सत्य की प्यास-(विविध)
पहला प्रवचन
स्वतंत्रता--विचार की, विवेक की
मेरे प्रिय आत्मन्!एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा को शुरू करना चाहूंगा।
बहुत वर्षों पहले की बात है, एक बूढ़ा व्यक्ति अंधा हो गया, उसकी आंखें चली गईं। उसकी उम्र सत्तर को पार कर चुकी थी। उसके आठ लड़के थे, आठ लड़कों की बहुएं थीं, पत्नी थी। उसके मित्रों ने, उसके परिवार के लोगों ने समझाया, आंखों का इलाज करवा लें। लेकिन उस बूढ़े आदमी ने कहा कि अब मेरी आंखों का उपयोग भी क्या, बूढ़ा हो गया हूं। फिर मेरे आठ लड़के हैं, उनकी सोलह आंखें हैं; मेरी आठ बहुएं हैं, उनकी सोलह आंखें हैं; मेरी पत्नी है; ऐसा मेरे घर में चौंतीस आंखें हैं। क्या चौंतीस आंखों से मेरा काम नहीं चल सकेगा? और मेरी दो आंखें न भी हुईं तो फर्क क्या पड़ता है!
बात ठीक ही थी। घर में चौंतीस आंखें थीं, दो आंखें न हुईं तो कौन सा फर्क पड़ेगा? उसे बूढ़े ने जिद्द की और अपनी आंखों का उपचार नहीं करवाया। लेकिन पंद्रह दिन ही बीते होंगे कि उस बड़े भवन में आग लग गई जिसका वह निवासी था। वे बत्तीस, चौंतीस आंखें आग लगते ही घर के बाहर हो गईं। और उन चौंतीस आंखों में से किसी को भी यह ख्याल न आया कि एक बूढ़ा आदमी भी घर के भीतर है जिसके पास आंखें नहीं हैं। जब वे बाहर पहुंच गए, आग के बाहर हो गए--लड़के और बहुएं और पत्नी, तब उन्हें स्मरण आया कि घर का वृद्ध व्यक्ति घर में छूट गया है। लेकिन तब कुछ भी करना संभव न था। लौटने की कोई गुंजाइश न थी।
और जब सभी लोग बाहर रह गए, निकल गए उस बूढ़े आदमी को छोड़ कर, और जब आग की लपटें उस अंधे आदमी को जलाने लगीं और वह अंधा आदमी भागने लगा और दरवाजा मिलना मुश्किल हो गया, तब उस बूढ़े को भी स्मरण आया कि जब आग लगी हो तो अपनी ही आंखें काम पड़ सकती हैं किसी और की आंखें नहीं। लेकिन तब बहुत देर हो चुकी थी। और उस बूढ़े आदमी को उस आग से भरे हुए मकान में जल जाना पड़ा। उसके मन में कौन से ख्याल रहे होंगे मरते वक्त? कौन सा विचार रहा होगा मरते वक्त? अपनी आंख होती तो वह बाहर हो सकता था। परायी आंख आग लगे हुए मकान में बाहर निकलने के काम नहीं आ सकती।
इस कहानी से इसलिए शुरू करता हूं, जीवन भी करीब-करीब आग लगा हुआ मकान है। किसी को लपटें दिखाई पड़ती हैं, किसी को नहीं। लेकिन चौबीस घंटे हम एक जलते हुए मकान के भीतर हैं। कोई आज जल जाएगा, कोई कल जल जाएगा, कोई परसों जल जाएगा। देर होगी, किसी को थोड़ा समय लगेगा, लेकिन जिस मकान के हम भीतर हैं, वह मकान आज नहीं कल जलाने वाला सिद्ध होने को है। क्योंकि चाहे और कुछ अनिश्चित हो, एक बात निश्चित है कि जिसे हमने मकान समझा है वह हमारी चिता सिद्ध होगा। और जिसे हमने जीवन जाना है वह हमारी मृत्यु बनेगा। और हम रोज, चाहे हम कुछ भी कर रहे हैं, चाहे हम भजन गा रहे हों और चाहे गीता पढ़ रहे हों और चाहे दुकान कर रहे हों और चाहे मंदिर में बैठे हों, हम जो भी कर रहे हैं, हमारा सब किया हुआ हमें मौत के करीब ले जा रहा है। हम जो भी कर रहे हैं। चाहे हम एक सिनेमागृह में बैठे हों और चाहे एक मंदिर में बैठे हों, बीता हुआ सब समय हमें मौत के करीब पहुंचा रहा है। इससे कोई भेद नहीं पड़ता है कि आप क्या कर रहे हैं, एक बात तय है, आप कुछ भी कर रहे हों आपका सब करना मृत्यु के निकट ले जा रहा है।
मकान जल रहा है और आज नहीं कल आप उसके साथ जलेंगे। क्या इस जीवन के जलते हुए मकान में किसी दूसरे की आंखें आपके काम आ सकती हैं? चाहे वे आंखें राम की हों और चाहे कृष्ण की और चाहे मोहम्मद की हों और चाहे क्राइस्ट की, चाहे महावीर की, वे आंखें अगर आपकी नहीं हैं, तो आप स्मरण रखिए, वे आपके काम नहीं आ सकतीं। किसी दूसरे की आंख किसी दूसरे के काम नहीं आ सकतीं। यह असंभव है कि किसी दूसरे के काम आ जाए। इससे बड़ी और कोई असंभावना, इससे बड़ी कोई इंपासिबिलिटी नहीं है कि मैं आपकी आंखों से देख लूं, कि आपकी आंखों से चल लूं। लेकिन सत्य की खोज में, जीवन की खोज में हम दूसरों की उधार आंखों से चलना चाहते हैं। हमारा जितना ज्ञान है, वह सब उधार, बारोड। हमारी जितनी समझ है, वह हमारी नहीं किसी और की है। अज्ञान हमारा है, ज्ञान दूसरों का। दूसरों के ज्ञान से हमारा अज्ञान नहीं मिटेगा। चलना हमें हैं, आंखें दूसरों की हैं। रास्ता हमारा है, मकान हमारा है, जिसमें आग लगी है और हम गिरे हैं, मैं घिरा हूं और आंखें आपकी हैं। जिंदगी का सारा दुख यही है, अज्ञान हमारा है और ज्ञान दूसरों का है। जीवन का सारा कंटरडिक्शन, जीवन का सारा विरोध यही है, अंधकार हमारा है, प्रकाश दूसरों का है।
दूसरों का प्रकाश हमारे अंधकार को मिटाने में असमर्थ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं दूसरों के द्वारा दिए गए प्रकाश का अपमान कर रहा हूं। नहीं, मैं तो केवल एक तथ्य की बात यह कह रहा हूं कि दूसरों का प्रकाश केवल दूसरों का प्रकाश है आपका नहीं। अंधकार आपका है, अज्ञान आपका है। तो इस अज्ञान को, इस अंधकार को मिटाने का एक ही उपाय है कि किसी भांति आपकी अपनी आंख खुल सके और आपका अपना ज्ञान पैदा हो सके। अन्यथा जीवन में तो शायद पता नहीं चलेगा लेकिन मृत्यु के क्षण में ज्ञात होगा कि कोई ज्ञान काम नहीं आया।
जैसे उस बूढ़े आदमी को जब आग लग गई घर में तब पता चला कि दूसरों की आंखें सहयोगी सिद्ध नहीं हुईं, वैसे ही मृत्यु के क्षण में सभी को ज्ञात होता है कि सभी शास्त्र, सभी ज्ञान, वह सब जो सीख लिया था, जो अपना नहीं था, वह काम नहीं पड़ता है, वह कभी काम नहीं पड़ा है। वह हमारे मरने के पहले ही व्यर्थ हो जाता है। वह व्यर्थ था ही। सच यह है कि जीवन की अनुभूतियां जब तक अनुभव न की जाएं तब तक उस संबंध में हम जो भी जानते हैं वह न जानने से भी बदतर है। अज्ञान बेहतर है दूसरों के ज्ञान से। क्यों? अज्ञान इसलिए बेहतर है कि अगर कोई अपने अज्ञान को ठीक से जानें, तो वह अज्ञान ही इतनी पीड़ा से भर देगा कि ज्ञान की खोज पैदा हो जाएगी। अगर कोई अपने अज्ञान से परिचित हो जाए, तो वह वैसे ही है जैसे कोई अपनी बीमारी से परिचित हो जाए। जो अपनी बीमारी से परिचित हो जाता है वह स्वास्थ्य की दिशा में खोज शुरू कर देता है। लेकिन जिस आदमी को यही पता न हो कि वह बीमार है, उसकी स्वास्थ्य की खोज भी प्रारंभ नहीं होती। और जिसने अपनी बीमारी को छिपा लिया हो, वह तो आत्मघाती है। क्योंकि छिपी हुई बीमारी धीरे-धीरे बढ़ती है और प्राणों तक फैल जाती है। और हम इस भ्रम में होते हैं कि बीमारी नहीं है।
