कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा

प्रसन्नचित्त रहो

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

 पहला प्रश्नः
ओशो! आपने हमें एक बार एक सौ वर्ष से भी अधिक आयु वाले एक वृद्ध व्यक्ति के बारे में एक कहानी सुनाते हुए यह बताया था कि एक दिन उसकी वर्षगांठ पर उससे यह पूछा गया था कि वह हमेशा इतना अधिक प्रसन्न क्यों रहता है? उसने उत्तर दिया- ‘प्रत्येक सुबह जब मैं जागता हूं तो मेरे पास यह चुनाव होता है कि मैं प्रसन्न रहूं अथवा अप्रसन्न, और मैं हमेशा प्रसन्न बने रहने का चुनाव करता हूं।’
ऐसा क्यों है कि हम प्रायः अप्रसन्न बने रहने का ही चुनाव करते हैं? ऐसा क्यों है कि हम प्रायः चुनाव के प्रति जागरूकता का अनुभव नहीं करते?


यह मनुष्य की सबसे अधिक जटिलतम समस्याओं में से एक है। इस पर बहुत गहनता से विचार करना होगा और यह सैद्धांतिक नहीं है, यह तुमसे संबंधित है। प्रत्येक व्यक्ति ऐसा ही आचरण कर रहा है, वह हमेशा गलत का ही चुनाव कर रहा है और हमेशा उदासी, निराशा और दुखी बने रहने का ही चुनाव कर रहा है। इसके पीछे निश्चित ही कोई गहरा कारण होगा और सच में इसके पीछे कई कारण हैं।

पहला कारण यह है कि जिस तरह से मनुष्यों का पालन-पोषण किया जाता है, जिस तरह से उनकी परवरिश की जाती है, वह लालन-पालन एक मुख्य भूमिका अदा करता है। यदि तुम अप्रसन्न अथवा दुखी हो तो तुम बहुत कुछ प्राप्त करते हो और यदि तुम प्रसन्न रहते हो तो तुम अक्सर बहुत कुछ खो देते हो।

बचपन से ही, प्रारंभ से ही एक सजग बच्चा इस अंतर का अनुभव करना शुरू कर देता है कि जब कभी वह दुखी होता है तो उसे प्रत्येक व्यक्ति की सहानुभूति मिलती है और वह लाड़-प्यार प्राप्त करता है। प्रत्येक व्यक्ति उसके साथ प्रेमपूर्ण होने का प्रयास करता है। इतना ही नहीं, बल्कि इससे भी कहीं अधिक आश्चर्यजनक व्यवहार वह अनुभव करता है। जब वह दुखी होता है तो प्रत्येक व्यक्ति उसकी ओर आकर्षित होता है, और वह आकर्षण का एक केंद्र बन जाता है। यह आकर्षण उसके अहंकार के लिए भोजन का काम करता है। यह आकर्षण एक मादक उत्प्रेरक बन जाता है। यह तुम्हें ऊर्जा देता है और तुम अनुभव करते हो कि तुम कुछ विशिष्ट हो। इसलिए दूसरों का ध्यान खींचने की तीव्र कामना उठती है, इस आकर्षण की आत्यंतिक चाह उठती है।
यदि तुम्हारे आसपास का प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारी ही ओर देख रहा है तो तुम महत्त्वपूर्ण बन जाते हो। यदि तुम्हारी ओर कोई भी नहीं देखता है तो तुम अनुभव करते हो कि जैसे मानो तुम वहां उपस्थित ही नहीं हो, जैसे तुम्हारा कोई वजूद ही नहीं है, जैसे तुम कोई जड़ पदार्थ हो। लोगों का तुम्हारी ओर देखना, लोगों का तुम्हारी ओर ध्यान देना और लोगों द्वारा तुम्हारा ख्याल रखा जाना... यह सब तुम्हारे अहंकार को उर्जावान करता है।
इस प्रकार के संबंधों में ही अहंकार का अस्तित्व होता है। जितने अधिक लोग तुम्हारी ओर ध्यान देते हैं, तुम उतना ही अधिक अपने अहंकार को पोषित करते हो। यदि तुम्हारी ओर कोई भी ध्यान नहीं देता है तो तुम्हारा अहंकार मिटने लगता है।
यदि तुम्हारे आसपास के सब लोग तुम्हें बिल्कुल ही भूल जाएं, तो तुम्हारा अहंकार कैसे बच सकता है? उस एकाकीपन में तुम कैसे यह अनुभव कर सकते हो कि तुम कुछ खास हो? इसलिए समाज में संगठनों और क्लबों की आवश्यकता होती है। पूरे विश्व में ऐसे लाखों संगठन और क्लब मौजूद हैं : रोटरी क्लब, लायंस क्लब, मेसोनिक लॅाज इत्यादि। इन संगठनों और क्लबों का कुल कार्य केवल लोगों पर ध्यान देने का है, इनका लक्ष्य उन लोगों को आकर्षण का केंद्र बनाना है जो किन्हीं कारणों से समाज में अलग नहीं दिख पाए हैं और किसी भी उपाय से विशिष्ट तथा खास नहीं बन पाए हैं।
एक देश का राष्ट्रपति बनना बहुत कठिन है। एक कॅारपोरेशन का मेयर बनना बहुत कठिन है। परंतु लायंस क्लब का सभापति बनना सरल है और इससे एक विशिष्ट समूह तुम्हारी ओर ध्यान देने लगता है। बिना कुछ विशेष बलिदान दिए, बिना कोई विशेष कार्य किए, तुम खास हो जाते हो, अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाते हो। लायंस क्लब, रोटरी क्लब कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं कर रहे हैं, लेकिन फिर भी वे अनुभव करते हैं कि वे महत्त्वपूर्ण हैं। हर वर्ष नए चुनाव होते हैं, सभापति बदलते चले जाते हैं, इस तरह से सभी सदस्य परस्पर एक दूसरे का ध्यान आकर्षित करते हैं। यह उनका आपसी समझौता है और इससे प्रत्येक व्यक्ति कुछ खास होने का अनुभव करता है।
अतः बच्चा बहुत प्रारंभ से ही यह राजनीति सीख जाता है। यह राजनीति उसे सिखाती है कि दुखी दिखाई दो और तब तुम सहानुभूति पाओगे, दुखी होने पर प्रत्येक व्यक्ति का ध्यान तुम्हारी ओर ही होगा। बीमार दिखाई दो और तुम सबके लिए महत्त्वपूर्ण बन जाओगे। एक बीमार बच्चा घर में तानाशाह जैसा व्यवहार करने लगता है, वह पूरे परिवार को अपनी बात मानने के लिए बाध्य कर देता है। वह जो भी इच्छा प्रकट करता है वह घर में नियम की तरह लागू होती है। इसके विपरीत जब वह प्रसन्न होता है तो कोई उसकी बात भी नहीं सुनता है। जब वह स्वस्थ है तो उसकी कोई फिक्र ही नहीं करता है। जब वह पूर्ण रूप से ठीक है तब किसी भी व्यक्ति का उसकी ओर ध्यान आकर्षित ही नहीं होता। इसीलिए बचपन से, बहुत प्रारंभ से ही, मनुष्य ने दुख, उदासी, निराशा और जीवन के अंधकारमय पक्ष का चयन करना प्रारंभ कर दिया।
