चिकलदरा शिविर-प्रवचन-दूसरा
सबसे पहले एक प्रश्न पूछा हैः और उससे संबंधित एक-दो प्रश्न और भी पूछें हैं। पूछा है मन चंचल है। और बिना अभ्यास और वैराग्य के वह कैसे स्थिर होगा। यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है और जिस ध्यान की साधना के लिए हम यहां इकट्ठे हुए हैं, उस साधना को समझने में भी सहयोगी होगा। इसलिए मैं थोड़ी सूक्ष्मता से इस संबंध में बात करना चाहूंगा।पहली बात तो यह कि हजारों वर्ष से मनुष्य को समझाया गया है कि मन चंचल है और मन की चंचलता बहुत बुरी बात है। मैं आपको निवेदन करना चाहता हूं, मन निश्चित ही चंचल है, लेकिन मन की चंचलता बुरी बात नहीं है। मन की चंचलता उसके जीवंत होने का प्रमाण है। जहां जीवन है वहां गति है, जहां जीवन नहीं है जड़ता है, वहां कोई गति नहीं है। मन की चंचलता आपके जीवित होने का लक्षण है जड़ होने का नहीं। मन की इस चंचलता से बचा जा सकता अगर हम किसी भांति जड़ हो जाएं।
और बहुत रास्ते हैं मन को जड़ कर लेने के। जिन बातों को हम समझते हैं- साधनाएं, उनमे से अधिकांश मन को जड़ करने के उपाय है। जैसे किसी भी एक शब्द की, नाम की, निरंतर पुनरुक्ति, रिपीटीशन, मन को जड़ता की तरफ ले जाता है। निश्चित ही उसकी चंचलता क्षीण हो जाती है, लेकिन चंचलता क्षीण हो जाना ही, न तो कुछ पाने जैसी बात है, न कुछ पहुंचने जैसी स्थिति है। गहरी नींद में भी मन की चंचलता शांत हो जाती है,
गहरी मूर्च्छा में भी शांत हो जाती है, बहुत गहरे नशे में भी शांत हो जाती है। और इसीलिए दुनिया के बहुत से साधु साधु और संन्यासियों के संप्रदाय नशा करने लगे हों, तो उसमें कुछ संबंध हैं। मन की चंचलता से ऊब कर नशे का प्रयोग शुरू हुआ। हिंदस्ुतान में भी साधुओं के बहुत से पंथ; गांजे, अफीम और दूसरे नशों का उपयोग करते हैं। क्योंकि गहरे नशे में मन की चंचलता रुक जाती है, गहरी मूर्च्छा में रुक जाती है, निद्रा में रुक जाती है, चंचलता रोक लेना ही कोई अर्थ की बात नहीं है, चंचलता रुक जाना ही कोई बड़ी गहरी खोज नहीं है और चंचलता को रोकने के जितने अभ्यास है, वे सब मनुष्य की बुद्धिमत्ता को, उसकी विजडम को, उसकी इंटैलिजेंस को, उसकी समझ, उसकी अंडरटैंडिंग को, सबको क्षीण करते हैं, कम करते हैं। जड़ मतिशक मेधावी नहीं रह जाता। तो क्या मैं यह कहूं कि चंचलता बहुत शुभ है, निश्चित ही चंचलता शुभ है, बहुत शुभ है। लेकिन चंचल तो विक्षिप्त का मन भी होता है, पागल का मन भी होता है। विक्षिप्त चंचलता शुभ नहीं है, पागल चंचलता शुभ नहीं है। चंचलता तो जीवन का लक्षण है, जहां गति है, वहां-वहां चंचलता होगी, लेकिन विक्षिप्त चंचलता।
जैसे एक नदी समुद्र की तरफ जाती है, जीवित नदी समुद्र की तरफ बहेगी, गतिमान होगी। लेकिन कोई नदी अगर पागल हो जाए, अभी तक कोई नदी पागल हुई नहीं। आदमियों को छोड़कर और कोई पागल होता ही नहीं। कोई नदी अगर पागल हो जाए, तो भी गति करेगी, कभी पूरब जाएगी, कभी दक्षिण जाएगी, कभी पश्चिम जाएगी, कभी उत्तर जाएगी और भटकेगी, अपने ही विरोधी रातों पर भटकेगी। सब तरह दौड़ेगी, धूपेगी लेकिन सागर तक नहीं पहुंच पाएगी। तब उस गति को हम पागल गति कहेंगे, गति बुरी नहीं है, पागल गति बुरी है। आप यहां तक आए, बिना गति के आप यहां तक नहीं आते, लेकिन गति अगर आपकी पागल होती, तो आप पहले कहीं जाते थोड़ी दूर, फिर कहीं दूर जाते थोड़ी दूर, फिर लौट आते, फिर इस कोने से उस कोने तक जाते, फिर वापिस हो जाते और भटकते एक पागल की तरह। तब आप कहीं पहुंच नहीं सकते थे, वह मन जो पागल की भांति भटकता है, घातक है, लेकिन स्वयं गति घातक नहीं है, जिस मन में गति ही नहीं है, वह मन तो जड़ हो गया। इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। मैं गति और चंचलता के विरोध में नहीं हूं।
मैं जड़ता के पक्ष में नहीं हूं, और हम दो ही तरह की बातें जानते हैं अभी, या तो विक्षिप्त मन की गति जानते हैं और या फिर राम-राम जपने वाले या माला फेरने वाले आदमी की जड़ता जानते हैं, इन दो के अतिरिक्त हम कोई तीसरी चीज नहीं जानते। चाहिए ऐसा चित्त जो गतिमान हो, लेकिन विक्षिप्त न हो, पागल न हो, ऐसा चित्त कैसे पैदा हो, उसकी मैं बात करूं। उसके पहले यह भी निवेदन करूं, कि मन की चंचलता के प्रति अत्यधिक विरोध का जो भाव है, वह योग्य नहीं है और न अनुग्रहपूर्ण है और न कृतज्ञतापूर्ण है। अगर मन गतिवान न हो और चंचल न हो, तो हम मन को न मालूम किस कूड़े-करकट पर उलझा दें और वही जीवन समाप्त हो जाए। लेकिन मन बड़ा साथी है, वह हर जगह से ऊबा देता है और आगे के लिए गतिवान कर देता है।
एक आदमी धन इकट्ठा करता है, कितना ही धन इकट्ठा कर लें, मन उसका राजी नहीं होता, इंकार कर देता है, इतने से कुछ भी न होगा। मन कहता है और लाओ, वह और धन ले आए, मन फिर कहेगा और लाओ, मन कितने ही धन पर तृप्त नहीं होता। कितना ही यश मिल जाए, मन तृप्त नहीं होता, कितनी ही शक्ति मिल जाए, मन तृप्त नहीं होता, यह मन की अतृप्ति बड़ी अद्भुत है अगर यह अतृप्ति न हो तो दुनिया कभी कोई आदमी आध्यात्मिक नहीं हो सकता है। अगर बुद्ध का मन तृप्त हो जाता है उस धन से जो उनके घर में उपलब्ध था और उस संपत्ति से और उस राज्य से जो उन्हें मिला था तो फिर बुद्ध के जीवन में आध्यात्मिक क्रांति नहीं होती। लेकिन मन अतृप्त था और चंचल था, उन महलों से वह तृप्त न हुआ और वह मन आगे भागने लगा। इसलिए एक क्षण आया कि मन की अतृप्ति क्रांति बन गई, वह जो डिसकंटेंट है मन की, वह जो मन का असंतोष है, वही तो क्रांति बनता है, नहीं तो क्रांति कैसे होगी जीवन में। अगर मन चंचल न हो तो धन से तृप्त हो जाएगा, भोग से तृप्त हो जाएगा, वासना से तृप्त हो जाएगा।
इजिप्त में एक फकीर था, इजिप्त का बादशाह उससे कभी-कभी मिलने जाता था। एक बार वह बादशाह मिलने गया। फकीर के द्वार पर ही उसकी पत्नी बैठी थी, उस बादशाह ने कहा कि मैं फकीर को मिलने आया हूं। वह कहां है। उसकी पत्नी ने कहा, आप बैठे! दो क्षण विश्राम करें, पीछे जब बगीचे में वह काम करता है, मैं उसे बुला लाऊं, लेकिन वह बादशाह बैठा नहीं। वह खेत की मेड़ पर टहलने लगा, उसकी पत्नी ने फिर भी कहा कि आप बैठ जाएं। उसने कहा, तुम बुला लाओ मैं टहलता हूं। पत्नी ने सोचा शायद खेत की मेड़ पर बैठना उसे शोभायुक्त न मालूम होता है, उसे भीतर बुलाया, चटाई बिछाई और कहा कि आप यहां बैठ जाए। लेकिन वह आकर ढलान में टहलने लगा, उसने कहा, तुम बुला लाओ मैं टहलता हूं। वह पत्नी गई, उसने अपने पति को बुलाया और मार्ग में उससे कहा, कि यह बादशाह तो बड़ा पागल मालूम होता है। मैंने उसे बहुत आग्रह किया, बैठ जाने का, लेकिन वह बैठा नहीं।
