सहज समाधि भली-(झेन-सूूूूफी बोध कथाएं)
पहला प्रवचन
दिनांक २१ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, से 10 अगस्त 1974 श्री रजनीश आश्रम, पूनासाधो सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन-दिन अधिक चली।।
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा जो कछु करौं सो सेवा।
जब सोवौं तब करौं दंडवत, पूजौं और न देवा।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
कह कबीर यह उनमनि रहनी, सो परगट करि गाई।
दुख सुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।।
ओशो, संत कबीर के इन प्रसिद्ध पदों को हमारे लिए बोधगम्य बनाने की कृपा करें।
समाधि सहज ही होगी। असहज जो हो, वह समाधि नहीं है। प्रयास और प्रयत्न से जो हो, वह मन के
सपार न ले जायेगी, क्योंकि सभी प्रयास मन का है। और जिसे मन से पाया, वह मन के ऊपर नहीं हो
ससकता। जिसे तुम मेहनत करके पाओगे, वह तुमसे बड़ा नहीं होगा। जिस परमात्मा को "तुम' खोज लोगे, वह परमात्मा तुमसे छोटा होगा। परमात्मा को प्रयास से पाने का कोई भी उपाय नहीं है। उसे तो अप्रयास में ही पाया जा सकता है।
"तुम' उसे न पा सकोगे; तुम मिटोगे, तो ही उसका पाना हो सकेगा। इसलिए परमात्मा की खोज वस्तुतः परमात्मा में खोने की व्यवस्था है। मन की असफलता जहां हो जाती है, वहां समाधि फलित होती है। जब तक मन सफल होता है, तब तक तो "खेल' जारी है, तब तक तो माया जारी है।
तो पहली तो बात यह समझ लें कि समाधि सहज ही होगी। चेष्टा, प्रयत्न और प्रयास से उसका कोई भी संबंध नहीं है। इसलिए जिन्होंने उसे पाया है, उन्होंने कहा, "प्रसाद से पाया। प्रभु की अनुकम्पा से पाया।' जब ऐसा कहते हैं संत कि "प्रभु की अनुकम्पा से पाया', तो इसका इतना ही अर्थ है कि हमने तो बहुत दौड़-धूप की; जितने हम दौड़े, उतने ही भटके; जितना हमने खोजा, उतना ही खोया; जितना हमने चाहा कि मिल जाये, उतने ही दूर होते चले गये। हमारी सभी चेष्टाएं व्यर्थ गइ*। हम हार गये। और जहां हार हो जाती है "तुम्हारी', वहीं से परमात्मा की विजय शुरू होती है।
तुम्हारी जीत परमात्मा की हार है। क्योंकि तुम्हारी जीत का अर्थ क्या होगा? तुम्हारी जीत का अर्थ होगा--मैं, अहंकार, अस्मिता की जीत। तुम जितने जीतोगे उतनी ही कठिनाई खड़ी होगी। तुम हो, यही तो समस्या है। कैसे वह घड़ी आ जाये कि तुम "न' हो जाओ? तुम्हारे भीतर कोई भी न हो, कोरा सन्नाटा हो। तुम्हारे मंदिर में कोई प्रतिमा न रह जाये; निराकार हो; एक शब्द भी भीतर न गूंजे। ऐसी गहरी चुप्पी लग जाये कि न कोई बोलनेवाला हो, न कोई भीतर सुननेवाला हो; उसी क्षण प्रभु का प्रसाद बरसने लगेगा। उसी क्षण तुम तैयार हो। जहां तुम नहीं हो, उसी क्षण तुम तैयार हो।
सभी समाधि सहज होंगी। असहज--समाधि नहीं। लेकिन मन चाहता है--जीतना, हारना नहीं। मन ध्यान में भी "जीतना' चाहता है, मन परमात्मा के साथ भी एक संघर्ष कर रहा है; वहां भी विजय चाहता है, वहां भी परमात्मा को मुट्ठी में चाहता है। तुमने धन कमाया, तुमने यश पाया, तुमने प्रतिष्ठा कमाई, अब तुम चाहते हो कि परमात्मा भी तुम्हारी मुट्ठी में हो; ताकि तुम कह सको कि परमात्मा को भी कमाया! तुम परमात्मा को भी बैंक बैलेंस में कहीं जोड़ लेना चाहते हो। तुम्हारी तिजोड़ी जब तक परमात्मा को भी बंद न कर ले, तब तक तुम्हारे अहंकार की तृप्ति नहीं है। इसलिए ज्ञानी कहते हैं, जो पा लेंगे उसे, वे कभी भूलकर न कहेंगे कि हमने पाया। और जो कहते हैं कि हमने पा लिया है, समझना कि अभी बहुत दूर हैं, क्योंकि दावेदार बचेगा कैसे ! दावेदार का होना ही तो बाधा है। तुम जब तक कहोगे "मैं', तब तक उससे मिलन न होगा।
कबीर ने कहा है ः जब तक खोजता रहा, तब तक वह न मिला। और जब वह मिला, तब मैंने चौंककर पाया कि मैं तो मिट चुका हूं। खोजनेवाला मिट गया, तब मिला। "खोजत-खोजत हे सखी, रहया कबीर हेराइ।' निकला था खोजने, निकला था पाने; लेकिन खोजते-खोजते खुद ही घिस गया। दौड़ते-दौड़ते खुद ही मिट गया! और कबीर खो गया। जहां कबीर खोया, वहीं उससे मिलन हुआ।
कबीर का दूसरा वचन भी है, जिसमें कबीर ने कहा है ः जब तक मैं खोजता था, तब तक तेरे दर्शन न हुए और अब जब कि मैं बचा नहीं, तो तू मेरे पीछे-पीछे भागा-भागा फिरता है। जब तक मैं तुझे खोजता था, तब तक तेरी गंध न मिली, तब तक तेरा सुराग न मिला; कितने दरवाजे खटखटाये; लेकिन कोई दरवाजा तेरा दरवाजा नहीं था। कितने रास्तों पर तेरी तलाश की, लेकिन कोई रास्ता तेरे घर तक न जाता था ! और अब जबकि मैं मिट गया हूं, तो विडम्बना कि तू मेरे पीछे-पीछे घूमता है--"कहत कबीर-कबीर'! पहले मैं तुझे पुकारता था, अब तू मुझे पुकारता है। और जब मैं पुकारता था, तब तू नहीं था। और अब तू पुकार रहा है और मैं नहीं हूं।
समझ लो कि, तुम्हारा मिलना परमात्मा से कभी भी नहीं होगा। तुम जैसे हो वैसे, परमात्मा से मिलना कभी भी न होगा। जब मिलना होगा, तब तुम, "ऐसे' नहीं होओगे।
तुम जैसे हो, ऐसे ही परमात्मा तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। तुम गिर जाओगे, मिट जाओगे; तुम्हारी राख से ही परमात्मा का मंदिर उठता है। तुम्हारी कब्र पर ही उसका घर है। लेकिन मन चाहता है--जीत। जितना तुम जीतते हो, उतना नशा चढ़ता है--अहंकार का।
परमात्मा ऐसा लगता है कि जीतना कठिन है, इसलिए तुम यह मत सोचो कि अकसर धार्मिक लोग ही परमात्मा की खोज में निकलते हैं; सौ में से निन्यान्बे तो अहंकारी होते हैं, जो परमात्मा की खोज में निकलते हैं; क्योंकि अहंकार हमेशा असंभव की आकांक्षा करता है। और परमात्मा से ज्यादा असंभव क्या है? ऐवरेस्ट पर चढ़ना कठिन होगा, असंभव तो नहीं। आखिर हिलेरी और तेनसिंह चढ़ ही गये। चांद पर पहुंचना कठिन होगा, असंभव तो नहीं। आदमी आखिर चांद पर चला ही गया। मंगल पर भी चलेगा; दूर के तारों पर भी पहुंच जायेगा, लेकिन परमात्मा को पाना एकदम असंभव मालूम होता है। जो पा लेते हैं, वे भी दावा नहीं कर पाते; परमात्मा इतना असंभव है। जो पा लेते हैं, वे भी चुप हो जाते हैं। चांद पर तो जाकर तुम झंडा गाड़ आते हो, परमात्मा पर तुम झंडा न गाड़ सकोगे।
तो अहंकारी का मन परमात्मा को भी जीतना चाहता है। मन कहता है कि वह सबसे ऊंचा शिखर है, वह सबसे असंभव चोटी, उस पर भी मैं झंडा गाड़ दूं। उसको भी मैं कह दूं--"मैंने जीता'।
सौ में से निन्यानबे--धर्म की खोज में गये लोग अहंकारी होते हैं। इसलिए धार्मिक व्यक्तियों में विनम्रता पानी बहुत कठिन है। धार्मिक आदमी अक्सर अहंकारी होगा--भयंकर अहंकारी होगा। संन्यासियों में, साधुओं में विनम्रता खोजनी बड़ी कठिन है। यद्यपि वे निरतंर कहेंगे कि विनम्र बनो, लेकिन वे तुमसे कह रहे हैं, विनम्र बनने को। वे जब तुमसे कह रहे हैं, "विनम्र बनो', तो वे यह कह रहे हैं कि "उनके प्रति विनम्र बनो।' लेकिन उनके अहंकार का कोई अन्त नहीं है। दो साधुओं को मिलाना मुश्किल है; दो साधुओं को साथ बैठाना मुश्किल है; क्योंकि सवाल उठता है, "कौन नीचे बैठेगा और कौन ऊपर बैठेगा!'
