योग: नये आयाम-(योग)
पहला प्रवचन
जगत--एक परिवार
योग एक विज्ञान है, कोई शास्त्र नहीं है। योग का इस्लाम, हिंदू, जैन या ईसाई से कोई संबंध नहीं है।लेकिन चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद, चाहे पतंजलि, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, कोई भी व्यक्ति जो सत्य को उपलब्ध हुआ है, बिना योग से गुजरे हुए उपलब्ध नहीं होता। योग के अतिरिक्त जीवन के परम सत्य तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। जिन्हें हम धर्म कहते हैं वे विश्वासों के साथी हैं। योग विश्वासों का नहीं है, जीवन सत्य की दिशा में किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों की सूत्रवत प्रणाली है।
इसलिए पहली बात मैं आपसे कहना चाहूंगा वह यह कि योग विज्ञान है, विश्वास नहीं। योग की अनुभूति के लिए किसी तरह की श्रद्धा आवश्यक नहीं है। योग के प्रयोग के लिए किसी तरह के अंधेपन की कोई जरूरत नहीं है। नास्तिक भी योग के प्रयोग में उसी तरह प्रवेश पा सकता है जैसे आस्तिक। योग नास्तिक-आस्तिक की भी चिंता नहीं करता है।
विज्ञान आपकी धारणाओं पर निर्भर नहीं होता; विपरीत, विज्ञान के कारण आपको अपनी धारणाएं परिवर्तित करनी पड़ती हैं। कोई विज्ञान आपसे किसी प्रकार के बिलीफ, किसी तरह की मान्यता की अपेक्षा नहीं करता है। विज्ञान सिर्फ प्रयोग की, एक्सपेरिमेंट की अपेक्षा करता है।
विज्ञान कहता है, करो, देखो। विज्ञान के सत्य चूंकि वास्तविक सत्य हैं, इसलिए किन्हीं श्रद्धाओं की उन्हें कोई जरूरत नहीं होती है। दो और दो चार होते हैं, माने नहीं जाते। और कोई न मानता हो तो खुद ही मुसीबत में पड़ेगा; उससे दो और दो चार का सत्य मुसीबत में नहीं पड़ता है।
विज्ञान मान्यता से शुरू नहीं होता; विज्ञान खोज से, अन्वेषण से शुरू होता है। वैसे ही योग भी मान्यता से शुरू नहीं होता; खोज, जिज्ञासा, अन्वेषण से शुरू होता है। इसलिए योग के लिए सिर्फ प्रयोग करने की शक्ति की आवश्यकता है, प्रयोग करने की सामर्थ्य की आवश्यकता है, खोज के साहस की जरूरत है; और कोई भी जरूरत नहीं है।
योग विज्ञान है, जब ऐसा कहता हूं, तो मैं कुछ सूत्र की आपसे बात करना चाहूं, जो योग-विज्ञान के मूल आधार हैं। इन सूत्रों का किसी धर्म से कोई संबंध नहीं है, यद्यपि इन सूत्रों के बिना कोई भी धर्म जीवित रूप से खड़ा नहीं रह सकता है। इन सूत्रों को किसी धर्म के सहारे की जरूरत नहीं है, लेकिन इन सूत्रों के सहारे के बिना धर्म एक क्षण भी अस्तित्व में नहीं रह सकता है।
योग का पहला सूत्रः योग का पहला सूत्र है कि जीवन ऊर्जा है, लाइफ इ.ज एनर्जी। जीवन शक्ति है।
बहुत समय तक विज्ञान इस संबंध में राजी नहीं था; अब राजी है। बहुत समय तक विज्ञान सोचता थाः जगत पदार्थ है, मैटर है। लेकिन योग ने विज्ञान की खोजों से हजारों वर्ष पूर्व से यह घोषणा कर रखी थी कि पदार्थ एक असत्य है, एक झूठ है, एक इल्यूजन है, एक भ्रम है। भ्रम का मतलब यह नहीं कि नहीं है। भ्रम का मतलबः जैसा दिखाई पड़ता है वैसा नहीं है और जैसा है वैसा दिखाई नहीं पड़ता है। लेकिन विगत तीस वर्षों में विज्ञान को एक-एक कदम योग के अनुरूप जुट जाना पड़ा है।
अठारहवीं सदी में वैज्ञानिकों की घोषणा थी कि परमात्मा मर गया है, आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, पदार्थ ही सब कुछ है। लेकिन विगत तीस वर्षों में ठीक उलटी स्थिति हो गई है। विज्ञान को कहना पड़ा कि पदार्थ है ही नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। ऊर्जा ही सत्य है, शक्ति ही सत्य है। लेकिन शक्ति की तीव्र गति के कारण पदार्थ का भास होता है।
दीवालें दिखाई पड़ रही हैं एक, अगर निकलना चाहेंगे तो सिर टूट जाएगा। कैसे कहें कि दीवालें भ्रम हैं? स्पष्ट दिखाई पड़ रही हैं, उनका होना है। पैरों के नीचे जमीन अगर न हो तो आप खड़े कहां रहेंगे?
नहीं, इस अर्थों में नहीं विज्ञान कहता है कि पदार्थ नहीं है। इस अर्थों में कहता है कि जो हमें दिखाई पड़ रहा है, वैसा नहीं है।
अगर हम एक बिजली के पंखे को बहुत तीव्र गति से चलाएं तो उसकी तीन पंखुड़ियां तीन दिखाई पड़नी बंद हो जाएंगी। क्योंकि पंखुड़ियां इतनी तेजी से घूमेंगी कि उनके बीच की खाली जगह, इसके पहले कि आप देख पाएं, भर जाएगी। इसके पहले कि खाली जगह आंख की पकड़ में आए, कोई पंखुड़ी खाली जगह पर आ जाएगी। अगर बहुत तेज बिजली के पंखे को घुमाया जाए तो आपको टीन का एक गोल वृत्त घूमता हुआ दिखाई पड़ेगा, पंखुड़ियां दिखाई नहीं पड़ेंगी। आप गिनती करके नहीं बता सकेंगे कि कितनी पंखुड़ियां हैं। अगर और तेजी से घुमाया जा सके तो आप पत्थर फेंक कर पार नहीं निकाल सकेंगे, पत्थर इसी पार गिर जाएगा। अगर और तेज घुमाया जा सके, जितनी तेजी से परमाणु घूम रहे हैं, अगर उतनी तेजी से बिजली के पंखे को घुमाया जा सके, तो आप मजे से उसके ऊपर बैठ सकते हैं, आप गिरेंगे नहीं। और आपको पता भी नहीं चलेगा कि पंखुड़ियां नीचे घूम रही हैं। क्योंकि पता चलने में जितना वक्त लगता है, उसके पहले नई पंखुड़ी आपके नीचे आ जाएगी। आपके पैर खबर दें आपके सिर को कि पंखुड़ी बदल गई, इसके पहले दूसरे पंखुड़ी आ जाएगी। बीच के गैप, बीच के अंतराल का पता न चले तो आप मजे से खड़े रह सकेंगे।
ऐसे ही हम खड़े हैं अभी भी। अणु तीव्रता से घूम रहे हैं, उनके घूमने की गति तीव्र है इसलिए चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं। जगत में कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। और जो चीजें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं, वे सब चल रही हैं।
अगर वे चीजें ही होती चलती हुई तो भी कठिनाई न थी। जितना ही विज्ञान परमाणु को तोड़ कर नीचे गया तो उसे पता चला कि परमाणु के बाद तो फिर पदार्थ नहीं रह जाता, सिर्फ ऊर्जा कण, इलेक्ट्रांस रह जाते हैं, विद्युत कण रह जाते हैं। उनको कण कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कण से पदार्थ का ख्याल आता है। इसलिए अंग्रेजी में एक नया शब्द उन्हें गढ़ना पड़ा, उस शब्द का नाम क्वांटा है। क्वांटा का मतलब हैः कण भी, कण नहीं भी; कण भी और लहर भी, एक साथ। विद्युत की तो लहरें हो सकती हैं, कण नहीं हो सकते। शक्ति की लहरें हो सकती हैं, कण नहीं हो सकते। लेकिन हमारी भाषा पुरानी है, इसलिए हम कण कहे चले जाते हैं। ऐसे कण जैसी कोई भी चीज नहीं है। अब विज्ञान की नजरों में यह सारा जगत ऊर्जा का, विद्युत की ऊर्जा का विस्तार है।
योग का पहला सूत्र यही हैः जीवन ऊर्जा है, शक्ति है।
दूसरा सूत्र योग काः शक्ति के दो आयाम हैं--एक अस्तित्व और एक अनस्तित्व; एक्झिस्टेंस और नॉन-एक्झिस्टेंस।
शक्ति अस्तित्व में भी हो सकती है और अनस्तित्व में भी हो सकती है। अनस्तित्व में जब शक्ति होती है तो जगत शून्य हो जाता है और जब अस्तित्व में होती है तो सृष्टि का विस्तार हो जाता है। जो भी चीज है, योग मानता है, वह नहीं है भी हो सकती है। जो भी है, वह न होने में भी समा सकती है। जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु है। जिसका होना है, उसका न होना है। जो दिखाई पड़ती है, वह न दिखाई पड़ सकती है।
योग का मानना है, इस जगत में प्रत्येक चीज दोहरे आयाम की है, डबल डायमेंशन की है। इस जगत में कोई भी चीज एक-आयामी नहीं है।
हम ऐसा नहीं कह सकते कि एक आदमी पैदा हुआ और फिर नहीं मरा। हम कितना ही लंबाएं उसके जीवन को, फिर-फिर कर हमें पूछना पड़ेगा कि कभी तो मरा होगा, कभी तो मरेगा। ऐसा कंसीव करना, ऐसी धारणा भी बनानी असंभव है कि एक छोर हो जन्म का और दूसरा छोर मृत्यु का न हो। दूर हो, कितना ही दूर हो, अंतहीन मालूम पड़े दूरी, लेकिन दूसरा छोर अनिवार्य है। एक छोर के साथ दूसरा छोर वैसे ही अनिवार्य है, जैसे एक सिक्के के दो पहलू अनिवार्य हैं। अगर एक ही पहलू का कोई सिक्का हो सके... तो असंभव मालूम होता है, यह नहीं हो सकता है। दूसरा पहलू होगा ही! क्योंकि एक पहलू होने के लिए ही दूसरे पहलू को होना पड़ेगा।
विज्ञान का, योग-विज्ञान का दूसरा सूत्र हैः प्रत्येक चीज दोहरे आयाम की है। होने का एक आयाम है, एक्झिस्टेंस का; नॉन-एक्झिस्टेंस का दूसरा आयाम है, न होने का।
जगत है, जगत नहीं भी हो सकता है। हम हैं, हम नहीं भी हो सकते हैं। जो भी है, वह नहीं हो सकता है। नहीं होने का आप यह मतलब मत लेना कि कोई दूसरे रूप में हो जाएगा। बिल्कुल नहीं भी हो सकता है। अस्तित्व एक पहलू है, अनस्तित्व दूसरा पहलू है।
सोचना कठिन मालूम पड़ता है कि नहीं होने से होना कैसे निकलेगा? होना, नहीं होने में कैसे प्रवेश कर जाएगा? लेकिन अगर हम जीवन को चारों ओर देखें तो हमें पता चलेगा कि प्रतिपल, जो नहीं है, वह हो रहा है; जो है, वह नहीं होने में खो रहा है।
यह सूर्य है हमारा। यह रोज ठंडा होता जा रहा है। इसकी किरणें शून्य में खोती जा रही हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि चार हजार वर्ष तक और गरम रह सकेगा। चार हजार वर्षों में इसकी सारी किरणें शून्य में खो जाएंगी, तब यह भी शून्य हो जाएगा।
अगर शून्य में किरणें खो सकती हैं तो फिर शून्य से किरणें आती भी होंगी, अन्यथा सूर्यों का जन्म कैसे होगा? विज्ञान कहता है कि हमारा सूर्य मर रहा है, लेकिन दूसरे सूर्य दूसरे छोरों पर पैदा हो रहे हैं। वे कहां से पैदा हो रहे हैं? वे शून्य से पैदा हो रहे हैं।
वेद कहते हैं कि जब कुछ नहीं था। उपनिषद भी बात करते हैं उस क्षण की जब कुछ नहीं था। बाइबिल भी बात करती है उस क्षण की जब कुछ नहीं था, ना-कुछ ही था, नथिंगनेस ही थी। उस ना-कुछ से होना पैदा होता है और होना प्रतिपल ना-कुछ में लीन होता चला जाता है। अगर हम पूरे अस्तित्व को एक समझें तो इस अस्तित्व के निकट ही हमें अनस्तित्व को भी स्वीकार करना पड़ेगा।
योग का दूसरा सूत्र हैः प्रत्येक अस्तित्व के पीछे अनस्तित्व जुड़ा है।
तो शक्ति के दो आयाम हैंः अस्तित्व और अनस्तित्व। शक्ति हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है, न में भी खो सकती है। इसलिए योग मानता है, सृष्टि सिर्फ एक पहलू है, प्रलय दूसरा पहलू है। ऐसा नहीं है कि सब कुछ सदा रहेगा; खोएगा, शून्य भी हो जाएगा। फिर-फिर होता रहेगा, खोता रहेगा। जैसे एक बीज को तोड़ कर देखें, तो कहीं किसी वृक्ष का कोई पता नहीं चलता। कितना ही खोजें, वृक्ष की कहीं कोई खबर नहीं मिलती। लेकिन फिर इस छोटे से बीज से वृक्ष आता जरूर है। कभी हमने नहीं सोचा कि बीज में जो कभी भी नहीं मिलता है, वह कहां से आता है? और इतने छोटे से बीज में इतने बड़े वृक्ष का छिपा होना?
