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रविवार, 18 नवंबर 2018

आनन्द गंगा-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-प्रेम की सुगन्ध 

मेरे प्रिय आत्मन्
आज की संध्या, आपके बीच उपस्थित होकर, मैं बहुत आनन्दित हूँ। एक छोटी-सी कहानी से आज की चर्चा को मैं प्रारम्भ करूंगा।
बहुत वर्ष हुए एक साधु मरण-शैय्या पर था। उसकी मृत्यु निकट थी और उससे प्रेम करने वाले लोग उसके पास इकट्ठे हो गये थे। उस साधु की उम्र सौ वर्ष थी और पिछले पचास वर्षों से, सैकड़ों लोगों ने उससे प्रार्थना की कि उसे जो अनुभव हुए हों, उन्हें वह एक शास्त्र में, एक किताब में लिख दे। हजारों लोगों ने उससे यह निवेदन किया था कि वह अपने आध्यात्मिक अनुभवों को, परमात्मा के सम्बन्ध में, सत्य के सम्बन्ध में, उसे जो प्रतीतियां हुई हों, उन्हें एक ग्रन्थ में लिख दे। लेकिन वह हमेशा इन्कार करता रहा था और आज सुबह उसने यह घोषणा की थी कि मैंने वह किताब लिख दी है, जिसकी मुझसे हमेशा माँग की गयी थी और आज मैं अपने प्रधान शिष्य को वह किताब भेंट कर दूंगा।

 हजारों लोग उत्सुक होकर बैठे थे, वह किताब भेंट की जायेगी, जो कि मनुष्य जाति के लिए, हमेशा के लिए काम की होगी। उसने एक किताब अपने प्रधान शिष्य को भेंट की और उसने कहा, इसे संभालकर रखना।

इससे बहुमूल्य शास्त्र कभी नहीं लिखा गया। और जो लोग सत्य की खोज में होंगे, उनके लिए यह मार्गदर्शक प्रदीप सिद्ध होगी। इसे बहुत संभालकर रखना। इसे मैंने पूरे जीवन के अनुभव से लिखा है।
उसने वह किताब अपने शिष्य को दी और सारे लोगों ने धन्यवाद में सिर झुकाये। लेकिन उस शिष्य ने क्या किया? सर्दी के दिन थे और वहां आग जलती थी, उसने उस किताब को आग में डाल दिया। आग ने उस किताब को पकड़ लिया और वह राख हो गयी। सारे लोग हैरान हो गये कि यह क्या किया? लेकिन लोग देखकर हैरान हुए, पर वह मरता हुआ साधु अत्यन्त प्रसन्न भी। उसने उठकर शिष्य के गले लगा लिया और उससे कहा-अगर तुम उस किताब को बचाकर रख लेते तो मैं बहुत दुखी होकर मरता, क्योंकि मैं समझता कि एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है मेरे पास, जो यह जानता हो कि सत्य शास्त्रों में उपलब्ध नहीं हो सकता। तुमने किताब को आग में डाल दिया, इससे मैं प्रसन्न हूँ। कम-से-कम एक व्यक्ति मेरी बात को समझता है।
यह बात कि सत्य शास्त्रों में उपलब्ध नहीं हो सकता, कम-से-कम एक के अनुभव में है। और उसने कहा-यह भी स्मरण रखों कि अगर तुम उस किताब को आग में न डालते और मेरे मरने के बाद देखते तो बहुत हैरान हो जाते। उसमें कुछ लिखा हुआ भी नहीं था। कोरे कागज थे।
और मैं आपसे कहूंगा, आज तक धर्मग्रन्थों में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है, वेद सब कोरे कागज हैं। जो लोग उनमें कुछ पढ़ लेते हैं, वे गलती में पड़ जाते हैं। जो गीता में कुछ पढ़ लेगा या कुरान में कुछ पढ़ लेगा या बाइबिल में कुछ पढ़ लेगा, वह गलती में पड़ जायेंगा। स्मरण रखना, उन शास्त्रों में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। और जो आप पढ़ रहे हैं, वह आप अपने को पढ़ रहे हैं, उन शास्त्रों को नहीं।
और जिन सम्प्रदायें को आप खड़े कर लेते हैं और सत्य के जिन ग्रन्थों को आप निर्मित कर लेते हैं, वह क्राइस्ट के और कृष्ण के बनाये हुए नहीं हैं, बुद्ध और महावीर के बनाये हुए नहीं है। वह आपके निर्माण हैं। वह आपकी बुद्धि और आपके विचार से उत्पन्न हुए है। इन सारे पन्थों का निर्माण, इन सारे पन्थों का जन्म आपसे हुआ है। उनसे नही, जिन्होंने सत्य को जाना है, क्योंकि जो सत्य को जानता है, वह किसी सम्प्रदाय को जन्म कैसे दे सकता है? जो सत्य को जानता हे, वह मुनष्य के भीतर विभाजन की रेखाएं कैसे खड़ी कर सकता है? जिसने सत्य को जाना है, उसके लिए तो सारे भेद सारी दीवारें गिर जाती है। लेकिन सत्य के नाम पर खड़े हुए ये सम्प्रदाय तो दीवारों को और भेदों को खड़े किये हुए हैं। ये सारे भेद, मेरे और आपके द्वारा निर्मित किये हुए हैं
आज की संध्या मैं आपसे यह कहना चाहूँगा कि जो व्यक्ति सत्य की खोज करना चाहता हो- और ऐसा कोई भी व्यक्ति खोजना मुश्किल है जो किसी न किसी रूप में सत्य की खोज में न लगा हो- उसे इन सारे शास्त्रों को, इन सारे सम्प्रदायों को, इन सारे विचार के पन्थों को छोड़ देना होगा। इन्हें छोड़कर ही कोई सत्य के आकाश में गति कर सकता है। जो इनसे दबा है, इनके भार से दबा है, वह पर्वत पर नहीं चढ़ सकेगा। वह इतना भारी है कि उसका ऊपर उठना असम्भव है।
