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रविवार, 18 नवंबर 2018

अमृत वर्षा-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-अपने अज्ञान का स्वीकार 

... बचपन से ही सुन रहा था कि पृथ्वी पर एक ऐसा नगर भी है जहां के सभी लोग धार्मिक हैं। बहुत बार उस धर्म-नगर की चर्चा, बहुत बार उस धर्म-नगर की प्रशंसा उसके कानों में पड़ी थी। जब वह युवा हुआ और राजगद्दी का मालिक बना, तो सबसे पहला काम उसने यही किया, कुछ मित्रों को लेकर वह उस धर्म-नगर की खोज में निकल पड़ा। उसकी बड़ी आकांक्षा थी उस नगर को देख लेने की। जहां कि सभी लोग धार्मिक हों, बड़ा असंभव मालूम पड़ता था यह। बहुत दिन की खोज, बहुत दिन की यात्राओं के बाद अंततः वह एक नगर में पहुंचा जो बड़ा अनूठा था। नगर में प्रवेश करते ही उसे दिखाई पड़े ऐसे लोग जिन्हें देख कर वह चकित हो गया और उसे विश्वास न आया कि ऐसे लोग भी कहीं हो सकते हैं! उस गांव का हर आदमी अपंग था। हर किसी का एक अंग काम करता है, े उसके ही परिणाम स्वरूप ये सारे लोग अपंग हो गए हैं। देखो, द्वार पर ऊपर लिखा हैः अगर तेरा बायां हाथ पाप करने को संलग्न हो, तो उचित है कि तू अपना बायां हाथ काट देना, बजाय इसके कि पाप करे। देखो, लिखा है द्वार परः अगर तेरी एक आंख तुझे गलत मार्ग पर ले जाए, तो अच्छा है उसे तू निकाल फेंकना, बजाय इसके कि तू गलत रास्ते पर जाए। इन्हीं वचनों का पालन करके यह पूरा गांव अपंग हो गया है। छोटे-छोटे बच्चे जो अभी द्वार पर लिखे इन अक्षरों को नहीं पढ़ सकते, उन्हें छोड़ दें, तो इस नगर में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो धर्म का पालन न करता हो और अपंग न हो गया हो।


वह राजकुमार उस द्वार के भीतर प्रविष्ट नहीं हुआ। क्योंकि वह छोटा बच्चा नहीं था, और द्वार पर लिखे अक्षरों को पढ़ सकता था। उसने घोड़े वापस कर लिए और उसने अपने मित्रों से कहाः हम वापस लौट चलें अपने अधर्म के नगरों को, कम से कम आदमी वहां पूरा तो है।


इस कहानी से इसलिए मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं, सारी जमीन पर धर्मों के तथाकथित रूप ने आदमी को अपंग किया है। उसके जीवन को स्वस्थ और पूर्ण नहीं बनाया बल्कि उसके जीवन को खंडित, उसके जीवन को अस्वस्थ, पंगु और कुंठित किया है। उसके परिणाम स्वरूप सारी दुनिया में जिनके भीतर भी थोड़ा विचार है, जिनके भीतर भी थोड़ा विवेक है, जो थोड़ा सोचते हैं और समझते हैं, उन सबके मन में धर्म के प्रति एक विद्रोह की तीव्र भावना पैदा हुई है। यह स्वाभाविक भी है कि यह भावना पैदा हो। क्योंकि धर्म ने तथाकथित धर्म ने जो कुछ किया है उससे मनुष्य आनंद को तो उपलब्ध नहीं हुआ वरन और उदास और चिंतित और दुखी हो गया है। निश्चित ही मेरे देखे मनुष्य को पंगु और कुंठित करने वाले धर्म को मैं धर्म नहीं कहता हूं।
मैं तो यही कहता हूं कि अभी तक धर्म का जन्म नहीं हो सका है। धर्म के नाम से जो कुछ प्रचलित है, धर्म के नाम से जो मंदिर और मस्जिद और ग्रंथ और शास्त्र और गुरु हैं, धर्म के नाम पर पृथ्वी पर जो इतनी दुकानें हैं, उन सबसे धर्म का कोई भी संबंध नहीं है। और यदि हम ठीक-ठीक धर्म को जन्म न दे सके तो इसका एक ही परिणाम होगा कि आदमी अधार्मिक होने को मजबूर हो जाए। आदमी विवशता में अधर्म की और गया है। धर्म ने आकर्षण नहीं दिया बल्कि विकर्षण पैदा किया है। धर्म ने बुलाया नहीं बल्कि दूर किया है। और अगर इसी तरह के धर्म का प्रचलन भविष्य में भी रहा, तो हो सकता है मनुष्य के बचने की कोई संभावना भी न रह जाए। धर्मों ने ही धर्म को जन्म लेने से रोक दिया है। और उनके रोकने का जो बुनियादी कारण है वह यही है कि अब तक हमने मनुष्य-जाति ने मनुष्य को उसकी परिपूर्णता में स्वीकार करने का साहस नहीं दिखलाया। मनुष्य के कुछ अंगों को खंडित करके ही हम मनुष्य को स्वीकार करने की बात सोचते रहे। समग्र मनुष्य को, टोटल मनुष्य को, विचार में लेने की अब तक हमने हिम्मत नहीं दिखाई। मनुष्य को काट कर, छांट कर ढांचे में ढालने की हमने कोशिश की है। उसके परिणाम में मनुष्य तो पंगु हो गया। और जिनमें थोड़ा भी विचार है वे उन ढांचों से दूर रहने के लिए मजबूर हो गए हैं।
मैंने सुना है, एक नगर के द्वार पर एक राक्षस का निवास था। और बड़ी अजीब उसकी आदत थी, वह जिन लोगों को भी द्वार पर पकड़ लेता उनसे कहता कि मेरे पास एक बिस्तर है, अगर तुम ठीक-ठीक उस बिस्तर पर सो सके, तो मैं तुम्हें छोड़ दूंगा, अगर तुम बिस्तर से छोटे साबित हुए, तो मैं तुम्हें खींच कर बिस्तर के बराबर करने की कोशिश करूंगा। उसमें अक्सर लोग मर जाते हैं। तुम भी मर सकते हो। और अगर तुम बड़े साबित हुए तो तुम्हारे हाथ-पैर काट कर मैं बिस्तर के बराबर करने की कोशिश करूंगा। उसमें भी लोग अक्सर मर जाते हैं। और मैं तुम्हें बताए देता हूं, अब तक एक भी मनुष्य उस बिस्तर से वापस नहीं लौट पाया है। फिर मैं उसका भोजन कर लेता हूं। उस बिस्तर के बराबर आदमी खोजना मुश्किल था। या तो आदमी थोड़ा छोटा पड़ जाता या थोड़ा बड़ा, और उसकी हत्या सुनिश्चित हो जाती।
