चौथा प्रवचन-आलोक का दर्शन
प्रश्न-अस्पष्ट टेप रिकाडिंगउत्तर-कोई दूसरा प्रश्न पूछें, वे तीनों एक हीं हैं। एक ही बात पूछी गयी है, उसकी मैं चर्चा कर लेता हूँ। और सच में बहुत बातें कुछ पूछने को हैं भी नहीं। प्रश्न तो एक ही है मनुष्य आनन्द को कैसे खोजे? आत्मा को कैसे खोजे, सत्य को कैसे खोजे? और मैंने आपसे कहा कि उस खोज का जो माध्यम है, वह निर्विचार होना है। समाधि के माध्यम से सत्य का अनुभव होता है या आत्मा का अनुभव होता है।
समाधि का अर्थ है सारे विचारों का शून्य हो जाना। ये विचार कैसे शून्य हों, इसके दो रास्ते हैं। एक रास्ता तो यह है कि हम अपने भीतर विचार का पोषण न करें। हम सारे लोग विचार का पोषण करते हैं और संग्रह करते हैं। सुबह से सांझ तक हम विचार को इकट्ठा करते हैं और इकट्ठा कर रहे हैं, फिजूल का कचरा इकट्ठा कर रहे हैं यह कोई सार्थक बात भी इकट्ठी कर रहे हैं।
अगर मेरे घर में कोई कचरा फेंक जाये तो मैं झगड़ा करूंगा, लेकिन अगर कोई आदमी आकर दो घण्टे मेरे दिमाग में कोई विचार फेंक जाये तो मैं कोई झगड़ा नहीं करता। दुनिया में एक-दूसरे के मस्तिष्क में विचार फेंकने की पूरी स्वतन्त्रता है।
इससे खतरनाक और कोई स्वतन्त्रता नहीं हो सकती, क्योंकि मनुष्य का जितना घात ये विचार कर सकते हैं, उतना और कोई चीज नहीं कर सकती। हम इस भांति जाने-अनजाने, बिल्कुल मूर्छित अवस्था में, विचारों को इकट्ठा करते रहते हैं इन विचारों की पर्त पर पर्त, हमारे भीतर, पूरे चेतन-अचेतन मन पर इकट्ठी हो जाती है। उनकी इतनी गहरी दीवारें बन जाती हैं कि उनके भीतर प्रवेश करना मुश्किल हो जाता है। जब भी आप भीतर जयेंगे, वे ही विचार आपको मिल जायेंगे, आत्मा तक पहुंचना सम्भव नहीं होगा। ये विचार बीच में ही आपको रोक लेंगे, अन्दर नहीं जाने देंगे।
हर विचार अटकाता है और रोकता है, क्योंकि विचार उलझा लेता है। जब भी आप अपने भीतर प्रवेश करेंगे, तभी कोई-न-कोई विचार आपको रोक लेगा, आप उसी के अनुसरण में लग जायेंगे। जब तक विचार बीच में रहेंगे तब तक आपके पीछे नहीं जाने देंगे, वहीं रोक लेंगे। निर्विचार होने का आग्रह इसलिए है कि जब तक आप निर्विचार न हो जायें तब तक भीतर गति नहीं हो सकती। आप बीच में जायेंगे, बाहर आ जायेंगे। वह विचार आपको बहुत दूर ले जायेगा। उसके असोसिएशन्स होंगे, वह आपके दूर ले जयेगा। आप वहीं भटक जायेंगे, आप पूरे भीतर प्रवेश नहीं कर पायेंगे। हर आदमी भीतर जाता है, जितना ज्यादा विचारवान आदमी होता है, विचार से भरा होता है, उतने बाहर से ही लौट आता है। जितनी जल्दी कोई विचार उसको पकड़ लेता है, वह उतनी ही जल्दी वापस लौट आता है।
ब्रिटिश विचारक डेविड ह्यूम ने लिखा है कि मैंने यह सुनकर कि भीतर प्रवेश करना चाहिए, बहुत बार भीतर प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन जब भी मैं भीतर गया, मुझे आत्मा तो नहीं मिली, कोई विचार मिल जाता था, कोई कल्पना मिल जाती थी, कोई स्मृति मिल जाती थी। आत्मा नहीं मिली। मैं बहुत बार भीतर गया, ये ही मुझे मिले। उसने ठीक लिखा है। उसका अनुभव गलत नहीं है। आप भी अपने भीतर जायेंगे तो यही मिल जायेंगे और ये आपको बाहर ले आयेंग। तो जिसको भीतर जाना हो, पूरे भीतर जाना हो, उसे बीच की इन सारी बाधाओं को अलग कर देना जरूरी है।
तो पहली बात यह है कि जिसे निर्विचार होना हो, उसे व्यर्थ के विचारों को लाना बन्द कर देना चाहिए। उसकी सजगता उसके भीतर होनी चाहिए। कि यह व्यर्थ कि विचारों का पोषण न करे, उन्हें अंगीकार न करे, उन्हें स्वीकार न करे और सचेत रहे कि भीतर विचार इकट्ठे न हो जायें। इसे करने के लिए जरूरी होगा कि विचारों मे जितना भी रस हो, उसको छोड़ दें। हमें विचारों में बहुत रस आता है। अगर आप एक धर्म को मानते हैं तो धर्म के विचारों में जितना भी रस हो, उसको छोड़ दें। जिसे निर्विचार होना हो, उसे विचारों के प्रति विरस हो जाना चाहिए, उसे किसी विचार से कोई प्रयोजन नहीं, इसलिए उसमें कोई रस रखने का कारण नहीं, इसलिए कैसे वह विरस होगा, उन्होंने पूछा है कि कैसे यह सम्भव होगा?
