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शनिवार, 17 नवंबर 2018

अज्ञात की ओर-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन -धर्म की सहीं शिक्षा 

धर्म और शिक्षा पर इससे पहले कि मैं कुछ आपसे कहूं, एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
धन्यवाद।
एक सूफी फकीर एक रात सोया, सोते समय उस फकीर के मन में एक प्रार्थना थी, परमात्मा के दर्शन की इच्छा थी। रात उसने एक सपना देखा, सपने में देखा कि वह परमात्मा के नगर में पहुंच गया है। बहुत भीड़-भाड़ है रास्तों पर, कोई बहुत बड़ा उत्सव मनाया जा रहा है। उसने पूछा किसी से, तो ज्ञात हुआ परमात्मा का जन्म-दिन है। एक बहुत बड़े रथ पर एक बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति सवार है, पूछा यही परमात्मा हैं, उधर से ज्ञात हुआ नहीं, ये तो राम हैं और उनके पीछे राम के हजारों-लाखों भक्त हैं। फिर और पीछे घोड़े पर सवार कोई बहुत महिमाशाली व्यक्ति है, पूछा, ये परमात्मा हैं, ज्ञात हुआ, ये तो मोहम्मद हैं और उनके पीछे उनके भक्त हैं। और ऐसे वह शोभायात्रा लंबी होती गई। क्राइस्ट निकले, और महावीर, और बुद्ध, और जरथुस्त्र, और धीरे-धीरे शोभायात्रा समाप्त हो गई। और सबसे अंत में एक बहुत बूढ़ा आदमी एक घोड़े पर निकला जिसके साथ कोई भी नहीं था। उसे देख कर, उस फकीर को देख कर हंसी आने लगी, किसी से उसने पूछा कि यह कौन पागल है जो अकेला घोड़े पर सवार है, और जिसके साथ कोई भी नहीं है? तो ज्ञात हुआ वह परमात्मा है। उसे बहुत हैरानी हुई। और उसने पूछा कि राम के साथ बहुत लोग हैं, क्राइस्ट के साथ बहुत लोग हैं, बुद्ध और महावीर के साथ बहुत लोग हैं, मोहम्मद के साथ बहुत लोग हैं, लेकिन परमात्मा के साथ कोई क्यों नहीं? ज्ञात हुआ, सारे लोग मोहम्मद, महावीर और राम में बंट गए हैं, परमात्मा के लिए कोई बचा नहीं।

उसकी घबड़ाहट में नींद खुल गई। उसने कभी सोचा भी नहीं था, वह बहुत घबड़ाया। लेकिन यह स्वप्न मैं इसलिए आपसे कह रहा हूं ताकि मैं यह आपसे कह सकूं कि वस्तुतः ऐसी ही स्थिति सारी दुनिया में घट गई है। हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं, लेकिन धार्मिक कोई भी नहीं है। धार्मिक होना बहुत अलग बात है। हिंदू होने से, मुसलमान होने से...
इसके पहले कि मैं धर्म और शिक्षा के संबंध में आपसे कुछ कहूं, यह कह देना जरूरी है कि धर्म से मेरा अर्थ हिंदू, मुसलमान और जैन से नहीं है, ईसाई और पारसी से नहीं है। जब तक कोई मनुष्य हिंदू है या मुसलमान है तब तक धार्मिक होना असंभव है। और जितने लोग धर्म और शिक्षा के लिए विचार करते हैं और जो लोग शिक्षा के साथ धर्म को जोड़ना चाहते हैं, धर्म से उनका अर्थ या तो हिंदू होता है या मुसलमान होता है या ईसाई होता है। ऐसी धार्मिक शिक्षा धर्म तो नहीं लाएगी मनुष्य को और अधिक अधार्मिक बनाती है। इस तरह की शिक्षा तो कोई चार-पांच हजार वर्षों से मनुष्य को दी जाती रही है। लेकिन उसने कोई बेहतर मनुष्य पैदा नहीं किया। उससे कोई अच्छा समाज पैदा नहीं हुआ। विपरीत हिंदू, मुसलमान और ईसाई के नामों पर जितना अधर्म, जितनी हिंसा, जितना रक्तपात हुआ है उतना किसी और बात से नहीं हुआ।
यह जान कर बहुत हैरानी होती है, नास्तिकों के ऊपर, उनके ऊपर जो धर्म के विश्वासी नहीं हैं, बड़े पापों का कोई जिम्मा नहीं है। बड़े पाप उन लोगों के नाम पर हैं जो आस्तिक हैं। नास्तिकों ने न तो मंदिर जलाए हैं, न मस्जिदें, और न लोगों की हत्याएं की हैं। हत्याएं की हैं उन लोगों ने जो आस्तिक हैं। मनुष्य को मनुष्य से विभाजित भी उन लोगों ने किया है जो आस्तिक हैं। जो अपने को धार्मिक समझते हैं उन्होंने ही मनुष्य और मनुष्य के बीच दीवाल खड़ी की है। तो यदि धार्मिक शिक्षा का यह अर्थ हो कि हम गीता सिखाएं, कुरान सिखाएं या बाइबिल सिखाएं, तो यह बड़ी खतरनाक शिक्षा होगी। यह शिक्षा धार्मिक नहीं हो सकती। क्योंकि ये बातें जिन लोगों को सिखाई गई हैं वे लोग कोई अच्छे मनुष्य सिद्ध नहीं हुए हैं। और इन बातों के नाम पर जो भेद खड़े हुए हैं उन्होंने मनुष्य के पूरे इतिहास को रक्तपात और हिंसा से भर दिया है, क्रोध और घृणा से भर दिया। तो सबसे पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि धर्म की शिक्षा से मेरा प्रयोजन किसी संप्रदाय, उसकी धारणाओं, उसके सिद्धांतों की शिक्षा से नहीं है। एक बात निषेधात्मक रूप से, यदि हम चाहते हैं कि शिक्षा और धर्म संबंधित हों, तो हमें चाहना होगा कि हिंदू, मुसलमान और ईसाई शब्दों से धर्म का संबंध टूट जाए। तो ही शिक्षा और धर्म संबंधित हो सकते हैं। नहीं तो शिक्षा और धर्म कभी संबंधित न हो सकते हैं और न होने चाहिए। अगर एक धार्मिक सभ्यता पैदा करनी हो, तो वह सभ्यता हिंदू नहीं होगी, वह सभ्यता मुसलमान भी नहीं होगी; वह सभ्यता पूरब की भी नहीं होगी, वह सभ्यता पश्चिम की भी नहीं होगी। वह सभ्यता अखंड मनुष्य की होगी, सबकी होगी, समग्र की होगी। किसी एक अंश और एक खंड की वह सभ्यता नहीं हो सकती। क्योंकि जब तक हम मनुष्यता को खंडित करेंगे तब तक हम द्वंद्व और युद्ध से मुक्त नहीं हो सकते। जब तक मेरे और आपके बीच कोई दीवाल होगी तब तक बहुत कठिनाई है कि हम एक ऐसे समाज को निर्मित कर सकें जो प्रेम और आनंद में जीए।
अभी तो हमने जो समाज निर्मित किया है, कोई तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध जमीन पर हुए हैं। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध! शायद कल्पना भी न हो, तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध बहुत ज्यादा होते हैं। अगर प्रति वर्ष पांच युद्ध हो रहे हों तो क्या अर्थ हुआ? तीन हजार वर्षों के इतिहास में केवल तीन सौ वर्ष का छोटा सा टुकड़ा ऐसा है जब युद्ध नहीं हुए। वे भी तीन सौ वर्ष इकट्ठे नहीं, कभी एक दिन, कभी दो दिन, कभी दस दिन जमीन पर युद्ध बंद रहा है, ऐसा सब मिला कर कालखंड तीन सौ वर्ष होते हैं। तीन सौ वर्ष शांति और तीन हजार वर्ष युद्ध और यह भी शांति कैसी? एकदम झूठी। जिसे हम शांति के क्षण कहते हैं वे असल में शांति के क्षण नहीं हैं, बल्कि नये युद्ध की तैयारी के दिन हैं।