धर्मों ने भी मनुष्यों को बनाने के ढांचे तय कर रखे हैं। आदमी या तो उनसे छोटा पड़ जाता है या बड़ा। और तब, तब पंगु होने के अतिरिक्त, अंग-भंग हो जाने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं रह जाता है। ऐसे पंगु करने वाले धर्मों ने जितना नुकसान किया है उतना जिन्हें हम नास्तिक कहें, अधार्मिक कहें उन लोगों ने भी नहीं किया है। मनुष्य को सब तरह से जैसे जकड़ दिया गया है जंजीरों में। बात मुक्ति की और स्वतंत्रता की है, लेकिन स्वतंत्रता और मुक्ति की बात करने वाले लोभी, कारागृह को खड़ा करने वाले लोग भी हों तो बड़ी कठिनाई हो जाती है। जीवन की धारा को सब तरफ से बांध कर एक सरोवर बनाने की कोशिश की जाती है। जब कि सरोवर बनते ही सरिता के प्राण सूखने लगते हैं, उसकी मृत्यु होनी शुरू हो जाती है। सरिता का जीवन है अबाध बहे जाने में, नये-नये रास्तों पर, नवीन-नवीन मार्गों पर, अज्ञात की दिशा में खोज करने में। सरिता की जीवंतता है, उसकी लिविंगनेस है। और उसी, उसी अज्ञात के पथ पर कभी उसका मिलन उस सागर से भी होता है, जिसके लिए उसके प्राण तड़पते हैं, कभी उस प्रेमी से भी उसका मिलना हो जाता है। सरोवर है सब तरफ से बंद, दीवालें खड़ी करके रह जाता है। फिर उसके प्राण सूखते तो जरूर हैं, कचरा उसमें इकट्ठा भी होता है, गंदगी उसमें भरती है, कीचड़ पैदा होती है, पानी तो धीरे-धीरे उड़ जाता है, धीरे-धीरे कीचड़ का घर ही वहां शेष रह जाता है। और उस सरोवर को सागर से मिलने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं।
जो लोग भी अपने आस-पास कृत्रिम ढांचों की, आर्टिफिशियल पैटर्न की दीवालें खड़ी कर लेते हैं और सोचते हों कि वे धार्मिक हैं, वे भूल में हैं। धर्म का ढांचों से संबंध नहीं है। धर्म का तो सहज जीवन के प्रवाह से संबंध है। धर्म सरोवर बनाने को नहीं, एक गतिमान अबाध्य गति से बहती हुई स्वतंत्र सरिता बनाने को है। तभी कभी सागर से मिलन हो सकता है। प्रत्येक मनुष्य की जीवन धारा किसी अनंत सागर की खोज में निरंतर प्यासी है। उसे हम परमात्मा कहें, उसे हम कोई और नाम दें, उसे हम कुछ और शब्द दें, दूसरी बात है। लेकिन हर जीवन की धारा किसी प्रीतम के सागर को पाने को जैसे व्याकुल है और भागी जाना चाहती है। इसे हम जितना बांध लेंगे, जितना सब तरफ से दीवालें खड़ी करके कारागृह में बंद कर देंगे, उतनी ही कठिन यह यात्रा हो जाएगी और असंभव।
धर्मों ने अब तक यही किया है। मनुष्य को स्वतंत्र नहीं किया बल्कि बांधा है। मनुष्य को मुक्त नहीं किया बल्कि जंजीरें और कारागृह बनाएं हैं। और हजारों वर्ष से यह क्रम चला, हजारों वर्ष की प्रचारित बातें धीरे-धीरे फिर हमें सत्य भी प्रतीत होने लगती हैं, क्योंकि सामान्यजन केवल प्रचारित असत्य को ही सत्य मान लेने को सहज ही राजी हो जाता है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा हैः मैंने सत्य और असत्य में एक ही फर्क पाया, ठीक से प्रचारित असत्य सत्य मालूम होने लगता है। और उसने लिखा कि मैं अपने अनुभव से कहता हूं, कैसे भी असत्य को ढंग से प्रचारित किया जाए, थोड़े दिन में लोग उसे सत्य मान लेने को राजी हो जाते हैं। तो हजारों वर्ष तक अगर कोई एक असत्य प्रचारित किया जाए, वह हमें सत्य जैसा दिखाई पड़ने लगता है। तो जो हमारे बंधन हैं, वे भी हमें ऐसे प्रतीत हो सकते हैं जैसे हमारी मुक्ति हो। जो हमें रोकते हैं पहुंचने से, प्रतीत हो सकते हैं कि हमारी सीढ़ियां हैं और हमें ले जाती हैं।
मैंने सुना है, एक पहाड़ी सराय पर एक युवक एक रात मेहमान हुआ। जब वह पहाड़ी में प्रवेश करता था तो घाटियों में उसने किसी बड़ी अदभुत और मार्मिक आवाज से गूंजती हुई सुनी। घाटियों में कोई बड़े मार्मिक, बड़े आंसू भरे, बहुत प्राणों की पूरी ताकत से जैसे चिल्लाता और रोता था। कोई आवाज गूंज रही थी घाटियों में--स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! वह हैरान हुआ कि कौन स्वतंत्रता का प्रेमी इन घाटियों में इतने जोर से आवाज करता होगा? लेकिन जब वह सराय के निकट पहुंचा, तो आवाज और निकट सुनाई पड़ने लगी, शायद सराय से ही आवाज उठती थी, शायद कोई वहां बंदी था। उसने अपने घोड़े की रफ्तार और तेज कर ली, वह सराय पर पहुंचा तो हैरान हो गया, यह किसी मनुष्य की आवाज न थी, सराय के द्वार पर पिंजरे में एक तोता बंद था और जोर से स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, चिल्ला रहा था।
उस युवक को बड़ी दया आई उस तोते पर। वह युवक भी अपने देश की आजादी की लड़ाइयों में बंद रहा था कारागृहों में और वहां उसने अनुभव किया था परतंत्रता का दुख, वहां उसने आकांक्षा अनुभव की थी मुक्त आकाश की, वहां उसकी आकांक्षा ने, वहां उसके सपनों ने स्वतंत्रता के बड़े जाल बूझे थे। आज उसे इस तोते की आवाज में अपनी वह सारी पीड़ा से कराहती हुई आत्मा का अनुभव हुआ। पर सराय का मालिक अभी जागता था, सोचा उसने रात में इस तोते को स्वतंत्र कर दूंगा। रात जब सराय का मालिक सो गया, वह युवक उठा, उसने जाकर पिंजरे का द्वार खोला। सोचा था स्वतंत्रता का प्रेमी तोता उड़ जाएगा, लेकिन द्वार खोलते ही तोते ने सींखचे पकड़ लिए पिंजड़े के और जोर से चिल्लाने लगा--स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
वह युवक हैरान हुआ! द्वार खुले थे, उड़ जाना चाहिए था, चिल्लाने की कोई बात न थी। लेकिन शायद उसने सोचा, वह मुझसे भयभीत हो, इसलिए उसने हाथ भीतर डाला, लेकिन तोते ने उसके हाथ पर चोट की, पिंजरे के सींखचों को और जोर से पकड़ लिया, युवक ने यह सोच कर कि कहीं उसका मालिक न जाग जाए, चोट भी सही, और किसी तरह बामुश्किल उस तोते को निकाल कर आकाश में उड़ा दिया। वह युवक बड़ी शांति से सो गया। एक आत्मा को स्वतंत्र करने का आनंद उसे अनुभव हुआ था। लेकिन सुबह जब उसकी नींद खुली तो उसने देखा, तोता वापस अपने पिंजरे में आकर बैठ गया, द्वार खुला पड़ा है, और तोता चिल्ला रहा है--स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!