कलकत्ता में एक सभा में मैं एक दफा निमंत्रित हुआ। एका बड़ा विराट आयोजन था। कोई तीन सौ पंडित, साधु, संन्यासी, महात्मा निमंत्रित थे। और उन्होंने मंच भी ऐसा बनाया था कि तीन सौ लोग बैठ सकें--मंच पर एक साथ। लेकिन एक-एक व्यक्ति ने बैठकर व्याख्यान दिया। तीन सौ लोग उस पर इकट्ठे नहीं बैठ सके ! मैंने पूछा कि बात क्या है? तो उन्होंने कहा, "बड़ी कठिनाई है। शंकराचार्य कहते हैं कि वे अपने सिंहासन के साथ आयेंगे और वे अगर सिंहासन पर बैठते हैं, तो दूसरे संन्यासी कहते हैं कि हम नीचे तख्त पर कैसे बैठ सकते हैं! हम भी उसी ऊंचाई पर बैठेंगे। अब बड़ी मुश्किल है। अगर सबको ऊंचा कर दो, तो वे सब फिर बराबर हो जाते हैं। किसीको ऊंचा छोड़ दो, किसी को नीचा छोड़ दो, तो कष्ट है। यही उपाय मालूम होता है कि एक-एक बैठकर बोले! उसको जैसे बैठना हो--ऊंचा-नीचा, जहां । सुनने भी कोई दूसरे लोग नहीं आये। जब एक बोला, तब दूसरा सुनने भी नहीं आया! अज्ञानी सुनते हैं, ज्ञानी कहीं सुनने आते हैं? और जब जानते ही हैं, तो सुनना क्या है? अहंकार प्रबल है।
दुनिया में धर्मों का झगड़ा--धर्मों का झगड़ा नहीं है--अहंकारियों का झगड़ा है। धर्म के नाम पर अहंकारियों का बाजार है--कोई चर्च के नाम पर, कोई मसजिद के नाम पर, कोई गुरुद्वारे के नाम पर, कोई मंदिर के नाम पर; लेकिन सब झगड़े अहंकार के हैं। और अहंकार से बड़ी कोई मादकता नहीं है।
बड़े से बड़ा काम अहंकार कर सकता है--वह यह कि कहे कि ईश्वर को पा लिया। इसलिए इस्लाम में इस तरह के दावेदार को "काफिर' कहा है। कहने में थोड़ी सच्चाई है, क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर तो गलत आदमी दावा करता है। कभी सौ में एक-आध--कोई मंसूर अलहिल्लाज--कभी कोई सही दावेदार होता है। पर उस एक के लिए निन्यानबे को माफ नहीं किया जा सकता है।
यह दावा आता है--श्रम से, चेष्टा से। जब तुम मेहनत करते हो, योग करते हो, आसन करते हो, ध्यान लगाते हो, बड़े कष्ट, बड़ी तपश्चर्या, उपवास करते हो, धूप में खड़े होते हो, रात जागरण करते हो--तो अहंकार मजबूत होता है, नशा बढ़ता है। तुम्हें लगता है, मैं "इतना' कर रहा हूं। तुम्हारे मन में परमात्मा के प्रति धन्यवाद का भाव नहीं आता, शिकायत का भाव आता है। जितनी होगी चेष्टा, उतनी शिकायत का भाव होगा। क्योंकि लगेगा--मैं "इतना' कर रहा हूं, अभी तक मिलन नहीं हुआ? मैं "इतना' कर रहा हूं, तुम अभी तक दूर बने हो? मैं "इतना' कर रहा हूं और अभी तक मंजिल नहीं आई? तो भीतर एक शिकायत का कीड़ा हृदय को काटेगा। और जितना श्रम बढ़ेगा, उतना अहंकार फैलेगा।
वास्तविक समाधि सहजता से फलित होगी। पर सहजता को समझने के पहले अहंकार की इस चेष्टा को समझ लेना चाहिए। और जितना नशा हो जाता है अहंकार का। और ध्यान रहे ः अहंकार से बड़ी कोई मादकता नहीं है, उससे बड़ी कोई इन्टॉक्सिकैंट नहीं है। फिर तुम अपने होश में नहीं हो, फिर तुम जो भी कहते हो, जो भी बोलते हो, जो भी जीते हो, वह सब होश के बाहर हो जाता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन हमेशा दांत के डाक्टरों से बचता रहा। हमेशा डरा रहा। लेकिन एक बार मजबूरी इतनी बढ़ गई, पीड़ा इतनी थी दांत में कि जाना ही पड़ा। गया तो डाक्टर से उसने कहा, "वर्षों से टाल रहा हूं, अब उस जगह पहुंच गई है बात कि अब और सहा नहीं जा सकता। न सो सकता, न बैठ सकता। दर्द बहुत है; आना ही पड़ा। लेकिन भयभीत हूं। हाथ-पैर मेरे कांप रहे हैं। स्नायु मेरे तने हैं। हृदय मेरा धड़क रहा है। मैं तुमसे बहुत डरता हूं।' डाक्टर दयालु था; उसने कहा, "तुम घबड़ाओ मत।' भरा हुआ गिलास शराब का नसरुद्दीन को दिया और कहा, "यह पी जाओ।' एक ही घूंट में नसरुद्दीन उसे पी गया। गम आई। आंखों में सुख आ गई। दर्द भी भूल गया। डाक्टर ने थोड़ी देर बाद पूछा, "कैसा लग रहा है? भय गया? थोड़ी निर्भयता आई?' नसरुद्दीन खड़ा हो गया। छाती फुलाकर उसने कहा, "निर्भयता ! अब मेरे दांत को हाथ लगाओ तो जानूं। देखें, कौन माई का लाल मेरे दांत को हाथ लगाता है।'
अहंकार बड़ी से बड़ी शराब है और जितना ज्यादा अहंकार बढ़ता जाता है, उतना ही ऐसा मालूम पड़ता है कि तुम्हारी विजय का कोई अन्त नहीं है। परमात्मा को भी तुम विजित करके रहोगे। उसे भी जीतोगे!
इस अहंकार ने बहुत से उपाय खोजे हैं--कैसे परमात्मा को पाना। लेकिन ध्यान रहे, किसी उपाय से कभी किसी ने परमात्मा को पाया नहीं है। जिसने उपाय किया, वह भटका और भूला।
सहज-समाधि का अर्थ है कि परमात्मा तो उपलब्ध ही है; तुम्हारे उपाय की जरूरत नहीं है। तुम कैसे पागल हुए हो! पाना तो उसे पड़ता है, जो मिला न हो। तुम उसे पाने की कोशिश कर रहे हो, जो मिला ही हुआ है! जैसे सागर की कोई मछली सागर की तलाश कर रही हो! जैसे आकाश का कोई पक्षी आकाश को खोजने निकला हो! ऐसे तुम परमात्मा को "खोजने' निकले हो, यही भ्रांति है। परमात्मा तुम्हारे भीतर प्रतिपल है, तुम्हारे बाहर प्रतिपल है, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस बात को ठीक से समझ लें, तो फिर कबीर की वाणी समझ में आ जायेगी।
पाना नहीं है परमात्मा को, सिर्फ स्मरण करना है। इसलिए कबीर, नानक, दादू एक कीमती शब्द का प्रयोग करते हैं, वह है--सुरति, स्मृति, रिमेम्बरिंग। वे सब कहते हैं कि उसे खोया होता तो पाते। उसे खो कैसे सकते हो? क्योंकि परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है--तुम्हारा परम होना है, तुम्हारी आत्मा है।
तुम उसे खोओगे कैसे? उसे कहीं भुलाने की कोई संभावना ही नहीं है। तुम जहां भी जाओगे, वह तुम्हारे साथ खजाना गड़ा है।
सुना है मैंने ः एक राजपथ पर एक आदमी वर्षों तक भिक्षा मांगता रहा। फिर मर गया। कौड़ी-कौड़ी इकट्ठी करता रहा। और जब मरा तो पड़ोस के लोगों ने सोचा कि बीसत्तीस वर्ष तक यह गंदा भिखारी इस जगह पर बैठा रहा--चीथड़े रखे हुए। इन सबको आग लगा दो, सफाई करो। कोई और समझदार था, उसने कहा कि "इतने से काम न होगा। इसने यह जमीन का टुकड़ा भी गंदा कर दिया है। थोड़ी मिट्टी भी यहां से खोदकर फेंक दो। जब मिट्टी खुदी, तो लोग हैरान हो गये, वहां खजाना गड़ा था। वहां हीरे-जवाहरातों से भरी हुई हंडियां गड़ी थीं। सारा गांव कहने लगा, यह भिखारी भी कैसा पागल था! इस मूरख को इतना खयाल न आया कि जरा नीचे खोदकर देखे!