यह सम्भव होगा विचारों के प्रति जागरूकता से। अगर हम अपने विचारों के साक्षी बन सकें और यह बन सकना कठिन नहीं है। अगर हम अपने विचारों की धारा को दूर खड़े होकर देखना शुरू करें तो क्रमशः जिस मात्रा में आपका साक्षी होना विकसित होता है, उसी मात्रा में विचार शून्य होने लगते हैं।
बुद्ध के एक शिष्य था श्रोण। वह राजकुमार था। मुझे उसकी कथा इसलिए प्रिय रही कि मैंने सारे मुल्क में बार-बार उसे कहा और मुझे उसके मुकाबले कोई भी बात नहीं दिखाई पड़ती। वह राजकुमार था, वह दीक्षित होकर भिक्षु हो गया। पहले दिन जब वह भिक्षा मांगने जाने लगा तो बुद्ध ने उससे कहा कि अभी तुझे भिक्षा मांगने का ज्ञान नहीं। कल तक राजकुमार था, आज भिक्षा के पात्र को ले जायेगा। पता नहीं कैसा तुझे लगे, इसलिएा मैंने अपनी एक श्राविक से कहा है कि जब तक तू भिक्षा के मांगने में निष्णात न हो जाये, तब तक भोजन वही कर लेना। अभी तू भिक्षा मत मांग, वहां जाकर भोजन कर आ।
वह राजकुमार श्रोण, जो कि संन्यासी हो गया था, उस श्राविका के घर भोजन करने गया। कोई दो मील का फासला था, वह रास्ते भर बहुत बातें सोचने लगा। उसे ख्याल आया उन भोजनों का, जो उसे प्रिय थे। उसने आज सोचा, आज पता नहीं कैसा अप्रिय भोजन मिले, कैसा अरुचिकर भोजन मिले, कैसा रूखा-सूखा मिले। उसे जो-जो प्रिय भोजन थे, वे सब स्मरण आये और यह भी ख्याल आया कि उनके मिलने की सम्भावना इस जीवन में दोबारा नहीं है। लेकिन जब वह श्राविका के घर पहुँचा और भोजन के लिए बैठा तो देखकर हैरान हुआ कि उसकी थाली में वे ही भोजन थे, जो उसे प्रिय थे। उसे बड़ी हैरानी हुई, उसे बहुत अचम्भा हुआ। फिर उसने सोचा, शायद यह संयोग की ही बात होगी कि आज ये भोजन बने हैं। उसने चुपचाप भोजन किया। जब वह भोजन कर रहा था, तो उसे यह ख्याल आया कि अब यह भोजन करने के बाद, फिर यह दो मील रास्ता दोपहरी में तय करना है। और आज तक ऐसा मैंने कभी नहीं किया। भोजन के बाद मैं विश्राम करता था। अब वह श्राविका पंखा करती थी। उसने कहा भन्ते! अगर भोजन के बाद थोड़ी देर विश्राम करें तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी। वह फिर थोड़ा हैरान हुआ। उसे लगा कि मैंने सोचा था, संयोग की बात होगी, मैंने सोचा। उसी वक्त उसने एक चटाई डाल दी। लेटते ही उसे ख्याल आया कि आज न अपनी कोई साया है, न कोई शैया है। वह श्राविका पीछे थी। उसने कहा भन्ते! शैया न तो आपकी है, न मेरी है। न साया आपका है, न मेरा है।
वह घबड़ाकर बैठ गया। उसने कहा बात क्या है, क्या मेरे विचार पढ़ लिये जाते हैं? उस श्राविका ने कहा ध्यान का अभ्यास करने से, पहले तो अपने विचार दिखाई देने शुरू हुए, फिर अपने विचार समाप्त हुए। अब दूसरे के भी विचार दिखाई देने शुरू हो गये। वह उठकर बैठ गया। उसने कहा अब जाऊं? उस श्राविका ने कहा आप विश्राम करें, अभी न जायें।
उसने जाकर बुद्ध से कहा कि मैं कल से उस श्राविका के यहाँ भोजन करने नहीं जा सकता। बुद्ध ने कहा क्या बात है? वह युवक कहने लगा बात! मेरा कोई अपमान नहीं हुआ, बड़ा स्वागत हुआ, बहुत सम्मान हुआ, लेकिन मैं नहीं जाऊंगा। आप छोड़ दें उस बात को। उस श्राविका के यहाँ मैं नहीं जाऊंगा। बुद्ध ने कहा बिना जाने मैं कैसे छोड़ सकता हूँ? वह युवक बोला जानने की बात यह है कि मैं उसके घर गया। वह विचार पढ़ने में समर्थ है। और उस सुन्दर युवती को देखकर मेरे मन में विकार और वासना भी उठी तो वह भी पढ़ ली गयी। अब मैं कल उसके द्वार पर कैसे जा सकता हूँ। और कौन-सा मुंह लेकर जाऊंगा।
बुद्ध ने कहा मैंने जानकर तुझे वहां भेजा है। वही तुम्हारी साधना का हिस्सा है। कल भी तुम्हें वहीं जानना होगा और परसों भी तुम्हें वहीं जाना होगा। और उसके बाद के दिनों में भी तुमको जाना होगा उस दिन तक, जब कि तुम उस द्वार से निर्विचार होकर न लौटो। मजबूरी थी, उस भिक्षु को वहाँ जाना पड़ा। बुद्ध ने कहा एक स्मरण रखना, किसी विचार से लड़ना मत, किसी विचार से संघर्ष मत करना, किसी विचार के विरोध में खड़े मत होना। एक ही काम करना कि जब तू रास्ते से जाए तो अपने भीतर सजगता रखना और जो भी विचार उठते हों, उनको देखते जाना। सिर्फ देखते हुए जाना और कुछ भी मत करना। तुम्हारा निरीक्षण, तुम्हारा आब्जर्वेशन बना रहे, तुम देखते रहो। अनदेखा कोई विचार न उठे, बेहोशी में कोई विचार न उठे। तुम्हारी आंख भीतर गड़ी रहे और तुम देखते रहो कि कौन विचार उठ रहे हैं। सिर्फ निरीक्षण करना, लड़ना मता
वह युवक गया। जैसे-जैसे उस महिला का द्वार करीब आने लगा, मकान करीब आने लगा, उसकी घबराहट और बेचैनी बढ़ने लगी। जैसे-जैसे बेचैनी बढ़ने लगी, वैसे-वैसे वह सजग होने लगा। वैसे-वैसे भय का बिन्दु करीब आने लगा, वह महिला करीब ही होगी, जो पढ़ सकती है, वैसे-वैसे वह अपनी आंख को भीतर खोलने लगा।
