तीसरा प्रवचन-सत्य की भूमि
मेरे प्रिय आत्मन्!मैं सोचता था रास्ते में आपसे क्या कहूं और मुझे ख्याल आया कि उन थोड़ी सी बातों के संबंध में आपसे कहना उपयोग का होगा जो मनुष्य को सत्य के पाने के लिए भूमिका बन सकती हैं। और इसलिए मेरी उत्सुकता है कि सत्य को पाने की भूमिका आपकी निर्मित हो, क्योंकि उसके बिना न तो आपको जीवन का कोई आनंद अनुभव होगा, न आपको जीवन मिलेगा, और न आप परिचित हो पाएंगे उस संगीत से जो सारे जगत में, सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है। सत्य को पाए बिना कोई मनुष्य न तो शांति को पा सकता है और न धन्यता को पा सकता है। हमारे भीतर जितनी पीड़ा और जितना दुख है, जितनी परेशानी और जितना असंतोष है, जितना संताप है, उसका एक ही कारण है, उसकी एक ही वजह है और वह यह है कि हमें अपनी सत्ता का, अपने स्वरूप का कोई बोध नहीं है। जिस व्यक्ति को अपनी सत्ता का ही कोई बोध न हो वह अपने जीवन को व्यवस्थित करने में सफल नहीं हो सकता है। और जिसे इस बात का पता न हो कि कौन उसके भीतर है, उसकी सारी दिशाएं भ्रमित हो जाती हैं। उसके सारे रास्ते खो जाते हैं। उसके चलने में कोई अर्थ नहीं रह जाता। और उसके जीवन के अंत में वह किसी मंजिल पर, किसी गंतव्य पर नहीं पहुंच पाता है। इसलिए मैंने ठीक समझा कि कुछ उन बातों के संबंध में आपसे कहूं, जो सत्य को पाने के लिए भूमिका और सीढ़ियां बन सकती हैं।
सबसे पहली बात तो यह कहनी जरूरी है कि हममें से बहुत कम लोग होंगे जो सत्य को पाना चाहते हों। और जो नहीं पाना चाहते उन्हें इस दुनिया में कोई भी सत्य देने में समर्थ नहीं हो सकता है। चाहे आपके करीब से महावीर निकल जाएं, और चाहे आपके पड़ोस में क्राइस्ट और कृष्ण ठहर जाएं तो भी, अगर आपके भीतर प्यास नहीं है तो सत्य आपको उपलब्ध नहीं हो सकता है। अगर मैं एक कुएं पर भी खड़ा हो जाऊं और मुझे प्यास न हो, तो कुएं का पानी मुझे दिखाई नहीं पड़ेगा। पानी उसे दिखाई पड़ता है जिसे प्यास हो। पानी केवल उसे दिखाई पड़ता है जिसे प्यास हो, जिसे प्यास न हो उसे पानी भी दिखाई नहीं पड़ता। और पानी की सार्थकता भी उसे ही ज्ञात होगी जिसके पास प्यास है। और जितनी गहरी प्यास होगी, पानी में उतना ही अर्थ प्रकट हो जाता है।
सत्य के साथ भी यही है। जो जानते हैं उनका अनुभव यह है कि हम सारे लोग सत्य के करीब खड़े हैं। जो जानते हैं उनकी प्रतीति यह है कि हम सारे लोग सत्य के कुएं पर खड़े हैं, लेकिन हममें प्यास नहीं है। और जिसे प्यास नहीं है उसे उपलब्धि नहीं हो सकती। जो हमारी बिल्कुल पीठ के पीछे हो, जो हमारे हाथ के करीब हो, लेकिन अगर प्यास न हो, वह भी हमें दिखाई नहीं पड़ेगा।
सत्य बहुत निकट है, सत्य से ज्यादा निकट और कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन प्यास न हो, तो सत्य सबसे ज्यादा दूर हो जाता है। प्यास न हो, तो सत्य और हमारे बीच इतना बड़ा फासला हो जाता है जिसे पार करना मुश्किल है, और प्यास हो तो कोई फासला नहीं रह जाता। और अगर प्यास पूरी तरह पैदा हो जाए, तो सत्य हाथ बढ़ाते ही उपलब्ध हो जाता है।
एक गांव में जहां कोई हजार लोग रहते थे, एक बहुत बड़े सदगुरु का निकलना हुआ था। उस गांव के एक व्यक्ति ने आकर उनको कहाः आप इतने लोगों को सत्य के संबंध में समझाते हैं, इतने लोगों को मोक्ष के संबंध में बताते हैं, कितने लोगों को मोक्ष उपलब्ध हुआ है? कितने लोगों को सत्य मिला? उस फकीर ने कहाः एक काम करो, कल सुबह तुम आना और फिर हम उत्तर देंगे। वह कल सुबह आया, उस फकीर ने कहाः तुम गांव में जाओ और सारे लोगों से पूछना कि कौन व्यक्ति क्या चाहता है? और एक फेहरिस्त बना कर मेरे पास आ जाना। वह आदमी गांव में गया, हजार लोग वहां रहते थे। उसने सुबह से सांझ तक एक-एक आदमी को मिल कर पूछा कि तुम्हारी आकांक्षा क्या है? और सांझ को वह पूरी फेहरिस्त बना कर आया। उस फकीर ने पूछाः इस फेहरिस्त में कोई आदमी सत्य को भी चाहता है? उसमें एक भी आदमी नहीं था जो सत्य को चाहता हो! धन को चाहने वाले थे, यश को चाहने वाले थे, पुत्र-पुत्रियों को चाहने वाले थे, और सारे चाहने वाले थे, उन हजार लोगों में से एक ने भी नहीं लिखा था कि मैं सत्य को चाहता हूं। तो उस फकीर ने कहाः अगर लोग सत्य को न चाहते हों, तो सत्य उन्हें दिया नहीं जा सकता है। सत्य किसी को भी दिया नहीं जा सकता है। स्मरण रखिए, मैं आपको पानी तो दे सकता हूं, लेकिन प्यास कैसे दूंगा? और पानी अगर दे भी दूं और प्यास न हो तो उस पानी में अर्थ क्या होगा?
दुनिया में बहुत लोगों ने जिन्होंने जाना है, अपनी बात कही है। लेकिन उनकी बात पानी है, आपमें प्यास हो तो उसमें अर्थ होगा, आपमें प्यास न हो तो व्यर्थ हो जाएगी।
सत्य की जिज्ञासा में पहली शर्त हैः प्यास होनी चाहिए। और प्यास का पता कैसे चलेगा? अगर एक मरुस्थल में मुझे छोड़ दिया जाए, सूरज जोर से तपता हो, और पानी कहीं दिखाई न पड़ता हो, और मैं प्यास से तड़फने लगूं, मैं प्यास से इतना व्याकुल हो जाऊं कि कोई आकर मुझसे कहे कि हम पानी तो देते हैं, लेकिन पानी जीवन के मूल्य पर देंगे। हम पानी देंगे लेकिन बाद में जीवन ले लेंगे; तो मैं पानी लेना पसंद करूंगा या जीवन बचाना? मैं पानी ले लूंगा और जीवन खो दूंगा।
प्यास तब पूरी होती है जब हम उसके लिए जीवन भी देने को तैयार हों। तो अकेली प्यास ही काफी नहीं है, इतनी प्यास कि हम उसके लिए सब कुछ देने को तैयार हों, तो सत्य उपलब्ध होता है।
सत्य बहुत सस्ती बात नहीं है। असल में जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह सस्ता नहीं हो सकता। और सत्य, एक अर्थ में किसी भी मूल्य पर नहीं पाया जा सकता है, सिवाय जीवन दिए।
महावीर के समय में बिंबिसार नाम के राजा ने उनसे जाकर कहा था, बिंबिसार ने महावीर को कहा, मैं सत्य को उपलब्ध करना चाहता हूं, और आप जानते हैं, मैंने दूर-दूर तक की यात्राएं की हैं, और दूर-दूर तक मैंने विजय की पताकाएं फहरा दी हैं। जहां तक मुझे ख्याल जाता है, वहां तक मेरा राज्य फैल गया है। तो आप मेरी शक्ति से तो परिचित ही होंगे? अब मैं सत्य भी पाना चाहता हूं। मैंने सुना है अकेली संपत्ति और अकेले राज्य के पा लेने से शांति नहीं मिलती, तो अब मैं सत्य भी पाना चाहता हूं, तो मुझे क्या देना होगा? सत्य पाने के लिए मुझे क्या देना होगा?
