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रविवार, 18 नवंबर 2018

आनन्द गंगा-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-धैर्य की कला 


प्रश्न- आनन्द थोड़ी देर के लिये अनुभव होता है और फिर वह आनन्द चला जाता है। वह आनन्द और अधिक देर तक कैसे रहे?

उत्तर-यह बहुत महत्त्वपूर्ण है पूछना, क्योंकि आज नहीं कल, जो लोग भी आनन्द की साधना में लगेंगे, उनके सामने यह प्रश्न खड़ा होगा। आनन्द एक झलक की भाँति उपलब्ध होता है-एक छोटी-सी झलक, जैसे किसी ने द्वार खोला हो और बन्द कर दिया हो। हम देख ही नहीं पाते उसके पार कि द्वार खुलता है और बन्द हो जाता है। वह आनन्द बजाय आनन्द देने के और पीड़ा का कारण बन जाता है, क्योंकि जो कुछ दिखता है, वह आकर्षित करता है, लेकिन द्वार बन्द हो जाता है। उसके बाबत चाह और भी घनी पैदा होती है, फिर द्वार खुलता नहीं, बल्कि फिर हम जितना उसे चाहने लगते हैं, उतना ही उससे वंचित हो जाते हैं।

अगर मैं किसी व्यक्ति से चाहूँ कि उसने इतना प्रेम दिया है मुझे और प्रेम दे तो जितना मैं चाहूँगा उतना ही मैं पाऊँगा कि प्रेम उससे आना कम हो गया। प्रेम उससे आना बन्द हो जायेगा। ये चीजे छीनी नहीं जा सकतीं, ये जबरदस्ती पजेस नहीं की जा सकती। जो आदमी इनको जितना कम चाहेगा, जितना शान्त होगा, उतनी अधिक उसे उपलब्धि होगी।


एक बहुत पुरानी कथा है-एक हिन्दू कथा है, कहानी काल्पनिक है। नारद एक गांव के करीब से निकले। एक वृद्ध साधु ने उनसे कह कि तुम भगवान के पास जाओ तो उनसे पूछ लेना कि मेरी मुक्ति कब तक होगी, मुझे मोक्ष कब तक मिलेगा? मुझे साधना करते हुए बहुत समय बीत गया। नारद ने कहा-मैं जरूर पूछ लूंगा। वह आगे बढ़े तो बरगद के दरख्त के नीचे एक नया-नया फकीर, जो उसी दिन फकीर हुआ था, तम्बूरा लेकर नाच रहा था। नारद ने उससे मजाक में पूछा-तुमको भी पूछना है भगवान से कब तक तुम्हारी मुक्ति होगी? वह कुछ बोला नहीं।
जब नारद वापस लौटे तो उस वृद्ध साधु से उन्होंने जाकर कहा-मैंने पूछा था- भगवान बोले कि अभी तीन जन्म और लिये जायेंगे। वह अपनी माला फेरता था, उसने गुस्से में अपनी माला नीचे पटक दी। उसने कहा-तीन जन्म और! यह तो बड़ा अन्याय है, यह तो हद हो गयी। नारद आगे बढ़ गये। वह फकीर नाच रहा था, उस वृक्ष के नीचे। उससे कहा-सुनते हैं! आपे बाबात भी पूछा था। लेकिन बड़े खेद की बात है, उन्होंने कहा कि जिस दरख्त के नीचे वह नाच रहा है, उसमें जितने पत्ते हैं, उतने जन्म उसे लग जायेंगे। वह फकीर बोला-तब तो पा लिया और वापस नाचने लगा। वह बोला-तब तो पा लिया, क्योंकि दरख्त पर कितने पत्तें हैं, इतने पत्ते, इतने जन्म न-तब जो जीत ही लिया, पा ही लिया। वह पुनः नाचने लगा। और कहानी कहती है, वह उसी क्षण मुक्ति को उपलब्ध हो गया-उसी क्षण।
यह जो नानटेंस, यह जो रिलेक्स्ड माइण्ड है, जो कहता है कि पा ही लिया, इतने जन्मों के बाद की वजह से भी परेशान नहीं है और जो इसको भी अनुग्रह मान रहा है प्रभु का, इसको भी उसका प्रसाद मान रहा है कि इतनी जल्दी मिल जायेगा, वह उसी क्षण सब पा लेता है। हमारे मन की दो स्थितियां है। एक टेंस स्थिति होती है। जब हम कुछ चाहते हैं कि मिल जाये और दूसरी नानटेंस स्थिति होती है, जब कि हम चुपचाप जो मिल रहा है, उसको रिसीव करते हैं, कुछ झपटते नहीं हैं। टेंस स्थिति एग्रेसिव होती हे, वह झपटती है। नानटेंस स्थिति रिसेप्टिव है, वह छीनती नहीं, वह चुपचाप ग्रहण करती है। ध्यान जो है, वह एग्रेशन नहीं है, रिसेप्शन है। वह आक्रमण नहीं है, वह आमन्त्रण है। वह छपटना नहीं कुछ, जो आ जाता है, उसे स्वीकार कर लेता है।
तो आनन्द के क्षणों को, शान्ति के क्षणों को झपटने की, पजेस करने की कोशिश न करें। वे ऐसी चीजें नहीं है कि पजेस की जा सकें। वह कोई फर्नीचर नहीं है। जो हम बाहर से उठाकर कमरे में रख लें। वह तो उस प्रकाश की तरह है कि द्वार हमने खोल दिया, सूरज उगेगा तो प्रकाश अपने-आप भीतर आयेगा। हमारे लिए प्रकाश को बांधकर भीतर लाना नहीं पड़ता है। सिर्फ द्वार खोलकर प्रतीक्षा करनी होगी, वह आयेगा। वैसे ही मन को शान्त करे, हम चुपचाप प्रतीक्षा करें और जो मिल जाये, उसके लिए धन्यवाद करें और जो नहीं मिला, उसका हिसाब न करें तो आप पायेंगे कि रोज-रोज आनन्द बढ़ता चला जायेगा। बिना मांगे कोई चीज मिलती चली जायेगी, बिना मांगे कोई चीज गहरी होती चली जायेगी और अगर मांगना शुरू किया, जबरदस्ती चाहना शुरू किया तो पायेंगे कि जो मिला था, वह भी मिलना बन्द हो गया।
समस्त साधकों के लिए जो आत्मिक आनन्द की तलाशें चलती हैं, उसमें सबसे बड़े खतरे के क्षण तब आते हैं, जब उनको थोड़ा-थोड़ा आनन्द मिलने लगता है। बस, अक्सर वहीं रुकना हो जाता है। वह मिला कि उनका मन होता है और मिल जाये। और जहाँ उनका मन यह हुआ कि मिल जाये, वह जहाँ एग्रेसिव हुए पाने के लिए, वह जो मिलता है, उसके दरवाजें भी बन्द हो जायेंगे। तो इतना स्मरण रखें, जो मिलता है उसके लिए भगवान को धन्यवाद करें और जो नहीं मिलता है, उसकी फिक्र न करें और अपने भीतर शान्त होने के प्रयास में सलंग्न रहें। क्या मिलता है, इसकी चिन्ता छोड़ दें। हम क्या बन रहे हैं, शान्त कैसे बन रहे हैं, इसकी चिन्ता करें। जिस मात्रा में आप शान्त हो जायेंगे, उस मात्रा में आनन्द मिलना अनिवार्य है। उसकी फिक्र छोड़ दें। यानी इसकी बिल्कुल फिक्र छोड़ दें कि क्या मिला, क्योंकि जो भी मिलने की आपकी क्षमता पैदा हो जायेगी, उसके आप हकदार हैं, वह आपको मिलेगी ही।
इसी सन्दर्भ में आपने पूछा है, लोग कहते हैं कि हम बुरा कर्म करते हैं तो बुरा परिणाम मिलेगा। अच्छा काम करेंगे तो अच्छा परिणाम मिलेगा। यह जो हम सोचते हैं, मिलेगा, फ्यूचर की भाषा में, यह गलत हैं हमने बुरा काम किया, उसी क्षण बुरा हो गया। कुछ आगे नही मिलेगा। उसी क्षण, हमारे भीतर कुछ भला हो गयां हम अपने को कांस्टेण्टी क्रियेट कर रहे हैं, हमारा प्रत्येक कर्म हमको बना रहा है। बनायेगा नहीं, इसी क्षण बना रहा हैं हम जिसको जीवन कहते हैं वह जीवन ही नहीं है, वह एक सेल्फ क्रियेशन भी है। वह जो हम कर रहे हैं, उससे हम बन रहे हैं। हमारे भीतर कुछ बन रहा है, कुछ घना हो रहा है। कुछ अपने ही भीतर हम अपने चैतन्य का निर्माण कर रहे हैं, तो हम जो कर रहे हैं, ठीक उसके अनुकूल या उसके जैसा हमारे भीतर कुछ बनता चला जा रहा है।
लोग कहते हैं कि आप नरक में चले जायेंगे, या स्वर्ग में चले जायेंगे। कुछ इस तरह की बातें करते हैं, स्वर्ग और नरक, भूगोल में, ज्योंग्राफी में कहीं होंगे। लोग जिस तरह की बातें करते हैं, मैं ऐसी बातें नहीं करता। नरक और स्वर्ग ज्योग्राफी में नहीं है, साइकोजाली में है। वह भौगोलिक धारणाएं नहीं हैं, मानसिक धारणाएं हैं। जब आप बुरा करते हैं, उसी क्षण नरक में चले जाते हैं। मैं अपनी धारणा से आपसे कह रहा हूँ-जब मैं क्रोध करता हूँ तो मैं उत्तप्त हो जाता हूँ और अग्नि की लपटों में अपने-आप चला जाता हूँ, उसी वक्त।
तो नरक में आप चले जायेंगे, ऐसा नहीं है या स्वर्ग में कभी आप चले जायेंगे, ऐसा भी नहीं है। चौबीस घण्टों में आप अनेक बार नरक में होते हें और अनेक बार स्वर्ग में होते हैं। जब-जब आप क्रोध से भरते हैं, उत्ताप और तीव्र वासना से भरते हैं तब-तब आप अपने भीतर नरक को आमन्त्रित कर लेते हैं। लोग कहते हैं कि आप नरक में चले जायेंगे या स्वर्ग में चले जायेंगे तो मेरा मानना ऐसा है कि आप में नरक और स्वर्ग अनेक बार आ जाता हैं वह आपकी मानसिक घटना है। कहीं जमीन फोड़कर नीचे नरक नहीं मिलेगा। और कहीं आकाश में खोजने से, कहीं कोई स्वर्ग नहीं मिल जायेगा।
और आप हैरान होंगे कि सारी दुनिया के लोगों की, स्वर्ग-नरक की धारणाएं भिन्न-भिन्न बनी हैं, क्योंकि वह तो साइकोलाजिकली है। तिब्बत का जो नरक है, उनकी जो कल्पना है नरक की, वह बड़े ठण्डे स्थान की है, क्योंकि तिब्बत में ठण्ड बहुत कष्टप्रद है, ठण्ड से कष्टप्रद, तिब्बत में कुछ भी नहीं है। तो तिब्बत की जो कल्पना है नरक की कि जो पापी होंगे, वह ऐसे स्थान में जायेंगे जहाँ इतनी ठण्ड है कि उनकी मुसीबत हो जायेगी। इस ठण्ड से बड़ी मुसीबत नहीं है कोई।
हमारे मुल्क की जो कल्पना है नरक की, वह अग्नि की लपटों वाली है। वहाँ ठण्ड नहीं है। नहीं तो हमको तो वह हिल-स्टेशन साबित होगा। तो हमारे मुल्क में हम सोचते हैं, जो नरक है, वहाँ अग्नि की लपटें उठ रही हैं, उसमें डाला जायेगा और कड़ाहियां गर्म हो रहीं हैं तेल की, उनमें पटका जायेगा। वे हमारी कल्पनाएं हैं, क्योंकि गरमी हमें कष्ट देती है तो हम सोचते हैं कि पापी को कष्ट देने के लिए तो गरम जगह होगी। तो नरक तिब्बत में ठण्डी जगह है और भारत में गरम जगह है। नरक ऐसा नहीं हो सकता है, या उसमें ऐसे खण्ड नहीं हो सकते कि वहाँ ठण्डा ही नरक है।
तो असल में, यह हमारी कष्ट की जो कल्पनाएं हैं, उनको हम इस भाँति कल्पित कर लेते हैं। कष्ट मानसिक घटना है, भौगोलिक घटना नहीं है। अभी भी आप जब बुरा करते हैं तो आपके भीतर अत्यन्त कष्टप्रद स्थितियों का निर्माण होता है। अभी कभी-कभी होता है, अगर आप निरन्तर बुरा करते जायेंगे तो वह सतत होने लगेगा और करते ही चले जायेंगे तो एक घड़ी ऐसी आ सकती है कि आप चौबीस घण्टे नरक में होंगे। तो आदमी कभी नरक में होता है, कभी स्वर्ग में होता है। फिर बहुत बुरा आदमी बिल्कुल स्वर्ग में रहने लगता है। जो भले और बुरे दोनों से मुक्त है, वह आदमी मोक्ष में रहने लगता है। मोक्ष में रहने का मतलब है आनन्द। कोई स्थान हीं है, कहीं स्पेस खोजने पर, ये जगहें नहीं मिलेंगी कि यह रहा स्वर्ग और यह रहा नरक। इसलिए मनुष्य की जो साइकोलाजी है, उसका जो मानसिक जगत है, उसके विभाजन हैं। तो मानसिक जगत के तीन विभाजन हैं-नरक, स्वर्ग और मोक्ष। नरक से जैसा आज सुबह मैंने कहा दुख, स्वर्ग से जैसा मैंने आज सुबह कहा सुख, मोक्ष से मेरा मतलब है न सुख, न दुख वह जो आनन्द है।
तो यह मत सोचिए कि कल कभी ऐसा हेगा कि हम बुरा करेंगे तो उसका बुरा फल होगा। यह मत सोचिए कि हम भला करेंगे तो भला फल होगा। जो भी हम कह रहे हैं, साइमलटेनिअसली, उसी वक्त, क्योंकि यह हो ही नहीं सकता कि अभी क्रोध करूं और अगले जन्म में मुझे उसका फल मिले, यह बड़ी ब्लफ हो जायेंगी, यह बात फिजूल हो जायेगी, क्योंकि उतनी देर क्या होगा? मैं अभी क्रोध करूं, अगले जन्म में मुझे फल मिले, यह बात बड़ी फिजूल हो जायेगी। इतनी देर क्यों होगी? में जब क्रोध कर रहा हूँ, क्रोध के करते ही क्रोध का फल भ्ल्लाग रहा हूँ। क्रोध के बाहर क्रोध का फल नहीं है। क्रोध ही मुझे वह पीड़ा दे रहा है जो क्रोध का फल है और जब मैं अक्रोध कर रहा हूँ तो मुझे उसी क्षण फल मिल रहा है, क्योंकि अक्रोध का जो आनन्द है, वही उसका फल है। जब मैं किसी की हत्या करने जा रहा हूँ तो हत्या करने में ही मैं कष्ट भोग रहा हूँ, जो कि हत्या करने का है और जब मैं किसी की जान बचा रहा हूँ तो जान बचाने में ही मुझे वह सुख मिल रहा है, जो कि उसमें छिपा है।
मेरी बात आप समझ रहे हैं न? कर्म ही फल है, कर्म का कोई फल नहीं होता, कभी भविष्य में नहीं। कर्म-प्रत्येक कर्म का अपना फल स्वयं है। तो बुरा कर्म मैं उसको नहीं कहता जिसके बाद में बुरे फल मिलेंगे। बुरा कर्म मैं उसको कहता हूँ जिसका बुरा फल उसी क्षण मिल रहा हे। फल को जांचकर ही अनुभव कर लेना कि कर्म बुरा है या भला। जो कर्म अपनी क्रिया के भीतर ही दुख दे, वही बुरा है।