मैं तो मनुष्य के इतिहास को दो हिस्सों में बांटता हूंः युद्ध का काल और युद्ध की तैयारी का काल। अभी तक शांति का कोई काल हमने नहीं जाना है। ऐसा जो यह विभाजित मनुष्य है, इसके विभाजन में सबसे बड़ी दीवाल, आइडियोलॅाजी, विचार, धर्म और धारणा की है। बातें बदल जाती हैं, आज कम्युनिज्म है और अमरीका का लोकतंत्र है। वे भी दो धर्म बन कर खड़े हो गए। उनकी भी लड़ाई दो धर्मों जैसी लड़ाई हो गई है। क्या यह नहीं हो सकता कि हम विचार के आधार पर मनुष्य के विभाजन को समाप्त कर दें? क्या यह उचित है कि विचार जैसी बहुत हवाई चीज के लिए हम मनुष्य की हत्या करें? क्या यह उचित है कि मेरा विचार और आपका विचार, मेरे हृदय और आपके हृदय को शत्रु बना दे? अब तक यही हुआ है। और अब तक धर्मों के नाम पर खड़े हुए संगठन हमारे प्रेम के संगठन नहीं हैं, बल्कि हमारी घृणा के संगठन हैं। और इसीलिए आपको ज्ञात होगा कि जब भी दुनिया में घृणा का जहर जोर से फैला दिया जाए तो किसी को भी संगठित किया जा सक ता है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा हैः अगर किसी कौम को संगठित करना हो तो किसी दूसरी कौम के प्रति घृणा पैदा कर दो। कोई खतरा पैदा कर दो। मुसलमान को इकट्ठा होना होता है, तो वह कहता है, इसलाम खतरे में है, और तब मुसलमान इकट्ठा हो जाते हैं। और हिंदू को इकट्ठा होना हो, तो वह कहता है, हिंदू धर्म खतरे में है, और हिंदू इकट्ठे हो जाते हैं। अभी पाकिस्तान का हमला भारत पर हुआ या चीन का, तो सारे भारत में एकता मालूम पड़ी, वह एकता एकदम खतरनाक और झूठी है। वह प्रेम की एकता नहीं है। वह तो सामने खड़े दुश्मन के खिलाफ जो हमारे मन में घृणा है, उसकी एकता है। दुश्मन चला जाएगा, एकता भी चली जाएगी।
ये हमारे सारे संगठन, जिनको हम धर्म कहते हैं, किसी की घृणा पर खड़े हुए हैं। और घृणा का धर्म से क्या संबंध हो सकता है? मेरे और आपके बीच जो चीज भी घृणा लाती हो वह धर्म नहीं हो सकती। मेरे और आपके बीच जो चीज प्रेम लाती हो वह धर्म हो सकती है। और यह भी स्मरण रखें, अगर मनुष्य को मनुष्य से तोड़ देती हो कोई चीज तो वही चीज मनुष्य को परमात्मा से कैसे जोड़ सकेगी? मनुष्य को मनुष्य सेे तोड़ देने वाली कोई बात मनुष्य को परमात्मा से जोड़ने वाली बात कभी भी नहीं बन सकती। लेकिन जिनको हम धर्म कहते हैं वे हमें तोड़ रहे हैं। यद्यपि वे सभी प्रेम की बातें करते हैं। और वे सभी इस बात की भी बातें करते हैं--हम सबके बीच एकता, भ्रातृत्व, ब्रदरहुड की। लेकिन बड़ी हैरानी की बात है, उनकी सारी बातें बातें ही रह जाती हैं और वे जो भी करते हैं उससे घृणा फैलती हैै और शत्रुता फैलती है। क्रिश्चएनिटी बातें करती है प्रेम की, लेकिन जितनी हत्या ईसाईयों ने की है उतनी हत्या शायद ही किसी ने की हो। तो थोड़ी हैरानी होती है, थोड़ी घबड़ाहट होती है। और तब ऐसा प्रतीत होता है अच्छी बातें बुरे कामों को छिपाने का रास्ता बन जाती हैं और कुछ भी नहीं। अगर लोगों को मारना हो तो प्रेम के नाम पर मारना बहुत आसान है। और अगर हिंसा करनी हो तो अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा करना बहुत आसान है। और अगर मुझे आपकी जान लेनी हो, तो आपके ही हित में जान लेना आसान होगा, क्योंकि तब आप मरेंगे भी और मैं दोषी भी नहीं होऊंगा। तब आप मरेंगे भी, मारे भी जाएंगे और शिकायत भी नहीं कर सकेंगे।
तो शैतान ने मालूम होता है मनुष्य को बहुत पहले यह समझा दिया कि अगर कोई बुरा काम करना हो तो नारा अच्छा चुनना, स्लोगन अच्छा होना चाहिए। जितना बुरा काम हो उतना ऊंचा नारा होना चाहिए, तो बुरा काम छिप जाता है। ये जो धर्मों के नाम पर संगठन हैं--न तो इनका परमात्मा से कोई संबंध है, न प्रेम से है, न प्रार्थना से, न धर्म से। ये हमारे भीतर वह जो घृणा है, ईष्र्या है, हिंसा है उसके संगठन हैं। अन्यथा यह कैसे हो सकता था कि मस्जिदें जलाई जाएं, मंदिर जलाए जाएं, मूर्तियां तोड़ी जाएं, आदमी मारे जाएं, यह कैसे हो सकता था? यह हुआ है, होता रहा है। कोई भी धर्म की शिक्षा तभी धार्मिक होगी जब इस सबसे उसका संबंध छूट जाए। लेकिन ये सारे धार्मिक लोग चाहते हैं कि बच्चों को धर्म की शिक्षा दी जाए। ये क्यों चाहते हैं? इनकी इतनी उत्सुकता क्या है? इनकी उत्सुकता यह है कि कहीं बच्चे उन घेरों के बाहर न हो जाएं जिन घेरों के भीतर अब तक आदमी जीया है। क्योंकि अगर बच्चे उन घेरों और दीवालों के बाहर हो गए, तो पुरानी पूरी की पूरी संस्कृति भूमिसात हो जाएगी। हो जानी चाहिए। उसे रोकने का भी कोई कारण नहीं है। तो पुराने सारे घेरे गिर जाएंगे, पुराने सारे स्वार्थ के केंद्र टूट जाएंगे, पुराना सारा शोषण टूट जाएगा।
इसलिए हर पीढ़ी अपने बच्चों को अपनी सब बीमारियां दे जाना चाहती है। इसमें उसके अहंकार की भी पूर्ति होती है। इसलिए बाप अगर हिंदू है तो बच्चे को हिंदू बना जाना चाहता है। क्यों? मुसलमान बाप बच्चे को मुसलमान बना जाना चाहता है। और इसके पहले कि बच्चे में विचार पैदा हो, क्योंकि विचार पैदा हो जाए तो हिंदू या मुसलमान होना बहुत मुश्किल हो जाएगा। विचारशील व्यक्ति कैसे हिंदू हो सकता है? कैसे मुसलमान हो सकता है? इसलिए बच्चा जब बहुत छोटा हो जब उसमें विवेक और विचार पैदा न हुआ हो, तभी ये कीटाणु हिंदू और मुसलमान होने के उसके भीतर डाल दिए जाने चाहिए। जब वह होश में आए तो उसके खून में मिल जाए यह जहर। और तब वह इस जहर से मुक्त न हो सके।
इसलिए सभी ये तथाकथित धार्मिक लोग छोटे-छोटे बच्चों को धर्म की शिक्षा दिलाने के लिए बहुत उत्सुक हैं। इनकी उत्सुकता कोई शुभ नहीं है। और वह यह कि जब उनका विवेक जाग्रत नहीं हुआ है तब उनके भीतर विश्वास डाल दिए जाएं। विश्वास तो अंधे होते हैं, विश्वास तो अज्ञान से भरे होते हैं। और जब एक बार मन की अचेतन पर्तों को विश्वास पकड़ लेते हैं, तो विचार के जगने में सदा के लिए बाधा हो जाती है। जो हिंदू है वह सोच नहीं सकता फिर, जो मुसलमान है वह भी नहीं सोच सकता। क्योंकि सोचने में खतरा हो सकता है। सोचने में खुद के विश्वास तोड़ने का डर हो सकता है। इसलिए फिर विचार को रोका जाता है।
ये जो तथाकथित धर्म हैं और उनकी जो शिक्षा है वह विचार की शिक्षा नहीं है, वह विश्वास की शिक्षा है। और स्मरण रखिए अगर विचार की शिक्षा हो, तो बहुत दिन तक बहुत धर्म नहीं रह सकते, एक ही धर्म शेष रह जाएगा। लेकिन अगर विश्वास की शिक्षा हो तो अनेक धर्म हो सकते हैं। आखिर, आखिर विज्ञान धीरे-धीरे सार्वजनीय सत्यों पर आ गया। गणित हिंदू का अलग नहीं होता, मुसलमान का अलग नहीं होता। लेकिन क्या आपको पता है कि पहले गणित अलग होता था? हिंदुस्तान में जैनियों का गणित अलग, हिंदुओं का गणित अलग था, गणित, गणित कैसे दो हो सकते हैं? क्या एब्सर्ड, कैसी नासमझी की बात है? गणित दो हो सकते हैं? हिंदुओं की भूगोल अलग, जैनियों की भूगोल अलग थी, भूगोल, भूगोल दो कैसे हो सकती हैं? लेकिन अलग थीं। यह अलग इसलिए थीं कि ये विश्वास पर खड़ी थीं। विचार की कोई, विचार की कोई खोज-बीन नहीं थी, विचार और तर्क का कोई आधार नहीं था। तर्क और विचार सार्वजनीय सत्यों पर ले आता है। और विश्वास स्थानीय होता है, सार्वजनीय नहीं होता, नहीं हो सकता। क्योंकि विश्वास को सार्वजनीय होने का कोई आधार नहीं होता है। फिर विश्वास अंधा होता है, उसके पास आंखें नहीं होतीं।
