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रविवार, 25 नवंबर 2018

योग: नये आयाम-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-संन्यास की दिशा

मेरे प्रिय आत्मन्!

थोड़े से सवाल हैं, उनके संबंध में कुछ बातें समझ लेनी उपयोगी हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि कुछ साधक कुंडलिनी साधना का पूर्व से ही प्रयोग कर रहे हैं। उनको इस प्रयोग से बहुत गति मिल रही है। तो वे इसको आगे जारी रखें या न रखें? उन्हें कोई हानि तो नहीं होगी?

हानि का कोई सवाल नहीं है। यदि पहले से कुछ जारी रखा है और इससे गति मिल रही है, तो तीव्र गति से जारी रखें। लाभ ही होगा। परमात्मा के मार्ग पर ऐसे भी हानि नहीं है।

दूसरे मित्र ने पूछा है--और और भी दो-तीन मित्रों ने वही बात पूछी है--कि यह रोना, चिल्लाना, हंसना, नाचना कब तक जारी रहेगा?


यह तीन सप्ताह से तीन महीने तक जारी रह सकता है। जो ठीक से प्रयोग को कर लेंगे, तीन सप्ताह में रोना, हंसना, चिल्लाना विलीन हो लाएगा और पहले चरण से ठीक चौथे चरण में प्रवेश हो जाएगा, बीच के दो चरण अपने आप गिर जाएंगे। जो ठीक से नहीं करेंगे, धीमे-धीमे करेंगे, उन्हें तीन सप्ताह से लेकर तीन महीने तक का समय लग सकता है। लेकिन यह कोई सदा चलने वाली बात नहीं है, यह तो मन के विकार जब गिर जाएंगे तो अपने आप विलीन हो जाएगा। अब कितनी तीव्रता से आप विकारों को गिराते हैं,
इस पर समय की लंबाई निर्भर करेगी। लेकिन अगर तीन महीने ठीक से प्रयोग किया तो आमतौर से तीन महीने में यह सब शांत हो जाएगा। फिर आप एक-दो गहरी श्वास लेंगे और तत्काल चौथे चरण में प्रवेश हो जाएगा। लेकिन यह तभी होगा जब आप पूरी तरह से ये बीच के दो चरण कर डालें। इसमें जरा सी भी कंजूसी की तो वर्षों लग सकते हैं। सवाल उलीच कर फेंक देने का है अपने भीतर से।


दूसरे दो-तीन मित्रों ने पूछा है कि यह रोना-चिल्लाना बड़ी कठिनाई देगा घर के लोगों को, पड़ोसियों को।

शुरू-शुरू में देगा, एक दिन देगा, दो दिन देगा। आप खुद ही जाकर उनसे पहले ही प्रार्थना कर आएं कि घंटे भर मैं ऐसा करूंगा, आप घंटे भर के लिए क्षमा कर दें। पहले ही कह आएं, इसके पहले कि वे आपसे पूछें कि क्या कर रहे हैं।
और चूंकि यह प्रयोग एकदम नया है, इसलिए थोड़ा समय लगेगा। अभी कोई बगल में भजन करने लगता है जोर से, तो किसी को तकलीफ नहीं होती। कोई जोर से राम-राम जपने लगता है, तो आप समझते हैं ध्यान कर रहा है। एक-दो वर्ष के भीतर मुल्क में लाखों लोग इसे करेंगे और लोग समझ लेंगे कि ध्यान कर रहे हैं। अभी शुरू में जो लोग करेंगे, उन्हें थोड़ी अड़चन है। शुरू में कुछ भी करने में थोड़ी अड़चन होती है। पर वह एक-दो दिन की बात है। अभी भी मुल्क में हजारों लोगों ने करना शुरू किया है। एक-दो दिन आस-पास के लोग उत्सुक होते हैं, फिर भूल जाते हैं।
और आपके व्यक्तित्व में जो अंतर पड़ने शुरू हो जाएंगे तीन सप्ताह के भीतर ही वे भी उनको दिखाई पड़ेंगे; आपका रोना-चिल्लाना ही दिखाई नहीं पड़ेगा। और अगर आपने प्रयोग ईमानदारी से किया है, तो आपके पड़ोसी बहुत ज्यादा दिन तक प्रयोग से बच न सकेंगे। वह प्रयोग उन्हें पकड़ना शुरू हो जाएगा।
इसलिए आपके रोने-चिल्लाने को आप बहुत परेशानी से न लें। बल्कि वह भी हितकर होगा। पास के लोग आकर पूछेंगे तो पूरा ध्यान उनको समझा दें। और उनको कहें कि आप भी कल साथ बैठ जाएं।