प्रश्न- अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग।

उत्तर-उसी क्षण हो रहा है, फर्क इतना है। आप कितने ही हैबीच्युल हो जाएं, जैसे समझ लीजिये, एक आदमी को निरन्तर क्रोध करने की आदत हो जाये तो क्या आप सोचते हैं, क्रोध उसे पीड़ा नहीं देगा? उसे तो और भी पीड़ा दें। आप ऐसा समझिए आप में से कुछ लोग कभी-कभी क्रुद्ध होते हैं, फिर क्रुद्ध रहने ही लगते है। इतनी आदत हो जाती है कि वे चौबीस घण्टे क्रुद्ध रहते हैं। और वे मौके की तलाश में रहते हैं कि कभी आप कुछ मौका दें और वे क्रोध जाहिर कर दें। वे क्रुद्ध हैं वे चिढ़े हुए हैं क्रोध में। वे घूम रहे हैं चारों तरफ कि आप मौका दें और वह क्रोध को जाहिर करें। बाकी वे क्रुद्ध है, उनके चेहरे के भीतर उनकी पीड़ा आप अनुभव कर सकते हैं। बड़ी पीड़ा तो यह है कि वह सारे सुख और शान्ति के सब क्षणों से वंचित हो गये, क्योंकि जो निरन्तर, चौबीस घण्टे भीतर क्रुद्ध है, वह किसी शान्ति के क्षण को कभी अनुभव नहीं करेगा। वह किसी प्रेम के क्षण को कभी अनुभव नहीं करेगा, वह किसी आनन्द के क्षण को कभी अनुभव नहीं करेगा। वह सब द्वार तो उसने अपने क्रोध से ही बन्द कर लिये। वह जो टैंशन में चल रहा है, चौबीस घण्टे क्रोध के कारण, उसने सारे महत्त्वपूर्ण क्षणों को बन्द कर दिया। बड़ा दण्ड तो उसे यह मिल गया और फिर क्रोध की जो अग्नि है, वह अलग उत्ताप दे रही है उसे। उसके शरीर को भी कष्ट दे रही है, उसके मन को भी कष्ट दे रही है और निरन्तर उसे नीचे ले जाती चली जायेगी।
दो तरह के इमोशंस हैं-नेगोटिव और पॉजिटिव। इमोशंस हैं, जैसे क्रोध है, घृणा है। इनसे आपको तत्क्षण नुकसान हो जाता है। आगे कभी नहीं, उसी वक्त आप में से कुछ खोज पाता है, आप खण्डित हो जाते हैं, आप नीचे हो जाते हैं। आप कभी अनुभव करें कि क्या हुआ? आप पायेंगे कि आप ऊचे तल पर थे, नीचे आ गये। आप कहीं शान्ति में थे, वह शान्ति गयी, आप बड़ी अशान्ति में आ गये। आप पायेंगे, कुछ अगर ताजगी थी भीतर तो वह ताजगी खो गयी, सब बासी-बासी हो गया। आपमें अगर कोई शक्ति अनुभव होती थी, तो वह शक्ति चली गयी और आप बहुत थके-थके मालूम हो रहे हैं। जो-जो चित्त की प्रक्रियाएं आपको थकान लाती हों, कष्ट लाती हों, उदासी लाती हों, नीचे उतर जाने का भाव लाती हों, अशान्ति लाती हो, वे बस नेगेटिव हैं। पॉजिटिव नहीं हैं कि जिनको करने के बाद आप अनुभव करते हैं, कि और शक्ति अनुभव हो रही हैं, जिनको करने के बाद आपको अनुभव होता है कि शान्ति घनी हो गयी, जिनको करके आपको अनुभव होता है कि आपने दो सीढ़ियां अपने आन्तरिक जीवन में ऊपर चढ़ी हैं। यह निरन्तर आपको अनुभव होगा। दोनों तरह के काम आप कर रहे हैं और दोनें तरह के काम का हर एक को अनुभव है।
तो मेरी धारणा है कि कोई कर्म भविष्य में फल नहीं लाता। कर्म ही फल है उसी क्षण। कोई हिसाब-किताब कौन रखेगा? इससे मतलब क्या हे? यह सब फिजूल का, पागलपन का ख्याल है कि कोई हिसाब-किताब रखेगा और फिर आपको नरक भेजेगा या स्वर्ग भेजगा।