दूसरों के ज्ञान से हमारा अज्ञान छिप जाता है मिटता नहीं। और छिपा हुआ अज्ञान खतरनाक है। खतरनाक इसलिए है कि छिपा हुआ अज्ञान प्राणों में फैलता चला जाता है। ऊपर से शास्त्र कंठस्थ हो जाते हैं, गीता, कुरान और बाइबिल याद हो जाते हैं। और सुंदर-सुंदर वचन, और सुंदर-सुंदर सिद्धांत हमारी स्मृति में घर कर लेते हैं और हम उन्हीं को दोहराने लगते हैं। यह सारी लर्निंग, यह सारा सिखावट, यह सारी सब झूठी बातें हैं। क्योंकि हमारे प्राणों में गहन अज्ञान होता है। जिसे हम दूसरे के ज्ञान से ढंक लेते हैं और छिपा लेते हैं लेकिन मिटा नहीं पाते।
कोई मिटा नहीं सकता है इसे भांति। और तब बुद्धि ज्ञान से भर जाती है और आत्मा अज्ञान में डूबी रहती है। हमारे पंडित का क्या, हमारे सारे पांडित्य का, हमारी सारी समझ का, हमारी सारी जानकारी का और क्या प्रयोजन हुआ है सिद्ध? एक ही बात हुई है, हम अपने अज्ञान को छिपाने में समर्थ हो जाते हैं। और यह सर्वाधिक दुखद स्थिति है जिसमें मनुष्य पड़ सकता है।
इसलिए आज की सुबह में प्रार्थना करूंगा, ज्ञान से मुक्त हो जाएं, अगर सच में ज्ञान पाना हो। जो ज्ञान से मुक्त नहीं होता, वह कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं होगा। दूसरों की आंखों से मुक्त हो जाएं, अगर अपनी आंख खोजनी हो। दूसरों की आंख का सहारा छोड़ दें, अगर तलाश करनी हो इस बात की कि क्या मेरे पास भी कोई आंख है जो खोली जा सके। क्योंकि जो दूसरों का सहारा पकड़ लेता है वह फिर अपना सहारा खो देता है। और जो दूसरों का हाथ पकड़ कर चलने लगता है उसे यह ख्याल ही भूल जाता है कि मैं भी चल सकता था अपने पैरों से। और जो निर्भर हो जाता है दूसरों के ज्ञान पर वह धीरे-धीरे यह भूल ही जाता है कि अपना ज्ञान, अपनी अनुभूति जैसी भी कोई घटना हो सकती थी, यह स्मृति ही उसे भूल जाती है।
और जीवन का एक सरल सा सूत्र हैः हम जीवन की जिस ऊर्जा और शक्ति का उपयोग करना बंद कर देते हैं वह शक्ति अगर जागती भी हो तो सो जाती है। अगर कोई आदमी दो-चार वर्ष तक अपनी आंखें बंद करके बैठ जाए और देखने का उपयोग न ले आंखों से, तो भली आंखें भी धीरे-धीरे मंदी पड़ जाएंगी, फीकी पड़ जाएंगी और समाप्त हो जाएंगी। कोई अपने पैरों को बांध ले और दो-चार वर्ष तक चलने का उपयोग न ले, तो चलते हुए स्वस्थ पैर भी मुर्दा और जड़ हो जाएंगे, पंगु हो जाएंगे और चलना बंद कर देंगे। लेकिन आत्मा के संबंध में हम सब अपनी आत्माओं को पंगु किए बैठे हैं। विवेक और विचार के संबंध में हम सब अपनी आंखें बंद किए बैठे हैं। और अगर इसका परिणाम यह हुआ हो कि हमारा विवेक नहीं जागता और हमारी आत्मा में स्फुरणा नहीं होती प्रकाश की, तो इसमें कौन कसूरवार है? कौन दोषी है? हम। हम इसलिए दोषी हैं कि हमने विश्वास कर लिया है कि कहीं और से ज्ञान उपलब्ध हो जाएगा।
ये कहीं और से ज्ञान उपलब्ध हो जाएगा, किसी और से--किसी तीर्थंकर से, किसी पैगंबर से, किसी ईश्वर के पुत्र से ज्ञान उपलब्ध हो जाएगा, किसी गुरु से ज्ञान उपलब्ध हो जाएगा। किसी और से ज्ञान उपलब्ध हो जाएगा यह धारणा जिसकी है उसे कभी ज्ञान उपलब्ध नहीं हो सकेगा। क्योंकि ज्ञान है उसके भीतर सोई हुई क्षमता। ज्ञान कोई संपत्ति नहीं है कि मैं कहीं जाऊं और खोज लाऊं। ज्ञान कोई बाहरी वस्तु नहीं है कि मैं जाऊं और खरीद लाऊं, किसी से मांग लूं या चुरा लूं। ज्ञान है मेरे प्राणों का सोया हुआ संगीत। ज्ञान है मेरे प्राणों की सोई हुई क्षमता। उसे मैं जगाऊं, तो वह जाग सकती है। लेकिन जब तक मैं बाहर से ज्ञान को इकट्ठा करने में विश्वास करूंगा, तब तक मैं ज्ञान के नाम पर सूचनाएं इकट्ठी कर लूंगा। नालेज के नाम पर इनफर्मेशंस इकट्ठी कर लूंगा। और उन सूचनाओं को समझ लूंगा कि यह ज्ञान हो गया। और जिसने सूचनाओं को ज्ञान समझ लिया उसके जीवन में ज्ञान के द्वार बंद हो जाते हैं। मैं अगर आपसे पूछूं, अभी चर्चा शुरू होने के पहले किसी मित्र ने कहा कि तो थोड़ी देर हम भगवान का नाम ही ले लें।
कितनी आश्चर्य की बात है, भगवान का नाम है जो आप ले लेंगे? और भगवान का नाम आपको पता कैसे चल गया? किसने आपको बता दिया भगवान का नाम? भगवान का कोई नाम है या कि सब नाम हमने भगवान के कल्पित कर लिए हैं। और हमें भगवान का नाम भी पता है और अपना नाम पता भी नहीं होगा। अगर हम किसी से पूछें कि तुम्हें अपना पता है, तो उसे अपने नाम का भी पता नहीं होगा कि वह क्या है, कहां से है, कौन है। लेकिन हमें कहेंगे कि हमें भगवान का नाम पता है। और भगवान का कोई नाम हो सकता है? लेकिन हम भगवान का नाम आधा घंटा ले सकते हैं और इस भ्रम में रह सकते हैं कि हमने भगवान का स्मरण किया।
हमें जिन्हें अपना भी पता नहीं है उन्हें भगवान के नाम का पता है! और हम उसे ले लेंगे और दोहरा लेंगे आधा घंटा और एक तृप्ति की श्वास लेकर घर लौट जाएंगे कि हमने भगवान का नाम लिया! इससे बड़ी झूठ और कुछ भी नहीं हो सकती। इससे बड़ा असत्य और क्या हो सकता है। लेकिन हमें सीखनी है कुछ बातें, कुछ बातें हमें बता दी गई हैं कि यह भगवान का नाम है। और हमने इसे स्वीकार कर लिया है। और हम इस स्वीकृति को दोहराते हैं। और तब इसका एक ही परिणाम होता है वह यह कि भगवान को बिना जाने जानने का भ्रम पैदा हो जाता है। बिना जाने जानने का भ्रम पैदा हो जाता है। कहीं भी हमें कोई भीतर से संबंध भगवान से पैदा नहीं हो पाता, लेकिन कुछ शब्द, कुछ सिद्धांत, कुछ नाम, जो चारों तरफ हवा से हम सीख लेते हैं, उनसे हमें प्रतीत होता है हमने भगवान को जाना।
मैं आपसे निवेदन करूं, इस भांति की जो आस्तिकता है सीखी हुई, भगवान तक पहुंचने में इससे बड़ी और कोई बाधा नहीं है, और बड़ा कोई हिंडरेंस नहीं है। इसलिए ये तथाकथित आस्तिक शायद ही कभी भगवान को जान पाता हो। शायद ही। क्योंकि खोजने के पहले उसने मान लिया, जानने के पहले उसने जान लिया, पहचानने के पहले उसने पहचान बना ली, जो कि बिल्कुल झूठी होगी, जो कि बिल्कुल असत्य होगी। और इस पहचान पर उसकी खोज चलेगी, इस पहचान पर उसका सारा ज्ञान निर्मित होगा, सारा जीवन निर्मित होगा। वह सारा जीवन मिथ्या हो जाएगा, झूठा हो जाएगा। क्योंकि उसका प्रारंभ ज्ञान से नहीं हुआ, अज्ञान को छिपाने से हुआ है। क्या यह उचित न होगा ईश्वर के खोजी को, परमात्मा की तलाश में गए हुए व्यक्ति को, या सत्य के अनुसंधान लगे हुए मनुष्य को, या जीवन के अर्थ को जो खोजने निकला है उसको, क्या सबसे पहले यह उचित न होगा कि वह यह जान ले कि वह कुछ भी नहीं जानता है? क्या यह प्राथमिक सीढ़ी न होगी कि वह अपने निपट और गहन अंधकार को और अज्ञान को स्वीकार कर ले?
