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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-09)

प्रवचन-नौवां

समर्पण संपूर्ण ही हो सकता है

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! आपने कहा है कि हजारों वर्षों में पृथ्वी पर ऐसा सुअवसर नहीं आया, और आपने यह भी कहा है यह युग अन्य दूसरे युगों के समान ही है। एक ओर आपने कहा है कि एक पत्थर को भी समर्पण कर दो तो घटना घटित हो जाएगी। दूसरी ओर आपने यह भी कहा है कि इस पृथ्वी पर पैर जमाकर आगे बढ़ना बहुत खतरनाक है, जब तक कि तुम एक प्रामाणिक सदगुरु के मार्गदर्शन में नहीं चलते हो।
आपने कहा है कि समर्पण करो और शेष कार्य मैं करूंगा, और आपने यह भी कहा है कि आप कुछ भी नहीं करते। यहीं और अभी मौजूद हम लोगों के लिए, तथा पश्चिम के उन लोगों के लिए जो इन शब्दों को कभी पढ़ेंगें, क्या आप सदगुरु और शिष्य के मध्य घटने वाले रहस्मयी संबंध के बारे में हमें और अधिक बताने की कृपा करेंगें?


मैं स्वयं के वक्तव्यों का ही विरोध करता हूं और इसे जानते बूझते हुए ही करता हूं। सत्य इतना अनंत, इतना विराट और इतना असाधारण है कि वह किसी अपूर्ण, आंशिक और खण्डित वक्तव्य में समा ही नहीं सकता।
इसलिए तुरंत ही विरोधी बातों का भी सम्मिलित होना आवश्यक है। अखण्ड हमेशा ही विराधभासी रहेगा, केवल उसका एक भाग स्थिर हो सकता है क्योंकि अखण्ड को शेष विरोधी भाग पर भी ध्यान देना है, इसलिए सदा ही विरोधाभास मौजूद रहता है। विपरीत सदैव विद्यमान रहता है।

दार्शनिक स्थिर और दृढ़ हो सकते हैं क्योंकि उनकी समझ आंशिक है। वे अपने विचारों के संदर्भ में साफ-स्पष्ट हो सकते हैं और वे तर्कपूर्ण होने की सामर्थ्य रख सकते हैं। मैं यह सामर्थ्य नहीं रख सकता, क्योंकि यदि मैं स्थिर या दृढ़ होने का प्रयास करता हूं तो तुरंत ही मैं अंश के साथ जुड़ जाता हूं और पूर्ण असत्य हो जाता है। विरोधाभास को भी शामिल करना होगा, उसे भी समाहित करना होगा।
उदाहरण के लिए, जब मैं कहता हूं कि समर्पण कर दो और शेष कार्य मैं करुंगा तो यह मेरे वक्तव्य का एक भाग है। मैं इसे क्यों कह रहा हूं? मैं इसे इसलिए कह रहा हूं जिससे तुम पूर्ण रूप से समर्पण कर सको। यदि तुम इसे अनुभव कर सकते हो और इस पर आस्था रख सकते हो तो बचा हुआ शेष भाग होगा ही, और तुम्हारा समर्पण पूर्ण बन सकता है।
यदि तुम भयभीत हो, अविश्वास से भरे हो, तब समर्पण के बाद भी तुम्हें कुछ प्रयास करना होगा, तब समर्पण पूर्ण नहीं हो सकता है। यदि समर्पण के बाद भी तुम्हें कुछ प्रयास करना पड़े, तो इसका अर्थ है कि कुछ तुमने अपने भीतर रोक लिया है, कुछ अभी भी पकड़ रखा है, ऐसे में समर्पण समग्र नहीं होगा। जब समर्पण पूर्ण ही नहीं है तो वह किसी भी कीमत पर समर्पण है ही नहीं। समर्पण तो सदैव पूर्णता से ही घटित होता है, तुम आंशिक रूप से समर्पण नहीं कर सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं आधा समर्पण करता हूं क्योंकि जो आधा भाग शेष बचेगा, वह समर्पण के विरुद्ध होगा। वह उसके विरोध में ही अस्तित्वगत रह सकता है।
इसलिए समर्पण केवल पूर्ण ही हो सकता है। यह ठीक एक वर्तुल के समान है, यह ज्यामिती का एक गोल घेरा है। यह आधा नहीं हो सकता। तुम एक आधा वृत्त कभी नहीं बना सकते। यदि तुम उसे बनाते हो तो तुम उसे एक वृत्त नहीं कह सकते। एक वृत्त को तो पूरा होना चाहिए। यदि वह आधा है, तब वह कुछ और है, कम से कम वह एक वृत्त नहीं है। समर्पण केवल पूर्ण ही हो सकता है। समर्पण भी एक वृत्त की तरह है, वह एक धार्मिक वृत्त है। तुम एक छोर से दूसरे छोर तक समर्पण करते हो और कुछ भी शेष नहीं बचता है।
इसी संदर्भ में, सहायता करने हेतु, मैं कहता हूं कि समर्पण करो और शेष दायित्व मेरे द्वारा निभा दिया जाएगा। मेरा इस बात पर बल देना कि ‘मैं करूंगा’... तब तुम पूरा समर्पण कर पाने में समर्थ हो पाते हो। मेरे इस वक्तव्य का कार्य तुम्हारे समर्पण को पूर्ण बनाना है। वस्तुतः मैं जानता हूं कि यदि तुमने एक बार पूर्ण समर्पण कर दिया, तो शेष कुछ भी करने की ज़रूरत ही नहीं हैं। यहां तक कि मेरे द्वारा भी कुछ किया ही नहीं जा सकता है। समर्पण स्वयं ही अपने आप में पूर्ण है, अन्य किसी भी चीज की ज़रूरत ही नहीं होती। समर्पण की वास्तविक घटना का घटित हो जाना ही पर्याप्त है।
अब किसी भी सहायता की कोई ज़रूरत नहीं है। अब इस समर्पण के द्वारा ही प्रत्येक समस्या हल हो जाएगी। समर्पण करने का अर्थ है कि अब तुम नहीं हो, समर्पण करने का अर्थ है कि अहंकार छोड़ दिया गया है। समर्पण करने का अर्थ है कि अब केन्द्र विसर्जित हो गया है। अब तुम बिना किसी केंद्र के विद्यमान हो। यदि कोई केंद्र ही नहीं हैं, तो किसकी सुरक्षा की जाए? , समर्पण से दीवारें स्वयं ही गिर जाती हैं। यदि वहां कोई नहीं है तो तुम्हारी सुरक्षा का पूरा ढाँचा धीमे धीमे विलुप्त हो जाता है, वह व्यर्थ हो जाता है। तुम एक खुले हुए आकाश की भांति बन जाते हो।