एक और सवाल रोज पूछा जा रहा है, उस संबंध में थोड़ी बात आपसे कहूं।
इधर अभी मनाली शिविर में बीस लोगों ने एक नये प्रकार के संन्यास में प्रवेश किया है। उस संबंध में रोज पूछा जा रहा है कि वह संन्यास क्या है? वह मैं आपसे कहूं।

दो-तीन बातें संक्षिप्त में। पहली बात तो यह कि संन्यास जैसा आज तक दुनिया में था, अब भविष्य में उसके बचने की कोई संभावना नहीं है। वह नहीं बच सकेगा। सोवियत रूस में आज संन्यासी होना संभव नहीं है। चीन में संन्यासी होना अब संभव नहीं है। और जहां-जहां समाजवाद प्रभावी होगा, वहां-वहां संन्यास असंभव हो जाएगा। जहां भी यह ख्याल पैदा हो जाएगा कि जो आदमी कुछ भी नहीं करता है उसे खाने का हक नहीं है, वहां संन्यास मुश्किल हो जाएगा।
आने वाले पचास वर्षों में दुनिया में बहुत सी संन्यास की परंपराएं एकदम विदा हो जाएंगी। चीन में बड़ी बौद्ध परंपरा थी संन्यास की, वह एकदम विदा हो गई। तिब्बत से लामा विदा हो रहे हैं, वे बच नहीं सकते। रूस में भी बहुत पुराने ईसाई फकीरों की परंपरा थी, वह नष्ट हो गई। और दुनिया में कहीं भी बचना मुश्किल है।
इसलिए मेरी अपनी दृष्टि यह है कि संन्यास जैसा कीमती फूल नष्ट नहीं होना चाहिए। संन्यास की संस्था चाहे विदा हो जाए, लेकिन संन्यास विदा नहीं होना चाहिए। तो उसे बचाने का एक ही उपाय है और वह उपाय यह है कि संन्यासी जिंदगी को छोड़ कर न भागे, जिंदगी के बीच संन्यासी हो जाए। दुकान पर बैठे, मजदूरी करे, दफ्तर में काम करे, भागे न, उसकी आजीविका समाज के ऊपर निर्भर न हो। वह जहां है, जैसा है, वहीं संन्यासी हो जाए। तो इन बीस संन्यासियों को इस दिशा में प्रवृत्त किया है कि वे अपने दफ्तर में काम करेंगे, अपने स्कूल में नौकरी करेंगे, अपनी दुकान पर बैठेंगे, और संन्यासी का जीवन जीएंगे।
इसका परिणाम दोहरा होगा। एक तो इसका परिणाम यह होगा कि संन्यासी शोषक नहीं मालूम होगा; वह किसी के ऊपर निर्भर है, ऐसा नहीं मालूम होगा। संन्यासी को भी इससे लाभ होगा। क्योंकि जो संन्यास की परंपरा समाज पर निर्भर हो जाती है, वह गुलाम हो जाती है, हमें पता चले या न चले। वह समाज की गुलामी में जीने लगती है। और जिनको हम रोटी देते हैं, उनसे हम आत्मा भी खरीद लेते हैं। इसलिए संन्यासी आमतौर से विद्रोही होना चाहिए, लेकिन हो नहीं पाता। क्योंकि वह जिनसे भोजन पाता है, उनकी गुलामी में उसे समय बिताना पड़ता है। वह वही बातें कहता रहता है जो आपको प्रीतिकर हैं, क्योंकि आप उसको रोटी देते हैं।
संन्यास एक क्रांतिकारी घटना है। उसके लिए जरूरी है कि व्यक्ति भीतरी रूप से, आर्थिक रूप से अपने ही ऊपर निर्भर हो।
तो एक तो संन्यास को घर-घर में पहुंचाने का मेरा ख्याल है।
इसका दूसरा गहरा परिणाम यह होगा कि जब संन्यासी घरों को छोड़ कर भाग जाता है, तो संन्यासी से जो फायदा संसार को होना चाहिए वह नहीं हो पाता। अच्छे लोग जब संसार छोड़ देते हैं तो संसार बुरे लोगों के हाथ में पड़ जाता है। इससे नुकसान हुआ है। मैं मानता हूं कि किसी आदमी की जिंदगी में अच्छाई का फूल खिले, तो उसे ठेठ बाजार में बैठा होना चाहिए, कि उसकी सुगंध बाजार में फैलनी शुरू हो। अन्यथा वह तो भाग जाएगा, दुर्गंध फैलाने वाले जम कर बैठे रहेंगे।
तो संन्यासी को घर-घर में--वह वेश परिवर्तन कर ले, वह अपनी सारी वृत्तियों को परमात्मा की ओर लगा दे, लेकिन छोड़ कर न भागे; बल्कि अब, जिस घर का काम कल तक वह सोचता था, मैं कर रहा हूं, अब परमात्मा का उपकरण बन कर उस घर का काम किए चला जाए। न पत्नी को छोड़े, न बच्चों को छोड़े, न घर को छोड़े। अब यह सारे काम को परमात्मा का काम समझ कर चुपचाप करता चला जाए। इसका कर्ता न रह जाए। बस इसका द्रष्टा भर रह जाए।
