समुंद समाना बूंद में-(विविध)
पहला प्रवचन-सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्
मेरे प्रिय आत्मन्!मनुष्य के जीवन में या जगत के अस्तित्व में एक बहुत रहस्यपूर्ण बात है। जीवन को तोड़ने बैठेंगे तो जीवन भी तीन इकाइयों में खंडित हो जाता है। अस्तित्व को खोजने निकलेंगे तो अस्तित्व भी तीन इकाइयों में खंडित हो जाता है। तीन की संख्या बहुत रहस्यपूर्ण है। और जब तक धार्मिक लोग तीन की संख्या की बात करते थे तब तक तो हंसा जा सकता था, लेकिन अब वैज्ञानिक भी तीन के रहस्य को स्वीकार करते हैं। पदार्थ को तोड़ने के बाद अणु के विस्फोट पर, एटामिक एनालिसिस से एक बहुत अदभुत बात पता लगी है, और वह यह है कि अस्तित्व जिस ऊर्जा से निर्मित है उस ऊर्जा के तीन भाग हैं--न्यूट्रान, प्रोटान, इलेक्ट्रान। एक ही विद्युत तीन रूपों में विभाजित होकर सारे जगत का निर्माण करती है।
मैं एक शिव के मंदिर में कुछ दिन पहले गया था और उस मंदिर के पुजारी को मैंने पूछा कि यह शिव के पास जो त्रिशूल रहता है, इसका क्या प्रयोजन है? उस पुजारी ने कहा, शिव के पास त्रिशूल होता ही है, प्रयोजन की कोई बात नहीं है।
लेकिन वह त्रिशूल बहुत पहले कुछ मनुष्यों की सूझ का परिणाम है। वह तीन का सूचक है। हजारों मंदिर इस जगत में हैं और हजारों तरह से तीन के आंकड़े को पकड़ने की कोशिश की गई है।
ईसाई अस्तित्व को तीन हिस्सों में तोड़ देते हैं--आत्मा, परमात्मा और होली घोस्ट। और हमने त्रिमूर्तियां देखी हैं--ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
यह बड़े मजे की बात है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ये तीनों वही काम करते हैं जो न्यूट्रान, प्रोटान और इलेक्ट्रान करते हैं। ब्रह्मा सृजनात्मक शक्ति हैं, विष्णु संरक्षण शक्ति हैं और शंकर विध्वंस शक्ति हैं।
ये तीन के आंकड़े मनुष्य के जीवन में बहुत-बहुत द्वारों से पहचाने गए हैं। परमात्मा की परम अनुभूति को जिन्होंने जाना है, वे उसे सत्, चित्, आनंद--एक्झिस्टेंस, कांशसनेस और ब्लिस--इन तीन टुकड़ों में बांटते हैं। जिन्होंने मनुष्य जीवन की गहराइयां खोजी हैं, वे सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्--इन तीन टुकड़ों में मनुष्य के व्यक्तित्व को, उसकी पर्सनैलिटी को बांटते हैं।
यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है कि मनुष्य का पूरा गणित तीन का विस्तार है। शायद ही आपने कभी सोचा हो कि मनुष्य ने नौ आंकड़े, नौ की संख्या तक ही सारी संख्याओं को क्यों सीमित किया। हमारी सारी संख्या नौ का ही विस्तार है। और नौ, तीन में तीन के गुणनफल से उपलब्ध होते हैं। और बड़े आश्चर्य की बात है कि हम नौ के कितने ही गुणनफल करते जाएं, जो भी आंकड़े होंगे, उनका जोड़ सदा नौ होगा। अगर हम नौ का दुगुना करें, अठारह, तो आठ और एक नौ हो जाएगा। अगर तीन गुना करें, सत्ताईस, तो सात और दो नौ हो जाएंगे। हम नौ में अरबों-खरबों का भी जोड़ करें तो भी जो आंकड़े होंगे उनका जोड़ सदा नौ होगा।
शून्य है अस्तित्व, वह पकड़ के बाहर है। और जब अस्तित्व तीन में टूटता है तो पहली बार पकड़ के भीतर आता है। और जब अस्तित्व तीन से तिगुना हो जाता है तो पहली दफे आंखों के लिए दृश्य होता है। और जब तीन के आंकड़े बढ़ते चले जाते हैं तो अनंत विस्तार हमें दिखाई पड़ने लगता है।
मनुष्य के व्यक्तित्व पर भी ये तीन की परिधियां ख्याल करने जैसी हैं। सत्यम मनुष्य की अंतरतम, आंतरिक, इनरमोस्ट केंद्र है। सत्यम का अर्थ है, मनुष्य जैसा है अपने को वैसा जान ले। सत्यम मनुष्य के स्वयं से संबंधित होने की घटना है। सुंदरम सत्यम के बाद की परिधि है। मनुष्य प्रकृति से संबंधित हो जाए, अपने से नहीं। मनुष्य निसर्ग से संबंधित हो जाए, नेचर से संबंध जोड़ ले, तो सुंदरम की घटना--दि ब्यूटीफुल की घटना घटती है। और शिवम मनुष्य की सबसे बाहर की परिधि है। शिवम का मतलब है दूसरे मनुष्यों से संबंध। शिवम है समाज से संबंध, सुंदरम है प्रकृति से संबंध, सत्यम है स्वयं से संबंध।
हमारे बाहर प्रकृति का एक जगत है। हमारे बाहर मनुष्यों का एक जगत है। और हम हैं। तो मनुष्य के बिंदु पर अगर हम तीन वर्तुल बनाएं, तीन कनसेंट्रिक सर्किल्स खींचें, तो पहला निकटतम जो सर्किल है वह सत्यम का है; दूसरा जो सर्किल है वह सुंदरम का है, प्रकृति से संबंधित होने का जो जगत है; और तीसरा जो सर्किल है वह शिवम का है, मनुष्य का मनुष्य से संबंधित होने का जो वर्तुल है।
शिवम सबसे ऊपरी व्यवस्था है। इसलिए समाज की दृष्टि में शिवम सबसे महत्वपूर्ण है। इसलिए समाज नीति से ज्यादा धर्म के संबंध में विचार नहीं करता। समाज के लिए बात समाप्त हो जाती है। अगर आप दूसरों के लिए अच्छे हैं तो समाज की बात समाप्त हो जाती है। समाज इससे ज्यादा आपसे मांग नहीं करता। समाज कहता है, दूसरों के साथ व्यवहार अच्छा है तो हमारा काम पूरा हो गया। इसलिए समाज सिर्फ नीति से चल सकता है। समाज को धर्म और दर्शन की कोई आवश्यकता नहीं है। समाज का काम नीति पर पूरा हो जाता है--एक व्यक्ति दूसरे के साथ अच्छा होना चाहिए।
समाज को इसकी चिंता नहीं है कि व्यक्ति प्रकृति के साथ भी अच्छा हो। समाज को इसकी भी चिंता नहीं है कि व्यक्ति अपने साथ भी अच्छा हो। समाज को इसकी चिंता नहीं है कि व्यक्ति अपने भीतर सत्य को उपलब्ध हो। इसकी भी चिंता नहीं है कि चांद-तारों से उसके सौंदर्य के संबंध बनें। उसकी सिर्फ एक चिंता है कि मनुष्यों के साथ उसके संबंध शुभ हों, गुड हों। इसलिए समाज शिव पर सारा जोर डालता है। और जो लोग अपने जीवन में शिव को पूरा कर लेते हैं, समाज उनको महात्मा, साधु का आदर देता है।
लेकिन अस्तित्व की गहराइयों में शिवम सबसे कम गहरी चीज है, सबसे उथली चीज है। इसलिए साधु अक्सर गहरे व्यक्ति नहीं होते। साधुओं से तो कहीं कवि और चित्रकार भी ज्यादा गहरा होता है। साधुओं से तो वह भी ज्यादा गहरा होता है जिसने चांद-तारों से अपना कोई संबंध जोड़ लिया।
असल में, जो चांद-तारों से अपना संबंध जोड़ पाता है वह मनुष्य से तो जोड़ ही लेता है, इसमें तो कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन जो मनुष्य से संबंध जोड़ता है, जरूरी नहीं है कि वह चांद-तारों से भी जोड़ता हो। सुंदरम की जिसकी प्रतीति गहरी है वह शिवम को तो उपलब्ध हो जाता है; जिसने ब्यूटीफुल को खोज लिया है वह गुडनेस को तो उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि गुडनेस अपने आप में बहुत बड़ी से बड़ी सौंदर्य की अनुभूति है। जिसने सुंदर को खोज लिया वह इतनी कुरूपता भी बरदाश्त नहीं कर सकता कि बुरा हो सके। बुरा होना एक कुरूपता है, एक अग्लीनेस है।
लेकिन जिसने शिव को साधा है वह असुंदर हो सकता है। और जिसने शिव को साधा है उसे सौंदर्य में भी चुनाव करना पड़ता है।