दूसरी बात यह भी है कि जब तुम प्रसन्न होते हो, जब तुम सुखी होते हो और जब तुम आंतरिक उल्लास और परम आनंद का अनुभव करते हो तब प्रत्येक व्यक्ति को तुमसे ईर्ष्या होने लगती है। ईर्ष्या होने का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारा शत्रु, तुम्हारा विरोधी होने लगता है, तब कोई भी व्यक्ति तुम्हारा मित्र नहीं रहता। इसीलिए तुमने उदास रहना सीख लिया, तुमने सीख लिया कि बहुत अधिक आनंदित नहीं रहना है ताकि प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारे प्रति द्वेषपूर्ण न हो जाए। तुमने अपने आनंद को प्रदर्शित नहीं किया, तुमने अपनी हंसी को फैलने नहीं दिया।
जब भी तुम हंसते हो तो बहुत नाप-तौल कर, बहुत हिसाब लगाकर, लोगों की आंखो से बचकर हंसते हो। तुम्हारी हंसी भीतर से नहीं आती, तुम्हारी हंसी नाभि से नहीं उठती, तुम ठहाका लगाकर नहीं हंस पाते। तुम्हारी हंसी तुम्हारे अस्तित्व की वास्तविक गहराई से नहीं आती है। जब लोग हंसते हैं तो पहले वे आस-पास देखते हैं, दूसरों का व्यक्तित्व उनपर प्रभावी हो जाता है, वे बहुत सोच विचार कर निर्णय लेने के बाद हंसते हैं। इस हंसी की भी एक विशिष्ट सीमा है; जिस सीमा तक दूसरे लोग सहन कर लें, तुम उतना ही हंसते हो। तुम उतना ही हंसते हो जिससे कि कोई गड़बड़ न हो जाए। तुम उस सीमा तक ही हंसते हो जहां तक कोई भ्रमित न हो, व्याकुल न हो, ईर्ष्या से न भर जाए।
हमारी सभी मुस्कानें लगभग राजनीतिक होती हैं। उन्मुक्त हास्य, सच्ची हंसी कहीं विलुप्त हो गई है। परम आनंद आज के मनुष्य के लिए अनजाना रह गया है। आनंद के शिखर तक पहुंचना लगभग असंभव हो गया है, क्योंकि उसकी अनुमति नहीं है। यदि तुम दुखी हो, अवसाद में हो तो कोई भी व्यक्ति यह नहीं सोचेगा कि तुम पागल हो। परंतु यदि तुम परम आनंदित होकर नृत्य कर रहे हो तो प्रत्येक व्यक्ति यही सोचेगा कि तुम पागल हो। आनंद को, नृत्य को, गीत को अस्वीकृत कर दिया गया। एक परम आनंदित व्यक्ति... और हम सोचते हैं कि उसके साथ कहीं कुछ गलत हो गया है।

यह किस तरह का समाज है? यदि कोई व्यक्ति दुखी है तो सब कुछ ठीक है, तब वह दुखी व्यक्ति उस समाज के अनुरूप है, क्योंकि कहीं न कहीं थोड़ा या ज्यादा, यह पूरा समाज ही दुखी है। इसलिए दुख से संबंधित होने के कारण वह भी इसी समाज का एक सम्मानीय सदस्य है। यदि कोई व्यक्ति परम आनंदित हो जाता है तो हम सोचते हैं कि वह पागल हो गया है, सुध-बुध खो बैठा है। उसका आनंद हमारे दुख से मेल नहीं खाता, इसीलिए वह इस समाज के अनुरूप नहीं लगता है। हमें उसके आनंद से ईर्ष्या का अनुभव होता है और इसी कारण हम उसका तिरस्कार करते हैं। इसी ईर्ष्या भाव के कारण हम हर संभव प्रयास करते हैं कि कैसे उस आनंदित व्यक्ति को पुनः उसकी पुरानी स्थिति में, दुख की स्थिति में वापस लाया जाए? हम उस पुरानी दुखद स्थिति को सामान्य स्थिति या स्वस्थ स्थिति मानते हैं। मनोविश्लेषक और मनोचिकित्सक व्यक्ति को तथाकथित सामान्य स्थिति अर्थात दुख की स्थिति में ले जाने में सहायता करते हैं।
पश्चिमी देशों में लोग धीरे-धीरे नशीली रासायनिक दवाओं के विरुद्ध होते जा रहे हैं। कानून, राज्य, सरकार, कानूनी विशेषज्ञ, उच्च न्यायालय, विधायक, धर्माचार्य और प्रत्येक व्यक्ति इसके विरोध में है। वे वास्तव में नशीली दवाओं के विरोधी नहीं हैं, वे दरअसल उस अवस्था के विरोध में हैं जो लोगों को उन दवाओं को लेने के बाद मिलती है। इन दवाओं से व्यक्ति एक उन्माद का अनुभव करता है। दरअसल समाज के यह लोग शराब या अन्य नशीली वस्तुओं के विरोधी नहीं हैं, लेकिन वह उस अवस्था के विरोधी हैं जिसमें व्यक्ति अपने ही भीतर विविध रंगों और ध्वनियों का एक अद्भुत संसार सृजित करने लगता है। इन दवाओं से शरीर के भीतर एक अद्भुत रासायनिक परिवर्तन होने लगता है। समाज ने सदा सदा से तुम्हें दुख में कैद रहने की आदत डाल दी है। समाज ने दुख की जो पुरानी परत सृजित की है, वह टूट सकती है, वह बाधाओं को पार कर सकती है और कुछ क्षणों के लिए परम आनंदित होकर तुम उस परत के बाहर आ सकते हो।
परंतु समाज, परमानंद में होने की अनुमति कभी नहीं दे सकता। आनंद मग्नता की स्थिति में होना एक असाधारण क्रांति है।
मैं फिर इसे दोहराता हूं- परमानंद में होना सबसे बड़ी क्रांति है। यदि लोग आनंदमग्न हो गए तो पूरा समाज बदलेगा, क्योंकि यह समाज दुख पर ही आधारित है। यदि लोग आनंद में डूब गए तो तुम उन्हें युद्धों में जाने के लिए विवश नहीं कर सकते, तुम उनका मार्गदर्शन करके उन्हें वियतनाम, मिस्र अथवा इजरायल नहीं भेज सकते। नहीं, उनमें से कोई भी, जो आनंदमग्न है, वह युद्ध के लिए राजी नहीं होगा। वह इस बात पर हंसेगा और कहेगा- ‘यह व्यर्थ की बात है, यह असंगत और अनर्गल है।’
यदि लोग आनंदित हैं, तब तुम उन्हें धन के पीछे पागल नहीं बना सकते। वे केवल धन एकत्रित करने के लिए ही अपना पूरा जीवन व्यर्थ नष्ट नहीं करेंगे। उन्हें यह पागलपन जैसा दिखाई देगा कि एक व्यक्ति अपने पूरे जीवन को केवल मृत धन के लिए नष्ट कर रहा है और धन संग्रह करने के पीछे भाग रहा है। निश्चित ही कोई धन एकत्र कर लेगा पर स्वयं एक मृतक जैसा हो जाएगा। यह पूर्ण रूप से पागलपन है लेकिन यह पागलपन तब तक नहीं दिखाई दे सकता, जब तक कि तुम परम आनंदित न हो।
यदि लोग आनंदमग्न हैं, तब इस समाज का पूरा ढांचा बदलना होगा। समाज का अस्तित्व दुख पर आधारित है। इस समाज के लिए दुख एक बहुत बड़ी पूंजी है, इसलिए जैसे ही हम बच्चों का पालन-पोषण करते हैं, वास्तव में प्रारंभ ही से हम दुख की ओर उनकी प्रवृत्ति को झुकाने का प्रयास करते हैं। यही कारण है कि वे हमेशा दुख का चुनाव करते हैं।