यूनान में किसी ने खबर उड़ा दी थी कि साक्रेटीज ज्ञानी हो गया है। उसे ज्ञान उपलब्ध हो गया है। उसने परमात्मा को और सत्य को जान लिया। वह महाज्ञानी है। एक मित्र ने जाकर साक्रेटीज को कहा कि यह खबर फैलती है एथेंस में, गांव-गांव में यूनान के यह खबर पहुंच रही है कि तुम महाज्ञान को उपलब्ध हो गए हो।
साक्रेटीज ने कहा कि मित्रो, मालूम होता है कुछ भूल हो गई। जब मैं छोटा सा बच्चा था, तो मैं समझता था कि मुझे ज्ञान है। जब मैं जवान हुआ, तो मेरे ज्ञान की एक-एक ईंट खिसकने लगी। और जब मैं जितना-जितना सोचने लगा उतना-उतना मुझे पता चला कि मैं तो कुछ जानता नहीं हूं। और अब जब मैं बूढ़ा हो गया हूं, तो मैं यह बहुत सरलता से, स्पष्टता से कह सकता हूं कि मैं एकदम अज्ञान में हूं, मैं कुछ भी जानता नहीं हूं। तो जाओ और उनसे कह दो कि वह बात गलत है, साक्रेटीज तो कहता कि वह कुछ भी नहीं जानता है।
वे लोग गए, और जिन लोगों ने यह खबर उड़ा रखी थी कि साक्रेटीज महाज्ञानी है उनसे उन्होंने जाकर कहा, कि साक्रेटीज तो कहता है कि मैं परम अज्ञानी हूं। तो उन लोगों ने कहाः इसीलिए, इसीलिए तो हम कहते हैं कि उसे ज्ञान उपलब्ध हो गया है। क्योंकि ज्ञान को उपलब्ध करने की पहली शर्त यही है कि हम अपने अज्ञान को परिपूर्णतया में स्वीकार कर लें और जान लें; उसे छिपाएं न, उसे ढांके न, उसे वस्त्रों से ओढ़ कर आंखों से ओझल न करें। यह जो हमारी आस्तिकता है, हमारा ज्ञान है, हमारी जानकारी है, यह सबकी सब हमारे अज्ञान को मिटाने में समर्थ नहीं है, सिर्फ ढांकने में समर्थ है। और ढंका हुआ अज्ञान खतरनाक है। और उस ढंके हुए अज्ञान को, और उस अज्ञान से निकली हुई व्याख्याएं और भी खतरनाक हो जाती हैं।
रामकृष्ण कहते थे, एक आदमी बचपन का अंधा था, वह अपने एक मित्र के घर मेहमान हुआ। मित्र ने बहुत-बहुत मिठाइयां बनाईं उसके स्वागत में। उसने किन्हीं मिठाइयों के संबंध में पूछा कि ये कैसे बनी हैं? मुझे बहुत अच्छी लगीं, उस अंधे ने पूछा। तो मित्र ने कहा कि ये दूध से बनी हैं। उस अंधे ने पूछा कि क्या मैं जानना चाहूं तो जान सकता हूं कि दूध कैसा होता है? क्या मुझे समझाओगे? क्या मुझे थोड़ा ज्ञान दोगे इस संबंध कि दूध कैसा होता है?
अंधे का पूछना तो उचित था, स्वाभाविक था। उसके मन में ख्याल उठा होगा कि जानूं कि दूध कैसा है? यह जिज्ञासा सबके भीतर है कि हम जानें। जानने कि जिज्ञासा सबके भीतर है, उसके भीतर भी थी। उसका प्रश्न तो उचित था, लेकिन मित्र नासमझ रहा होगा। मित्र समझाने बैठ गए, परिवार के लोग कि दूध कैसा है। तो उस मित्र ने कहा कि दूध--बगुला देखा है, बगुले के जैसा सफेद, शुभ्र, जैसे बगुले के पंख होते हैं ऐसा सफेद दूध होता है।
उस मित्र ने कहा कि दूध की बात तो वहीं रही, अब पहले मुझे यह बताओ यह बगुला क्या है और कैसा होता है? क्योंकि मैंने तो कभी बगुला देखा नहीं है, मैं तो कभी जानता नहीं यह शुभ्र क्या है, सफेद क्या है। मेरा पहला प्रश्न तो अपनी जगह रहा, अब मुझे इस दूसरे प्रश्न का पहले उत्तर दो।
मित्र नासमझ रहे होंगे, अब भी उनको ख्याल नहीं आया कि वे क्या कर रहे हैं। मित्र की पत्नी ने अपना हाथ ऊपर उठाया और उस अंधे आदमी को कहाः मेरे हाथ पर हाथ फेरो, जैसा मेरा हाथ लंबा है ऐसे ही बगुले की गर्दन होती है। जैसा मेरा हाथ झुका है ऐसा ही उसका सिर झुका होता है। उस अंधे आदमी ने उसकी पत्नी के हाथ पर हाथ फेरा और फेर कर वह खुशी से भर गया और उसने कहा कि मैं समझ गया दूध कैसा होता है। मैं समझ गया, मुड़े हुए हाथ की भांति दूध होता है, मैं समझ गया।
तब वे मित्र बहुत परेशान हुए। इससे से तो बेहतर था कि यह अंधा आदमी जानता कि मैं नहीं जानता हूं कि दूध कैसा होता है। यह इसका जानना तो बहुत खतरनाक हो गया। उसने कहा कि मुड़े हुए हाथ की भांति दूध होता है, मैं समझ गया, मैं बिल्कुल समझ गया। वे उसे रोकने लगे कि तुम ठहरो समझने में, थोड़ा रुको, इतनी जल्दी मत करो। पर उसने कहा कि नहीं, मैं समझ गया, अब और क्या है समझने में। दूध बगुले की भांति होता है, बगुला मुड़े हुए हाथ की भांति होता है। मतलब, गणित सीधा है, दूध मुड़े हुए हाथ की भांति होता है।
यह जिस अंधे आदमी को जो दूध का ज्ञान हुआ, परमात्मा का सारा हमारा ज्ञान ऐसा ही है मुड़े हुए हाथ की भांति। हम परमात्मा को नहीं जानते। अंधा आदमी दूध को नहीं जानता। मित्र समझाते हैं कि दूध कैसा होता है। पंडित हमें समझाते हैं कि परमात्मा कैसा होता है। न तो मित्र अंधे आदमी से कहता है कि मैं न समझाऊंगा, समझाना व्यर्थ है, समझाया नहीं जा सकता, आंख हो तो समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं समझाया जा सकता। मित्र यह नहीं कहता है, पंडित भी यह नहीं कहता है कि आंख हो तो समझा जा सकता है।
मित्र भी समझाता है, पंडित भी समझाता है। और हम समझ लेते हैं। और तब हमारी समझ इस तरह की होती है--हिंदू एक तरह का भगवान बनाता है, मुसलमान दूसरी तरह का भगवान बनाता है, क्रिश्चियन तीसरी तरह का भगवान बनाता है। दुनिया में न मालूम कितने तरह के भगवान पैदा हो जाते हैं। क्योंकि हरेक अंधा आदमी अपने अंधेपन में कोई कल्पना करता है और उस कल्पना को समझ लेता है कि भगवान है। फिर इन कल्पनाओं पर झगड़े होते हैं, फिर इन कल्पनाओं पर हत्याएं होती हैं।