फिर वह वृक्ष बीजों को जन्म देकर फिर खो जाता है। ठीक ऐसे ही पूरा अस्तित्व बनता है, खोता है। शक्ति अस्तित्व में आती है और अनस्तित्व में चली जाती है।
अनस्तित्व को पकड़ना बहुत कठिन है। अस्तित्व तो हमें दिखाई पड़ता है। इसलिए योग की दृष्टि से, जो सिर्फ अस्तित्व को मानता है, जो समझता है कि अस्तित्व ही सब कुछ है, वह अधूरे को देख रहा है। और अधूरे को जानना ही अज्ञान है। अज्ञान का अर्थ न जानना नहीं है, अज्ञान का अर्थ अधूरे को जानना है। जानते तो हम हैं ही, अगर हम इतना भी जानते हैं कि मैं नहीं जानता, तो भी मैं जानता तो हूं ही। जानना तो हममें है ही। इसलिए अज्ञान का अर्थ न जानना नहीं है। अज्ञानी से अज्ञानी भी कुछ जानता ही है। अज्ञान का अर्थ--योग की दृष्टि में--आधे को जानना है।
और ध्यान रहे, आधा सत्य असत्य से बदतर होता है। क्योंकि असत्य से छुटकारा संभव है, आधे सत्य से छुटकारा बहुत मुश्किल होता है। क्योंकि वह सत्य भी मालूम पड़ता है और सत्य होता भी नहीं। प्रतीत भी होता है कि सत्य है और सत्य होता भी नहीं। अगर असत्य हो पूरा का पूरा, निखालिस असत्य हो, तो उससे छूटने में देर नहीं लगेगी। लेकिन अधूरा, आधा सत्य हो, तो उससे छूटना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
और भी एक कारण है कि सत्य जैसी चीज आधी नहीं की जा सकती, आधी करने से मर जाती है। क्या आप अपने प्रेम को आधा कर सकते हैं? क्या आप ऐसा कह सकते हैं किसी से कि मैं तुम्हें आधा प्रेम करता हूं?
या तो प्रेम करेंगे या नहीं करेंगे। आधा प्रेम संभव नहीं है।
क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि मैं आधी चोरी करता हूं? हो सकता है, आधे रुपये की चोरी करते हों। लेकिन आधे रुपये की चोरी पूरी ही चोरी है। लाख रुपये की चोरी भी पूरी चोरी है। आधे पैसे की चोरी भी पूरी चोरी है। चोरी आधी नहीं की जा सकती। आधी चीजों की की जा सकती है। लेकिन चोरी आधी नहीं हो सकती।
आधा! आधे का अर्थ ही यह है कि आप किसी भ्रम में हैं।
तो योग कहता है, जो लोग सिर्फ अस्तित्व को देखते हैं, वे आधे को पकड़े हैं। और आधे को जो पकड़ता है, वह भ्रम में जीता है, वह अज्ञान में जीता है। उसका दूसरा पहलू भी है। जो आदमी कहता है कि मैं जन्म तो लिया हूं, लेकिन मरना नहीं चाहता। वह आदमी आधे को पकड़ रहा है। दुख पाएगा, अज्ञान में जीएगा। और कुछ भी करे, मौत आएगी ही, क्योंकि आधे को काटा नहीं जा सकता है। जन्म को स्वीकार किया है तो मौत उसका आधा हिस्सा है, वह साथ ही जुड़ा है। जो आदमी कहता है, मैं सुख को ही चुनूंगा, दुख को नहीं। वह फिर भूल में पड़ रहा है। योग कहता है, तुम आधे को चुन कर ही गलती में पड़ते हो। दुख सुख का ही दूसरा हिस्सा है। वह आधा हिस्सा है। इसलिए जो आदमी सुखी होना चाहता है, उस आदमी को दुखी होना ही पड़ेगा। जो आदमी शांत होना चाहता है, उसे अशांत होना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है।
योग कहता है, आधे को छोड़ देना ही अज्ञान है। वह उसका ही हिस्सा है।
लेकिन हम देखते नहीं पूरे को! जो पहलू हमें दिखाई पड़ता है उसे हम पकड़ लेते हैं और दूसरे पहलू को इनकार किए चले जाते हैं। बिना यह समझे कि जब हमने आधे को पकड़ लिया है तो आधा पीछे प्रतीक्षा कर रहा है, मौजूद है, अवसर की खोज कर रहा है, जल्दी ही प्रकट हो जाएगा।
योग कहता है कि ऊर्जा के दो रूप हैं। और जो दोनों ही रूप को समझ लेता है, वह योग में गति कर पाता है। जो एक रूप को, आधे को पकड़ लेता है, वह अयोगी हो जाता है। जिसको हम भोगी कहते हैं, वह आधे को पकड़े हुए आदमी का नाम है। जिसे हम योगी कहते हैं, वह पूरे को पकड़े हुए का नाम है।
योग का मतलब ही होता है--दि टोटल। योग का मतलब होता है--जोड़। गणित की भाषा में भी योग का मतलब जोड़ होता है। अध्यात्म की भाषा में भी योग का मतलब होता है--इंटीग्रेटेड, दि टोटल, पूरा, समग्र।
भोगी हम उसे नहीं कहते जो योग का दुश्मन है; भोगी हम उसे कहते हैं जो आधे को पकड़ता और आधे को पूरा मान कर जीता है। योगी पूरे को जान लेता है, इसलिए फिर पकड़ता ही नहीं।
यह भी बड़े मजे की बात है! पकड़ने वाले सदा आधे को ही पकड़ने वाले होते हैं, पूरे को जान लेने वाला पकड़ता नहीं। जिसको यह दिखाई पड़ गया कि जन्म के साथ मृत्यु है, अब वह किसलिए जन्म को पकड़े? और वह मृत्यु को भी क्यों पकड़े? क्योंकि वह जानता है मृत्यु के साथ जन्म है। जो जानता है कि सुख के साथ दुख है, वह सुख को क्यों पकड़े? और वह दुख को भी क्यों पकड़े, क्योंकि वह जानता है दुख के साथ सुख है। असल में वह जानता है, सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दो चीजें नहीं, एक ही चीज के दो आयाम हैं, दो डायमेंशन हैं। इसलिए योगी, पकड़ने के बाहर हो जाता है, क्लिंगिंग के बाहर हो जाता है।
दूसरा सूत्र ठीक से समझ लेना जरूरी है कि ऊर्जा, शक्ति के दो रूप हैं। और हम सब एक रूप को पकड़ने की कोशिश में लगे होते हैं। कोई जवानी को पकड़ता है, तो फिर बुढ़ापे का दुख पाता है। वह जानता नहीं कि जवानी का दूसरा हिस्सा बुढ़ापा है। असल में जवानी का मतलब है, वह स्थिति जो बूढ़ी हुई जा रही है। जवानी का मतलब है, बुढ़ापे की यात्रा। बूढ़ा आदमी उतने जोर से बूढ़ा नहीं होता, ध्यान रखना, जितने जोर से जवान बूढ़ा होता है। बूढ़ा आदमी धीरे-धीरे बूढ़ा होने लगता है, जवान तेजी से बूढ़ा होता है। जवानी का मतलब ही बूढ़े होने की ऊर्जा है। बूढ़े का मतलब बीत गई जवानी की ऊर्जा है, चुक गई जवानी की ऊर्जा है। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक घर के बाहर का दरवाजा है, एक घर के पीछे का दरवाजा है।
जन्म और मृत्यु, सुख और दुख; जीवन के सभी द्वंद्व--अस्तित्व-अनस्तित्व, आस्तिक-नास्तिक। वे भी आधे-आधे को पकड़ते हैं। इसलिए योग की दृष्टि में दोनों ही अज्ञानी हैं। आस्तिक कहता है कि भगवान बस है। आस्तिक सोच भी नहीं सकता कि भगवान का न होना भी हो सकता है। लेकिन यह बड़ा कमजोर आस्तिक है, क्योंकि यह भगवान को नियम के बाहर कर रहा है। नियम तो सभी चीजों पर एक सा लागू है। भगवान अगर है तो उसका न होना भी होगा।
नास्तिक उसके दूसरे हिस्से को पकड़े है। वह कहता है, भगवान नहीं है।
लेकिन जो चीज नहीं है, वह हो सकती है। और इतने जोर से कहना कि नहीं है, इस डर की सूचना देता है कि उसके होने का भय है। अन्यथा, नहीं है कहने की कोई जरूरत नहीं है। जब एक आस्तिक कहता है कि नहीं, भगवान है ही, और लड़ने को तैयार हो जाता है, तब वह भी खबर दे रहा है कि भगवान के भी न हो जाने का डर उसे है। अन्यथा क्या बिगड़ता है! कोई कहता है नहीं है तो कहे।
आस्तिक लड़ने को तैयार है, क्योंकि वह भगवान का एक हिस्सा पकड़ रहा है। वह वही की वही बात है, चाहे अपना जन्म पकड़ो और चाहे भगवान का होना पकड़ो, लेकिन दूसरे हिस्से को इनकार किया जा रहा है।
योग कहता हैः दोनों हैं, होना और न होना साथ ही साथ हैं।
इसलिए योगी नास्तिक को भी कहता है कि तुम भी आ जाओ, क्योंकि आधा सत्य है तुम्हारे पास; आस्तिक को भी कहता है, तुम भी आ जाओ, क्योंकि आधा सत्य ही है तुम्हारे पास और आधे सत्य असत्य से भी खतरनाक हैं।
दूसरा सूत्र हैः द्वंद्व के बीच शक्ति का विस्तार है।
अंधेरे और प्रकाश के बीच एक ही चीज का विस्तार है, दो चीजें नहीं हैं। लेकिन हमें लगता है दो चीजें हैं। वैज्ञानिक से पूछें! वह कहेगा, दो नहीं हैं। वह कहेगा, जिसे हम अंधेरा कहते हैं, वह सिर्फ कम प्रकाश का नाम है। और जिसे हम प्रकाश कहते हैं, वह कम अंधेरे का नाम है। डिग्रीज का फर्क है।
इसलिए रात में, पक्षी हैं जिनको दिखाई पड़ता है। अंधेरा है आपका, उनके लिए अंधेरा नहीं है। क्यों? उनकी आंखें उतने धीमे प्रकाश को भी पकड़ने में समर्थ हैं।
ऐसा नहीं है कि धीमा प्रकाश ही पकड़ में नहीं आता, बहुत तेज प्रकाश भी आंख की पकड़ में नहीं आता। अगर बहुत तेज प्रकाश आपकी आंख पर डाला जाए, आंख तत्काल अंधी हो जाएगी, देख नहीं पाएगी। देखने की एक सीमा है। उसके नीचे भी अंधकार है, उसके ऊपर भी अंधकार है। बस एक छोटी सी सीमा है, जहां हमें प्रकाश दिखाई पड़ता है। लेकिन जिसे हम अंधकार कहते हैं, वह भी प्रकाश की तारतम्यताएं हैं, वे भी डिग्रीज हैं। उनमें जो अंतर है, क्वालिटेटिव नहीं है, क्वांटिटेटिव है। गुण का कोई अंतर नहीं है, सिर्फ परिमाण का अंतर है।
गरमी और सर्दी पर कभी ख्याल किया है? हम समझते हैं, दो चीजें हैं। नहीं, दो चीजें नहीं हैं। गरमी-सर्दी से समझना बहुत आसान पड़ेगा। लेकिन हम कहेंगे, दो चीजें नहीं हैं? जब गरमी बरसती है सूरज की तब हम कैसे मान लें कि यह वही है? जब शीतल छाया में बैठते हैं, तो शीतल छाया को हम कैसे सूरज की गरमी मान लें?