क्या आपको पता है, अरस्तू जैसा विचारशील व्यक्ति भी अपनी किताब में लिखा हैः कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। अरस्तू? और खुद की उसकी दो औरतें थीं, एक भी नहीं। और कभी भी बैठ कर उन औरतों के दांत गिन सकता था। लेकिन नहीं; यूनान में यह विश्वास था कि औरतों के दांत कम होते हैं। असल बात यह है कि मनुष्य, पुरुष यह मानने को कभी राजी नहीं है कि स्त्री उसके बराबर होती है, उससे कम होनी चाहिए। पुरुष के बराबर कैसे हो सकती है? दांत कैसे बराबर हो सकते हैं? इसलिए कभी गिनने का सवाल नहीं उठा। एक हजार साल तक यूनान के करोड़ों लोग यह मानते रहे कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। किसी ने गिना नहीं। स्त्रियां घर-घर में उपलब्ध हैं। पुरुषों से थोड़ी ज्यादा ही हैं, कम नहीं हैं। किसी ने गिनती नहीं की। किसी ने शक भी नहीं किया।
विचार की पहली बुनियाद होती हैः शक, संदेह, डाउट। और विश्वास का आधार होता हैः कभी शक मत करना, संदेह मत करना। जो संदेह नहीं करता वह कभी विचार भी नहीं करता, वह कभी खोज भी नहीं करता। तो ये तथाकथित धर्म सिखाते हैं--विश्वास करो। जब कि धर्म सिखाएगा विचार करो। और धर्म विश्वास पर खड़ा नहीं होगा, बल्कि विवेक पर खड़ा होगा। और विवेक पर जो धर्म खड़ा होगा वह बहुत शीघ्र जिस भांति पदार्थ के संबंध में हमने सार्वजनीय, युनिवर्सल नियम खोज लिए, उसी भांति आत्मा और परमात्मा के संबंध में भी सार्वजनीय नियम खोज लेगा। विचार की गति सार्वजनीयता की तरफ है, युनिवर्सेलिटी की तरफ है।
धर्म से और शिक्षा का संबंध तब होगा जब धर्म का संबंध विचार से होगा, विश्वास से नहीं। और तब फिर वह हिंदू की और मुसलमान की शिक्षा नहीं रह जाएगी, तब वह धर्म की शिक्षा हो जाएगी। जब तक धर्म का संबंध विश्वास से है तब तक धर्म की कोई शिक्षा नहीं हो सकती। धर्म का नाम भला लिया जाए--वह हिंदू की शिक्षा होगी, या मुसलमान की, या ईसाई की, या जैन की शिक्षा होगी, यह कोई भी शिक्षा धार्मिक नहीं है। क्योंकि इस तरह से शिक्षित आदमी संकीर्ण हो जाता है, विराट नहीं। इस तरह से शिक्षित आदमी पक्षपातों, प्रिज्युडिस से भर जाता है। विवेक उसका मुक्त नहीं होता, बल्कि बंधा हो जाता है। इस तरह का व्यक्ति खोज करने में असमर्थ हो जाता है, क्योंकि जितने ज्यादा विश्वास उतनी खोज कठिन है। खोज के लिए चाहिए मुक्त, विश्वास से स्वतंत्र चित्त। सब विश्वासों से मुक्त चित्त।
लेकिन ये सारे धर्म तो सिखाते हैं कि जो संदेह करेगा वह नष्ट हो जाएगा। यह कोई धर्म नहीं सिखाते कि तुम विचार करो, क्योंकि हो सकता है कि विचार उन नतीजों पर ले जाए जो उनके नतीजों से मेल न खाएं। इसलिए विचार से ये भयभीत हैं। सारे धर्म विचार से भयभीत हैं। इसलिए दुनिया का कोई विकास नहीं हो सका, मनुष्य-जाति का विकास नहीं हो सका। जहां विचार से भय है वहां विकास असंभव है। समस्त विकास विचार का विकास है।
धर्म शिक्षा का केंद्र बन सकता है, लेकिन इसके पहले धर्म का कें्रद विचार को बनाना होगा, विश्वास को नहीं। इसके पहले कि धर्म शिक्षा में आए धर्म को पुनःर्शिक्षित होना पड़ेगा, धर्म को खुद पुनःर्दीक्षित होना पड़ेगा। वैसा ही धर्म नहीं प्रवेश पा सकता विद्यापीठों में जैसा धर्म बाजार में प्रचलित है। वह गलत है। वह बुनियादी रूप से गलत है। तो विद्यापीठों में, शिक्षालयों में निश्चित ही धर्म आना चाहिए। क्योंकि यह बात अधूरी होगी कि हम केवल पदार्थ के संबंध में चितंन करें, यह बात अधूरी होगी कि हम केवल पदार्थ के संबंध में खोज-बीन करें। यह पूरे मनुष्य को जानने में बहुत अधूरी सिद्ध होगी। जानना ही होगा, सोचना ही होगा, विचारना ही होगा मनुष्य की चेतना के संबंध में, उसकी आत्मा के संबंध में। जीवन में पदार्थ ही सब कुछ नहीं है, कुछ और भी है, कुछ और विराटतर भी हमारे भीतर है। उसे खोजना होगा, जानना होगा, विचारना होगा।
लेकिन ये जो तथाकथित धर्म हैं, ये उसे विचारने के लिए स्वतंत्रता देने को राजी नहीं है। इन धर्मों का शिक्षा से कोई संबंध नहीं हो सकता है। और दुर्भाग्य होगा कि इनका कोई संबंध हो जाए। इनका संबंध नहीं होना चाहिए। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि धर्म का संबंध नहीं होना चाहिए। धर्म का संबंध तो होना चाहिए। एक दिशा तो विज्ञान है बाहर, जो हमारा जगत है, उसको हम खोज रहे हैं। एक दिशा धर्म है भीतर, हमारा जो जगत है, उसे भी खोजना है। दो जगत हैं, एक हमारे बाहर है, एक हमारे भीतर है।
राबिया नाम की एक फकीर औरत थी। एक दिन सुबह उसके दरवाजे पर उसके एक मित्र ने कहा कि राबिया बाहर आओ, बहुत सुंदर सूरज उग रहा है, बड़ी सुंदर सुबह है, इतनी सुंदर प्रभात मैंने कभी नहीं देखी, बाहर आओ। राबिया ने कहाः मित्र, मैं तुम्हें निमंत्रण देती हूं कि तुम्हीं भीतर आ जाओ, क्योंकि तुम जिस सूरज को देख रहे हो और जिस सुबह को, मैं उसके बनाने वाले को भीतर देख रही हूं, मित्र, तुम भीतर आ जाओ।
एक बाहर दुनिया है, निश्चित ही बहुत सुंदर। और वे लोग नासमझ हैं जो बाहर की दुनिया के विरोध में मनुष्य को खड़ा करना चाहते हों। बहुत सुंदर है बाहर की दुनिया। और वे लोग मनुष्य के मंगल में नहीं हैं जो लोग उस दुनिया को कंडेम करते हों, उस बाहर की दुनिया को निंदा करते हों। बहुत सुंदर है बाहर की दुनिया, लेकिन और बड़ी सुंदर दुनिया भी एक भीतर है। बाहर की दुनिया पर जो रुक जाता है वह अधूरे पर रुक गया। शायद वह खजाने के बाहर ही रुक गया। शायद उसने बाहर की पर्त को, बाहर की देह को ही देखा और भीतर नहीं पहुंचा। भीतर और भी विराटतर, और भी सुंदरतम कुछ है। धर्म उसकी खोज है भीतर जो है मनुष्य के, समस्त के, प्रकृति के, उसकी खोज है धर्म। विज्ञान जो बाहर है उसकी खोज है। बाहर की खोज अधूरी है। भीतर की खोज से शिक्षा का जरूरी संबंध होना चाहिए।