लेकिन हम सभी ऐसे भिखारी हैं। हम सभी ऐसे मूरख हैं। जब हम मरेंगे, तब दूसरों को शायद पता भी चल जाये कि जहां तुम खड़े थे, वहीं खजाना गड़ा था, लेकिन हमें पता नहीं चलता। उसके कारण हैं; क्योंकि जहां हम खड़े होते हैं, वहां हम कभी देखते ही नहीं हैं। आंखें दूर जाती हैं। वहां तो आंखें कभी भी नहीं खोजतीं--जहां हम होते हैं।
मन सदा दूर जाता है, पास तो मन आता नहीं। जगह चाहिए मन की यात्रा के लिए, स्पेस चाहिए। तो परमात्मा को हम रखते हैं--सातवें आसमान पर; ताकि खोज की सुविधा रहे; ताकि मन विचार करे, साधन करे, सत्संग करे, चेष्टा करे, श्रम करे। और परमात्मा वहां है, जहां तुम खड़े हो--इसी समय तुम जहां हो। तुममें और उसमें रत्ती भर का फासला नहीं है। इसलिए कोई भी श्रम काम का नहीं है। फासला होता, तो हम सेतु बना लेते। "वह किनारा' दूर होता, तो हम कोई न कोई उपाय कर लेते। यही वह किनारा है, इससे सेतु बन नहीं सकता। सिर्फ तुम्हें जागना होगा।
सहज-समाधि का अर्थ है ः जैसे तुम हो, वैसे ही जाग जाना--बिना कुछ किये।
अब हम इन सूत्रों को समझने की कोशिश करें।
मनुष्य जाति के इतिहास में कबीर के इन सूत्रों का कोई मुकाबला नहीं है। इनसे सरल और सीधे, इनसे स्पष्ट और साफ वचन पृथ्वी पर कभी नहीं बोले गये हैं। तो दुर्भाग्य की बात है कि कबीर भारत के बाहर न के बराबर परिचित हैं अन्यथा झेन फकीर फीके पड़ जायें; हसीद फकीरों का नाम लोग भूल जायें; सूफियों की क्या बिसात है! कबीर का एक-एक वचन जैसे हजारों शास्त्रों का सार है। गीता होगी कितनी ही कीमती, लेकिन कबीर के एक शब्द में समा जाये। पर कबीर अपरिचित क्यों रह गये हैं? उसके कई कारण हैं।
एक तो कबीर बेपढ़े-लिखे हैं, पंडित नहीं हैं। इसलिए पंडितों ने उनकी फिक्र नहीं की। पंडितों ने उनको हमेशा जमात के बाहर रखा--अछूत की तरह ! कबीर जो भाषा बोलते हैं, वह गंवार की है। बड़ी ताजी है, जैसे कि गांव के गंवार की भाषा होती है। बासी नहीं है। पंडित की भाषा तो सदा बासी ही होती है। कितनी ही चमकदार हो, लेकिन भीतर मुर्दा होती है। परिष्कृत भला हो, जीवंत नहीं होती। अलंकृत होती है, लेकिन जीवंत नहीं होती; उसमें चारों तरफ आभूषण होते हैं, लेकिन भीतर आत्मा नहीं होती है। कबीर तो गांव के गंवार हैं। शब्द उनके अनगढ़ पत्थर की भांति हैं। गढ़े हुए पत्थर को तो कोई भी पहचान ले, उसके लिए कोई बड़े पारखी की जरूरत नहीं है। अनगढ़ हीरे को पहचानने के लिए तो बड़ा गहरा पारखी चाहिए।
कबीर अनगढ़ हीरा हैं--सीधे खदान से निकले। अभी बम्बई के जौहरियों ने उन पर काम नहीं किया। अभी उनको निखारा नहीं, साफ नहीं किया। अभी कोहनूर सीधा गोलकुंडा से आया है। उसे पहचानना मुश्किल है। शायद आपको गोलकुंडा के कोहनूर की कहानी पता हो या न हो। जिस आदमी को मिला, वह उसे एक साल तक अपने घर में रखे रहा। बच्चे उससे खेलते रहे; क्योंकि उन्होंने समझा कि कोई रंगीन पत्थर है।
कबीर कोहनूर हीरा हैं। पर सम्राटों के ताज तक पहुंचने के लिए निखार होना जरूरी है--छैनी-हथौड़ी पड़ेगी, काटे जायेंगे। वह नहीं हुआ। और अच्छा हुआ कि नहीं हुआ। क्योंकि जितनी चमक आती है, उतने प्राण खो जाते हैं। इसलिए कबीर पहचाने नहीं गये। पंडितों ने उनकी चिंता नहीं की। और पंडित उनकी चिंता करेंगे भी नहीं, क्योंकि कबीर पंडितों के बड़े ही खिलाफ हैं। कबीर के लिए "पंडित' और "मूरख' एक ही अर्थ रखते हैं।
कबीर कहते हैं ः "ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय'। कोई वेद पढ़ने से पंडित नहीं होता। बस, प्रेम के ढाई अक्षर जो पढ़ ले, वह पंडित हो जाता है। कोई शास्त्र के जानने से पंडित नहीं होता, जो प्रज्ञावान हो जाये, वह पंडित हो जाता है।
जिनको हम पंडित की तरह जानते हैं, वे तो मूढ़ हैं। उनकी मूढ़ता शब्दों में छिप गई है। उनकी मूढ़ता शास्त्रों से अलंकृत है। उनकी मूढ़ता में वस्त्र हैं--रंगीन। लेकिन भीतर मूढ़ता है और गहन अंधकार है। तो पंडित कबीर में बहुत रस ले नहीं सकते।
फिर कबीर के जो वचन हैं, वे कोई सिद्धांत नहीं, अनुभव हैं। अनुभव के साथ एक कठिनाई है कि उसे समझना मुश्किल है, जब तक कि वह तुम्हारा अनुभव न बन जाये। कबीर को समझना हो तो कबीर ही होना पड़े इससे पहले समझ में नहीं आयेंगे। इसके पहले तो वे बेबूझ मालूम पड़ेंगे। इसलिए लोगों ने कहा कि कबीर की बातें तो उलटी सुलटी हैं।
कबीर के वचनों को लोगों ने उलटबांसी का नाम दे दिया। कबीर की भाषा का अलग ही नाम रखना पड़ा--सधुक्कड़ी। कोई सुसंस्कृत भाषा नहीं है कबीर की; उसे अलग ही नाम देना पड़ा--सधुक्कड़ी--साधुओं की अनर्गल, बेतुकी बातें, जिनमें न कोई तर्क है, न संगति है।
कबीर को जानना हो तो शब्द से तो पहचाना नहीं जा सकता है, अनुभव से ही पहचाना जा सकता है। कितने कम लोग हैं पृथ्वी पर जो अनुभव से पहचानेंगे!
इसलिए कबीर की बात दूर तक नहीं पहुंची। बुद्ध का नाम पहुंच सका।
बुद्ध भी अनुभव की बात बोल रहे हैं, लेकिन वे राजपुत्र हैं। बात अनुभव की है, लेकिन बड़ी सुसंस्कृत भाषा में है। पंडित भी उसका स्वाद ले सकता है।
महावीर का अनुभव भी वही है। लेकिन महावीर भी राजपुत्र हैं। जो श्रेष्ठतम शिक्षा और संस्कृति उपलब्ध थी, वह उन्हें उपलब्ध है। वे पंडित के तर्क, संगति, विचार, सिद्धांत सबको तृप्त कर सकते हैं।
कबीर के शब्द तो लट्ठ की तरह सिर पर पड़ते हैं। जो मिटने को ही राजी हो, वही उनको झेलने को राजी होगा।
कबीर ने कहा है ः "जो घर बारे आपना, चले हमारे संग'। जो अपना घर जलाने को तैयार हो, वह हमारे साथ हो जाये। इससे कम में वे राजी नहीं हैं। पर अगर प्रेम से कोई, प्रार्थनापूर्ण भाव से कोई उनके शब्दों में देखे, तो मनुष्य ने जो भी श्रेष्ठतम जाना है, उसका सब सार वहां है। उनके शब्दों को समझें। एक-एक शब्द बहुमूल्य है।
"जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा'। लोग मंदिर में जाते हैं, परिक्रमा करते हैं। मूर्ति रखी है मंदिर में, उसके चारों तरफ डोलकर वे सोचते हैं--परमात्मा की परिक्रमा कर रहे हैं! परमात्मा इतना छोटा है, जिसकी तुम परिक्रमा कर सको? जिसे तुम घेर लो? जिसकी तुम परिभाषा कर सको? जिसके चारों तरफ तुम घूम आओ। कबीर कहेंगे, यह अपमान हुआ। तुम समझे ही न कि परमात्मा तुमसे बड़ा है। तुम कैसे उसकी परिक्रमा करोगे? तुम कुछ भी करो, तुम परमात्मा की परिक्रमा कैसे कर पाओगे? इसलिए कबीर किसी मंदिर में नहीं जाते, किसी मसजिद में नहीं जाते; वे कहते हैं ः "जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा।' जहां भी जाता हूं, उसी की परिक्रमा हो गयी। और परिक्रमा अंतहीन है। यह पूरी भी नहीं होगी, क्योंकि पूरी तो तभी हो सकती है, जब मैं उससे बड़ा होऊं, मैं उसे घेर लूं।
एक बड़ी मीठी कथा है। शिव के दो पुत्र हैं ः कार्तिक और गणेश। और शिव उनके साथ खेल रहे हैं। और शिव ने कहा, "एक काम करो, तुम दोनों जाओ और विश्व की परिक्रमा कर आओ। जो पहले आयेगा, वह पुरस्कृत होगा।' कार्तिक होशियार है, दुनियादार है; वह निकल पड़ा तेजी से। फिर वह एक क्षण रुका नहीं। गणेश खड़े ही रहे। एक तो शरीर से स्थूल हैं, इतनी तेजी बरत भी नहीं सकते। शिव ने कहा, "तुम खड़े क्या हो? कार्तिक जा भी चुका और जल्दी ही लौट आयेगा!' गणेश ने एक परिक्रमा शिव की लगा ली। और कहा, "मैं आ गया।' और गणेश जीते!