सत्य को पाने के लिए निर्भर होना अत्यन्त जरूरी है। जो लोग भारग्रस्त हैं, वे सत्य की ऊँचाइयो ंपर नहीं उड़ सकेंगे। उनके पंख टूट जायेंगे और नीचे गिर जायेंगे। यदि हम उत्सुक हैं और चाहते हैं कि सत्य का कोई अनुभव हो तो मैं आपसे कहूं कि जो व्यक्ति सत्य के अनुभव को उपलब्ध नही होगा, उसक ेजीवन में न तो संगीत होता है, न उसके जीवन में शान्ति होती है, न उसके जीवन में कोई आनन्द होता है।
ये इतने लोग दिखाई पड़ते हैं-अभी रास्ते से मैं आया और भी हजारों रास्तों से निकलना हुआ है लाखों लोगों के चेहरे दिखाई पड़ते हैं, पर कोई चेहरा ऐसा दिखाई नहीं पड़ता जिसके भीतर संगीत हो। कोई आँख ऐसी दिखाई नहीं पड़ती कि जिसके भीतर कोई शान्ति हो। कोई भाव ऐसा प्रदर्शित नहीं होता कि भीतर आलोक का और प्रकाश का अनुभव हुआ हो।
हम जीते हैं, लेकिन इस जीवन में कोई आनन्द, कोई शान्ति और कोई संगीत अनुभव नहीं होता। सारी दुनिया एक तरह की विसंगति से भर गयी है, सारी दुनिया के लोग ऐसी पीड़ा और सन्ताप से भर गये हैं कि उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा है-जो ज्यादा विचारशील हैं, उन्हें दिखाई पड़ता है-कि जीवन का तो कोई अर्थ नहीं है। इससे तो मर जाना बेहतर है। और बहुत-से लोगों ने पिछले पचास वर्षों में, बहुत से विचारशील लल्लागों ने आत्महत्याएं की हैं। वे लोग नासमझ नहीं थे, जिन्होंने अपने को समाप्त किया है।
आज जीवन की यह जो स्थिति है, आज जीवन की यह जो परिणति है, आज जीवन का जो दुख और पीड़ा है, इसे देखकर, कोई भी अपने को समाप्त कर लेना चहेगा। ऐसी स्थिति में, केवल नासमझ ही जी सकते हैं। ऐस पीड़ा और तनाव को, केवल अज्ञानी ही झेल सकते हैं। जिसे थोड़ा भी बोध हेगा, वह अपने को समाप्त कर लेना चाहेगा। इसका तो अर्थ यह हुआ कि जिनको बोध होगा, वे आत्महत्या कर लेंगे? लेकिन महावीर ने बुद्ध ने आत्महत्या नही की, और क्राइसट ने आत्महत्या नहीं की, कन्फ्यूशियस और लाओत्से ने आत्महत्या नहीं की। दुनिया में ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने आत्महत्या के अतिरिक्त एक और मार्ग सोचा और जाना।
मनुष्य के सामने दो ही विकल्प हैं-या तो आत्महत्या है या आत्मसाधना है। जो व्यक्ति इन दोनों में से कोई विकल्प नहीं चुनता, उसे जानना चाहिए कि वह एक व्यर्थ के बोझ को ढो रहा है। वह जीवन के अनुभव नहीं कर पायेगा। वह करीब-करीब मृत हे, उसे जीवित भी नहीं कहा जा सकता।
क्राइस्ट के जीवन का एक उल्लेख है-वह एक गांव से गुजर रहे थे और एक मछुए को उन्होंने मछलियां मारते देखा। वे उसके पीछे गये, उसके कंधे पर हाथ रखा और उस मछुए से कहा-तुम कब तक मछलियां मारने में जीवन गंवाते रहोंगे? मछलियां मारने के अलावा भी कुछ और है। और क्राइस्ट हमारे कन्धे पर भी हाथ रखकर यही पूछ रहे हैं कि कब तक तुम मछलियां मारते रहोंगे? उसने लौटकर देखा उनकी आँखों में और उसे प्रतीत हुआ कि जीवन में मछलियां मारने से भी ज्यादा कुछ है, जो पाया जा सकता हैं उनकी गवाह क्राइस्ट की आँखें थी। उसने कहा-मैं तैयार हूँ। जिस रास्ते पर आप ले चलना चाहें, मैं चलूंगा। क्राइस्ट ने कहा-मेरे पीछे आओ। उसने जाल को वहीं फैंक दिया और क्राइस्ट के पीछे गया। वह गांव के बाहर ही निकल पाया था कि किसी ने आकर खबर दी कि तुम्हारा पिता जो बीमार था, उसकी अभी-अभी मृत्यु हो गयी है। तुम घर लौट चलो। उसका अन्तिम संस्कार करके जहाँ भी जाना हो, चले जाना। उस मछुए ने क्राइस्ट से कहा-मैं जाऊं अपने पिता की अन्त्येष्टि कर आऊँ, फिर मैं लौट आऊंगा। क्राइस्ट ने एक बड़ी अद्भुत बात कही-"लेट दी डेड"-मुर्दों को मुर्दे दफनाने दो। तुम मेरे पीछे आओ। यह वचन बहुत अद्भुत है। उन्होंने यह कहा-मुर्दे को दफना लेंगे, तुम मेरे पीछे आओ।
हम सबकी गिनती उन्होंने मुर्दे में की और सारी जमीन पर बहुत कम लोग जीवित हैं, अधिक लोग मुर्दे ही है। तीन अरब लोग हैं अभी, इनमें अधिक लोग मुर्दे हैं, मुश्किल से कोई आदमी जीवित है। यह मैं क्यों कह रहा हूँ आपसे कि मुर्दे हें? हम तब तक मुर्दे ही हैं, हम मरे हुए ही लोग हैं जो किसी भांति जी रहे हैं और चल रहे हैं। हम लाशों की भाँति हैं, जो चल रही हैं। हम तब तक लाशों की भाँति होंगे, जब तक हमें वास्तविक जीवन का पता न चल जायेगा।
वह व्यक्ति जीवित कैसे हो सकता है जिसे जीवन के मूल स्रोत का कोई पता न हो? वह व्यक्ति जीवित कैसे कहा जा सकता है जिसे अपने भीतर, जो जीवन की धारा बह रही है, उसमें उसकी कोई प्रतिष्ठा न हो? वह व्यक्ति जीवित कैसे हो सकता है या कैसे जीवित कहा जा सकता है जिसे उस तत्त्व का कोई पता न हो जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती है? मेरे भीतर, आपके भीतर, सबके भीतर वह तत्त्व भी मौजूद है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती।