नहीं, मैं नहीं कह रहा हूं कि आप एक मान कर शीतल छाया में बैठना छोड़ दें। मैं इतना ही कह रहा हूं कि जिसे आप शीतल छाया कह रहे हैं, वह गरमी की ही कम मात्रा है। और जिसे आप सख्त धूप कह रहे हैं, वह शीतलता की ही कम हो गई मात्रा है।
कभी ऐसा करें कि एक हाथ को स्टोव के पास रख कर गरम कर लें और एक को बर्फ पर रख कर ठंडा कर लें और फिर दोनों हाथों को एक बाल्टी भरे पानी में डाल दें। तब आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे कि बाल्टी का पानी गरम है या ठंडा! एक हाथ कहेगा, ठंडा है। एक हाथ कहेगा, गरम है।
अब एक ही बाल्टी का पानी दोनों नहीं हो सकता। और आपके दोनों हाथों में से दो खबरें आ रही हैं! जो हाथ ठंडा है उसे पानी गरम मालूम होगा, जो हाथ गरम है उसे पानी ठंडा मालूम होगा। ठंडक और गरमी रिलेटिव हैं, सापेक्ष हैं।
योग का दूसरा सूत्र हैः जीवन और मृत्यु, अस्तित्व-अनस्तित्व, अंधकार-प्रकाश, बचपन-बुढ़ापा, सुख-दुख, सर्दी-गरमी, सब रिलेटिविटीज हैं, सब सापेक्षताएं हैं। ये सब एक ही चीज के नाम हैं। बुराई-भलाई... ।
यहां जरा कठिनाई हो सकती है। क्योंकि ठंडक और गरमी को मान लेना बहुत आसान है, एक सी होंगी, कुछ हर्ज भी नहीं होता। लेकिन राम और रावण, तो जरा अड़चन हो सकती है। मन कहेगा, ऐसा कैसा हो सकता है? लेकिन राम और रावण भी तारतम्यताएं हैं, वे भी दो विरोधी चीजें नहीं हैं, एक ही चीज का कम-ज्यादा होना है। राम में रावण जरा कम है, रावण में राम जरा कम है, बस इतना ही। इसलिए जो रावण को प्रेम करे, उसमें उसे राम दिखाई पड़ सकता है। और जो राम की दुश्मनी करे, उनमें भी रावण दिखाई पड़ सकता है। वे तारतम्यताएं हैं। तो जिसे हम प्रेम करते हैं उसमें राम दिखाई पड़ने लगता है, जिसे हम नहीं प्रेम करते उसमें रावण दिखाई पड़ने लगता है। राम में भी बुरा देखने वाले लोग मिल जाएंगे, रावण में भी भला देखने वालों की कोई कमी नहीं है। तारतम्यताएं हैं। आपके हाथ पर निर्भर करेगा। राम और रावण को अगर एक ही बाल्टी में रखा जा सके तो आसानी हो। लेकिन रखना मुश्किल है। अच्छाई और बुराई भी योग की दृष्टि में एक ही चीज के भेद हैं।
इसका यह मतलब नहीं कि आप बुरे हो जाएं। इसका यह मतलब नहीं है कि आप अच्छाई छोड़ दें। योग का कुल कहना इतना है कि अगर अच्छाई को जोर से पकड़ा, तो ध्यान रखना, दूसरे पहलू पर बुराई भी पकड़ में आ जाएगी। अच्छा आदमी बुरा होने से नहीं बच सकता। और बुरा आदमी अच्छे होने से नहीं बच सकता।
इसलिए अच्छे से अच्छे आदमी को अगर थोड़ा उधेड़ कर देखेंगे तो बुरा आदमी भीतर बैठा मिल जाएगा। और बुरे से बुरे आदमी को जरा तलाश करेंगे तो अच्छा आदमी भीतर बैठा मिल जाएगा। यह बड़े मजे की बात है कि अगर हम अच्छे आदमियों के सपनों की जांच-पड़ताल करें तो वे बुरे सिद्ध होंगे। सब अच्छे आदमी आमतौर से बुरे सपने देखते हैं। जिसने दिन में चोरी से अपने को बचाया, वह रात में चोरी कर लेता है। कंपनसेशन करना पड़ता है न! वह जो दूसरा हिस्सा है वह कहां जाएगा? जिसने दिन में उपवास किया, वह रात राजमहल में निमंत्रित हो जाता है, भोजन कर लेता है। जो दिन भर सदाचारी था, रात में वासना के स्वप्न उसे घेर लेते हैं।
इसलिए अगर भले आदमी को शराब पिला दें, तब आपको पता चलेगा कि भीतर कौन बैठा है! शराब किसी को बुरा नहीं बना सकती है। शराब में वैसा कोई गुण नहीं है बुरा बनाने का। शराब में सिर्फ एक गुण है कि वह जो दूसरा पहलू है उसे उघाड़ देती है। इसलिए अक्सर शराब पीने वाले लोग शराब पीने के बाद अच्छे मालूम पड़ेंगे।
मैंने सुना है एक आदमी के बाबत कि एक दिन वह सांझ अपने घर लौटा। उसकी पत्नी बहुत हैरान हुई। उसकी पत्नी ने कहा कि मालूम होता है तुम आज शराब पीकर आ गए हो!
उस आदमी ने कहा कि कैसी बातें कर रही हो! मैंने शराब बिल्कुल नहीं पी है।
उसकी पत्नी ने कहा कि तुम्हारा व्यवहार बता रहा है कि तुम पीकर आ गए हो।
उस आदमी ने कहा, हे परमात्मा, कैसी अजीब दुनिया है!
वह रोज शराब पीकर आता था, आज पीकर नहीं आया है। लेकिन शराब पीकर आता था, उसके भीतर का अच्छा आदमी प्रकट होता रहा। आमतौर से जिन्हें हम बुरे आदमी कहते हैं, उनके भीतर अच्छे आदमी छिपे रहते हैं। और जिनको हम अच्छे आदमी कहते हैं, उनके भीतर बुरे आदमी छिपे रहते हैं। हालांकि जब अच्छे आदमी के भीतर का बुरा आदमी काम करता है बुरा, तो भी अच्छे का बहाना लेकर करता है। अगर अच्छा बाप अपने बेटे की गर्दन दबाता है, तो सीधी नहीं दबा देता; सिद्धांत, नीति, शिष्टाचार, अनुशासन, इन सबका बहाना लेकर दबाता है। अगर अच्छा शिक्षक दंड देता है, तो जिसको दंड देता है उसी के हित में देता है। अच्छा आदमी अगर बुरा भी करता है, तो अच्छी खूंटी पर ही टांगता है बुराई को। और बुरा आदमी अगर अच्छे काम भी करता है, तो स्वभावतः उसके पास बुराई की खूंटी ही होती है, वह उसी पर टांगता है। लेकिन जो भी एक पहलू को पकड़ेगा, उसके भीतर दूसरा पहलू सदा मौजूद रहेगा।
योग कहता हैः दोनों को समझ लो और पकड़ो मत।
इसलिए जब पहली बार योग की खबर पश्चिम में पहुंची तो वहां के विचारक बहुत हैरान हुए। क्योंकि उन विचारकों ने कहा, इस योग में नीति की, मॉरेलिटी की तो कोई जगह ही नहीं है! ये सारे योग में कुछ नैतिकता का स्थान नहीं मालूम पड़ता! जिन लोगों ने पश्चिम में पहली बार योग की खबरें सुनीं, उन्होंने कहा कि इसमें कहीं भी नहीं लिखा हुआ है--जैसा कि टेन कमांडमेंट्स हैं ईसाइयों के--यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो! यह बुरा है, यह बुरा है, यह बुरा है! डोंट्स की कोई बात ही नहीं है इसमें। यह कैसा योग!