अब यह खुला हुआ आकाश प्रत्येक कार्य करेगा, यह खुलापन ही सब कुछ करेगा। परमात्मा तुम्हें माध्यम बनाकर तुमसे बिना अवरोध के गुजरेगा। परम सत्ता तुम्हारे भीतर और बाहर गतिशील हो सकती है। अब कोई भी अवरोधक नहीं है। समर्पण करने के बाद... तुम दिव्य शक्तियों के लिए स्वच्छंद बन जाते हो और तुम उन्हें सहजता से उपलब्ध हो जाते हो। उसके बाद प्रत्येक कार्य सहज स्वाभाविक रूप से होता है।
मुख्य समस्या है : समर्पण करना। समर्पण करने के बाद कोई भी समस्या नहीं होती है। इसलिए मुझे तुम्हारी सहायता करने की ज़रूरत ही नहीं है। कोई भी सहायता आवश्यक ही नहीं है। इसी कारण मैं स्वयं का ही विरोध किए चले जाता हूं और कहता हूं कि मैं कोई भी कार्य नहीं करता। उसकी कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ती है। अब तुम स्वयं उस अखण्ड सत्य को पूर्णता से देख सकते हो।
यदि मैं कहता हूं कि मैं कुछ नहीं करूंगा, मैं कुछ नहीं कर सकता हूं, तो मेरे ऐसा कहने से तुम्हारा समर्पण करना असंभव होगा। तुम भयभीत हो जाओगे, अकेले अज्ञात में गतिशील होना, जहां कोई भी सहायता उपलब्ध नहीं है और न ही कोई मार्गदर्शन है, और यह व्यक्ति कहता है कि वह कुछ भी नहीं कर सकता है, तो तुम पूर्ण रूप से कैसे समर्पण कर सकते थे? वह तुम्हारे लिए कठिन होता। यदि किसी विरोधाभास के बिना, मैं केवल यह कहता हूं कि मैं सब कुछ करूंगा तो वह सत्य न होगा, क्योंकि, वास्तव में, मैं कोई भी कार्य करने नहीं जा रहा हूं। इसलिए अब क्या किया जाये? इसे पूर्ण रूप से कैसे कहा जाए? वहां केवल एक ही उपाय है कि दृढ़ता से विरोधाभास का प्रयोग करना।
एक सदगुरु और एक शिष्य के बीच का संबंध बहुत अधिक जटिल है। वह एक ढंग से बहुत सरल भी है अन्यथा वह बहुत जटिल है। वह सरल है क्योंकि संबंध केवल शिष्य के द्वारा निर्मित होता है। सदगुरु की ओर से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि सदगुरु का अस्तित्व वह नहीं है, जो तुम जान रहे हो। सदगुरु का रूप उतना ही नहीं है, जितना तुम्हें दिख रहा है। वह वहां सीमित नहीं है। वह केवल एक व्यक्ति नहीं है। तुम्हें प्रतीत होता है कि वह हमारे जैसा ही व्यक्ति है। यह आकृति और यह प्रतीती तब तक बनी रहेगा, जब तक तुम पूर्ण समर्पण नहीं करते। एक बार तुम समर्पण कर देते हो, एक बार तुम अस्तित्वहीन हो जाते हो, तो अचानक तुम देखोगे कि सदगुरु कभी उस सीमितता में था ही नहीं।
सदगुरु एक अनुपस्थिति है। लेकिन वह अनुपस्थिति केवल तभी देखी जा सकती है जब तुम भी एक अनुपस्थिति बन गए हो। केवल दो अनुपस्थितियों का ही मिलन होता है। यदि तुम उपस्थित हो तो तुम सदगुरु पर भी अपनी कल्पनाएं आरोपित किए चले जाते हो कि वह ऐसा है... वैसा है। यह तुम्हारी कल्पना है, क्योंकि तुम्हारा अहंकार, दूसरी ओर की अहंकार शून्यता को नहीं देख सकता। केवल समान ही समान को प्रत्युत्तर दे सकता है। तुम्हारा अहंकार, प्रत्येक स्थान पर केवल अहंकार को ही देख सकता है। अपने निजी व्यक्तित्व की सुरक्षा करने का यह एक सशक्त ढंग है। तुम जहां कहीं भी देखते हो, तुम तुरंत अपने अहंकार को आरोपित करते हो। तब सदगुरु भी किसी व्यक्ति और अहंकार के समान ही दिखाई देगा और तुम स्वयं को सिद्ध करने के लिए हर संभव मार्ग और साधन खोज लोगे कि वह भी एक अहंकार ही है।
तुम्हारे प्रमाण और साधन संभवतः तर्क पूर्ण हो सकते हैं, लेकिन मैं कहता हूं कि वे प्रमाण व्यर्थ हैं, क्योंकि तुम निर्हंकारिता के तथ्य का नहीं देख सकते हो, जो कि वास्तव में तुम भी हो। जब समर्पण घटित हो गया, तो अचानक तुम देखोगे कि सदगुरु वहां नहीं हैं। यदि तुम ठीक इसी क्षण समर्पण कर दो, तो तुम देखोगे कि यह कुर्सी खाली है। वह व्यक्ति जो तुमसे बातचीत कर रहा था, अब वहां नहीं है। वह व्यक्ति केवल एक शून्यता है। लेकिन केवल तुम्हारी अनुपस्थिति में ही तुम उस अनुपस्थिति को देखने में समर्थ हो सकोगे।
सदगुरु की ओर से किसी संबंध का अस्तित्व नहीं होता है। यदि ऐसा कोई संबंध है तो वह किसी भी प्रकार से एक सदगुरु नहीं है क्योंकि वह अभी भी वहां हैं। वह तुम्हें मार्ग दर्शन नहीं दे सकता, वह केवल तुम्हें भटका सकता है। उसकी शिक्षाएं सुंदर हो सकती हैं, लेकिन वह तुम्हें पथभ्रष्ट कर देगा, क्योंकि वह जो कुछ भी करता है, मैं कहता हूं कि ‘वह जो कुछ करेगा’, बेशर्त... वह गलत ही होगा। यह प्रश्न इस बात का नहीं है कि कुछ ठीक होगा और कुछ गलत हो सकता है बल्कि अहंकार से जो कुछ भी आता है वह गलत ही है। वह सदाचार हो सकता है, वह अहिंसा हो सकती है, वह प्रेम हो सकता है, लेकिन अहंकार से जो कुछ भी आता है, वह गलत है। अहंकार प्रत्येक चीज को दूषित कर देता है। अहंकार सबसे महानतम विकृति है।
