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शनिवार, 24 नवंबर 2018

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

संन्यासः परम मुक्त जीवन

संन्यास का जो गहरे से गहरा अर्थ हैः पहले तो यह कि जो व्यक्ति संसार को घर मानता है वह गृहस्थी है और जो व्यक्ति संसार को सिर्फ एक पड़ाव मानता है वह संन्यासी है। संसार मुकाम है, बीच का पड़ाव; अंतिम मंजिल नहीं है। ऐसा जिसे दिखाई पड़ना शुरू हो गया वह संन्यासी है। तब वह संसार से गुजरता है, लेकिन वैसे ही जैसे तुम किसी रास्ते से गुजरते हो। गुजरते हो रास्ते से, बिल्कुल ठीक; लेकिन रास्ते को निवास स्थान नहीं बना लेते। उसी रास्ते से वह आदमी भी गुजर सकता है जिसके लिए रास्ता मंजिल हो गया, जिसके लिए रास्ता मंजिल मालूम पड़ता है।
एक ही संसार से हम गुजरते हैं। और जिस व्यक्ति को लगता है कि संसार ही अंत है वह गृहस्थी है। गृहस्थ से मेरा अर्थ हैः संसार को जिसने घर समझा। संन्यास से मेरा अर्थ है कि संसार को जिसने घर नहीं समझा, सिर्फ मार्ग समझा, राह समझी बीच की, जिसे गुजार देनी है, जिससे गुजर जाना है।

निश्चित ही दोनों की दृष्टि में और दोनों के व्यवहार में बहुत फर्क पड़ जाएंगे। जिस रास्ते से तुम्हें गुजर जाना है उसमें तुम आसक्त नहीं बनोगे। वहां तुम्हें रुकना नहीं है, वहां तुम आसक्ति की जड़ें नहीं फैलाओगे। जहां से पार हो जाना है वहां तुम दर्शक से ज्यादा नहीं रहोगे।