वह बहुत हैरान हुआ! वह बहुत मुश्किल में पड़ गया! यह आवाज कैसी! यह प्यास कैसी! यह आकांक्षा कैसी! यह तोता पागल तो नहीं है? वह तोते के पिंजरे के पास खड़े होकर यही सोचता था कि सराय का मालिक वहां से निकला, और उसने कहाः बड़ा अजीब है तुम्हारा तोता! मैंने इसे मुक्त कर दिया था, लेकिन यह तो वापस लौट आया। उस सराय के मालिक ने कहाः तुम पहले आदमी नहीं हो जिसने इसे मुक्त किया हो, जो भी यात्री यहां ठहरता है इसकी आवाज के धोखे में आ जाता है। रात इसे मुक्त करने की कोशिश करता है, सुबह खुद ही हैरानी में पड़ जाता है, तोता वापस लौट आता है।
उसने कहाः बड़ा अजीब तोता है तुम्हारा! उस बूढ़े मालिक ने कहाः तोता ही नहीं, हर आदमी इसी तरह अजीब है। जीवन भर चिल्लाता है--मुक्ति चाहिए, स्वतंत्रता चाहिए और उन्हीं सींखचों को पकड़े बैठा रहता है जो उसके बंधन हैं और उसके कारागृह। मैंने जब यह बात सुनी थी तो मैं भी बहुत हैरान हुआ था। फिर मैंने आदमी को बहुत गौर से देखने की कोशिश की, तो मैंने पाया कि जरूर यह बात सच है। आदमी का पिंजरा दिखाई नहीं पड़ता यह दूसरी बात है, लेकिन हर आदमी किसी पिंजरे में बंद है। और आदमी पिंजरे के सींखचों को पकड़े हुए है, यह भी बहुत ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि तोते का पिंजरा बहुत स्थूल है, आदमी का पिंजरा बहुत सूक्ष्म। आंख एकदम से उसे नहीं देख पाती। लेकिन थोड़े ही गौर से देखने पर यह दिखाई पड़ जाता है कि हम एक ही साथ दोनों काम कर रहे हैं, आकांक्षा कर रहे हैं मुक्ति की, आकांक्षा कर रहे हैं किसी विराट से मिलन की और क्षुद्र सींखचों को इतने जोर से पकड़े हुए हैं कि उन्हें छोड़ने का नाम भी नहीं लेते।
और कुछ लोग हैं जो हमारे इस विरोधाभास का, हमारे इस कंट्राडिक्शन का, हमारे जीवन की यह बहुत अदभुत उलझन का फायदा उठा रहे हैं। तोते के ही मालिक नहीं होते, आदमी के भी मालिक हैं। और वे मालिक भलीभांति जानते हैं कि आदमी जब तक पिंजरे के भीतर बंद है तभी तक उसका शोषण हो सकता है, तभी तक उसका एक्सप्लायटेशन हो सकता है। जिस दिन वह पिंजरे के बाहर है उस दिन शोषण की कोई दीवाल, किसी भांति का शोषण संभव नहीं रह जाएगा। और सबसे गहरा शोषण जो आदमी का हो सकता है वह उसकी बुद्धि का और उसके विचार का शोषण, उसकी आत्मा का शोषण।
दुनिया में उन लोगों ने जिन्होंने आदमी के शरीर को कारागृह में डाला हो, उनका अनाचार बहुत बड़ा नहीं है, जिन्होंने आदमी के शरीर के आस-पास दीवालें खड़ी की हों, उन्होंने कोई बहुत बड़ी परतंत्रता पैदा नहीं की। क्योंकि एक आदमी की देह भी बंद हो सकती है कारागृह में और फिर भी हो सकता है कि वह आदमी बंदी न हो, उसकी आत्मा दीवालों के बाहर उड़ान भरे, उसकी आत्मा सूरज के दूर पथों पर यात्रा करे, उसके सपने दीवालों को अतिक्रमण कर जाएं। देह बंद हो सकती है और हो सकता है कि भीतर जो बैठा है वह बंद न हो। जिन लोगों ने मनुष्य के शरीर के लिए कारागृह उत्पन्न किए, वे बहुत बड़े जेलर नहीं थे। लेकिन जिन्होंने मनुष्य की आत्मा के लिए सूक्ष्म कारागृह बनाए हैं, वे मनुष्य के बहुत गहरे में शोषक, मनुष्य के जीवन पर आने वाली चिंताओं, दुखों का बोझ डालने वाले सबसे बड़े जिम्मेवार वे ही लोग हैं। और वे लोग कौन हैं? जिन लोगों ने भी धर्म के नाम पर धर्मों को निर्मित किया है, वे सभी लोग। जिन लोगों ने भी परमात्मा के नाम पर छोटे-छोटे मंदिर खड़े किए हैं, मस्जिद और चर्च, वे सभी लोग। जिन लोगों ने भी धर्म के नाम पर शास्त्र निर्मित किए हैं और दावा किया है उन शास्त्रों में परमात्मा की वाणी होने का, वे सभी लोग। वे सभी लोग जिन्होंने मनुष्य के अंतस चित्त को बांध लेने की बड़ी सूक्ष्म ईजादें की हैं, वे सभी लोग। वे कौन सी सूक्ष्मतम जंजीरें हैं जो आदमी को बांध रखती हैं, उन संबंध में अभी कहूंगा, तीन चर्चाएं यहां मुझे देनी हैं, तीन चर्चाओं में कोशिश करूंगा कि बंधन समझ में आ सके। हम क्यों बंधन में बंधे हैं, यह समझ में आ सके। और हम कैसे बंधन से मुक्त हों सकते हैं, यह समझ में आ सके।
कौन से बंधन मनुष्य को घेर लिए हैं इतनी सूक्ष्मता से? शायद ख्याल में भी न आए। ख्याल में आएगा भी नहीं। उस तोते को भी ख्याल में नहीं आ सकता था कि मैं क्या चिल्ला रहा हूं और क्या पकड़े हुए हूं। पहला बंधन जो मनुष्य के आस-पास कारागृह को खड़ा किया है, वह है श्रद्धा का, विश्वास का, बिलीफ का। हजारों वर्षों से यह समझाया जा रहा है, विश्वास करो। यह जहर हम बच्चे को उसके पैदा होने के साथ ही पिलाना शुरू कर देते हैं। दूध शायद बाद में पिलाते हैं यह जहर पहले पिला देते हैं, विश्वास करो। और जो आदमी विश्वास करने को राजी हो जाता है उसके भीतर विचार की क्षमता हमेशा के लिए पंगु हो जाती है। उसके भीतर विचार के हाथ-पैर टूट जाते हैं, विचार की आंखें फूट जाती हैं। क्योंकि विचार और विश्वास में जन्मजात विरोध है--या तो विश्वास या विचार, दोनों एक साथ संभव नहीं हैं। क्योंकि विश्वास की पहली शर्त हैः संदेह मत करो। और विचार की पहली शर्त हैः संदेह करो, ठीक-ठीक संदेह करो। विश्वास कहता हैः शक मत करो, मान लो। विचार कहता हैः मानने की जल्दी मत करना, हैजिटेट करना, थोड़े ठहरना, थोड़े रुकना, थोड़े सोचना। विश्वास कहता हैः एक क्षण रुकने की जरूरत नहीं है। विचार कहता हैः चाहे पूरा जीवन ही क्यों न रुकना पड़े, लेकिन प्रतीक्षा करना, जल्दी मत करना, सोचना, खोजना, चिंतन करना, मनन करना और तभी, तभी शायद जो सत्य है उसकी झलक उपलब्ध हो सके।