हर सुबह प्रत्येक व्यक्ति के पास चुनाव का एक अवसर होता है। हर सुबह उसे दुख या सुख में रहने का चुनाव करना होता है और वास्तव में न केवल प्रत्येक सुबह, बल्कि प्रत्येक क्षण यह चुनाव करना होता है कि दुखी रहा जाए अथवा प्रसन्न रहा जाए। परंतु तुम हमेशा दुखी बनने का चुनाव करते हो क्योंकि उसके लिए तुमने बहुत मेहनत की है, उसके लिए तुमने उदासी का वरण किया, उसके लिए तुमने बीमारी का वरण किया, उसमें तुम्हारी पूंजी लगी हुई है। तुम सदा दुखी बने रहने का ही चयन करते हो, क्योंकि यह एक आदत बन गई है, एक ढांचा बन गया है और हमेशा से ही तुमने वही किया है। तुम दुख का चुनाव करने में कुशल हो गए हो और यह चुनाव एक परंपरा बन गई है। जिस क्षण भी तुम्हारे मन को चुनाव करना होता है, वह तुरंत दुख की ओर ही प्रवाहित होता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि दुख अधोगामी है अर्थात किसी ढलान जैसा सरल है और परमानंद उर्ध्वगामी है अर्थात पहाड़ के शिखर पर चढ़ने जैसा कठिन है। इसी कारण परमानंद को अनुभव कर पाना बहुत कठिन लगता है, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। वास्तविकता बिल्कुल इसके विपरीत है, सच तो यह है कि परमानंद की यात्रा बिल्कुल पहाड़ की ढलान जैसी सरल है और दुखी होना पहाड़ की चोटी पर चढ़ने जैसा है। दुख को प्राप्त करना एक बहुत कठिन कार्य है, लेकिन तुमने उसे किया है और असंभव काम कर दिखाया है। दुख इतना अधिक प्रकृति-विरोधी है, यह मनुष्य के स्वभाव के विरूद्ध है, कोई भी व्यक्ति दुखी नहीं होना चाहता परंतु फिर भी प्रत्येक व्यक्ति दुखी है।
समाज ने एक बहुत बड़ा कार्य किया है। शिक्षा और संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पंहुचाने वाले माध्यमों जैसे माता-पिता, शिक्षक, विद्यालय, परिवार और संचार प्रणाली आदि ने एक बहुत बड़ा कार्य किया है। इन सब ने ईश्वर की सबसे सुंदर कृति यानि मनुष्य को, आनंद के सृष्टा को एक दुखी प्राणी बना दिया है। प्रत्येक बच्चा परम आनंदित अवस्था में जन्म लेता है। प्रत्येक बच्चा जन्म के समय परमात्मा स्वरूप होता है परंतु जीवन के अंत में वह एक पागल की भांति मरता है।
जब तक तुम अपने बचपन को पुनः प्राप्त नहीं करते, जब तक तुम अपने बचपन का पुनः निर्माण नहीं करते, तब तक तुम श्वेत बादल बनने में असमर्थ रहोगे, जिनके बारे में मैं बात कर रहा हूं। तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण कार्य यही है और संपूर्ण साधना यही है कि कैसे बचपन को पुनः प्राप्त किया जाए और कैसे पुनः उसे स्थापित किया जाए? यदि तुम फिर से एक छोटे बच्चे बन सको, वैसे ही निर्मल बन सको, तब कोई भी दुख नहीं है। मेरे कहने का यह अर्थ बिल्कुल भी नहीं है कि बच्चे के लिए कभी कोई दुख का क्षण होता ही नहीं, होता है पर वहां फिर भी दुख नहीं होता है। इसे समझने का प्रयास करो।
एक बच्चा कभी दुखी हो सकता है, वह किसी क्षण में अत्याधिक अप्रसन्न हो सकता है, लेकिन वह उस अप्रसन्नता में भी इतना अधिक पूर्ण होगा, समग्र होगा, वह उस अप्रसन्नता के साथ इतना अधिक एक होगा कि वहां कोई विभाजन ही शेष नहीं बचता। बच्चा अपनी अप्रसन्नता से पृथक नहीं होता है। बच्चा अपनी अप्रसन्नता को किसी विभाजन की तरह नहीं देख रहा है। यदि बच्चा अप्रसन्न या दुखी है, तब वह उस दुख से पूर्णतः संयुक्त है। जब तुम भी दुख के साथ एक हो जाते हो तो दुख, दुख नहीं रह जाता है। यदि तुम दुख के साथ समग्रता से लय हो जाते हो, एक हो जाते हो, तब उस दुख का भी अपना एक सौंदर्य होता है।
इसलिए एक बच्चे की ओर देखो, बच्चा अभी कोरा है, वह प्रदूषित नहीं है, वह निर्मल है। यदि वह क्रोधित है, तब उसकी पूरी ऊर्जा क्रोध ही बन जाती है, पीछे कुछ भी नहीं बचता है, कोई रूकावट नहीं होती है। बच्चा बस गतिशील होता है और समस्त उर्जा उसी दिशा में गतिशील होकर क्रोध ही बन जाती है; कोई भी व्यक्ति उसे बाहर से नियंत्रित नहीं करता है। उसके साथ जो भी घट रहा है वह मन की कोई चालाकी नहीं है। बच्चा क्रोधित नहीं है, वह क्रोध ही हो गया है और तब क्रोध की खिलावट और उसका सौंदर्य देखो। बच्चा क्रोध में कभी भी कुरूप दिखाई नहीं देता बल्कि उस क्रोध में वह और अधिक सुंदर दिखाई देता है। वह उस क्षण में अत्याधिक भावुक, जिंदादिल और जीवंत दिखाई देता है जैसे कि कोई ज्वालामुखी विस्फोट के लिए एकदम तैयार हो। इतना छोटा सा बच्चा और इतनी अधिक उर्जा, एक परमाणविक अस्तित्व जो संपूर्ण ब्रह्माण्ड के साथ विस्फोटित हो रहा है। और इस समग्रता से किए गए क्रोध के बाद बच्चा बहुत अधिक शांत हो जाएगा। इस क्रोध के बाद वह एक गहन विश्राम में होगा, वह विश्रांत होगा। हमें लगता है कि इस तरह क्रोध में बने रहना बच्चे के लिए बहुत कष्टप्रद होगा, लेकिन बच्चा कष्ट में बिल्कुल नहीं है और उसने उस क्षण का भरपूर आनंद लिया है।
यदि तुम भी किसी वस्तु के साथ एक हो जाते हो, तब तुम आनंदपूर्ण होते हो। यदि तुम किसी वस्तु से, चाहे वह प्रसन्नता ही क्यों न हो, स्वयं को पृथक कर लेते हो, तो दुखी हो जाते हो।
इसलिए कुंजी यही है। सभी दुखों का आधार अहंकार है जो तुम्हें जीवन से और जीवन द्वारा प्रदान किए गए समस्त उपहारों से पृथक करता है। जीवन तुम्हारे लिए जो कुछ भी लाता है, उसके साथ प्रवाहित होते हुए, सघनता और समग्रता से उसमें लय हो जाना सुखद है। ऐसे में तुम नहीं बचते हो, तुम मिट जाते हो, और तब सब कुछ आनंदपूर्ण हो जाता है।