परिक्रमा परमात्मा की--एक भाव है, कोई बा*हय जगत का तथ्य नहीं। कार्तिक चूक गया। वह सच में ही विश्व का परिभ्रमण करने निकल पड़ा। परिक्रमा एक भाव-दशा है। कबीर कह रहे हैं ः "जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा।' यह एक भाव है, एक प्रार्थनापूर्ण हृदय है। तो जहां भी डोल रहा हूं, वह उसकी परिक्रमा है। जो भी कर रहा हूं, वह उसका ही काम है।
सहज-योग का यह पहला आधार होगा कि तुम्हारा चौबीस घंटे का जीवन परिक्रमा हो जाये। जीवन खंड-खंड हो भी तो नहीं सकता, लेकिन हमने खंड-खंड किए हैं। हम बड़े होशियार हैं। सुबह जाकर हम प्रार्थना कर आते हैं, फिर दुकान चला लेते हैं; धन कमा लेते हैं, उसी में थोड़ा दान करके धर्म भी कमा लेते हैं। इस प्रकार जीवन को हमने कई हिस्सों में बांट रखा है और सब हिस्से अलग अलग हैं।
जब एक आदमी मंदिर में जाता है, तब उसका चेहरा देखो, वह अलग आदमी है। वही आदमी बाजार में मिल जाये, तो उसका चेहरा अलग है। वह वही आदमी नहीं है। यह दूसरा ही खंड है। लेकिन जीवन क्या बांटा जा सकता है? जीवन तो अविभाज्य है।
प्रार्थना या तो होगी--तो चौबीस घंटे चलेगी--या नहीं होगी। प्रार्थना घंटे भर नहीं हो सकती। ऐसा तो नहीं हो सकता कि गंगा सिर्फ काशी में बहे, प्रयाग में बहे और बाकी समय न बहे--तो प्रयाग तक पहुंचेगी कैसे? तुम मंदिर में जाकर प्रार्थनापूर्ण हो जाओ और मंदिर के बाहर एक क्षण पहले तुम प्रार्थनापूर्ण नहीं थे, तो मंदिर के भीतर जाकर अचानक प्रार्थना की गंगा बहने कैसे लगेगी? तुम अनहोना चमत्कार कर रहे हो। द्वार तक तुम साधारण दुकानदार हो, द्वार के भीतर तुम प्रविष्ट हुए कि तुम भक्त हो गये। और फिर तुम मंदिर के बाहर निकलते ही दुकानदार हो जाओगे। तुमने मंदिर में धोखा दिया। क्योंकि तुम्हारे तेईस घंटे ही सच होंगे, तुम्हारा एक घंटा सच नहीं हो सकता।
तेईस घंटे तुम बेईमान हो, झूठ बोल रहे हो, चोरी कर रहे हो, धोखा दे रहे हो और एक घंटे के लिए तुम एकदम सरल हो गये! सरलता कोई खेल है? कि तुमने जब चाहा, तब सम्हाल लिया ! यह असंभव है। लेकिन हम होशियार हैं, चालाक हैं। हम दोनों लोक एक साथ सम्हाल लेना चाहते हैं। हम कहते हैं ः थोड़ा-सा समय परमात्मा को भी दिया, ताकि दोनों नावों पर पैर रहें।
कबीर कहते हैं कि यह असंभव है। धार्मिक आदमी या तो धार्मिक होता है या नहीं होता। तुम यह मत सोचना कि दस परसेंट धार्मिक और बीस परसेंट धार्मिक और आधा घंटा धार्मिक, एक घंटा धार्मिक ! यह असंभव है। जैसे तुम श्वास लेते हो, तो चौबीस घंटे--चाहे तुम सोओ, चाहे तुम जागो, चाहे तुम होश में हो, चाहे तुम बेहोश हो। कबीर कहते हैं ः परिक्रमा श्वास जैसी हो जाये--तुम जहां-जहां डोलो वहीं-वहीं--भाव परिक्रमा का बना रहे। तुम जिसके पास से भी गुजरो, वहीं परमात्मा दिखाई पड़े। वह चाहे मंदिर हो, चाहे मसजिद; चाहे सड़क के किनारे पड़ा हुआ पत्थर हो, चाहे वैश्या का घर हो; लेकिन तुम्हें परमात्मा ही दिखाई पड़े। तुम्हारी परिक्रमा जारी रहे।
"जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा, जो कछु करौं सो सेवा।' अविभाज्य जीवन का सूत्र है कि तुम उसे बांटो मत। तुम यह मत कहो कि "यह' सेवा है, "यह' काम है; अभी सेवा कर रहा हूं, अब काम करूंगा; अभी प्रेम कर रहा हूं, अब कर्तव्य करूंगा; यह संसार है और यह परमात्मा--ऐसा विभाजन मत करो; क्योंकि जहां विभाजन है, वहीं तुम भटक गये, वहीं तुम भूल गये, वहीं द्वैत आ गया। और जहां दो आ गये, वहीं चूक हो गई, वहीं स्मरण भटक गया, वहीं स्मरण खो गया, वहीं सुरति नष्ट हो गई।
"जब सोवौं तब करौं दंडवत।' अलग से--कहते हैं कबीर--क्या दंडवत करना?अलग से जाकर क्या मंदिर में साष्टांग लेटना? रात जब सोता हूं, तभी दंडवत कर लेता हूं, वही दंडवत है। अलग से और करने का कोई सवाल नहीं। अलग से तो दिखावा हो सकता है। जब थक जाता हूं और जब सोता हूं--तो दंडवत है।
रात सोते वक्त खयाल रखना। जैसे मंदिर में दंडवत कर रहे हो, ऐसे बिस्तर पर सो जाना। उसी दंडवत के भाव में नींद लग जाये। सुबह उठना, तो परिक्रमा का भाव और जो भी करना उसे उसकी ही सेवा समझना।
कबीर ज्ञानी हो गये--परमज्ञानी हो गये, फिर भी उन्होंने काम जारी रखा। कपड़ा बुनते थे, बुनते रहे; जुलाहे थे--जुलाहे ही बने रहे। रूई धुनते रहे, तार बुनते रहे। लोग कहते कि ः "यह बंद करो, इसमें क्या सार है! और अब परमज्ञान को उपलब्ध हुए, अब छोड़ो यह सब।' लेकिन कबीर कहते ः "जो कछु करौं सो सेवा। "राम' बाजार में रास्ता देख रहे होंगे कि कबीर कपड़ा बुनकर लायेगा। और मैं नहीं जाऊं कपड़ा लेकर, तो "राम' निराश लौटेंगे।' तो कपड़ा ही बुनते रहे। लेकिन कपड़ा कबीर ने जैसा बुना, किसी ने नहीं बुना। कपड़ा बुनते तो जैसे भाव बुनते--आनंद से मग्न। जैसे प्रेयसी प्रेमी से मिलने जाती हो, जैसे प्रेमी प्रेयसी से मिलने जाता हो; जैसे बहुत दिन के बाद प्रेमी आता हो और प्रेयसी ने कपड़े तैयार किए हों, कपड़े बुन रही हो। फिर वे भागे हुए बाजार की तरफ जाते और जो भी ग्राहक आता, वह उससे कहते, "राम, बड़ी मेहनत से बुना है। खूब चलेगा।' साधारण दुकानदार कहता कितना ही हो कि "बहुत मजबूत है', लेकिन चाहता यही है कि चले बिलकुल न, ताकि जल्दी लौटकर आना पड़े। कबीर कहते ः "बड़ी मेहनत से बुना है। जीवन भर चलेगा। तुम्हारे लिए ही बुना है।'
सारा कृत्य जब सेवा बन जाये, तो फिर धर्म को संसार से अलग बांटने की जरूरत नहीं रह जाती। तब तुम्हारे जीवन में एक अविभाज्य, एक अखंड ज्योति जलने लगेगी, जिसके टुकड़े नहीं हैं। और जितनी ही तुम्हारी चेतना के टुकड़े हैं, उतने ही तुम मुर्दा हो। जितनी ही तुम्हारी चेतना एक होकर जलेगी, तुम मशाल की तरह हो जाओगे।
तुम्हारे जीवन की ज्योति तब अपरंपार होगी, उसकी महिमा का कोई अंत नहीं है।
अभी तुम बुझे-बुझे दीये की भांति हो, क्योंकि तुम इतनी ज्योतियों में बिखर कर जल रहे हो। तुमने इतना बांट रखा है अपने जीवन को--इंच भर यहां, इंच भर वहां। तुम्हारे जीवन में कोई बाढ़ नहीं हो सकती, कोई ओवर *फलोइंग नहीं हो सकती। तुम प्रेम भी करते हो तो मंदा-मंदा, तुम काम भी करते हो तो फीका-फीका। सब तरफ एक उदासी है। जीवन की ज्योति तो जलती है तब, जब तुममें अतिरेक होता है। जब इतनी ज्योति होती है कि तुम बांट सको और कम न हो, तुम लुटा सको और तुम्हें ऐसा न लगे कि मैं दीन हो रहा हूं--तभी जीवन में समाधि फलित होती है।
तो समाधि के लिए पहला आधार होगा कि तुम अखंड बनो। तुम धर्म को और संसार को अलग-अलग मत करो। इसलिए कबीर संसार और संन्यास को अलग-अलग नहीं करते। कबीर नहीं कहते कि तुम घर छोड़कर भाग जाओ हिमालय। क्योंकि जिसे तुम हिमालय पर पाओगे, वह यहां बाजार में मौजूद था। इतने दूर जाने की जरूरत क्या थी! और जब तुम उसे यहां न पा सके, तो उसे तुम हिमालय पर कैसे पा सकोगे? क्योंकि आंखें तो तुम अपनी ही ले जाओगे। अगर आंखें यहां अंधी थीं, तो हिमालय पर जाकर कैसे तुम देखनेवाले हो जाओगे? बाजार में आंखें अंधी थीं, तो हिमालय पर भी अंधी होंगी। और अगर अपनी पत्नी में तुम न देख सके, अपने बेटे में तुम न देख सके, अपने घर में न देख सके, तो किसी मंदिर में और किसी प्रतिमा में तुम न देख पाओगे। देखेगा कौन?