लेकिन विश्वास बड़ा सस्ता नुस्खा है, बहुत शॉर्टकट है, बहुत सीधा सा दिखाई पड़ता है, हमें कुछ भी नहीं करना है। कोई हमसे कहता है, विश्वास कर लो, परमात्मा है। कोई हमसे कहता है, विश्वास कर लो, परमात्मा नहीं है। कोई हमसे कहता है, विश्वास कर लो आत्मा है। कोई हमसे कहता है, विश्वास कर लो स्वर्ग है, मोक्ष है।
दुनिया के ये इतने धर्म, कोई तीन सौ धर्म जमीन पर हैं, इन सबमें आपस में विरोध है। ये एक-दूसरे की बात से राजी नहीं हैं। ये एक-दूसरे के शत्रु हैं। लेकिन एक बात पर ये सब सहमत हैं कि विश्वास करो, इस जहर को पिलाने में इनका कोई विरोध नहीं। यह इन सबकी बुनियाद है। तो आप चाहे हिंदू हों, चाहे मुसलमान, चाहे ईसाई, अगर आप विश्वास करते हैं तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने आंख पर किस रंग की पट्टियां बांध रखी हैं। वह हरी हैं, कि लाल, कि सफेद इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आंख पर पट्टियां हैं, बस इतना काफी है, आपके जीवन में विचार का जन्म नहीं हो सकेगा। और न ही चाहते हैं समाज के न्यस्त स्वार्थ कि मनुष्य में विचार पैदा हो। क्योंकि विचार आधारभूत रूप से विद्रोह है, विचार में रिबेलियन छिपा है। विचार में रिवोल्यूशन छिपी है, वहां क्रांति का बीज है। जो विचार करेगा, वह आज नहीं कल, खुद तो क्रांति से गुजरेगा ही उसके आस-पास भी वह क्रांति की हवाएं फेंकेगा। क्योंकि विचार झुकने को राजी नहीं होता, विचार अंधा होने को राजी नहीं होता, विचार आंख बंद करे लेने को राजी नहीं होता।
मैंने सुना है, एक गांव में एक विचारक तेली के घर तेल खरीदने गया था। देख कर उसे वहां बड़ी हैरानी हुई। तेली तो तेल तौलने लगा, उसके ही पीछे कोल्हू का बैल कोल्हू को चलाए जाता था बिना किसी चलाने वाले के। कोई चलाने वाला न था। उस विचारक ने उस तेली से पूछा, मेरे मित्र, बड़ा अदभुत है यह बैल, बड़ा धार्मिक, बड़ा विश्वासी मालूम होता है, कोई चलाने वाला नहीं है और चल रहा है। उस तेली ने कहाः थोड़ी गौर से देखो, देखते नहीं आंखें मैंने उसकी बांध रखी हैं। आंखें बंधी हैं, उसे दिखाई नहीं पड़ता कि कोई चला रहा है या नहीं चला रहा। चलता जाता है। इस ख्याल में है कि कोई चला रहा है। उस विचारक ने कहाः लेकिन वह रुक कर जांच भी तो कर सकता है कि कोई चलाता है या नहीं? उस तेली ने कहाः फिर भी तुम ठीक से नहीं देखते, मैंने उसके गले में घंटी बांध रखी है। जब तक चलता है घंटी बजती रहती है, जब रुक जाता है घंटी बंद हो जाती है, मैं फौरन उसे जाकर उसे फिर से हांक देता हूं, ताकि उसे यह भ्रम बना रहता है कि कोई पीछे मौजूद है। उस विचारक ने कहाः और यह भी तो हो सकता है कि वह खड़ा हो जाए और सिर हिलाता रहे ताकि घंटी बजे। उस तेली ने कहाः महाराज, मैं आपके हाथ जोड़ता हूं, आप जल्दी यहां से चले जाएं, कहीं मेरा बैल आपकी बातें न सुन ले। आपकी बातें खतरनाक हो सकती हैं। बैल विद्रोही हो सकता है। आप कृपा करें, यहां से जाएं। और आगे से कोई और दुकान से तेल खरीद लिया करें। यहां आने की जरूरत नहीं है। मेरी दुकान भलीभांति चलती है, मुफ्त मुसीबत खड़ी हो सकती है।
आदमी के शोषण पर भी धर्म के नाम पर बहुत दुकानें हैं। जिन्हें हम परमात्मा के मंदिर कहते हैं, जरा भी वे परमात्मा के मंदिर नहीं हैं। दुकानें हैं, पुरोहित की ईजाद हैं। परमात्मा का भी कोई मंदिर हो सकता है जो आदमी बनाए? परमात्मा के लिए भी मंदिर की व्यवस्था आदमी को करनी पड़ेगी? क्या कैसी छोटी, कैसी अजीब सी बात है? हम बनाएंगे उसके लिए मंदिर? उसके निवास की व्यवस्था हम करेंगे? और हमारे छोटे-छोटे मकानों में वह विराट समा सकेगा? प्रवेश पा सकेगा? नहीं, यह तो संभव नहीं है। और इसीलिए जमीन पर कितने मंदिर हैं, कितने चर्च, कितनी मस्जिद, कितने गिरजे, कितने शिवालय, कितने गुरुद्वारे, लेकिन धर्म कहां है, परमात्मा कहां है। इससे ज्यादा अधार्मिक और कोई स्थिति हो सकती है जो हमारी है? और ये मंदिर और मस्जिद ही रोज अधर्म के अड्डे बन जाते हैं--हत्या के, आगजनी के, बलात्कार के। इनके भीतर से ही वे आवाजें उठती हैं जो मनुष्य मनुष्य को टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़ देती हैं। इनके भीतर से ही वे नारे आते हैं जो आदमी के जीवन में हजार-हजार तरह के विद्वेष, घृणा फैला जाते हैं, हिंसा पैदा कर जाते हैं।
अगर किसी दिन किसी आदमी ने यह मेहनत उठानी पसंद की और यह हिसाब लगाया कि मंदिरों और मस्जिदों के नाम पर कितना खून बहा है, तो आप हैरान हो जाएंगे, और किसी बात पर इतना खून भी कभी नहीं बहा है। और आप हैरान हो जाएंगे कि आदमी के जीवन में जितना दुख, जितनी पीड़ा इनके कारण पैदा हुई है, और किसी कारण से पैदा नहीं हुई। और आदमी आदमी के बीच जो प्रेम हो सकता था वह असंभव हो गया है। क्योंकि आदमी आदमी के बीच चर्च और मंदिर बड़ी मजबूत दीवाल की तरह आ जाते हैं। और क्या कभी हम सोचते हैं कि जो दीवालें आदमी को आदमी से अलग कर देती हों क्या वे दीवालें आदमी को परमात्मा से मिलाने का सेतु बन सकती हैं? मार्ग बन सकती हैं? जो आदमी को ही आदमी से ही नहीं मिला पातीं, वे आदमी को परमात्मा से कैसे मिला पाएंगी?