चुनाव वहां है, लेकिन तुम चुनाव के प्रति सदा अचेत ही बने रहे हो। तुम निरंतर गलत का ही चुनाव करते रहे हो। वह एक ऐसी मृत आदत बन गई है कि तुम सामान्य रूप से यंत्रवत स्वतः ही उसका चुनाव करते हो। वहां अन्य कोई विकल्प बचता ही नहीं है।
सजग बनो। स्मरण रहे, जब भी तुम दुखी होने का चुनाव कर रहे हो तो यह तुम्हारा अपना चुनाव है। यह सजगता तुम्हें सावधान बने रहने में सहायता करेगी। यह सजगता तुम्हें सचेत करेगी कि यह मेरा चुनाव है और मैं ही इसके लिए जिम्मेदार हूं, जो कुछ मैं अपने साथ कर रहा हूं, यह मेरा ही चुनाव है। तब तुम तुरंत ही एक अंतर को महसूस करोगे, इस अंतर के साथ मन के गुण और लक्षणों को भी बदलना होगा और फिर तुम्हारे लिए प्रसन्नता की ओर गतिशील होना कहीं अधिक सहज व सरल होगा।
और एक बार जब तुम यह जान जाते हो कि यह तुम्हारा ही चुनाव है, तब यह एक खेल के समान बन जाता है। यदि तुम दुखी बने रहने को ही चुनते हो, दुख से ही प्रेम करते हो तो दुखी बने रहो, लेकिन याद रहे कि यह तुम्हारा ही चुनाव है और इसकी शिकायत मत करना। तुम्हारे दुख के लिए कोई अन्य व्यक्ति जिम्मेवार नहीं है। यह तुम्हारा नाटक है। यदि तुम्हें यही ढंग पसंद है और दुखद रास्ता ही तुम्हारा चुनाव है... यदि तुम सारा जीवन दुखों में ही गुज़ारना चाहते हो तो यह तुम्हारा अपना चुनाव है और तुम्हारा अपना खेल है। तुम स्वेच्छा से इसे खेल रहे हो, अतः इसे पूर्णता से खेलना। तब लोगों के पास मत जाना और उनसे यह मत पूछना कि कैसे दुख दूर किया जाए? यह मूर्खतापूर्ण होगा। तब गुरुओं के पास जाकर यह मत पूछना कि कैसे प्रसन्न रहा जाए? ये तथाकथित गुरु अस्तित्व में इसलिए ही हैं, क्योंकि तुम मूर्ख हो। तुम दुख का सृजन करते हो और फिर दूसरों के पास जाकर पूछते हो कि यह दुख कैसे समाप्त हो? तुम दुख का निरंतर सृजन करते चले जाओगे, क्योंकि तुम अपने इस कृत्य के प्रति सजग नहीं हो। अभी इसी क्षण से प्रयास करो, प्रसन्न और आनंदित बने रहने का प्रयास करो।
मैं तुम्हें जीवन के गहनतम नियमों के बारे में बताऊंगा। तुमने उनके बारे में कभी सोचा भी नहीं होगा। तुमने सुना होगा कि समस्त विज्ञान इस नियम पर निर्भर है कि कारण और प्रभाव ही आधार है। तुम कारण सृजित करते हो और उसका परिणाम अनुसरण करने लगता है। जीवन, कारण और प्रभाव की ही एक कड़ी है। यदि तुम भूमि में बीज बोते हो तो वह अंकुरित होगा। यदि बीज रूपी कारण वहां है, तब वृक्ष उसका अनुसरण करेगा। यदि तुम आग में हाथ डालते हो तो निश्चित ही तुम्हारा हाथ जल जाएगा। कारण मौजूद है इसलिए उसका परिणाम भी पीछे पीछे आएगा। यदि तुम ज़हर खा लोगे तो तुम मर जाओगे। तुम कारण का आयोजन करते हो और तब परिणाम अनुसरण करता है। यह महत्त्वपूर्ण और आधारभूत वैज्ञानिक नियम है कि जीवन की समस्त प्रक्रियाओं की अंतरतम कड़ी, कारण और प्रभाव ही है।
धर्म एक दूसरे नियम के बारे में भी जानता है, जो इसकी अपेक्षा कहीं अधिक गहन है। परंतु इस दूसरे गहन नियम के साथ यदि तुम उसके प्रायोगिक पक्ष को नहीं जानते हो तो वह तुम्हें व्यर्थ प्रतीत होगा। धर्म कहता है : प्रभाव उत्पन्न करो और कारण उसका अनुसरण करता है। विज्ञान के अनुसार, यह बेतुका, असंगत और हास्यास्पद लगता है। क्योंकि विज्ञान कहता है कि कारण है तो परिणाम अनुसरण करता है। धर्म कहता है कि इसका विपरीत वक्तव्य भी सत्य है कि तुम प्रभाव सृजित करो और देखो कि कारण उसका अनुसरण करता है।
एक परिस्थिति है जिसमें तुम प्रसन्नता का अनुभव करते हो। एक मित्र आ गया है या प्रेमी से भेंट हो गई है, यह एक स्थिति है, यह एक कारण है जिससे तुम प्रसन्नता का अनुभव करते हो, यह प्रसन्नता परिणाम है। धर्म कहता है : प्रसन्न बने रहो और प्रेमी आता है। प्रभाव सृजित करो और कारण उसका अनुसरण करता है। यह मेरा अपना भी अनुभव है कि पहले वैज्ञानिक नियम की अपेक्षा दूसरा धर्म संबंधी नियम कहीं अधिक आधारभूत है। मैं इसे प्रयोग करता रहा हूं और परिणाम आता रहा है।
केवल प्रसन्न बने रहो और प्रेमी आता है। केवल प्रसन्न बने रहो और तुम्हारे आस-पास मित्र एकत्रित हो जाते हैं। सदा प्रसन्न बने रहो और समष्टि अनुसरण करती है।
जीसस ने भी यही बात दूसरे शब्दों में कही है, वह कहते हैं : तुम उसे खोजो, पहले परमात्मा का राज्य खोजो तब सब कुछ पीछे चला आएगा। लेकिन परमात्मा का राज्य तो अंत है, प्रभाव है या परिणाम है। पहले उसे खोजो, यह अंत है, अंत अर्थात परिणाम, यह प्रभाव है और कारण उसका अनुसरण करेगा और ऐसा होना ही चाहिए।
केवल यह नहीं होता कि तुम भूमि में एक बीज बोते हो और वृक्ष अनुसरण करता है। बल्कि यह भी उतना ही सत्य है कि एक वृक्ष होता है तो उसके द्वारा लाखों बीज उत्पन्न होते हैं। यदि कारण का अनुसरण परिणाम है तो पुनः परिणाम का अनुसरण कारण भी होता है। यह एकशृंखला है, और यह एक वर्तुल बन जाता है, कहीं से भी आरंभ करो, कारण सृजित करो अथवा प्रभाव सृजित करो। मैं तुमसे कहता हूं कि प्रभाव अथवा परिणाम को सृजित करना ज्यादा आसान है, क्योंकि परिणाम पूर्णतः तुम पर निर्भर करता है और हो सकता है कि कारण तुम पर इतना अधिक निर्भर न हो। यदि मैं केवल तभी प्रसन्न हो सकता हूं जब वहां एक विशिष्ट मित्र हो, तब मेरी प्रसन्नता उस विशिष्ट मित्र की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर निर्भर करती है। यदि मैं कहता हूं कि जब तक मुझे बहुत अधिक धन नहीं मिल जाता तब तक मैं प्रसन्न नहीं हो सकता। धन कमाना, यह पूरे संसार पर, उसकी आर्थिक स्थिति और उस समय की प्रत्येक घटना पर निर्भर करता है। यदि ऐसा संभव नहीं हो पाता है तो मैं प्रसन्न नहीं हो सकता।