एक सूफी फकीर एक नदी के किनारे लोगों को नाव से पार कराने का काम करता था। दो-चार पैसे मिल जाते थे, उससे उसका रोज रोटी-पानी चल जाता था। एक युवक आया और उसने कहा, "मुझे पार करा दें। लेकिन पहले ही बता दूं, मेरे पास पैसे नहीं हैं और मैं कुछ दे न सकूंगा।' तो उस फकीर ने कहा, "एक ही पैसा तो मैं लेता हूं !' उस युवक ने कहा, "वह भी मेरे पास नहीं है।' फकीर जैसा बैठा था, वैसा ही बैठा रहा। उस युवक ने कहा, "क्या इरादा नहीं है ले चलने का?' फकीर ने कहा, "लेकिन जाने से फायदा भी क्या? पैसा तुम्हारे पास यहां भी नहीं है, उस किनारे भी नहीं होगा। करोगे क्या? इससे कोई भेद पड़नेवाला नहीं है। जैसे इस किनारे हो, वैसा उस किनारे भी रहोगे! नाहक मुझे तकलीफ दे रहे हो।'
तुम्हारे पास अगर आंखें यहां नहीं हैं, तो उस किनारे पर भी आंखें नहीं होंगी। तुम अगर गृहस्थ होकर अंधे हो, तो तुम संन्यासी होकर भी अंधे रहोगे। इसलिए सवाल स्थान बदलना नहीं है। असली सवाल दृष्टि बदलना है। तुम्हारी आंखें खुल जायें, तो तुम जहां हो, वहीं हिमालय है; तुम जहां हो, वहीं एकांत--अकेलापन है; ठेठ बाजार में सन्नाटा है। नहीं तो हिमालय पर भी बड़ा शोर-गुल रहेगा। तुम्हारा मन तो शोर-गुल साथ ले जायेगा। एक बात पक्की है कि तुम कहीं भी जाओ, तुम अपने को तो साथ ले ही जाओगे। अपने को कैसे पीछे छोड़कर भाग सकोगे! अपने से भागने का कोई रास्ता नहीं है।
तो कबीर संसार और संन्यास को एक ही मानते हैं। कबीर कहते हैं ः यहीं संन्यास है, यहीं संसार है। और संन्यास और संसार दो परिस्थितियां नहीं हैं, देखने के दो ढंग हैं। देखने की कला आ जाये, तो सभी जगह संन्यास है। देखने की कला न आये, तो सभी जगह संसार है।
तुम जाओ--आश्रमों में--संन्यासियों की दुनिया में, वहां भी तुम संसार पाओगे। संसार से भागना मुश्किल की जरूरत क्या है? एक बच्चा हंसता है, एक बच्चा रोने लगता है। रोना भी उसका, हंसना भी उसका है। सारी आवाजें उसकी हैं। और जो व्यक्ति एक दफा इस भाव को खयाल में ले ले, फिर उसे कोई आ
मन जब तक कंपता है तब तक "दो', मन जब निष्कंप हो जाता है तब "एक'।
एक तो है--दो तुमने किए हैं। इसलिए एक को वापस लौटा लेना बहुत कठिन न होगा। सिर्फ समझ चाहिए, सिर्फ थोड़ा-सा होश चाहिए और थोड़ा--निष्कंप मन। जब भी कहीं देखो, तो कंपते हुए मत देखो। जब भी कुछ देखो, तो विचार के साथ मत देखो; क्योंकि विचार कंपन है, लहर है। निर्विचार देखो; अचानक तुम्हें "एक' दिखाई पड़ेगा। अगर तुम निर्विचार होकर गृहस्थ को और संन्यासी को देख लो, तो तुम पाओगे कि दोनों एक हैं। अगर तुम निर्विचार होकर पदार्थ को और परमात्मा को देख लो तो तुम पाओगे कि दोनों एक हैं। जो भी निर्विचार होकर देखेगा, वह "एक' को ही देख पायेगा। एक का अनुभव निर्विचार का अनुभव है।
"गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।'
"आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।' बड़ा अदभुत वचन हैः "आंख न मूंदौं, कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।' इंद्रियों को तोड़ने-मरोड़ने से कुछ भी न होगा। लोगों ने आंखें फोड़ ली हैं--इस भय से कि आंखों के कारण रूप आकर्षित करता है, स्त्री मोहित कर लेती है, कि पुरुष निमंत्रण बन जाता है। आंख ही न होगी, तो न दिखेगा रूप, न होगा आकर्षण, न जगेगी वासना। तर्क बिलकुल गलत है।
आंख बंद करके देखो। फोड़ने तक जाने की जरूरत नहीं है। आंख बंद करने से रूप खोता नहीं है और भी मधुर और प्रीतिकर हो जाता है। कोई स्त्री इतनी सुंदर नहीं है, जितनी आंख बंद करके दिखाई पड़ती है। कोई पुरुष इतना आकर्षक नहीं है, जितना तुम्हारे सपनों में रंगीन हो जाता है। तुम रंग देते हो, तुम रूप देते हो; तुम्हारी वासना रंगती है, सौंदर्य का निर्माण करती है। सुंदर तुम्हें चीजें दिखाई पड़ती हैं--आंखों के कारण नहीं--तुम्हारी आंखों के माध्यम से तुम्हारी वासना उन पर आरोपित हो रही है। पूरे समय तुम अपनी वासना उंडेल रहे हो।
कभी तुमने खयाल किया कि वही चीज जो कल सुंदर मालूम पड़ती थी, आज असुंदर मालूम पड़ने लगती है--अगर वासना चली गई। कल तुम उस पर पागल थे; आज कुछ अर्थ न रहा। क्या फर्क पड़ गया? चीज वही की वही है; व्यक्ति वही का वही है। इतना फर्क पड़ गया है कि अब तुम अपनी वासना उस पर नहीं डाल रहे हो। परदा वही है, लेकिन प्रोजेक्टर बंद है। अब तुम "पद*' पर कोई चित्र नहीं फेंक रहे हो।
सारा सौंदर्य, सारा रूप, तुम्हारे मन की निर्मिति है। और मन आंखों के पीछे छिपा है; आंख फोड़ने से क्या होगा? अंधे भी वासना से पीड़ित होते हैं--शायद तुमसे ज्यादा पीड़ित होते हैं, क्योंकि कुछ कर भी नहीं सकते, खोज भी नहीं सकते; वासना को तृप्त करने का उपाय भी थोड़ा कठिन है। लंगड़े क्या दौड़ने की वासना से पीड़ित नहीं होते? क्या उनमें महत्वाकांक्षा नहीं जगती? मनोवैज्ञानिक तो उलटी ही बात कहते हैं। वे कहते हैं कि लंगड़े के मन में जितनी वासना दौड़ने की जगती है, उतनी स्वस्थ पैर वाले के मन में कभी नहीं जगती। और अंधा जितना देखने को आतुर होता है, उतना आंख वाला कभी आतुर नहीं होता है। बहरे की सुनने की आतुरता? तुम क्या मुकाबला करोगे ! क्योंकि जो भी अभाव होता है, वह खलता है। जो हमारे पास नहीं होता, उसकी मांग बढ़ती है।
इसलिए कबीर कहते हैं ः "आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहि धारौं।' और वे कहते हैं ः खुद को कष्ट देने से अगर परमात्मा मिलता होता, तब तो बड़ी आसान बात थी। लेकिन बहुत लोग खुद को कष्ट देकर सोचते हैं कि शायद इस भांति वे परमात्मा को कमाने का सौदा पूरा कर रहे हैं। जैसे कि सिक्के दे रहे हैं वे कष्ट उठाकर। ये लोग रुग्ण हैं। और जिसको मनोविज्ञान इस सदी में जाकर पहचान पाया है, कबीर ने बहुत पहले पहचान लिया था।
कुछ लोग हैं, जो स्वयं को कष्ट देने में रस पाते हैं। उनका चित्त रुग्ण है, पैथोलॉजिकल है। जब तक वे अपने को सताएं न, उनको मजा नहीं आता।
दो तरह के लोग हैं दुनिया में। एक, जो दूसरों को सताने में मजा लेते हैं। लेकिन दूसरे को सताना हमेशा खतरे का काम है। क्योंकि दूसरे को भी चुनौती दे रहे हैं आप कि वह इसका प्रतिकार करे। जो कायर और कमजोर हैं, वे भी सताना तो चाहते हैं, लेकिन दूसरे को नहीं सता सकते हैं, क्योंकि दूसरे के साथ झंझट हो जायेगी। वे खुद ही को सताते हैं। तो आक्रमक तरह के लोग दूसरे को सताने में रस लेते हैं और कायर तरह के लोग खुद को सताने में रस लेते हैं। पहली तरह के लोग हिंसा में लग जाते हैं और दूसरे तरह के लोग आत्म-हिंसा में लग जाते हैं।
एक आदमी उपवास में पड़ा है, एक आदमी कांटे बिछाकर लेटा हुआ है या एक आदमी दस वर्ष से खड़ा ही हुआ है, वह दस वर्ष से बैठा नहीं है। उसके पैर हाथी-पांव हो गये हैं। अब झुक भी नहीं सकते ! या एक आदमी ने अपनी आंखों की पलकें उखाड़कर फेंक दी हैं, ताकि नींद न आये; ताकि वह आंख खोले ही रखे। ये जो लोग हैं आत्म पीड़क हैं--जिनको मनोविज्ञान कहता है--मैसोचिस्ट; स्वयं को दुख देने में इनका रस है।