यदि सदगुरु तुमसे प्रेम करता है और उस प्रेम में अहंकार है, तो उसका प्रेम तुम पर अधिकार जमाने वाला होगा। वह तुम्हें नष्ट कर देगा, वह तुम्हें समाप्त कर देगा। संबंध विषैले हो जायेंगें। वहां प्रेम का एक अत्यंत सामान्य संबंध होगा। वह तुम्हें दूसरे सदगुरु से कुछ सीखने की अनुमति नहीं देगा। वह झगड़ा करेगा और वह बाधाएं उत्पन्न करेगा जिससे तुम उससे दूर नहीं जा पाओ, क्योंकि वह तुम पर निर्भर है, उसका अहंकार तुम पर आश्रित है।
एक अहंकारी सदगुरु, अनुसरणकर्त्ताओं के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता। अहंकार के पोषण के लिए अनुयायियों की ज़रूररत होती है। जितनी बड़ी भीड़ होगी, उसे उतना ही अधिक अच्छा महसूस होगा। यदि वह भीड़ उसे छोड़कर चली जाए तो वह पूरी तरह से मर जायेगा। तब उसके अहंकार पर चोट लगेगी। तथाकथित सदगुरु, अन्य दूसरे तथाकथित सदगुरुओं के साथ प्रतियोगिता करते हुए झगड़ते चले जाते हैं। एक बाज़ार बन जाता है। बाज़ार की पूरी प्रतियोगिता उनके अंदर प्रवेश कर जाती है।
यदि एक सदगुरु के पास अहंकार है, तो उसका अर्थ है कि वह वास्तव में एक सदगुरु नहीं है और केवल ढोंग कर रहा है। तब उसकी करुणा केवल दिखावे के लिए होगी, वह केवल नाम की करुणा होगी। वह निर्दयी होगा, वह तुम्हें यातना देगा, निश्चित रूप से इस ढंग से यातना देगा कि तुम उस यातना को एक अनुशासन की भांति ही अनुभव करोगे। वह तुम्हें ऐसे कार्य करने के लिए विवश करेगा जो अनावश्यक होंगे और पीड़ादायक होंगे, लेकिन वह उस पीड़ा में आनंद लेगा। वह उसे प्रमाण देकर तर्कसंगत सिद्ध करेगा। वह कहेगा कि उपवास करो क्योंकि बिना उपवास किए तुम उच्च अवस्था तक नहीं पहुंच सकते। और जब तुम उपवास करते हुए यातना सहते हो तो वह प्रसन्न होगा। उसकी करुणा केवल एक छिपी हुई निर्दयता है। करुणा के नाम पर वह दूसरों को दुख देकर स्वयं प्रसन्न होने वाला व्यक्ति है। यातनाएं देकर वह प्रसन्नता का अनुभव करेगा। तुम्हारी ओर देखकर, यह देखते हुए कि तुम उदास, निराश होकर यातनाएं सह रहे हो, वह कहेगा- ‘तुम वैराग्य को उपलब्ध हो गए, तुम निसक्त हो गए हो।’
तुम जितने अधिक उदास होते हो, वह उतना ही अधिक प्रसन्न होता है। यदि वह तुम्हारे चेहरे पर एक मुस्कान देख ले, तो वह तुरंत उसकी निंदा करेगा। यदि वह अनुभव करता है कि तुम आनंदित हो, तो वह तुरंत कहेगा कि कुछ गलत हो गया है, वह उसका कारण खोजेगा क्योंकि इस गलत संसार में तुम कैसे आनंदित हो सकते हो? इस दुखी संसार में तुम कैसे प्रसन्न हो सकते हो? जीवन एक दुख है। तुम परम आनंदित कैसे हो सकते हो? तुम अनिवार्य रूप से कहीं न कहीं भूल-चूक कर रहे हो, कहीं किसी तरह से शायद अपनी इन्द्रियों का ही सुख भोग रहे हो। यदि तुम युवा, जीवंत और ताज़गी से भरे दिखाई देते हो, तब वह कहेगा कि तुम अपने शरीर के प्रति बहुत अधिक आसक्त हो गए हो।
वह तुम्हारे शरीर को नष्ट करना प्रारंभ कर देगा। वह निश्चय ही एक दुखवादी व्यक्ति है और बहुत ही सूक्ष्म रूप से अपना काम करेगा। वह हिटलर और मुसोलिनी की अपेक्षा कहीं अधिक सूक्ष्म हैं, क्योंकि वे तो तुरंत हत्या कर देते थे और उनके द्वारा किया गया हत्या का कृत्य शायद ज्यादा सरल था। यह व्यक्ति भी तुम्हारी हत्या करेगा, लेकिन बहुत धीमे-धीमे, किश्तों में। तुम इस देश में कहीं भी चले जाओ, कहीं भी दूर-दूर तक घूमो और तुम अनेक ऐसे लोग पाओगे, जो दूसरों की इसी तरह धीमी हत्या कर रहे हैं।
और स्मरण रहे कि हत्या वही कर सकता है जो स्वयं भी भीतर से आत्मघाती है अन्यथा कोई भी ऐसे हत्या नहीं करेगा। यदि वह अच्छे भोजन में रस लेता है और उससे प्रसन्नता पाता है तो वह कभी भी दूसरे को उपवास करने के लिए बाध्य नहीं करेगा। यदि वह एक सुंदर भवन में रहता है तो वह तुम्हें एक टूटी झोपड़ी में रहने के लिए नहीं कह सकता। इसलिए यह पूर्ण रूप से तर्कपूर्ण है : यदि वह तुम्हें बर्बाद करना चाहता है तो पहले उसे स्वयं को बर्बाद करना होगा। वह जितनी अधिक यातानाएं स्वयं को देता है, उतना ही उसका नियंत्रण तुम्हें देने वाली यातनाओं पर प्रगाढ़ होता जाता है। वह उपवास करेगा और अपने शरीर को पीड़ा देकर निर्बल बनायेगा। और वह जिस मात्रा में अपने शरीर को बर्बाद करता है, उस ही मात्रा में वह तुम्हारे गले के चारों ओर फंदा तैयार करता है। अब वह तुम्हें पूरी तरह से अपने अधीन रख सकता है, एक अच्छी सिखावट और अनुशासन के नकाब के भीतर वह तुम्हें नष्ट कर सकता है।