लेकिन विज्ञान कभी भी पक्ष की बात नहीं करता। विज्ञान तो निष्पक्ष दोनों बातों को खोल कर रख देता है। योग कहता हैः यह बुराई है, यह अच्छाई है। और दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। अगर तुम एक को भी पकड़ोगे तो दूसरा तुम्हारे भीतर छिपा हुआ मौजूद रहेगा। तुम दोनों को समझ लो और पकड़ो मत।
इसलिए योग अच्छे और बुरे का ट्रांसेनडेंस है। दोनों के पार हो जाना है।
योग सुख और दुख का अतिक्रमण है।
योग जन्म और मृत्यु का अतिक्रमण है।
योग अस्तित्व-अनस्तित्व का अतिक्रमण है, दोनों के पार है, बियांड है।
यह दूसरा सूत्र ठीक से समझ लें तो आगे बहुत सी बातें समझनी आसान हो जाएंगी। प्रत्येक चीज का दूसरा पहलू सदा मौजूद है। इसलिए जब भी आप एक चीज पकड़ते हों, ध्यान में ले लेना, उससे उलटा भी आपने पकड़ लिया है।
जब आपने किसी को प्रेम से कहा है कि अब मैं तुमसे मिल गया, अब मैं कभी बिछुड़ना न चाहूंगा, तब आप ठीक से समझ लेना कि आपके मिलन में विरह मौजूद है, वह घटित होकर रहेगा। असल में, मिलते वक्त भी प्रेमी यही कहता है कि मुझे बहुत डर लग रहा है कि कहीं हम बिछुड़ न जाएं! वह दूसरा पहलू उसको भी पता चल रहा है। नहीं तो मिलते क्षण में विरह की क्या बात है? जब मिले हैं तो मिले हैं। लेकिन मिलते क्षण में विरह पीछे छाया की तरह खड़ा है।
जब किसी को मित्र बनाएं, तब समझ लेना कि एक आदमी और पोटेंशियल एनिमी, एक आदमी और शत्रु पैदा कर लिया। यह तो पक्का है कि बिना मित्र बनाए शत्रु नहीं बनाया जा सकता। सीधा शत्रु बनाने का अब तक कोई उपाय नहीं खोजा गया। शत्रु को भी मित्र होने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। अगर शत्रु भी बनना हो तो मित्र होने के रास्ते से ही जाना पड़ता है। तो जब मित्र बनाएं, तब योग कहता है, जानना कि शत्रु छाया की तरह पीछे खड़ा है।
जीवन के प्रत्येक भाग में विपरीत को सदा स्मरण रखना, तो क्लिंगिंग, पकड़ छूट जाएगी। तब सुख आपके द्वार पर दस्तक देगा, तो आप उसके पीछे झांक कर देख लेंगे कि दुख को जरूर साथ लाया होगा। लाता ही है। वह उसकी छाया है। वह उसके बिना कभी आता नहीं। और जब दुख आए... तो योग में प्रविष्ट व्यक्ति के लिए, सुख आता है तो आ जाने देता है, बहुत स्वागत नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि पीछे तुम किसको लिए हो; और जब दुख आता है, तब उसे भी स्वागत से बिठा देता है, क्योंकि वह जानता है कि तुम किसे पीछे लिए हो। सुख और दुख में वह सम हो जाता है। सम का सिर्फ एक ही आधार है कि प्रत्येक चीज अपने विरोधी से अनिवार्य रूप से जुड़ी है। विरोध के बिना अस्तित्व नहीं है। जिसे हमने प्रेम किया है, उससे हमने घृणा के बीज बो दिए। जिससे हम मिले हैं, उससे हमने विरह का मार्ग तय किया। जिसे हमने अपना बनाया, उसे हमने पराया बनाने के सूत्र सिखा दिए। जो यशस्वी हुआ, उसने अपने अपमान के लिए बीज बोए। जो जीता, उसने हार को निमंत्रण दिया।
लाओत्से ने एक दिन अपने मित्रों को कहा था कि मुझे जिंदगी में कोई हरा नहीं सका। स्वभावतः उसके मित्र चुप हो गए। उन्होंने पूछा, हमें भी बताओ वह राज, वह सीक्रेट कि तुम्हें कोई हरा क्यों नहीं सका? हम भी किसी से हारना नहीं चाहते हैं। तब लाओत्से खिलखिला कर हंसने लगा और उसने कहा, गलत लोगों को मैं सूत्र न बताऊंगा। उन्होंने कहा, कैसे गलत लोग? हमें जरूर बताओ वह मार्ग जिससे हम भी न हार सकें। लाओत्से ने कहा, तुम तो हारोगे ही, क्योंकि जो हारना नहीं चाहता, उसने हार को निमंत्रण दे दिया। हमारा सूत्र यही है कि हमें कोई कभी हरा न सका, क्योंकि हमने कभी जीतना ही न चाहा। क्योंकि जो जीतना चाहेगा वह हारेगा।
लाओत्से एक जंगल से गुजरता था अपने शिष्यों को लेकर। सारा जंगल कट रहा है। हजारों कारीगर वृक्षों को काटते हैं। सिर्फ एक वृक्ष है जो कि खड़ा है, उसे कोई छूता भी नहीं। लाओत्से ने कहा कि जाओ, इस वृक्ष से पूछो कि इसके बेचने का राज क्या है? क्या इसे योग के सूत्र पता चल गए? क्या यह ताओ को जान गया? जब सारा जंगल कटता है, तो यह वृक्ष क्यों नहीं कटता?
लाओत्से ने कहा था तो उसके शिष्य गए। मुश्किल में तो पड़े कि वृक्ष से क्या पूछेंगे? वृक्ष के चारों तरफ घूमे, लेकिन वृक्ष से क्या पूछें? बात सच थी, एक पत्ता भी किसी ने नहीं तोड़ा था, एक शाखा भी नहीं कटी थी। एक हजार बैलगाड़ियां ठहर सकें, इतने दूर तक उसकी शाखाओं का फैलाव था, बड़ी घनी छाया थी! फिर उन्होंने सोचा कि चल कर हम इन कारीगरों से ही पूछ लें जो पड़ोसी वृक्षों को काट रहे हैं। उन कारीगरों से उन्होंने पूछा कि इस वृक्ष के बचने का राज क्या है? इसे क्यों नहीं काटा?
उन कारीगरों ने कहा कि यह वृक्ष बहुत अजीब है। इसकी लकड़ियां इतनी इरछी- तिरछी हैं कि वे फर्नीचर के काम में न आ सकेंगी।
तो उन्होंने कहा, काट कर कम से कम ईंधन तो बना सकते हो!
उन्होंने कहा, यह वृक्ष बड़ा अजीब है, इससे इतना धुआं फिंकता है कि इसका कोई ईंधन नहीं बना सकता। उन्होंने कहा, यह वृक्ष बिल्कुल बेकार है। इसको काटना बेकार मेहनत खराब करनी है।
उन्होंने लौट कर लाओत्से से कहा कि राज यह है कि यह वृक्ष बिल्कुल बेकार है। लकड़ियां सीधी नहीं, धुआं छोड़ती हैं। पत्ते किसी दवा के काम नहीं आते। कोई जानवर पत्ते खाने को राजी नहीं है। यह वृक्ष बड़ा बेकार है।
लाओत्से ने कहा कि धन्य है यह वृक्ष! इसकी शाखाओं ने सीधे होने की कोशिश नहीं की, इसलिए वे कटने से बच गईं। जो वृक्ष सीधे होने की कोशिश में हैं, देखते हो, कटे जा रहे हैं। इस वृक्ष के पत्तों ने कुछ होने की कोशिश नहीं की, स्वादिष्ट होने की कोशिश नहीं की, इसलिए कोई तोड़ने नहीं आया। यह वृक्ष कुछ होने की कोशिश नहीं किया, इसलिए है--और अपने पूरे आनंद में मग्न है।
लाओत्से ने कहा, यही तरकीब मेरी है। मुझे कभी कोई हरा नहीं सका, क्योंकि हम जीतने ही नहीं गए। मैं सदा से हारा ही हुआ हूं, इसलिए मुझे हराना मुश्किल है।
एक बार, लाओत्से ने कहा, एक आदमी ने सुन कर यह कि लाओत्से को कोई हरा नहीं सका, एक गांव में मुझे चुनौती कर दी थी। गांव में लाओत्से रुका था। किसी से कहा होगा कि मुझे कभी कोई हरा नहीं सका। गांव में खबर पहुंच गई। किसी पहलवान ने समझा कि यह चुनौती है! उस पहलवान ने आकर लाओत्से के दरवाजे पर झंडा गाड़ दिया और कहा कि मैं तुम्हें हराऊंगा! लाओत्से ने कहा, नहीं हरा सकोगे। उसने कहा कि मैं अभी हरा कर दिखाऊंगा।
वहां भीड़ इकट्ठी हो गई। वह पहलवान अपनी लंगोटी बांध कर कूद पड़ा ताकत लगा कर, भगवान का नाम लेकर। लेकिन लाओत्से उसके सामने चित्त लेट गया और उससे कहा कि आ, मेरे ऊपर बैठ!