कबीर कहते हैं ः "तनिक कष्ट नहीं धारौं।' लेकिन मैं अपने को कोई कष्ट नहीं देता। क्योंकि कष्ट देने का कोई सवाल नहीं है। जो न तो खुद को कष्ट देता है, न दूसरे को कष्ट देता है, वही साधु है। यह बड़ा मुश्किल है मामला।
आपको भी लगता है कि साधु वही है, जो खुद को कष्ट दे। और असाधु वह है, जो दूसरे को कष्ट दे। तो अगर आप साधु को आराम में देखें, तो आपको तकलीफ शुरू हो जाती है कि अरे ! साधु होकर यह आदमी आराम से बैठा है ! अगर साधु को आप ठीक मकान में रहते देख लेते हैं, तो तकलीफ शुरू हो जाती है। छाया में बैठे साधु को देखकर आपको बड़ी बेचैनी होती है। क्योंकि असाधु को तो आप भलीभांति जानते हैं, वह आप हैं। आपको असाधु का पता है कि जब तक दूसरे को धूप में न खड़ा कर दो, तब तक आपके चित्त को शांति नहीं मिलती। तो साधु इससे उलटा होना चाहिए, यह आपका तर्क है।
तर्क सीधा है--आप अपने लिए सुख चाहते हैं, दूसरे के लिए दुख चाहते हैं। अगर दूसरे को दुख दे कर भी खुद को सुख मिले, तो आप सुख चाहते हैं। सारी दुनिया को दुख देकर भी खुद को सुख मिले, तो आप सुख चाहते हैं। सारी दुनिया को दुख मिले, तो कोई चिंता नहीं; आपको सुख मिलना चाहिए। सबको दुख मिले तो भी चलेगा। यह असाधु का भाव है। यह असाधु तभी किसी को साधु मानेगा, जब इससे उलटा कोई काम करके दिखाये। खुद को कष्ट देना शुरू कर दे--साधु हो जायेगा। लेकिन यह तो द्वंद्व का ही हिस्सा हुआ।
इसलिए कबीर को समझना बहुत मुश्किल है। क्योंकि कबीर कहते हैं ः "तनिक कष्ट नहीं धारौं।' न मैं दूसरे को तकलीफ देता हूं, न खुद को तकलीफ देता हूं। क्योंकि न तो "मैं' हूं, न कोई दूसरा है। वही एक है। तकलीफ किसी को भी दी जाये, उसी को मिलती है। तो न तो दूसरे को भूखा मारना है और न खुद को। न दूसरे को धूप में खड़ा करना है, न खुद को। कष्ट देने की चेष्टा--चाहे दूसरे को या चाहे अपने को--रुग्ण है।
साधु चाहता है कि सुख सब पर बरसे; और अपने को भी उससे वंचित नहीं करता है, क्योंकि अपने साथ भी यह ज्यादती क्यों? और अपने साथ भी यह पक्षपात क्यों? यह भेद क्यों? साधु की आकांक्षा है कि यह सारा जगत सुख से भर जाये। इसमें किसी को भी दुख न हो। इसमें वह अपने को अलग करके नहीं चलता है। वह इसका हिस्सा है। पर साधु को समझना हमें कठिन है। हमारे असाधु के कारण, हमारी कठिनाई है। इसलिए जब भी हम देखेंगे कि साधु सुख में है, हमारे मन में तत्*ण खयाल आ जाता है कि यह ठीक साधु नहीं है। उसे कष्ट में होना ही चाहिए।
एक इटेलियन विचारक लेंजा देलवास्तो भारत आया, तो रमण महर्षि को देखने गया--अरुणाचल। रमण परम साधु हैं; लेकिन लेंजा देलवास्तो को रमण साधु नहीं मालूम पड़े--बैठे हैं, तकिए से टिके हुए ! अकसर तो वे तकिए से टिके ही रहते थे; बैठे ही रहते थे, बिस्तर पर। वही उनकी जगह थी। लेंजा देलवास्तो दो-चार दिन वहां रहा और उसने अपनी डायरी में लिखा है कि "ये होंगे सिद्ध पुरुष--पहुंचे हुए, पर अपने लिए नहीं। यह किस तरह की साधुता है?'
अरुणाचल से लेंजा देलवास्तो सीधा आया--सेवाग्राम। गांधी से प्रभावित हुआ। तत्क्षण उसने दीक्षा ली और गांधी का साधु हो गया। गांधी ने उसको नाम दिया--शांतिदास। लेंजा देलवास्तो ने लिखा है कि "गांधी से मैं प्रभावित हुआ।' यह आदमी सही है। मेहनत कर रहा है। चरखा कात रहा है। गरीब के पैर दाब रहा है। कोढ़ी को मालिश कर रहा है। कम से कम भोजन ले रहा है। शरीर हड्डी-हड्डी हो गया है। न कोई तकिया है, न कोई बिस्तर ! यह आदमी साधु है।
लेंजा देलवास्तो बुरा आदमी नहीं है, अच्छा आदमी है; सज्जन, विचारशील; लेकिन उसका तर्क! वह कबीर के पास भी जाता, तो भी उसका तर्क यही होता। सुनता अगर वह कबीर को कहते कि "तनिक कष्ट नहीं धारौं', तो लेंजा देलवास्तो कहता कि "यह व्यक्ति अपने काम का नहीं है।' कोई जैन साधु लेंजा देलवास्तो को प्रभावित करता। अगर किसी ने आंख फोड़ ली हो, तो तुम्हें भी प्रभावित करेगा कि इसने कुछ किया है। किसी ने कान फोड़ लिया है, तो तुम्हें भी प्रभावित करेगा।
रूस में एक संप्रदाय था ईसाइयों का, जो जननेंद्रिय काट लेते थे। उनका बड़ा प्रभाव था। वे परम साधु थे। तुम्हारे सूरदासजी ने आंखें फोड़ी होंगी, लेकिन जननेंद्रिय काट डालना और भी बड़ी बात है। वे हजारों की संख्या में थे। और लोग पता लगाते थे कि इस साधु ने जननेंद्रिय काटी कि नहीं। अगर काट ली, तो परम साधु! नहीं काटी, तो क्या पता जीवन में काम-वासना चलती हो, भोग चलता हो, कुछ पता नहीं। लेकिन जननेंद्रिय काट डाली तो फिर भोग का कोई कारण नहीं रहा, उपाय नहीं रहा। लेकिन उपाय नहीं रहने से क्या वासना मर जाती है? जननेंद्रिय काटने से क्या चित्त के रोग चले जाते हैं? बढ़ सकते हैं; जाने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि उससे कोई संबंध ही नहीं है।
जननेंद्रिय काम-वासना का आधार नहीं है, काम-वासना की अभिव्यक्ति का माध्यम है। अभिव्यक्ति के माध्यम को रोकने से कोई काम-वासना नहीं रुकती। नल की टोटी को बंद कर देने से कोई पानी का प्रवाह बंद नहीं होता। नल की टोटी तोड़ भी डाली, तो भी कोई पानी का प्रवाह बंद नहीं होता। झरने के ऊपर पत्थर रख दो, तो झरना रुक भला जाये, नष्ट नहीं होता। वासना तुम्हारे भीतर झर रही है।
कबीर कहते हैं ः "आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहीं धारौं। खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।' आंख बंद करने की क्या जरूरत है ! क्योंकि सभी रूप उसी के हैं। यह एक बहुत क्रांतिकारी दृष्टि है।
एक सुंदर स्त्री गुजरती है राह से--साधारण साधु का ढंग है कि आंख बंद कर लो। कबीर का ढंग है कि इस में उसी का रूप देखो--उस एक का ही रूप देखो। कबीर का ढंग महत्वपूर्ण है--सुंदर स्त्री दिखाई ही न पड़े, "वही' दिखाई पड़े।
"खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।' पर हमें बड़ी मुश्किल है। फूल में हम परमात्मा देख भी लें। अगर मैं कहूं कि फूल में परमात्मा है, तो अड़चन नहीं होती है। अगर कहूं कि एक सुंदर स्त्री को देखते हैं, तो घबड़ाएं मत, उसमें भी परमात्मा है, तो अड़चन होती है। क्योंकि फूल से वासना का कोई गहरा संबंध नहीं है। स्त्री को देखते ही वासना जगती है। और वासना जब तक प्रार्थना न बन जाये, तब तक स्त्री में परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। और जब तक दिखाई न पड़े, तब तक तुम भागो कितने ही रेगिस्तानों में, पहाड़ों में, पहाड़ों पर--कुछ फर्क न पड़ेगा; स्त्री तुम्हारा पीछा करेगी। वह तुम्हारे साथ ही रहेगी। तुम जितने भयभीत होओगे, उतने ही सिकुड़ जाओगे, फैलोगे नहीं। और बिना फैले कभी किसी को ब्रह्म का अनुभव हुआ है? ब्रह्म को जाना है किसी ने?