महावीर ने कहाः तेरे ही गांव में एक अत्यंत साधारण मनुष्य रहता है, तू उसके पास जा और उस मनुष्य से कहना कि अपना एक ध्यान का जो पुण्य है वह मुझे दे दे, एक ध्यान का पुण्य, एक सामायिक का पुण्य, एक समाधि का पुण्य; और जो मूल्य वह मांगे दे देना।
वह बिंबिसार गया, उस साधारण नागरिक से उसने कहा, जो चाहते हो ले लो, मुझे तुम्हारे एक ध्यान का पुण्य चाहिए। वह बहुत हैरान हुआ, उसने कहा, बड़ी मुश्किल है, मैं अपने प्राण दे सकता हूं, लेकिन अपना ध्यान नहीं दे सकता। इसलिए नहीं कि मैं नहीं देना चाहता, इसलिए कि देने का कोई उपाय नहीं है। मैं अपने प्राण दे सकता हूं, लेकिन अपना ध्यान नहीं दे सकता। इसलिए नहीं कि नहीं देना चाहता, बल्कि इसलिए कि देने का कोई उपाय नहीं है।
मैं आपको प्रेम तो कर सकता हूं, लेकिन अपना प्रेम नहीं दे सकता। यानी मैं वह क्षमता नहीं दे सकता आपको कि आप प्रेम करने लगें। कोई व्यक्ति अपने आनंद की ज्योति तो आपके ऊपर फेंक सकता है, लेकिन अपना आनंद नहीं दे सकता कि आप आनंदित हो जाएं। दीया आपको प्रकाशित तो कर सकता है, लेकिन आपके भीतर जाकर दीया नहीं बन सकता। कुछ है जो नहीं दिया जा सकता। और जो नहीं दिया जा सकता वही मूल्यवान है। जो दिया जा सकता है, वह दो कौड़ी का है।
इस जगत में दो ही तरह की चीजें हैं, एक वे चीजें हैं जो दी जा सकती हैं, जो बाजार में बेची जा सकती हैं, जिनको खरीदा जा सकता है, जिनको बेचा जा सकता है। जिनका कोई मूल्य निर्धारित हो सकता है, कमोडिटीज, सामग्रियां हैं, वस्तुएं हैं। और एक और तरह की भी चीजें हैं, जिनका कोई बाजार नहीं हो सकता, जिनको दिया नहीं जा सकता, जिनको बांटा नहीं जा सकता, जिनको खरीदा नहीं जा सकता। बस दो ही तरह की चीजें हैं दुनिया में। जो पहली तरह की चीजों में अपने जीवन को गंवा देता है, वह बिल्कुल व्यर्थ गवां देता है। जो दूसरी तरह की चीजों को पैदा करने करने में लगा है, वह संपदा को उपलब्ध होगा, वह संपत्ति को उपलब्ध होगा, उसे कुछ मिलेगा। उसे कोई आधार मिलेगा, और कोई आनंद और कोई आलोक उपलब्ध होगा। पहली तरह की चीजों को हम वस्तुएं कहते हैं, दूसरी तरह की चीजों को हम अनुभूतियां कहते हैं।
धर्म का संबंध वस्तुओं से नहीं अनुभूतियों से है। धर्म का संबंध अनुभूतियों से है। अनुभूतियां भी कमाई जाती हैं। और उस छोटे से साधक ने बिंबसार को कहाः मैं अपने प्राण दे दूं, लेकिन अपनी अनुभूति कैसे दूं? तुम महावीर से ही जाकर पूछना कि उसका क्या मूल्य है? मैं मूल्य कैसे बताऊं?
बिंबिसार वापस लौट गया, उसे समझ न आया, उसे ख्याल न आया।
कुछ बातें ऐसी हैं जो शक्ति से उपलब्ध नहीं हो सकतीं। शक्ति उसके पास बहुत थी, बहुत उसके पास शक्ति थी, उसने बड़े राज्य जीते थे। और तब उसे पता पड़ा कि राज्यों के जीतने से भी कोई बड़ी जीत हो सकती है, जिनको कि जिसने राज्यों को जीता वह भी जीतने में समर्थ नहीं मालूम होता। और उसे लगा कि मेरी सारी शक्ति व्यर्थ है, एक व्यक्ति के ध्यान को मैं नहीं छीन सकता।
ऐसा ही फिर दुबारा हुआ। एक दूसरा बादशाह भारत आया--सिकंदर। जब वह भारत से वापस लौटने लगा, तो उसके मित्रों ने उससे यूनान में कहा था, एक संन्यासी को भारत से लेते आना, ताकि हम देखें कि संन्यासी कैसा होता है? और सारी चीजें तुम लूट कर लाओगे, एक संन्यासी को भी लूट लाना। सिकंदर जब सारी लूट का सामान लेकर लौटने लगा, और सैकड़ों मील उसका काफिला था, जिसमें जो भी बहुमूल्य उसे भारत में उसे दिखाई दिया उसे वह लाद कर ले जा रहा था, तब अंतिम सीमा पर उसे याद आया, एक संन्यासी रह गया, संन्यासी का कोई ख्याल ही नहीं आया। उसने गांव के लोगों को बुला कर पूछा, यहां कोई आस-पास संन्यासी है? मैं उसे अपने साथ ले जाना चाहता हूं।
गांव में एक वृद्ध ने कहाः संन्यासी तो बहुत मिल जाएंगे, लेकिन जिनको तुम लूट सको, जिनको तुम ले जा सको, समझना कि वह संन्यासी नहीं है। क्योंकि संन्यासी को ले जाना मुश्किल है।
सिकंदर बोलाः तुम्हें मेरी ताकत का पता नहीं, मैं अगर हिमालय को कहूं कि चलो, तो हिमालय को मेरे साथ चलना होगा। अगर मैं इस पूरे मुल्क को कहूं चलो यूनान, तो इस पूरे मुल्क को एक कोने से दूसरे कोने तक चलना होगा। वह वृद्ध हंसने लगा, उसने कहाः तुम्हें संन्यासी का पता नहीं, अभी तुमने वे चीजें जीती हैं जो हार जाती हैं, अभी तुम्हें उस आदमी से मुकाबला नहीं हुआ जो हार जानता ही नहीं।
खैर, खोज की गई और थोड़े ही फासले पर एक पहाड़ और नदी के किनारे एक संन्यासी का पता चला, जो वर्षों से वहां था। सिकंदर ने अपने सिपाही भेजे, उन सिपाहियों ने जाकर उस साधु को कहाः महान सिकंदर की आज्ञा है कि हमारे साथ चलो यूनान। बहुत सुख-सुविधा तुम्हें देंगे, कोई अड़चन न होगी। कोई, कोई किसी तरह की तुम्हें परेशानी न होगी, शाही मेहमान तुम रहोगे।