तीन हजार साल से धार्मिक आदमी एक-दूसरे की हत्या कर रहे हैं। एक-दूसरे का मंदिर तोड़ रहे हैं, किताबें जला रहे हैं, आग लगा रहे हैं। बड़ा पागलपन है। नास्तिकों ने इतना कुछ बुरा नहीं किया दुनिया में आज तक। नास्तिकों के ऊपर कोई बहुत बड़े अपराध नहीं हैं। न तो मकान में आग लगाने के, न लोगों की हत्या करने के, न स्त्रियों पर बलात्कार करने के, न मंदिर-मूर्तियां तोड़ने के, न मस्जिदें जलाने के। नास्तिकों के ऊपर कोई अपराध नहीं है सारी दुनिया में। यह बड़ी हैरानी की बात है, आस्तिकों पर अपराध और नास्तिकों पर अपराध नहीं है। जरूर कुछ गड़बड़ हो गई है। जरूर कुछ गड़बड़ हो गई है। यह आस्तिक के साथ कुछ गड़बड़ है। और वह गड़बड़ यह है कि इसकी आस्तिकता झूठी है, बंद आंखों की आस्तिकता है। इसने कुछ धारणाएं बना ली हैं। और उन धारणाओं के इर्दगिर्द जीता है। दूसरों ने दूसरी बना ली हैं। और अंधों की धारणाएं आपस में लड़ती हैं और कठिनाई खड़ी हो गई है। अन्यथा आंख खुली आस्तिकता का एक ही धर्म हो सकता है, दस धर्म नहीं हो सकते। और आंख खुले मनुष्य का एक ही परमात्मा हो सकता है, दस परमात्मा नहीं हो सकते।
लेकिन हमारा यह जो, हमारी जो यह स्थिति है, हमारे ये जो मंदिर और मस्जिद हैं, हमारा यह जो सारा का सारा दुनिया में आस्तिकों का उपद्रव है, यह कैसे खड़ा हो गया है? यह खड़ा हो गया इस बात से कि यह ज्ञान, यह परमात्मा का बोध हमारे प्राणों से नहीं उपजा है, यह हमने सूचनाओं की तरह स्वीकार कर लिया है। और तब, तब धर्म के अड्डे ही अधर्म के अड्डे हो जाएं तो आश्चर्य नहीं है। और तब सारी दुनिया में धर्म के प्रति विरोध पैदा हो और धर्म के प्रति अपमान पैदा हो, अनादर पैदा हो, अनास्था पैदा हो, तो भी कोई आश्चर्य नहीं है। और अगर दुनिया का युवक मंदिरों में जाना बंद कर दे और चर्चों में जाना बंद कर दे, और आदर देना बंद कर दे, और धर्म का सारी दुनिया में अपमान शुरू हो जाए, तो भी आश्चर्यजनक नहीं है।
इसका जिम्मा किस पर है? इसका जिम्मा उन्हीं लोगों पर है जिन्होंने बंद आंखों से धर्म निर्मित किया है। और ऐसा धर्म डूबेगा और जाएगा, इसके पहले कि ऐसा धर्म डूबे और चला जाए, क्या आंख वाला धर्म पैदा नहीं हो सकता है? क्या हम आंख खोल कर सत्य की खोज और जिज्ञासा में संलग्न नहीं हो सकते हैं? मुझे दिखाई पड़ता है कि हो सकते हैं। होना पड़ेगा। होना जरूरी है। होना अनिवार्य है। क्यों? क्योंकि जो बंद आंख से जीवन को टटोलता है और जो धारणाएं बनाता है, वे खतरनाक हैं, अधूरी हैं, घातक हैं, अज्ञान से भी ज्यादा घातक हैं। तो अज्ञान कैसे टूटे? एक रास्ता हम जानते हैं, अज्ञान कैसे ढंके। और इसलिए एक आदमी बहुत से शास्त्र पढ़ ले और शास्त्रों की बातें करने लगे, तो अज्ञान ढंका हुआ मालूम पड़ने लगता है। सस्ता है यह रास्ता अज्ञान को ढांक लेने का। लेकिन ढंका हुआ अज्ञान नष्ट नहीं होता है। वह और गहरे हमारे प्राणों में प्रविष्ट हो जाता है।
इसलिए पंडित से ज्यादा अज्ञानी आदमी खोजना कठिन है। वह बहुत कुछ जानता हुआ मालूम पड़ता है और बिल्कुल भी नहीं जानता। शब्द हैं उसके पास, सिद्धांत हैं उसके पास। विवाद कर सकता है, विरोध कर सकता है, शास्त्रार्थ कर सकता है, हरा सकता है, जीता सकता है। लेकिन जहां तक जानने का संबंध है, उससे उसका दूर का भी संबंध नहीं।
एक साधु के आश्रम में एक संध्या एक घूमता हुआ संन्यासी पहुंचा। वह संन्यासी खोज रहा था किसी गुरु को। उस आश्रम के बूढ़े गुरु के पास, सोचा, कुछ दिन रुकूं। कोई पंद्रह दिन वहां रुका। लेकिन पंद्रह दिन में उसे ऐसा लगा कि वह बूढ़ा गुरु कुछ बहुत जानता नहीं है। कुछ थोड़ी सी बातें रोज-रोज दोहराता है। ऊब पैदा हो गई। इतनी सी थोड़ी सी बातें थीं, उन्हीं-उन्हीं को रोज-रोज सुनने का क्या प्रयोजन था, एक दिन उसने सोचा कि और कहीं खोजूं, और कहीं जाऊं।
जिस रात आश्रम छोड़ने को था उसी रात एक और युवक संन्यासी उस आश्रम में पहुंचा। उस रात उस आश्रम के अंतेवासी इकट्ठे हुए। और वह जो नया संन्यासी उसी संध्या पहुंचा था, उसने कुछ ऐसी वेदांत की बारीक और सूक्ष्म चर्चा की कि वे सभी आश्रम के अंतेवासी बहुत-बहुत प्रभावित हुए। वह युवक जो उस दिन आश्रम छोड़ने को था, उसने भी सोचा कि गुरु हो तो ऐसा हो। कितनी बारीक, कितनी सूक्ष्म, एक-एक शब्द की कितनी गहराइयां उस व्यक्ति ने प्रकट की थीं। उस युवक के मन में लगा कि आज इस बूढ़े गुरु के मन में कितनी ईर्ष्या न जलती होगी, कितना मन ही मन में जलन नहीं होती होगी। यह तो कुछ भी नहीं जानता है, और यह युवा संन्यासी जो आज आया है कितना जानता है। बात पूरी हुई, कोई दो घंटे तक चर्चा चली, उस आगुंतक संन्यासी ने जिसने यह सारी चर्चा की थी, दो घंटे के बाद सिर उठा कर देखा कि लोगों पर क्या प्रभाव पड़ा। उसने उस बूढ़े से पूछा कि आपको कैसा लगा मैंने जो कहा?