एक गलत और अहंकारी सदगुरु के साथ जो कुछ भी होता है, वह गलत ही होता है, उसका अनुशासन कष्टदायी बन जाता है, उसका अपना जीवन भी आत्मपीड़क बन जाता है। उसका पूरा अस्तित्व विध्वंसात्मक बन जाता है। अहंकार विध्वंसात्मक ही होता है। तब संबंध बने रह सकते हैं... एक गलत सदगुरु के साथ संबंध बने रह सकते हैं, क्योंकि सदगरु का अहंकार संबंध बनाये रखना चाहता है। बिना संबंध जोड़े हुए, अहंकार का अस्तित्व बचा ही नहीं रह सकता है।
लेकिन यदि गुरु एक प्रामाणिक सदगुरु है, तो संबंध बनाना केवल शिष्य द्वारा ही होता है। तुम उसे प्रेम करते हो। तुम उसकी आज्ञा का पालन करते हो। तुम्हारी इस आज्ञाकारिता के साथ उसकी कोई भी दिलचस्पी नहीं है। तुम्हारे प्रेम में भी उसकी कोई अभिरुचि नहीं होती है। परंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह देखभाल नहीं करता है। वह अनंत रूप से देख-रेख करता है, लेकिन वह किसी से भी संबंधित नहीं हो सकता है। उसकी देखभाल स्वाभाविक है, ठीक जैसे जल नीचे की ओर बहता है, उसका यह बहना ही तुम्हें भिगो देता है। इसी तरह यदि तुम वहां सदगुरु के निकट नहीं भी होते हो उसकी देख-रेख प्रवाहित होती रहती है।
मैं तुम्हारे साथ यहां हूं पर जब तुम यहां नहीं होते हो तब भी मैं वैसा ही होता हूं और मेरा अस्तित्व समान रूप से सबकी ओर प्रवाहित होता रहता है। यदि यहां कोई भी नहीं होता है तो भी मैं वैसा ही समान बना रहता हूं। जब तुम यहां हो, तब भी मैं समान ही हूं। यदि मैं बदलता हूं तो वहां अहंकार है, क्योंकि सम्बन्ध में अहंकार विद्यमान रहता है। जब तुम आते हो तो अहंकार ही अंदर आकर सक्रिय और जीवंत बनता है। जब तुम चले जाते हो, तो अहंकार आलसी बनकर सो जाता है। इस अहंकार के कारण ही समस्त परिवर्तन होता है।
तुम्हारे साथ और तुम्हारे बिना, मेरी शून्यता समान बनी रहती है। मेरा प्रेम निरंतर प्रवाहित होता है, मेरी देखभाल सदैव ही समान रूप से प्रवाहित होती है। कोई भी प्रेमी नहीं है, मैं प्रेम करने अथवा प्रेम न करने के संदर्भ में कोई चुनाव नहीं कर सकता। यदि मैं चुनाव कर सकता हूं तो मैं वहां हूं। संबंध तुम्हारी ओर से निर्मित होता है और यह तब तक रहेगा जब तक तुम समर्पण नहीं कर देते हो।
अतः समर्पण करना एक महानतम और गहनतम संबंध है। वह एक तरह से संबंध का अंत भी है। यदि तुम समर्पण करते हो, तब तुम एक संभव और गहनतम संबंध में हो। इस गहनतम बिंदु के पार, संबंध मिट जाता है। समर्पण करने पर तुम नहीं बचते हो और सदगुरु तो वहां कभी था ही नहीं। अब दो शून्य अंतराल जब मिलते हैं तो दो नहीं रह सकते। तुम दो शून्य अंतरालों के मध्य एक रेखा नहीं खींच सकते। तुम शून्यता के चारों ओर चारदीवारी नहीं बना सकते। दो शून्यताएं एक हो जाती हैं और संबंध का अस्तित्व मिट जाता है क्योंकि संबंध के लिए दो ज़रूरी होते हैं।
इसलिए समर्पण के इस अंतिम बिंदु पर इसे समझने का प्रयास करो, समर्पण के अंतिम क्षण पर सबसे महानतम एवं संभव संबंध विद्यमान होता है। निश्चित ही सबसे गहनतम और सबसे अधिक प्रगाढ़ संबंध तुम्हारे द्वारा ही अस्तित्व में होता है। अगले ही क्षण, जब तुमने समर्पण कर दिया, तो सब कुछ विलुप्त हो जाता है। अब वहां न सदगुरु बचता है और न ही शिष्य बचता है... और अब सदगुरु और शिष्य दोनों ही एक मुक्त हंसी हंस सकते हैं, वे ठहाके लगा कर अट्टहास कर सकते हैं। बिल्कुल एक क्षण पहले तक जो निरर्थक स्थिति थी, उस की व्यर्थता के बारे में वे लोग हास्यास्पद अनुभव कर सकते हैं।
मदद करने का प्रयास, मदद लेने का प्रयास, समर्पण न करने हेतु अहंकार का सतत संघर्ष, सभी शिक्षाएं और सभी स्पष्टीकरण- सब कुछ व्यर्थ हो जाता है। तुम्हारे अनेकानेक जन्म ठीक सपनों के समान बन जाते हैं। अब तुम मुक्त रूप से हंस सकते हो, क्योंकि तुम किसी भी क्षण जाग सकते थे। तुम जीवन में किसी भी क्षण अपने सपनों की दुनिया से बाहर आ सकते थे और बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते थे।
एक बार तुम इस बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हो... समर्पण करना एक पहलू है और बुद्धत्व उसी सिक्के का दूसरा पहलू है। द्वार समान है। जब तुम प्रवेश करते हो तो द्वार पर लिखा होता है : समर्पण... जब तुम प्रवेश कर लेते हो और पीछे मुड़ कर देखते हो, तो द्वार पर लिखा हुआ पाते हो- बुद्धत्व। द्वार वही है : एक दिशा से प्रवेश है और दूसरी दिशा से निकास है। इसी कारण समर्पण पर इतना जोर है, समर्पण का इतना अधिक आग्रह है।