वह संन्यासी बोलाः तुम्हें शायद पता नहीं, संन्यासी हम उसको कहते हैं जिसने सिवाय अपने और सबकी आज्ञाएं मानना छोड़ दिया है। संन्यासी ने कहाः तुम्हें शायद पता नहीं, संन्यासी हम उसे कहते हैं जिसने सिवाय अपने और सबकी आज्ञाएं मानना छोड़ दिया है। सिकंदर को कहना, यहां कोई आज्ञा प्रवेश नहीं कर सकती। वे सिपाही बोलेः तुम्हें सिकंदर का शायद पता नहीं है, अगर तुम ऐसे न गए, तो तलवार के बल ले जाए जाओगे। उस संन्यासी ने कहाः तुम सिकंदर को ही भेज दो। और सिकंदर नंगी तलवार लेकर गया, और उसने उस संन्यासी को कहाः क्या विचार है? मेरे पीछे चलते हैं? वह संन्यासी बोलाः हम तो केवल अपने ही पीछे चलने के आदी हैं। सिकंदर ने कहाः इसका परिणाम बुरा होगा। उस संन्यासी ने कहाः जिसको तुम चोट पहुंचा सकते हो, उसका हम त्याग कर चुके हैं। संन्यासी ने कहाः जिसको तुम चोट पहुंचा सकते हो, उसका हम त्याग कर चुके हैं। सिकंदर ने कहां परिणाम मृत्यु होगा। उस संन्यासी ने कहाः जो मर जाता है, उसे हमने समझ लिया, वह हमारा होना नहीं है। और जिसे तलवार काट सके और जिसे आग जला सके, वह हमारी सत्ता नहीं है, हम उससे पीछे हट गए हैं। और अगर तुम्हारी मर्जी हो तो काटो, तुम भी देखोगे सिर को गिरते हुए और हम भी देखेंगे। उसने कहाः तुम भी देखोगे सिर को गिरते हुए और हम भी देखेंगे। क्योंकि जो हमारा प्राण है, जो हमारी आत्मा है, वह इसके पीछे है, और इसकी साक्षी हो सकती है। सिकंदर की म्यान उठी, उसकी तलवार म्यान के भीतर चली गई। उसने अपने सैनिकों से कहाः वापस लौट चलो, संन्यासी को ले जाना कठिन है। उस संन्यासी ने चलते वक्त कहाः संन्यासी को मार डालना तो आसान है, संन्यासी को जीतना संभव नहीं है।
सिकंदर जब वापस पहुंचा, उसके मित्रों ने पूछा, संन्यासी को लाए हैं? वह बोलाः सारा संसार ला सकता था, संन्यासी को लाने की बात मत करो। और एक दफा एक जगह पर एक साधारण नंगे फकीर के पास जाकर पता चला कि मेरी सारी शक्ति दो कौड़ी की है। ऐसा ही बिंबिसार को पता चला उस दिन कि उसकी सारी शक्ति व्यर्थ है। संसार की वस्तुएं शक्ति से पाई जाती हैं, और जिनको मैंने अनुभूतियां कहीं वह शक्ति से नहीं, शांति से पाई जाती हैं। वस्तुएं शक्ति से उपलब्ध होती हैं, अनुभूतियां शांति से उपलब्ध होती हैं। जिसकी शक्ति पर आस्था है, वह केवल वस्तुओं को इकट्ठा कर पाएगा, और जिसकी शांति पर आस्था है, वह अनुभूतियों को भी उपलब्ध हो जाता है।
स्मरण रखें, इसका अर्थ हुआ कि शांति शक्ति से भी बड़ी शक्ति है। इसका अर्थ हुआ कि शांति शक्ति से भी बड़ी शक्ति है। सबसे बड़े शक्तिशाली वे हैं जिन्हें आप अपनी शक्ति दिखाने के लिए प्रलोभित नहीं कर सकते। सबसे बड़े शक्तिशाली वे हैं जिन्हें आप शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए उत्तेजित नहीं कर सकते। सबसे बड़े शक्तिशाली वे हैं जो उस सीमा तक शांत हो गए हैं कि उन्हें अशांत करने का उपाय संसार के हाथ में कोई भी नहीं रह जाता है। शांति अदभुत शक्ति है, एक बहुत दूसरे लोक की शक्ति है। और शांति भूमिका है सत्य को पाने की। जो शांत नहीं है वह सत्य को नहीं पा सकता है।
तो पहली बात है, सत्य को पाने की प्यास चाहिए।
दूसरी बात है, सत्य को पाने के लिए शक्ति की निष्ठा छोड़ कर, शांति की श्रद्धा उत्पन्न होनी चाहिए।
शक्ति की निष्ठा हम सबके भीतर है, वासनाएं शक्ति मांगती है, आत्मा शांति मांगती है। और जो जितना शक्ति को जुटाने में लगा है, वह स्मरण रखे, वह उतना ही आत्मा से दूर होता चला जाएगा। और जो जितना शांति को जुटाता है, वह उतना ही आत्मा के करीब आने लगता है।
शांति कैसे जुटाई जा सकती है? शांति कैसे पैदा हो सकती है? शांति के पैदा करने के कोई चार सूत्र मैं आपसे कहना चाहूंगा। जो व्यक्ति शांत होना चाहता हो, जो उस अदभुत शक्ति को उत्पन्न करना चाहता हो, जिसको मैं शांति कह रहा हूं, जिसे अनुभूतियों के जगत में प्रवेश करना हो वस्तुओं के जगत को छोड़ कर, जिसके जीवन में वस्तुओं की कामना छोड़ कर अनुभूतियों की कामना उत्पन्न हो गई हो, जिसकी वासना ने बाहर की दौड़ छोड़ कर भीतर का रुख अपना लिया हो।
आज सांझ को मैं लेटा था, और कुछ मित्र मेरे पास थे, उनको मैं एक कहानी कहा। एक अदभुत कहानी मैं उनको कहता था, वह मुझे स्मरण आई। एक बहुत बड़े मुसलमान बादशाह के पास एक व्यक्ति ने जाकर उसके एक मित्र ने जाकर कहाः मुझे आपका एक घोड़ा चाहिए। उस राजा ने अपने अस्तबल में जाकर कहाः सबसे जो बढ़िया घोड़ा है, वह मैं तुम्हें देता हूं; वह जो पीला घोड़ा है, उसे तुम ले लो। उसे ले जाओ। वह आदमी बोलाः उस घोड़े को ले जाने में मैं समर्थ नहीं हूं। उस घो.ड़े के बाबत मैंने सुन रखा है, वह घोड़ा बहुत खतरनाक है, क्योंकि जब उस पर कोई सवार बैठता है तो वह घोड़ा उलटा चलता है। वह पीछे की तरफ भागता है, ऐसे घोड़े पर बैठ कर कोई कहीं भी नहीं पहुंच सकता। वह राजा बोलाः जो समझदार हैं, वे इस घोड़े पर भी बैठ कर वहां पहुंच जाएंगे जहां पहुंचना चाहते हैं। उस आदमी ने कहाः लेकिन कैसे? उस राजा ने कहाः वे अपने घर की तरफ घोड़े की पूंछ कर लेंगे। उन्हें जहां जाना है वे वहां घोड़े की पूंछ कर लेंगे और पहुंच जाएंगे।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं, मनुष्य के भीतर जो वासना है वह वही घोड़ा है जो उलटा भागता है। जहां आप जाना चाहते हैं उससे उलटा जाता है। लेकिन जो समझदार हैं वे वासनाओं को उलटा कर लेते हैं, और उसकी पूंछ आत्मा की तरफ कर लेते हैं। शक्ति की जो खोज है, यह उस घोड़े का मुंह गंतव्य की ओर रखना है, शांति की जो खोज है घोड़े को उलटा कर लेना है। जो लोग वस्तुओं की खोज और तलाश में लगे हैं, अगर वे उसी खोज और तलाश को अनुभूतियों की दिशा में परिवर्तित कर दें, उनका जीवन बदल जाएगा। वे साधारण मनुष्यों से परिणित होकर असाधारण दिव्य जीवन में परिणित हो जाएंगे। तब वे पार्थिव न रह कर भागवत हो जाएंगे। तब वे पदार्थों की दुनिया के हिस्से न होकर आत्मा की दुनिया के, आत्मा के जगत के हिस्से हो जाएंगे।
यह चार सूत्रों से संभव हो सकता है। उन चार सूत्रों को मैं आपसे कहूं।