प्रश्न- अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग।

उत्तर- कोई हिसाब नहीं, अपनी धारणा मैं आपसे कहता हूँ। एक-एक कर्म हमने किया, करने में ही हमने उसे भोग लिया। तो बुरा कर्म नरक में नहीं ले जायेगा, बुरा कर्म नरक है। भला कर्म स्वर्ग में नहीं ले जायेगा, भला कर्म स्वर्ग ह। और वह तीसरी स्थिति की जो मैंने बात कही, जो कि कर्म के बाहर है, वह आनन्द है। वह मोक्ष है। न वहाँ शुभ कर्म है, न वहाँ अशुभ कर्म है। न वहाँ क्रोध है, ना क्रोध को क्षमा करना है। वहाँ वह कुछ भी नहीं है। वहाँ वे दोनों बातें नहीं हैं-वहाँ परम शान्ति है।
आपने पूछा, क्रोध को हम क्या करें? वह जो हममें उठता है वह जो हममें घना होता है, उसको क्या करें?
हम दो ही काम करते हैं। क्रोध उठने पर हम दो ही काम करते हैं। एक काम तो हम रोज करते हैं कि जैसे ही क्रोध उठता है, हम उसे किसी काक बिन्दु बनाकर निकालते हैं। मुझ क्रोध उठा तो मैं किसी को बिन्दु बनाऊँगा और निकालूंगा। एक तो यह हैं दूसरा काम यह है कि जब क्रोध उठता है, तब मैं किसी को बिन्दु नहीं बनाता, अपने को ही बिन्दु बनाता हूँ और उसे दबा लेता हूँ। मतलब दो हैं। या तो मैं उसे निकालता हूँ, या दबा लेता हूँ।
दोनों स्थितियों में भारी गलती हो जाती है कि जब मैं उसी वेग को किसी पर निकालता हूँ तो मुझे उसे निकालने की आदत पड़ जाती है। यानी कल मैं उसे और जल्दी निकालूंगा, परसो फिर और जल्दी निकालूंगा। एक दिन ऐसी हालत आयेगी कि मैं उसे बिना कारण निकालने लगूंगा। एक दिन ऐसी हालत आयेगी कि मुझे इससे मतलब ही नहीं रहेगा कि इसमें कुछ सम्बन्ध भी था कि मैं निकालूंगा। हम चौबीस घण्टे जो क्रोध करते हैं, उसमें अनेक बार उन लोगों पर क्रोध कर रहे होते हैं, जिनका कोई सम्बन्ध नहीं था।
अक्सर हम उन लोगों का क्रोध, जिनका सम्बन्ध था, उन पर भी निकालते हैं जिनका उससे कोई सम्बन्ध नहीं था। हो सकता है, आप दुकान पर किसी से क्रुद्ध हुए हों और नहीं निकाल सकते, घर में बच्चे पर निकाल सकते हैं, पत्नी पर निकाल सकते हैं। फिर क्रोध कहीं भी निकलने लगेगा, फिर वह धीरे-धीरे बिल्कुल रेशनल हो जायेगा।
उसमें यह फिक्र नहीं रहेगी कि इसने कुछ किया है या नहीं आप हैरान होंगे कि आप चीजों तक पर क्रोध निकाल देते हैं। दरवाजा नही खुलता है तो उसको जोर से धक्का देते हैं, गाली भी देते हैं। और कभी-कभी सोचने की बात है कि दरवाजे को गाली देना या दरवाजे को धक्का देना, कौन-सी अक्ल की बात हो सकेगी! मैं लोगों को देखता हूँ, कलम स्याही नहीं फेंक रही है। तो गाली देकर उसे पटक देते हैं। मैं बड़ा हैरान होता हूँ। इस कलम पर भी उनका क्रोध निकल रहा है। बिल्कुल ही इस क्रोध से कोई मतलब नहीं। तो जो आदमी कलम पर क्रोध निकाल रहा है, उसके क्रोध से क्यों घबराना। मतलब वह आपसे भी ऐसे निकाल रहा है, इससे कोई मतलब थोड़े ही है। उसके लिए तो मुद्दा चाहिए, कहीं भी निकाल रहा है।
जापान में एक साधु हुआ, उससे एक जर्मन विचारक मिलने गया था। जब वह उससे मिलने गया तो वह एक आदमी से कह रहा था कि जाकर जूते से क्षमा माँगकर आओ। तुमने जूते गुस्से में निकाले हैं। जर्मन विचारक बड़ा हैरान हुआ कि यह क्या पागलपन हो रहा है! वह उससे कह रहा है कि तुम जूते से क्षमा माँगकर आओ और वह आदमी पागल, गया भी। वह तो बड़ा हैरान हुआ कि यह क्या करवा रहा है। वह आदमी गया, उसने जूते से जाकर क्षमा माँगी कि महानुभाव क्षमा करिए। तो उसने साधु से पूछा-मैंने सुना था कि पूरब के साधु बड़े पागल होते हैं। यह क्या पागलपन है कि जूते से क्षमा मँगवाते हैं?
वह बोला कि इस आदमी ने जूता क्रोध में उतारा। अगर आप जूते को क्रोध में उतारने के योग्य मानते हैं तो फिर क्षमा योग्य भी मानना चाहिए। उसने जूते को ऐसे उतारा जैसे कि वह उस पर क्रोध कर रहा है उस आदमी ने कहा-हाँ, मैंने क्रोध किया। मैं क्रुद्ध तो किसी और बात से था। जूते ने जरा देर की उतरने में, इसलिए मैंने उसे गुस्से से उतारा था। अब इस साधु ने मुझसे क्षमा मँगवायी है जूते से कि तू क्षमा मांगकर आ, तो ही अन्दर आ, नहीं तो क्या फायदा, अन्दर आने में?
अगर हम अनुभव करें तो हम पायेंगे कि जो क्रोध निकालने की निरन्तर आदत में पड़ जायेगा, वह धीरे-धीरे उसे निकालता ही रहेगा। और जितना क्रोध निकालेगा, उतनी आत्मा शक्तिहीन होती चली जायेगी। तो क्रोध को निकालने का रास्ता तो गलत है, क्योंकि उससे क्रोध और घना होगा।
और एक रास्ता यह है कि क्रोध का दमन करो। जो भी लोग क्रोध से बचना चाहते हैं, फिर वे दूसरे रास्ते का उपयोग करते हैं। जब क्रोध आये तो ऊपर मुस्कुराहट कायम रखें और क्रोध को भीतर दबा लो। हममें से अधिकांश लोग यही करते हैं, अनेक कारणों से। कुछ लोग कहते हैं धार्मिक वजह से कि क्रोध करना बुरा है, इससे नरक में जाना पड़ेगा। कुछ लोग शिष्टाचार के वश में कि कैसे क्रोध करें! कुछ लोग, कुछ सामाजिक सम्बन्धों के कारण कि कैसे क्रोध करें! कुछ इसलिए कि मालिक के साथ नौकर कैसे क्रोध करे? तो हम अपने को दबाते हैं, दमन करते हैं और रिप्रेशन करते हैं।
जब आप क्रोध को दबाते हैं, तब भी आप नुकसान कर रहे हैं, क्योंकि दमित क्रोध जायेगा कहाँ? वह तो भीतर ही घूमेगा। वह कांशस माइण्ड से दब जायेगा जो अनकांशस माइण्ड में घूमेगा। आप ऐसे सपने देखेंगे, जिसमें आपने किसी की हत्या कर दी। आप मन ही मन ऐसी कल्पना करेंगे कि उसके मकान मे आग लगा दी, या उसको जूते मार रहे, हैं या कुछ कर रहे हैं। मन ही मन चलेगा यह! यह आपके भीतर सरकेगा और चित्त को विकृत करेगा और घुन लगा देगा। यह भी क्रोध है, यह आन्तरिक दमन हुआ, यह चल रहा है भीतर।
पहले से नुकसान था कि आदत पड़ती गयी, इससे नुकसान यह है कि आप धीरे-धीरे क्रोध से उत्तप्त रहने लगेंगे। उससे वेग निकालेंगे नहीं, वह वेग भीतर घूमेंगे। ऐसा आदमी बड़ा घातक हैं वह कभी इतना खतरनाक क्रोध करेगा, जो कि पहले वाला आदमी कभी नहीं कर सकता। इसलिए बहुत दफे, बहु सीधे-सादे दिखने वाले लोग हत्याएं कर देते हैं। आम तौर से बहुत क्रोधी लोग हत्या नहीं करते, क्योंकि उनका क्रोध रोज-रोज निकलता रहता है। लेकिन जो क्रोध का दमन करता चला जायेगा, कई दफे यह अनुभव होगा कि यह आदमी तो बड़ा सीधा था, उसने यह काम कैसे किया? उसने बहुत दिन दमन किया। वेग बहुत इकट्ठा हो गया। फिर किसी चीज से वह क्रुद्ध हो गया और सारा वेग इकट्ठा निकल गया। और तब वह बहुत खतरनाक काम कर सकता है। यह वेग किसी दिन निकल सकता है। ऐसा आदमी पागल हो सकता है। यह वेग इतना ज्यादा दमित हो जाये कि इसके निकलने का रास्ता न रहे तो दिमाग खराब हो जायेगा।
कोई भी वासना, कोई भी वेग किया जाये तो आदत बनती हे, दमन किया जाये तो विक्षिप्त कर सकता है। तो दूसरा रास्ता भी रास्ता नहीं है। न तो मैं क्रोध निकालने को कहता हूँ, न ही दबाने को कहता हूँ, मैं तीसरी बात कहता हूँ। मैं उसका विसर्जन करने को कहता हूँ एक है क्रोध का भोगना, एक है क्रोध का दमन करना और एक है क्रोध का विसर्जन करना। विसर्जन करने की बात समझने की बात है।
जब क्रोध उठे तो न तो उसे किसी पर प्रकट करिए, क्योंकि आप में क्रोध उठे, इसके लिए कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं है। आप ही जिम्मेदार हैं, इसको स्मरण रखिए। हम आमतौर से बोझ दूसरे पर डाल देते हैं कि मुझे इसलिए क्रोध उठा कि उस आदमी ने गाली दी। लेकिन किसी की गाली, मुझमें क्रोध को नहीं उठा सकती, अगर मुझमें क्रोध न हो। मेरे भीतर जो है, उसी को कोई दूसरा मुझमें उठा सकता है। यहाँ हम परदा खोलें, यहाँ इतने लोग बैठे दिखाई पड़ रहे हैं तो परदा खोलने वाला, इतने लोगों को परदा थोड़े ही कर रहा है। वह परदा खोल भर रहा है। यहाँ इतने लोग दिखाई पड़ते हैं। ये यहाँ मौजूद हैं। जब एक आदमी आपको गाली देता है तो आपमें क्रोध थोड़े ही पैदा करता है, आपके भीतर परदा खोलता है, क्रोध आपके भीतर मौजूद है। अगर वहाँ क्रोध मौजूद न हो तो गाली क्रोध नहीं ला सकती।
मेरी बात समझे न। वहाँ क्रोध मौजूद है, इसलिए गाली क्रोध लाती है। वहाँ अभिमान मौजूद है, इसलिए सम्मान सुख लाता है। एक आदमी आपका बड़ा आदर करता है, आप बड़े सुखी हो गये। आप सोचते हैं सुख उसने दिया! वहाँ तो अभिमान मौजूद था, उसने परदा खोल दिया सम्मान करके। वहाँ बड़ा अच्छा लगने लगा उसने गाली दे दी तो अपमान हो गया। वहाँ अभिमान मौजूद था तो आप क्रुद्ध हो गये।
आपके भीतर चीजें मौजूद हैं, बाहर के लोग केवल जो मौजूद है, उसी को प्रकट करने का कारण बन सकते हैं। आपके भीतर कोई भी पैदा नहीं कर सकता है। इसे स्मरण रखें कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति में कुछ पैदा नहीं कर सकता है। सिर्फ जो उसमें मौजूद है, उसको दिखला सकता है। दूसरे पर तो क्रोध को कभी कारण न मानिये कि दूसरे ने क्रोध करवा दिया है। फिर इसलिए दूसरे के चिन्तन का तो सवाल ही नहीं रहता।
और फिर मैंने परसों रात, जैसा आपसे कहा कि जब-जब आप उसका चिन्तन करने लगेंगे, तब-तब क्रोध को आप देख नहीं पायेंगे। आप उसे देखने लगे जिसने गाली दी! मैं उसका विचार करने लगा। उसी बीच क्रोध मुझे पकड़ लेगा और मथ डालेगा। उसी बीच मैं नरक में उतर जाऊँगा। तो जब उसने गाली दी, तब उसकी फिक्र छोड़ें, आँख बन्द करके अपने क्रोध को देखें। तो एक रास्ता निकालने का था, वह तो उपयोग का नहीं है। दूसरा रास्ता दमन करने का था, वह भी उपयोग का नहीं तीसरा रास्ता है, न तो निकालें और न दमन कारें। आँख बन्द कर लें। क्रोध का साक्षात्कार करें। उसके साक्षी बनें, उसके विटनेस बनें। उसको देखें सिर्फ देखें। उसे पूरा उइने दें उससे कह दें। कि उठों, हम तुम्हें देखते हैं, तुम क्या हो! न तो हम निकलेंगे, न हम दमन करेंगे, हम तो तुम्हें देखेंगे।
एकान्त कोने में बन्द हो जायें, साधना का बड़ा अद्भुत क्षण हे। क्रोध पकड़े तो उसे साधना के लिए अद्भुत क्षण समझें। मन्दिर जाने से वह लाभ न होगा, जो क्रोध में आ जाने से हो सकता है। दरवाजा बन्द कर दें, एकान्त में शान्त होकर बैठ जायें, आँख बन्द कर लें और कृपा समझें उस आदमी की जिसने इस क्रोध को देखने का आपको मौका दिया, जो आपके भीतर था। इस नरक का आपको मौका दिया। आँखें बन्द कर लें, अब इस पूरे क्रोध को उठने दें और चुपचाप इसे देखें। इसे कुछ न करें, इसे छोड़ें-छोड़ें नहीं। "जस्ट अवेयरनेस" इसके बाबत पैदा करें कि देख रहे हैं हम उसे उठने दें, उसके पूरे रूप को फैलने दें, चुपचाप देखते रहें। न तो किसी पर अभी निकालने की कोशिश करें और न दबाने की।

 प्रश्न- अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग।

उत्तर- शान्त-अपने को बन्द कर लें कहीं चुपचाप और जो भी उठता है उसे देखें सिर्फ देखें, कुछ न करें। एक क्षण को उठेगा, उसको ही देखें, कोई फिक्र नहीं है। आप गलत ख्याल में हैं कि क्रोध एक क्षण को उठता हैं उसका उभार बड़ी देर तक रहता है। उठता है, एक क्षण को होगा। उसकी सरकती धुएं की रेखा बहुत देर तक चलती है। कोई फिक्र नहीं है, अगर वह अपनी पूरी जवानी में न दिखाई पड़े। बुढ़ापे में दिखाई पड़े तो भी कोई हर्ज नहीं। देखने का प्रयोग शुरू करें। देखने का अभ्यास घना होगा तो किसी दिन वह बिल्कुल अपने जन्म में भी पकड़ा जा सकेगा। अभी तो ऐसा ही होगा कि आखिरी लकीर उसकी दिखाई पड़ेगी।
अभी तो ऐसा हेगा कि क्रोध कराने की जो पुरानी आदतें हैं, उसमें अगर बैंठे भी एकान्त निरीक्षण को तो उसकी आखिरी जाती हुई लकीर दिखाई पड़ेगी, कोई हर्ज नहीं, वह भी शुरूआत अच्छी है। कुछ तो दिखा। और कुछ दिखेगा। किसी दिन पूरा क्रोध आपको दिखाई पड़ेगा। और एक बड़ा अद्भुत अनुभव होगा वह। उसका अभ्यास थोड़ा घना हो जायेगा और आप क्रोध को देखने में समर्थ हो जायेंगे जो बाप देखेंगे कि न तो क्रोध किसी के ऊपर जा रहा है और न दमित हो रहा है। वह विसर्जित हो रहा है, इवेपोरेट हो रहा हैं न तो किसी की ओर जा रहा है, किसी आदमी के प्रति अब नहीं है वह और कहीं नहीं अपने भीतर दमन हो रहा है। वह तो भाप की तरह, जैसे भाप उड़ती जा रही है, वह वैसे उठ रहा है और निकलता जा रहा है। वह क्रोध उठता हुआ, निकलता हुआ मालूम होगा। किसी व्यक्ति के प्रति नहीं।
वह विलीन होता हुआ मालूम होगा, वाष्पीभूत होता हुआ मालूम होगा और इतनी परम शान्ति का अनुभव होगा उसके वाष्पीभूत होने पर कि जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते है। जो क्रोध आपको स्वर्ग में ले जाता है। उसका दमन करते हैं तो नरक में जाते हैं, उसको किसी पर प्रकट करते हैं तो नरक में जाते हैं, उसे कुछ भी नहीं करते, इन दोनों में से कुछ भी नहीं करते-न दमन करते हैं, न प्रकट करते हैं, उसके साक्षी बनते हैं, उसका आब्जर्वेशन करते हैं। उसको देखते हैं कि यह क्या है वेग।
और जो मैं क्रोध के सम्बन्ध में कह रहा हूँ, वह अन्य शक्तियों के सम्बन्ध में भी ठीक है। सैक्स हो, लोभ हो या कुछ और हो, जो भी वेग पड़ते हों चित्त पर, उनके निरीक्षक बनें। उन पर सेल्फ आब्जर्वेशन शुरू करें। आब्जर्वेशन में और थिंकिगं में फर्क समझ लें। क्रोध को विचारने को नहीं कह रहा हूँ कि आप विचार करें। कि क्रोध क्या है। पुराने ग्रन्थों में लिखा है क्रोध के बाबत, वह मैं नहीं कह रहा। उसमें तो फिर आप निरीक्षण नहीं कर पायेंगे। क्रोध के सम्बन्ध में सोचने को नहीं कह रहा हूँ, क्रोध को देखने को कह रहा हूँ।
यह मत सोचिये कि क्रोध बड़ी बुरी चीज है। और फलां ने कहा है कि क्रोध नहीं करना चाहिए। यह मैं नहीं कह रहा आपसे। यह तो सोचना होगा। क्रोध को देखने को कह रहा हूँ। अन्तदृष्टा बनें, उसको देखें। आँख गड़ायें उसके ऊपर और जानें कि यह क्या है। कोई निर्णय न लें। वह मैं परसों कहता था। उसके बाबत निर्णय न लें कि वह अच्छा है कि बुरा है। इतना ही जानें कि कुछ है जिसे हम देखें कि क्या हैं आप हैरान हो जायेंगे, अगर ऐसा निरीक्षण किया, तो पहले निरीक्षण में आपको एक अद्भुत बात मालूम पड़ेगी कि जितना हिस्सा आप क्रोध का निरीक्षण कर लेंगे, उतना हिस्सा लीन हो जायेगा। वह आपके भीतर सरकेगा नहीं। देख लेने के बाद, विलीन हो जाने के बाद, वह आपका पीछा नहीं करेगा, जो अभी करता है। अभी मैंने ऐसा अनुभव भी किया। ऐसे लोग भी हैं, जिनका पीछा बीस साल पहले का क्रोध भी कर रहा है। ऐसे लोग भी है। कि उनके बाप को किसी ने क्रोधित किया था, वह उनका पीछा कर रहा है, जन्म से। यानी पुश्तैनी दुश्मनी भी चलती है कि हमारे बाप से उनका झगड़ा था। वह अभी भी चल रहा है। वह क्रोध अभी तक उनका पीछा कर रहा है। अजीब-सी बात है। और आपका भी क्रोध पीछा करता है वर्षों तक। उस आदमी को देख कर आप फिर उत्तप्त हो जाते हैं, वह जो रखा है भीतर। यानी दो वर्ष पहले आपको गुस्सा दिलाया था, वह आदमी कहीं दिखाई पड़ जाये और आप पायेंगे कि आपके भीतर से कोई चीज जग गयी, कोई सांप भीतर उठ खड़ा हुआ है और परेशान कर रहा है।
तो जितना आप निरीक्षण कर लेंगे, उतने से आप बाहर हो जायेंगे। वह आपका पीछा नहीं करगा। जितना क्रोध की पूरी घटना का निरीक्षण करने में समर्थ हो जायेंगे, उतना आप पायेंगे कि क्रोध गया। थोड़े दिन निरीक्षण करने पर क्रोध विलीन हो जायेगा। इसके बाद क्रोध आना कठिन हो जायेगा, जब निरीक्षण परिपूर्ण हो जाये। आब्जर्वेशन पूरा हो जायेगा तो क्रोध आना मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि इसके पहले वह आये और आप आब्जर्वेशन में लग जायेंगे। अभी मैंने कहा, वह जाता होगा, उसका आखिरी हिस्सा आपको दिखाई पड़ेगा। निरन्तर अभ्यास से, वह आने के पहले आपको देखने की घटना शुरू हो जायेगी। किसी ने गाली दी, वह गाली दे रहा है आप और देखने लगेंगे भीतर कि कहां है? उठता है कि नहीं? और आप हैरान हो जायेंगे, अगर उसके पहले ही निरीक्षण की क्षमता आ जाये। वह आयेगा ही नहीं, वह पहले नहीं होगा।
निरीक्षण क्रोध की मृत्यु है। पूर्ण निरीक्षण क्रोध का जन्म ही नहीं होना है, जन्म ही नहीं होगा उसका। तब उस निरीक्षण के माध्यम से जब क्रोध का जन्म नहीं होगा तो आत्मचित्त की स्थिति होगी उसका नाम अक्रोध है। वह क्रोध को दबाने से नहीं आती, क्रोध को निकालने से नहीं आती, क्रोध के विसर्जन से आती है।