उसे बूढ़े ने जो कहा वह बहुत समझने जैसा है। उसने कहा कि मेरे मित्र, मैं दो घंटे से श्वास साधे हुए तुम्हें सुनता हूं कि तुम कुछ बोलो, लेकिन तुम तो कुछ बोलते ही नहीं।
उस संन्यासी ने कहाः आप क्या कहते हैं, मैं कुछ बोलता नहीं तो कौन बोलता था दो घंटे तक? आप पागल तो नहीं हैं?
उस बूढ़े ने कहाः मैंने बहुत समझने की कोशिश की, तुम्हारे भीतर से उपनिषद बोलते हैं, गीता बोलती है, लेकिन तुम नहीं बोलते। इसलिए मैं कहता हूं कि दो घंटे मैंने सुना तुम तो बोलते नहीं। शास्त्र बोलते हैं, सिद्धांत बोलते हैं, शब्द बोलते हैं तुम नहीं बोलते। यह दो घंटे में तुमने जो भी कहा इसमें से क्या तुम्हारा है? उसे मैं समझूंगा कि तुमने बोला। तुम मुझे दोहरा दो कि क्या तुम्हारा है? और अगर इसमें से कुछ भी तुम्हारा नहीं है, तो मैं कैसे मानूं कि तुम बोले? तुम तो चुप रहे, कोई और तुम्हारे भीतर से बोलता चला गया।
यही मैं आपसे पूछता हूं, यही मैं सबसे पूछता हूं कि क्या आपका है? परमात्मा को आप जानते हैं? जो सुबह रोज बैठ कर उसका नाम ले लेते हैं। आत्मा को आप जानते हैं? जो आप दोहराते हैं कि भीतर आत्मा है जो अमर है। आप जानते हैं कि मृत्यु के बाद आप बचेंगे? आप जानते हैं कि जन्म के पहले आप थे? क्या आप जानते हैं? वह जो सामने एक पत्थर पड़ा है आपके घर के, उसको जानते हैं? वह जो पौधा निकला है आपकी बगिया में, उसको जानते हैं? वे जो आकाश में बादल भटकते हैं, उनको जानते हैं? क्या जानते हैं? आप क्या जानते हैं? बहुत कुछ जानते होंगे आप, लेकिन वह जानना आपका जानना नहीं होगा। आपने कहीं से सीखा होगा, सुना होगा, कहीं से पढ़ा होगा। जो भी कहीं से सीखा है, सुना है, पढ़ा है, वह आपका जानना नहीं है। और जो आपका जानना नहीं है वह आपकी मुक्ति नहीं बन सकता। जो आपका ज्ञान नहीं है वह आपका प्रकाश नहीं बन सकता, वह आपकी आंख नहीं बन सकता।
तो सबसे पहली बात तो इस बात को खोजने की है कि क्या मैं जानता हूं? मैं, मैं क्या जानता हूं? तो बहुत घबड़ाहट होगी, पता चलेगा मैं तो कुछ भी नहीं जानता। कोई और जानता है, उसकी बातें मैं दोहराता हूं। क्या आप सोचते हैं ज्ञान उधार लिया जा सकता है? क्या आप सोचते हैं ज्ञान हस्तांतरित हो सकता है? एक हाथ से दूसरे हाथ में जा सकता है?
नहीं, ज्ञान तो एक हाथ से दूसरे हाथ में कभी नहीं जा सकता। ज्ञान कभी दोहराया नहीं जा सकता। किसी दूसरे को दिया नहीं जा सकता। तो फिर हम यह जो जानते हैं यह क्या है? यह ज्ञान है? एक विचार भी आपका है? एक अनुभूति, एक अंतर्दृष्टि आपकी है जो आप निपट सहज मन से जान सकें कि यह मैंने, यह मैंने जाना? क्या ऐसा कोई जीवंत अनुभव है? अगर नहीं है, तो फिर यह ज्ञान जितना हम जानते हैं यह क्या है?
यह अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि यह ज्ञान नहीं है और ज्ञान होने का भ्रम पैदा कर देता है। यह इल्युजरी है, यह मिथ्या है, यह झूठा है। यह ज्ञान नहीं है और ज्ञान होने का भ्रम पैदा कर देता है। और हम क्यों इसे स्वीकार कर लेते हैं? आलस्य के कारण स्वीकार कर लेते हैं। खुद ज्ञान खोजना हो तो श्रम करना पड़ेगा। शक्ति और साहस चाहिए, खोज की हिम्मत चाहिए, अनजान, अपरिचित रास्तों पर चलने की हिम्मत चाहिए। अपरिचित सागर में नौका खोलने में जितनी हिम्मत चाहिए उससे कहीं बहुत ज्यादा सत्य के अपरिचित सागर में यात्रा करने की हिम्मत चाहिए। लेकिन इस सबसे सस्ते में निबटारा हो जाता है। हम किताबें उठा लेते हैं और कुछ बातें सीख लेते हैं। और सीख कर उन बातों को तोतों की भांति दोहराने लगते हैं। और उन दोहराई बातों से ज्ञानी होने का मजा मिलना शुरू हो जाता है। और दो-चार लोग भी हमारे आस-पास इकट्ठे हो सकते हैं जो हमको गुरु कहने लगें कि ये बहुत जानते हैं, इन्हें गीता पूरी कंठस्थ है, उपनिषद पूरे आते हैं। तो न केवल हम ज्ञानी बन जाते हैं, गुरु बन जाते हैं, दो-चार और शिष्य भी इकट्ठे आस-पास हो जाते हैं। और एक अजीब, एक नासमझी का अजीब क्रम दुनिया में चलना शुरू होता है। और यह चल रहा है हजारों वर्ष से। बहुत थोड़े से लोगों को ज्ञान उपलब्ध हुआ है। और उसका कारण यह नहीं है कि ज्ञान उपलब्ध होना कोई बहुत दुरूह और कठिन बात है, उसका कारण केवल इतना है कि हम सब्स्टीट्यूट नालेज से तृप्त हो जाते हैं, पूरक ज्ञान से तृप्त हो जाते हैं।
कोई आदमी पानी की खोज में जाए और रास्ते में नकली पानी मिल जाए, कोई आदमी फूल की खोज में जाए और रास्ते में कागज के फूल मिल जाएं और खरीद कर घर आ जाए, ऐसे हमने कागजी ज्ञान को इकट्ठा कर लिया है, फूल सजा लिए हैं, और इन फूलों से तृप्त होकर बैठ गए हैं इसलिए ज्ञान उत्पन्न नहीं होता।
अज्ञान बाधा नहीं है ज्ञान के आने में, स्मरण रखिए, उधार ज्ञान बाधा है। क्योंकि जो उधार ज्ञान को पकड़ लेता है उसकी ज्ञान की खोज बंद हो जाती है। फिर उसे छोड़ने में भी डर लगता है। छोड़ने में इसलिए डर लगता है कि उधार ज्ञान हमारे अहंकार की तृप्ति करने लगता है, लगने लगता है कि मैं कुछ हूं, क्योंकि मैं जानता हूं। मैं ईश्वर को जानता हूं, मैं आत्मा को जानता हूं, मैं कुछ हूं, मैं ज्ञानी हूं, यह अहंकार की तृप्ति होने लगती है। फिर अगर कोई कहे कि यह झूठा है, तो प्राण बड़े संकट में पड़ते हैं कि इसे कैसे छोड़ दूं। इसे छोड़ दूंगा तो फिर निपट अज्ञानी रह जाऊंगा। जो कि हैं। जो कि असलियत में मैं हूं। लेकिन छोड़ने में डर लगता है, भय लगता है। और फिर यह भय बाधा बन जाती है। और तब हमारी खोज हमेशा के लिए बंद हो जाती है।