नहीं, ये मंदिर और मस्जिद कोई भी परमात्मा के मंदिर नहीं हैं। परमात्मा का मंदिर तो सब जगह मौजूद है, क्योंकि जहां परमात्मा मौजूद है वहां उसका मंदिर भी मौजूद है। आकाश के तारों में और जमीन के घास-पात में, और वृक्षों में, और मनुष्य की और पशुओं की आंखों में, और सब तरफ, और सब जगह कौन मौजूद है? किसका मंदिर मौजूद है? इतने बड़े मंदिर को, इतने विराट मंदिर को भी जो नहीं देख पाते, वे छोटे-छोटे मंदिर में उसे देख पाएंगे? खुद उसके ही बनाए हुए भवन में जो उसे नहीं खोज पाते, वे क्या आदमी के द्वारा बनाए गए ईंट, चूने के मकानों में उसे खोज पाएंगे? जिनकी आंखें इतने बड़े को भी नहीं देख पातीं, जो इतना ओबियस है, जो इतना प्रकट है और चारों तरफ मौजूद है। चेतना के इस सागर को भी जिनका जीवन स्पर्श नहीं कर पाता, वह आदमी के बनाए हुए ईंटों की दीवालों में, कारागृहों में, बंद मूर्तियों में उसे खोज पाएगा? नासमझी है, निपट नासमझी है। जो इतने विराट मंदिर में नहीं देख पाता वह उसे और कहीं भी देखने में समर्थ नहीं हो सकता है। लेकिन ये हमने खड़े किए और हमने दावा किया कि ये परमात्मा के मंदिर हैं। और हमने लोगों से कहा, विश्वास करो। और हमने दावा किया कि आदमियों की लिखी हुई किताबें परमात्मा के वचन हैं। और हमने लोगों से कहा, विश्वास करो। और हमने जो भी ठीक समझा वह कहा, और लोगों से कहा, विश्वास करो, असंदिग्ध, संदेह मत करना, संदेह भटका देता है, संदेह भ्रम में ले जाएगा, संदेह का परिणाम नरक होगा।
हमने भयभीत किया मनुष्य को, डर दिखलाया दंड का, प्रलोभन दिखलाया स्वर्ग का कि मान लोगे तो स्वर्ग है, न मानोगे तो नरक है। और ऐसे हमने मनुष्य के लोभ और भय को उत्प्रेरित किया। और हजार-हजार वर्षों से एक शिक्षा दी विश्वास कर लेने की। और विश्वास में फिर हम बड़े होते गए। और परिणाम यह है कि कितने लोग हैं जिन्हें जीवन में परमात्मा की किरण का बोध हो पाता है? पांच हजार या दस हजार साल की विश्वास की शिक्षा कितने लोगों को ईश्वर के निकट ले गई? कहां हैं वे लोग? वे तो खोजे से भी दिखाई नहीं पड़ते। तो क्या दस हजार साल का यह परीक्षण काफी लंबा परीक्षण नहीं हो गया है? क्या यह काफी मौका नहीं था कि विश्वास के द्वारा जीवन बदल जाता और अगर दस हजार वर्षों में यह नहीं हुआ तो यह कब होगा?
मैं आपसे निवेदन करूंगा, विश्वास असफल हो गया है, पूरी तरह असफल हो गया है। बहुत समय हम दे चुके उसके लिए, उससे कुछ भी नहीं हुआ है सिवाय इसके कि आदमी और अंधा हुआ हो। आदमी और नीचे गिरा हो। आदमी ने और आत्मिक बल खो दिया हो। आदमी के जीवन में कोई आनंद की लहर न तो पैदा हुई, न कोई अमृत का दर्शन हुआ, न किसी परमात्मा की सन्निधि मिली।
मैं निवेदन करना चाहता हूं, विश्वास पिंजरे का सींखचा है, क्योंकि जब भी हम बिना जाने किसी बात को मान लेते हैं, तो हम अपने को अंधा करने के लिए तैयार होते हैं। जब भी हम बिना अनुभव किए किसी बात को स्वीकार कर लेते हैं, तब हम अपने भीतर जो विवेक की ऊर्जा थी, उसकी हत्या कर देते हैं। और यह सवाल नहीं है कि हम क्या मानने को राजी हो जाएं? अगर हिंदुस्तान में आप पैदा हुए हैं, आप मान लेंगे, ईश्वर है, और अगर रूस में पैदा हुए हैं, तो वहां का कम्युनिस्ट धर्म लोगों को समझाता है, ईश्वर नहीं है, वहां का बच्चा इसको मान लेता है। वे भी कहते हैं, विश्वास करो। हम कहते हैं, गीता पर; वे कहते हैं, दास कैपिटल पर। लेकिन विश्वास के मामले में उनका भी कोई झगड़ा नहीं है। यह कम्युनिज्म सबसे नया धर्म है। और यह चाहे रूस में विश्वास दिलाया जाए कि ईश्वर नहीं है, चाहे भारत में कि ईश्वर है, लेकिन दोनों ही बातों को जो लोग स्वीकार कर लेते हैं, वे लोग अपने जीवन में कभी सत्य की खोज नहीं कर सकेंगे।
सत्य की खोज के लिए पहली जरूरत है कि जो मैं नहीं जानता हूं, जो मेरा अनुभव नहीं है, जो मेरी प्रतीति नहीं है, उसे मैं स्पष्ट रूप से कह सकूं कि मैं नहीं जानता हूं। मैं कह सकूं कि मुझे पता नहीं है। मैं अपने अज्ञान को स्वीकार कर सकूं। सत्य के खोजी की पहली शर्त, पहला लक्षण हैः अपने अज्ञान का स्वीकार। लेकिन विश्वासी अज्ञान को स्वीकार नहीं करता, वह यह मानने को राजी नहीं होता कि मैं नहीं जानता हूं। उसे तो दूसरे लोग जो सिखाते हैं वह मान लेता है कि यह मेरा जानना है।
अगर मैं आपसे पूछूं, आप ईश्वर को जानते हैं? तो आपके भीतर से कोई कहेगा हां, ईश्वर है, नहीं तो दुनिया किसने बनाई? ये बातें सिखाई हुई हैं। ये दलीलें सुनी हुई हैं और इनको हम पकड़ कर बैठ गए हों। तो हम रुक गए वहीं, हमारी खोज बंद हो गई। हमने आगे जाने की फिर कोशिश नहीं की। विश्वास कभी भी आगे नहीं ले जाता। संदेह आगे ले जाता है। क्योंकि संदेह से पैदा होती है जिज्ञासा, इंक्वायरी। और इंक्वायरी गति देती है प्राणों को नये-नये द्वार खोलने की, नये-नये मार्ग छान लेने की, दूर-दूर कोनों-कोनों तक खोज-बीन कर लेने की कि कहीं कुछ हो मैं उसे जान लूं। जो जानना चाहता है धर्म को, परमात्मा को, प्रभु को या सत्य को, उसे अपने अज्ञान को स्वीकार कर लेने के लिए तैयार होना चाहिए। लेकिन हम तो झूठे ज्ञान को मान लेने को तैयार हैं। और फिर उस ज्ञान में, उस विश्वास में हमें भ्रम पैदा हो जाता है हमारे भीतर कि हम जानते हैं। और जिसको हम जानते हैं उससे हमारा संबंध समाप्त हो जाता है। क्योंकि उसके प्रति फिर हमारी कोई जिज्ञासा नहीं, कोई खोज नहीं, उसके प्रति हमारे भीतर कोई ऊहापोह नहीं, कोई चिंतन नहीं, फिर हमारा बंद हो गया मनन। और हमारे भीतर जो विचार की बड़ी ऊर्जा थी वह कुंठित पड़ी रह जाएगी।