संबंध बहुत जटिल है, क्योंकि उसमें केवल एक का ही अस्तित्व रहता है। दूसरा संबंध जोड़ने वाला वहां नही होता है। इसलिए एक सदगुरु के साथ सभी खेल वास्तव में तुम्हारे ही खेल हैं। तुम ही खेल खेल रहे हो। यह बहुत अधिक धैर्य का खेल है। दूसरा तो केवल सामान्य रूप से तुम्हें खेलते हुए देख रहा है। तुम युक्तियां बदलते हो, तुम कभी इस मार्ग से, कभी उस मार्ग से प्रयास करते हो, तुम अनेक तरह से कोशिश करते हो, लेकिन अनावश्यक रूप से ही... क्योंकि एक मात्र प्रयास जो काम करेगा, जो सहायक होगा, वह है : समर्पण। अन्य सभी प्रयास तो केवल तुम्हें तैयार करने के लिए हैं जिससे तुम अनुभव के उस शिखर को छू सको जहां तुम समस्त प्रयासों की व्यर्थता को देख सको, समझ सको और वे सारे प्रयास स्वतः ही गिर जाएं। अनेक विधियां प्रयुक्त की गई हैं। वे विधियां वास्तव में कोई सहायता नहीं करेंगी। वे सब केवल तुम्हें यह अनुभव करने में सहायता करेंगी कि अंततः तुम्हें समर्पण ही करना है। वे सभी प्रयासों की व्यर्थता को सिद्ध करेंगी। लेकिन तुम खेल खेलते जा रहे हो। तुम अपनी युक्तियां बदलते चले जा रहे हो। तुम्हारा अहंकार प्रत्येक तरह की व्यूह-रचना को निर्मित कर रहा है, क्योंकि अहंकार के लिए यह उसके जीवन और मरण की समस्या है। अहंकार तुम्हें धोखा देगा, वह निरंतर तुम्हें छलने का प्रयास करेगा। अहंकार एक कुशल तर्कवादी और बुद्धिवादी है, जब वह तुम्हें धोखा देता है तो वह तुम्हें उसके हज़ारों कारण भी बतला देता है। तुम उसके साथ तर्क-वितर्क नही कर सकते, और यदि तुम तर्क-वितर्क करने का प्रयास करते हो, तो तुम ही पराजित हो जाओगे।
इसलिए आस्था और श्रद्धा की श्रेष्ठता है। केवल एक आस्थावान व्यक्ति ही समर्पण कर सकता है और केवल एक श्रद्धावान व्यक्ति ही अस्तित्व के परम शिखर को छू सकता है और परमानंद की पराकाष्ठा पर पहुंच सकता है।
बीसवीं सदी में पश्चिम के महानतम मनोवैज्ञानिकों में से एक थे- अब्राहम मैसलों। उन्होंने अपने पूरे जीवन में शिखर अनुभव की घटनाओं के इर्द-गिर्द ही कार्य किया। उन्होंने अपना पूरा जीवन उन विशिष्ट अनुभवों और घटनाओं के प्रति समर्पित कर दिया जिन्हें वे सर्वोच्च अथवा अंतिम शिखर कहते थे, जैसे महात्मा बुद्ध का बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाना अथवा रामकृष्ण की प्रकाशमय अचेतनता अथवा मीरा, बोहमे एवं इकहार्ट का हर्षोन्माद आदि... अर्थात ऐसा परम अनुभव, ऐसी चरम अवस्था जो एक मनुष्य की चेतना को घटित हो सके।
इन तथ्यों की जांच पड़ताल में ‘मैसलो’ ने पाया कि दो तरह के लोग होते हैं : एक वे लोग जो शिखर तक पहुंच पाते हैं और दूसरे वे जो शिखर तक नहीं पंहुच पाते हैं। शिखर पर पंहुचने वाले लोग समर्पण के लिए तैयार, खुले हृदय वाले और ग्राह्यशील होते हैं। शिखर पर न पहुंचने वाले लोग इस बात के कायल होते हैं कि इस तरह का कोई भी शिखर अनुभव संभव ही नहीं है। इन शिखर तक न पहुंचने वाले लोगों में मैस्लो ने वैज्ञानिकों, चिंतकों, तर्कशास्त्रियों, भौतिकवादियों, व्यापारियों, राजनीतिज्ञों और व्यवहारिक कार्य करने वाले एवं तथाकथित यथार्थवादी लोगों को सम्मिलित किया, जिनके लिए परम लक्ष्य अर्थहीन होता है और वे साधनों की ओर अधिक उन्मुख होते हैं। ये लोग अपने ही चारों ओर दीवारें सृजित कर लेते हैं और उन दीवारों के कारण ही वे परमानंद के अनुभव से चूक जाते हैं। जब वे कोई शिखर अनुभव या परम हर्षोन्माद का अनुभव नहीं ले पाते हैं तो, अपने मौलिक दृष्टि कोण को और अधिक पुष्ट कर लेते हैं, तब वे और अधिक दीवारें खड़ी कर लेते हैं और एक दुष्चक्र निर्मित हो जाता है।
शिखर तक पहुंचने वाले लोगों में कवि, नर्त्तक, संगीतकार, कला के दीवाने, अव्यावहारिक प्रवृत्ति के लोग और दुस्साहसी किस्म के व्यक्ति होते हैं। यह लोग ही शिखर तक पहुंचने वाले होते हैं। ये लोग चिंता नहीं करते, ये लोग अपने मन के साथ तर्क-वितर्क नहीं करते और ये लोग पूरी तरह से चीजों को घटने की अनुमति देते हैं। और इसीलिए वे सामान्य जीवन में भी, कभी-कभी विशिष्ट शिखरों तक पहुंच जाते हैं।
मैंने एक मनोविश्लेषक के बारे में सुना है, जिसका एक अन्य मनोविश्लेषक द्वारा निरिक्षण किया जा रहा था। पहला मनोविश्लेषक, जिसका मनोविश्लेषण किया जा रहा था, वह अपनी छुट्टियां मनाने कहीं बाहर गया। जिस स्थल पर वह अवकाश में विश्राम कर रहा था, वहां से उसने दूसरे मनोविश्लेषक को, जो उसका चिकित्सक था, उसे तार भेजकर यह सूचना दी- ‘मैं बहुत प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं-पर क्यों’ इस तरह के व्यक्ति प्रसन्नता को भी स्वीकार नहीं कर सकते। वे पूछेंगे कि आखिर क्यों? मैं क्यों प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं? अवश्य ही कुछ गलत हो रहा है।’ ऐसे लोगों की एक धारणा है कि प्रसन्न होना संभव ही नहीं है।