पहला सूत्र हैः उस व्यक्ति के लिए जो शांत होना चाहता है। और वे सूत्र वही हैं कि अगर उनके विपरीत उपयोग करें तो वे ही सूत्र शक्ति के स्रोत हो जाएंगे। जिस व्यक्ति को शक्ति पानी है, उसका सूत्र हैः अहंकारपूर्ण जीवन। जो व्यक्ति शक्ति की खोज कर रहा है, उसे अपनी अहमता को जगाना होगा। उसकी जितनी अहमता प्रकट होगी, जितना ईगो, जितना दंभ प्रगाढ़ होगा, उतनी शक्ति को वह इकट्ठा कर सकेगा। अगर किसी व्यक्ति को शक्ति खोजनी है, तो उसे अहंकार का पोषण करना होगा और सोए अहंकार को जगाना होगा। जितना तीव्र अहंकार होगा उतनी शक्ति के जगत में विजय की जा सकती है। इसलिए जो बड़े अहंकारी थे, इतिहास उन्हें बड़ा विजेता कहता है। इसलिए जो बड़े अहंकारी थे, इतिहास उन्हें यशस्वी कहता है। इसलिए जो बड़े अहंकारी थे, वे बड़े पदों पर पहुंचे, बड़ी प्रतिष्ठा पर, बड़े राज्यों पर। लेकिन अहंकार की दौड़ का खतरा एक ही है, अहंकार मृत्यु के सामने गल जाता और नष्ट हो जाता है। और मृत्यु सारी खोल को उघाड़ कर रख देती है कि शक्ति की दौड़ व्यर्थ हो गई, क्योंकि मृत्यु अहंकार को ही छीन लेती है। जिस अहंकार के केंद्र पर सारी शक्तियां इकट्ठी होती हैं वह उस केंद्र के टूटते ही विलीन हो जाती हैं। इसलिए जितना शक्तिशाली मनुष्य होगा, उतना ही मृत्यु से डरता है। इसलिए जितने बड़े पद पर कोई व्यक्ति होगा, उतना ही मृत्यु से भयभीत होता है। जितनी ही उसकी अहमता का विस्तार होगा, उतनी ही मृत्यु का भय गहरा उसके भीतर हो जाता है। इसके विपरीत जो शांति का खोजी है, उसे निर-अहंकारचर्या को उत्पन्न करना होता है। उसे अपने भीतर अहंकार के जितने भी रूप पल्लवित होते हों, उन्हें पानी देना बंद कर देना होता है। और जो बीज अंकुरित होते हैं उन्हें रोशनी देना बंद कर देना होता है। उसे अपने भीतर स्पष्ट बोध रखना होता है कि चर्या अहंकार के प्रगाढ़ करने का माध्यम न बन जाए। और हम इस तरह न जीएं कि हमारा अहंकार निरंतर प्रगाढ़ से प्रगाढ़ होता जाए। उसे अहंकार को क्षीण और विलीन करना होता है। अहंकारपूर्ण चर्या शक्ति की दिशा में ले जाती है, अहंकार-शून्य चर्या शांति की दशा में।
जो शांति के लिए उत्सुक हैं उन्हें अहंकार को छोड़ने के लिए राजी होना होता है। और क्या मैं आपसे कहूं अहंकार से बड़ी क्या कोई अशांति है? क्या अहंकार से बड़ी कोई अशांति है? अपने भीतर खोजें, उठने में, बैठने में, जागने में, देखें क्या अहंकार से गहरी कोई अशांति है? वहां दिखाई पड़ेगा, जितना अहंकार है उतनी ही अशांति है। जितना अहंकार तीव्र है, उतनी तीव्र अशांति है। जो निर-अहंकारी हैं, उन्हें अशांत होने का कारण ही विलीन हो जाता है।
बुद्ध एक गांव से निकले थे, कुछ लोगों ने उन्हें आकर गालियां दीं, अपमान किया। जब वे गालियां दे चुके और अपमान कर चुके, तो बुद्ध ने कहाः मित्रो, क्या मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव पहुंचना है। क्या तुम्हारी बात पूरी हो गई? क्या तुम यह तो न समझोगे कि मैंने तुम्हारी बात नहीं सुनी और जल्दी चला गया? लोगों ने कहाः क्या आप पागल हैं? ये बातें न की हमने, गालियां दी हैं और अपमान किया है। बुद्ध ने कहाः जिस दिन से अहंकार गया, तुम गाली दो, लेकिन मुझको लगना मुश्किल है। क्योंकि जहां लगती थी, वहां तुम नहीं लगा सकते थे, वह मेरा अहंकार था जो लगाता था। गाली फेंकना तुम्हारे हाथ में है, उसको गाली का पड़ना मेरे ऊपर मेरे हाथ में है। मेरे पास वह केंद्र तो चाहिए जहां वह चुभ जाए। वह केंद्र अहंकार है, जहां सारे जगत की गालियां चुभ जाती हैं, जहां सारे जगत के अपमान चुभ जाते हैं, वह स्थल तो मेरे पास चाहिए। बुद्ध ने कहाः क्षमा करें, तुम बहुत गलत आदमी को गाली देने आ गए। बिल्कुल अग्राहक को, नॉन-रिसेप्टिव आदमी के पास आ गए हो। तुमने समय व्यर्थ खोया। और अब भूल मत करना, ऐसी गाली देनी हो तो उसे देना जो गाली लेता हो। बुद्ध ने कहाः दस-बारह वर्ष हुए हम गाली लेने में असमर्थ हो गए। बहुत दुखी हैं और क्षमा चाहते हैं, इतना समय तुम्हारा व्यर्थ खराब किया। और हमें जल्दी कहीं पहुंचना है, इसलिए इस बातचीत में अब ज्यादा भी नहीं पड़ सकते। जिसे कहीं पहुंचना हो वह व्यर्थ की बात में ज्यादा नहीं पड़ सकता है। तो बुद्ध ने कहाः आज्ञा दें कि मैं जाऊं। और स्मरण रखें, आगे ऐसे गलत आदमी को गाली मत देना।
वह जो अहंकार का केंद्र है, वह जो स्थल है, वह जो मैं का भाव है, वह सारी अशांति का कारण है। और जितनी अशांति होती है आदमी में उतना ही वह शक्ति का इच्छुक होता है, क्योंकि शक्ति से वह अशांति की कमी को भरना चाहता है, शक्ति से वह शांति की कमी को भरना चाहता है, वह यह धोखा देना चाहता है अपने को कि मेरी शांति नहीं है, कोई हर्ज नहीं, मेरे पास शक्ति है। और शक्ति से मैं सप्लीमेंट कर लूंगा, पूर्ति कर लूंगा उस शांति की जो कि नहीं है। लेकिन यह पूर्ति नहीं हो सकती, परमात्मा के जगत में कोई धोखा नहीं चल सकता है। अनुभूतियों के जगत में कोई धोखा नहीं दिया जा सकता। हम धोखा दूसरों को दे सकते हैं, अपने को धोखा देने का कोई उपाय आज तक ईजाद नहीं हो सका है। वहां दो और दो चार ही होते हैं, वहां दो और दो के पांच या तीन होने का कोई रास्ता नहीं है।
तो कोई कितनी ही शक्ति इकट्ठी कर ले, अशांति उतनी ही बनी रहेगी। और शांति की पूर्ति नहीं हो सकती, हो भी कैसे सकती है? शक्ति अशांति का लक्षण है, अशांति की खोज है। शांति तो बड़ी अलग बात है। उसकी पूर्ति शक्ति से नहीं हो सकती है।