लेकिन जिन धर्मों को हम जानते हैं उनकी खोज भी भीतर की खोज नहीं है। वे बातें तो परमात्मा की करते हैं, लेकिन बातें एकदम झूठी मालूम पड़ती हैं। उनके मंदिर भी बाहर ही बनते हैं और उनकी मस्जिदें भी बाहर ही बनती हैं, और उनकी मूर्तियां भी बाहर ही खड़ी होती हैं, और उनके शास्त्र भी बाहर हैं, और उनके सिद्धांत भी बाहर हैं। और इन बाहर की चीजों पर वे लड़ते भी देखे जाते हैं। उनका आग्रह भी है इन पर, पर वे भी मनुष्य को भीतर नहीं ले जाते।
एक नीग्रो एक चर्च के द्वार पर एक दिन सुबह-सुबह गया और उसने प्रार्थना की उस चर्च के पुरोहित से कि मुझे भीतर आने दें। लेकिन नीग्रो काली चमड़ी का आदमी और सफेद चमड़ी वाले लोगों के मंदिर में कैसे जा सकता है? यह जो भीतर की बातें करते हैं यह भी चमड़ी को देखते हैं कि वह काली है या गोरी? ये जो परमात्मा की बातें करते हैं वे भी देखते हैं कि ब्राह्मण है या शूद्र? उस चर्च के पादरी ने कहा कि मित्र, क्या करोगे मंदिर में आकर भी? जब तक मन शांत नहीं है तब तक क्या करोगे आकर? जमाना बदल गया है, इसलिए पुरोहित ने अपनी भाषा बदल ली है। पहले भी रोकता था वह, लेकिन पहले वह कहता था कि हट शूद्र, यहां कहां तुझे प्रवेश। लेकिन अब जमाना बदल गया है, उसे अपनी भाषा बदलनी पड़ी। रोकता वह अब भी है। उसने यह नहीं कहा कि शूद्र यहां से भाग जाओ, उसने कहा कि क्या करोगे मंदिर में आकर भी, जब तक मन ही शांत नहीं है तो परमात्मा को कैसे जानोगे? यह बात उसने उस नीग्रो से कही, लेकिन सफेद चमड़ी के लोग जो रोज आते थे उनमें से किसी से भी कभी यह नहीं कहा था। जैसे उन सबके मन शांत हो गए हों। वह नीग्रो सीधा होगा, इसलिए चला गया। सीधा होगा, तभी तो वह भगवान को खोजने किसी चर्च में गया था, अगर सीधा न होता तो क्यों किसी चर्च में जाता? भोला-भाला होगा। नासमझ होगा। नहीं तो किसी चर्च से भगवान का क्या संबंध है? अपने भीतर जाता, चर्च में क्यों जाता?
लौट गया। कोई दस-पांच दिन बीत जाने के बाद वह पुरोहित, चर्च का पादरी उसे रास्ते पर मिला। और पूछा कि मित्र, फिर दिखाई नहीं पड़े? उस नीग्रो ने कहाः मैंने रात जाकर परमात्मा से प्रार्थना की कि मेरे हृदय को शांत कर, मेरे मन को शांत कर ताकि मैं तुझे जान सकूं और तुझसे मिल सकूं। रात मुझे एक सपना आया और भगवान मुझे दिखाई पड़े और उन्होंने मुझसे पूछा कि तू किसलिए, तू किसलिए उस चर्च में जाना चाहता है? मुझसे मिलने? तू बिलकुल पागल है। दस साल से मैं खुद ही कोशिश कर रहा हूं, वह पादरी मुझे चर्च के भीतर घुसने ही नहीं देता। जहां मैं नहीं जा सका हूं वहां तू जा सकेगा यह बहुत कठिन है।
इन मंदिरों में और मस्जिदों मेें, और इनके आग्रह करने वाले लोगों में बाहर के प्रति इतनी आस्था है, इतना आदर है कि ये भीतर के प्रति जानकार हों यह संभव नहीं मालूम होता। मंदिर और मस्जिद तो शिक्षा से नहीं जुड़ सकते हैं। नहीं जुड़ने चाहिए। लेकिन हां, भीतर जाने का कोई द्वार, भीतर जाने का कोई मार्ग, जरूर उसके बिना शिक्षा एकदम अधूरी है, एकदम अधूरी है। कभी मैं देखता हूं कि इन शिक्षालयों में मंदिर बनाने की योजनाएं चलती हैं, वे गलत हैैं। मंदिर किसी का होगा, हिंदू का होगा या मुसलमान का होगा, या ईसाई का होगा। मंदिर किसी का होगा। और जो किसी का है वह परमात्मा का नहीं हो सकता। परमात्मा का मंदिर भी है, लेकिन वह ईंट और पत्थरों से नहीं बनता। परमात्मा का मंदिर भी है, लेकिन बाहर जो स्थान है उस पर जगह घेर कर नहीं बनता। मनुष्य के भीतर जो है चेतना उससे निर्मित होता है। और वहीं निर्मित होता है। स्थान में नहीं, आत्मा में। बाहर नहीं भीतर, अंतस में। तो अंतस में परमात्मा का मंदिर बने, इस तरफ शिक्षा की दृष्टि न होगी तो शिक्षा बहुत अधूरी होगी, बहुत अधूरी होगी। और अब तक सारी शिक्षा अधूरी रही है। और इसलिए अब तक सारी शिक्षा एक लंबी असफलता से ज्यादा नहीं है। बीस-पच्चीस वर्ष की उम्र तक हम शिक्षित करके युवक को दुनिया में भेजते हैं, वह एकदम अधूरा आदमी होता है। उसे जीवन में जो भी केंद्रीय है उसका कोई पता नहीं होता। जीवन में जो भी मूल्यवान है उसका कोई भी पता नहीं होता। जीवन में जो शूद्र है वह केवल उसकी गणना सीख कर ही आता है। और तब पच्चीस वर्ष तो उसने शूद्र को सीखने में गंवाए होते हैं, शेष जीवन उस शूद्र के व्यवहार में गंवा देता है।
सम्यक शिक्षा धर्मविहीन नहीं हो सकती। क्योंकि सम्यक शिक्षा मनुष्य के अंतःकरण की शिक्षा ही होगी। क्या है हमारे भीतर? और कैसे वह शिक्षित हो सकता है? क्या कुछ सिद्धांत हम सिखाएं? क्या हम सिखाएं बच्चों को कि ईश्वर है? क्या हम सिखाएं कि आत्मा है? परलोक है, स्वर्ग-नरक हैं, मोक्ष है यह सिखाएं? नहीं, इस तरह की शिक्षा भी मनुष्य को भीतर नहीं ले जा सकती। इसलिए कि जो भी हम सिखा देते हैं वह हमारे भीतर जाकर हमारा पक्ष, हमारी प्रिज्युडिस बन जाती है।
एक छोटे से अनाथालय में मैं गया। वहां कोई सौ बच्चे थे। और अनाथ बच्चे। तो उनको तो जो भी शिक्षा देनी हो वह दी जा सकती है। कोई कठिनाई नहीं। तो उनको धर्म की शिक्षा दी जाती थी। क्योंकि अनाथ बच्चों को तो कुछ भी सिखा सकते हैं आप जो भी सिखाना चाहें। अब उनका कोई मां-बाप ही नहीं है। तो उनको धर्म की शिक्षा दी जाती थी। मुझे अनाथालय के संयोजकों ने कहा कि हम यहां धर्म की शिक्षा देते हैं। तो मैंने उनसे कहाः मैं अभी तक समझ ही नहीं पाया कि धर्म की शिक्षा कैसे हो सकती है? धर्म की साधना हो सकती है शिक्षा नहीं। इसमें थोड़ा सा मैं फर्क करता हूं। और वही धर्म की शिक्षा है--धर्म की साधना। तो मैंने कहाः शिक्षा कह देते होंगे, खैर मैं देखूं।
तो उन्होंने कहा कि आप इनसे कोई भी प्रश्न पूछिए, ये बराबर उत्तर देंगे कि यह हो सकता है। उन्होंने खुद ही पूछाः ईश्वर है? उन छोटे-छोटे बच्चों ने हाथ उठा कर हिलाए कि हां, ईश्वर है। उन्होंने पूछाः यह आत्मा है? उन बच्चों ने कहाः हां, आत्मा है। उन्होंने पूछाः आत्मा कहां? उन सब बच्चों ने अपने हृदय पर हाथ रखा और कहा आत्मा यहां है। जैसे हम मिलिटरी में लेफ्ट-राइट करना सिखा देते हैं, ऐसे ही उन्होंने उनको यह सिखा दिया। उनको यह सिखा दिया कि उनका हाथ हृदय पर चला गया। आत्मा कहां है? तो उन्होंने कहाः यहां है। मैंने एक छोटे से बच्चे से पूछा कि हृदय कहां है? उसने कहाः यह तो हमें बताया ही नहीं गया। जो उसे बताया गया था वह उन्होंने बताया। जो उन्हें नहीं बताया गया था वह कैसे बताता? हृदय का कोई पता नहीं, आत्मा कहां है यह मालूम है! परमात्मा कहां है यह मालूम है!