प्रश्न- अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग।

उत्तर- नहीं, उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। माफी माँगे, नहीं माँगे, वह मैं नही कह रहा। वह निकलती हो तो जरूर माँग लें। नहीं निकलती हो, शिष्टाचार के लिए माँगना हो तो उसको भी नहीं कह रहा। मैं यह कह रहा हूँ कि माफी क्रोध को नहीं मिटाती, क्रोध के परिणाम को फीका करती है। मैंने आपको क्रोध में गाली दे दी और मैंने जाकर आपसे माफी माँग ली। मेरा क्रोध नहीं हटता माफी करने से, माफी मांगने से। आपको मैंने जो गाली दे दी थी क्रोध में, उसका जो आप पर घातक प्रभाव हुआ था, वह थोड़ा-सा कम हो जायेगा। अगर मैंने बहुत गहरी माफी माँगी तो और कम हो जायेगा। अगर सच में आपके पैर पकड़ लिये और काफी, यानी जो-जो मैंने क्रोध में किया था, उसके विपरीत किया। क्रोध में मैंने क्या किया, अहंकार को चोट पहुंचायी थी और माफी में क्या करूंगा? आपके अहंकार को फुसलाऊँगा और खुशामद करूंगा।
माफी क्या है? खुशामद है। माफी क्या है? आप कल मुझे गाली दे गये और आज आकर मेरे पैर पकड़ लिये और कहने लगे कि क्षमा कर दें। तो कल जो गाली मुझे दे गये थे उससे मेरे अहंकार को चोट लगी थी, मेरे ईगो को चोट लगी थी। आज आकर मेरे पैर पकड़ गये, मेरे ईगो की परितृप्ति कर दिया, जिस मात्रा में चोट लगी थी तो मेरा तो परिणाम खत्म हो जायेगा। पर आपको थोड़े ही कुछ होने वाला है। अपना जो नुकसान हुआ उसकी कोई पूर्ति नहीं होती।
और यह जो आप सोच रहे हैं कि जब क्रोध किया हमने और किसी को गाली दी तो अपने अहंकार का पोषण हुआ था। अब हम क्षमा माँग रहे हैं तो हमारे अहंकार का विसर्जन हुआ। तब आप क्रोधी थे, अब हम क्षमावान भी होकर घर लौटे। हाँ? तब आपने अहंकार का जो मजा लिया था, वह क्रोध में लिया था। तुमने मुझे गाली दी तो मैं तुम्हें दुगुने वजन की गाली देता हूँ। अब आप घर यह सोचकर लोट रहे हैं कि मैं कितना क्षमाशील प्राणी हूँ कि आपने गाली दी, हमने भी गाली दी। अब जो दम्भ है, वह बड़ा विकसित दम्भ है। उसका पता चल जाता है। इसका पता चलना कठिन होगा।
प्रश्न अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग।
उत्तर-उसको मैं बुरा नहीं कह रहा। माफी मांगनी, बुरी बात नहीं है। माफी माँगी, वह सच्ची थी। इसका लक्षण यह नहीं है कि वह हिसाब से निकली या अपने आप निकली। इसका लक्षण यह है कि अगर वह सच्ची थी तो दोबारा क्रोध पैदा होना चाहिए। सवाल यह है कि अगर वह सच्ची थी, अगर फिर दुबारा वैसा ही क्रोध पैदा होता है और फिर वैसी ही माफी माँग ली जाती है तो उसका मतलब क्या है? तब तो मतलब यह हुआ कि क्रोध भी एक मेकैनिकल रिएक्शन है और माफी भी एक मेकैनिकल रिएक्शन है। क्रोध भी निकलता है, फिर माफी भी माँग लेते हैं। फिर पश्चात्ताप भी कर लेते हैं।
हम पूरी जिन्दगी इसी चक्कर में हैं वही काम करते हैं, उसके लिए दुखी हो लेते हैं। फिर वही करते हैं, फिर दुखी हो लेते हैं। फिर वही-अगर कोई आपकी जिन्दगी उठाकर देखे पूरी तो बड़ा हैरान होगा कि आप वही-वही काम, आखिर क्या कर रहे हैं? काम क्या है आपका? आप कोई चक्कर लगा रहे हैं कि कहीं चल रहे हैं? वही काम, फिर वही माफी, वही काम, फिर वही माफी। फिर पश्चात्ताप, फिर दुख, फिर पश्चात्ताप-करीब-करीब दिन-रात की तरह, हमारी जिन्दगी में कुछ बातें बंधी हैं। बिल्कुल रूटीन उन्हीं-उन्ही को हम कर रहे हैं।
मेरा कहना है, इस रूटीन को तोड़िए। रूटीन को तोड़ने का मतलब यह है कि अगर क्षमा माँगने जाते हैं तो फिर इस विचार के साथ जाइए कि अब क्रोध नहीं, नहीं तो क्षमा माँगूगा। क्षमा माँगने से फायदा क्या हे? जब कल फिर क्रोध करना ही पड़ेगा। इस पर नहीं तो किसी और पर करेंगे। क्षमा माँगने से क्या फायदा? पश्चात्ताप मत करिए, अगर कल फिर क्रोध करने की स्थिति है। तो तय करिए कि पश्चत्ताप नहीं करेंगे, क्षमा नहीं माँगेंगे। उस आदमी से कह दीजिये कि क्षमा हनीं माँगेंगे, क्योंकि क्षमा माँगने से कोई फायदा नहीं। कल अगर तुमने फिर हमारे साथ ऐसा ही किया तो फिर क्रोध करेंगे। इसलिए हम क्या क्षमा माँगे आपसे। क्षमा नहीं माँगनी है।