हमारे भीतर दोहरे प्रकार का व्यक्तिव है एक जो मर जायेगा, दूसरा जो शेष रहेगा। जो व्यक्ति अपनो को इतना ही मानते हों कि मरण पर उनकी समाप्ति हो जाती है, वे जीवित नहीं हो सकते हैं, वे जीवित नहीं कहे जा सकते। अपने भीतर उस जीवन को अनुभव करने के बाद ही कोई जीवित होता है जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती और ऐसे तत्त्व के अनुसन्धान का नाम ही सत्य की खोज है।
सत्य की खोज कोई बौद्धिक, तार्किक खोज नहीं है कि है हम कुछ विचार करें और गाणित करें। सत्य की खोज किन्ही शास्त्रों की खोज, किन्हीं विद्याओं के सीख लेने की बात नहीं है। सत्य की खोज अपने भीतर अमृत की खोज है। जो व्यक्ति अपने भीतर अमृत को उपलब्ध होता है। केवल वही सत्य को जानता है और जो व्यक्ति अमृत को उपलब्ध नहीं होता, उसके जीवन में सब असत्य है, सब झूठ है, उसके जीवन में कुछ भी सार्थक नहीं है।
हमारी दिशा, हमारे सोचने-विचारने की, हमारी साधना की, हामरे जीवन की दिशा, यदि अमृत की तलाश में संलग्न होती हो, अगर हम उस दिशा में थोड़े चलते हों, अगर हमारे कदम उस रास्ते पर थोड़े पड़ते हों और हमारे चरण उस मार्ग पर जाते हों तो जानना चाहिए कि हम जीवन की तरफ विकसित हो रहे है, अन्यथा हमारी प्रत्येक घड़ी हमारी मौत को करीब लाती है और हम मर रहे हैं।
मैं जिस दिन पैदा हुआ, उसी दिन से मरना शुरू हो गया हूँ। मैं रोज मरता जा रहा हूँ और अगर मैं जीवन के कुछ ऐसे सत्य को अनुभव न कर लूं, जो इस मरने की क्रिया के बीच स्थिर हो, जो इस मरने की क्रिया के बीच मर न रहा हो तो मेरे जीवन का क्या मूल्य हो सकता है? या मरे जीवन में कौन-सा अर्थ और कौन-सा आनन्द उपलब्ध हो सकता है?
जो लोग मृत्यु पर केन्द्रित हैं या जो लोग अपने भीतर केवल उसे जानते हैं जो मरणधर्मा हैं, वे आनन्द को अनुभव नहीं कर सकेंगे। आनन्द की अनुभूति, अमृत की अनुभूति की उत्पत्ति है आनन्द को जानकर ही कोइ्र अमृत को जानता है। इसलिए हमने अपने देश में या जिन लोगों ने कहीं की जमीन पर कभी जाना है, उन्होंने परमात्मा को आनन्द का स्वरूप माना है।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसको आप खोज लेंगे। परमात्मा आनन्द की चरम अनुभूति है। उस अनुभूति में आप कृतार्थ हो जाते हैं और सारे जगत के प्रति आपके मन में एक धन्यता का बोध हो जाता है। आप में कृतज्ञता पैदा होती है। उस कृतज्ञता को हीं मैं आस्तिकता कहता हूँ। ईश्वर को मानने को नहीं, वरन अपने एक ऐसे आनन्द को अनुभव करने को कि उस आनन्द को कारण आप सारे जगत के प्रति कृतज्ञ हो जायें।
वह जो कृतज्ञता का, वह जो ग्रेटीट्यूट का अनुभव है, वही और वही परम आस्तिकता है। ऐसी आस्तिकता की खोज जो मनुष्यता नहीं कर रहा है, वह अपने जीवन के अवसर को व्यर्थ खो रहा है। यह चिन्तनीय और विचारणीय है और यह हर मनुष्य के सामने एक प्रश्न की तरह खड़ा हो जाना चाहिए। यह असन्तोष, हर मनुष्य के भीतर पैदा हो जाना चाहिए कि वह खोजे और जीवन को गंवा न दें। लेकिन सारी दुनिया हम दो तरह के लोगों में बंट गयी है। एक तो वे लोग हैं जो मानते ही नहीं कि कोई आत्मा है, कोई परमात्मा है। दूसरे वे लोग हैं जो मानते हैं कि परमात्मा है और आत्मा हैं ऐसे दोनों प्रकार के लोगों ने खोजें बन्द कर दी हैं। एक वर्ग ने स्वीकार कर लिया है कि परमात्मा नहीं है, आत्मा नहीं है, इसलिए खोज कर लिया है कि परमात्मा नहीं है, आत्मा नहीं है, इसलिए खोज का कोई प्रश्न नहीं है। दूसरे वर्ग ने स्वीकार कर लिया है कि आत्मा है, परमात्मा है, इसलिए उनके लिए भी खोज का कोई कारण नहीं रह गया। आस्तिक और नास्तिक दोनों ने खोज बन्द कर दी हैं। विश्वासी भी खोज बन्द कर देता है।, अविश्वासी भी खोज बन्द कर देता हैं
खोज तो केवल वे लोग करते हैं जिनकी जिज्ञासा मुक्त होती है और जो किसी विश्वास से, किसी पन्थ से, किसी विचार की पद्धति से, किसी आस्तिकता से, किसी नास्तिकता से अपने को बांध नहीं लेते। वे लोग धन्य हैं जिनकी जिज्ञासा मुक्त हैं जिनका सन्देह मुक्त हो, जो सोच रहे हों और जिन्होंने दूसरों के विचार को स्वीकार न कर लिया हों।
मैं अभी एक गांव में अपने एक मित्र के साथ गया था। बहुत धूप थी। रास्ता बहुत गरम था। उनके जूते कहीं खो गये थे, कोई चुरा ले गया था। तो मैंने उनसे कहा दूसरी चप्पल पहन लें। वे बोले दूसरे की पहनी हुई चप्पल मैं कैसे पहनूं? मैंने उनसे कहा दूसरे के पहने हुए जूते कोई पहनना पसन्द नहीं करता, दूसरे के पहने हुए कपड़े पहनना कोई पसन्द नहीं करता, लेकिन दूसरों के अनुभव किये हुए विचार सारे लोग स्वीकार कर लेते हैं। दूसरों के उतारे कपड़े और दूसरों के बासी भोजन को कोई स्वीकार कर लिये हैं फिर चाहे वे विचार बुद्ध के हों, महावीर के हों, चाहे किसी के हों। या वे कितने ही पवित्र पुरुष कि विचार क्यों न हों, अगर वे दूसरों के अनुभव हैं और उनको हमने स्वीकार कर लिया है ता ेहम स्वयं सत्य को जानने से वंचित हो जायेंगे।