कारण मेरे बस के बाहर है परंतु प्रभाव मेरे दायरे में है। कारण, बाहर की परिस्थितियों पर निर्भर है, वह बाहर है। प्रभाव या परिणाम मेरे बस में है। यदि मैं प्रभाव सृजित कर सकता हूं तो कारण अवश्य उसका अनुसरण करेगा। इसलिए प्रसन्नता का चुनाव करो, इसका अर्थ है कि तुम परिणाम को चुन रहे हो और तब देखो कि क्या होता है? परमानंद को चुनो और देखो कि क्या होता है? आनंदमग्न बने रहने का चुनाव करो और देखो कि क्या होता है? तुम्हारा पूरा जीवन तुरंत बदल जाएगा और तुम अपने चारों ओर चमत्कार घटते हुए देखोगे क्योंकि अब तुमने प्रभाव सृजित कर लिया है और समस्त कारणों को उसका अनुसरण करना होगा।
यह जादू जैसा दिखाई देगा और तुम इसे जादू का नियम भी कह सकते हो। पहला विज्ञान का नियम है और दूसरा जादू का नियम है। धर्म एक जादू है और तुम एक जादूगर हो सकते हो। यही मैं तुम्हें सिखाता हूं कि तुम धर्म के जादू का रहस्य जानने वाले एक जादूगर बनो।
इसे प्रयोग करो। तुम अपने संपूर्ण जीवन में, न केवल इस जीवन में बल्कि अन्य जन्मों में भी तुम बहुत कुछ प्रयोग करते आए हो। अब मेरी बात सुनो। यह जादुई सूत्र अर्थात जो मंत्र मैं तुम्हें दे रहा हूं, इसका प्रयोग करो। प्रभाव सृजित करो और देखो क्या होता है? कारण तुरंत तुम्हारे चारों ओर एकत्रित हो जायेंगे। वे अनुसरण करते हैं। कारणों के लिए प्रतीक्षा मत करो, तुमने पर्याप्त लंबी अवधि तक प्रतीक्षा कर ली है। अब प्रसन्नता का चुनाव करो और तुम प्रसन्न हो जाओगे।
समस्या क्या है? तुम चुनाव क्यों नहीं कर सकते? तुम इस नियम पर कार्य क्यों नहीं कर पाते हो? क्योंकि तुम्हारा पुराना मन, जो वैज्ञानिक विचारधारा द्वारा प्रशिक्षित किया गया है, वह तुमसे कहता है कि यदि तुम प्रसन्न नहीं हो और तब भी तुम प्रसन्न होने का प्रयास करते हो तो वह प्रसन्नता कृत्रिम होगी। यदि तुम प्रसन्न नहीं हो और फिर भी प्रसन्न रहने का प्रयास करते हो तो वह केवल एक अभिनय होगा और वह वास्तविकता नहीं होगी। वैज्ञानिक विचारधारा यही कहती है कि वह प्रसन्नता असली नहीं होगी और तुम केवल एक अभिनय करोगे। लेकिन तुम यह नहीं जानते हो कि जीवन उर्जा के काम करने का अपना एक विशिष्ट ढंग है। यदि तुम समग्रता से अभिनय कर सकते हो तो वह वास्तविक बन जाएगा। केवल एक ही बात का ध्यान रखना है कि अभिनेता वहां उपस्थित नहीं होना चाहिए। पूरी तरह से उस अभिनय में उतर जाओ, तब वहां कोई अंतर नहीं रहता। यदि तुम आधे-अधूरे हृदय से अभिनय कर रहे हो, तब वह नकली ही बना रहेगा।
यदि मैं तुमसे कहता हूं कि नाचो, गाओ और आनंदपूर्ण बनो और तुम आधे-अधूरे हृदय से प्रयास करते हो, केवल यह देखने के लिए कि क्या घटित होगा? लेकिन तुम स्वयं विद्यमान रहते हो और लगातार सोचते हो कि यह सब नकली है। मैं प्रयास कर रहा हूं, लेकिन वह बात नहीं आ रही है और यह सब स्वभाविक नहीं है, तब वह अभिनय ही बना रहेगा और यह समय नष्ट करने जैसा होगा।
यदि तुम प्रयास करते हो तो पूरे हृदय से प्रयास करो। अपने को बचाओ मत, जो भी कर रहे हो उसमें पूरे उतर जाओ, अभिनय ही बन जाओ, अभिनेता को अभिनय में घुल जाने दो और तब देखो कि क्या होता है? वह वास्तविकता बन जाएगी और तब तुम अनुभव करोगे कि वह स्वभाविक है। तुम जान जाओगे कि तुमने वह किया नहीं है, बल्कि वह हुआ है। लेकिन जब तक तुम उसमें समग्रता से नहीं डूबते तब तक ऐसा नहीं हो सकता। प्रभाव को अथवा परिणाम को सृजित करो, उसमें पूर्णता से डूब जाओ और तब परिणाम को देखो, उसका निरीक्षण करो।
मैं तुम्हें बिना राज्यों के ही एक राजा बना सकता हूं, तुम्हें केवल राजाओं के समान अभिनय करना होगा और इतनी अधिक समग्रता से यह अभिनय करना होगा कि तुम्हारे सामने एक असली राजा भी ऐसा प्रतीत हो कि जैसे मानो वह अभिनेता है। जब पूरी ऊर्जा तुम्हारे उस अभिनय में गतिशील हो जाएगी तो वह एक वास्तविकता बन जाएगी। ऊर्जा किसी भी पदार्थ को वास्तविक बना देती है। यदि तुम राज्यों के लिए या सत्ता के लिए प्रतीक्षा करते हो, तो ऐसा कभी भी संभव नहीं होगा।
यहां तक कि नेपोलियन और सिकंदर के लिए भी यह संभव नहीं हो पाया, जिनके पास बड़े साम्राज्य थे, वे कभी भी राजा नहीं बन पाए। वे लोग दुखी बने रहे, क्योंकि जीवन का दूसरा नियम, जो अधिक प्राथमिक और आधारभूत नियम है, वह उनके अनुभव में ही नहीं आया। सिकंदर एक बहुत बड़ा साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास कर रहा था और वह एक महान सम्राट बनना चाहता था। उसका पूरा जीवन साम्राज्य स्थापित करने में ही नष्ट हो गया और अंत में सम्राट बनने के लिए उसके पास समय ही नहीं बचा। पूर्ण रूप से साम्राज्य स्थापित होने के पहले ही वह मर गया।
यह अनेक लोगों के साथ हुआ है। साम्राज्य कभी भी पूर्ण रूप से स्थापित नहीं हो सकते हैं। यह संसार असीम है, अनंत है, तुम्हारे राज्य इत्यादि केवल आंशिक हैं, उनकी आंशिक सत्ता उनकी बाध्यता है। और एक बाध्य, आंशिक एवं खंडित साम्राज्य के साथ तुम कैसे एक पूर्ण सम्राट बन सकते हो? तुम्हारे साम्राज्य कितने ही विस्तृत क्यों न हो पर समष्टि की तुलना में उनका सीमित होना सुनिश्चित है और एक सीमित साम्राज्य के साथ तुम कैसे सम्राट बन सकते हो? यह असंभव है, लेकिन तुम पूर्ण सम्राट बन सकते हो, केवल तुम प्रभाव को सृजित करो।