मैंने उन संयोजकों से कहा कि इन बच्चों को आप जीवन भर के लिए धर्म से तोड़े दे रहे हैं। क्योंकि ये बातें ये सीख जाएंगे और यही खतरा है। और फिर जीवन भर इन्हीं सीखी हुई बातों को दोहराते रहेंगे। और सीखी हुई बातों को जो दोहराता है वह जानने से वंचित रह जाता है। सीखीं हुई बातें दोहराते रहेंगे जीवन भर, जीवन जब भी समस्या खड़ी करेगा तभी इनके बंधे हुए उत्तर भीतर से आ जाएंगे। जीवन पूछेगा, ईश्वर है, और इनका सीखा हुआ उत्तर कहेगा, ईश्वर है। और जीवन पूछेगा, कहां है, और इनके हाथ मशीनों की भांति अपने हृदय पर चले जाएंगे और कहेंगे--यहां। और ये बिलकुल हाथ झूठे होंगे। क्योंकि ये सिखाए हुए हैं। सिखाई हुई बातें पदार्थ के जगत में तो अर्थ रखती हैं परमात्मा के जगत में कोई भी अर्थ नहीं रखतीं सिखाई हुई बातें।
अगर हम किसी को प्रेम करना सिखा दें, तो एक बात पक्की, इस जीवन में अब वह प्रेम को कभी न जान पाएगा। अगर हम उसे सिखा दें प्रेम कैसे करना चाहिए, क्या बोलना चाहिए, कैसे मिलना चाहिए या कैसे गले लगाना चाहिए, सब सिखा दें, तो वह एकिं्टग सीख जाएगा प्रेम करने की और फिर प्रेम को कभी नहीं जान पाएगा, कभी नहीं जान पाएगा। अभिनेता प्रेम को कभी नहीं जान सकते। हालांकि वे ही चैबीस घंटे प्रेम करते हुए दिखाई पड़ते हैं। कभी भी अभिनेता प्रेम को नहीं जान सकता। क्योंकि प्रेम, प्रेम उसकी ट्रेनिंग है, प्रशिक्षण है। प्रेम उसने सीखा है, प्रेम उसके लिए एक कला है, एक आर्ट। प्रेम उसके लिए जीवन नहीं है, अनुभव नहीं है। जब प्रेम नहीं सीखा जा सकता तो प्रार्थना कैसे सीखी जा सकती है? प्रार्थना तो प्रेम का और भी गहनतम रूप है। और जब प्रेम नहीं सीखा जा सकता तो परमात्मा कैसे सीखा जा सकता है? परमात्मा तो जो हमारे जीवन में सबसे ज्यादा अननोन है, सबसे ज्यादा अज्ञात है वही है। उसे सीखा नहीं जा सकता, उसे जाना जा सकता है।
धर्म की शिक्षा का यह मतलब नहीं हो सकता कि आपको कुछ सिद्धांत सिखा दिए जाएं और आपको उनकी परीक्षा दिलवा दी जाए और आप परीक्षा में पास हो जाएं। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसकी कोई परीक्षा नहीं हो सकती, जीवन में जो भी व्यर्थ है उसी की परीक्षा हो सकती है। इसलिए जो लोग परीक्षाएं पास करके इतरा जाते हैं, वे बिलकुल पागल हैं। क्योंकि परीक्षा तो किसी महत्वपूर्ण तत्व की नहीं हो सकती। परीक्षाएं जहां समाप्त हो जाती हैं वहीं शिक्षा शुरू होती है। जहां तक परीक्षाएं चलती हैं वहां तक आप बचपन में हैं। वे सब बच्चों की बातें हैं। जीवन की प्रौढ़ता बड़ी और बात है।
तो धर्म जाना जा सकता है, सिखाया नहीं जा सकता, कोई दूसरा आपको नहीं सिखा सकता। कोई सिद्धांत, कोई उपदेश आपको धार्मिक नहीं बना सकते हैं। फिर क्या करें? क्या हो? हम बीज बो देते हैं, फिर पौधे को निकालते थोड़े ही हैं बीज से, पौधा निकलता है। हम केवल व्यवस्था जुटा देते हैं, बीज को डाल देते हैं--पानी, खाद और सब जुटा देते हैं, बागुड़ लगा देते हैं; फिर पौधा निकलता है, पौधा निकाला नहीं जाता है। फिर उसमें कलियां आती हैं, कलियां निकाली नहीं जातीं। फिर कलियां फूल बनती हैं, कलियों को फूल बनाया नहीं जाता। बाकी फिर सब होता है। हम सिर्फ अवसर जुटा देते हैं।
धर्म की शिक्षा नहीं हो सकती, धर्म का बीज विकसित हो सके इसका शिक्षालयों में अवसर जुटाया जा सकता है। इसका अवसर जुटाया जा सकता है, इसकी हवा, इसका वातावरण जुटाया जा सकता है। जमीन बनाई जा सकती है और मौका दिया जा सकता है, उसमें कुछ पैदा हो सकता है। इस अवसर जुटाने में कोई दो-तीन तत्व महत्वपूर्ण हो सकते हैं, उनकी मैं थोड़ी सी बात करूंगा।
पहला तत्व तो हैः साहस। अदम्य साहस चाहिए जिसे परमात्मा की खोज करनी हो। हिमालय चढ़ने में कोई बहुत बड़े साहस की जरूरत नहीं है। लेकिन परमात्मा तक जाने में बहुत बड़े साहस की जरूरत है। क्योंकि न तो उससे ऊंचा कोई बिंदु है और न उससे गहरा कोई बिंदु है। लेकिन आमतौर से जिनको हम धार्मिक लोग कहते हैं वे एकदम साहसहीन, बल्कि सच तो यह है कि जैसे-जैसे साहस कम होता है आदमी धार्मिक होता जाता है। बुढ़ापे के करीब आदमी धार्मिक होता है। जैसे-जैसे भय बढ़ने लगता है, मौत करीब आने लगती है, डर लगने लगता है, वैसे-वैसे धार्मिक होने लगता है। मंदिरों में जाइए, चर्चों में जाइए, वहां ऐसे लोग दिखाई पड़ेंगे जो या तो मर गए हैं या मरने के करीब हैं, वे इकट्ठे हैं। और अगर कोई जवान आदमी धर्म का विचार करे तो लोग उसको कहते हैं कि अभी तुम्हारी उम्र है? यानी धर्म की उम्र का मतलब? यानी जब आपकी उम्र न बचे तब धर्म की उम्र शुरू होती है, जब उम्र न बचे। जब एक पैर कब्र में चला जाए तब, तब प्रार्थना कर लेना। और यहां तक बात पहुंच गई है, जिन्होंने उस वक्त भी न कर पाई वे जब मर जाते हैं तो उनके कान में गीता वगैरह सुना देते हैं। जो नहीं कर पाए, दोनों ही पैर चले गए, तो उनको हम कान में सुना देते हैं मरने के बाद।
धर्म भय पर खड़ा नहीं हो सकता। लेकिन अभी भय पर खड़ा है। और इसीलिए दुनिया में कोई क्रांति नहीं हो सकी कि धार्मिकता पैदा हो सके। जो भयभीत है वह कभी धार्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि भयभीत मन खोज करने में समर्थ नहीं रह जाता। अभय चाहिए, फीयरलेसनेस चाहिए, एकदम अभय चाहिए। यानी उस सीमा तक अभय चाहिए कि अगर परमात्मा को भी इनकार करना पड़े तो इनकार किया जा सके। उस सीमा तक, उस सीमा तक अभय चाहिए। इसलिए नास्तिकता को मैं आस्तिकता की पहली सीढ़ी कहता हूं। जो आदमी नास्तिक ही नहीं हो सकता वह कभी आस्तिक नहीं हो सकेगा, कभी आस्तिक नहीं हो सकेगा। नास्तिकता पहली सीढ़ी है। आस्तिकता उसके बाद ही हो सकती है। जो नास्तिक होने के पहले आस्तिक है उसकी आस्तिकता बिलकुल झूठी होगी, बेजान, मुर्दा होगी।