इस जगत में केवल वे ही लोग केवल वे स्त्य को अनुभव कर पाते हैं, जो किसी के विचार को स्वीकार नहीं करते। जो किसी के उधार-चिन्तन को अंगीकार नहीं करते और जो अपने मन के आकाश को, अपने मन के चिन्तन को मुक्त रख पाते हैं।
बहुत कठिन है अपने चिन्तन को मुक्त रख पाना। अगर आप अपने भीतर देखेंगे तो शायद ही एकाध विचार ऐसा मालूम होगा, जो आपका अपना हो। वे सब संगृहीत मालूम होंगे, वे सब दूसरों से लिया मालूम होंगे। और ऐसे विचारशक्ति जो दूसरों के लिए हुए विचारों में दब जाती है, सत्य के अनुसन्धन में असमर्थ हो जाती है। कोई व्यक्ति दूसरों के जितने ज्यादा विचार स्वीकार कर लेता है, उतनी उसकी विचारशक्ति नीचे दब जाती है। जो व्यक्ति, जितना दूसरों के विचार अस्वीकार कर देता है, उतनी उसके भीतर की विचारशक्ति जाग्रत होती है और प्रबृद्ध होती है। सत्य पाने के लिए स्मरणीय है कि किसी का विचार, कितना ही सत्य क्यों न प्रतीत हो, अंगीकार के योग्य नहीं है।
जो व्यक्ति इतना साहस करता है कि सारे विचारों को दूर हटा देता है, उसके भीतर जैसे कोई कुआं खोदे ओर सारी मिट्टी और पत्थरों को अलग कर दे तो नीचे से जल के स्रोत उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही कोई व्यक्ति अगर अपने भीतर से, सारे पराये विचारों को अलग कर दे, दूर हटा दे तो उसके भीतर विचारशक्ति का, विवेक का, प्रज्ञा का जन्म होता है। उसके भीतर जल-स्रोत उपलब्ध होते हैं। उसकी स्वयं की शक्ति जागती है और उस स्वयं की शक्ति के जागरण में ही सत्य के अनुभव की सम्भावना है।
एक दफा ऐसा हुआ कि बुद्ध के पास कुछ लोग एक अन्धे को लेकर गये। उन्होंने कहा इस अन्धे आदमी को हम बहुत समझाते हैं कि प्रकाश है, लेकिन यह मानने को राजी नहीं होता। बुद्ध ने कहा धन्य है यह अन्धा आदमी! इसकी सम्भावना है कि यह कभी आंख की खोज ले। लोगों ने कहा यह आप क्या कहते हैं! हम इसे समझाते हैं हजार तरह से कि प्रकाश है, लेकिन यह मानने को राजी नहीं होता। बुद्ध ने कहा धन्य है यह अन्धा आदमी! इसकी सम्भावना है कि यह कभी प्रकाश को खोज ले। अगर इसने प्रकाश को मान लिया, दूसरों की आंखों के अनुभव को मान लिया तो इसकी अपनी आंख की खोज बन्द हो जायेगी। बुद्ध से उन्होंने कहा कि आप इसे समझाएं कि प्रकाश है। बुद्ध ने कहा यह पाप मैं नहीं करूंगा मैं इसे यह नहीं समझा सकता कि प्रकाश है। मैं इसे यह जरूर बता सकता हूँ कि आंखें खोलने का उपाय है। बुद्ध ने कहा मेरे पास इसे मत लाओ। किसी विचारक की इसे जरूरत नहीं है, इसे किसी वैद्य के पास ले जाओ और इसे कोई विचार मत दो, कोई उपदेश मत दो। इसे उपचार की जरूरत है, इसे चिकित्सा की जरूरत है। वह अन्धा एक वैद्य के पास ले जाया गया। भाग्य की बात, कुछ ही महीनों के इलाज से उसकी आंखें ठीक हो गयी। वह नाचता हुआ आया और बुद्ध के पैरों पर गिर पड़ा। उसने कहा प्रकाश है, क्योंकि मेरे पास आंख है। आंख ही प्रकाश का प्रमाण है और कोई भी प्रमाण नहीं है। और जो दूसरे की आंखों पर निर्भर हो जायेंगे, उनकी सम्भावना बन्द हो जायेगी कि वे स्वयं की आंखों की उपलब्ध हो सकें।
इस समय जमीन पर सत्य की शोध बन्द है। उसका कारण यह नहीं है। कि लोग सत्य के विपरीत चले गये हैं। उसका कारण यह है कि लोग शास्त्रों के बहुत पीछे चले गये हैं। उसका कारण यह नहीं है कि सत्य की दिशा में उनकी प्यास समाप्त हो गयी है, बल्कि इसका कारण यह है कि वे यह भूल गये हैं कि दूसरों के बहुत ज्यादा विचारों का बोझ उनकी स्वयं की विवेक की ऊर्जा को पैदा नहीं होने देता है। उनकी स्वयं की अन्तर्शक्ति जाग नहीं पाती हैं
सत्य की खोज में जो लोग उत्सुक हैं, उनके लिए पहली बात होगी कि वे सारे पराये विचारों को अस्वीकार कर दें। वे इनकार कर दें। खाली और शून्य होना बेहतर हैं, बजाय दूसरों के उधार विचारों से भरे होने के। नग्न होना बेहतर हैं, बजाय दूसरों के वस्त्र पहन लेने के। अन्धा होना बेहतर है, बजाय दूसरों की आंखों से देखने के। यह सम्भावना पहली बात हैं इस भांति व्यक्ति की जिज्ञासा मुक्त होती है और विचारशक्ति जागती है।
विचारशक्ति का जागरण, पहली शर्त तो यह मानना है और दूसरी एक बात बहुत जरूरी है जो कि विचारशील लोगों को समझनी चाहिए। वह यह है कि विचार की शक्ति बड़ी अद्भुत है और वह बड़े विपरीत मापदण्डों से, बड़ी विपरीत परिस्थितियों में पैदा होती है।