इस सदी के एक रहस्यदर्शी, स्वामी राम अमेरिका गए। वह स्वयं को बादशाह राम अर्थात सम्राट राम कहा करते थे, पर वह एक फकीर थे। किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा : ‘आप तो केवल एक भिखारी हैं, लेकिन आप स्वयं को एक सम्राट कहे चले जाते हैं।’ इस पर राम ने कहा : ‘मेरी वस्तुओं की ओर मत देखो, बस मेरी ओर देखो।’ वह ठीक कह रहे थे, क्योंकि यदि तुम भौतिक वस्तुओं की ओर देखते हो तब प्रत्येक व्यक्ति भिखारी है, यहां तक कि एक सम्राट भी, हां वह थोड़ा बड़ा भिखारी हो सकता है। जब स्वामी राम ने कहा : ‘मेरी ओर देखो’ तब उस क्षण में राम सम्राट थे। तुम यदि देख सकते तो सम्राट ही वहां था।
प्रभाव को सृजित करो, इसी वास्तविक क्षण से एक सम्राट बनो, एक जादूगर बनो, क्योंकि इसके लिए प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि राज्य पहले बनाना हो तो फिर किसी को प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। यदि कारण को पहले सृजित करना होता है, तब उसके लिए प्रतीक्षा करनी होती है और शायद उसे स्थगित भी करना पड़े। प्रभाव अथवा परिणाम को सृजित करने से, प्रतीक्षा करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। तुम उसी क्षण सम्राट बन सकते हो।
जब मैं कहता हूं- बनो, इसी क्षण सम्राट बनो और देखो, तब साम्राज्य अनुसरण करता है। मैंने इसे अपने अनुभव के द्वारा जाना है। मैं तुमसे किसी सिद्धांत अथवा उपदेश की बात नहीं कर रहा हूं। प्रसन्न बनो और उस प्रसन्नता के शिखर में तुम पाओगे कि पूरा संसार तुम्हारे साथ प्रसन्न है।
इस संदर्भ में एक पुरानी कहावत है कि जब तुम रोते हो तो अकेले ही रोते हो और जब तुम हंसते हो तो पूरा संसार तुम्हारे साथ हंसता है। यहां तक कि वृक्ष, चट्टानें, रेत और बादल भी तुम्हारे साथ नृत्य करने लगेंगे यदि तुम परिणाम का सृजन कर सको और परम आनंदित हो सको। तब पूरा अस्तित्व एक महारास, एक उत्सव और एक समारोह बन जाता है, लेकिन यह तुम पर निर्भर करता है यदि तुम एक प्रभाव सृजित कर सको। मैं तुमसे कहता हूं कि तुम उसे सृजित कर सकते हो। संभवतः यह सबसे सुगम और सरल है, यद्यपि देखने में यह बहुत कठिन प्रतीत होता है, क्योंकि तुमने अभी तक इसका प्रयोग नहीं किया है।
इसे प्रयोग करके देखो। एक प्रयास करो।

दूसरा प्रश्नः
प्रिय ओशो! आप जो कहते हैं, हम उसे सुनते हैं, लेकिन हम पश्चिमी देशों के लोग सूचनाओं को अपने मस्तिष्क तक, बुद्धि तक सीमित रखते हैं। हम इस बुद्धि के तल से, अपने मन से बाहर कैसे जा सकते हैं? इसके लिए हम किन विधियों का प्रयोग करें और क्या संकल्प की शक्ति हमारी सहायता कर सकती है?

नहीं, संकल्प-शक्ति तुम्हारी सहायता नहीं करेगी। संकल्प की शक्ति वास्तव में शक्ति है ही नहीं, क्योंकि संकल्प, अहंकार पर आश्रित होता है। यह एक बहुत छोटा सा तथ्य है, जो बहुत अधिक शक्ति सृजित नहीं कर सकता। जब तुम संकल्प विहीन होते हो तब तुम अधिक शक्तिशाली होते हो, क्योंकि तब तुम अखंड अस्तित्व के साथ एक होते हो।
भीतर अपनी गहराई में, संकल्प-शक्ति एक तरह की शक्तिहीनता है। इस सच्चाई को छिपाने के लिए कि हम शक्तिहीन हैं, हम संकल्प को सृजित करते हैं। स्वयं को और दूसरों को धोखा देने के लिए हम हमेशा विपरीत को सृजित करते हैं। वे लोग जो यह अनुभव करते हैं कि वे मूर्ख हैं, वे अपनी बुद्धिमता को प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं। वे निरंतर इस बात को जानते हैं कि वे मूर्ख हैं, इसलिए वे बुद्धिमान दिखने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। जो लोग कुरूप हैं अथवा जो अनुभव करते हैं कि वे कुरूप हैं, ऐसे लोग हमेशा स्वयं को सुंदर दिखाने का प्रयास करते हैं, चाहे यह सुंदरता बाहर से थोपी गई हो, वह रंग-रोगन से पुता नकली सौंदर्य हो अथवा केवल एक मुखौटा हो। जो लोग निर्बल होते हैं, वे हमेशा शक्तिशाली दिखने का प्रयास करते हैं। विपरीत सृजित किया जाता है। यही एक ढंग है, एकमात्र उपाय है, अपने भीतर की वास्तविकता को छिपाने का। हिटलर एक दुर्बल प्राणी है, इसी कारण वह अपने चारों ओर, केवल अपनी वास्तविकता को छिपाने के लिए इतनी अधिक संकल्प-शक्ति सृजित करता है। एक व्यक्ति, जो वास्तव में शक्तिशाली होता है, वह इसके प्रति सचेत नहीं होगा कि वह शक्तिशाली है। शक्तिप्रवाहित होती रहेगी और शक्ति सदा वहां होगी, लेकिन शक्तिशाली व्यक्ति बिल्कुल ही सहज होगा, वह उसके प्रति सचेत नहीं होगा।
लाओत्सु कहता है : ‘एक वास्तविक रूप से सदाचारी व्यक्ति यह कभी भी नहीं जान पाता है कि वह निर्दोष और सदाचारी है। एक व्यक्ति, जो वास्तव में नैतिक है, वह कभी भी इसके प्रति सचेत नहीं होता कि वह नैतिक है। मगर एक व्यक्ति जो सचेत है कि वह नैतिक है, संत है, साधु है, निश्चित ही ऐसे व्यक्ति के भीतर गहराई में अनैतिकता छिपी हुई है, और वह भलिभांति इसे जानता है तथा इस सच्चाई को छिपाने के लिए ही विपरीत को सृजित करता है।
संकल्प-शक्ति वास्तव में एक शक्ति न होकर एक दुर्बलता है। वास्तविक रूप से जो व्यक्ति शक्तिशाली होगा उसके पास कोई भी संकल्प अथवा आकांक्षा नहीं होती। संपूर्ण और अखंड अस्तित्व ही उसका संकल्प होता है। वह एक श्वेत बादल के समान, अस्तित्व के साथ एक होकर, लयबद्ध होकर प्रवाहित होता है। तुम्हारा संकल्प हमेशा संघर्ष निर्मित करेगा। वह तुम्हें सिकोड़ देगा, तुम्हें संकुचित कर देगा, तुम्हें एक छोटा सा द्वीप बना देगा, तुम एक छोटे से टापू बन जाओगे और तब संघर्ष प्रारंभ होता है।
एक संकल्पविहीन व्यक्ति स्वाभाविक रूप से अज्ञानी और निर्दोष होगा और स्मरण रहे, तुम अपनी बुद्धि से बाहर नहीं आ सकते हो। तुम केवल उसे काट सकते हो और वह ज्यादा आसान है।