श्री पुरुषोत्तमदास टंडन ने एक सुझाव रखा था कि खजुराहो, कोणार्क और पुरी के मंदिर मिट्टी में दबा दिए जाने चाहिए, क्योंकि उन मंदिरों पर जो मूर्तियां हैं वे शुभ नहीं हैं, शिव नहीं हैं। सुंदर हैं, लेकिन गुडनेस से उनका संबंध नहीं मालूम पड़ता है। खजुराहो की दीवाल पर जो मैथुन के चित्र हैं, जो नग्न सुंदर स्त्रियों की प्रतिमाएं हैं, पुरुषोत्तमदास टंडन का ख्याल था, इन्हें मिट्टी में दबा देना चाहिए। और गांधी जी भी उनके इस ख्याल से राजी हो गए थे। अगर रवींद्रनाथ ने बाधा न डाली होती तो हिंदुस्तान की सबसे कीमती संपत्ति मिट्टी में दब सकती थी। रवींद्रनाथ तो हैरान हो गए यह बात सुन कर कि कोई ऐसा सुझाव दे! लेकिन टंडन शिव के आदमी थे। क्या ठीक है, यह पर्याप्त है। ऐसा सौंदर्य उनके बरदाश्त के बाहर है जिससे किसी के मन में अशुभ पैदा हो सके। वे ऐसी कुरूपता को भी पसंद कर लेंगे जो शुभ की दिशा में ले जाती हो।
इसलिए जिन देशों में साधुओं का बहुत प्रभाव है उन देशों में सौंदर्य की प्रतिष्ठा कम हो जाती है। हमारा ही ऐसा एक अभागा मुल्क है। इस मुल्क में सौंदर्य की कोई प्रतिष्ठा नहीं है। सौंदर्य अपमानित है, सौंदर्य निंदित है। बल्कि काउंट कैसरलेन हिंदुस्तान से जर्मनी वापस लौटा तो उसने वहां जाकर लिखा कि मैं हिंदुस्तान से यह समझ कर आया हूं कि कुरूप होना भी एक आध्यात्मिक योग्यता है, और बीमार होना भी आध्यात्मिक गुण है, और गंदा होना भी साधना की अनिवार्य शर्त है।
जैन साधु स्नान नहीं करेगा। पसीने की जितनी बास आए, उतनी गहरी साधना का सबूत मिलता है। दातुन नहीं करेगा। मुंह पास ले जाएं तो आपको घबड़ाहट छूटे, तो समझना चाहिए दूसरी तरफ जो आदमी है वह साधु है।
हिंदुस्तान ने शिव की बहुत प्रतिष्ठा की है। और इस प्रतिष्ठा ने सौंदर्य को घातक नुकसान पहुंचाया है। मेरी दृष्टि में, गांधी शिव के अन्यतम प्रतीक हैं।
लेकिन शिव मनुष्य की पहली परिधि है। बहुत गहरी नहीं है, पहली सीढ़ी है। बहुत गहरी नहीं है। जब हम दूसरे व्यक्ति से संबंधित होने का ही केवल ख्याल रखते हैं और जब हम यही सोच कर चलते हैं कि दूसरे से हमारे संबंध कैसे हों, और यह कभी नहीं सोचते कि हम कैसे हैं और यह भी कभी नहीं सोचते कि मनुष्यों के अतिरिक्त भी जगत का कोई अस्तित्व है--पत्थर भी हैं, नदियां भी हैं, पहाड़ भी हैं, जब इस विराट जीवन को हम मनुष्य के ही समाज में केंद्रित कर देते हैं, तो जगत और जीवन बहुत संकीर्ण हो जाता है। स्वभावतः जो सिर्फ शिव की ही साधना करेगा, उसके पाखंडी हो जाने का खतरा है। जरूरी नहीं है कि वह पाखंडी हो जाए, लेकिन उसका खतरा है। क्योंकि वह बहुत ऊपर-ऊपर से जीवन को पकड़ने की कोशिश में लगा है। उसने जिंदगी को जड़ों से नहीं पकड़ा है, उसने जिंदगी को फूलों से पकड़ने की कोशिश की है। उसने जिंदगी की बाहरी परिधि को लीपने-पोतने की कोशिश की है। वह चरित्र को ठीक करेगा, वह पानी छान कर पीएगा, वह यह करना ठीक है या नहीं है, ऐसा होना ठीक है या नहीं है, वह यह सब सोचेगा, लेकिन इस सारे सोच में वह जीएगा परिधि पर, गहराई में नहीं जी सकेगा।
गांधी मेरे लिए पहले प्रतीक हैं जो शुभ के श्रेष्ठतम प्रतीक हैं। अगर कोई विकृत हो जाए तो हिटलर जैसा आदमी पैदा होगा और अगर कोई सुकृत हो जाए तो गांधी जैसा आदमी पैदा होगा। ये एक ही परिधि पर खड़े लोग हैं।
यह जान कर आपको हैरानी होगी कि हिटलर सिगरेट नहीं पीता है, हिटलर मांस नहीं खाता है, हिटलर रात नियम से सोता है और सुबह ब्रह्ममुहूर्त में नियम से उठता है। हिटलर अविवाहित रहा है। हिटलर के जीवन में समझा जाए तो साधु के सब लक्षण पूरे हैं, लेकिन हिटलर से ज्यादा असाधु आदमी पृथ्वी पर दूसरा पैदा नहीं हुआ।
यह थोड़ा सोचने जैसा है। अगर हिटलर थोड़ी सिगरेट पी लेता और थोड़ी शराब पी लेता और थोड़ा मांस खा लेता, तो मैं समझता हूं दुनिया का इतना नुकसान न होता जितना हुआ। अगर वह किसी एकाध स्त्री से प्रेम कर लेता या पड़ोसी की पत्नी से लुक-छिप कर थोड़ी बात कर लेता, तो भी दुनिया का इतना नुकसान न होता जितना हुआ। वह आदमी सब तरफ से बंद हो गया। सब तरफ से जो जबरदस्ती शुभ होने की कोशिश करेगा उसका अशुभ किसी और मार्ग से प्रकट होना शुरू हो जाएगा और बहुत बड़े पैमाने पर प्रकट होगा।
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि जो लोग ऊपर से अहिंसा साध लेते हैं, उनकी आंखों, उनकी नाकों, उनके हाथों में सबसे अहिंसा की जगह हिंसा झरने लगती है। जो लोग ब्रह्मचर्य साध लेते हैं, उन्हें चौबीस घंटे सेक्स उनका पीछा करने लगता है। जो लोग किसी दिन उपवास किए हैं, अगर आप में से किसी अभागे ने किसी दिन उपवास किया हो तो उसको पता होगा कि दिन को भोजन के अतिरिक्त और कोई ख्याल नहीं आता और रात सिवाय भोजन के कोई सपना नहीं आता।
शुभ को कोई अगर आग्रहपूर्वक जबरदस्ती थोप लेगा, तो शुभ तो नहीं सधेगा, सिर्फ पाखंड होगा और विकृतियां और परवरशंस पैदा होते हैं। लेकिन अगर कोई शुभ को पूरे मननपूर्वक साध ले, तो भी पाखंड तो पैदा नहीं होता, चरित्र पैदा हो जाता है, शुभ चरित्र पैदा हो जाता है, लेकिन होता परिधि का है, बहुत गहरा नहीं होता।
दूसरी परिधि सौंदर्य की है। आचरण शिव की परिधि है और सौंदर्य की हमारी जो अनुभूति है, एस्थेटिक जो सेंस है हमारे भीतर, सुंदर की जो भावदशा है, सुंदर को ग्रहण करने की जो ग्राहकता, सेंसिटिविटी है, वह दूसरी परिधि है। गांधी को मैं पहली परिधि का प्रतीक पुरुष मानता हूं--सफल प्रतीक पुरुष। हिटलर को मैं पहली परिधि का असफल प्रतीक पुरुष मानता हूं। और रवींद्रनाथ को मैं दूसरी परिधि का सफल प्रतीक पुरुष मानता हूं। उनके जीवन में सौंदर्य सब कुछ है।
सुनी है मैंने एक घटना कि गांधी रवींद्रनाथ के घर मेहमान थे। सांझ घूमने निकलते थे तो उन्होंने कहा कि आप भी चलेंगे? रवींद्रनाथ ने कहा कि रुकें, मैं थोड़ा बाल संवार लूं। गांधी को समझ के बाहर हो गया। स्वाभाविक! इस बुढ़ापे में बाल संवारने की बात बेहूदी मालूम पड़ सकती है, किसी भी साधु को पड़ेगी। लेकिन कोई और होता तो गांधी तत्काल उससे कुछ कहे होते। रवींद्रनाथ से एकदम से कुछ कहना भी कठिन था। चुपचाप खड़े रह गए। उनके कहने में भी विरोध तो था, उनके चुप रहने में भी विरोध था।
रवींद्रनाथ भीतर गए हैं और पांच मिनट बीत गए, नहीं लौटे; दस मिनट बीत गए, नहीं लौटे। गांधी के बरदाश्त के बाहर हो गया। उन्होंने भीतर झांक कर देखा। देखा आदमकद आईने के सामने खड़े हैं, इस बुढ़ापे में सब सफेद हो गए बालों को संवारते हैं और मंत्रमुग्ध हैं ऐसे कि जैसे भूल गए हैं कि घूमने जाना है। गांधी ने कहा, क्या कर रहे हैं आप? इस उम्र में और बालों को इतने संवारने की फिक्र?