साधारणतः लोग सोचते हैं। कि आदमी जितना विचार करेगा, उतनी ज्यादा चिर की शक्ति जाग्रत होगी, लेकिन यह गलत है। जो आदमी जितना निर्विचार होने की साधना करेगा, उतनी उसकी विचार की शक्ति जाग्रत होगी, विचार आप क्या करेंगे? जब भी आप विचार करेंगे, तब आप दूसरों के विचारों को दोहराते रहेंगे। जब भी आप विचार करेंगे, तब आपकी स्मृति, आपकी मेमोरी उपयोग में आती रहेगी।
अधिकतर लोग समृति को ही जान समझ लेते हैं, स्मृति को ही विचार समझ लेते हैं। जब आप सोचते हैं, तब आपके भीतर गीता बोलने लगती है, महावीर और बुद्ध बोलने लगते हैं। जब आप सोचते हैं तो आपका धर्म, आपकी शिक्षाएं, जो आपको सिखायी गयी हैं, आपके भीतर बोलने लगती हैं। तब सचेत हो जाना चाहिए। ये विचार नहीं हैं। यह बिल्कुल यान्त्रिक स्मृति है। यह बिल्कुल मेकैनिकल मेमोरी है जो भर दी गयी है और बोलना शुरू कर रही है। इसको जो विचार समझ लेगा, है। जो भर दी गयी है और गलती में पड़ जायेगा। जो इसका अनुसन्धान करेगा, वह विचार से विचार में भटकता रहेगा और समाप्त हो जायेगा। उसे सत्य का कोई अनुभव नहीं होगा।
फिर विचार के लिए क्या करना होगा विचार की शक्ति को जिसे जगाना है, उसे विचार करना छोड़ना होगा। उसे निर्विचार में ठहरना होगा।
हम इस निर्विचारण की स्थिति को अपने देश में समाधि कहते हैं। जो निर्विचार में ठहर जाता है, जो थोटलेसनेस में जहां कोई विचार नहीं है, ऐसी निष्क्रम अवस्था में ठहर जाता है जैसे किसी भवन में कोई दीया जलता हो और कोई दीया जलता हो और कोई हवाएं न आती हों और दीये की बाती बिल्कुल ठहर जाये, ऐसे ही जब कोई व्यक्ति अपनी चेतना को, अपनी कांशसनेको, अपनी अवेयरनेस को, अपने होश को ठहरा लेता है और उसमें कोई कम्प नहीं आते उस निर्विचार, निष्कम्प क्षण में उसके भीतर विचार की चरम शक्ति का जागरण होता है। और जब जो देखता है, उसे आंखें मिलती हैं। समाधि से आंखें मिलती हैं और व्यक्ति सत्य को दख पाता है। सत्य सोचा नहीं जाता, देखा जाता है।
पश्चिम में जिसे फिलासफी कहा जाता है, भारत में हम उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन फिलासफी पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। जो लोग समझते हैं कि फिलासफी और दर्शन एक ही बात है, उनका जानना बिल्कुल गलत है। दर्शन का चिन्तन से कोई सम्बन्ध नहीं है, दर्शन का सम्बन्ध तो अचिन्त्य हो जाने से है। दर्शन का सम्बन्ध समाधि से है, तर्क से नहीं है, विचार से नहीं है। निर्विचार हो जाने से है और पश्चिम की फिलासफी का सम्बन्ध चिन्तन से है, विचार से है। पश्चिम की फिलासफी विचार है, भारत का दर्शन निर्विचार होना है।
हमने अपने मुल्क में एक अद्भुत बात साधी और एक बहुत अद्भुत प्रयोग किया। हमने यह प्रयोग किया। हमने यह प्रयोग किया कि अगर मनुष्य का सारा चिन्तन बन्द हो जाये तो क्या होगा? जब मनुष्य के सारे विचार बन्द हो जायेंगे तो क्या होगा? जब मनुष्य कुछ भी नहीं सोच रहा होगा, तब क्या होगा? यह बड़ी अद्भुत बात है। जब आप कुछ भी नहीं सोच रहे हैं, तब आपको दिखाई पड़ना शुरू होता है। जब चिन्तन बन्द होता है तो दर्शन उपलब्ध होता है। जब विचार की लहरें बन्द होती हैं। तो आंखें इतनी स्वच्छ होती है। कि वह देख पाती हैं। जब विचार चलते रहते हैं तो देखना मुश्किल हो जाता है। हम विचार से इतने भरे हैं कि करीब-करीब अन्धे हैं, हमको कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
मेरे एक मित्र सारी दुनिया का चक्कर लगाकर लौटे। उन्होंने बहुत झीलें देखी, बहुत प्रपात देखे। फिर वे मेरे गांव में आये। मैंने उनसे कहा कि गांव के पास भी प्रपात है, वह मैं दिखाने ले चलूं? वे बोले मैंने बहुत बड़े बड़े प्रपात देखे हैं, इसको देखने से क्या होगा? मैंने कहा अगर उन प्रपातों का विचार आप छोड़ दें तो यह प्रपात भी देखने में अद्भुत है। अगर उन प्रपातों का विचार आप छोड़ दें और वह आपकी आंख में तैरते न रहें तो आपको यह प्रपात भी दिखाई पड़ेगा। और यह बहुत अद्भुत है।
वे मेरे साथ गये, दो घण्टे हम उस प्रपात पर थे, लेकिन उन्होंने एक क्षण भी उस प्रपात को नहीं देखा। वह मुझे बताते रहे, अमेरीका में कोई प्रपात कैसा है, स्विटजरलैण्ड में कोई प्रपात कैसा है उन्होने कहां-कहां प्रपात देखे, इसकी चर्चा करते रहे। दो घण्टे के बाज जब हम वापस लौटे तो वह मुझसे बोले बड़ा सुन्दर प्रपात था।
मैंने कहा यह बिल्कुल झूठ कह रहे हैं। इस प्रपात को आपने देखा नहीं। यह प्रपात आपको दिखाई नहीं पड़ा। और मुझे अनुभव हुआ कि मैं एक अन्धे आदमी को लेकर आ गया हूँ।
वह बोले- मतलब?