उस फकीर ने कहा, उसके योग्य, उसके बैठने योग्य थान हमारे पास नहीं, इसलिए वह टहलता है। उसके बैठने योग्य थान हमारे पास नहीं है इसलिए वह टहलता है, नहीं तो वह जरूर बैठ जाता। मैंने उसे बहुत बार बैठे हुए भी देखा है। यह कहानी मैं इसलिए कह रहा हूं कि हमारा मन जो इतना चंचल है, वह इसलिए कि हम मन के बैठने योग्य थान आज तक नहीं दे सके। अगर हम मन के बैठने योग्य थान दे दें, वह तो तत्क्षण बैठ जाएगा। उसकी सारी चंचलता विलीन हो जाएगी। परमात्मा के पूर्व मन कहीं भी नहीं बैठ सकता है, वही उसके बैठने का थान है। इसलिए मन की आप पर बड़ी कृपा है कि वह चंचल है। और हर कहीं नहीं बैठ जाता है। वह परमात्मा के पहले कहीं भी बैठेगा नहीं, यह उसकी कृपा है और जिस दिन वह बैठेगा उस दिन ही इस कृपा को आप समझ पाएंगे कि मन मुझे यहां तक ले आया। अगर मन कहीं बैठ जाता तो मैं परमात्मा तक आने में असमर्थ था। मन ले जाएगा हर जगह अतृप्त कर देगा, कहीं रुकेगा नहीं, हर जगह चंचल हो जाएगा, उस क्षण तक चंचल होता रहेगा, जब तक कि परम विश्राम का क्षण न आ जाए, जब तक कि वह बिंदु न आ जाए, जहां मन बैठ सकता है। जिस जगह मन बैठ जाए, बिना जड़ हुए जीवित गतिमान मन, जिस जगह जाकर विश्राम को उपलब्ध हो जाए, जान लेना परमात्मा निकट आ गया।
तो मैं यह नहीं कहता हूं कि मन थिर हो जाए, तो परमात्मा मिल जाएगा, मैं यह कह रहा हूं कि परमात्मा मिल जाए तो मन एकदम थिर हो जाएगा। वह थिरता फिर जाता नहीं होगी, वह थिरता बड़ी जीवंत होगी, बड़ी जागरूक होगी, लेकिन हम करते हैं उलटा हम मन को जड़ करना चाहते हैं, मन के जड़ करने से परमात्मा नहीं मिलेगा केवल गहरी नींद आ जाएगी, केवल मूर्च्छा हो जाएगी, केवल तंद्रा हो जाएगी, केवल मन जड़ हो जाएगा। तो जिसको हम अभ्यास कहते हैं, वह सब अभ्यास करीब-करीब इसी भांति का है जिससे मन जड़ होता है। मैं जो कह रहा हूं, वह अभ्यास नहीं है। अगर ठीक से समझें तो वह अनघयास है। मन ने अब तक जो अभ्यास किए हैं उन सबको छोड़ देना है, कोई नया अभ्यास नहीं करना है, क्योंकि मन जो भी अभ्यास करता है, मन ही तो करेगा न अभ्यास और मन का कोई भी अभ्यास मन के ऊपर ले जाने में मार्ग नहीं बन सकता। वह मन से बड़ा नहीं हो सकता, आप ही अभ्यास करेंगे न, तो आपके चित्त की जो दशा है, उस दशा से ऊपर आप कभी नहीं जा सकेंगे, अभ्यास कौन करेगा आप ही करेंगे, आप का ही मन करेगा। इसलिए मैं कहता हूं, अभ्यास से कभी आप ऊपर नहीं जा सकेंगे, मन का सारा अभ्यास छोड़ दें, शांत हो जाए, अभ्यास भी एक अशांति है। शांत हो जाए जैसे कुछ भी नहीं कर रहे हैं, न करने की स्थिति में हो जाएं, धीरे-धीरे जैसे-जैसे न करने की स्थिति गहरी होगी, आप पाएंगे कि मन विलीन होता जा रहा है। जैसे-जैसे मन शांत और विलीन होगा, वैसे-वैसे आप पाएंगे कि दूसरे लोक में चेतना उठ रही है और जाग रही है। लेकिन आप कहेंगे यह भी तो अभ्यास ही हुआ। हम शांत होकर बैठे, चित्त को विश्राम में ले जाए यह भी अभ्यास, यह भी एक प्रैक्टिस हुई, नहीं मैं आपसे निवेदन करूंगा, यह अभ्यास नहीं है। जैसे अगर मैं यह मुट्ठी बांधे हूं और कोई मेरे पास आए और मैं उससे पूछूं कि इस मुट्ठी को मैं कैसे खोलूं। तो वह मुझसे क्या कहेगा, वह कहेगा खोलने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है, बांधने के लिए जो कुछ कर रहे हैं कृपा कर उतना ही न करें, मुट्ठी तो खुल जाएगी। मुट्ठी का खुलना तो अपने आप हो जाएगा, हम उसे बांधने के लिए जो कर रहे हैं वह भर न करें, तो मुट्ठी का खुलना अभ्यास नहीं है, बांधने के लिए हम जो अभ्यास कर रहे हैं, उसके छोड़ते ही मुट्ठी खुल जाएगी। जैसे एक वृक्ष की शाखा को हम खींच कर पकड़ लें। और किसी से पूछें कि अब इसे इसकी जगह वापिस लौटाने के लिए क्या करें, तो वह क्या कहेगा, वह कहेगा आप कुछ भी न करें, वापिस लौटाने के लिए कृपया इसे रोक रखने के लिए जो कर रहे हैं, वह भर न करें। शाखा अपने आप वापिस लौट जाएगी, हम मन के साथ जो कर रहे हैं निरंतर, क्या कर रहे हैं हम मन के साथ, हम कुछ काम कर रहे हैं मन के साथ, अगर हम वह न करें, मन अपने आप शांत हो जाएगा, मन अपने आप शांत हो जाएगा। जैसे सुबह मैंने आपसे कहा, कि हम मन के साथ निरंतर प्रतिरोध की एक साधना कर रहे हैं रेसिटेंस की साधना कर रहे हैं। हम चौबीस घंटे मन से प्रतिरोधी बने हुए है। किसी न किसी स्थिति के प्रति हमारा प्रतिरोध इतना ज्यादा है कि जीवन भर हम लड़ रहे हैं, मन हमारा चौबीस घंटे लड़ रहा है। कभी भी गैर-लड़ाई की स्थिति में हमारा मन नहीं, यह लड़ाई मन को तनाव से भर देती है, बेचैनी से भर देती है, दुख असफलता से भर देती है और तब, तब मन में इतना ज्यादा रुग्ण, फीवरिश, इतना बुखार की स्थिति हो जाती है कि फिर हम शांति की खोज करते हैं, गुरुओं के पास जाते हैं और उनसे पूछते हैं शांत कैसे हो जाएं। वह हमसे कहते हैं, राम-राम जपो, ओम-ओम जपो या माला फेरो या मंदिर जाओ या यह पढ़ो या वह पढ़ो या यह मंत्र या वह जाप, वे हमें यह बताते हैं, हम वह जाप शुरू कर देते हैं, बिना इस बात को जाने हुए कि यह जाप कौन कर रहा है वही फीवरिश माइंड, वही अशांत, परेशान मन वही बीमार रुग्ण मन जाप फेर रहा है। बीमार मन, रुग्ण मन जाप फेरेगा तो जाप से क्या फल आने वाला है यह सब खुद भी उसी बीमारी के हिस्से के भीतर यह बात सारी चलेगी। इससे कोई परिवर्तन होने वाला नहीं है, इससे कोई परिवर्तन कभी नहीं हुआ है।