रवींद्रनाथ मुड़े। उनका चेहरा जैसे समाधिस्थ था। उन्होंने कहा, जब जवान था, तो बिना संवारे चल जाता था। जब से बूढ़ा हो गया हूं तब से बहुत संवारना पड़ता है।
रास्ते में बात हुई तो रवींद्रनाथ ने कहा कि मैं अक्सर सोचता हूं कि किसी को अगर मैं कुरूप दिखाई पडूं तो मैं उसको दुख दे रहा हूं, और दुख देना हिंसा है। और किसी को मैं सुंदर दिखाई पडूं तो उसे मैं सुख दे रहा हूं, और सुख देना अहिंसा है।
शायद ही कभी किसी ने सोचा हो कि सौंदर्य में अहिंसा भी हो सकती है।
रवींद्रनाथ कह रहे हैं, जब मैं किसी को सुंदर दिखाई पड़ता हूं तो उसे सुख दे रहा हूं। और सुख देना अहिंसा है। और जब मैं कुरूप दिखाई पड़ता हूं तो मैं दुख दे रहा हूं। और दुख देना हिंसा है। तो रवींद्रनाथ कह रहे हैं कि मेरी नैतिकता मुझसे कहती है कि मैं सुंदर दिखाई पड़ता रहूं। मरते अंतिम क्षण तक प्रभु से एक ही प्रार्थना है कि मैं कुरूप न हो जाऊं, मैं असुंदर न हो जाऊं।
और यह हैरानी की बात है कि रवींद्रनाथ, जैसे-जैसे बूढ़े होते गए वैसे-वैसे सुंदर होते गए। मरते वक्त बहुत कम लोग इतने सुंदर होते हैं जितने रवींद्रनाथ थे। और रवींद्रनाथ को मरते वक्त देख कर कोई कह सकता था--जैसे हिमालय के शिखर पर बर्फ आ जाए ऐसे उनके चेहरे पर वह जो बुढ़ापे की सफेदी और सफेद बाल आ गए थे उन्होंने जैसे कि श्वेत हिम से उन्हें ढंक दिया हो। वे जैसे गौरीशंकर हो गए थे।
रवींद्रनाथ के मन में सौंदर्य की बड़ी गहरी पकड़ है। इतनी गहरी पकड़ है कि शुभ को भी वे सुंदर का ही एक रूप समझते हैं, अशुभ को असुंदर का एक रूप समझते हैं। बुरा आदमी इसलिए बुरा नहीं है कि बुरा काम करता है, बुरा आदमी इसलिए बुरा है कि बुरा आदमी कुरूप है। और बुरे आदमी का बुरा काम भी इसीलिए बुरा है कि बुरे काम के परिणाम कुरूप हैं। अग्लीनेस से विरोध है। असाधुता का विरोध नहीं है, विरोध है कुरूपता का। और अगर साधु भी कुरूपता पैदा कर रहा है जीवन में, तो रवींद्रनाथ का विरोध है।
सौंदर्य की जिनके जीवन में थोड़ी सी प्रतीति होगी, वे मनुष्य के जगत के पार जो और बड़ा जगत है, उसमें प्रवेश कर जाते हैं। साधारणतः हम मनुष्य की दुनिया में ही जीते हैं। सच तो यह है कि मनुष्य की दुनिया में भी पूरी तरह नहीं जीते हैं, वहां भी अधूरे जीते हैं। मनुष्य के पार वृक्ष भी हैं, पत्थर भी हैं, पहाड़ भी हैं, चांद-तारे भी हैं, आकाश भी है। यह इतना विराट चारों तरफ फैला है, इससे हमारा कोई संबंध नहीं है।
अभी पीछे लंदन में एक सर्वे किया जा रहा था स्कूल के बच्चों का। तो दस लाख बच्चों ने यह कहा कि उन्होंने गाय नहीं देखी है और सात लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने खेत नहीं देखा है। अब जिन बच्चों ने गाय नहीं देखी, जिन बच्चों ने खेत नहीं देखा, ये एक अर्थ में जगत से पूरी तरह टूट गए हैं। इनका जगत से कोई संबंध न रहा। इनका संबंध सिर्फ मानवीय जगत से है।
अब आज मैं एक किताब पढ़ रहा था, तो उस किताब के लेखक ने यह सुझाव दिया है कि चूंकि जमीन छोटी हो गई है और जमीन पर रहने वाले लोग ज्यादा हो गए हैं, इसलिए अब हमें अंडरग्राउंड, जमीन के नीचे रहने का इंतजाम कर लेना चाहिए। और धीरे-धीरे सारी मनुष्यता को जमीन के नीचे निवास करने के लिए राजी कर लेना चाहिए।
वह ठीक कह रहा है। अगर मनुष्यता इसी तरह बढ़ती गई तो आदमी को जमीन के नीचे जाना पड़ेगा। तब शायद हो सकता है, सूरज से भी हमारा कोई संबंध न रहे, चांद-तारों से भी हमारा कोई संबंध न रहे। तब हम प्रकृति से पूरी तरह टूट जाएं और आदमी अकेली सचाई रह जाए या आदमी की बनाई गई चीजें अकेली सचाई रह जाएं--कारखाने, मशीनें, मकान, आदमी--यह आदमी की दुनिया है।
आदमी की दुनिया इस विराट दुनिया का बहुत छोटा हिस्सा है। अगर हम पूरी दुनिया को ख्याल में लें तो यह कोई हिस्सा ही नहीं। अगर हम पूरे जगत के विस्तार को सोचें तो आदमी क्या है? वह कुछ भी नहीं है। उसकी यह पृथ्वी क्या है? वह भी कुछ नहीं है। उसका यह सूरज भी क्या है? यह भी कुछ नहीं है। हम जगत के ना-कुछ हिस्से हैं। उस ना-कुछ हिस्से में आदमी की दुनिया ना-कुछ है। और उस ना-कुछ आदमी की दुनिया में दस-पचास आदमियों के बीच एक आदमी संबंधित होकर जी लेता है। स्वभावतः, इसके अस्तित्व में बहुत गहराइयां नहीं पैदा हो सकती हैं।
फिर एक और समझ लेने जैसी बात है कि मनुष्य के साथ हमारे जो भी संबंध हैं वे अपेक्षाओं के, एक्सपेक्टेशंस के संबंध हैं। इसलिए पूर्ण रूप से सुंदर नहीं हो सकते। जहां अपेक्षा है वहां कुरूपता प्रवेश कर जाती है। मनुष्य से हमारे जो संबंध हैं वे मांग और पूर्ति के, डिमांड और सप्लाई के संबंध हैं। नहीं, मालिक के साथ मजदूर का एक डिमांड और सप्लाई का संबंध है, ऐसा मत समझना। पति और पत्नी के बीच जो संबंध है वह भी डिमांड और सप्लाई का है। हम एक-दूसरे के साथ संबंधित हैं कुछ शर्तों के साथ।