बुद्धि और मन के बाहर निकलना लगभग असंभव है, क्योंकि उससे बाहर निकलने का यह विचार भी मन का ही एक खंड है। मन एक अव्यवस्था है, वह एक उपद्रव है। तुम सोचते हो और तुम इस सोचने के विरुद्ध भी सोचते हो। अतः सोचने के विरुद्ध सोचना भी एक तरह की सोच है। ऐसे तुम इस सोच के बाहर नहीं निकल रहे हो। तुम अपने विचारों का तिरस्कार कर सकते हो, तुम अपने विचारों की निंदा कर सकते हो, लेकिन यह तिरस्कार और यह निंदा भी तो पुनः विचार की ही एक प्रक्रिया है। इससे प्राप्त कुछ भी नहीं हुआ और तुम एक दुष्चक्र में फंसते जा रहे हो। तुम इसी चक्र में घूमते रह सकते हो पर इससे बाहर नहीं जा पाओगे।
इसलिए, करना क्या है? मन के बाहर कैसे आना है? केवल एक ही तरह से संभव है, अपने अंदर कोई संघर्ष निर्मित मत करो और न उससे बाहर आने का कोई प्रयास करो, क्योंकि प्रत्येक प्रयास स्वयं ही आत्मघात जैसा होगा। तब क्या किया जा सकता है? केवल निरीक्षण करो, साक्षी बने रहो। उसमें होते हुए भी कुछ करो मत, केवल निरीक्षण करते रहो। उससे बाहर आने का भी प्रयास मत करो, केवल अंदर बने रहो और निरीक्षण करो।
यदि तुम इतना निरीक्षण कर सको, यदि तुम ध्यान दे सको तो उन क्षणों में मन नहीं होगा। अचानक तुम मन के पार चले जाओगे। मन के बाहर ही नहीं, बल्कि मन के पार चले जाओगे। अचानक तुम स्वयं के भी पार हो पाओगे।
इस बारे में एक झेन बोध-कथा है जो बहुत असंगत सी लगती है, जैसी कि सभी झेन-कथाएं होती हैं। लेकिन उन्हें असंगत होना ही पड़ता है, क्योंकि जीवन ही ऐसा है, वे जीवन को ज्यों का त्यों प्रदर्शित करती हैं।
एक झेन सदगुरु अपने शिष्यों से पूछा करते थे- ‘मैंने एक बतख को बड़ी बोतल में रख दिया था। अब वह बतख बड़ी हो गयी है और बोतल की गर्दन बहुत छोटी और तंग है जिस कारण बतख उससे बाहर नहीं आ सकती। परंतु बोतल बहुत मूल्यवान है और मैं उसे तोड़ना नहीं चाहता, अब यह संकट की स्थिति है। यदि बतख को बाहर नहीं निकाला जाता तो वह मर जाएगी। मैं बोतल को तोड़ सकता हूं और बतख बाहर निकल आएगी, लेकिन मैं बोतल को तोड़ना नहीं चाहता, क्योंकि बोतल बहुत अधिक कीमती है। मैं यह भी नहीं चाहता कि बतख मर जाए। इसलिए अब तुम क्या करोगे’
यह बड़ी विकट समस्या है। बतख बोतल के सिरे तक आ गई है और बोतल की गर्दन बहुत पतली है। तुम बोतल का सिर तोड़ सकते हो, लेकिन वह बहुत बहुमूल्य है। या तुम यह कर सकते हो कि बतख को मरने के लिए छोड़ सकते हो, लेकिन उसकी भी अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि वह बतख तुम ही हो।
वह बूढ़ा झेन सदगुरु लगातार अपने शिष्यों से पूछ रहा था और उन्हें पीटते हुए कह रहा था- ‘कोई उपाय खोजो, क्योंकि अब समय नहीं बचा है।’
और शिष्यों को केवल एक बार ही उत्तर देने की अनुमति दी थी। एक शिष्य ने कहा : ‘बतख बाहर निकल गई।’
इससे पूर्व भी कई प्रयास किए गए थे और वह उत्तर सुनकर शिष्य की पिटाई कर देता था। वह उत्तर सुनकर कहता : ‘नहीं’, यह भी नहीं। कोई कहता : ‘बोतल के साथ कुछ किया जा सकता है’ लेकिन सदगुरु फिर कहता : ‘बोतल टूट जाएगी और इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।’ किसी शिष्य ने कहा : ‘यदि बोतल इतनी ही कीमती है तो बतख को मरने दीजिए।’ केवल यह दो ही उपाय थे और कोई अन्य उपाय नहीं था और वह सदगुरु कोई संकेत, कोई इशारा अथवा कोई सूत्र भी नहीं देता था।
लेकिन इस शिष्य के सामने वह झुका और उसके चरणों को स्पर्श करते हुए कहा : ‘तुम ठीक कहते हो। बतख बाहर आ गई है। वह कभी भी अंदर थी ही नहीं।’
तुम हमेशा से ही बाहर हो। तुम कभी भी अंदर कैद नहीं थे।
यह अनुभूति कि तुम अंदर कैद हो, केवल एक झूठी धारणा है।
इसलिए कोई ऐसी समस्या है ही नहीं कि तुम्हें सिर से बाहर कैसे निकाला जाए। केवल निरीक्षण करो। जब तुम निरीक्षण करते हो तो क्या होता है? केवल आंखें बंद कर लो और अपने विचारों का निरीक्षण करो। क्या होता है? भीतर वहां विचार हैं, लेकिन तुम अंदर नहीं हो। निरीक्षण करने वाला हमेशा पार होता है। निरीक्षणकर्ता हमेशा पहाड़ी पर दूर खड़ा रहता है। प्रत्येक वस्तु चारों ओर घूमती है, सबकुछ चलता रहता है और निरीक्षणकर्ता सभी के पार होता है।
निरीक्षणकर्ता कभी भी अंदर नहीं हो सकता, वह कभी भी कैदी नहीं हो सकता, वह हमेशा बाहर है। निरीक्षण करने का अर्थ ही है, बाहर बने रहना। तुम इसे साक्षी कह सकते हो, तुम इसे जागरूकता कह सकते हो, होश कह सकते हो या कुछ और... लेकिन रहस्य यही है : निरीक्षण। अतः जब कभी तुम अनुभव करो कि मन में विचार बहुत अधिक हैं, केवल एक वृक्ष के नीचे बैठ जाओ और निरीक्षण करो और बाहर आने का प्रयास मत करो। बाहर कौन आएगा? जब अंदर कोई है ही नहीं तो बाहर कौन आएगा? पूरा प्रयास ही व्यर्थ है, क्योंकि यदि तुम कभी अंदर रहे ही नहीं, तब तुम बाहर कैसे आ सकते हो? तुम निरंतर प्रयास करते ही चले जाते हो और उस प्रयास में उलझकर पागल हो सकते हो, लेकिन तुम कभी भी बाहर नहीं आ पाओगे।
एक बार यदि तुम यह जान जाते हो कि पूर्ण जागरूकता के क्षण में तुम अतिक्रमण कर जाते हो, पार हो जाते हो, तो तुम बाहर हो और उसी क्षण तुम विचारहीन हो जाओगे। सिर या मन का संबंध शरीर से है। सिर, शरीर का एक भाग है, वह शरीर से संबंध रखता है, शरीर में इसका महत्त्वपूर्ण कार्य है, अतः शरीर के संचालन तक वह सुंदर और ठीक हैं। बोतल बहुत बहुमूल्य है और यदि तुम उसका रहस्य और उपयोग जानते हो, तो उसका सुंदर प्रयोग किया जा सकता है।