प्रश्न- अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग।

उत्तर- मेरी जो बात है, वह समझ में आ जायें तो फिर मैं इन प्रश्नों को ले लूं। मैंने कहा कि दमन नहीं, भोग नहीं, विसर्जन मार्ग है। क्रोध विसर्जित किया जा सकता है, आब्जर्वेशन से, निरीक्षण से। जितना शान्त होकर आप किसी वासना का निरीक्षण करेंगे, वासना उतनी ही विलीन हो जायेंगी। जितने अशान्त होकर आप वासना का निरीक्षण न करके वासना के प्रति मूर्च्छित होंगे और बाहर के कारणों का निरीक्षण करेंगे, वासना उतनी प्रगाढ़ हो जायेगी। मूर्च्छा क्रोध का प्राण है और निरीक्षण क्रोध की मृत्यु है। और मूर्च्छा के रास्ते और तरकीबें हैं।
रास्ता यह है कि जब क्रोध आयेगा तो हम क्रोध का निरीक्षण नहीं करेंगे। उसका निरीक्षण करेंगे, जिसने हमें क्रोध दिलवा दिया। हम समझेंगे कि उस आदमी की गलती है कि उसने हमें गाली दी जो हमें क्रोध आया, नहीं तो हमको क्रोध क्यों आता? अगर कोई हमको गाली न दे तो हम क्यों क्रोधित होने वाले हैं। एक तो हमको उस आदमी ने क्रोध करवायां अगर सारे लोग ऐसे हों कि कोई हमको गाली न दे तो हम क्रोध नहीं करेंगे। इसलिए हमारा तो कोई सवाल ही नहीं है। उसने गाली क्यों दी? या उसने हमको परेशान क्यों किया? या उसने अपमान क्यों किया? हम उस वक्त क्रोध को न देखकर उसको देख रहे हैं, जिसने क्रोध दिलवाया है और इस भाँति हमारी नजर और निरीक्षण उस पर लगी रहेगी।
इसी स्थिति में, जब हम निरीक्षण किसी और का कर रहे हैं, भीतर हर स्थिति में मूर्च्छित होंगे। वहाँ हमारा ध्यान लगा है, यहाँ ध्यानहीन हैं। इस मूर्च्छा की स्थिति में क्रोध हमारे जीवन को पकड़ लेगा। जब हम क्रोध कर चुकेंगे और हमारी शक्ति व्यय हो जायेगी क्रोध में, धक्का लगेगा, तब अचानक उस से ध्यान आयेगा। इस शक्ति के खोने की वजह से, पीड़ा की वजह से, ध्यान अपने पर आयेगा। तब यह तो फिजूल किया, इससे क्या फायदा था?
जब मूर्च्छा टूटती है, तब पश्चात्ताप होता है। लेकिन तब क्रोध चला गया होता है। निरीक्षण करने को कुछ है नहीं। तूफान जा चुका है, वहाँ सब चीजें टूटी-फूटी पड़ी हैं। उनका निरीक्षण करो उनसे दुखी होओ और तय करो कि अगली बार क्रोध नहीं करेंगे। जब फिर क्रोध आयेगा, तब फिर आप निरीक्षण करने को मौजूद नहीं रहेंगे, बाहर भी नहीं चले जायेंगे। फिर सब खण्डित होगा। फिर लौटकर देखेंगे, फिर पश्चात्ताप होगा। क्रोध और पश्चात्ताप का यह घेरा चलेगा।
और यह जो हम कहते हैं कि क्रोध करना ही पड़ता है-स्थिति ऐसी है, समाज ऐसा है। ये सब जस्टीफिकेशन्स हैं। ये हम अपनी गलतियों के लिए निरन्तर खोजते हैं। समाज, जैसा हम चाहते हैं, वैसा कभी नहीं होगा। आप समाप्त हो जायेंगे और समाज जैसा है वैसा ही रहेगा। अगर महावीर या बुद्ध यह सोचते कि जब समाज अच्छा हो जायेगा, तब हम शान्त हो जायेंगे तो वे कभी शान्त नहीं हुए होते।
इस जगत में समाज के तल पर ऐसी स्थिति कभी नहीं आयेगी कि सारे लोग इतने शान्त हों कि आपको क्रोध का मौका न दें। और मेरा मानना है कि अगर ऐसी स्थिति कभी आ जाये तो दुनिया बिल्कुल डैड लोगों की दुनिया होगी, मुर्दा लोगों कीं वह ऐसी कुछ भी न करेंगे कि आप में क्रोध पैदा हो, यह तो असम्भव है। दुनिया में यह तो असम्भव है कि बाहर की कोई भी स्थितियां ऐसी न हो, जो आपको क्रोध का मौका दें, क्योंकि मैंने आपसे कहा कि आप तो कलम में स्याही न चले तो क्रोधित हो जाते हैं। आप तो रास्ते में चलते-चलते यदि चप्पल टूट जाये तो क्रोधित हो जाते हैं, क्योंकि यह तो असम्भव है कि चप्पलों को राजी किया जाये कि कभी रास्ते में चलते समय न टूटें। यह तो असम्भव है कि कलमों को समझाया जाये कि तुम कभी जब कोई खत लिखते हो तो देख लेना कि मतलब का काम कर रहा है, कहीं उस वक्त स्याही बन्द न हो। यह तो असम्भव है।
आदमियों को भी समझा-बुझाकर राजी कर लिया तो भी तो असम्भव है, क्योंकि बहुत और दुनिया है। उसमें कुछ तय करना कठिन है। अभी यहाँ गरमी पड़े और यह पंखा बन्द हो जाये तो समझाना बड़ा कठिन है कि अभी इस वक्त गरमी पड़ती है, हम क्रुद्ध हो जायेंगे और हम गुस्से में आ जायेंगे। दुनिया कभी ऐसी नहीं होगी कि उसमें क्रोध को पैदा करने के कारण विलीन जो जायें। लेकिन व्यक्ति ऐसा हो सकता है कि उसमें क्रोध के कारणों के रहते हुए क्रोध की शक्ति विलीन हो जाये। यानी दो ही तो बातें हैं-क्रोध के कारण विलीन हो जायें तो हम अक्रोधी हो जायेंगे या फिर हममें क्रोध करने की क्षमता विलीन हो जायें ता हम अक्रोधी हो जायेंगे। एक रास्ता है कि बाहर सब ठीक हो जाये ता ेहम क्रोध नहीं करेंगे। यह असम्भव है। यह कभी नहीं होगा, यह हो ही नहीं सकता।
अभी मैं सफर में था। मेरे कम्पार्टमेंट में एक सज्जन बैठे थे। उनसे मेरी कुछ क्रोध के बाबत बात हो रही थी। जो आपने पूछा, उन्होंने भी कहा कि भाई बाहर ऐसी चीजें हैं कि हम क्या कर सकते हैं। बाहर लोग सब गड़बड़ कर देते हैं मैंने उनसे कहा, अगर लोग सही होते दुनिया में तो ठीक था, समझाते-बुझाते, पर वह भी आसान काम नहीं था। तीन अरब लोग हैं जमीन पर। आज एक को समझाने की बात करता हूँ तो वह कहता है कि बाकी एक को छोड़कर तीन अरब जो लोग हैं, वे गड़बड़ कर रहे हैं। दूसरे को समझाऊँगा, वह कहेगा, दूसरे लोग गड़बड़ कर रहे हैं, जब तक वे ठीक न हो जायें, तब तक हम कैसे ठीक हो सकते हैं?
अगर ये सारे लोग यह कहते हैं कि बाकी लोग ठीक न हो जायें, तब तक हम कैसे ठीक हो सकते हैं तो ठीक होने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि एक ही क्षण में सारे लोग ठीक हो जायेंगे, यह असम्भव है। फिर चीजें हैं दुनिया में। फिर क्या हुआ कि वह ट्रेन चली और एक स्टेशन के बीच आकर खड़ी हो गयी और कोई दो घण्टे खड़ी रही। उनके क्रोध का तो ठिकाना नहीं रहा। वह डिब्बे के बाहर झांककर अन्दर आये कि मेरा तो मुकदमा गड़बड़ हुआ जा रहा है। मुझे तो यह है, मुझे तो वह है। और मुझे तो इतने वक्त पर पहुँचना ही चाहिए था। फिर तो वे बहुत उत्तप्त होने लगे। तो मैंने उनसे कहा, आप देखिये, अभी ट्रेन खड़ी हो गयी। अब यह बड़ा कठिन है कि यह ट्रेन बिल्कुल खड़ी हो ही नहीं कभी, जब कोई आदमी मुकदमे के लिए जा रहा हो। उसको कोई पता नहीं, आपके मुकदमे से उसको कोई मतलब नहीं।
तो अब यह जो आदमी है, यह कहता है कि अगर ट्रेन कभी खड़ी न हो तो हम क्रोधित न होंगे। यह असम्भव है। यह सम्भव नहीं सवाल दुनिया का बिल्कुल नहीं है, सवाल निपट व्यक्ति का है और हम दुनिया के नाम उठाकर अपनी कमजोरी छिपाते हैं। हम यह कमजोरी छिपा लेते हैं, अपनी को समझा लेते हैं कि हमारा थोड़े ही कसूर है। जो आदमी अपनी गलतियों का जस्टीफिकेशन खोज लेगा, वह आदमी परिवर्तित नहीं होगा। जस्टीफिकेशन तो बहुत हैं।
अपनी गलतियों के लिए एक्सप्लेनेशन, कोई जस्टीफिकेशन, कोई तर्कबद्ध रेशनलाइजेशन मत खोजिये। अपनी गलती को अपनी गलती समझिए। उसे दूसरे पर मत टालिए, क्योंकि टालने से वह कभी आपका पीछा नहीं छोड़ेगी। टालना तरकीब है, जिसके माध्यम से हम अपने को मुक्त कर लेते हैं कि हमारी है ही नहीं, हम क्या कर सकते हैं। हम सारे लोग और हमारी सारी बुराइयां, इसलिये जिये चली जाती हैं कि हम कभी उनको अपना नहीं मानते। जिस बुराई को हम अपना न मानेंगे, उस बुराई से हम मुक्त नहीं हो सकते हैं।
बुराई से मुक्त होने का पहला कदम यह है कि पूरी तरह उसके लिए अपने को ही जिम्मेवार समझो कि मैं उसका जिम्मेदार हूँ। पहले तो पहले ही पूरा अनुभव करों कि पूरी रिस्पोंसिबिलिटी मेरी है। पहल बात तो यह है और फिर दूसरी बात यह है कि उस बुराई को गाली मत दो, उसका निरीक्षण करो और तब धीरे-धीरे अनुभव होगा कि जिम्मेदारी ले लेने से कि मेरी बुराई, बुराई का दूर करने के प्रयत्न शुरू होते हैं। इस दुनिया की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि हर आदमी, अपनी सारी बुराइयों के लिए किसी और को जिम्मेवार समझता है। कोई आदमी अपनी बुराई के लिए अपने को जिम्मेवार नहीं समझता। जो जिम्मेवार नहीं समझेगा, वह उसे दूर करने का उपाय क्यों करने लगा? सवाल ही नहीं उठता। वह जिम्मेदार ही नहीं है उसके लिए।
अतः आत्मिक साधना का पहला चरण तो यह है कि समस्त बुराइयां जो तुममें हैं, उसके लिए तुम जिम्मेवार हो, इसे अंगीकार करो। दूसरे पर बोझ मत डालों, दूसरे का बहाना मत लो। इसके लिए बड़ा साहस चाहिए, क्योंकि हम अपनी आँखों में अपनी एक तस्वीर बनाये हुए हैं, जो बड़ी खूबसूरत होती है। उसमें यह मानना कि हममें भी दाग हैं और धब्बे हैं, बड़ा कठिन होता है। हम सारे लोग अपनी-अपनी एक तस्वीर बनाये हुए हैं, अपने मन में एक-एक इमेजिनेशन, एक चित्र हमारे दिल में है, जो हम अपना बनाये हुए हैं, कि हम ऐसे आदमी हैं। उसमें यह मानना कि हम क्रोध करते हैं, उस चित्र को खण्डित करता है। वह जो कल्पना है, उस चित्र को तोड़ती है। बड़ा बुरा लगता है। जिस आदमी को अपने जीवन में जाना है, उसे अपनी तस्वीर बिल्कुल खण्डित कर लेनी होगी। उसे हिम्मत करनी होगी कि मैं जैसा हूँ, वैसा ही अपने को जानूं। वैसा नहीं, जैसा कि मैं होना चाहता हूँ या दीखना चाहता हूँ।
हम अपनी भीतर कोई तीन तरह के आदममियों को लिये हुए हैं-एक तो जैसे हम हैं, जिसका हमें पता ही नहीं चलता है। एक, जैसे हम दीखना चाहते हैं, जिसको हम रोज-रोज संभालते रहते हैं। और दूसरे, जैसे हम लोगों को दिखाई पड़ते हैं। तो कुल तीन परतें हमारे भीतर हैं। एक तो वह जैसा मैं हूँ, जो दिखाई पड़ते हैं। उसकी भी हम फिक्र रखते हैं, जो लोगों को हम जैसे दिखाई पड़ते हैं। हम उसकी बहुत फिक्र करते हैं। पूछते रहते हैं, पता लगाते रहते हैं कि लोगों को हम कैसे दिखाई पड़ते हैं? वह हमको ठीक समझते हैं कि नहीं। कौन आदमी हमें देखकर हँसता है? कौन आदमी हमें देखकर क्या कहता है? वह सब हम पता रखते हैं, उस सबका हिसाब रखते हैं। उसका हम हिसाब रखते हैं। और एक हम अपनी तस्वीर बनाये रखते हैं भीतर हृदय में कि लोग हमें ऐसा समझें।

प्रश्न- अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग।

उत्तर- हाँ, हम यह कहते हैं, कुछ लोग हैं जो अपनी भूलों को, अपने पापों को जाकर कन्फेस करेंगे और सोचते हैं कि उनके पाप जो हैं वह क्षमा कर दिये गये हैं। यह भी बात है, अगर सच में उन्होंने कन्फेस किया है और उनके पाप क्षमा हो गये तो वे ही पाप उनसे फिर दोबारा नहीं होने चाहिए। लेकिन जब दूसरे दिन सुबह चर्च के बाहर लौटकर वे फिर वैसे ही पाप करते हुए दिखाई पड़ते हैं तो उन्होंने उस कन्फेशन को भी एक तरकीब बना लिया। वह एक मतलब हो गया। वह पुरानी तरकीब, यहाँ भारत में भी थी, इस तरह की। जो लोग सोचते हैं, गंगा-स्नान कर आये तो पाप से मुक्त हो गये। फिर गंगा से लौट आये, फिर वही पाप करेंगे। फिर यह भी सुविधा हो गयी कि जब मन होगा, गंगा में जाकर स्नान कर लेंगे।
रामकृष्ण परहंस से किसी ने पूछा-लोग कहते हैं, गंगा में जाने से पाप मिट जाते हैं। आप क्या कहते हैं?
वे बड़े साधे-सादे आदमी थे। वे यह भी नहीं कहना चाहते थे कि गंगा में जाने से पाप नहीं मिटते। उन्होंने कहा-पाप एकदम मिट जाते हैं। वह जो गंगा के किनारे दरख्त होते हैं, आप पानी में डूबे, वे पाप दरख्त पर बैठ जाते हैं, उसी दरख्त पर बैठ जाते हैं। आप नहाकर वापस निकले, वे फिर सवार हो जाते हैं, वह गंगा दूर कर सकती है, लेकिन गंगा में कब तक डूबे रहियेगा? निकलना ही पड़ेगा। वे फिर वापस सवार हो जायेंगे। लेकिन उसमें कोई सार नहीं है गंगा में जाने से।
लियो टालस्टाय ने एक घटना लिखी है-एक दिन सुबह-सुबह चर्च गया एक बहुत बड़ा करोड़पति, एक बड़ा प्रख्यात आदमी, वहाँ कन्फेस कर रहा था। सुबह चार से पाँच बजे एकान्त में जाकर, अपने पापों के बाबत। अंधेरा था, मैं भी एक कोने में खड़ा होकर सुनता रहा। मै। बड़ा हैरान हुआ। मैं उसको बड़ा अच्छा आदमी समझता था। और वह कह रहा था, मैं पापी हूँ, दुराचारी हूँ, मैं यह हूँ और मैं वह हूँ। वह खूब रो रहा था और कह रहा था, हे प्रभु! क्षमा करों, मेरे पापों को। टालस्टाय ने लिखा, मैं उसे बड़ा अच्छा समझता था। उस दिन पता चला कि अरे! यह तो दुष्ट है। बड़ा दुराचारी है। वह आदमी निकला उसको पता नहीं था कि यहाँ और भी कोई खड़ा है। उसने मुझे देखा, वह बड़ा घबरा गया। में उसके पीछे-पीछे चला। जब हम चोगड्डे पर पहुँचे तो मैंने कहा-भाई! सुनते हो-एक आदमी से। ये जो सज्जन हैं, इनको अब तक ठीक समझते थे, यह पक्का पापी है। अभी मैं इनको सुनकर आया सब कन्फेशन। उस आदमी ने गुस्से से टालस्टाय को देखा और कहा-देखो, यह बात मन्दिर की थी और मुझे पता नहीं कि तुम मौजूद थे। यह बाजार में कहने की बात नहीं है। अगर तुमने किसी से कहा तो मैं अपमान का मुकदमा चलाऊँगा। मुझे पता नहीं कि तुम वहां थे और तुमसे मैंने कही भी नहीं। वह तो भगवान और मेरे बीच की बात है।
ये जो हमारी धारणाएं हैं, इनमें कोई अर्थ नहीं है। कन्फेशन का जो मूलतः अर्थ है, वह बहुत दूसरा हैं उसका अर्थ यही है जो मैंने कहा। अगर व्यक्ति अपने परिपूर्ण पाप का, अपनी परिपूर्ण बुराई का, निरीक्षण करे। उसे भूल जाये तब, तब वह प्रभु के सामने निवेदन कर देगा। निवेदन यह कि यह मुझमें है-यह-मुझमें पूरा ऑब्जर्वेशन करे तो वह निवेदन कर देगा कि यह मेरे-जो प्रभु को मानते हैं, उस भाँति वे निवेदन कर देंगे कि हमारे भीतर है। निरीक्षण से निवेदन आयेगा। निरीक्षण में मौत हो जायेगी। निवेदन तो औपचारिक है कि पाप मृत्यु तो निरीक्षण में ही हो जायेगी, निवेदन औपचारिक है कि यह मुझमें दिखाई पड़ा, यह मैं प्रभु से कह दूं। वह आदमी मुक्त हो जायेगा, वह निरीक्षण से मुक्त हो रहा है, क्योंकि बिना निरीक्षण के तो निवेदन नहीं कर सकता। तो दुनिया मे जो कौमें ईश्वर को मानती हैं, वे अपने पाप को जाकर उनके सामने निवेदन कर दें। लेकिन निवेदन के पहले निरीक्षण चाहिए। तब तो वे कहेंगे कि मुझे क्या पाप हैं जो कौमें ईश्वर को नहीं मानतीं, वे निरीक्षण में पाप से बाहर हो जायेंगी। वे निवेदन से पाप से बाहर नहीं हो रहे हैं, वे निरीक्षण से पाप से बाहर हुए जा रहे हैं।
पर अकेला कन्फेशन, जैसा वह हो गया है, एक फार्मेलिटी-लोग सोचते है।, कह दिया भगवान से मामला खत्म हो गया। इससे कोई हल नहीं, क्योंकि कल दूसरे दिन, वही काम तो फिर कर रहा है वह आदमी। उसको कहीं फिक्र ही नहीं है उस बात की कि मैंने जो किया, वह बुरा था। वह तो डर के वश कि यह रास्ता अच्छा है, आसान है-यह तो बहुत ही आसान रास्ता है कि आप जाकर कन्फेस कर दें, मामला खत्म हुआ, फिर करें फिर कन्फेस कर लें। यह तो बहुत सस्ता हो गया। मैं ऐसा नहीं मानता, इतना सस्ता जीवन नहीं है कि गंगा में नहाने से या चर्च में जाकर कन्फेस करने से आप बाहर हो सकते हैं। इतने से कोई बाहर नहीं हो सकता। उसके लिए तो किसी और आन्तरिक साधना में लगना होगा किसी और गहरे निरीक्षण में लगना हेगा। एक इनर ऑब्जर्वेशन में प्रविष्ट होना होगा। और तब उसके माध्यम से अगर कन्फेशन निकलेगा तो वह ठीक है। अगर किसी की वैसी निष्ठा हो तो वह जाकर भगवान को निवेदन कर दे, वह बाहर हो जायेगा। लेकिन कन्फेशन अकेला बाहर करता हो, तब बहुत आसान बात है जिन्दगी भर लोग यही सोचते हें और पापियों के लिए बड़ी राहत हो जाती है कि कितना पाप करो, जाकर भगवान से कह देंगे, सब बाहर हो जायेंगे।