महान मनोवैज्ञानिक फ्रॅायड भी कहते हैं कि मनुष्य जाति के लिए प्रसन्नता असंभव है। वह कहते हैं कि मनुष्य के मन का वास्तविक ढांचा ही इस प्रकार से निर्मित है कि प्रसन्नता संभव ही नहीं है। ज्यादा से ज्यादा तुम उतना ही अप्रसन्न होते हो, जितना तुम सहन कर सको।
यदि यही दृष्टिकोण है, फ्रॅायड स्वयं के प्रति आश्वस्त है, उसने सभी प्रकार के तर्कोंर् से स्वयं को सुदृढ़ बना लिया है, यदि यही विचार है, यही धारणा है और यही सोच है तो प्रसन्नता असंभव है, तब तुम बंद हो जाते हो। तब तुम्हारे लिए प्रसन्नता संभव नहीं होगी। और जब वह संभव ही नहीं है, तो तुम्हारी मौलिक धारणा दृढ़ हो जाती है कि तुम ही ठीक थे। ऐसे में प्रसन्नता के लिए बहुत कम संभावनाएं हैं। एक क्षण ऐसा आएगा, जब तुम कहोगे कि केवल अप्रसन्नता ही संभव है।
एक सदशिष्य को उन्मुक्त, खुला हुआ और शिखर तक पंहुचने वाला ही होना चाहिए। महानतम खुलापन और उन्मुक्तता केवल समर्पण से आती है जो उसे शिखर तक ले जाती है। लेकिन एक शिखर पर पहुंचने वाले के पास क्या होना चाहिए? उसे अपने मन का ढांचा किस प्रकार का बनाना चाहिए जिससे वह खुला और मुक्त हो सके? कम से कम तर्क-वितर्क और ज्यादा से ज्यादा श्रद्धा, कम से कम व्यवहारिकता और अधिक से अधिक दुस्साहस, कम गद्यात्मक और अधिक पद्यात्मक... ऐसा ढांचा होना चाहिए। तर्क से बचो, अन्यथा प्रसन्नता तुम्हारे लिए नहीं है।
तर्क-वितर्क शत्रु है। तर्क सिद्ध कर देगा कि जीवन एक दुख है। तर्क यह सिद्ध कर देगा कि जीवन का कोई भी अर्थ नहीं है। तर्क सिद्ध कर देगा कि कोई परमात्मा नहीं है। तर्क सिद्ध कर देगा कि किसी भी परमानंद की कोई संभावना ही नहीं है। तर्क सिद्ध कर देगा कि जीवन केवल एक दुर्घटना है अथवा एक संयोग है और इस दुघर्टना में किसी भी तरह की कोई संभावना नहीं है। जन्म और मृत्यु के मध्य यदि तुम किसी भी तरह से जीवित बने रहने की ही व्यवस्था कर लो तो पर्याप्त है।
तर्क-वितर्क आत्मघाती है। यदि तुम उसके पक्ष में जाते हो तो निश्चित रूप से वह तुम्हें जीवन से पलायन करने वाले वाले द्वार की कुंजी दे देगा। अंतिम रूप से वह कहेगा कि आत्मघात करना ही सबसे समझदारी का कदम है क्योंकि यह जीवन अर्थहीन है, तुम ऐसे ही यहां व्यर्थ जी रहे हो, एक समान दिनचर्या को दोहराते हुए तुम यहां आखिर क्या कर रहे हो?
सुबह बिस्तर से उठना और काम में लग जाना... प्रतिदिन तुम ऐसा ही कर रहे हो और इससे कुछ भी तो नहीं हुआ, इसलिए आज इस बार उठकर भी होगा क्या? जीवन पर्यन्त तुम रोज सुबह नाश्ता करते रहते हो, इससे कुछ नहीं हुआ। जीवन पर्यन्त तुमने अखबार पढ़ा, दफतर गए, शाम को घर वापिस आए, रोज वही एक से काम, अनावश्यक काम... घर वापस लौटना, तब भोजन करना और फिर सोने के लिए बिस्तर पर चले जाना, पुनः सुबह उठकर उसी मूर्खतापूर्ण चक्र को दोहराना, जो कहीं भी नहीं ले जा रहा है और तुम उसी की लीक पर घूम रहे हो। यदि तुम वास्तव में तर्कपूर्ण हो तो तुम्हारा मन कहेगा कि आत्मघात कर लो, इस पूरी मूर्खता को बढ़ाने का क्या औचित्य है?
तर्क-वितर्क आत्मघात की ओर ले जाता है और आस्था श्रेष्ठतम जीवन की ओर ले जाती है। और आस्था तर्क रहित होती है, वह पूछती नहीं, वह व्यर्थ विवाद में नहीं पढ़ती है, वह पूरे विश्वास के साथ अज्ञात में प्रवेश करती है और अनुभव करने का प्रयास करती है। एक आस्थावान व्यक्ति का निजी अनुभव ही उसका एक मात्र तर्क है। वह उसका स्वाद लेने का प्रयास करेगा और वह उस अनुभव में गहरे जाने का प्रयास करेगा। बिना अनुभव किए वह कोई भी राय नहीं देगा, कोई भी बात नहीं कहेगा। वह तुरंत निर्णय नहीं लेगा, वह उन्मुक्त रहेगा।
एक कदम उठाने के बाद, दूसरा कदम उठाना और धीरे-धीरे इसी तरह आस्था एक दिन समर्पण बन जाती है, क्योंकि आस्था के साथ तुम जितना अधिक प्रयास करते हो, तुम उतना ही अधिक जान पाते हो, और तुम्हें उतना ही अधिक अनुभव प्राप्त होता है। इससे तुम्हारा जीवन तीक्ष्ण और गहन होता जाता है। तुम्हारा प्रत्येक कदम तुम्हें कहता है कि ‘इसके भी पार जाओ, इसके पार और अधिक छिपा हुआ है।’ तब पार जाना ही लक्ष्य बन जाता है। प्रत्येक चीज का अतिक्रमण करो और उसके पार हो जाओ। जीवन एक साहसिक यात्रा बन जाता है, अज्ञात की एक सतत् खोज बन जाता है। तब और अधिक आस्था उत्पन्न होती है।
जब अज्ञात में उठाया गया प्रत्येक कदम तुम्हें परमानंद की एक झलक देता है, जब पागलपन में उठाया गया प्रत्येक कदम तुम्हें परमानंद की एक उच्चतम स्थिति देता है, जब अज्ञात में उठाया गया प्रत्येक कदम तुम्हें यह अनुभव देता है कि जीवन केवल मन से ही नहीं बना है, जीवन तो एक पूर्ण संगठनात्मक ढांचा है जिसमें तुम्हारे संपूर्ण अस्तित्व का होना आवश्यक है और जीवन तुम्हें लगातार बुला रहा है, तब धीरे-धीरे तुम्हारी आंतरिक सतह भी विश्वस्त हो जाती है। और यह कोई तर्कपूर्ण सिद्धांत नहीं है, वह तुम्हारा अनुभव है, वह अनुभव जन्य है अथवा तुम कह सकते हो कि वह बुद्धिवादी न होकर अस्तित्वगत है। वह समग्र है, पूर्ण है। तब एक क्षण आता है, जब तुम समर्पण कर सकते हो।