साहस! और सबसे बड़ा साहस कौन सा है? सबसे बड़ा साहस है झूठे ज्ञान को अस्वीकार करने का साहस। अगर तुम्हें पता नहीं है कि ईश्वर है, तो कभी राजी मत होना मानने को कि ईश्वर है। अगर तुम राजी हो गए, फिर जान नहीं पाओगे। राजी मत होना अगर तुम्हें पता नहीं है, अगर तुम्हें पता नहीं है कि ईश्वर है, तो तुम कहना कि मुझे पता नहीं है कि ईश्वर है। चाहे कोई तुम्हें कितना ही झुकाए, चाहे प्रलोभन दे कि स्वर्ग जाओगे अगर ईश्वर को मानोगे, और चाहे भयभीत करे कि नरक भेज देंगे अगर ईश्वर को नहीं मानोगे, तो तुम नरक जाने को राजी हो जाना, स्वर्ग जाने की फिकर छोड़ देना, लेकिन कहना कि मैं अभी जानता नहीं हूं तो मैं अभी मानने को राजी नहीं हो सकता। इतना साहस न हो तो ईश्वर की खोज नहीं हो सकती, धर्म की खोज नहीं हो सकती।
भयभीत लोग क्या करेंगे? भयभीत लोग अपने भय के कारण ही कुछ भी मानने को राजी हो जाते हैं। कुछ भी मानने को राजी हो जाते हैं। सबके भीतर भय है मरने का कि कहीं मर न जाएं। इसलिए जो कौम मरने से जितनी ज्यादा डरती है वह कौम उतनी ही आत्मा की अमरता में विश्वास करने लगती है। हमारी कौम, यहां जितने मरने से डरने वाले लोग हैं जमीन पर और कहीं भी नहीं। तो यह कौम आत्मा की अमरता में खूब निष्ठा रखती है। क्यों? यह निष्ठा कोई आपके ज्ञान के कारण नहीं है, मरने का डर है कि कहीं मर न जाएं, तो कम से कम एक बात तो तय है कि आत्मा अमर है। शरीर मरेगा, मरेगा, हम थोड़े ही मरने वाले हैं, मैं तो बचूंगा। यह जो मरने का भय है यह आपकी आत्मा का विश्वास बना हुआ है। यह विश्वास बिलकुल झूठा है। यह भय पर खड़ा हुआ है। इस विश्वास का कोई भी मूल्य नहीं है। यह विश्वास धार्मिक नहीं है। यह केवल भयभीत रुग्ण-चित्त की आस्था है, सुरक्षा है, सिक्योरिटी है, घबड़ाहट में पकड़ ली गई।
शिक्षा भय को अलग करे, साहस के लिए तैयार करे। पहली बात, अगर धार्मिक जीवन को जन्म देना है, अदम्य साहस पैदा करना पड़े, भय से मुक्त करना पड़े। अभी सारा धर्म भयभीत है, भय से ग्रसित है। सारी हमारी नैतिकता भय पर खड़ी है। चैरस्ते पर पुलिसवाला खड़ा हुआ है और सबसे बड़ा पुलिसवाला हमने परमात्मा खड़ा कर रखा है ऊपर। इधर पुलिसवाला डरवाए हुए है कि चोरी मत करना, उधर परमात्मा डरवाए हुए है कि चोरी मत करना। ये पुलिसवाले और परमात्मा में हमने एक आंतरिक संबंध बना रखा है। यह डरवाता है कि इधर सजा करवा देंगे, और अगर इससे बच गए तो उस बड़े पुलिसवाले से बच ही नहीं सकते, वह नरक भेज देगा। वह वहां आग में डालेगा और यह करेगा...। और इस भय पर जो नीति खड़ी होती है, जो धर्म खड़ा होता है, वह थोथा होता है, झूठा होता है। उसके प्राणों में कोई गति नहीं होती, उसके प्राणों में कोई बल नहीं होता।
तो स्मरण रखना, धर्म का पहला सूत्र हैः अभय। इसलिए भय के कारण किसी सिद्धांत को कभी अंगीकार मत करना, कभी स्वीकार मत करना। अच्छा है अज्ञान में मर जाना, लेकिन झूठे ज्ञान में जीना बहुत बुरा है। क्योंकि जो आदमी झूठे ज्ञान को स्वीकार कर लेता है उसका अज्ञान ढंक जाता है। अज्ञान मिटता नहीं है अज्ञान ढंक जाता है। और जब अज्ञान ढंक जाता है तो ज्ञान की खोज की प्रेरणा नष्ट हो जाती है, फिर कोई प्रेरणा नहीं रह जाती।
अगर मेरे पैर में फोड़ा है और मैं उसे ढांक लूं, तो मुझे दिखाई न पड़े, आपको दिखाई न पड़े, इससे फोड़ा समाप्त नहीं होता। बल्कि न दिखाई पड़ने से फोड़ा फिर अबाध्य गति करता है, निश्चिंत होकर गति करता है, फैलता है शरीर में। हमें पता नहीं है कि ईश्वर है, लेकिन हम माने बैठे हैं कि ईश्वर है, तो वह जो अज्ञान है उसको हमने छिपा लिया। छिपा हुआ अज्ञान खतरनाक है, वह बढ़ता जाएगा, फैलता जाएगा। और यह झूठा ज्ञान किसी काम का नहीं है, किसी काम का नहीं है। अज्ञान को स्वीकार करना अपने और झूठे ज्ञान को कभी स्वीकार मत करना। जो मनुष्य अपने अज्ञान को जानता है अज्ञान उसे चैन नहीं लेने देता, उसे धक्के देता है कि मिटाओ इसे, तोड़ो इसे, आगे बढ़ो और अपने अंधकार को तोड़ो। हम यहां बैठे हैं और हमें पता चल जाए कि मकान में आग लग गई, तो फिर किसी को समझाना पड़ेगा कि बाहर निकलो? उपदेश देने पड़ेंगे? भाषण करने पड़ेंगे यह समझाने के लिए कि बाहर निकलिए मकान में आग लगी है? नहीं, फिर न यहां उपदेशक पाया जाएगा, न सुनने वाले पाए जाएंगे, यहां कोई भी नहीं पाया जाएगा। उन दोनों की मुलाकात बाहर होगी, यहां नहीं होगी।
यह जो जीवन है हमारा इसका अज्ञान अगर हमें दिखाई पड़ने लगे, तो अज्ञान लपटों की भांति चारों तरफ अंधकार, अज्ञान अपने आप गति लाता है कि बाहर निकलो, इसके बाहर उठो। कोई अज्ञान से सहमत होने को राजी नहीं है। झूठे ज्ञान ने लोगों को सहमत बनने के लिए राजी बना दिया है। दुनिया में कोई अज्ञान को सहने को राजी नहीं है। लेकिन झूठे किताबी ज्ञान ने, उपदेशों ने लोगों को राजी बना दिया। अज्ञान को सहमत होने को तैयार कर दिया। हम अपने अज्ञान से सहमत हो जाते हैं।