जहां तुम्हें ठहरना नहीं है वहां तुम कोई स्थायी इंतजाम नहीं कर लोगे। वहां सभी व्यवस्था अस्थायी होगी, कामचलाऊ होगी। वहां तुम लोहे के और पत्थर के मकान नहीं बनाओगे। वहां तुम तंबू ही गाड़ोगे, जिनको तुम सुबह उखाड़ लोगे खूंटियों को और चल पड़ोगे। संन्यासी घर नहीं बनाता, ज्यादा से ज्यादा तंबू गाड़ता है। क्योंकि कल सुबह तो उखाड़ लेनी हैं खूंटियां; बहुत मजबूत बनाने की कोई जरूरत नहीं है।
तो जैसे ही यह ख्याल में आ गया कि संसार एक रास्ता है, पहुंचना है कहीं और, वैसे ही आसक्ति की जड़ें तुम्हारी रास्ते पर नहीं फैलतीं। तुम रास्ते पर होते हो, फिर भी रास्ते से सदा मुक्त होते हो। रास्ते का तुम उपयोग करते हो, लेकिन रास्ता तुम्हारा उपयोग नहीं कर पाता। तुम उस पर पैर रखते हो इसीलिए कि पैर उठा लोगे। तुम्हारे सारे व्यवहार में अंतर पड़ जाएगा। सारे व्यवहार में अंतर इसलिए पड़ जाएगा कि तुम्हारी नजर, जो दैनंदिन है उससे हट जाएगी। जो रोज का काम है उस पर तुम्हारी नजर नहीं रह जाएगी, उस पर तुम्हारा ध्यान नहीं रह जाएगा। होता है ठीक है, नहीं होता है तो ठीक है। नजर तो तुम्हारी उस परम उपलब्धि पर है जहां पहुंच जाना है, जो हो जाना है।
तो संन्यासी भी जीता है यहीं--इन्हीं रास्तों पर, इन्हीं मकानों में, इन्हीं लोगों के बीच, इन्हीं बाजारों में--यही सारी दुनिया है। लेकिन उसकी दृष्टि भिन्न है, उसकी दृष्टि बिल्कुल ही भिन्न है।
गृहस्थ का भाव मृत्यु को टाल देने का है सदा, भुला देने का है सदा। क्योंकि मृत्यु का स्मरण उसकी सारी व्यवस्था को नष्ट करता है। तो गृहस्थ मृत्यु को भूल कर जीता है। वह मैं दूसरा अर्थ करता हूंः गृहस्थ मृत्यु को भूल कर जीता है, विस्मरण करके जीता है। मान कर जीता है कि मृत्यु नहीं है। संन्यासी मृत्यु को अभिमुख रख कर जीता है, सामने रख कर जीता है। जानता है कि मृत्यु है। संन्यासी जो भी करता है उसमें मृत्यु का उसे सदा स्मरण है।
बड़ा फर्क पड़ जाता है। मृत्यु को भूल कर जीओगे, तो जीवन की जो क्षुद्रतम घटनाएं हैं वे बड़ी महत्वपूर्ण हो जाएंगी। मृत्यु को सामने रख कर जीओगे, तो जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएं भी क्षुद्रतम हो जाएंगी। समझो ऐसा--कि अभी तुम्हें कोई कह दे कि घंटे भर बाद तुम्हें मर जाना है। तुम्हारा सब व्यवहार बदल जाएगा। सोचा था कि इस आदमी पर मुकदमा करना है, झगड़ा करना है। गिर जाएगा ख्याल। सोचा था, इस आदमी ने गाली दी थी, इसको गाली का उत्तर देना है। गिर जाएगा ख्याल। बात खतम हो गई। जब तुम्हें ही घंटे भर बाद गिर जाना है तो अब गाली देने का कोई सवाल न रहा।
अगर तुम्हें पता चल जाए कि घंटे भर बाद तुम्हें मरना है, तो इस पता चलने के पहले जो-जो चीजें तुम्हारे चित्त में महत्वपूर्ण थीं, वे कोई भी महत्वपूर्ण न रह जाएंगी। और इस पता चलने के पहले जिन चीजों को तुम सदा के लिए टाल रखे थे कि कल कर लेंगे, वे सब एकदम से महत्वपूर्ण हो जाएंगी।
तो संन्यासी प्रतिपल मृत्यु को सामने रख कर जीता है। इसलिए मैं संन्यास को साहस कहता हूं और गृहस्थी को कायर कहता हूं। कायर से मेरा मतलब यह है कि वह जो जिंदगी का बहुत बड़ा सत्य है मृत्यु, वह उसकी तरफ पीठ करके जीता है, भूल कर जीता है। जैसे मृत्यु है ही नहीं, ऐसा मान कर जीता है। धोखा है यह। आत्मवंचना है।
संन्यासी जो है उसे सामने रख कर जीता है। मृत्यु उसके लिए एक सत्य है। और जो व्यक्ति मृत्यु को सामने रख कर जी लेता है और भय नहीं खाता मृत्यु का, पलायन नहीं करता, उसकी जिंदगी तो बदलती ही है--बाहर की जिंदगी तो बदलती ही है--मृत्यु को एनकाउंटर करने से, मृत्यु के आमने-सामने खड़े होने से उसकी भीतर की आत्मा भी बदलती और जगती है। इसलिए संन्यासी का हम पुराना नाम बदल देते हैं। घोषणा इस बात की है कि पुराना आदमी मर गया। तो वह तुम्हारी दृष्टि गई। उसके कपड़े बदल देते हैं कि उसका तादात्म्य टूट जाए, उसकी पुरानी जो आइडेंटिटी थी--सोचता था मैं यह हूं--वह समाप्त हो जाए। अब वह और तरह से जीने लगे, जिंदगी को और नये पहलू से देखने लगे। मौत को सम्मिलित कर ले अपनी व्यवस्था में।
अगर कोई व्यक्ति प्रतिपल यह जानता हुआ जीए कि अगले क्षण मृत्यु हो सकती है, तो न तो लोभी रह जाएगा, न क्रोधी रह जाएगा, न कामी रह जाएगा। मृत्यु अगर प्रकट होकर खड़ी हो जाए तुम्हारे पास, तुम्हारे क्रोध, लोभ, मोह, सब तत्काल विदा हो जाएंगे। ये सब होते हैं अगर तुम मृत्यु की तरफ पीठ करके खड़े हो तो। अगर मृत्यु सामने खड़ी है तो कैसा लोभ? मृत्यु तो सभी छीन लेगी, तो कौड़ी को पकड़ने का आग्रह क्या? मृत्यु तो सभी मिटा देगी, तो किसी ने गाली दे दी उससे क्या मिट जाएगा?
तो दूसरी बातः संन्यासी मृत्यु को उसकी जीवन-व्यवस्था में स्वीकार कर लेता है कि वह है। और तीसरी बातः जो दिखाई पड़ रहा है हमें, जो दृश्य है, वही सत्य नहीं है। इसे संन्यासी भीतर से खोजना शुरू करता है।
मैं तुम्हें दिखाई पड़ता हूं, लेकिन मेरा शरीर ही तुम्हें दिखाई पड़ता है, मैं तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता हूं। और जब मैं आंख बंद करता हूं तो मैं पाता हूं कि शरीर तो बिल्कुल नहीं है। शरीर से बहुत भिन्न और गहरा और अदृश्य मैं हूं। और जब मेरे भीतर अदृश्य छिपा है तो यह असंभव है कि तुम्हारे भीतर भी अदृश्य न छिपा हो। हर चीज की इनसाइड भी है। उसका एक बहिर-आवरण भी है, उसका एक अंतस्तल भी है। हर चीज का! पत्थर का भी अंतर-हृदय है, वृक्ष की भी अंतरात्मा है।
यह संन्यासी अपने ही भीतर खोज करके पाता है कि मैं भी बाहर से देखे जाने पर तो सिर्फ शरीर मालूम पड़ता हूं। मेरे भीतर जो छिपा है वह तो बाहर से किसी को भी पता नहीं चलता। मुझे भी लोग, जिनको मैं बाहर से देखता हूं--वस्तुएं, सारा जगत--वह रूप ही दिखाई पड़ता है। अपने भीतर के अरूप और निराकार के अनुभव से वह सब के भीतर अरूप और निराकार को धीरे-धीरे खोजना शुरू कर देता है।
तो गृहस्थ की समझ सदा ही अपने बाबत भी दूसरों के बहिर-आवरण को देख कर निर्मित होती है। तुम्हें मानता है शरीर, क्योंकि तुम शरीर दिखाई पड़ते हो, इसलिए मानता है अपने को भी शरीर। गृहस्थ की सारी समझ दूसरों से निर्मित होती है और दूसरों की समझ से ही वह अपने बाबत भी अनुमान लेता है।
संन्यासी की सारी समझ स्वनिर्मित होती है और स्वनिर्मित समझ से ही वह दूसरों के बाबत भी निर्णय लेता है। उसकी समस्त जीवन-दृष्टि अंतर-स्रोत से जगती है। और जितना ही गहरा वह अपने अंतर-स्रोत को पाता है, उतना ही उसे दूसरे के भीतर भी अंतर-स्रोत दिखाई पड़ने लगता है। फिर तो कण-कण में उसका उसे स्मरण रहने लगता है कि वह कण भी जैसा ऊपर से दिखाई पड़ रहा है वैसा ही नहीं है, भीतर उसके भी कोई छिपा है।
जो प्रकट दिखाई पड़ रहा है उसको ही सब मान लेना--सतह को, सर्फेस को--गृहस्थी का रुख है। नहीं, वह पर्याप्त नहीं है। भीतर और गहरे में भी कोई मौजूद है, उसकी सतत खोज संन्यासी की यात्रा है। और यह जैसे-जैसे साफ होता जाता है वैसे-वैसे इस जगत में एक नये ही जगत का आविर्भाव होता है। पदार्थ खोने लगता है, परमात्मा प्रकट होने लगता है। जो हमें बाहर दिखाई पड़ता है वह सब कुछ नहीं मालूम होता, केवल जो अंतस में छिपा है उसकी ही बहिर-रूपरेखा रह जाती है। गृहस्थी सिर्फ रूपरेखाओं में जीता है, आउटलाइंस में। जैसे हम किसी आदमी का चित्र बनाते हैं तो उसकी रूपरेखा खींच देते हैं, ढांचा, स्केलटन। गृहस्थ का जो जीवन है, जो समझ है, वह स्केलटन की है। संन्यासी रूपरेखा में नहीं जीता, रूपरेखा में जो छिपा है उसमें प्रवेश करने लगता है।
हर जगह उसकी यही खोज है। एक फूल को भी हाथ में लेता है, तो बहुत जल्दी रूपरेखा को छोड़ देता है और अरूप में प्रवेश करने लगता है। उठता है, बैठता है, चलता है, जीता है, जहां भी, तो अरूप का और निराकार का सतत अन्वेषण है, संन्यास अरूप का सतत अन्वेषण है। गार्हस्थ्य, रूप की सतत आकांक्षा है। सतह पर जीना संसारी का ढंग है। गहरे में, और गहरे में उतर जाना, अतल में उतर जाना संन्यासी की डुबकी है।
और जीवन में जो भी परम आनंद के क्षण हैं, वे जितने हम गहरे उतरते हैं उतने ही मिलने शुरू हो जाते हैं। जीवन में जो दुख की लहरें हैं, वे जितने हम ऊपर होते हैं उतनी ही ज्यादा होती हैं। सत्य का कोई उदघाटन सतह पर नहीं है।
ये तीन बातें यदि ख्याल में आ जाएं तो ये संन्यासी की आत्मा हैं। और कोई भी जो इन तीन बातों को ध्यान में रख कर गति करता है वह संन्यस्त हो जाता है। बाकी संन्यासी के कपड़े बदल लेने हैं, नाम बदल देना है, ये घोषणाएं हैं। ये प्राथमिक रूप से बड़े काम की हैं, अंततः बिल्कुल बेकाम हैं। अंततः बिल्कुल बेकाम हैं, प्राथमिक रूप से बड़े उपयोग की हैं। मनुष्य का मन ऐसा है कि घोषित करते ही उसका संकल्प सघन हो जाता है और किसी भी विचार को कृत्य में लाते ही विचार की सुस्पष्टता हो जाती है। इतने समर्थ लोग बहुत कम हैं जो कि विचार को सीधा विचार में स्पष्ट कर पाएं।
तुम्हें प्रेम का विचार कभी स्पष्ट नहीं होगा जब तक कि तुम किसी को प्रेम न करो। प्रेम जब कृत्य बनेगा तभी तुम्हें स्पष्ट होगा। कृत्य बनते ही ठोस हो जाता है। विचार तो आकाश में उड़ते हुए बादलों की भांति हैं, उन बादलों में भी पानी छिपा है, लेकिन कृत्य बर्फ जमे हुए पानी की तरह हैं, उनमें भी पानी छिपा है। लेकिन आकाश के बादल का भरोसा नहीं किया जा सकता। अभी है, अभी नहीं हो जाएगा, बिखर जाएगा, बनेगा, बनता रहेगा। लेकिन ठोस हो जाता है पानी जब, बर्फ बन जाता है, तब भरोसा किया जा सकता है। तो विचार जब तुम्हारे कृत्य बनते हैं...
और कोई भी विचार, कृत्य बिना घोषणा के नहीं बनता। जैसे ही तुम घोषणा करते हो, तुम एक खूंटी गाड़ देते हो। जैसे ही तुम यह घोषणा करते हो कि मैं संन्यास में प्रवेश करता हूं। वैसे ही तुम कमिटेड हो गए। वैसे ही तुमने अपनी जीवन-धारा को एक दिशा और एक फोकस दे दिया। एक स्मरण तुम्हारे भीतर अब घना हो जाएगा।
इस स्मरण को बहुत स्पष्ट करने के लिए बाहरी उपकरणों की सहायता प्राथमिक रूप से जरूरी है। क्योंकि संन्यास की यात्रा पर निकला हुआ आदमी जब पहले चरणों में होता है तो बाहर ही होता है, अभी भीतर नहीं होता। सिर्फ उसका रुख बदलता है, होता सतह पर ही है अभी वह। अभी क्षण भर पहले गृहस्थ था, दृष्टि बदली है। अभी खड़ा तो उसी भूमि पर है--वहीं, रूप, आकार--अभी वहीं खड़ा है, सिर्फ दृष्टि बदली है, निराकार की तरफ उन्मुख हुआ है। इस निराकार की यात्रा में भी अभी उसको आकार के कुछ रूप के चरण उठाने पड़ेंगे। वे उसे उठा लेने चाहिए। वह जितने उठाता जाएगा उतना मार्ग सुनिश्चित, साफ, दिशा स्पष्ट, धुंधलापन कम होने लगेगा।
और एक-एक कदम तुम उठाते हो जब, छोटे-छोटे कदम भी, तो अगले कदम की सामर्थ्य तुममें पैदा होती है।
अब कोई मेरे पास आकर कहता है, वह कहता है, कपड़े बदलने से क्या होगा? उससे मैं कहता हूं कि तुम कपड़े भी बदलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, तो तुम और क्या बदल पाओगे? नहीं, वह कहता है कि मैं तो आत्मा ही बदल लूंगा। और कपड़े बदलने की उसकी हिम्मत नहीं है। और कहता है मैं आत्मा ही बदल लूंगा।
कपड़ा भी नहीं बदल पाता है एक आदमी तो आत्मा कैसे बदल पाएगा? कपड़ा बदलना तो कोई बड़े साहस का काम ही नहीं है। आत्मा बदलना तो बड़ा दुस्साहस है। लेकिन आत्मा बदलने में वह धोखे में रह सकता है। कपड़ा बदलने में धोखे में नहीं रह पाएगा। कपड़ा बदलेगा, सबको दिखाई पड़ जाएगा। आत्मा बदलने की बात तो वह जिंदगी भर करता रह सकता है, किसी को कुछ दिखाई पड़ने वाला नहीं। दूसरे को तो दिखाई पड़ेगा नहीं, उसको खुद को भी दिखाई नहीं पड़ेगा।
जब कोई आदमी आकर मुझसे कहता है, कपड़ा बदलने से क्या होगा? तो मैं उससे कहता हूं कि तुमने अब तक आत्मा बदल क्यों नहीं ली? अभी तक तुम रुके क्यों हो? और अगर बदल ली है तो अब तुम कपड़े की चिंता में क्यों पड़े हो?
नहीं, वह आदमी तरकीबें खोज रहा है। आदमी का मन बहुत चालाक है, वह हजार तरह की तरकीबें खोजता है। वह कहता है कि धुंधले में जीने दो मुझे। जहां कुछ चीजें ठोस नहीं होतीं, सख्त नहीं होतीं, जहां निर्णय नहीं लिए जाते, जहां कोई डिसीजन नहीं बनाए जाते, जहां सब अंधेरे में सरकता रहता है, वहीं मुझे जीने दो। वहां ठीक है।
छोटा सा कृत्य भी तुम्हें धुंधलके के बाहर ले आता है। तुमने नाम बदला है, तुमने कपड़ा बदला है, तुम जगत में बाहर आकर खड़े हो गए, तुम्हारे निर्णय की घोषणा हो गई, चारों तरफ लोग देखने लगे कि तुम संन्यासी हो गए हो। अब तुम्हें कठिनाई शुरू हुई, अब तुम उसी तरह न जी सकोगे जैसे तुम कल जीते थे। अब अगर तुम उसी तरह जीते हो तो तुम्हारे भीतर गिल्ट और अपराध पैदा होगा। अगर तुम अब उसी तरह जीते हो, तुम्हारे अंतःकरण में चोट आनी शुरू हो जाएगी। तुम्हारा खुद ही मन कहेगा कि क्या करते हो? किसने तुमसे कहा था कि तुम संन्यास ले लो?
तो जैसे ही तुम छोटा सा भी कदम उठाते हो वैसे ही तुम्हारा पिछली दुनिया से संबंध क्षीण होता है और नई दुनिया से संबंध जुड़ता है। एक छोटा सा कदम भी नई दुनिया से संबंध जुड़ा देता है।
तो संन्यास की बाकी तो सारी व्यवस्था सिर्फ कमजोर आदमी के लिए है। और आदमी कमजोर है। और यह भ्रम हमारे मन में अनेक बार होता है कि शायद हम अपवाद होंगे। इस दुनिया में प्रत्येक आदमी ऐसा सोचता है कि वह शायद अपवाद है, एक्सेप्शन है। इस भ्रांति में कभी मत पड़ना। यह बड़ी गहरी भ्रांति है। हर एक ऐसे ही सोचता है कि ठीक है, दूसरे को होगी कपड़े की जरूरत, दूसरे को होगी माला की जरूरत, दूसरे को होगी नाम की जरूरत, मुझको नहीं है।
लेकिन मजा यह है कि वह कभी नहीं देखता है कि दूसरे को जितनी क्रोध की जरूरत है उतनी ही मुझे है। दूसरे को जितनी काम की जरूरत है उतनी ही मुझे है। दूसरे को जितनी लोभ की जरूरत है उतनी ही मुझे है। और सब मामलों में मैं बिल्कुल दूसरा हूं, सिर्फ इस मामले में दूसरों को होगी कपड़े की जरूरत और मुझे नहीं है!
जब भी तुम्हारे मन में कभी यह ख्याल उठे कि मैं अपवाद हूं, तब तुम देखना कि कहां हो अपवाद? जब कोई एक पत्थर तुम्हारी तरफ फेंकता है तो तुम्हारे भीतर वही होता है जो दूसरे के भीतर होता है। फिर अपवाद तुम कैसे हो? जब कोई एक गाली दे जाता है तो तुम्हारी रात की नींद भी विचलित हो जाती है, वैसे ही जैसे किसी और की हो जाती है। जब कहीं सम्मान मिलता है तो तुम भी वैसे ही फूल जाते हो जैसा कोई दूसरा फूलता है। अपवाद तुम कहां हो?
अगर इन सब में तुम पाओ कि तुम अपवाद हो, तो फिर मैं कहूंगा कि तुम्हें संन्यास के बाहर की किसी रूपरेखा की जरूरत नहीं है। लेकिन ऐसा आदमी रुकता ही नहीं, वह कभी का संन्यासी हो चुका है। हो ही चुका है, वह रुका हुआ भी नहीं है। और बड़े मजे की बात है कि ऐसा आदमी आकर कभी न कहेगा कि कपड़ा बदलने से क्या होगा? ऐसा आदमी कभी न कहेगा। क्योंकि वह जानता है, समझता है। जो भी आदमी आकर कहता है, कपड़ा बदलने से क्या होगा? वह आदमी कपड़ा बदलने से डरता है, भयभीत है।
अपना भय भी हम प्रकट नहीं करना चाहते। हम यह भी नहीं कहना चाहते कि हम भयभीत हैं। कपड़ा बदलने में डर लगता है, यह भी हम नहीं कहना चाहते। हम अपने भय को भी सिद्धांत बनाएंगे। हम कहेंगे कि नहीं, कपड़ा हम इसलिए नहीं बदलते क्योंकि कपड़ा बदलने से कुछ होने वाला नहीं है।
आदमी के मन के जो बड़े से बड़े धोखे हैं वे उसके रेशनलाइजेशन से हैं, हर चीज को न्यायसंगत बनाने की चेष्टा से चलते हैं। वह कहेगा, नहीं; मुझे तो कोई भय नहीं है किसी का। हालांकि रास्ते पर दो आदमी हंस दें, तो फिर वह दिन भर चैन से नहीं रह पाता। वह कहेगा, मुझे भय नहीं है किसी का। लेकिन चार आदमी रास्ते पर घूर कर देख लें, तो उनकी आंख उसकी छाती तक चुभ जाती हैं। और कहता है, भय नहीं है मुझे किसी का। पर इसे छुपाएगा। कहेगा कि होगा क्या?
संन्यास की बाकी सारी व्यवस्था आदमी की कमजोरी को देख कर है। और आदमी कमजोर है। और जो आदमी कमजोर नहीं है वह संन्यासी है ही। उसके लिए शायद किसी व्यवस्था की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन उसे हम बाहर छोड़ देते हैं। वह नियम नहीं है। वह तुम्हारे काम का भी नहीं है। इतना ख्याल में हो तो ठीक होगा।