ज्ञान का किनारा छोड़ना पड़ता है। दूसरों के ज्ञान का किनारा छोड़ना पड़ता है, जिसे अपने ज्ञान की खोज में जाना हो।
एक छोटी सी कहानी कहूं।
एक रात कुछ मित्र एक मधुशाला में गए और उन्होंने शराब पी ली। पूर्णिमा की रात थी। फिर वे बाहर निकले। उन्होंने आकाश की तरफ देखा, नशे में भरे हुए थे, रात तो वैसे ही बहुत सुंदर थी, नशे में और भी सुंदर दिखाई पड़ने लगी। और उन सबने सोचा कि चलो नदी के किनारे चलें और नौका पर यात्रा करें। वे नदी कि किनारे गए। उन्होंने एक नौका पर सवारी की, पतवारें उठाईं और यात्रा शुरू कर दी। कोई आधी रात होगी। फिर सुबह की ठंडी हवाएं चलने लगीं तब उनका होश थोड़ा वापस लौटा। ठंडी हवाओं के झोंकों ने नशा कुछ कम किया। तो उनमें से एक ने कहा कि मित्रो, न मालूम हम कितनी दूर निकल आए होंगे, अब सुबह होने के करीब है, वापस लौट चलें। किस दिशा में चले आए हैं यह भी पता नहीं। कितनी दूर निकल आए हैं यह भी पता नहीं। एक आदमी नीचे उतर कर देखे कि हम कहां हैं? एक व्यक्ति नीचे उतरा और उसने कहा कि तुम बिल्कुल मत घबड़ाओ हम वहीं हैं जहां हम रात थे। वह नौका वहीं खड़ी थी। वे जंजीर खोलना भूल गए थे, वह किनारे से बंधी थी।
रात भर उन्होंने पतवार चलाई, रात भर। और यह सोचते रहे कि कहीं पहुंच गए होंगे दूर। लेकिन सुबह उन्होंने वहीं पाया जहां वे थे। एक बुनियादी बात भूल गए। नाव पर बैठे यह भी ठीक था, पतवार उठाई यह भी ठीक था, पतवार चलाई यह भी ठीक था, लेकिन सबसे पहले जरूरी था कि नौका कहीं बंधी तो नहीं है? अगर नौका बंधी है तो सब व्यर्थ हो जाएगा।
मृत्यु के करीब पहुंच कर आदमी पाता है, जब मृत्यु की ठंडी हवाएं लगनी शुरू होती हैं और नशा थोड़ा उखड़ता है तब पता चलता है उतर कर तो देख लें कि कहीं पहुंचे या नहीं, और अधिक लोग वहीं पाते हैं जहां जन्म के साथ उन्होंने पाया था, नौका वहीं खड़ी रह जाती है। क्योंकि जंजीर खोलना हमारे कभी ख्याल में नहीं रहा कि जंजीर भी खोलनी जरूरी थी।
जंजीर कहां बंधी है चित्त की कि वह परमात्मा तक नहीं पहुंच पाता? यह जो झूठा ज्ञान है इसके किनारे से जंजीर बंधी है। झूठे ज्ञान के किनारे से जंजीर बंधी है। इसलिए कभी सम्यक ज्ञान की तरफ गति नहीं हो पाती।
अज्ञान से जंजीर नहीं बंधी है, स्मरण रखिए। क्योंकि अज्ञान से कोई भी बंधा रहने को राजी ही नहीं होता है। लेकिन झूठे ज्ञान से बंधने में एक रस है, एक मजा है, इसलिए उससे कोई बंधने को राजी हो जाता है। रस ही तो बंधन है।
अज्ञान से कोई नहीं बंधता है। इसलिए अगर कोई आपको अज्ञानी कह दे तो आप गुस्से में आ जाते हैं, क्योंकि अज्ञानी होने को कोई राजी नहीं है। अगर आपको कोई पकड़ ले रास्ते में कह दे आप बड़े अज्ञानी हो, तो आप मुकदमा चलवाते हैं कि इसने मेरा अपमान कर दिया। अज्ञानी होने को कोई राजी नहीं है।
टाल्सटाय ने लिखा है कि एक आदमी एक सुबह एक चर्च में जाकर भगवान के सामने प्रार्थना कर रहा था। अंधेरा था, कोई पांच बजे होंगे। कोई नहीं था चर्च में, टाल्सटाय भी घूमता हुआ सुबह-सुबह चर्च में पहुंच कर एक कोने में खड़ा हुआ था। वह आदमी प्रार्थना कर रहा था, हे भगवान, मैं बहुत बड़ा अज्ञानी हूं, बहुत बड़ा पापी हूं। टाल्सटाय ने देखा कि यह कौन आदमी है? चर्च के बाहर वह आदमी बाहर निकला तो टाल्सटाय उसके पीछे हो लिया। जब थोड़ा प्रकाश हुआ तो देखा वह तो नगर का सबसे बड़ा धनी-मानी व्यक्ति था। जब वे चौरस्ते पर पहुंचे तो टाल्सटाय चिल्लाया और कहा कि ठहरो, हे अज्ञानी! हे पापी! रुको! उस आदमी ने कहा कि देख, जो मैंने चर्च में कहा था वह सब जगह कहने को नहीं है। और मुझे पता नहीं था कि तू वहां मौजूद है। मैंने सिर्फ भगवान से कहा था। अगर इस बात को तूने चौरस्ते पर कहा, तो सांझ होने के पहले हथकड़ियों में अपने को बंद पाएगा। तो टाल्सटाय ने कहा कि मैं तो सोचता था कि तुम जब भगवान से कह रहे हो कि मैं अज्ञानी हूं। उसने कहा कि वह ठीक है भगवान से कहना। वह हमारी और भगवान के बीच की बातचीत है। यह किसी और के बीच का मामला नहीं है। मैं चौरस्ते पर अज्ञानी अपने को कहने को राजी नहीं हूं।
आप भी चौरस्ते पर अपने को अज्ञानी कहने को राजी नहीं हैं। अज्ञानी तो कोई रहने को राजी नहीं हैं। तो अगर आपको पता चल जाए कि आप अज्ञानी हो, तो तब आप उस किनारे को छोड़ दोगे। लेकिन अगर आपको पता चलता हो कि आप ज्ञानी हो तो फिर किनारे को छोड़ना बहुत कठिन है। क्योंकि ज्ञानी होने का रस तो कोई भी लेना चाहता है। कोई भी। अज्ञानी से अज्ञानी व्यक्ति से कहो कि तुम ज्ञानी हो, तो वह भी रीढ़ सीधी करके बैठ जाएगा। अगर उसके पीछे-पीछे आप घूमने लगो तो वह भी कहने लगेगा कि मेरी भी कुंडलिनी शक्ति जाग गई है और मेरे भीतर भी ऐसे-ऐसे अनुभव होने शुरू हो गए हैं। ज्ञानी होने का सुख अहंकार को तृप्त करने का सुख है।