मैंने कहा आप उन प्रपातों के विचार से इतने भरे थे, आपकी आंखें इतनी बोझिल थीं, आपकी चित्त इतना कम्पित था, आपके भीतर इतनी स्मृतियां घूम रही थीं कि उन सबके पार प्रपात को देखना असम्भव था। इस प्रपात को दखने की जरूरत अगर अनुभव होती तो उन सारी स्मृतियों को, उन सारे विचारों को, उन सारे ख्यालों को छोड़ देने की जरूरत थी। जब वे छूट जाते तो वह स्थान मिलता, खाली और स्वच्छ, जहां से इसके दर्शन हो सकते थे।
केवल वे ही लोग जगत में दर्शन को उपलब्ध होते हैं जो निर्विचार देखना सीख जाते हैं।
जिनमें देखने की एक ऐसी क्षमता पैदा होती है जो विचार में नहीं, निर्विचार में है और तब ऐसे लोगों ने ही यही कहा है कि सारा जगत परमात्मा से आच्छन्न है। ऐसे लोगों ने जब दरख्तों को देखा होगा, जिनकी आंखें स्वच्छ और निर्मल हैं और जिनके चित्त विचार से ग्रस्त नहीं हैं तो दरख्त ही दिखाई नहीं पड़ता, दरख्त के भीतर जो प्राणा की सत्ता है, वह अनुभव में आ जाती है। और जब वे आपको देखेंगे तो आपकी देह दिखाई नहीं पड़ती, बल्कि देह के पीछे जो आत्मा छिपी है, वह भी दिखाई पड़ जाती है।
जिनकी आंखें निर्मल है, और स्वच्छ हैं और जिनके चित्त निर्विचार हैं और शान्त हैं, उन्हें इस जगत के कण-कण में परमात्मा का अनुभव होना शुरू हो जाता है। जितनी गहरी दृष्टि उनकी होती जाती है, जितनी स्वच्छ और निर्मल, उतना ही यह जगत मिटता चला जाता है और परमात्मा का अनुभव शुरू हो जाता है।
एक घड़ी आती है जब इस जगत में जगत नहीं रह जाता, केवल ईश्वर रह जाता है। वह घड़ी आनन्द की घड़ी है, वह घड़ी परमधन्यता की घड़ी है। उस घड़ी के बाद आपके भीतर संगीत शुरू होता है। उसके बाद फिर आप भीखमंगे नहीं रह जाते, सम्राट हो जाते हैं। दरिद्र नहीं रह जाते। दुख और पीड़ाएं आपकी गिर जाती हैं और भीतर अत्यन्त वैभव की उपलिब्ध होती है। उसे हम स्वर्ग कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, उसे हम जो भी नाम देना पसन्द करें, दे सकते हैं। मात्र इतनी ही घटना घटती है कि आपको अपने भीतर सच्चिदानन्द का अनुभव होने लगता हे।
यह अनुभूति यदि मनुष्य को न हो जाये और ऐसी सभ्यता और संस्कृत को इस अनुभूति की तरफ न ले जाती हो, वह झूठी है, वह मनुष्य-विरोधी है, वह घातक है, वह विषाक्त हैं और उसका जितनी जल्दी अन्त हो जाये, उतना ही बेहतर है। हमने अपने ही हाथों एक ऐसी सभ्यता और संस्कृति को धीरे-धीरे जन्म दिया है, जो हमें इस अनुभूति तक ले जाने में बाधा बन रही है। उस अनुभूति तक ले जाने में सहयोगी नहीं रह गयी। वह अनुभूति जिस संस्कृति से पैदा हो, वही संस्कृति मानवीय हो सकती है। वही संस्कृति मनुष्य के हित में हो सकती है। वही संस्कृति कल्याणकारी और मंगलदायी हो सकती है।
मैंने ये थोड़ी-सी बातें आपसे कहीं। ये थोड़ी-सी बातें, मैंने इस आशा से कहीं है। कि आप चाहें तो अपने माध्यम से, उस संस्कृति को जन्म देने में सहयोगी हो सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य सहयोगी हो सकता है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य एक घटक है सारे समाज का, सारी मनुष्यता का। जब मैं अपने को बनाता और बिगाड़ता हूँ तो मैं साथ ही सारी मनुष्यता को बना और बिगाड़ रहा हूँ। जब मैं अपने भीतर शान्ति के आधार रखता हूँ तो मैं सारी मनुष्यता के लिए शन्ति का मार्ग खोल रहा हूँ और जब मैं अपने भीतर अशान्ति और विषाद के बीज बोता हूँ तो मैं सारी मनुष्यता के लिए वहीं कर रहा हूँ जो मैं अपने साथ कर रहा हूँ, वह मैं अनजाने में सारी मनुष्य-जाति के साथ कर रहा हूँ, यह स्मरण होना जरूरी है, क्योंकि हम सारे लोग घटक हैं, इकाइयां हैं और हम बनाते हैं विश्व को। हम अपने को निर्मित करके सारे जगत को बनाते हैं।
आज दुनिया जो इतने युद्ध, इतनी हिंसा, इतनी घृणा, इतने वैमनस्य से भरी हुई है इसके लिए कौन जिम्मेदार है? इसके लिए वे जिम्मेदार हैं, जिन्होंने परमात्मा का अनुसधान छोड़ दिया है, अन्तरात्मा का अनुसन्धान छोड़ दिया है, क्योंकि मेरा मानना यह है और मैं समझता हूँ, यह बात आपकी समझ में आ सकेगी कि जो व्यक्ति अपने भीतर आनन्द से भरा हुआ नहीं होता, वह व्यक्ति दूसरों को दुख देने में आननद लेने लगता है।
यह दुनिया इतनी दुखी है, क्योंकि इतने दुखी लोग हैं, आनन्द शून्य और आनन्दरहित कि उनका एक ही आनन्द रह गया है कि वह दूसरों को पीड़ित करें, परेशान करें, दुखी करें। जब वे दूसरों को दुखी देखते हैं तो उन्हें अपने सुखी होना का थोड़ा-सा भ्रम पैदा होता है। और अगर ऐसा होता रहा तो युद्ध बढ़तें जायेंगे, हमारे हाथ एक-दूसरे के गले पर कसते जायेंगे और हमारे हृदय कठोर और पत्थर होते जायेंगे। इसका अन्तिम परिणाम शायद यह हो कि हम सारे मनुष्यों को समाप्त कर डालें। हम उसकी तैयारी में है।