प्रश्नः संकल्प शक्ति को बढ़ाने के लिए कोई...

संकल्प को बढ़ाना हो तो एक ही रास्ता है कि संकल्प करना शुरू करो। कुछ चीजें ऐसी हैं, जैसे कि किसी को दौड़ने की ताकत बढ़ानी है तो क्या करे? दौड़े। जितना दौड़ेगा उतनी ताकत बढ़ेगी। जितनी ताकत बढ़ेगी उतना दौड़ेगा। बस ताकत बढ़ती चली जाएगी। तुम्हें जो भी करना है वह करना शुरू करो। अगर तुम्हें संकल्प बड़ा करना है तो संकल्प करने की कोशिश करो। छोटे-छोटे संकल्प करो और उन्हें पूरा करो। और इतना ध्यान रखना कि जो संकल्प करो, फिर उसे पूरा करना। नहीं तो संकल्प बढ़ेगा नहीं, और घट जाएगा जितना था। इसको ख्याल में रखना।
जैसे तुमने तय किया कि आज खाना नहीं खाऊंगा, तो फिर नहीं ही खाना। नहीं तो तुम और पीछे पहुंच जाओगे। क्योंकि अगर तुमने खा लिया तो तुमने संकल्पहीनता का अभ्यास किया। अभ्यास तो हुआ ही। तो उससे तो बेहतर है तुम संकल्प ही मत करना, उससे तो तुम चुपचाप खाते रहना। लेकिन अगर तय करो तो फिर उसे निभाना, फिर कितनी ही कठिनाई हो; क्योंकि नहीं तो दो में से कुछ एक घटित होगा।
अगर तुमने भोजन कर लिया संकल्प लेकर तो तुम और संकल्पहीन हो गए, जितने तुम संकल्प लेने के पहले थे उससे भी पीछे गए। अब तो तुम्हारा आत्मविश्वास और कम हो जाएगा। अब तो तुम जानोगे कि मेरी तो कोई ताकत ही नहीं है, मैं तो मर गया। इतना सा छोटा सा काम मुझसे नहीं हो सका, मैं किसी दीन का नहीं। इससे तो पहले ही बेहतर थे कम से कम इतनी दीनता तो न थी। इतना तो ख्याल था कि चाहूंगा तो कर लूंगा। अब वह भी न रहा।
संकल्प करो, तो पूरा करना। छोटा करना, लेकिन पूरा करना। कोई बहुत बड़े संकल्प लो, ऐसा जरूरी नहीं है। दीवाल की तरफ मुंह करके तुम खड़े हो गए हो, मत देखना एक घंटे दीवाल से हट कर। हालांकि पीछे कोई अप्सराएं नहीं नाचने आ जाएंगी और न पीछे कोई स्वर्ण की वर्षा होगी, लेकिन घंटे भर दीवाल की तरफ देखना भी मुश्किल हो जाएगा। वह मन कहेगा, देखो पीछे। हालांकि इतने दिन से पीछे देख रहे थे, वहां कोई है नहीं। मन कहेगा कि पीछे देखो, पता नहीं क्या हुआ जा रहा है! कुछ नहीं हुआ जा रहा है। तो फिर एक घंटे दीवाल की तरफ देखना तो दीवाल की तरफ ही देखना। फिर सच में ही पीछे कुछ हो जाए तो भी मत देखना।
घंटे भर के बाद तुम सबल होकर बाहर आओगे। तुम्हारा संकल्प बढ़ चुका होगा, तुम्हारा आत्मविश्वास बढ़ा होगा। तुम जानोगे कि तुम कुछ कहो तो कुछ कर सकते हो। तुम भरोसे के योग्य हो। तुम अपनी ही आंखों में ऊपर उठ गए होओगे। दूसरे की आंख का सवाल नहीं है। तुम्हारी ही आंख में तुम्हारे ऊपर उठने का सवाल है।
हम उलटे काम में लगे रहते हैं, हम दूसरे की आंख में ऊपर उठने में लगे रहते हैं। और खुद की आंख में हमारी कोई इज्जत नहीं होती। और ध्यान रखना, जिसकी अपनी ही आंखों में कोई इज्जत नहीं है, इस जगत भर की इज्जत मिल जाए तो भी किसी काम की नहीं है। हम अपनी ही आंखों में दीन होते हैं। और दीन इसलिए होते हैं कि हमने कभी अपनी आंख में श्रेष्ठतर, ऊर्ध्वगामी कोई संकल्प की यात्रा नहीं की है। और कभी करने की कोशिश की है तो सदा पराजित हुए हैं। तय किया है क्रोध नहीं करेंगे, क्रोध कर लिया है। तय किया है यह नहीं करेंगे, कर लिया है। तय किया है यह करेंगे, वह नहीं किया है। बस पिघलते चले गए, टूटते चले गए।
जब भी कोई मुझसे पूछता है--संकल्प के लिए क्या करें? तो उसका मन, उसका ख्याल ऐसा होता है कि संकल्प बढ़ाने के लिए संकल्प के अलावा कुछ करना पड़ेगा।
नहीं। समझे न? संकल्प बढ़ाने के लिए संकल्प ही करना पड़ेगा। प्रेम बढ़ाने के लिए प्रेम ही करना पड़ेगा। ध्यान बढ़ाने के लिए ध्यान ही करना पड़ेगा। इसमें उपाय नहीं है, कोई दूसरी चीज से सहायता मिलने वाली नहीं है तुम्हें। वही करना पड़ेगा जो तुम चाहते हो। उसको करो। यानी जब आदमी को साइकिल चलानी सीखनी है, क्या करना पड़ेगा? साइकिल चलानी पड़ेगी, गिरना पड़ेगा, उठना पड़ेगा, चलानी पड़ेगी। चलाने से ही चलाना आएगा। कोई और अतिरिक्त उपाय नहीं है। जीवन में प्रत्येक चीज को करो तो वह विकसित होती है, न करो तो वह अविकसित रह जाती है।
और ध्यान रखना, जब तुम नहीं कर रहे हो तब भी कुछ विकसित होता है, विपरीत विकसित होता है। वह धीरे-धीरे तुम्हारे ऊपर बैठता चला जाता है। तुम्हारी जिंदगी भर का अनुभव कहता है कि संकल्प तो कभी किया नहीं। यह भी तुम्हारा संस्कार बन गया। या कभी छोटा-मोटा किया तो पूरा हुआ नहीं।
तो बहुत बड़ा संकल्प मत ले लेना एकदम से, जिसको तुम पहले से ही जानते हो... और अक्सर यह होता है, जो लोग भी संकल्प की यात्रा पर निकलते हैं, अपनी सीमा के बाहर संकल्प ले लेते हैं। तुम्हारा मन ही तुम्हें समझाता है कि हां, ले लो। और लेकर फिर तुम फंसते हो, फिर गिरता है। फिर तुम्हारा मन ही कहता है कि अब छोड़ो, कोई किसी की गुलामी थोड़े ही है, अपना ही लिए हुआ है, अब छोड़ो। और मन ऐसा क्यों करता है? मन ऐसा इसलिए करता है कि जितना तुम्हारा संकल्प बड़ा होगा, मन तुम्हारा उतना ही छोटा हो जाएगा। जिस दिन संकल्प पूर्ण होगा, मन मर जाएगा, मन बच नहीं सकता। मन और संकल्प विरोधी चीजें हैं। मन तुम्हारी कमजोरी का नाम है और संकल्प तुम्हारी आत्मा का नाम है। मन तुम्हारी बीमारी है, संकल्प तुम्हारा स्वास्थ्य है।
इसलिए मन तो तुम्हें दिक्कत में डालता ही रहेगा। वह तो कहेगा कि लो बड़ा। जब लोगे तो कहेगा, लो बड़ा। बड़ा दिलवाएगा इसलिए कि कल गिरा सके। और जब तुम ले लोगे तो उसी क्षण से, लिया नहीं तुमने कि वह कहेगा, अब तोड़ो, यह अपने से नहीं सम्हलने वाला, यह सध नहीं सकता। यह दोहरा खेल है।
तो मन के दोहरे खेल सब समझ लेना। पहले तो लेते वक्त अपनी सीमा के भीतर लेना, जिसे कि तुम पूरा कर ही सको। कोई जरूरत नहीं है कि तुम घंटे भर दीवाल की तरफ देख कर खड़े हो, एक मिनट खड़े हो। एक मिनट भी थोड़ा नहीं है। पर तुम्हारा मन कहेगा, अरे इसमें क्या रखा हुआ है? तुम्हारा मन कहेगा, इसमें क्या रखा हुआ है? एक मिनट तो कोई भी खड़ा हो सकता है! लेते हो तो घंटे भर का लो! और तुम्हारा अहंकार कहेगा कि बात तो ठीक है, एक मिनट? किसी से कहने भी जाएंगे तो हंसेगा कि एक मिनट दीवाल की तरफ देखते हुए खड़े रहे, ऐसा संकल्प हमने पूरा किया। तुम्हारा अहंकार भी कहेगा, अगर लेते हो तो घंटे भर का लो। लिया तुमने कि लेते ही से उलटा शुरू हो जाएगा मन का कहना कि क्या कर रहे हो? क्या फायदा दीवाल की तरफ देखने से?
इस दोहरे जाल को ख्याल में रख कर संकल्प करना शुरू करो। जैसे-जैसे संकल्प सफल होगा, वैसे-वैसे तुम बढ़ते जाओगे। छोटे लेना, सीमा के भीतर लेना, जिन्हें तुम पूरा कर सको। जितना तुम पूरा करोगे उतनी तुम्हारी सीमा बड़ी होगी। फिर उसके भीतर लेना, फिर सीमा और बड़ी होगी। एक दिन तुम पाओगे कि तुम कोई भी संकल्प पूरा कर सकते हो। और जिस दिन कोई भी संकल्प पूरा कर सकते हो उसी दिन तुम्हारा मन गया। उसी दिन सही अर्थों में तुम आदमी हुए, उसके पहले तुम सिर्फ कमजोरियों का एक जोड़ थे।