ऐसे संन्यास की प्रक्रिया से, मैं सोचता हूं, एक तो लाखों लोग उत्सुक हो सकेंगे। जो कभी घर छोड़ने का विचार नहीं कर पाते हैं, उनकी जिंदगी में भी संन्यास का आनंद आ सकेगा। और यह जिंदगी भी प्रफुल्लित होगी। अगर हमें सड़कों पर, बाजारों में, मकानों में, दफ्तरों में संन्यासी उपलब्ध होने लगे, उसके कपड़े, उसकी स्मृति, उसकी हवा, उसका व्यवहार, वह सारी जिंदगी को प्रभावित करेगा।
इस दृष्टि से जो लोग भी बार-बार पूछ रहे हैं, वे अगर उत्सुक हों, तो आज तीन से चार वे मुझसे अलग से बात कर लें, जिन्हें संन्यास का ख्याल हो कि उनकी जिंदगी में यह संभावना बने।
इस संन्यास में मैंने दो-तीन बातें और संयुक्त की हैं। एक तो इस संन्यास को पीरियाडिकल रिनंसिएशन कहा है, सावधि संन्यास कहा है।
मेरा मानना है, किसी आदमी को भी जिंदगी भर के निर्णय नहीं लेने चाहिए। आज आप निर्णय लेते हैं, हो सकता है छह महीने बाद आपको लगे कि गलती हो गई। तो आपके वापस लौटने का उपाय होना चाहिए। अन्यथा संन्यास भी बोझ हो सकता है। जब हम एक दफे एक आदमी को संन्यास दे देते हैं तो आग्रह रखते हैं कि वह जिंदगी भर संन्यासी रहे। हो सकता है साल भर बाद उसे लगे कि यह गलती हो गई है। तो उसे वापस लौटने का अधिकार होना चाहिए, बिना निंदा के।
इसलिए यह जो मेरा, जिसे मैंने संन्यास कहा है, पीरियाडिकल है। आप जिस दिन भी चाहें, वापस चुपचाप लौट जा सकते हैं। कोई आपके ऊपर इसका बंधन नहीं होगा।
थाईलैंड और बर्मा में इस तरह के संन्यास का प्रयोग प्रचलित है और उससे थाईलैंड और बर्मा की जिंदगी में फर्क पड़ा है। हर आदमी थोड़े-बहुत दिन के लिए संन्यास तो एक दफे ले ही लेता है। किसी आदमी को वर्ष में दो महीने की फुरसत होती है, तो दो महीने संन्यास ले लेता है। और दो महीने संन्यासी की तरह जीकर वापस अपने घर की दुनिया में लौट आता है। आदमी बदल जाता है। दो महीने संन्यासी रहने के बाद आदमी वही नहीं हो सकता जो था। उसके भीतर का सब बदल जाता है। फिर वर्ष, दो वर्ष के बाद उसे सुविधा होती है, दो महीने के लिए संन्यास ले लेता है।
इसलिए दूसरी भी दिशा मैंने इसमें जोड़ी है कि जो लोग कुछ सीमित समय के लिए संन्यास लेना चाहें, वे सीमित समय के लिए संन्यास लेकर प्रयोग करें। अगर उनका आनंद बढ़ता जाए तो समय को बढ़ा लें। अगर उन्हें ऐसा लगे कि नहीं, वह उनकी बात नहीं है, तो चुपचाप वापस लौट आएं।
इससे दोहरे फायदे होंगे। संन्यास बंधन नहीं बनेगा। संन्यास स्वतंत्रता है, इसलिए बंधन बनना नहीं चाहिए। अभी हमारा संन्यासी बिल्कुल बंधा हुआ कैदी हो जाता है। और दूसरी बात--संन्यास बंधन नहीं बनेगा, एक--और दूसरी बात कि संन्यास प्रत्येक के लिए, चाहे थोड़े समय के लिए ही सही, उपलब्ध हो जाएगा। और अगर एक आदमी अपने सत्तर साल की जिंदगी में पांच दफा दो-दो महीने के लिए भी संन्यासी हो गया हो, तो मरते वक्त दूसरा आदमी होगा। वह वही आदमी नहीं हो सकता। अधिकतम लोगों को संन्यासी होने का मौका मिल जाएगा, अधिकतम लोग संन्यास का रस और आनंद अनुभव कर सकेंगे। और मेरा मानना है कि जो एक दफे संन्यास में जाएगा, वह वापस लौटेगा नहीं। यह न लौटना नियम से नहीं होना चाहिए, यह न लौटना संन्यास के आनंद से होना चाहिए। लेकिन लौटने की स्वतंत्रता कायम रहनी चाहिए।
इस संबंध में अभी ज्यादा बात करनी उचित नहीं होगी। जिन मित्रों को संन्यास की दिशा में उत्सुकता हो, वे दोपहर तीन से चार मुझे मिल ले सकते हैं।
कुछ शायद दस-पांच नये मित्र होंगे, तो मैं दो मिनट आपको प्रक्रिया दोहरा दूं। फिर हम ध्यान के प्रयोग के लिए बैठें।