पहलवान ने कहा कि तुम आदमी कैसे हो? तुम्हें तो हराने का मजा ही चला गया।
लाओत्से ने कहा, मैंने पहले ही कहा कि मुझे अब तक कोई हरा नहीं सका, क्योंकि हम पहले से ही हारे हुए हैं। हम जीतना नहीं चाहते। आओ, हमारी छाती पर बैठ जाओ और गांव में डुंडी पीट कर कह दो कि हरा आए, चित्त कर दिया।
उस पहलवान ने कहा कि ऐसे आदमी के ऊपर बैठना बेकार है। वह पहलवान उसके पैर छूकर अपने घर चला गया। उसने कहा कि झगड़ा व्यर्थ है।
योग कहता है, द्वंद्व में चुनाव व्यर्थ है। योग कहता है, वे जो दो दिखाई पड़ते हैं जीवन में सदा, उनमें चुनना ही मत। वे दोनों एक ही दूसरे के रूप हैं। सिर्फ धोखा है। चेहरा और है, पीछे कुछ और है। अस्तित्व-अनस्तित्व, जीवन-मृत्यु, सुख-दुख, अच्छा-बुरा, नीति-अनीति, धर्म-अधर्म, सब एक ही चीज के विस्तार हैं। साधु-चोर, सब एक ही चीज के विस्तार हैं। इनको चुनना ही मत, इनको समझ लेना। इनको समझ लेने से अतिक्रमण, ट्रांसेनडेंस उपलब्ध हो जाता है।
योग का दूसरा सूत्रः शक्ति, ऊर्जा, अस्तित्व और अनस्तित्व में डोलती रहती है। और जहां पहाड़ उठते हैं शक्ति के, वहां शक्ति की खाइयां भी बन जाती हैं। और जहां अस्तित्व निर्मित होता है, वहां अनस्तित्व भी मौजूद होता है। जहां सृष्टि होती है, वहां प्रलय भी होती है।
इसलिए इस देश ने सृजन को अकेला नहीं, साथ में प्रलय को भी एक साथ सोचा है। सृष्टि के साथ प्रलय, होने के साथ न होना। सब चीजें जो होती हैं, न होने की यात्रा पर हैं। और जो नहीं हो गई हैं, वे होने की यात्रा पर वापस लौट रही हैं।
सागर में आपने लहर देखी है? जो लहर ऊपर उठी है, वह गिरने की यात्रा पर है। और जो खाई उसके नीचे बन गई है, वह उठने की यात्रा पर है। सब चीजें प्रतिपल अपने से विपरीत में प्रवेश कर रही हैं। सब चीजें अपने से विपरीत में प्रवेश कर रही हैं। जिसे यह दिखाई पड़ जाता है, उसकी आकांक्षा, उसकी कामना, उसकी वासना तिरोहित हो जाती है। छोड़ता नहीं है वह वासना, वासना तिरोहित हो जाती है। क्योंकि वासना चुनाव, च्वाइस का नाम है।
योग का तीसरा सूत्रः अस्तित्व के दो रूप हैं।
मैंने कहाः ऊर्जा--एक सूत्र।
दूसराः ऊर्जा के दो रूप--अनस्तित्व, अस्तित्व।
फिर तीसरा सूत्रः अस्तित्व के दो रूप हैं--एक जिसे हम चेतन कहें और एक जिसे हम अचेतन कहें। लेकिन दो रूप ही हैं, दो चीजें नहीं हैं। जिन्हें हम धार्मिक लोग कहते हैं, वे भी दो चीजें सोच लेते हैं। वे भी समझ लेते हैं कि चेतना अलग, अचेतना अलग; शरीर अलग, आत्मा अलग! ऐसी अलगता नहीं है। ठीक से समझें, तो आत्मा का जो हिस्सा इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है उसका नाम शरीर है और शरीर का जो हिस्सा इंद्रियों की पकड़ में नहीं आता उसका नाम आत्मा है।
चेतन और अचेतन, अस्तित्व के दो रूप हैं। एक पत्थर पड़ा है। वह है, लेकिन अचेतन है। आप उसके पड़ोस में खड़े हैं। आप भी हैं। होने में कोई फर्क नहीं है, दोनों एक्झिस्टेंट हैं, दोनों का अस्तित्व है, लेकिन एक चेतन है और एक अचेतन है।
लेकिन पत्थर चेतन बन सकता है और आप पत्थर बन सकते हैं। कनवर्टिबल हैं। इसलिए तो आप गेहूं खा लेते हैं और खून बन जाता है। इसलिए तो आपके शरीर में लोहा जाता है और जीवंत हो जाता है। अगर हम आदमी के शरीर का सब सामान निकाल कर बाहर टेबल पर रखें, तो कोई पांच रुपये से ज्यादा का सामान नहीं निकल सकता। थोड़ा सा लोहा है, अल्युमिनियम है, फास्फोरस है, तांबा है, ये सब चीजें निकलेंगी। और बड़ा हिस्सा तो पानी का है। कोई पांच रुपये का सामान है आदमी के भीतर। लेकिन आदमी के भीतर होकर वे चेतन और जीवित हैं। हाथ को चोट लगती है तो पीड़ा उठती है। और यही हाथ का हिस्सा कल बाहर था और पीड़ा नहीं उठती थी। कल फिर बाहर हो जाएगा।
जिस जगह आप बैठे हैं, उस जगह कम से कम दस आदमियों की कब्र बन चुकी है, एक-एक आदमी की जगह। पूरी पृथ्वी पर जितने लोग अब तक हुए हैं, उन सबका अनुपात इतना है कि जहां भी हम खड़े हैं, उस जमीन की मिट्टी में, उस छोटे से एक वर्गफीट के हिस्से में कम से कम दस आदमियों का शरीर मिट्टी हो चुका है। वे दसों आदमी कभी जीवित थे, आज आपके पैर में धूल की तरह पड़े हैं। आज आप जीवित हैं, कितनी देर तक? कल आप धूल की तरह पड़े होंगे।
चेतन और अचेतन, अस्तित्व के दो रूप हैं। दो अस्तित्व नहीं हैं, अस्तित्व के ही दो रूप हैं। इसलिए कनवर्टिबल हैं, रूपांतरित हो सकते हैं। इसलिए चेतन से अचेतन आ सकता है, अचेतन चेतन में जा सकता है। रोज हो रहा है। रोज हम यही कर रहे हैं। रोज हम जड़ अचेतन को भोजन बना रहे हैं और हमारे भीतर वह चेतन बनता जाता है। और रोज हमारे भीतर से मल निष्कासित हो रहा है बहुत रूपों में और जड़ होता जा रहा है। आदमी इधर से चेतन होता है, उधर से अचेतन होता है। इधर से अचेतन को लेता है, और भीतर चेतन होता जाता है। चेतन और अचेतन भी दो चीजें नहीं हैं।
इसमें भी बड़ी भूल होती रही है। नास्तिक कहते हैं, सिर्फ अचेतन ही है। लेकिन उनको बड़ी मुश्किल पड़ती है समझाने में। उनको मुश्किल पड़ती है कि अगर सिर्फ अचेतन ही है तो फिर चेतन कहां से आता है?
तो फिर मार्क्स जैसे नास्तिकों को कहना पड़ता है कि एपि-फिनामिनन है, यह बाइ-प्रोडक्ट है। चेतना कोई असली चीज नहीं है। यह तो पदार्थ के मिलने-जुलने से पैदा हो गई घटना है। यह कोई वस्तु नहीं है, ईवेंट है।
चार्वाक को कहना पड़ता है कि यह आदमी की चेतना वैसे ही है, जैसे पानवाला पान बनाता है, कत्था और चूना को लगाता है, और फिर जब आप पान खाते हैं तो लाल रंग पैदा हो जाता है। वह लाल रंग न तो अकेले चूने में है, न अकेले कत्थे में है, न अकेले पान में है। उन सबके मिलने से पैदा हो जाता है। वह संघट परिणाम है, वह बाइ-प्रोडक्ट है, वह एपि-फिनामिनन है। जैसे कि शराब बनती है, जिन-जिन चीजों से बनती है उनको अलग-अलग ले लें तो नशा नहीं आता, इकट्ठा करके ले लें तो नशा आ जाता है।
तो नास्तिक को, चाहे चार्वाक हो या चाहे मार्क्स हो, उनकी भाषा में थोड़ा फर्क पड़ता है, बाकी उनकी कठिनाई यही है कि चेतना दिखाई तो पड़ती है, इसे समझाएं कैसे? तो एक ही रास्ता है उनके पास कि वे यह कहें कि अचेतन चीजों से मिल कर चेतना पैदा हो जाती है। लेकिन यह बड़ी अवैज्ञानिक बात है। और मार्क्स जैसे वैज्ञानिक होने का दावा करने वाले आदमी के मुंह में बिल्कुल शोभा नहीं देती। क्योंकि जिससे जो चीज पैदा होती है, वह उसमें कहीं न कहीं छिपी होनी चाहिए, अन्यथा पैदा नहीं हो सकती।
अगर पान में लाल रंग आ जाता है, तो माना कि एक-एक चीज में अलग वह नहीं था, लेकिन वह लाल रंग इन सबमें छिपा था, जुड़ कर प्रकट हुआ, अलग-अलग में दिखाई नहीं पड़ता था। आक्सीजन और हाइड्रोजन को अलग-अलग अगर हम पी लें तो प्यास नहीं बुझेगी। न हाइड्रोजन में पानी है और न आक्सीजन में पानी है। लेकिन दोनों को मिला कर पानी बन जाएगा और फिर प्यास बुझ जाएगी। यह पानी कहां से आया? यह पानी आक्सीजन और हाइड्रोजन में था, लेकिन दोनों मिलें तो ही प्रकट हो सकता था।
आप अकेले कमरे में बैठे हुए थे। मैं आपके कमरे में आ गया। और हम दोनों ने बातचीत शुरू कर दी। यह बातचीत आसमान से नहीं आ गई, मेरे भीतर भी थी, आपके भीतर भी थी। लेकिन अगर आप अकेले कमरे में बोलते तो पागल समझे जाते, मैं आ गया तो अब आप पागल नहीं समझे जाते, अब प्रकट होने की सुविधा हो गई।
जो भी चीज प्रकट होती है, वह जिनसे प्रकट होती है, उनमें गुप्त होती है, छिपी होती है। इसलिए नास्तिकों के ये दावे--कि चेतना पदार्थ से ऐसे ही प्रकट हो गई, है नहीं, थी नहीं--अत्यंत अवैज्ञानिक हैं। योग मानने को तैयार नहीं है।
आस्तिक भी इससे उलटी बातें करते हैं। उनकी भी तकलीफ यही है--उलटे हिस्से से। वे कहते हैं, पदार्थ है ही नहीं, जड़ कुछ है ही नहीं, सब परमात्मा ही परमात्मा है। तो फिर सवाल उठता है कि यह सब जो चारों तरफ दिखाई पड़ रहा है, कहां से पैदा होता है? तो शंकर कहते हैं, माया है, इल्यूजन है; है नहीं। वे कहते हैं, यह भी एपि-फिनामिनन है। यह भी शैडो एक्झिस्टेंस है। यह है नहीं।
वही तकलीफ जो नास्तिक की है, वही तकलीफ आस्तिक की है। तकलीफ यह है कि दूसरे को कैसे समझाओगे? वह भी है! तो उसके लिए फिर चक्करदार तर्क खोजने पड़ते हैं। और वे तर्क कभी भी कुछ सिद्ध नहीं कर पाते।
योग कहता है, दोनों हैं। इसलिए योग किसी चक्करदार तर्क में नहीं पड़ता। वह कहता है, दोनों हैं। और वह यह भी कहता है, दोनों दो नहीं हैं। अन्यथा फिर दोनों को जोड़ने का उपद्रव होगा कि दोनों को जोड़ें कैसे? दोनों एक ही के दो रूप हैं। जैसे मेरे दोनों हाथ हैं--बाएं और दाएं। ये दो दिखाई पड़ते हैं, ये मेरे लिए दो नहीं हैं। ये आपको दिखाई पड़ते दो मालूम होंगे। मेरे लिए एक ही शक्ति दोनों पर फैली है। हालांकि मजे की बात है, मैं चाहूं तो दोनों हाथों को लड़ा सकता हूं! और दोनों एक ही ऊर्जा हैं।