प्रश्नः मैं आपसे यह पूछता हूं कि संन्यासी जो है वह मृत्यु को सामने रख कर जीता है और योग कहो कि पुरातंत्रीका, कि जो लोग मृत्यु को देखता है, मृत्यु के पार देखता है वह बूढ़ा होता चला जाता है...

समझ लो, उसको भी पढ़ना, इसको भी समझना। वह बिल्कुल दूसरे संदर्भ में कही गई बात है, यह बिल्कुल दूसरे संदर्भ में। दोनों को समझना, ख्याल में तुम्हें आ जाएगा।

प्रश्नः भाई अभी हमारा साक्षीभाव से संबंध हुआ नहीं, तो कपड़े पहनने से कई बार ऐसा लगता है कि हम सुपीरियर हैं दूसरों से।

ठीक है।

प्रश्नः तो वह ईगो स्ट्रांग होती है उससे।

इसको भी देखना।

प्रश्नः मतलब साक्षी का संबंध नहीं हुआ न!

नहीं तो वह कब होगा? कैसे होगा? अपने आप तो नहीं हो जाएगा, कुछ करने से होगा। समझे न? यानी अगर तुम सोचते हो कि जब साक्षीभाव बिल्कुल थिर हो जाएगा तब हम संन्यासी होंगे। तब तो संन्यासी होने की जरूरत न रह जाएगी। और अगर तुम सोचते हो कि अभी संन्यासी होंगे तो साक्षीभाव तो फिर नहीं हुआ। तब तो फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा। कहीं से शुरू करना पड़ेगा। और साक्षीभाव तुम्हें पूर्ण आज नहीं मिल सकता। इसलिए अपूर्ण साक्षीभाव में ही यात्रा शुरू करनी पड़ेगी। अब जब तुम्हारा अहंकार उठ कर कहने लगे कि मैं संन्यासी हूं, तब इसके भी साक्षी बनने की कोशिश करना। साक्षी बनोगे तो यह गिर जाएगा, यह गिर जाएगा।
दो-तीन बातें मुझे तुमसे कहनी हैं, वे मैं तुमसे कह दूं।
एक तो मुझे तुमसे यह कहना है कि तुम्हें जो भी मिले--शांति का अनुभव हो, आनंद की प्रतीति हो, रस बहे--तो आदमी का मन सदा ऐसा है कि जो उसे मिल जाए उसे वह भूल जाता है और जो न मिले उसे याद रखता है, यह गृहस्थी का लक्षण है। जो तुम्हें मिल जाए उसे याद रखना और जो तुम्हें न मिले उसको भूल जाना, यह संन्यासी का लक्षण है। क्योंकि तभी तुम परमात्मा को धन्यवाद दे पाओगे, अन्यथा तुम शिकायत ही करते चले जाओगे। तुम्हें रत्ती भर मिले तो तुम रत्ती भर के लिए परमात्मा को धन्यवाद देना और तुम्हें पहाड़ भर न मिले तो भी शिकायत मत करना। क्योंकि शिकायत करने वाले के पास जो है वह भी छीन लिया जाता है और धन्यवाद देने वाले को जो नहीं है वह भी दे दिया जाता है। शिकायत छोड़ देना। संन्यासी का लक्षण शिकायत नहीं है। शिकायत बहुत वासनाग्रस्त वृत्ति है।
तो तुम्हें जो मिले उस पर बहुत कनसनट्रेट करना। जो तुम्हें मिल जाए--थोड़ा सा सही, एक रत्ती भर सही, एक कण भर मिले तुम्हें आनंद का--उसे ध्यान में रखना। उसे उछालते रहना अपने मन में। उसी को बढ़ाना है न, तो उसे उछालना, उसका स्मरण करना; उसे बार-बार उसमें रस लेना, प्रभु को धन्यवाद देना कि मेरी इतनी भी सामर्थ्य कहां थी! मेरी इतनी भी पात्रता कहां थी! जो मुझे मिला है वह भी मुझे न मिलता, तो मैं कहीं तो किसी अदालत में तो खड़े होकर नहीं कह सकता था कि मुझे यह क्यों नहीं मिला? तो जो मुझे मिला है वह अनुकंपा है, उसको धन्यवाद देना।
और तुम हैरान होओगे, जितना तुम उस पाए हुए को स्मरण करोगे, रस लोगे, उतना ही वह बढ़ेगा, उतना ही बढ़ता जाएगा।
फिर तुम्हें जो मिल जाए उसकी खबर दूसरे को भी करना। क्योंकि जैसा मैंने कहा, तुम्हारे भीतर भाव सब धुंधले होते हैं, जैसे ही तुम उन्हें कहीं प्रकट करते हो किसी भी रूप में, वे स्पष्ट होते हैं। अगर तुम्हें आनंद की थोड़ी सी झलक मिल रही है तो उसकी खबर करना जाकर लोगों को कि आनंद मिल रहा है। उस आनंद को बताने की कोशिश करना। दूसरे को बताते वक्त वह तुम्हें भी प्रकट और स्पष्ट होगा, अन्यथा तुम्हें भी प्रकट और स्पष्ट नहीं होगा। इस जीवन में हमारे जो गहरे अनुभव हैं वे दूसरे से कहते वक्त ही हमें पूरी तरह साफ होते हैं। तो तुमसे मैं कहता हूं कि तुम जाना और कहना लोगों को, तुम्हें जो मिले उसको बताना।
अपनी दीनता तो गृहस्थ बताते फिरते हैं। तुमने देखा ही होगा कि जब भी गृहस्थ किसी को मिलेगा तो अपने दुख का रोना रोएगा, अपनी कठिनाइयां गिनाएगा, अपनी मुसीबतें, अपना दुर्भाग्य, अपनी बदकिस्मती, सब। संन्यासी मिले तो क्या करे? यही! यह नहीं हो सकता। उसे कुछ सौभाग्य--जो भी, कण भर सौभाग्य मिला हो--उसकी खबर देनी चाहिए। संन्यासी के मुंह से दुख की बात बंद हो जानी चाहिए।
ऐसा नहीं है कि दुख अभी बंद हो गया है। दुख है। लेकिन संन्यास लेते ही दुख की बात बंद हो जानी चाहिए। बात से तो मिटता नहीं। बल्कि जैसा मैंने कहा कि जब तुम सुख, आनंद की खबर किसी को दोगे तो तुम्हारे सामने तुम्हारा आनंद प्रगाढ़ होकर स्पष्ट होता है, वैसे ही दुख की खबर देते वक्त तुम्हारा दुख भी प्रगाढ़ होकर स्पष्ट होता है। और जितना होता है उससे ज्यादा मालूम पड़ता है और आनंद भी जितना होता है उससे ज्यादा मालूम पड़ता है।
तुमने देखा ही होगा कि दुखी आदमी अपने दुख की खबर कहने में कैसा रस लेता है। अगर तुम उसके दुख की खबर न सुनो तो वह बहुत दुखी होता है। अपने दुख की खबर सुनाता फिरता है। सुबह से उठा कि हर आदमी अपने दुख की खबर सुनाता फिरता है।
दुख हैं। तुम्हारी जिंदगी के भी दुख आज एकदम समाप्त नहीं हो गए हैं। लेकिन जिंदगी में सुख भी है, रसपूर्ण भी है कुछ। गृहस्थ दुख की खबरें फैलाता फिरता है, तुम मत फैलाना। तुम्हारी जिंदगी में जो भी थोड़ा सा रस हो, उसको ले जाना और बांटना।
और ध्यान रहे, जब तुम किसी से दुख की बात करते हो तब तुम दूसरे के दुख को भी उभारते हो, उसका दुख भी उसके चित्त में ऊपर आ जाता है। जब तुम सुख की खबर ले जाते हो... जीसस कहते थेः सुसमाचार, सुख की खबर, दि गुड न्यूज... तब उसके भीतर से भी उसका सुख ऊपर आता है। जब तुम अपने आनंद की एक किरण की बात करते हो तब उसे भी तुम एक मौका देते हो कि वह भी खोजे कि उसके जीवन में कोई आनंद की किरण है। और जब तुम्हें वह आनंद से भरा हुआ, प्रभु को धन्यवाद देता हुआ देखता है तो उसके मन में भी प्रभु को धन्यवाद देने की संभावना विकसित होती है।
और संन्यासी की जो जीवनचर्या है वह ऐसी होनी चाहिए कि वह सब जगह आनंद को फैलाता रहे। उठे, बैठे, सोए, जागे--आनंद फैलाता रहे। आनंद फैला कर ही वह परमात्मा के प्रति अनुग्रह का भाव पैदा कर पाएगा।
तुम दुनिया को समझा नहीं सकते हो कि परमात्मा के प्रति अनुगृहीत हो। क्योंकि जो आनंदित नहीं है वह अनुगृहीत कैसे हो सकता है? ग्रेटिट्यूड आएगा कैसे? ग्रेटिट्यूड कोई ऐसी चीज थोड़े ही है कि थोप दी जाए। वह आनंद का फल है। तुम आनंद की खबर ले जाना। तुम्हारे भीतर चाहे आंसू ही क्यों न भरे हों, लेकिन खोजना कि एकाध मुस्कान जरूर होगी। ऐसा कोई हृदय इस जगत में नहीं है जिसके भीतर मुस्कान न हो। जीना मुश्किल है अन्यथा। मर ही चुके होते तुम कभी के।
अमेरिका में एक विचारक था जॉन डिवी। वह कहता था कि सत्य की खोज ऐसी है कि कभी पूरी नहीं होती। एक शिखर दिखाई पड़ता है पर्वत का। तुम चढ़ते हो, बड़ा श्रम करते हो, पहुंच जाते हो शिखर पर, आनंद से भर जाते हो। लेकिन तभी शिखर पर पहुंचते ही दूसरा शिखर सामने दिखाई पड़ने लगता है--और ऊंचा। उसे भी तुम चढ़ते हो, श्रम करते हो, पहुंचते हो दूसरे शिखर पर--और पाते हो कि आगे और शिखर खड़ा है। बस ऐसे ही शिखर पर शिखर उदघाटित होते चले जाते हैं।
तो जॉन डिवी के पास कोई मिलने आया था, उस आदमी ने कहा कि इसका क्या मतलब? अगर यह पक्का है कि हर शिखर के बाद और शिखर हैं तो बेकार मेहनत क्यों करनी? और जब ऐसा बहुत बार पता चलेगा तो आदमी थक नहीं जाएगा? तो जॉन डिवी से उसने कहा कि अगर आपके सामने ऐसे शिखर पर शिखर खुलते चले गए, हजार बार अनुभव कर लिया कि शिखर के बाद शिखर हैं, फिर क्या करोगे?
तो जॉन डिवी ने कहा कि जिस दिन ऐसा ख्याल उठेगा, जिस दिन ऐसा ख्याल उठेगा और जिस आदमी को ऐसा ख्याल उठेगा, वह वही आदमी है जिसने हर शिखर पर चढ़ने के आनंद का ख्याल नहीं रखा, हर शिखर पर चढ़ने की कठिनाई का ही हिसाब रखा।
फर्क पड़ेगा न! हर शिखर पर चढ़ने की कठिनाई का हिसाब रखा। लेकिन अगर हर शिखर पर चढ़ने के आनंद का ख्याल रखा तो हर नया शिखर और बड़ी उत्तेजना है, और बड़ी चुनौती है, और बड़ा आनंद सामने फिर खड़ा है--इसको भी चढ़ेंगे!
उस आदमी ने पूछा, लेकिन कोई क्षण तो ऐसा आ सकता है कि थक जाएं।