मैं आपसे कहूंगा कि बजाय इसके कि आप शांति की खोज में जाएं, उचित है कि आप समझें कि अशांति क्यों है। मेरे पास तो रोज निरंतर लोग आते हैं, वह यह कहते हैं कि हमें शांत होना है। मैं उनसे पूछता हूं कि इसकी फिक्र छोड़ दें, अशांत व्यक्ति कभी शांत नहीं हो सकता। वह बड़े हैरान हो जाते हैं कि अगर अशांत व्यक्ति शांत नहीं हो सकता है तो क्या हम बिल्कुल निराश हो जाए, मैं उनसे कहता हूं नहीं, अशांत व्यक्ति शांत नहीं हो सकता, लेकिन अशांत व्यक्ति अगर अशांति के मूल कारणों से समझ लें, तो अशांति से मुक्त हो सकता है। और जब अशांति से मुक्त हो जाएगा तो जो चीज शेष रह जाएगी, उसका नाम शांति है। अशांत मन शांत नहीं हो सकता, हां अशांति से मुक्त हो सकता है। अशांति से मुक्त हो जाए तो शांति तो हमारा वभाव है। हम तो उसमें खड़े हो जाएंगे, तो बजाय इसके कि हम शांति खोजें और उसके लिए कोई अभ्यास करें, मेरी दृष्टि यह है कि हम समझें कि हम अशांत क्यों हैं। और अगर हम समझ लें, कि अशांत क्यों हैं? तो जिस चीज को हम समझ लेंगे कि वह हमें अशांति दे रही है उसे छोड़ने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ेगा, क्योंकि जो चीज हमें अशांति दे रही हो वह समझ में ही आ जाए तो छूट जाएगी। आपको समझ में आ जाएगी, जहर रखा हुआ है आप नहीं पीते हैं, आपको समझ में आ जाता है कि यहां दीवाल है यहां दरवाजा है, तो आप दरवाजे से निकलते हैं, दीवाल से नहीं निकलते, क्यों? अभ्यास करते हैं बहुत दीवाल से न निकलने का, कि दरवाजे से निकलने का कोई अभ्यास करते हैं, नहीं, बस जान लेते हैं कि यह दरवाजा है और यह दीवाल फिर दीवाल से आप नहीं निकलते हैं, जिस दिन आपको पष्ट दिखाई पड़ जाए कि अशांति कहां-कहां हैं चित्त में। कौन-कौन से कारणों से उस दिन कोई अभ्यास नहीं करना होता, अंडरटैंडिंग समझ मात्र। जीवन में एक क्रांति ला देती है, आप और ढंग से चलना शुरू हो जाते हैं।
एक दक्षिण में फकीर हुआ। उसके आश्रम में एक युवक बहुत-बहुत बकवादी, बहुत ताअकक और विवादी था, जैसे आमतौर से धार्मिक लोग होते हैं, धार्मिक लोग आमतौर से विवादी होते हैं। और जो जितना बड़ा विवादी होता है, हम कहते हैं वह उतना ही बड़ा महअष है। जो जितना खंडन करें, तर्क करें, विवाद करें कहते हैं उतना ही बड़ा ज्ञानी है। वह युवक भी बड़ा ज्ञानी था, वह सुबह से सांझ तक सिवाय खंडन-मंडन के उसे कोई काम ही नहीं था। यह शात्र ठीक है और वह शात्र गलत है और यह धर्म ठीक है और वह धर्म गलत है निरंतर। एक दिन यात्रा करता हुआ एक संन्यासी मेहमान हुआ उस आश्रम में। उस युवक ने उससे भी बहुत विवाद किया। उसे बहुत पराजित भी किया, विवाद का सुख ही और क्या है सिवाय इसके कि हम किसी को पराजित करें और जहां पराजित करने वाला व्यक्ति मौजूद है, वहां फर्क नहीं पड़ता कि पराजय तर्क कि द्वारा लाई गई है या तलवार के द्वारा, हिंसा मौजूद है। वह एक तरह के लोग हैं, पुराने दिनों में गुरु निकलते थे गांव-गांव खोजते थे दुश्मनों को लड़ने जाते थे उनसे, उनको विवाद में हराने जाते थे। यह सब अहंकार की चेष्टाएं हैं इनका ज्ञान से कोई संबंध नहीं है। वह आते ही उस संन्यासी से जूझ गया और उस संन्यासी को उसने शाम तक बहुत परेशान कर दिया उसके सारे तर्क खंडित कर दिए। सांझ हारा हुआ वह संन्यासी चला गया, वह युवक बहुत गौरव से अपने मित्रों की तरफ देखा उसके गुरु ने उससे कहा कि देख मैंने तुझे कभी नहीं कहा लेकिन तीन वर्ष से निरंतर तू यहां है और सुबह से सांझ तक विवाद करता है, तर्क करता है, आज मैं तुझसे यह कहता हूं कि कभी मौन भी होकर देखेगा या नहीं। और मैं तुझसे यह निवेदन करता हूं कि इतने दिन तूने तर्क किया और विवाद किया, क्या तुझे मिला, अगर कुछ मिला हो तो मुझे भी बता, मैं भी विवाद करूं, मैं भी तर्क करूं। अगर न मिला हो, तो मौन होकर देख, कब से तू मौन होगा। उस युवक ने क्या किया आपको पता है? उसने आंख बंद की, दो क्षण वह मौन बैठा, और उसने अपने गुरु को कहा, मैं यह अंतिम शब्द बोल रहा हूं कि आगे अब कभी नहीं बोलूंगा। वह अंतिम दिन था, फिर जीवन भर वह नहीं बोला। लोगों ने आकर उसके गुरु को कहा, कि यह युवक तो बिल्कुल पागल मालूम होता है, पहले तो बहुत विवाद करता था और अब बिल्कुल चुप हो गया। उसके गुरु ने कहा, इस जैसे लोग मुश्किल से पाए जाते हैं, इतनी स्पष्ट समझ मुश्किल से होती है। इसे अभ्यास की भी जरूरत न पड़ेगी, इसे चीज दिखाई पड़ी और हो गई। इसने सुना, समझा, दो क्षण आंख बंद करके मौन हुआ, उसे बात दिखाई पड़ गई कि तर्क में जो शांति नहीं थी, वह दो क्षण के मौन में थी। तर्क गया और विलीन हो गया। कोई अभ्यास थोड़े ही करना पड़ता है छोड़ने के लिए।
ज्ञान खुद क्रांति बन जाता है। अभ्यास तो वहां करना होता है, जहां ज्ञान नहीं होता, वहां अभ्यास करना होता है। अभ्यास अज्ञानी का लक्षण हैः जब हम किसी चीज की कोशिश कर-कर के करते हैं, तो वह झूठी हो जाती है। एक आदमी कहता है कि मैं शराब छोड़ने का अभ्यास कर रहा हूं, उसका क्या मतलब? उसका मतलब है कि उसे यह दर्शन नहीं हुए थे कि शराब जीवन के लिए घातक हैं, इसलिए अभ्यास कर रहा है। एक आदमी कहता है कि मैं यह काम करने का अभ्यास कर रहा हूं, वह काम छोड़ने का अभ्यास कर रहा हूं, इसका अर्थ क्या है? अगर दिखाई पड़े तो दर्शन ही क्रांति हो जाती है, परिवर्तन हो जाता है। मेरा आग्रह है कि चीजों को समझना चाहिए, अभ्यास करने की फिक्र नहीं करनी चाहिए। समझ से जो आता है, वह सहज परिवर्तन है, अभ्यास से जो आता है, वह जबरदस्ती लाया हुआ परिवर्तन है और जबरदस्ती लाए हुए परिवर्तन के पीछे विरोधी चित्त निरंतर मौजूद रहता है। वह कहीं खोता नहीं, वह कहीं जाता नहीं। अगर मैं जबरदती साध कर अभ्यास करके, ब्रह्मचर्य को पा लूं भीतर सैक्स मौजूद रहेगा, जा नहीं सकता। इसलिए जिनको हम ब्रह्मचर्य कहते हैं, उनकी दृष्टि और मन में जितनी सेक्सुअलिटी होती है, जितनी कामुकता होती है, उतनी सामान्य जन के मन में नहीं होती, हो भी नहीं सकती। अभ्यास कर करके, ऊपर से ब्रह्मचर्य को थोप लेते हैं, भीतर का काम, भीतर की वासना कहां जाएगी, वह भीतर बैठी रहती है, फिर वह नए-नए रूपों से निकलती है। उसके बड़े अजीब-अजीब रूप है, जिनकी हमें पहचान भी नहीं है। क्या आपको पता है कि जिन लोगों ने वर्ग में निरंतर युवा रहने वाली अप्सराओं की कल्पना की है, ये कौन लोग होंगे। ये वही लोग होंगे, जिनको हम जमीन पर ब्रह्मचर्य की तरह जानते हैं। इन्होंने वर्ग में निरंतर युवा रहने वाली अप्सराओं की कल्पना कर ली हैं। इन्होंने वर्ग में सारे सुख-भोग और सारी वासनाओं की तृप्ति का इंतजाम कर लिया है। ये यहां क्या कर रहे हैं, वहां पाने के लिए और जिस चीज का त्याग कर रहे हैं, उसी को बड़े रूप में पाने का वहां इंतजाम कर रहे हैं। बहुत हैरानी की बात है, बहुत आश्चर्य की बात है कैसे लोग है। ऐसे धर्म-ग्रंथ है जिनमें यह लिखा है कि वर्ग में शराब के चश्मे बहते हैं, झरने बहते हैं, वहीं धर्म-ग्रंथ यहां कहते हैं कि शराब पीना पाप है, वही कहते हैं कि जो यहां शराब छोड़ेगा उसे ऐसा वर्ग मिलेगा, जहां झरने बह रहे हैं शराब के, और वहां कोई चुल्लुओं से पीने का सवाल नहीं है, वहां तो नहाइए-धोइए शराब में कूदीए, पीए और जो भी करना हो। बड़ी हैरानी की बात है। जरूर जिसने जबरदती शराब पर संयम बांध लिया होगा, उसी के मन में यह कल्पना उठी होगी, वर्ग में शराब के चश्मे बहाने की और तो किसके मन में उठेगी।
