम्हारे सभी पूर्वजन्म तुम्हारे सामने होते हैं। लेकिन यह एक स्वचालित यंत्रवत् प्रक्रिया है। यद्यपि यह यांत्रिक प्रक्रिया कभी कभी ठीक काम नहीं करती है। संयोग से कुछ ऐसे बच्चे जन्म लेते हैं, जो पूर्व जन्म को स्मरण कर सकते हैं, हालांकि उनके वह जीवन नष्ट हो चुके हैं।
कुछ वर्षों पूर्व एक लड़की मेरे पास लाई गई थी। उसे अपने पिछले दो जन्मों का स्मरण था। उस समय वह केवल तेरह वर्ष की थी, लेकिन यदि तुम उसकी आंखों में झांकते तो वे लगभग सत्तर वर्ष की दिखाई देती थी क्योंकि उसे दो पूर्वजन्मों का, लगभग पिछले सत्तर वर्षों का स्मरण था। उसका शरीर तेरह वर्ष का था, लेकिन उसका मन सत्तर वर्ष पुराना था। वह दूसरे बच्चों के साथ नहीं खेल पाती थी क्योंकि एक सत्तर वर्ष की बूढ़ी महिला बच्चों के साथ कैसे खेल सकती थी? वह एक बूढ़ी स्त्री की भांति ही बातचीत और व्यवहार करती थी और उसका मन उन बीते वर्षों की चिंताओं से भारग्रस्त था, बोझिल था। उसे इतने सही ढंग से अपने पूर्वजन्मों का स्मरण था कि उसके अतीत के उन दोनों परिवारों को भी खोजा जा सका। एक परिवार आसाम में था और दूसरा मध्य प्रदेश में। जब वह अपने पुराने परिवारों के संपर्क में आई तो वह उनके प्रति इतनी आसक्त हो उठी कि एक समस्या खड़ी हो गई कि अब उसे कहां रहना चाहिए?
मैंने उसके माता-पिता से कहा : ‘इस लड़की को कम से कम तीन सप्ताह के लिए मेरे पास छोड़ दीजिए। मैं उसे इन पूर्व जन्मों को भुलाने में सहायता करने का प्रयास करूंगा, अन्यथा इस लड़की का जीवन एक विकृति बन जाएगा।’ वह किसी व्यक्ति के साथ प्रेम में नहीं डूब सकती क्योंकि वह मन से बहुत बूढ़ी है। तुम्हारी वृद्धावस्था का संबंध तुम्हारी स्मृति के साथ होता है। यदि स्मृति का फैलाव सत्तर वर्ष का है, तब तुम सत्तर वर्ष के समान अनुभव करोगे। उसके चेहरे और उसकी शक्ल से ऐसा प्रतीत होता था जैसे उसे बहुत यातना दी गई हो। वह अपने केंद्र पर रुग्ण, बेचैन और बहुत असहज प्रतीत होती थी। उसके साथ प्रत्येक चीज़ गलत हो रही लगती थी।
लेकिन उसके माता-पिता उसकी इन बातों का आनंद ले रहे थे, क्योंकि लोगों का उनके पास आना-जाना शुरू हो गया था और समाचारपत्रों ने भी खबर छापना शुरू कर दिया था। वे इस प्रपंच का रस ले रहे थे। वे मेरी बात क्यों सुनते? और मैंने उनसे कहा था-‘यह लड़की पागल हो जाएगी।’
वे लोग फिर उस लड़की को कभी भी मेरे पास लेकर नहीं आए, लेकिन सात वर्षों बाद वे लोग आए और लड़की पागल हो गई थी। उन्होंने कहा : ‘अब आप कुछ कीजिए।’
मैंने कहा : ‘अब कोई भी कार्य करना असंभव है। अब केवल मृत्यु ही उसकी सहायता करेगी।’
तुम याद नहीं रख पाते, क्योंकि उन यादों को व्यवस्थित करना तुम्हारे लिए कठिन होगा। यहां तक कि केवल इस जीवन की यादों के साथ ही तुम इतनी अधिक अव्यवस्था उत्पन्न कर लेते हो तो कई जन्मों को याद रखने से तुम पूरी तरह पागल हो जाओगे। इसलिए इसके बारे में सोचो ही मत। यह बिल्कुल असगंत भी है।