स्मरण रखें, विचार तो प्रत्येक का जन्मजात हिस्सा है। विश्वास, विश्वास सिखाए जाते हैं। विश्वास लेकर कोई पैदा नहीं होता, बिलिव्स लेकर कोई पैदा नहीं होता। सब विश्वास सिखाए जाते हैं। लेकिन विचार लेकर हरेक पैदा होता है। विचार परमात्मा से मिलता है, विश्वास धर्म-पुरोहित से। विश्वास मिलते हैं समाज के अगुओं से, समाज के न्यस्त स्वार्थ शोषकों से, समाज के ढांचे को कायम रखने वाले लोगों से। और विचार, विचार प्रत्येक की आत्मा की अपनी शक्ति है। जो विचार से चलेगा वह तो पहुंच सकता है, जो विश्वास पर रुक जाता है उसक ा पहुंचना असंभव है।
पहला सींखचा है हमारे बंधन का, वह है श्रद्धा। नहीं, श्रद्धा नहीं चाहिए, चाहिए सम्यक संदेह, राइट डाउट, चाहिए स्वस्थ संदेह। इन मुल्कों में हम देखें जहां श्रद्धा का प्रभाव रहा वहां विज्ञान का जन्म नहीं हो सका। आगे भी नहीं हो सकेगा। क्योंकि जहां श्रद्धा बलवती है वहां खोज ही नहीं पैदा होती। जिन मुल्कों में विज्ञान का जन्म हुआ, वह तभी हो सका जब श्रद्धा के सिंहासन पर संदेह विराजमान हो गया। आज भी जो कौमें विज्ञान की दृष्टि से पिछड़ी हैं, वे वही कौमें हैं जिनका विश्वास पर आग्रह है। और न केवल विज्ञान के लिए यह बात सच है, धर्म के लिए भी उतनी ही सच है, क्योंकि धर्म तो परम विज्ञान है, वह तो सुप्रीम साइंस है। वैज्ञानिक तो फिर भी हाइपोथिसिस को मान कर चलता है थोड़ा-बहुत, एक अनुमान स्वीकार करता है, एक परिकल्पना स्वीकार करता है, लेकिन धर्म का खोजी परिकल्पना को भी स्वीकार नहीं करता, कुछ भी स्वीकार नहीं करता, निपट सहज जिज्ञासा को लेकर गतिमान होता है। प्रश्न तो उसके पास होते हैं, उत्तर उसके पास नहीं होते। पूछता है जीवन से, खोजता है बाहर और भीतर और बिना कुछ स्वीकार किए खोजता चला जाता है, खोजता चला जाता है। जब स्वीकार नहीं करता है तो उसकी खोज की मेधा तीव्रतर होती चली जाती है, इंटेंस से इंटेंस होती चली जाती है। और एक दिन उसकी यह प्यास और खोज इतनी गहनतम, इतनी चरम तीव्रता को उपलब्ध हो जाती है कि उसी चरम तीव्रता में, उसी चरम तीव्रता के उत्ताप में एक द्वार खुल जाता है और वह जानने में समर्थ होता है।
जिज्ञासा चाहिए, विश्वास नहीं। और विश्वास हमारा पहला बंधन है जो हमें चारों तरफ से बांधे हुए है। ठीक उसके साथ ही बंधा हुआ दूसरा बंधन है जिसने हमारा कारागृह बनाया, और वह है, अनुगमन, फॉलोइंग, किसी दूसरे के पीछे चलना। किसी को मान लेना विश्वास है, किसी के पीछे चलना अंधानुकरण है। और इधर हजारों वर्षों से हमें यह सिखाया जाता रहा हैः दूसरों के पीछे चलो, दूसरे जैसे बनो, राम जैसे बनो, कृष्ण जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो। और अगर बात, पुराने नाम फीके पड़ गए हैं तो हमेशा नये नाम मिल जाते हैं--गांधी जैसे बनो, विवेकानंद जैसे बनो। लेकिन आज तक किसी ने भी हमसे नहीं कहा कि हम अपने जैसे बनें। किसी दूसरे जैसा कोई क्यों बने? और क्या यह संभव है कि कोई किसी दूसरे जैसा बन सके? क्या यह आज तक कभी संभव हुआ है कि दूसरा राम पैदा हो? दूसरा बुद्ध कि दूसरा क्राइस्ट? क्या तीन-चार हजार वर्ष की नासमझी भी हमें दिखाई नहीं पड़ती।
क्राइस्ट को हुए दो हजार साल होते हैं, दो हजार साल में कितने पागलों ने यह कोशिश नहीं की कि वे क्राइस्ट जैसे बन जाएं? लेकिन क्या कोई दूसरा क्राइस्ट बन सका? नहीं बन सका। क्या इससे कुछ बात स्पष्ट नहीं होती है? क्या यह स्पष्ट नहीं होता है कि हर मनुष्य एक अद्वितीय है, यूनीक व्यक्तित्व है। कोई मनुष्य किसी दूसरे जैसा बनने को पैदा भी नहीं हुआ। परमात्मा के घर कोई कारखाना नहीं है फोर्ड जैसा कि एक सी कारें निकालता चला जाए। परमात्मा कोई कारखाना नहीं है, कोई ढांचा नहीं है। शायद परमात्मा एक कवि है, शायद एक चित्रकार है जो रोज नये चित्र बनाता है, रोज नई कविता लिखता है। शायद इतना जीवंत है उसका उत्पादन, उसका सृजन कि वह रोज नई प्रतिमाएं गढ़ लेता है। पुरानी प्रतिमाओं पर लौटने योग्य स्थिति अभी तक भी उसकी नहीं आई है। अभी भी नये के सृजन की क्षमता उसकी मौजूद है। इसलिए रोज नया-नया। हर व्यक्ति नया है और अलग है और पृथक है। और जिस दिन यह संभव होगा कि सारे व्यक्ति एक जैसे हो जाएं, उस दिन आदमी नहीं होगा जमीन पर, मशीनें होंगी। उस दिन से ज्यादा दुर्भाग्य का कोई दिन नहीं होगा।
तो मैं यह निवेदन करना चाहता हूंः अंधानुकरण; किसी दूसरे जैसा बनने की कोशिश से आदमी बहुत गहरे बंधन में पड़ता है। और बंधन में इसलिए पड़ता है कि दूसरे जैसा तो वह कभी बन ही नहीं सकता, यह असंभावना है, यह इंपासिबिलिटी है। लेकिन इस कोशिश में अभिनय कर सकता है दूसरे जैसा, तो उसकी आत्मा अलग हो जाती है, अभिनय अलग हो जाता है। राम तो नहीं बन सकता कोई लेकिन रामलीला का राम बन सकता है। रामलीला का राम बिल्कुल झूठा आदमी है। ऐसे आदमी की जमीन पर कोई भी जरूरत नहीं है। रामलीला का राम एक अभिनय है, एक एक्टिंग है। ऊपर से हम कुछ ओढ़ ले सकते हैं, भीतर आत्मा होगी पृथक और ये ओढ़े हुए वस्त्र होंगे अलग। इन दोनों के बीच एक द्वंद्व होगा, एक कांफ्लिक्ट होगी, एक सतत कलह होगी। और अभिनय कभी भी आनंद नहीं ला सकता, देखने वालों को लाता हो यह दूसरी बात है। लेकिन जो अभिनय कर रहा है वह निरंतर यह पीड़ा अनुभव करता है कि मैं किसी और की जगह खड़ा हूं, मैं अपनी जगह नहीं हूं, मैं कोई और हूं, मैं वही नहीं हूं मैं जो हूं। वैसा आदमी कभी आत्मस्थित नहीं हो पाता, क्योंकि वह निरंतर दूसरे के अभिनय में व्यस्त होता है।