जिन लोगों ने जबरदस्ती स्त्रियों से अपने को दूर कर लिया होगा, उन्हीं ने वर्ग में अप्सराओं के नृत्य कल्पित किए होंगे, नहीं तो कौन करेगा, करेगा कौन? यह दमित, सप्रैसड माइंड, दमन किए हुए लोग, इस तरह की कल्पनाएं करेंगे, यह हैरानी की बात नहीं है। और जिन लोगों ने इस तरह का ब्रह्मचर्य साधा है, उन सारे लोगों ने अपने ग्रंथों में, अपने शास्त्रों में स्त्रियों के अंग-अंग का वर्णन भी किया है, ऐसा रसपूर्ण वर्णन किया है कि हैरानी होती है कि कैसे लोग है, इनके दिमाग में जरूर कोई रुग्णता है, कोई खराबी है, त्रियों को नरक का द्वार कह रहे हैं, तो मैं कई दफे हैरान हुआ, मुझे तो ऐसा लगने लगा कि स्त्रियां तो अब तक नरक गई ही नहीं होंगी, क्योंकि पुरुष तो कोई नरक जाने का द्वार है नहीं, स्त्रियां द्वार है, तो उनसे पुरुष तो नरक चले गए होंगे, लेकिन स्त्रियां कहां गई होंगी, स्त्रियां तो नरक जा ही नहीं सकती, वे तो द्वार है। उनके लिए तो कोई द्वार नहीं है, वे सब वर्ग में होंगी, मोक्ष में होंगी पता नहीं कहां होंगी। अगर स्त्रियों ने ग्रंथ लिखे होते, तो वे लिखती, पुरुष नरक का द्वार हैं। लेकिन चूंकि पुरुषों ने लिखे हैं, इसलिए स्त्रियां नरक का द्वार है, और उन पुरुषों ने लिखे हैं, जिन्होंने जोर-जबरदस्ती से अपने कोस्त्री से रोका होगा और दूर रखा होगा। नहीं तो जिस व्यक्ति के चित्त से काम विलीन हो जाए, सैक्स विलीन हो जाए, उसे तोस्त्री और पुरुष में फर्क और फासला भी नहीं रह जाना चाहिए।
बुद्ध एक पहाड़ी के किनारे ध्यान करते थे। वैशाली से कुछ युवक एक वेश्या को लेकर वन में विहार करने को आए होंगे। जब वे खा पी रहे थे और शराब पी रहे होंगे, तब वह वेश्या मौका पाकर उनके हाथ से निकल भागी। वे युवक उसका पीछा करते हुए खोजने निकले, उस जंगल में कोई न दिखा एक झाड़ के नीचे बुद्ध दिखाई पड़ें। तो उन्होंने उन्हें हिलाया और कहा महानुभाव आंखें खोलिए। क्या कोई स्त्री यहां से जाती हुई दिखाई पड़ी। बुद्ध ने कहा, क्षमा करे! कोई दस वर्ष हुए तब से स्त्रियां दिखाई पड़नी संभव नहीं रही। उन्होंने कहा, पागल हो गए। उन्होंने कहा, मैं सत्य कहता हूं। दिखाई पड़ते हैं लोग आते-जाते हुए, लेकिन जिस भांति पहले स्त्रियां पृथक दिखाई पड़ती थी, वैसा अब दिखाई नहीं पड़ता। वह जोस्त्री के पृथक होने का बोध था, वह भीतर काम के कारण था, भीतर सैक्स के कारण था।
मैं सुनता था, एक व्यक्ति यूरोप से वापिस लौटा। उसकी पत्नी उसे एयरपोर्ट पर लेने गई थी। वह नीचे उतरा, वह जो परिचारिकाएं हवाई जहाज पर थी, उसमें से एक परिचारिका ने उसे हाथ मिलाया और विदा दी। उसने अपनी पत्नी को कहा, कि यह परिचारिका बहुत अद्भुत है और बहुत सेवा-कुशल है। कुछ नाम बताया कि यह इसका नाम है, उसकी पत्नी ने पूछा आप इसका नाम कैसे जान सकें। उसने कहा, पीछे अंदर तख्ती लगी हुई है, जिसमें सभी परिचारिकाओं, चालकों सबके नाम लिखे हुए हैं और उसने कहा, कृपा करके बताइए चालक का नाम क्या है? वह पति जरा मुश्किल में पड़ गया, जब एक पुरुष किसी तख्ती को पढ़ता है तो सिर्फ स्त्रियों के नाम उसे ख्याल रह जाते, पुरुषों के नाम ख्याल नहीं रह जाते। जिन पत्रिकाओं पर लिखा रहता है, ओनली फार मैन, उनको सिर्फ स्त्रियां पढ़ती है। जिन पर लिखा रहता है सिर्फ पुरुषों के लिए, उनको सिर्फ स्त्रियां पढ़ती है। जिन पत्रिकाओं पर लिखा रहता है सिर्फ स्त्रियों के लिए उनको स्त्रियां नहीं पढ़ती, सिर्फ पुरुष पढ़ते हैं। यह बहुत स्वाभाविक है। यह आश्चर्यजनक नहीं है। हमारे चित्त में जो, जो विरोधी सैक्स के प्रति आकर्षण हैं, वह निरंतर काम करता है, उसी से हमें चीजें अलग दिखाई पड़ती है।
बुद्ध ने कहा, क्षमा करें! इधर दस वर्षों से जब तक कि मैं कोशिश करके ही पहचानने का ख्याल न करूं, तब तक स्त्री और पुरुष को अलग-अलग देख पाना अचानक नहीं हो जाता है। कोई निकला तो जरूर है यहां से लेकिन स्त्री थी या पुरुष यह कहना कठिन है। जिन लोगों के चित्त से काम और सैक्स विसर्जित हो जाएगा, उनके मन में स्त्रियों के प्रति गालियां नहीं हो सकती है। अगर वे स्त्रियां है तो उनके मन में पुरुषों के प्रति निंदा का, कंडमनेशन का भाव नहीं हो सकता है। अगर यह भाव मौजूद है तो जानना चाहिए, भीतर काम मौजूद है ऊपर से ब्रह्मचर्य को थोप लिया गया है, अभ्यास कर लिया गया। अभ्यास बड़ी खतरनाक बात है, खतरनाक इसलिए कि भीतर कोई क्रांति नहीं होती और ऊपर से हम बिल्कुल बदले हुए दिखाई पड़ने लगते हैं।
मैं एक जगह था, एक बड़ी साध्वी से बातें करता था। बड़ी इसलिए कि उनके बहुत अनुयायी हैं। और तो बड़े-छोटे का कोई पता चलता नहीं दुनिया में, जिसके जितने अनुयायी होते हैं, वह उतना बड़ा हो जाता है। जैसे जिसके पास जितने ज्यादा रुपये होते हैं, उतना बड़ा आदमी हो जाता है, जिस साधु के पास जितनी भीड़ होती है, उतना बड़ा साधु हो जाता है। वह बड़ी साध्वी है, बहुत भीड़-भाड़ उनके आस-पास है। और भीड़-भाड़ देखकर भीड़-भाड़ बढ़ती जाती है। जैसे रुपया रुपये को खींचते हैं, वैसे भीड़ भीड़ को खींचती हैं, तर्क होता है चीजों का अपना। आपके पास बहुत रुपये हैं, रुपये अपने आप चले आते हैं, आपके पास बहुत भीड़ हैं, और भीड़ चली आती हैं। क्योंकि भीड़ सोचती है कि इतनी भीड़ है तो आदमी जरूर बड़ा होगा। तर्क हमारे मन का ऐसा काम करता है, तो बड़ी भीड़ उनके पास है, उन्होंने मुझे भी कहा कि मुझसे मिलना चाहते हैं, मिलना हुआ। जैसे अभी यहां हवाएं चल रही हैं, ऐसी खूब तेज हवाएं थी समुद्र के किनारे, जहां मैं उनसे मिला। तो मेरा चादर उड़कर उनको छूता था, मेरा चादर छूता था तो उनको ऐसा धक्का