तो पहला सूत्र है शांति के साधक के लिए कि वह अहंकार-शून्य चर्या को अपनाए। कैसे अपनाएगा? अहंकार-शून्य चर्या को कैसे अपनाएगा? बहुत लोग चेष्टा करके अपना लेते हैं, बिना समझे, बिना जाने। एक आदमी हो सकता है--कि यह सोच कर कि अहंकार छोड़ देना है, तो शक्ति छोड़ दे, राज्य छोड़ दे। समझ लें बड़ा राजा हो, सम्राट हो, वह यह सोच कर कि शक्ति छोड़ देनी है और शांत हो जाना है, अहंकार-शून्य चर्या उत्पन्न करनी है तो मैं राज्य छोड़ दूं। तो वह राज्य छोड़ कर चला जाएगा। लेकिन अगर यह राज्य अज्ञान में छोड़ा गया हो, तो उसके मन में यह भाव उत्पन्न होने लगेगा, मैं, मैं वह व्यक्ति हूं जिसने इतने बड़े राज्य को छोड़ा। और तब राज्य पाने से जो अहंकार पोषित होता था, वही अहंकार राज्य छोड़ने से भी पोषित होता रहेगा। उसका त्याग व्यर्थ हो जाएगा। अज्ञान में किया गया त्याग कचरे में फेंके गए हीरे की तरह है, उसका कोई मतलब नहीं। अज्ञान में किया गया त्याग कोई अर्थ नहीं रखता। क्योंकि जिस चीज की पूर्ति भोग से होती थी, उसी चीज की पूर्ति त्याग से होने लगती है।
मैंने सुना है, एक मुसलमान फकीर एक बादशाह के साथ बचपन में मित्र था और एक मदरसे में वे पढ़े। बादशाह बड़ा हुआ और वह राजा के पद पर बैठा, और वह फकीर हो गया दूसरा मित्र। उसकी बड़ी ख्याति फैली, वह नग्न रहने लगा, उसने सब वस्त्र छोड़ दिए। उसने सारी वस्तुएं छोड़ दीं, दूर-दूर तक हजारों लोग उसके पैरों में सिर झुकाने लगे। हवाओं में उसकी खबरें उड़ गईं। और उसकी सुगंध अनेक-अनेक देशों तक पहुंच गई। फिर वह राजधानी में आया।
राजा ने सोचा, मेरा मित्र आता है, तो उसके स्वागत की व्यवस्था की, सारे नगर को सजाया, फूलों से और दीयों से, और रास्तों पर कालीन बिछाए, ताकि वह अपने फकीर मित्र का स्वागत कर सके। रास्ते में फकीर को खबर मिली, राजा अपनी धन-दौलत दिखाने के लिए आयोजन कर रहा है। और वह राजा तुम्हारा मित्र तुम्हें हतप्रभ करना चाहता है कि तुम्हें दिखा दे कि तुम क्या हो, आखिर एक नंगे फकीर! और मैं क्या हूं, यह भी तुम देख लो! वह फकीर बोलाः ऐसा है तो हम भी दिखा देंगे कि हम क्या हैं। और जिस संध्या उसका आगमन हुआ, सारी राजधानी सजी थी, राजा स्वयं उसे लेने गया था। उसके सारे सेनापति और सारे दरबारी लेने गए थे। बहुमूल्य कालीन उस मार्ग पर बिछाए गए थे। शाही स्वागत था। वह नंगा फकीर आया और लोग देख कर हैरान हुए, अभी तो कोई वर्षा भी न थी, लेकिन उसके पैर घुटनों तक कीचड़ से भरे थे। वह उन बहुमूल्य कालीनों पर कीचड़ भरे पैर से चलने लगा। जब वह महल की सीढ़ियां चढ़ता था, तो राजा ने पूछा, क्या मैं यह पूछने की धृष्टता करूं कि यह इतने पैर कीचड़ से कैसे भर गए? अभी तो कोई वर्षा के दिन नहीं, और कहीं रास्ते खराब नहीं है। यह इतने पैर कीचड़ से कैसे भर गए? वह फकीर बोलाः तुम अपनी अमीरी दिखाना चाहते हो रास्ते पर कालीन बिछा कर, हम अपनी फकीरी दिखाते हैं कालीनों पर कीचड़ भरे पैर चल कर। वह राजा बोलाः तब तो मुझमें और तुममें कोई अंतर नहीं है। मैं सोचता था कि तुम बदल गए होंगे, हम पुराने ही मित्र हैं, कोई बदलाहट नहीं हुई, वह अहंकार वहीं का वहीं बैठा हुआ है।
एक नंगे से नंगे फकीर में अहंकार उतना ही हो सकता है। इसलिए कोई इस धोखे में न रहे कि शक्ति को मात्र छोड़ देने से ही निर-अहंकार हो जाएगा। निर-अहंकार तो वह होगा जिसकी शक्ति ज्ञान से विसर्जित होती है, जो ज्ञान से छोड़ता है। ज्ञान से अहंकार कैसे छूटेगा? ज्ञान से अहंकार छूटता है, और अकेले ज्ञान से छूटता है। कभी यह विचार आपने नहीं किया होगा कि यह आपके भीतर जो मैं की तरह बोलता है, क्या है? यह कौन है जो मैं है? यह सच में कोई इकाई है या एक झूठा बोध है। यह बिल्कुल झूठा बोध है, इसकी कोई इकाई नहीं है। कभी एकांत में आंख बंद करके भीतर उसे खोजें जो मैं है, आपको मैं का कोई स्वर सुनाई नहीं पड़ेगा। मैं का स्वर इसलिए सुनाई पड़ता है कि निरंतर समाज में घिरे रहने से, और निरंतर भाषा के द्वारा मैं का उपयोग करने से, और निरंतर तू का उपयोग करने से, निरंतर दूसरे मैं, दूसरी ईगोज, दूसरे अहंकारों के बीच घिरे रहने से आपको भी लगता है, मैं हूं।
बचपन से एक नाम दे दिया जाता है, और इस जगत में सबसे बड़ा खतरा उसी से हो जाता है। हर आदमी को एक नाम दे दिया जाता है। जब कि किसी आदमी का कोई नाम नहीं है। नाम मनुष्य की सबसे खतरनाक ईजादों में से एक है, उसके बिना चल नहीं सकता था, इसलिए करनी पड़ी। लेकिन किसी आदमी का कोई नाम नहीं है। स्मरण रखें, नाम बिल्कुल झूठी बात है। और अगर कोई आपसे आपका नाम छीन ले, तो क्या आपको पता चलेगा मैं, आपका मैं आधा टूट जाएगा।
मेरे पास एक वृद्ध आते थे, उन्होंने कुछ मेरे पास आकर ध्यान की साधना शुरू की। आठ-दस दिन बाद वे नहीं आए। मैंने पुछवाया कि क्या हुआ? मैं उनके घर गया कि क्या बात हो गई? वे मुझसे बोले कि कृपा करके आप मेरे घर न आएं, और न मैं आपके घर आऊंगा, अपना संबंध समाप्त हुआ। मैं बोलाः क्या दिक्कत हो गई? क्या अड़चन हो गई?
वे बोले कि आपके उस प्रयोग को करने से बहुत खतरा हुआ। एक रात मैं उस प्रयोग को करके उठा और मैं अपना नाम भूल गया। और मैं बहुत घबड़ाने लगा। और मैं इतना घबड़ाया, इतनी बेचैनी मुझे कभी न हुई थी, सर्द रात थी और मैं पसीने से चूर-चूर हो गया। और मुझे खोजूं मेरा नाम न मिले। और मैंने कहा, यह क्या पागलपन हो रहा है? अगर यह हो गया तो मैं पागल हो जाऊंगा। मैं आपसे कहता हूं, अभी आप पागल हैं जब तक आपको अपना नाम असली मालूम होता है, और जब आपको पता चल जाए कि नाम बिल्कुल नकली है, आप पागलपन के बाहर होंगे।