यह भी हो सकता है कि कोई राम का अभिनय इतनी कुशलता से करे कि खुद राम भी मुसीबत में पड़ जाएं, यह हो सकता है। क्योंकि अभिनेता को भूल-चूक नहीं करनी पड़ती। उसका सब पाठ रटा हुआ तैयार होता है। खुद राम से भूल-चूक हो सकती है, क्योंकि पाठ तैयार नहीं है, पहले से सब सिखाया हुआ नहीं है, जिंदगी रोज सामने आती है, असली आदमी भूल-चूक कर सकता है। नकली आदमी कभी भूल-चूक नहीं करता। इसलिए जो आदमी कभी भूल-चूक न करता हो, समझ लेना उस आदमी में कुछ नकली मौजूद है। वह किसी ढांचे में ढला हुआ आदमी है, जिंदा नहीं है। जिंदगी में भूल-चूकें हैं। तो यह हो सकता है कि रामलीला का अभिनय किसी ने बीस बार किया हो, राम को तो बेचारों को एक ही बार मौका मिला, बीस बार मौका नहीं मिला, यह हर बार ज्यादा कुशल होता चला जाएगा। और ऐसा भी हो सकता है एक दिन अगर असली राम के सामने भी इसे खड़ा कर दें, तो जनता इस नकली को पूजे, असली को छोड़ दे। अक्सर ऐसा होता है। क्योंकि यह होगा बहुत कुशल, इसकी इफिसिएंसी, इसकी कुशलता का मुकाबला राम नहीं कर सकते।
ऐसा एक दफा हुआ, ऐसी एक घटना घटी। चार्ली चैपलीन को उसके जन्म-दिन पर, एक विशेष जन्म-दिन पर, पचासवीं वर्षगांठ पर कुछ मित्रों ने चाहा कि एक अभिनय हो, सारी दुनिया से कुछ अभिनेता आएं और चार्ली चैपलीन का अभिनय करें। और उनमें जो प्रथम आ जाए... वैसे तीन लोगों को पुरस्कार इंग्लैंड की महारानी दे। सारे यूरोप में प्रतियोगिता हुई, सौ प्रतियोगी चुने गए। चार्ली चैपलीन ने मन में सोचा, मैं भी किसी दूसरे गांव से जाकर मैं भी क्यों न सम्मिलित हो जाऊं? मुझे तो प्रथम पुरस्कार मिल ही जाना है। इसमें कोई शक-सुबहा की बात नहीं, मैं खुद चार्ली चैपलीन हूं। और जब बात खुलेगी तो लोग हंसेंगे, एक मजाक हो जाएगी।
मजाक हुई जरूर, लेकिन दूसरे कारण से हुई, चार्ली चैपलीन को द्वितीय पुरस्कार मिला। और जब बात खुली कि खुद चार्ली चैपलीन भी उन सौ अभिनेताओं में सम्मिलित था, तो सारी दुनिया हंसी और हैरान हो गई कि यह कैसे हुआ? एक दूसरा आदमी बाजी ले गया चार्ली चैप्लिन होने की प्रतियोगिता में और चैपलीन खुद नंबर दो रह गया।
तो हो सकता है राम हार जाएं, महावीर के साधुओं से महावीर हार जाएं, बुद्ध के भिक्षुओं से बुद्ध हार जाएं, क्राइस्ट के पादरियों से क्राइस्ट हार जाएं, इसमें कोई हैरानी नहीं। लेकिन यह जानना चाहिए कि चाहे कोई कितना ही कुशल अभिनय करे, उसके जीवन में सुवास नहीं हो सकती, वह कागज का ही फूल होगा, वह असली फूल नहीं हो सकता। और यह चेष्टा में कि वह दूसरे का अंधानुकरण करे, वह एक बहुमूल्य अवसर खो देगा जो स्वयं की निजता को पाने का था। ऐसी ही हो जाएगी बात, आपकी बगिया में मैं आऊं और आपके फूलों को समझाऊं, गुलाब को कहूं तू कमल हो जा, चमेली को कहूं तू चंपा हो जा। पहली तो बात है, फूल मेरी बात सुनेंगे नहीं, क्योंकि फूल आदमियों जैसे नासमझ नहीं कि हर किसी की बात सुनें। कोई उपदेशक वगैरह उनके बीच नहीं होता। पर हो सकता है आदमियों के साथ रहते-रहते कुछ फूल बिगड़ गए हों, आदमी के साथ रह कर कोई भी बिगड़ सकता है। जानवर जो जंगल में रहते हैं उनको वे बीमारियां नहीं होती हैं, आदमी के साथ रहने लगते हैं उन्हीं बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं। फिर आदमी की नकल में वेटेनरी डाक्टर को भी हमें तैयार करना पड़ता है। हो सकता है आपके साथ रहते-रहते बगिया के फूलों की आदत बिगड़ गई हो, और वे सुनने को राजी हो जाएं और उपदेश उन पर काम कर जाए। सीधे-साधे फूल हैं, हो सकता है मान लें। और गुलाब कमल होने की कोशिश करने लगे, चंपा चमेली होने की। फिर क्या होगा? उस बगिया में फिर फूल पैदा नहीं होंगे। एक बात तय है फिर कुछ भी हो, उस बगिया में फिर फूल पैदा नहीं होंगे। क्योंकि गुलाब के भीतर कमल होने का कोई व्यक्तित्व नहीं है। लाख कोशिश करे वह कमल नहीं हो सकता। लेकिन कमल होने की कोशिश में सारी ताकत व्यय हो जाएगी और गुलाब भी नहीं हो सकेगा। गुलाब का फूल भी उसमें पैदा नहीं होगा।
आदमी की बगिया ऐसी ही वीरान हो गई है। सोचें, कभी अगर हम बीस-पच्चीस लोगों के नाम दुनिया से अलग कर दें, तो आदमी के दस हजार वर्षों में कितने फूल लगे? एक बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को, क्राइस्ट को, लाओत्सु को, कनफ्यूशियस को, इनको छोड़ दें, बीस नाम अलग कर दें, मनुष्य-जाति के दस हजार साल में बाकी किन आदमियों के जीवन में फूल लगे? और क्या यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि अरबों लोग पैदा हों, एक-दो आदमी के जीवन में फूल आएं और बाकी लोग बिना फूल के बांझ रह जाएं? कौन है इसके लिए जिम्मेवार? मेरी दृष्टि में अनुकरण इसके लिए जिम्मेवार है। क्या आपको पता है क्राइस्ट ने किसका अनुकरण किया? क्राइस्ट किसकी कार्बनकॉपी बनना चाहते थे? क्या कहीं उल्लेख है कि कृष्ण ने किसी का अनुकरण किया हो? या कहीं यह लिखा है किसी किताब में और किसी धर्मग्रंथ में कि बुद्ध किसी के पीछे चले हों? नहीं, वे ही थोड़े से लोग इस जमीन पर सुगंध को उपलब्ध हुए जो अपनी निजता की खोज किए, किसी के पीछे नहीं गए।
लेकिन हम अजीब पागल हैं, हम उन्हीं लोगों के पीछे जा रहे हैं जो किसी के पीछे कभी नहीं गए। और जब तक हम किसी का अनुसरण करने की कोशिश करेंगे तब तक हमारे व्यक्तित्व में, हमारे व्यक्तित्व में वह मुक्ति, वह स्वतंत्रता पैदा नहीं हो सकती।
दूसरे का अनुकरण गहरी से गहरी परतंत्रता है। मैं बांधता हूं फिर अपने को। दूसरा हो जाता है मेरे लिए आदर्श। और उसके अनुकूल मैं अपने को बांधने लगता हूं, कसने लगता हूं। फिर एक पिंजड़ा तैयार हो जाता है, और उस पिंजरे के सींखचों को पकड़ कर मैं चिल्लाता हूं, स्वतंत्रता, तो बहुत हंसी जैसी बात हो जाती है।
न तो चाहिए मनुष्य में विश्वास और न चाहिए मनुष्य में अंधानुकरण। चाहिए मनुष्य में विचार, चाहिए मनुष्य में निजता की खोज, चाहिए... हो सकता है, आनंद लें पूरी तरह खिलने का, सवाल महावीर और बुद्ध होने का नहीं है, सवाल जो भी आप हैं उसके पूरी तरह खिल जाने का। और जिस दिन आप पूरी तरह खिलते हैं उसी दिन आपके जीवन में धर्म का अनुभव शुरू होता है, उसके पहले नहीं।