लगता था, जैसे बिजली का शॉक लग जाए। वह आत्मा परमात्मा की मुझसे बात कर रही थी और कह रही थी कि हम तो शरीर नहीं है हम तो परमात्मा है, आत्मा है, ब्रह्म है, फलां-ढिकां हैं। और मेरा चादर उनको छूता था हवा में, तो उनके प्राण कंप जाते थे, डर के मारे वह हट भी नहीं सकती थी, क्योंकि मैं पूछूंगा कि आप हटी क्यों? मुझसे कह भी नहीं सकती थी कि आपका चादर छू रहा है, तो बड़ा पाप हो रहा है। मगर उनके एक शिष्य ने मेरे कान में कहा कि क्षमा करिए! शायद आपको पता नहीं पुरुष का चादर साध्वी नहीं छू सकती हैं। तो मैंने उनसे पूछा आप भी सहमत है, यह जो मेरे कान में कह रहे हैं। हां, उन्होंने कहा कि यह तो पुरुष का चादर हमें नहीं छूना चाहिए, वअजत है। तो मैंने कहा, मैं बहुत हैरान हूं। मेरे ओढ़ने से चादर भी पुरुष हो गया, आपके ओढ़ने से स्त्री हो जाता है चादर भी। और बातें कर रही है आत्मा-परमात्मा की, बातें आप कर रही है कि हम शरीर नहीं है, शरीर तो मिट्टी है, चादर भी मिट्टी नहीं है आपको, चादर भी पुरुष हैं और शरीर को मिट्टी होने की बात कर रही है। तो मैंने उनको कहा कि यह चादर इसलिए पुरुष हो गया, भीतर जो दबा हुआ काम है, भीतर जो सेक्सुअलिटी है दबी हुई, वह सेक्सुअलिटी इस चादर के छूने से भी चौंकती हैं, जगती है, घबराहट पैदा करती है। यह जो हमारा चित्त है, जितनी चीजों को दबा लेता है और अभ्यास कर लेता है, उतनी कठिनाई में पड़ जाता है। तब मैं आपसे निवेदन करूंगा, अभ्यास के लिए मेरा आग्रह नहीं है। मेरा आग्रह है बहुत सहज जीवन परिवर्तन के लिए, कोशिश करके लाए हुए परिवर्तन का कोई भी मूल्य नहीं है। मूल्य है उस परिवर्तन का जो ज्ञान से आता है। मूल्य है उस परिवर्तन का जो भीतर से आता है और विकसित होता है। मूल्य है उस परिवर्तन का जो अनायास और सहज आपके जीवन को घेर लेता है, आलोक से मंडित कर देता है, उस परिवर्तन का कोई भी मूल्य नहीं है, जिसको खींच-खींच कर, व्यवस्था कर-कर के, आप अपने चारों तरफ खड़ा कर लेते हैं। आपके द्वारा लाए गए परिवर्तन कोई भी अर्थ नहीं रखता, उस परिवर्तन का अर्थ है जो आपके अभ्यास से नहीं आता, बल्कि आपके ज्ञान की छाया की भांति विकसित होता है। तो मैं आपको कहूं, विवेक ही परिवर्तन है, ज्ञान ही परिवर्तन है और ज्ञान कोई अभ्यास नहीं। ज्ञान कोई अभ्यास नहीं, ज्ञान है सतत जागरण, ज्ञान है चेतना का शांत होना और विकसित होना। उसकी मैं कल बात करूंगा कि विवेक कैसे जाग्रत हो, और ज्ञान कैसे फलित हो। अभी तो इतना कहूंगा, इस प्रश्न के संबंध में और कि ऐसे अभ्यास से आया हुआ वैराग्य, चाहे कोई भी शास्त्र उसका समर्थन करते हों और चाहे कोई भी धर्म-ग्रंथ उसके पक्ष में खड़े हो, उनसे मुझे प्रयोजन नहीं। जो मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं आपसे कह रहा हूं और उसे स्पष्ट निशपक्ष भाव से आप सोचेंगे, यह भी आशा करता हूं। अभ्यास से आया हुआ वैराग्य झूठा है, जो वैराग्य सहज जीवन के जीने से विकसित होता है, वही सच्चा है। वैसे वैराग्य में न तो कुछ छोड़ना है, न किसी से भागना, चीजें अपने आप छूटती है और बदलाहट होती चली जाती है। जैसे सूखे पत्ते वृक्ष से गिर जाते हैं, न वृक्ष को पता चलता, न पत्तों को, वैसे ही जिसके जीवन में ज्ञान की परिपक्वता आती है, उसके जीवन में कुछ चीजें छूटती चली जाती है और बदलती चली जाती है। एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे मेरी बात समझ में आ सकें।
एक लकड़हारा और उसकी पत्नी जंगल से वापिस लौटते थे। लकड़हारा साधारण जन नहीं था। अभ्यासी था और बहुत अर्थों में उसने वैराग्य को साधा था। उसने सब तरह के धन-संपत्ति से वैराग्य ले लिया था। घर की सब संपत्ति बांट दी थी, अकंचन हो गया था। घर में एक पैसा भी नहीं रखता था, रोज सुबह लकड़ियां काट लेता, बेच देता, जो बचता खा पी लेता और जो बच जाता सांझ को सूरज डूबने के पहले उसको बांट देता। रात वह परम-दरिद्र होकर सो जाता। सुबह फिर लकड़ियां काटनी, फिर बांट लेना, फिर सो जाना, लेकिन कुछ दिन पानी गिरा था और पांच-सात दिन वह लकड़ियां नहीं काट सका था। तो पांच-सात दिन भूखे ही गुजारने पड़े थे उसकी पत्नी उसको दोनों को। आज पांच-सात दिन के बाद वह लकड़ियां काटकर जंगल से वापिस हो रहा था। आगे खुद था, पीछे पत्नी थी, पांच दिन का भूखा थका-बूढ़ा आदमी सिर पर लकड़ियों का बोझ। लेकिन बगल में उसने देखा कि किसी राहगीर किसी घोड़े के सवार की, बगल में घोड़े के टापुओं के निशान है और पास में ही बड़ी थैली पड़ी है। कुछ मोहरें बाहर पड़ी है सोने की, कुछ थैली के भीतर है, थैली खुल गई है। उसके मन को हुआ कि मैंने तो निरंतर अभ्यास से अनासक्ति को साध लिया, धन के प्रति मेरी कोई आसक्ति नहीं है, लेकिन मेरी पत्नी का मन डोल सकता है। उसका इतना अभ्यास नहीं है, उसका इतना वैराग्य नहीं है। स्त्री ही ठहरी, पुरुष के मन में सदा ऐसा लगता है कि स्त्री को भी कहीं वैराग्य हो सकता है। आपको पता है मुश्किल से कोई धर्म हो, जोस्त्री को वर्ग जाने का हक देता हो। कोई धर्म नहीं देता, धर्म कहते हैं कि स्त्री जब तक पुरुष की पर्याय में नहीं आएगी, तब तक मोक्ष उसका हो ही नहीं सकता। वह जगह-जगह स्त्रियां पूछती है कि हम पुरुष के पर्याय में कैसे आए, इसका रास्ता बताइए, क्योंकि जब तक पुरुष न हो जाए वे अगले किसी जन्म में, तब तक मोक्ष में नहीं जा सकते। यह तो फिर भी बड़ी दया है चीन जैसे मुल्क में तोस्त्री के भीतर आत्मा भी नहीं मानी जाती रही। स्त्री की हत्या कर देते आज तक तीस साल पहले तक चीन में मुकदमा नहीं चल सकता था। क्योंकि स्त्री में कोई आत्मा ही नहीं है। स्त्री तो संपदा है पुरुष की, ऐसे तो हम भी कहते हैं स्त्री संपत्ति, मूढ़ता तो हमारी भी वही है। स्त्री को हम भी संपत्ति ही मानते हैं। अभी भी हमारे में वही भाव है, मालिक है हम, इसलिए पुरुष के नाम से स्त्री जानी जाती है, स्त्री के नाम से पुरुष नहीं जाना जाता। हमारी पकड़ ऐसी रही है, उसने सोचा, स्त्री है इसकी बुद्धि में कहां आ सकता है वैराग्य वगैरह, अभ्यास भी इसका गहरा नहीं है। कहीं इसका मन न डोल जाए, उसने उस थैली को बगल के गड्ढे में सरका कर मिट्टी से ढक दिया। लेकिन वह ढक भी नहीं पाया था कि उसकी स्त्री पीछे आ गई और उसने पूछा क्या करते हैं?