यह बिल्कुल झूठी बात है, किसी का कोई नाम नहीं है। नाम बिल्कुल कामचलाऊ बात है। लेकिन हम उसे असली समझ लेते हैं। अगर मेरे नाम को कोई गाली दे, तो मुझे लगेगा, मुझे गाली दी है। अगर मुझे यह पता चल जाए कि मेरा कोई नाम नहीं है, तो मैं समझूंगा कि किसी नाम को गाली दी है। मैं अलग खड़ा रह जाऊंगा, गाली नाम पर पड़ेगी। गाली की चोट मुझे इसलिए लगती है क्योंकि नाम के साथ मेरी आइडेंटिटी है, मेरा तादात्म्य है, मेरा संबंध है, मुझे लगता है, मेरा नाम है। मेरे नाम की वजह से वह दुख और पीड़ा है। तो एक तो मैं आपसे यह कहूं कि जिसे अहंकार से मुक्त होना है, उसे जानना होगा कि उसका कोई नाम नहीं है। जब उसका कोई नाम ले तो उसे जानना चाहिए कि यह कामचलाऊ बात कह रहा है। यह भ्रम पैदा नहीं करना चाहिए कि मुझे बुला रहा है। यह भ्रम इतना गहरा हो जाता है कि जागते तो जागते नींद में भी आप अपने नाम को नहीं भूलते। यहां कितने लोग सोए हों और मैं कोई एक नाम लेकर बुलाऊं, तो वह आदमी उठ आएगा बाकी लोग सोए रहेंगे। अगर आपके घर के सामने कोई किसी दूसरे का नाम चिल्लाता रहे तो आपको नींद में सुनाई नहीं पड़ेगा, आपका नाम चिल्लाए तो सुनाई पड़ जाएगा।
वह नाम का पागलपन केवल आपके जागने में नहीं है, आपके गहरे नींद तक में प्रविष्ट हो गया है। वह आपके प्राणों में धीरे-धीरे प्रविष्ट होता जाता है। और जैसे-जैसे आप उम्र में बड़े होते जाते हैं और आपके अनुभव बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे नाम भीतर घुसने लगता है। और नाम की जितनी जड़ें आपके भीतर फैल जाएंगी उतना ही अहंकार को तोड़ना मुश्किल हो जाएगा। जिसे अहंकार को तोड़ना है उसे नाम से मुक्त होना होगा। उसे यह स्मरणपूर्वक ध्यान रखना होगा कि नाम की गहराइयां मेरे भीतर न बढ़ें। उसे ऐसे मौके देने होंगे, अभी तो सोते में नाम सुनाई पड़ जाता है, उसे ऐसे मौके देने होंगे कि जागा हुआ हो और कोई नाम ले और उसे पता न चले कि मेरा लिया है।
अमरीका में एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक हुआ, एडीसन। पहले महायुद्ध में वहां कुछ राशन की व्यवस्था करनी पड़ी, अमरीका में। एडीसन तब बहुत गरीब आदमी था। उसके पास नौकर भी नहीं थे। और उसके घर में, और उसके और जो साथी थे, कोई बीमार था साथी, उसे खुद राशन लेने दुकान पर जाना पड़ा। उसने अपना कार्ड तो जमा करवा दिया, फिर जब उसका नंबर आया, तो वहां से चिल्लाया गया कि थॉमस अलवा एडीसन कौन है? तो वह खड़ा रहा। उन लोगों ने कहा कि कौन है यह एडीसन, बोलते क्यों नहीं? लाइन के आगे वही खड़ा था, शक तो यह हो कि यही आदमी होना चाहिए। और वह एडीसन इधर-उधर देखने लगा कि पता नहीं किसको बुलाते हैं। पीछे एक आदमी ने कहाः यह कैसा पागल आदमी है जो सामने खड़ा है, यही आदमी एडीसन है, मैं इसके पड़ोस में रहता हूं। एडीसन बोलाः ठीक याद दिलाया, बीस-पच्चीस साल से काम न पड़ने से नाम का कुछ ख्याल नहीं रहा।
यह होना चाहिए। सोते में अभी याद आ जाता है, जागने में भी भूल जाना चाहिए। बीस-पच्चीस साल से... मेरे मां-बाप को मरे हुए बहुत दिन हो गए, उसने कहा, तो मुझे कोई एडीसन कह कर बुलाता नहीं, मेरे पास विद्यार्थी होते हैं, वे मुझे एडीसन कहते नहीं। कोई मौका नहीं आया बीस-पच्चीस साल से, अपने अकेले कमरे में बैठा काम करता रहता हूं, इसलिए भूल गया। क्षमा करें। यह आदमी ठीक ही कहता होगा, क्योंकि कोई और जवाब भी नहीं देता, और मैं ही सामने हूं यह जरूर नाम मेरा ही होना चाहिए।
यह हमें पागल मालूम होगा। यह मुझे पागल नहीं मालूम होता। ऐसे आदमी में अहंकार मुश्किल है। ऐसे आदमी में दंभ का बोध मुश्किल है। नाम से, नाम के प्रति जाग जाना चाहिए--एक बात।
दूसरी बात यह स्मरण रखनी चाहिए कि जब हम अपने को "मैं" कहते हैं, हम अपने को एक इकाई, एक एनटायटी मान लेते हैं, हम एक टुकड़ा मान लेते हैं। इस जगत में कोई चीज टूटी हुई नहीं है। मैं एक फूल से आपको परिचय कराऊं, मैं एक फूल के पास ले जाऊं और आप कहें यह फूल बहुत सुंदर है, और आप उस फूल को प्रेम करने लगें, तो मैं आपसे कहूंगा, क्या सिर्फ फूल को ही प्रेम करिएगा, उस डाल को नहीं जो फूल के पीछे है। अगर आपका प्रेम सच्चा है, फूल आपको सुंदर मालूम हो रहा है, तो फूल में थोड़ा प्रवेश करिए, तो फूल कोई अकेला थोड़े ही है, फूल के भीतर घुसेंगे तो डाल मिलेगी, डाल न हो तो फूल नहीं हो सकता। और डाल के भीतर प्रविष्ट होंगे, तो वृक्ष मिलेगा। वृक्ष न हो, तो डाल नहीं हो सकती। और वृक्ष में भीतर प्रविष्ट होंगे, तो अदृश्य जड़ें मिलेंगी, जो दिखाई नहीं पड़तीं, वे न हों तो वृक्ष नहीं हो सकता। और अगर जड़ों में भी भीतर प्रविष्ट हो जाएं, तो भूमि मिलेगी, प्रकाश मिलेगा, सूर्य मिलेगा, आकाश मिलेगा, और तब पता चलेगा कि उस फूल के भीतर सूरज मौजूद है। और तब पता चलेगा कि उस फूल के भीतर सारी पृथ्वी मौजूद है। और तब पता चलेगा उस फूल के भीतर सारा ब्रह्मांड मौजूद है। उस फूल को जो इकाई समझता है, वह नासमझ है, और जो अपने को भी इकाई समझ लेता है, वह भी नासमझ है। यह सारा का सारा जगत एक छोटे से बिंदु पर भी पूरा का पूरा स्पंदित हो रहा है। एक छोटे से प्राण में भी यह सारा जगत स्पंदित हो रहा है। यह असंभव है कि मेरे इस छोटे से प्राण में इस पूरे जगत का हाथ न हो। "मैं" कहने का हक मुझे कहां रह जाता है? अगर कहीं कोई परमात्मा है तो उसे छोड़ कर मैं कहने का और कोई अधिकारी नहीं। और जो मैं कहता है वह सबसे बड़ा कुफ्र, सबसे बड़ा पाप करता है।
एक फकीर एक गांव से एक दफा गुजरा। उसका एक मित्र फकीर उस गांव में रहता था, उसने सोचा कि चलूं और उससे मिलता चलूं। लेकिन रात आधी हो गई थी, उसने सोचा, पता नहीं वह जागता हो या नहीं, फिर भी उसने चाहा कि देख लूं अगर कोई एकाध दीया उसके घर में जला होगा, तो द्वार खटखटा लूंगा, अन्यथा लौट आऊंगा। तो अपने रास्ते को छोड़ कर गांव के भीतर गया। आधी रात होती थी, उस फकीर के जिसके झोपड़े में वह गया, एक खिड़की पर रोशनी पड़ती थी अंदर से, उसने जाकर उसको खटखटाया, भीतर से पूछा गया, कौन है?