जब वह सीढ़ियां चढ़ता था, उसने पहली सीढ़ी पर पैर रखा, उसने अपने भीतर देखा तो उसके भीतर कोई विचार नहीं। उसने दूसरे सीढ़ी पर पैर रखा, भीतर बिल्कुल सन्नाटा मालूम पड़ा। उसने तीसरी सीढ़ी पर पैर रखा, उसे दिखाई पड़ा, अपने आर-पार देख रहा हूँ, वह एकदम खाली पड़ा हैं, वहाँ कोई विचार नहीं है। वह बहुत घबराया। ऐसा उसने कभी अनुभव नहीं किया था कि बिल्कुल विचार ही न हों और जब विचार बिल्कुल न थे तो उसे ऐसा लगा जेसे हवा हो गया हो हलका हो गया हों वह गया और उसने भोजन किया, फिर नाचता हुआ वापस लौटा।
उसने बुद्ध के पैर पकड़ लियें उसने बुद्ध से कहा अद्भुत अनुभव हुआ। जब मैं उसकी सीढ़ियों पर पहुंचकर भीतर बिल्कुल सजग हो गया, सचेत हो गया, होश से भर गया तो मैं हैरान हो गया। एक भी विचार न था, सब विचार शून्य हो गये।
बुद्ध ने कहा विचार से शून्य होने का उपाय, विचार के प्रति पूरा सजग होना है। जो व्यक्ति जितना सजग हो जायेगा, विचारों के प्रति, उतने ही विचार, उसकी भांति उसके मन में नहीं आते, जैसे घर में दीया जलता हो तो चोर नही आते। घर में अन्धकार हो तो चोर घर के अन्दर आते हैं? भीतर जो होश को जगा लेता है, उतना ही विचार क्षीण हो जाते हैं। जितनी मूर्च्छा होती है भीतर, जितना सोयापन होता है भीतर, उतना ज्यादा विचारों का आक्रमण होता है। जितना जागरण होता है उतने ही विचार क्षीण हो जाते हैं।
निर्विचार होने का उपाय है, विचारों के प्रति साक्षी भाव को साधना कोई एक क्षण में सध जायेगा, यह मैं नहीं कहता, एक दिन में सध जायेगा, यह भी नहीं कहता। लेकिन अगर निरन्तर प्रयास हो तो थोड़े ही दिनों में अपको पता चलेगा कि जैसे- जैसे आप विचारों को देखने लगेंगे कभी घण्टे भर को किसी एकान्त कोने में बैठ जायें और कुछ भी न करें, सिर्फ विचारों को देखें, कुछ भी न करें उनके साथ, कोई चेष्टा न करें सिर्फ उन्हें देखें अगर तो देखते देखते ही धीरे-धीरे आपको पता चलेगा कि वह कम हो रहे हैं। देखना जैसे-जैस गहरा होगा, वैसे-वैसे वह बिन्दु दिखाई पड़ेगा। जिस दिन देखना पूरा हो जायेगा, उस दिन आप अपने भीतर आर-पर देख सकेंगे।। जिस दिन आप की आंख बन्द होगी और आपकी दृष्टि पूरी की पूरी भीतर देख रही होगी, उस दिन आप पायेंगे, कोई विचार का कोलाहल नहीं, वे गये और जब वे चले गये होंगे, उसी शान्त क्षण से आपको एक अन्भुत दृष्टि, अद्भुत दर्शन, अद्भुत आलोक का अनुभव होगा। वह अनुभव ही सत्य का दर्शन है और वही अनुभव स्वयं का दर्शन है।
स्वयं के माध्यम से ही सत्य को जाना जाता है। और कोई द्वार नहीं है। स्वयं के द्वार से ही सत्य को जाना जाता है। और सत्य को जान लेना, आनन्द में प्रतिष्ठित हो जाता हैं असत्य में होना दुख में होना है, अज्ञान में होना है। सत्य की उस ज्ञान-दशा में आनन्द उपलब्ध होता हैं आनन्द और आत्मा को अलग न समझें, आनन्द और सत्य को अलग नसमझें स्वयं और सत्य को अलग न समझें। ऐसी प्रक्रिया का उपयोग जो क्रमशः अपने जीवन में करेगा, वह कभी निर्विचार को अनुभव कर लेगा। निर्विचार को जो अनुभव कर लेता है, उसकी पूरी विचार की शक्ति जागृत हो जाती है, उसे आंख मिल जाती है। जैसे किसी ने अंधेरे में प्रकाश कर दिया हो, जैसे किसी अन्धे को आंख मिल जाती हैं, वैसा उसे अनुभव होता है।
प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी है और हकदार है। जो अपने अधिकार को मांगेगा, उसे मिल जायेगा। जो उसे छोड़ेगा, वह खो देगा।
आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं कि अगर हमें इंजीनियरिंग सीखनी हो, टेक्नोलॉजी सीखनी हो तो हमें दूसरों के विचार स्वीकार करने होंगे। लेकिन अगर हमें प्रेम सीखना हो तो हमें दूसरों का विचार नहीं लेना होगा। टेक्नोलॉजी में और धर्म में यही अन्तर है। जो चीज सीखी जा सकती है, वह पदार्थ से सम्बन्धित है और जो चीज नहीं सीखी जा सकती है, वह पदार्थ नहीं है। परमात्मा को सीखा नहीं जा सकता, नहीं ता कोई स्कूल-कॉलेज खोलने में मामला आसान हो जाता है।
इस बात को स्मरण रखिये कि साइंस सीखी जा सकती है। साइंस दूसरों के अनुभव का निचोड़ है, धर्म नहीं। धर्म अपना अनुभव हैं यहीं धर्म और साइंस बड़े विपरीत हैं। साइस हमेशा परम्परा है, धर्म परम्परा नहीं है। साइंस वह है कि एक वैज्ञानिक दूसरे वैज्ञानिक के कन्धे पर खड़ा होता है। धर्म यह है कि अपने ही पैरों पर खड़ा होना चाहता है। न्यूटन को हटा दें तो आइंसटीन को खड़े होने की जगह न रह जायेगी। महावीर, बुद्ध को हटा दें, फिर भी मैं खड़ा हो सकता हूँ। धर्म निजी और वैयक्तिक अनुभव है, साइंस सामाजिक अनुभव है। इसलिए साइंस सीखी जाती है। उसके कॉलेज और विद्यालय हो सकते हैं। सत्य नहीं सीखा जा सकता। सत्य को स्वयं साधा जाता है। वह हमेशा निजी है। साइंस की दिशा अलग है, धर्म की दिशा अलग। मैं सोचता हूँ, समय नहीं है, अन्यथा मैं इस पर और विस्तार से बात करता। फिर भी मैं समझता हूँ, शायद मेरी बात थोड़ी-बहुत साफ हो सकती है।
पूछा गया है कि जो आदमी विचार नहीं करते, क्या वे आत्मज्ञान और आनन्द को उपलब्ध होते हैं?