चेतन और अचेतन, अस्तित्व के--एक ही अस्तित्व के--दो छोर हैं। चेतन अचेतन हो सकता है, अचेतन चेतन होता रहता है। यह तीसरा सूत्र है योग का।
ये सूत्र समझ लेने जरूरी हैं, क्योंकि फिर इन्हीं सूत्रों के ऊपर योग की सारी साधना का भवन खड़ा होता है।
चेतन-अचेतन, अब विज्ञान को राजी हो गई है यह बात भी। अब विज्ञान एक नये शब्द का प्रयोग करता है, वह मैं आपसे कहूं।
नई मेडिसिन, अब किसी बीमारी को... पहले बीमारियां दो तरह की समझी जाती थीं--फिजिकल और मेंटल--कि एक मानसिक बीमारी है और एक शारीरिक बीमारी है, क्योंकि मन अलग है और शरीर अलग है। अब चिकित्साशास्त्र एक नये शब्द का प्रयोग करता है--साइकोसोमेटिक या सोमेटोसाइकिक। अब चिकित्साशास्त्र कहता है, कोई बीमारी न तो अकेली मानसिक है और न अकेली शारीरिक है। बीमारी मनोशारीरिक, साइकोसोमेटिक है। दोनों ही छोर उसके हैं।
अगर आपका मन बीमार हो जाए तो आपका शरीर भी बीमार हो जाता है। और अगर आपका शरीर बीमार हो जाए तो आपका मन भी बीमार हो जाता है। जब हम आपको शराब पिलाते हैं, तो आपके मन को नहीं पिलाते। शराब तो आपके पेट में जाती है। आपके लीवर में जाती है, आपके पाचन यंत्र में जाती है। आपके मन में नहीं जाती शराब। लेकिन जैसे ही शराब शरीर में जाती है कि मन अनर्गल बातें बकने लगता है। नहीं बोलना चाहिए, वह बकने लगता है। तो शराब तो शरीर में गई, लेकिन मन तक प्रभाव पहुंच गया। और जब मन रुग्ण होता है, चिंतित होता है, दुखी होता है, तो शरीर तत्काल उदास, बीमार और रुग्ण हो जाता है। अगर मन में बीमारी डाल दी जाए तो शरीर बीमार हो जाता है।
दस या बारह वर्ष पहले अमेरिका को एक कानून बनाना पड़ा, एंटी-हिप्नोटिक एक्ट बनाना पड़ा। एक कानून बनाना पड़ा सम्मोहन के विरोध में। क्योंकि एक छोटे से कालेज के हॉस्टल में एक अनूठी घटना घट गई, दुर्घटना घट गई। चार लड़के हिप्नोटिज्म की एक किताब पढ़ रहे थे। और उसमें लिखा था कि मन जो भी मानने को राजी हो जाए, वह हो जाता है। तो उन चारों ने कहा कि हम प्रयोग करके देखें। और अपने पांचवें साथी को उन्होंने लिटाया और जो उस किताब में लिखा था उस भांति बेहोशी के सुझाव दिए। दस मिनट तक वे चारों लड़के कमरे में अंधेरा करके जोर-जोर से उस लड़के से कहते रहे कि तुम बेहोश हो रहे हो, तुम बेहोश हो रहे हो, तुम बेहोश हो रहे हो... ।
वह लड़का दस मिनट में गहरी नींद में सो गया और बेहोश हो गया। जब उन्होंने उसके हाथ पर आलपिन चुभाई और उसे पता न चला, और जब उन्होंने उसके मुंह में मिट्टी रख दी और कहा कि यह तुम मिठाई खा रहे हो और उसने मिठाई की तरह स्वाद से उस मिट्टी को खाया, तब तो उनकी गति बढ़ती चली गई। उन्होंने उस लड़के को उठाया, नाचने के लिए कहा कि तुम नृत्यकार हो, तो वह नाचने लगा। और उसको उन्होंने कहा कि तुम पागल हो गए हो, तो वह पागल हो गया। फिर उन्हें आखिरी बात सूझी, उन्होंने उस लड़के से कहा कि अब तुम मर गए, और वह लड़का मर गया।
इससे एक कानून बनाना पड़ा कि अब कोई व्यक्ति किसी को उसकी आज्ञा से या सरकारी आज्ञा से या किसी यूनिवर्सिटी में रिसर्च करते समय या किसी हॉस्पिटल में डाक्टर के निरीक्षण में प्रयोग करते समय ही सम्मोहित कर सकता है। हर कोई हर किसी को सम्मोहित नहीं कर सकता।
वह लड़का मर ही गया। फिर उन्होंने बहुत कहा कि अब तुम जिंदा हो जाओ! लेकिन अब वहां सुनने वाला कोई नहीं था, नहीं तो वह जिंदा हो जाता। वह मर ही चुका था। उन्नीस सौ बावन में घटी इस घटना ने सारी दुनिया को चकित कर दिया। जब आपको कोई ज्योतिषी बता देता है कि आप फलां दिन मर जाएंगे, तो मर सकते हैं। इसलिए नहीं कि ज्योतिषी सही कहता है, बल्कि इसलिए कि अगर यह ख्याल आपके मन में बैठ जाए कि फलां दिन मर सकते हैं तो जरूर मर जाएंगे। ज्योतिषी सही कहता है, ऐसा नहीं है। लेकिन यह विचार अगर मन में गहरे बैठ जाए तो मृत्यु घटित हो सकती है। सब तरह की बीमारियां पैदा की जा सकती हैं मन में विचार डाल कर। और सब तरह की बीमारियों को प्रभावित किया जा सकता है ठीक होने की दिशा में, मन में विचार डाल कर।
एक आदमी के घर में आग लग गई थी। वह दो साल से लकवे से बीमार पड़ा था। उठ नहीं सकता था। सब इलाज हो गए थे। घर में आधी रात आग लगी तो सारे घर के लोग बाहर निकल गए। जब बाहर निकले तब उन्हें ख्याल आया कि घर के बूढ़े का क्या हुआ? उनको तो लकवा है, वे तो आ नहीं सकते। लेकिन तभी उन्होंने देखा कि बूढ़ा अकेला नहीं आ रहा, अपनी पैसों की पेटी लिए बाहर चला आ रहा है! तब तो वे बड़े चकित हुए, क्योंकि वह आदमी तो उठ भी नहीं सकता था। जब वह बीच में आकर खड़ा हो गया तब उन सबने कहा कि आप और चले! उस आदमी ने कहा, मैं और कैसे चल सकता हूं! वह वापस वहीं गिर पड़ा। लकवा वापस लौट आया।
यह क्या हुआ? इस आदमी को लकवा नहीं है, इस आदमी को मानसिक लकवा है। इसके मन के छोर पर लकवा पकड़ गया है, शरीर उसका अनुगमन कर रहा है।
इससे उलटा भी हो सकता है कि किसी आदमी के शरीर को लकवा पकड़ा हो और उसका मन अगर इनकार कर दे तो शरीर को लकवा चलाना मुश्किल हो जाए। इसलिए जो लोग संकल्पवान हैं, वे कैसी भी बीमारी से जूझ सकते हैं। और जो लोग संकल्पहीन हैं, वे कैसी भी झूठी बीमारी से परेशान हो सकते हैं।
योग का कहना है कि हमारे भीतर शरीर और मन, ऐसी दो चीजें नहीं हैं। हमारे भीतर चेतन और अचेतन, ऐसी दो चीजें नहीं हैं। हमारे भीतर एक ही अस्तित्व है, जिसके ये दो छोर हैं। और इसलिए किसी भी छोर से प्रभावित किया जा सकता है।
तिब्बत में एक प्रयोग है, जिसका नाम हीट-योग है, उष्णता का योग। वह तिब्बत में सैकड़ों फकीर हैं ऐसे जो नंगे बर्फ पर बैठे रह सकते हैं और उनके शरीर से पसीना चूता रहता है। इस सबकी वैज्ञानिक जांच-परख हो चुकी है। इस सबकी डाक्टरी जांच-परख हो चुकी है। और चिकित्सक बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं कि यह क्या हो रहा है? एक आदमी बर्फ पर बैठा है नंगा, चारों तरफ बर्फ पड़ रही है, बर्फीली हवाएं बह रही हैं, और उसके शरीर पर पसीना बह रहा है! क्या हुआ है इसको?
यह आदमी योग के सूत्र का प्रयोग कर रहा है। इसने मन से मानने से इनकार कर दिया कि बर्फ पड़ रही है। यह आंख बंद करके यह कह रहा है, बर्फ नहीं पड़ रही है। यह आंख बंद करके कह रहा है कि सूरज तपा है और धूप बरस रही है। और यह आदमी आंख बंद करके कह रहा है कि मैं गरमी से तड़पा जा रहा हूं। शरीर उसका अनुसरण कर रहा है, वह पसीना छोड़ रहा है।
दक्षिण में एक योगी थे--ब्रह्मयोगी। उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी, रंगून यूनिवर्सिटी और आक्सफोर्ड, तीनों जगह कुछ प्रयोग करके दिखाया। वे किसी भी तरह का जहर पी लेते थे और आधा घंटे के भीतर उस जहर को शरीर के बाहर पेशाब से निकाल देते थे। किसी भी तरह का जहर उनके खून में कभी मिश्रित नहीं होता था। सब तरह के एक्सरे परीक्षण हुए। और मुश्किल में पड़ गई बात कि क्या मामला है? और वह आदमी इतना ही कहता था कि मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मैं मन को कहता हूं कि मैं स्वीकार नहीं करूंगा जहर। बस इतना मेरा अभ्यास है।
लेकिन रंगून यूनिवर्सिटी में प्रयोग करने के बाद वे मर गए, जहर खून में पहुंच गया। आधा घंटे तक ही उनका संकल्प काम कर पाता था। इसलिए आधा घंटे के पहले जहर को शरीर के बाहर कर देना जरूरी था। आधा घंटे के बाद उनको भी शक होने लगता था कि कहीं जहर मिल ही न जाए। आधा घंटे तक वे अपने संकल्प को मजबूत रख पाते थे। आधा घंटे के बाद शक उनको भी पकड़ने लगता था कि कहीं जहर मिल न जाए। शक बड़ी अजीब चीज है। जो आदमी आधा घंटे तक जहर को अपने खून से दूर रखे, उसको भी पकड़ जाता है कि कहीं पकड़ न जाए जहर।
वे रंगून यूनिवर्सिटी से, जहां ठहरे थे वहां के लिए कार से निकले, और कार बीच में खराब हो गई और वे अपने स्थान पर तीस मिनट की बजाय पैंतालीस मिनट में पहुंच पाए, लेकिन बेहोश पहुंचे। वे पंद्रह मिनट उनकी मृत्यु का कारण बने।
सैकड़ों योगियों ने खून की गति पर नियंत्रण घोषित किया है। कहीं से भी कोई भी वेन काट दी जाए, खून उनकी आज्ञा से बहेगा या बंद होगा।
यह तो आप भी छोटा-मोटा प्रयोग करें तो बहुत अच्छा होगा। अपनी नाड़ी को गिन लें। और गिनने के बाद पांच मिनट बैठ जाएं और मन में सिर्फ इतना सोचते रहें कि मेरी नाड़ी की रफ्तार तेज हो रही है, तेज हो रही है, तेज हो रही है। और पांच मिनट बाद फिर नाड़ी को गिनें। तो आप पाएंगे, रफ्तार तेज हो गई है। कम भी हो सकती है। लंबा प्रयोग करें तो बंद भी हो सकती है। हृदय की धड़कन भी, अति सूक्ष्मतम हिस्से तक बंद की जा सकेगी, खून की गति भी बंद की जा सकेगी।
शरीर और मन, ऐसी दो चीजें नहीं हैं; शरीर और मन एक ही चीज का विस्तार हैं, एक ही चीज के अलग-अलग वेवलेंथ हैं। चेतन और अचेतन एक का ही विस्तार हैं।