वे तो पुराने मित्र थे, उसने सोचा, पूरा क्या कहना, इतना ही कहने से पहचान लिया जाऊंगा, उसने कहा, मैं हूं। इतने ही कहने से पहचान लिया जाऊंगा, आवाज से ही पहचान लिया जाऊंगा। लेकिन इसके बाद भीतर से फिर कोई आवाज न आई। उसने द्वार दुबारा खटखटाया, लेकिन फिर कोई आवाज न आई, उसने फिर तीसरी बार खटखटाया और ऐसा लगने लगा जैसे वह घर में कोई है ही नहीं। वह बहुत हैरान हुआ। उसने जोर से दरवाजा पीटा और उसने कहा, यह क्या बात है, मेरे लिए दरवाजा क्यों नहीं खोलते? तो भीतर से कहा गया कि यह कौन पागल है जो अपने को मैं कहता है? सिवाय परमात्मा के और किसी को मैं कहने का कोई अधिकार नहीं है।
और यह सच है सिवाय परमात्मा के और किसी को कोई अधिकार नहीं है। और परमात्मा कैसे कहेगा? क्योंकि मैं तो कोई तभी कह सकता है जब "तू" भी मौजूद हो। इसलिए परमात्मा कह नहीं सकता मैं, क्योंकि उसके लिए कोई तू नहीं है। और हम जो मैं कहते हैं, हम अधिकारी नहीं हैं।
तो अपने भीतर इस बात को अनुभव करें कि सारा जगत, यह सारा ब्रह्मांड स्पंदित हो रहा है। यह श्वास मेरी आती है, न आए तो बात खत्म। यह सूरज रोशनी मुझमें ढालता है, न ढाले तो खत्म। वैज्ञानिक कहते हैं, चार हजार वर्ष बाद जमीन पर कोई नहीं रह सकेगा। क्योंकि सूरज ठंडा हो जाएगा। वह रोज अपनी गर्मी बांटता जा रहा है, चार हजार वर्ष में ठंडा हो जाएगा। फिर आप नहीं रह सकेंगे। मतलब सूरज आपके भीतर जिंदा है, सूरज नहीं है तो आप भी गए और डूब गए। यूं अपनी आंख खोल कर जो देखेगा वह पाएगा, मैं सारे ब्रह्मांड का स्पंदन हूं, मैं सारे ब्रह्मांड की अनच्युत धारा में एक अंग और हिस्सा हूं। एक अविभाज्य टुकड़ा हूं। इनडिविजुवल हूं, उससे अलग मेरी कोई सत्ता नहीं। और मैं मुझे अलग करता है। तो यह मैं झूठा है, जो अलग करता हो। इस जगत में कुछ भी अलग-अलग नहीं है, सब जुड़ा है और सब इकट्ठा है, यह सारा जगत एक टोटेलिटी है। एक समग्रता है, उस समग्रता को अनुभव करना, धर्म का अनुभव है और अपने को अलग अनुभव करना अधर्म का अनुभव है। सारा अधर्म इससे पैदा होता है कि मैं अलग हूं।
अगर ये दो बातें, अपने भीतर सारे ब्रह्मांड का स्पंदन और अपने नाम का झूठा होना, अगर आपकी स्मृति में बैठ जाएं तो अहंकार धीरे-धीरे, धीरे-धीरे विलीन हो जाता है। और तब जो चर्या पैदा होती है, तब जो आचरण होता है, वह अहंकार-शून्य हो जाता है।
तो एक तो सूत्र मैंने कहा, अहंकार-शून्य चर्या। दूसरा सूत्र हैः जीवन में अपरिग्रह का बोध। मैंने कहा कि जो जितनी शक्ति को इकट्ठा करता है वह उतना ही सत्य से दूर हो जाता है। शक्ति को इकट्ठा करना परिग्रह है और शक्ति को इकट्ठा न करने की जो बोध मनःस्थिति है वह अपरिग्रह है। मैं इकट्ठा न करूं, मैं जोडूं नहीं, मेरे पास इकट्ठा न हो, मैं क्रमशः उस तरफ चलूं जहां मैं अंत में बिल्कुल अकेला रह जाऊंगा, मेरे पास कुछ न रह जाए, बस मेरा होना ही रह जाए, ऐसा जो दृष्टिबोध है वह अपरिग्रह है। अपरिग्रही जितना न्यूनतम संभव होगा, उतना अपने को फैलाएगा। परिग्रही जितनी अधिकतम संभव होगा, उतना अपने को फैलाएगा। और मजा यह है कि परिग्रही जितना फैलाता जाएगा उतना ही पाएगा उसका घेरा बहुत छोटा है और बड़ा होना चाहिए। और अपरिग्रही जितना घेरे को छोटा करता चला जाएगा, उतना ही पाएगा घेरा अभी बहुत बड़ा है, और थोड़ा छोटा कर लूं।
और बड़े मजे की बात है, परिग्रही को हमेशा घेरा छोटा दिखाई देगा, इसलिए वह दुखी होगा। और अपरिग्रही को हमेशा घेरा बड़ा दिखाई पड़ेगा, इसलिए वह हमेशा सुखी होगा। इतना बड़ा घेरा मेरे पास है।
गांधी जी जेल में बंद थे और सरदार पटेल भी उनके साथ बंद थे। गांधी जी उन दिनों दस छुआरे, रोज फुला कर सुबह नाश्ते में लेते थे। पटेल ने सोचा, दस छुआरों में ही कोई नाश्ता होता होगा, इतने से क्या होगा? पटेल को फुलाना पड़ता था। उन्होंने एक रात पंद्रह छुआरे फुला दिए, और उन्होंने सोचा, दस-पंद्रह में क्या फर्क पड़ता है, कौन गिनती करता है? और गांधीजी के इस हड्डी-हड्डी शरीर में थोड़ा ज्यादा भोजन पहुंचे तो अच्छा है। और फिर कौन हिसाब रखेगा? सुबह जब गांधी जी खाने लगे, उन्होंने कहा, छुआरे कुछ ज्यादा मालूम होते हैं। वैसे ही मैं बहुत ज्यादा लेता रहा हूं, ये इतने ज्यादा कैसे? पटेल ने कहा कि कुछ नहीं, कोई ज्यादा नहीं है, दस की जगह पंद्रह फुला दिए, दस और पंद्रह में कोई फर्क होता है? गांधी जी ने कहाः तूने अदभुत बात कही, अगर दस और पंद्रह में कोई फर्क नहीं होता तो पांच और दस में भी कोई फर्क नहीं होगा। आज से हम पांच ही ले लेंगे। यह अपरिग्रही की दृष्टि और बोध है। यूं अपरिग्रही अपनी सीमा को कम करता चला जाता है। और एक दिन उसकी सीमा विलीन हो जाती है। इतनी कम हो जाती है, जिस दिन सीमा विलीन हो जाती है, उसी दिन वह असीम से जुड़ जाता है। अपरिग्रही सीमा को कम करते-करते एक दिन समाप्त कर देता है और असीम से जुड़ जाता है। और परिग्रही असीम सीमा को खींचने की कोशिश में बड़ी से बड़ी सीमा खींचता है और छोटा होता चला जाता है, क्योंकि हर सीमा उसे छोटी लगने लगती है।
यह बड़ी अदभुत बात है, जिसकी जितनी बड़ी सीमा होगी वह उतना ही छोटा आदमी होता है। और जिसकी कोई सीमा नहीं होती, उसकी विराटता का मुकाबला नहीं है। उससे बड़ा आदमी नहीं होता। तो दूसरी बात है, जिसे शांति को साधना हो उसे अपरिग्रह के बोध को रखना होगा, जीवन के प्रत्येक चरण में उठते-बैठते, सोते-जागते उसे देखना होगा कि हर सीमा छोटी होती चली जाए। और हर सीमा उसे बड़ी दिखाई पड़नी चाहिए, तब वह उसे छोटा करेगा। एक दिन जब कोई सीमा नहीं रह जाती और अपरिग्रह पूर्ण हो जाता है, तो शांति के बड़े गहरे आधार रख दिए जाते हैं। परिग्रह अशांति है, अपरिग्रह शांति हो जाता है। तो दूसरा सूत्र हैः जीवन में अपरिग्रह का बोध।
तीसरा सूत्र हैः अहिंसा की दृष्टि। वह व्यक्ति, जिसके पास अहिंसा की दृष्टि न हो, अपने हाथ से अशांति को रोज आमंत्रण देता है। वह व्यक्ति जिसके पास अहिंसा की दृष्टि हो, चौबीस घंटे शांति को आमंत्रण देता है। क्यों? हिंसा का अर्थ है, हम जगत के प्रति दुख भेज रहे हैं। और यह असंभव है कि जो व्यक्ति जगत के प्रति दुख भेज रहा हो, जगत उसे दुख न भेजे। यह कैसे संभव है कि मैं दुख बाटूं और फिर दुख मुझे उपलब्ध न हो? यह कैसे संभव है कि मैं दुख के बीज बोऊं और फिर दुख की फसल न काटूं? तो मैं तो एक-एक आदमी को थोड़ा-थोड़ा फुटकर दुख दूंगा, लेकिन वे सारे लोग मिल कर जब मुझे दुख देंगे तो मुझे तो बहुत भारी दुख को सहना पड़ेगा। तो एक व्यक्ति जितना दुख दे सकता है उससे अनंत गुना उसे वापस मिलता है। जिसे शांति को साधना है, उसे जानना होगा, वह इस जगत में किसी को दुख न दे। क्योंकि दुख दुख को बुला लाता है। और जो आनंद को वितरित करता है, वह आनंद को बुला लेता है।