तो अज्ञान के तट से किसी की नाव नहीं बंधी है कभी। लेकिन ज्ञान के तट से सबकी नावें बंधी हुई हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि ज्ञान को छोड़ें, तो यात्रा हो सकती है ज्ञान की तरफ। उस ज्ञान को छोड़ना पड़ेगा जो दूसरों से पाया है। उस ज्ञान को पाने के लिए जो कि किसी से नहीं पाया जाता और भीतर पैदा होता है और जागता है, वही है ज्ञान, वही है ज्योति, वही है प्रकाश। और उसी प्रकाश में जाना जाता है वह निगूढ़तम सत्य जिसको हम परमात्मा कहते हैं। उसी प्रकाश में जानी जाती है वह शक्ति जिसे हम आत्मा कहते हैं। उसी प्रकाश में पहचाना जाता है वह जो अमृत है, और अनादि और अनंत है। और जो हमेशा से था और हमेशा होगा। अभी नहीं, अभी तो हम जो अमृत वगैरह की बातें करते हैं वे एकदम झूठी हैं। अभी तो हम जो कहते हैं कि आत्मा अमर है, वह इसलिए नहीं कि हम जानते हैं आत्मा अमर है बल्कि इसलिए कि हम सबको मरने से डर लगता है। हम सब मरने से डरते हैं इसलिए सब कहने लगते हैं आत्मा अमर है। और जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होने लगता है और जोर-जोर से कहने लगता है कि आत्मा अमर है।
यह हमारा मरने का भ्रम है, मरने का भय, यह कोई आत्मा की अमरता का अनुभव नहीं है। इसलिए जो कौम जितनी ज्यादा कायर होती है और मरने से जितनी ज्यादा डरती है उतनी आत्मा की अमरता में विश्वास भी करती है। ये दोनों बातें एक ही साथ पाई जाती हैं एक ही कौम में। आत्मा की अमरता का विश्वास करने वाली कौम धार्मिक है ऐसा मत समझ लेना। और आत्मा की अमरता को मानने वाला आदमी धार्मिक है ऐसा भी मत समझ लेना। ये सिर्फ मृत्यु से भयभीत, मरने से डरे हुए लोग। मौत डर देती है। ऐसे तो हम रोज देखते हैं कि शरीर तो मर जाता है। इसलिए फिर ऐसे गुरुओं की तलाश करते हैं जो यह विश्वास दिला दे कि शरीर भला मर जाए, लेकिन आत्मा कभी नहीं मरती। हम मरना नहीं चाहते हैं। नहीं मरना चाहते इसलिए न मरने की बात में विश्वास कर लेते हैं। यह कोई धार्मिकता नहीं है। यह कोई ज्ञान नहीं है। इससे ज्यादा पाखंड, इससे ज्यादा झूठ और कुछ नहीं हो सकता। लेकिन, लेकिन इन बातों को, इन बातों को सीख लेने को, इन बातों को दोहरा देने को हम समझते हैं कि एक आदमी में धार्मिकता का जन्म हो गया है।
नहीं, यह धार्मिकता का जन्म नहीं है। भय से आत्मा की अमरता को मान लेना धार्मिकता नहीं है। भय से परमात्मा को मान लेना धार्मिकता नहीं है। परंपरा के प्रचार से ईश्वर को स्वीकार कर लेना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। हजारों साल से कोई बात दोहराई जाती है इसलिए मान लेना कोई विवेक नहीं है। वरन खुद खोजने के लिए तत्पर होना, खुद खोजने की आकांक्षा करना बिना किसी भय के, बिना किसी प्रचार के, बिना किसी प्रलोभन के जीवन क्या है इस जिज्ञासा की खोज में गतिमान होना धार्मिक आदमी का लक्षण है।
विश्वास धार्मिक आदमी का लक्षण नहीं है। अधार्मिक आदमी का लक्षण है। जो विश्वास कर लेता है वह अधार्मिक आदमी है। क्यों? वह इसलिए अधार्मिक आदमी है कि उसने सत्य को इस योग्य भी नहीं पाया कि उसके लिए श्रम करता। उसने सत्य को इस योग्य भी नहीं माना कि उसके लिए खोज करता। उसने सत्य को एक फिजूल चीज मानी जिसको किसी ने भी कह दिया और उसने मान लिया। वह दो पैसे की हंडी बाजार में खरीदने जाता है तो ठोक-बजा कर लेता है, लेकिन सत्य को उसने दो पैसे की हंडी से भी कम मूल्य का समझा। बिना ठोके-बजाए स्वीकार कर लिया। मेरे पिता कहते हैं इसलिए मान लिया। पिता के पिता कहते हैं इसलिए मान लिया। राम कहते हैं, कृष्ण कहते हैं इसलिए मान लिया। अभी राम भी आकर कहें कि यह हंडी बिल्कुल मजबूत है, खरीद लो, मत ठोको, तो भी वह शक करता है, हंडी ठोक कर लेगा। जरा राम इधर को बचेंगे कि वह हंडी को बजा कर देख लेगा कि है भी ठीक कि नहीं। दो पैसे का मूल्य भी उसके लिए ज्यादा है। सत्य का मूल्य उसे ज्यादा नहीं है।
असल में जिन चीजों का हमारे मन में कोई मूल्य नहीं होता उनको हम दूसरों से स्वीकार कर लेते हैं। और जिन चीजों का मूल्य होता है उनको हम खुद खोजते हैं, अपने प्राणों को लगाते हैं और उसी वक्त स्वीकार करते हैं जब हम जानते हैं।
सत्य का हमारे दृष्टि में मूल्य नहीं है इसलिए हम विश्वासी बने हुए हैं। सत्य का हमारी दृष्टि में मूल्य होगा, तो हम विश्वासी नहीं हो सकते, हम खोजी बनेंगे। हमारी प्यास होगी, हम जानना चाहेंगे। और इस प्यास के लिए चाहिए स्वतंत्र चित्त, इस प्यास के लिए चाहिए ऐसा चित्त जो दूसरों के ज्ञान के तट से अपनी जंजीर खोल ले। जो इतना साहस करता है वही केवल परमात्मा के रास्ते पर जा सकता है। जो साहस ही नहीं करता वह तो परमात्मा के रास्ते पर क्या जाएगा। भेड़ बनने से कोई परमात्मा के रास्ते पर नहीं जाता। एक भेड़ जा रही है उसके पीछे आप भी जा रहे हैं। ऐसा अंधानुगमन परमात्मा तक नहीं ले जाता।
एक स्कूल के अध्यापक ने मुझे बताया, उसने एक बच्चे को पूछा, एक गांव, देहात में, स्कूल में कि ग्यारह भेड़ें एक खेत के भीतर बंद हैं, अगर पांच भेड़ें छलांग लगा कर बाहर निकल जाएं तो भीतर कितनी भेड़ बचेंगी?
एक छोटे बच्चे ने हाथ हिलाया और उसने कहा कि बिल्कुल भी नहीं।
उस अध्यापक ने कहाः तुम बिल्कुल पागल हो! ग्यारह भेड़ें बंद हैं; पांच छलांग लगा कर निकल गईं तो भीतर कितनी बचेंगी?