प्रश्न- अस्पष्ट टेप रिकार्डिंक।

उत्तर-यह बात जो मैं कह रहा था, समझ में आयी? मैं इसलिए कह रहा हूँ कि कई बार मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मैं क्रोध के बाबत चर्चा कर रहा हूँ, अगर वह समझ में आ जाये तो उसका कोई परिणाम होगा। नहीं तो क्रोध की बात आपने एक तरफ रखी है। अब आप पूछते हैं, पुनर्जन्म होते हैं या नहीं या यह होता है या नहीं।
मैं पुनर्जन्म समझा भी नहीं पाऊँगा और आप शायद पूछेंगे, यह आत्मा क्या है? होता क्या है? मेरा मानना यह है कि एक भी प्रश्न की पूरी आन्तरिक गहराई में उतर जायें तो आपके सारे प्रश्न हल हो जायेंगे और एक प्रश्न को छुएं और दूसरे पर कूद जायें तो कोई प्रश्न हल नहीं होगा। कोई भी एक प्रश्न में, परिपूर्ण रूपेण उसकी पूरी जड़ तक उतर जायें तो शायद आप हर प्रश्न की जड़ में उतर जायेंगे, क्योंकि प्रश्न शायद एक ही है आदमी का, उसके रूप अनेक हैं। वह बातें करता है यह और वह, यह और वह-प्रश्न शायद एक ही है। कभी इस पर सोचिये।
यह जो क्रोध के बाबत, इतनी उत्सुकता से मैंने बात की, उसका कुल कारण इतना ही है कि वह आप हर चीज की बाबत, वैसी की वैसी है। कितनी-कितनी लागू है, क्योंकि हमारे सारे वेग, चाहे चिन्ता का हो, चाहे क्रोध का हो, चाहे किसी और कामना का हो, इच्छा का हो, एक-से हैं। और जो आदमी क्रोध को हल करने में सफल हो जायेगा, वह पूरा का पूरा टेकनीक जान गया, जो किसी भी दूसरे वेग पर प्रयोग करने से वहाँ भी सफल हो जायेगा। और तब जो निर्वेग-स्थिति होगी चित्त की, उसमें आप जानियेगा, उसमें आपको अनुभव होगा इस बात का कि आप आज ही नहीं हो इस जगत में। उस शान्त स्थिति में आपको अनुभव होगा, आपको पीछे भी होना हे। उस शान्त स्थिति में आपको अनुभव होगा, बड़े अनन्त जीवन के मालिक हैं। उसमें आपको अनुभव होगा, उस निर्वेद निर्द्वन्द्व चित्त की स्थिति में कि मैं शरीर नहीं हूँ। और जिसको मैंने सेल्फ आब्जर्वेशन कहा, आत्मनिरीक्षण कहा, अगर इसका प्रयोग करें तो आप दंग रह जायेंगे कि आपके भीतर, आपके पिछले जन्मों की स्मृतियां भी मौजूद हैं, वे मेमोरीज भी मौजूद हैं। अगर आप बहुत गहराई से निरीक्षण करने में समर्थ हो जायें तो आप अपने पिछले जन्मों की सारी स्मृतियों को वापस देख सकते हें, लेकिन उससे पहले मैं कहूँ कि पुनर्जन्म होता है तो कोई अर्थ नहीं रखता।