समर्पण एक बहुत बड़ा जुआ है। समर्पण का अर्थ है, मन को पूरी तरह से अलग रख देना। समर्पण करने का अर्थ है : पागल हो जाना। मैं कहता हूं कि समर्पण करने का अर्थ है पागल हो जाना, क्योंकि वे सभी लोग जो अपने मन के तर्क-वितर्क में जीते हैं, वे ऐसा ही सोचेंगे कि तुम पागल हो गए हो। मेरे लिए वह पागलपन नहीं है। मेरे लिए ऐसा पागलपन... ऐसा पागलपन ही साहसिक जीवन का मार्ग है, यह सबसे गहरी छलांग है। मेरे लिए इस पागलपन में वह सब कुछ है जिससे कोई मनुष्य होने का दावा करता है। लेकिन तर्क-शास्त्रियों को तुम्हारी आस्था एक पागलपन के समान दिखाई देगी। इस समर्पण को, इस आस्था को भीतर की गहराई तक प्रविष्ट होना होगा।
विश्व के सभी महान धर्मों का जन्म ऐसे ही किसी पागल व्यक्ति के द्वारा हुआ है। जीसस एक पागल व्यक्ति है, वे बिल्कुल उन्मत्त हैं। बुद्ध भी वैसे ही पागल हैं। लेकिन इनके आस-पास जो लोग एकत्रित होते हैं वे सभी पागल नहीं हैं। अनेक ऐसे लेग भी आ जाते हैं जो शिखर अनुभव पर पहुंचने वालों में से नहीं हैं, जो बुद्धिवादी हैं। ऐसे लोग जीसस और बुद्ध की ओर आकर्षित होते हैं क्योंकि उनका अस्तित्व चुम्बकीय है, वह अनंत ऊर्जा से भरपूर हैं, इसीलिए यह लोग उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। उनके मन और तर्क-बुद्धि में यह बात उठती है कि निश्चित ही इस व्यक्ति ने कुछ प्राप्त किया है, लेकिन वे लोग शिखर तक पहुंचने वाले नहीं होते हैं, वे लोग सांसारिक और व्यावहारिक किस्म के होते हैं। वे लोग बुद्धिगत एवं मानसिक रूप से आकर्षित होते हैं। बुद्ध का प्रामाणिक अस्तित्व ही उनके लिए एक तर्कपूर्ण प्रमाण बन जाता है। वे बुद्ध के वचनों को सुनते हैं और उनका तर्क संगत विश्लेषण भी करते हैं। वे अपने तत्व-विज्ञान के सिद्धांत भी सृजित करते हैं, और ऐसे ही एक धर्म का जन्म होता है। इस धर्म का आधार तो एक पागल व्यक्ति ही होता है परंतु उसके सैद्धांतिक ढांचे में तर्कशील लोग प्रवेश कर जाते हैं। यह तर्कशील लोग उस पागल के बिल्कुल विपरीत होते हैं। यह लोग पूर्ण रूप से बुद्ध के विरोध में हैं, वे संगठन सृजित करते है, कई तरह के ‘वाद’ निर्मित करते हैं और कई दर्शनों का सृजन करते हैं।
जीसस एक पागल व्यक्ति हैं पर संत पॅाल पागल नहीं हैं। वह एक कुशल तर्कशास्त्री हैं। जीसस के द्वारा नहीं बल्कि संत पॅाल के द्वारा ही चर्च सृजित किया गया था। पूरी ईसाइयत जीसस के द्वारा नहीं, संत पॅाल के द्वारा ही सृजित की गई। यह बहुत ही खतरनाक बात है कि सदा से ऐसी चीजें घटित होती रही हैं और इससे बचने का भी कोई उपाय नहीं है, क्योंकि विचारशीलों की प्रकृति ऐसी ही होती है।
यदि जीसस आज पुनः जन्म लें... तो यह चर्च तुरंत उन्हें ही तिरस्कृत कर देंगे। चर्च किसी पागल व्यक्ति को प्रवेश करने की अनुमति नहीं देगा। इकहार्ट और बोहमे यदि आज फिर से आ जाएं तो यह चर्च इन लोगों के प्रवेश से भी इन्कार कर देगा क्योंकि वे लोग पागल हैं। उन लोगों को संगठन से बहिष्कृत कर दिया जायेगा। उन लोगों को कुछ करने अथवा कहने की अनुमति नहीं दी जायेगी क्योंकि वे विध्वंसक सिद्ध हो सकते हैं। वे लोग ऐसी बातें कहते हैं कि यदि लोग उन्हें सुनेंगे और उनमें विश्वास करेंगे तो वे धर्म के पूरे ढांचे और पूरे संगठन को ही नष्ट कर देंगे।
धर्म का जब जन्म होता है तो आधार पर एक पागल व्यक्ति ही होता है परंतु बाद में धीरे-धीरे तर्क शास्त्रियों द्वारा धर्म को अपने अधिकार में ले लिया जाता है, जो मूलतः उसके विरोधी होते हैं। वे लोग ही सभी संस्थाएं और संगठन बनाते हैं। शिखर पर पहुंचने वाले लोग धर्म को जन्म देते हैं, पर बाद में शिखर तक न पहुंचने वाले सांसारिक लोगों द्वारा उसे गोद ले लिया जाता है। इसलिए अपने जन्म के समय में प्रत्येक धर्म सुंदर होता है लेकिन बाद में वह वैसा ही नहीं रह पाता, वह कुरूप होता जाता है। वास्तविकता तो यह है कि अंततः वह धर्म विरोधी बन जाता है।
जो कुछ भी मैं तुमसे कह रहा हूं, तुम लोग भाग्यशाली हो, क्योंकि तुम स्रोत पर हो। इसी कारण मैं तुम्हें भाग्यशाली कहता हूं। और ऐसा केवल हज़ारों वर्षों बाद घटित होता है कि कुछ लोग स्रोत के निकट होते हैं। ऐसा पुनः नहीं होगा। यहां तक कि मेरे विचारों के साथ भी ऐसा ही होगा, कभी न कभी यहां भी तर्कशास्त्री प्रवेश करेंगे, शिखर पर न पहुंच पाने वाले लोग आ जायेंगें। उनका आना सुनिश्चित है, वे लोग पहले ही से कतार में हैं। वे प्रत्येक चीज को एक व्यवस्था देंगे और वे मूल को नष्ट कर देंगे। तब एक सुनहरा अवसर हाथ से निकल जाएगा। तब यहां केवल कुछ मृत सिद्धांत होंगे। ठीक अभी, सब जीवंत है और तुम लोग स्रोत के निकट हो। इसी कारण मैं कहता हूं कि तुम भाग्यशाली हो।