सिकुड़ा हुआ आदमी अहंकार से भर जायेगा, फैला हुआ आदमी मिटता है। तुम जितने फैल जाओगे, अहंकार उतना ही कम हो जायेगा। तुम जितने ही सिकुड़ जाओगे, अहंकार उतना ही ज्यादा हो जायेगा। अहंकार एक तरह का संकुचन है। ब्रह्म-अनुभव एक तरह का विस्तार है।
"खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।' लेकिन साधु को तो तुम हंसते हुए भी नहीं देख सकते। और अगर वह सुंदर रूप को निहार के हंस रहा हो, तब तो बहुत कठिन हो जायेगा। तब तो तुम पुलिस को खबर कर दोगे। लेकिन कबीर कह रहे हैं ः रोने की क्या बात है?
ये साधु इतने उदास क्यों दिखते हैं। इनका रोना, इनके लम्बे चेहरे, इनके चित्त की यह इतनी उदासी--यह सब क्यों है? वासना प्रफुल्लता नहीं बन रही है, रोग बन रही है। वासना रूपान्तरित होकर प्रार्थना नहीं बन रही है, कहीं न कहीं भीतर घाव बन रही है। उस घाव की वजह से चेहरे उदास हैं, उनमें प्रफुल्लता नहीं है।
हम प्रफुल्लता से भी डरते हैं, हंसने से भी डरते हैं। शराबखाने में तो हंसी सुनी जाती है, मंदिर में नहीं, मंदिर में सच में ऐसी हंसी सुनी जानी चाहिए, कि शराबखाने फीके पड़ जायें। शराबी क्या हंसेगा। उसका हंसना कैसे गहरा हो सकता है? उसका हंसना तो रोने को छिपाने का एक उपाय ही होगा। मंदिर से हंसी उठनी चाहिए, जो कि कंपा दे।
असाधु क्या हंसेगा? वह हंस भी नहीं सकता; उसकी स्थिति हंसने की नहीं है। सिर्फ साधु ही हंस सकता है। लेकिन यह हंसी तब ही हो सकती है, जब जीवन एक सहज-योग हो। अगर तुमने जबरदस्ती की, तो तुम हंसोगे कैसे? अगर तुमने जबरदस्ती की, तो तुम उदास हो जाओगे। अगर तुमने जबरदस्ती की, तो तुम्हारा पौधा सूखेगा, जड़ें कटेंगी। "खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं'।
"शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी। ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।' यह वचन बड़ा प्यारा है। इसे स्मरण रखना।
"शबद निरंतर से मन लागा।' एक शब्द है, उस शब्द का उच्चारण नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो भी हम उच्चारण कर सकते हैं, वह निरंतर नहीं हो सकता। वह पैदा होगा, नष्ट हो जायेगा। हम बोलेंगे, गूंज होगी, खो जायेगी। वह शाश्वत नहीं हो सकता, वह सदा नहीं हो सकता। एक ऐसा शब्द भी है, जिसे संतों ने जाना है, जो उच्चारित नहीं किया जा सकता, जो गूंज ही रहा है, उसको हमने ओंकार कहा है। उसी शब्द की कबीर बात कर
रहे हैं, वे कह रहे हैं ः तुम बोलना बंद करो, ताकि तुम्हारे भीतर जो शब्द गूंज ही रहा है, वह तुम्हें खयाल में आ जाये।
तुम इतना बोल रहे हो कि उसे सुन नहीं पाते। तुम इतना शोरगुल मचा रहे हो कि परमात्मा की वाणी--जो निरंतर कलकल हो रही है, भीतर उसका नाद चल रहा है--वह तुम्हें सुनाई नहीं पड़ रहा है। समाधिस्थ पुरुष को सुनाई पड़ता है--शब्द, जो निरन्तर है। उस शब्द का इन शब्दों से कोई अर्थ नहीं, जो हम बोलते हैं।
कबीर और नानक शबद और शबद की ही बात किये चले जाते हैं। उस शब्द से कोई भी संबंध हमारे इन शब्दों का नहीं है--जो हम बोलते और सुनते हैं। उस शब्द का उस स्थिति से संबंध है, जब हमारा बोलना बिलकुल शून्य हो जाता है और भीतर हम सुनते हैं।
जो शब्द हम बोलते हैं, वह तो क्षणिक है। जो शब्द हम सुनेंगे, वह शाश्वत है। जब हम बिलकुल चुप होंगे, तब वह सुनाई पड़ेगा। परमात्मा से बोलना नहीं है, परमात्मा को सुनना है।
"शबद निरंतर से मन लागा मलिन वासना त्यागी।' और जैसे ही उस निरंतर शब्द की गूंज सुनाई पड़नी शुरू होती है, मलिन वासना अपने आप छूट जाती है। उसे छोड़ना नहीं पड़ता, उसका त्याग हो जाता है। क्योंकि इतना अनाहत आनंद गूंजने लगता है, तो छोटे सुख की मांग कौन करेगा? जहां हीरे-जवाहरात बरस रहे हों, वहां रंगीन कंकड़-पत्थर का हिसाब कौन रखेगा? जहां अमृत झर रहा हो, वहां पानी की पुकार कौन मचायेगा? कौन कहेगा कि मुझे पानी के लिए प्यास लगी है?
"शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी। ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।' "तारी' का अर्थ होता है ः नींद, झपकी। तारी का अर्थ होता है ः तंद्रा। "ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।' लेकिन उठता हूं बैठता हूं, चलता हूं, लेकिन कोई एक ऐसा नशा लग गया है, कोई एक ऐसी मस्ती छा गई है, एक ऐसी "तारी' लग गई है कि छूटती नहीं!