उस बच्चे ने कहाः बिल्कुल भी नहीं। मैं भेड़ों को जानता हूं। आप गणित को जानते होंगे। मेरे घर में भेड़ें हैं। उस बच्चे ने कहा, मेरे घर में भेड़ें हैं। आप गणित को जानते होंगे, गणित हो सकता है मुझे पता भी न हो, लेकिन भेड़ें मुझे पता हैं। पांच क्या एक भेड़ भी निकल जाए तो फिर पीछे बिल्कुल भी नहीं बचेंगी, वे सब उसके पीछे चली जाएंगी।
आदमी हजारों साल से भेड़ों जैसा व्यवहार कर रहा है और हम कहते हैं यह धार्मिक आदमी है। एक भेड़ जाती है उसके पीछे दूसरी भेड़ जाती है, उसके पीछे तीसरी भेड़ जाती है। और यह हजारों साल से चल रहा है और हम कहते हैं यह धार्मिक आदमी है। मैं तो कहता हूं यह आदमी ही नहीं है। धार्मिक आदमी होना तो बड़ी दूर की बात है। रिलीजस माइंड, धार्मिक आदमी जैसी सुंदर तो कोई चीज होती नहीं। धार्मिक आदमी जैसी महत्वपूर्ण तो कोई बात होती नहीं। धार्मिक आदमी तो जीवन का फूल है। ये धार्मिक आदमी नहीं हैं जो भेड़ों की भांति व्यवहार कर रहे हैं। धार्मिक आदमी का तो पहला तत्व है कि वह स्वतंत्र होगा। वह खुद खोजेगा, वह अंधानुकरण नहीं करेगा, वह किसी के पीछे फॉलो नहीं करेगा, वह किसी का अनुयायी नहीं होगा। अपने और परमात्मा के बीच वह किसी को लेने को राजी नहीं होगा, वह कोई मध्यस्थ स्वीकार नहीं करेगा। वह तो अपने पूरे प्राणों को लेकर, अपने पूरे विवेक को जगा कर, अपनी पूरी विचार की शक्ति को उठा कर, अपनी सारी शक्तियों को एकजुट इकट्ठा करके खोज में संलग्न होगा। और जिस दिन जान लेगा उसी दिन कहेगा कि मैंने जाना। और जब तक नहीं जानेगा, वह विनम्रता से कहेगा कि मैं नहीं जानता हूं, मुझे अभी कुछ भी पता नहीं है। यह तो धार्मिक आदमी का पहला लक्षण होगा।
स्वतंत्रता, चित्त सब भांति पराए विचारों, पराए ज्ञान से स्वतंत्र होना चाहिए। जो स्वतंत्र नहीं है वह सत्य को कभी नहीं पा सकेगा। सत्य की पहली शर्त स्वतंत्रता है। तो चित्त स्वतंत्र होना चाहिए।
यह आज सुबह में पहली भूमिका आपसे कहा हूंः स्वतंत्रता--विचार की, विवेक की, आत्मा की, सब भांति स्वतंत्रता। उसे कहीं बांधे न, उसे कहीं झूठे ज्ञान से अटकाए न। कल सुबह दूसरे सूत्र की आपसे बात करूंगाः सरलता। और परसों सुबह तीसरे सूत्र की बात करूंगाः शून्यता।
स्वतंत्रता, सरलता और शून्यता, इन तीन सीढ़ियों पर जो खड़े होने को राजी हो जाता है उसे सत्य को खोजने कहीं जाना नहीं पड़ता, सत्य उसे खोजते हुए उसके द्वार पर आ जाता है। जो इन तीन भूमिकाओं को पूरा करता है उसे परमात्मा को खोजने कहीं जाना नहीं पड़ता, वह पाता है कि परमात्मा उसके द्वार पर ही आ गया है। दो सीढ़ियों की कल और परसों मैं चर्चा करूंगा और संध्या, सुबह मैं जो बोलूंगा इस संबंध में आपके जो प्रश्न होंगे वे लिखित पहुंचा देंगे, तो सांझ को आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा। जैसे आज स्वतंत्रता पर बोला हूं, इस संबंध में जो भी हो, वह सांझ को आप पूछेंगे, क्यों? क्योंकि मेरी समझ में, जब मैं यह कह रहा हूं कि किसी के विचार को स्वीकार न करें, तो स्मरण रखें, मेरे विचार को भी स्वीकार नहीं कर लेना है। अन्यथा मैं भी पराया हूं, मैं भी आपसे अलग हूं, मैं भी दूसरा हूं। मैं जो बात कहूं उसे आप स्वीकार कर लें, वह भी खतरनाक है, वह भी मिथ्याज्ञान है। तो मेरी बात को सोचें, विचारें, प्रश्न पूछें। यह एक शुभ बात नहीं है कि मैं यहां बोलूं और आप सुनें। पूछें, सोचें, विचारें। तो सांझ को मैं आपके प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करूंगा। जो भी आप पूछें, जो भी आपके ख्याल में आए, आपके विरोध में आए कि यह गलत है, तो मुझे कहें कि यह गलत है। शंका उठाएं, संदेह उठाएं। क्योंकि जो सोचता है, संदेह उठाता है, खोजता है वह एक दिन जरूर पहुंच जाता है। लेकिन जो संदेह नहीं करता, खोजता नहीं, पूछता नहीं, सोचता नहीं, जिज्ञासा नहीं उठाता, वह वहीं पड़ा रह जाता है जहां था।
तो सांझ को मैं आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा और सुबह इन तीन तत्वों पर चर्चा करूंगा।
एक प्रार्थना अंत में, आने वाले तीन दिनों के लिए दोहरा दूं, मैं कोई गुरु नहीं हूं, क्योंकि मैं मानता हूं कोई अच्छा आदमी किसी का गुरु होने को कभी राजी नहीं होगा। यह बुरे आदमी का लक्षण है कि वह किसी का गुरु होना चाहे, यह अहंकार की ही खोज है। और चूंकि मैं गुरु नहीं हूं इसलिए मेरी किसी भी बात को मानने को आप बाध्य नहीं हैं। अगर मानते हैं तो गलती करते हैं।
मेरा निवेदन किसी बात को मानने के लिए नहीं है सोचने और विचारने के लिए है। और अगर सोचने और विचारने से, और सब भांति के संदेह करने पर, और सब भांति के प्रश्न उठाने पर भी कोई बात आपको ठीक मालूम पड़े, तो फिर वह मेरी नहीं रह जाती, आपकी हो जाती है, फिर उससे मेरा कोई संबंध नहीं रह जाता। क्योंकि आपने खोजा, विचारा, सोचा, परखा, जांचा, इतनी कोशिश की, मेहनत की, और फिर आपको कोई बात ठीक लगी, वह आपकी हो गई, उससे फिर मेरा कोई संबंध नहीं है, वह फिर आपका अपना विचार हो गया।
इसलिए मेरे विचार को स्वीकार करने की कोई भी जरूरत नहीं है। उसके लिए निवेदन कर दूं, और इतना ही कि उस पर सोचें, विचारें, खोजें। थोड़ी हमारे मन में चिंतना पैदा हो, थोड़ा मनन पैदा हो। हजारों साल से हम जड़बुद्धियों की तरह बैठे हैं जमीन पर। दोहरा रहे हैं, पुनरुक्त कर रहे हैं पुराने को। लेकिन खोज की हमारी सब दिशाएं बंद हो गई हैं।
भारत की मनीषा हजारों वर्ष से पुनरुक्ति करने वाली हो गई है, सृजनात्मक नहीं रही। उससे कुछ क्रिएटिव, कुछ नष्ट हो गया है। बस रिपीटिटिव हो गई है, दोहराती है, दोहराती है।
दोहराना बंद करें, सृजनात्मक दिशा में थोड़ा अन्वेषण करें। और स्मरण रखें कि जितनी ही सृजनात्मक ऊर्जा होती है उतने ही हम स्रष्टा के करीब पहुंचने लगते हैं। और जितनी गैर-सृजनात्मक, पुनर्वित्यात्मक ऊर्जा होती है, शक्ति होती है, उतने ही हम स्रष्टा से दूर होने लगते हैं।
परमात्मा के निकट वही है जो सृजन करता है। और विचार में और विवेक में जो सृजन करता है, वह तो उसके बहुत निकट पहुंच जाता है।
मेरी इन बातों को आज की सुबह इतनी शांति से सुना है, हो सकता है कई बातें ऐसी हों जो आपके मन में अशांति पैदा करें। मेरी तो आकांक्षा यही है कि अशांति पैदा हो। क्योंकि हम इतने मुर्दे की भांति हो गए हैं कि हम अशांत ही नहीं होते, हमारे भीतर असंतोष ही नहीं होता, हमारे भीतर चिंता ही पैदा नहीं होती। तो अगर मेरी कोई बात आपको धक्का दे तो मेरी तो आकांक्षा है कि धक्का लगे। मैं तो चाहता हूं कि आप जैसे नींद में सोए हैं कोई आपको जोर से आकर हिला दे, आपके सब सपने गड़बड़ हो जाएं, वह मैं चाहता हूं। वह मैं तीन दिन कोशिश करूंगा पूरी अपनी तरफ से कि आपको जितनी चोट पहुंचा सकूं उतनी पहुंचाऊं। और आप प्रेम से उसे सुनें, और तीन दिनों में सुनेंगे, उसके लिए बहुत-बहुत अनुग्रह, उसके लिए बहुत-बहुत आभारी हूं।
अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा के प्रति मेरे प्रणाम स्वीकार करें। बहुत-बहुत धन्यवाद।
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