उसने कहा, जिस क्षण थक गए, उस क्षण समझना चाहिए कि मर गए। तभी तक जीवित हैं। दुख का जो हिसाब रखता है वह मर जाता है मरने के बहुत पहले। आनंद का जो हिसाब रखता है वह मृत्यु के बाद भी जीए चला जाता है।
तो आनंद का हिसाब रखना। संन्यासी का मतलब है कि वह अपनी जिंदगी के हिसाब की किताब में आनंद की ही गणना करता है। और दुख अगर है तो सीढ़ियों की भांति है, उसको हिसाब में रखने की जरूरत नहीं है। और इस आनंद की खबर तुम देना शुरू करो, इसे तुम अपने में छिपा कर मत रखना। जब तुम इसकी खबर दोगे तो तुम्हारे भीतर वह प्रकट होगा, खिलेगा, फूल बनेगा। तुम्हारे चेहरे, तुम्हारी आंखों, तुम्हारे हाथों, तुम्हारे शरीर से उसकी सुगंध निकलने लगेगी।
ध्यान रखो, जब तुम दुख की किसी से बात करते हो तब तुमने कभी ख्याल किया कि तुम्हारा शरीर भी सिकुड़ता है, तुम्हारे प्राण भी कुम्हला जाते हैं, तुम्हारी आंखें भी दीन हो जाती हैं, तुम्हारे भीतर सब बंद हो जाता है। दुख की खबर देकर तुम दुख निर्मित कर रहे हो--खुद के लिए भी और दूसरे के लिए भी।
तो मैं तुमसे कहता हूं कि तुम किसी को दुख दोगे--इतना भी, दुख कहने का भी--तो हिंसा है। दुख की बात ही बंद कर देना। सुख की खबर ले जाओ; आनंद की खबर दो। और तुम्हारा आनंद बढ़ेगा। और तुम्हें आनंदित देख कर दूसरा आनंदित होगा। सब चीजें, दुख या सुख, इनफेक्शस हैं। उनका इनफेक्शन लगता है। जब तुम आनंद से भरते हो तो दूसरे के हृदय में भी आनंद की तरंग लहर लेने लगती है। जब तुम दुख से भरते हो तो दूसरा भी दुख से भर जाता है।
आनंद की खबर ले जाना। कहना। कठिन पाओगे कहना, सभी के पास शब्द नहीं होते। जरूरी भी नहीं है कि हों। शब्द अकेला माध्यम भी नहीं है कहने का। नाच कर भी कह सकते हो, हंस कर भी कह सकते हो, गीत गाकर भी कह सकते हो, तंबूरा बजा कर भी कह सकते हो। जो उपकरण बने तुम्हारे पास, उससे अपनी खबर देना। जल्दी ही तुम्हें दूर-दूर जाना पड़ेगा, जल्दी ही तुम्हें गांव-गांव भेजूंगा।
नहीं, जरूरी नहीं है कि तुम बहुत बोल सकोगे। पर आवश्यक भी नहीं है। तुम चार शब्द बोलना, चुप होकर बैठ जाना। चार शब्द बोलना और नाच कर कह देना। कठिन पाओ कि नहीं कह सकता हूं, शब्द नहीं मिलते हैं, तो नाचना। और लोगों से कहना कि जो मैं कहना चाहता हूं वह कहते तो नहीं बनता मुझसे, तो मैं नाच कर कह देता हूं, हंस कर कह देता हूं, गीत गाकर कह देता हूं, जो मुझसे बनता है वह मैं करता हूं। पर तुम्हारे आनंद की खबर तुम किसी न किसी मार्ग से देना शुरू करो। सड़क पर चलो तो तुम्हारे चारों तरफ तुम्हारे आनंद की छाया हो। तभी हम इस संन्यास के नव-आंदोलन को व्यापक कर सकेंगे--जगतव्यापी!
ऐसी स्थिति नहीं आनी चाहिए कि कोई तुमसे पूछे कि संन्यासी क्यों हो गए? तुम्हारा आनंद इतना अभिभूत कर ले उसे कि वह जाने कि क्यों हो गए, इसको पूछने की जरूरत नहीं आनी चाहिए। जब तुमसे कोई पूछे कि संन्यासी क्यों हो गए? तो जरूरी नहीं है कि तुम बहुत गंभीर होकर उसे समझाने बैठ जाओ, कि तुम बहुत उदास और परेशान हो जाओ। तुम हंस सकते हो, नाच सकते हो, उसको गले लगा सकते हो, आगे बढ़ जा सकते हो। उसे खबर तुम दे सकते हो कि कुछ हो गया है। वह खबर ही उसको पकड़ेगी।
इस जगत में कोई चीजें, किसी भी चीज के लिए...
प्रमाण सिर्फ तार्किक ही नहीं होते। तार्किक प्रमाण कमजोर से कमजोर प्रमाण है। उसकी कोई, तार्किक प्रमाण की कोई बड़ी शक्ति नहीं है। अस्तित्वगत प्रमाण होना चाहिए, एक्झिस्टेंशियल होना चाहिए। तुम्हें देख कर उसे लगे कि हमसे गलती हो रही है कि हम संन्यासी नहीं हो गए। वह तुमसे पूछे क्यों कि तुम संन्यासी क्यों हो गए? तुम्हें देख कर उसे खबर आनी चाहिए कि मैं अब तक संन्यासी क्यों नहीं हुआ? तब तुम समझना कि तुम ठीक, ठीक व्यवहार कर रहे हो जैसा संन्यासी को जिस आनंद में होना चाहिए। जो तुम्हें देखे उसके मन में पीड़ा जग जानी चाहिए कि मैं संन्यासी क्यों नहीं हो गया हूं?
यह हो सकेगा, एक दफे तुम्हारे ख्याल में ले लेने की बात है। और तुम्हें अपने दुख की नासमझियों को दूर हटा देने की जरूरत है और अपने आनंद की किरण को बाहर लाने की जरूरत है। तो दोनों तुम्हारे भीतर हैं। जो है उसके लिए आनंदित होओ, मग्न होओ, नाचो। और ध्यान रहे, जैसे ही तुम आनंदित होओगे, आनंद रास्ता खोज लेता है अपने को प्रकट करने के लिए, जैसे दुख खोज लेता है।
तुमने कभी ख्याल किया कि दुख के खोजने के लिए तुम्हें कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता, हर आदमी अपना दुख प्रकट कर देता है। कोई बहुत बड़े शास्त्र के ज्ञान की जरूरत नहीं होती, हर आदमी दुख प्रकट कर देता है। बस दुख होता है तो प्रकट कर देता है। लेकिन लोग कहते हैं, आनंद को कैसे प्रकट करें?
उसका स्मरण लो, उसका होना उसका प्रकटीकरण बन जाएगा। होना चाहिए उसकी स्मृति, वह प्रकट होने लगेगी।
संन्यासी होते ही तुमने लेखा-जोखा बदल दिया। अब तुम दुख का हिसाब नहीं रखते, अब तुम सुख का हिसाब रखते हो। अब तुम उसको बढ़ाए चले जाते हो। इसको प्रकट करो--तुम्हारे उठने-बैठने, तुम्हारे सारे व्यक्तित्व से।
मैं बिल्कुल एक नये तरह के संन्यासी की आशा रखता हूं। पुराना संन्यासी जराजीर्ण हो गया है। उदास, गंभीर, भारी, पत्थर रखे हैं उसके सिर पर पांडित्य के। वह सब फेंक देना है। तुम्हें मैं हलका-फुलका, नाचता हुआ, आनंदमग्न देखना चाहता हूं। जैसा तुमसे बने! उठा लेना एकतारा और चले जाना किसी गांव में। बजाना एकतारा, नाचना, गांव को नचाना, विदा हो जाना। इस आनंद की खबर ले जाना।
दुनिया बहुत उदास है, बहुत दुखी है, बहुत पीड़ित है--अपने ही हाथों। क्योंकि हिसाब गलत करती है, दुख को जोड़ती चली जाती है। तुम्हें इस पूरे हिसाब की व्यवस्था को तोड़ डालना है। कुछ बोल सके बोलना, कुछ कहते बन सके कहना। कहने के संबंध में, बोलने के संबंध में जल्दी ही तुम्हें मुझे भेजना ही है।
एक बात और तुम्हें मैं कह दूं। एक तो कहने की वैज्ञानिक पद्धति होती है। वह प्रशिक्षण की बात है, सभी के लिए संभव नहीं है, जरूरी भी नहीं है। एक बोलने की परमहंस पद्धति होती है। उसके लिए प्रशिक्षण की कोई भी जरूरत नहीं है। जैसे रामकृष्ण! रामकृष्ण तो दूसरी बंगला तक पढ़े थे; कुछ जानते नहीं थे; कुछ पढ़े-लिखे नहीं थे बहुत। लेकिन उनकी अपनी पद्धति थी। वह पद्धति क्या थी?
कुछ बोलने लगते। फिर लगता कि नहीं अब बोला जाता है, चुप हो जाते। फिर लगता चुप्पी से भी समझ में नहीं आता, खड़े होकर नाचने लगते। और जो बोलने से नहीं समझ में आता वह उनके नाचने से समझ में आ जाता। और उनका बोलना कोई जरूरी नहीं था कि कोई मानता, लेकिन उनके नाचने के साथ बहुत लोग सम्मिलित हो जाते और नाचने लगते। और रामकृष्ण का पूरा व्यक्तित्व कहने लगता।
तो मैं तुम्हें कोई वैज्ञानिक पद्धति सिखाने की उत्सुकता में नहीं हूं। क्रिश्चिएनिटी ने वह भूल कर ली है। क्रिश्चिएनिटी ने भूल की, उसने अपने सारे साधुओं को, प्रचारकों को वैज्ञानिक पद्धति सिखा डाली। इसलिए ईसाई पादरी बोलते वक्त जितना थोथा होता है इस वक्त जमीन पर, कोई इतना थोथा नहीं होता। क्योंकि तुम्हारा व्यक्तित्व बोलना चाहिए, पद्धति नहीं। हां, किसी को सहज वैज्ञानिकता हो, वह दूसरी बात है। अन्यथा तुम तो परमहंस वृत्ति से चलो। कोई जरूरी नहीं है, राह के किनारे चौरस्ते पर खड़े होकर नाचने लगोगे, दस लोग वहां आ जाएंगे, रोक कर उनको बता देना अपने आनंद की बात। और उनको कहना, किसी को आनंद पाना हो तो आ जाओ।
कोई जरूरी नहीं है कि एक मंच हो और सभा हो, तब तुम बोलोगे। न, भारत का संन्यासी ऐसा नहीं बोलता रहा है। भारत का संन्यासी गांव में जाकर बैठ जाएगा एक झाड़ के नीचे, अपना तंबूरा बजाने लगेगा। चार आदमी आकर बैठ ही जाएंगे। उसके आनंद को देखेंगे, पूछेंगे कि क्या हो गया? उसे कुछ कहना है, कह देगा। नहीं कहना है, हंसता रहेगा, अपना तंबूरा बजाता रहेगा। गांव में खबर पहुंच जाएगी।
तुम्हारा आनंद ही तुम्हारा संदेश बन जाए। फिर उसे प्रकट करने में तुम अपना रास्ता खोज ले सकते हो। अनूठे-अनूठे रास्ते खोजो जो तुम्हारे व्यक्तित्व के अनुकूल पड़ते हों।
इस तरफ काम में लग जाओ जल्दी, आज से शुरू!