प्रश्न- अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग।

उत्तर-उससे क्या मतलब है? उससे क्या हल होगा, अगर तारीख का भी पता चल जायें, समय का भी पता चल जाये और जगह का भी पता चल जाये तो उससे आपको क्या होगा? मैं यह पूछता हूँ, उससे क्या होगा? उससे तो कुछ भी नहीं होगा। आप कहेंगे, ठीक। यह सवाल जो है, मेरा जोर है, मैं कोई विचारक नहीं हूँ, जरा भी। मेरा इससे भी कोई मतलब नहीं है कि फलां सिद्धान्त कैसा सिद्धान्त है। मुझे उससे कोई मतलब नहीं।
अभी एक गांव में ठहरा था। गांव के दो वृद्ध जन मेरे पास आये और उन्होंने कहा बीस साल से एक झंझट और झगड़ा हमारे बीच है। हम दोनों मित्र हैं। एक जैन थे, एक ब्राह्मण थे। एक झंझट हमेशा है, जो हमेशा बकवास में आ जाती है, विवाद हो जाता हैं आपकी बातें कुछ अच्छी लगी तो हम पूछने आये हैं कि आप शायद हमारा हल कर दें। इस बुढापे में हल हो जाये तो अच्छा है। हम दोनों पुराने मित्र हैं, लेकिन वह एक बात है। मैंने पूछा-वह कौन-सी बात है, जो बीस साल से आपको परेशान किये हुए हैं? उन्होंने कहा कि यह सवाल है कि जगत को भगवान ने बनाया या नहीं बनाया। यह ब्राह्मण जो हैं, ये कहते हैं कि बनाया भगवान ने और हम कहते हैं, यह भगवान ने बनाया नहीं। अनादि है। बस, इस मुद्दे पर हमारे झगड़े हैं और कभी झगड़े नहीं होते, बस ये बकवासें होती हैं। फिर मैंने उनसे पूछा-अगर यह तय भी कर दें बिल्कुल या केई भी तय कर दे बिल्कुल कि भगवान ने नहीं बनाया तो आप क्या करियेगा? और करना क्या है? बस तय हो जायेगा।
थोड़ी देर हम यह सोचें कि जिन-जिन प्रश्नों का हमारे जीवन के ट्रांफार्मेशन से कोई वास्ता न हो, वह-वह प्रश्न, जिसको हम कहें, वह कल ब्रजूभाई कहते थे प्रॉस्टीट्यूशन ऑफ माइण्ड-तो उसमें कोई मतलब नहीं, वह हम दिमाग के साथ व्यर्थ नासमझी का काम कर रहे हैं। कोई फायदा नहीं, कोई मतलब नहीं हैं मैं कोई विचारक नहीं हूँ। मेरा इससे बिल्कुल सम्बन्ध नहीं कि क्या है और क्या नहीं है, मेरी दृष्टि कुल इस बात से सम्बन्धित है कि आप जो हो, इस क्षण, वह क्षण आपका दुख से भरा है। अगर वह दुख से नहीं भरा है, तब तो कोई दिक्कत ही नहीं है। फिर आपका कोई प्रश्न ही नहीं है।
बुद्ध के जीवन में एक घटना घटी। एक व्यक्ति मौलुकपत्त ने जाकर उनसे ग्यारह प्रश्न पूछे। उन प्रश्नों में सारे प्रश्न आ जाते हैं। यह प्रश्न भी आ जाता है उसमें कि आत्मा जगत में क्यों आयी? यह जगत किसने बनाया, सारे प्रश्न आ जाते हैं। करीब-करीब वह ग्यारह प्रश्नों के आस-पास सारी फिलासफी घूमती है, सारे जगत की। बुद्ध ने मौलुकपत्त से कह कि तुम उत्तर चाहते हो? सच में चाहते हो? वह बोला-उत्तर चाहता हूँ। तब तो पूछता हूँ, मैं तो अनेक वर्षों से पूछता हूँ। तो बुद्ध ने पूछा-जिन-जिन से तुमने पूछा, उन-उन ने उत्तर दिये थे? उसने कहा-सबने उत्तर दिये थे। तो बुद्ध ने कहा-तुम्हें उत्तर से उत्तर मिला क्यों नहीं? जब अनेक से पूछ चुके, उन सबने उत्तर दिये, तुम्हें उत्तर क्यों नहीं मिला? क्या वे उत्तर गलत थे। अगर वे उत्तर गलत थे तो तुम्हें क्या सही उत्तर का पता है? तभी तुम उनको गलत समझ सकते हो। बुद्ध ने बड़ी अद्भुत बातें उससे कहीं। उन्होंने कहा-इतने लोगों से पूछा, उत्तर उन्होंने दिये तो वह उत्तर तुम्हें तृप्त क्यों नहीं कर पाये? क्या वे उत्तर गलत थे? अगर वे गलत थे तो अर्थ हुआ कि तुम्हें सही का पहले से पता हैं अगर सही का पहले से पता है तो पूछते क्यों हो? अगर सही का पता नहीं है तो फिर उनको तुमने गलत क्यों माना? तो बुद्ध ने कहा-मैं भी तुम्हें उत्तर दे दूंगा, फिर भी तुम किसी से पूछोगे। मैं तुम्हें उत्तर दे दूं, फिर तुम किसी से पूछोगे। बुद्ध ने कहा-मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता। उत्तर जानने की विधि देता हूँ। बुद्ध ने एक अजीब बात कही। मैं तुम्हें उत्तर नहीं देना कि आत्मा क्या है और कब आयी अथवा नहीं आयी और पीछे जन्म था कि नहीं और आगे जन्म होगा कि नहीं और आगे वैकुण्ठ में जायेंगे कि कहाँ जायेंगे, मैं कुछ नहीं देता उत्तर। मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता, क्योंकि उत्तर जिन्होंने दिये, तुमने उनके उत्तरों के साथ जो व्यवहार किया, वही तुम मेरे उत्तर के साथ करोगे। मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता।
तुम छः महीने रूक जाओ। मैं जो करने को कहता हूँ करो, और मुझसे मत पूछना इस बीच में। छः महीने के बाद, मैं ही तुमसे पूछंगा कि अब पूछना हो तो पूछ लो। तो बुद्ध का एक शिष्य था-आनन्द। उसने मौलुकपत्त से कहा-इनकी बात में मत आना। मैं कोई दस-बारह वर्ष से इनके करीब हूँ और यह धोखा इन्होंने कई लोगों को दिया। जो भी आकर इनसे प्रश्न पूछता है, उससे ये कहते हैं, छः महीने रुको, साल भर रुको तो मैं तुम्हें उत्तर दूंगा। फिर न मालूम उन लोगों को क्या हो जाता है कि वे पूछते नहीं। फिर।
तो बुद्ध के पास जो संघ बैठता था, उसमें ऐसे हजारों भिक्षु थे, जिन्होंने कभी कुछ नहीं पूछा, जो सामने बैठे रहते थे। एक दफा प्रसेनजित ने बुद्ध से पूछा कि सामने के लोग क्या हैं, समझ में ही नहीं आता। ये हमेशा बैठे रहते हैं। न कभी कुछ पूछते, न कभी सिर हिलाते, न कुछ कहते, चुपचाप बैठे सुनते रहते हैं। ऐसा मालूम होता है कि पता नहीं वे सुनते हैं कि नहीं सुनतें न कुछ पूछते, न कुछ विवाद करते हैं। न कभी कोई उत्तर, बस, बैठे रहते हैं, सांझ को चले आते हैं।
बुद्ध ने कहा-ये बड़े पहुँचे हुए लोग हैं। ये बा-मुश्किल आगे जा पाते हैं। ये जब तक पूछते रहते हैं, पीछे रहते हैं। फिर जैसे-जैसे इनका पूछना खतम होता जाता है, ये आगे आ जाते हैं। ये बड़े छंटे हुए लोग हैं। ये इसलिए नहीं पूछते कि इनका प्रश्न है। अगर नहीं है कोई तो प्रश्न गिर गया। तो मौलुकपत्त से आनन्द ने कहा कि रुको छः महीने तो आशा कम है कि पूछो। फिर वह छः महीने रुका। बुद्ध ने जो उसे करने को कहा। उसने किया। छः महीने बाद बुद्ध ने बड़े संघ में, भिक्षुओं के बीच कहा-मौलुकपत्त! तुम प्रश्न लेकर आये थे, पूछ लो। वह आदमी खड़ा हो गया और बोला-मेरा कोई प्रश्न नहीं है। फिर उसने कहा-कोई उत्तर आपसे नहीं पूछना है, क्योंकि यह तय हो गया, उत्तर अपना आ गया।
तो जीवन-सत्य के सम्बन्ध में, उत्तर किसी से नहीं मिलेंगे। उत्तर तो भीतर मौजूद हैं उस भीतर तक पहुँचने की विधि मिल सकती है मैं नहीं कहता कि क्रोध क्या है। मैं नही कहता, अक्रोध क्या है। मैं इतना ही कहता हूँ, जो भी हो क्रोध, उसका निरीक्षण करो। निरीक्षण विधि है। उससे क्रोध का पता चलेगा, उसके ही माध्यम से अक्रोध का पता चलेगा। निरीक्षण विधि है। अपने भीतर विचार का निरीक्षण करों उससे विचार का पता चलेगा। उसी से धीरे-धीरे निर्विचार का पता चलेगा। निरीक्षण विधि है, उसका निरीक्षण करों
धीरे-धीरे शरीर का पता चलेगा। अभी तो शरीर का भी आपको पता कहां है? अभी आपने शरीर को भी ऐसे देखा है, जैसे अपने बाहर से देख रहे हों। अभी आप शरीर के इस ऊपरी तल से ही परिचित हैं, जो ऊपर से दिखाई पड़ता हैं अभी आपने शरीर को ऐस थोड़े देखा, जैसे शरीर के भीतर बैठकर शरीर के देख रहे हों। अभी तो ऐसे देखा, जैसे बाहर से खड़े होकर देख रहे हों। अभी अपने शरीर से भी आपका जो परिचय है, वह ऐसा ही है, जैसे एक आदमी मकान के बाहर खड़ा होकर मकान को देख रहा हो और एक आदमी मकान के भीतर बैठकर मकान को देख रहा हों अभी आपने भीतर बैठकर शरीर को भी नहीं देखा। तब आपको पता चलेगा, यह ज्योति का पण्डित भीतर है और यह बाहर खोल घिरी हुई है। क्रोध दिखेगा। अभी मन को भी नहीं देखा। और भीतर उतरेंगे तब आपको मन में दिखाई पड़ेगा कि ज्योति भीतर और चारों तरफ विचार की मक्खियां घूम रही है। उसके पार शरीर के चमड़े की हड्डी की खोल चढ़ी हुई हे। वह निरीक्षण, उसको धीरे-धीरे भीतर ले जायेगा, आन्तरिक में ले लायेगा और तब केवल शुद्ध उसका अनुभव होगा जो निरीक्षण करता रहा, उसका अनुभव होगा और उसके अनुभव से सारे प्रश्न हल हो जायेंगे।
मैं आपको प्रश्न के उत्तर देता हूँ तो मुझे हमेशा यह ख्याल बना रहता है कि कहीं कोई बौद्धिक बात न रह जाये, कहीं ऐसा लगे कि मैं कुछ अच्छे उत्तर दे रहा हूँ। उनका कोई मतलब नहीं है। मेरे अच्छे से बुरे उत्तर का कोई मतलब नहीं है। मेरी सारी चेष्टा इस बात की है, इसकी नहीं कि आपका थोड़ा-सा एकेडेमिक ज्ञान बढ़ जाये कि आपको कुछ और अच्छी-अच्छी बातें पता चल जायें।
इससे मुझे क्या मतलब है? मेरी पूरी चेष्टा यह है कि आपको उस बात की दिशा खुल जाये, जहाँ आप शान्त हो सकें और सत्य को जान सकें। मैं नही कहता कुछ कि कब आत्मा आयी या नहीं आयी। मैं तो कुछ नहीं कहता। इतना मैं आपसे कहता हूँ कि अभी आप में कुछ है जो आत्मा है और अभी आपको अपने भीतर तक उतरने का रास्ता है। उसको व्यर्थ प्रश्न में खोकर समय और जीवन को व्यय न करें।
पिछली बार बात की थी-एक भिक्षु ने जाकर एक संन्यासी के पास-वह घटना चीन में घटी। उस संन्यासी के पास गया। वहाँ यह रिवाज था कि संन्यासी के तीन चक्कर लगाओ और उसको प्रणाम करों, फिर प्रश्न पूछो। वह सीधा जाकर पहुँचा। उसने हाथ पकड़े और उसने उससे पूछा। वह संन्यासी बोला-तुमको इतना भी पता नहीं, रिवाज का भी पता नहीं कि पहले विधिवत प्रशिक्षण करो, फिर बैठो, नमस्कार करों, फिर जगह पर बैठो। फिर तुम ऐसे हाथ पकड़कर पूछते हो, जैसे कि झगड़ा हो गया मेरा तुमसे।
उसने जाकर हिला दिया और पूछा। वह आदमी बोला-मैं तीन नहीं, तीन हजार चक्कर लगाने में समाप्त हो जाऊँ तो जिम्मा तुम्हारा। उसने कहा-मैं जब तीन चक्कर लगाने में गिर जाऊँ और मर जाऊँ- और नमस्कार करने में मेरे प्राण निकल जाये-तो फिर जिम्मा किसका? फुरसत मुझे नहीं है और उसने बड़ी अजीब बात की।
तो उसने पूछा कि तुम पूछना क्या चाहते हो और उसने कहा-यह भी मैं तय नहीं कर पाता कि क्या पूछूं, मैं तुमसे यही पूछने आया हूँ कि क्या पूछना चाहिए? बड़ी अजीब और बड़ी प्रीतिकर बात लगी। उसने कहा, मुझे यह भी पक्का नहीं, गलत-गलत पूछूंगा, क्योंकि मैं तो गलत आदती हूँ। मेरा तो कोई हिसाब-किताब है नहीं। मैं इतना ही पूछने आया हूँ कि क्या पूछना चाहिए, यह मुझे बता दें। फुरसत तो मुझे है नहीं। नही तो मैं तीन हजार चक्कर लगा दूँ, मुझे कोई दिक्कत नहीं है।
यह जो आदमी है- प्रश्न नहीं है इसके पास, प्यास है और हमारे पास अक्सर प्रश्न हैं, प्यास नहीं है। प्यास को घनीभूत करो और प्रश्नों के विस्तार में मत जाओ, प्यास की गहराई में जाओ। प्रश्न गहरे नहीं होते, प्रश्न विस्तृत हाते हैं। प्यास विस्तृत नहीं होती, प्यास गहरी होती है। प्रश्नों का एक्सटेंशन होता है, प्यास इंटेसिव होती है। एक प्रश्न, दो प्रश्न, पचास प्रश्न, लाख प्रश्न हो सकते हैं। प्यास लाख नहीं होती। प्यास एक ही होती है। और गहरी हो जायेगी और गहरी हो जायेगी। प्रश्न लम्बे होते चले जायेंगे, बहुत हो जायेंगे। प्यास एक ही होती हे, गहरी होती चली जाती है। एक सीमा पर प्यास इतनी घनी हो जाती कि तब तुम प्रश्न करना नहीं चाहते, तब तुम कुछ जानना नहीं चाहते। केई चीज आपको तृप्त नहीं कर सकती कि कोई बता दे, ऐसा है, वैसा है।
तो मैंने यह अनुभव किया और पूरे मुल्क में अनेक लोगों से मिलकर मुझे यह अनुभव आया कि सारे प्रश्न करीब-करीब ऐसे हैं, जैसे स्कूलों में होते हैं। जैसे परीक्षा के प्रश्न होते हैं- एकेडेमिक, जिनका जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं। फिजूल, जिससे कोई मतलब नहीं। उनका कोई मूल्य नहीं। मैं उनके उत्तर में उत्सुक नहीं हूँ। पिछले जन्म हों न हों, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है।
मतलब मुझे इससे है कि अभी तुममें एक जन्म है, एक जीवन है हाथ में, अभी एक क्षमता है। इस क्षमता के बीच तुम्हें बोध है कि दुख बड़ा है, अशान्ति है, पीड़ा है, परेशानी है। इसको दूर करने के उपाय की फिक्र करो। उसको ही पूछो। जगह-जगह से, तरफ-तरफ से उसको ही खोदो। उसी से सारे का सारा चैतन्य, सारा केन्द्रीयकरण उसी पर लगा दो और अपने भीतर, सबसे बड़ा जो तुम्हें कारण दिखाई पड़ता हो दुःख का, उसका निरीक्षण करने लग जाओ।
किसी को क्रोध मालूम होगा, किसी को लोभ मालूम होगा। वह जो खास केरेक्टरस्टिक हो तुम्हारे दुःख की, जिसके केन्द्र पर तुम्हारी सारी पीड़ा घूम रही है, जिसके केन्द्र की वजह से तुम अशान्त हो, उसके निरीक्षण में लग जाआ। उसी पर पूरे केन्द्रित होकर, काम करने में लग जाओ। तो उसी काम से तुम्हें उत्तर आने शुरू होंगे और उनके भी उत्तर आ जायेंगे, जिनका उस काम करने से सीधा सम्बन्ध नहीं मालूम होता, अगर उत्तर चाहते हैं तो प्रश्नों की फिक्र छोड़ो और कुछ साधना के क्रम में थोड़ा-सा अपने को संयुक्त कर लो। और अगर उत्तर नहीं चाहते हैं तो फिर बहुत ग्रन्थ हैं और बहुत उत्तर देने वाले हैं। उनसे उत्तर इकट्ठे करो। तुम एक पण्डित होकर मर जाओगे, जो बहुत से उत्तर जानता था, लेकिन जिसके पास उत्तर नहीं था। जो बहुत उधार की बातें जानता था, लेकिन जिसके पास अपना कुछ भी नहीं था। तथाकथित ज्ञानी और पण्डित से दरिद्र आदमी दूसरा नहीं होता। ये जो सो-काल्ड विचारक समझे जाते हैं, इनसे ज्यादा दयनीय और दरिद्र आदमी दूसरा नहीं होता। इनका कोई उत्तर अपना नहीं होता। यह सब सुना हुआ, सब सड़ा हुआ दोहरा रहे हैं। ये बस मुर्दा हैं। फिर कोई अर्थ नहीं।

प्रश्न- अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग।

उत्तर- मैं यह कह रहा था कि हम अपने भीतर एक चित्र बनाये हुए हैं अपना ही, बड़ा भव्य एक चित्र बनाये हुए हैं अपना ही। वह भव्य चित्र हमारा, हमें जीवन भर धोखा देता है। उसकी वजह से, हम अपने में कोई बुराई कभी स्वीकार नहीं कर पाते, कोई गलती नहीं देख पाते, कोई दाग नहीं देख पातें तो अपनी कल्पना से, अपने भव्य चित्र को खण्डित कर दें, उसे उठा कर फेंक दें क्या मुझे होना चाहिए, इसकी फिक्र छोड़ दें,। क्या मैं हूँ, इसको जानें। हम सब एक आदर्श से पीड़ित हैं। और इसलिए एक अभिनय में पड़े हुए हैं। हम सब एक आदर्श कल्पना अपनी बनाये हुए हैं कि मैं ऐसा आदमी हूँ, मैं वैसा आदमी हूँ। वही कल्पना हमें धोखा दिये रहती है, क्योंकि उस कल्पना के कारण जब भी हममें कोई बुराई होती है, हम मान नहीं सकते कि हम में है। हम समझते हैं, किसी और की वजह से हम में है।
अभी मैं एक प्रोफेसर से बात कर रहा था। वह बोले-कुछ क्रोध ऐस होते हैं जो कि क्रोध हैं ही नहीं। वह बोले-बिल्कुल ठीक क्रोध? मेंने कहा- क्रोध तो कोई ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि कोई अंधेरा कहे कि कुछ अंधेरे ऐसे होते हैं जिनको दीखता है, बिल्कुल फिजूल की बात हो गयी। यह तो कोई मतलब की बात नहीं है। यह तो विरोधी शब्द हैं।