पंगु और कुंठित व्यक्तित्व जीवन के सत्य से कोई संपर्क नहीं साध सकता। चाहिए परिपूर्ण स्वस्थ और खिला हुआ फूल की भांति व्यक्तित्व, जो अपने सारे प्राणों को विकसित कर सके, तब, तब जीवन के चारों तरफ के संदेश उसे मिलने उपलब्ध हो जाते हैं, शुरू हो जाते हैं।
मैं यह अंत में निवेदन करूंगाः मनुष्य के बंधन गहरे अर्थों में दो हैं--विश्वास के और अनुकरण के। जो व्यक्ति इन बंधनों से अपने को मुक्त कर लेता है, वह कदम रख रहा है सत्य की तरफ, वह धार्मिक होने की तरफ कदम रख रहा है, उसके भीतर धार्मिक चित्त पैदा हो गया है। धार्मिक चित्त वह नहीं है जो किन्हीं मंदिरों में जाकर सिर टेकता हो, किन्हीं शास्त्रों को लेकर सिर पर घूमता हो। नहीं, धार्मिक चित्त वह है जो अपने आस-पास अपनी चेतना पर किसी तरह के बंधनों को पोषण नहीं देता है। सब तरह के बंधनों को शिथिल करता है, तोड़ता है। और तब चेतना के भीतर जो छिपा है उसके प्रकट होने का द्वार खोजता है।
ये मैंने कुछ थोड़ी सी बातें आपसे कहीं, ये बातें बिल्कुल नकारात्मक हैं, बिल्कुल निगेटिव हैं। लेकिन कोई माली बगीचा बनाना चाहे तो पहले पुराने पौधों को निकाल अलग कर देता है, घास-पात उखाड़ देता है, जड़ें निकाल कर बाहर फेंक देता है, पत्थर-कंकड़ अलग कर देता है, ताकि भूमि तैयार हो जाए, ताकि फिर नये बीज बोए जा सकें। तो मेरी इस पहली चर्चा में कुछ चीजों को मैंने तोड़-फोड़ करने की कोशिश की है, कुछ अलग कर देने की, ताकि आप तैयार हो सकें उन बातों के लिए जिन्हें मैं बीज कहता हूं। और जो अगर भीतर पहुंचे तो उनसे आपके जीवन में एक अंकुरण हो सकता है, एक पल्लवन हो सकता है, कुछ आ सकती है सुवास। हर आदमी पैदा हुआ है एक फूल बन सके, एक सुवास उसके जीवन में आ सके। और जो आदमी बिना ऐसा बने विदा हो जाता है, उसके जीवन में कोई धन्यता, कोई कृतार्थता नहीं होती।
धन्य हैं वे थोड़े से लोग ही जो जीवन के इस अवसर को सरिता की भांति सागर तक दौड़ने का अवसर बना लेते हैं। धन्य हैं वे लोग जो सरिता की भांति सागर को उपलब्ध हो जाते हैं। जीवन की परिपूर्णता का आनंद, जीवन के अमृत का बोध केवल उन्हीं को उपलब्ध हो पाता है। यह हम सब का जन्मसिद्ध अधिकार है। अगर हम मांग करें तो, लेकिन अगर हम मांग ही न करें, या हम मांग भी करें चिल्लाएं--स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! और किन्हीं सींखचों को पकड़े रहें, तो कौन जिम्मेवार हो सकता है? प्रत्येक व्यक्ति ही अपने लिए जिम्मेवार है अपने बंधन के लिए, अपने कारागृह के लिए। और जिस दिन सोचेगा, तोड़ सकेगा उस कारागृह को।
एक अंतिम कहानी और मैं अपनी चर्चा पूरी करूंगा।
रोम में एक बहुत अदभुत लोहार हुआ। उसकी बड़ी कीर्ति थी सारे जगत में। दूर-दूर के बाजारों तक उसका सामान पहुंचा। उसने बहुत धन अर्जित किया। लेकिन जब वह अपनी प्रतिष्ठा के चरम शिखर पर था और रोम के सौ बड़े प्रतिष्ठित नागरिकों में उसकी स्थिति बन गई थी, तभी रोम पर हमला हुआ, दुश्मन ने रोम को रौंद डाला और सौ बड़े नागरिकों को गिरफ्तार कर लिया। उनके हाथ-पैरों में बहुत मजबूत वजनी जंजीरें पहना दी गईं और उन्हें फिंकवा दिया गया जंगलों में ताकि जंगली जानवर उन्हों खा जाएं। वे जंजीरें बहुत मजबूत, बहुत वजनी थीं, उनको रहते एक कदम चलना भी मुश्किल था, असंभव था। निन्यानबे लोग तो रो रहे थे .जार-.जार, उनके हृदय आंसुओं से भरे थे, उनके सामने मृत्यु के सिवाय कुछ भी न था। लेकिन वह लोहार बहुत कुशल कारीगर था, वह हंस रहा था, वह निश्चिंत था। उसे ख्याल था, कोई फिकर नहीं, कैसी ही जंजीरें हों मैं खोल लूंगा। अपने बच्चों को, अपनी पत्नी को विदा देते वक्त उसने कहाः घबड़ाओ मत, सूरज डूबने के पहले मैं घर वापस आ जाऊं गा। पत्नी ने भी सोचा, बात ठीक ही है, वह इतना कुशल कारीगर था।
फिर उन सब लोगों को जंगलों में फिंकवा दिया गया। वह लोहार भी एक जंगली खड्ड में डाल दिया गया। गिरते ही उसने पहला काम किया, अपनी जंजीरें उठा कर देखीं कि कहीं कोई कमजोर कड़ी हो, लेकिन जंजीरों को देखते ही वह छाती पीट-पीट कर रोने लगा। उसकी हमेशा से आदत थी, जो भी बनाता था कहीं हस्ताक्षर कर देता था। जंजीरों पर उसके हस्ताक्षर थे। वे उसकी ही बनाई हुई जंजीरें थीं। उसने कभी सोचा भी न था कि जो जंजीरें मैं बना रहा हूं वे एक दिन मेरे ही पैरों में पड़ेंगी और मैं ही बंदी हो जाऊंगा। अब वह रोने लगा, रोने लगा इसलिए कि अगर ये जंजीरें किसी और की बनाई हुई होतीं तो तोड़ भी सकता था। वह भलीभांति जानता था, कमजोर चीजें बनाने की उसकी आदत नहीं, यही तो उसकी प्रतिष्ठा थी। जंजीरें उसकी बनाई हुई थीं, उन्हें तोड़ना मुश्किल था, वे कमजोर थी ही नहीं।
उस कुशल कारीगर को जो मुसीबत अनुभव हुई होगी, हर आदमी को जिस दिन वह जाग कर देखता है, ऐसी ही मुसीबत अनुभव होती है। तब वह पाता है हरजंजीर पर मेरे हस्ताक्षर हैं। और हर जंजीर मैंने इतनी मजबूती से बनाई है, क्योंकि मैंने तो उसे स्वतंत्रता समझ कर बनाया था, कभी सोचा भी न था कि यह जंजीर... तो स्वतंत्रता को खूब मजबूती से बनाया था, मैंने इसे धर्म समझा था, खूब मजबूती से तैयार किया था, मैंने इसे मंदिर समझा था। मैंने कभी सोचा भी न था कि यह कारागृह है। खूब मजबूत बनाया था। उस लोहार की जो हालत हो गई वह करीब-करीब हर उस आदमी को अनुभव होती है जो जाग कर अपनी जंजीरों की तरफ देखता है। लेकिन वह लोहार सांझ को घर पहुंच गया था। वह कैसे पहुंचा, वह मैं रात आपसे बात करूंगा।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को अंत में प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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