परमात्मा शाश्वत नशा है, फिर वैसी कोई शराब नहीं। शराब पीओ, चढ़ेगा नशा, उतरेगा। तारी टूटेगी। थोड़ी देर को खुद को भूल जाओगे फिर याद आयेगी। लेकिन एक ऐसी तारी भी है कि तुम भूले, तुम भूले, तो फिर तुम्हारी याद तुम्हें कभी भी नहीं आती।
"ऊठत बैठत कबहूं न छूटै, ऐसी तारी लागी'।
"कह कबीर यह उनमनि रहनी, सो परगट कर गाई। सुख दुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।।'
"कह कबीर यह उनमनि रहनी।' "उनमनि' शब्द बड़ा कीमती है। झेन फकीर जिसको "नो-माइन्ड' कहते हैं, वही इसका अर्थ है। उन्मनि--जहां मन नहीं, जहां मन समाप्त हुआ। " कह कबीर यह उनमनि रहनी।' मन तो समाप्त हो गया, लेकिन रहना जारी है। मन तो गया, लेकिन मैं हूं। नाम तो न रहा, सीमा तो न रही, लेकिन सागर चल रहा है। रूप तो न रहा, लेकिन जीवन अहर्निश बह रहा है। "कह कबीर यह उनमनि रहनी।' एक ऐसा रहना, जिसमें कोई मन नहीं है। एक ऐसी जीवनचर्या जो मन से शून्य है।
"सो परगट कर गाई।' कबीर कह रहे हैं ः बस, इसी को गा रहा हूं, इसी को प्रगट कर रहा हूं--यह जो उनमनि रहनी है, यह जो मैंने जाना है, बिना मन के रहने का राज--जिसको वे कह रहे हैं ः
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा, जो कछु करौं सो सेवा।
जब सोवौं तब करौं दण्डवत, पूजौं और न देवा।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
आंख न मूदौं कान न रूंधौं , तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुन्दर रूप निहारौं।।
शबद निरन्तर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहूं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
कह कबीर यह उनमनि रहनि, सो परगट कर गाई।
यह प्रगट रूप से गा दी है। जो जाना--बिना मन के रहने का--जो राज, जो रस, जो नशा, जो मस्ती, उसे गा दिया है।
"सुख दुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।' और कबीर गानेवाला अब है नहीं, सिर्फ गीत बचा है। क्योंकि कबीर तो वहां समा गया है, जो सुख दुख के ऊपर कोई परमपद है।
या तो हमारे जीवन में सुख है या दुख है। या कुछ है, जो हम चाहते हैं या कुछ है, जो हम नहीं चाहते हैं। कुछ है, जिसका हम पीछा करते हैं; कुछ है, जिससे हम बचना चाहते हैं। तब तो मन बचेगा, चुनाव जारी रहेगा। और कबीर कह रहे हैं कि एक ऐसा पद भी है--लेकिन मन के पार है वह पद--जहां न सुख है, न दुख है उसी को हमने आनंद कहा है।
आनंद जैसा शब्द दुनिया की और भाषाओं में खोजना मुश्किल है। सुख-दुख के पर्यायवाची शब्द मिल जाते हैं। आनंद का अर्थ है--जहां न कुछ सुख है, न दुख है।
ध्यान रहे, आनंद का मतलब यह मत समझना कि जहां बहुत सुख है। क्योंकि जहां सुख होगा, वहां दुख भी रहेगा। अगर बहुत सुख होगा, तो बहुत दुख भी रहेगा। उनका अनुपात सदा समान होता है। गरीब के पास सुख कम होता है, दुख भी कम होता है। अमीर के पास सुख ज्यादा होता है, दुख भी ज्यादा होता है। उनकी मात्रा सदा बराबर रहेगी। वह तो संतुलन है। वे बराबर ही होंगे। जैसे साइकिल चलती है--दोनों चाक बराबर होंगे। तुमने एक चाक बड़ा किया, तो दूसरा भी बड़ा करना ही पड़ेगा; नहीं तो गिरोगे। साइकिल चल न पायेगी। सुख दुख दो पहिये हैं, वे सदा बराबर हैं। यही आदमी की मजबूरी है कि वह सुख के पहिये को बड़ा करता है, तो बड़ा हैरान होता है कि दुख का पहिया बड़ा हो गया। उसको यह पता नहीं है कि अगर दुख का पहिया बड़ा न हो, तो तुम गिरोगे; तुम चल ही न पाओगे। इसलिए सुखी आदमी जितना दुखी होता है, उतना दुखी आदमी दुखी नहीं होता। होने का उपाय नहीं है। उसके दोनों पहिए छोटे हैं।
गरीब आदमी का सुख भी छोटा है दुख भी छोटा होता है। अमीर आदमी के दोनों बड़े हैं। इसलिए आज जितना दुख अमेरिका में है, उतना दुख भारत में नहीं है। उसका कारण यह मत सोचना कि तुम सुखी हो। उसका कारण यह है कि वहां ज्यादा सुख है, ज्यादा दुख है। यहां न ज्यादा सुख है, न ज्यादा दुख है। दोनों पहिये बराबर हैं। और वह संतुलन जीवन अपने आप बनाता रहता है। लेकिन जहां तक दो हैं, जहां तक दूजा है, दुजाई है, जहां तक दुई है, वहां तक मन है।
"उनमनि रहनी' तो तब शुरू होगी, जब मन न रह जाये। तो एक और दशा है, जो आनंद की है।
बुद्ध ने आनंद शब्द का उपयोग नहीं किया, सिर्फ इसीलिए कि आनंद शब्द से सुख की ध्वनि आती है। हम आनंद शब्द के साथ गलत व्यवहार कर रहे हैं। उससे ऐसा लगता है--सुख--महासुख। तो बुद्ध ने शांति शब्द का प्रयोग किया है। जहां दोनों शांत हो गये हैं। उसे आनंद कहो, शांति कहो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन एक बात ध्यान में रखनी जरूरी है कि "सुख दुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।' कबीर तो समा गया है वहां। गानेवाला तो नहीं बचा है, लेकिन यह गीत गाया जा रहा है। यह उनमनि रहनी, यह बिना मन के रहने की जो चर्या है--स्वयं एक गीत बन गई है।
इस गीत को समझना हो, तो इन शब्दों को, जो मैंने समझाया है, समझना काफी नहीं है। "निरंतर शब्द' को सुनना पड़े। इन शब्दों से थोड़ा स्वाद पकड़ जाये, बस। इससे थोड़ी भनक पड़ जाये कान में। नींद नहीं टूट जायेगी इससे, लेकिन भनक पड़ जाये, कोई हिला दे और थोड़ा-सा खयाल आ जाये, बस, इतना हो सकता है। फिर खोज शुरू होती है।
खोज या तो प्रयत्न बन सकती है, अगर प्रयत्न बन जाये तो कबीर का सहज-योग न होगा। और या फिर प्रसाद बन सकती है, अनुकंपा बन सकती है। तब तुम खोजोगे जरूर, लेकिन खोज में कोई श्रम न होगा--प्रार्थना होगी, पूजा होगी। लेकिन तुम्हारा पूरा जीवन पूजा जैसा होगा। प्रार्थना होगी, लेकिन अलग से मंदिर और मसजिद में नहीं, तुम्हारे होने का ढंग प्रार्थनापूर्ण होगा। तुम प्रेयरफुल हो जाओगे। एक भावदशा निर्मित होगी और उसी भाव दशा से धीरे-धीरे मन विलीन हो जायेगा।
तुम्हारा कबीर भी जब खो जाये, तभी कबीर को समझने का उपाय है। कबीर जैसा ही होना पड़े। पर यह हो सकता है। क्योंकि तुम जो कर रहे हो, वही असंभव है। और जो कबीर या मैं करने को कह रहा हूं, वही सहज स्वभाव है।
सहज-समाधि का इतना ही अर्थ है ः जिसे पाने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है, जिसे तुमने पाया हुआ है। जिसे तुमने कभी खोया नहीं, लेकिन तुम्हें खयाल है कि तुमने खो दिया है। इस खयाल को छोड़ना।
मैं तो तुमसे कहूंगा कि तुम इस भांति जीना शुरू कर दो कि कुछ भी खोया नहीं है। तुम इस भांति जीना शुरू कर दो कि सब मिला हुआ है। तुम इस भांति जीना शुरू ही कर दो कि तुम पहुंच गये। और तुम पाओगे कि तुम्हारा जीवन बदलना शुरू हो गया है।
इसमें तुम सोचो भी मत। इसमें तुम विचार भी मत करो अन्यथा मन समझायेगा कि यह "कैसे हो सकता है? मंजिल दूर है?' तुम इस भांति जीना शुरू कर दो कि तुम मंजिल पर हो ही। तुम वहां हो ही, जहां सभी को पहुंचना है। ठीक इससे तुम शुरू करो।
यह बड़ा उलटा मामला है। क्योंकि हम पहले कदम से शुरू करते हैं। और सहज-योग कहता है कि अंतिम कदम से शुरू करो। हम शुरू से शुरू करते है--बिगनिंग फ्रॉम दि बिगनिंग। और सहज-योग कहता हैं ः अंत से शुरू करो--जहां जहां पहुंचते हो, वहीं से शुरू करो। और मैं तुमसे कहता हूं कि सहज-योग सही है।
अगर कबीर या पतंजलि की सुनना हो तो तुम कबीर की सुनना, पतंजलि की मत। क्योंकि पतंजलि का योग है--असहज योग। साधो, सम्हालो श्रम करो। हालांकि पतंजलि से भी पहुंच जाते हैं लोग। पर पहुंचने का कारण पतंजलि नहीं हैं। पहुंच जाते हैं इसलिए, कि साधते-साधते इतना थक जाते हैं कि एक दिन छोड़ देते हैं। जिस दिन छोड़ देते हैं, उसी दिन पा लेते हैं।
कबीर कहते हैं ः यह तो पहले ही हो सकता था ! इसके लिए इतनी दूर चलने की जरूरत न थी। इतने नाक-कान बंद करना, शीर्षासन लगाना, इतना सब करने के बाद ही जब छोड़ना था, इसको हम पहले ही दिन छोड़ दिए। इसको हमने उठाया ही नहीं। इस बोझ को हमने कंधे पर रखा ही नहीं।
पर दो ही रास्ते हैं ः कबीर या पतंजलि। अगर मन बहुत जोर मारता हो, तो पतंजलि के साथ थोड़े दिन कशमकश करनी ही पड़ती है। अगर मन समझ में हो, तो एक इंच कोशिश करने की जरूरत नहीं है। कबीर के साथ तुम अभी और यहीं सिद्ध हो। सिद्ध होना तुम्हारा स्वभाव है।
आज इतना ही।
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