जब आदमी सौंदर्य से संबंधित होता है जगत के तो पहली दफे बेशर्त और अनकंडीशनल होता है। और जब हम बेशर्त होते हैं तो संबंधों की गहराई और ही हो जाती है। और जब हम सशर्त होते हैं तब संबंधों की गहराई और हो जाती है--कोई गहराई नहीं रह जाती। सौंदर्य के संबंध मनुष्य को और गहरे ले जाते हैं। कवि, चित्रकार, नृत्यकार, मूर्तिकार, संगीतज्ञ, सौंदर्य के स्रष्टा और सौंदर्य के भाव में जीने वाले लोग हैं।
लेकिन साधुओं के बहुत प्रभाव के कारण काव्य, सौंदर्य और संगीत हमारे जीवन में गहरा प्रवेश नहीं कर पाया। साधुओं को सदा भय रहा है इस बात का कि कहीं सौंदर्य लोगों को अनीति में न ले जाए। जब कि सच्चाई यह है कि अगर सौंदर्य का बोध बढ़ जाए तो ही आदमी वस्तुतः नैतिक हो पाता है, अन्यथा नैतिक नहीं हो पाता। सौंदर्य का जितना गहरा बोध होता है उतना आदमी सेंसिटिव हो जाता है, उतना संवेदनशील हो जाता है। और जितना संवेदनशील हो जाता है उतना अनैतिक होना कठिन हो जाता है। सौंदर्य का बोध अनीति में नहीं ले जाता; सौंदर्य के बोध की कमी ही अनीति में ले जाती है।
अगर एक आदमी एक वेश्या के पास दस रुपये फेंक कर और प्रेम कर सकता है, तो मैं कहूंगा यह अनैतिक कम, इसमें सौंदर्य की संवेदना बहुत न के बराबर है, इसमें नहीं है। एक आदमी दस रुपये में प्रेम खरीदने की बात सोच सकता है, यह बताती है कि इसके पास एस्थेटिक सेंस जैसी कोई चीज नहीं है। एक आदमी रुपये से प्रेम खरीदने की बात सोच सकता है, यह बताती है कि इसके पास कोई आंतरिक गहराई का कोई अस्तित्व नहीं है।
लेकिन हमें कोई कठिनाई नहीं आती; क्योंकि या तो हम पत्नियां खरीद लेते हैं पूरे जीवन के लिए, चूंकि वह स्थायी सौदा है। इसलिए शायद हम सोचते हों कि वेश्याओं के पास जाने वाले लोग बड़े अनैतिक हैं। लेकिन स्थायी सौदे और अस्थायी सौदे में बहुत फर्क नहीं है। वह सिर्फ लीज्ड टाइम का फर्क है, और कुछ भी नहीं है। लेकिन सौंदर्य का बोध नहीं है। सच तो यह है कि जिस आदमी को सौंदर्य का बोध हो वह शायद किसी को पति और पत्नी न बना पाए। क्योंकि पति और पत्नी एक कांट्रैक्ट और एक सौदा है। प्रेम सौदा नहीं कर सकता। शायद दुनिया में प्रेम गहरा हो तो परिवार नये ढांचे का निर्मित हो। उसमें पति और पत्नी की मालकियत वाली दुनिया और पजेशन की दुनिया खत्म हो जाए। और उसमें सहज संबंध आएं। जो संबंध भाव के संबंध हैं। जो संबंध दस्तखत किए हुए किसी रजिस्ट्री आफिस के संबंध नहीं हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि रजिस्ट्री आफिस में की गई या बैंड-बाजे बजा कर किसी पुरोहित के सामने की गई। धार्मिक ढंग से की गई रजिस्ट्री, कि सेक्युलर ढंग से की गई, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है।
सौंदर्य का बोध दूसरी गहरी परिधि है, जो मनुष्य को मनुष्य के जगत से ऊपर उठाती है और विराट से जोड़ती है। रवींद्रनाथ मुझे दूसरे प्रतीक मालूम होते हैं। और यह समझने जैसी बात है कि यह जरूरी नहीं है कि दूसरी परिधि पर जो है वह जरूरी रूप से शिव भी हो, शुभ भी हो; लेकिन बहुत संभावना है उसके शिव और शुभ होने की। पहली परिधि के आदमी को जरूरी नहीं है कि वह सिर्फ शुभ ही हो और सुंदर का उसे बोध न हो। लेकिन उसके सौंदर्य के बोध की कठिनाई ज्यादा है।
तीसरी परिधि है सत्य की, जहां व्यक्ति बाहर से नहीं, स्वयं से, अंतर से संबंधित होता है। इस अंतर-आत्मा से, इस ब्रह्म से, इस आत्मा से, यह जो मैं हूं, कब तक मैं आदमियों से ही संबंधित होता रहूंगा? और कब तक चांद-तारों से ही संबंधित होता रहूंगा? कभी मुझे अपने से भी संबंधित होना है। सत्यम तीसरा बिंदु है, जिसके प्रतीक अरविंद हैं। जिनकी सारी खोज भीतर, और भीतर, और भीतर, यह कौन है, इसे जानने की खोज है। जो व्यक्ति सत्यम को उपलब्ध होता है उसके लिए शिवम और सुंदरम सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। इसलिए अरविंद आचरण के संबंध में बहुत अदभुत हैं। गांधी से पीछे नहीं हैं। और ‘सावित्री’ लिख कर बता सके हैं कि सौंदर्य के बोध में रवींद्र से पीछे नहीं हैं। और अगर अरविंद को कविता के ऊपर नोबल प्राइज नहीं मिली तो उसका कारण यह नहीं है कि अरविंद की कविता रवींद्र से पिछड़ी हुई है; उसका कारण यह है कि नोबल प्राइज बांटने वाले लोगों के दिमाग ‘सावित्री’ को समझने में असमर्थ हैं। और अरविंद अंतर-आत्मा की खोज में भी गए हैं, स्वयं की खोज में भी गए हैं। अरविंद सत्यम के प्रतीक हैं।
ये तीन व्यक्ति मैं मौजूदा जिंदगी से ले रहा हूं ताकि बात हमें साफ हो सके। लेकिन तीनों में से कोई भी मुक्त नहीं हो सकता है--न गांधी, न रवींद्र, न अरविंद। क्योंकि ये तीनों अस्तित्व की बातें हैं। मुक्ति इसके पार शुरू होती है। अगर कोई आचरण पर रुक गया तो भी बंध जाता है, अगर कोई सौंदर्य पर रुक गया तो भी बंध जाता है, अगर कोई स्वयं पर रुक गया तो भी बंध जाता है। पहला बंधन जरा दूर है, दूसरा बंधन जरा निकट है, तीसरा बंधन अति निकट है। लेकिन तीनों ही बंधन हैं। अगर कोई व्यक्ति स्वयं के भीतर ही डूब गया तो भी रुक गया। क्योंकि स्वयं के पार भी सर्व की सत्ता है। वह जो यह ‘मैं’ हूं, इसके पार भी ‘ना-मैं’, वह जो नहीं हूं मैं, उसकी भी सत्ता है। प्रकृति की नहीं, वह कॉस्मिक एक्झिस्टेंस की है, जहां से प्रकृति पैदा होती है और जहां प्रकृति लीन होती है। चरित्र पर रुक जाऊं तो सामाजिक अंश बन कर रह जाता हूं, प्रकृति पर रुक जाऊं तो प्रकृति का अंश बन कर रह जाता हूं, अपने पर रुक जाऊं तो कांशसनेस, चेतना का अंश होकर रह जाता हूं। लेकिन सर्वात्मा का अंश नहीं हो पाता हूं।