पिछले दो महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हमने हत्या की है। और कोई आदमी मुझे दिखाई नहीं पड़ता। जिसको यह ख्याल हो कि इन दस करोड़ लोगों की हत्याओं में हमारा हाथ है। और अभी हम तैयारी कर रहे हैं तो बड़ी हत्या की। शायद सामूहिक आत्मघात, एक यूनिवर्सल सुसाइड की तैयारी में हम लगे हैं।
यह कोई राजनीतिक वजह नहीं है। इसके पीछे और कोई आर्थिक वजह है। इसके पीछे बुनियादी वजह आध्यात्मिक है। जो लोग अन्तर में आनन्द को अनुभव नहीं करेंगे, उनका अन्तिम परिणाम दूसरों को दुख देना, दूसरों की मृत्यु में आनन्द लेना होगा। व अन्तत : युद्ध में सुख लेंगे।
यह शायद आपको पता न हो, पिछले दो महायुद्धों के समय में एक अद्भुत बात सारे यूरोप में अनुभव हुई और वह यह थी कि जब युद्ध चलते थे तो लोगों ने आत्मघात बिल्कुल नहीं किये। जब युद्ध चलते थे तो लोगों ने हत्यांए बहुत कम कीं, डाकेजनी और चोरी कम हो गयी। मनोवैज्ञानिक हैरान हुए कि यह क्या वजह है? युद्ध चलता है तो लोग आत्महत्या क्यों नहीं करते? युद्ध चलता है तो लोग एक-दूसरे की हत्या क्यों नहीं करते, डाकेजनी और चोरियां और अनाचार कम क्यों हो जाता है? तो पता चला, युद्ध में इतनी हिंसा होती है कि उन सारे लोगों को काफी आनन्द मिल जाता है, दूसरी हिंसा करने की जरूरत उन्हें नहीं रह जाती।
जो लोग दुखी होंगे, वे दुख का संसार निर्मित करेंगे, क्योंकि यह कैसे सम्भव है कि जो मेरे भीतर हो, उसके अलावा मैं कुछ निर्मित कर सकूं? आज दुनिया में अगर घृणा दिखाई पड़ती है, वैमनस्य दिखाई पड़ता है तो यह कोई ऊपरी बातें नहीं हैं, ये केवल लक्षण हैं कि भीतर आनन्द नहीं हैं। अगर भीतर आनन्द हो तो आनन्दित आदमी के जीवन में एक घटना घटती है कि जो व्यक्ति जितने आनन्द से भरता जाता है, उतना ही वह दूसरों को आनन्दित करने की प्रेरणा से भी भर जाता है। आनन्दित व्यक्ति किसी को दुखी नहीं कर सकता। आनन्दित व्यक्ति के लिए असम्भव है कि वह दूसरे को पीड़ा दे और उसमें सुख माने। उसका तो सारा जीवन आनन्द को बांटना बन जाता है।
ब्लावट्स्को ने सारी दुनिया की यात्रा की। वह भारत में थी, और दूसरे मुल्कों में थी। लोग हमेशा देखकर हैरान हुए, वह एक झोला अपने साथ रखती थी और जब गाड़ियों में बैठती तो उसमें से कुछ निकालकर बाहर फेंकती रहती। लोग उससे पूछते कि यह क्या है? वह कहती कि कुछ फूलों के बीज हैं। अभी वर्षा आयेगी, फूल खिलेंगे, पौधे निकल आयेंगे।
लोगों ने कहा लेकिन तुम इस रास्ते पर दोबारा निकलोगी, इसका तो कुछ पता नहीं। उसने कहा इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फूल खिलेंगे, कोई उन फूलों को देखकर आनन्दित होगा, यह मेरे लिए काफी आनन्दित है।
उसने कहा जीवनभर बस एक ही कोशिश की, जब से मुझे फूल मिले हैं, तब स फूल सबको बांट दूं, बस यही चेष्टा रही है। और जिस व्यक्ति को भी फूल मिल जायेंगे, यह उनकी बांटने के लिए उत्सुक हो जायेगा।
आखिर बुद्ध या महावीर क्या बांट रहे हैं? जितने वर्ष तक बुद्ध जीवित रहे क्या बांटते रहे? किस चीज को बांटने के लिए भाग रहे हैं और दौड़ रहे हैं? कोई आनन्द उपलब्ध हुआ है, उसे बांटना जरूरी है। साधारण आदमी, दुखी आदमी, सुख को पाने के लिए दौड़ता है और जो व्यक्ति प्रभु को अनुभव करता है, वह सुख को बांटने के लिए दौड़ने लगता है। साधारण आदमी, सुख को पाने के लिए दौड़ता है और जो व्यक्ति प्रभु को अनुभव करता है वह सुख को बांटने के लिए दौड़ने लगता है।
एक की दौड़ का केन्द्र वासना होती है, दूसरे की दौड़ का केन्द्र करुणा हो जाती है। आनन्द करुणा को उत्पन्न करता है और जितना आनन्द भीतर फलित होता है, उतनी आनन्द की सुर्गध चारों तरफ फैलने लगती है। आनन्द की सुगन्ध का नाम प्रेम है। जो व्यक्ति भीतर आनन्दित होता है, उसका सारा आचरण प्रेम से भर जाता है। व्यक्ति अन्तर में आननद को उपलब्ध हो तो आचरण में प्रेम प्रकट होने लगता है। आनन्द का दीया जलता है तो प्रेम की किरणें सारे जगत में फैलने लगती हैं। और यदि दुख का दीया भीतर हो तो सारे जगत में अन्धकार फैलता है वह घृणा का हो, वैमनस्य का हो।
यह संस्कृति यह सभ्यता जिसमें हम भी जी रहे हैं, अत्यन्त जराजीर्ण है और मृत्यु के कगार पर खड़ी है। जिनको थोड़ा भी होश है, वह इस पर विचार करेंगे। अगर वे विचार करेंगे तो मेरी बातों में उन्हें कोई सार्थकता दिखाई पड़ सकती है। तब उनके सामने एक ही कर्त्तव्य होगा, एक ही कर्त्तव्य, वह मनुष्य-जाति के बदलने का नहीं, स्वयं को बदलने और परिवर्तित करने का। उनके सामने एक ही कर्त्तव्य होगा कि वह अपने भीतर दुख को विलीन कर दें, विसर्जित कर दें और आनन्द को उपलब्ध हो जायें।