ध्यान का यह प्रयोग, संकल्प का, विल पावर का प्रयोग है। आप कितने संकल्प से लगते हैं इसमें, उतना ही परिणाम होगा। अगर इंच भर भी आपने अपने को बचाया, तो परिणाम नहीं होगा। इसमें पूरा ही कूदना पड़ेगा। इसमें बचाव से नहीं चल सकता है। और प्रक्रिया ऐसी है कि आप पूरे कूद सकते हैं, कठिनाई नहीं है।
उसके तीन चरण हैं।
पहले चरण में आपको तीव्र श्वास दस मिनट तक लेनी है। इसे बढ़ाते जाना है, तेज करते जाना है। इस भांति श्वास लेनी है कि आपको दूसरा कुछ स्मरण ही न रह जाए। बस, श्वास ही रह जाए। सारा प्रयोग--दस मिनट आप भूल जाएं सारी दुनिया को। और जो जोर से श्वास लेगा वह भूल जाएगा। बस, श्वास की क्रिया ही उसके बोध में रह जाएगी। भीतर-बाहर श्वास ही श्वास में सारी शक्ति लगा देनी है।
दूसरे दस मिनट कैथार्सिस के हैं, रेचन के हैं। दूसरे दस मिनट में नाचना, कूदना, चिल्लाना, रोना, हंसना, जो भी आपको आने लगे, उसे पूरी ताकत से करना है। दस-पांच मित्रों को, जिन्हें न आए अपने आप, उन्हें अपनी ओर से जो भी सूझे वह शुरू कर देना है--नाचना लगे नाचना, चिल्लाना लगे चिल्लाना। और प्रयास मत करें, बस शुरू कर दें।
कल दो-तीन मित्र आए। उन्होंने कहा, हम प्रयास करते हैं, लेकिन होता नहीं।
प्रयास की जरूरत नहीं है। उछलने के लिए कोई प्रयास करना पड़ेगा? शुरू कर दें। प्रयास की कोई फिक्र न करें। जैसे ही आप शुरू करेंगे, धारा टूट जाएगी और सहज हो जाएगा। और एक-दो दिन में आप पाएंगे कि वह अपने आप आने लगा। हमारे मन में बहुत से दमन इकट्ठे हैं, बहुत से वेग इकट्ठे हैं, वे गिर जाने चाहिए।
भीतर शक्ति का जन्म होगा, पूरा शरीर इलेक्ट्रिफाइड हो जाएगा, कंपित होने लगेगा। यह शक्ति जगाने के लिए ही दस मिनट गहरी श्वास की चोट कर रहे हैं, उससे कुंडलिनी जागेगी।
फिर दूसरे दस मिनट में मन के विकारों को गिराने के लिए प्रयोग कर रहे हैं, ताकि कुंडलिनी के मार्ग में कोई बाधा न रह जाए, सब बाधाएं अलग हो जाएं। और कुंडलिनी की यात्रा सीधी ऊपर जा सके, चित्त के सारे रोग अलग हो जाएं। अन्यथा कुंडलिनी से जगी हुए शक्ति को चित्त के रोग एब्जार्ब कर लेते हैं, वह चित्त के रोगों में प्रविष्ट हो जाती है। इसलिए रेचन जरूरी है, सब कचरा बाहर फेंक देना जरूरी है।