तो उसका यह भी अभ्यास था कि झूठ नहीं बोलना है, सत्य ही बोलना है। तब बड़ी मुश्किल में पड़ गया, दुविधा में, अगर झूठ बोले तो पाप हो जाए, और सत्य बोले तो कहीं स्त्री का मन न डोल जाए। फिर भी मजबूरी में भगवान का नाम लेते-लेते उसने सत्य बोला और उसने कहा कि ऐसी-ऐसी बात हुई, यहां सोने की मुद्राएं पड़ी थी। मेरा वैराग्य तो दृढ़ है तेरा संदिग्ध है। यह सोचकर की कि भूख-प्यास में घबराहट में कहीं तेरा मन न डोल जाए, मन है चंचल, डोल सकता है। तो व्यर्थ ही तेरे मन को पाप लगे, काली मां लगे, इसलिए मैंने मोहरों को हटाकर गड्ढे में डालकर मिट्टी से ढक दिया है। उसकी स्त्री बहुत जोर-जोर से हंसने लगी। उसके पति ने पूछा इतने जोर से क्यों हंसती हो, बात क्या हो गई इसमें हंसने की। उसने कहा, बात तो बड़ी हो गई। मैं तो सोचती थी कि तुम्हारे मन से सोने का मोल चला गया, लेकिन अभी गया नहीं। तुम्हें सोना दिखाई पड़ता है, तुम्हें वर्ण दिखाई पड़ता है। और मैं दुखी भी मन बहुत हो रही हूं क्योंकि तुम मिट्टी पर मिट्टी को डाल रहे हो और सोच रहे हो कि बड़ा काम कर रहे हो। इस स्त्री का कोई अभ्यास नहीं था, इस स्त्री को कुछ दिखाई पड़ा था। सोने का मिट्टी होना दिखाई पड़ा था, बात खत्म हो गई थी, अभ्यास का कोई सवाल न था। पति को दिखाई तो सोना ही पड़ता था, अभ्यास कर करके कि सब सोना बेकार है, कामिनी-कांचन सब व्यर्थ है। ऐसा दोहरा-दोहरा के मन को समझा-समझाकर बांध-बांध कर संयम कर-करके उन्होंने किसी भांति सोने से अपने को दूर रख लिया था। सोना तो खूब दिखाई पड़ेगा ऐसी स्थिति में, आमतौर से और ज्यादा दिखाई पड़ेगा। आमतौर से ज्यादा दिखाई पड़ेगा, जिसने इस तरह अपने को दूर-दूर बांधा है सोने से, सोना उसे पागल करने लगेगा, सोने के प्रति उसका आकर्षण बहुत तीव्र हो जाएगा, घनीभूत हो जाएगा। वह जहां भी देखेगा, वही उसे सोना दिखाई पड़ेगा। जरा सा भी सोना होगा, उसके प्राण डांवाडोल होने लगेंगे, क्योंकि उसने बांधा है, जबरदस्ती रोका है। जबरदती से रोकने से रुग्ण चाह पैदा होती है, अनासक्ति नहीं। रुग्ण चाह आसक्ति से भी ज्यादा घातक है।
लेकिन चीजें दिखाई पड़े, अनुभव में आए, तो फिर एक परिवर्तन होता है, जो बिना अभ्यास के होता है। मैं नहीं कहता हूं कि कोई अभ्यास करें, मैं कहता हूं विवेक को जगाए, मन को शांति की तरफ ले जाए और देखे चीजों को, जीवन को, आपको खुद दिखाई पड़ने लगेगा कि जीवन में एक सपने की भांति है कोई इसका अभ्यास नहीं करना पड़ेगा और ऐसा बैठ कर रोज दोहराना नहीं पड़ेगा कि जगत मिथ्या है और ब्रह्म सत्य है, ऐसा दोहराना नहीं पड़ेगा। ऐसा घर में रोज-रोज अभ्यास नहीं करना पड़ेगा कि जगत तो मिथ्या है और ब्रह्म सत्य है। जो ऐसा दोहरा-दोहरा कर याद करता हो कि जगत मिथ्या हो और ब्रह्म सत्य उसको दिखाई नहीं पड़ रहा है, नहीं तो दोहराता क्यों? दोहराता वही है जिसे दिखाई नहीं पड़ता, जिसे दिखाई पड़ रहा हो वह क्यों दोहराएगा। दिखाई पड़ना पर्याप्त है और उससे क्रांति हो जाती है। मैं चाहूंगा कि देखना शुरू करें अभ्यास नहीं, लेकिन हजारों साल की शिक्षाएं हैं लीक से बंधी हुई और वे हमसे कहती है अभ्यास करों नहीं तो वैराग्य पैदा ही नहीं होगा। राग में पड़े रहोगे तो कैसे वैराग्य पैदा होगा। इसलिए वैराग्य का अभ्यास करो, राग से हटो, वैराग्य का अभ्यास करो। मैं कहता हूं, नहीं। राग से अगर भागे, और वैराग्य पैदा किया, उस वैराग्य के भीतर भी राग मौजूद रहेगा। वह कहीं जा नहीं सकता है। फिर मैं आपसे क्या कहता हूं, मैं कहता हूं, जहां आप हों, वहीं आंखें खोलकर जीओ। राग में भी आंख खोलकर जीओ, आंखें खोलकर जीने से अगर राग व्यर्थ है तो दिखाई पड़ने लगेगा, वैराग्य लाना नहीं पड़ेगा। राग की व्यर्थता दिखाई पड़ी कि राग झड़ने लगेगा, जैसे पके पत्ते गिरने लगते हैं और जहां हो आप, वहीं एक दिन आप पाओगे, वैराग्य आ गया है। वैराग्य आता है, लाया नहीं जाता, वह कंटीवेट नहीं किया जाता है। संन्यास आता है, लाया नहीं जा सकता है। और आता कैसे है? जहां देखने की दृष्टि निर्मल हो जाती है वहां अपने आप चला आता है। जैसे बैलगाड़ी चलती है। तो पीछे चक्के के निशान बन जाते हैं। वैसे ही जहां भी ज्ञान जीवन में जगता है, वहीं अपने आप पीछे वैराग्य के निशान बनते चले आते हैं। वैराग्य ज्ञान की छाया है, अभ्यास का फल नहीं। और जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह ज्ञान से फलित होता है, अभ्यास से फलित नहीं होता।
अभ्यास से कोई एक्टिंग कर सकता है, अभिनेता बन सकता है, पाखंड पैदा कर सकता है। लेकिन वस्तुतः जीवन-क्रांति उससे न कभी पैदा हुई है और न हो सकती है। तो इस संबंध यह मुझे निवेदन करना। इस संबंध में और भी कुछ बातें शायद होंगी, तो वह आप पूछेंगे तो इन दो दिनों में उनकी भी चर्चा हो सकती है। और भी कुछ प्रश्न है थोड़े से, एकाध दो प्रश्न की और मैं बात करूंगा। फिर हम ध्यान के लिए बैठेंगे, जो प्रश्न बच जाएंगे, उनकी मैं कल बात करूंगा।
पूछा है- हम ऐसा क्यों मानते हैं कि परमात्मा की प्राप्ति ही मानो जीवन का ध्येय हैं। क्या यह नहीं हो सकता है कि मानो जीवन का कोई ध्येय न हो, प्रयोजन ही न हो?
इन दोनों बातों में जिसने पूछा है, उसे विरोध दिखाई पड़ता होगा। उसने पूछा है कि क्या मानो जीवन का ध्येय परमात्मा को पाना है? या कि मानो जीवन का कोई ध्येय ही नहीं। उसे दिखाई पड़ता होगा कि इन दोनों में विरोध हैं। मैं आपसे कहूं इन दोनों में विरोध नहीं हैं। परमात्मा को पा लेने पर ही ज्ञात होता है कि जीवन का कोई ध्येय नहीं, उसके पहले तो ज्ञात हो ही नहीं सकता। ऐसी चित्त की स्थिति को पा लेना, जहां कोई ध्येय न हो, कोई ध्येय शेष न रह जाए, वही तो परम ध्येय हैं। जीवन की ऐसी स्थिति को पा लेना, जहां फिर कोई और ध्येय न रह जाए, यही तो परम ध्येय हैं। परमात्मा को पाने का और कोई अर्थ ही नहीं, और कोई अर्थ नहीं। आमतौर से हम जीवन में कुछ न कुछ पाने को ध्येय मानते हैं, कोई धन पाने को, कोई यश पाने को, कोई कुछ और, कोई कुछ और। लेकिन कितना ही धन पाए, फिर भी ध्येय आगे शेष रह जाता है, समाप्त नहीं होता। और धन चाहिए, कितना ही यश पाए, फिर भी ध्येय शेष रह जाता और यश चाहिए। कुछ भी पाते जाए, ध्येय आगे फिर बच रहता है। इसलिए यह कोई भी ध्येय अंतिम ध्येय नहीं हो सकते, क्योंकि इनके बाद ध्येय समाप्त नहीं होता, फिर बच रहता।
सिकंदर हिंदुतान की तरफ आया, उसे ख्याल था सारी दुनिया जीत लेंगे। राते में सुबह जिस डायोजनीज की मैंने बात की, उसे उसका मिलना हुआ। तो डायोजनीज ने उससे पूछा, कि अगर तुम सारी दुनिया जीत लोगे, तो फिर क्या करोगे? उसने कहा, यह प्रश्न तो मेरे ख्याल में नहीं आया। तुम पूछते हो तो मैं बहुत डर गया, क्योंकि सच में ही फिर इसके आगे तो कुछ बचते नहीं, दूसरी दुनिया भी नहीं जिसको मैं जीतूं। अगर मैंने पूरी दुनिया जीत ली, तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाऊंगा। फिर मैं क्या करूंगा? यह तो मैंने सोचा नहीं। क्योंकि और आगे कोई दूसरी दुनिया नहीं जिसको मैं फिर जीतने जाऊं। फिर भी डायोजनीज ने कहा, फिर क्या करोगे आखिर। कुछ तो सोचो, उसने कहा फिर मैं विश्राम करूंगा, फिर मैं जीतना छोड़ दूंगा, फिर मैं परम शांति से विश्राम करूंगा।