हिंसा का अर्थ हैः दुख को बांटने की दृष्टि। हिंसा का अर्थ हैः दूसरे के दुख में सुख लेने का भाव। और हम सब ऐसे बने हैं। साधारणतः हमें यह दिखाई नहीं पड़ता। आप कहेंगे, कौन किसी के दुख में सुख लेता है? कोई आदमी मर जाता है तो हम दुखी होते हैं; किसी आदमी का मकान जल जाता है, तो हम दुखी होते हैं; किसी को चोट लग जाती है, तो हम दुखी होते हैं; कहां हम दूसरे के दुख में सुख मानते हैं? मैं आपसे कहूं, यह झूठ बात है, जब किसी का मकान जलता है तो आपको दुख हो नहीं सकता; इसलिए नहीं हो सकता है कि जब दूसरे का बहुत शानदार मकान बनता है तो आपको सुख होता है। अगर दूसरे के बनते शानदार मकान में आपको सुख होता हो तो उसके जलते मकान में दुख हो सकता है। लेकिन अगर दूसरे के बड़े शानदार मकान के बनने में दुख होता हो, तो आपका जो दुख मालूम होता है उसके जलते हुए मकान को देखते हुए, वह झूठा है। यह हो नहीं सकता। यह हो ही नहीं सकता। यह संभव ही नहीं है।
जो आदमी दूसरे के सुख में सुख को अनुभव कर सके, वही आदमी केवल दूसरे के दुख में दुख को अनुभव कर सकता है, दूसरा आदमी नहीं। तो बाकी जो हम दुख दिखलाते हैं, बिल्कुल झूठा है। किसी के मरने पर भी आपके भीतर कहीं रस अनुभव होता है। किसी के पैर टूट जाने पर रस अनुभव होता है। किसी के मकान के गिर जाने पर रस अनुभव होता है। रास्ते पर एक आदमी गिर पड़ता है, लोग खड़े होकर हंसने लगते हैं। जो लोग एक आदमी के गिरने पर, किसी का पैर फिसल गया और कोई गिर गया, जो लोग खड़े होकर हंस रहे हैं, ये वे लोग हैं जिन्हें कल मौका मिले तो किसी का पैर पकड़ कर गिरा कर हसेंगे। तो मुश्किल है कि न गिराएं। क्योंकि अगर किसी के गिरने में हंसी आ रही है, तो फिर गिराना दूसरा ही चरण है, कोई दिक्कत की बात नहीं है।
एक यात्री अरब से गुजरता था, एक नगर के चौरस्ते पर उसने एक अत्यंत गरीब लड़के को, एक अत्यंत दयनीय लड़के को, एक अत्यंत सूखी हड्डियों वाले लड़के को बड़ी भारी ठेलागाड़ी खींचते हुए देखा। उसे देख कर उसका दिल दुखी हो गया। वह गाड़ी उससे सम्हल भी नहीं रही थी, चौगड्ढे पर काफी भीड़-भाड़ थी, ट्रैफिक था और वह लड़का मुश्किल से खींच रहा था। सिपाही ने उसको जोर का एक चांटा मारा, वह लड़का गिर गया और उसकी गाड़ी भी उलट गई। और लोगों ने भी उसको लातें मारी, और उसे रास्ते के किनारे कर दिया कि बदतमीज बीच में सब गड़बड़ कर रहा है। उस यात्री ने अपनी डायरी में लिखा, वह मैं पढ़ता था, मुझे उसके वचन बड़े अदभुत लगे, उसने लिखाः उस दिन मैं पहचान गया कि यही लोग हैं जिन्होंने क्राइस्ट को सूली दी होगी। उसने कहा कि यही लोग हैं, मैं पहचान गया कि यही लोग हैं, जिन्होंने क्राइस्ट को सूली दी होगी। यही लोग हैं जिन्होंने सुकरात को जहर पिलाया होगा। यही लोग हैं जिनसे जमीन परेशान और दिक्कत में है। यह सारी जमीन उन लोगों से परेशान है जिनकी दृष्टि हिंसा की है। और यह अगर होता कि सारी दुनिया ही परेशान होती तो भी कोई हर्ज न था, मैं कहता, हिंसा करो, सारी दुनिया जब परेशान होती है, तो वह सारी परेशानी आप पर लौटने लगती है।
आपके हित में है अहिंसा, हिंसा आपके अहित में है। दूसरों के अहित में भर होती तो मैं आपसे न कहता कि फिकर मत करो, आपके ही अहित में है। हिंसा स्वयं का अहित है, हिंसा घूम कर अपने को दुख देना है। क्योंकि वह दुख लौट आता है। और अहिंसा हित है, अहिंसा अपने को आनंद देना है, क्योंकि जब हम दूसरे को आनंद बांटते हैं तो वह लौट आता है।
तो जो व्यक्ति शांति की तलाश में चला है, उसे स्मरण रखना होगा, उसकी चर्या से हिंसा क्षीण हो। उसके द्वारा किसी के मार्ग पर कांटे न डाले जाएं। और बन सके तो वह किसी के मार्ग पर दो फूल जरूर डाले। और फूल डालना बड़ा आसान है, कांटे डालना बड़ा कठिन है। और कांटे डालने में कोई भी आनंद नहीं है, और फूल डालने में बहुत आनंद है। एक दफा डालना सीखें, तो उस आनंद का पता पड़ना शुरू होता है।
तीसरा सूत्र मैं कहता हूंः अहिंसा-बोध। और चौथा सूत्र है शांति के साधक कोः अस्पर्श-भावना। उस सारे जगत के बीच रहते हुए निरंतर अनुभव करें कि मैं दूर और अलग हूं। कोई चीज मुझे स्पर्श नहीं करती है। जब कोई गाली दे, तो वह चुपचाप खड़े होकर देखे कि गाली आई, मेरे आर-पार निकल गई, मुझे उसने स्पर्श नहीं किया। जब कोई सुख आए तो वह अनुभव करे, सुख आया और निकल गया, उसने मुझे स्पर्श नहीं किया। वैसे ही जैसे मैं यहां बैठा हूं, और अभी इस कक्ष में प्रकाश है, और फिर प्रकाश को बुझा दिया जाए और उस कक्ष में अंधकार आ जाए, तो मैं क्या समझूंगा? मैं समझूंगा थोड़ी देर पहले मुझे प्रकाश घेरे हुए था, अब मुझे अंधकार घेरे हुए है, लेकिन मैं दोनों से ही कहां छू रहा हूं? मतलब दोनों में से कौन मेरे भीतर प्रविष्ट हो रहा है, न प्रकाश मेरे भीतर प्रविष्ट होता है, न अंधकार मेरे भीतर प्रविष्ट होता है। मैं तो अछूता खड़ा हुआ हूं। इस कमरे में प्रकाश आता और जाता है और मैं तो अछूता हूं। प्रकाश मुझे घेरता है, अंधकार मुझे घेरता है, लेकिन छूता कहां है? उसका स्पर्श मुझे कहां हो रहा है? वैसे ही सुख आए, दुख आए, सम्मान आए, अपमान आए, यह बोध होना जरूरी है, चीजें मुझ पर आती हैं और निकल जाती हैं, मैं तो अलग खड़ा रह जाता हूं। जो चीजें आती हैं और चली जाती हैं उनका मुझसे क्या नाता है? हम जैसे एक नदी के प्रवाह में खड़े हैं, पानी आ रहा है और बह रहा है और जा रहा है। और जैसे हम एक पहाड़ पर खड़े हैं और आंधियां आ रही हैं और जा रही हैं, मैं उनसे कहां स्पर्शित होता हूं?
अपने को इस भांति सजग करने की जरूरत है कि इस जगत में कुछ भी मुझे छूता नहीं। अगर इसका निरंतर बोध और अभ्यास चले कि जगत में मुझे कुछ भी छूता नहीं है, जगत में मुझे कुछ भी स्पर्श नहीं करता है, तो क्रमशः जगत और आपके बीच एक नये संबंध का जन्म हो जाएगा, अस्पर्श के संबंध का। अभी हमें हर चीज छू लेती है, और हमारा संबंध स्पर्श का है, और तब हमें कोई भी चीज छू नहीं सकेगी, और हमारा संबंध अस्पर्श का होगा। जिस व्यक्ति को जितनी ज्यादा चीजें छूती हैं, वह उतना अशांत होता है। और जिसे जितनी कम चीजें छूती हैं, वह उतना शांत हो जाता है।
शांति के ये चार चरण हैंः अहंकार-शून्य चर्या, अपरिग्रह बोध, अहिंसा दृष्टि, अस्पर्श भावना। जो इन चार पायों को सम्हाल लेता है, उसकी शांति की बुनियाद रख दी जाती है। और जो शांत हो जाता है, सत्य उससे दूर नहीं है। शांति का चक्षु सत्य को अत्यंत निकट, अत्यंत निकट अपने ही भीतर पा लेता है।
जिन्हें सत्य की प्यास है, उन्हें शांति को साधना आवश्यक है। और जैसे कोई किसान बीज बोने के पहले भूमि को तैयार करता है, वैसे ही जो सत्य के बीज बोना चाहते हैं, उन्हें शांति की भूमि को तैयार कर लेना पड़ता है।
मेरी इन बातों को इतने प्रेम से और शांति से सुना है, उससे बहुत अनुगृहीत हुआ, उससे आनंदित हुआ, प्रभु आपको उस दिशा में ले जाए जहां प्रकाश है, यही मेरी कामना है।
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