फिर तीसरे चरण में जो शुद्ध शक्ति बचेगी कुंडलिनी की, उसको जिज्ञासा में रूपांतरित करना है, उसको इंक्वायरी बनाना है। इसलिए तीसरे चरण में दस मिनट तक ‘मैं कौन हूं?’ पूछना है।
आज तो आखिरी दिन है, इसलिए मन में मत पूछें। पूरे दस मिनट पूरी शक्ति लगा कर जोर से चिल्ला कर पूछें। इतने जोर से पूछें कि आपको और दूसरी बात ख्याल में ही आने की सुविधा न रह जाए कि कुछ और विचार, कोई और जगत भी है। बस ‘मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?’ इसमें डूब जाएं। किन्हीं को अगर हिंदी की जगह मराठी में पूछना सुविधाजनक पड़ता हो तो वे मराठी में पूछ सकते हैं। यह सवाल नहीं है। अगर उनको मराठी सुविधाजनक पड़ती है तो वे उसमें ही पूछें। जिस भाषा में आपके हृदय की गहराई है, उसी भाषा में पूछें। दस मिनट पूरी शक्ति लगा कर पूछना है। इन तीस मिनट में अपने को बिल्कुल थका डालना है। जरा भी बचाना नहीं है, रोकना नहीं है।
और आखिरी दस मिनट में मौन प्रतीक्षा करनी है। वह साइलेंट अवेटिंग के वक्त, वही दस मिनट असली हैं। ये तीस मिनट तैयारी है, वे दस मिनट असली हैं। उन दस मिनट में गहरी शांति, आनंद, गहरे प्रकाश, और-और बहुत तरह के अनुभव होने शुरू होंगे।
इस प्रयोग को चाहें तो दस-दस, पांच-पांच मित्रों के ग्रुप बना लें और कहीं एक जगह इकट्ठे होकर करें, तो एक-एक व्यक्ति को जो अड़चन होती है वह नहीं होगी। जो भी दस-पांच मित्र किसी एक घर में इकट्ठे हो जाएं, वहां प्रयोग करें। इक्कीस दिन साथ कर लें। फिर बैठ कर अकेले में घर करने लगें।
यह चिल्लाना, रोना धीरे-धीरे कम हो जाएगा और शांति बढ़ती जाएगी। और एक तीन महीने में आपके भीतर सतत धारा बहने लगेगी शांति की, आनंद की। और चारों ओर परमात्मा प्रत्यक्ष होने लगेगा। ऐसा नहीं कि कहीं खड़ा हुआ मिल जाएगा। नहीं, जो भी दिखाई पड़ेगा वह परमात्मा का रूप ही मालूम होने लगेगा।
अब हम प्रयोग के लिए खड़े हो जाएं। जिन मित्रों को बैठ कर करना हो, वे मेरे पीछे आ जाएंगे।

समाप्त 

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