हमारे इस अज्ञान को रोकने में उन लोगों ने सहायता पहुंचाई हैं जिन्होंने हमें ज्ञान सिखा दिया है। ज्ञान तो सिखाया भी नहीं जा सकता। अज्ञान तोड़ा जा सकता है, ज्ञान सिखाया नहीं जा सकता। और अज्ञान टूट जाने पर जो क्रांति घटित होती है वह ज्ञान है। अज्ञान मिट जाए, तो जो शेष रह जाता है वह ज्ञान है। तो तुम ज्ञान इकट्ठा करने की कोशिश मत करना धर्म के जगत में, विज्ञान के जगत में करना क्योंकि विज्ञान सिर्फ इनफॅार्मेशन है, विज्ञान कोई ज्ञान नहीं है, सिर्फ सूचना है। इसलिए तुम सूचना इकट्ठी करना विज्ञान के जगत में। विज्ञान हमेशा बाहर से सीखा जाएगा, क्योंकि वह सूचना है ज्ञान नहीं है। धर्म कभी बाहर से नहीं सीखा जा सकता, वह सूचना नहीं है, वह ज्ञान है। बाहर से जो भी सिखाया गया है उसे छोड़ देना है। तो शिक्षालय यह कर सकते हैं कि बाहर से सिखाए गए धर्म से छुटकारा दिलवाएं। साहस पैदा करें, हिम्मत दें, अभय बनाएं और युवकों को कहें कि तुम खोजना और उनके अज्ञान का दर्शन कराएं कि तुम अज्ञान में हो।
खोजने के क्या सूत्र हो सकते हैं, मार्ग हो सकते हैं, वे उन्हें बताएं। खोजने का पहला सूत्र हैः अशांत चित्त कभी कुछ खोज नहीं सकता। अशांत चित्त कैसे खोजेगा? अशांत चित्त तो अपनी अशांति में इस भांति आबद्ध हो जाता है कि खोज असंभव हो जाती है। खोज के लिए चाहिए शांत चित्त। खोज के लिए चाहिए मौन चित्त। खोज के लिए चाहिए गहरी शांति। तो चित्त कैसे शांत हो? उसकी दिशा, चित्त कैसे मौन हो? उसकी दिशा, चित्त कैसे निर्विचार हो? उसकी दिशा, इसकी भूमिका शिक्षा में जुटाई जानी चाहिए। अभी तो हम जो कर रहे हैं वह उलटा कर रहे हैं। अभी तो हम मौन होना बिलकुल भी नहीं सिखाते। अभी तो हम विचार से भरते हैं। और जितना जो व्यक्ति विचार से भर जाता है समझते हैं उतना ज्यादा शिक्षित हो गया। इसलिए आपको पता है, जिन मुल्कों में शिक्षा बढ़ती जाती है उन मुल्कों में पागलों की संख्या भी बढ़ती जाती है। क्योंकि अगर, अगर हम विचार ही विचार की शिक्षा दें और मौन की कोई शिक्षा न हो, तो विचार की अति जो तनाव पैदा करेगी, उससे विक्षिप्तता आएगी, उससे पागलपन आएगा। पश्चिम के तो बड़े विचारक, करीब-करीब सभी बड़े विचारक, बड़े कवि, बड़े चित्रकार बिना पागलखाने जाए बिना छूटते नहीं हैं। बल्कि अब तो मुझे ऐसा लगने लगा है, जो पागलखाने नहीं जाता वह थोड़ा मीडियाकर है, वह जीनियस नहीं है, वह प्रतिभाशाली नहीं है। छोटा-मोटा है इसलिए नहीं जाता, बच जाता है। लेकिन बड़ा विचारक तो जाता ही है।
सभ्यताएं जैसे-जैसे विकसित हुई हैं, पागलपन बढ़ा है। यह क्यों? यह विचार का अति टेंशन है। अति तनाव है। हम सिर्फ...एक आदमी को हम सिर्फ चलना, चलना सिखा दें और रुकना न सिखाएं, तो क्या होगा? पागल नहीं हो जाएगा? उसको चलना सिखाएं, रुकना न सिखाएं, ठहरना न सिखाएं, वह चलता रहे, चलता रहे, तो क्या होगा? तो क्या होगा? उसके पैर चलते ही रहें, चलते ही रहें, या तो पागल होगा या मर जाएगा, या थक कर बेहोश होकर गिर जाएगा। हम उसे विश्राम न सिखाएं तो क्या होगा? एक आदमी को हम जागना, जागना ही सिखाएं और सोना न सिखाएं, तो क्या होगा? तो हम विचार, विचार सिखाते हैं, निर्विचार बिलकुल नहीं सिखाते, उसे मौन, साइलेंस बिलकुल नहीं सिखाते, उसका परिणाम क्या होगा? यह विचार की अति मस्तिष्क को इतने तनाव से भर देगी कि उस तनाव का अंतिम परिणाम यही हो सकता है कि उसका मस्तिष्क टूट जाए, स्नायु जवाब दे दें, वह पागल हो जाए। यह हो रहा है। और डर तो यह है कि इतनी तीव्रता से हो रहा है कि पूरी सभ्यता के पागल हो जाने का डर है। पूरा डर है इस बात का कि कहीं पूरी मनुष्य-जाति एक साथ पागल न हो जाए। पता हमको बिलकुल न चलेगा। पता इसलिए नहीं चलेगा कि हम भी उतने पागल, बगल वाला भी उतना पागल, इसलिए पता चलना बहुत कठिन होगा। अभी भी पता नहीं चलता। पता न चलने का कारण यह नहीं है कि अभी कोई हालत बहुत अच्छी है, पता न चलने का कारण है कि सबकी हालत एक जैसी है।
एक गांव में ऐसा हुआ एक बार, एक जादूगर आया और उसने आकर कुएं में कोई पुड़िया डाल दी। गांव में एक ही कुआं था। और उसने कहा कि इसका जो भी पानी पीएगा वह पागल हो जाएगा। गांव भर के लोगों को पानी पीना पड़ा, सिर्फ गांव का जो राजा था उसने नहीं पीया, उसके घर में एक कुआं और था। राजा-रानी और वजीर ने पानी नहीं पीया। लेकिन शाम तक गांव के लोगों को तो पानी पीना ही पड़ा, एक ही कुआं था गांव में। सारा गांव शाम होते-होते पागल हो गया। सारे गांव के लोगों ने सभा की और उन्होंने कहा, मालूम होता है बादशाह का दिमाग खराब हो गया है? क्योंकि बादशाह ने पानी नहीं पीया था उस कुएं का। तो वे गांव भर के लोग जब पागल हो गए तो उन्हें समझ में आया, बादशाह का दिमाग जरूर गड़बड़ हो गया है, क्योंकि हमारे जैसी बातें ही नहीं कर रहा। तो उन्होंने सभा की शाम को कि इस राजा को उतार देना चाहिए, इसका दिमाग खराब हो गया है। किसी ठीक राजा को इसकी जगह बैठाना चाहिए। यह सब गड़बड़ कर देगा, सब डुबा देगा।
राजा बहुत घबड़ाया। महल के आस-पास जनता इकट्ठी हो गई। उसने अपने वजीर से कहा कि क्या करें? वजीर ने कहाः सिवाय एक रास्ता है कि उस कुएं का पानी हम भी पी लें। अगर थोड़ी देर हो गई फिर बचाव मुश्किल हो जाएगा। तो राजा ने जाकर उस कुएं का पानी पी लिया। और उस रात उस गांव में उत्सव मनाया गया कि राजा का दिमाग ठीक हो गया है।
करीब-करीब ऐसी हालत है। और इसीलिए तो जब हमारे बीच कोई एक ठीक दिमाग का आदमी पैदा होता है तो हम उसके साथ बड़ा उलटा व्यवहार करते हैं। क्राइस्ट पैदा होता है, सूली पर लटका देते हैं उसको। सुकरात पैदा होता है, जहर पिला देते हैं। गांधी पैदा होता है, गोली मार देते हैं। यह हमारा व्यवहार है ठीक मस्तिष्क के लोगों के साथ। यह आकस्मिक नहीं है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। हमारे दिमाग खराब हैं। तो शिक्षालय, विद्यापीठ विचार ही न सिखाएं, मौन सिखाएं, मौन की दिशा में अग्रसर करें, थोड़ी देर के लिए निर्विचार होना सिखाएं। मस्तिष्क का श्रम ही नहीं, मस्तिष्क का विश्राम भी। और बड़े मजे की बात है कि जीवन का जो भी गहरा अनुभव है वह जब मस्तिष्क विश्राम करता है तब उत्पन्न होता है। क्योंकि तब उस शांति में, उस मौन में ही वह जाना जाता है जो हमें घेरे हुए है। जो हमारे भीतर है और हमारे बाहर है। जीवन में जो भी शुभ है, सुंदर है और सत्य है वह मौन में है, एकांत में और शांति में ही जाना गया है। तो उस दिशा में हम गति दें। उस दिशा में जब गति मिलेगी, साहस और निर्भयता और खोज की अदम्य इच्छा, जिज्ञासा, संदेह अगर ये सारी बातें हम युवकों को दे सकें, तो धर्म की दिशा में उनकी आंखें उठनी शुरू हो जाएंगी। ऐसी स्थिति में ही धर्म और शिक्षा का संबंध हो सकता है।
मैं समझता हूं मेरी इन बातों को थोड़ा समझने का प्रयास करेंगे, क्योंकि मैं यह तो नहीं कह सकता कि मेरी बातें मान लें। क्योंकि अगर मैं यह कहूं तो मैं फिर पुराना धार्मिक हो गया। जो आपसे यह कहूं कि मेरी बातें मान लें, विश्वास कर लें मैंने जो कहा, जो भी आपसे यह कहता हो कि मेरी बातों का विश्वास कर लें, उसे शत्रु समझना, वह आपका मित्र नहीं है। जो भी आपसे कहता हो, मेरी बातों को मान लेना, वह खतरनाक है। तो मैं आपसे निवेदन करूंगा कि मैंने जो कहा, इस पर विचार करना, संदेह करना, इस पर सोचना, इस पर विचार करना; अगर इसमें से कोई चीज ठीक लगे वह इसलिए मत मानना कि किसी ने आपसे कही है, वह इसलिए मानना कि वह आपको ठीक लगी है। और उसको भी उस समय तक ही मानना जब तक ठीक लगे, और जिस क्षण भी वह गलत लगे उसे छोड़ने का साहस रखना, उसी वक्त छोड़ने का साहस रखना। इस भांति जो व्यक्ति विचार करता है, खोजता है, निर्णय लेता है उसके जीवन में विकास होता है, गति होती है। और यह बात असत्य है कि विश्वास और श्रद्धा से धर्म मिलता है, यह एकदम असत्य है। विचार, विवेक, शोध और अनुसंधान से धर्म मिलता है। और जिनको विश्वास से मिल जाता हो, तो वे काहिल और सुस्त लोग होंगे, जो खुद नहीं खोजना चाहते और किसी की बात को पकड़ कर निशिं्चत हो जाते हैं। वे भी बाजार जाते हैं, दो पैसे की हंडियां खरीदते हैं, तो उसको भी बजाते हैं, लेकिन परमात्मा को बिना बजाए स्वीकार कर लेते हैं। बेईमान हैं, आलसी हैं, सुस्त हैं, खुद खोज करने की श्रम से बचना चाहते हैं।
और स्मरण रखें, दूसरों की आंखों से कोई कभी भी नहीं देख सकता, अपनी आंख चाहिए। मेरी आंख से आप नहीं देख सकते, आपकी आंख से मैं नहीं देख सकता हूं। लेकिन उपदेशकों के हित में यही है, पुरोहितों के हित में यही है, वे कहें तुम्हें आंखों की क्या जरूरत है, हमारे पास आंखें हैं, हमारी आंखों से देख लो। उनके लिए हित में है, क्योंकि लोग जितना ज्यादा अंधे होंगे उतनी ही बड़ी भीड़ उनके पीछे खड़ी होगी। और लोग जितने भेड़ों की भांति होंगे उतना ही ज्यादा उनका अनुगमन होगा और शोषण होगा। धर्म मनुष्य को विवेक और तेजयुक्त बनाता है। और यह तथाकथित धर्म उसको विवेकहीन, तेजशून्य और भेड़ जैसा बना देते हैं।
एक अध्यापक ने मुझे कहाः उन्होंने अपने गांव के एक छोटे से स्कूल में बच्चों से पूछा कि एक बगिया के भीतर ग्यारह भेड़ें बंद हैं, अगर उनमें से पांच छलांग लगा कर बाहर निकल जाएं, पीछे कितनी बचेंगी? एक छोटे से बच्चे ने कहा कि बिलकुल भी नहीं। उन्होंने कहाः तू कैसा पागल है? ग्यारह भेड़ें बंद हैं, पांच छलांग लगाएंगी, तो कितनी बचेंगी? तो उस बच्चे ने कहाः आप गणित जानते होंगे, मैं भेड़ों को जानता हूं, भेड़ें मेरे घर में हैं, एक भी नहीं बचेगी। क्योंकि जहां पांच गईं, वहां बाकी छह भी चली जाएंगी, पीछे कोई बचने वाली नहीं। उसने कहाः आप गणित जानते होंगे, मैं भेड़ों को जानता हूं। गणित का मुझे पता नहीं, लेकिन भेड़ एक न बचेगी पीछे।
ये सारे धर्मशास्त्री, धर्म-पुरोहित, यह हिंदू और मुसलमान और मंदिर और मस्जिद वाले लोग चाहते हैं, मनुष्य न हो दुनिया में, भेड़ें हों। राजनीतिज्ञ भी यही चाहते हैं कि भेड़ें हों, दुनिया के तथाकथित सभी तरह के नेता चाहे वे धर्म के नेता हों, चाहे वे राज्य के नेता हों, सभी चाहते हैं कि भेड़ें हों। क्योंकि भेड़ें अनुगमन करने में बड़ी कुशल होती हैं और कभी इनकार नहीं करतीं। ये जितने भी शोषण करने वाले लोग हैं, वे सभी यही चाहते हैं।
तो मैं आपसे निवेदन करूंगाः अगर धार्मिक बनना है तो भेड़ कभी मत बनना। किसी की भी भेड़ मत बनना। तो ही खुद का विवेक मुक्त होगा, खुद की आंख जगेगी। न तो किसी के अनुयायी बनने की जरूरत है और न किसी को अपना अनुयायी बनाने की जरूरत है। धर्म की खोज एक-एक मनुष्य की वैयक्तिक खोज है। कोई सामुहिक उपक्रम नहीं है। प्रेम मैं अकेला करता हूं, न किसी का अनुगमन करता हूं, न किसी को नेता मानता हूं। प्रार्थना भी मैं अकेला ही करूंगा, परमात्मा भी मैं अकेला ही खोजूंगा। इतने साहस से, इतनी हिम्मत से, इतने आत्म-विश्वास से जो गति करता है, वह एक दिन जरूर उसको पा लेता है जो पा लेने जैसा है। उसे कैसे हम पा सकते हैं, उसके संबंध मेें कुछ और मैं संध्या बात करूंगा।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बेठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार 

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