बहुत अच्छी बात पूछी है। निर्विचार होने में और विचारहीन होने में फर्क है। निर्विचार होने का अर्थ है, विचारों का स्वयं त्याग किया। निर्विचार होने से विचारहीन नहीं हो जाते आप, परिपूर्ण विचार को उपलब्ध होते हैं। मैंन कहा, निर्विचारणा विचारशक्ति के परिपूर्ण जागरण का उपाय है। विचारहीन होन को नहीं कह रहा हूँ, निर्विचार होने को कह रहा हूँ। अविवेक के लिए नहीं कह रहा हूँ, पूरा विवेक जगाने के लिए कह रहा हूँ। पशुओं में विचारणा नहीं हैं, वे विचार नहीं कर पाते। मनुष्यों में विचार हैं, वे विचारहीनता को उपलब्ध होते हैं। इसलिए एकदम अबोध व्यक्ति और परिपूर्ण आदमी में समानताएं मालूम पड़ती है। एकदम अज्ञानी में और परमज्ञानी में समानताएं मालूम पड़ती है। और अनेक दफा भूल हो जाती है। उसका कारण है कि दो परिपूर्णताएं एक जगह जाकर मिलती हैं। वह भी अबोध मालूम होगा। परम ज्ञानी भी अबोध मालूम होता है। अत्यन्त बोध के कारण। बहुत प्रकाश हो जाये तो आंख अन्धी हो जाती है। अत्यधिक प्रकाश हो तो आंख बन्द हो जाती है। बिल्कुल प्रकाश न हो तो अन्धकार हो जाता है।
लेकिन बहुत प्रकाश से पैदा हुआ जो अन्धकार है, उसकी गरिमा अलग है। इसी भांति विचार से निर्विचार को उपलब्ध होना बहुत अलग बात है। वह विचारहीनता नहीं है, वह विचारशून्यता है।
प्रश्न-अस्पष्ट टेप रिकार्डिंग
ध्यान में मेरा प्रयोजन चित्त की ऐसी अवस्था से हैं, जहाँ कोई शंका, जहां कोई प्रश्न, जहाँ कोई जिज्ञासा शेष न रह जाये। हम जीवन सत्य के संबंध में कुछ न कुछ पूछ रहे हैं। ऐसा मनुष्य निरन्तर खोजना कठिन है।, जो जीवन के सत्य के सम्बन्ध में किसी जिज्ञासा को न लिये हो। न तो हमें इस बात का कोई ज्ञान है कि हम कौन हैं, न हमें इस बात का कोई ज्ञान है। कि हमारे चारों ओर फैला जगत क्या है। हम जीवन के बीच में अपने को पाते हैं, बिना किसी उत्तर के, बिना किसी समाधान के। चारों तरफ प्रश्न हैं और उनके बीच में मनुष्य अपने को घिरा हुआ पाता है। इन प्रश्नों में कुछ तो अत्यन्त जीवन की बुनियाद से सम्बन्धित हैं, जैसे मैं क्यों हूँ? मेरी सत्ता क्यों हैं? मेरे होने की क्या आवश्यकता है? क्या अनिवार्यता हैं? और फिर मैं कौन हूँ? और मैं जन्म हूँ या मृत्यु हूँ? जीवन का यह सारा व्यापार क्यों हैं? यह जिज्ञासा, यह प्रश्न प्रत्येक व्यक्ति के मन में, चाहे वह किसी धर्म में पैदा हो, चाहे किसी देश में पैदा हो उठता है।
इस जिज्ञासा को हल करने के दो रास्ते हो सकते हैं। एक रास्ता है फिलॉसफी या तत्त्वज्ञान का कि हम सोचें और विचार करें कि हम कौन हैं, किसलिए हैं और जीवन की पहेली के सम्बन्ध में चिन्तन के माध्यम से समाधान खोजें। इस भांति जो समाधान खोजा जायेगा, वह बौद्धिक होगा। विचार करके हम निर्णय करेंगे। पश्चिम ने वैसा रास्ता पकड़ा पश्चिम में फिलॉसफी का जन्म चिन्तन के माध्यम से, विचार के माध्यम, सत्य को जानने की चेष्टा से हुआ। भारत में फिलॉसफी जैसी कोई चीज पैदा नहीं हुई। जो लोग भारतीय दर्शन को भी फिलॉसफी कहते हैं। वह नितान्त भूल में हैं, वह शब्द पर्यायवाची नहीं। पश्चिम में उन्होंने सोचा कि विचार के बाहर, हम सत्य के किसी निष्कर्ष पर पहुँच जायेंगे। पिछले ढ़ाई हजार वर्षों में वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे। एक चिन्तक दूसरे चिन्तक से सहमत नहीं होता। एक चिन्तक युवा अवस्था में जो कहता है, बुढ़ाप में स्वयं ही उसे बदल देता है। आज जो कहा गया, कल वह परिवर्तित हो जाता है। चिन्तन शाश्वत और नित्य-सत्य पर नहीं ले जा सका।
असल में विचार ले ही नहीं जा सकता है। विचार का अर्थ है। हम उन बातों के सम्बन्ध में सोच रहे हैं जो अननोन हैं, अज्ञात हैं। जैसे मुझे प्रीतिकर लगता है, मैं कहूं, जैसे अन्धा प्रकाश के सम्बन्ध में विचार करे। तो विचार करेगा क्या? आंख जिनके पास नहीं है, उसके पास प्रकाश के सम्बन्ध में विचार करने का कोई उपाय भी नहीं हैं कोई धारण, कोई कन्सेरूट, वह प्रकाश का नहीं बना सकता। उसका चिन्तन सब अंधेरे में टटोलना हो जायेगा।
शायद आपको यह ख्याल हो कि अन्धे को कम से कम अन्धेरा तो दिखता होगा। सोच सकता है, अंधेरे के विपरीत जो है, वह होगा। लेकिन आपको स्मरण दिलाऊं अन्धे को अंधेरा भी दिखता नहीं, क्योंकि अंधेरा देखने के लिए भी आंख चाहिए। न अन्धे को अंधेरे का पता है न प्रकाश का पता। उसे विपरीत का भी पता नहीं है। इसलिए प्रकाश के सम्बन्ध में कोई धारणा बनाने की सुविधा उसे नहीं है।
जीवन के सत्य के प्रति हम लगभग अन्धे हैं। हम जो भी सोचेंगे, जो भी विचार करेंगे, वह हमें किसी समाधान पर ले जाने वाला नहीं है। इसलिए भारत ने एक बिल्कुल नया दृष्टिकोण, एक नया द्वार खोलेन की कोशिश की। वह द्वार चिन्तन का नहीं, दर्शन का हैं वह फिलॉसफी का नहीं, दर्शन का है। दर्शन का अर्थ है, हम सत्य को देखना चाहते हैं। विचारना और देखना ये दोनों बहुत अलग बातें हैं। हम सत्य को देखना चाहते हैं।
अगर देखना चाहते हैं तो प्रश्न की भूमिका बदल जायेगी। तब तर्क सहयोगी न होगा। चिन्तन का सहयोगी है तर्क, लॉजिक और अगर दर्शन देखना है तो तर्क सहयोगी न होगा। तब सहयोगी होगा योग। इसलिए पूरब में दर्शन के साथ योग विकसित हुआ, पश्चिम में फिलॉसफी के साथ तर्क विकसित हुआ। तर्क पृष्ठभूमि हैं चिन्तन की, योग पृष्ठभूमि हैं दर्शन की। देखने तक अगर प्रश्न अटक गया तो सवाल यह नहीं है। कि वहां ईश्वर या आत्मा जैसा कोई है। सवाल यह है कि मेरे पास उसके प्रति संवेदित होने को आंख तैयार नहीं है। असली सवाल तर्क का, सत्य का न होकर आंख का हो जायेगा। अगर मेरे पास आंख है तो जो भी है, उसे मैं देख सकूंगा और अगर मेंरे पास आंख नहीं है तो जो भी होगा, वह मेरे लिए अज्ञात हो जायेग। इसलिए भारतीय दर्शन केन्द्रित हो गया मनुष्य के भीतर, अन्तक्षु के विकास पर।
बुद्ध के जीवन में उल्लेख है मौलुकपुत्त नाम के एक युवक ने जाकर, बुद्ध से ग्यारह प्रश्न पूछे। उन ग्यारह पश्नों में जीवन के सारे प्रश्न आ जाते हैं। उन ग्यारह प्रश्नों में तत्त्व-चिन्तन जिन्हें वे सोचता हैं वे सारी समस्याएं आ जाती हैं। बहुत मीठा संवाद हुआ। मौलुकपुत ने अपने प्रश्न पूछे बुद्ध ने कहा मेरी एक बात सुनोगे? छह महीने, साल भर मेरी प्रतीक्षा कर सकते हों? अच्छा हो कि साल भर मेरे पास रुक जाओ, साल भर बाद पूछ लेना, मैं तुम्हें उत्तर दें दूंगा। मौलुकपुत्त ने कहा अगर उत्तर आपको ज्ञात है तो अभी दे दें और अगर ज्ञात नहीं है तो स्पष्ट अपने अज्ञान को स्वीकार कर लें। मैं लौट जाऊं। साल भर आपको चिन्तन करना होगा, तब आप उत्तर देंगे।
बुद्ध ने कहा इससे पहले भी यह प्रश्न तुमने किसी से पूछे थे? मौलुकपुत्त ने कहा-अनेक से, लेकिन उन सभी ने तत्काल उत्तर दे दिये थे। किसी ने यह नहीं कहा कि इतने दिन रुक जाओ। बुद्ध ने कहा। अगर वे उत्तर उत्तर थे तो तुम अब भी उन्हीं प्रश्नों को क्यों पूछते चले जाते हो? अगर वे उत्तर वस्तृतः उत्तर बन गये होते तो अब तुम्हें दोबारा उन्हीं प्रश्नों को पूछने की जरूरत न रह जाती। इतना तो निश्चित है कि तुम फिर उन्हीं को पूछे रहे हो। जो उत्तर तुम्हें दिये गये, वे उत्तर साबित नहीं हुए। मैं भी तुम्हें तत्काल उत्तर दे सकता हूँ, लेकिन वे उत्तर व्यर्थ हैं। असल में, किसी भी दूसरे के दिये गये उत्तर व्यर्थ हैं। उत्तर तुममे पैदा होने चाहिए। इसलिए मैं कह रहा हूँ कि वर्ष भर रुक जाओ।
बुद्ध का एक शिष्य था, आनन्द। वह यह बात सुनकर हंसने लगा। उसने मौलुकपुत्त से कहा कि तुम इनकी बातों में मत आना। मैं बीस वर्षों से इनके निकट हूँ। अनेक लोग आये और उन अनेक लोगों ने अनेक प्रश्न पूछे। बुद्ध सबसे यही कहते है, एक वर्ष रुक जाओ, दो वर्ष रुक जाओं मैं प्रतीक्षा करता रहा। वर्ष भर बाद, दो वर्ष बाद वह पूछेंगे और हमें बुद्ध से उत्तर ज्ञात हो सकेंगे। लेकिन न मालूम क्या होता है, वर्ष भर बाद, दो वर्ष बाद, लोग पूछते नहीं और आज तक पता नहीं चल पाया कि बुद्ध के उत्तर क्या हैं। इसलिए अगर पूछना हो तो अभी पूछ लो, नहीं तो वर्ष भर बाद तुम पूछोगे हीं नहीं।
बुद्ध ने कहा मैं अपने वचन पर दृढ़ रहूंगा। तुम पूछोगे तो उत्तर दूंगा। तुम पूछो ही न बात अलग है। मौलुकपुत्त वर्ष भर रूका। वर्ष भर बाद बुद्ध ने कहा पूछते हो? वह हंसने लगा। वह बोला अब पूछने की कोई जरूरत नहीं।
भारत की पूरी की पूरी जो पकड़ है, जो एप्रोच है सत्य के प्रति, वह बाहर से उत्तर उपलब्ध करने की नहीं, भीतरी द्वार खोलने की है। उस द्वार के खुलने पर, प्रश्नों के पर्टीकुलर उत्तर मिलते हैं ऐसा नहीं, असल में प्रश्न गिर जाते हैं। प्रश्नों का उत्तर मिलना एक बात है और प्रश्नों का गिर जाना, बिल्कुल दूसरी भूमिका की बात है। उत्तर का मिलना महत्त्वपूर्ण नहीं है, प्रश्न का गिर जाना महत्त्वपूर्ण है। हमारे मुल्क के लम्बे यौगिक प्रयोंगों ने कुछ निष्कर्ष दिये हें। उनमें से एक निष्कर्ष यह है कि प्रश्न हमारे अशान्त चित्त की उत्पत्ति है। चित्त शान्त हो जाये तो प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। समस्त प्रश्न हमारे अशान्त, उद्विग्न चित्त की उत्पत्ति हैं। ईश्वर के सम्बन्ध में, जन्म के संबंध में मृत्यु के सम्बन्ध में, समस्त प्रश्न, मात्र अशान्त चित्त की उत्पत्ति हैं। चित्त शान्त हो जाये तो प्रश्न विसर्जित हो जाते हैं। निष्प्रश्न हो जाना ज्ञान को उपलब्ध हो जाना है। प्रश्नों के बहुत उत्तर याद कर लेना बौद्धिक है, प्रश्नों का विसर्जन आत्मिक है।
जिसे मैं ध्यान कह रहा हूँ, उससे प्रश्नों का कोई विशेष उत्तर नहीं मिलेगा, क्रमशः धीरे-धीरे प्रश्न विसर्जित हो जायेंगे। एक निष्प्रश्न चित्त की स्थिति बनेगी, वही समाधान है, वही समाधि है। जहां कोई प्रश्न खोजने से न उठे, जहां जीवन के प्रति कोई जिज्ञासा जागृत न हो, जहां कोई उद्विग्नता, जहां कुछ अज्ञान-सा प्रतीत न हो, जहां कुछ भी मुझे जानना है। ऐसी उत्तेजना शेष न रह जाये, उसी क्षण, प्रश्नों के गिर जाने की निशशंक, निस्सदिग्ध हो जाने की इस स्थिति में सत्य का साक्षात होता है। प्रश्नों के होने पर सत्य खोजा नहीं जा सकता, प्रश्नों के गिर जाने पर सत्य प्रकट होता हैं इसलिए हम समाधि को समाधान कहते हैं।
समाधि का अर्थ ही समाधान है। यह समाधान कोई दूसरा व्यक्ति किसी को दे सकता है? अगर कोई ऐसा कहता हो तो वह वंचना कर रहा है। यह समाधान कोई दूसरा आपको दे सकता है, ऐसा कोई दावा करता हो तो वह आपके अज्ञान का पोषण कर रहा है। इसलिए कोई तीर्थकर, कोई अवतार, कोई पैगम्बर यह दावा नहीं करता है कि मैं आपको ज्ञान दे सकता हूं। वह केवल इतना कह सकता है कि मुझे ज्ञान कैसे उपलब्ध हुआ, उसकी विधि की मैं चर्चा कर सकता हूँ। जिनको ठीक प्रतीत हो वे उसाक उपयोग कर लें।
ज्ञान दिया नहीं जा सकता। मैं कैसे ज्ञान तक पहुंचा, इसकी विधि की चर्चा की जा सकती है। सत्य नहीं दिया जा सकता, सत्य का अन्तः साक्षात कैसे हुआ, उस "कैसे" का उत्तर दिया जा सकता है। "सत्य क्या है" इसका उत्तर नहीं, "सत्य का कैसे साक्षात हुआ" इस का उत्तर दिया जा सकता है। जो "क्या" का उत्तर देते हैं उपलब्धि पर, वे चिन्तक हैं, जो "कैसे" का उत्तर देते हैं, वे योगी हैं। योग "कैसे" का उत्तर है अन्तचक्षु कैसे खुल सकते हैं और जो भी सत्ता है, उसके हम आमने-सामने कैसे खड़े हो सकते हैं? उस सत्ता से एन्काउण्टर कैसे हो सकता है? उस सत्ता से साक्षात कैसे हो सकता है? अगर यह बात समझ में आ जायें तो प्रश्न खोजने और उत्तर खोजने की दिशा व्यर्थ हो जायेगी। तब प्रश्न को विसर्जित करने की दिशा सार्थक होगी।
जिसको मैं ध्यान कह रहा हूँ, वह प्रश्नों को विसर्जित करने की दिशा है। प्रश्न हैं, क्योंकि विचार हैं। प्रश्न हैं क्योंकि चित्त में विचार हैं। अगर विचार न रह जायें तो प्रश्न भी नहीं रह जायेंगे। निर्विचार चित्त में कौन-सा प्रश्न उठेगा और कैसे उठेगा? प्रश्न का ढांचा तो विचार से बंधा हैं। अगर विचार शून्य हो जायें चित्त में तो कोई प्रश्न न उठेगा, कोई जिज्ञासा जागृत न होगी।
उस शान्त क्षण में, जहां कोई जिज्ञासा, कोई प्रश्न नहीं उठ रहा, कुछ अनुभव होगा। जहां विचार नहीं रह जाते, वहां अनुभव का कारण होता है। जहां तक विचार हैं, वहां तक अनुभव का कारण नहीं होता। जहां विचार निःशेष हो जाते हैं, वहां भाव का जागरण होता है, वहां दर्शन का प्रारम्भ होता है। विचार परदे की तरह हमारे चित्त को घेरे हुए हैं। विचार में हम इतने तल्लीन हैं, इतने ऑकुपाइड हैं, इतने व्यस्त हैं कि विचार के अतिरिक्त जो पीछे खड़ा है, उसे देखने का अन्तराल, उसे देखने का रिक्त स्थान नहीं मिलता। विचार में अत्यन्त ऑकपुइड होने, अत्यन्त व्यस्त होने, अत्यन्त संलग्न होने के कारण पूरा जीवन उन्हीं में चिन्तित रहते हुए बीत जाता है। उनके पार कौन खड़ा है, इसकी झलक भी नहीं मिलती। इसलिए ध्यान का अर्थ है, पूरी तरह अनऑकुपाइड हो जाना, व्यस्तता से रहित हो जाना।
तो अगर हम अरिहन्त-अरिहन्त का स्मरण करें, राम-राम का स्मरण करें तो वह तो ऑकुपेशन ही होगा। वह तो फिर एक व्यस्तता हो जायेगी। वह तो एक काम हो गया। अगर हम कृष्ण की मूर्ति या महावरी की मूर्ति का स्मरण करें, उनके रूप का स्मरण करें तो वह भी व्यस्तता है। वह ध्यान नहीं होगा। कोई नाम, कोई रूप, कोई प्रतिमा, अगर हम चित्त में स्थापित करें तो वह भी विचार हो गया, क्योंकि विचार के सिवाय चित्त में कुछ और स्थिर नहीं होता। चाहे वह विचार भगवान का हो चाहे सामान्य काम का हो, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। चित्त विचार से भरता हैं चित्त को निर्विचार, चित्त का अनऑकुपाइड छोड़ देना ही ध्यान हैं और इस ध्यान को ही पूजा या इबादत कहा जाता है।
पिछली बार जब मैं आया था, तब मैंने एक जापानी साधु के बाबत आपसे कहा था सम्भवतः रिंझाई नाम का वहां एक साधु हुआ। उसके आश्रम को देखने, जापान का बादशाह एक दफा गया। बड़ा आश्रम था, उसमें कोई पांच सौ भिक्षु थे। वह साधु एक-एक स्थान को दिखाता हुआ घूमा कि यहाँ यहाँ साधु भोजन करते हैं, यहाँ निवास करते हैं, यहां अध्ययन करते हैं। सारे आश्रम के बीच में एक बहुत बड़ा भवन था। सबसे सुन्दर, सबसे शान्त, सबसे विशाल। वह राजा बार-बार पूछने लगा। और यहां साधु क्या करते हैं? वह कहने लगा, वहां के विषय में बाद में बात करेंगें। बगीचा, लाइब्रेरी, अध्ययनकक्ष, सब बताता है। राजा बार-बार पूछने लगा और यहां साधु क्या करते हैं, यह जो बीच में भवन हैं? साधु बोला थोड़ा ठहर जायें। उसके सम्बन्ध में बाद में बात कर लेंगे। जब पूरा आश्रम घूमकर, राजा वापस होने लगा। तब उसने दुबारा पूछा यह बीच का भवन तो छूट ही गया, यहां साधु क्या करते हैं? आश्रम के प्रधान ने कहा उसको बताने को, इसलिए मैं रुका कि वहां साधु कुछ करते नहीं। वहां साधु अपने को "न" करने की स्थिति में छोड़ते हैं। वह ध्यान-कक्ष हैं। वहां कुछ करते ही नहीं हैं बाकी पूरे आश्रम में काम होता है, केवल वहां काम छोड़ा जाता है। बाकी पूरी आश्रम में क्रियाएं होती हैं, वहां क्रियाएं नहीं की जाती। जब किसी को क्रिया छोड़नी होती है। तो वहां चला जाता है। सारी क्रियाएं छोड़कर चुप हो जाता है।
ध्यान अक्रिया है, कोई क्रिया नहीं है। कि हम सोचें कि वहां कोई काम है कि हम बैठे हैं और काम कर रहे हैं। अगर काम कर रहे हैं तो वह ध्यान नहीं है। ध्यान का अर्थ है जो निरन्तर काम चल रहा हैं चित्त में, उसको विराम दे देना है। कोई काम नहीं करना है। चित्त को बिल्कुल क्रियाशून्य छोड़ देना है। चित्त की क्रियाशून्य स्थिति में क्या होगा? क्रियाशून्य स्थिति में भीतर कुछ होगा, केवल दर्शन रह जायेगा, केवल देखना रह जायेगा। इस स्थिति में जो हमारा भाव है, वही केवल रह जायेगा। दर्शन-ज्ञान हमारा स्वभाव है। हम सब छोड़ सकते हैं, ध्यान और दर्शन नहीं छोड़ सकते हैं। सतत चौबीस घण्टे, ज्ञान हमारे साथ मौजूद हें जब गहरी नींद सोते हैं, तब भी स्वप्न का हमें पता होता है। जब स्वप्न भी विलीन हो जाते हैं और सुषुप्ति होती है, तब भी हमें इस बात का पता होता है कि बहुत आनन्दपूर्ण निद्रा है। सुबह उठकर हम कहते हें, रात्रि बहुत आनन्द से बीती। कोई हमारे भीतर उस समय भी चैतन्य है। उठते-बैठते, सोते-जागते, काम करते, न काम करते हमारे भीतर एक तत अविच्छिन्न ज्ञान का प्रवाह बना हुआ है। समस्त क्रियाएं छोड़ देने पर केवल ज्ञान का ही अविच्छिन्न प्रवाह मात्र शेष रह जायेगा। सिर्फ मान रहा हूँ, सिर्फ हूं, बोध मात्र कोने का, सत्ता का बोध मात्र शेष रह जयेगा। उसी बोध में, उसी अस्तित्व में धर्म हैं और वहां जो अनुभूति होती हैं वह जीवन के बन्धन से, जीवन की असक्ति से, जीवन के दुःख से मुक्ति देती है, क्योंकि वहां जाकर ज्ञात होता है कि वह जो अन्तर्सत्ता भीतर बैठी हुई हैं। एक क्षण को भी उस पर कभी पाप का, पीड़ा का, दुःख का काई दाग नहीं लगता। वह चैतन्य नित्य-शान्त, नित्य-मुक्त है। वह चैतन्य नित्य ब्रह्म स्थिति में हैं उस चैतन्य में कभी कोई विकार नहीं हुआ, न होने की सम्भावना है। जैसे ही यह दर्शन होता है, जीवन एक अलोकिक धरातल पर आनन्द की अनुभूति के प्रति उन्मुख हो जाता है। इस उन्मुखता को मैं ध्यान और समाधि कहता हूं।
मैंने दो बातें कहीं अव्यस्त (अनऑकुपाइड) और अक्रिया असल में देनों का एक ही अर्थ है। दोनों को एक शब्द में कहें तो परिपूर्ण शून्यता ध्यान है। यह परिपूर्ण शून्यता, व्यक्ति अगर लाना चाहे तो मेरी समझ में उसे तीन अंगों पर अपने प्रयोग करना होता हैं प्राथतिक रूप से उसका शरीर है। अगर उसे अक्रिया में जाना है, निष्क्रियता में जाना है तो शरीर को अक्रिय छोड़ना होगा। शरीर को बिल्कुल निष्क्रिय छोड़ना होगा, जैसे कि मृत्यु में शरीर छूट जाता है। उतना ही निष्क्रिय छोड़ देना होता है, ताकि शरीर पर जितने भी तनाव, जितने भी टेन्शन्स हैं, वे सब शान्त हो जायें।
यह तो आपने अनुभव किया होगा कि शरीर पर अगर कहीं भी तनाव हो, पैर में अगर दर्द हो तो चित्त बार-बार उसी दर्द की तरफ जाता ही नहीं। आपको शरीर में केवल उन्हीं अंगों का पता चलता है, जो बीमार होते हैं। जो अंग स्वस्थ होते हैं, उनका पता नहीं चलता। अगर आपके सिर में दर्द है तो आपको पता चलेगा। कि सिर हैं अगर दर्द नहीं है तो सिर का पता नहीं चलेगां शरीर जहां-जहां तनावग्रस्त होता है, वहीं- वहीं उसका बोध होता है। शरीर अगर बिल्कुल तनावशून्य हो तो उसका पता नहीं चलता।
तो शरीर को इतना शिथिल छोड़ देना हें कि उसके सारे तनाव विलीन हो जायें तो थोड़ी देर में देह-बोध विलीन हो जाता हैं थोड़ी देर में देह है या नहीं है, यह बात विलीन हो जाती है। थोड़े ही दिनों के प्रयोग से देह-बोध विसर्जित हो जाता है। शरीर का परिपूर्ण तनावशून्य होना, शरीर से मुक्त हो जाने का उपाय है। इसलिए ध्यान के पहले चरण में हम शरीर को ढीला छोड़ देते हैं। अभी आज प्रयोग के लिए बैठेंगे। शरीर को उस समय बिल्कुल ढीला छोड़ देना है, जैसे मुर्दा हो गया, जैसे उसमें कोई प्राण नहीं है। उससे कोई कड़ापन, कोई तनाव, कोई अकड़ कायम नहीं रखनी है, सब छोड़ देना है। इतना ढीला छोड़े देना है। जैसे मिट्टी का लौंदा है, हमारी कोई पकड़ ही नहीं है, इसमें कोई जान ही नहीं है। अपने ही शरीर को बिल्कुल मुर्दे की भांति छोड़ देना है। जब शरीर को बिल्कुल शिथिल छोड़ देंगे, उसके बाद में दो मिनट तक आपके सहयोग के लिए सुझाव दूंगा, सजेशन्स दूंगा कि आपका शरीर शिथिल होता जा रहा है। मेरे दो मिनट निरन्तर कहने पर कि शरीर शिथिल हो रहा है, आपको भाव करना है कि शरीर शिथिल हो रहा है ंआपको भाव करना हैं कि शरीर शिथिल हो रहा है। सिर्फ यह भाव मात्र करना है कि शरीर शिथिल हो रहा है। आप हैरान होंगे, भाव की इतनी शक्ति है कि अगर आप संकल्पपूर्वक भाव करें तो प्राण तक छूट सकते हैं। जिसको भारत में, इच्छा-मरण कहते हैं, वह भाव मात्र हैं अगर आप ठीक से भाव करें तो शरीर वैसा ही हो जायेगा।
रामकृष्ण के विषय में एक उल्लेख है। रामकृष्ण ने सारे धर्मों की साधना की। इस तरह की साधना करने वाले जगत में वे पहले साधु थे दूसरे साधु जगत में ढेरों हुए हैं, वह अपने धर्म की साधना करके सत्य को पा लेते हें। रामकृष्ण को लगा कि और धर्मों की साधनाएं सत्य तक ले जाती हैं या नहीं, अतः उन्होंने सारे धर्मों की साधनाएं कीं और उन्होंने कहा कि हर धर्म की साधना सत्य तक ले जाती है।
बंगाल में एक सम्प्रदाय प्रचलित है। राधा सम्प्रदाय उसकी भी साधना उन्होंने की। राधा सम्प्रदाय की मान्यता है कि केवल परम ब्रह्म ही पुरुष है, शेष सारे लोग निरयां हैं, राधाएं हैं। पुरुष भी उस सम्प्रदाय का, अपने को परम चैतन्य ब्रह्म की पत्नी के ही रूप में स्वीकार करता हे। यही भाव करता है कि वह परम चैतन्य की नारी है। रामकृष्ण ने उसकी भी साधना की।
आप हैरान होंगे, रामकृष्ण ने तीन दिन यह भाव किया कि वह राधा हैं और उन पर स्त्री के सारे लक्षण प्रकट हो गये। उनकी वाणी बदल गयी, उनके बोलने का ढंग बदल गया, उनके अन्दर में भी परिवर्तन आया। इसे लोगों ने आंखों से देखा। लेग हैरान हो गये कि यह क्या हुआ। राधा-सम्प्रदाय के तो ढेर सारे लोग हैं, उन्हें दोहराते भी है। लेकिन रामक्ष्ण में पहली दफा, इन लोगों ने साक्षात किया कि उनमें स्त्री के सारे लक्षण प्रकट हो गयेहैं। तीन दिन की निरन्तर इस भाव स्थिति ने कि वह राधा हैं, उन्हें राधा की परिणति दे दी। उन लक्षणों के जाने में छः महींने लगे।
अभी पश्चिम में, पूरब के और बहुत से मुल्कों में ढेर सारा काम हो रहा हैं हम जैसा भाव करें, शरीर में वैसी परिणतियां हो जाती हैं। अगर हम ठीक से भाव करें कि शरीर शिथिल हो रहा हैं, परिपूर्ण चित्त से भाव करें, पूर्ण, समग्र चित्त से भाव करें कि शरीर शिथिल हो रहा है तो दो मिनट में आप पायेंगे कि शरीर मृत हो गया। इसमें कोई प्राण नहीं है। ऐसी स्थिति में अगर श्रीर गिरने लग तो उसे रोकना नहीं। और अच्छा हो कि जरा भी उसे न रोकें, उसे बिल्कुल गिर जाने दें। उसके बाद दे मिनट तक भाव करना है कि श्वास शान्त हो रही है। मैं दोहराऊंगा कि श्वास शान्त हो रही है। दो मिनट तक अपको भाव करना है कि श्वास शान्त हो रही है।
अगर हमें परिपूर्ण शून्यता में जाना है तो शरीर का शिथिल होना अनिवार्य है, श्वास का शान्त होना अनिवार्य है। दो मिनट भाव करने में श्वास शान्त हो जाती है। उसके बाद मैं दो मिनट कहूँगा कि चित्त, मन मौन हो रहा है, विचार शून्य हो रहे हैं। दो मिनट की इस छोटी-सी प्रक्रिया में अचानक आप पायेंगे कि एक रिक्त स्थान में, अवकाश में, एक शन्ूय में प्रवेश हो गया चित्त मौन हा जायेगा। भीतर वाणी और शब्दों का उठना विलीन हो जायेगा। भीतर एक रिक्त स्थान, खाली जगह रह जायेगी, जहां कुछ भी नहीं है। न कोई विचार है, न कोई रूप है, न कोई आकृत है, न कोई ग्रन्थ है, न कोई ध्वनि हैं। जहां कुछ भी नहीं है। केवल अकेले आप रह गये। उस अकेलेपन को, उस लोनलीनेस को जहां अकेला मैं रह गया, चारों तरफ रिक्त आकाश से घिरा हुआ, उस अकेलेपन में ही उस "स्व" का अनुभव अद्भुत होता है। जिसको महावीर न आत्मा का है, जिसको शंकर ने ब्रह्म कहा है यहा सिको और लोगों ने और नाम दिये हैं।
उस सत्य का अनुभव अत्यन्त एककीपन में होता है। एकाकीपन की हम तलाश करते हैं, जंगल में भागकर पहाड़ों पर भागकर। लेकि एकाकीपन का सम्बन्ध स्थान से नहीं है, स्थिति से हैं अकेलापन जंगल में जाकर नहीं खाजा जा सकता। वहां जो पशु-पक्षी होंगे, उनसे ही मेल-जोल हो जायेगा, उनसे ही संगी-साथीपन बन जायेगा।
अकेलापन अपने में जाकर पाया जाता है, जहां जाकर सब रिक्त हो जाये और मैं बिल्कुल अकेला रह जाऊं। उस अकेली स्थिति में, उस नितान्त एकाकी स्थिति में, जहां केवल होने मात्र की स्पन्दना रह गयी, वहां कुछ अनुभव होता हैं, जो जीवन में क्रान्ति ला देता है। उसके लिए यह अत्यन्त छोटा-सा सरल प्रयोग है। यह प्रयोग इतना छोटा-सा है कि कई दफा लग सकता है इतने-से प्रयोग से कैसे आनन्द से साक्षात्कार हो सकता हैं लेकिन बीज हमेशा छोटे होते हैं। परिणाम में वृक्ष विराट हो जाते हैं। जो बीज को छोटा समझकर यह भाव कर लें कि इससे क्या वृक्ष होगा, वह वृक्ष से वंचित हो जायेगा। बीज हमेशा छोटे होते हैं, परिणाम में विराट उपलब्ध हो जाता है। अत्यन्त सूक्ष्म-सा बीज, ध्यान का होने पर विराट अनुभूति की फसल को काटा जा सकता है।
मेरी बात आप समझ गये होंगे। अभी तीन चरण में हम ध्यान के लिए जाते हैं। सब लोग इस समय दूर बैठेंगे ताकि गिरने की सुविधा हो। सारे लोग थोड़े फासले पर बैठ जायें और काफी गौर से देख लें, कि गिरने की सुविधा हो। कल कुछ असुविधा हुई थी। आंख बन्द कर लें। दोनों हाथ जोड़कर संकल्प कर लें। अब हाथ छोड़ दें और जैसा मैं सुझाव देता हूँ, वैसा भाव करें। पहले हम शरीर के शिथिल होने का भाव करेंगे, फिर श्वास शान्त होने का भाव करेंगे और इसके बाद मन के मौन का भाव करेंगे। अन्त में दस मिनट के लिए परिपूर्ण विश्राम में चले जायेंगे।
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