योग के सारे के सारे प्रयोग इस सूत्र पर खड़े हैं। इसलिए योग मानता है, कहीं से भी शुरू किया जा सकता है। शरीर से भी शुरू की जा सकती है यात्रा और मन से भी शुरू की जा सकती है। बीमारी भी, स्वास्थ्य भी, सौंदर्य भी, शक्ति भी, उम्र भी--शरीर से भी प्रभावित होती है, मन से भी प्रभावित होती है।
बर्नार्ड शा लंदन से कोई बीस मील दूर एक गांव को चुना था अपनी कब्र बनाने के लिए। और मरने के कुछ दिन पहले उस गांव में जाकर रहने लगा। उसके मित्रों ने कहा कि कारण क्या है इस गांव को चुनने का? तो बर्नार्ड शा ने कहा, इस गांव को चुनने का एक बहुत अजीब कारण है। बताऊं तो तुम हंसोगे। लेकिन फिर कोई हर्ज नहीं, तुम हंसना, मैं तुम्हें कारण बताता हूं। ऐसे ही एक दिन इस गांव में घूमने आया था। इस गांव के कब्रिस्तान पर घूमने गया था। वहां एक कब्र पर मैंने एक पत्थर लगा देखा। उसको देख कर मैंने तय किया कि इस गांव में रहना चाहिए। उस पत्थर पर लिखा था--किसी आदमी की मौत का पत्थर था--लिखा थाः यह आदमी सोलह सौ दस में पैदा हुआ और सत्रह सौ दस में बहुत कम उम्र में मर गया। तो बर्नार्ड शा ने कहा कि जिस गांव के लोग सौ वर्ष को कम उम्र मानते हैं, अगर ज्यादा जीना हो तो उसी गांव में रहना चाहिए।
यह तो उसका मजाक ही था, लेकिन बर्नार्ड शा काफी उम्र तक जीया भी। उस गांव की वजह से जीया, यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन उस पत्थर को बर्नार्ड शा ने चुना, यह तो उसके मन का चुनाव है, यह ज्यादा जीने की आकांक्षा का हिस्सा तो है ही। यह हिस्सा उसके ज्यादा जीने में कारण बन सकता है।
जिन मुल्कों में उम्र कम है, उन मुल्कों में सभी लोग कम उम्र की वजह से मर जाते हैं, ऐसा सोचना जरूरी नहीं है। उन मुल्कों में कम उम्र होने की वजह से हमारी उम्र की अपेक्षाएं भी कम हो जाती हैं। हम जल्दी बूढ़े होने लगते हैं, हम जल्दी मरने का विचार करने लगते हैं, हम जल्दी तय करते हैं कि अब वक्त आ गया। जिन मुल्कों में उम्र की अपेक्षाएं ज्यादा हैं, उनमें जल्दी कोई तय नहीं करता, क्योंकि अभी वक्त आया नहीं। तो मरने का ख्याल अगर जल्दी प्रवेश कर जाए तो जल्दी परिणाम आने शुरू हो जाएंगे। मन मरने को राजी हो गया। अगर मन मरने को राजी न हो तो देर तक लंबाया जा सकता है।
सारी बात इस पर निर्भर करती है कि हमारे व्यक्तित्व के दो हिस्से हैं--चेतन और अचेतन। और जगत के भी दो हिस्से हैं--चेतन और अचेतन। जिसे हम पदार्थ कह रहे हैं वह जगत का अचेतन हिस्सा है, जिसे हम जीवन कह रहे हैं वह जगत का चेतन हिस्सा है। इस सारे चेतन और इस सारे अचेतन में कोई विरोध नहीं है। ये दोनों एक-दूसरे से संबंधित हैं।
मैंने आपसे कहा कि नाड़ी पर हाथ रखें तो नाड़ी पर फर्क पड़ जाएगा। जब डाक्टर भी आपकी नाड़ी जांचता है तब भी फर्क पड़ जाता है, उतनी ही नहीं रहती जितनी थी। इसलिए कोई डाक्टर कभी आपकी नाड़ी की ठीक जांच नहीं कर सकता; क्योंकि डाक्टर के हाथ लगाने से ही आपके आब्जर्वेशन में, आपके निरीक्षण में, आपकी अपेक्षा में फर्क पड़ जाता है। फौरन फर्क पड़ जाता है। और अगर लेडी डाक्टर हो तो फर्क और थोड़ा ज्यादा पड़ेगा। आपकी अपेक्षाएं और घबड़ाती हैं। आपकी अपेक्षाएं, आपका मन, वहां तंतुओं को हिला देता है। इसलिए समझदार डाक्टर दो-चार कम करके सोचेगा कि इतना होगा ठीक। क्योंकि दो-चार तो आपने अभी बढ़ा लिए होंगे, जो नहीं रहे होंगे।
लेकिन हमारी नाड़ी तो हमसे जुड़ी है, इसलिए प्रभावित हो जाती हो। लेकिन मैं कह रहा हूं, बाहर के जगत में जो अचेतन पदार्थ हमें दिखाई पड़ता है, वह भी हमारे चित्त से इतना ही जुड़ा हुआ है। जो माली अपने बगीचे के फूलों को प्रेम करता है, क्या आप सोच सकते हैं कि उसके फूल बड़े हो जाते होंगे? आप कहेंगे, पागलपन की बात है! लेकिन अगर माली ही यह कहते तो हम पागलपन की बात मानते। आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में एक छोटी सी लेबोरेट्री है, डेलाबार लेबोरेट्री। उसमें फूलों पर अभी बहुत से प्रयोग हुए हैं और घबड़ाने वाले हैं प्रयोग।
एक ईसाई फकीर ने यह कहा कि मैं जिस बीज को आशीर्वाद दे दूं, उसमें बड़े फूल आएंगे। उस प्रयोगशाला में इस पर बहुत से प्रयोग हुए। एक ही पैकेट के बीज एक गमले में डाले गए और दूसरे गमले में डाले गए। एक गमले को उस फकीर से आशीर्वाद दिलाया गया। उस फकीर ने उस गमले के सामने खड़े होकर परमात्मा से प्रार्थना की और कहा कि इसके बीज बड़े हों, इसके फूल बड़े हों, इसके अंकुर जल्दी आएं! और दूसरे गमले को आशीर्वाद नहीं दिया गया। और वैज्ञानिकों ने पूरी कोशिश की कि दोनों गमलों को एक सी सुविधा, एक सा पानी, एक सी धूप, एक सा खाद, सब एक सा मिले। लेकिन बड़ी मुश्किल हुई। आशीर्वाद दिए गए गमले पर बड़े फूल आए! आशीर्वाद दिए गए गमले पर बीज जल्दी अंकुर बने! आशीर्वाद दिए गए गमले पर ज्यादा फूल आए! आशीर्वाद दिए गए गमले के फूल ज्यादा देर टिके! और एकाध गमले पर होता तो समझते कि कोई चालबाजी होगी। फिर यह अनेक गमलों पर प्रयोग किया गया और हर बार यही हुआ।
क्या कारण होगा? क्या मनुष्य का चित्त उन बीजों को भी प्रभावित करता है?
असल में, चेतना और अचेतना के बीच कहीं भी दीवाल नहीं है। और जो इस हृदय में प्रतिध्वनित होता है, वह जगत के सब कोनों तक पहुंच जाता है। और जो जगत के किसी भी कोने में प्रतिध्वनित होता है, वह इस हृदय के कोने तक आ जाता है। हम सब इकट्ठे हैं, संयुक्त हैं।
इसलिए योग का चौथा सूत्र--फिर बाकी सूत्र मैं कल आपसे बात करूंगा--योग का चौथा सूत्रः कि जगत में कुछ भी असंबंधित नहीं है, एवरीथिंग इ.ज रिलेटेड, दि वर्ल्ड इ.ज ए फेमिली। यह जो जगत है, एक परिवार है। यहां असंबंधित कुछ भी नहीं है, यहां सब जुड़ा है, यहां टूटा कुछ भी नहीं है। यहां पत्थर से आदमी जुड़ा है, जमीन से चांद-तारे जुड़े हैं, चांद-तारों से हमारे हृदय की धड़कनें जुड़ी हैं, हमारे विचार सागरों की लहरों से जुड़े हैं, पहाड़ों के ऊपर चमकने वाली बर्फ हमारे मन के भीतर चलने वाले सपनों से जुड़ी है। यहां टूटा हुआ कुछ भी नहीं है, यहां सब संयुक्त है, यहां सब इकट्ठा है। यहां अलग-अलग होने का उपाय नहीं है, क्योंकि यहां बीच में गैप नहीं है, जहां से चीजें टूट जाएं। टूटा होना सिर्फ हमारा भ्रम है।
इसलिए योग का चौथा सूत्र आपसे कहता हूंः ऊर्जा संयुक्त है, ऊर्जा एक परिवार है। न चेतन अचेतन से टूटा है, न अस्तित्व अनस्तित्व से टूटा है, न पदार्थ मन से टूटा है, न शरीर आत्मा से टूटा है, न परमात्मा पृथ्वी से टूटा है, प्रकृति से टूटा है। टूटा होना शब्द ही झूठा है। सब जुड़ा है, सब इकट्ठा है, संयुक्त है। संयुक्त और इकट्ठा शब्दों से गलती मालूम पड़ती है, क्योंकि ये शब्द हम उनके लिए लाते हैं जो टूटे हुए हैं। यह एक ही है। जैसे एक ही सागर में अनंत लहरें हैं। हर लहर दूसरी लहर से जुड़ी है। आप जिस किनारे पर बैठे हैं, वहां जो लहर आकर टकराती है, वह लहर अंतहीन किनारों से जुड़ी है जो आपको दिखाई भी नहीं पड़ते। यहां सब जुड़ा है।
यहां से, पृथ्वी से दस करोड़ मील दूर पर सूरज है। सूरज ठंडा हो जाए, हम सब ठंडे हो जाएं। हम यह न कह सकेंगे कि दस करोड़ मील दूर जो सूरज है, उससे हमारा क्या लेना-देना? हो जाओ ठंडे! हम अपने घर का दीया जला रखेंगे, क्या फिकर है! नहीं लेकिन, आप ठंडे हो जाएंगे। क्योंकि सारी जीवन-ऊर्जा उस सूरज से आपको मिल रही है। लेकिन वह सूरज भी दूसरे सूरजों से जुड़ा है, महासूर्यों से जुड़ा है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अब तक उन्होंने जो गणना की है, वह करीब दस करोड़ सूर्यों की है। और वे सब संयुक्त हैं। और यह गणना पूरी नहीं है, यह गणना पूरी कभी नहीं होगी, क्योंकि इससे आगे, और आगे, और आगे विस्तार है। वह अंतहीन है।
इस अनंत विस्तार में सब संयुक्त है। यहां एक फूल भी खिला है, तो वह भी हमसे जुड़ा है; और सड़क के किनारे एक कंकड़ पड़ा है, तो वह भी हमसे जुड़ा है। जब इस संयुक्तता को समझेंगे, तो मैंने कहा कि आपकी नाड़ी तो प्रभावित होगी ही, जो चीजें आपके बिल्कुल ख्याल में नहीं आतीं, वे भी प्रभावित हो सकती हैं।
एक छोटी सी सुई पर एक प्रयोग करें। एक छोटे से बर्तन में पानी भर लें, एक गिलास में पानी भर लें। और उस पानी पर कोई भी चिकनी चीज फैला दें--ग्रीस फैला दें, थोड़ा सा घी डाल दें या थोड़ा सा तेल फैला दें--और एक पतली आलपिन को उस तेल पर तैरा दें। फिर उस गिलास के ऊपर दोनों आंखें गड़ा कर बैठ जाएं, दो मिनट तक आंखें न झपकें। और फिर उस पिन को कहें कि बाएं घूम जाओ! और आप हैरान होंगे कि सुई बाएं घूमती है। और उससे कहें, दाएं घूम जाओ! तो आप हैरान होंगे कि दाएं घूमती है। और आप कहें कि रुक जाओ! तो वह रुकती है। और आपके इशारे पर चलती है।
सुई इसलिए कि आपके पास संकल्प बहुत छोटा है, अन्यथा पहाड़ भी घुमाए जा सकते हैं। सुई इसलिए है। लेकिन सुई घूमती है तो पहाड़ के घूमने में कोई बाधा नहीं रह जाती। क्योंकि सुई और पहाड़ में क्या फर्क है? क्वांटिटी का फर्क होगा, लेकिन सिद्धांत का कोई फर्क नहीं पड़ता है।