डायोजनीज खूब हंसने लगा, और उसने कहा फिर तुम पागल हो, अगर विश्राम ही करना है तो मैं विश्राम कर ही रहा हूं। इतनी दौड़-धूप क्यों करते हो, आओ मेरे पास लेट जाओ, इस छोटे से जगह में, झोपड़े में, दो के लायक काफी जगह है। अगर विश्राम ही करना है अंत में और सब खोजो, सब जीत छोड़ देनी है तो इतनी दौड़-धूप क्यों? आ जाओ और अभी शुरू कर दो, इतना समय क्यों खोते हो। सिकंदर ने कहा, बात तो तुम बड़ी ठीक कहते हो। लेकिन बड़ा मुश्किल है, मैं तो आधी यात्रा पर निकल चुका, आधे से लौटना तो ठीक नहीं।
उस डायोजनीज ने कहा, तुम बिल्कुल पागल हो, अब तक दुनिया में पूरी यात्रा किसी ने की ही नहीं। सभी आधे पर ही लौट जाना पड़ता है। क्योंकि जो जहां तक पहुंच जाता है यात्रा, उसके आगे भी बहुत शेष रह जाती हैं।
दो तरह के ध्येय है जीवन मेंः एक जो कभी पूरे नहीं होते, क्योंकि उनको पूरा भी कर लो तो नए ध्येय पैदा हो जाते हैं। और एक ऐसा ध्येय भी है जीवन में, जो पूरा हो जाए तो सभी ध्येय समाप्त हो जाते हैं, उसके आगे फिर करने को कुछ शेष नहीं रह जाता। उस ध्येय का नाम ही तो परमात्मा है, परमात्मा से कोई मतलब थोड़े ही, धनुष-बाण लिए हुए रामचंद्रजी खड़े हैं तो परमात्मा है; कि मुरली बजाते कृष्ण खड़े हैं तो परमात्मा है; कि सूली पर लटके क्राइट खड़े हैं तो परमात्मा है। नहीं परमात्मा का अर्थ है, जीवन में ऐसी परम विश्रांति की अवथा को पा लेना, जिसके बाद पाने को फिर कुछ शेष न रह जाए। परमात्मा जीवन की ऐसी आनंद अनुभूति है जिसके बाद फिर पाने की कोई आकांक्षा शेष नहीं जाती। तो वे पूछते हैं कि यह भी तो हो सकता है कि जीवन का कोई ध्येय न हो, यह सच है, वस्तुतः जीवन का कोई ध्येय नहीं। और जब तक हम ध्येय के पीछे दौड़ते हैं तभी तक हम जीवन से वंचित रहते हैं, जीवन को नहीं उपलब्ध कर पाते। लेकिन इस भांति भी जीवन जीया जा सकता है कि उसमें फिर कोई ध्येय, कोई आकांक्षा और कोई वासना, कोई डिसायर और कोई एंबीशन न रह जाए, इस भांति भी जीवन जीया जा सकता है। उस तरह के जीवन को जीने का ढंग ही परमात्मा का मार्ग है और उस तरह के स्थिति को पा लेना ही परमात्मा को पा लेना है, इन दोनों बातों में विरोध नहीं है। जो पूछा है, पूछने वाले को ख्याल होगा विरोध है। इन दोनों बातों में विरोध नहीं, ये दोनों बातें एक ही है।
जब भी कोई व्यक्ति इतना शांत हो जाएगा कि उसके जीवन में कोई कामना और वासना नहीं रह जाती। फिर वह जीता है ऐसे जैसे हवाएं बहती हैं, जीता है ऐसे जैसे नदियां बहती हैं, जीता है ऐसे जैसे वृक्षों में फूल खिलते हैं, जीता है ऐसे जैसे आकाश में बादल घूमते हैं। जिस दिन मनुष्य ऐसा जीना लगता है कि उसके जीवन में कोई कामना और वासना के सूत्र नहीं रह जाते खींचने वाले। आनंद में और शांति में दो तरह के जीवन के जीने के ढंग हैः एक जीवन का ढंग है, जिसमें वासना आगे से खींचती है तो हम चलते हैं। जैसे कोई आदमी किसी को बांधकर खींच रहा हो, वैसे ही वासना हमें खींचती है। हम सब इसी तरह चलते हैं, कोई हमें खींच रहा है आगे से, कोई कामना खींच रही है। किसी को मिनिस्टर बनना है, किसी को गवर्नर बनना है या किसी को राष्ट्रपति बनना है तो खींच रही है एक वासना उसे। आगे से कोई कामना खींचे जा रही है, वह बंधे हुए बैल की तरह खींचा जा रहा है उसकी तरफ। एक तो इस तरह का जीवन है, वासना से खींचा गया जीवन। एक इस तरह का जीवन है, वासना से खींचा गया नहीं, आनंद से झरा हुआ जीवन। एक छोटी घटना कहूं, उससे भेद समझ में आए।
तानसेन का नाम तो सुना ही है। अकबर बहुत-बहुत प्रभावित था तानसेन से। उसके संगीत से, उसकी कला से, अद्भुत थी उसकी क्षमता और प्रतिभा। एक दिन अकबर ने तानसेन को पूछा कि मित्र! बहुत बार एक प्रश्न मन में उठता है, लेकिन पूछता नहीं, संकोच से रह जाता हूं, लेकिन आज पूछूंगा कोई है भी नहीं, तुम अकेले हो। और रात किसी राग को सुनाकर तानसेन वापिस लौटता था, सीढ़ियों पर अकबर ने उसे रोक लिया और कहा, यह पूछना है कल्पना में भी यह बात नहीं बैठती कि तुमसे बेहतर भी कोई बजा सकता होगा, या गा सकता होगा। लेकिन यह बात मन में ख्याल में आती है, तुम्हारा कोई गुरु भी होगा, किसी से तुमने सीखा भी होगा, तो शायद वह तुमसे बेहतर बजाता हो शायद। तुम्हारे गुरु जीवित है, अगर जीवित हों तो मैं उनको भी देखना और सुनना चाहूंगा। तानसेन ने कहा गुरु तो जीवित है लेकिन सुनना उन्हें बहुत कठिन है। क्योंकि वे किसी कारण से बजाते और गाते नहीं, अकारण गाते और बजाते हैं। उनसे कोई कहे कि गाओ और बजाओ, तो वे हंसने लगते हैं। वे कहते हैं मैं जानता ही कहां? कोई प्रलोभन उन्हें बजाने को राजी नहीं कर सकता। तो किसी के कहने से वे कभी गाते-बजाते नहीं, कभी मौज में होते हैं तो नाचते हैं गाते हैं बजाते हैं। अकारण है उनका बजाना, बिना किसी ध्येय के और बिना किसी लक्ष्य के, तो उन्हें तो सुनना बहुत दूभर, बहुत मुश्किल बात है। कभी रात तीन बजाते हैं, कभी दो बजे, आप कहां सुनने जाएंगे, कैसे सुनने जाएंगे।
अकबर ने कहा, लेकिन कुछ भी हो, मैं सुनना चाहूंगा। तुम्हारी बात सुनकर भी सुनने का मोह और भी तीव्र हो गया। तानसेन पता लगाया, ज्ञात हुआ कि उन दिनों वह कोई तीन बजे सुबह उठकर यमुना के किनारे रहते थे। हरिदास नाम के एक साधु थे। वे कोई तीन बजे, सुबह कुछ गाते हैं, कुछ बजाते हैं। रात दो बजे से तानसेन और अकबर झोपड़े के बाहर छिप कर बैठ गए। कभी किसी बादशाह ने चोरी से किसी का संगीत सुना नहीं होगा, इसके पहले और न इसके बाद। कोई तीन बजे हरिदास ने गीत गाना शुरू किया, अपने तंबूरे पर धुन निकालनी शुरू की। वे गाते रहे और इधर अकबर रोता रहा, फिर गीत बंद हुआ। तो भी अकबर बैठा रहा, तानसेन ने हिलाया और कहा, गीत बंद हो गया अब हम लौट चलें और कहीं पकड़ न लिए जाए इस चोरी करते हुए। अकबर चौंका, जैसे किसी ने नींद तोड़ दी हो, उसने अपने आंख आंसू पोंछें और तानसेन के साथ वापिस लौटा। राते भर चुप रहा बोला नहीं, महल में प्रवेश करते वक्त उसने तानसेन से कहा, मैं सोचता था तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं। अब मैं सोचता हूं गुरु के सामने तो तुम कुछ भी नहीं हो। इतना फर्क क्यों हैं, इतना भेद क्यों हैं। तानसेन ने कहा, बात बहुत साफ है। मैं इसलिए बजाता हूं कि कुछ मिलेगा बजाने से, कुछ पा लूंगा बजाने से। मैं बजाता हूं क्योंकि कोई कामना है जो पूरी होगी। बजाना मेरे सामने परिपूर्ण कृत्य नहीं है, टोटल एक्ट, परिपूर्ण कृत्य नहीं, बजाना है मेरे सामने साधन, पाना है कुछ और। पाने पर नजर टिकी रहती है, बजाता हूं, बजाना एक काम हो जाता है। नजर टिकी रहती है पाने पर, इसलिए बजाने में वह सौंदर्य और आनंद नहीं हो सकता है। मेरे गुरु बजाते हैं इसलिए नहीं कि उन्हें कुछ पाना है, बल्कि इसलिए कि उन्होंने कुछ पा लिया है। इस फर्क को मैं फिर से दोहराता हूं, मेरे गुरु बजाते हैं इसलिए नहीं कि उन्हें कुछ पाना है। बल्कि इसलिए कि उन्होंने कुछ पा लिया है। और जो पा लिया है वह बंटना चाहता है, फैलना चाहता है, वह जो आनंद उन्हें उपलब्ध हुआ है, वह बिखरना चाहता है और बंट जाना चाहता है और हवाओं पर सवारी करना चाहता है और दूर-दूर छिटक जाना चाहता है। आनंद पहले हैं, संगीत उससे निकलता है, मेरी तरफ संगीत पहले हैं, आनंद उससे निकलेगा।