मैंने बताया है, कैसे वह आनन्द को उपलब्ध हो सकेंगे? यदि वे निर्विचारणा को साधते हैं तो उन्हें दर्शन उपलब्ध होगा, तब यह जगत उन्हें पदार्थ दिखाई नहीं पड़ेगा, प्रभु दिखाई पड़ने लगे, और यह सारा जगत प्रभु से आन्दोलित दिखाई पड़ने लगे, अगर यहाँ मुझे सारे लोगो के भीतर परमात्मा का अनुभव होने लगे तो मेरे जीवन का आनन्द उसकी क्या सीमा रह जायेगी? क्योंकि जब किसी व्यक्ति को, किसी दूसरे व्यक्ति में परमात्मा का अनुभव होता है और जब किसी व्यक्ति को स्वयं में परमात्मा का अनुभव होता है तो सारे जगत्-सत्ता से एक हो जाता है। उसके प्राण सार जगत्-सत्ता में मिल जाते हैं। वह सारी जगत्-सत्ता से संगीत का एक स्वर हो जाता है। और तब उसका जीवन, उसी चर्या, उसका उठना-बैठना, उसका सोचना-विचारना, तब उसके समस्त जीवन उपक्रम आनन्द को बांटने लगते हैं, विस्तीर्ण करने लगते हैं।
सत्य की खोज कोई बौद्धिक जिज्ञासामात्र नहीं है, बल्कि प्रत्येक मनुष्य के प्राणों की प्यास है। जो व्यक्ति इस प्यास को अनुभव नहीं कर रहा है या इस प्यास की उपेक्षा कर रहा है, वह अपनी मनुष्यता का अपमान कर रहा है। वह अपनी सबसे गहरी प्यास को, सबसे गहरी भूख का अधूरी छोड़ रहा है। इसके दुष्परिणाम उसे भोगने पड़ेंगे। हम सारे लोग, अन्तरात्मा की जो प्यास है, उसकी उपेक्षा करने का दुष्परिणाम भोग रहे हैं। यह दुष्परिणाम मिट सकता है थोड़े विवेक के जागरण से, थोड़े विवेक के अनुकूल जीवन की साधना को उपलब्ध होने से, थोड़ा विवेक के अनुकूल और प्रकाश के अनुकूल अपने को व्यवस्थित करने से, इस तरह दुर्भाग्य विलीन हो सकता है।
ये थोड़ी-सी बातें मैंने कही हैं। इस आशा में नहीं कि मैं जो कहूं, वह आप मान लें, क्योंकि मैं आपका शत्रु नहीं हूँ कि कुछ विचार आपके मस्तिष्क में डाल दूं। इस आशा में ये बातें नहीं कही हैं। इन बातों को आप देखेंगे, मान नहीं लेंगे। इन बातों के प्रति जाग्रत होंगे, इन्हें स्वीकार नहीं कर लेंगे। इन बातों की सच्चाई अगर आपको अनुभव हो तो उसे अनुभव करेंगे, लेकिन इन विचारों को अपने भीतर नहीं रखेंगे कोई विचार कितना ही मूल्यान हो, फेंक देने जैसा है। हां, उसमें जो अन्तर्दृष्टि है, अगर वह आपके भीतर जग जाये तो काम हो गया। तो मैंने यह जो थोड़ी-सी बातें कहीं हैं, उनकी सच्चाई अगर आपको अनुभव हो तो यह आपके काम की हो जायेगी और अगर ये विचार आपके भीतर बैठ गये तो मैं आपका बोझ और बढ़ाने में सहयोगी हूं और वह बोझ वैसे ही बहुत काफी है। वह बोझ बहुत ज्यादा है और उस बोझ से आप इतने दबे हैं कि अब उस बोझ को बढ़ाने की और कोई जरूरत नहीं है।
दुनिया को अब किसी पैगम्बर की, किसी तीर्थंकर की, किसी अवतार की कोई जरूरत नहीं है। वे काफी हैं। दुनिया को किसी नये शास्त्र की, नये सम्प्रदाय की, नये धर्म की जरूरत नहीं है। वे जरूरत से ज्यादा हैं। उनका बोझ बहुत है। अब दुनिया में जरूरत इस बात की है। कि आपके बोझ को उतारने का कोई विचार हो सके। आपको निर्मुक्त और निर्बन्ध करने का कोई विचार हो सके। आपकी यात्रा चित्त को सरल और सहज बनाने का कोई उपाय हो सके। उस सम्बन्ध में ये थोड़ी-सी बातें मैंने कहीं।
हो सकता है कोई बात आपके भीतर अन्तर्दृष्टि बन जाये। और अन्तर्दृष्टि बन जाये तो वह फिर आपकी हो जाती है, मेरी नहीं रह जाती। किसी और की नहीं रह जाती। ऐसी अन्तर्दृष्टि की कामना करता हूँ, ऐसे विचार की, ऐसी साधना की। मनुष्य के इस दुर्भाग्य को दूर करने की आत्मधारणा पैदा हो, आप में ख्याल पैदा हो, आपमें ख्याल पैदा हो कि मनुष्य का यह दुर्भाग्य दूर हो सके। यह सामूहिक आत्मघात की जो तैयारी चलती है, हिंसा और घृणा का यह जो विकास चलता है, वे प्रेम में परिवर्तित हो सके।
लेकिन यह प्रेम, कोई जबरदस्ती आपरोपित नहीं हो सकता कि आप सोचे कि हम प्रेम करें या किसी से हम कहें कि तुम प्रेम करो तो उसका क्या मतलब होगा? और इस भांति जो कोई प्रेम करेगा, वह प्रेम तो झूठा होगा, उसमें कोई सच्चाई नहीं हो सकती। प्रेम किया नहीं जा सकता और जबरदस्ती उसे रोका नहीं जा सकता। प्रेम तो तब उपलब्ध होगा जब आप आनन्द को उपलब्ध होंगे, जब आपके भीतर आनन्द होगा, आपके बाहर प्रेम होगा। आनन्द के फूल लगेंगे तो प्रेम की सुगन्ध आपसे फैलनी शुरू हो जायेगी, वही सुगन्ध धार्मिक आदमी का लक्षण है। भीतर आनन्द हो, बाहर जीवन में सुगन्ध हो, प्रेम की सुगन्ध हो।
ईश्वर करे आपके भीतर आनन्द उपलब्ध हो और बाहर प्रेम उपलब्ध हो जाये। उससे हम जगत को और स्वयं को बदलने में और एक नयी मनुष्यता को जन्म देने से समर्थ और सफल हो सकते हैं। मेरी इन बातों को आपने प्रेम से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अन्त में अपने भीतर बैठे हुए परमात्मा के लिए मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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