संगत बात यही है कि यहीं और अभी में जियो और अपने ढंग से कार्य करो। यदि तुम किसी संबंध के द्वारा स्वयं पर कार्य कर सकते हो तो यह बहुत सुंदर है, परंतु यदि तुम किसी संबंध के द्वारा रूपांतरण नहीं कर सकते हो तब उसी प्रयास को एकांत में करो। यही दो मार्ग हैं : एक है प्रेम, प्रेम का अर्थ है कि तुम स्वयं पर संबंधों के माध्यम से कार्य कर रहे हो। दूसरा है ध्यान- ध्यान का अर्थ है कि तुम एकांत में स्वयं पर कार्य कर रहे हो। प्रेम और ध्यान ये दो मार्ग हैं। अनुभव करो, महसूस करो कि तुम्हारे लिए कौन-सा अनुकूल होगा? तब अपनी समस्त ऊर्जा को उसमें लगा दो और उसी मार्ग पर आगे बढ़ो।
दूसरा प्रश्नः
ओशो! आपके शब्द अत्याधिक सुंदर हैं और जब आप हमसे बातचीत करते हैं तो लगता है कि इस शाब्दिक चर्चा के पार भी कोई अदृश्य संवाद घट रहा है, हमें उस मौन संवाद के बारे में बताएं कि हम मौन संवाद के लिए पूर्णता एवं समग्रता से कैसे उपलब्ध हो सकते हैं?
मौन सदा ही यहां है। जब मैं तुमसे बात कर रहा हूं तो मैं शरीर के साथ साथ, अस्तित्वगत रूप से भी तुम्हारे लिए उपस्थित हूं। बातचीत करना अर्थात बुद्धि के माध्यम द्वारा तुमसे संबंध जोड़ना और अस्तित्वगत रूप से उपस्थित होना यानि अपनी समग्रता में तुमसे संबंध जोड़ना है। जब तुम मुझे सुन रहे हो, यदि तुम वास्तव में मुझे समग्रता से सुन रहे हो, तब यह केवल शब्दों का सुनना नहीं है। मुझे सुनते हुए तुम्हारा मन रुक जाता है, मुझे सुनते हुए तुम सोच-विचार नहीं कर रहे हो और जब तुम सोच-विचार में नहीं उलझे हो, तब तुम खुले हुए हो, ग्राह्य हो। जब तुम सोच-विचार नहीं कर रहे हो और तुम्हारा मन कार्य नहीं कर रहा है तो तुम भावना के तल पर उतर आते हो, तुम अनुभव की दुनिया में उतर आते हो। तब उस भावमय पराकाष्ठा में मैं तुम पर छा सकता हूं, तुम्हें अभिभूत कर सकता हूं। ऐसे में, मैं तुम्हारे भीतर गतिशील होकर तुम्हें आच्छादित कर सकता हूं, तुम्हें भर सकता हूं। शब्द तो केवल एक युक्ति या एक उपकरण की भांति प्रयुक्त हो रहे हैं। यहां तक कि मैं स्वयं भी शब्दों में अत्याधिक इच्छुक नहीं हूं। परंतु मुझे बोलना होता है, क्योंकि मेरा यह अनुभव रहा है कि जब मैं बोल रहा होता हूं तो तुम मौन हो जाते हो। यदि मैं नहीं बोल रहा हूं तो तुम अपने भीतर ही मन की बातचीत में व्यस्त हो जाते हो और तब तुम मौन नहीं हो। यदि तुम मेरे बोले बिना ही मौन हो सको तो मुझे बोलने की कोई भी आवश्यकता नहीं होगी और मैं उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा हूं जब तुम मेरे निकट, ठीक मेरे पास निर्विचार होकर बैठ सकोगे। तब वहां बातचीत करने की कोई भी आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि बातचीत करना पक्षपातपूर्ण होगा, आंशिक होगा। तब उस मौन में, मैं प्रत्यक्ष रूप से अपनी समग्रता में तुम्हारे भीतर प्रवेश कर सकता हूं और शब्दों के इस माध्यम की कोई भी आवश्यकता नहीं होगी।
लेकिन यदि मैं तुम्हें अपने समीप शांत और मौन होकर बैठने के लिए कहता हूं तो तुम शांत और मौन बैठने में समर्थ नहीं हो पाते हो। तुम मन ही मन, भीतर ही भीतर बातचीत किए चले जाओगे, तुम्हारी व्यर्थ मानसिक बकबक जारी रहेगी। तुम्हारी इसी अंतर वार्ता को रोकने के लिए मुझे तुम्हारे सामने बोलना पड़ता है। जब तक मैं बोलता हूं तुम व्यस्त बने रहते हो। मेरा बोलना ठीक ऐसा ही है जैसे एक बच्चे का ध्यान बंटाने के लिए उसे खिलौना दे दिया जाए। वह खिलौने में मग्न हो जाता है और खेलते हुए खामोश बना रहता है। मैं अपने शब्द तुम्हें खिलौनों की भांति ही देता हूं। तुम उनके साथ खेलते हो और खेलते हुए तुम इतने अधिक तल्लीन हो जाते हो कि तुम सहजता से खामोश हो जाते हो। और जब यह खामोशी घटित होती है, तब उस निर्विचार मौन में, मैं तुम्हारे अंदर प्रवाहित हो सकता हूं।
शब्द सुंदर हो सकते हैं, लेकिन वे कभी भी सत्य नहीं हो सकते हैं। सुंदरता एक सौंदर्यबोधक मूल्य है। तुम किसी सुंदर चित्र की भांति इसका आनंद ले सकते हो, लेकिन उस आनंद से कुछ सार्थक घटित होने वाला नहीं है। जब तक शब्द हैं, वह अच्छे हैं, परंतु वह कभी भी सत्य नहीं होते हैं और अपनी मूलभूत प्रकृति के कारण शब्द कभी सत्य हो भी नहीं सकते। सत्य तो केवल मौन में ही सम्प्रेषित किया जा सकता है। परंतु यह एक विरोधाभास है क्योंकि जिन लोगों ने भी इस बात पर बल दिया है कि सत्य केवल मौन में ही सम्प्रेषित किया जा सकता है, उन सब लोगों ने स्वयं ही शब्दों का खूब प्रयोग किया है। यह एक लज्जापूर्ण बात है, लेकिन इस बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता है। तुम्हें शांत और मौन बनाने के लिए ही शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है। मुझे सुनते हुए तुम मौन हो जाते हो। यह मौन महत्त्वपूर्ण है और यही मौन तुम्हें सत्य की झलक देगा।
यदि मेरे शब्दों के माध्यम से, तुम्हें सत्य की छोटी सी झलक भी मिल जाए, तो यह झलक तुम्हारे निर्विचार मौन से ही आ रही है, वह मेरे शब्दों से नहीं आ रही है। यदि तुम सुनिश्चित होकर, पूर्णता से यह अनुभव करते हो कि जो कुछ भी मैं कह रहा हूं वह सत्य है तो यह पूर्णता और सुनिश्चितता की अनुभूति भी मेरे शब्दों से नहीं बल्कि तुम्हारे मौन से घटित हो रही है। जब कभी भी तुम निर्विचार और मौन होते हो तो सत्य वहां मौजूद होता है। जब भी तुम अपने भीतर, मन की व्यर्थ बकबक में उलझे हो, जब भी तुम्हारा मन एक नटखट बंदर की तरह बड़बड़ा रहा है, तब तुम सत्य से चूक जाते हो, जबकि सत्य हमेशा ही मौजूद है।
मैं जो कुछ भी करता हूं, जो भी बातचीत करता हूं, वह केवल एक सहयोग है कि तुम मेरे साथ ध्यान में उतर सको। मैं तुम्हें रेचने करने के लिए विवश करता हूं अथवा नृत्य और उत्सव मनाने के लिए राजी करता हूं... मैं जो भी करता हूं, उसका केवल एक ही प्रयोजन है कि किसी भी तरह से शांत और मौन होने में तुम्हारी सहायता कर सकूं। क्योंकि जब तुम निर्विचार और मौन होते हो तो तुम्हारे हृदय के द्वार खुलते हैं तुम ग्रहणशील बन जाते हो और उस क्षण में जैसे तुम्हारा मंदिर में प्रवेश हो जाता है। यह प्रासंगिक नहीं है कि तुम कैसे पूर्णतया मौन हो पाते हो? बस तुम मौन होते हो और उसी क्षण मैं तुम्हारे भीतर प्रवेश पा जाता हूं और तुम मेरे भीतर उतर जाते हो। मौन किसी भी सीमा के बंधन को नहीं जानता। मौन में प्रेम घटित होता है। मौन के उस क्षण में, मैं तुम्हारा प्रेमी बन जाता हूं और तुम मेरे लिए प्रेमिका हो जाते हो। जो भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, वह सब मौन के क्षणों में ही घटित होता है। लेकिन इस मौन और इस निर्विचार की स्थिति को निर्मित करना ही एक समस्या है, इसे निर्मित करने में श्रम लगता है।
इसलिए मैं इस बात में कोई रूचि नहीं रखता कि मैं तुमसे क्या कहता हूं। मेरी रूचि केवल इसमें है कि जब मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं... चाहे वह कुछ भी है... क या ख या ग या कुछ भी... उससे तुम्हारे भीतर क्या घटित हो रहा है। कभी-कभी मैं स्वयं अपनी कही गई बातों का ही विरोध करता हूं। आज मैं जो कुछ भी कहता हूं, कल उसी का विरोधी वक्तव्य दे देता हूं क्योंकि मुख्य बात मेरा बोलना नहीं है। मेरा बोलना तो ठीक एक कविता के समान है। मैं एक दार्शनिक नहीं हूं। मैं एक कवि हो सकता हूं, लेकिन मैं एक दार्शनिक नहीं हूं। कल मैं कोई एक बात कहूंगा, परसों मैं कुछ और दूसरी ही बात कहूंगा। प्रयोजन वह नहीं है। मेरी बातों में विरोध हो सकता है, लेकिन मैं स्वयं विरोधाभासी नहीं हूं क्योंकि आज यदि मैं कुछ कहता हूं तो तुम मौन हो जाते हो, कल यदि मैं पूर्ण रूप से उसका विरोधाभासी विचार व्यक्त करता हूं तो भी तुम मौन हो जाते हो और परसों यदि मैं पुनः कोई विरोधाभासी बात कहता हूं तो भी तुम मौन हो जाते हो। इसलिए जो कुछ भी मैंने कहा है, वह सब विरोधाभासी है परंतु उस विरोध में भी तुम मौन बने रहते हो।
तुम्हारे मौन से ही मेरा सामंजस्य है। मैं दृढ़ और स्थिर रहता हूं, मैं निरंतर परिधि पर विरोधाभासी बातें कहता हूं, लेकिन मेरे भीतर का अंतर प्रवाह एक समान बना रहता है।
स्मरण रहे, यदि मैं तुमसे प्रतिदिन एक ही बात कहूं तो तुम मौन नहीं रह पाओगे। तब तुम ऊब जाओगे और तुम्हारे अंदर अपने ही मन की बातचीत शुरू हो जाएगी। यदि मैं लगभग एक समान बातें ही रोज़ करता रहूं तो वह पुरानी हो जाएंगी और जब बातें पुरानी हो जाएंगी तो तुम्हें सुनने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। बिना सुने भी तुम जानते हो कि मैं क्या कहने जा रहा हूं, इसलिए तुम अपनी भीतर की बातचीत को जारी रखोगे। मुझे बात करते हुए, एक मौलिक अविष्कारी भी बने रहना होगा, अपनी बातचीत में नएपन की खोज करनी होगी, कभी-कभी तुम पर आघात भी करना होगा... लेकिन भीतर से एक ही बात पर ध्यान रखना होगा कि तुम्हारे भीतर निर्विचार स्थिति और नितांत मौन सृजित हो सके। क्योंकि इसी मौन में, मैं तुम्हारे साथ और तुम मेरे साथ मौजूद रह सकते हो। इसी परस्पर और गहनतम मौजूदगी में प्रेम और सत्य की खिलावट हो सकती है।
जब भी पूर्ण मौन घटित होता है, तब सत्य की खिलावट होती है।
सत्य मौन की ही एक खिलावट है।
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