दो तरह के लोग हैः वासनाओं से खींचे जाते हुए लोग, उनका जीवन किसी लक्ष्य, किसी इच्छा, किसी महत्वाकांक्षा से प्रेरित होगा। ऐसे जीवन में न शांति हो सकती है, न आनंद हो सकता है। ऐसा जीवन बोझ का जीवन होगा। एक दूसरी तरह का चित्त भी हैः जो किसी बहुत गहरे आनंद को उपलब्ध हुआ है। अब भी जीता है, अब भी श्वास लेता है, चलता है, उठता है, बैठता है, लेकिन अब उसके सारे कृत्य, उस आनंद को बांटने का कृत्य हो जाता है। अब उसे कुछ पाना नहीं है, अब तो उससे कुछ बंटना है, और बिखर जाना है। ऐसा जीवन परमात्मा को उपलब्ध जीवन है। ऐसे जीवन में कोई लक्ष्य नहीं अब, वस्तुतः जीवन में कोई लक्ष्य नहीं है। लेकिन जब तक जीवन में बहुत लक्ष्य है, यह लक्ष्य है धन का, वह लक्ष्य है यश का, वह लक्ष्य है पद का। जब तक बहुत लक्ष्य है, तब तक इन सारे लक्ष्यों से जीवन पीड़ित और दुखी होगा। जब हम कहते हैं परमात्मा को पाना है, तो ऐसा मत समझ लेना कि परमात्मा को पाना भी एक लक्ष्य है। नहीं, परमात्मा को पाने का यह अर्थ है कि सारे लक्ष्यों से मुक्त हो जाना। इस बात को समझ लें, परमात्मा को पाना कोई लक्ष्य नहीं है। जैसे धन को पाना एक लक्ष्य है, और यश को पाना एक लक्ष्य है, ऐसा परमात्मा को पाना एक लक्ष्य नहीं है। लेकिन तथाकथित साधु और संन्यासी परमात्मा को इसी तरह के लक्ष्य बनाए हुए हैं। वह सोचता है परमात्मा को पाना है। लेकिन जो चित्त पाने की इच्छा से भरा है, वह चित्त कभी परमात्मा को पा नहीं सकेगा। परमात्मा को पाता तो वह चित्त है, जिसके पाने की सारी इच्छा विसर्जित हो गई है। जो न पाने की स्थिति में राजी हो गया और तृप्त हो गया। वह उसी क्षण परमात्मा को पा लेता है।
कल रात मैंने जो कहानी कही थी, उसे आप स्मरण करना। पाने की इच्छा से भरा हुआ चित्त कभी नहीं पा सकता। लेकिन जिसकी पाने की कोई कामना नहीं रह गई, वह पा लेता है। परमात्मा को पाना यह केवल शाब्दिक भूल है, परमात्मा कोई वासना नहीं है हमारी कि हम उसे पा ले। हां, परमात्मा को पा लिया जाता है, उस समय जब चित्त निर्वासना में, डिसायरलेसनेस में मौजूद हो जाता है। कैसे चित्त निर्वासना में, न कुछ पाने की स्थिति में आ सकता है। जिसको मैं ध्यान कह रहा हूं, उसी विधि से, उसी ध्यान के बोध से निरंतर चित्त की वासना क्षीण होती चली जाती है और एक घड़ी आती है कि आपको लगता है कुछ भी पाने को नहीं है। न कुछ पाने की प्रेरणा है, न कुछ पाने की कामना है, चित्त शांत है, मौन है। कुछ भी पाने की कोई पीड़ा और कोई तनाव चित्त को घेर नहीं रहा है। जिस क्षण भी एक क्षण को भी चित्त इस स्थिति में पहुंचेगा, उसी क्षण आप पाएंगे कि परमात्मा का सान्निध्य उपलब्ध हो गया, उसी क्षण आप पाएंगे मेरे और उसके बीच की सारी दीवाल गिर गई। मैं वही हो गया, उस दिशा में जाने के लिए निरंतर निरंतर बोध को जगाने की, विवेक को विकसित करने की और ध्यान को गहरा से गहरा ले जाने की जरूरत है। और कुछ प्रश्न है, उनकी मैं कल आपसे बात करूंगा। अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। ध्यान में कोई फर्क नहीं है।
सबसे पहले तो बहुत आराम से बैठकर शरीर कोढीला छोड़ दें। उसमें कोई कोई तनाव शरीर के किसी अंग पर न हो, और इस बिल्कुल फिक्र न करें उसे बिल्कुल ढीला छोड़ दें। कोई अंग तना हुआ न हो, दूसरी बात आंख को बहुत धीरे से बंद हो जाने दे, बंद करे नहीं बंद हो जाने दे। धीरे-धीरे से पलक कोझपक जाने दे और बड़े हल्के मन से बैठे कोई गंभीरता नहीं, कोई बड़ा काम नहीं करने जा रहे हैं। एक मौज में दो दस क्षण बिताने जा रहे हैं, चुपचाप मौन में। कोई अपेक्षा न रखें कि कोई बड़ी शांति मिल जाएगी, कोई बहुत आनंद मिल जाए। कोई अपेक्षा न रखें। सब अपेक्षा छोड़ दें। बिल्कुल हलके हो जाएं, मन से सारा भार अलग कर ले। और ख्याल कर ले आंख बंद करने के बाद मस्तिश्क पर कोई तनाव न हो, चेहरा खींचा न हो, बिल्कुल ढीला छोड़ दें। माथे पर कोई बल न रह जाए, बिल्कुल ढीला छोड़ दे। ख्याल करे, जब आप छोटे छोटे बच्चे रहे होंगे, वैसे ही हलके-फुलके होकर बैठ जाए, ठीक है, ढीला छोड़ दे शरीर को, आंख बंद हो जाने दे। बिल्कुल हलके-फुलके हो जाएं, अपने को बिल्कुल मिटा दें, आप है ही नहीं। अब सुने, चारों तरफ आवाजें होंगी, झिगुंर बोल रहे हैं, रात का सन्नाटा बोलेगा, उसे शांति से सुने, बिना किसी प्रतिरोध के। आप साक्षी मात्र है, इस शांत रात्रि में झिगुंर बोलती हुई रात्रि में आप साक्षी मात्र है। बस सुन रहे हैं, कुछ कर नहीं रहे हैं। सुनते-सुनते ही मन मौन होता जाएगा, सुनते-सुनते ही मन शांत होता जाएगा, सुनते ही सुनते भीतर एक सन्नाटा छाने लगेगा और ऐसा लगेगा बाहर की सन्नाटे से भरी रात भीतर भी घुस गई। आप उसी में डूब गए, सुने।
दस मिनट के लिए बिल्कुल अपने को छोड़ दें और देखें क्या होता है। आपको कुछ भी नहीं करना है, कुछ होता जाएगा। धीरे-धीरे मन शांत होता जाएगा, मौन होता जाएगा, फिर तो एक बड़ा शून्य हो जाएगा, आप उसमें डूब जाएंगे, आपको पता भी नहीं रहेगा कि आप है। बस यह सन्नाटा रह जाएगा, सुने, शांत बिना किसी तनाव के, बिना किसी विरोध के, चारों तरफ गूंजती हुई रात को सुने। सुनते-सुनते ही मन मौन होता जाता है, मन मौन हो रहा है, मन शांत हो रहा है, हो जाने दे, बिल्कुल छोड़ दे। आप है ही नहीं, छोड़ दे, अपने को बिल्कुल छोड़ दे, सारी पकड़ छोड़ दे। मन शांत हो रहा है, स्वयं की श्वास सुनाई पड़ने लगेगी, सब सुनाई पड़ने लगेगा और भीतर ऐसी चुप्पी आती जाएगी।
मन मौन होता जाएगा, मन मौन होता जाएगा, मन शांत होता जाएगा, मन शांत हो जाएगा। मन बिल्कुल मौन हो जाएं, छोड़ दें, बिल्कुल छोड़ दें, बिल्कुल छोड़ दे, मन डूबता जाएगा, मौन होता जाएगा, छोड़ दे, छोड़ दे, बिल्कुल छोड़ दे, सारी पकड़ छोड़ दे, होने दे जो होता है। देखे मन शांत हो गया, मन कैसा शांत हो गया, मन कैसा शांत हो गया। इसी शांति में डूबते चले जाए, इसी शांति में मिटते चले जाए, इसी शांति में खो जाए। मन शांत हुआ है, हवाएं रह गई है, रात रह गई, सर्द रात रह गई और आप मिट गए, आप अब नहीं है, रात है हवाएं हैं, आवाजें है, आप अब नहीं है, मन बिल्कुल शांत हो गया। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें, धीरे-धीरे दो-चार गहरे श्वास ले, श्वास भी बहुत शांति लाती हुई मालूम पड़ेगी, भीतर तक प्राण शांत हो जाएंगे।
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