प्रश्नः साधनहीन आदमी आज की दुनिया में कैसे परमात्मा को उपलब्ध हो?

अभी नहीं।

प्रश्नः दुख एक-दूसरे को बांटने से हलका हो जाता है। मतलब जब दुख हुआ, कह दिया, थोड़ा सा रो लिया, तो भूल जाते हैं। अगर नहीं कहते हैं तो नहीं भूलते हैं। मतलब एक दिन, दो दिन उदासी बनी रहती है।

वह उदासी इसलिए रहती है कि दूसरे से कहना या नहीं कहना, यह सवाल नहीं है बड़ा, बड़ा सवाल यह है कि तुम ध्यान दुख पर देती हो इसलिए उदासी रहती है। ध्यान सुख पर दो, हिसाब सुख का रखो।

प्रश्नः फिर दुख तो होता ही है न!

होता ही है, लेकिन ध्यान उस पर देने की जरूरत नहीं है। एक वृक्ष लगा हुआ है, उसमें गुलाब के फूल भी लगे हैं और कांटे भी लगे हैं। फूल एक ही लगा है, हजार कांटे लगे हैं।

प्रश्नः नहीं, जहां हमारी दुनिया में दुख है ही नहीं, सत-चित-आनंद है, तो दुख है ही नहीं...

आपकी बात ही अलग है, आप मजे में रहिए, आपके लिए सवाल ही नहीं है। उसके लिए सवाल है। उसके लिए सवाल है, आपके लिए नहीं है, आप मजे में रहिए। आपको कहां कठिनाई पड़ती है। उसको तो अपना सवाल पूछने दीजिए न! उसको पता नहीं अभी सत-चित-आनंद का। उसको अभी दुख का पता है।

प्रश्नः आपको पढ़ कर तो पता चलता है न!

मेरे कहने से थोड़े ही हो जाएगा। होना चाहिए। अभी तो दुख है, सुख भी है, उन दोनों में तुम्हारी दृष्टि और तुम्हारा ध्यान दुख पर रहे तो तुम गृहस्थी के ढंग से जी रही हो, तुम्हारा ध्यान सुख पर रहे तो तुम संन्यासी के ढंग से जी रही हो। और यह भी हो सकता है कि हजार स्थिति में नौ सौ दफे दुख हो, सौ दफे सुख हो, लेकिन ध्यान सौ पर रखो। तो यह सौ बढ़ता जाएगा। और तुमने ध्यान नौ सौ पर रखा तो वह नौ सौ बढ़ते जाएंगे।
नहीं कहोगी, इससे फर्क नहीं पड़ता। तो भीतर-भीतर सोचती रहोगी। उसे सोचना ही क्यों? उसे स्वीकार कर लिया कि है, ठीक है। उसको स्वीकार कर लो। सुख को गहराओ, और जब भी दुख हो तब सुख को स्मरण करो, और सुख को बढ़ाओ, और सुख की बात करो। एक तीन महीने के भीतर तुम पाओगी कि बाहर हो गई हो। वह दुख अपने कोने में पड़ा रह जाएगा।
और मैं ऐसा नहीं कहता कि सच्चिदानंद है, ऐसा मान लो। ऐसा मान लेना इतना आसान नहीं है। होना चाहिए अनुभव में तुम्हारे। आएगा। अभी तो दुख अनुभव में है, अभी सुख को अनुभव में लाओ। जब सुख इतना बढ़ जाएगा, इतना बढ़ जाएगा कि उसकी बढ़ती के कारण ही दुख क्षीण हो जाएगा, तुम खोज कर भी दुख को न पा सकोगी, तब सच्चिदानंद में प्रवेश होगा। उसके पहले नहीं होगा।

प्रश्नः यह जो पेनडेंट है, इसका क्या अर्थ है?