इन तीनों के पार जो होता है वही मुक्ति में प्रवेश करता है, वही फ्रीडम में, टोटल फ्रीडम में प्रवेश करता है। सत्य, शिव और सुंदर, तीनों मनुष्य की भाव-दशाएं हैं। और जब तीनों भाव-दशाओं के कोई पार होता है तो निर्भाव हो जाता है। तब वह बियांड माइंड हो जाता है। तब वह मन के पार चला जाता है। समाधि तीनों के पार हो जाने का नाम है।
लेकिन तीनों के पार होने के दो ढंग हैं। एक ढंग के प्रतीक रमण हैं और दूसरे ढंग के प्रतीक कृष्णमूर्ति हैं। तीनों के पार होने का एक ढंग तो यह है कि तीनों शांत हो जाएं। तीनों में से कोई भी न रह जाए, तीनों बिदा हो जाएं। जैसे लहरें सो गईं सागर में, कोई लहर न बची--न शिवम की, न सुंदरम की, न सत्यम की। तीनों शांत हो गईं। और रमण निष्क्रिय समाधि को उपलब्ध होते हैं। तीनों शांत हो गए हैं। न सत्यम की कोई पकड़ है, न शिवम की कोई पकड़ है, न सुंदरम की कोई पकड़ है। तीनों की लहर खो गई है। यह निष्क्रिय समाधि है। रमण से यात्रा शुरू होती है मुक्ति की।
कृष्णमूर्ति ठीक विपरीत हैं रमण से। चौथी जगह खड़े हैं, लेकिन विपरीत हैं। और रमण में तीनों सो गए हैं, कृष्णमूर्ति में तीनों एक से सजग हैं। तीनों समतुल हैं। तीनों की शक्ति बराबर एक है और तीनों एक से प्रकट हैं। तो अरविंद को तो कविता लिखनी पड़ती है; कृष्णमूर्ति जो बोल रहे हैं, वह कविता है; अलग से लिखनी नहीं पड़ती। कृष्णमूर्ति का होना ही कविता है। अरविंद के लिए तो कोई क्षण काव्य का होगा, कृष्णमूर्ति के लिए पूरा अस्तित्व काव्य है। गांधी को शिवम साधना पड़ता होगा, कृष्णमूर्ति के लिए वह साधना नहीं पड़ता, वह उनकी छाया है। गांधी को अहिंसा लानी पड़ती है, कृष्णमूर्ति के लिए अहिंसा आती है। अरविंद को सत्य को खोजना पड़ता है, कृष्णमूर्ति को सत्य ही खोजता हुआ आ गया है। तीनों समतुल हैं, एक सी शक्ति के हैं।
लेकिन रमण और कृष्णमूर्ति में क्या फर्क है? दोनों एक ही द्वार पर खड़े हैं। एक निष्क्रिय समाधि को उपलब्ध हुआ है, क्योंकि तीनों के पार चला गया है। एक सक्रिय समाधि को उपलब्ध हुआ है, क्योंकि तीनों के समन्वय को, सिंथेसिस को उपलब्ध हो गया है। दोनों में थोड़ा सा फर्क है। अनुभव का कोई फर्क नहीं है, लेकिन व्यक्तित्व का बुनियादी फर्क है। और रमण की समाधि ऐसे है जैसे बूंद सागर में गिर जाए--बुंद समानी समुंद में। कृष्णमूर्ति की समाधि ऐसी है जैसे बूंद में सागर गिर जाए--समुंद समाना बुंद में। परिणाम में तो एक ही घटना घट जाएगी। लेकिन दोनों के व्यक्तित्व भिन्न हैं।
और कृष्णमूर्ति और रमण मिनिमम क्वालिफिकेशन हैं अध्यात्म के द्वार पर, न्यूनतम योग्यताएं हैं। अध्यात्म के द्वार पर न्यूनतम योग्यता कम से कम इतनी चाहिए जितनी रमण की या कृष्णमूर्ति की। लेकिन यह न्यूनतम योग्यता है, मिनिमम क्वालिफिकेशन है। और रमण और कृष्णमूर्ति से भी महत्तर व्यक्तित्व हैं, जैसे बुद्ध, महावीर या क्राइस्ट। बुद्ध और महावीर और क्राइस्ट में रमण और कृष्णमूर्ति संयुक्त रूप से प्रकट हुए हैं, अलग-अलग नहीं हैं। निष्क्रिय और सक्रिय समाधि एक साथ घटित हुई है। वह जो पाजिटिव और निगेटिव है, वह एक साथ घटित हुआ है। महावीर में, बुद्ध में या क्राइस्ट में निषेध और विधेय दोनों एक साथ घटित हुए हैं। वे दोनों एक साथ हैं--कृष्णमूर्ति भी और रमण भी। महावीर जब बोल रहे हैं तब वे कृष्णमूर्ति जैसी भाषा बोलते हैं। और महावीर जब चुप हैं तब वे रमण जैसे चुप होते हैं। रमण मौन हैं, साइलेंट हैं। कृष्णमूर्ति मुखर हैं, प्रकट हैं। कृष्णमूर्ति में तेजी है, रमण में सब शांति है। अगर महावीर को बोलते हुए कोई देखे तो वे कृष्णमूर्ति जैसे होंगे और महावीर को कोई चुप देखे तो वे रमण जैसे होंगे। बुद्ध और क्राइस्ट भी ऐसे ही व्यक्तित्व हैं।
एक तरफ क्राइस्ट इतने शांत हैं कि सूली पर लटकाए जा रहे हैं, तो भी वे परमात्मा से कह रहे हैं कि इन्हें माफ कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। यह रमण की हालत में हैं। और यही क्राइस्ट चर्च में कोड़ा लेकर चला गया है और सूदखोरों को कोड़े मार कर उनके तख्ते उलट दिए हैं और उनको घसीट कर मंदिर के बाहर निकाल दिया है। वह कृष्णमूर्ति के रूप में हैं।
मुझे कोई कहता है कि कृष्णमूर्ति इतने चिल्ला कर और इतने गुस्से में क्यों बोलते हैं?
जहां सिर्फ सक्रिय समाधि होगी वहां ऐसी घटना घटेगी।
मुझे कोई कहता है कि रमण चुप क्यों बैठे रहते हैं? लोग पूछने जाते हैं और वे चुप ही बैठे रहते हैं!
तो मैं उनसे कहता हूं कि निष्क्रिय समाधि ऐसी ही होगी। वे चुप होकर ही उत्तर दे रहे हैं। बुद्ध और महावीर और जीसस में ये दोनों घटनाएं एक साथ हैं। बुद्ध और महावीर और जीसस के पास और भी पूर्णतर व्यक्तित्व है। लेकिन बुद्ध और महावीर और जीसस से भी पूर्णतर व्यक्तित्व की संभावना है। और वैसा व्यक्तित्व कृष्ण के पास है।
बुद्ध, महावीर और जीसस में दोनों चीजों के लिए अलग-अलग क्षण हैं। जब वे निष्क्रिय होते हैं तब अलग मालूम पड़ते हैं, जब वे सक्रिय होते हैं तब वे अलग मालूम होते हैं। और आज तक ईसाई इस बात को हल नहीं कर पाए कि जो जीसस कोड़े मार सकता है, वह जीसस सूली पर चुपचाप कैसे लटक सकता है! ये दोनों बातों का टाइम अलग-अलग है, घड़ी अलग-अलग है। और इसलिए जीसस में बहुत कंट्राडिक्शंस मालूम होते हैं; बुद्ध में भी, महावीर में भी।
कृष्ण का व्यक्तित्व और भी पूर्णतर है। वहां यह कंट्राडिक्शन भी नहीं है। वहां वे दोनों एक साथ हैं। उनके ओंठ पर बांसुरी और उनकी आंख में क्रोध एक साथ है। उनका वचन कि युद्ध में नहीं उतरूंगा और उनका वचन तोड़ देना और युद्ध में उतर जाना एक साथ है। उनकी यह बात कि करुणा ही धर्म है और उनकी यह बात कि युद्ध में लड़ना ही धर्म है, एक साथ है। कृष्ण के व्यक्तित्व में ऐसे अलग खंड बांटने मुश्किल हैं। वहां निष्क्रिय और सक्रिय एक साथ घटित हुआ है। वहां निष्क्रिय और सक्रिय का भेद भी गिर गया है। कृष्ण आध्यात्मिक प्रवेश की मैक्सिमम क्वालिफिकेशन हैं; वे आखिरी, अधिकतम योग्यता हैं।
इसका मतलब यह नहीं है कि रमण या कृष्णमूर्ति जिस मोक्ष में प्रवेश होंगे वह कुछ न्यून क्षमता का होगा। न! इसका यह भी मतलब नहीं है कि बुद्ध और महावीर जिस मुक्ति में जाएंगे उसका आनंद कृष्ण की मुक्ति से कम होगा। न! इसका यह मतलब नहीं है कि इन दोनों में कोई छोटा-बड़ा है। इसका कुल मतलब यह है कि इन तीनों के व्यक्तित्व में भेद है। जहां ये पहुंचते हैं वह तो एक ही जगह है। लेकिन इन तीनों की पर्सनैलिटी.ज में बुनियादी फर्क है।
रमण और कृष्णमूर्ति से सत्यम्, शिवम्, सुंदरम के अतीत होना शुरू हो जाता है, ट्रांसेनडेंस शुरू हो जाता है। रमण और कृष्णमूर्ति के नीचे तीन तल हैं, जहां कोई शिव को पकड़ कर बैठ गया है, जहां कोई सुंदर को पकड़ कर बैठ गया है, जहां कोई सत्य को पकड़ कर बैठ गया है। और हम सब तो उन तीनों तल के भी बाहर खड़े रह जाते हैं--जहां न हमने शिव को पकड़ा है, न हमने सत्य को पकड़ा है, न हमने सुंदर को पकड़ा है। उन तीनों की हमारे जीवन में कोई गति नहीं है।
एक अर्थ में, जब तक हम पहली सीढ़ी पर न खड़े हों तब तक हम मनुष्य होने के अधिकारी नहीं होते। गांधी के साथ मनुष्यता शुरू होती है, अरविंद के साथ मनुष्यता पूरी होती है। और रमण और कृष्णमूर्ति के साथ अति मानव शुरू होता है, कृष्ण के साथ अति मनुष्यता का अंत होता है। हम कहां हैं?
हम पशु नहीं हैं, इतना पक्का है। हम आदमी हैं, इसमें संदेह है। एक बात तय है कि हम जानवर नहीं हैं। दूसरी बात इतनी तय नहीं है कि हम आदमी हैं। क्योंकि जानवर न होना केवल निषेध है। आदमी होना एक विधायक उपलब्धि है, एक पाजिटिव एचीवमेंट है। प्रकृति हमें ‘जानवर नहीं हैं’ वहां तक छोड़ देती है और आदमी होने का अवसर देती है कि हम आदमी हो सकें। प्रकृति हमें आदमी की तरह पैदा नहीं करती। अगर प्रकृति हमें आदमी की तरह पैदा कर दे तो फिर हम आदमी कभी भी न हो सकेंगे, क्योंकि आदमी होने का पहला कृत्य चुनाव है। अगर प्रकृति हमें चुनाव का मौका न दे तो फिर हम जानवर ही होंगे।
आदमी और जानवर में जो फर्क है वह एक ही है कि जानवर के पास कोई च्वाइस, कोई चुनाव नहीं है। उसके ऊपर कोई चुनाव नहीं है। कुत्ता पूरा कुत्ता पैदा होता है और आप ऐसा नहीं कह सकते कि यह कुत्ता उस कुत्ते से थोड़ा कम कुत्ता है। ऐसा कहेंगे तो आप पागल मालूम पड़ेंगे। सब कुत्ते बराबर कुत्ते होते हैं। दुबले-पतले हो सकते हैं, मोटे हो सकते हैं, लेकिन कुत्तापन बिल्कुल बराबर होगा। लेकिन आप एक आदमी के संबंध में बिल्कुल कह सकते हैं कि यह आदमी थोड़ा कम आदमी है, यह आदमी थोड़ा ज्यादा आदमी है। आदमियत जन्म से नहीं मिलती, इसलिए यह संभव है। आदमियत हमारा सृजन है, आदमियत हम निर्मित करते हैं, आदमियत हमारी उपलब्धि और खोज है। कहें कि आदमियत हमारी डिस्कवरी है, आदमियत हमारा आविष्कार है। लेकिन हम सारे लोग जन्म के साथ यह मान लेते हैं और बड़ी भूल हो जाती है कि हम आदमी हैं।
जन्म के साथ कोई भी आदमी नहीं होता। किसी मां-बाप की हैसियत आदमी पैदा करने की नहीं है। सिर्फ आदमी होने का अवसर पैदा किया जाता है--जस्ट एन अपॅरचुनिटी। जब एक मां-बाप से एक बच्चा पैदा होता है, तो यह आदमी होने की संभावना पैदा हो रही है। यह आदमी पैदा नहीं हो रहा है; यह सिर्फ पोटेंशियल ह्यूमन बीइंग है। यह चाहे तो आदमी हो सकता है और चाहे तो रुक सकता है।
और मजा यह है कि यदि आदमी चाहे तो आदमी हो सकता है, यदि आदमी चाहे तो आदमी के पार हो सकता है, यदि आदमी चाहे तो पशु हो सकता है, यदि आदमी चाहे तो पशु से भी नीचे गिर सकता है।
अगर हम ठीक से समझें तो आदमियत का मतलब है च्वाइस। आदमी का मतलब है चुनाव की अनंत क्षमता। नीचे पशुओं में कोई चुनाव नहीं है। और ऊपर अरविंद के बाद रमण से जो दुनिया शुरू होती है वहां भी कोई चुनाव नहीं है। पशु जैसे हैं वैसे होने को मजबूर हैं। अगर एक कुत्ता भौंकता है तो यह उसका चुनाव नहीं है। और अगर एक शेर हमला करता है और हिंसा करता है तो यह उसका चुनाव नहीं है।
इसलिए किसी शेर को आप हिंसक नहीं कह सकते। क्योंकि जिसकी अहिंसक होने की कोई क्षमता ही नहीं है उसको हिंसक कहने का क्या अर्थ है! इसलिए आप किसी जानवर पर अनैतिक होने का जुर्म नहीं लगा सकते और अपराधी नहीं ठहरा सकते। इसलिए हम सात साल के बच्चे तक को अपराधी ठहराने का विचार नहीं करते, क्योंकि हम मानते हैं कि अभी आदमी कहां! अभी जानवर चल रहा है। इसलिए बच्चे को हम जानवर के साथ गिनते हैं। अभी चुनाव शुरू नहीं हुआ।
लेकिन सात साल तक न हो, यह तो समझ में आता है; फिर सत्तर साल तक न हो तब समझ में आना बहुत मुश्किल हो जाता है। कुछ लोग बिना चुनाव के ही जी लेते हैं। प्रकृति उन्हें जैसा पैदा करती है वैसे ही जी लेते हैं।
चुनाव मनुष्य का निर्णायक कदम है। कहां से चुनाव करें? शिव से चुनाव करें? सौंदर्य से चुनाव करें? सत्य से चुनाव करें? कहां से चुनाव करें?
साधारणतः दो तरह की बातें रही हैं। एक तो वे लोग हैं, जो कहते हैं, पहले आचरण बदलो, फिर और कुछ गहरा बदला जा सकेगा।
मैं उनसे राजी नहीं हूं। मेरी अपनी समझ यह है कि आचरण को अगर बदलने से शुरू किया तो पाखंड का पूरा डर है, हिपोक्रेसी का पूरा डर है। इसलिए मैं कहता हूं, स्वयं को समझने से शुरू करो, सत्य से शुरू करो। गांधी से शुरू मत करो, अरविंद से शुरू करो। पहले स्वयं को समझने की चेष्टा से शुरू करो। और जिस दिन स्वयं को जान सको उस दिन स्वयं के बाहर जो फैला हुआ विराट है, उसे जानने की चेष्टा को फैलाओ। तो सौंदर्य जीवन में उतरेगा। और जिस दिन इस विराट को जानने की बात भी पूरी हो जाए उस दिन इस विराट के साथ कैसे व्यवहार करना, उसका विस्तार करो। तो शिवम भी फैलेगा। सत्य से शुरू करो, सौंदर्य पर फैलाओ, शिवम पर पूरा करो।
साधारणतः आज तक दुनिया में जितने धर्म हैं वे कहते हैंः शिवम से शुरू करो और सत्यम की यात्रा करो। वे कहते हैंः आचरण से शुरू करो और आत्मा की तरफ जाओ। मैं आपसे कहता हूं, आत्मा से शुरू करो और आचरण को आने दो। असल में, जो आचरण से शुरू करेगा वह हो सकता है जिंदगी बहुत फिजूल के श्रम में गंवा दे।
गांधीजी जिंदगी भर ब्रह्मचर्य का प्रयोग किए, लेकिन अंतिम क्षण तक तय न कर पाए कि ब्रह्मचर्य उपलब्ध हुआ है या नहीं हुआ। आचरण से शुरू करने की बड़ी तकलीफ है। महावीर को कभी शक न हुआ, बुद्ध को कभी शक न हुआ। गांधी को शक हुआ। उसका कारण है। आचरण से ही जीवन को साधा है, बाहर से ही जीवन को साधा है और भीतर की तरफ बाहर से साध कर गए हैं। मकान के बाहर से साधना शुरू की है और मकान की बाहर की दीवालों को सएहालना शुरू किया है।
बाहर की दीवालें, बाहर की परिधि जीवन की कितनी ही शुभ हो जाए तो भी जरूरी नहीं है कि भीतर जो जी रहा है वह शुभ होगा। लेकिन अगर भीतर जो जी रहा है वह सत्य हो जाए तो जो बाहर है वह अनिवार्य रूप से शुभ हो जाता है।
सारी दुनिया में पांच-दस हजार वर्षों के धर्मों ने आदमी में कुछ पैदा नहीं कर पाया। उसका कारण यह है कि उनकी प्रक्रिया उलटी है, आचरण से शुरू करते हैं और आत्मा तक जाने की बात कहते हैं। आदमी जिंदगी भर आचरण को सएहालने में नष्ट हो जाता है और कभी तय ही नहीं कर पाता कि आत्मा को सएहालने का क्षण आया है। अगर मनुष्य-जाति को सच में धार्मिक बनाना है तो भीतर से शुरू करनी पड़ेगी यात्रा और बाहर की तरफ फैलना पड़ेगा। और मजे की बात यह है कि भीतर से यात्रा करना सरलतम है, क्योंकि जिसे हम बाहर साध-साध कर भी साध नहीं पाते वह भीतर की साधना से अपने आप सध जाता है। ऐसे ही जैसे कोई आदमी गेहूं बोता है तो भूसा तो अपने आप पैदा होता है, भूसे को अलग से पैदा नहीं करना पड़ता। लेकिन कोई सोचे कि जब गेहूं के साथ भूसा पैदा होता है तो हम भूसा बो दें तो गेहूं भी पैदा हो जाएगा। तो सिर्फ भूसा सड़ जाएगा, गेहूं पैदा नहीं होगा। भूसे के साथ गेहूं पैदा नहीं होता। भूसा बहुत बाहरी चीज है, गेहूं बहुत भीतरी चीज है। असल में, भूसा गेहूं के लिए पैदा होता है, उसकी रक्षा के लिए पैदा होता है। अगर गेहूं नहीं है तो भूसे के पैदा होने की कोई जरूरत नहीं होती।
जब भीतर सत्य पैदा होता है तो उसके आस-पास सौंदर्य और शिव अपने आप पैदा होते हैं रक्षा के लिए। असल में, जब भीतर सत्य का दीया जल जाता है तो अपने आप शिव का आचरण निर्मित होता है, क्योंकि सत्य के दीये को अशिव आचरण में बचाया नहीं जा सकता। जब भीतर सत्य पैदा हो जाता है तो चारों तरफ जीवन में सौंदर्य की आभा फैल जाती है, वैसे ही जैसे दीया जलता है तो घर के बाहर रोशनी फैलने लगती है। अगर इस कमरे में दीया जला हो तो खिड़कियों के बाहर भी रोशनी फैलने लगेगी।
लेकिन आप कहीं, खिड़कियों के बाहर पहले रोशनी फैले और फिर भीतर दीया जलाएंगे, इस ख्याल में पड़ गए, तो बहुत खतरा है। हो सकता है कोई नकली रोशनी लाकर बाहर चिपका लें, तो बात अलग है। लेकिन नकली रोशनी अंधेरे से भी बदतर होती है। नकली फूल असली फूल के न होने से भी बुरा होता है। क्योंकि असली फूल न हो तो पीड़ा होती है असली फूल के खोज की, और नकली फूल हाथ में हो तो यह भी ख्याल भूल जाता है कि असली फूल को खोजना है। नकली फूल दूसरों को धोखा दे, इससे बहुत हर्जा नहीं, खुद को भी धोखा दे देता है।
मनुष्य-जाति का अब तक का धर्म शिव से शुरू होता था, सत्य की यात्रा पर निकलता था। इसलिए हम बहुत लोगों को न तो शिव बना पाए, न सुंदर बना पाए, न सत्य दे पाए। भविष्य में अगर धर्म की कोई संभावना है तो इस प्रक्रिया को पूरा उलट देना पड़ेगा। सत्य से शुरू करें, शिवम और सुंदरम उनके पीछे आएं।
लेकिन ध्यान रहे, सत्य भी उपलब्ध हो जाए, शिवम भी मिल जाए, सुंदरम भी मिल जाए, तो भी हम सिर्फ मनुष्य हो पाते हैं--पूरे मनुष्य। मनुष्य होना काफी नहीं है; जरूरी है, पर काफी नहीं है। नेसेसरी है, इनफ नहीं है, पर्याप्त नहीं है। जैसे ही हम मनुष्य होते हैं, वैसे ही एक नई यात्रा का द्वार खुलता है जो मनुष्य के भी पार ले जाता है। और जब कोई मनुष्यता के पार जाता है, तभी पहली दफे जीवन में उस आनंद को उपलब्ध होता है जो अस्तित्व का आनंद है, उस स्वतंत्रता को उपलब्ध होता है जो अस्तित्व की स्वतंत्रता है, उस अमृत को उपलब्ध होता है जो अस्तित्व का अमृतत्व है।
इन तीनों के बाहर जाना है। लेकिन हम तो इन तीनों में भी नहीं गए हैं। इन तीनों में जाना है, ताकि इन तीनों के पार जाया जा सके। सत्यम्, शिवम्, सुंदरम यात्रा है, अंत नहीं। मार्ग है, मंजिल नहीं। साधन है, साध्य नहीं। सत्यम्, शिवम्, सुंदरम का यह त्रय प्रक्रिया है, और सच्चिदानंद का त्रय उपलब्धि है। वह सत्, चित्, आनंद है। वह उपलब्धि है। उसकी थोड़ी-थोड़ी झलक मिलनी शुरू होती है। जो अपने जीवन में शिव को उतार लेता है उसके जीवन में... जो सत्य को उतार लेता है अपने जीवन में, उसके जीवन में सुख आना शुरू हो जाता है। लेकिन जहां तक सुख है वहां तक दुख की संभावना सदा मौजूद रहती है। जो तीनों के पार चला जाता है वहां आनंद आना शुरू होता है। आनंद का मतलब है--जहां न सुख रहा, न दुख रहा।
इसलिए आनंद के विपरीत कोई भी शब्द नहीं है। आनंद अकेला शब्द है मनुष्य की भाषा में जिसका कंट्राडिक्टरी नहीं है, जिसका उलटा नहीं है। सुख का उलटा दुख है; और शांति का उलटा अशांति है; और अंधेरे का उजाला है; और जीवन का मृत्यु है। आनंद का उलटा शब्द नहीं है। आनंद अकेला शब्द है जिसके विपरीत कोई नहीं है। जैसे ही हम सुख और दुख के पार होते हैं, आनंद में प्रवेश होता है।
मुक्ति का द्वार तो रमण और कृष्णमूर्ति से खुल जाता है।
आप कहेंगे, जब द्वार यहीं खुल जाता है, तो बुद्ध और महावीर और कृष्ण तक जाने की क्या जरूरत है?
अलग-अलग व्यक्ति के लिए अलग-अलग बात निर्भर करेगी। मैं बंबई आता हूं तो बोरीवली उतर सकता हूं, वह भी बंबई का स्टेशन है। दादर भी उतर सकता हूं, वह भी बंबई का स्टेशन है। सेंट्रल भी उतर सकता हूं, वह भी बंबई का स्टेशन है। लेकिन वह टर्मिनस है। और एक सिर्फ प्रारंभ है और एक अंत है।
कृष्ण टर्मिनस पर उतरते हैं, आखिरी, जहां ट्रेन ही खत्म हो जाती है, जिसके आगे फिर यात्रा ही नहीं है। रमण और कृष्णमूर्ति बोरीवली उतर जाते हैं। महावीर और बुद्ध और जीसस दादर को पसंद करते हैं। अपनी पसंद की बात है। लेकिन रमण और कृष्णमूर्ति तक प्रत्येक को पहुंचना ही चाहिए। उसके आगे बिल्कुल पसंद की बात है कि कौन कहां उतरता है। वह बिल्कुल व्यक्तिगत झुकाव है।
लेकिन बहुत दूर हैं रमण और कृष्णमूर्ति, गांधी होना ही कितना मुश्किल मालूम पड़ता है! और कितने लोग बेचारे चर्खा चला-चला कर गांधी होने की चेष्टा करते रहते हैं! चर्खा ही चल पाता है और चर्खा परेशान हो जाता है और वे गांधी नहीं हो पाते। रवींद्रनाथ होना ही कितना मुश्किल है! कितनी तुकबंदी चलती है, कितनी कविताएं रची जाती हैं, लेकिन काव्य का जन्म नहीं हो पाता। कितने लोग आंख बंद करके ध्यान करते हैं, पूजा करते हैं, उपवास करते हैं। अरविंद होना भी मुश्किल है।
लेकिन अगर गांधी गांधी हो सकते हैं, रवींद्र रवींद्र हो सकते हैं, अरविंद अरविंद हो सकते हैं, तो कोई भी कारण नहीं है कि कोई भी दूसरा व्यक्ति क्यों नहीं हो सकता है। मनुष्य का बीज समान है, उसकी संभावनाएं समान हैं, उसकी पोटेंशिएलिटी समान है। एक बार संकल्प हो तो परिणाम आने शुरू हो जाते हैं।
एक छोटी सी घटना, और अपनी बात मैं पूरी करूं। एक घटना मैं पढ़ रहा था, दो दिन हुए। अमेरिका का एक अभिनेता, फिल्म अभिनेता मरा। मरने के पहले उसने--कोई दस साल पहले--वसीयत की थी कि मुझे मेरे छोटे से गांव में ही दफनाया जाए।
लोग महात्माओं की वसीयतें नहीं मानते, अभिनेताओं की वसीयत कौन मानेगा? जब वह मरा तो अपने गांव से दो हजार मील दूर मरा। कौन फिकर करता? मरने के बाद महात्माओं की कोई फिक्र नहीं करता तो अभिनेताओं की कौन करता? उसको तो वहीं कहीं ताबूत में बंद करके दफना दिया। मरते क्षण भी उसने कहा कि देखो, मुझे यहां मत दफना देना, अगर मैं मर जाऊं। मैं आखिरी बार तुम से कह दूं कि मुझे मेरे गांव तक पहुंचा देना, जहां मैं पैदा हुआ था। उसी गांव में मुझे दफनाया जाए। वह मर गया। लोगों ने कहा, मरे हुए आदमी की क्या बात है! उसको ताबूत में बंद करके दफना दिया।
लेकिन रात ही भयंकर तूफान आया, उसकी कब्र उखड़ गई। उसकी कब्र के पास खड़ा हुआ दरख्त गिर गया। और उसका ताबूत समुद्र में बह गया और दो हजार मील ताबूत ने समुद्र में यात्रा की और अपने गांव के किनारे जाकर लग गया। और जब लोगों ने ताबूत खोला तो सारा गांव इकट्ठा हो गया। वह तो उनके गांव का बेटा था जो सारी दुनिया में जग-जाहिर हो गया था। उन्होंने उसे उसी जगह दफना दिया जहां वह पैदा हुआ था।
उस अभिनेता की जीवन-कथा मैं पढ़ रहा था। उसके लेखक ने लिखा है कि क्या यह उसके संकल्प का परिणाम हो सकता है? यह क्वेश्चन उठाया है।
अगर मैं आदमियों की तरफ देखूं तो शक होता है कि यह संकल्प का परिणाम कैसे हो सकता है? आदमी जिंदगी में जहां पहुंचना चाहता है वहां जिंदा रहते नहीं पहुंच पाता। यह आदमी मर कर जहां पहुंचना चाहता था कैसे पहुंच पाएगा? लेकिन दो हजार मील की यह लंबी यात्रा और अपने गांव पर लग जाना और उसी रात तूफान का आना, ऐसा भी नहीं मालूम पड़ता कि संकल्प से बिल्कुल हीन हो। संकल्प इसमें रहा होगा।
संकल्प की इतनी शक्ति है कि मुर्दा भी यात्रा कर सकता है, तो क्या हम जिंदे लोग यात्रा नहीं कर सकते? लेकिन हमने कभी यात्रा ही नहीं करनी चाही है, हमने कभी अपनी विल को ही नहीं पुकारा है। हमने कभी सोचा ही नहीं कि हम भी कुछ हो सकते हैं या हम भी कुछ होने को पैदा हुए हैं या हमारे होने का भी कोई गहरा प्रयोजन है। कोई गहरा बीज हममें छिपा है जो फूटे, वृक्ष बने और फूलों को उपलब्ध हो, हमें वह ख्याल ही नहीं है।
इस छोटी सी चर्चा में यह थोड़ा सा ख्याल मैं आपको देना चाहता हूं--कि पहले तो जन्म को जीवन मत समझ लेना और पशु न होने को मनुष्य होना मत समझ लेना, मनुष्य की शक्ल को मनुष्य की उपलब्धि मत समझ लेना। मनुष्य होने के लिए श्रम करना पड़ेगा, सृजन करना पड़ेगा, यात्रा करनी पड़ेगी। और मनुष्य होने के लिए शिव से शुरू मत कर देना, अन्यथा लंबी यात्रा हो जाएगी, जन्मों का भटकाव हो जाएगा। मनुष्य की यात्रा शुरू करनी हो तो सत्य से शुरू करना और शिवम तक फैलाना। और अंतिम बात कि सत्य भी मिल जाए, स्वयं भी मिल जाए, शिवम भी मिल जाए, सुंदरम भी मिल जाए, तो भी रुक मत जाना, यह भी पड़ाव नहीं है। मनुष्य के भी ऊपर जाना है। मनुष्य होना जरूरी है, लेकिन पर्याप्त नहीं है। मनुष्य के ऊपर उठ कर ही मनुष्यता का पूरा फूल खिलता और विकसित होता है।
मेरी ये थोड़ी सी बातें इतनी शांति और प्रेम से सुनीं, इससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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