तुम्हारे मन में भी दोनों ही संभावनाएं हैं : शिखर पर पहुंचने की और शिखर पर न पहुंचने की। यदि तुम अपने भीतर से, शिखर पर पहुंचने वाली संभावना को अनुमति देते हो, तब तुम समर्पण करोगे। यदि तुम अपने भीतर से, शिखर पर न पंहुचने वाली संभावना को अनुमति देते हो तो तुम मुझे सुनने के बाद तर्क-वितर्क करोगे, मेरी बातों को प्रमाणों सहित सिद्ध करोगे और उस बारे में सिद्धांत बनाओगे। अतः या तो तुम मुझ से आश्वस्त हो जाओगे अथवा आश्वस्त नहीं हो पाओगे। यदि तुम आश्वस्त हो, तो तुम मेरे आस-पास ही रहना चाहोगे और यदि तुम आश्वस्त नहीं हो तो तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगे। लेकिन दोनों ही स्थितियों में तुम चूक जाओगे। चाहे तुम मेरे पास रहो या मुझे छोडकर चले़ जाओ, यह दोनों ही बातें असंगत है। यदि तुम बुद्धिगत रूप से विश्वस्त होने का प्रयास कर रहे हो तो तुम चूक जाओगे। यह बुद्धिगत कार्य मेरे मरने के बाद भी किया जा सकता है। लेकिन ठीक अभी, कुछ और भी किया जा सकता है, जो अभी संभव है और वह है : स्वयं को शिखर पर पहुंचने की अनुमति दो, तुम अपनी आस्थावान आत्मा को साहसिक कार्य करने की आज्ञा दो। अपने अंदर तर्क-वितर्क मत करो। एक छलांग लगाओ। स्रोत का मिल पाना दुर्लभ होता है और बहुत थोड़े से लोग ही यह लाभ ले सकते हैं। ऐसा सदा से होता आया है और यह हमेशा इसी तरह होगा। जीसस के चारों ओर केवल थोड़े से ही लोग थे और शुरु में बुद्ध के चारों ओर भी केवल थोड़े से ही लोग थे। उसके बाद लोग शताब्दियों तक रोते और चिल्लाते रहे।
जब बुद्ध देह छोड़ रहे थे तो अनेक लोग रूदन कर रहे थे। केवल थोड़े से लोग ही आनंदपूर्वक उनके चारों ओर शांत बैठे हुए थे, ऐसे केवल कुछ ही लोग थे। वे लोग शिखर पर पहुंचने वालों में से थे, जो आनंदपूर्वक एवं शांत बैठे हुए थे। वे लोग स्रोत के साथ एक हो गए थे। वे लोग बुद्ध के साथ एक हो गए थे। शिष्य और सदगुरु का बाहरी नाता तो बहुत समय पूर्व ही विलुप्त हो गया था, अब वहां कोई भी मरने नहीं जा रहा था। केवल थोड़े से लोग... एक महाकश्यप, एक सारिपुत्र, वे ही शांत और प्रसन्न बैठे हुए थे। यहां तक कि आनंद, बुद्ध का मुख्य शिष्य भी बिलख रहा था, रो रहा था।
बुद्ध ने अपने नेत्र खोले और कहा ‘आनंद’ तू क्यों रो रहा है?
आनंद ने कहा : ‘मैं अनेकानेक वर्षों से आपके साथ था और मैं अवसर से चूक गया और अब आप यहां नहीं होंगे। अब मेरा क्या होगा? आप यहां थे और मैं ज्ञान को उपलब्ध न हो सका, अब आप यहां नहीं होंगे तो अब मैं क्या करूंगा? अब न जाने कितने जन्मों तक मुझे भटकना होगा’
यदि तुम्हें स्रोत उपलब्ध हो, तो भी तुम चूक सकते हो। तुम समर्पण न करने के द्वारा चूक सकते हो। समर्पण करो और शेष कार्य मैं करुंगा।

दूसरा प्रश्नः
ओशो! आप प्रवचन प्रारम्भ करने से पूर्व मुस्कराते हैं। जब आप बोलना प्रारम्भ करते हैं आपकी मुस्कान विलुप्त हो जाती है, और आप तब तक पुनः नहीं मुस्कुराते जब तक कि आपका प्रवचन समाप्त नहीं हो जाता। क्या आप इसके बारे में बतला सकते हैं?

यह बात संगत है, क्योंकि बोलना एक यातना है और यह व्यर्थ की प्रक्रिया है। परंतु बोलना पड़ता है क्योंकि जो मौन मेरे भीतर विद्यमान है उस तक तुम्हें लाने के लिए, अन्य दूसरा उपाय है ही नहीं। तुम उस मौन को नहीं सुनते हो, तुम केवल शब्दों को सुन सकते हो। इसीलिए बोलना प्रारम्भ करने से पूर्व मैं मुस्कराता हूं, लेकिन जब मैं बोल रहा हूं तब मुस्कराना कठिन है। जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता है, उसे कहने के लिए, यह बोलने की प्रक्रिया कष्टदायी और निरर्थक हो जाती है। जिसकी ओर कभी उंगली नहीं उठाई जा सकती है, उसी दूर के चांद की तरफ इन उंगलियों के द्वारा इशारा करना पड़ता है। पर अन्य दूसरा उपाय भी तो नहीं है, इसलिए मुझे यह बोलना जारी रखना पड़ता है।
धीरे-धीरे तुम अनबोले शब्दों को सुनने में भी समर्थ हो जाओगे, तुम मौन को भी सुनने में समर्थ हो जाओगे। धीरे-धीरे तुम उस मौन को भी सुनने में समर्थ हो जाओगे जब मैं कुछ भी नहीं बोल रहा हूं। तब उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं होगी, तब मैं निरन्तर मुस्कराता रहूंगा।
इसलिए जब मैं प्रवचन समाप्त करता हूं तो मैं पुनः मुस्कराता हूं क्योंकि अब वहां और अधिक यातना नहीं है।
आज इतना ही।

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