खुद की बुद्धि भी थोड़ी लगाओ। हर छोटी-मोटी बात पर भी मुझ पर रहना उचित नहीं है। नहीं तो तुम हमेशा दीन-हीन रहोगी। क्योंकि आज कोई पेनडेंट के बाबत तुमसे पूछेगा, कल कुछ और पूछ लेगा, तुम फिर मेरा रास्ता देखोगी कि मैं जब तुम्हें बताऊं तब तुम... । कुछ अपनी भी बुद्धि लगाओ। और सदा इस बात की फिकर करो कि जितना कम मुझ पर निर्भर रहना पड़े उतना अच्छा। मुझसे जितनी मुक्त हो सको उतना अच्छा।
अपने भीतर से उत्तर आने दो। और अगर कोई उत्तर न आए तो इतना तो कह ही सकती हो कि मेरी स्वतंत्रता है, मेरा आनंद है। मैं नहीं पूछता हूं किसी से कि तुम इस ढंग का कालर क्यों लगाए हुए हो? इस ढंग का जूता क्यों पहने हुए हो? मुझसे किसी को पूछने का हक नहीं कि मैं ऐसी माला क्यों लटकाए हुए हूं। इतना तो हक मुझे है।
नहीं लेकिन कठिनाई दूसरे से नहीं आती, कठिनाई तुम्हारी ही बुद्धि से आती है। सदा दूसरे पर टालती हो। कठिनाई तुम्हारी ही बुद्धि से आती है। इसीलिए तुम्हें उत्तर भी नहीं सूझता। क्योंकि कोई दूसरे का थोड़े ही प्रश्न है, प्रश्न तुम्हारा ही है--कि ऐसा क्यों है? यह तुम्हारी ही दिक्कत है।
अगर तुम्हारी दिक्कत न हो तो उत्तर तुम्हारे भीतर से आ जाएगा। वह नहीं आ पाता। वह नहीं आ पाता, क्योंकि तुम्हारे ही भीतर अड़चन है। ये गेरुए कपड़े क्यों पहने हुए हैं? तुम्हारे ही भीतर यह अड़चन है। यह माला क्यों पहनी हुई है? तुम्हारे भीतर अड़चन है। यह चित्र क्यों लटका हुआ है? तुम्हारे भीतर अड़चन है।
इसको सीधा समझने की कोशिश करो कि मेरे भीतर ऐसी अड़चन है, तब तो तुम मुझसे पूछो। अगर तुम्हारे भीतर कोई अड़चन नहीं है, तब तुम सीधा जवाब दो। पर मुझसे कभी ऐसा मत कहना आकर कि लोग ऐसा कहते हैं तो हम क्या कहें?
अगर तुम्हारे भीतर अड़चन नहीं है तो तुम जो भी कहोगी वह ठीक होगा। अगर तुम्हारे भीतर अड़चन है तो सीधा पूछो मुझसे कि मेरे भीतर अड़चन है कि ऐसा क्यों? तब तो मुझसे बात करने का अर्थ है। नहीं तो इसमें भी धोखा चलता है।
मेरा अपना अनुभव यह है अब तक कि जो भी आदमी आकर मुझसे कहता है कि लोग ऐसा पूछते हैं, उनको हम क्या कहें? वह लोगों का नाम गलत ले रहा है। लोग पूछते होंगे, लेकिन उसके पास खुद ही प्रश्न है। पर तब सीधा पूछो। मेरे आमने-सामने तो बिल्कुल साफ हो जाओ, सीधा मुझसे पूछो कि हमारे भीतर प्रश्न है। तो मैं तुम्हें उत्तर दूंगा। और अगर तुम्हारे भीतर प्रश्न नहीं है तो मैं कहता हूं, तुम उत्तर देना। जो तुम उत्तर दोगी उस पर मैं आंख बंद किए दस्तखत कर दूंगा। वह ठीक होगा।
और इतना जरूर ख्याल रखो कि खुद भी तो कुछ सोचना शुरू करो। नहीं तो बहुत कठिनाई में पड़ोगी। कल तुम्हें भेजूंगा देश में, विदेश में। वहां तुमसे कोई कुछ भी पूछेगा, तो तुम फिर मेरी राह देखोगी कि वह पता नहीं क्या इसका उत्तर है।
ऐसे नहीं चलेगा। मेरे सारे उत्तर सुन कर, मेरी सारी बात सुन कर भी मैं नहीं चाहता कि तुम मेरे उत्तर कंठस्थ कर लो। मैं यही चाहता हूं कि मेरे सारे उत्तर सुन कर, समझ कर, तुम्हारी समझ इतनी बढ़ जाए कि नये प्रश्नों के उत्तर भी तुम दे सको। तुम्हारी समझ पर मेरा जोर है। तुम्हारे भीतर एक बंधा हुआ उत्तर डाल दूं, उसमें मेरा जोर नहीं है। उसका क्या मूल्य है? कल कोई जरा इधर-उधर घूम कर प्रश्न पूछ लेगा, तुम दिक्कत में पड़ जाओगी। मेरी सारी चेष्टा, तुम्हारी समझ बढ़ जाए, इसकी है। और तुम्हारी समझ से उत्तर आएं, सीधे उत्तर मैं नहीं देना चाहता।
दिन-रात तुमसे इतना बोलता हूं, तुमसे जितना मैं बोल रहा हूं, इस जमीन पर कोई तीन हजार साल में कोई आदमी नहीं बोला है। लेकिन फिर भी तुम्हारे प्रश्न वहीं के वहीं बने रहते हैं। और जब मैं देखता हूं तो मैं पाता हूं कि बड़ी मुश्किल की बात है। उसका मतलब तुम्हारी समझ बढ़ती हुई नहीं मालूम पड़ती। दिन-रात बोल कर भी तुम फिर एक प्रश्न पूछते हो जिससे पता चलता है कि तुम्हारी समझ का कोई उपयोग करने की तुम्हें ख्याल में नहीं है।
अच्छा है कि लोग पूछते हैं, उससे तुम्हारी समझ का एक मौका देते हैं, तुम उत्तर दो। सीधा उत्तर दो, अपने हृदय से आने दो। अगर तुम्हें कोई भी उत्तर न आता हो तुम्हारे हृदय से, तब तुम सीधा मुझसे पूछो कि यह मेरा प्रश्न है। तब वह प्रश्न तुम्हारा हो गया। तब तुम सीधा मुझसे पूछो कि यह मेरा प्रश्न है, मुझे कोई उत्तर नहीं आता। तब लोगों पर मत टालो। इसी प्रश्न के लिए नहीं कह रहा हूं, सारे प्रश्नों के लिए कह रहा हूं। क्योंकि इसमें बचाव हो जाता है, इसमें ऐसा लगता है कि तुम्हें तो... तुम्हारी तो समझ ठीक है, लोगों की समझ गलत है, वे लोग गड़बड़ पूछ रहे हैं। तो तुम उत्तर दो।
और यह एक प्रश्न नहीं है, ऐसे तो हजार प्रश्न उठेंगे। और मैं हजार ऐसे उपाय करता हूं कि प्रश्न उठने चाहिए। नहीं तो तुम्हारी समझ कैसे विकसित होगी। और वह समझ सीधी आने दो।
और एक बात ठीक से समझ लो कि जरूरी नहीं है कि सब चीजों का तुम्हारे पास तर्कगत उत्तर हो ही। क्योंकि सभी चीजों का तर्कगत उत्तर होता ही नहीं।
तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करती हो और कोई तुमसे पूछ ले कि क्यों प्रेम करती हो? तब तुम क्या उत्तर देती हो? क्या उत्तर दोगी? क्या उत्तर होगा तुम्हारे पास? किसी ने तुमसे पूछा, फलां व्यक्ति को प्रेम क्यों? तो क्या उत्तर होगा तुम्हारे पास?
नहीं, तब तुम उत्तर खोजते ही नहीं। तब तुम कहोगे कि प्रेम कोई तर्कगत कारण से नहीं है। प्रेम अतर्क्य है। पहले हमने सोचा नहीं कि क्यों प्रेम, सोचने के पहले प्रेम आ गया है। अब जो भी सोचेंगे वह पीछे है। उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है।
लेकिन यह किसी भी उत्तर से ज्यादा गहरा उत्तर है। लेकिन उतना भी साहस नहीं जुड़ता, उतनी भी हिम्मत नहीं है। अगर तुमने मेरी तस्वीर अपने गले में लटका रखी है, कोई तुमसे पूछता है--क्यों? तो तुम्हारी इतनी भी हिम्मत नहीं है कि तुम कह सको कि इस व्यक्ति से हमें प्रेम है। इतनी भी हिम्मत नहीं है।
बस, क्या करना! इतना तो कहा ही जा सकता है कि हमें जिससे प्रेम है उसको हमने अपने गले में लटका लिया है, आपको कोई तकलीफ है?
नहीं, पर तुम अपनी तरफ से कुछ भी नहीं सोचोगी, सब चीजें लेकर बैठी रहोगी। और तब कमजोरी बन जाती है। और तब हर कोई तुम्हें हताश कर जाता है।
पर हताश तुम्हारे भीतर तुम हो खुद, कोई दूसरा तुम्हें हताश नहीं कर रहा है। और तुम्हारा कोई उत्तर दूसरों को अपील नहीं करेगा, तुम्हारा भाव ही अपील करेगा। तुम्हारे गले में पड़ी माला और किसी ने पूछा प्रश्न और तुम्हें चिंतित पाया, तो तुम्हारी माला और तुम दोनों व्यर्थ हो गए। तुम्हें झिझका हुआ पाया, बात खत्म हो गई। यह तो बहुत ही आनंद का क्षण था कि उसने एक मौका दे दिया था, अब तुम मेरे बाबत बात कर सकती थीं। उसने एक अवसर दिया था, अब बहुत बात हो सकती थी, झिझकने की कोई जरूरत न थी। लेकिन तुम्हारी भीतरी कमजोरियां हैं, वे तुम्हें कष्ट देती हैं।
और मेरे कारण भी तुम्हारी बहुत सी दिक्कतें हैं। वह भी मैं तुमसे कहूं। चूंकि मैं निरंतर कहता हूं कि मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं, इसलिए तुममें इतनी भी हिम्मत नहीं हो पाती कि तुम किसी से कह सको कि तुम मेरे शिष्य हो। मेरे कारण ही तुम्हारी ढेर कठिनाइयां हैं। और मैं कठिनाइयां खड़ी करता ही जाऊंगा।
तुम्हारी हिम्मत ही टूट गई भीतर से, तुममें कोई हिम्मत ही नहीं है। मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं, यह मेरा कहना है। लेकिन तुम मुझसे सीख सकते हो।
लेकिन बड़ी मजेदार बात है, बहुत मजेदार बात है। मैं मानता हूं कि गुरु योग्य वही है जो कहे कि गुरु नहीं है। और जो गुरु इनकार कर दे कि मैं गुरु नहीं हूं, उसके पास भी कोई शिष्य होने की हिम्मत रखे, उसको ही मैं शिष्य कहता हूं, उसको ही मैं सीखने वाला कहता हूं। जब गुरु दावा करे कि मैं गुरु हूं, तब तुम शिष्य हो जाओ, तुम दो कौड़ी के हो। ऐसे गुरु के पास खड़े मत होना। क्योंकि वह तुम्हें डॉमिनेट कर रहा है, वह तुम्हारी गरदन दबा रहा है। लेकिन जब गुरु कह दे कि मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं, तब तुम बड़े प्रसन्न होते हो कि बड़ा मजा हुआ, अपने को शिष्य होने की भी झंझट न रही, सीखने की भी कोई जरूरत नहीं रही।
तुम्हारा सीखना जारी रहेगा। और तुम्हारा सीखना जारी रहे, इसीलिए मैं इनकार कर रहा हूं कि मैं... मेरी तरफ से तुम्हारे ऊपर कोई बंधन नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारी तरफ से मेरी तरफ कोई लगाव नहीं रहेगा। सच तो यह है कि ऐसी स्थिति में ही लगाव गहरा और पवित्र हो सकता है, जहां कोई आग्रहपूर्ण बंधन नहीं है। जब कोई कहता है कि मैं गुरु नहीं हूं, तो उचित है कि कहे; क्योंकि जब भी कोई कहता है, मैं गुरु हूं, तो वह अपने अहंकार को प्रतिष्ठा दे रहा है। लेकिन जब तुम कहते हो कि मैं शिष्य नहीं हूं, तब तुम अपने अहंकार को प्रतिष्ठा दे रहे हो।
ध्यान रखना, जब कोई गुरु कहता है, मैं गुरु हूं, तब वह अपने अहंकार को प्रतिष्ठा देता है; और जब तुम कहते हो कि हम शिष्य नहीं हैं, तब तुम अपने अहंकार को प्रतिष्ठा दे रहे हो। गुरु के लिए गुरु का दावा करने से हानि है और शिष्य को शिष्य का दावा छोड़ने से हानि है, यह ध्यान में रखना।
लेकिन बड़ी मुश्किल की बात यह है कि मुझे, तुम्हारी तरफ से भी क्या होना चाहिए, वह भी कहना पड़ता है। वह तुम्हें सोचना चाहिए। वह तुम्हें समझना चाहिए। वह तुम्हारी समझ से आना चाहिए। और तब तुम्हें ये कठिनाइयां नहीं रह जाएंगी। नहीं तो तुम्हारी कठिनाइयां रहेंगी। तुम्हारी कठिनाइयां तुम्हारे द्वारा निर्मित हो रही हैं।
और मुझ पर निर्भर मत रहो सारे उत्तर के लिए। और जल्दी ही तुम्हारे मैं बहुत से व्यर्थ के प्रश्नों के जवाब नहीं दूंगा जो मैं दूसरों के जवाब देता हूं। संन्यासी होने के बाद मैं तुम्हारे व्यर्थ के प्रश्नों के जवाब नहीं दूंगा। साधारणतः मैं दूसरों के जवाब देता हूं, तुम्हारे नहीं दूंगा। तुम्हारे इसलिए नहीं दूंगा कि अब मैं तुमसे चाहता हूं कि तुम पूछोगे भी तो भी कोई अर्थ की बात पूछोगे। खोजोगे, करोगे, तो कुछ अर्थ की बात करोगे। अब तुम्हारे व्यर्थ के सवालों को तो मैं ऐसे ही छोड़ दूंगा जैसे तुमने पूछे ही नहीं। और तुम्हें इस योग्य बनाना चाहता हूं कि तुम सारे जवाब अपने भीतर से खोज सको।
और ध्यान रहे, मेरे कोई बंधे हुए जवाब नहीं हैं, इसलिए तुम्हें कभी भी गिल्ट अनुभव नहीं होगी, तुम्हें कभी कोई अपराध अनुभव नहीं होगा। एक तो साधारणतः गुरुओं की दुनिया है, जहां उनके बंधे हुए जवाब हैं। जहां जो गुरु ने कहा है, वही तुम्हें उत्तर देना है। अगर अन्यथा तुमने दिया तो तुम अपराधी हो जाओगे। मेरे साथ तो कठिनाई नहीं है। मैं तो तुम्हें कहता हूं, जो तुम्हारे अंतर-भाव से आए वह तुम जवाब देना। मेरा कोई बंधा हुआ जवाब नहीं है, जिससे तुम्हें मेल, तालमेल रखना है। तुम अपना जवाब देना। मुझसे तो तुम्हें भाव का तालमेल रखना है। तुम आनंद में जीना, बस इतना मुझसे तुम्हारा तालमेल पर्याप्त है। और तुम्हारे आनंद से जो निकलेगा वह ठीक है।
इसलिए बहुत चिंता लेने की जरूरत नहीं है कि मैं क्या कहूंगा इसके बाबत। कोई चिंता लेने की जरूरत नहीं है। तुम्हीं कहना, तुम्हारा उत्तर प्रामाणिक है। इसलिए छोटी-छोटी बातें मुझसे पूछना बंद कर दो। तुम तो जीवन की गहरी बात अब मुझसे पूछो।
और अपने जीवन को निर्मित करना शुरू करो, बातें पूछने से कुछ हल नहीं होगा। जीवन को निर्मित करना शुरू करो। और जल्दी तैयारी लो जो मैंने कहा, तुम्हें जाना दूर-दूर है, जल्दी तैयारी लो।