योग कहता है, हम सब जुड़े हैं। इसलिए योग कहता है, जब एक आदमी बुरा विचार करता है तो आस-पास के लोग तत्काल बुरे होने शुरू हो जाते हैं। उस विचार को प्रकट करने की जरूरत नहीं है। जब एक आदमी अच्छा विचार करता है तो आस-पास एक अच्छे विचार की तरंगें फैलनी शुरू हो जाती हैं। अच्छे विचार को प्रकट करने की जरूरत नहीं है। अचानक किसी आदमी के सामने जाकर आपको लगता है कि शांति आ गई। अचानक किसी आदमी के सामने जाकर लगता है कि अशांति फैल गई। किसी रास्ते से गुजरते हैं, लगता है कि जैसे मन हलका हो गया। किसी रास्ते से गुजरते हैं, लगता है कि जैसे मन भारी हो गया। किसी घर में बैठते हैं और लगता है कि भय पकड़ लेता है। किसी घर में बैठते हैं और लगता है कि हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। ये सब चारों तरफ से आ रही तरंगों के परिणाम हैं। ये चारों तरफ से घेर रही तरंगें आपको छू रही हैं।
ऐसा नहीं है कि यही आपको छू रही हैं, आप भी छू रहे हैं, आप भी इन तरंगों को छू रहे हैं। यह पूरे वक्त चल रहा है। इस समस्त के विस्तार के बीच, हम भी ऊर्जा के एक पुंज हैं। और चारों तरफ डायनामिक सेंटर्स हैं ऊर्जा के, वे सब काम में लगे हैं। ये सारे जगत की नियति हम सबकी इकट्ठी नियति है।
योग के इस चौथे सूत्र का अर्थ है कि अपने को अलग देखना पागलपन है, अपने को अलग मानना नासमझी है, अपने को अलग समझ कर जीना अपने हाथ से अपने सिर पर बोझ ढोना है।
एक छोटी सी कहानी, और अपनी बात मैं पूरी करूं। फिर अगले सूत्र कल आपसे कहूंगा।
मैंने सुना है, एक योगी एक ट्रेन में सवार हुआ, एक फकीर। थर्ड क्लास के डिब्बे में जाकर बैठा। अपनी पेटी सिर पर रख ली, पेटी के ऊपर अपना बिस्तर रख लिया, बिस्तर के ऊपर अपना छाता रख रहा था। पर पास-पड़ोस के लोगों ने कहा, यह क्या कर रहे हो? नीचे रख दो सामान, आराम से बैठो। उस योगी ने कहा कि मैं सोचता हूं, टिकिट तो सिर्फ मैंने अपने लिए ली है। इसलिए ट्रेन पर ज्यादा वजन डालना अनैतिक होगा। इसलिए वजन अपने सिर पर रख रहा हूं। उन लोगों ने कहा, पागल हो गए हैं! आपके सिर पर रखिए तो भी ट्रेन पर तो वजन पड़ेगा ही। इसलिए नाहक अपने सिर को और वजन क्यों दे रहे हैं? नीचे रखिए और आप आराम से बैठिए। ट्रेन तो वजन ढोएगी ही--चाहे सिर पर रखिए और चाहे नीचे रखिए। उस फकीर ने कहा कि मैं तो समझता था अज्ञानी होंगे इस कमरे में, यहां ज्ञानी हैं। नीचे वजन रखा। उन लोगों ने कहा, हम समझे नहीं। तो उस फकीर ने कहा कि जिंदगी में मैंने सभी लोगों को अपने सिर पर वजन रखे देखा, जो वजन परमात्मा पर छोड़ा जा सकता था। मैंने हर आदमी को सारी चिंताओं का बोझ अपने सिर पर लिए हुए चलते देखा, पहाड़ के पहाड़, जो कि चांद-तारों पर छोड़े जा सकते हैं, जिन्हें कि हवाएं उठा लेतीं। लेकिन हर आदमी को मैंने इतनी उदासी और परेशानी से भरा देखा, जो कि फूल उठा लेते, हवा के झोंके उठा लेते, चांद-तारे उठा लेते, सारा जगत उठा लेता। लेकिन हर आदमी अपना बोझ लिए चल रहा है। तो मैंने सोचा कि इस डिब्बे में कहीं आप लोग नाराज न हों, तो मैंने सामान ऊपर रखा था। लेकिन आप तो ज्ञानी हैं। पर उन्होंने कहा कि इस डिब्बे में ही हम ज्ञानी हैं, जहां तक जिंदगी की गाड़ी का सवाल है, वहां तो हम अपना बोझ अपने सिर पर ही रखते हैं। उन्होंने कहा कि अपने सिर पर रखना ही पड़ेगा, क्योंकि हमारे अतिरिक्त और हम किसके सिर पर रखेंगे?
योग कहता है, किसी के सिर पर बोझ नहीं रखना है। बोझ किसी के सिर पर है ही नहीं। सिर्फ उन्हीं के सिर बोझिल हो जाते हैं जो इस सत्य को नहीं जान पाते कि जीवन संयुक्त है, जीवन इकट्ठा है। श्वास हवाओं पर निर्भर है। प्राण की गरमी तारों पर, सूर्यों पर निर्भर है। जीवन का होना सृष्टि के क्रम पर निर्भर है। मृत्यु का होना जन्म का दूसरा पहलू है। यह सब हो रहा है। हम इस सबको सिर पर उठा कर रख लेते हैं।
योग कहता है, अगर हम इसे देख पाएं कि हम एक बड़े जाल के बीच एक छोटे से तंतु से ज्यादा नहीं हैं... ।
एक नदी में दो तिनके बहे जाते थे। तेज थी धार नदी की और एक तिनका नदी की धार से लड़ने की कोशिश कर रहा था। उसने नदी की धार में अपने को आड़ा डाल रखा था और नदी में बांध बांधने की कोशिश कर रहा था कि रोक दूंगा नदी को। कुछ फर्क न पड़ता था, बहा जा रहा था। तिनका ही था। नदी को खबर भी न थी कि किसी तिनके को बांध बांधने का ख्याल आ गया है। नदी को यह भी पता न था कि कोई तिनका लड़ रहा है। कहां होता पता नदी को? नदी भागी जा रही थी सागर की तरफ। वह तिनका बहा जा रहा है, लड़ा जा रहा है। उसके साथ एक दूसरा तिनका है, उसने नदी में अपने को सीधा छोड़ रखा है। और वह सोच रहा है कि नदी को सहयोग दूं। और सोचता था कि नदी मेरे सहारे कितनी तेजी से बही जा रही है। इससे भी कोई फर्क न पड़ता था, नदी को कोई सहारा न मिलता था। नदी को उन दोनों तिनकों से कोई फर्क न पड़ता था--जो नदी को रोकता था उससे, जो लड़ता था उससे; जो नदी को सहयोग देता था, नदी को बहाता था उससे। लेकिन तिनकों को फर्क पड़ता था। जो लड़ रहा था वह व्यर्थ ही मरा जा रहा था, जो बह रहा था। वह आनंद से धारों पर नाच रहा था। दोनों बहे जा रहे हैं--एक लड़ता हुआ, मरता हुआ, परेशान; एक आनंद से पुलकित।
लेकिन योग कहता है कि दोनों तिनके ही मत बनो, क्योंकि दोनों का भ्रम एक-दूसरे से जुड़ा है। तुम तो समझो कि नदी बह रही है, न तुम्हें बहाना है; नदी बह रही है, न तुम्हें रोकना है। और तुम नदी के एक हिस्से हो जाओ। तिनके भी मत रहो, एक लहर बन जाओ। और तब निर्भार हो जाओगे, वेटलेस हो जाओगे। तब कोई भार नहीं रह जाएगा।
चौथा सूत्रः सारा जगत एक प्रवाह है ऊर्जा का। उसमें हम एक लहर से ज्यादा नहीं हैं। सब जुड़ा है। इसलिए जो यहां होता है वह सब जगह फैल जाता है और जो सब जगह होता है वह यहां सिकुड़ आता है।
इस जगत में जो-जो हो रहा है, हम साझीदार हैं, संयुक्त हैं, पार्टनरशिप है, उसमें कोई अलग-अलग नहीं है। अगर कहीं कोई चोर है तो मैं जिम्मेवार हूं। जरूर मेरी बुराइयों ने भी उसे चोर बनाने में सहयोग दिया होगा। और कहीं अगर कोई हत्यारा है तो मैं जिम्मेवार हूं। अगर कहीं कोई साधु है तो भी मैं जिम्मेवार हूं। इसका मतलब यह हुआ कि जिम्मेवारी की कोई जरूरत ही नहीं है, कहीं भी जो हो रहा है, उसमें मैं भागीदार हूं। और तब कोई दोष नहीं है, तब हम अकेले नहीं हैं।
पश्चिम में एक नया शब्द ‘एलिअनेशन’ पकड़ रहा है--अकेलापन, अजनबीपन। स्ट्रेंजर की तरह एक-एक आदमी हो गया है। हर आदमी को लग रहा है कि मैं अकेला हूं, कोई साथी नहीं।
कभी पतियों को भ्रम होता था कि पत्नी साथी है। कभी पत्नियां भ्रम पालती थीं कि पति साथी है। अब सब भ्रम टूटे जा रहे हैं। पत्नी को पक्का नहीं है कि पति साथी है, पति को पक्का नहीं है कि पत्नी साथी है। जब पति प्रेम कर रहा है, तब भी पक्का नहीं है कि मन में डायवोर्स का फार्म भर रहा हो। कुछ पक्का नहीं है। बेटे को पक्का नहीं है बाप का। बाप को पक्का नहीं है कि बेटे बहुत दिन साथ देंगे। कुछ पक्का नहीं है। सब अनिश्चित है। और एक-एक आदमी अकेला हो गया है, एलिअन हो गया है सबसे। इसलिए पश्चिम में इतनी चिंता और इतना बोझ है और एक-एक आदमी दबा जा रहा है पहाड़ों से। और एक-एक आदमी पागल हुआ जा रहा है। यहां भी वही हुआ जा रहा है।
योग कहता है, नासमझी है। तुम अकेले हो, यह तुम्हारी नासमझी है। यह जगत इकट्ठा है। जिस दिन कोई आदमी ऐसा समझ लेता है कि मैं सबके साथ इकट्ठा हूं, उसी दिन उसके ऊपर चिंता के सारे बोझ तिरोहित हो जाते हैं। उसी दिन वह मुक्त हो जाता है भीतर। सब बंधन गिर जाते हैं।
यह चौथा सूत्र! ऐसे कुछ और सूत्रों की मैं आपसे रोज बात करूंगा। इस संबंध में जो भी प्रश्न हों, वे कल आप मुझे लिख कर दे देंगे। उनकी चर्चा कल की चर्चा के साथ मैं करूंगा। रोज जो भी आपके सवाल हों, वे लिख कर देते जाएंगे। ध्यान के संबंध में एक सवाल किसी मित्र ने पूछा है, वह मैं सुबह ध्यान की जो बैठक होगी उसमें बात कर लूंगा।
एक और बात आपसे कर लूं, फिर ध्यान की एक चित्र है वह आप देखें। जो मित्र सुबह ध्यान में आना चाहें--और मैं चाहूंगा कि सभी आना चाहें, क्योंकि जो योग के सूत्र की मैं बात कर रहा हूं, वह सिर्फ बौद्धिक, इंटलेक्चुअल समझ जाएं, अगर उस पर प्रयोग ही करना है, एक्सपेरिमेंट ही करना है, लगे उसमें ही प्रवेश करना है, तो सुबह आना जरूरी होगा। सांझ मैं आपसे बात करूंगा और सुबह उसी बात के लिए हम प्रयोग करेंगे। तो सांझ आप समझ लें और सुबह आप कर लें, तो आपको समझ पूरी आ जाएगी। अन्यथा अकेली समझ आधी समझ हो जाती है और आधी समझ नासमझी से बुरी होगी।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। अंत में आप सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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