प्रश्न- अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग।

उत्तर- हाँ, सभी क्रोध करने को, आप कोई न कोई बेसिस मानते हैं, यह सच्चा है। और सच्चा मानते हैं इसलिए कि क्रोध करने की तरकीब खोज रहे हैं। तरकीब जो हमारे दिमाग की है वह यह है कि क्रोध हमें करना है और अपनी कल्पना में जो हमने चित्र बना रखा है भव्य और दिव्य, उसको भी कायम रखना है तो फिर हम वह जो बेसिस है उसको कहेंगे कि वह बिल्कुल ठीक है और हमारे योग्य है कि हम क्रोध करें इस वक्त। हमारी दिव्यता क्रोध करने से खण्डित नहीं होती, इसलिए क्रोध करने के कारण को हम ठीक से यह दावा करेंगे कि यही तो भूलें छिपी हैं।
तो मेरा कहना है कि पहले अपने भीतर, जो एक प्रतिमा बना रखी है वह खण्डित कर दें उसकी फिक्र छोड़ें, उसको जानने लगें, जो कि आप असलियत में हैं और तब आप बड़े अजीब मालूम होंगे। हो सकता है आप सोचते हों कि मेरे जैसा अच्छा पति नहीं है। जरा गौर से अपने भीतर देखियेगा तो आप पाइयेगा, आप कौन-से पति हैं, काहे के अच्छे हैं? शायद आप सोचते हों, मुझसे बेहतर कोई पिता नहीं हैं जरा गौर से देखिये, आप में पिता जैसा क्या है और कहाँ के पागलपन में पड़े हैं? यह जो भ्रम हम किये हुए हैं कि हम ऐसे हैं, हम वैसे हैं। थोड़ा उठकर पर्दे को दिखिए जो आप हैं तो आप पायेंगे, शायद वहाँ पिता जैसा कुछ भी नहीं है, पति जैसा वहाँ कुछ भी नहीं है और घबराहट इसलिए होगी कि आपका चित्र टूटना शुरू हो जायेगा।
लेकिन साधक को इससे गुजरना होगा। यही तपश्चर्या है। यही कष्ट है, जो सहना पड़ेगा और उसे अपनी सारी दिव्य प्रतिमा को खण्डित करके वह जैसा नग्न, अनैतिक जैसा है, उसको जानना होगा। जब वह अपने को जानेगा, जैसा वह है तो उसमें फर्क होने शुरू हो जायेंगे, क्येंकि जो बुराई उसमें दिखाई पड़ेगी, अब उसको सहना कठिन हो जायेगा। यानी किसी बुराई को देखने लगना उससे मुक्त होने का रास्ता बन जाता है। हम अपने को हमेशा उलटे काम में लगाये हुए हैं। हम हमेशा सिद्धि करने में लगे हुए हैं कि हमारी जो आदर्श कल्पना है, अपने बाबत बड़ी सच है। चौबीस घण्टे हम उसी को सिद्ध करने में सब तरफ से लगे हुए हैं। अगक कोई हमारी निन्दा करे तो हम उसका विरोध करेंगे। अगर कोई हमें गाली दे तो हम उसका प्रतिवाद करेंगे। अगर कोई हमारे विरोध में कुछ कहे तो हम उसका प्रतिरोध करेंगे, ताकि हमारी प्रतिमा खण्डित न हो।
एक साधु था, वह गांव के बाहर ठहरा हुआ था। युवा था और सुन्दर था। तो गांव में एक स्त्री, एक युवती गर्भवती हो गयी और उससे लोगों ने पूछा, दबाव डाला तो उसने कहा-यह साधु का बच्चा है। बच्चा उसे हुआ, सारा गांव कुपित हो गया। उन्होंने जाकर बच्चा उस साधु के ऊपर पटक दिया। उसने पूछा-क्या बात है? उन लोगों ने कहा- यह बच्चा तुम्हारा है। वह बोला-इजइट सो? ऐसा है क्या? वह बच्चा रोने लगा तो उसे वह संभालने में लग गया। लोगों ने गाली बकी, अपमान किया और चले गयें
वह दोपहर को भीख माँगने निकला उस बच्चे को लेकर। लेकिन उसको कौन भीख देता। सारे गांव में अफवाह फैली थी और उस पर हँसी-मजाक और व्यंग्य कसा जा रहा था। जहाँ से निकले, लोग भीड़ बनाकर खड़े हैं और देख रहे हैं, हँसी उड़ा रहे हैं कि यह साधु है और बच्चे को भी लिये हुए है। अब उसको भूख भी लगी है। बच्चे के लिए दूध भी चाहिए और बच्चा रो रहा है, वह बेचारा सारे गांव में माँग रहा है। कौन उसको भीख देगा? कोई भिक्षा उसे नहीं मिली।
वह उस घर के सामने गया जिस घर की लड़की का वह बच्चा था। उसने वहाँ भी आवाज दी। उसने कहा-मुझे भीख न दो, इस बच्चे को भीख दे दो। इसको दूध मिल जायें तो बहुत। जिस लड़की का वह बच्चा था, उसके लिए सहना कठिन हो गया। वह इनटालरेबल हो गया। उसने अपने पिता से कहा-मुझे क्षमा करें, मैंने झूठ कह दिया। साधु का तो कोई सम्बन्ध नहीं है इससे। यह मैंने असली बाप को बचाने के लिए साधु का नाम ले लिया। मैंने सोचा था कि मामला खत्म हो जायेगा। साधु का। आप भगा-वगाकर वापस लौट आओगे। यह जो हालत हो रही है, इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी।
पिता बोला-अरे उसने कहा भी नहीं कि यह मेरा बच्चा नहीं है। उस नासमझ को कहना तो चाहिए था। वे सारे लोग नीचे गये, उसके हाथ-पैर जोड़े वह बोला-क्या बात है? उससे जब वे बच्चा छीनने लगे तो बोला-क्या बात है? तो उन्होंने कहा-यह बच्चा तुम्हारा नहीं है। वह बोला-इज इट सो? ऐसा मामला है, क्या बच्चा मेरा नहीं है? जब सांझ को लोगों ने उससे पूछा कि तुम पागल कैसे हो? तुमने सुबह ही क्यों नहीं कह दिया, तो वह बोला-जब इतने लोग कहते हैं तो ठीक होगा।
असल में उसकी अपनी कोई कल्पना ही नहीं है, कोई प्रतिमा नही है जिसको बचाना है। यह कोई प्रतिमा नहीं है कि मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ और यह मेरा कैसे हो सकता है? यह कोई प्रतिमा नहीं हे अपनी। तुम चाहते हो तो यही ठीक होगा। तुम गलती पर होगे तो तुम्हीं अपनी गलती ठीक कर लेना। मैं कहाँ जिम्मेदार हूँ उसको ठीक करने का। अगर तुम मुझे व्याभिचारी और दुराचारी समझोगे तो यह भी ठीक है, क्येंकि मुझे इसकी भी रक्षा नहीं करनी है। जो आदमी इस भाँति अपने ही चित्रों और प्रतिमाओं को छोड़ दे, उसको मैं साधु कहता हूँ। आम तौर से जो हम साधु देखते हैं, वह अपनी प्रतिमा रखता है। वह कुछ है, इसकी पूरी फिक्र करता है। वह यह सिद्ध करने की चौबीस घण्टे कोशिश में है कि वह कुछ हैं जिसने यह कोशिश छोड़ दी सिद्ध करने की कि मैं कुछ हूँ और जैसा निपट है, वैसा होने को राजी हो गया तो उसको मैं साधु कहता हूँ।
उस दिशा से जो चलेगा वह आत्मनिरीक्षण में गतिमान होगा। वह एक दिन जरूर उसको जान लेगा झूठा दम्भ और मिथ्या व्यक्तित्व अपने में खड़ा करने की बात नहीं। इससे बड़ी दिक्कत होगी। इससे मैं देखता हूँ कि हमारे प्रश्न कहीं कुछ ठीक नहीं हो पाते। अभी मैं ऐसा ही देखता हूँ कि आप पूछना कुछ चाहते हैं और पूछते कुछ है, क्योंकि जो पूछना चाहते हैं, कहीं उससे ऐसा पता न चल जाये ंकि आप में यह मामला भी है। मैं बड़ा हैरान हूँ।
मैं कलकत्ता में एक मीटिंग में बोल रहा था। एक सज्जन ने ब्रह्मचर्य पर एक किताब लिखी है। बड़ी किताब लिखी है, बड़ी प्रशंसित हुई उन्होंने मुझे एक किताब भेंट की। लेकिन ब्रह्मचर्य पर मैंने कहा, जैसी मेरी अपनी धारणा थी। उनको कुछ प्रश्न पूछने थे, लेकिन बड़ी मुसीबत में पड़ गये। वे खड़े होकर बोले-मेरे एक मित्र हैं, वह ब्रह्मचर्य साधना चाहते हैं। लेकिन उनसे साधता नही। तो क्या करें।?
मैंने उनसे पूछा-वह मित्र हैं आपके कि आप ही हैं। पहले में यह समझ लूं। वह बहुत घबरा गये। बोले-नहीं, मेरे एक मित्र हैं। मैंने कहा- मित्र की फिक्र छोडिए, उन मित्र को लाइए। रास्ता जरूर है, लेकिन उन मित्र को ले आइए, क्योंकि मैं आपको समझाऊं, आप उनको समझाएं तो बड़ा गड़बड़ हो जायेगा। आप मित्र को ले आइए, मैं उनको समझा दूंगा।
वह बड़े बेचैन हुए, जब मैं चला आयां उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी कि क्षमा करें, तकलीफ मेरी है। लेकिन मैं साहस नहीं कर सकता पूछने का। तो मैंने उनको लिखा कि आप साहस कर सकते थे, अगर वह ब्रह्मचर्य की आपने किताब न लिखी होती। वह दिक्कत हो गयी न, वह जो एक किताब लिखी है, एक प्रतिमा हो गयी कि मैं जो कि इतना जानने वाला ब्रह्मचर्य का हूँ तो मैं पूछूं किसी से तो कोई कहेगा, अरे! आपको साधने की, आपको खुद भी दिक्कत है?
यह जो तकलीफ है, मैं साधुओं से मिलता हूँ, साधु मुझसे सबके सामने बात नहीं करना चाहते। भीड़ में हों तो मुझसे मिलना नहीं चाहते। चाहते हैं एकान्त में, अलग में उनसे मिलूं, क्योंकि उनकी तकलीफें वही हैं, जो कि सबके सामने नहीं कह सकते हैं। अकेले में वह मुझसे यही पूछते हें कि ब्रह्मचर्य कैसे सधे? चित्त अशान्त रहता है, चित्त में क्रोध आता है तो क्या करें? यह अगर सबके सामने मुझसे पूछेंगे तो वह जो प्रतिमा अपनी उन्होंने खड़ी कर रखी है, चारों तरफ कि वे बड़े शान्तचित्त हैं, वे बड़े मुश्किल में पड़ जायेंगे, क्योंकि वे पूछते हैं कि अशान्ति कैस मिटे तो लोग समझेंगे, अभी शान्तचित्त नही हुए।
तो हम एक असली आदमी अगर सामने न रख सकें तो हम उस असली आदमी में फर्क कैसे कर सकेंगे? हम एक झूठे आदमी को सामने रखे हुए है। और असली आदमी को पाना चाहते हैं। आत्मा को पाना चाहते हैं और एक नकल, एक अभिनय, एक एक्टिंग चारों तरफ खड़ी किये हुए हैं तो वह नहीं हो सकेगा। मेरा मानना है कि इसमें घबराने की कोई जरूरत नहीं है। जिन्दगी के सीधे प्रश्न पूछना बन्द हो गये हैं। लोग-कोई पूछेगा आत्मा है, परमात्मा है? इनसे कोई मतलब नहीं है आपको।
आपके मतलब के प्रश्न कुछ और हैं जो आपकी जिन्दगी को पीड़ित और परेशान किये हुए है। जिनकी वजह से आप दिक्कत में पड़े हुए हैं, जिनका परिवर्तन आपकी समझ में आ जाये तो क्रान्ति हो जाये।
लेकिन वह कोई नही पूछेगा। उनको कैस पूछें, क्योंकि वह हमको ख्ल्लाल देंगे और हमारे बाबत जाहिर कर देंगे। जिन्दगी के असली प्रश्न हम पूछते ही नहीं है और नकली प्रश्न पूछे चले जाते हैं। मेरा जोर इसी बात पर है कि जिन्दगी के असली प्रश्न पकड़ें। मुसीबत क्या है? मेरी दिक्कत क्या है? मैं कहाँ उलझा हूँ, मैं कहाँ परेशान हूँ? मेरा दुःख कहाँ है? उसको केन्द्रित करें उसको पकड़ें। उसकी बाबत सोचें। उसकी बाबत विधि को समझें। उस पर प्रयोग में लग जाये। और बड़े मजे की बात यह है कि इस भांति तो प्रयोग में लगेगा, वह हो सकता है, एकदम से ऐसा भी न दिखो कि धार्मिक है, क्योंकि न आत्मा की बात करता है, न परमात्मा की बात करता है, न पुनर्जन्म की बात करता है। लेकिन बड़े रहस्य की बात यह है कि इस भाँति जो जिन्दगी को पकड़कर काम में लग जायेगा, वह एक दिन उस जगह पहुँच जायेगा, जहाँ आत्मा और परमात्मा सब जान लिये जाते हैं।
अभी कल रात जो मैंने कहा, वह मैंने यही कहा कि महावीर ने किसी से जाकर नहीं पूछा कि आत्मा है या नहीं, पुनर्जन्म है या नहीं। वह वहाँ बैठकर जंगल में क्या यह सोचते होंगे कि आत्मा है या नहीं? कभी यह सोचा आपने, क्या सोचते होंगे? यह बैठकर सोचते होंगे, आत्मा है या नहीं, पुनर्जन्म है या नहीं? नहीं, कुछ नहीं सोचते। क्रोध पर काम कर रहे हैं, सेक्स पर काम कर रहे हैं। काम इन पर चल रहा है। काम आत्मा-वात्मा पर थोड़े ही चलता हैं। वह बारह वर्ष की तपश्चर्या है। काम किस पर कर रहे हैं? कोई आत्मा पर काम कर रहे हैं या कोई पुनर्जन्म का पता लगा रहे हैं? कि निगोद का पता लगा रहे हैं? कि अनादि जगत कब बना इसका पता लगा रहे हैं? वे कुछ नहीं पता लगा रहे हैं। काम कर रहे हैं क्रोध पर, काम कर रहे हैं सेक्स पर, काम कर रहे हैं लोभ पर। वहाँ काम कर रहे हैं। उसी काम के माध्यम से, एक दिन स्थिति आती है कि ये सब विसर्जित हो जाते हैं। यह सब जब विसर्जित हो जाते हैं तो उसका अनुभव होता है जो आत्मा है। बातचीत आत्मा की है। काम आत्मा पर नहीं करना है कुछ। काम किसी और ही चीज पर करना है, पर हम आत्मा के बाबत पूछे चले जायेंगे। इसका कोई मतलब नहीं है।
आज इतना ही

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