प्रश्नः जीवन का अर्थ क्या होता है?

जीवन का कोई अर्थ नहीं होता। जीवन का अर्थ खोजना पड़ता है, होता नहीं है। जीवन का अर्थ बनाना पड़ता है, होता नहीं है। आविष्कार करना पड़ता है, होता नहीं है। कहीं रखा हुआ नहीं है जीवन, कि तुम गए और उठा लाए। खोजना पड़ेगा, बनाना पड़ेगा, निर्मित करना पड़ेगा। वही साधना है। जितनी साधना गहरी होगी उतना जीवन का अर्थ प्रकट होता जाता है। कहीं तैयार नहीं रखा है। और जिस दिन मुझे जीवन का अर्थ मिलेगा वह वही नहीं होगा जो तुम्हें मिलेगा।
एक संगीतज्ञ जीवन के अर्थ को संगीत से खोज लेगा, निश्चित उसका स्वाद अलग होगा। एक नर्तक जीवन के अर्थ को नृत्य से खोजेगा, उसका स्वाद अलग होगा। जीवन के अर्थ तो भिन्न होंगे, हरेक के जीवन से निकलेंगे। गुलाब के फूल में गुलाब खिलेगा और चमेली के फूल में चमेली खिलेगी। वह उनका अर्थ होगा। खिलना एक होगा, अर्थ भिन्न होंगे। और अंततः अर्थ के भी जो पार चला जाता है वही परम जीवन को उपलब्ध होता है, जहां अर्थ भी नहीं होते, जहां कोई मीनिंग की खोज, कोई परपज, कोई प्रयोजन भी नहीं होता।
खोजो! खोजने के रास्ते मुझसे पूछो। अर्थ मैं नहीं बता सकता। कोई नहीं बता सकता। तुम्हारी जिंदगी में आएगा तब तुम्हें पता चलेगा। खोजने के रास्ते मैं बता सकता हूं कि कैसे खोजो। वही मैं कह रहा हूं तुमसे कि दुख को हटाओ, सुख को बढ़ाओ, आनंद में डूबो, तो धीरे-धीरे अर्थ तुम्हें मिलेगा। फिर भी कोई रेडीमेड फार्मूला नहीं होता है कि मैं तुमसे कह दूं कि दो और दो चार, ऐसा कोई जीवन का अर्थ होता है। होता ही नहीं। और तुम्हारे जीवन में क्या अर्थ खिलेगा, कौन सा फूल खिलेगा, नहीं कहा जा सकता, जब तक खिल न जाए। पानी डालो, खाद डालो, फिकर करो, साधना करो, ध्यान लगाओ, डूबो--किसी दिन खिलेगा। और जब खिलेगा तभी हम जान पाएंगे दूसरे भी कि तुम्हारे जीवन का अर्थ क्या है।
मेरे जीवन का अर्थ क्या है, वह मैं जानता हूं। बाकी उससे तुम्हें क्या लेना-देना! उससे तुम्हें क्या लेना-देना, वह तुम्हारे जीवन का अर्थ वह नहीं होने वाला। तुम्हारे जीवन का अर्थ तुम्हारा ही होगा। कैसे खोजोगे, वह पूछते रहो। क्या है, यह मत पूछो। खिल जाएगा तब तुम जानोगे, और और भी जानेंगे। अंततः उसके भी पार चले जाना है। और जब उसके भी पार कोई जाता है--अर्थातीत, ट्रांसेनडेंटल हो जाता है--तभी जीवन पूरा खिलता है। पूरा! जड़ें भी फूल हो जाती हैं, पत्ते भी फूल हो जाते हैं, शाखाएं भी फूल हो जाती हैं, सब फूल हो जाता है। फिर ऐसा नहीं कि वृक्ष पर एक फूल खिला है, बाकी पत्ते हैं और। फूल ही फूल हो जाते हैं। तब फिर तुम खोजो।
ऐसे प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं होता। लोग सोचते हैं बड़े कीमती सवाल पूछ रहे हैं--कि जीवन का अर्थ क्या है? कि परमात्मा क्या है? कि सृष्टि किसने बनाई? लोग सोचते हैं बड़े कीमती सवाल पूछ रहे हैं। इनसे ज्यादा बचकाने और जुवेनाइल सवाल ही नहीं हैं दुनिया में। इनका कोई मतलब नहीं है। जैसे प्रेम क्या है? कोई मतलब नहीं है इस सवाल का। हालांकि बड़ा कीमती लगता है। जीवन का उद्देश्य क्या है? लक्ष्य क्या है? कोई मतलब नहीं है इन बातों का। लगते हैं बड़े कीमती सवाल हैं। जरा भी कीमत के नहीं हैं। क्योंकि ये सवाल ही नहीं हैं। ये तो यात्राएं हैं।
प्रेम क्या है? एक यात्रा है प्रेम। करो, गुजरो, पार होओ; चोटें खाओगे, गिरोगे, घाव बनेंगे; उसमें से अर्थ निकलेगा प्रेम का कि क्या है प्रेम। और जब तुम्हारा अर्थ निकलेगा तो वह वही नहीं होने वाला जो दूसरे का निकला है। उसकी चोटें अलग होंगी, उसकी यात्रा अलग होगी, सब अलग होगा।
ये सारे के सारे सवाल जैसा लोग निरंतर पूछते रहते हैं...
एक गांव में मैं गया। बहुत लोगों ने सवाल पूछे थे, एक आदमी ने छपे हुए तीन सवाल मेरे पास--छपे हुए कार्ड पर! तो मैं बहुत चकित हुआ कि छपे हुए सवाल! यानी छपवा लाया। मैंने पूछा कि भई, ये छपे सवाल किसने पूछे? उसमें एक सवाल यह भी थाः जीवन का अर्थ क्या है? ईश्वर कहां है? किस जगह है? सृष्टि को उसने क्यों बनाया? मैंने कहा, ये छपे हुए सवाल कहां से आ गए?
उस आदमी ने कहा कि मैं सदा से यह पूछ रहा हूं, उत्तर मिलते नहीं। तो मैंने तीस साल पहले छपवा लिए। तीस साल से जो भी आता है उसको पकड़ा देता हूं कि ये सवाल हैं।
मैंने कहा, तुम तीस जन्म भी छप कर रखा रहने दो, तो तेरे को जवाब नहीं मिलने वाले। इसमें कसूर उनका मत समझना जिनसे तूने पूछा है। ये कोई सवाल हैं! छपवा कर रख लिए हैं उसने एक कार्ड पर। वह दे देता है, उनको ही पकड़ा देता है कार्ड को कि कौन बार-बार लिखे! वह सवाल तो वही के वही हैं। ये कोई सवाल नहीं हैं।
गहरे सवाल सदा ही पद्धति के, विधि के, मेथड के होते हैं, एंड के नहीं होते, लक्ष्य के नहीं होते। पूछो कि कैसे जीवन का अर्थ खुलेगा? समझ में आता है। यह मत पूछो कि जीवन का अर्थ क्या है, वह तो खुलेगा तब तुम जानोगे। पूछो कि परमात्मा तक कैसे पहुंचें? यह मत पूछो कि परमात्मा कहां है। वह तो तुम जब पहुंचोगे तब तुम जानोगे कि कहां है। मत पूछो कि जीवन को क्यों बनाया परमात्मा ने। उतरो जीवन में, डूबो! और तुम जानोगे कि क्यों बनाया और कृतकृत्य हो जाओगे जान कर कि क्यों बनाया।

समाप्त 

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