जब मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूं, तो मैं क्या कर रहा हूं? इस शरीर का, इस बोतल का प्रयोग कर रहा हूं। जब बुद्ध उपदेश दे रहे हैं, तो वह क्या कर रहे हैं? बोतल का प्रयोग कर रहे हैं। यह बोतल वास्तव में बहुत बहुमूल्य है और सुरक्षित रखने योग्य है। लेकिन उसके अंदर जाना और अंदर जाकर उसमें जकड़े जाना और फिर उससे बाहर आने का प्रयास करना, यह उसे सुरक्षित रखने का ढंग नहीं है। इससे पूरा जीवन एक उपद्रव बन जाता है।
एक बार तुम जान लेते हो कि साक्षी होते ही तुम बाहर हो, तो तुम सिर विहीन हो जाते हो। तब तुम इस पृथ्वी पर बिना किसी सिर के घूमते हो। कितनी अधिक सुंदर घटना है कि एक व्यक्ति बिना सिर के घूम रहा है। मेरे कहने का ठीक यही अर्थ है, जब मैं कहता हूं कि एक श्वेत बादल बनो- सिर विहीन बनो। तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि तुम्हारे ऊपर कितनी अधिक शांति और मौन बरस सकता है, जब सिर या विचार या अहंकार नहीं होता है। डरना मत! तुम्हारा भौतिक सिर तो वहीं होगा, लेकिन उसकी उलझनें, उसका पागलपन वहां नहीं होगा। सिर या दिमाग या मन कोई समस्या नहीं है। वह सुंदर है, वह एक अद्भुत यंत्र है, वह अभी तक ईजाद किए गए कम्प्यूटरों में से सबसे उत्तम है, वह एक जटिल परंतु कुशल रचनातंत्र है। वह सुंदर है, उसका प्रयोग किया जा सकता है और उसका प्रयोग करते हुए तुम उसका आनंद ले सकते हो। मगर यह विचार तुमने कहां से प्राप्त किया कि तुम उसके अंदर हो? यह केवल एक गलत शिक्षण का, गलत समझ का परिणाम है।
हो सकता है शायद तुम्हें मालूम न हो कि पुराने जापान में और अभी भी जापान में यदि वृद्ध व्यक्तियों से पूछो- ‘आप कहां से सोच-विचार करते हैं’ तब वे पेट की ओर संकेत करेंगे, क्योंकि जापान में यह सिखाया गया था कि सोचने का केंद्र पेट है। इसलिए जब पहली बार यूरोप के लोग जापान पहुंचे तो वे यह विश्वास ही नहीं कर सके कि जापान जैसा पूरा देश यही सोचता है कि विचार और बुद्धि का कार्य सिर से नहीं बल्कि पेट से होता है। यह एक पश्चिमी दृष्टिकोण है कि तुम्हारे विचार सिर से उठते हैं, मन से उठते हैं। पेट से सोचने के इस तथ्य ने जापानियों की बहुत सहायता की, यह तथ्य उनके लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ। पर आज के युग में धीरे-धीरे जापानी लोग भी इस संदर्भ में, पेट से सिर की ओर सरक रहे हैं। ऐसी कई अन्य परंपराएं भी रही हैं जो ऐसा मानती हैं कि शरीर के किसी अन्य भाग से भी सोच-विचार किया जा सकता है। संत लाओत्सु कहते हैं कि तुम अपने पैरों के तलवों से सोचते हो।
ताओवादी योग में ऐसी विधियां हैं कि तुम पैर के तलवों से बाहर निकल सकते हो, क्योंकि उनका मानना है कि विचार वहां ही चल रहे हैं।
वास्तविकता क्या है? वास्तविकता यह है कि तुम इसके पार हो। लेकिन तुम शरीर के किसी भी भाग के साथ जुड़ सकते हो, यह सिर या दिमाग, एक पश्चिमी उन्माद है और पेट एक पूर्वी उन्माद है। तुमने डी.एच.लारेंस के बारे में अवश्य सुना होगा। वह सोचता था कि प्रत्येक मनुष्य अपने काम-केंद्र्र से सोचता है, और यह काम-केंद्र ही सोच-विचार का असली केंद्र है, इसके अलावा कोई अन्य केंद्र हो ही नहीं सकता। एक दृष्टि से देखा जाए तो सभी मत समान हैं, या तो वे समान रूप से गलत हैं और या वे समान रूप से ठीक हैं। इसमें चुनाव करने जैसा कुछ है ही नहीं, क्योंकि साक्षी तो सब के पार है। यह साक्षी, यह जागरूकता शरीर के भीतर भी है, और शरीर के पार भी है। तुम शरीर के किसी भी भाग से जुड़ सकते हो और यह समझ सकते हो कि यही वह सोच-विचार का केंद्र है, यही वह मूलभूत भाग है। बाहर आने की कोई भी आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि तुम अंदर कभी थे ही नहीं। बतख पहले से ही बाहर है।
जागरूक रहो और जब तुम जागरूक होते हो तो तुम्हें यह याद रखना होगा कि साक्षी होते वक्त कोई धारणा मत बनाओ, निर्णय मत लो, कोई आंकलन मत करो। यदि तुम निर्णायक बनते हो तो साक्षी खो जाएगा। जागरूकता के क्षण में मूल्यांकन मत करो। यदि तुम मूल्यांकन करते हो तो जागरूकता समाप्त हो जाती है, वह कहीं खो जाती है। साक्षी के, होश के इस मूल्यवान क्षण में कोई टिप्पणी मत करो। यदि तुम कोई भी टीका-टिप्पणी करते हो तो तुम मुख्य बिंदु से चूक जाते हो।
जब तुम जागरूक हो तो केवल जागरूकता को साधो, होश को साधो... एक नदी प्रवाहित हो रही है, चेतना की एक सतत् धारा बह रही है, विचारों के परमाणु, बुलबुलों के समान तैर रहे हैं और तुम नदी के तट पर बैठे हुए, दूर से उन्हें केवल देख रहे हो। धारा आगे की ओर बहती चली जाती है और तुम यह नहीं कहते कि यह अच्छा है, तुम यह नहीं कहते कि यह बुरा है, तुम यह नहीं कहते कि ऐसा नहीं होना चाहिए था और तुम यह भी नहीं कहते कि ऐसा होना चाहिए था। तुम कुछ भी नहीं कहते, तुम केवल देखते हो। तुमसे किसी भी तरह की टीका-टिप्पणी करने के लिए कहा भी नहीं गया है। तुम न्यायाधीश नहीं हो, तुम केवल एक गवाह हो, साक्षी हो।
तब देखो कि क्या होता है? इस चेतनधारा का, इस नदी का निरीक्षण करते हुए अचानक तुम उसके पार हो जाओगे और बतख बाहर आ जाएगी। एक बार तुम इसे जान लेते हो कि तुम बाहर हो, तो तुम बाहर बने रह सकते हो। और तब बिना किसी उपद्रवी सिर के तुम इस पृथ्वी पर विचरण कर सकते हो।
इसलिए सिर को काट देने का यही एक उपाय है। प्रत्येक व्यक्ति की दिलचस्पी दूसरे व्यक्ति का सिर काटने में है, इससे सहायता नहीं मिलेगी। तुम इससे पहले भी ऐसी बहुत भूलें कर चुके हो। अब अपना सिर काटो। सिरविहीनता का अनुभव ही गहन ध्यान का अनुभव है।

आज इतना ही।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें