चेतना का सूर्य-(प्रवचन-02)
चेतना का सूर्य
प्रवचन-दूसरा जगत एक परिवार
लाओत्से ने एक दिन अपने मित्रों से कहा कि मुझे जिन्दगी में कोई हरा न सका। स्वभावतः उसके मित्र चुप हो गये। उन्होंने पूछा हमें भी बताओ वह राज, वह सीक्रेट कि तुम्हें कोई हरा क्यों नहीं सका? हम भी किसी से हारना नहीं चाहते। पर लाओत्से खिलखिलाकर हंसने लगा और उसने कहा गलत लोगों को मैं सूत्र न बताऊंगा। उन्होंने कहा कैसे गलत हुआ? हमें जरूर बताओ वह मार्ग, जिससे हम भी न हार सके। लाओत्से ने कहा तुम तो हारोगे ही, क्योंकि जो हारना नहीं चाहता, उसने हार को निमन्त्रण दे दिया हमारा सूत्र यही है कि हमे कभी कोई हरा न सका, क्योंकि हमने कभी जीतना ही न चाहा, क्योंकि जो जीतना चाहेगा, वह हारेगा।
......इसी अध्याय से
योग का इस्लाम, हिन्दू, जैन या किसी धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। लेकिन जीसस या मुहम्मद या जरथुस्र या बुद्ध या महावीर कोई भी व्यक्ति जो सत्य को उपलब्ध हुआ है, बिना योग से गुजरे हुए उपलब्ध नहीं होता है। योग के अतिरिक्त जीवन को स्वर्ग-स्थिति तक पहुँचने का कोई उपाय नहीं है। जिन्हें भी हम धर्म कहते हैं वे विश्वासों के साथी हैं। योग विश्वासों के साथी हैं। योग विश्वासों की नहीं, जीवन-सत्य की दिशा में किये गये वैज्ञानिक प्रयोगों की सूत्रवत् प्रणाली हैं
इसलिए पहली बात जो आपसे कहना चाहूंगा वह यह कि योग विज्ञान है, विश्वास नहीं। योग की अनुभूति के लिए किसी तरह की श्रद्धा आवश्यक नहीं है। योग के प्रयोग के लिए किसी तरह के अन्धेपन की कोई जरूरत नहीं है। नास्तिक भी प्रयोग में उसी तरह प्रवेश पा सकता है। जैसे कि आस्तिक पाता है। योग आस्तिक-नास्तिक चिन्ता नहीं करता है।
विज्ञान आपकी धारणाओं पर निर्भर नहीं होता। विपरीत विज्ञान के कारण आपको अपनी धारणाएं परर्वेड करनी पड़ती हैं। कोई विज्ञान आपसे किसी प्रकार की दलील, किसी तरह की मान्यता की अपेक्षा नहीं करता है।
विज्ञान सिर्फ प्रयोग की, एक्सपेरीमेण्ट की अपेक्षा करता है। विज्ञान कहता है-करो, देखो। विज्ञान के सत्य चूंकि वास्तविक सत्य हैं, विज्ञान कहता है - करो, देखो। दो और दो चार होते हैं, माने नहीं जाते। और कोई न मानता हो तो खुद ही मुसीबत में पड़ेगा उससे दो और दो चार का सत्य मुसीबत में नहीं पड़ता हैं।
विज्ञान मान्यता से शुरू नहीं होता, विज्ञान खोज से, अन्वेषण से शुरू होता है। वैसे ही योग भी मान्यता से शुरू नहीं होता-खोज, जिज्ञासा, अन्वेषण से शुरू होता है। इसलिए योग के लिए सिर्फ प्रयोग करने की शक्ति की आवश्यकता है। प्रयोग करने की सामर्थ्य की आवश्यकता है। खोज के साहस की जरूरत है और कोई भी जरूरत नहीं है। योग विज्ञान है, जब ऐसा कहता हूँ तो मैं कुछ सूत्रों पर आपसे बात करना चाहूंगा, जो योग विज्ञान के मूल आधार हैं। इन सूत्रों का किसी धर्म से काई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि इन सूत्रों के बिना कोई धर्म जीवित रूप से खड़ा नहीं हो सकता। इन सूत्रों को किसी धर्म के सहारे की जरूरत नहीं है, लेकिन इन सूत्रों के सहारे के बिना धर्म एक क्षण भी अस्तित्व में नहीं रह सकता है। योग का पहला सूत्र है कि जीवन ऊर्जा हैं, लाइफ इन एनर्जी-जीवन शक्ति है। बहुत समय तक विज्ञान इस सम्बन्ध में राजी नहीं था, अब राजी है। बहुत समय तक विज्ञान सोचता था कि जगत् पदार्थ है, मैटर है। लेकिन जिन्होंने विज्ञान की खोजों से हजारों वर्ष पूर्व यह घोषणा प्रसारित की कि पदार्थ एक असत्य है,एक झूठ है , एक इलूजन है, एक भ्रम है-भ्रम का मतलब यह नहीं कि नहीं है, भ्रम का मतलब-जैसा दिखाई पड़ता है वैसा नहीं है ओैर जैसा है वैसा दिखाई नहीं पड़ता हैं
लेकिन विगत् तीस वर्र्षों से विज्ञान को एक-एक कदम योग के अनुरूप जाना पड़ा है। अट्ठारहवीं सदीं में वैज्ञानिक की घोषण थी कि परमात्मा मर गया है, आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, पदार्थ ही सब कुछ है। लेकिन विगत् तीस वर्र्षों में ठीक उल्टी स्थिति हो गयी है। विज्ञान को कहना पड़ा कि पदाथ है ही नहीं सिर्फ दिखायी पड़ता है ऊर्जा ही सत्य है शक्ति का सत्य है लेकिन शक्ति की तीव्र गति के कारण पदार्थ का अभ्यास होता है। दीवारें दिखाई पड़ रही हैं, अगर निकलना चाहें तो सिर टूट जायेगा- कैसे कहें कि दीवारे भ्रम हैं? स्पष्ट दिखाई पड़ रही हैं कि उनका होना है।
पैरों के नीचे जमीन है, अगर न हो तो आप खड़े कहाँ रहेंगे? नहीं, इन अर्र्थों में नहीं, विज्ञान कहता है कि पदार्थ नहीं है, इन अर्र्थों में कहता है कि जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वैसा नहीं है। अगर हम एक बिजली के पंखें को बहुत तीव्र गति से चलाये तो उसकी तीन पंखुड़ियां तीन दिखाई पड़नी बन्द हो जायेगी, क्योंकि पंखुड़ियां इतनी तेजी से घूमेंगी कि उनकी बीच की खाली जगह, इसके पहले कि आप देख पायें, भर जायेंगी। इसके पहले कि खाली जगह आंख की पकड़ में आये, कोई पंखुड़ी खाली जगह पर आ जायेगी। अगर बहुत तेज बिजली के पंखें को घुमाया जाये तो आपको तीन का एक गोल वृत्त घूमता हुआ दिखाई पड़ेगा, पंखुड़ियां दिखाई नहीं पड़ेगी आप गिनती करके नहीं बता सकेंगे कि कितनी पंखुड़ियां है। अगर और तेजी से घुमाया जा सके ता ेआप पत्थर फैककर पार नहीं निकाल सकेंगे, पत्थर इसी पार गिर जायेगा। अगर उतनी तेजी से घुमाया जा सके, जितनी तेजी से परमाणु घूम रहे हैं अगर उतनी तेजी से बिजली के पंखे को घुमाया जा सके तो आप मजें से उसी पर बैठ सकते हैं। आप गिरेंगे हीं ओर आपको पता भी नहीं चलेगा ि पंखुड़ियां नीचे घूम रही हैं, क्योंकि पता चलने में जितना वक्त लगता है।, उसके पहले नयी पंखुड़ी नीचे आ जायेगी। आपके पैर खबर दें आपके सिर को कि पंखुड़ी बदल गयी, इसके पहले दूसरे पंखुड़ी आ जायेगी। बीच के गैप, बीच के अन्तराल का पता न चले तो आप मजे से खड़े रह सकेंगे।
ऐसे ही हम खड़े हैं अभी भी। अणु जिस तीव्रता से घूम रहे हैं उनके घूमने की गति तीव्र है, इसलिए चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं।
जगत् में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। और जो चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं, वे सब चल रही हैं। अगर वे चीजें भी चलती हुई हाती तो भी कठिनाई नहीं थी। जितना ही विज्ञान परमाणु को तोड़कर नीचे गया और उसे पता चला कि परमाणु के बाद पदार्थ नहीं रह जाता, सिर्फ 'ऊर्जा-कण', 'इलेक्ट्राँन्स' रह जाते हैं, 'विद्युत्-कण' रह जाते हैं। उनको कण कहना भी ठीक नहीं हे, क्योंकि कण से पदार्थ का ख्याल आता हैं, इसलिए अंगे्रजी में एक नया शब्द हमें जोड़ना पड़ा उस शब्द का नाम 'क्वाण्टा' है।
'क्वाण्टा' का मतलब है-कण भी, कण नहीं भी, कण नहीं भी , कण भी और लहर भी, एक साथ। विद्युत् की तो लहरें हो सकती हैं, कण नहीं हो सकता है। शक्ति की लहरें हो सकती हैं। कण नहीं हो सकते। लेकिन हमारी भाषा पुरानी है, इसलिए हम 'कण' कहे चले जाते हैं। 'कण' जैसी कोई भी चीज नहीं है। और विज्ञान की नजरों में यह सारा जगत् ऊर्जा का, विद्युत् की ऊर्जा का विस्तार हैं
योग का पहला सूत्र यही है जीवन ऊर्जा है, शक्ति है। दूसरा सूत्र है योग का शक्ति के दो आयाम हैं। एक अस्तित्व और एक अनस्तित्व। एग्जिस्टेन्स और नॉन-एग्जिस्टेन्स।
शक्ति अस्तित्व में भी हो सकती है और अनस्तित्व में भी हो सकती है। अनस्तित्व में जब शक्ति होती हैं तब जगत् का शून्य होता हैं और जब अनस्तित्व में होती है। तब सृष्टि का विस्तार होता हैं जो भी चीज है, योग मानता है, वह 'नहीं है'। जो भी है, वह न-होने में समाप्त होती है। जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु है। जिसका होना है, उसका न-होना भी है। जो दिखाई पड़ती है, वह न-दिखाई भी पड़ सकती है। योग मानता है, इस जगत् में प्रत्येक चीजें दोहरे आयाम की है, डबल डायमेन्शन्स की है। इस जगत् में कोई भी चीजे एक-एक आयामी नहीं है। हम ऐसा नहीं कह सकते हैं कि एक आदमी पैदा हुआ और फिर नहीं मरा। हम कितना ही लम्बा करें उसके जीवन को, फिर-फिर के हमें पूछना पड़ेगा। कभी तो मरा होगा, कभी तो मरेगा? ऐसा कन्सीव करना, ऐसी धारणा भी बनाना असम्भव है कि एक छोर हो जन्म का और दूसरा छोड़ मृत्यु का न हो। दूर हो, कितना ही दूर हो, अन्तहीन मालूम पड़े दूरी, लेकिन दूसरा छोर अनिवार्य है। एक छोर के साथ दूसरा छोर वैसा ही अनिवार्य है जैसे एक सिक्के के दो पहलू अनिवार्य हैं। अगर एक ही पहलू का कोई सिक्का हो सके तो असम्भव मालूम पड़ता है। नहीं हो सकता है। दूसरा पहलू होगा ही, क्योंकि एक पहलू को होने के लिए भी दूसरे पहलू को होना पड़ेगा।
योग-विज्ञान का दूसरा सूत्र है-प्रत्येक चीज दोहरे आयाम की है। होने का एक आयाम है-एग्जिस्टेन्स का। नॉन-एग्जिस्टेन्स का-दूसरा आयाम है,न-होने का। जगत् है, जगत् नहीं भी हो सकताा हैं हम हैं, हम नहीं भी हो सकते हैं। जो भी है, वह नहीं भी हो सकता है।
नहीं होने का आप यह मतलब मत लगा लेना कि कोई दूसरे रूप में हो जायेगा। बिल्कुल नहीं भी हो सकता है। अस्तित्व एक पहलू है, अनिस्तत्व दूसरा पहलू है। सोचना कठिन मालूम पड़ता है कि नहीं होने से होना कैसे निकलेगा! होना नहीं-होने में कैसे प्रवेश कर पायेगा? लेकिन अगर हम जीवन के चारों ओर देखें तो हमें पता चलेगा कि प्रति पल जो नहीं है,वह होगा, जो है, वह नहीं-होने में होगा।
यह सूर्य है हमारा, यह रोज ठण्डा होता जा रहा है। उसकी किरणें शून्य में खोती जा रही हैं। वैज्ञानिक कहते हैं, चार हजार वर्ष तक और गरम रह सकेगा। चार हजार वर्र्षों में इसकी सारी किरणें अनन्त में खो जायेंगी, तब वह भी शून्य हा जायेगा। अगर शून्य में किरणें खो सकती हैं तो फिर शून्य से किरणें आती भी होंगी, अन्यथा शून्य का जन्म कैसे होगा? विज्ञान कहता है कि हमारा सूर्य मर रहा है, लेकिन दूसरे सूर्य दूसरे छोरों पर पैदा हो रहे हैं। वे कहाँ से पैदा हो रहे हैं? वे शून्य से पैदा हो रहे हैं।
वेद कहते हैं कि जब कुछ नही था, उपनिषद् भी बात करते हैं कि जब कोई चीज अस्तित्व में नहीं थी, बाइबिल भी बात करती है उस समय की जब कुछ नहीं था, न-कुछ से, नथिंगनेस से, उस न-कुछ से होना पैदा होता है और होना प्रतिपल न-कुछ में लीन होता चला जाता है। अगर हम पूरे अस्तित्व को एक समझें तो इस अस्तित्व के नीचे भी हमें अनस्तित्व को स्वीकार करना पड़ेगा।
योग का दूसरा सूत्र है प्रत्येक अस्तित्व के पीछे अनस्तित्व जुड़ा हैं
शक्ति के दो आयाम हैं, अस्तित्व और अनस्तित्व। शक्ति हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है, अस्तित्व और अनस्तित्व। शक्ति है यह एक पहलू है प्रलय दूसरा पहलू है। ऐसा नहीं है। कि सब कुछ सदा रहेगा! खोयेगा, छिन्न-भिन्न हो जायेगा। फिर-फिर हाता रहेगा। जैसे एक बीज को तोड़कर देखें तो कहीं किसी वृक्ष का कोई पता नहीं है। कितना ही खोजें, वृक्ष की कहीं कोई खबर नहीं मिलती, लेकन सिर्फ इस छोटे से बीज से वृक्ष आता जरूर है। कभी भी नहीं सोचा कि बीज में जो कभी नहीं मिलता, वह कहाँ से आता है। और इतने छोटे-से बीज में इतने बड़े वृक्ष का छिपा होना! फिर वह वृक्ष बीजों को जन्म देकर खो जाता है। ठीक ऐसे ही पूरा अस्तित्व बना है, खोता है।
शक्ति अस्तित्व में आती है और अनस्तित्व में मिल जाती है। अनस्तित्व को पकड़ना बहुत कठिन है। अस्तित्व तो हमें दिखाई पड़ता है। इसलिये योग की दृष्टि से जो सिर्फ अस्तित्व को मानता है, जो समझता है कि अस्तित्वही सब-कुछ है, वह अभिनय को देख रहा है। और अभिनय को जानना ही अज्ञान है। अज्ञान का अर्थ न-जानना नहीं है, अज्ञान का अर्थ अभिनय को जानना है। जानते तो हम हैं हीं अगर हम इतना भी जानते है कि मैं नहीं जानता तो भी मैं जानता तो हूँ ही। जानना तो इसमें है ही। इसलिए अज्ञान का अर्थ न-जानना नहीं है। अज्ञानी से अज्ञानी भी कुछ जानता ही है। अज्ञान का अर्थ योग की दृष्टि में आधे को जानना हैं
और ध्यान रहे, आधा सत्य असत्य से बदतर होता है, क्योंकि असत्य से छुटकारा सम्भव है, आधे सत्य से छुटकारा बहुत मुश्किल होता है। वह सत्य भी मालूम पड़ता है और सत्य होता ही नहीं। प्रतीत भी होता है कि सत्य है और सत्य होता ही नहीं अगर असत्य है पूरा-का-पूरा निखालिस असत्य हो तो उससे छूटने में देर नहीं लगेगी। लेकिन अधूरा, आधा सत्य हो तो उससे छूटना बहुत मुश्किल होता है।
और भी एक कारण है कि सत्य-जैसी चीज आधी नहीं की जा सकती। आधी करने से मर जाती है। क्या आप अपने प्रेम को आधा कर सकते हैं? क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि सिकी को कि मैं तुम्हें आधा प्रेम करता हूँ? यहा प्रेम करेंगे नहीं करेंगे। आधा प्रेम सम्भव नहीं है। क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि मैं आधी चोरी करता हूँ? हो सकता है, आधे रुपये की चोरी भी पूरी चोरी है। आधा पैसे की चोरी भी पूरी चोरी है। चोरी आधी नहीं की जा सकती। आधी चीजें की जा सकती हैं, लेकिन चोरी आधी नहीं हो सकती हैं
आधे का अर्थ यह है कि आप किसी भ्रम में हैं। तो योग कहता है कि जो लोग सिर्फ अस्तित्व को देखते हैं, वे आधे को पकड़े हैं। और आधे को जो पकड़ता है, वह भ्रम में जीता है, वह अज्ञान में जीता है। उसका दूसरा पहलू भी है जो आदमी कहता है, मैंने जन्म तो लिया हूँ, लेकिन मरना नहीं चाहता, वह आदमी आधे को पकड़ रहा है। दुख पायेगा, अज्ञान में जियेगा। और कुछ भी करे, मौत आयेगी ही, क्योंकि आधे को काटा नहीं जा सकता है।
जन्म को स्वीकार किया है तो मौत उसका आधा हिस्सा है, वह साथ ही जुड़ा है। जो आदमी कहता है, मैं सुख को ही चुन लूंगा, दुख को नहीं, वह भूल में पड़ रहा है योग कहता है, तुम आधे को चुनते ही गलती में पड़ोगे दुख-सुख का ही दूसरा हिस्सा है। वह आधा हिस्सा है। इसलिए जो आदमी सुखी होना चाहता है, उस आदमी को दुखी होना ही पड़ेगा। तो आदमी शान्त होना चाहता है, उसे अशान्त होना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है।
योग कहता है, आधे को छोड़ देना ही अज्ञान है। वह उसका ही हिस्सा है। लेकिन हम देखते नहीं पूरे को! जो पहले हमें दिखाई पड़ता है उसे हम पकड़ लेते हैं और दूसरे पहलू का इनकार किये चले जाते है, बिना यह समझे कि जब हमने आधे को पकड़ लिया है तो आधा पीछे प्रतीक्षा कर रहा है। वह अवसर की खोज कर रहा है, वह जल्दी ही प्रगट हो जाएगा। योग कहता है कि ऊर्जा को दो रूप हैं और जो दोनों ही रूपों को समझ लेता है, वह योग में गति करता है। जो एक चीज को, आधे को पकड़ लेता है, वह अयोगी हो जाता है।
जिसको हम भोगी कहते हैं, वह आधे को पकड़े हुए का नाम है। जिसे हम योगी कहते हैं, वह पूरे को पकड़े हुए का नाम है। योग का मतलब यह होता है -द टोटल जोड़ा। गणित की भाषा मे भी योग का मतलब जोड़ होता है, अध्यात्म की भाषा में भी योग का मतलब होता है इण्टिेग्रेटेड दि टोटल पूर समग्र भोगी हम उसे नहीं कहते, जो योग का दुश्मन है। भोगी हम उसे कहते हें, जो आधे को पकड़ता है, आधे को पूरा मान के जीता है। योगी पूरे को जान लता है, इसलिए वह पकड़ता ही नहीं हे।
यह भी बड़े मजे की बात है, पकड़ने वाले सदा आधे को ही पकड़ने वाले होते हैं, पूरे को जान लेने वाला पकड़ता ही नहीं है। जिसको यह दिखाई पड़ गया है कि जन्म के साथ मृत्यु है, अब वह किसलिए जन्म को पकड़े, ओैर वह मृत्यु को भी क्यों पकड़े, क्योंकि वह जानता हैं कि मृत्यु के साथ जन्म है। जो जानता है कि सुख के साथ दुख है, वह सुख को क्यों पकड़ेगा वह दुख को भी क्यों पकड़े, क्योंकि वह जानता है। कि दुख के साथ सुख है। असल में जो जानता है, सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, वे दो चीजें नहीं, एक ही चीज के दो आयाम हैं, दो डायमेन्शन हैं। इसलिए योगी, पकड़ने के बाहर हो जाता है, क्लिंगिंग के बाहर हो जाता है।
दूसरा सूत्र ठीक-से समझ लेना जरूरी है। कि ऊर्जा, शक्ति के दो रूप हैं हम सब एक रूप को पकड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं। कोई जवानी को पकड़ता है। तो फिर बुढ़ापे का दुख पाता है। वह जानता नहीं कि जवानी का दूसरा हिस्सा बुढ़ापा है। असल में जवानी का मतलब है, वह स्थिति जो बूढ़ी हुई जा रही है। जवानी का मतलब हैं, बुढ़ापे की यात्रा। बूढ़ा आदमी उतने जोर से बूढ़ा नहीं होता, ध्यान रखना, जितने जोर से जवान बूढ़ा हो जाता है। जवानी का मतलब हे, बूढ़े होने की ऊर्जा। बूढ़े का मतलब, बीत गयी जवानी की ऊर्जा, चुक गयी जवानी की ऊर्जा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक घर के बाहर का दरवाजा है, एक घर के पीछे का दरवाजा है।
जन्म और मृत्यु , सुख और दुख जीवन के सभी द्वन्द्व अस्तित्व, अनस्तित्व, आस्तिक-नास्तिक वे भी आधे आधे को पकड़ते हैं। इसलिए योग की दृष्टि में दोनों ही अज्ञानी हैं। आस्तिक कहता है कि बस, भगवान हैं आस्तिक सोच भी नहीं सकता है कि भगवान का न-होना भी हो सकता है। लेकिन बड़ा कमजोर आस्तिक है, क्योंकि वह भगवान को नियम से बाहर कर रहा है। निमय तो सभी चीजों पर एक-सा लागू है। भगवान अगर है तो उसका न-होना भी होगा। नास्तिक उसके दूसरे हिस्से को पकड़े हुए हैं वह कहता है।, भगवान नहीं है। लेकिन जो चीज नहीं है, वह हो सकती है। और इतने जोर से कहना कि नहीं है, इस डर की सूचना देता हैं कि उसके होने का भय है। अन्यथा 'नहीं' है कहने की काई जरूरत नहीं है। जब एक आस्तिक कहता है, 'नहीं भगवान है ही' और लड़ने का ेतैयार हो जाता है, तब वह भी खबर देता है। कि भगवान को भी न-हो जाने का डर उसे हैं अन्यथा क्या बिगड़ता है! कोई कहता हे नहीं तो कहे। आस्तिक लड़ने को तैयार है,क्योंकि वह भगवान का एक हिस्सा पकड़ रहा है। वह वही-की-वही बात है कि चाहे अपना जन्म पकड़ो और चाहे भगवान का होना पकड़ो, लेकिन दूसरे हिस्से को इनकार किया जा रहा है। योग कहता है दोनों हैं, होना और न-होना दोनों साथ ही-साथ हैं।
इसलिए योगी नास्तिक को भी कहता है कि तुम भी आ जाओ, क्योंकि आधा सत्य है तुम्हारे पास, आस्तिक को भी कहता है कि तम भी आ जाओ, क्योकि आधा सत्य ही है तुम्हारे पास। और आधा सत्य असत्य से भी खतरनाक है।
दूसरा सूत्र है। द्वन्द्व के बीच शक्ति का विस्तार।
अंधेरे और प्रकाश के बीच एक ही चीज का विस्तार है, दो चीजें नहीं है। लेकिन हमें लगता है कि दो चीजें हैं। वैज्ञानिक से पूछें तो वह कहेगा, दो नहीं हैं। जिसे हम अंधेरा कहते हैं, वह सिर्फ कम प्रकाश का नाम है। और जिसे हम प्रकाश कहते हैं, वह कम अंधेरे का नाम है। विपरीत का फर्क है। इसलिए रात में-पक्षी हैं, जिनको दिखाई पड़ता है। अंधेरा है आपको, उनके लिए अंधेरा नहीं है। क्यों? उनकी आंखें इतने धीमे प्रकाश को भी पकड़ने में समर्थ हैं। ऐसा नहीं है, धीमा प्रकाश ही पकड़ में नहीं आता, बहुत तेज प्रकाश भी आंख की पकड़ में नहीं आता। अगर बहुत तेज प्रकाश आपकी आंख में डाला जाये तो आंख तत्काल अंधी हो जाएगी, देख नहीं पायेगी। देखने की भी एक सीमा है। उसके नीचे भी अन्धकार है, उसके ऊपर भी अन्धकार है, क्योंकि छोटी-सी सीमा है, जहाँ हमें प्रकाश दिखाई पड़ रहा है। लेकिन जिसे हम अन्धकार कहते हैं, वह भी प्रकाश तारतम्यताएं हैं। उनमें जो अन्तर है।, क्वालिटेटिव नहीं है, क्वालिटेटिव है। गुण का कोई अन्तर नहीं है, सिर्फ परिणाम का अन्तर है।
गरमी और सर्दी का कभी ख्याल किया है? हम समझते हैं, दो चीजें हैं। नहीं, दो चीजे नहीं हैं। गरमी सर्दी से समझना बहुत आसान पड़ेगा। लेकिन हम कहेंगे, दो चीजें हैं, गरमी हमें गरमी देती है, तब कैसे मान लें कि यह वही है? जब शीतल छाया में हम बैठतें हैं, तब शीतल छाया को कैसे सूरज की गरमी मान लें? नहीं, मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप एक मानकर शीतल छाया में बैठना छोड़ दें। मैं इतना ही कह रहा हूँ कि जिसे आप शीतल छाया कह रहे हैं, वह गरमी की ही कम मात्रा है। और जिसे आप सख्त धूप कह रहे हैं,वह शीतलता की ही थोड़ी कम मात्रा है।
कभी ऐसा करें, एक हाथ को स्टोव के पास रखकर गरम कर लें और एक को बर्फ पर रखकर ठण्डा कर लें और फिर दोनों हाथों को पानी भरी बाल्टी में डाल दें। तब आप बड़ी मुश्किल में पड़ जायेंगे कि बाल्टी का पानी गरम हैं यहा ठण्डा् एक हाथ कहेगा, ठण्डा है, एक हाथ कहेगा, गरम हैं और एक ही बाल्टी का पानी दोनों नहीं हो सकता है। और आपके दोनों हाथों में से खबरें आ रही हैं!
जो हाथ ठण्डा है,उसे पानी गरम मालूम होगा, जो हाथ गरम है, उसे पानी ठण्डा मालूम होगा। ठण्डक और गरमी रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं। योग का दूसरा सूत्र है जीवन और मृत्यु, अस्तित्व-अनस्तित्व, अंधकार-प्रकाश, बचपन-बुढ़ापा, सुख-दुख सर्दी-गरमी, सब रिलेटिव हैं, सब सापेक्षताएं हैं। ये सब एक ही चीज के नाम हैं।
यह दूसरा सूत्र ठीक-से समझ लें तो आगे बहुत-सी बातें आसान हो जायेंगी। प्रत्येक चीज का दूसरा पहलू सदा मौजूद है। इसलिए जब भी आप एक चीज पकड़ते हैं, ध्यान में ले लेना, उससे उल्टा भी आपने पकड़ लिया है। जब आपने किसी को प्रेम से कहा है। कि अब मैं तुमसे मिल गया, अब मैं कभी बिछुड़ना न चाहूंगा, तब आप ठीक-से समझ लेना कि आपके मिलन में विरह मौजूद है, वह घटित होकर रहेगा। असल में मिलते वक्त भी प्रेमी यही कहता है कि मुझे बहुत डर लग रहा है। कि कहीं हम बिछुड़ न जायें। वह दूसरा पहलू उसको भी पता चल रहा है। नहीं तो मिलते क्यों नहीं, विरह की क्या बात है? जब मिले हैं तो मिले हैं। लेकिन मिलते क्षण में विरह पीछे छाया की तरह खड़ा है। जब किसी को मित्र बनायें तब समझ लेना एक आदमी और पोटेंशियल एनिमी, एक आदमी और शत्रु पैदा कर लिया है। यह तो पक्का है कि बिना मित्र बनाये शत्रु नहीं बनाया जा सकता है। सीधा शत्रु बनाने का अब तक कोई उपाय नहीं खोजा गया। शत्रु नहीं बनाया जा सकता। सीधा शत्रु बनाने का अब तक कोई उपाय नहीं खोजा गया। शत्रु को भी मित्र होने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। अगर शत्रु भी बनता हो तो मित्र होने के रास्ते से ही जाना पड़ता है। तो जब मित्र बनाये तब योग कहता है, जानना कि शत्रु छाया की तरह पीछे खड़ा है।
जीवन के प्रत्येक राग में विपरीत को सदा स्मरण रखना तो क्ंिलिगंग पकड़ छूट जाएगी शत्रु आपके द्वार पर दस्तक देगा तो आप उसके पीछे झांककर देख लेंगे कि मित्र को जरूर साथ लाया हुआ है। लाता ही है। यह उसकी छाया है। वह उसके बिना कभी आता नहीं है। तो योग में प्रविष्ट व्यक्ति के लिए सुख आता है। तो आ जाने देता हे। बहुत स्वागत नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि पीछे तुम किसके लिये हो। और जब दुख आता है, तब उसे भी स्वागत से बिठा देता हैं, क्योंकि वह जानता है कि तुम किसको पीछे लिये हुए हो।
सुख और दुख में वह सम हो जाता है। समता का सिर्फ एक ही आधार है कि प्रत्येक चीज अपने विरोधी से अनिवार्य रूप से जुड़ी है। विरोध के बिना अस्तित्व नहीं है। जिसे हमने प्रेम किया है, उसमें हमने घृणा के बीज बो दिये हैं। जिससे हम मिले हैं, उससे हमने विदा का मार्ग तय किया है। जिसे हमने अपना बनाया है, उसे हमने पराया बनाने के सुख और सुविधा दी है। जा यशस्वी हुआ, उसने अपने अपमान के लिए बीज बोये। जो जीता, उसने हार को निमन्त्रण दिया हैं
लाओत्से ने एक दिन अपने मित्रों से कहा कि मुझे जिन्दगी में कोई हरा नहीं सका। स्वभावतः उसके मित्र चुप हो हो गये। उन्होेंने पूछा- हमें भी बताओ वह राज वह सीक्रेट कि तुम्हें कोई हरा क्यों नहीं सका? हम भी किसी से हारना नहीं चाहते । पर लाओत्से खिलखिलाकर हंसने लगा और उसने कहा-गलत लोगों को मैं सूत्र नहीं बताऊंगा। उन्होंने कहा-कैसे गलत हुआ? हमें जरूर बताओ मार्ग, जिससे हम भी नहीं हार सकें। लाओत्से ने कहा तुम तो हारोगे ही, क्योंकि जो हारना नहीं चाहता है हार को निमन्त्रण दे दिया। हमारा सूत्र यही है कभी कोई हरा न सका, क्योंकि हमने कभी नहीं चाहा, क्योंकि जो जीतना चाहेगा, वह हार नहीं सकता है।
लाओत्से एक जंगल से गुजर रहा था, अपने शिष्यों को लेकर; सारा जंगल कट रहा था हजारों कारी गर वृक्षों को काट रहे थे। सिर्फ एक वृक्ष सुरक्षित है उसे कोई छूता भी नहीं लाओत्से ने कहा जाओ इस वृक्ष से पूछो उसके बचने का क्या राज है। क्या उसे योग के सूत्र का पता चल गये क्या यह ताओ को जान गया है? जब सारा जंगल कटा तो यह वृक्ष क्यों नहीं कटा? लाओत्से ने कहा तो उसके शिष्य मुश्किल में तो पड़े कि वृक्ष से क्या पूछे उन्होंने सोचा कि चल कर इन कारीगरों से पूछें इस वृक्ष को क्यों नहीं काट रहे हो। उन कारीगरों ने कहा कि इस वृक्ष की लकड़िया इतनी इरछी-तिरछी हैं कि वे फर्नीचर के काम न आ सकेंगी।
तो उन्होंने कहा-काटकर कम-से-कम र्ईंधन तो बना सकते हो? उन्होंने कहा यह वृक्ष बड़ा अजीब है, इससे इतना धुंआ निकलता है। कि इसका कोई र्ईंधन नहीं बना सकता। उन्होंने कहा यह वृक्ष बिल्कुल बेकार हैं इसको काटना बेकार मेहनत खराब करनी है। लकड़ियां सीधी नहीं, धुंआ छोड़ती हैं। पत्ते किसी दवा के काम नहीं आते। कोई जानवर पत्ते खाने को राजी नहीं हैं। यह वृक्ष बड़ा बेकार है। लाओत्से ने कहा धन्य है यह वृक्ष! इसकी शाखाओं ने सीधे होने की कोशिश ही नहीं की, इसलिए ये कटने से बच गयीं। जो वृक्ष सीधे होने की कोशिश में हैं, देखते हो, वे काटे जा रहे हैं, इस वृक्ष के पत्तों ने कुछ होने की कोशिश नहीं की। स्वादिष्ट होने की कोशिश नहीं की, इसलिए कोई तोड़ने नहीं आया। यह वृक्ष, कुछ होने की कोशिश् नहीं किया, इसलिए है और अपने पूरे आनन्द में मग्न है। लाओत्से ने कहा यही तरकीब मेरी है। मुझे कोई कभी हरा नहीं सका, क्योंकि मैं जीतने ही नहीं गया। मैं सदा से हारा ही हुआ हूँ, इसलिए मुझे हराना मुश्किल हैं
एक बार लाओत्से ने कहा एक आदमी ने यह सुनकर कि लाओत्से को कोई हरा न सक, एक गाँव में मुझे चुनौती कर दी थी। गाँव में लाओत्से रुका था। किसी से कहा होगा, मुझे कभी कोई हरा न सका। गाँव में खबर पहुँच गयी। किसी पहलवा ने पूछा कि चुनौती ! उस पहलवान ने आकर लाओत्से के दरवाजे पर झण्डा गाड़ दिया और कहा कि मैं तुम्हें हरा दूंगा। लाओत्से ने कहा कि नहीं हरा सकोगे। उसने कहा कि मैं अभी हरा देता हूँ। वहाँ भीड़ इकट्ठी हो गयी। वह पहलवान अपनी लंगोटी बांधकर, भगवान का नाम लेकर लड़ने आया। लेकिन लाओत्से उसके सामने चित्त लेट गया और उसने कहा कि आ मेरे ऊपर बैठ पहलवान ने कहा तुम आदमी कैसे हो? तुम्हें तो हराने का मजा भी चला गया। लाओत्से ने कहा-मैंने पहले ही कहा था कि मुझे अब तक कोई हरा न सका, क्योंकि हम पहले से ही हारे हुए हैं। हम जीतना नहीं चाहते। आओ, हमारी छाती पर बैठ जाओ और गांव के बीच डुग्गी पीट के कह दो कि हरा आये, चित्त कर दिया। उस पहलवान ने कहा-ऐसे आदमी के ऊपर बैठना बेकार है। वह पहलवान उसके पैर छूकर अपने घर चला गया। उसने कहा कि झगड़ा व्यर्थ है।
योग कहता है, द्वन्द्व में चुनाव व्यर्थ है।
योग कहता है, वह जो दिखाई पड़ते हैं जीवन में सदा, उनमें चुनना ही मत। वे दोनों एक-दूसरे के रूप हैं। सिर्फ धोखा हें चेहरा और है, पीछे कुछ और है। अस्तित्व-अनस्तित्व, जीवन-मृत्यु, सुख-दुख, अच्छा-बुरा, नीति-अनीति, धर्म-अधर्म, सब एक ही चीज के विस्तार हैं। साधु--चोर सब एक ही चीज के विस्तार हैं। इनको सुनना ही मत, इनको समझ लेना। इनको समझ लेने से अतिक्रमण, ट्रान्सेन्डेन्स होता है। योग का दूसरा सूत्र-शक्ति, ऊर्जा, अस्तित्व और अनस्तितव में द्वन्द्व रहते हैं। और जहाँ पहाड़ उठते हैं शक्ति के, वहाँ शक्ति की खाइयां भी बट जाती हैं। और जहाँ अस्तित्व निर्मित होता है, वहाँ अनस्तित्व भी मौजूद होता है। जहाँ सृष्टि होती है, वहाँ प्रलय भी होता है।
इसलिए इस देश ने सृजन को अकेला नहीं, साथ में प्रलय को भी एक-साथ सोचा हैं। सृष्टि के साथ प्रलय, होने के साथ न होना। सब चीजे जो होती हैं, न-होने की यात्रा करती हैं। और जो नहीं होती हैं, वह होने की यात्रा पर वापस लौट रही हैं।
सागर में आपने लहर देखी है ? जो लहर ऊपर उठी है, वह गिरने की यात्रा पर है। और जो खाई-सी नीचे बन गयी है, वह उठने की यात्रा पर है। सब चीजें प्रतिपल अपने से विपरीत में प्रवेश कर रही हैं। जिसे यह दिखाई पड़ जाता है, उसकी आकांक्षा, उसकी कामना, उसकी वासना तिरोहित हो जाती है। छोड़ता नहीं है वह वासना-तिरोहित हो जाती है, क्योंकि वासना चुनाव, च्वाइस का नाम है।
योग का तीसरा सूत्र -अस्तित्व के दो रूप हैं, मैंने कहा। ऊर्जा-एक सूत्र। दूसरा, ऊर्जा के दो रूप-अनस्तित्व, अस्तित्व। और तीसरा सूत्र-अस्तित्व के दो रूप हैं। एक, जैसे हम चेतन कहें और एक जिसे हम अचेतन कहें। लेकिन दो रूप ही हैं, दो चीजें नहीं हैं। जिन्हें हम धार्मिक लोग कहते हैं, वे भी दो चीजें सोच लेते हैं। वे भी सोच लेते हैं कि चेतना अलग, अचेतना अलग, शरीर अलग, आत्मा अलग! ऐसी अलगता हे, उसका नाम शरीर है औरशरीर का जो हिस्सा इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आता, उसका नाम आत्मा है।
चेतन और अचेतन अस्तित्व के दो रूप हैं। एक पत्थर पड़ा है, वह है, लेकिन अचेतन है। आप उसके पड़ोस में खड़ें हैं, आप भी हैं। होने में कोई फर्क नहीं है, दोनों का एग्जिस्टेंस हैं, दोनों का अस्तित्व है, लेकिन एक चेतन है और एक अचेतन है। लेकिन पत्थर चेतन बन सकता है आप पत्थर बन सकते हैं। कन्वर्टेबल हैं। इसलिए तो आप गेहूँ खा लेते हैं और खून बन जाता है।
इसलिए तो आपके शरीर में लोहा जाता है और जीवित हो जाता है। अगर हम आदमी के शरीर का सब सामान निकाल कर बाहर टेबल पर रखें तो कोई पाँच रुपये से ज्यादा का सामान नहीं निकल सकता। थोड़ा-सा लोहा है, अल्युमीनियम है, फास्फोरस है, तांबा है, ये सब चीजें निकलेंगी। बड़ा हिस्सा तो पानी का है। कोई पाँच रुपयें का सामान है आदमी के भीतर। लेकिन आदमी के भीतर ही क्या गयी हैं चेतन और चीजें ? हाथ को चोट लगती है तो पीड़ा उठती है। और सही हाथ का हिस्सा कल बाहर था और पीड़ा नही उठती थी। कल फिर बाहर हो जायेगा।
जिस जगह आप बैठे हैं, उस जगह कम-से-कम दस आदमियों की कब्र बन चुकी है, एक-एक आदमी की जगह। पूरी पृथ्वी पर जितने लोग अब तक हुए हैं, उन सबका अनुपात इतना है कि जहाँ भी हम खड़े हैं उस जमीन की मिट्टी में, उस छोटे -से एक वर्ग फीट के हिस्से में कम-से-कम दस आदमियों का शरीर मिट्टी हो चुका है। वे दसों आदमी कभी जीवित थे, आज आपके पैर में धूल की तरह पड़े हैं। आज आप जीवित हैं, कितनी देर तक हैं? कल आप भी धूल की तरह पड़े होंगे।
चेतन और अचेतन, अस्तित्व के दो रूप हैं। दो अस्तित्व नहीं हैं, अस्तित्व के ही दो रूप हैं। इसलिए गन्वर्टेबल हैं, रूपान्तरित हो सकते हैं। इसलिए चेतन से अचेतन आ सकता है, अचेतन चेतन में जा सकता है। रोज हो रहा है। रोज हम यही कर रहे हैं। रोज हम जड़ अचेतन को भोजन बना रहे हैं और हमारे भीतर वह चेतन बनता जाता है और रोज हमारे भीतर से मल निष्कासित हो रहा है बहुत रूपों में और जड़ होता जा रहा हैं। आदमी इधर से चेतन होता है, उधर से अचेतन होता है। और जेसे अचेतन को लेता है, भीतर चेतन होता जाता है।
चेतन और अचेतन भी दो चीजें नहीं हैं। इसमें भी बड़ी भूल होती रही है। नास्तिक कहते हैं सिर्फ अचेतन ही है, लेकिन इनको बड़ी मुश्किल पड़ती है समझाने में। इनको मुश्किल पड़ती है कि अगर सिर्फ अचेतन ही है तो चेतन कहाँ से आता है। तो फिर मार्क्स जैसे नास्तिक को कहना पड़ता है कि यह बाइ-प्रोडेक्ट है। चेतन कोई असली चीजे नहीं है। यह तो पदार्थ के मिलने-जुलने से पैदा हो गयी घटना है। यह कोई वस्तु नहीं है, ईवेन्ट है। चार्वाक को कहना पड़ता है कि आदमी की चेतना वैसे ही है, जैसे पानवाला पान बनाता है, कत्था और चूना लगाता है फिर जब आप पान खाते हें तो लाल रंग पैदा हो जाता है। वह लाल रंग न तो अकेले चूने में है, न अकेले कत्थे में है, न अकेले पान में है। उन सबके मिलने से पैदा हो जाता हैं वह संघट परिणाम है, वह बाइ-प्रोडक्ट है, वह इसी का फेनामिना है। जैसे शराब बनती हे, जिन-जिन चीजों से बनती है उनको अलग-अलग ले लें तो नशा नहीं आता और इकट्ठा करके ले लें तो नशा आ जाता है।
तो नास्तिक चाहे चार्वाक हो, चाहे मार्क्स हो, उनकी भाषा में बड़ा फर्क पड़ता है। बल्कि उनकी कठिनाई यही है कि चेतना दिखाई तो पड़ती है, उसे समझायें कैसे ? तो एक ही रास्ता है उनके पास कि वे कहें कि अचेतन चीजों से मिलकर चेतना पैदा हो चेतना पैदा हो जाती है। लेकिन यह बड़ी अवैज्ञानिक बात है। और मार्क्स जैसे वैज्ञानिक होने का दावा करने वाले आदमी के मुँह से शोभा नहीं देती, कयोंकि जिससे जो चीज पैदा होती है, वह उसमें कहीं-न-कहीं छिपी होनी चाहिए, अन्यथा पैदा नहीं हो सकती। अगर पान में लाल रंग आ जाता है तो माना, एक-एक चीज में अलग वह नहीं था, लेकिन वह लाल रंग इन सबमें छिपा था जो उनसे प्रगट हुआ, अलग-अलग जो दिखाई नहीं पड़ता था। ऑक्सीजन और हाईड्रोजन को अगर हम अलग-अलग पी लें तो प्यास नही बुझेगी। न होइड्रोजन में पानी है, न ऑक्सीजन में पानी है, लेकिन दोनों को मिलाकर पानी बन जायेगा और फिर प्यास बुझ जायेगी। वह पानी कहाँ से आया ? यह पानी ऑक्सीजन और हाइड्रोजन में था, लेकिन दोनों मिलें तो ही प्रगट हो सकता था।
आप अकेले कमरे में बैठे हुए हैं। मैं आपके कमरे में आ गया और हम दोनों ने बातचीत शुरू कर दी। यह बातचीत आसमान से नहीं आ गयी, मरे भीतर भी थी, आपके भीतर भी थी। लेकिन अगर आप अकेले कमरे में बोलते तो पागल समझे जाते, मैं आ गया तो आप पागल नहीं समझे जाते, अब प्रगट होने की सुविधा हो गयी।
जो भी चीजे प्रगट होती है, वह जिनसे प्रगट होती हे, उनमें लुप्त होती है, छिपी होती है। इसलिए नास्तिकों के ये दावे कि चेतना पदार्थ से ऐसे ही प्रगट हो गयी है-है नहीं, थी नहीं-अत्यन्त अवैज्ञानिक है। योग उन्हें मानने को तैयार नहीं है आस्तिक भी इससे उलटी बातें करते हैं। उनकी भी तकलीफ यही है-उलटे हिस्से हैं। वे कहते हैं - पदार्थ है ही नहीं, जड़ कुछ है ही नहीं, सब-परमात्मा-ही-परमात्मा है तो फिर सवाल उठता है कि यह सब जो चारों तरफ से दिखाई पड़ रहा है, कहाँ से पैदा होता है। तो शंकर कहते हैं-माया, इलूजन, है नहीं, यह भी फेनामिना है। यह भी सूडोएग्जिस्टेंस हैं यह है नहीं ।
वही तकलीफ जो आस्तिक की है, वही तकलीफ नास्तिक की भी है। तकलीफ यह है कि दूसरे को कैसे समझाओगे। वह भी है तो फिर उसके लिए चक्कर रहा, तर्क खोजने पड़ते, और वह तर्क से कभी इसको सिद्ध नहीं कर पाते।
योग कहता है, दोनों हैं। इसलिए योग किसी चक्करदार तर्क में नहीं पड़ता। वह कहता है दोनों हैं। और वह यह भी कहता है कि दोनों दो नहीं हैं, अन्यथा फिर दोनों को जोड़ने का उपद्रव होगा कि दोनो को जोड़ें कैसे? दोनो एक ही के दो रूप हैं। जैसे मरे दोनो हाथ हैं-बायें और दायें । ये दो दिखाई पड़ते हैं, ये मेरे लिए दो नहीं हैं। ये आपको दिखाई पड़ते हैं, दो मालूम होते हैं। मेरे लिए एक ही शक्ति दोनों पर फैली है। मंजे की बात हे, अगर मैं चाहूं हाथों को लड़ा सकता हूँ! और दोनों में एक ही ऊर्जा है।
चेतन और अचेतन एक ही अस्तित्व है एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। चेतन अचेतन हो सकता है, अचेतन चेतन को उतारता है। यह तीसरा सूत्र है योग का।
सूत्र समझ लेने जरूरी हैं, क्योंकि फिर इन्हीं सूत्रों के ऊपर योग की सारी साधना का भवन खड़ा होता है। चेतन-अचेतन, अब विज्ञान को राजी हो गयी है यह बात। अब विज्ञान एक नये शब्द का प्रयोग करता है, वह मैं आपसे कहूं साइकोसोमेटिक। पहले बीमारियां दो तरह की समझी जाती थीं फिजिकल और मेन्टल। एक मानसिक बीमारी है। और एक शारीरिक बीमारी है, क्योंकि मन अलग है और शरीर अलग है। अब चिकित्साशास्त्र एक नये शब्द का प्रयोग करता है साइकोसोमेटिक या सोमेटिक साइकिक। अब चिकित्साशास्त्र कहता है कोई बीमारी न तो अकेली मानसिक है और न अकेली शारीरिक है। बीमारी मनोशारीरिक, साइकोसोमेटिक है। दोनों ही छोर उसके हैं।
अगर आपका मन बीमार हो गया तो आपका शरीर भी बीमार हो जाता है। और अगर आपका शरीर बीमार हो जायेगा तो आपका मन भी बीमार होता है। जब हम आपको शराब पिलाते हैं, तब आपके मन को नही पिलाते हैं। शराब तो आपके पेट में जाती है। आपके लीवर में जाती है, आपके मन में नहीं जाती है शराब। लेकिन जैसे ही शराब शरीर में जाती है कि मन अनर्गल बातें करने लगता है। नहीं करना चाहिए, करने लगता है। शराब तो शरीर में गयी, लेकिन प्रभाव मन पर पहुँच गया। और अब मन रूग्ण होता है, अगर मन में बीमारी डाल दी जाये तो शरीर बीमार हो जाता है।
दस या बारह वर्ष पहले अमेरीका को एक कानून बनाना पड़ा, 'एण्टिहिप्नोटिक ऐक्ट' बनाना पड़ा। एक कानून बनाना पड़ा सम्मोहन के विरोध में, क्योंकि एक छोटे-से कॉलेज के होस्टल में एक अनूठी घटना घट गयी। चार लड़के हिप्नोटिजम की एक किताब पढ़ रहे थे और उसमें लिखा था कि मन जो भी मानने को राजी हो जाये, वह हो जाता है। उन चारों ने कहा कि हम प्रयोग करके देखें और अपने पांचवें साथी को उन्होंने लिटाया और जो उस किताब में लिखा था उस भाांति बेहोशी के सुझाव दिये। दस मिनट तक वे चारों लड़के कमरे में अंधेरा करके जोर जोर से उस लड़के से कहते रहे कि तुम बेहोश हो रहे हो, तुम बेहोश हो रहे हो, तुम बेहोश हो रहे हो। वह लड़का दस मिनट में गहरी नींद में सो गया और बेहोश हो गया।
जब उन्होंने उसके हाथ पर आलपिन चुभाइ तो उसे पता न चला और जब उन्होंने उसके मुँह मे मिट्टी रख दी और कहा कि तुम मिठाई खा रहे हो और उसने मिठाई की तरह स्वाद से उस मिट्टी को खाया, तब तो उनकी गति बढ़ती चली गयी। उन्होंने उस लड़के को उठाया, नाचने के लिए कहा कि तुम नृत्यकार हो। तो वह नाचने लगा। और उसको उन्होंने कहा कि तुम पागल हो गये हो तो वह पागल हो गया। फिर उन्होंने आखिरी बात पूछो। उन्होंने उस लड़के से कहा कि तुम मर गये और वह लड़का मर गया! उससे एक कानून बनाना पड़ा कि अब कोई व्यक्ति किसी को बिना किसी आज्ञा से या सरकारी आज्ञा के या किसी यूनिवर्सिटी में रिसर्च करते समय या किसी हॉस्टिल में डॉक्टर के निरीक्षण में प्रयोग करते समय ही सम्मोहित कर सकता है। हर कोई हर किसी को सम्मोहित नहीं कर सकता है।
अब वह लड़का मर ही गया। फिर उन्होंने बहुत कहा कि अब जिन्दा हो जाओ, लेकिन वहाँ सुनने वााल कोई नहीं था, वह मर ही चुका था १९५२ में घटी इस घटना ने दुनिया को चकित कर दिया। जब आपको कोई ज्योतिषी बता देता है कि आप फलां दिन मर जायेंगे तो मर सकते हैं। इसलिए नहीं कि ज्योतिषी सही कहता है, ऐसा नहीं है। लेकिन यह विचार मन में गहरे बैठ जाये तो मृत्यु घटित हो सकती है। सब तरह की बीमारियां पैदा की जा सकती हैं मन में विचार डाले के। और सब तरह की बीमारियों को प्रभावित किया जा सकता है ठीक होने के लिए, अगर मन में विचार डाल सकें।
एक आदमी के घर में आग लग गयी। वह दो साल से लकवे से बीमार पड़ा था। उठ नहीं सकता था, सन्निपात हो गया था। घर में आधी रात आग लगी तो सारे घर के लोग बाहर निकल गयें जब बाहर निकले तब उन्हें ख्याल आया कि घर के बूढ़े का क्या हुआ? क्योंकि उन्हें तो लकवा है, वे तो आ नहीं सकते। लेकिन तभी उन्होंने देखा कि बूढ़ा अकेला नही अपनी छोटी-सी पेटी लिये बाहर चला आ रहा था। तब तो वे बड़े चकित हुए, क्योंकि वह आदमी तो उठ भी नहीं सकता था। जब वह बीच में आकर खड़ा हो गया तो उन सबने कहा आप और चलें! तब उस आदमी ने कहा। मैं और चल कैसे सकता हूँ! वह वापस वहीं गिर पड़ा! लकवा वापस लौट आया ! क्या हुआ? इस आदमी को लकवा नहीं है, इस आदमी को मानसिक लकवा हैं। इसके मन के छोर को लकवा पकड़ गया है, शरीर उसका अनुगमन कर रहा है।
इससे उल्टा भी हो सकता है कि किसी आदमी के शरीर को लकवा ने पकड़ा हो, उसका मन अगर इनकार कर दे तो शरीर को लकवा चलाना मुश्किल हो जायेगा। इसलिए जो लोग संकल्पवान हैं, वे कैसी भी बीमारी से जूझ सकते हैं। और जो लोग संकल्पहीन हैं, वे कैसी भी बीमारी से परेशान हो सकते हैं।
योग का कहना है कि हमारे भीतर शरीर और मन ऐसी दो चीजें नहीं हैं। हमारे भीतर चेतन और अचेतन, ऐसी दो चीजें नहीं है। हमारे भीतर एक ही अस्तित्व है जिसके ये दो छोर हैं। और इसलिए किसी भी छोर से प्रभावित किया जा सकता है।
तिब्बत में एक प्रयोग है, जिसका नाम 'हीट-योग' है, उष्णता का योग है। तो तिब्बत में सैकड़ो फकीर हैं ऐसे, जो नंगे बर्फ पर बैठे रह सकते हैं और उनके शरीर से पसीना फूट आता है। इस सबकी वैज्ञानिक जांच और खोज कीक गयी है। इस सबकी डॉक्टरी जांच और खोज हो चुकी हेै और चिकित्सक बड़ी मुश्किल में पड़ गये हैं कि यह क्या हो गया है। यह आदमी बर्फ पर बैठा है नंगा चारों तरफ बर्फ पड़ रही है, बर्फीली हवाएं बह रही हैं और उसके शरीर पर पसीना आता है! क्या हुआ है इसको?
यह आदमी योग के सूत्र का प्रयोग कर रहा है। इसने मन से मानने को इनकार कर दिया है। कि बर्फ पड़ रही है। आंख बन्द करके यह कह रहा है कि बर्फ नहीं पड़ रही है। यह आंख बन्द करके कह रहा है, सूरज तपा है और धूप बरस रही है और यह आदमी आंख बन्द करके कह रहा है कि गरमी से तड़पा जा रहा हूँ। शरीर उसका अनुसरण कर रहा है।, वह पसीना छोड़ रहा है।
दक्षिण में एक योगी थे-ब्रह्ममयोगी। उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी, रंगून यूनिवर्सिटी, ऑक्सफोर्ड, तीनों जगह कुछ प्रयोग करके दिखाया। वे किसी भी तरह का जहर पी लेते थे और आधे घण्टे के भीतर उस जहर को शरीर से बाहर पेशाब से निकाल देते थे। किसी भी तरह का कोई जहर उनके खून में मिश्रित नहीं हो पाता। सब तरह के एक्स-रे परीक्षण हुए और मुश्किल में पड़ गयी बात कि क्या मामला है? और वह आदमी इतना ही कहता था कि मैं सिर्फ इतना ही जानता हूँ कि मन की कहता हूँ कि मैं स्वीकार नहीं करूंगा जहर बस, इतना मेरा अभ्यास है। लेकिन रंगून यूनिवर्सिटी में प्रयोग करने के बाद वे मर गये, जहर खून में पहुुँच गया। आध घण्टे तक ही उनका संकल्प काम करता था। इसलिए आध घण्टे के पहले पेशाब से बाहर कर देना जरूरी थ। आधा घण्टे के बाद उनको भी शक होने लगता था कि कहीं जहर मिल ही न जाये। आध घण्टे तक वह अपने संकल्प को मजबूत रख पाते थे। आध घण्टे के बाद शक उनको भी पकड़ने लगता था कि कहीं जहर मिल न जाये। शक बड़ी अजीब चीज है। जो आदमी आध घण्टे तक जहर को अपने खून से दूर रखे, उसको भी पकड़ जाता है। कि कहीं पकड़ न जाये। वह रंगून यूनिवर्सिटी से, जहाँ ठहरे थे, वहाँ के लिए कार से निकले और कार बीच में खराब हो गयी और वह अपने स्थान पर तीस मिनट के बजाय पैंतालीस मिनट में पहुँच पाये, लेकिन बेहोश हालत में वह पन्द्रह मिनट उनकी मृत्यु का कारण बना।
सैकड़ों योगियों ने खून की गति पर नियन्त्रण घोषित किया है। कहीं से भी कोई भी वेन काट दी जाये, खून उसकी आज्ञा से बहेगा या बन्द होगा। यह तो आप भी छोटा-मोटा प्रयोग करें तो बहुत अच्छा होगा। अपनी नाड़ी को गिन लें और गिनने के बाद पांच मिनट बैठ जायें और मन में सिर्फ इतना सोचते रहें कि मेरी नाड़ी की रफ्तार तेज हो रही है, तेज हो रही है और पांच मिनट बाद फिर नाड़ी को देखें तो आप पायेंगे रफ्तार तेज हो गयी। कभी लम्बा प्रयोग करें तो बन्द भी हो सकती हे। हृदय की धड़कन भी, अति सूक्ष्मतम हिस्से भी बन्द किये जा सके हैं, खून की गति भी बन्द की जा सकती है।
शरीर और मन ऐसी दो चीजें नहीं हैं-शरीर और मन एक ही चीज का विस्तार हैं। एक चीज के अलग-अलग हिस्से हैं। चेतन और अचेतन एक का ही विस्तार है। योग के सारे-के-सारे प्रयोग इस सूत्र पर खड़े हैं। इसलिए योग मानता है कि कहीं से भी शुरू किया जा सकता है। बीमारी भी, स्वास्थ्य भी, सौन्दर्य भी, शक्ति भी, उम्र भी-शरीर से भी प्रभावित होती है, मन से भी प्रभावित होती है।
बर्नाड शा ने लन्दन से कोई बीस मील दूर, एक गांव को चुना था अपनी कब्र बनाने को, और मरने से कुछ दिन पहले उस गांव में जाकर रहने लगा।
उसके मित्रों ने कहा कि कारण क्या है उस गांव को चुनने का ? तो बर्नाड शा ने कहा-उस गांव को चुनने का एक बहुत अजीब कारण है। उसे बताऊँ तो तुम हँसोगे। लेकिन फिर, कोई हर्ज नहीं, तुम हँसना मत, मैं कारण बताता हूँ। ऐसे ही एक दिन इस गांव में घूमने आया था। उस गांव के कब्रिस्तान तक घूमने गया था। वहाँ एक कब्र पर मैंने एक पत्थर लगा देखा, उसकी वजह से मैंने तय किया कि इस गांव में रहना चाहिए। उस पत्थर पर लिखा था - किसी आदमी की मौत का पत्थर था - लिखा था कि यह आदमी १६१० में पैदा हुआ और १७१० में बहुत कम उम्र में मर गया। तो बर्नाड शॉ ने कहा कि जिस गांव के लोग सौ वर्ष को कम उम्र मानते हैं, अगर ज्यादा जीना हो तो उसी गांव में रहना अच्छा है।
यह तो उसने मजाक में कहा, लेकिन बर्नाड शॉ काफी उम्र तक जिया। उस गांव की वजह से जिया, यह तो कहना मुश्किल है, लेकिन उस पत्थर को बर्नाड शा ने चुना। यह जो उसके मन का चुनाव है, यह ज्यादा जीने की आकांक्षा का हिस्सा ही तो है। यह हिस्सा उसके ज्यादा जीने का कारण बन सकता है।
जिन मुल्कों में उम्र कम है, उन मुल्कों में सभी लोग कम उम्र की वजह से मर जाते हैं, ऐसा सोचना जरूरी नहीं है। उन मुल्कों में कम उम्र होने की जवह से हमारी उम्र की अपेक्षाएं भी कम हो जाती हैं। हम जब बूढ़े होने लगते हैं, हम जल्दी मरने का विचार करने लगते हें। हम जल्दी तय करते हैं कि अब वक्त आ गया। जिन मुल्कों में उम्र की अपेक्षाएं ज्यादा हैं, उनमें जल्दी कोई तय नहीं करता, क्योंकि अभी वक्त आया नहीं। तो मरने का ख्याल अगर जल्दी प्रवेश कर जाये तो उसके परिणाम होने शुरू हो जायेंगे। यह मुल्क मरने को राजी हो गया है। अगर मन मरने को राजी न हो तो देर तक लम्बा जिया जा सकता है।
सारी बात इस पर निर्भर है कि हमारे व्यक्तित्व के दो हिस्से हैं -चेतना और अचेतना और जगत हिस्सा है। इस सारे चेतन और इस सारे अचेतन में कोई विरोध नहीं है। ये दोनों एक -दूसरे से सम्बन्धित है।
मैंने आपसे कहा कि नाड़ी पर हाथ रखें तो नाड़ी पर फर्क पड़ जायेगा। जब डॉक्टर भी आपकी नाड़ी जांचता है, तब भी फर्क पड़ जाता है। इसलिए कोई डॉक्टर कभी आपकी नाड़ी की ठीक जांच नहीं कर सकता, क्योंकि डॉक्टर के हाथ लगाने से आपके आब्जर्वेशन में, आपके निरीक्षण में, आपकी अपेक्षा में फर्क पड़ जाता है। फौरन फर्क पड़ता है। और अगर लेड़ी डॉक्टर हो तो फर्क और थोड़ा ज्यादा पड़ेगा। आपकी अपेक्षाएं और घबराती हैं। आपकी अपेक्षाएं, आपका मन, वहां तन्तुओं को हिला देगा। इसलिए समझदार डॉक्टर दो-चार कम करके साचेगा कि इतना होगा, कि है। क्योंकि दो-चार तो आपने अभी बढ़ा लिये होंगे जो नहीं रहे होंगे। लेकिन हमारी नाड़ी तो हमसे जुड़ी है, इसलिए प्रभावित हो जाती है। लेकिन मैं कह रहा हूँ, बाहर के जगत में अचेतन पदार्थ हमें दिखाई पड़ता है, वह भी हमारे चित्त से इतना ही जुड़ा हुआ है। जो माली अपने बगीचों में फूलों को प्रेम करता है, क्या आप सोच सकते हैं कि उसके फूल बड़े हो जाते हैं? आप कहेंगे, पागलपन की बात है। लेकिन अगर माली ही यह कहते तो हम पागलपन की बात मानते। आक्सफोर्ड यूनवर्सिटी में एक छोटी-सी लेबोरट्री है, 'डी-ला-बार' लेबोरेट्री। उसमें फूलों पर भी बहुत - से प्रयोग हुए और घबराने वाले वे प्रयोग हैं। एक ईसाई फकीर ने यह कहा कि मैं जिस बीज को आशीर्वाद दे दूँ, उसमें बड़े फूल आयेंगे।
उस प्रयोगशाला में इस पर बहुत-से प्रयोग हुए। एक ही पैेकेट के बीज एक गमले में डाले गये और दूसरे गमले में भी डाले गये। एक गमले को उस फकीर से आशीर्वाद दिलाया गया। फकीर ने उस गमले के सामने खड़े होकर परमात्मा से कहा कि इसके बीज बड़े हो, इसके फूल बड़े हों, इसके अंकुर जल्दी आये और दूसरे एक गमले को आशीर्वाद नहीं दिया गया। और वैज्ञानिकों ने पूरी कोशिश की कि दोनों गमलों को एक-सी सुविधा, एक-सा पानी, एक-सी धूप, एक-सा खाद, सब एक-सा मिले। लेकिन बड़ी मुशिकल हुई। आशीर्वाद दिये गमले पर फूल आये! आशीर्वाद दिये गये गमले पर ज्यादा फूल आये! आशीर्वाद दिये गमले के फल ज्यादा देर तक टिके। एकाध गमले पर होता तो समझते कि कोई चालबाजी होगी। फिर यह अनके गमलों पर प्रयोग किया और हर बार यही हुआ। क्या कारण होगा। क्या मनुष्य का चित्त उन बीजों को भी प्रभावित करता है?
असल में चेतना और अचेतना के बीच कहीं भी दीवार नहीं हैं। और जो इस हृदय में प्रतिध्वनित होता है, वह जगत् के सब कोनों तक पहुँचा जाता है। और जो जगत् के किसी भी कोने में प्रतिध्वनित होता है, वह इस हृदय के कोने तक आ जाता है हम सब इकट्ठे हैं, संयुक्त हैं।
इसलिए योग का चौथा सूत्र फिर बाकी सूत्र पर मैं कल आपसे बात करूंगा। योग का चौथ सूत्र-कि जगत् में कुछ भी असम्बन्धित नहीं हैं, एवरी थिंग इज रिलेटिव, दी वर्ल्ड एज ए फेमिली। यह जो जगत् है, एक परिवार है। यहाँ सब जुड़ा है, यहाँ टूटा कुछ भी नहीं है। यहाँ पत्थर से आदमी जुड़ा है, जमीन से चाँद-तारे जुड़े हैं, चाँद-तारों से हमारे हृदय की धड़कनें जुड़ी हैं, हमारे विचार सागरों की लहरों से जुड़े हैं। पहाड़ों के ऊपर चमकने वाली बर्फ हमारे मन के भीतर चलने वाले सपने से जुड़ी है। यहाँ टूूटा हुआ कुछ भी नहीं है,यहाँ सब संयुक्त है, यहाँ सब इकट्ठा है। यहाँ अलग-अलग होने का उपाय नहीं है, क्योंकि यहाँ बीच में गैप नहीं है, जहाँ से चीजे टूट जायें। टूटा होना सिर्फ हमारा भ्रम है।
इसलिए योग का चौथा सूत्र आपसे कहता हूँ ऊर्जा संयुक्त है, ऊर्जा एक परिवार है। न चेतन अचेतन से टूटा, न अस्तित्व अनस्तित्व से टूटा, न पदार्थ मन से टूटा है, न शरीर आत्मा से टूटा हैं, न परमात्मा पृथ्वी से टूटा है, न प्रकृति से टूटा है। टूटा होना शब्द ही झूठा है। सब जुड़ा है, सब इकट्ठा है। संयुक्त और इकट्ठा शब्दों से गलती मालूम पड़ती है, क्योंकि ये शब्द हम उनके लिए लाते हैं, जो टूटे हुए हैं। ये एक ही हैं, जैसे एक ही सागर में अनन्त लहरें हैं, हर लहर दूसरी लहर से जुड़ी है। आप इस किनारे पर बैठे हैं, वहाँ भी लहर आकर टकराती हैं वह लहर अन्तहीन किनारों से जुड़ी है, जो आपको दिखाई भी नहीं पड़ती।
यहाँ सब जुड़ा है। यहाँ से, पृथ्वी से दस करोड़ मील दूरी पर सूरज है। सूरज ठण्डा होता है, हम सब ठण्डे होते हैं। हम यह न कह सकेंगे, दस करोड़ मील जो सूरज है, उससे हमारा क्या लेना-देना है? हो जाये ठण्डा हम अपने घर की दीया जला न सकेंगे, हम कह न सकेंगे, नहीं। हम और आप ठण्डे हो जायेंगे, क्योंकि सारी जीवन-ऊर्जा उस सूरज से आपको मिल रही है।
लेकिन वह सूरज भी दूसरे सूरजों से जुड़ा है, महासूर्र्यों से जुड़ा है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अब तक उन्होंने जो गणना की, वह करीब दस करोड़ सूरजों की है। और वे सब सुंयक्त हैं। और यह गणना कभी पूरी न होगी। यह गणना पूरी कभी न होगी, क्योंकि इससे आगे और, और आगे विस्तार है। वह अन्तहीन है। इस अननत विस्तार में सब संयुक्त हैं। यहाँ एक फूल खिला है, वह भी हमसे जुड़ा है। और सड़क के किनारे कंकड़ पड़ा है तो वह भी हमसे जुड़ा है। और सब सुंयक्त को स्वर समझेंगे तो मैंने कहा आपकी नाड़ी तो प्रभावित होगी ही, जो चीजं आपके बिल्कुल ख्याल में नहीं होती हैं। वे भी प्रकाशित हो सकती हैं।
एक छोटी-सी सुई पर एक प्रयोग करें। एक छोटे-से बर्तन में पानी भरे, एक छोटे-से गिलास में पानी भरे। पानी पर कोई भी चिकनी चीज फैला दें घी फैला दें, थोड़ा-सा घी डाल दें, थोड़ा-सा तेल फैला दें और एक छोटी-सी आलपिन को उस तेलपर तैरा दें। फिर उस गिलास के ऊपर दो मिनट आंख गड़ा के बैठ जायें, दो मिनट तक आंखें न झपकें। और फिर उस पिन को कहें कि बायें घूम जाओ, आप हैरान होंगे क सुई बायें घूमती है! उसके कहें दायें घूम जाओ, आप हैरान होंगे कि सुई दायें घूमती है। और आप कहें कि रुक जाओ तो वह रुकती है और आपके इशारे पर चलती है।
सुई इसलिए कहा कि आपके पास संकल्प बहुत छोटा है, अन्यथा पहाड़ भी घुमाये जा सकते हैं। सुई इसीलिए है। लेकिन सुई घूमती है तो पहाड़ के घूमने में कोई बाधा नहीं है, क्यांकि सुई और पहाड़ में फर्क क्या है? क्वाण्टिटी का फर्क होता है, लेकिन सिद्धान्त का कोई फर्क नहीं पड़ता है।
योग कहता है, हम सब जुड़े है। योग कहता है, जब एक आदमी बुरा विचार करता है तो आस पास के लोग तत्काल बुरे होने शुरू हो जाते हैं। उस विचार को प्रगट करने की जरूरत नहीं है। जब एक आदमी अच्छा विचार करता है, तब आसपास अच्छे विचार की कुछ तरंगे फैलनी शुरू होती हैं। अच्छे विचार को प्रगट करने की जरूरत नहीं है। अचानक किसी आदमी के सामने जाकर आपको लगता है कि शान्ति आ गयी। अचानक किसी आदमी के सामने जाकर लगता है कि अशान्ति फैल रही हैं
किसी रास्ते से गुजरते हैं तो लगता है कि जैसे मन हलका हो गया है। किसी रास्ते से गुजरते हैं तो लगता है जैसे मन भारी हो गया। किसी घर में बैठते हैं और लगता है कि भय पकड़ लेता है। किसी घर में बैठते हैं तो लगता है कि हृदय प्रफुल्लित हो जाता है।ये सब चारों तरफ से आ रही तरंगों के परिणाम हैं। ये चारो तरफ से घेर रही है। तरगें, आपको छू गयी हैं। ऐसा नहीं है कि ये ही आपको छू रही हैं, आप भी छू रहे हैं। आप भी इन तरंगों को छू रहे हैं। यह पूरे वक्त चल रहा हैं।
इस समस्त विस्तार के बीच, हम भी ऊर्जा के एक पुंर्जे हैं। और चारो तरफ डायनामिक सेण्टर से, ऊर्जा से सब काम में लगे हैं। यह सारे जगत् की नियति हम सबकी इकट्ठी नियति है। योग के इस चौथे सूत्र का अर्थ है कि अपने को अलग देखना पागलपन है। अपने को अलग मानना नासमझी है। अपने को अलग समझकर जीना अपने हाथ से अपने सिर पर बोझ ढोना है।
एक छोटी-सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूं। फिर अगले सूत्र कल आपसे कहूंगा।
मैंने सुना है एक योगी एक ट्रेन में सवार हुआ, एक फकीर थर्ड क्लास के डिब्बे में जाकर बैठा। अपनी पेटी सिर पर रख ली। पेटी के ऊपर अपना बिस्तर रख लिया। बिस्तर पर अपना छाता रखा। और जब पास-पड़ोस के लोगों ने कहा यह क्या कर रहे हो, नीचे रख दो सामान, आराम से बैठो तो उस योगी ने कहा मैं सोचता हूँ, टिकिट तो सिर्फ मैंने अपने लिए लिया है, इसलिए ट्रेन पर ज्यादा वजन डालना अनैतिक होगा। इसलिए मैं वजन सिर पर रखता हूँ। उन लोगों ने कहा पागल हो गये हैं, अपने सिर पर रखियें तो भी ट्रेन पर तो वजन पड़ेगा ही। इसलिए नाहक अपने सिर को और वजन क्यों दे रहे हैं? नीचे रखिये और आप आराम से बैठिये। ट्रेन तो वजन ढोयेगी ही चाहे सिर पर रखिये और चाहे नीचे रखिये। उस फकीर ने कहा मैं तो समझता था अज्ञानी होंगे टे्रन में, यहाँ ज्ञानी हैं। पर उन लोगों ने कहा हम समझे नहीं। तो उस फकीर ने कहा जिन्दगी में मैंने सभी लोगों को अपने सिर पर वजन रखे देखा, जो वजन परमात्मा पर छोड़ा जा सकता था। मैंने हर आदमी को सारी चिन्ताओं का बोझ अपने सिर पर लिये हुए चलते देखा। पहाड़-के-पहाड़, जो चाँद-तारों पर छोड़े जा सकते हैं, जिन्हें कि हवाएं उठा लेतीं, लेकिन हर आदमी को मैंने इतनी उदासी और परेशानी से भरा देखा, जिसे हवा के झोंके उठा लेते, चाँद-तारे उठा लेते, सारा जगत् उठा लेता। लेकिन हर आदमी अपना बोझ लिए चल रहा है। मैंने सोचा कि इस डिब्बे में कहीं आप लोग नाराज न हों तो मैंने सामान ऊपर रखा। लेकिन आप तो ज्ञानी हैं! और उन्होंने कहा इस डिब्बे में ही हम ज्ञानी हैं और हम सब अपनी जिन्दगी की गाड़ी पर सवार हैं। वहाँ तो हम अपना बोझ अपने सिर पर ही रखते हैं। अपने सिर पर रखना ही पड़ेगा, क्योंकि हमारे अतिरिक्त हम और किसके सिर पर रखेंगे?
योग कहता है कि किसी कि सिर पर बोझ नहीं रखना है। बोझ किसी के सिर पर है ही नहीं। सिर्फ उन्हीं के सिर बोझिल हो जाते हैं। जो इस सत्य को नहीं जान पाते कि जीवन संयुक्त है, जीवन इकट्ठा है। श्वास हवाओं पर निर्भर है। प्राण की गरमी तारों पर, सूर्य पर निर्भर है। जीवन का होना सृष्टि के क्रम पर निर्भर है। मृत्यु का होना जन्म का दूसरा पहलू है। यह सारा कार्य क्रमित सम्पन हो रहा है। हम इस सबको सिर पर उठाकर रख लेते हैं। योग कहता है, अगर हम इसको देख पायें कि हम एक बड़े जहाज के बीच एक छोटे-से पक्षी से ज्यादा नहीं है....
एक नदी में दो तिनके बहे जाते थे। तेज थी धार नदी की और एक तिनका नदी की धार से लड़ने की कोशिश कर रहा था। उसने नदी की धार में अपने को आड़ा डाल रखा था। नदी में बांध बांधने की कोशिश कर रहा था कि रोक दूंगा नदी को। कुछ फर्क नहीं पड़ता था। बहा जा रहा था। तिनका ही था। नदी को खबर नहीं थी। कि किसी तिनके को बांध बांधने का ख्याल आ गया है। नदी को यह भी पता न था कि कोई तिनका लड़ रहा है। कहाँ होता है पता नदी को? नदी भागी जा रही थी सागर की तरफ। वह तिनका बहा जा रहा है, लड़ा जा रहा है। उसके साथ एक दूसरा तिनका हैं उसने नदी में अपने को सीधा छोड़ रखा है और वह सोच रहा है कि नदी को सहयोग दूँ। और सोचता था कि नदी मेरे सहारे कितनी तेजी से बही जा रही है। इससे कोई फर्क न पड़ता था, नदी को कोई सहारा न मिलता था। नदी को उन दोनों तिनको से कोई फर्क न पड़ता था जो नदी को रोकता था उससे, जो लड़ता था उससे जो नदी को सहयोग देता था, नदी को बहाता था उससे।
लेकिन तिनकों को फर्क पड़ता था। जो लड़ रहा था वह व्यर्थ ही मरा जा रहा था, जो बहे जा रहा था, वह आनन्द की धारा पर नाच रहा था। दोनों बहे जा रहे हैं एक लड़ता हुआ मरता हुआ, परेशान, एक आनन्द से पुलकित। लेकिन योग कहता है कि दोनों तिनके ही मत बनो, क्योंकि दोनों का भ्रम एक हिस्से से जुड़ा है। तुम समझों कि नदी बह नही रही हैं, न तुम्हें बहाना है, नदी बह रही है, न तुम्हें रोकना है। और तुम नदी के हिस्से बन जाओ। तिनके भी मत रहो, लहर बन जाओ, और तब निर्भर हो जाओगे, वेटलेस हो जाओगे। तब कोई भार नहीं रह जायेगा सारा जगत् एक परिवार है ऊर्जा का। उसमें हम एक लहर से ज्यादा नहीं हैं। सब जुड़ा है। इसलिए जो यहाँ होता है वह सब जगह फैल जाता है और जो सब जगह होता है वह यहाँ सिकुड़ आता है।
इस जगत् में जो हो रहा है, उसमें हम सब साझीदार हैं। संन्यस्त, राजीतिक इसमें कोई अलग-अलग नहीं है। अगर कहीं कोई चोर है। तो मैं जिम्मेवार हूँ। जरूर मेरी बुराईयों ने उसे चोर बनाने में सहयोग दिया होगा। और कहीं अगर कोई हत्यारा है तो मैं जिम्मेदार हूँ। अगर कहीं कोई साधु है तो मैं जिम्मेवार हूँ। इसका मतलब यह हुआ कि जिम्मेवारी की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि कहीं भी हो रहा है, उसमें मैं भागीदार हूँ। और तब कोई दोष नहीं हैं, तब हम अकेले नही हैं।
पश्चिम में एक नया शब्द है 'एलीनेटेड' अकेलापन, अजनबीपन। हर आदमी को लग रहा है कि मैं अकेला हूँ, कोई साथी नहीं। कभी पत्नियों को भ्रम होता था कि पति साथी है। कभी पत्नियां भ्रम पालती थीं कि पति साथी है, अब सब भ्रम टूटे जा रहे हैं। पत्नी को पक्का नहीं है कि पति साथी है, पति को पक्का नहीं है कि पत्नी साथी है। जब पति प्रेम कर रहा है, तब भी पक्का नहीं है। कि मन में डायवोर्स का फार्म भर रहा हो। पक्का नहीं है। बेटे को पक्का नहीं है बाप? बाप को पक्का नहीं है कि बेटे बहुत दिन साथ देंगे। कुछ पक्का नहीं है। सब अनिश्चित है। और एक-एक आदमी अकेला हो गया है, एक-एक आदमी चला जा रहा है। पहाड़ों पर और एक-एक आदमी पागल हुआ जा रहा है। यहाँ भी वही हुआ जा रहा है।
योग कहता है, नासमझी है। तुम अकेले हो, तुम्हारी नासमझी हैं एक-एक व्यक्ति इकट्ठा है। जिस दिन कोई आदमी ऐसा समझ लेता हैं कि मैं सबके साथ इकट्ठा हूँ, उसी दिन उसकी चिन्ता के सारे बोझे तिरोहित हो जाते हैं। उसी दिन वह मुक्त हो जाता है भीतर। सब बन्धन गिर जाते हैं।
यह चौथा सूत्र है।
ऐसे कुछ और सूत्रों की मैं आपसे और बात करूंगा। इस सम्बन्ध में जो भी प्रश्न हों, वह कल आप लिखकर दे देंगे, जिनकी चर्चा कल की चर्चा के साथ करूंगा। ध्यान के सम्बन्ध में एक सवाल किसी ने पूछा है, ध्यान की बैठक में मैं उसकी बात करूंगा।
एक और बात आपसे फिर कह दूँ ध्यान की। एक चित्त है, वह आप देखें। जो मित्र सुबह ध्यान में आना चाहें और मैं चाहूंगा कि सभी आयें, क्योंकि जिन योग के सूत्रों की मैं बात कर रहा हूँ, वे सिर्फ बुद्धि से समझने लायक नहीं हैं, उन पर प्रयोग भी करना है, एक्सपेरिमेण्ट भी करना है। तो सुबह आना जरूरी होगा। सांक्ष मैं आपसे बात करूंगा। और सुबह उसी बात के लिए हम प्रयोग करेंगे तो सांझा आप समझ लें और सुबह आप कर लें तो आपको समझ पूरी आ जायेगी। अन्यथा अकेली समझ आधी समझ हो जाती है और आधी समझा नासमझी से बुरी होती है।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उससे अनुगृही हूँ। अन्त में आप सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूँ, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
खूब मारमीकबात कही है
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